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________________ अध्ययन २ : श्लोक १६-२३ (E) स्त्रीपरीषहः संग एष मनुष्याणां या लोके स्त्रियः। यस्यैताः परिज्ञाताः सुकरं तस्य श्रामण्यम्।। (८) स्त्री परीषह "लोक में जो स्त्रियां हैं, वे मनुष्यों के लिए संग हैंलेप हैं"२१-जो इस बात को जान लेता है, उसके लिए श्रामण्य सुकर है। "स्त्रियां ब्रह्मचारी के लिए दल-दल के समान हैं"-यह जानकार मेधावी मुनि उनसे अपने संयम-जीवन की घात न होने दे, किन्तु आत्मा की गवेषणा करता हुआ विचरण करे।२६ परीषह-प्रविभक्ति (E) इत्थीपरीसहे १६.संगो एस मणुस्साणं जाओ लोगंमि इत्थिओ। जस्स एया परिण्णाया सुकडं तस्स सामण्णं ।। १७.एवमादाय मेहावी पंकभूया उ इथिओ। नो ताहिं विणिहन्नेज्जा चरेज्जत्तगवेसए।। (E) चरियापरीसहे १८.एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए।। १६.असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गह। असंसत्तो गिहत्थेहिं अणिएओ परिव्वए।। (१०) निसीहियापरीसहे २०.सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्खमूले व एगओ। अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं।। २१.तत्थ से चिट्ठमाणस्स उवसग्गाभिधारए। संकाभीओ न गच्छेज्जा उठ्ठित्ता अन्नमासणं ।। (११) सेज्जापरीसहे २२.उच्चावयाहिं सेज्जाहिं तवस्सी भिक्खु थामवं । नाइवेलं विहन्नेज्जा पावदिट्ठी विहन्नई।। २३.पइरिक्कुवस्सयं लद्ध कल्लाणं अदु पावगं। किमेगरायं करिस्सइ एवं तत्थऽहियासए ।। एवमादाय मेधावी पंकभूताः स्त्रियः। नो ताभिर्विनिहन्यात् चरेदात्मगवेषकः।। (६) चर्यापरीषहः एक एव चरेद् लाढः अभिभूय परीषहान्। ग्रामे वा नगरे वापि निगमे वा राजधान्याम् ।। असन् चरेद् भिक्षुः नैव कुर्यात् परिग्रहम्। असंसक्तो गृहस्थैः अनिकेतः परिव्रजेत् ।। (E) चर्या परीषह संयम के लिए जीवन-निर्वाह करने वाला मुनि परीषहों को जीतकर गांव में या नगर में, निगम में या राजधानी में अकेला (राग-द्वेष रहित होकर) विचरण करे। मुनि एक स्थान पर आश्रम बनाकर न बैठे२० किन्तु विचरण करता रहे। गांव आदि के साथ ममत्व न करे, उनसे प्रतिबद्ध न हो। गृहस्थों से निर्लिप्त रहे। अनिकेत (गृह-मुक्त) रहता हुआ परिव्रजन करे।२ (१०) निषद्या परीषह राग-द्वेष रहित मुनि चपलताओं का वर्जन करता हुआ श्मशान, शून्यगृह अथवा वृक्ष के मूल में बैठे। दूसरों को त्रास न दे।५ (१०) निषीधिकापरीषहः श्मशाने शून्यागारे वा रूक्षमूले वा एककः। अकुक्कुचः निषीदेत् न च वित्रासेयत् परम् ।। तत्र तस्य तिष्ठतः उपसर्गा अभिधारयेयुः। शंकाभीतो न गच्छेत् उत्थायान्यदासनम्।। (E) शय्यापरीषहः वहां बैठे हुए उसे उपसर्ग प्राप्त हों तो वह यह चिन्तन करे- “ये मेरा क्या अनिष्ट करेंगे?" किन्तु अपकार की शंका से डर कर वहां से उठ दूसरे स्थान पर न जाए।६ (११) शय्या परीषह उच्चावचाभिः शय्याभिः तपस्वी भिक्षुः स्थामवान्। नातिवेलं विहन्येत पापदृष्टिविहन्यते।। प्रतिरिक्तामुपाश्रयं लब्ध्वा कल्याणं अथवा पापकम् । किमेकरात्रं करिष्यति एवं तत्राध्यासीत।। तपस्वी और प्राणवान् भिक्षु उत्कृष्ट या निकृष्ट उपाश्रय को पाकर मर्यादा का अतिक्रमण न करे (हर्ष या शोक न लाए)।८ जो पापदृष्टि होता है, वह विहत हो जाता है (हर्ष या शोक से आक्रान्त हो जाता है)। प्रतिरिक्त (एकान्त) उपाश्रय-भले फिर वह सुन्दर हो या असुन्दर-को पाकर “एक रात में क्या होना जाना है"- ऐया सोचकर रहे, जो भी सुख-दुःख हो उसे सहन करे।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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