SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि ३६ अध्ययन २ : श्लोक २४-३१ (१२) आक्रोश परीषह कोई मनुष्य भिक्षु को गाली दे तो वह उसके प्रति क्रोध २ न करे। क्रोध करने वाला भिक्षु बालकों (अज्ञानियों) के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु क्रोध न करे। मुनि परुष, दारुण और ग्राम-कंटक" (कर्ण-कंटक) भाषा को सुनकर मौन रहता हुआ उसकी उपेक्षा करे, उसे मन में न लाए। ६ (१३) वध परीषह पीटे जाने पर भी मुनि क्रोध न करे, मन में भी द्वेष न लाए। तितिक्षा को परम ८ जानकर मुनिधर्म का चिन्तन करे। संयत और दान्त श्रमण को कोई कहीं पीटे तो वह “आत्मा का नाश नहीं होता''--ऐसा चिन्तन करे, पर प्रतिशोध की भावना न लाए।५२ (१२) अक्कोसपरीसहे २४.अक्कोसेज्ज परो भिक्खु न तेसिं पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खू न संजले ।। २५.सोच्चाणं फरुसा भासा दारुणा गामकंटगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा न ताओ मणसीकरे ।। (१३) वधपरीसहे २६.हओ न संजले भिक्खू मणं पि न पओसए। तितिक्खं परमं नच्चा भिक्खुधम्म विचिंतए।। २७.समणं संजय दंतं हणेज्जा कोइ कत्थई। नत्थि जीवस्स नासु त्ति एवं पेहेज्ज संजए।। (१४) जायणापरीसहे २८.दुक्करं खलु भो! निच्चं अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं ।। २६.गोयरग्गपविट्ठस्स पाणी नो सुप्पसारए। सेओ अगारवासु त्ति इइ भिक्खू न चिंतए।। (१५) अलाभपरीसहे ३०.परेसु घासमेसेज्जा भोयणे परिणिट्ठिए। लद्धे पिंडे अलद्धे वा नाणुतप्पेज्ज संजए।। ३१.अज्जेवाहं न लब्मामि अवि लाभो सुए सिया। जो एवं पडिसंविक्खे अलाभो तं न तज्जए।। (१२) आक्रोशपरीषहः आक्रोशेत् परो भिक्षु न तस्मै प्रतिसंचलेत्। सदृशो भवति बालानां तस्माद् भिक्षुर्न संज्चलेत् ।। श्रुत्वा परुषाः भाषाः दारुणाः ग्रामकण्टकाः। तूष्णीक उपेक्षेत न ताः मनीकुर्यात् ।। (१३) वधपरीषहः हतो न संज्चले भिक्षुः मनो पि न प्रदोषयेत्। तितिक्षां परमां ज्ञात्वा भिक्षुधर्म विचिन्तयेत्।। श्रमणं संतयं दान्तं हन्यात् कोऽपि कुत्रचित्। नास्ति जीवस्य नाश इति एवं प्रेक्षेत संयतः।। (१४) याचनापरीषहः दुष्करं खलु भो! नित्यम् अनगारस्य भिक्षोः। सर्व तस्य याचितं भवति नास्ति किंचिदयाचितम्।। गोचराग्रप्रविष्टस्य पाणि: नो सुप्रसारकः। श्रेयानगारवास इति इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्।। (१५) अलाभपरीषहः परेषु घासमेषयेत् भोजने परिनिष्ठिते। लब्धे पिण्डे अलब्धे वा नानुतपेत् संयतः।। अद्यैवाहं न लभे अपि लाभः श्वः स्यात् य एवं प्रतिसंवीक्षते अलाभस्तं न तर्जयति।। (१४) याचना परीषह ओह! अनगार भिक्षु की यह चर्या कितनी कठिन है कि उसे जीवन भर सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता। गोचराग्र में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है।५५ अतः “गृहवास ही श्रेय है५६ - मुनि ऐसा चिन्तन न करे। (१५) अलाभ परीषह गृहस्थों के घर भोजन तैयार हो जाने पर मुनि उसकी एषणा करे। आहार थोड़ा मिलने या न मिलने पर संयमी मुनि अनुताप न करे। “आज मुझे भिक्षा नहीं मिली, परन्तु संभव है कल मिल जाय"-जो इस प्रकार सोचता है, उसे अलाभ नहीं सताता। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy