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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ६ : श्लोक १०-१३ टि० १६-२५
हो सकती है।
लगता है। १९. विविध (चित्ता)
२४. बाह्य-शरीर से भिन्न ऊर्ध्व-आत्मा है, इसे चित्रा' भाषा का विशेषण है। वह धातु, उपसर्ग, संधि, स्वीकार कर (बहिया उड्ढमादाय) तद्धित, काल, प्रत्यय, प्रकृति, लोप, आगम आदि भेदों से
बहिया–बाह्य । यह इन्द्रिय-जगत् का वाचक है। उडूढंविभिन्न शब्दों वाली', अथवा प्राकृत, संस्कृत आदि विभिन्न रूपों ऊध्वं । यह आत्म-जगत् का वाचक है। जो व्यक्ति इन्द्रिय-जगत् वाली होती है इसलिए उसे विचित्र कहा गया है।'
में जीता है, वह विषयों की आकांक्षा न करे, यह कभी संभव २०. विद्या का अनुशासन (विज्जाणुसासणं) नहीं है। क्योंकि इस जगत् में विषयों के आधार पर ही जीवन - इसका अर्थ है--मंत्र आदि का शिक्षण। डॉ० हरमन की ऊंचाई और नीचाई मापी जाती है। पर जो व्यक्ति जेकोबी ने इसका अर्थ-दार्शनिक शिक्षण किया है।
इन्द्रिय-जगत् से परे हटकर ऊर्ध्व-मोक्ष को अपना लक्ष्य २१. (श्लोक ११)
बनाकर चलता है, वह विषयों से विरक्त होता है, उनसे _ 'मन, वचन और काया से शरीर में आसक्त होते हैं। इसे आकर्षित नहीं होता। वह विषयों को भोगता है, पर उनसे स्पष्ट करते हुए नेमिचन्द्र ने कहा है-'हम सुन्दर और मोटे बंधता नहीं। शरीर वाले कैसे बनें'-मन से सतत यह चिन्तन करना, काया संसार का सारा व्यवहार पदार्थाश्रित है। जीवन पदार्थों पर से सदा रसायन आदि का उपयोग कर शरीर को बलिष्ट बनाने आधृत है। ऐसी स्थिति में उनको सर्वथा नकारना किसी के वश का प्रयत्न करना और वाणी से रसायन आदि से सम्बन्धित की बात नहीं है। परन्तु जो ऊर्ध्वलक्षी होता है वह पदार्थों को प्रश्न करते रहना आसक्ति है। देहासक्ति पदार्थासक्ति का मल काम में लेता हुआ भी उनसे अभिष्वंग नहीं करता और जो कारण है। जो देहासक्ति से बचता है वह पदार्थों के प्रति इन्द्रिय-चेतना के स्तर पर जीता है वह उनसे बंध जाता है। अनासक्त रह सकता है।
सूत्रकृतांग सूत्र का यह वाक्य 'माणसे खलु दुल्लहे' इसी २२. जन्म-मरण के लंबे मार्ग को (दीहमद्धाणं) बात का साक्ष्य है कि लक्ष्य की ऊर्ध्वता के कारण ही मनुष्य जन्म चूर्णिकार ने यहां एक श्लोक उद्धृत किया है
की दुर्लभता है, इसलिए इसकी रक्षा वांछनीय है। 'प्रपन्ना दीर्घ मध्वानमनादिकमनन्तकम्।
लोकायत मानते हैं कि 'ऊर्ध्व देहात् पुरुषो न विद्यते, देह स तु कर्मभिरापन्न: हिंसादेरुपचीयते॥'
एव आत्मा'-देह से ऊर्ध्व-परे कोई आत्मा नहीं है, देह ही २३. सब दिशाओं (सव्वदिसं)।
आत्मा है। इसका निरसन करते हुए सूत्रकार ने कहा है
'बहिया उड्ढं'-शरीर से परे भी आत्मा है। यह चूर्णि की दिशा शब्द के दो अर्थ किए जा सकते हैं-१. दृष्टिकोण,
व्याख्या है। वृत्ति के अनुसार 'बहिया उड्ढं' का अर्थ मोक्ष है। २. उत्पत्ति-स्थान। चूर्णि और वृत्ति में दिशा शब्द से समस्त
जो संसार से बहिर्भूत है और सबसे ऊर्ध्ववर्ती है, उसे 'बहिः भाव-दिशाओं का ग्रहण किया गया है। भाव-दिशा अठारह प्रकार
ऊर्ध्व' कहा जाता है। की है। जैसे-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, मूलबीज,
२५. किसी प्रकार की आकांक्षा न करे (नावकंखे कयाइ वि) स्कंधबीज, अग्रबीज, पर्वबीज, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नारक, देव, सम्मूर्च्छनज, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज,
व्यक्ति ऊर्ध्वलक्षी होकर, मोक्ष को अपना लक्ष बनाकर अन्तर-द्वीपज।
किसी भी स्थिति में, कहीं भी विषयों के प्रति आसक्त न हो। ज्ञानवाद और क्रियावाद की दृष्टि से विमर्श करें तो 'दिशा'
उपसर्ग और परीषहों से प्रताड़ित होने पर भी वह विषयाभिमुख का अर्थ दृष्टिकोण होना चाहिए। कोरा ज्ञानवादी अप्रमत्त नहीं हो रहा। सकता। अप्रमत्त होने के लिए ज्ञान और क्रिया-दोनों का यहां एक प्रश्न उभरता है कि यदि यह यथार्थ है तो फिर समन्वय आवश्यक है।
शरीर को धारण करना भी अयुक्त ही होगा, क्योंकि इसके प्रति प्रस्तुत प्रसंग में 'दिशा' का अर्थ दृष्टिकोण ही समीचीन भी आकांक्षा या आसक्ति होती है। शरीर भी आत्मा से बाह्य है।
१. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५३ :
चित्रानाम धातूपसर्गसंधितद्धितकालप्रत्ययप्रकृतिलोपापगमविशुद्ध्या। बृहद्वृत्ति, पत्र २६७ : 'चित्रा' प्राकृतसंस्कृतादिरूपा आर्यविषयं ज्ञानमेव मुक्त्यगंमित्यादिका वा। बृहवृत्ति, पत्र २६७ : विदन्त्यनया तत्त्वमिति विद्या-विचित्रमंत्रात्मिका
तस्या अनुशासनं—शिक्षणं विद्यानुशासनम् । ४. Sacred Books of the East, Vol. XLV, Uttaradhyayana, P. 26, ५. सुखबोधा, पत्र ११३, ११४ । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५४ ।
७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५४। (ख) बृहवृत्ति, पत्र २६८ :
पुढविजलजलणवाया मूला खंधग्गपोरबीया य। बितिचउपणिंदितिरिया य नारया देवसंघाया।। सम्मुच्छिम कम्माकम्मभूमिगणरातहतरद्दीवा।
भावदिसा दिस्सइ जं संसारी णियगमेयाहिं।। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५५ । ६. बृहदृत्ति, पत्र २६८।
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