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________________ उत्तरज्झयणाणि ४९४ अध्ययन २६ : सूत्र ३२-३६ टि० ४२-४८ (४) कन्दरा, (५) गिरि-गुहा, (६) श्मशान, (७) वन-प्रस्थ, की रही है। किन्तु साधना का अग्रिम लक्ष्य है-आत्म-निर्भरता। (८) अभ्यवकाश और (६) पलाल-पुज्ज। । मुनि प्रारम्भिक दशा में सामुदायिक-जीवन में रहे और दूसरों एकांत शयनासन करने वाले का मन आत्म-लीन हो का आलम्बन भी प्राप्त करे। फिर भी उसे इस बात की जाता है, इसलिए इसे 'संलीनता' भी कहा जाता है। बौद्ध-पिटकों विस्मृति नहीं होनी चाहिए कि उसका अग्रिम लक्ष्य स्वावलम्बन में एकांतवास के लिए 'प्रति-संलयन' शब्द भी प्रयुक्त होता है। है। स्थानांग में इस जीविका-सम्बन्धी स्वावलम्बन को 'सुख-शय्या' औपपातिक में विविक्त शयनासन के लिए 'प्रतिसंलीनता' का कहा है। उसका संकेत इस सूत्र में प्राप्त है। चार सुख-शय्याओं प्रयोग हुआ है। इस प्रकार प्राचीन-साहित्य में एकांत स्थान या में यह दूसरी सुख-शय्या है। उसका स्वरूप इस प्रकार हैकामोत्तेजक इन्द्रिय-विषयों से वर्जित स्थान के लिए कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर विविक्त-शयनासन-संलीनता, प्रतिसंलयन और प्रति-संलीनता- अपने लाभ से सन्तुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद ये शब्द प्रयुक्त होते रहते हैं। नहीं करता, स्पृहा नही करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा ४२. पौष्टिक आहार का वर्जन करने वाला (विवित्ताहारे) नहीं करता; वह दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता हुआ, घी, दूध, मक्खन आदि विकृतियां हैं। इनसे रहित स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा आहार विविक्त आहार है। तात्पर्यार्थ में यह पौष्टिक आहार नहीं करता हुआ, मन में समता को धारण करता हुआ धर्म का निषेध है। में स्थिर हो जाता है। ४३. एकांत में रत (एगंतरए) 'जकार' को 'गकार' वर्णादेश होने पर सम्भोज का - इसका अर्थ है-एकांत स्थान में रत रहने वाला। प्राकृत मसभाग शब्द निष्पन्न हाता है। प्राचीन परम्परा के अनुसार एकांत स्थान तीन माने जाते हैं. ४६. मोक्ष की सिद्धि के लिए (आययद्रिया) श्मशान, वृक्षमूल और निसीहिया-निषद्या। ये स्थान इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं—आयतार्थिका और ध्यान-स्वाध्याय के लिए बाधारहित होते थे। खारवेल के आत्मार्थिका। वृत्तिकार ने 'आयत' शब्द का अर्थ मोक्ष अथवा शिलालेख में भी 'निसीहिया' शब्द का प्रयोग है। उसने श्रमणों संयम किया है। आयतार्थिक का अर्थ है-मोक्षार्थी अथवा के लिए अनेक चैत्य और निसीहियाओं का निर्माण करवाया था। संयमार्थी । आत्मार्थी का अर्थ है--स्वावलम्बी अथवा स्वतन्त्र। वृत्तिकार ने 'एगंतरए' का अर्थ निश्चय से रत किया है। ४७. उपधि (वस्त्र आदि उपकरणों) के प्रत्याख्यान से तात्पर्यार्थ में इसे संयम का वाचक माना है। यह अर्थ (उवहिपच्चक्खाणेणं) प्रासंगिक नहीं लगता। मुनि के लिए वस्त्र आदि उपधि रखने का विधान किया ४४. (सूत्र ३३) गया है। किन्तु विकास-क्रम की दृष्टि से उपधि-परित्याग को प्रवृत्ति और निवृत्ति-ये दो सापेक्ष शब्द हैं। प्रवर्तन का अधिक महत्त्व दिया गया है। उपधि रखने में दो बाधाओं की अर्थ है 'करना' और निवर्तन का अर्थ है 'करने से दूर होना। संभावना है—(१) परिमंथ और (२) संक्लेश। उपधि-प्रत्याख्यान से जो नहीं करता-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति नहीं ये दोनों सम्भावनाएं समाप्त हो जाती हैं। परिमंथ-उपधि की करता, वही व्यक्ति पाप-कर्म नहीं करने के लिए तत्पर होता प्रतिलेखना से जो स्वाध्याय-ध्यान की हानि होती है, वह उपधि है। जहां पाप-कर्म का कारण नहीं होता, वहां पूर्व-अर्जित कर्म के परित्याग से समाप्त हो जाती है। संक्लेश-जो उपधि का स्वयं क्षीण हो जाते हैं। बन्धन आश्रव के साथ ही टिकता है। प्रत्याख्यान करता है उसके मन में 'मेरा वस्त्र पुराना हो गया है, संवर होते ही वह टूट जाता है। इसीलिए पूर्ण संवर और पूर्ण फट गया है, सूई मांग कर लाऊं, उसे सांधू'-ऐसा कोई संक्लेश निर्जरा ये दोनों सहवर्ती होते हैं। नहीं होता। असंक्लेश का यह रूप आचारांग में प्रतिपादित ४५. सम्भोज-प्रत्याख्यान (मण्डली-भोजन) का त्याग है।' मूलाराधना में इसे 'परिकर्म-वर्जन' कहा गया है।" (संभोगपच्चक्खाणेणं) ४८. आहार-प्रत्याख्यान से (आहारपच्चक्खाणेणं) श्रमण-संघ में सामान्य प्रथा मण्डली-भोजन (सह-भोजन) आहार-प्रत्याख्यान के दो अर्थ हो सकते हैं१. विशुद्धिमग्ग दीपिका, पृ० १५५ : 'विवित्तमासनं' ति अरझं रुक्खमूलं ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८७ : आयतो-मोक्षः संयमो वा, स एवार्थ:ति आदि नवविध सेनासनं। प्रयोजनं विद्यते येषामित्यायतार्थिकाः। २. उत्तरज्झयणाणि, ३०1८। ६. वही, पत्र ५८८ : परिमन्थः-स्वाध्यायादिक्षतिस्तदभावोऽपरिमन्थः । ३. बुद्धचर्या, पृ० ४६६। १०. आयारो ६६०:जे अचेले परिसिए, तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवइ४. औपपातिक, सूत्र १६ परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि, ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८७ : विविक्तो-विकृत्यादिरहित आहारः। सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, बोक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि। ६. वही, पत्र ५८७ : एकान्तेन-निश्चयेन रतः-अभिरतिमानेकान्तरतः ११. मूलाराधना, २८३ विजयोदया : याचनसीवनशोषणप्रक्षालनादिरनेको संयम इति गम्यते। हि व्यापार: स्वाध्यायध्यानविनकारी अचेलकस्य तन्न तथेति ७. ठाणं, ४।४५११ परिकर्मविवर्जनम्। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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