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________________ उत्तरज्झयणाणि ३५२ अध्ययन २१ : श्लोक १५-२२ टि० १६-२८ १९. (न यावि पूर्य गरहं च संजए) वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप ‘सजेत्' दिया है। इसका मुनि पूजा और गर्दा की अभिलाषा न करे। वृत्तिकार ने अर्थ है-लिप्त होना। गर्हा के विषय में एक विमर्श प्रस्तुत किया है। कुछ विचारकों २४. परिचय को... (...संथवे) का मत था कि गर्दा (आत्मगऱ्या या हीन भावना) से कर्म का संस्तव का अर्थ है-परिचय। चूर्णि में दो प्रकार का क्षय होता है। इस मत से असहमति प्रगट करने के लिए गर्दा संस्तव माना है. वचन संस्तव और संवाससंस्तव। वृत्ति में का ग्रहण किया गया है ऐसा वृत्तिकार का अभिमत है। गर्दा पूर्वसंस्तव, ख्यात्संस्तव, वचनसंस्तव तथा संवाससंस्तव-ये का वैकल्पिक अर्थ परापवाद किया गया है। उसकी अभिलाषा चार प्रकार के संस्तवों की चर्चा है। माता-पिता, भाई-बहिन न करना स्वाभाविक है। आदि का परिचय पूर्वसंस्तव है। शाश-श्वसुर, साला-साली का २०. शांतभाव से (अकुक्कुओ) परिचय पश्चात्संस्तव है। जिनके साथ बातचीत का अधिक उत्तराध्ययन १।३० में 'अप्पकुक्कुए' शब्द प्रयुक्त है। संबंध रहता है वह वचनसंस्तव है। जिनके साथ अधिक रहने इसकी वृत्ति में शान्त्याचार्य ने 'कुक्कुए' का अर्थ कौत्कच का संबंध बनता है वह संवाससंस्तत है।' अर्थात् चंचल किया है। प्रस्तुत आगम के ३६।२६३ में २५. प्रधानवान् (संयमवान्) (पहाणव) 'कोक्कुइय' का अर्थ 'कोक्रुच्य' किया है। प्रस्तुत श्लोक में वृत्ति में प्रधान का अर्थ संयम है। संयम मुक्ति का हेतु वृत्तिकार ने अकुक्कुओ का अर्थ उक्त दोनों अर्थों से भिन्न है, इसलिए उसे प्रधान कहा गया है। बुद्धि और समझ भी किया है। अकुक्कुओ (सं० अकुक्कुजः) अर्थात् आक्रन्दन इसके अर्थ मिलते हैं।" 'प्रधान' शब्द को संज्ञावाची मानने पर करने वाला। यहां भी 'कुक्कुय' शब्द 'कौत्कुच' के अर्थ में हो ही प्रधानवान् हो सकता है। यहां 'उपहाणवं' पाठ का अनुमान सकता है, फिर भी वृत्तिकार ने इसका अर्थ वह क्यों नहीं भी किया जा सकता है। उपधान का अर्थ है तपस्या। उपधानवान् किया, यह विमर्शनीय है। अर्थात् तपस्वी। २१. आत्मगुप्त बनकर (आयगुत्ते) २६. छिन्न-शोक (अशोक) (छिन्नसोए) यहां आत्मा शब्द शरीर के अर्थ में प्रयुक्त है। जो व्यक्ति इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं--छिन्नसोतस् और कूर्म की भांति अपने संपूर्ण अंग को संकुचित कर लेता है, छिन्नशोकः । चूर्णिकार ने प्रथम रूप को मानकर इसका अर्थ गुप्त कर लेता है, वह आत्मगुप्त कहलाता है।' इस प्रकार किया है जिस व्यक्ति के मिथ्यादर्शन आदि सारे २२. पूजा में उन्नत और गर्दा में अवनत न होने वाला सोत सूख जाते हैं, दूर हो जाते हैं, वह छिन्नसोत वाला होता (अणुन्नए नावणए) है।१२ वृत्तिकार ने इसको वैकल्पिक अर्थ मानकर इसका अर्थ चूर्णि में इसका अर्थ है-मुनि चलते समय ऊंचा मुंह छिन्नशोक-जिसके सारे शोक दूर हो गए हैं-किया है। कर या बहुत नीचा मुंह कर न चले. किन्तु यगान्तरभमी को २७. परमार्थ-पदों में (परमट्टपएहिं) देखते हुए चले। परमार्थ का अर्थ है-मोक्ष। जिन साधनों के द्वारा मोक्ष वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-पूजा के प्रति की प्राप्ति होती है, वे परमार्थपद कहलाते हैं। वे तीन हैंउन्नत और गर्दा के प्रति अवनत। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र।" २३. लिप्त न हो (न...संजए) २८. अलिप्त (निरोवलेवाइ) इस पाठ के विषय में दो कल्पनाएं की जा सकती हैं जो स्थान अकृत, अकारित और असंकल्पित हैं तथा (१) अनुस्वार को अलाक्षणिक माना जाए। जो संयम का उपघात करने वाले तत्त्वों से रहित हैं, वे (२) मूल पाठ 'सज्जए' हो। निरुपलेप होते हैं। यह चूर्णि का अभिमत है।५ वृत्तिकार ने १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८६ : इह च गाँतोऽपि कर्मक्षय इति ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६२। केचिदतस्तन्मतव्यवच्छेदार्थं गांग्रहणं, यद्वा गर्दा-परापवादरूपा। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८७। २. वही, पत्र ५८, ५६ : ...कौत्कुचं-करचरणभूभ्रमणाद्यसच्चेष्टा- १०. वही, पत्र ४८७ : प्रधानः स च संयमो मुक्तिहेतुत्वात्। त्मकमस्येति...कौत्कुचः। ११. आप्टे-संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। ३. वही, पत्र ७०६ : कीक्रुच्यं द्विधा-कायकोक्रुच्यं वाक्कोक्रुच्यं च। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट २६३ : मिथ्यादर्शनादीनि श्रोतांसि छिन्नानि४. वही, पत्र ४८६ : अकुक्कुय ति आर्षत्वात् कुत्सितं कूजति-पीडितः अपगतानि तस्य। सन्नाक्रन्दति कुकूजो न तथेत्यकुकूजः।। १३. बृहवृत्ति, पत्र ४८७। ५. वही, पत्र ४८६ : आत्मना गुप्तः-आत्मगुप्तः कूर्मवत् संकुचितसर्वांगः। १४. वही, पत्र ४८७ परमार्थो मोक्षः, स पद्यते-गम्यते यैस्तानि ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६२ : तथा नात्यर्थमुन्नतेन च चात्यर्थमवनतेन, परमार्थपदानि-सम्यग्दर्शनादीनि। किं? युगान्तरलोकिना गन्तव्यम्। १५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६३ : स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितानि लयनानि ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६७ : उन्नतो हि पूजां प्रति अवनतश्च गर्दा प्रति। सेवति, तान्येव विशेष्यन्ते, अकृतमकारितमसंकल्पितानि संयमोपघात विरहितानि। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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