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________________ मृगापुत्रीय १६. खेत्तं वत्युं हिरण्णं च पुत्तदारं च बंधवा । चइत्ताणं इमं देहं गंतव्यमवसस्स मे॥ १७. जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरी । एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुंदरी ।। १८. अयाण जो महंतं तु अपाहेओ पवज्जई। गच्छंतो सो दुही होई मुहातण्हाए पीडिओ ।। १६. एवं धम्मं अकाऊ‍ जो गच्छइ परं भवं । गच्छंतो सो दुही होइ वाहीरोगेहिं पीडिओ ।। २०. अाणं जो महंतं तु सपाहेओ पवज्जई। गच्छतो सो सुही होइ मुहातण्हाविवज्जिओ ।। २१. एवं धम्मं पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं । गच्छंतो सो सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे ।। २२. जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पहू । सारभंडाणि नीणेइ असारं अवउज्झइ । २३. एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य । अप्पार्ण तारइस्सामि तुमेहिं अणुमन्निओ ।। २४. तं बिंतम्मापियरो सामण्णं पुत्त दुच्चरं । गुणाणं तु सहस्साइं धारेयव्वाइं भिक्खुणो ।। Jain Education International ३०७ क्षेत्रं वास्तु हिरण्यं च पुत्रदारांश्च धान्यवान् । त्वक्लेम देह गन्तव्यमवशस्य मे ॥ यथा किम्पाकफलानां परिणामो न सुन्दरः । एवं मुक्तानां भोगानां परिणामो न सुन्दरः ।। अध्वानं यो महान्तं तु अपाथेयः प्रव्रजति । गच्छन्स दुःखी भवति क्षुधातृष्णया पीडितः ।। एवं धर्ममकृत्वा यो गच्छति परं भवम् । गच्छन् स दुःखी भवति व्याधिरोगैः पीडितः ।। अध्वानं यो महान्तं तु सपाथेयः प्रव्रजति गच्छन् स सुखी भवति सुधातृष्णाविवर्जितः । एवं धर्ममपि कृत्वा यो गच्छति परं भवम् । गच्छन् स सुखी भवति अल्पकर्मा ऽवेदनः ।। यथा गेहे प्रदीप्ते तस्य गेहस्य यः प्रभुः । सारभाण्डानि गमयति असारमपोज्झति । एवं लोके प्रदीप्ते जरया मरणेन च । आत्मानं तारयिष्यामि युष्माभिरनुमतः ।। तं ब्रूतोऽम्बापितरौ श्रामण्यं पुत्र ! दुश्चरम् । गुणानां तु सहस्वाणि धारयितव्यानि भिक्षोः ।। अध्ययन १६ : श्लोक १६-२४ “भूमि, घर, सोना, पुत्र, स्त्री, बान्धव और इस शरीर को छोड़कर मुझे अवश हो चले जाना है।” "जिस प्रकार किम्पाक फल खाने का परिणाम सुन्दर नहीं होता उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता।" “जो मनुष्य लम्बा मार्ग लेता है और साथ में सम्बल नहीं लेता, वह भूख और प्यास से पीड़ित होकर चलता हुआ दुःखी होता है।” “इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म किए बिना परभव में जाता है वह व्याधि और रोग से पीड़ित होकर जीवन-यापन करता हुआ दुःखी होता है।” “जो मनुष्य लम्बा मार्ग लेता है, किन्तु सम्बल के साथ, वह भूख-प्यास से रहित हो कर चलता हुआ सुखी होता है । " “इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म की आराधना कर परभव में जाता है, वह अल्पकर्म वाला और वेदना रहित होकर जीवन-यापन करता हुआ सुखी होता है ।" " जैसे घर में आग लग जाने पर उस घर का जो स्वामी होता है, वह मूल्यवान वस्तुओं को उसमें से निकालता है और मूल्यहीन वस्तुओं को वहीं छोड़ देता है।" “इसी प्रकार यह लोक जरा और मृत्यु से प्रज्वलित हो रहा है। मैं आपकी आज्ञा पाकर उसमें से अपने आपको निकालूंगा !" माता-पिता ने उससे कहा – “पुत्र ! श्रामण्य का आचरण बहुत कठिन है । भिक्षु को हजारों गुण‍ धारण करने होते हैं।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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