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________________ उत्तरज्झयणाणि २८८ अध्ययन १८ : श्लोक ८-१६ वह राजा घोड़े को छोड़ कर विनयपूर्वक अनगार के चरणों में वन्दना करता और कहता है--"भगवन ! इस कार्य के लिए मुझे क्षमा करें।" वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान में लीन थे। उन्होंने राजा को प्रत्युत्तर नहीं दिया। उससे राजा और अधिक भयाकुल हो गया। राजा बोला-“हे भगवन् ! मैं संजय हूं। आप मुझसे बातचीत कीजिए। अनगार कुपित होकर अपने तेज से करोड़ों मुनष्यों को जला डालता है।" अनगार बोले-“पार्थिव ! तुझे अभय है और तू भी अभयदाता बन। इस अनित्य जीव-लोक में तु क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है?"५ ८. आसं विसज्जइत्ताणं अणगारस्स सो निवो। विणएण वंदए पाए भगवं! एत्थ मे खमे ।। ६. अह मोणेण सो भगवं अणगारे झाणमस्सिए। रायाणं न पडिमंतेइ तओ राया भयदुओ।। १०.संजओ अहमस्सीति भगवं! वाहराहि मे। कुद्धे तेएण अणगारे डहेज्ज नरकोडिओ।। ११.अभओ पत्थिवा! तुम अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि?।। १२.जया सव्वं परिच्चज्ज गंतव्वमवसस्स ते। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं रज्जम्मि पसज्जसि?|| १३.जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपायचंचलं। जत्थं तं मुज्झसी रायं पेच्चत्थं नावबुज्झसे।। १४.दाराणि य सुया चेव मित्ता य तह बंधवा। जीवंतमणुजीवंति मयं नाणुव्वयंति य।। १५.नीहरंति मयं पुत्ता पियरं परमदुक्खिया। पियरो वि तहा पुत्ते बंधू रायं! तवं चरे।। १६.तओ तेणऽज्जिए दव्वे दारे य परिरक्खिए। कीलंतऽन्ने नरा रायं! हट्ठतुट्ठमलंकिया।। अश्वं विसृज्य अनगारस्य स नृपः। विनयेन वन्दते पादौ भगवन् ! अत्र मे क्षमस्व।। अथ मौनेन स भगवान् अनगारो ध्यानमाश्रितः। राजानं न प्रतिमन्त्रयते ततो राजा भयद्रुतः।। संजयोऽहमस्मीति भगवन् ! व्याहर माम्। क्रुद्धस्तेजसाऽनगारः दहेत् नरकोटीः।। अभयं पार्थिव! तव अभयदाता भव च। अनित्ये जीवलोके किं हिंसायां प्रसजसि? यदा सर्वं परित्यज्य गन्तव्यमवशस्य ते। अनित्ये जीवलोके कि राज्ये प्रसजसि? जीवितं चैव रूपं च विद्युत्सम्पातचंचलम्। यत्र त्वं मुह्यसि राजन् ! प्रेत्यार्थं नावबुध्यसे।। दाराश्च सुताश्चैव मित्राणि च तथा बान्धवाः। जीवन्तमनुजीवन्ति मृतं नानुव्रजन्ति च।। निःसारयन्ति मृतं पुत्राः पितरं परमदुःखिताः। पितरोऽपि तथा पुत्रान् बन्धवो राजन् ! तपश्चरेः।। ततस्तेनार्जित द्रव्ये दारेषु च परिरक्षितेषु। क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन् ! हृष्टतुष्टाऽलङ्कृताः ।। “जबकि तू पराधीन है और इसलिए सब कुछ छोड़ कर तुझे चले जाना है तब इस अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ?" "राजन ! तू जहां मोह कर रहा है वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चंचल है। तू परलोक के हित को क्यों नहीं समझ रहा है?" "स्त्रियां, पुत्र, मित्र और बान्धव जीवित व्यक्ति के साथ जीते हैं किन्तु वे मृत के पीछे नहीं जाते।" "पुत्र अपने मृत पिता को परम दुःख के साथ श्मशान ले जाते हैं और इसी प्रकार पिता भी अपने पुत्रों और बंधुओं को श्मशान में ले जाता है, इसलिए हे राजन् ! तू तपश्चरण कर।" “राजन् ! मृत्यु के पश्चात् उस मृत व्यक्ति के द्वारा अर्जित धन और सुरक्षित स्त्रियों को हृष्ट, तुष्ट और अलंकृत होकर दूसरे व्यक्ति भोगते हैं।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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