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उत्तरज्झयणाणि
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जो जितना आचार भ्रष्ट है वह उतना ही नीच है। वह फिर जाति से ब्राह्मण हो या शूद्र । शूद्र जाति में उत्पन्न होने से वह ज्ञान का अधिकारी नहीं, यह भी मान्य नहीं है । ब्राह्मण परम्परा के अनुसार ब्राह्मणों के लिए शूद्र को वेदों का ज्ञान देना निषिद्ध था। लंका में विलाप करती हुई सीता कहती है – “मैं अनार्य रावण को अपना अनुराग वैसे ही अर्पित नहीं कर सकती जैसे ब्राह्मण शूद्र को मंत्र ज्ञान नहीं दे सकता।"" जैन संघ में दीक्षित होकर जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को साधना करने का अधिकार था, वैसे ही शूद्रों को । हरिकेशबल मुनि उसके एक ज्वलन्त उदाहरण हैं।
४१. बाहर से (जल से) शुद्धि की (सोहिं बहिया)
शोधि का अर्थ है-शुद्धि - निर्मलता । शोधि दो प्रकार की होती है द्रव्यशोधि और भावशोधि ।
मलिन वस्त्रों को पानी से धोना द्रव्यशोधि है और तप, संयम आदि के द्वारा आठ प्रकार के कर्ममलों का प्रक्षालन करना भावशोधि है । द्रव्यशोधि बाह्यशोधि होती है। इसका कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। वाचक प्रवर ने लिखा है- "
'शौचमाध्यात्मिकं त्यक्त्वा, भावशुद्धयात्मकं शुभं । जलादिशांचं यथेष्टं मूढविस्मापकं हि तत् ।।' ४२. (किं)
इसका प्रयोग दो अर्थों में होता है—क्षेप और पृच्छा। यहां यह क्षेप--निंदा या तिरस्कार के अर्थ में प्रयुक्त है।" ४३. कुशल लोग (कुसला)
'कुशं सुनातीति कुशल : ' जो कुश पास को काटता है, वह कुशल कहलाता है। यह इस शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ
है ।
चूर्णि में 'कुशल' का अर्थ-कर्म-बंधन को काटने वाला किया है। वृत्ति के अनुसार कुशल वह है जो तत्त्व - विचारणा में निपुण है।"
४४. ( श्लोक ३८ )
प्रस्तुत श्लोक का चौथा पद है- 'न तं सुदिट्टं कुसला वयंति' तथा चालीसवें श्लोक का चौथा पद है- 'न तं सुज
9.
वाल्मीकीय रामायण, ५१२८ १५ भावं न चारयाहमनुप्रदातुमलं द्विजो मंत्रमिवाद्विजाय ।
२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७० : 'सोहिं' ति शुद्धिं निर्मलताम् ।
३.
उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २११: दुविधा सोधी— दव्वसोधी भावसोधी य, दव्वसोधी मलिनं वस्त्रादि पानीयेन शुद्धयते, भावसोधी तवसंजमादीहिं अट्ठविहकम्ममललित्तो जीवो सोधिज्जति, अदव्वसोधी भावसोधी बाहिरियं, जं तं जलेण बाहिरसोथी ।
४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७० ।
५.
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१० किंसद्दो खेवे पुच्छाए य वट्टति, खेवो निंदा, एत्थ निंदाए ।
६. वही, पृ० २११ अट्ठप्पगार कम्मं... लूनंतीति कुसला ।
७. बृहद्वृत्ति पत्र ३७० : कुशलाः तत्त्वविचारं प्रति निपुणाः ।
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अध्ययन १२ : श्लोक ३८-४३ टि० ४१-४७
कुसला वयंति' । 'सुजट्ट' का संस्कृत रूप है 'सु-इष्ट' (स्विष्टं) और अर्थ है- -श्रेष्ठ यज्ञ । प्रस्तुत श्लोक के चौथे पद का भी यहीं अर्थ अभिप्रेत है। इसलिए 'सुदिट्ठ' के स्थान पर 'सुजट्ट' अथवा 'सुइट्ठ' पाठ की संभावना की जा सकती है। चूर्णि और वृत्ति में 'सुदिट्ठ' पाठ ही व्याख्यात है।
४५. (सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं, वोसट्टकाओ सुइचत्तदेहो ) सुसंवुडो - जिसके प्राणातिपात आदि आश्रव-द्वार रुक गए हों, उसे 'सुसंवृत' कहा जाता है। 5
पंचहिं संवरेहिं संवर के पांच प्रकार ये हैं
(१) प्राणातिपात विरति ।
(२) मृषावाद - विरति ।
(३) अदत्तादान - विरति । (४) मैथुन-विरति ।
(५) परिग्रह - विरति ।
वोसटुकाओ - जिसने विविध या विशिष्ट प्रकार से काया का उत्सर्ग किया हो, उसे 'व्युत्सृष्ट- काय' कहा जाता है।" सुइचत्तदेहो — जो गृहीत व्रतों में दोष न लगाएअकलुषित व्रत हो, उसे 'शुचि' कहा जाता है।"
जिसने देह के प्रतिकर्म (संवारने) का त्याग किया हो, उसे त्यक्त किया हो, उसे 'त्यक्त-देह' कहा जाता है।"
विशेष जानकारी के लिए देखें-दसवेआलियं १०।१३ का टिप्पण | ४६. महायज्ञ ( महाजयं)
चूर्णि और वृत्ति में 'महाजय' का अर्थ महान् जय मिलता है । किन्तु 'जण्णसे' – यह विशेषण - पद है । इसलिए 'महाजय' का संस्कृत रूप 'महायज' होना चाहिए। यज्ञों में महायज्ञ ही श्रेष्ठ माना जाता है। 'यकार' को 'जकार' और 'जकार' का लोप तथा उसे यकारादेश करने पर 'महायज' रूप बन जाता है।
४७. घी डालने की करछियां
(सुया)
इसका संस्कृत रूप है 'स्रुव' और अर्थ है-यज्ञ में आहुति देते समय अग्नि में घी आदि डालने का पात्र - विशेष ।
स्थगितसमस्ताश्रवद्वारः सुसंवृतः । 'वोसडकाए' विविधमुत्सृष्टो विशिष्टो शरीरम् ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३७१: व्युत्सृष्टो - विविधैरुपायैर्विशेषेण वा परीषहोपसर्गसहिष्णुतालक्षणेनोत्सृष्टः त्यक्तः कायः--: -शरीरमनेनेति
८. वही, पत्र ३७१ सुष्ठु संवृतः (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २११ विशेषेण वा उत्सृष्टः कायः
६.
व्युत्सृष्टकायः ।
१०. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २११ : शुचिः अनाश्रवः अखण्डचरित्र
इत्यर्थः ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३७१ शुचिः अकलुषव्रतः ।
११. (क) उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २११ : त्यक्तदेह इव त्यक्तदेहो नाम निष्प्रतिकर्म्मशरीरः ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३७१: त्यक्तदेहश्च अत्यन्तनिष्प्रतिकर्म्मतया ।
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