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________________ मोक्ष मार्ग गति ४६३ श्रुतसागरसूरि ने संकल्प-विकल्प के त्याग को भी छेदोपस्थापनीय माना है।' छेदोपस्थापनीय के दो प्रकार होते हैं सातिचार और निरतिचार दोष सेवन करने वाले मुनि को पुनः महाव्रतों का आरोपण कराया जाता है, वह सातिचार-छेदोपस्थापनीय होता है । - शैक्ष ( नव दीक्षित) मुनि सामायिक चारित्र के पश्चात् अथवा एक तीर्थंकर के तीर्थ से दूसरे तीर्थंकर के तीर्थ में दीक्षित होने वाले मुनि, जो छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार करते हैं, वह निरतिचार होता है। (३) परिहार विशुद्धि ये दो प्रकार का होता है--निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक । इसकी आराधना नौ साधु मिलकर करते हैं। इसका काल-मान अठारह मास का है। प्रथम छह माही में चार साधु तपस्या करते हैं, चार साधु सेवा करते हैं और एक वाचनाचार्य ( गुरुस्थानीय) रहता है। दूसरी छह माही में तपस्या करने वाले सेवा और सेवा करने वाले तपस्या में संलग्न हो जाते हैं। तीसरी छह माही में वाचनाचार्य तप करते हैं, एक साधु वाचनाचार्य हो जाता है, शेष सेवा में संलग्न होते हैं। तपस्या में संलग्न होते हैं वे 'निर्विशमानक' और जो कर चुकते हैं वे 'निर्विष्टकायिक' कहलाते हैं। उनकी तपस्या का क्रम इस प्रकार है- जघन्य (१) ग्रीष्म-उपवास (२) शिशिर - वेला (३) वर्षा - तेला मध्यम वेला तेला चौला उत्कृष्ट तेला मौला पंचीला १. तत्त्वार्थ, ६ १८ वृत्ति संकल्पविकल्पनिषेधो वा छेदोपस्थापना भवति । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६८ छेदः सातिचारस्य यतेर्निरतिचारस्रू वा शैक्षकस्य तीर्थान्तरसम्बन्धिनो वा तीर्थान्तरं प्रतिपद्यमानस्य पूर्वपर्यायव्यवच्छेदरूपस्तद्युक्तोपस्थापना महाव्रतारोपणरूपा यस्मिंस्तच्छेदोपस्थापनम् । ३. (क) स्थानांग ५।१३६, वृत्ति, पत्र ३०८ Jain Education International (ख) प्रवचनसारोद्धार, ६०२-६१०। ४. तत्त्वार्थ, ६ १८ वृत्ति परिहरणं परिहार: प्राणिवधनिवृत्तिरित्यर्थः । परिहारेण विशिष्टा शुद्धिः कर्ममलकलङ्कप्रक्षालनं यस्मिन् चारित्रे अध्ययन २८ : श्लोक ३२-३३ टि० २६ पारणा में आचामाम्ल (आम्ल रस के साथ एक अन्न व जल लेकर) तप किया जाता है। जो तप में संलग्न नहीं होते, वे सदा आचामाम्ल करते हैं। उनकी चारित्रिक विशुद्धि विशिष्ट होती है। परिहार का अर्थ 'तप' है। तप से विशेष शुद्धि प्राप्त की जाती है। श्रुतसागरसूरि ने परिवार का अर्थ 'प्राण वध की निवृत्ति' किया है। जिसमें अहिंसा की विशिष्ट साधना हो, वह परिहार- विशुद्धि चारित्र है। उनके अनुसार जिस मुनि की आयु बत्तीस वर्ष की हो, जो बहुत काल तक तीर्थंकरों के चरणों में रह चुका हो, प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व में कहे गए सम्यक् आचार को जानने वाला हो, प्रमाद रहित हो और तीनों संध्याओं को छोड़कर केवल दो गव्यूति (चार मील) गमन करने वाला हो, उस मुनि के परिहार- विशुद्धि चारित्र होता है। तीर्थंकर के पाद-मूल में रहने का काल वर्ष-पृथक्त्व (तीन वर्ष से अधिक और नौ वर्ष से कम) है। ४,५ सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात सामायिक या छेदोपस्थापनीय चारित्र की आराधना करते-करते क्रोध, मान और माया के अणु उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, लोभाणुओं का सूक्ष्म रूप में वेदन होता है, उस समय की चारित्र स्थिति को 'सूक्ष्म संपराय चारित्र' कहा जाता है।' चौदह गुण-स्थानों में सूक्ष्म संपराय नामक दसवां गुणस्थान यही है। जब क्रोध, मान, माया और लोभ सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्र - स्थिति को 'यथाख्यात चारित्र' कहा जाता है। यह वीतराग चारित्र है । गुणस्थानों में यह चारित्र दो भागों में विभक्त हैं। 'उपशमात्मक यथाख्यात चारित्र' उपशान्त- मोह नामक ग्यारहवें और 'क्षयात्मक यथाख्यात चारित्र' क्षीण मोह नामक बारहवें आदि गुणस्थान में समाते हैं। तत्परिहार- विशुद्धि चारित्रमिति वा विग्रहः । तल्लक्षणं यथाद्वात्रिंशद्वर्षजातस्य बहुकालतीर्थकरपादसेविनः प्रत्याख्याननामधेयनवमपूर्वप्रोक्तसम्यगाचारवेदिनः प्रमादरहितस्य अतिपुष्कचर्यानुष्ठायिनस्तिनः सन्ध्या वर्जयित्वा द्विगव्यूतिगामिनो मुनेः परिहारविशुद्धिचारित्रं भवति । ... त्रिवर्षादुपरि नववर्षाभ्यन्तरे वर्ष पृथक्त्वमुच्यते । ५. बृहद्वृत्ति पत्र ५६८ : सूक्ष्मः किट्टीकरणतः संपर्येति पर्यटति अनेन संसारमिति संपरायो - लोभाख्यः कषायो यस्मिंस्तत्सूक्ष्मसम्परायम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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