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________________ भामका लोमहाराः : प्राणाहारा इति" ऐसा उल्लेख मिलता है। यह वाक्य चूर्णि का नहीं है। उसमें 'लोमहार' का अर्थ - 'लोमहारा णाम पेल्लणमोसगार इन शब्दों में है। इससे यह प्रमाणित होता है कि बृहद्वृत्ति में उद्धृत वाक्य चूर्णि से अतिरिक्त किसी दूसरी प्राचीन व्याख्या का है। बृहद्वृत्तिकार ने 'वृद्ध' शब्द के द्वारा चूर्णिकार का भी उल्लेख किया है- 'वृद्धास्तु व्याचक्षते -लोलुप्यमाणं ति लालप्यमानं भरणपोषणकुलसंतानेसु य तुम्ने भविस्सह ति।" मिलाइए उत्तराध्ययन चूर्णि पू. २२३ 'लोलुप्पमाण लोलुप्यमानं भरणपोसणकुलसंताणेसु व तुम्मे भविस्सह ति ये वृहद्वृत्तिकार है वादी- बेताल शान्तिसूरि इनका अस्तित्व-काल विक्रम की ११वीं शताब्दी है । ४. सुखबोधा I यह वृहद्वृत्तिकार से समुद्धृत लघु वृत्ति है। इसके कर्ता नेमिचन्द्रसूरि सूरिपद प्राप्ति से पूर्व इनका नाम देवेन्द्र था। इस वृत्ति का रचना - काल विक्रम सं. ११२६ है । ५. सर्वार्थसिद्धि इसके रचयिता भावविजय हैं। इनका रचना-काल विक्रम संवत् १६७६ है । इसमें कथाएं पद्यबद्ध हैं। इनके अतिरिक्त और भी व्याख्या-ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। वे सारे के सारे प्रायः इन्हीं मुख्य व्याख्या ग्रन्थों के उपजीवी हैं। हम उनका संक्षिप्त परिचय नाम, कर्त्ता और रचना - काल के विवरण सहित - नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं* : ६. अवचूरि वि. सं. १५४१ ७. वृत्ति ८. दीपिका ज्ञानसागर कमल संयम उदयसागर वि. सं. १५५४ ६. लघुवृत्ति १०. वृत्ति वि. सं. १५४६ खरतर तपेलवाचक वि. सं. १५५० कीर्तिवल्लभ वि. सं. १५५२ विनयहंस वि. सं. १५६७-८१ अजितदेव सूरि वि. सं. १६२८ हर्षकुल १६वीं शताब्दी ११. वृत्ति १२. टीका अजितदेव सूरि माणिक्यशेखर सूर लक्ष्मीवल्लभ १३. दीपिका १४. अवरि १५. टीका - दीपिका १६. दीपिका १. २. ३. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ३१२ । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. १८३ । उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति, पत्र ४००। Jain Education International १८वीं शताब्दी (२६) १७. वृत्ति टीका १८. वृत्ति १६. टीका २०. अवचूरि २१. अवचूरि २२. २३. २४. बालावबोध समरचन्द्र बालावबोध कमललाभ बालावबोध मानविजय मकरन्द टीका दीपिका वृति-दीपिका दीपिका वृत्ति अक्षरार्थ लवलेश हर्मनन्दन शान्तिभद्राचार्य मुनिचन्द्र सूरि ज्ञानशीलगणी टब्बा टब्बा वृत्ति १६वीं शताब्दी वि. सं. १७४१ इसके अतिरिक्त कुछ वृत्ति टीकाएं, दीपिकाएं तथा अवचूरियां भी उपलब्ध होती हैं। कई में कर्त्ता का नाम नहीं है तो कई में रचना - काल का उल्लेख नहीं है । वे ये हैं. व्याख्या-ग्रंथ कर्ता उत्तरज्झयणाणि वि. सं. १७११ वि. सं. १४६१ For Private & Personal Use Only रचना-काल वि. सं. १७५० वि. सं. १६३७ वि. सं. आदिचंद्र या रायचंद्र पार्श्वचन्द्र, धर्मसिंह १८वीं शताब्दी मतिकीर्ति के शिष्य ब्रह्म ऋषि भाषा पद्यसार वि. सं. १५६६ तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य (वि. सं. १८६० - १६३८) ने इस सूत्र के उनतीस अध्ययनों पर राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध 'जोड़' की रचना की। यत्र-तत्र उन्होंने विषय को स्पष्ट करने के लिए वार्तिक भी लिखे हैं । उपसंहार १६४३ प्रस्तुत भूमिका में उत्तराध्ययन का संक्षिप्त पर्यालोचन किया गया है। उनके छन्द आदि अनेक विषयों पर यहां कोई विमर्श नहीं किया गया है। इनका पर्यालोचन 'उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन' में किया जा चुका है। इसलिए उनके अवलोकन की सूचना के साथ-साथ मैं इस विषय को सम्पन्न कर रहा हूं । आचार्य तुलसी ४. जैन भारती ( वर्ष ७, अंक ३३, पृ. ५६५-६६८) में प्रकाशित श्री अगरचन्दजी नाहटा के 'उत्तराध्ययन सूत्र और उसकी टीकाएं लेख पर आधृत । www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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