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जीवाजीवविभक्ति
भूति - कर्म कहलाता है।"
कौतुक- - अकाल-वृष्टि आदि आश्चर्यकारी करतब दिखलाना अथवा वशीकरण आदि का प्रयोग करना। बच्चों तथा अन्य किसी की रक्षा के लिए स्नान, हाथ फेरना आदि क्रियाएं करना।
प्रश्न- दूसरों के पास लाभ-अलाभ आदि के विषय में प्रश्न करना अथवा स्वयं अंगुष्ठ, दर्पण आदि में भूत या भविष्य को जानने का यत्न करना । *
प्रश्नाप्रश्न – स्वप्न में विद्या द्वारा कथित शुभाशुभ दूसरों
को बतलाना । *
निमित्त निमित्त का प्रयोग करना ।
३. किल्बिषिकी भावना के प्रकार
उत्तराध्ययन
(१) ज्ञान का अवर्णवाद,
(२) केवली का अवर्णवाद,
(३) धर्माचार्य का अवर्णवाद,
(४) संघ का अवर्णवाद और (३) माया।
मूलाराधना
(१) ज्ञान की वञ्चना और अवर्णवाद,
( २ ) केवली की वञ्चना और अवर्णवाद,
(३) धर्माचार्य की वञ्चना और अवर्णवाद और (४) सर्वसाधुओं की सूचना और अवर्णवाद प्रवचनसारोद्धार
(१) ज्ञान का अवर्णवाद,
(२) केवली का अवर्णवाद,
(२) धर्माचार्य का अवर्णवाद,
(४) संघ का अवर्णवाद और
9. मूलाराधना दर्पण, पृ ४०० भूदीकम्मं बालादीनां रक्षार्थं भूतिकर्म भूतिक्रीडनकं वा ।
२. वही, पृ ४०० तत्र बालादीनां रक्षादिकरणनिमित्तं स्नपनकरभ्रमणाभिमन्त्रणथुक्करणधूपदानादि यत्क्रियते तत्कौतुकम् ।
३. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र १८१ तत्र बालादीनां रक्षादिकरणनिमित्तं स्नपनकरभ्रमणाभिमन्त्रणधुक्करणधूपदानादि यत्क्रियते तत्कौतुकम् ।
४. वही, पत्र १८१ : यत् परस्य पार्श्वे लाभालाभादि पृच्छ्यते स्वयं वा अंगुष्ठदर्पणखड्गतोयादिषु दृश्यते स प्रश्नः ।
५. वही, पत्र १८१, १८२ स्वप्ने स्वयं विद्यया कथितं घण्टिकाद्यवतीर्णदेवतया वा कथितं सत् यदन्यस्मै शुभाशुभजीवितमरणादि परिकथयति स
प्रश्नाप्रश्नः ।
६. मूलाराधना, ३११८१ :
णाणस्स केवलीणं, धम्मस्साइरिय सव्वसाहूणं । माइय अवण्णवादी, खिब्भिसियं भावणं कुणइ ।।
७. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४३ :
६४१
सुयनाण केवलीणं, धम्मायरियाण संघ साहूणं ।
माई अवण्णवाई, किव्विसियं भावणं कुणइ ।।
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अध्ययन ३६ : श्लोक २५६ टि० २७
(५) माया"
विजयोदया में 'मायी' का अवर्णवादी को तरह ज्ञान, केवली, धर्माचार्य और सर्व साधु इन सबके साथ सम्बन्ध जोड़ा गया है।
४. आसुरी भावना के प्रकारउत्तराध्ययन
(१) अनुबद्ध रोष प्रसर और (२) निमित्त प्रतिसेवना ।
मूलाराधना
(१) अनुबन्ध रोष विग्रह संसक्त तप,
(२) निमित्त प्रतिसेवना,
(३) निष्कृपता और
(४) निरनुताप प्रवचनसारोदार
(१) सदा विग्रता
(२) संसक्त तप,
(३) निमित्त कथन,
(४) निष्कृपता और
(५) निरनुकम्पता
अनुवद्ध रोष प्रसर- सदा विग्रह करते रहना, प्रमाद हो जाने पर भी अनुताप न करना, क्षमा-याचना कर लेने पर भी प्रसन्न न होना।"
निमित्त प्रतिसेवनानिमित्त का प्रयोग करना ।
अनुबंध रोष विग्रह संसक्त तप— अव्यवच्छिन्न क्रोध और कलह से संयुक्त तप करना।"
संसक्त तप-आहार आदि में प्रतिबद्ध होकर उनकी प्राप्ति के लिए तप करना।
५. सम्मोहा भावना के प्रकार-
८. मूलाराधना, विजयोदया पृ० ३६६ :
माई अव्वण्णवादी इत्येताभ्यां प्रत्येकं संबन्धनीयम् । ६. वही, ३।१८३ :
अणुबंधरोसविग्गहसंसत्ततवो निमित्तपडिसेवी । गिक्किविणणिरणुतावी, आसुरिअं भावणं कुणदि ।। १०. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४५
सइविग्गहसीलत्तं संसत्ततवो निमित्तकहणं च । निक्किवयावि य अवरा, पंचमगं पिरणुकंपत्तं ।।
११. बृहद्वृत्ति, पत्र ७११: अनुबद्धः – सन्ततः, कोर्थः ? – अव्यवच्छिन्नो
रोषस्य क्रोधस्य प्रसरो विस्तारो ऽस्येति अनुबद्धरोषप्रसरः सदा विरोधशीलतया पश्चादननुतापितया क्षमणादावपि प्रसत्त्यप्राप्त्या वेत्यभिप्रायः । १२. मूलाराधना, विजयोदया पृ० ४०१ : रोषश्च विग्रहश्च रोषविग्रही अनुबंधेन रोषविग्रह अनुबंधरोषविग्रहाभ्यां संसक्तं संबद्ध अनुबंधरोषविग्रहसंसक्तं तपो यस्य स तथोक्तः ।
१३. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति पत्र १८२ संसक्तस्य- आहारोपधिशय्यादिषु सदा प्रतिवद्धभावस्य आहाराद्यर्थमेव च तपः-अनशनादितपश्चरणं संसक्ततपः ।
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