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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १२ : श्लोक १८-२७ टि०२६-३२
अज्ज-आर्य-आर्य पुरुष।
जिसे महान् अचिन्त्य शक्ति प्राप्त हो उसे 'महाभाग' (महाप्रभावशाली) २६. क्षत्रिय (खत्ता)
कहा जाता है।" चूर्णिकार के अनुसार यह पाठ 'महाणुभावो' है खत्ता शब्द के संस्कृत रूप दो हो सकते हैं—क्षत्राः और और इसका अर्थ है-अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ।२ क्षत्ताः । इन दोनों के दो अर्थ हैं । क्षत्र का अर्थ है-क्षत्रिय और घोरव्वओ-जो अत्यन्त दुर्धर महाव्रतों को धारण किए क्षत्ता का अर्थ है-वर्णसंकर।'
हुए हो, उसे 'घोरव्रत' कहा जाता है।३ २७. (उवजोइया)
घोरपरक्कमोजिसमें कषाय आदि को जीतने का उपज्योतिष्क का अर्थ है-अग्नि के समीप रहने वाला प्रचुर सामर्थ्य हो, उसे 'घोर पराक्रम' कहा जाता है।" रसोइया या यज्ञ करने वाला।
देखें-१४।५० के 'घोरपरक्कमा' का टिप्पण। २८. छात्र (खंडिएहिं)
३१. वैयापृत्य (परिचर्या) (वेयावडिय) यह देशी शब्द है। इसके तीन अर्थ हैं-छात्र, स्ततिपाठक जिससे कर्म का विदारण होता है, उसे 'वेदावडित' कहा और अनिषेध्य। यहां प्रथम दो अर्थ प्रासंगिक हैं। चूर्णि में जाता है, यह चूर्णि की व्युत्पत्ति है। 'चट्टा-छात्रा' यह वाक्यांश प्राप्त है। वृत्ति में खंडिक का अर्थ शान्त्याचार्य ने इसका संस्कृत रूप वैयावृत्त्य किया है। यहां छात्र किया है।
और ३२वें श्लोक में वैयावृत्त्य का प्रयोग प्रत्यनीक-निवारण २९. (दंडेण फलेण)
(विरोधी से रक्षा) के अर्थ में हुआ है। वैयापृत्त्य और वैयावृत्त्य बृहदवत्ति में दण्ड का मख्य अर्थ 'बांस की लाठी आदि की विशेष जानकारी के लिए देखें-दसवेआलियं ३६ का मारक-वस्तु' और विकल्प में उसका अर्थ 'कोहनी का प्रहार' टिप्पण। किया गया है। चूर्णि में इसका अर्थ 'कोहनी का प्रहार' किया है।६ ३२. आशीविषलब्धि से संपन्न है (आसीविओ)
चूर्णि में 'फल' का अर्थ 'एड़ी का प्रहार' किया है। आशीविषलब्धि एक योगजन्य विभूति है। इसके द्वारा बृहद्वृत्ति में फल का मूल अर्थ 'बिल्व आदि फल' किया है व्यक्ति अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ हो जाता है। इसका और इसका वैकल्पिक अर्थ-मुष्टि का प्रहार—माना है। दूसरा अर्थ है—यह मुनि आशीविष सांप जैसा है। जो सांप की समवायांग की वृत्ति में इसका अर्थ योगभावित मातुलिंग आदि अवहेलना करता है वह मृत्यु को प्राप्त करता है, उसी प्रकार फल मिलता है। हिन्दी कोश में फल का अर्थ-तलवार आदि मुनि की अवहेलना करने वाले को भी मरना पड़ता है। की धार भी मिलता है। बृहद्वृत्तिकार का अर्थ अप्रासंगिक नहीं तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार 'आस्याविष' और 'आस्यविष'
ये भिन्न-भिन्न लब्धियां हैं। उग्र विष से मिश्रित आहार जिनके ३०. (महाजसो महाणुभागो घोरव्वओ घोरपरक्कमो) मुख में जाकर निर्विष हो जाता है अथवा मुख से निकले हुए
प्रस्तुत तेवीसवें श्लोक के प्रथम दो चरणों में ये चार विशेष वचनों को सुनने मात्र से महाविष व्याप्त व्यक्ति निर्विष हो जाते शब्द प्रयुक्त हुए हैं। उनका अर्थ-बोध इस प्रकार है- हैं, वे 'आस्याविष' हैं। जिस प्रकृष्ट तपस्वी यति के 'मर
महाजसो-जिसका यश त्रिभुवन में विख्यात है, वह जाओ' आदि शाप से व्यक्ति तुरन्त मर जाता है, वे 'आस्यविष' हैं।' 'महायशा' कहलाता है।
आशी का एक अर्थ इच्छा भी हो सकता है। जिसकी इच्छा महाणुभागो-भाग का अर्थ है—'अचिन्त्य शक्ति'। विष बन जाती है उसे आशीविष कहा जाता है। ऐसा देखा जाता
१. बृहवृत्ति, पत्र ३६३ : 'क्षत्राः' क्षत्रियजातयो वर्णसंकरोत्पन्ना वा। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०८ : अणुभाव णाम शापानुग्रहसामर्थ्यम्। २. वही, पत्र ३६३-३६४ : 'उवजोइय' ति ज्योतिषः समीपे ये त १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६५ : 'घोरव्रतो' धृतात्यन्तदुर्द्धरमहाव्रतः।
उपज्योतिषस्त एवोपज्योतिष्काः-अग्निसमीपवर्त्तिनो महानसिका ऋत्विजो १४. वही, पत्र ३६५ : 'घोरपराक्रमश्च' कषायादिजयं प्रति रौद्रसामर्थ्यः । वा।
१५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२०८ : विदारयति वेदारयति वा कर्म वेदावडिता। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०७।
१६. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३६५ : 'वेयावडियट्ठयाए' त्ति सूत्रत्वाद्वैयावृत्त्यार्थमेतत ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६४।
प्रत्यनीकनिवारणलक्षणे प्रयोजने व्यावृत्ता भवाम इत्येवमर्थम् । ५. वही, पत्र ३६४ : 'दण्डेन' वंशयष्ट्यादिना......... यद्वा 'दण्डेने' ति (ख) बृहबृत्ति, पत्र ३६८ : वैयावृत्त्य-प्रत्यनीकप्रतिघातरूपम्। कूपराभिघातेन।
१७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६६ : आस्यो—दंष्ट्रास्तासु विषमस्येत्यासीविषः६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२०७ : दण्ड्यतेऽनेनेति दण्डः कोप्पराभिधातः । असीविषलब्धिमान्, शापानुग्रहसमर्थ इत्यर्थः, यद्वा आसीविष इव आस्त्रीविषः, ७. वही, पृ० २०७ : फलं तु पार्षणीघातः।
यथाहि तमत्यन्तमवजानानो मृत्यु मे वाप्नोति, एवमे नमपि ८. बृहवृत्ति, पत्र ३६४ : 'फलेन' विल्वादिना.... यद् वा मुष्टिप्रहारेण वृद्धाः । मुनिमवमन्यमानानामवश्यं भावि मरणमित्याशयः । ६. समवायांग ३०, वृत्ति पृ०५०: फलेन-योगभावितेन मातुलिगादिना। १८. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ०२०३ : उग्रविषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो १०. विशेषावश्यकभाष्य, १०६४ : तिहुयणविक्खायजसो महाजसो।
निर्विषीभवति यदीयास्यनिर्गतवचःश्रवणाद्वा महाविषपरीता अपि ११. (क) विशेषावश्यकभाष्य, १०६३ : भागो चिंतासत्ती, स महाभागो निर्विषीभवन्ति ते आस्याविषाः। महप्पभावोति।
१६. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ० २०३-४ : प्रकृष्टतपोबला यतयो यं बुयते (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ३६५ : महानुभाग:-अतिशयाचिन्त्यशक्तिः । नियस्वेति स तत्क्षण एव महाविषपरीतो म्रियते, ते आस्यविषाः ।
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