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________________ जीवाजीवविभक्ति ६३३ अध्ययन ३६ : श्लोक ४८-५० टि० १२ पूर्व-अवस्था की दृष्टि से उनके भेद किए गए है में सिद्ध होते हैं, पर यदा कदा मेरुपर्वत की चूलिका पर से भी (१) स्त्री सिद्ध जीव सिद्ध हो जाते हैं। मेरुपर्वत की ऊंचाई एक लाख योजन (२) पुरुष सिद्ध परिमाण है अतः वह ऊर्ध्व-लोक की सीमा में आ जाता है। (३) नपुंसक सिद्ध इसीलिए वहां पर से मुक्त होने वाले जीवों का 'सिद्धि-क्षेत्र' (४) स्व-लिङ्ग सिद्ध ऊर्ध्व-लोक ही होता है।' (५) अन्य-लिङ्ग सिद्ध अहे-अधो-लोक के क्षेत्र की लम्बाई सात रज्जू से कुछ अधिक है। साधारणतया वहां मुक्ति नहीं होती, पर महाविदेह (६) गृहि-लिङ्ग सिद्ध की दो विजय मेरु के रुचक प्रदेशों से हजार योजन नीचे तक (७) उत्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्ध चली जाती है। तिर्यक्-लोक की सीमा नौ सौ योजन है। उससे (८) जघन्य अवगाहना वाले सिद्ध आगे अधोलोक की सीमा आ जाती है। उस सौ योजन की (६) मध्यम अवगाहना वाले सिद्ध भूमि में जीव कर्म-मुक्त होते हैं। (१०) ऊंची दिशा में होने वाले सिद्ध तिरियं-तिर्यक्-लोक 'मनुष्य-क्षेत्र' को ही कहते हैं। (११) नीची दिशा में होने वाले सिद्ध अढ़ाई द्वीप प्रमाण तिरछे और अठारह सौ योजन प्रमाण लम्बे (१२) तिरछी दिशा में होने वाले सिद्ध इस भू-भाग में कहीं से भी जीव सिद्ध हो सकते हैं। (१३) समुद्र में होने वाले सिद्ध । नंदी (सूत्र २१) में सिद्धों के पन्द्रह प्रकार निर्दिष्ट हैं(१४) नदी आदि में होने वाले सिद्ध (१) तीर्थ सिद्ध-अरिहंत के द्वारा तीर्थ की स्थापना ये चौदह प्रकार हैं। इनमें पहले तीन प्रकार लिङ्ग की होने के बाद मुक्त होने वाले। अपेक्षा से हैं। इसका तात्पर्य यह है कि स्त्री, पुरुष और (२) अतीर्थ सिद्ध तीर्थ-स्थापना से पहले मुक्त होने नपुंसक (कृत नपुंसक) ये तीनों सिद्ध हो सकते हैं। वाले। __ अगले तीन प्रकार वेश की अपेक्षा से हैं। इसका तात्पर्य (३) तीर्थकर सिद्ध तीर्थडूकर-अवस्था से पहले मुक्त यह है कि जैन-साधुओं के वेश में, अन्य साधुओं के वेश में होने वाले। और गृहस्थ के वेश में भी जीव सिद्ध हो सकते हैं। (४) अतीर्थङ्कर सिद्ध तीर्थकर के अतिरिक्त मुक्त तीसरे त्रिक के तीन प्रकार के शरीर की लम्बाई की होने वाले। अपेक्षा से हैं। इसका तात्पर्य यह है कि निर्दिष्ट अवगाहना वाले स्वयंबुद्ध सिद्ध-अपने आप किसी बाहरी निमित्त जीव ही सिद्ध होते हैं। की प्रेरणा के बिना-दीक्षित होकर मुक्त होने ओगाहणा-शरीर की ऊंचाई को 'अवगाहना' कहते हैं। वाले। सिद्ध होने वाले जीवों की अधिक से अधिक ऊंचाई ५०० प्रत्येकबुद्ध सिद्ध किसी एक निमित्त से दीक्षित धनुष की होती है। कम से कम ऊंचाई २ हाथ की होती है। होकर मुक्त होने वाले। दो हाथ से अधिक और ५०० धनुष से कम की ऊंचाई को बुद्धबोधित सिद्ध-उपदेश से प्रतिबोध पाकर, 'मध्यम अवगाहना' कहते हैं। सिद्धों की अवगाहना जघन्य, दीक्षित हो, मुक्त होने वाले। उत्कृष्ट तथा मध्यम-तीनों ही प्रकार की होती है। (८) स्त्रीलिङ्ग सिद्ध-स्त्रीलिङ्ग में मुक्त होने वाले। अन्तिम पांच प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा से हैं। इसका पुरुषलिग सिद्ध–पुरुषलिङ्ग में मुक्त होने वाले। तात्पर्य यह है कि जीव कदाचित् विशेष संयोगों में ऊंचे लोक (१०) नपुंसकलिङ्ग सिद्ध-जो जन्म से नपुंसक नहीं, (नो सौ योजन से ऊपर), नीचे लोक (नौ सौ योजन से नीचे) किन्तु किसी कारणवश नपुंसक बने हों, उस और जलाशय आदि में भी सिद्ध हो सकते हैं। स्थिति में मुक्त होने वाले। __ उड्ढं-जैन-साहित्य में लोक को तीन भागों में विभक्त (११) स्वलिङ्ग सिद्ध-जैन-साधुओं के वेश में मुक्त किया गया है—ऊर्ध्व-लोक, अधो-लोक और तिर्यक्-लोक। होने वाले। यद्यपि मूल पाठ में 'ऊर्ध्व' शब्द का ही प्रयोग किया गया है, (१२) अन्यलिङ्ग सिद्ध—अन्य-साधुओं के वेश में मुक्त पर प्रकरण से उसका अर्थ 'ऊर्ध्व-लोक' होता है। ऊंचाई की होने वाले। दृष्टि से सारा लोक १४ रज्जू-प्रमाण है। ऊर्ध्व-लोक की (१३) गृहलिङ्ग सिद्ध-गृहस्थ के वेश में मुक्त होने ऊंचाई ७ रज्जू से कुछ कम है। साधारणतया जीव तिर्यक्-लोक वाले। (10) १. बृहदवृत्ति, पत्र ६८३ : 'ऊर्ध्व' मित्यूर्ध्वलोके मेरुचूलिकादी सिद्धाः। २. वही, पत्र ६८३ : 'अधश्च' अधोलोकेऽर्थादधोलौकिकग्रामरूपेऽपि सिद्धाः। Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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