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________________ भिक्षुक २५९ रहना 'संवास संस्तव' है और असाधु व्यक्तियों के साथ आलाप संलाप करना 'वचन-संस्तव' है।' वृत्तिकार ने संस्तव के प्रकारांतर से दो भेद किए हैंपूर्व-संस्तव और पश्चात् संस्तव । पितृ पक्ष का सम्बन्ध 'पूर्व- संस्तव' और ससुर पक्ष, मित्र आदि का सम्बन्ध 'पश्चात् संस्तव' कहलाता है।" ६. जो काम-भोगों की अभिलाषा को छोड़ चुका है (अकामकामे) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'मोक्ष की कामना करने वाला' किया है। शान्त्याचार्य के अनुसार काम दो प्रकार के होते हैं— इच्छाकाम और मदनकाम। जो इन दोनों की कामना नहीं करता, वह 'अकामकाम' है।* विकल्प में उन्होंने चूर्णिकार का अनुसरण किया है। ७. जो तप आदि का परिचय.....खोज करता है (अन्नायएसी) दशवैकालिक १० । १६ में 'अन्नायउंछं' शब्द प्रयुक्त है। वहां अन्नाय - 'अज्ञात' का अर्थ है-अज्ञातकुल प्रस्तुत प्रकरण में 'अज्ञात' का अर्थ है-तप आदि का ज्ञान कराए बिना।" अज्ञातैषी का अर्थ होता है-तप आदि का परिचय दिए बिना भिक्षा की खोज करने वाला। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-किसी की निश्रा आश्रय लिए बिना भिक्षा करने वाला किया है । " ८. जो राग से उपस्त होकर विहार करता है (ओवरयं चरेज्ज) 'राओवरयं' के संस्कृत रूप दो हो सकते हैं रागोपरतम् और रात्रि - उपरतम् । प्रथम रूप के अनुसार शांत्याचार्य ने इस वाक्य का अर्थ 'राग (मैथुन) से निवृत्त होकर विहरण करे' और दूसरे रूप के अनुसार 'रात्रि भोजन से निवृत्त होकर विहरण करे' किया है।" चूर्णिकार ने 'रात्रि - उपरत' के अनुसार इसका अर्थ 'रात्रि में भोजन न करे, रात्रि में गमन आदि क्रियाएं न करे' किया है। नेमिचन्द्र ने शान्त्याचार्य के प्रथम अर्थ का अनुसरण किया उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० २३४-२३५ संस्तवो द्विविधः संवाससंस्तवः वचनसंस्तवश्च, अशोभनैः सह संवासः, वचनसंस्तवश्च तेषामेव । २. वृहद्वृत्ति पत्र ४१४ : पूर्वसंस्तुतैर्मात्रादिभिः पश्चात्संस्तुतैश्च श्वशवादिभिः । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २३५: अकामः अपगतकामः कामो द्विविधःइच्छाकामो मदनकामश्च, अपगतकामस्य या इच्छा तो कामयति सा च कामेच्छा मोक्षं कामयतीति प्रार्थयतीत्यर्थः । ३. १. ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४: कामान्-इच्छाकाममदनकामभेदान् कामयतेप्रार्थयते यः स कामकामो, न तथा अकामकामः । ५. वृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ यद्वा ऽकामो मोक्षस्तत्र सकलाभिलाषनिवृत्तेस्तं कामयते यः स तथा । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ | ७. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २३५ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : रागः - अभिष्वंगः उपरतो— निवृत्तो यस्मिंस्तद्रा गोपरतं यथा भवत्येवं 'चरेद्' विहरेत् क्तान्तस्य परनिपातः प्राग्वात्, अनेन मैथुननिवृत्तिरुक्ता, रागाविनाभावित्वान्मैथुनस्य, यद्वाऽऽवृत्तिन्यायेन 'रातोवरयं' ति रात्र्युपरतं चरेत्, भक्षयेदित्यनेनैव रात्रिभोजननिवृत्तिरप्युक्ता । Jain Education International है ।" वह अधिक प्रासंगिक है। ९. आगम को जानने वाला और आत्म-रक्षक है (वेयवियाऽऽयर विहार) शांत्याचार्य ने मुख्य रूप से इन दो शब्दों को एक मान कर इसका अर्थ 'सिद्धांतों को जान कर उनके द्वारा आत्मा की रक्षा करने वाला' किया है और गौण रूप में इन दोनों शब्दों को अलग-अलग मान कर 'वेयविय' का अर्थ 'ज्ञानवान्' और 'आयरक्खिए' का अर्थ 'सम्यग्दर्शन आदि के लाभ की रक्षा करने वाला' किया है।" १०. जो प्रज्ञ है (पन्ने) अध्ययन १५ : श्लोक १-२ टि० ६-११ चूर्णिकार ने प्राज्ञ (प्रज्ञ) का अर्थ-आय और उपाय की विधि को जानने वाला किया है। प्राज्ञ वह होता है जो आयसम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र के लाभ तथा उत्सर्ग, अपवाद, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की विधियों को जानने वाला हो। वृत्ति में इसका अर्थ- 'हेय और उपादेय को जानने वाला' किया है ।" ११. जो परीषहों को..... आत्म-तुल्य समझने वाला है (अभिभूय सव्वदंसी) चूर्णि में 'अभिभूय' का अर्थ-तिरस्कार कर तथा 'सर्वदर्शी ' का अर्थ -- सबको आत्मतुल्य समझने वाला — किया है। वृत्ति मे 'अभिभूय के दो अर्थ प्राप्त है परीबों तथा उपसर्गों को पराजित कर तथा राग-द्वेष का अभिभव कर । वृत्तिकार ने 'सव्वदंसी' के दो संस्कृत रूप देकर दो भिन्न-भिन्न अर्थ किए हैंसर्वदर्शी प्राणीमात्र को आत्मवत् देखने वाला अथवा सर्व वस्तुजात को समदृष्टि से देखने वाला । १. £. २. सर्वदशी - सब कुछ खा जाने वाला, लेपमात्र भी नहीं छोड़ने वाला । " आचारांग में 'वीरेहिं एवं अभिभूय दिट्ठ' ऐसा पाठ है।" यहां 'अभिभूय' शब्द विशेष अर्थ का द्योतक है। इसका अर्थ उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० २३५: रात्रादुपरतं चरेत्, किमुक्तं भवति ?, रात्रौ न भुंक्ते, रात्रौ गतादिक्रियां न कुर्यात् । १०. सुखबोधा, पत्र २१५ । ११. बृहद्वृत्ति पत्र ४१४ वेद्यतेऽनेन तत्त्वमिति वेदः सिद्धान्तरतस्य वेदनं वित् तया आत्मा रक्षितो दुर्गतिपतनात्त्रातो ऽनेनेति वेदविदात्मरक्षितः, यद्वा वेदं वेत्तीति वेदवित् तथा रक्षिता आयाः सम्यग्दर्शनादिलाभा येनेति रक्षितायः । १२. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २३५: प्राज्ञो विदुः संपन्नो आयोपायविधिज्ञो भवेत्, उत्सर्गापवादद्रव्याद्यापदादिको य उपायः । १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : प्राज्ञ:---- --- हेयोपादेयबुद्धिमान् । १४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३५: अभिभूय — तिरस्कृत्य सव्वदसीआत्मवत् सर्वदर्शी भवेत् । १५. बृहद्वृत्ति पत्र ४१४-४१५ अभिभूय पराजित्य परीषहोपसर्गादिति For Private & Personal Use Only गम्यते, सर्व समस्तं गम्यमानत्वात् प्राणिगणं पश्यति--आत्मवत् प्रेक्षत इत्येवंशीलः, अथवाऽभिभूय रागद्वेषी सर्व वस्तु समतया पश्यतीत्येवंशीलः सर्वदर्शी, यदि वा सर्व दशति - भक्षयतीत्येवंशीलः सर्वदंशी । १६. आयारो १।६८ www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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