SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आमुख इस अध्ययन का नाम 'खुड्डागनियंठिज्ज'--'क्षुल्लक- त्राण नहीं है। साधु देह-मुक्त नहीं होता फिर भी प्रतिपल निर्ग्रन्थीय' है। दशवैकालिक के तीसरे अध्ययन का नाम उसके मन में यह चिन्तन होना चाहिए कि देह-धारण का 'खुड्डियायारकहा'-'क्षुल्लकाचारकथा' और छठे अध्ययन का प्रयोजन पूर्व-कों को क्षीण करना है। लक्ष्य जो है वह बहुत नाम 'महायारकहा'-'महाचारकथा' है। इनमें क्रमशः मुनि के ऊंचा है, इसलिए साधक को नीचे कहीं भी आसक्त नहीं होना आचार का संक्षिप्त और विस्तृत निरूपण हुआ है। इसी प्रकार चाहिए। उसकी दृष्टि सदा ऊर्ध्वगामी होनी चाहिए (श्लोक १३)। इस अध्ययन में भी निर्ग्रन्थ के बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ-त्याग इस प्रकार इस अध्ययन में अध्यात्म की मौलिक विचारणाएं (परिग्रह-त्याग) का संक्षिप्त निरूपण है।' उपलब्ध हैं। - 'निर्ग्रन्थ' शब्द जैन-दर्शन का बहुत प्रचलित और बहुत इस अध्ययन के अन्तिम श्लोक का एक पाठान्तर है। प्राचीन शब्द है। बौद्ध-साहित्य में स्थान-स्थान पर भगवान् उसके अनुसार इस अध्ययन के प्रज्ञापक भगवान् पार्श्वनाथ हैं। महावीर को 'निगण्ठ' (निर्ग्रन्थ) कहा है। तपागच्छ पट्टावली के मूल-- अनुसार सुधर्मा स्वामी से आठ आचार्यों तक जैनधर्म एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अगुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणघरे। 'निर्ग्रन्थ-धर्म' के नाम से प्रचलित था। अशोक के एक अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए। स्तम्भ-लेख में भी 'निर्ग्रन्थ' का द्योतक 'निघंठ' शब्द प्रयुक्त पाठान्तरहुआ है। एवं से उदाहु अरिहा पासे पुरिसादाणीए। अविद्या और दुःख का गहरा सम्बन्ध है। जहां अविद्या है भगवं वेसालीए बुद्ध परिणिब्बुए। बहवृत्ति, पत्र २७०) वहां दुःख है, जहां दुःख है, वहां अविद्या है। पतंजलि के शब्दों यद्यपि चूर्णि और टीकाकार ने इस पाठान्तर का अर्थ में अविद्या का अर्थ है-अनित्य में नित्य की अनुभूति, अशुचि भी महावीर से सम्बन्धित किया है। 'पास' का अर्थ हैमें शुचि की अनुभूति, दुःख में सुख की अनुभूति और अनात्मा 'पश्यतीति पाशः' या 'पश्यः' किया है। किन्तु यह संगत नहीं में आत्मा की अनुभूति। लगता। पुरुषादानीय यह भगवान् पार्श्वनाथ का सुप्रसिद्ध सूत्र की भाषा में विद्या का एक पक्ष है सत्य और दूसरा विशेषण है। इसलिए उसके परिपार्श्व में 'पास' का अर्थ पार्श्व पक्ष है मैत्री—'अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए, (श्लोक ही होना चाहिये। यद्यपि 'वेसालीय' विशेषण भगवान् महावीर २)। जो कोरे विद्यावादी या ज्ञानवादी हैं उनकी मान्यता है कि से अधिक सम्बन्धित है फिर भी इसके जो अर्थ किये गए हैं यथार्थ को जान लेना पर्याप्त है, प्रत्याख्यान की कोई आवश्यकता उनकी मार्यादा से वह भगवान् पार्श्व का भी विशेषण हो सकता नहीं है। क्रिया का आचरण उनकी दृष्टि में व्यर्थ है। किन्तु है। भगवान् पार्श्व इक्ष्वाकुवंशी थे। उनके गुण विशाल थे और भगवान् महावीर इसे वागवीर्य मानते थे, इसलिए उन्होंने उनका प्रवचन भी विशाल था, इसलिए उनके 'वैशालिक' होने में आचरण-शून्य भाषावाद और विद्यानुशासन को अत्राण बतलाया कोई आपत्ति नहीं आती। इस पाठान्तर के आधार से यह (श्लोक ८-१०)। अनुमान किया जा सकता है कि यह अध्ययन मूलतः पार्श्व की ग्रन्थ (परिग्रह) को त्राण मानना भी अविद्या है। इसलिए परम्परा का रहा हो और इसे उत्तराध्ययन की श्रृंखला में भगवान् महावीर ने कहा- “परिवार त्राण नहीं है", "धन भी सम्मिलित करते समय इसे महावीर की उपदेश-धारा का रूप त्राण नहीं है" (श्लोक ३-५)। और तो क्या, अपनी देह भी दिया गया हो। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २४३ : सावज्जगंथमुक्का, अब्मिन्तरबाहिरेण गंथेण। एसा खलु निज्जुत्ती, खुड्डागनियंठसुत्तस्स ।। २. तपागच्छपट्टावलि (पं० कल्याणविजय संपादित) भाग १, पृष्ठ २५३: श्री सुधर्मास्वामिनोऽष्टी सूरीन् यावत् निर्ग्रन्थाः। ३. दिल्ली-टोपरा का सप्तमस्तम्भ लेख : निघंटेसु पि में कटे (,) इमे वियापटा होहति। ४. पातंजल योगसूत्र २।५ : अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्या तिरविद्या। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १५६-५७ : गुणा अस्य विशाला इति वैशालियः, विशालं शासनं वा, विशाले वा इक्ष्वाकुवंशे भवा वैशालीया। “वैशाली जननी यस्य, विशालं कुलमेव च। विशालं प्रवचनं वा, तेन वैशालिको जिनः ।।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy