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________________ उत्तरज्झयणाणि ४८८ अध्ययन २६ : सूत्र ४-७ टि०३-१० होते हैं-(१) शब्द, रूप आदि के प्रति होने वाला विकर्षण, व्यक्ति मनुष्य की सुगति का जीवन जीता है। पदार्थ के प्रति अनासक्तभाव, (२) सुखात्मक संवेदन के प्रति देवता की दुर्गति का अर्थ है-देवताओं में किल्विषिक विकर्षण। पहला वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) वैराग्य है और दूसरा आदि होना और देवता की सुगति का अर्थ है—देवलोक में अनुभूतिगत (सब्जेक्टिव) वैराग्य है। इन्द्र आदि बनना। ३. वैषयिक सुखों की (सायासोक्खेसु) ८. सिद्धि सुगति का मार्ग (सिद्धिं सोग्गइं) सुख और साता—ये दो शब्द हैं। सुख शब्द व्यापक है। सुगति सिद्धि का विशेषण है। वृत्तिकार ने 'सिद्धिसोग्गइ' यह पौद्गलिक और आत्मिक-दोनों प्रकार का होता है। साता को एक पद माना है। पौद्गलिक होती है। स्थानांग में चार सुगतियों का उल्लेख है----सिद्ध सुगति, वृत्ति में साता का अर्थ है—सातवेदनीय कर्म। उससे देव सुगति, मनुष्य सुगति और सुकुल में जन्म। उत्पन्न या प्राप्त सुखों को सातासौख्य कहा गया है। तात्पर्य में ९. माया, निदान और मिथ्या-दर्शन-शल्य को यह समस्त वैषयिक सुखों का वाचक है।' (मायानियाणमिच्छादसणसल्लाण) ४. अगारधर्म-गृहस्थी (अगारधम्म) जो मानसिक वृत्तियां और अध्यवसाय शल्य (अन्तव्रण) इसके दो अर्थ हैं की तरह क्लेशकर होते हैं, उन्हें 'शल्य' कहा जाता है। वे तीन (१) गृहस्थ का बारह व्रत रूप धर्म--दुवालसविहे अगारधम्मे पण्णत्ते। (१) माया। (२) गृहस्थ का आचार या कर्त्तव्य। (२) निदान-तप के फल की आकांक्षा करना, भोग की प्रस्तुत प्रसंग में दूसरा अर्थ ही संगत है। प्रार्थना करना। ५. गुरु का अविनय या परिवाद करने वाला नहीं होता (३) मिथ्या-दर्शन-मिथ्या दृष्टिकोण। (अणच्चासायणसीले) ये तीनों मोक्ष-मार्ग के विध्न और अनन्त संसार के हेतु आशातना का अर्थ है-अवज्ञा या अवमानना। हैं। स्थानांग (१०७१) में कहा है--आलोचना (अपना अनत्याशातन का अर्थ है---गुरु की अवज्ञा न करने वाला, गुरु दोष-प्रकाशन) वही व्यक्ति कर सकता है, जो मायावी नहीं का परिवाद न करने वाला। होता। ६. (वण्णसंजलणभत्तिबहुमाणयाए) १०. मोह को क्षीण करने में समर्थ परिणाम-धारा को वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान-ये चारों (करणगुणसेटिं) विनय-प्रतिपत्ति के अंग हैं। वर्ण का अर्थ है 'श्लाघा । कीर्ति, संक्षेप में 'करण-सेढि' का अर्थ है 'क्षपक-श्रेणि'। वर्ण, शब्द और श्लोक-ये चारों पर्याय-शब्द हैं। इनमें कुछ मोह-विलय की दो प्रक्रियाएं हैं जिसमें मोह का उपशम अर्थ-भेद भी हैं। होते-होते वह सर्वथा उपशान्त हो जाता है, उसे 'उपशम-श्रेणि' संज्वलन का अर्थ है 'गुण-प्रकाशन'।" कहा जाता है। जिसमें मोह क्षीण होते-होते पूर्ण क्षीण हो जाता भक्ति का अर्थ है 'हाथ जोड़ना, गुरु के आने पर खड़ा है, उसे 'क्षपक-श्रेणि' कहा जाता है। उपशम-श्रेणि से मोह का होना, आसन देना आदि-आदि।" सर्वथा उद्घात नहीं होता, इसलिए यहां क्षपक-श्रेणि ही प्राप्त बहुमान का अर्थ है 'आन्तरिक अनुराग।" है।" करण का अर्थ 'परिणाम' है। क्षपक-श्रेणि का प्रारम्भ दशवकालिक चूर्णि में भक्ति और बहुमान में जो अन्तर आठवें गुणस्थान से होता है। वहां परिणाम-धारा वैसी शुद्ध है, उसे एक उदाहरण द्वारा समझाया है। होती है, जैसे पहले कभी नहीं होती। इसीलिए आठवें गुणस्थान ७. (मणुस्सदेवदोग्गईओ...मणुस्सदेवसोग्गईओ) को 'अपूर्व-करण' कहा जाता है। अपूर्व-करण से जो गुण-श्रेणि अपराधपूर्ण आचरण करने वाला व्यक्ति मनुष्य की प्राप्त होती है, उसे 'करण गुण-श्रेणि' कहा जाता है। यह दुर्गति का जीवन जीता है और सदाचार का पालन करने वाला जब प्राप्त होती है तब मोहनीय कर्म के परमाणुओं की स्थिति १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७८ : सात-सातवेदनीय तज्जनितानि सौख्यानि सातसौख्यानि प्राग्वन् मध्यपदलोपी समासस्तेषु वैषयिकसुखेष्विति यावत्। २. वही, पत्र ५७६ : वर्णः-श्लाघा। ३. दसवेआलियं, ६,७। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७६ : सज्वलनं-गुणोद्भासनम् । ५. वही, पत्र ५७६ : भक्तिः-अञ्जलिप्रग्रहादिका। ६. वही, पत्र ५७६ : बहुमानम्--आन्तरप्रीतिविशेषः । ७. दशवकालिक, जिनदास चूर्णि, पृ० ६६। .. वृहद्वृत्ति, पत्र ५७६ : सिद्धिसोग्गई ति सिद्धि सुगति। ६. ठाणं, ४३६। १०. बृह्रवृत्ति, पत्र ५७६ : निदान--समातस्तपःप्रभृत्यादेरिदं स्यात् इति प्रार्थनात्मकम्। ११. वही, पत्र ५८० : प्रक्रमाक्षपक श्रेणिरेव गृह्यते। १२. वहीं, पत्र ५७६ : करणेन-अपूर्वकरणेन गुणहेतुका श्रेणिः करणगुणश्रेणिः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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