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________________ परीषह प्रविभक्ति अपराध हुआ है?' मुनि ने कहा- 'तूने उस दुष्ट आदमी को डांटा तक नहीं।' देव बोला- 'गुरुदेव ! मैं वहां आया तो था पर पहचान नहीं सका कौन था दुष्ट आदमी और कौन था श्रमण ? वे दोनों एक जैसे ही थे ।' ४४. (श्लोक २५) प्रस्तुत श्लोक में भाषा के तीन विशेषण प्राप्त हैं- परुष, दारुण और ग्रामकण्टक। ४९ अध्ययन २ : श्लोक २५,२६ टि० ४४-४७ 1 अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण हो, महावीर मेरी गति हों। इस वेला में यदि मेरे इस देह से कोई प्रमाद हो (मेरा मरण हो) तो मैं आहार, उपधि और काय का तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान करता हूं। वह नमस्कार मंत्र का पांच बार स्मरण कर कायोत्सर्ग में स्थित हो गया । इतने में ही अर्जुन वहां आया। पर उसे तब अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वह उस व्यक्ति पर प्रहार करने में असमर्थ हो रहा है। उसने अपना सारा पुरुषार्थ प्रहार करने के लिए लगा दिया। पर, सब व्यर्थ । यक्ष अर्जुन के शरीर से निकल गया। अर्जुन वहीं भूमि पर गिर पड़ा । चेतना प्राप्त कर वह उठा और सुदर्शन से पूछा- मैं कहां हूं? मैंने ऐसा क्यों किया? मेरी क्या स्थिति है? मैं अपने आपको नहीं जानता । तुम मुझे बताओ। सुदर्शन ने सारी बात बताई। मालाकार का मन आन्दोलित हो उठा। वह भी सुदर्शन के साथ भगवान् की सन्निधि में पहुंचा। उसने पूछा-भंते! मैं घोर पापी हूं। मेरी विशोधि कैसे हो सकती है? भगवान बोले- विशोधि के दो साधन हैं–तपस्या और संयम यह सुनकर मालाकार भगवान के पास प्रव्रजित हो गया । परुष- वह भाषा जो स्नेहरहित, अनौपचारिक और कर्कश हो।' दारुण— वह भाषा जो मन को फाड़ डाले, कमजोर साधकों को संयम धृति को तोड़ दे । * ग्रामकण्टक—यहां ग्राम शब्द इन्द्रिय- ग्राम (इन्द्रिय समूह) के अर्थ में प्रयुक्त है। ग्रामकण्टक अर्थात् कानों में कांटों की भांति चुभने वाले इन्द्रियों के विषय, प्रतिकूल शब्द आदि । ये कांटे इसलिए हैं कि ये दुःख उत्पन्न करते हैं और मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त साधकों के लिए विघ्नकारी होते हैं। मूलाराधना में 'ग्रामवचीकंटगेहिं' का प्रयोग है। उसका अर्थ है-ग्राम्य लोगों के वचनरूपी कांटों से । प्रस्तुत श्लोक में 'ग्रामकण्ट' का प्रयोग है। यहां मध्यपद 'वची' का लोप मान लेने पर उसका अनुवाद ग्राम्य लोगों की कांटों के समान चुभने वाली भाषा — किया जा सकता है। ४५. आक्रोश परीषद राजगृह नगर मुद्गरपाणी यक्ष का आयतन । यक्ष का परम भक्त अर्जुन मालाकार । स्कन्द श्री उसकी पत्नी । दोनों का ईष्टदेव था मुद्गरपाणी यक्ष। एक बार छह युवकों ने स्कन्दश्री पर आक्रमण किया। अर्जुन मालाकार ने देखा । मुद्गरपाणी यक्ष मालाकार के शरीर में प्रविष्ट हुआ। मालाकार ने छहों व्यक्तियों तथा अपनी पत्नी को मुद्गर से मार डाला। अब वह प्रतिदिन सात व्यक्तियों (छह पुरुष और एक स्त्री) की हत्या करने लगा । कुछ समय बीता। भगवान महावीर जनपद विहार करते हुए वहां आए। राजगृह के बाह्य उद्यान में ठहरे। चारों ओर अर्जुन मालाकार का भय व्याप्त था। कोई भी व्यक्ति भगवान के दर्शन करने जाने को उद्यत नहीं था । श्रेष्ठीपुत्र सुदर्शन 'जं होइ तं होइ' को ध्यान में रख भगवद् दर्शन के लिए चला। अर्जुन को सामने आते देख, सुदर्शन ने मन ही मन कहा- मुझे उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७०: फरुसा निःस्नेहा अनुपचारा श्रमणको निल्लज्जा इत्यादि । 9. २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७० मणं दारयतीति दारुण । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ११२ दारयन्ति मन्दसत्त्वानां संयमविषयां धृतिमिति दारुणाः । ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७० ग्रसत इति ग्रामः - इन्द्रियग्रामः तस्य इन्द्रियग्रामस्य कंटगा, जहा पंथे गच्छंताणं कंटगा विघ्नाय, तहा सद्दादयोवि इन्द्रियग्रामकंटया मोक्षिणां विघ्नायेति । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १११ । (ग) देखो - दशवैकालिक १०।११ का टिप्पण । Jain Education International -- वह भक्तपान के लिए राजगृह में जाता। उसे देखते ही लोगों की स्मृति उभर जाती। कोई कहता- - इसने मेरे पिता को, कोई कहता मेरे भाई को, कोई कहता- मेरी पत्नी को, कोई कहता -- मेरे पुत्र को इस हत्यारे ने मारा है । वे उस पर ढेले फेंकते, मारते। पर मुनि अर्जुन उन सभी प्रकार के आक्रोशों को समभाव से सहता । संयम की विशुद्ध परिपालना और समता की आराधना से कर्मों का क्षय कर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। ४६. मन में न लाए (मणसीकरे ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-मानसिक असमाधि किया है। प्रतिकूल भाषा को सुनकर भी मुनि अपनी मानसिक समाधि न खोए, मानसिक असमाधि में न जाए। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-परुष भाषा बोलने वाले व्यक्ति के प्रति मन में भी द्वेष न लाए।" ४७. क्रोध (संजले) चूर्णिकार ने संज्वलन का अर्थ रोषोद्गम या मानोदय किया है । उन्होंने उसका लक्षण बताते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है । - ४. ५. ६. ७. ८. मूलाराधना, आश्वास ४, श्लोक ३०१, मूलाराधनादर्पणवृत्ति, पत्र ५१५ : दुस्सहपरीसहेहिं य, गामवचीकंटएहिं तिक्खेहिं । अभिभूदा विहु संता, मा धम्मधुरं पमुच्चेह ।। - ग्रामवचीकंटगेहिं – ग्राम्याणामविविक्तजनानां वचनानि एव कंटकास्तैराक्रोशवचनैरित्यर्थः । सुखबोथा, पत्र ३५ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७० मन करणं णाम तदुपयोगः मनसो ऽसमाथिरित्यर्थः । बृहद्वृत्ति, पत्र ११२ : न ता मनसि कुर्यात्, तद् भाषिणि द्वेषाकरणेनेति भावः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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