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________________ उत्तरज्झयणाणि १३४ अध्ययन ७: श्लोक १७-२५ द्विधा गतिर्बालस्य आपद् वधमूलिका। देवत्वं मानुषत्वं च यज्जितो लोलता-शठः।। अज्ञानी जीव की दो प्रकार की गति होती है—नरक और तिर्यञ्च। वहां उसे वधहेतुकर आपदा प्राप्त होती है। वह लोलुप और वंचक पुरुष देवत्व और मनुष्यत्व को पहले ही हार जाता है। द्विविध दुर्गति में गया हुआ जीव सदा हारा हुआ होता है। उसका उनसे बाहर निकलना दीर्घकाल के बाद भी दुर्लभ है। इस प्रकार हारे हुए को देखकर तथा बाल और पण्डित की तुलना कर जो मानुषी योनि में आते हैं, वे मूलधन के साथ प्रवेश करते हैं। १७. दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया। देवत्तं माणुसत्तं च जं जिए लोलयासढे।। १८.तओ जिए सई होइ दुविहं दोग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मज्जा अखाए सुइरादवि।। १६.एवं जियं सपेहाए तुलिया बालं च पंडियं । मूलियं ते पवेसंति माणुसं जोणिमेंति जे।। २०. वेमायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुव्वया। उवेंति माणुसं जोणिं कम्मसच्चा हु पाणिणो।। २१.जेसिं तु विउला सिक्खा मूलियं ते अइच्छिया। सीलवंता सवीसेसा अद्दीणा जंति देवयं ।। २२. एवमद्दीणवं भिक्खुं अगारिं च वियाणिया। कहण्णु जिच्चमेलिक्खं जिच्चमाणे न संविदे?।। ततो जितः सदा भवति द्विविधां दुर्गतिं गतः। दुर्लभा तस्योन्मज्जा अध्वनः सुचिरादपि।। एवं जितं सम्प्रेक्ष्य तोलयित्वा बालं च पण्डितम्।। मूलिकां ते प्रविशन्ति मानुषीं योनिमायान्ति ये।। विमात्राभिः शिक्षाभिः ये नराः गृहिसुव्रताः। उपयन्ति मानुषीं योनि कर्मसत्याः खलु प्राणिनः।। येषां तु विपुला शिक्षा मूलिकां तेऽतिक्रम्य। शीलवन्तः सविशेषाः अदीना यान्ति देवताम्।। एवमदैन्यवन्तं भिडं अगारिणं च विज्ञाय। कथं नु जीयते ईदृक्षं जीयमानो न संवित्ते?।। जो मनुष्य विविध परिमाण वाली शिक्षाओं द्वारा घर में रहते हुए भी सुव्रती हैं, वे मानुषी योनि में उत्पन्न होते हैं। क्योंकि प्राणी कर्म-सत्य होते हैं-अपने किये हुए का फल अवश्य पाते हैं।२८ जिनके पास विपुल शिक्षा है वे शील-संपन्न और उत्तरोत्तर गुणों को प्राप्त करने वाले अदीनपराक्रमी" पुरुष मूलधन (मनुष्यत्व) का अतिक्रमण करके देवत्व को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार पराक्रमी भिक्षु और गृहस्थ को (अर्थात् उनके पराक्रम-फल को) जानकर विवेकी पुरुष ऐसे लाभ को कैसे खोएगा? वह कषायों के द्वारा पराजित होता हुआ क्या यह नहीं जानता कि 'मैं पराजित हो रहा हूं?' यह जानते हुए उसे पराजित नहीं होना चाहिए। मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग देव सम्बन्धी काम-भोगों की तुलना में वैसे ही हैं, जैसे कोई व्यक्ति कुश की नोक पर टिके हुए जल-बिन्दु की समुद्र से तुलना करता है। २३.जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे। एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अंतिए।। २४. कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्धंमि आउए। कस्स हेउं पुराकाउं जोगक्खेमं न संविदे?।।। २५. इह कामाणियट्टस्स अत्तठे अवरज्झई। सोच्चा नेयाउयं मग्गं जं भुज्जो परिभस्सई ।। यथा कुशाग्रे उदकं समुद्रेण समं मिनुयात्। एवं मानुष्यकाः कामाः देवकामानामन्तिके।। कुशाग्रमात्रा इमे कामाः सन्निरुद्ध आयुषि। कं हेतुं पुरस्कृत्य योगक्षेमं न संवित्ते?।। इस अति-संक्षिप्त आयु में३३ ये काम-भोग कुशाग्र पर स्थित जल-बिन्दु जितने हैं। फिर भी किस हेतु को सामने रखकर मनुष्य योगक्षेम को नहीं समझता ?३५ इस मनुष्य भव में काम-भोगों से निवृत्त न होने वाले पुरुष का६ आत्म-प्रयोजन नष्ट हो जाता है। वह पार ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी बार-बार भ्रष्ट होता है। इह कामाऽनिवृत्तस्य आत्मार्थोऽपराध्यति। श्रुत्वा नैर्यातृकं मार्ग यद् भूयः परिभ्रश्यति।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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