Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charita Mahakavyam_01
Author(s): Hemchandracharya, Charanvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन-आत्मानन्द-शताब्दि-ग्रन्थमालायाः सप्तमो ग्रन्थाङ्कः [.] । न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्य-श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीविजयवल्लभसूरिभ्यो नमः । कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यसन्दृब्धं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । तस्सायं पाठान्तरादिसमलङ्कतः प्रथमो विभागः । ऋषभखामि-भरतचक्रवर्तिचरितप्रतिबद्धं प्रथमं पर्व । सम्पादकः संशोधकश्च स्व-परसिद्धान्तपरमार्थप्रपञ्चप्रवीण-बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्य-न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्द सूरीश्वर(प्रसिद्धनाम-श्रीआत्मारामजीमहाराज)पट्टधराचार्यश्रीविजयवल्लभसूरीशमुख्यशिष्यरततपोनिधि-श्रीविवेकविजयसुशिष्याचार्यपदोपशोभितश्रीविजयोमङ्गसूरिविनेयश्चरणविजयः । __ प्रकाशयित्री-श्रीजैन-आत्मानन्दसभा, भावनगर (काठियावाड) [प्रतयः १२५०] वीरसंवत् २४६२, विक्रमसंवत् १९९२, आत्मसंवत् ४१, ईखी सन् १९३६. For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदं पुस्तकं मुम्बय्यां कालबादेवीरोड-कोलभाटवीथ्या २६-२८ तमे गृहे निर्णयसागरमुद्रणालये रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापितम् SOSIAGO प्रथमावृत्तिः १२५० मूल्यं रूप्यकं सार्बेकम् १-८-० प्रकाशितं च तत् “वल्लभदास त्रिभुवनदास गांधी, सेक्रेटरी श्रीजैन-आत्मानन्द सभा, भावनगर (काठियावाड )" इत्यनेन. HOOOO For Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन-आत्मानन्द-शताब्दि-ग्रन्थमाला मूल्यम् A मुद्रितग्रन्थाः १ श्रीवीतराग-महादेवस्तोत्रम्-कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतम् ०-२-० २ प्राकृतव्याकरणम्-(अष्टमाध्यायसूत्रपाठो धातुपाठसहितश्च ) , ०-४-० ३ श्रीवीतराग-महादेवस्तोत्रम्-(गूर्जरभाषया सहितम्) , ०-४-० ४ न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्यश्रीविजयानन्दसूरीश्वर(प्रसिद्धनामधेय-श्रीआत्मारामजी)स्य जीवनचरितम् (गूर्जरगिरायाम् ) ५ नवमरणादिस्तोत्रसन्दोहः ६ चारित्रपूजादित्रयीसङ्ग्रहः-आचार्यश्रीविजयबल्लभसूरिरचितः ७ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम्-प्रथमं पर्व, कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतम्.... (पुस्तकाकार प्रताकारं च) जैनतत्त्वादर्श:-न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्यश्रीविजयानन्दसूरीश्वर(श्रीआत्मारामजी)विरचितः हिन्दीभाषायामपूर्वोऽयं ग्रन्थः ASALESSESAX Jain Education Internation For Private & Personal use only - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश्यमाना ग्रन्थाः। १ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम्-द्वितीय, तृतीयं च पर्व प्रकाशनार्थनिर्धारितग्रन्थाः। १ धातुपारायणम्-कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतम् । . २ वैराग्यकल्पलता-न्यायविशारद-न्यायाचार्यश्रीयशोविजयोपाध्यायविरचिता । ३ प्राकृतव्याकरणम्-दुण्ढिकावृत्तिसहितम् । ४ अभिधानचिन्तामणिनाममाला कोषः-कलिकालसर्वज्ञ-श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतः, वाचकश्री देवसागरगणिगुम्फितया व्युत्पत्तिरत्नाकरनाझ्या टीकयोपेतः । ५ तिलकमञ्जरीकथा-धनपालकविकृता, श्रीशान्त्याचार्यप्रणीतेन टिप्पनेन पण्डितश्रीपद्मसागरविहितया वृत्त्या च विभूषिता । पुस्तकप्राप्तिस्थानम्श्रीजैन-आत्मानन्द-सभा भावनगर, (काठियावाड). For Private & Personal use only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन-आत्मानन्द-शताब्दि-सिरीझ Ex=x= ग्रन्थाङ्कः ७==x=x= Rutam-testendestinatomum dainaulomala SRI ĀTMĀRĀMAJI MAHĀRĀJ. STARSAARISSA dustandinhaskendalaateinsteantarakhandemkanta श्रीआत्मारामजी महाराज. कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्य. सम्पादक-मुनि चरणविजय, For Private & Personal use only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन-आत्मानन्द-शताब्दि-ग्रन्थमाला बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्य-न्यायाम्भोनिधि-संविग्नचूडामणि-स्व-परसिद्धान्तोदधिपारगामी जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरजी प्रसिद्धनाम श्रीआत्मारामजी महाराजके जन्म-शताब्दिमहोत्सवके चिरस्मरणनिमित्त आपके पट्टधर, अपने असाधारण सदुपदेशके प्रभावसे श्रीमहावीर जैन विद्यालय, मुंबई, श्रीआत्मानंद जैन गुरुकुल, गुजरांवाला, (पंजाब) श्रीआत्मानन्द-जैन हाईस्कूल, अंबालासिटी, (पंजाब) श्रीपार्श्वनाथ-जैन-18 विद्यालय, वरकाणा, (मारवाड) श्रीआत्मानन्द-जैन-लायब्ररी, पूनासिटी, इत्यादि भिन्न भिन्न प्रान्तोंमें विद्यालय, छात्रालय, गुरुकुल, लायब्रेरी, पुस्तकालय, ग्रन्थालय, औषधालयादि अनेक जैनसमाजोपयोगी धार्मिक-व्यवहारिकसंस्थाओंके संस्थापक धर्मधुरंधर पूज्यपाद शान्तिप्रिय-आचार्यश्रीविजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजकी आज्ञासे संस्थापित. ग्रन्थांक ७ प्राप्तिस्थानश्रीजैन-आत्मानन्द-सभा. भावनगर (काठियावाड). [स्थापना विक्रम संवत् १९८९, आत्मसंवत् ३८, वीरसंवत् २४५९, ईखी सन् १९३३ ] For Private & Personal use only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S'ri-Jaina-Atmānanda-Satabdi Series ; No. VII. THE TRISHASHTIS ALĀKĀPURUSHACHARITRAM-MAHĀKĀVYAM S'Ri-HEMACHANDRA-ACHARYA BY Parvan First-Part First, (describing the noble deeds of Rishabhasvamin and of his son Bharatachakravartin) EDITED BY MUNI CHARANAVIJAYA, the disciple of Acharya S'rp-VIJAYAVALLABHA-Sūri, Pattadhara of Nyüyümbhonidhi Sri-VIJAYANANDA-Suri, the First Acharya of the BRIHAT-TAPĀGACHCHHA-SAMVIGNA-SAKHĀ. PUBLISHED BY Sri-JAINA-ATMANANDA-SABHA, BHAVNAGAR. First edition: 1250 Copies Price Rs. 1-8-0. Vira-Samvat 2463, Vikrama-Samvat 1992, Atma-Samvat 41, 1936. A. C. For Private & Personal use only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sri-Jaina-Atmananda-Satabdi Series; Vol. VII. This Series is started to commemmorate the Birth-centenary of the great S'vetämbara Acharya Sri-Vijayananda-Süri, generally known by the name of S'ri Atmārāmji, who was the First Acharya of the Samvigna-Sakha of the Brihat-Tapagachchha, by his worthy Paṭṭadhara Acharya-S'ri-Vijayavallabha-Süri, the founder of S'ri-Mahavira-Jaina-Vidyalaya, Bombay, S'ri-Atmananda-Jaina-Gurukul, Gujränwālā, (Punjab), S'ri-Atmananda-Jaina High-School, Ambălă City, (Punjab), S'riPars'vanatha-Jaina-Vidyalaya, Varkānā, (Marwar) S'ri-Atmananda-Jaina Library, Poona City, etc. NUMBER 7 To BE HAD FROM S'ri-Jaina-Atmanand-Sabha, Bhavanagar (Kathiāwāḍ) Founded in V. S. 1987, Atma-Samvat 38, Vira-Samvat 2459, 1933 A. C. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BOLSO DOLO DUO DUOLTOPOLCOLO DOGODEDEO BOL BOLDOGODOUDOUCO * समर्पणम् ) Manoon-Goodone0000000 ख-परसिद्धान्तपरमार्थप्रपञ्चप्रवीण-न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वराः! श्रीआत्मारामेतिप्रसिद्धप्रख्याः! सूरिपुङ्गवाः! DinomornDHORDLOROGOPOHOROSODEOHSOLDMOBIOLOROHIBOOR अयि ! आराध्याभिसरोरुहाः! तत्रभवन्तो भवन्तो जगति गरीयसि धर्म-कर्ममहीयसि पश्चनद (पञ्जाब)जनपदे कर्पूरब्रह्मक्षत्रियान्वये सुजनिजनिं प्राप्य सुकृतोदयेन जैनी दीक्षामग्रहीषुः । तत्र च शासननायकश्रीमहावीरप्रभोः सद्धर्मोपदेशं साधूपदिशन्तः, कतिपयभव्यभविनो यतिधर्मे नियोजयन्तोऽन्यवर्त्मनि वर्तमानानसुमतो भगवत्श्रीवीरधर्मे संस्थापयन्तो, नैकसहस्रश्रावक-श्राविकाः सूत्रविहितमूर्तिपूजादी दृढश्रद्धं कारयन्तः, तन्मूलं परिबृहयन्तो, मरु-गूर्जर-सौराष्ट्रादिविषयेषु धर्मोन्नतिं विदधतश्च जनतां धर्ममयीमकार्षुः । तथा चास्यां विक्रमस्य RECTORATECOLORIGINAROJUDIO MooseatmeDTIODIOSM02CMODIOCTORATORS an Education inte ww.jainelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DEHomerometerocroSDHOOT O DEGOREDITODoramoनग्न BOLOLOLOLOLOMOTOROLOOG TONTONOLIOPOOOLTO COLOD विंशतितमायां शताब्द्यां संविनशाखायामाद्यमाचार्यपदमलञ्चक्रुः । खीयातुलमनीषया धर्मतत्त्वावबोधकान्यनेकप्रौढग्रन्थरत्नानि विरच्य जनसमाजोपरि भूयानकार्युपकार । न च केवलं भारते वर्षे भवदुज्वलकीर्तिलता सपल्लविताऽवर्धिष्ट, किञ्चामेरिकादिपाश्चात्यप्रदेशेष्वपि तादृश्येव । नानृणीभवितुमर्हति जैनसमाजो भवतामप्रतिहततेजसा, सदुपदेशेन, प्रभावेण, बहूपकारैश्च । ____ पूज्यचरणारविन्दानां श्रीमतां प्रौढगुणराज्या मुग्धीभूतपञ्जाबप्रमुखविविधदेशीयजैनसङ्घसमुत्साहेन भवत्पट्टधराचार्यश्रीविजयवल्लभसूरीश्वरस्याध्यक्षतायां भवदीयशतवार्षिकजन्मशताब्द्याः पञ्चातिको महोत्सवो वटपद्रे (बडौदा)श्रीमन्तसरकारसयाजीरावगायकवाडराजधान्यामस्मिन्नेव वि० सं० १९९२ तमे वत्सरे चैत्रमासे महता समारोहेण समजनि । तन्माङ्गलिकप्रसङ्गे भवद्गुणगणाकृष्टोऽहं कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितस्य त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितमहाकाव्यस्य पाठान्तरादिभिः समलङ्कृतमिदं प्रथमपर्वपुष्पं यशःशरीरेण विद्यमानायामरात्मने भवते भक्त्या सविनयं बहुमानपुरस्सरं समर्प्य कृतकृत्यो भवामीति । भवदीयपट्टधरप्रशिष्यपरमाणुः चरणः। 30GOROSGeomoooooROHOREOGORSCOHOROLAGa0300DSSD in Education International For Private & Personal use only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAANDUIDINIS TIK TUUNIN ANIMOWA OSTANETIKS ANUNLA UMOJNIRO AMMETIKUMI KUTOAMNA HII "सं १.” (प्रास्ताविके प्रेक्षणीयम्) जनमासगीरश्रमणकासिमानतश्तकारसोसिधिरुवमुपायायायएचसरमा वात्सशसकिमानशालयमयत्यालाघातिनीnigosमोडलिकाकसयसरदामासान बालवाहतयाछान्याशावाशिवायएकवर्धसदायावसालिदालिपटनमध्यावनिगलिचक्रामवफा बहनुमयदत्यनाकरनझामाक्विाउयदकामायारविमाडपर्वलदिवसायमाशियथाऽत्याचा हासरशीनिसतीत्वधबेहछाणिमिदिमामनवानामामधारयामासदिसाविदधवतस्याहावसमस अन्त्य दिकनिवप्रामाहाशाखानिधारा स्मंकालकररायशिवाजतिन्मावाहात्यदिशवटा पत्रम् चीनमाधारायेवतीकयलावविवंस सस्य मोकामनाकमावकिरणयमित्यदेखि aपिसिनतास्यबीगिसर्वाणिवारा अत्याचवायची हसदेवविरचिवधिश्चिाताप कपाशसमढ़ाकरवायामपवी मरीचिवसादिवानाकारुपलगवानाराम रवानगलासपष्टमयसमाशासमाश्रीकमसामिप्तयत्यकानिक्दयधमत्वमाययय अशावधानवरहितायवेधशावदियवाधा MEERFreedomara t e चालवासाकायारण्याराथाटामाटतावोलिवितमयायधिशमा याममादानदयात रश्मकतावसलवालरवक्यायकायाय) य JainEducatiduA I REILLSHIRIDHIANISHIRIDISTRI| श्री महोदय प्रि.प्रेस-भावनगर, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " खं” (प्रास्ताविकेऽवलोकनीयम् ) Fenu सकलाद खतिवनमविष्टानविविधावियोशनमा प्रणिपानामांकतिष्टव्यमापनेनखिनमानी काव नाप्य कालवमन्निहितासमुपास्मादरियादिभरविवीनार्यमादिमंनिध्यरियहाँमादिमानावं घनस्वामिनंसुमश्रितमग्निी सविस्कमलाकरमाकरी मामाकमलादेवसिंकीरजगतंसाबांवधिवतयंजनाशमल्याउल्यानयमितामाछानाममायवाचा श्रामसवनगरपातापानेकालमानाधिममुलामनवमाध्यादमिक्ष्माननगवाननिनंदमछमकिरायाणीया आथवाजता हनवावालानगवानसमनिस्वामीनोसिमानियशवपापसंतोटिनामावशिवाचतरंगारिमधनकाया पत्र टापांधिवारदश्रीसुपारीजनंदायमाहंमतीदयोममधेनुर्वमिंघगगनातागतिलवईवनोदमगाव निवाया Vataलिलिमिनमाननिमानवशाय करा मलवहिवंकलयवाकवलथि या अवित्यमाहात्म्य नियविधि ३ान कर चाय सुचवानापरमानंदकंदोड्दिनबाबु म्याद दाननियंदांशीलपाडांचा निमः॥१२जब रामाननरमामंगदका माया माकलना रदवनिःनिःश्यमभीरमायासनश्रयामा विश्वामकारकीकृतनावककर्मनिम्मिीत मुरांमुरंनारे र (ज्याबामन्यामाघः॥४विमलस्वामिनोवस्यकतककोदोमादशमयभित्रिजगावाताजलानम्मयादतनकायकानु रमणम्यहाककुणारसवारिणाश्रमतजिदनंतोप्रयत्र सुखत्रिय16 कल्पहममधर्मायामियानाशारिणीयाधमाकाम धारधर्मनाबसुकास्मक सुधामोदरंवारज्यानांनिर्मलीहाशिमगंगेललानमःचरित्यशांतिनाथ जिनामुश्राऊंधुनाया नगवामनावानिशायदान सुरासुरमनायामाग्मकमाघांश्रियाएअरमाबामशगांधरिनतारवयरुषधि श्रीविला उपाध्याय सचिननाय॥२० सुरमरनराधानामधनयवारिकमाडिम्पल नानिममनिमनिमार म्मदामादामदाप्रसष्ममयों मनाया पमुनिमबननाम्यदिशामायवनंमलालनमत हिनिर्मलीकाकारणावारिधबाऽवनमामियादमरवाशायडवानमा शमसादरकर्मकांडमानानः श्ररिधान मिसँगवानंजयाहारिमाजानगश्वकमावधराणारयोग्याविनकर्मऊ बीनाचनामुल्यमा मामामामाश्रितः।पक्रमावशा विमान कयामंधरनारायाःदियदाध्यायोनाबारजिननेवाबासाहत्यानावतानाच MO . श्री महोदय प्रि. प्रेस-भावनगर. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ... 000 00 0 00000000000 -03-30000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000001 spac00 00000000000000000000000000000000- - 180saas.s0000000000000000000000000000 pooaa. nanggang và 50 Hz ____“सं १.” (प्रास्ताविके प्रेक्षणीयम् ) SIOOPO000 मौत्रादिग Pooooo 500000000000000000000000000000000 संद-नमक मिबिनानिनामा बाड़म्म UPDurदीमकलाईस्पतिष्टानमधिष्टानं शिवप्रियासdag Ma स्वखयोगानमाहत्यप्रणिधादनमाकृसिद्रानावन तस्विमगकरनावावकालयसमिम हत मघारमाश अादिमंश्चिीमाश्रमादिमनियरिथदानादिमतीधमाधेयक आद्य नास्वामिनमाहीतमजिनविश्वकमा लाकश्सा। स्व प्रवानाकवलादसिफाजगन पत्रम् स्वula तयाजनारामकुल्यावल्याजयनितादा माममायवारछीसेसवजगतानेकोतमती नाधिममुल्लासमवंडमादिद्यादमेदमादेन गवाननिन दनविकमकिरीट्माणाध्यान्नकितांझिमवावलिशन गवानूसुमतिस्वामीनानाचलिममानिधावण्यापावासा दिनामश्वलंतरंगारिमानकायायपादिवा रुपशिशीसुयामिनिडायमा महिलाहायानर्मचडी 2-000000000000000000000000000000 0 oooo 000000000000000000000000000000000000 inuinnectu.00000000000000- - "ocoodaf4-श्री महोदय प्रि.प्रेस-भावनगर, ooooot 00000 2 -0000000000000000000000000000-44 wwsinolibrary.ore Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'खं" ( प्रास्ताविकेऽवलोकनीयम् ) आदि राम निषेकम करोंदा दिव्य यत्रा मा हरि २२ पाकवले त्याकामात यामाक रघुरा गिरिमुखादि ॥ २२शनासहमान: प्रबोधन के बिनहारतः परः ॥ अश्वापमिरे नायगरात के विकार पायाने अनेक मापयति श्रवण रिकामा क रित्र ॥०२० नरः कणीक मान्न शाम तिमदिनी॥२६ कुमांडलिकचे व मरदानामा निर्वादितया सगया नि २० एक वर्षमा एमा। आलि की विक्रम चक्रवाकवलज्ञान विश्वानुग्रहकान्या) विज्ञान सर्बल के दिमा शीतलतालका मि ममरतो महान कलाम हिनाविदावनदावे सम्पदिकलिमोदि वादा दिव्यवहार राज्य निर पत्रम७३ मा म मायमिति तत्सर्वाश्रीखंड विरदिनेमहाकाव्यं पर्वमा वि का पुरुष व निर्वाणः मार्गः॥ समाश्रखातिर विषधम् पर्वतायं ७ ॥ संगत १२ वर्ष वारनिम्लिखिने पुण्यायपरोपकाराय निश्वापितं मानी वापसी अन्त्य दिए। [प्र.११ *0004 Tar Funtion Inter श्री महोदय प्रि. प्रेस-भावनगर. @MMMMMMMMM♚♚♚♚♠♠♠♠♠♠♠♠OOOOOOOO www.jainolibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रि.अ. १ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितस्य प्रथमपर्वणः विस्तरतो विषयानुक्रमणिका । प्रथमः सर्गः । विषयः चतुर्विंशतितीर्थकृतां नामग्राहं स्तुतयः त्रिषष्टिशलाकापुरुषाः आदौ श्री ऋषभप्रभोश्वरित्रस्योपक्रमः तत्र प्रथमं धनसार्थवाहभवस्यारम्भः जम्बूद्वीपस्य वर्णनम् श्लोकाः १-२६ २७-२९ ३० ३१ ३१-३३ ३६-४३ ४४ ४५-५० ५१ क्षितिप्रतिष्ठितनगरे धनसार्थवाहः, तस्यर्द्धिवर्णनं च धनस्य वसन्तपुरपत्तने गमनाभिलाषः क्षितिप्रतिष्ठितनगरे प्रस्थानभेरीवादनम् अत्रान्तरे श्रीधर्मघोषसूरीणां समागमनम् सूरिं दृष्ट्वा धनस्य सविनयं समागमनकारणपृच्छा, सूरेः प्रत्युत्तरश्च अत्रान्तरे ढौ कितपताम्रफलानि दृष्ट्वा 'अमूनि फलानि गृहीतानुगृह्णीत च माम्' इति सूरिभ्यो धनस्य विज्ञप्तिः X सूरिभिर्निरूपितां साधुचयां निशम्य धनेन कृता सूरीणां प्रशंसा ५२-५४ ५५ विषयः धनस्य वसन्तपुरं प्रति प्रयाणं, सार्थशोभावर्णनं च मार्गे समायातग्रीष्म वर्ष वर्णनम् मार्गे चिकत्वं प्रेक्ष्य धनस्याटव्यां निवासः, धर्मघोषसूरिवराणामपि तत्रैव स्थितिः धनस्योपालम्भः सार्थस्य, विशेषतः सूरीणां दौःस्थ्यमवलोक्य उपालम्भं श्रुत्वा च धनस्य पश्चात्तापः प्रातरुपाश्रये समागत्य धर्मघोषसूरीणां साधूनां च दर्शनम् सूरीन्द्रमभिवन्द्य स्वापराधक्षामणं, सूरिभिः साम्यवनं च सूरसमीपे धनस्य साग्रहं भिक्षार्थमभ्यर्थना, साधुद्वितयप्रेषणं, साधुभ्यो घृतस्य दानं च दानप्रभावाद् धनस्य सम्यक् वप्राप्तिः रजन्यां पुनः सूरिसन्निधौ धनस्य गमनं, सूरीणामुपदेशश्च ६०-६२ श्लोकाः ६३-७९ ८०-९९ १००-१०२ १०३-१०९ ११०-११६ ३१७-१२४ १२५-१३४ १३६-१४१ १४२-१४३ १४४-१४५ . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१॥ विषयः श्लोकाः तत्रादौ धर्मस्य प्रभावः १४६-१५१ दान-शील-तपो-भावभेदाद् धर्मस्य चातुर्विध्यम् १५२ |तन्त्र दानधर्मस्य ज्ञाना-ऽभय-धर्मोपग्रहभेदात् वैविध्यम् १५३ ज्ञानदानस्य महिमा १५४-१५६ अभयदानवर्णने स्थावर-वसभेदेन जीवस्य द्वैविध्यम् १५८ पर्याप्तिषदकापञ्चनम् पृथ्वी-जल-तेजो-वायु-वनस्पतिसंज्ञानां सूक्ष्म-बादरैकेन्द्रियजीवानां स्वरूपम् १६१-१६२ द्वि-त्रि-चतु:-पञ्चेन्द्रियभेदभिन्नानां बसानां परिचयः१६३-१६८ | अभयदानमाहात्म्यम् १६९-१७४ दायक-ग्राहक-देय-काल-भावभेदेन धर्मोपग्रहदानस्य पञ्चविधता १७५-१८६ शीलधर्मवर्णनम् १८७ तत्र श्रावकाणां द्वादश व्रतानि १८८-१९४ सर्वविरतिस्वरूपम् १९५-१९६ तपोमाहात्म्यवर्णनम् १९० तस्य बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्वैविध्यम्, पुनरेकैकस्य षदषड्भेदाः १९८-१९९ भावनास्वरूपम्, श्लोकाः प्रथमपर्वणो देशनां श्रुत्वा धनस्य स्वस्थानागमनम् २०१-२०३ विषयानुमङ्गलपाठकनिवेदितं प्रातःकालस्य शरदश्च सादृश्यम् २०४-२०७18क्रमाणका। शरहतुवर्णनम् २०८-२७| प्रयाणभेरीवादनं, समुत्तीर्णायामटव्यां धनम नुज्ञाप्य सूरीणामन्यत्र विहारः, धनस्य वसन्तपुरप्रापणं च २१८-२२३ तत्र भाण्डानि विक्रीय प्रतिभाण्डानि चादाय धनस्य सार्थस्य च स्वपुरे प्रत्यागमः २२४-२२५ आयुःपूणे द्वितीये भवे उत्तरकुरुषु युम्मिधर्मेणोत्पत्तिः २२६-२२७ युगलिकस्वरूपवर्णनम् २२८-२३०० दशविधकल्पवृक्षवर्णनम् २३१-२३६ ततो विपद्य तृतीये भवे सौधमें देवो जातः २३७-२३८ अपरविदेहे गन्धिलावत्यां विजये गन्धसमृद्धकपुरे चतुर्थे भवे शतबलराज्ञश्चन्द्रकान्तायां भार्यायां पुत्रत्वेनोत्पत्तिः २३९-२४१ 'महाबल' इति नामकरणं, यौवने विनयवतीपरिणयनं च २४२-२४९ शतबलराज्ञो वैराग्यम् २५०-२६४ महाबलं राज्ये निवेश्य तस्य संयमग्रहणम् २६५-२७९ For Private & Personal use only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७-४३१ ४३२ विषयः श्लोकाः विषयः श्लोकाः विषयासक्तं महाबलं वीक्ष्य तं प्रतिबोधयितुं सप्तमपृथ्वीगमनं श्रुत्वा तस्य प्रव्रज्याग्रहणं, -स्वयम्बुद्धमत्रिणो विमर्शः २८०-२९४ मुक्तिगमनं च आस्थानसभायामेव तस्मै धर्मोपदेशः २९५-३२३ दण्डकास्यपार्थिकस्य वृत्तान्तः | तत्र सम्भिन्नमतिमन्त्रिणः प्रत्युक्तिः, परलोका पुत्रादिपरिजनेषु स्वर्णरवादिधनेषु चात्यन्तासक्तिवशात् भावज्ञापनं च ३२४-३४५ दण्डकस्य मरणं, स्वकीये भाण्डा. स्वयम्बुद्धेन कृता युक्तिपुरस्सर परलोकस्य सिद्धिः ३४६-३७४ गारेऽजगरत्वेनावतारः बौद्धेन शतमतिमत्रिणा स्वमतस्य दृढीकरणम् ३७५-३७६ मणिमालिनाम्ना तस्य पुत्रेणाजगरविलोकनम् ४३६-४३८ स्वयम्बुद्धेन कृतः क्षणिकवादनिरासः ज्ञानिमुनिसकाशात् स्वपितुर्वृत्तान्तं ज्ञात्वा तस्य चतुर्थमत्रिणा मायावादग्ररूपणम् ३८४-३८९ धर्मश्रावणं, आयुःक्षये शुभध्यानादजगरस्य स्वयम्बुद्धेन कृतं युक्त्या तस्य खण्डनम् ३९०-३९४ देवत्वेनोत्पत्तिः ४३९-४४० सप्रशंसमनवसरोऽयं धर्मोपदेशस्येति राज्ञा कथनम् ३९५-३९९ पुत्रप्रेम्णा मणिमालिने दिव्यहारसमर्पणम् ४४॥ पुना राज्ञे 'धर्ममेवाश्रय' इति स्वयम्बुद्धस्य कथनम् ४०० अनवसरे धर्मप्रेरणायाः कारणज्ञापनम् ४४३-४४६ बाल्ये दृष्टस्य धर्मप्रभावाद् दिवंगतस्य अति 'धर्म समाचरेति महाबलराशे स्वयम्बुद्धमत्रिणः बलनाम्नः पितामहस्य वचनस्सारणम् ४०१-४०८ पुनर्निवेदनं, राज्ञा कृता तस्य प्रशंसा च ४४७-४४८ शाकस्य निर्दयस्य कुरुचन्द्रस्य मरणवेदना, अल्पायुः कथं धर्म सानोमीति महाबलस्य शङ्का ४४९ अधर्मप्रभावात् सप्तमनरकगमनं च ४०९-४१७ तत्पुत्रस्य हरिचन्द्रस्य राज्याभिषेकः, स्वयम्बुद्धेन निवेदितमेकदिनाङ्गीकृतप्रवज्याफलम् ४५०-४५१ धर्मे तत्परता च ४१८-४२२ स्वं पुत्रं राज्ये संस्थाप्य महाबलस्य दीक्षाङ्गीकरणं, शीलन्धरकेवलिपावे देशनाश्रवणं, तत्समय एव चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च ४५२-४५८ स्वपितुर्गतिपृच्छा च ४२३-४२६ । द्वाविंशतिदिनानशनं विधाय समाधिना मृत्वा पञ्चमे Jain Education Internationa l For Private & Personal use only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमपर्वणो विषयानुक्रमणिका। ॥२॥ -SECSCCCCESSAGE विषयः | भवे द्वितीये कल्पे श्रीप्रभविमाने ललिताङ्गनाम्ना | देवत्वेनोपपादः ५५९-४६१ तस्य दिव्याकृतिवर्णनम्, ४६२-४६७ वितर्काकुलस्य तस्य देवैः ईशानकल्पाधिपत्यसूचनम् ४६८-४८९ | उपयोगदानात् पूर्वभवस्मरणं, जिना_पुस्तकवाचनादिकर्मनिर्माणं, लीलासदनगमनं च ४९०-४९८ स्वयम्प्रभादेव्याः स्वरूपम् ४९९-५१. ललिताङ्गस्य तया सह सम्बन्धः ५११-५१४ आयुःक्षये स्वयम्प्रभायाख्यवनं, ललिताङ्गस्य | विलपनं च ५१५-५१९ | दीक्षां गृहीत्वा स्वयम्बुद्धमन्त्रिण ईशानकल्पे | दृढधर्मनाम्ना देवत्वेनोपपादः ५२०-५२१ पूर्वभवसम्बन्धाललिताङ्गं प्रति तस्याश्वासनम् ५२२-५२६ मृगयमाणेन मया 'तव प्रिया प्राप्ता' इति ललिताङ्गाय कथनम् धातकीखण्डे नन्दिग्रामे दरिदिनागिलनागनियोहे निर्नामिकाख्यया कन्याषट्कोपरि सुतारवेन जन्म ५२८-५४३ निर्नामिकया मोदके याचिते मातुस्तिरस्कारः, विषयः श्लोकाः रजु लारवा अम्बरतिलकपर्वते प्रेषणं च ५४४-५४७ भौलशिरसि केवलिनो युगन्धरमुनेर्दर्शनं, वन्दनं च ५४८-५५५ श्रीयुगन्धरकेवलिनो धर्मदेशना ५५६-५५८ मत्तोऽप्यधिकदुःखितः कोऽप्यस्तीति निर्नामिकया पृष्टे केवलिना चातुर्गतिकदुःखप्रतिपादनम् ५५९-५८५ हिंसा-ऽसत्या-ऽस्तेया-ऽब्रह्म-परिग्रहत्यागोपदेशः ५८६-५९१ सम्यक्त्वादानपूर्व गृहिव्रतान्यादाय निर्नामिकायाः । स्वगृहगमनं, विविधतपोविधानं च . ५९२-५९६ प्राप्तयौवनामपि तां न कोऽपि पर्यणेषित् तेनाऽधुना तत्रैव पर्वते युगन्धरमुनेरने गृहीतानशनां त्वं स्वरूपं दर्शय, ते पत्री भवेदिति निवेदनम् ५९७-५९९ तथैव कृते तस्याः स्वयम्प्रभात्वेनोत्पत्तिः अन्यदा स्वच्यवनचिह्वान्यालोक्य ललिताङ्गस्य क्वापि न रतिः, स्वयम्प्रभया सहालापश्च ६०१-६१८ इन्द्रादिष्टधर्मदेववचनात् नन्दीश्वरादितीर्थयात्रायां सप्रियस्य ललिताङ्गस्य गमनं, शाश्वतप्रतिमार्चनं च आयुषि क्षीणे ततश्च्युत्वा जम्बूद्वीपे पूर्व विदेहे पुष्कलावत्यां विजये लोहार्गलपुरे सुवर्णजवराज्ञो ॥२॥ ६१९-६२२ Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः लोकाः । विषयः श्लोकाः लक्ष्म्यां पल्या पुत्रत्वेन जन्म, वनजङ्घनामकरणं च ६२३-६२६ वज्रजश्रीमत्योः सुतोत्पत्तिः ६९१-६९२ | स्वयम्प्रभापि च्युत्वात्रैव विजये पुण्डरी किण्यां सामन्तराजोपद्रुतेन पुष्कलेनाहूतयोः, सामन्तान् नगर्या वज्रसेनचक्रिणो गुणवतीपल्या विजित्य पुण्डरीकिण्याः पश्चादागच्छतोस्तयोः श्रीमतीनाम्नी सुता जाता ६२७-६२९ शरवणवने सागरसेन-मुनिसेनकेवलिदर्शनं, अन्येयुः प्राप्तयौवना क्रीडार्थ सर्वतोभद्रपर्वते गता तद्देशनाश्रवणं, प्रतिलाभनं च । सा मनोरमोद्याने सुस्थितमुनिकेबलोत्पत्तिमहसि तहिनादेव जातवैराग्ययोः सुखसुप्तयो रात्री देवदर्शनाज्जातजातिस्मृतिः, मूर्छिता लब्धसंज्ञा राज्यलुब्धपुत्रकृतविषधूपाद् मृत्युः, उत्तरकुरुषु चाचिन्तयत् ६३०-६३६ युगलिकरूपेणोत्पत्तिः, ततः सौधर्म सुरौ च । | पूर्वभवपतिललिताङ्गगतिज्ञानाभावात् दुःखितया वज्रजङ्घजीवस्य जम्बूद्वीपविदेहे क्षितिप्रतिष्ठितपुरे श्रीमत्या पण्डिताण्या धान्या आग्रहात् सुविधेद्यस्य पुत्रत्वेनोत्पत्तिः, जीवानन्द इति प्राग्जन्मवृत्तान्तकथनम् ६३७-६४७ नामकरणं च ७१८-७१९ पटे तत्स्वरूपमालेख्य पण्डितया राजमार्ग स्थापनम् ६४८ राजपुत्रमहीधरः, मत्रिपुत्रसुबुद्धिः, सार्थवाहसुतवज्रसेनचक्रिणो वर्षग्रन्थिमहसि भूरिभूधवसमागमे पूर्णभद्रः, श्रेष्टिपुत्रगुणाकरः, श्रेष्टिपुत्रः श्रीमतीजीवः दुर्दान्तराजकुमारस्य कपटनाटकं,मित्रादीनामुपहासन६५९-६७० केशवः, एतेषां षण्णां मैत्री ७२०-७३० एकदा जीवानन्दवैद्यगृहे षण्णामपि गमनं, तत्र लोहार्गलपुराद् वज्रजस्य तत्र गमन, पटाव कुष्टिमुनिदर्शनं, तचिकित्साकरणतत्परता च लोकनामूर्छा,पूर्वभवस्वरूपकथनं,तया सहोदाहश्च ६७१-६८८ रत्रकम्बल-गोशीर्षचन्द्रनार्थ वृद्धवणिक्पार्चे गमनं, स्वर्णजङ्घस्य दीक्षाग्रहणं, वज्रसेनस्य कारणनिवेदनं, विना मूल्यं दत्त्वा वणिजो तीर्थकरभवनं च ६८९-६९० । दीक्षाग्रहणं च ७४६-७५६ SISEOSAURUSAASHURCH ७३२ Jan Education Internation For Private & Personal use only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपर्वणो विषयानुक्रमणिका। त्रिषष्टि विषयः श्लोकाः शलाका- पिडिरपि मित्रैः कुष्टिमुनेनिरुजीकरणं, अवशिष्टपुरुषचरिते | गोशीर्षचन्दनं रखकम्बलं च विक्रीय चैत्यनिर्मापणं च ७५७-७८० | अन्ते षण्णामपि मित्राणां दीक्षाङ्गीकरणं, ॥३॥ अच्युतकल्पे शक्रसामानिकदेवत्वेनोपपत्तिः ततश्युत्वा जम्बूदीपविदेहे पुष्कलावत्यां विजये वज्रसेनभूपतेर्धारिण्यां राश्यां वैद्यजीवस्य वज्रनाभनाम्ना चक्रवर्तित्वेनोत्पत्तिः ७९१-७१३ | राज-मन्त्रि-श्रेष्ठि-सार्थेशपुत्रजीवानां तहात त्वेनोत्पत्तिः, अनुक्रमेण बाहु-सुबाहु-पीठ४ महापीठ-नामकरणं, केशवजीवस्य च 'सुयशा' नाम्ना राजपुत्रत्वेन जन्म ७९४-७९५ एतेषां परस्परं क्रीडादिकरणम् ७९६-८०० वज्रनाभं राज्ये संस्थाप्य लोकान्तिकदेवविज्ञस्या वज्रसेनस्य सांवत्सरिकदानपूर्व दीक्षाग्रहणमन्यत्र विहारश्च ८०१-८०६ वज्रनाभचक्रिणा सुयशसः सारथित्वे स्थापनम् ८००-८०८ वज्रसेनतीर्थकृत: केवलज्ञानोत्पत्तिः पुष्कलावतीविजयं संसाध्य चक्रवत्तिभोगान् | भुञानस्य चक्रिणः समये वैराग्योद्भवः, वज्रसेन विषयः श्लोकाः जिनसमवसृतिश्च ८१०-८१६ तद्देशनां निशम्य राज्यं पुत्रसात् कृत्वा वज्रनाभचक्रिणो बाहादीनां सुयशःसारथिनश्च दीक्षाग्रहणं, वज्रसेनतीर्थकृतो निर्वाणगमनं च ८१७-८४० वज्रनाभादीनां योगप्रभावात् लन्युत्पत्तिः ८४१-८४३ खेलौषध्यादीनामष्टाविंशतिलब्धीनां विस्तरतो वर्णनम् ८४४-८८१ विंशतिस्थानासेवनया वज्रनाभस्य तीर्थकृनामकर्मोपार्जनम् विंशतेः स्थानानां सप्रपञ्चं स्वरूपम् ८८३-९०३ वैयावृत्यं वितन्वतो बाहुमुनेश्चक्रवर्तिभो. गकर्मोपार्जनम् मुनीनां विधामणां कुर्वतः सुबाहुमुनेर्बाहुबलोपार्जनम् ९०५ वज्रनाभकृतां बाहुसुबाहुप्रशंसां श्रुत्वा सजातामीामनालोच्य पीठ-महापीठयोः स्वीकोपार्जनम् ९०६-९०९ षण्णामपि चतुर्दशपूर्वलक्षांश्चारित्रं प्रपाल्य सर्वार्थसिद्धी गमनम् । ९१०-९११ ८८२ AGACASSACREA4%A%ASH .., ८०१ Jan Education Internation For Private & Personal use only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSESASSSSSSSSSSSS लोकाः विषयः श्लोकाः द्वितीयः सर्गः। सागरेणोद्विग्नवकारणे पृष्टे 'प्रियदर्शना मां प्रेमाऽयाचत, कृच्छ्रादात्मानं मोचयित्वेहागमम् , जम्बूद्वीपापरविदेहेषु अपराजितापुर्या श्रेष्ठिचन्दनदास इति तस्यां मिथ्यादौःशिल्यदोषारोपः ७७-९८ सुतस्य सागरचन्द्रस्येशानचन्द्रनृपदर्शनार्थगमनं, ततः प्रभृति मन्दस्नेहेऽपि सागरे माऽनयो दो मङ्गलपाठकोक्तं वसन्तसमागमं श्रुत्वा राज्ञ भूदिति प्रियदर्शनयाऽशोकचन्द्रवृत्तान्तस्याऽकथनम् ९९-१०६ | उद्यानगमनोदोषणा, सागरचन्द्रायाप्यागमनादेशश्च -" ततो विपद्य जम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रदक्षिणखण्डे | राजादेशात् स्वसुहृदाऽशोकचन्द्रेण सह सागरचन्द्र गङ्गासिन्ध्वन्तरे सागरप्रियदर्शनाजीवयो|स्योद्यानयानं, पूर्णभद्गश्रेष्टिपुत्र्याः प्रियदर्शनाया युग्मिरूपेणोत्पत्तिः स्तन्त्र बन्दिभ्यो मोचनं, तयोरन्योन्यमनुरक्तयोः सामान्येन षडरकावसर्पिण्युत्सर्पिणीकालचक्रस्वरूपम् १११.११७ | स्वस्वगृहगमनं च विस्तरेण प्रथमारकयुग्मिनां स्वरूपम् ११८-१२० | श्रुतवृत्तान्तेन पित्रा साम्ना सागरचन्द्रायानुशासनं, दशविधकल्पवृक्षव्यावर्णनम् १२१-१२८ मायान्यशोकचन्द्रमैत्रित्याजनोपदेशश्च २५-४१ द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पञ्चम-षष्टारकस्वरूपम् १२९-१३६ तृतीयारकोत्पनयोर्युग्मिरूपयोः सागरचन्द्रप्रिय सागरचन्द्रस्य मनसि नानावितर्कोद्भवः ४२-५५ दर्शनाजीवयोदेहमानादिनिरूपणम् .. १३९ पुत्राभिप्रायवेदिना पिन्ना पूर्णभद्रात् प्रियदर्शना प्राग्जन्मकृतमाययाऽशोकचन्द्रस्य तत्रैव श्वेतयाचनं, तया सहोद्वाहश्च वर्णचतुर्दन्तदन्तीभवनम् सागरचन्द्रे बहिर्गतेऽशोकचन्द्रस्यागमनं, प्रियदर्शनाने प्राग्भवस्नेहोगवादनिच्छतोऽपि युग्मिनः दोषप्रकटनं, तत्प्रेमयाचनं, निर्भत्सितस्य तया स्वस्कन्धाधिरोपणं, अन्योन्यदर्शना|| स्वगृहं गच्छतो मार्गे सागरचन्द्रसमागमश्च ६४-७६ । भ्यासाजातिस्मृतिज्ञानं च १४१-१४४ Jain Education Internati For Private & Personal use only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः श्लोकाः प्रथमपर्वणो त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥४॥ विषयानु४ क्रमणिका। -१८९ SUSISUUSOPASK विषयः श्लोकाः | निर्मलगजवाहनत्वान्मिथुनैस्तस्य 'विमल यशस्विस्वरूपोद्भूतस्य चतुर्थकुलकराभिचन्द्रवाहन' नामकरणम् ११५-१४६ प्रतिरूपाख्ययुगलस्य स्वरूपम् १८०-१८३ | कालदोषेण कल्पवृक्षमन्दीभावे तव ममेति यशस्विनोऽब्धिकुमारेषु, सुरूपाया नागकुमा| सआयमाने ममत्वे कलहे च विमलवाहनस्य रेषु चोत्पत्तिः स्वामितया स्थापनं, विभज्य कल्पवृक्षदानं, अभिचन्द्रप्रतिरूपाजातस्य पञ्चमकुलकरमर्यादाभङ्गे हाकारनीतिविधानं च १४७-१६४ प्रसेनजिच्चक्षुष्कान्ताख्ययुगलस्य देहमानआयुषोऽवदोषे चन्द्रयशोभायां सजातस्य वर्णादिस्वरूपम् द्वितीयकुलकरचक्षुष्मचन्द्रकान्ताख्ययुग्मिनो अभिचन्द्रस्योदधिकुमारेषु, प्रतिरूपाया देहमानादिस्वरूपम् १६५-१६७ नागकुमारेषु चोत्पादः विमलवाहनस्य सुपर्णकुमारेषु, चन्द्रयशसो प्रसेनजिता हाकार-माकार-धिकारनीतित्रयनागकुमारेषु चोत्पादः १६८-१७० व्यपस्थापनम् चक्षुष्मचन्द्रकान्ताजातस्य तृतीयकुलकरयशस्वि प्रसेनजिञ्चक्षुष्कान्ताजातस्य षष्ठकुलकरमरुदेवस्वरूपाभिधस्य युगलिकयुगलस्य स्वरूपम् १७१-१७४ श्रीकान्तासंज्ञस्य युगलस्य देहमानादिवर्णनम् १९५ चक्षुष्मतः सुपर्णेषु, चन्द्रकान्ताया नाग प्रसेनजितो द्वीपकुमारेषु, चक्षुष्कान्ताया कुमारेषु चोत्पादः १७५ नागकुमारेषु चोपपत्तिः मिथुनहींकारनीत्युल्लकने कृते यशस्विना मरुदेवश्रीकान्तोत्पन्नस्य सप्तमकुलकरनाभि| माकारदण्डयोजनम् १७६-१७८ मरुदेवानाम्नो युगलस्य स्वरूपम् अल्पापराधे प्रथमा, मध्यमे द्वितीया, महीयसि मरुदेवस्य द्वीपकुमारेषु, श्रीकान्ताया नागनीतिद्वयी प्रयोक्तब्येति व्यवस्थापनम् १७९ । कुमारेषु चोत्पादः ००० m ॥४॥ Jain Education Internati For Private & Personal use only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARSEARCOAG विषयः श्लोकाः विषयः श्लोकाः तृतीयारकस्य सनवाशीतिपक्षेषु चतुरशीतौ पूर्वलक्षेषु प्रथमजिनस्तुतिः ३२६-३३७ शेषेषु आषाढशुक्लचतुर्थ्यामुत्तराषाढानक्षत्रे नैगमेषिणमाहूय जिनजन्मनात्रहेतवे * सर्वार्थसिद्धित,युतस्य पूर्वोक्तस्य देवाहानादेशः वज्रनाभजीवस्य मरुदेवाकुझाववतरणम् २०७-२११ नैगमेषिणा सुघोषाघण्टावादनं, देवेभ्यः प्रसुप्तया मरुदेच्या दृष्टानां वृषभादिचतुर्दश शक्रादेशश्रावणं च ३४१-३५९ महास्वप्नानां विस्तरतः स्वरूपम् २१२-२२६ आगच्छतां देवानां विविधचर्यावर्णनम् ३५०-३५२ प्रबुद्धया मरुदेव्या भने स्वप्नावलोकननिवेदनं, इन्द्रादेशाद् चिहितस्य पालकविमानस्य, तत्परितः तेषां फलपृच्छा च २२७-२२९ आसनप्रकम्पादिन्द्राणां तत्रागमनं, स्वमार्थ स्थितानामन्येषामग्रमहीप्यादिविमानानां च वर्णनम् ३५३-३७८ स्फुटीकरणं, मरुदेवां प्रणम्य स्वस्थानगमनं च पालकविमानमधिरुह्यामस्थितस्य पुरन्दरस्य २३०-२४९ ३७९-३९३ अन्तर्वव्या मरुदेवायाः स्वरूपम् शोभावर्णनम् २५०-२६३ चैत्रकृष्णाष्टम्यामुत्तराषाढानक्षत्रे मरुदेच्या गच्छतां देवानामालापवर्णनम् युगलस्य प्रसवनम् आदौ विमानस्य नन्दीश्वरे सम्पातः, ततो २६४-२६५ जन्मसमये किं किं जातमिति ब्यावर्णनम् रतिकरपर्वते तत् सङ्क्षिप्य शक्रस्य प्रभुजन्मगृहे २६६-२७२ षट्पञ्चाशद्दिकुमारिकागमनं, विस्तरेण समागमनं च ३९९-४०४ तत्कृतसूतिकाकर्मवर्णनं च। प्रभुं तन्मातरं च नरवा स्तुत्वा, मात्रेऽवस्वापनिकां शाश्वतघण्टानादः, इन्द्राणामासनकम्पः, सौधर्मा वितीर्य प्रभोः प्रतिच्छन्दं तत्र निधाय शक्रेण । धिपतेः कोपः, अवधिना प्रथमजिनजन्मावलोकनं च ३१८-३२५ पञ्चरूपकरणम् १०५-४१७ त्यक्तसिंहासनेन कृताञ्जलिना शक्रेण विहिता | एकेन रूपेणोत्सङ्गे प्रभोर्ग्रहणं, एकेन पृष्ठे छत्रधरणं, R A For Private & Personal use only . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमपर्वणो विषयानुक्रमणिका विषयः श्लोकाः पार्श्वयोभ्यिां चामरवीजननं, एकेन द्वाःस्थवदग्रगमनं च ४१८-४२२ मेरोः पाण्डकवनेऽतिपाण्डकम्बलशिलायां का प्रभुमादाय शक्रस्य निषीदनम् ४२३-५३० |स्वस्वस्थानात् समागतानां चतुःषष्टेरिन्द्राणां सप्रपञ्चं वर्णनम् १३१-४७४ प्रथममच्युतेन्द्रकृतजिनाभिषेकवर्णनम् ४७५-५०४ देवघुष्टानां विविधातोद्यानां वर्णनम् ५०५-५१३ जिनाभिषेकसज्जीकृतानां कुम्भानामम्भसश्च वर्णनम्५१४-५३८ प्रभोः शरीरस्य गन्धकाषाय्येन प्रमार्जनं, गोशीर्षचन्दनादिभिर्विलेपनं च ५३९-५५३ देवैर्भक्त्या विहितानां विविधक्रियाणां निरूपणम् ५४४-५६८ अच्युतेन्द्रकृत जिनेन्द्रविलेपना-अर्चन-वन्दनानन्तरमन्यद्वाषष्टीन्द्राणां यथाक्रम साबण्यापनं च ५६९-५७२ तत ईशानेन्द्रेण पञ्जरूपीभूय जिनग्रहणम्, ५७३-५७६ प्रान्ते सौधर्मेन्द्रकृतजिनस्नान-प्रमार्जना-ऽष्टमङ्गलालेखन-विलेपन-वस्त्रभूषणपरिधापना-ऽऽरात्रिकोत्तारणादिनिरूपणम् ५७७-६०० शक्रेन्द्रकृता प्रथमजिनस्तुतिः ६०१-६०९ विषयः श्लोकाः विहितपञ्चरूपेण शक्रेणेशानेन्द्रोत्सङ्गात् प्रभोर्ग्रहणं, मरुदेव्याः सदनमागत्यावस्वापिनी-प्रतिच्छन्दादिसंहरणं, मातुरुत्सङ्गे प्रभुं निधाय दुकूलयुगलरवकुण्डलद्वय-श्रीदामगण्ड-वितानादिसंस्थापनं च ६०-६१९ कुबेरमादिश्य जृम्भकसुरैर्जिनभवने महyवस्तुनिक्षेपणम् ६२०-६२३ "अर्हतोऽर्हजनन्योश्च, योऽशुभं चिन्तयिष्यति । तस्यार्जकमञ्जरीवत्, सप्तधा भेत्स्यते शिरः॥" इत्याभियोगिकदेवैः सर्वत्रोद्घोषण, प्रभोरङ्गुष्ठेऽमृतसङ्कामणं,धात्रीकर्मार्थं पञ्चाप्सरोनियोजनं च ६२४-६२९ जिनखात्रानन्तरं देवानां नन्दीश्वरद्वीपगमनं, तत्र शाश्वतप्रतिमानामष्टातिकोत्सवविधानं च ६३०-६४६ प्रातर्मरुदेव्या नाभये सुरागमाद्यखिल. वृत्तान्तनिवेदनम्, उरुस्थऋषभलाञ्छनत्वाद् प्रथमं ऋषभस्वप्नदर्शनाच 'ऋषभ' इति नामकरणं, कन्यायाः 'सुमङ्गला' अभिधानं च ६३८-६५३ जन्मतः किञ्चिदूने वरसरे गते वंशस्थापनार्थ Jain Education Internationa For Private & Personal use only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ७३१-७३४ विषयः श्लोकाः मागतेन्द्रसकाशादिक्षुग्रहणात् 'इक्ष्वाकुः, इति वंशनामप्रतिष्ठापनम्, ६५४-६५९ प्रभोर्खाल्यदेहवर्णनम् ६६०-६६९ देवकुमारैः सह प्रभोर्बालक्रीडावर्णनम् ६६६-६८१ प्रभोरङ्गुष्टामृतपान-देवानीतोत्तरकुरुफलभोजनक्षीरोदवारिपाननिरूपणम् ६८२-६८४ यौवनावस्थायां प्रभोर्विकसितसर्वशारीरावयव| नानालक्षणव्यावर्णनम् ६८५-७३० प्रभोदिंग्यसङ्गीतप्रेक्षा दुर्दैववशाद' दारके मृते प्रथमापमृत्युसम्भवः ७३५-७४० कन्यायाः पित्राभ्यां वर्द्धनं, सुनन्दाभिधानकरणं च ७४१-७४२ पित्रोविपन्नयोस्तस्या एकाकिन्या वने भ्रमणम् ७४३-७४४ सुनन्दायाः शरीरवर्णनम् ७४५-७५४ मिथुनैस्तस्या नाभेरुपायनीकरणं, ऋषभस्य पली भवत्विति नाभिना तस्या अङ्गीकरणं च ७५५-७५६ अवधिज्ञानोपयोगाद् भगवतो विवाहसमयं ज्ञात्वा | इन्द्रेण समागत्य सुनन्दा-सुमङ्गलाविवाहकरणेच्छाप्रदर्शनम् भोगकर्मावश्यं भोक्तव्यमित्यवधिना ज्ञात्वा विषयः श्लोकाः शिरोधननेन अधोमुखकरणेन च प्रभोरभिप्रायमुपलक्ष्य शक्रेण विवाहकर्मारम्भाय सद्यो देवाहानम् ७६६-७६८ आभियोगिकदेवैर्विहितविवाहमण्डपवर्णनम् ७६९-७८४ विवाहसामग्र्युपनयनार्थमप्सरसां विविधादेशाः ७४५-७९५ अप्सरोभिः सुनन्दा-सुमङ्गलयोनिखिलवधूयोग्यक्रियानिर्मापणम् ७९६-८२५ शक्रनिर्मापिताशेषवरकर्मणा प्रभुणा दिव्ययानमारुह्य मण्डपद्वारागमनम् ८२६-८२९ वरवर्णिनीभिः मङ्गलार्थ शरावसम्पुट-रूप्यस्थालवैशाखादिस्थापन, देवस्त्रीभिगीयमानेषु गीतेषु प्रभोरर्घ्यदानं च ८३०-८४० वरवध्वोः हस्तमेलापादिकरणम् ८४१-८५२ तत्र देवाङ्गनानां मङ्गलगीतानि वरवध्वोरञ्चलबन्धन, शक्रेण स्वामी, इन्द्राणीभ्यां सुनन्दा-सुमङ्गले च कठ्यामारोप्य पूर्वद्वारेण वेदिकागृहप्रविशनं च अग्नेत्रिः प्रदक्षिणादानं, हस्ताञ्चलमोक्षणं, देवानां नृत्यादिविविधाश्चेष्टाश्च क्रियासमाप्तौ यानमारुह्य प्रभोः स्वस्थानगमन, %%2525*** ८५३ ४-८८ ७५७-७६५ ८६९-२ S Jain Education Internatione For Private & Personal use only . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रथमपर्वणो त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते श्लोकाः ८७९-८८० ८८५-८८२ विषयानु * क्रमणिका ८८३-८८४ ८८५ ८८६-८८७ ८८८ विषयः त प्रभु नत्वा शक्रादीनामपि स्वाश्रययानंच ताभ्यां पत्नीभ्यां प्रभोश्चिरं विलासः ।। सर्वार्थसिद्धितश्युतयोर्बाहुजीव-पीठजीवयोः सुमङ्गलाकुक्षाववतरणम् तथैव सर्वार्थसिद्धितश्युतयोः सुबाहु-महापीठजीवयोः सुनन्दोदरेऽवतारः सुमङ्गलादेच्या चतुर्दशस्वप्नावलोकनं, सुतश्चक्री | भावीति प्रभुणा कथनं च सञ्जातयोस्तयोर्भरत-ब्राह्मीति नामस्थापनम् जातयोर्बाहुबलि-सुन्दरीत्यभिख्याकरणम् सुमङ्गलया क्रमादेकोनपञ्चाशद्युगलप्रसवनम् कालदोषेण कल्पवृक्षहासात् मिथुनैर्नीतित्रयोलङ्घनकरणात् तैर्विज्ञतेन प्रभुणा 'अपराधिनां राजा शासिता भवति, इति निवेदनम् , युगलिनां नाभेः सकाशाद् राजमार्गणा ऋषभो वो राजा भवतु' इति नाभिनोक्के तेषां स्वाम्यभिषेकजलानयनाथगमनम् आसनप्रकम्पादेत्य सौधर्माधिपतिना तत्र सिंहासनस्थापन, दिव्यवस्वा-ऽलङ्कार विषयः श्लोकाः मुकुटादिभिः प्रभोरलङ्करणं च ९०४-९०८1 आगतैर्युग्मिभिः प्रभुमलङ्कृतं वीक्ष्य प्रभोः पादयोः पयोनिझेपा 'विनीता अमी' इति मत्वा विनीतापुरीनिर्माणम् ९०९-९११ विनीतानगरीवर्णनम् ९१२-९२३ प्रभुणा सप्तविधानीकादिराज्याङ्गप्रगुणीकरणम् प्रभुणा दार्शतेष्वपि विविधोपायेषु कालदोषान्मिथुनानामजीयंत्याहारे तरूणां मिथः सङ्घर्षणाद रुत्पत्तिः ९३४-९४१ तत्रौषधीपाचनविधिदर्शनम् ९४२-९४८ गजस्कन्धारूढेन प्रभुणाऽऽमृत्तिकापिण्डमानाय्य तया पात्रं निर्माय्य दत्वा प्रथम कुम्भकारशिल्पदर्शनम् -९५२ पश्चाद् वर्धक्ययस्काराद्यशेष (१००) शिल्पप्रदर्शनम् राज्यव्यवस्थार्थ साम-दाम-भेद-दण्डोपायचतुष्टयकल्पनम् भरताय द्वासप्ततिकलाः, बाहुबलिने हस्त्यश्वस्तीपुलक्षणानि, ग्राहयै अष्टादशलिपीः, सुन्दर्य गणितज्ञानं च दत्त्वा प्रभुणा सर्वलौकिकव्यवहारप्रकटीकरणम् ९६०-९७३ S ८९०-८९२ * ९५ ८९३-८९७ ॥६॥ Jain Education Internationa l For Private & Personal use only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः श्लोकाः । विषयः श्लोकाः उन-भोग-राजन्य-क्षत्रभेदैर्जनानां विभजनम् ९७४-९८४ देवोत्पाटितया शिबिकया मङ्गलतूर्यपुरःसरं अन्यदा प्रभोल्याने समागमनं, पुष्पवास प्रभोः पथि गमनम् ३०-३५ गृहावस्थानं च ९८५-९८६ प्रभुं दिसूगां जनानां स्त्रीणां च विविधचेष्टावर्णनम् ३७-४९ | वसन्त वर्णनं, तन्त्र जनानां नानाप्रकारे क्रीडनं १९८७-१०१६ गगने महाविमानैर्देवागमननिरूपणम् ५०-५६ लोकानां क्रीडामवलोकयतः प्रभोः 'ईक्षा भरतबाहुबल्यादिभिर्भूरिभिर्जनैः सुरैश्च परिपूर्व कापि दृष्टा, इत्युपयुभानस्याऽवधिनाऽनुत्तर वृतस्य प्रभोः सिद्धार्थोद्याने समागमनम् स्वर्गसुखस्मरणाद् वैराग्यभावना १०१७-१०३४ ततः शिबिकायाः समुत्तीर्य प्रभुणा सर्ववलोकान्तिकदेवैरागत्य 'प्रभो ! धर्मतीर्थ प्रवर्तय' खालङ्कारमोचनम् इति विज्ञापन, प्रभोः स्वस्थानगमनं च १०३५-१०४० देवेन्द्रेण प्रभोः स्कन्धे देवदूष्यस्थापनम् चैत्रकृष्णाष्टम्यामुत्तराषाढानक्षत्रे प्रभोश्चतुतृतीयः सर्गः। मुंष्टिलोचकरणम् पुत्रानाहूय प्रभुणा राज्यं भरताय समर्पणं, सौधर्माधिपतिना प्रभोः कचानां वस्वाञ्चले प्रहणम् सुरैस्तस्याऽभिषेककरणं च १-१२ पञ्चममुष्टिं समुचिखनिषताऽपि भगवता राजचिह्नालङ्कृतस्य भरतस्य शोभावर्णनम् शक्रवचनेन तथैव शिरसि धारणम् । बाहुवल्यादिभ्यो विभज्य यथोचितदेशराज्यप्रदानम् १७ प्रभूत्पाटितानां कचानामिन्द्रेण क्षीरसिन्धौ क्षेपणम् प्रभुणा दातुमारब्धस्य सांवत्सरिकदानस्य वर्णनम् १८-२५ पष्टतपः कृत्वा सिद्धनमस्कारपूर्व सर्वसावधमुत्सृज्य वार्षिकदानान्ते आसनप्रकम्पात् समागतेन प्रभोः प्रवज्याङ्गीकरणम् ७३-७४ शक्रेग प्रभोदीक्षाभिषेककरणं, दिव्यालङ्कार दीक्षोत्सवक्षणे नारकाणामपि क्षणं सुख, वस्त्रादिपरिधापन, सुदर्शनाशिबिकानयनं च २६-२९ । प्रभोर्मनःपर्यवज्ञानोत्पत्तिश्च MMMM त्रि.अ. २ उ५-७॥ - For Private & Personal use only . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते 116 11 विषयः सुहृद्ववार्यमाणानामपि कच्छ महाकच्छादिचतु:सहस्रनृपाणां प्रभुणा सहैव दीक्षाङ्गीकरणम्, शक्रकृता प्रभोदक्षाकल्याणकस्तुतिः प्रभुं स्तुत्वा नन्दीश्वरं गत्वा इन्द्रादीनां यथास्थानगमनम् श्लोकाः कन्द-मूल-फलाद्यशनारम्भश्व इतो दूरदेशादागताभ्यां नमि-विनमिभ्यां पित्रोः पृच्छनं, ताभ्यां यथाजातस्वरूपनिवेदनं च प्रभोः समीपमागत्य नमि-विनम्यो राजमार्गणं, ७७-८० ८१-९० ९१ भरत- बाहुबल्यादीनामपि स्वस्वस्थानगमनं, प्रभोरन्यत्र विहारश्व तदानीं लोकानां भिक्षादानानभिज्ञत्वात् प्रभोरम्यमुनीनां चाssहाराप्राप्तिः प्रभुं राजानमेव मत्वा लोकैर्विविधवस्तूपढीकनम् क्षुत्पिपासादिपरिषहान् सहमानस्य प्रभोः १००-१०२ शेषमुनीनां च तथैव विहरणम् क्षुधादिभिः क्लान्तानां राजन्यमुनीनां नानाविकल्पाः १०३-११० कच्छ महाकच्छादिभिः सार्द्धमालोच्य सम्भूय च तेषां गङ्गातीरगतवनेषु गमनं, तत्र स्वैरं ९२-९३ ९४ ९५-९९ १११-१२३ १२४-१३३ विषयः श्लोकाः raraard प्रभौ भक्तिकरणं, त्रिसन्ध्यं याचनं च १३४ - १४४ प्रभुवन्दनार्थं धरणेन्द्रागमनं, ताभ्यां सहालापः, प्रभुभक्त्या प्रसच तयोगौरीप्रज्ञप्तिप्रमुखाष्टचत्वारिंशत्सहस्त्रविद्यादानं च वेतपर्वते श्रेणिद्वये नगराणि प्रतिष्ठाप्य युवां राज्यं कुर्वीथामित्यादेशदानम् प्रभुं नत्वा पुष्पकविमानं विकृत्य धरणेन्द्रेण समं तयोश्चलनम् १७२ स्वपित्रोः कच्छमहाकच्छयोर्भरतस्य च स्वर्द्धिज्ञापनम् १७३ - १७४ स्वपरिजनमादाय तयोर्वता व्यगिरिगमनम् १७५ वैतापवर्णनम् १७६-१८५ नमिना दक्षिणश्रेण्यां निवेशितानां पञ्चाशत्पुराणां नामानि उत्तरश्रेण्यां विनमिना विनिर्मितानां षष्टिनगराणामभिधेयानि तत्र शाखापुर - जनपदादिस्थापनं, नाभिनन्दनजिनचैत्यादिनिर्मापणं, तत्पूजादिविधानं च धरणेन्द्रेण विद्याधराणां मर्यादा निवेदनम् षोडश विद्यावतां तत्तन्नाम्ना षोडशनिकायाः १४५-१७० १७१ १८६-१९५ १९६-२०८ २०९-२१२ २१३-२१८ २१९-२२४ प्रथमपर्वणो विषयानुक्रमणिका । ॥७॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः श्लोकाः विषयः श्लोकाः नमि-विनमिभ्या प्रत्येकमष्टाऽष्टनिकायग्रहणम् २२५-२२६ श्रेयांसकुमारेणाऽवनौ प्रथम दानधर्मप्ररूपणम् ३० विद्याधरयोस्तयोश्चर्यावर्णनम् २२७-२३२ श्रेयांसगृहाङ्गणे राज्ञां नागराणां काछमहाकच्छागङ्गाकूलस्थितानां कच्छमहाकच्छादीनां चर्यानिरूपणम्२३४-२३७ दीनां च समागमनं, 'त्वयेदं कथं ज्ञातम्' इति आर्यानार्येषु विचरता भगवता गजपुरे भिक्षार्थगमनम्२३८-२४३ पृच्छायां प्रभुणा सह कृताष्टभवस्वरूपनिवेदनं च ३०३-३२९ |तन्त्र श्रेयांसयुवराजेन, सुबुद्धिश्रेष्ठिना, सोमयशोराज्ञा पारणस्थाने श्रेयांसेन आदिकृन्मण्डलनाम्ना |च स्वप्नावलोकन, सदस्यन्योन्यस्य निवेदनं, रत्नपीठनिर्माणं, तस्य त्रिसन्ध्यमर्चनं च | तन्निर्णयमजानतां स्वस्वगृहगमन च २४४-२४८ यत्र यन्त्र प्रभोभिक्षाग्रहणं तत्र तत्र जनैः प्रभोभिक्षार्थ हस्तिनापुरे प्रवेशः, लोकानां 'आदित्यमण्डल' विरचनम् ३३१ विविधाः प्रार्थनाश्च २४९-२६४ प्रभोर्बहलीदेशे तक्षशिलायां नगर्या गमनं, बाहुबलये तत्कोलाहलं श्रुत्वा पृष्टेन वेत्रिणा श्रेयांसाय नियुक्तजनैर्जिनागमनिवेदनं, बाहुबलिना यथातथस्वरूपनिवेदनम् २६५-२७६ नगरशोभाकरणं च ३३५-३४॥ प्रभुसमीपमागत्य पादयोर्निपत्य त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य 'प्रातर्महामहेन प्रभुं वन्दिप्ये' इति विचारणया श्रेयांसेन प्रभोर्षन्दनं, 'ईदृशं क्वापि मया दृष्टमिति बाहुबलिना रात्रिनिर्गमनं , प्रभोरन्यत्र विहारच ३४२-३४४ चिन्तयतो जातिस्मरणज्ञानप्राप्तिः, पूर्वभवसम्ब प्रातः साडम्बरं वन्दनार्थमागतस्य प्रभुमनालोक्य धावलोकनं च २७७-२८९ बाहुबलेः पश्चात्तापः, सचिवदर्शितप्रभुपद| विज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिना श्रेयांसेन तदानी. पतिमभिवन्द्य तत्र धर्मचक्रस्थापन, | मेवोपायनीकृतघटेक्षुरसेन प्रभोः पारणकारणं, अष्टाह्निकोत्सवकरणं च ३४५-३८५ देवैः पञ्चदिव्यवर्षणं च परीषहान् सहमानेनाऽऽर्यानार्येषु विहरता |तहिनादेव राधशुक्लतृतीयायां अक्षयतृतीयापर्वप्रवृत्तिः ३०० । भगवतैकसहस्रवर्षनिर्गमनम् ३८६-३८८ CARACT*X=10SHORROSTATAIRES Jan Education Intematic For Private & Personal use only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमपर्वणो विषयानु क्रमणिका। ॥८॥ विषयः श्लोकाः अयोध्यायाः शाखापुरे पुरिमतालनगरे शकटमुखोद्याने प्रभोः केवलज्ञानोत्पत्तिः ३८९-३९८ स्वामिकेवलज्ञानमहोत्सवार्थ देवेन्द्राणामासनप्रकम्पः ३९९ सौधर्माधिपतेर्गजीभूतस्यैरावणस्य श्रीवर्णनम् १००-४१७ ऐरावणमारुह्य सौधर्मेन्द्रस्य तत्रागमनं, अन्येषामपीन्द्राणां समागमज्ञापनं च ४१८-४२१ देवनिर्मितस्य समवसरणस्य स्वरूपम् ४२२-१५७ देवकोटीपरिवृतस्य सुरनिर्मितस्वर्णमयकमलनवके पादन्यासं वितन्वतश्च प्रभोः पूर्वद्वारेण समवसरणे प्रवेशः ४५८-४६१ चैत्यवृक्षं तीर्थ च नत्वा रत्नसिंहासनेऽवस्थानम् ४६२ व्यन्तरैरन्यदिक्षु भगवत्प्रतिबिम्बत्रयकरणम् ४६३ | भामण्डल-देवदुन्दुभि-रत्रध्वजवर्णनम् ४६४-४६७ समवसरणे द्वादशपर्षदां स्थानादिनिरूपणम् ४५८-४७६ सौधर्मेन्द्रकृता प्रभोः केवलज्ञानकल्याणकस्तुतिः ४७७-४८६ ऋषभबिरहे मरुदेवाया बिलापः, भरतेन कृतं तत्सान्त्वनं च ५८७-५०९ अत्रान्तरे वेत्रिणा समागत्य भरतं प्रति प्रभुज्ञानोत्पत्तेश्चक्ररत्नोत्पत्तेश्च युगपनिवेदनं, विषयः श्लोकाः आदौ जिनार्चननिश्चयश्च ५०-५१५ मरुदेवया सह भरतस्य प्रभुवन्दनार्थमागमनम् ५१६-५२९ भरतेन मरुदेवायै ऋषभर्द्धिस्वरूपज्ञापनम् । ५२०-५२६ पुत्रद्धिं शृण्वत्या मरुदेवायाः कर्मक्षयाद् गजस्कन्धारूढाया एव केवलज्ञानं, मोक्षश्च ५२-५३० देवस्तद्वपुषः क्षीरार्णवे क्षेपण, तहिनादेव मृतकपूजनप्रवृत्तिश्च ५३१-५३२ राजचिहानि सन्त्यज्य भरतस्य समवसरणे प्रवेशः ५३३-५३५ भरतकृता प्रभोः स्तुतिः ५३६-५४९ प्रभु स्तुत्वा शक्रपृष्ठे भरतस्यावस्थानं प्रभोर्देशनारम्भः५५०-५५२ तत्रादौ चातुर्गतिकदुःखवर्णनम् ५५३-५६७ मोक्षे दुःखाभाव-महानन्दवर्णनम् ५६८-५७३ तत्प्रात्युपायः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रितयम् પુરુષ ज्ञानपञ्चकस्वरूपम् ५७५-५८१ निसर्ग-गुरूपदेशभेदेन सम्यक्त्वप्राप्तिवर्णनम् ५८२ अन्धिभेदस्वरूपम् ५८३-५९५ सम्यक्त्वस्यौपशमिकादिपञ्चभेदनिरूपणम् ५९६ तेषां च क्रमतः स्वरूपम् ५९७-६०१ रोचक-दीपक-कारकदर्शनवर्णनम् ६०५-६०७ BROORKERSACANCIENCER Jain Education Internatio For Private & Personal use only , Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern विषयः सम्यक्त्वस्य शमादिपञ्चलक्षणनिरूपणम्, सर्वविरतिस्वरूपम् श्लोकाः ६०८-६१६ ६१७-६२४ .६२५-६४० गृहस्थानां द्वादशवतवर्णनम् देशनां निशम्य प्रबुद्धानां ऋषभसेनादीनां भरतस्य पञ्चशतपुत्राणां पौत्र सप्तशत्याश्च प्रवज्यादानम् प्रभोः केवलमहिमानमालोक्य मरीचेः, भरतेन विसृष्टाया ब्राह्वयाश्च व्रतग्रहणम् भरतेन निषिद्धायाः सुन्दर्याः, भरतस्य च श्राविका श्रावकत्वस्वीकारः कच्छ - महाकच्छवर्ज्यान्यराजन्यतापसानां पुनर्दीक्षाङ्गीकरणम् ६४१-६४८ ६४९-६५० ६५१-६५३ ६५४ ६५५-६५६ प्रभुणा चतुर्विधसङ्घस्थापनम् चतुरशीतेः ऋषभसेनादीनां त्रिपदीं प्रदाय देवानीतस्थालाइ दिव्यचूर्णक्षेपपूर्व गणधरपदाधिरोपणम् ६५७-६६३ तेषामनुशिष्टिमयीं देशनां दत्वा प्रभोः पौरुषी समापनम् ६६४-६६६ भरतानीतस्य बलेर्विभजनम् ६६७६७४ प्रभोर्देवच्छन्द गमनं, ऋषभसेनस्य देशनाविधानं च ६७५-६७८ |देशनान्ते पर्षदां स्वस्वस्थानगमनम् गोमुखयक्षस्य, अप्रतिचक्रायाः शासन ६७९ विषयः देवतायाश्च स्वरूपम् प्रभोरन्यत्र विहारः, अतिशयाश्च चतुर्थः सर्गः । श्लोकाः ६८०-६८३ ६८४-६८९ भरतेन चक्ररत्वस्य पूजादिकरणम् दिग्विजयार्थं जिगमिषोर्भरतस्य माङ्गल्यादिविधानम् गजरवमधिरुह्य भरतस्य दिग्विजयार्थ प्रयाणम् चक्रादिद्वादशरत्लवर्णनम् १-१३ १४- ३१ ३२-३९ ४०-४७ ४८-५५ ५८-७७ भरतेश्वरस्य दिग्विजययात्रावर्णनम् योजनमान प्रयाणैर्व्रजता प्रथमं गङ्गाया दक्षिणकूलप्रापणम् ५६-५७ तत्र कृतशिविरस्य चक्रिणः सैन्यायाश्चर्यावर्णनम् ततो मागधतीर्थं गत्वा मागधतीर्थकुमारं देवं साधयितुं वार्द्ध कि निर्मित पौषधशालायां चक्रिणाऽष्टमतपोविधानम् अष्टमाते बलिविधिं कृत्वा रथारोहणम् भरतचक्रिणा मागधेशसभायां स्वनामाङ्कितशिली मुखप्रेषणं, मागधाधिपतेः कोपः सभायां क्षोभश्च ९२- १२७ अमात्यदर्शितबाणगतचक्रिनामदर्शनात् कोपोपशान्तिः, ७८-८६ ८७-९१ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमपर्वणो विषयानुक्रमणिका। ॥९॥ विषयः श्लोकाः विषयः श्लोकाः | भरतस्य शासनस्वीकारच १२८-१४८ तमाश्चास्य तत्रैव पुनः संस्थाप्य स्वस्कन्धावार समागल्य भरताय किरीट-कुण्डलार्पण, भरतेन तस्य सत्करणं च१४१-१५० अष्टमपारणकरण, अष्टाह्रिकोत्सव विधानं च २११-२१४ | रथं वालयित्वा तेनैव पथा स्कन्धावारमेत्य अष्टम ततो महासिन्धोदक्षिणरोधसि गत्वाऽष्टमभभक्तपारणकरणं, अष्टातिकामहोविधानं च १५१-१५३ केन सिन्धुदेव्याः साधनम् २१५-२२३ ततो दक्षिणस्यां दिशि वरदामतीर्थ प्रति गमनम् १५४-१५७ प्रान्तेऽष्टमपारणकरणं, अष्टाहिकामहोविधानं च २२४-२२६ वरदामदेवसाधनार्थमष्टमतपःकरणम् १५८-१६० ततो वैताव्यपर्वतं प्राप्याऽष्टमभक्तन वैताब्याद्रिकुमार अष्टमान्ते रथमारा वरदामेशपर्षदि बाणप्रेषणं, संसाध्य पारणाऽष्टाह्निकामहोनिर्मापणम् २२७-२३६ वरदामेशकोपोक्तिश्च ततस्तमिस्रागुहामागत्याऽष्टममक्केन कृतमालं देवं बाणगताभिधेयाक्षरावलोकनात् प्रशान्तकुधा समागल्य साधयित्वा पारणाऽष्टातिकोत्सवकरणम् २३७-२४७ भरतेशाय बाणस्य प्रत्यर्पणं, मुक्ताराशि-कटिसूत्रो दक्षिणसिन्धुनिष्कुटसाधनार्थ सेनानी प्रत्याज्ञापनम् २४०-२५० पायनीकरण, भरतशासनाङ्गीकरणं च १७६-१९० सेनान्या तत्र गत्वा सिंहल-बर्बर-टवादिदेशान् । तत्सर्वस्वं लात्वा, वरदामेशं स्वस्थाने संस्थाप्य पुन जवन-नर-व्याघ्रादिद्वीपांश्च विजित्य भरतमभ्येत्य | र्निजशिबिरमागत्य अष्टमपारणाऽष्टाशिकोत्सवकरणम् १९१-१९४ तदाहृतदण्डोपढौकनं, भरतेन सत्करणं च २५१-२८४ | ततः प्रतीच्यां दिशि प्रभासतीर्थगमनम् १९५-१९७ चमूपतिं प्रति तमिस्राकपाटोद्घाटनार्यमादेशः २८५ प्रभासनाथमुद्दिश्याऽष्टमभक्तकरणम् १९८ सेनान्याष्टमतपसा कृतमालदेवमाराध्य पाणिना | अष्टमान्ते रथमारा जलधि प्रविश्य प्रभासाभिमुखं . स्पृष्टस्य कपाटद्वयस्य स्वयमुद्रटन,चक्रिणे निवेदनं च२८६-२९८ स्वनामाङ्गितमार्गणक्षेपणम् हस्तिरखमारुह्य चक्रिणो गुहाद्वारे प्रवेशनम् १९९-३०४ बाणस्थाक्षरावलोकनात् समागत्य भरताज्ञाङ्गीकरण, काकिणीरवस्वरूपम् ३०५-३०७ कटक-कटीसूत्र-चूडामणिहारनिष्काघुपायनीकरणं च २०५-२१. | चक्रिणा काकिणीरसेनकोनपञ्चाशमण्डलालेखनम् ३००-३०९ ॥९ ॥ १९९-२०४ Jain Education Internation . Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः लोकाः RSS RAMAUSAMACHAR विषयः श्योकाः |गुहायां सैन्यायाः प्रवेशः ३१-३१५ उन्मन्ना-निमशानद्योः पद्याविधानम् ३१६-३२३ |गुहाया उत्तरद्वारस्य स्वयमेवोबटनम् , ३२४-३२८ ततो निर्गत्य चक्रिण उत्तरभरताबें प्रवेशः ३२९-३३५ तत्रत्यकिरातराज्ञां सजातान्यनेकान्युत्पातचिह्नानि ३३६-३५२ मिथः सम्भूय तेषां भरतं प्रति युद्धाय समुत्थानम् ३५३-३६८ भरताग्रसेनया सह तेषां युद्ध, चक्रिचमूत्रासदानं च १९९-३७७ ततस्तैः समं सेनापतेर्युताय गमनम् ३७८-२८० कमलापीडाख्यतुरङ्गमवर्णनम् २८१-३९५ खजरनवर्णनम् ३९६-३९८ सेनापतेर्युवेन अस्तानां तेषां सिन्धुं गत्वाऽष्टमतपसा | मेघमुखनागकुमाराख्यस्वकुलदेवताराधनम् ३९९-४१० | देवैः प्रसन्नीभूय तेषां साहाय्यकरणं, चक्रिणः सैन्यायां सप्ताहोरात्राण्यविरतं घोरमेघोपद्वषिधानं च ४११-४२५ चक्रिणा स्वहस्तेन चर्मस्वस्पर्शनं, वर्द्धिते च तस्मिन् ससैन्यस्य चक्रिणोऽवस्थानम् १२६-४२७ छत्ररवस्वरूपम् ४२९-४३१ चक्रिणा कृतश्चर्मच्छत्ररत्रयोरुपयोगः ५३२-१३९ चक्रिगो भावविदङ्गरक्षकदेवानां वचनात् तैमघमुखदेवर्मेधादिसंहरणं, किरातेभ्यो भरतशरणगमनादेशश्च ४४०-४१७ किरातैर्भरतस्य शरणग्रहणं, भरतेन सत्कृत्य तेषां विसर्जनं च ४४८-४५७ भरताज्ञया सिन्धोरुत्तरनिष्कुटं संसाध्य सुषेणस्याऽऽगमनम् ४५८-४५९ ततः ससैन्यस्य चक्रिणः क्षुद्रहिमव द्विरिप्रापणम् , ४६०-४६३ विहिताष्टमतपसा चक्रिणा प्रहितशिलीमुखस्थाक्षरावलोकनात् क्षुद्रहिमवत्कुमारराज्ञा शासने स्वीकृतेऽष्टमतपःपारणाऽष्टालिकोत्सवकरणम् ततो वैताब्यगिरिं गत्वा विद्याधरेशनमि-विनमी प्रति मार्गणप्रेषण, तयोयुद्धाय समागमनं, द्वादशवर्ष-- युद्धान्ते भरताज्ञाकीकरणं, विनमिना स्वदुहितुर्भरताय प्राभृतीकरणं च १८२-५१५ सुभद्राख्यत्रीरलस्य रूपवर्णनम् । ५.६-५३५ नमि-विनमिभ्यां प्रभोः पाश्वे दीक्षाग्रहणम् । ततो गङ्गां प्रति भरतचक्रिणः प्रयाणम् ५३७-५३4 गोत्तरनिष्कुटस्य सुषेणेन सेनान्या साधनम् अष्टमभक्ताराधनया गङ्गादेव्या रखसिंहा CROSSREAREA ROSA Jain Education Internation For Private & Personal use only . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरिते ॥ १० ॥ Jain Education Inter विषयः श्लोकाः ५४०-५४१ सनादिविश्राणनम् भरतरूपमालोक्य गङ्गादेव्याः कामोत्पत्तिः, तया भरतं स्वभवनं नीत्वा तेन समं विलसनं च एकसहस्रवर्षान्ते भरतस्य शिविरं प्रत्यागमनम् ततः खण्डप्रपातागुहां प्रति प्रयाणम् चक्रिणाऽष्टमतपसा नाट्य मालदेवं साधयित्वा पारणाऽष्टाह्निकामहोत्सवकरणम् अष्टमतपसा नाट्य मालदेवमाराध्य सेनान्या खण्डप्रपातागुहायाः कपाटोद्घाटनम् गुहां प्रविश्य चक्रिणा काकिणी रखे नैकोनपञ्चाशन्मण्डलान्यालिख्य उन्मना - निमझानदीपद्यया गङ्गायाः पश्चिमरोधसि विनिर्गमनम् निधीनुद्दिश्य चक्रिणाऽष्टमतपोविधानम् नवनिधिस्वरूपम् वशमागतेषु तेषु अष्टमभक्तपारणा करणं, तेषामष्टाह्निकामहोविधानं च ५८३-५८५ नृपाज्ञया सेनान्या गङ्गाया दक्षिणनिष्कुटसाधनम् ५८६-५८७ दिग्विजयसमाप्तौ भरतस्य विनीतायामागमनम् ५८८-६०८ मङ्गलार्थमष्टमतपःकरणम् ६०९-६१० ५४२-५४७ ५४८ ५४९-५५० ५५१-५५५ ५५६-५६१ ५६२-५६७ ५६८ ५६९-५८२ विषयः श्लोकाः विनीतायां भरतस्य प्रवेशोत्सवः, नागरानन्दवर्णनं च ६११-६५० प्रासादवर्णनम् ६५१-६५७ अङ्गरक्षकादीन् विसृज्य पित्र्यप्रासादप्रवेशः, सुखेन कालनिर्गमनं च सुरनरकृत भरतराज्याभिषेकवर्णनम् चतुर्दशरत्नानामुत्पत्तिस्थानवर्णनम् भरतस्य चक्रिपदर्द्धिवर्णनम् सम्भाष्यमाणेषु स्वजनेषु सुन्दरीस्थितिमालोक्य भरतस्य चिन्ता, सेवकेभ्य उपालम्भप्रदानं च सेवकैज्ञतायां तस्या दीक्षाग्रहणेच्छायां भरतेनाज्ञादानम् ६५८-६६८ ६६९-७०८ ७०९-७१२ ७१३-७२८ ७२९-७४३ ७४४-७५४ ७५५-७५७ ७९८-८०७ नियुक्तजनैरष्टापदगिरौ प्रभोरागम निवेदनम् भरतसुन्दर्योर्वन्दनार्थं गमनं, सुन्दर्या दीक्षाग्रहणं च ७५८-७९७ भरतेन स्वशासन स्वीकारार्थं भ्रातृन् प्रति दूतप्रेषणं, सम्भूय तैः प्रत्युत्तरदानं च भरतभ्रातृभिः प्रभोः समीपमागत्य स्वरूप निवेदनम् ८०८-८२६ अङ्गारकारकदृष्टान्तेन तेभ्यः प्रभोरुपदेशः सञ्जातवैराग्यानां तेषामष्टनवतेर्भ्रातॄणां दीक्षाग्रहणं, चक्रिणा तेषां राज्यानि स्वायत्तीकरणं च ८२७ -८४४ ८४५-८४७ प्रथमपर्वणो विषयानुक्रमणिका । ९ ॥ १० ॥ . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः श्लोकाः पञ्चमः सर्गः। आयुधशालायामप्रविष्टं चक्ररनमालोक्य चक्रिणा तत्कारणे पृष्टे सेनान्या बाहुबलेर्विजयाभावकथनम् १-१३ बन्धुस्नेहादिभिर्विकल्पाकुले भरते सेनान्या कृतं | समाधानम् १४-२२ बाहुबलये दूतप्रेषणनिर्णयः २३ सुवेगाख्यदूतस्य विनीतायाः प्रयाणम् २४-२६ तस्याऽध्वनि सातानि दुनिमित्तानि २७-३४ मार्गे समागताया अटच्या वर्णनम् ३५-४२ दूतस्य बहलीदेशे प्रवेशः ४३-१९ साश्चर्य तेन तक्षशिलापुरीप्रापणम् ५०-५३ ऋद्धिं विलोकयतो दूतस्य नगर्या प्रवेशः ५४-५९ बाहुबलिनः सौधद्वारप्रापणम् ६०-६७ वेत्रिणा गृहीतायामाज्ञायां दूतस्य सभायां प्रवेशः १८-६९ सभासीनस्य राज्ञो बाहुबलिनो वर्णनम् । ७०-७६ नत्वाऽऽसने निविष्टे बाहुबलिना भरतादीनां कुशलोदन्तपृच्छनम् । ७७-८५ साम-दाम-दण्ड-भेदोपायगर्भितं दूतस्य सयुक्तिकमुत्तरम् ८६-१२० विषयः श्लोकाः बाहुबलिनः सकोपं तस्य प्रति वचनम् १२१-१५४ तद्वचसा क्षुब्धस्य दूतस्य बहिर्निर्गमनम् १५५-१६४ पौराणामन्योऽन्यं जल्पः १६५-१७४ भरतबाहुबलिनोयुद्धवार्तायाः प्रसरः, जनानां युद्धोद्योगश्च १७५-१९३ जनचर्या विलोकयतः सुवेगस्य चिन्ता १९४-२०८ विनीतायां सभायां च प्राप्तस्य तस्य भरतेन कुशलादिपृच्छनम् २०९-२१२ सुवेगेन बाहुबलेमहत्त्वदर्शकोत्तरदानम् २१३-२३० भरतराज्ञश्चेतसोऽस्थिरत्वम् २३१-२३८ 'ससैन्यः स्वामी गत्वा स्वयमीक्षताम्' इति युद्धोद्योगसूचकः सुषेणेन दर्शित उपायः, तत्र सचिवस्य सम्मतिश्च २३९-२६१ ससैन्यं सन्नर युद्धार्थ भरतस्य प्रयाणम् मार्गे लोकोक्तिश्रवणम् २७२-२७८ क्रमेण बहलीदेशमागत्य वत्सीनि शिबिरनिवेशनम् २७९-२८४ युद्धार्थ सजीभूतेन बाहुबलिना तत्समीप एव गङ्गातटे स्कन्धावार निवेशनम् २८५-२९ CARRASCARABAO CASACOS २६२-२७१ For Private & Personal use only T, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोकाः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥११॥ प्रथमपर्वणो विषयानुक्रमणिका। SALARIES विषयः श्लोकाः सैन्यद्वयेऽपि सेनापतिस्थापना, युद्धोद्योगैश्व रात्रिनिर्गमनम् ३००-३२७ प्रातयुद्धार्थ दूयोरपि सैन्ययोः सजीभूतानां भटानां विविधोद्योगवर्णनम् ३२८-३५१ राजनियुक्तानामाज्ञापनकोलाहलः ३५२-३५९ रणसङ्ग्रामविधिः ३६०-३६३ बाहुबलिना चैत्यं गत्वा ऋषभप्रभोरर्चनादिविधानम् ३६४-३७१ बाहुबलिना कृता ऋषभप्रभोः स्तुतिः |देवगृहानिर्गत्य वज्रसन्नाहादिपरिधाय गजारोहणम् ३८०-३०० भरतराज्ञा ऋषभप्रभोः पूजनादिविधानम् ३८९-३९६ भरतेन कृता ऋषभप्रभोः स्तुतिः ३९७-४०४ चकिया सन्नर गजरवाधिरोहणम् ४०५-४१३ भरतबाहुबलिनोः स्वस्वसैन्यमध्यागमनम् ४१४-४१६ द्वयोरपि सैन्ययोः सङ्घः ४१७-४३४ नभसि देवानामागमनम् देवैर्भरतस्य समीपं गत्वा युद्धनिरोधाय विज्ञपनम् ४३६-४५५ | भरतेन चक्ररत्वस्याऽप्रवेशकारणदर्शनम् ५५६-५७० ततो बाहुबलिनमभ्येत्य देवैः सङ्कामनिवारणज्ञापनम् ४७१-४८५ बाहुबलेः प्रतिवचनम् ४८६-५०९ । विषयः - देवस्तयोर्मनःसमाधानार्थ दृष्ट्यादियुद्धपञ्चकसूचनं, ताभ्यां सादरमङ्गीकरणं च ५१०-५१८ बाहुबलेः प्रतिहारेण बौराणां समरान्निषेधनम् ५१९-५२७ विषण्णानां वीराणामपसरणम् ५२८-५४१ भरतेन निषिद्धानां वीराणां शङ्कापनोदार्थ स्वं शरीरं वटे निवस तैः कर्षणादिनाऽऽत्मशक्तिज्ञापनम् ५४२-५७० देवैर्भूमौ रजोऽपहरण-गन्धाम्बुवर्षण-कुसुमक्षेपादिविधानम् ५७१-५७५ प्रथम रष्टियुद्धारम्भः, तत्र भरतस्य पराजयः । ५७६-५८७ द्वितीय वायुद्धं, अत्रापि बाहुब लिनो विजयः । ५८८-६०० ततो बाहुयुद्धं, तेन पराजितस्य भरतस्य वैलक्ष्यम् १०८-६४. बाहुबलिना समाश्वास्य मुष्टियुद्धायाऽऽह्वानम् ६४१-६४५ ततो मुष्टियुद्धारम्भः, बाहुबलेर्मुष्टिप्रहारेण भरतस्य मूर्ची, बाहुबलिना स्वोत्तरीयेण वीजनं, भरतस्य लजा च ६५६-६६२ ततः समारब्धे दण्डयुद्धे भरतदण्डप्रहारेण बाहुबलिनो भूमावाजानुनिमजनं,बाहुबलिनः प्रहारेण भरतस्याऽऽकण्ठं भूमौ प्रवेशः भरतस्य मनस्यात्मनश्चक्रित्वचिन्ता Control ६१३-७." ३ - ७.६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः पावमरिक्षपतः बाहुबलिनः केवलज्ञानोत्पत्तिः ततः समागत्य प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य बाहुबलिनः केवलिसभायामयस्थानम् श्लोकाः ७८९-७९६ ७-७९ विषयः लोकाः | यक्षराजैः समानीय चक्रिणो हस्ते चक्ररत्नार्पणम् ७०७-७१० |चक्रं निरीक्ष्य भरतं प्रति बाहुबलिनो धिक्कारः ११-७१५ चक्रिया बाहुबलिनं प्रति चक्रमोचनम्। ७१६ बाहुबलिनश्चेतसि चक्रस्य चूर्णनादिविकल्पः ७१७-७२१ बाहुबलिनं प्रदक्षिणीकृत्य चक्रस्य प्रत्यागमनम् ०२२-७२५ |भरताय कुडस्य बाहुबलिनो मुष्टिमुद्यम्य धावनम् ७२५-७२७ चेतसि विचारपरावर्तने सञ्जाते तेनैव मुष्टिना मूर्भः कचानुवृत्य बाहुबलिना चारित्राङ्गीकरणम् ७२८-७४० देवैः प्रशंसापूर्व बाहुबलिन उपरि पुष्पवृष्टिविधानम् ७४१ 'अवाप्तकेवलज्ञान एव स्वामिपादान्ते यास्यामि' इति निश्चित्य बाहुबलिना कार्योत्सर्गेण तत्रैवावस्थानम् ७४२-७४५ [खिनेन भरतेन कृतात्मनिन्दा, बाहुबलिनः स्तुतिश्च ७४६-७५३ बाहुबलिनो राज्ये चन्द्रयशसं संस्थाप्य | भरतस्याऽयोध्याषामागमनम् __ ७५४-७५६ कायोत्सर्गेणाऽवस्थितस्य बाहबलिनः स्वरूपम् ७५७-७७८ वर्षान्ते प्रभुणा तत्प्रतिबोधार्थ प्रेषिताभ्यां ब्राह्मीसुन्दरीभ्यां 'हस्तिस्कन्धाधिरूढस्य न केवलज्ञानम्' | इत्युपदिश्य गमनम् ७७९-७८८ तयोगिराऽपगते मदे लघीयसां भ्रातॄणां वन्दनार्थ पष्ठः सर्गः। संयमभारवहनाक्षमस्य मरीचेश्चिन्ता इ-१३ खमतिकल्पनया मरीचिना वेषपरिवर्तनम् १४-२३ विचित्रवेषं तमालोक्य लोकैर्धमें पृष्टे शुद्धधर्मोपदेशः, चारित्रं जिघृक्षणां प्रभोः पाश्वे प्रेषणं च अन्यदा रुग्णावस्थायामप्रतिचारिषु साधुषु मरीचेः स्खयोग्यशिष्यकरणाभिलाषः, निरुजीभवनं च २९-३० प्रभोर्देशनायामरुचितायां कपिलराजपुत्रेण मरीचिमभ्येत्य धर्मपृच्छनम्। पुनरपि सद्धर्मश्रवणार्थ मरीचिना प्रभोः पार्थे प्रेषणम् ४५-४६ तथापि धर्मेऽरुचिते 'तत्रापि धर्मोऽस्त्यत्रापि' इति तं प्रति भाषमाणेन मरीचिना कोटाकोटीसागरोपमभवार्जनम् ४७-५१ दीक्षिताच तस्मात् परिवाजकमतोत्पत्तिः । भगवतोऽतिशयानां वर्णनम् ५३-७३ -9 Jain Education Internatio n For Private & Personal use only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ १२ ॥ विषयः प्रभोरष्टापदादा समागमनम् अष्टापद गिरिवर्णनम् देवनिर्मितस्य समवसरणस्य वर्णनम् भगवतः समवसरणे प्रवेश: समवसरणे पूर्वादिदिक्षु द्वादशपर्षदामवस्थानम् ७४-७७ ७८-१०१ १०२-१२९ १३०-१३२ इन्द्रागमनम् १३४- १३८ १३९ १४०-१४८ इन्द्रेण कृता प्रभोः स्तुतिः शैलपालकैश्चक्रिणे प्रभोरागमनज्ञापनेन वपनम् १५०-१५२ १५३-१६९ भरतस्य सर्व प्रभोर्वन्दनार्थं निर्गमनम् गजादुत्तीर्याऽष्टापदाद्विमारा भरतेन समवसरणे प्रविशनम् भरतेन कृता प्रभोः स्तुतिः वप्रश्रये पदां स्थितिवर्णनम् प्रभोर्देशनाश्रवणम् श्लोकाः प्रभोदेशनान्ते लघुभ्रातृभ्यो भरतेन पुना राज्यग्रहणार्थं निमन्त्रणं, प्रभुणा तन्निवारणं च पञ्चभिः शकटशतैराहा रमानाथ्य भ्रातृणामामअणे कृते 'राजेन्द्र ! राजपिण्डोऽपि, महर्षीणां न कल्पते ।' इति भगवता तस्यापि निषेधनम् १७०-१७२ १७३-१८० १८१-१८५ १८६-१८८ १८९-१९६ १९७-२०२ विषयः भरतस्य विषादमावलोक्येन्द्रेणाऽवग्रहस्वरूप पृच्छनम्, प्रभुणाऽवग्रहपञ्चकं निरूप्य भरत मनः सान्त्वनं च 'अमुना भक्तपानादिना मया किं कर्तव्यम्' इति भरतेन पृष्टे 'गुणाधिकेभ्यो देयम्' इति इन्द्रवचनात् श्रावकेभ्यः प्रदानम् भरतस्य शत्रस्वरूपदिदृक्षा भरतस्याऽत्याग्रहे शक्रेण स्वाङ्गुलीदर्शनम् भरतेन स्वाश्रयं गत्वा तदङ्गुल्या अष्टाह्निकामहोविधानालोके इन्द्रोत्सवप्रवृत्तिः प्रभोरन्यत्र विहारः श्रवाः २०३-२०१ २१०-२१३ २१४-२१० २१८-२११ २२३-२२५ २२६ भरतेन स्वगृहे भोजनाय श्रावकेभ्यो निमन्त्रणम् २२०-२२८ / 'जितो भवान् वर्द्धते भीस्ततो मा हन मा हन' इति प्रत्यहं तेषां स्वाध्यायमाकर्ण्य विचारणया भरतस्य धर्मध्याने प्रवर्तनम् तेषां सङ्ख्यावृद्धौ सूदविज्ञया तेषां परीक्षाकरणनिर्णयः सुश्रावकाणां काकिणीरलेनाऽङ्कणं, तेषां स्वाध्यायहेतवे आर्यचतुर्वेदनिर्मापणं च २२९-२३५ २३७-२४१ २४२-२४७ . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः श्लोकाः | तत एव ब्राह्मण-वेद-यज्ञोपवीतोत्पत्तिः २४८ | तदनु सातैरष्टभिः पुरुषैर्भरतार्द्धराज्यस्य | भगवन्मुकुटस्य च धारणं, स्वर्ण-रूप्यसूत्रमययज्ञोपवीतदानं च २४९-२५४ भरतनिर्मितानामार्यचेदानां विपर्ययश्च २५५-२५६ नियुक्तपुरुषैर्भगवदागमने शंसिते तेभ्यः पारितोषिक दानपूर्वमष्टापदं समेत्य भरतेन भगवते नमस्करणम् २५७-२६२ दभरतकृता भगवतः स्तुतिः २६३-२४० प्रभोर्देशनां निशम्य भावितीर्थकृञ्चक्रिप्रभृतीनां | जिज्ञासया भरतेन कृता पृच्छा २७१-२७५ भगवता भाविनां तीर्थकृच्चक्रवर्ति-वासुदेवबलदेव-प्रतिवासुदेवानां नगर-गोत्र-पितृ-मातृ आयुः-वर्ण-माना-ऽन्तर-दीक्षा-गत्यादिप्रतिपादनम् २७६-३६९ | "अत्र किं कश्चिदष्यस्ति भगवन् ! भगवानिव । तीर्थ प्रवृत्य भरतक्षेत्रं यः पावयिष्यति ॥” इति | भरतेन पृष्टे भगवता मरीचेः प्रथमदाशाह-प्रियमिनाख्यचक्रि-चरमजिनभवनसूचनम् ३७०-३७९ सानन्दमभ्येत्य भरतेन मरीचये भगवस्कथनं निवेच 'न ते प्रवज्यां जन्म वा वन्दे, विषयः श्लोकाः किन्तु यत्त्वं चरमजिनो भविष्यसीति वन्दे, इत्युक्त्वाऽभिवन्ध च स्वस्थानगमनम्। ३८०-३८४ जातप्रमोदेन मरीचिना कुलमदकरणानीचगोत्रकर्मोपार्जनम् ३८५-३९० भगवतः शत्रुञ्जयतीर्थे समागमनम् ३९१-३९५ शत्रुञ्जयतीर्थवर्णनम् २९६-४१६ कियत्कालं भगवतस्तत्राऽवस्थानम् ११७-१२४ केवलप्राप्ति-मुक्तिगमनादिलाभं दर्शयित्वा पुण्डरीकं गणभृतं समुनिसमुदायं तत्राऽवस्थातुमादिश्य भगवतोऽन्यत्र विहारः ४२५-४३० पुण्डरीकादीनां तत्र निर्वाणम् ४३१-४१५ भरतेन चक्रिणा कारितः शत्रुञ्जयस्व प्रथम उद्धारः ४४६-४४९ भगवतः साध्वादिपरिवारः ४५०-४५८ भगवतोऽनशनार्थमष्टापदादावागमनम् १५९-४६० प्रभोरनशनस्वीकारः शैलपालकमुखात् प्रभोरनशनं निशम्य भरतस्य खेदः४६२-१६४ भरतस्य पादचारेण तत्रागमनं,भगवदुपासनाविधानं च४६५-४७९ आसनप्रकम्पादागतानां विखिनचेतसामिन्द्राणामवस्थानम् १८-१८२ CCCIRC-SCACROROSCORRIGIN १६१ त्रि.अ.३ Jan Education International For Private & Personal use only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -श्लोकाः ६७८-६८३ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१३॥ प्रथमपर्वणो विषयानुक्रमणिका। ६८४-६८९ ६९०-७१४ ७१५-७१७ ७१९ ७२०-७३६ SAXYLLAGLAM विषयः लोकाः | तृतीयारकस्यैकोननवती पक्षेष्ववशिष्टेषु माघ४ कृष्णत्रयोदश्यां भगवतो निर्वाणम् ४८३-४९० अन्येषामपि दशसहस्रमुनीनां भगवता सहै. वाऽपवर्गप्राप्तिः ४९१-४९२ भगवतो निर्वाणगमनशोकाद् भरतस्य परिदेवनं, तेन लोके रोदनप्रवृत्तिश्च ४९३-५०१ विलपन्तं भरतं प्रति शक्रेण कृतः प्रबोधः ५०२-५२१ इन्द्रादिभिः कृतं भगवतो निर्वाणमहोत्सवः, ततोऽग्निहोत्रप्रवृत्तिश्च ५२२-५५६ द्रलोकैर्भस्मादिग्रहणात् तापसानां भस्मोद्लनप्रवृत्तिः५५७-५६५ चितात्रयीस्थाने स्वस्तूपत्रयं निर्माय देवैः स्वस्वस्थानमेत्य समुद्गके प्रभुदंष्ट्रादिपूजनम् ५६२-५६४ भरतेन तत्र सिंहनिषद्याख्यप्रासादनिर्मापणम् ५६६-५६७ सिंहनिषद्याप्रासादवर्णनम् ५६८-६२९ नवनवतेतॄणां तत्र स्तूपनिर्मापणम् ६३०-६३२ आशातनानिवारणार्थ चक्रिगा तस्य लोहयत्रादिभी रक्षाविधानम् ६३३-६३७ भरतेन तत्रस्थप्रतिमानामचनादिकरणम् ६३८-६४४ शोक-भक्त्याक्रान्तेन भरतेन कृता ऋषभप्रभोः, अन्येषां त्रयोविंशतितीर्थकृतां च स्तुतिः ६५५-६७७ विषयः भरतस्याऽयोध्यायामागमनम् शोकाकुलस्य भरतस्य कुलामात्यादिप्रबोधेन पुना राज्यकर्मणि प्रवृत्तिः भरतस्य सांसारिकसुखोपभोगः अन्यदा भरतस्य रत्नादर्शगृहे गमनम् तत्राऽङ्गुलितो मुद्रिकायाः पतनम् अङ्गुलीयकविरहितां विरूपामगुली निरीक्ष्य सर्वाङ्गीणाभरणोत्तारणेन निःश्रीकं स्वं विलोक्य भरतेन कृताऽऽत्मनि विचारणा भावनावृद्धी क्षपकश्रेण्यारूढस्य भरतस्य केवलज्ञानोत्पत्तिः देवैस्तमै मुनिवेवार्पणम् , दशसहस्रनृपाणां प्रव्रज्यादानं च आदित्ययशसो राज्याभिषेकः देशनया भव्यान् प्रतिबोधयतो भरतस्य पूर्वलक्षयावद् विहार अष्टापदाद्री भरतस्य निर्वाणम् भरतस्य सर्वायुःप्रमाणम् प्रथमपर्वण उपसंहारः ७३९-१४५ ७४६ ७४७-७४८ ७५० ७५१- ७५५ ।। १३ ॥ ७५३ For Private & Personal use only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकनुं निवेदन कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य महाराज के जेमना समयमा भारत वर्षमा संस्कृत भाषाना अनेक है प्रौढ विद्वानो हस्ती धरावता हता अने संस्कृत भाषा राजभाषा होवाथी ते काळे पूर्ण साम्राज्य भोगवती हती. तेवा विद्वद्भोग्य समयमां आ महान् आचार्य पोतानी कुशाग्र बुद्धिथी संपूर्ण व्याकरण, काव्य, कोष, हा अलंकार, साहित्य, न्याय अने कथानुयोगना ग्रंथो संस्कृत प्राकृत भाषामां रची अन्य दार्शनिकोने अने ते ते भाषाना प्रखर विद्वानोने चकित करी दीधा हता. तेटलुंज नहीं परंतु आजे पण आ महान् पुरुषनी |असाधारण बुद्धि, स्मरणशक्ति, प्रशंसनीय पृथक्करण शक्ति, आदर्श कृतिओ अने प्रौढ विद्वत्ता माटे भारतीय अने पाश्चिमात्य इतिहासज्ञ अनेक विद्वानो-अभ्यासीओ मुक्तकंठे प्रशंसा करी रह्या छे. | प्रस्तुत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र लगभग पांत्रीस हजार श्लोक प्रमाण तेओश्रीनी कृतिनो (कथानुयोगनो) एक अपूर्व अने प्रामाणिक ग्रंथ छे. आ संस्कृत महाकाव्यमय ग्रंथ परमाईत परमदयालु ६ श्रीकुमारपालभूपालनी विनंतीथी श्रीआचार्य महाराजे रचेलो छे. | आ ग्रंथमां त्रेसठ महापुरुषोना जीवनचरित्रो साथे प्रभुना कल्याणकोना महोत्सवोर्नु अपूर्व वर्णन, चक्रवर्तिओनो दिग्विजय, स्थानोनुं रसमय वर्णन, प्रवास वर्णन, समवसरणनी अद्भुत रचनानुं वृत्तांत, | इंद्रोए करेल प्रभु स्तुति अने जिनेश्वरोए आपेल धर्मदेशनाओगें वर्णन असाधारण अने रसयुक्त छे के जे वांचवाथी वाचकोने आत्मिक आनंद उत्पन्न करे तेवु छे. श्रीआचार्य महाराजे आ कथानुयोगनो ग्रंथ एटली Jain Education Internationa l For Private & Personal use only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन। प्रथमपर्वना IDIबधी निपुणताथी रच्यो छे अने काव्यनी चमत्कृति, भाषानी शैली अने सुंदरता एटली बधी उच्च अने प्रकाशकर्नु |मधुर छे के आ चरित्रग्रंथ बधा चरित्रोमा सौथी प्रथम स्थान भोगवे छे. ॥१॥ | व्याख्यान माटे, संस्कृत भाषाना अभ्यासीओ माटे, कथाना रसिको माटे अने पठन पाठन माटे आएटलो वधो उपयोगी ग्रंथ छे के जेनी आ अगाउ अन्य तरफथी आवृत्तिओ प्रगट थयेली होवा छतां तेनी हजुपण हामांगणी वधती जती चालु रहेली होवाथी अने अगाउ प्रकट थयेल आवृत्तिओमां अनेक अशुद्धिओ होवाथी फरीने तेनुं संशोधन घणाज परिश्रमथी करवामां आवेल छे अने उंचा कागळो उपर सुंदर टाइपथी। मुंबइमां श्रीनिर्णयसागर प्रेसमा प्रत अने बुकाकारे छपावी सुंदर बाइन्डींगथी अलंकृत करवामां आवेल छे. पूज्यपाद आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजनी आज्ञाथी स्थापन थयेल श्रीजैनआत्मानंद-शताब्दि सीरीझना सातमा नंबर तरीके प्रस्तुत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र महाकाव्यनो आ प्रथम विभाग ( संपूर्ण दशपर्व पैकीनुं ) प्रथम पर्व प्रगट करीओ छिए. प्रस्तुत प्रथम पर्वमां न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वर प्रसिद्ध नाम श्रीआत्मारामजी महाराजना पट्टधर पूज्यपाद आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजना उपदेशथी। धांगध्रानिवासी धर्मात्मा श्रावक श्रीयुत परसोत्तम सुरचंदनी धर्मपत्नी अखंड सौभाग्यवती सुश्राविका श्रीमती पूरी बहेने योग्य सहायता आपी छे. तेमज नवसारी श्रीपार्श्वनाथ भगवाननी पेढीना ज्ञानखाता तरफथी रु. ५००) सोनी मदद तेना कार्यवाहको तरफथी मळी छे. उक्त बन्ने साहाय्यकोने खरा अंतःकरणथी साभार धन्यवाद आपवामां आवे छे. RAKASSES Jain Education Internations . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजनी आज्ञाथी मुनिराज श्रीचरणविजयजी महाराजे प्राचीन हस्तलिखित ताडपत्रादि प्रतोना आधारे आ ग्रंथनुं संशोधन कार्य महान् परिश्रमवडे हाथ धर्यु छे जे माटे अमो तेओश्रीना आभारी छिए. प्रस्तुत त्रिषष्टि ना आ नूतन विशिष्ट संस्करण माटे श्रीयुत डॉक्टर हीरानन्द शास्त्री M. A. M. O. L. D. LITT महाशये इंग्लिशमां ग्रन्थनी गौरवता उपयोगितादि दर्शावनाएं एक सुंदर प्राक्कथन ( Foreword) लखी ग्रन्थनी शोभामां वधारो कर्यो छे. तेथी आ सभा डॉक्टर महाशयनो अन्तःकरणथी उपकार माने छे. प्रस्तुत ग्रंथनी विशेष हकीकत मुनिराज श्रीचरणविजयजी महाराज पोतानी विस्तृत प्रस्तावनामां आपवाना होवाथी आटलं निवेदन करी विरमीए छिए. सेवक, गांधी वल्लभदास त्रिभुवनदास, सेक्रेटरी श्रीजैन आत्मानंदसभा, भावनगर, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ II U FOREWORD Few words are needed to send this publication out. The Trishashtis'alaka. purushacharitam of which it forms a part is a well-known Jaina work and does not stand in need of any introduction. Hemachandra, the author of it, is a celebrity with whom every student of Jainism is familiar. He was a versatile genius and a great S'vetāmbara teacher or achārya, who wielded considerable influence in the courts of Siddharaja Jayasimha (1150-1200 V. S.) and of Kumārapāla (1200-1230 V. S.), the two famous rulers of mediaeval Gujarāt. Several works are attributed to him. The Siddhahēmavyākarana is his chief work on grammar. It was written at the request of Siddharāja Jayasimha. The respectful way in which it was received by the royal patron is represented in one of the illustrations which I have reproduced in my first Memoir in the Gaekwad's Archaeological Series ; plate X. The Trishashtis'alakāpurushacharitam was written at the request of Kumārapāla and is equally important. It gives interesting accounts of the lives of the Tirthařkaras and other members of the Jaina hierarchy or pantheon. Some thirty years ago it was published at Bhavnagar but that edition has now been exhausted. At the same time it was very faulty, as can be seen from the list of errors given in Dr. Helen M. Johnson's translation of the first parvan which was published in the Gaekwad's Oriental Series in 1931. A good edition of this important work remained a desideratum and that is now being removed by the present publication which is based on 8 * 1 11 Jain Education Internal www. library.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ five different manuscripts of which three are very valuable in that they are practically free from errors. One of them is dated in the Vikrama year 1240 and is written on palm-leaves. The other is dated in the year 1483 of the Vikrama era and is written on paper. The third was written in the Vikrama year 1520 and is also ! a paper manuscript. The first and the third are from Cambay or Khambat and the 10 second is from Patan in North Gujarat. The photographs accompanying this edition give an idea of these manuscripts. This edition has been carefully and diligently prepared by Muni Charanavijaya under the guidance of the learned Jaina Acharya Vijayavalla bha-Sūri, the worthy successor of the late famous Jaina Achārya Vijayānanda-Sūri, more commonly Xl known by the name of Atmārāmaji. Great care has been taken to make it useful and as accurate as possible. In giving the text the learned editor has pointed out the variants in the form of foot-notes. He will be giving a word index and an exhaustive introduction also. The part which is now being placed before the public is only the first parvan of the Trishashtis'alāka purushacharitam. The other parvans are expected to * come out in quick succession. HIRANANDA SASTRI, Baroda, 22nd August 1936. DIRECTOR OF ARCHAEOLOGY BARODA STATE. Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥३॥ प्रास्ताविकं विज्ञापनम्. थप्रमपर्वणः प्रास्ताविक विज्ञापनम् । प्रकृतमिदं दशपर्वप्रविभक्तं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितं महाकाव्यं पुरा वि.सं.१९६१-१९६५ प्रमिते |संवत्सरे भावनगरस्थया श्रीजैनधर्मप्रसारकसभया मुद्रयित्वा प्रकाशितमासीत् । परं साम्प्रतं तस्याऽनुपलभमानत्वादनल्पाशुद्धिसद्भावाश्चतस्य विशिष्टसंस्करणसम्पादनार्थ कतिपयविद्वजनमुनिवरादिसम्प्रार्थितैः पूज्यपादैराचार्यवरैः श्रीविजयवल्लभसूरिभिरेतदर्थमाज्ञापितोऽहं पुनः सुसंस्कृत्य सम्पादनेऽस्मिन्नतिगहने कर्मणि तेषामेव महत्या कृपया सम्प्रवृत्तः । महौजसां लोकोत्तराणामवश्यं लोकाग्रप्रयायिनां चतविशतितीर्थकर-द्वादशचक्रवर्ति-वासुदेवनवक-प्रतिवासुदेवनवक-बलदेवनवकानां शलाकापुंस्वप्रसिद्धानां त्रिषष्टेमहापुरुषाणामितिवृत्तात्मकं सुचारुरूपैः सुललितमनोहरपयैः सुगमगभीरशैल्या च सङ्घथितं दशपर्वमयं प्रस्तुतमेतन्महाकाव्यं समुत्साहयति स मे चेतः। तत्र श्रीमतःप्रथमतीर्थनायकस्य ऋषभखामिनः तत्पुत्रस्य प्रथमचक्रवर्तिनो भरतस्य च चरितेन समायुक्तं षट्सर्गमनोहरमिदं प्रथमं पर्व पूज्यपाद-जैनाचार्य-श्रीविजयवल्लभसूरीश्वरसद्विचारप्रादुर्भूतावाः श्रीजैन-आत्मानन्द-शताब्दि-ग्रन्थमालायाः सप्तमपुष्परूपं सुसावधानतया सम्पाद्य समुपदीक्रियते लोकोत्तम SUSUCCESSES ॥३॥ Jain Education Internationell For Private & Personal use only www.iainelibrary.org Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष चरित्रानन्दामृतपिपासुभ्यो विपश्चिद्वरेण्येभ्यः सज्जनमहानुभावेभ्य इति समुल्लसति मेऽन्तःकरणे परमाह्लादः। सुप्रसिद्ध-गूर्जरेश्वर-परमदयालु-परमार्हत कुमारपाल भूपालप्रार्थनयाऽस्येतिवृत्तरूपमहाकाव्यस्य विनिर्मातारः सुविहितशिरोमणयः सुप्रसिद्धनामधेया विपश्चित्कुलावतंसकाः कलिकाल सर्वज्ञपदप्रतिष्ठिताः श्रीहेमचन्द्रसूरयो वारिधिवारिवसनामिमां रत्नाकरवल्यां वसुमतीं कदा कतमां निजजन्मना, उपशमरस पीयूषवपिण्या भारत्या, पावनचरणारविन्देन चाऽलङ्कृतां कृतवन्तः ?, कं वंशं, कां ज्ञातिं वा निर्मलस्वजनुषा विभूषितवन्तः ?, अथ च विशुद्धस्वजीवितव्येन कं गच्छं पावनं चक्रुः ?, इत्यादीनां सप्रमाणः परामर्शः समग्रग्रन्थपर्यव सानेऽन्तिमे विभागे विस्तृत प्रस्तावनासमये विस्तरतः करिष्यते । इदानीं त्वत्राऽनतिविस्तरेणैव संसूच्यते । पूज्या इमे महाकवयः पूर्णतल्लगच्छीयाः सूरयः । सत्तासमयश्चैषां विक्रमीयद्वादशशतान्या उत्तरार्धे त्रयोदशशताब्द्याश्च पूर्वार्धे सम्यगवबुध्यते ऐतिह्यप्रमाणेन । जन्मभूमिस्तु सौराष्ट्र-गुर्जरजनपदयोः सन्धौ स्थितं धन्धूकाण्यं नगरम् । उत्पत्तिवंशस्तु बुद्धिवैभवप्रौढो मोढो वणिग्वंशः । पादचङ्क्रमणेनाऽनल्पविषयेषु विहृत्य प्रतापशालिनो महाराजान्, राज्याधिकारिणो, नागरिकप्रभृतींश्चाऽनेकान् भव्यान् स्वकीयामोघधर्मदेशना दानेन बोधयित्वा सद्धर्मे नियोजितवन्त इति सुप्रसिद्धमेव । एते च प्रौढा ग्रन्थकाराः सर्वतन्त्रस्वातन्येण प्रभूततरदार्शनिक विज्ञानरहस्यवेदित्वेन च प्रौढप्रतापगुर्जरेश्वर- सिद्धराजेत्यपरनाम- जयसिंह परमार्हतकुमारपाल भूपालाभ्यां भूरितरं सन्मानं, महतीं प्रतिष्ठां चोपालभिपत, तत्कालीनभारतीयपण्डितप्रवरपरिषत्सु मूर्धन्यतां च प्रापुः । अद्भुतचातुर्याश्चेमे आचार्यवर्याः समयशधुरन्धरतया, निजासाधारणप्रतिभाप्रागल्भ्यवशात्, कृतकृत्यत्वेन च स्वकीयं युगप्राधान्यं प्रकटयाञ्चक्रुरित्यत्र तत्कालीना बहुश्रुता विद्वज्जनास्तेषां भूरिकृतयश्च प्रामाण्यमुद्धोषयन्ति । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥ ४॥ कविकुलतिलकायमानानां सूरिशेखराणां श्रीमतां हेमचन्द्रसूरीश्वराणां शाब्दिकचातुरीचतुरत्वम्, साहित्यतन्त्रजागरुकत्वम्, अपारजिनागमपारावारपारगामित्वम्, निखिलदर्शन निष्णातत्वम्, विषयविशदीकरणविशारदत्यम्, लौकिकशास्त्रावगाहननैपुण्यं चैतश्चरितावलोकनेन सुस्पष्टुं समवज्ञायते । महाकाव्यलक्षणपरिपूर्णेऽस्मिन् महाकाव्ये कुत्रचित् कलाकौशल्यम्, क्वचन वासनावैषम्यम्, क्वापि प्रकृतिप्रभावम्, कुत्रापि बुद्धिमाहात्म्यम्, क्वचिद् दार्शनिकविवादम्, क्वापि च तत्त्वरहस्यादिकं सरलेन रचनासन्दर्भेण सुकुमारशैल्या च निरूपयन्त इमे ग्रन्थकाराः स्वसमयप्रवर्त्तमानस्य लौकिकाचार-व्यवहारस्य, सामाजिकप्रथायाः, धार्मिकभावस्य, नैतिकजीवनस्य, अन्यस्याऽपि च तादृशस्याऽऽनुषङ्गिकस्य तत्समयज्ञातव्यवस्तुनः समुल्लेखं यथास्थानं श्लेषगर्भितरूपेण चक्रुः । तस्मादिदं महाकाव्यं यथा जैनधर्मवासितान्तःकरणानां भव्यानां धार्मिक शिक्षादीक्षाविषयत्वेन महतीमुपकारकतामाकलयति, तथैवाऽन्येषामपि काव्यरसास्वादतत्पराणां रसिकानां पुरातनतत्त्वानुसन्धानैकलक्ष्याणां दक्षाणां भारतवर्षीय गीर्वाणगिरापरिशीलनपरायणानां पण्डितानां चोपयुक्ततां सम्पादयेदिति मे सुद्दढतरो विश्वासः । अवगाहित विविधवाङ्मयाश्वेमे प्रौढप्रतिभाशालिनो ग्रन्थकारा एतदतिरिक्तान्यन्यान्यपि खोपशसुगमवृत्तिसमन्वितलिङ्गानुशासन- धातुपारायणाद्यङ्गगरिष्ठ-संस्कृत- प्राकृत सिद्ध हेमशब्दानुशासन-संस्कृतप्राकृतद्व्याश्रयमहाकाव्य - अभिधानचिन्तामणिनाममाला - अनेकार्थसङ्ग्रह - निघण्टु - देशिनाममाला - खोपशालङ्कारचूडामणिविवरणसमलङ्कृत काव्यानुशासन-छन्दोनुशासन-प्रमाणमीमांसाअर्हन्नीति - खोपशवृत्तिविभूषित योगशास्त्र- वीतराग स्तोत्र - महादेवस्तोत्र - अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका - अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकादीनि विविधविषयव्यावर्णनपराणि नैकग्रन्थरत्नानि जग्रन्थुः । प्रथमपर्वणः प्रास्ताविकं विज्ञापनम् । ॥ ४ ॥ . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ताऽस्मिन् प्रथमे पर्वणि वर्णितो विषयः प्रान्ते पद्येनकेनैव सङ्क्षिप्ततया इत्थं समासूचि खामिप्राग्भववर्णनं कुलकरोत्पत्तिः प्रभोर्जन्म चो द्वाहादिव्यवहारदर्शनमथो राज्यं व्रतं केवलम् । चक्रित्वं भरतस्य मोक्षगमनं भर्तुः क्रमाचक्रिणो ___ऽप्यस्मिन् पर्वणि वर्णितं वितनुतात् पर्वाणि सर्वाणि वः॥ जिज्ञासूनां कृतेऽस्य विस्तृता विषयानुक्रमणिका त्वत्राऽने प्रदर्शिता विशेषजिज्ञासां परिपूरयिष्यतीति मन्ये । प्रस्तुतमहाकाव्यस्य सम्पादनप्रसङ्गे आदर्शपुस्तकपञ्चकं समासादितमस्माभिः । तत्र१ प्रथमं स्तम्भतीर्थीयप्राचीनताडपत्रीयजैनभाण्डागारसत्कं, विक्रमसंवत्१२४०संवत्सरेश्रीसर्वाणन्दसूरीणामुपासकेन घुसडीग्रामवासिना श्राद्धधर्मेण घूसडीग्रामे लिखितं, व्याख्यापितं च, ताडपत्रीयमतिजीर्णम|तिशुद्धतमंत्रयोदशाधिकपञ्चशत(५१३)पत्रात्मकमादर्शपुस्तकं प्रान्त्यपत्रत्रुटितं "श्रेष्टिदीपचन्द्र पानाचन्द्र"द्वारा समुपलब्धम् । इदमत्र "खंता०" सङ्केतेन समभिज्ञापितम् । अत्र१५" x २" प्रमाणपरिमितस्याऽस्य प्रार म्भप्रान्तपत्रयोः प्रतिकृती अत्र प्रदर्शिते । * एतस्य समाप्त्यनन्तरोपन्यस्तैरिमैः पुस्तकलेखयितृप्रशस्तिपद्यविभूषितोऽयं समुल्लेखो विजृम्भते............. विचारणा । सुधर्मस्य ततो ज्ञानं, ज्ञानात् तस्य परिग्रहः ॥ १॥ तस्माद् भवन्ति श्रेयांसि, स्थैर्यस्य .....। .. [त स्माद् धर्मपरिणतिः ॥२॥ तस्मादू धर्मोपदेशचोपदेशाद् धर्म विस्तृतिः । ततोऽनेके भवं तीर्खा, लभन्ते च परं पदम् ॥३॥ 13॥ इत्यनेकगुणं ज्ञानं, ........ । सर्वेषामेव धर्माणां, ज्ञानदानफलं महत् ॥ ४ ॥[चतुर्भिः कलापकम् ] "ज्ञानदानेन जानाति, जन्तुः खस्य | हिताहितम् । वेत्ति [ जीवादितत्वानि, विरति ] च समश्नुते ॥५॥ ज्ञानदानादवाप्नोति, केवलशानमुज्वलम् । अनुगृह्माऽखिलं लोकं, Jain Education Internation . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते 114 11 Jain Education Internatio २ द्वितीयम् - अणहिल्लपुरपत्तन (पाटण) फोफलीयापाटकान्तर्गत "वखतजी" संज्ञकवीथी स्थश्रीसङ्घभाण्डागारसम्बन्धि वि. सं. १४८३ वत्सरे लिखितं प्रायशोऽशुद्धं, सुवाच्यमेकपञ्चाशदधिकशत ( १५१ ) पत्रात्मकं कागदोपरि लिखितं विद्वद्रन - मुनिपुङ्गव - श्रीपुण्यविजयकृपया समासादितम् । एतदत्र “ सं १” संज्ञया सूचि - तम् * । १२ " x ५ " प्रमाणप्रमितस्याऽस्याऽऽद्य प्रान्तपत्रयोः प्रतिकृती अत्र निदर्शिते । ३ तृतीयं पूर्वनिर्दिष्टस्तम्भतीर्थीयप्राचीनताडपत्रीयपुस्तकभाण्डागारसत्कं वि.सं. १५२० वर्षे लिखितं प्रायः -- शुद्धं कागदीयं नवनवति (९९) पत्रमयं “ श्रेष्ठिदीपचन्द्र पानाचन्द्र" द्वारा प्राप्तम् । इदमत्र " खं०" संज्ञया निर्दिष्टम् । १० x ४" एतत्प्रमाणस्याऽस्याऽऽद्यान्तपत्रयोः प्रतिकृती अत्र प्रदर्शिते । लोकाश्रमधिगच्छति ॥ ६ ॥" [ त्रि.श. पु. च. प. १. स. १ श्लो. १५५-१५६ ] ऋते ज्ञानात् कथं जन्तु[ वेत्ति स्वस्य हिताहितम् ] । अज्ञानी जनुषान्धवत् कथं वर्त्तत सत्पथि ! ॥ ७ ॥ [विज्ञाय ] माहात्म्यं ज्ञानदानस्य सद्गुरोरिति । श्रीसर्वाणन्द सूरीणामुपासकेन स ( ) [ दा ॥८] ....... न, घूसडीग्रामवासिना । लिखितं श्राद्धधर्मेण चरित्रमृषभप्रभोः ॥९॥ यावद् भूर्भूधरो मेरुर्यावञ्चन्द्रदिवाकरौ । यावज्जिनेन्द्र [ धर्मोऽयं, तावज्जयेत् ] सुपुस्तकः ॥ १० ॥ ५ ॥ मङ्गलं महाश्रीः ॥ ७ ॥ वत्सरे श्रीविक्रमार्के, द्वादशवेदास्वराधिके ( १२४० ) । व्याख्यातं घूस डीग्रामे, ........ ॥। ११ ॥ * अस्य प्रान्तभागेऽयं समुल्लेखो दृश्यते संवत् १४८३ वर्षे द्वितीयवैशाखवदि ४ बुधे- [ सूरिपट्टालङ्कार भ७ श्रीविजयसिंहसूरिशिष्य मुं० जिनचन्द्रेण श्रीआदिनाथचरि ]त्रं लेखयांचक्रे । परोपकाराय ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा, मम दोषो न दीयते ॥ [ खंभायत (?) नयरे ] सम्पूर्ण कृतम् । शुभं भवतु लेखकपाठकयोश्च । [ धे इत्यत आरभ्य त्रं यावत्, तथा ते इत्यत आरभ्य सं यावत् पतिद्वयं केनचिन्मषीकूचिकया विनाशितम्, तथापि सम्प्रयत्नेन पठितः पाठः प्रदर्शितः । ] + अस्याऽन्त्योऽयमुल्लेखः समवलोक्यते---- प्रथमपर्वणः प्रास्ताविकं विज्ञापनम् । १ ॥ ५ ॥ . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ चतुर्थ पत्तनीयपूर्वोक्तश्रीसङ्घभाण्डागारसत्कं सप्तपञ्चाशदधिकशत( १५७ )पत्रात्मक सुवाच्य नातिशुद्ध प्रत्नं स्थूलाक्षरसमलङ्कतं कागदपुस्तकं पूज्यप्रवर-संशोधनकार्यकुशल-मुनिश्रीपुण्यविजयप्रयत्नेनाIsऽसादितम् । इदमत्र "सं २" नामा निदर्शितम् । ११३" ४४ प्रमाणमितम् । | ५ पञ्चमं च सूर्यपुर(सुरत )गोपीपुरास्थश्रीजैनानन्दपुस्तकालयसत्कं प्राचीनमशुद्ध मनोहरं त्रिपञ्चाश दधिकशत(१५३)पत्रात्मकं कागदीयं "झवेरी अमरचन्द्र मूलचन्द्र" द्वारा संलब्धम् । एतत्र "आ०" है संज्ञया विनिर्दिष्टम् । १०x४६" प्रमाणम् । आदर्शपुस्तकपञ्चकेऽपि यो यत्र पाठभेदः समासादितः शुद्धतया च प्रतिभातः स तत्रैव तत्तत्पुस्तकसङ्केतेन सह तस्य पत्रस्य निम्नभागे टिप्पनरूपेण विन्यस्तः। पूर्वनिर्दिष्टादर्शपुस्तकानि वितीर्याऽत्र साहाय्यविधायकेभ्यो भूरि धन्यवादान वितरामि। निवेदयेचतेऽन्ये चा|ऽनेन पथाऽऽदर्शपुस्तकसाहाय्यं दत्त्वा ममाऽन्येषां च प्राचीनसाहित्यप्रकाशनप्रयासं मुहुर्मुहुः समुत्तेजयन्त्विति । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यान्तर्गतानां विशेषनाम्नां परिचयोऽकारादिक्रमेणाऽन्तिमे विभागे प्रदर्शयिष्यामः। प्रथमस्य पर्वणोऽस्य संशोधनकर्मण्यन्तिम प्रूफ" रूपाणि पत्राणि विलोक्य विशुद्धिं विनिदिश्य च सुसाहाहाय्यविधायिनः पुरातनग्रन्थोद्धारक-पूज्यपाद-प्रवर्तकपदालङ्कृतश्रीकान्तिविजयप्रशिष्यरत्नस्य संशोधन कार्यातिनिपुणस्य विद्वजनमान्यस्य पूज्यप्रवरमुनिश्रीपुण्यविजयस्य, प्रथमत आरभ्याऽन्तिमपर्यन्तं संशोधने सहकारकारिणश्च विबुधस्य पूज्यवरस्य मुनिश्रीउत्तमविजयस्य महोपकारं कृतज्ञतयाऽत्र संस्मरामि । संवत् १५२० वर्षे प्रथमचैत्रसुदि ५ वार वृहस्पति लिखितं पण्ड्या मदनजीकेन पुण्याय परोपकाराय लिखापितम् ॥ सा• मोहनजी लिखापितम् ॥ ७॥ ॥५॥ For Private & Personal use only . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि मदुपरोधतः प्रस्तुतमहाकाव्यस्य विस्तरतो विषयानुक्रमणिकाकर्तुः पूज्यपाद-दक्षिणविहारि-मुनिश्री- प्रथमपर्वणः शलाका अमरविजयशिष्यरत्नस्येतिहासप्रियस्य कविकर्मकुशलस्य श्रीचतुरविजयस्याऽप्युपकृतिरत्र कथं नाम प्रास्ताविक पुरुषचरिते विस्मयते। विज्ञापनम्। | प्राच्यविद्यामन्दिरीयगायकवाडय़ाच्यग्रन्थमालायां जैनविद्वत्कर्तृकविविधग्रन्थसम्पादकत्वेन ख्यातकीर्तेः प्राचीनेतिहासतत्त्ववेदिनोऽस्मिन् प्रास्ताविके विहितसाहाय्यस्य गान्धीत्युपाह्वस्य श्रेष्ठिभगवान्दास तनुजस्य जैनपण्डितश्रीलालचन्द्रस्य नामग्राहं स्मरणं क्रियते । का प्रस्तुतस्य महाकाव्यस्याऽऽद्यपर्वणः प्रसिद्धिकृते 'पंजाब'देशोद्धारक-न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्य-| श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वर (प्रसिद्धनामधेयश्रीआत्मारामजी महाराज) पट्टधर-आचार्यश्रीविजयवल्लभसूरीश्वराणां सुधासोदरेण निखिलप्रत्यूहव्यूहविनाशिनोपदेशेन समुदारतया द्रव्यसहायताकीं धांगध्रावास्तव्यस्य धकपरायणस्य "श्रेष्टिवर्य श्रीपुरुषोत्तम सुरचन्द्र" इत्यस्य धर्मपत्नी अं०सौ० श्रीमती दा"पूरी" इत्याख्या सुश्राविका धन्यवादाहीं । - एवमुपरिसूचितानां पञ्चानामादर्शपुस्तकानामाधारेणाऽतिसावधानतया संशोधित, उपयुक्तटिप्पन्यादिना परिष्कृतेऽप्यस्मिन् महाकाव्ये प्रमादादिदोषवशाद्, मतिभ्रमादक्षरयोजकदोषाद् वा यत्र कुत्रचिद् याः काश्चना-13 | ऽशुद्धयः स्थिता जाता वा भवेयुस्ताः परिमार्जयन्तु विधाय मयि कृपा, संसूचयन्तु च सौहार्दभावेन परिश्रमवेदिनो गुणैकपक्षपातिनो धीधना इति सम्प्रार्थयतेकुमतनिशानिमीलितभव्यपद्मविबोधनसहस्रकिरण-पञ्चनददेशोद्धारक-बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीया For Private & Personal use only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internatio |ऽऽद्याचार्य-संविग्नचूडामणि- सिद्धान्तोदधिपारगामि-न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वर(प्रसिद्धनामधेय श्री आत्मरामजी महाराज) पट्टधर- निजासाधारणोपदेशप्रभावादनेक धार्मिक-सामाजिकोन्नतिविधायिजैनविद्यालय-गुरुकुल- पुस्तकालयादिसंस्थासंस्थापक- यथार्थोपदेशक- पूज्यपाद - आचार्यश्रीविजयवल्लभसूरीश्वर प्रधानशिष्यरत्न- तपोनिधिश्रीविवेकविजय शिष्यावतंसक - विद्वच्छ्रेष्ठ आचार्यपदोपशोभितश्रीविजयो मङ्गसूरिचरणारविन्दचञ्चरीकायमाणो विद्वज्जनकृपाभिलाषी वटपद्रम्, ( बडौदा) घडीयाली पोल, जैन उपाश्रय. विक्रमसं. १९९२. वीरसं. २४६२. आत्मसं. ४१. ज्येष्ठ शुक्ला ८. गुरुवासरे. ता. २८-५-३६. चरणविजयो मुनिः । . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USISAHAASANPUR दृब्धं त्रैषाष्टमासीत् सुचरितममलं श्रीशलाकाऽभिधानं, श्रीमच्छ्रीहेमचन्द्रैः शिरसि मतिमतो वल्लभाख्यानसूरेः। आज्ञां स्वीये निधाय प्रकटयति चरणः साधु संशोध्य तस्य, सानन्दं भक्तिभावात् प्रथमकमधुना पर्व लोकोपकृत्यै ॥ १॥ SACARICCAREERCANCERICA Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ ॥ नमः प्रथमानुयोगप्रणेतृभ्यः श्रीकालकार्येभ्यः॥ न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य-श्रीविजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कार-श्रीविजयवल्लभमरिभ्यो नमः ॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्। त्रिषष्टि. १ Jan Education interna For Private Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१॥ प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् । ऋषभस्वामि-भरतचक्रवर्तिचरितप्रतिबद्धं प्रथमं पर्व । प्रथमः सर्गः सकलार्हत्प्रतिष्ठानमधिष्ठानं शिवश्रियः । भूर्भुवःस्वस्त्रयीशानमार्हन्त्यं प्रणिर्दध्महे ॥१॥ नामा-ऽऽकृति-द्रव्य-भावः, पुनतस्त्रिजगजनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे ॥२॥ ___ आदिमं पृथिवीनाथमादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥३॥ अर्हन्तमजितं विश्वकमलाकरभास्करम् । अम्लानकेवलादर्शसङ्क्रान्तजगतं स्तुवे ॥४॥ विश्वभव्यजनारामकुल्यातुल्या जयन्ति ताः । देशनासमये वाचः, श्रीसम्भवजगत्पतेः ॥५॥ अनेकान्तमताम्भोधिसमुल्लासनचन्द्रमाः । दद्यादमन्दमानन्दं, भगवानभिनन्दनः ॥६॥ द्युसत्किरीटशाणामोत्तेजिताङ्गिनखावलिः । भगवान् सुमतिखामी, तनोत्वभिमतानि वः ॥७॥ पद्मप्रभप्रभोर्देहभासः पुष्णन्तु वः शिवम् । अन्तरङ्गारिमथने, कोपाटोपादिवाऽरुणाः ॥८॥ श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय, महेन्द्रमहितातये । नमश्चतुर्वर्णसङ्घगगनाभोगभाखते ॥९॥ चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्रमरीचिनिचयोज्वला । मूर्तिमनसितध्याननिर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥१०॥ करामलकवद् विश्वं, कलयन् केवलश्रिया । अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः, सुविधिर्बोधयेऽस्तु वः ॥११॥ त्रिभुवनाधीशम् । २ चित्तैकाग्र्येण नमस्कुर्महे । ३ सेवां कुर्महे। ४ अम्लानो यः केवलज्ञानरूप आदर्शस्तस्मिन् सङ्क्रान्तानि जगन्ति यस्य स तम् । ५ समप्रभव्यजन एव आराम स्तस्मिन सारणिसमानाः । ६ कोपाडम्बरात् । ७ करस्थितनिर्मलजलवत् । | पूर्वभवचरिते प्रथमोधनसासार्थवाहभवः। ॥१॥ Jan Education International For Private & Personal use only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चानां परमानन्दकन्दोद्भेदनवाम्बुदः । स्याद्वादामृतनिस्यन्दी, शीतलः पातु वो जिनः ॥ १२॥ भवरोगार्तजन्तूनामगदङ्कारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १३ ॥ विश्वोपकारकीभूततीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः । सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः ॥ १४ ॥ विमलस्वामिनो वाचः, कतकक्षोदसोदराः । जयन्ति त्रिजगच्चेतोजलनैर्मल्यहेतवः ॥१५॥ स्वयम्भूरमणस्पी , करुणारसवारिणा । अनन्तजिदनन्तां वः, प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥ १६ ॥ कल्पद्रुमसधर्माणमिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुर्धा धर्मदेष्टारं, धर्मनाथमुपास्महे ॥ १७ ॥ सुधासोदरवाग्ज्योत्स्नानिर्मलीकृतदिङ्मुखः । मृगलक्ष्मा तमःशान्त्य, शान्तिनाथजिनोऽस्तु वः ॥१८॥ श्रीकुन्थुनाथो भगवान् , सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुराऽसुरनृनाथानामेकनाथोऽस्तु वः श्रिये ॥१९॥ अरनाथः स भगवांश्चतुर्थाऽरनभोरविः । चतुर्थपुरुषार्थश्रीविलासं वितनोतु वः॥२०॥ सुराऽसुरनराधीशमयूरनववारिदम् । कर्मद्रून्मूलने हस्तिमलं मल्लिमभिष्टुमः ॥२१॥ जगन्महामोहनिद्राप्रत्यूपसमयोपमम् । मुनिसुव्रतनाथस्य, देशनावचनं स्तुमः ॥ २२ ॥ लुठन्तो नमतां मूर्ध्नि, निर्मलीकारकारणम् । वारिप्लवा इव नमः, पान्तु पादनखांशवः ॥ २३ ॥ यदुवंशसमुद्रेन्दुः, कर्मकक्षहुताशनः । अरिष्टनेमिर्भगवान् , भूयाद् वो रिष्टनाशनः ॥२४॥ कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥ २५ ॥ कृतापराधेऽपि जने, कृपामन्थरतारयोः । ईषद्धाष्पार्द्रयोर्भद्र, श्रीवीरजिननेत्रयोः ॥ २६ ॥ 1 कतकचूर्णसमानाः । २ मोक्षलक्ष्मीविलासम् । ३ जलप्रवाहाः । CAMROCARCISCALCASSE Jain Education internagal For Private & Personal use only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिदालाका प्रथमं पर्व प्रथमः पुरुषचरिते सर्गः ऋषभचरितम् । ॥२॥ |पूर्वभवचरिते प्रथमोधनसा एषां तीर्थकृतां तीर्थेष्वासन द्वादर्श चक्रिणः । नवार्धचक्रिणो रामास्तथा प्रत्यर्धचक्रिणः ॥२७॥ एते शलाकापुरुषा, भूतभाविशिवश्रियः । त्रिपष्टिरवसर्पिण्यां, भरतक्षेत्रसम्भवाः ॥ २८ ॥ एतेषां चरितं ब्रूमः, शलाकापुंस्त्वशालिनाम् । महात्मनां कीर्तनं हि, श्रेयोनिःश्रेयसास्पदम् ॥ २९ ॥ तत्र तावद् भगवतश्चरित्रमृषभप्रभोः । बोधिवीजावाप्तिहेतोर्भवादारभ्य वर्ण्यते ॥ ३०॥ ___ अस्त्यसङ्ख्याम्बुधिद्वीपवलयैः परिवेष्टितः । जम्बूद्वीप इति द्वीपो, वज्रवेदिकयाऽऽवृतः ॥ ३१॥ भूषितस्य स्रवन्तीभिववषधरैरपि । स्वर्णरत्नमयो मेरुर्मध्ये तस्याऽस्ति नाभिवत् ॥ ३२॥ स लक्षयोजनोच्छ्रायो, मेखलात्रयभूषितः । चत्वारिंशद्योजनोच्चचूलोऽहंच्चैत्यमण्डितः॥३३॥ अस्ति पश्चिमतस्तस्य, विदेहेषु महापुरम् । क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, क्षितिमण्डलमण्डनम् ॥ ३४ ॥ तत्र प्रसन्नचन्द्रोऽभूनिस्तन्द्रो धर्मकर्मसु । देवराजोपमो राजा, राजमानो महर्द्धिभिः ॥३५॥ तत्र चाऽऽसीत् सार्थवाहो, धनो नाम यशोधनः । आस्पदं सम्पदामेकं, सरितामिव सागरः ॥ ३६ ॥ आसंस्तस्य महेच्छस्याऽनन्यसाधारणाः श्रियः । परोपकारकफला, रुचो हिमरुचेरिव ॥ ३७॥ सदा सदाचारनदीप्रवाहैकमहीधरः । सेवनीयो न कस्याऽऽसीत् , स महीतलपावनः? ॥ ३८ ॥ तसिन्नौदार्यगाम्भीर्यधैर्यप्रभृतयो गुणाः । आसन् बीजान्यमोघानि, प्रभवाय यशस्तरोः ॥ ३९ ॥ कणानामिव रत्नानामुत्करास्तस्य वेश्मनि । गोणीनामिव देवाङ्गवाससामपि राशयः ॥४०॥ *'तश्च स्र सं १॥ नदीभिः । २ क्षेत्रैः । ३ कुलपर्वतैः । ४ आलस्यरहितः । ५ इन्द्रतुल्यः । ६ स्थानम् । ७ चन्द्रस्य । ८राशयः । सार्थवाहभवः । ॥३ ॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वैरर्श्वतरैरुष्ट्रैर्वाहनैरपरैरपि । तस्य वेश्म व्यराजिष्ट, यादोभिरिव सागरः ॥ ४१ ॥ धनिनां गुणिनां कीर्तिशालिनां च नृणामसौ । धुर्यत्वं धारयामास, प्रौणोऽङ्गमरुतामिव ॥ ४२ ॥ अर्थैस्तस्य महार्थस्य, पर्यपूर्यन्त सेवकाः । महासरोवरस्येव स्यन्दैरभ्यर्णभूमयः ॥ ४३ ॥ स गृहीतमहाभाण्ड, उत्साह इव मूर्तिमान् । ईहाञ्चक्रेऽन्यदा गन्तुं, वसन्तपुरपत्तनम् ॥ ४४ ॥ सार्थवाहो धनस्तस्मिन्, सकलेऽपि पुरे ततः । डिण्डिमं ताडयित्वोच्चैः, पुरुषानित्यघोषयत् ॥ ४५ ॥ असौ धनः सार्थवाहो, वसन्तपुरमेष्यति । ये केऽप्यत्र यियासन्ति, ते चलन्तु सहाऽमुना ।। ४६ ।। भाण्डं दास्यत्यभाण्डायाऽवाहनाय च वाहनम् । सहायं चाऽसहायायाऽशम्बलाय च शम्बैलम् ॥ ४७ ॥ दस्युभ्यस्त्रास्यते मार्गे, श्वापदोपद्रवादपि । पालयिष्यत्यसौ मन्दान्, सहगान् बान्धवानिव ॥ ४८ ॥ क्षणे सँ कल्यः कल्याणे, कुलस्त्रीकृतमङ्गलः । रथमास्थाय विदधे, प्रस्थानं पत्तनाद् बहिः ॥ ४९ ॥ प्रस्थानभेरीभाङ्कारैराकारकनरैरिव । जनाः सर्वेऽपि तत्रेयुर्वसन्तपुरगामिनः || ५० ॥ अत्रान्तरे धर्मघोष, आचार्यः साधुचर्यया । धर्मेण पावयन् पृथ्वीं, सार्थवाहमुपाययौ ॥ ५१ ॥ ससम्भ्रममथोत्थाय, धनो दीयं तपस्विषा । सहस्रांशुमिवाऽऽचार्यमवन्दत कृताञ्जलिः ।। ५२ ।। धनेन पृष्टास्त्वाचार्याः समागमनकारणम् । वसन्तपुरमेष्यामस्त्वत्सार्थेनेत्यचीकथन् ॥ ५३ ॥ सार्थवाहोऽप्युवाचैवं, धन्योऽद्य भगवन्नहम् । अभिगम्या यदायाता, मत्सार्थेन च यास्यथ ॥ ५४ ॥ १ खचरैः । २ जलजन्तुभिः । ३ अङ्गमरुतां - अङ्गान्तर्गत सर्ववायूनां मध्ये प्राणो नाम वायुर्यथा धुर्यत्वं धारयामास तथा । ४ क्षुद्रप्रवाहैः । ५ पाथेयम् । *सकल्यकल्या' सं २ ॥ ६ नीरोगी । ७ आह्नानकारकैः । दीप्तं आ ॥ ८ सूर्यमिव । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ ३ ॥ Jain Education Internation आचार्याणां कृतेऽमीषामन्नपानाद्यमन्वहम् । सम्पादनीयं युष्माभिः सदानित्यादिशच्च सः ॥ ५५ ॥ आचार्या अप्यवोचन्त यतीनामशनादिकम् । अकृतं चाऽकारितं चाऽसङ्कल्प्यं चापि कल्पते ।। ५६ ।। वापीकूपतडागादिगतं वार्यपि वार्यते । अर्शस्त्रोपहतं सार्थनाथ ! जैनेन्द्रशासने ॥ ५७ ॥ अत्रान्तरे च केनापि, सार्थवाहस्य ढौकितम् । पक्वचूताञ्चितं स्थालं, भ्रष्टसन्ध्याभ्रसन्निभम् ॥ ५८ ॥ प्रमोदमेदुरमना, निजगाद ततो धनः । फलान्यमूनि गृह्णीताऽनुगृह्णीत च मामिति ।। ५९ ।। सूरिरूचे फलादीदृगशस्त्रोपहतं हि नः । न स्प्रष्टुमपि कल्पेत, किं पुनः श्राद्ध ! खादितुम् ? ॥ ६० ॥ aisalaदहो ! काsपि, दुष्करवतकारिता । शक्यं दिनमपीदृक्षैर्भवितुं न प्रमादिभिः ॥ ६१ ॥ कल्यं वः स्याद् यदन्नादि, तद् दास्यामि प्रसीदत । चलताऽद्येत्युदित्वा तान्, नत्वा च व्यसृजन्मुनीन् ॥ ६२॥ सार्थवाहस्ततोऽचालीत्, चञ्चलैस्तुरगैर्मयैः । शकटैरुक्षैभिस्तुङ्गैस्तरङ्गैरिव सागरः ।। ६३ ।। अथ प्रचेलुराचार्या, अपि साधुभिरावृताः । मूर्त्ततामाश्रितैर्मूलगुणोत्तरगुणैरिव ॥ ६४ ॥ सार्थस्याऽग्रेधनः पृष्ठे, माणिभद्रः सखाऽस्य तु । ईयतुः पार्श्वयोस्त्वश्ववारवाराववारितौ ।। ६५ ।। . श्वेतच्छत्रैः स चक्रे द्यां शरदभ्रमयीमिव । मायूरैरातपत्रैश्च प्रावृडब्दमयीमिव ॥ ६६ ॥ करभैः “सैरिभैरुक्षवरैरश्वतरैः खरैः । तस्योहे दुर्वहं भाण्डं, घनवातैरिव क्षितिः ॥ ६७ ॥ वेगादलक्ष्यमाणाङ्घ्रिपाता वातमजा इव । ययुः पार्श्वस्थ गोणीभिरुत्पक्षा इव वेसरीः ।। ६८ ।। १ अप्राकम् । २ उष्ट्रैः । ३ बलिष्ठवृषभैः । ४ उष्ट्रैः । ५ महिषैः । ६ घनवाताः पृथ्व्याधारभूता वातविशेषाः। ७ पवनाभिमुखचारिणो मृगविशेषाः । ८ खचराः । प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते प्रथमो धनसा र्थवाहभवः । ॥ ३ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte यूनामन्तर्निविष्टानां तत्र क्रीडानिबन्धनम् । जङ्गमानीव वेश्मानि शकटानि चकासिरे ॥ ६९ ॥ महाकाया महास्कन्धा, महिषास्तोयवाहिनः । महीं प्राप्ता इवाऽम्भोदा, जनानां चिच्छिदुस्तुम् ॥ ७० ॥ तदा तद्भाण्डसम्भारभाराक्रान्ता समन्ततः । शकटश्रेणिचीत्कारै, ररासेव वसुन्धरा ॥ ७१ ॥ औक्षणौष्ट्रकेणाऽऽश्वेनोद्धूतः पांशुरानशे । तथा दिवं यथा विष्वक्, सूचीभेद्यं तमोऽभवत् ॥ ७२ ॥ उक्ष्णां घण्टाटणत्कारैर्बधिरीकृतदिङ्मुखैः । चमर्यस्तत्रसुर्दूरादुत्कर्णास्तैर्णकैः समम् ॥ ७३ ॥ महाभारं वहन्तोऽपि, क्रामन्तोऽपि क्रमेलकाः । वलितग्रीवमग्राणि, भूरुहां लिलिहुर्मुहुः ॥ ७४ ॥ • उत्कर्णसरलग्रीवा, दशन्तो दर्शनैर्मिथः । पृष्ठप्रतिष्ठकण्ठालाः प्रष्टा एवाऽभवन् खराः ।। ७५ ।। आरक्षकैः प्रतिदिशं, वेष्टितः शस्त्रपाणिभिः । वज्रपञ्जरमध्यस्थ, इव सार्थोऽवहत् पथि ॥ ७६ ॥ महार्थस्यापि सार्थस्य, दूरेऽस्थुस्तस्य दस्यवः । महार्घमौलिरत्नस्य, भुजङ्गमपतेरिव ॥ ७७ ॥ निःस्वाऽऽढ्ययोर्निर्विशेषं, योगे क्षेमे च सोद्यमः । धनः सर्वान् सहाऽनैषीद्, यूथेशः कलभौनिव ॥ ७८ ॥ आशास्यमानः सकलैलेंौकैः स्फारितलोचनैः । दिने दिने रविवि, प्रयाणमकरोद् धनः ॥ ७९ ॥ सरसां सरितां चाऽऽपस्तनू कुर्वन् निशा इव । उद्दामः समभृत् पान्थभीष्मो ग्रीष्मऋतुस्तदा ॥ ८० ॥ मन्धा इव ववुर्वावोऽत्यन्तदुःसहाः । आतपं तपॅनस्तेने, विष्वग् वह्निच्छटोपमम् ॥ ८१ ॥ • तत्सार्थपथिकास्तस्थुरनुपातं तरुं तरुम् । प्रपां प्रपां प्रवेशं च, पायं पायं पयोऽलुठन् ॥ ८२ ॥ तृषां सं १ ॥ लघुवत्सकैः । २ उष्ट्राः । ३ निर्धन धनाढ्ययोः । ४ अप्राप्तस्य प्राप्त्युपायो योगः । ५ प्राप्तस्य रक्षणं क्षेमः । सार्थान् सं १ ॥ ६ लघुगजान् । ७ सूर्यः । . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पर्व प्रथमः मर्गः ऋषभचरितम् । त्रिपष्टि जिह्वामकर्षन् महिषा, निःश्वासप्रेरितामिव । विविशुश्च नदीपङ्केष्ववधीरितकाहराः ॥ ८३ ॥ शलाका रथिकानवमत्यापि, प्राजनेषु पतत्स्वपि । उन्मार्गपादपानीयुरुक्षाणश्च क्षणे क्षणे ॥ ८४ ॥ शुरुषचरिते तप्तायःसूचीसदृशै, रोचिर्भिश्चण्डरोचिषः । व्यलीयन्त शरीराणि, विष्वग् मदनपिण्डवत् ॥ ८५ ॥ तप्तायःफालकरणिं, तरणिनितरां दधौ । पथि क्षिप्तकरीपाग्निवैषम्यं पांशवोऽवहन् ।। ८६ ॥ ॥४॥ प्रविश्य मार्गसरितः, परितः सार्थयोषितः । उन्मूल्य नलिनीनालान् , गलनालेषु चिक्षिपुः ॥ ८७ ॥ धर्माऽम्भाक्लिन्नवासोभिरशोभन्त भृशं पथि । जलार्दा इव विभ्रत्यः, सार्थपान्थपुरन्ध्रयः ॥ ८८ ॥ पलाशतालहिन्तालनलिनीकदलीदलैः । तालवृन्तीकृतैः पान्थाश्चिच्छिदुर्धर्मजं श्रमम् ।। ८९॥ ग्रीष्मस्येव स्थितिच्छेदं, गतिच्छेदं प्रवासिनाम् । विदधानः समागच्छन्मेपचिह्नमृतस्ततः ॥९॥ यातुधान इवाऽऽकाशे, दधानो धन्व वारिदः । कुर्वन् धाराशरासारं, सार्थेनोत्रासमैक्ष्यत ॥ ९१ ॥ अलातमिव तडितं, तडित्वान् भ्रमयन मुहुः । निर्भरं भापयामास, पथिकान् बालकानिव ॥ ९२ ॥ अभ्रंलिहैः पयःपूरैः, कूलिनीनां प्रसारिभिः । कूलानि पान्थहृदयानीच सद्यो विदद्रिरे ॥९३॥ सलिलैनींचमुच्चं च, सर्वमुर्त्या समीकृतम् । जडानामुदये हन्त, विवेकः कीदृशो भवेत् ॥ ९४ ॥ पयोभिः कण्टकैः पद्धैर्दुर्गमत्वेन वर्त्मनः । योजनानां शतमिव, क्रोशोऽपि समजायत ॥ ९५ ॥ अध्वन्यजन आजानुसंलग्ननवकर्दमः । आमुक्तमोचक इव, प्रचचाल शनैः शनैः ।। ९६ ॥ तिरस्कृतकशाविशेषाः। २ "परोणी" इति भाषायाम् । ३ सूर्यस्य । ४ सदशम्। ५ सूर्यः। * प्राविशन् मार्ग सं१,२. खं ॥ पाखियः। ७ राक्षसः। ८ प्रज्वलरकाष्ठम् । ९ मेघः। १० अन इलयारेक्यात् जलानामित्यपि वक्तव्यम् । | पूर्वभवचरिते प्रथमो धनसाथैवाहभवः। Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्तुं प्रतिपथं पान्थान् , दुदैवेन प्रसारिताः । प्रवाहच्छमना दीर्घाः, स्वबाहुपरिवा इव ॥ ९७ ॥ अमजन्नभितः पङ्कविकटे शकटाः पथि । चिरं कृतविमर्दोत्थरोषाद् अस्ता इवेलेया ॥९८॥ अवरुह्याऽऽकृष्यमाणा, औष्ट्रिकै तरज्जुभिः । पथि क्रमेलकाः पेतुर्धश्यत्पादाः पदे पदे ॥ ९९ ।। दुर्गत्वं वर्त्मनां प्रेक्ष्य, सार्थवाहस्ततो धनः । तस्यामेव महाटव्यां, दत्त्वा वासानवास्थित ॥ १०॥ अतिवाहयितुं वर्षाश्चक्रे तत्रोटजान् जनः । न हि सीदन्ति कुर्वन्तो, देशकालोचितां क्रियाम् ॥१०१॥ दर्शिते माणिभद्रेण, निर्जन्तुजगतीतले । उटजोपाश्रयेऽवात्सुः, सूरयोऽपि ससाधवः ॥ १०२॥ भूयस्त्वात् सार्थलोकस्य, दीर्घत्वात् प्रावृषोऽपि च । अत्रुट्यत् तत्र सर्वेषां, पाथेययवसादिकम् ॥ १०३ ॥ ततश्चेतस्ततश्चेलुः, कुचेलास्तापसा इव । खादितुं कन्दमूलादि, क्षुधार्ताः सार्थवासिनः॥ १०४॥ ___ अथ तत् सार्थनाथस्य, सार्थदौःस्थ्यमशेषतः । विज्ञप्तं माणिभद्रेण, तन्मित्रेण निशामुखे ॥ १०५ ॥ सार्थवाहः सार्थदुःखचिन्तासन्ताननिश्चलः । तस्थौ निवातनिष्कम्प, इव पायोनिधिस्ततः ॥१०६॥ तस्य चिन्ताप्रपन्नस्य, निद्राऽभूत क्षणमात्रतः । अतिदुःखाऽतिसौख्ये हि, तस्याः प्रथमकारणम् ॥ १०७ ॥ यामिन्याश्चरमे यामे, मन्दुरायामपालकः । ततश्च कश्चिदप्येवमपाठीदशठाशयः॥ १०८॥ प्रत्याशं विस्फुरत्कीर्तिः, प्राप्तोऽपि विषमां दशाम् । स्वामी नः पालयत्यात्मप्रतिपन्नमसावहो! ॥१०९॥ तदाकर्ण्य धनो दध्यावुपालब्धोऽसि केनचित् । अस्तीह मामके साथै, को नामाऽत्यन्तदुःस्थितः ? ॥११॥ १ स्वबाहुरूपार्गला इव । २ भूम्या । ३ उष्ट्रारूढः। * तत्रैव च म सं १ ॥ । 'श्चक्रुस्तत्रोटजान् जनाः सं १, खं ॥ ४ समुद्रः । ५ वाजिशालाग्राहरिकः । For Private & Personal use only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् । आ ज्ञातं सन्ति मे धर्मघोषाचार्याः सहागताः । अकृताऽकारितप्रासुभिक्षामात्रोपजीविनः ॥१११ ॥ कन्दमूलफलादीनि, स्पृशन्त्यपि न ये क्वचित् । अधुना दुःस्थिते सार्थे, वर्तन्ते हन्त ! ते कथम् ॥११२॥ मार्गकृत्यमुरीकृत्य, पथि यानहमानयम् । तानद्यैव समस्मार्ष, किमकार्षमचेतनः ? ॥११३॥ वामात्रेणापि नो येषामद्य यावत् कृतौचिती । स्वमुखं दर्शयिष्यामि, तेषामद्य कथं न्वहम् ?॥११४॥ तथाऽप्यद्यापि तान् दृष्ट्वा, निजांहः क्षालयाम्यहम् । सर्वत्रापि निरीहाणां, कार्य तेषां तु किं मया ॥११५॥ इति चिन्तयतस्तस्योत्सुकस्य मुनिदर्शने । तुर्यो यामस्त्रियामायास्त्रियामेवाऽपराऽभवत् ॥ ११६॥ विभातायां विभावर्या, शुचिवस्त्रविभूषणः । सूरीणामाश्रयमगात् , सप्रधानजनो धनः ॥ ११७ ॥, पलाशच्छदनच्छन्नं, सच्छिद्रतृणभित्तिकम् । स्थलस्थण्डिलसंस्थानं, तेषां सोऽविशदाश्रयम् ॥ ११८॥ मानमिव पापाब्धेः, पन्थानमिव निवृतेः । औस्थानमिव धर्मस्य, संस्थानमिव तेजसाम् ॥ ११९ ॥ कषायगुल्मनीहारं, हारं कल्याणसम्पदः । सङ्घस्याऽद्वैतमाङल्पं, कल्पद्रु शिवकाविणाम् ॥ १२० ॥ पिण्डीभूतं तप इव, मूर्तिमन्तमिवाऽऽगमम् । तीर्थङ्करमिवाऽद्राक्षीद्, धर्मघोषमुनि धनः॥१२१ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ।] ध्यानाधीनात्मनः कांश्चित्, कांश्चिन्मौनावलम्बिनः। कायोत्सर्गस्थितान् कांश्चित् ,पठतः कांश्चिदागमम्॥१२२॥ वाचनां ददतः कांश्चित् ,कांश्चिद् भूमिं प्रमार्जतः । वन्दमानान् गुरुन् कांश्चित् , कांश्चिद्धर्मकथाजुषः॥१२३॥ पूर्वभवचरिते प्रथमो धनसार्थवाहभवः उचिताचरणम् । २ स्वपापम् । ३ रात्र्याः । ४ मथनदण्डम् । ५ सभास्थानम् । ६ हिमम् । ७ भूषणरूपम् । Jain Education Internationa l For Private & Personal use only . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतमुद्दिशतः काश्चित् , कांश्चित् तदनुजानतः । तत्त्वानि वदतः कांश्चित् , तत्राऽद्राक्षीन्मुनीनपि ॥१२४॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ।] सोऽवन्दताऽऽचार्यपादान् , साधूनपि यथाक्रमम् । तस्मै ते धर्मलाभं च, ददुः पापप्रणाशनम् ॥ १२५॥ आचार्यपादपद्मान्ते, राजहंस इवाऽथ सः । निषेद्याऽऽसादितानन्द, इति वक्तुं प्रचक्रमे ॥ १२६ ॥ तदाऽऽकारयता युष्मान् , भगवन्नात्मना सह । मुधैव सम्भ्रमोऽदर्शि, शरद्गर्जितवन्मया ॥ १२७ ॥ आरभ्य तद्दिनाद् यूयं, न दृष्टा न च वन्दिताः । न चाऽन्नपानवस्त्राद्यैः, कदाचिदपि सत्कृताः॥१२८॥ जाग्रत्सँषुप्तावस्थेन, मया मूढेन किं कृतम् । यद् यूयमवजज्ञिध्वे, ध्वस्तस्ववचसा चिरम् ॥१२९ ॥ भगवन्तः! सहध्वं तत् , प्रमादाचरणं मम । सर्वसहा महान्तो हि, सदा सर्वसहोपमाः ॥ १३०॥ सूरयोऽप्यचिरेऽस्माकं, त्वया किं किं न सत्कृतम् । दुःश्वापदेभ्यो दस्युभ्यस्त्रायमाणेन वर्त्मनि ॥१३॥ तवैव सार्थिका यच्छन्त्यन्नपानादि चोचितम् । तन्न सीदति नः किञ्चित् , मा विपीद महामते ! ॥१३२॥द धनोऽप्यूचे गुणानेव, सन्तः पश्यन्ति सर्वतः । ततो मम सदोषस्थाऽप्याराध्यैरेवमुच्यते ॥ १३३ ॥ सर्वथा खप्रमादेन, लजितोऽसि प्रसीदत । साधुन् प्रेषयताऽऽहारं, प्रयच्छामीच्छया यथा ॥१३४ ॥ सूरिभाषे योगेन, वर्तमानेन वेत्सिनु । अकृताऽकारिताऽचित्तमन्नाद्युपकरोति नः ॥ १३५॥ तदेव दास्ये साधूनां, यदेवोपकरिष्यते । इत्युदित्वा च नत्वा च, निजावासं ययौ धनः॥ १३६ ॥ तदनुज्ञाकारिणः । २ उपविश्य । ३ आमन्त्रणं कुर्वता । ४ जाग्रताऽपि सुषुप्तावस्थागतेन । ५ पृथ्वी तदुपमा । ६ दुष्टहिंत्रताप्राणिभ्यः । ७ चौरेभ्यः । ८ पूज्यैः । ९ अकृतं अकारितं अचित्तं चेति एकवद्भावी द्वन्द्वः । Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व प्रथमः - सर्गः ऋषभचरितम् । अस्थाऽनुपदमेवाऽथ, साधुद्वितयमागमत् । तदहं चाऽन्नपानादि, दैवादासीन्न किञ्चन ॥ १३७ ॥ इतस्ततोऽन्वेषयंश्च, सार्थवाहः स्वयं ततः । ईक्षाश्चक्रे घृतं स्त्यानं, निजाशयमिवाऽमलम् ॥१३८ ॥ इदं वः कल्पते किश्चिदिति सार्थपतीरिते । इच्छामीति वदन् साधुः, पैतद्हमधारयत् ॥ १३९ ॥ धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं, पुण्योऽहमिति चिन्तयन् । रोमाञ्चितवपुः सपिः, साधवे स स्वयं ददौ ॥१४० ॥ .आनन्दाश्रुजलैः पुण्यकन्दं कन्दलयन्निव । घृतदानावसानेऽथ, धनोऽवन्दत तौ मुनी ॥१४१॥ सर्वकल्याणसंसिद्धौ, सिद्धमत्रसमं ततः । वितीर्य धर्मलाभं तो, जग्मतुर्निजमाश्रयम् ॥ १४२ ॥ तदानीं सार्थवाहेन, दानस्साऽस्य प्रभावतः । लेभे मोक्षतरोबीजं, बोधिबीजं सुदुर्लभम् ॥ १४३ ॥ • रजन्यां पुनरप्येषां, मुनीनामाश्रयं ययौ। स प्रविश्याऽनुजानीतेति वदन् प्राणमद् गुरून् ॥ १४४ ॥ धर्मघोषसूरयोऽपि, मेघनि?षया गिरा । श्रुतकेवलिदेशीयां, दिदिशुर्देशनामिमाम् ॥ १४५ ॥ धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टं, धर्मः स्वर्गाऽपवर्गदः । धर्मः संसारकान्तारोल्लङ्घने मार्गदेशकः ॥ १४६ ॥ धर्मों मातेव पुष्णाति, धर्मः पाति पितेव च । धर्मः सखेव प्रीणाति, धर्मः स्निह्यति बन्धुवत् ॥ १४७॥ | धर्मः सङ्क्रमयत्युच्चैर्गुणान् गुरुरिवोज्वलान् । धर्मः प्रकृष्टां स्वामीव, प्रतिष्ठां च प्रयच्छति ॥१४८ ॥ धर्मः शर्ममहाहय, धर्मो वारिसङ्कटे । धर्मो जाड्यच्छिदाधर्मो, धर्मो मर्माविदंहसाम् ॥ १४९ ॥ धर्माजन्तुर्भवेद् भूपो, धर्माद् रामोऽर्धचत्र्यपि । धर्माचक्रधरो धर्माद, देवो धर्माच्च वासवः ॥१५॥ १ पात्रम् । २ घृतम् । ३ पुण्याङ्कुरम् । ४ श्रुतकेवलिसमानाम् । ५ मार्गदर्शकः । * प्रतिष्ठां सं १ ॥ ६ शैत्यविच्छेदे धर्मरूपः । ७ बलदेवः । ८ वासुदेवः । ९ चक्रवर्ती। १० इन्द्रः। | पूर्वभवचरिते प्रथमोधनसार्थवाहभवः। Jain Education Inte For Private & Personal use only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रैवेयकाऽनुत्तरेषु, धर्माद् यात्यहमिन्द्रताम् । धर्मादार्हन्त्यमामोति, किं किं धर्मान्न सिध्यति ? ॥१५१॥ दुर्गतिप्रपतजन्तुधारणाद् धर्म उच्यते । दान-शील-तपो-भावभेदात् स तु चतुर्विधः ॥१५२॥ ___ तत्र तावद् दानधर्मविप्रकारः प्रकीर्तितः । ज्ञानदाना-ऽभयदान-धर्मोपग्रहदानतः॥१५३ ॥ दानं धर्मानभिजेभ्यो, वाचनादेशनादिना । ज्ञानसाधनदानं च, ज्ञानदानमितीरितम् ॥ १५४ ॥ ज्ञानदानेन जानाति, जन्तुः स्वस्य हिताहितम् । वेत्ति जीवादितत्वानि, विरतिं च समश्नुते ॥ १५५॥ ज्ञानदानादवानोति, केवलज्ञानमुज्ज्वलम् । अनुगृह्याखिलं लोकं, लोकाग्रमधिगच्छति ॥ १५६ ॥ ___ भवत्यभयदानं तु, जीवानां वधवर्जनम् । मनो-चाकायैः करण-कारणा-ऽनुमतैरपि ॥ १५७ ।। तत्र जीवा द्विधा ज्ञेयाः, स्थावर-त्रसभेदतः । द्वितयेऽपि द्विधा पर्याप्ताऽपर्याप्तविशेषतः ॥१५८॥ पर्याप्तयस्तु पडिमाः, पर्याप्तत्वनिबन्धनम् । आहारो वेपुरक्षाणि', प्राणो भाषा मनोऽपि च ॥ १५९ ॥ स्युरेकाक्ष-विकलाक्ष-पश्चाक्षाणां शरीरिणाम् । चतस्रः पञ्च षट् वापि, पर्याप्तयो यथाक्रमम् ॥ १६० ।। एकाक्षाः स्थावरा भूम्योजोवायुमहीरुहः । तेषां तु पूर्व चत्वारः, स्युः सूक्ष्मा बादरा अपि ॥ १६१॥ प्रत्येकाः साधारणाश्च, द्विप्रकारा महीरुहः । साधारणा अपि द्वेधा, सूक्ष्म-बादरभेदतः ॥ १६२ ॥ वसा द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियत्वेन चतुर्विधाः । तत्र पञ्चेन्द्रिया द्वेधा, संजिनोऽसंज्ञिनोऽपि च ।। १६३ ।। शिक्षोपदेशाऽऽलापान ये, जानते ते तु संज्ञिनः । सम्प्रवृत्तमनःप्राणास्तेभ्योऽन्ये स्युरसंज्ञिनः ॥ १६४ ॥ तीर्थङ्करत्वम् । 'दितः सं २,३॥1'जन्तुस्तस्य सं २॥ २ मोक्षम् । ३ कृतकारितानुमोदितः। शरीरम् । 3.५ इन्द्रियाणि । ६ विकलाक्षशब्देन द्वीन्द्रियादयो विकलेन्द्रिया प्रायाः। ७ वनस्पतिकायाः। विषधि,२ For Private & Personal use only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । SUBSCRSSCRICA स्पर्शनं रसनं घ्राणं, चक्षुः श्रोत्रमितीन्द्रियम् । तस्य स्पर्शे रसो गन्धो, रूपं शब्दश्च गोचरः ॥ १६५॥ द्वीन्द्रियाः कृमयः शङ्खाः, गण्डूपदा जलौकसः । कपर्दकाः शुक्तयश्च, विविधाकृतयो मताः॥१६६॥ यूका मत्कुण-मैर्कोट-लिक्षाद्यास्त्रीन्द्रिया मताः । पतङ्ग-मक्षिका-भृङ्ग-दंशाद्याश्चतुरिन्द्रियाः॥१६७॥ तिर्यग्योनिभवाः शेषा, जल-स्थल-खचारिणः । नारका मानवा देवाः, सर्वे पञ्चेन्द्रिया मताः ॥१६८॥ तत्पर्यायक्षयाद् दुःखोत्पादात् सङ्क्लेशतस्विधा । वधस्य वर्जनं तेष्वभयदानं तदुच्यते ॥ १६९॥ ददात्यभयदानं यो, दत्तेऽर्थान् सोखिलानपि । जीविते सति जायेत, यत् पुमर्थचतुष्टयी ॥ १७०॥ जीवितादपरं प्रेयो, जन्तोायेत जातुचित् । न राज्यं न च साम्राज्यं, देवराज्यं न चोच्चकैः॥ १७१॥ इतोऽशुचिस्थस्य कमेरितः खर्गसदो हरेः । प्राणापहारप्रभवं, द्वयोरपि समं भयम् ।। १७२ ॥ समग्रजगदिष्टायाऽभयदानाय सर्वथा । सर्वदाऽप्यप्रमत्तः सन् , प्रवर्त्तत ततः सुधीः ॥ १७३ ॥ भवेदभयदानेन, जनो जन्मान्तरेषु हि । कान्तो दीर्घायुरारोग्य-रूप-लावण्यशक्तिमान् ॥ १७४ ॥ धर्मोपग्रहदानं तु, जायते तत्र पश्चधा । दायक-ग्राहक-देय-काल-भावविशुद्धितः॥ १७५ ॥ तत्र दायकशुद्धं तन्याय्यार्थी ज्ञानवान् सुधीः । निराशंसोऽननुतापी, दायकः प्रददाति यत् ॥ १७६ ॥ इदं चित्तमिदं वित्तमिदं पात्रं निरन्तरम् । सञ्जातं यस्य मे सोऽहं, कृतार्थोऽस्मीति दायकः॥ १७७ ॥ सावद्ययोगविरतो, गौरवत्रयवर्जितः । त्रिगुप्तः पञ्चसमितो, रागद्वेषविनाकृतः॥ १७८ ॥ निर्ममो नगरवसत्यङ्गोपकरणादिषु । तथाऽष्टादशशीलाङ्गसहस्रधरणोद्धरः ॥ १७९ ॥ * °मत्कोट-लि सं २, खं ॥ १ धर्मार्थकाममोक्षरूपा। २ नीतिसम्पादितार्थः । ३ निरीहः । ४ पश्चात्तापविरहितः। पूर्वभवचरिते प्रथमोधनसार्थवाहभवः। ॥७॥ For Private & Personal use only . Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa रत्नत्रयधरो धीरः, समकाञ्चनलेष्टुकः । शुभध्यानद्वयस्थास्नुर्जिताः कुक्षिशम्बलः ॥ १८० ॥ निरन्तरं यथाशक्ति, नानाविधतपः परः । संयमं सप्तदशधा, धारयन्नविखण्डितम् ॥ १८१ ॥ अष्टादशप्रकारं च, ब्रह्मचर्यं समाचरन् । यत्रेदृग् ग्राहको दानं तत् स्याद् ग्राहकशुद्धिमत् ॥ १८२ ॥ देयशुद्धं द्विचत्वारिंशदोषरहितं भवेत् । पाना-शन खाद्य-स्वाद्य - वस्त्र संस्तारकादिकम् ॥ १८३ ॥ कालशुद्धं तु यत् किञ्चित् काले पात्राय दीयते । भावशुद्धं त्वनाशंसं, श्रद्धया यत् प्रदीयते ॥ १८४ ॥ न देहेन विना धर्मो न देहोऽनादिकं विना । धर्मोपग्रहदानं तद्, विदधीत निरन्तरम् ॥ १८५ ॥ पात्रेभ्योऽशनपानादिधर्मोपग्रहदानतः । करोति तीर्थाव्युच्छित्तिं प्राप्नोति च परं पदम् ।। १८६ ॥ शीलं सावद्ययोगानां प्रत्याख्यानं निगद्यते । द्विधा तद्देशविरति सर्वविरतिभेदतः ॥ १८७ ॥ देशतो विरतिः पञ्चाणुव्रतानि गुणास्त्रयः । शिक्षाव्रतानि चत्वारि, चेति द्वादशधा मताः ॥ १८८ ॥ तत्र स्थूला हिंसा-सत्या - स्तेय ब्रह्माऽपरिग्रहाः । अणुव्रतानि पञ्चेति, कीर्त्तितानि जिनेश्वरैः ॥ १८९ ॥ अथ दिग्विरतिर्भोगोपभोगविरतिस्तथा । अनर्थदण्डविरतिश्चैवं गुणत्रतत्रयी ॥ १९० ॥ सामायिकं च देशावकाशिकं पौषधस्तथा । अतिथीनां संविभागः, शिक्षाव्रतचतुष्टयम् ॥ १९९ ॥ तदेषा देशविरतिः, शुश्रूषादिगुणस्पृशाम् । यतिधर्मानुरक्तानां, धर्मपथ्यदनार्थिनाम् ॥। १९२ ।। शँम-संवेग-निर्वेदाऽनुकम्पा -ऽऽस्तिक्यलक्षणम् । सम्यक्त्वं प्रतिपन्नानां मिथ्यात्वविनिवर्त्तिनाम् ॥ १९३ ।। १ जितेन्द्रियः । २ उदरमात्रपाथेयः । * तस्य ग्रासं ॥ t शुद्धि से १ ॥ शुद्धिं सं १ ॥ ३ वाञ्छारहितम् । ४ कुर्यात् । ५ तीर्थस्य अविच्छेदम् । ६ पथ्यदनं शम्बलम् । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ ८ ॥ Jain Education Inte महात्मनां सानुबन्धक्रोधोदयविवर्जिनाम् । चारित्रमोह्घातेन, जायते गृहमेधिनाम् ॥ १९४ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् । ] स्थूलानामितरेषां च, हिंसादीनां विवर्जनम् । 'सिद्धिसौधैकसरणिः, सा सर्वविरतिर्मता ॥ १९५ ॥ प्रकृत्याऽल्पकपायाणां भवसौख्यविरागिणाम् । विनयादिगुणाऽक्तानां सा मुनीनां महात्मनाम् ॥ १९६ ॥ यत् तापयति कर्माणि, तत् तपः परिकीर्त्तितम् । तद् बाह्यमनशनादि, प्रायश्चित्तादि चाऽऽन्तरम् ॥ १९७ ॥ अनशन मौनोदर्य, वृत्तेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो, लीनतेति बहिस्तपः ।। १९८ ।। प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं, स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गेऽथ शुभध्यानं, पोढेत्याभ्यन्तरं तपः ॥ १९९ ॥ रत्नत्रयधरेष्वेका, भक्तिस्तत्कार्यकर्म च । शुभैकचिन्ता संसारजुगुप्सा भावना भवेत् ॥ २०० ॥ चतुर्धा तदयं धर्मो, निःसीमफलसाधनम् । साधनीयः सावधानैर्भवभ्रमण भीरुभिः ॥ २०१ ॥ rasta मया खामिन्!, धर्मोऽयं शुश्रुवे चिरात् । एतावन्ति दिनान्येष, वञ्चितोऽस्मि स्वकर्मभिः ॥ २०२ ॥ वन्दित्त्वा गुरुपादाब्जद्वन्द्वं शेषमुनीनपि । धन्यंमन्यो निजावासं, सार्थवाहस्ततो ययौ ॥ २०३ ॥ परमानन्दनिर्मग्नो, धर्मदेशनया तया । धनस्तां क्षपयामास, क्षणदां क्षणमात्रवत् ॥ २०४ ॥ सुप्तोत्थितस्य तस्याऽथ प्रातर्मङ्गलपाठकः । पपाठ शङ्खगम्भीरमधुरध्वनिवन्धुरः ॥ २०५ ॥ धनान्धकारमलिना, पद्मिनीलक्ष्मितस्करी । व्यवसायहरा नॄणां ययौ प्रावृडिव क्षपा ॥ २०६ ॥ तेजोऽभिमुखचण्डांशुर्व्यवसायसुहृन्नृणाम् । शरत्काल इव प्रातःकालोऽयं जृम्भतेऽधुना ॥ २०७ ॥ *मोहासं ॥ १ सिद्धिप्रासादैकसोपानमार्गः । २ कायोत्सर्गः । ३ रात्रिम् । प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते प्रथमो धनसा र्थवाहभवः । ॥ ८ ॥ . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरसामापगानां च, प्रापुरापः प्रसन्नताम् । शरदा तत्त्वबोधेन, मनांसीव मनीषिणाम् ॥ २०८॥ सूर्याशुभिः शुष्कपङ्काः, पन्थानः सुगमा भृशम् । आसन् ग्रन्था इवाऽऽचार्योपदेशाच्छिन्नसंशयाः ॥२०९॥ कूलिन्यः कूलयोर्मध्ये, वहन्तीह शनैः शनैः । नेमिसीमन्तयोरन्तः, शकटश्रेणयो यथा ॥२१॥ पक्वश्यामाक-नीवार-चालुङ्क-कुवलादिभिः । अध्वन्यानामिहाऽध्वान, आतिथ्यमिव कुर्वते ॥ २११॥ पवनान्दोल्यमानेषुवणध्वानरसौ शरत् । यानाभियोगसमयं, शंसतीवाऽऽभियोगिाम् ॥ २१२ ॥ पान्थानां तप्यमानानां, रुचिभिश्चण्डरोचिषः । आतपत्रीभवन्त्येते, क्षणं शारदवारिदाः ॥२१३ ॥ एते सार्थककुमन्तः, ककुदैभिन्दते स्थलीः । सुखयात्राकृते भॉ, वैषम्यमवनेरिख ॥ २१४ ।। गर्जन्तः प्लावयन्तःक्ष्मां, पुरा ददृशिरे हि ये । नेशर्मागवेहास्तेऽत्र, प्रावृषेण्या घना इव ॥२१५॥ वल्लीभिः फलनम्राभिः, स्वच्छस्तोयैः पदे पदे । पन्थानोऽयत्नपाथेयाः, पान्थानामिह जज्ञिरे ।। २१६ ॥ राजहंसा इवोत्साहबहलीकृतचेतसः । गन्तुं देशान्तराण्यत्र, त्वरन्ते व्यवसायिनः ॥ २१७ ।। __ तच्छृत्वा सार्थवाहोऽपि, प्रयाणसमयोऽमुना । विज्ञप्त इति विज्ञाय, यात्राभेरीमवादयत् ॥ २१८ ॥ सार्थोऽपि रोदसीकुक्षिम्भरेभैरीवात् ततः । चचाल गोवृन्दमिव, गोपगोशृङ्गनादतः ॥ २१९ ॥ भव्याब्जबोधप्रवणैः, साधुभिः परिवारितः । मरीचिभिः सूर इव, सरिरप्यचलत् ततः ॥ २२० ॥ अग्रतः पार्श्वतः पश्चादारक्षपुरुषैः खयम् । रक्षामासूच्य सार्थस्य, प्रतस्थे सार्थपो धनः॥ २२१॥ १ श्यामाकस्तृणधान्यविशेषः, नीवारो धान्यविशेषः, वालुङ्कः चिर्भटकम्, कुवलं बदरीफलम् , "काकडी बोर” इति लोकभाषायाम् । २ पान्यानाम् । ३ मागाः । ४ यात्रोत्सुकानाम् । ५ मार्गप्रवाहाः । ६ व्यापारिणः । ७ सूर्यः । ८ रक्षकनरैः। . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥९॥ महाटवीं समुत्तीर्णे, सार्थे सार्थपतिं ततः । अनुज्ञाप्याऽऽचार्यवर्या, विहर्तुं ययुरन्यतः ॥ २२२ ॥ ततश्च सार्थवाहोऽपि निष्प्रत्यूहं वहन् पथि । पाथोधिमिव नद्योघो, वसन्तपुरमासदत् ॥ २२३ ॥ विक्रीणीते स्म भाण्डानि, प्रतिभाण्डानि चाऽऽददे । कालेन कियताऽप्येष धीमन्तो ह्याशुकारिणः॥२२४॥ परितो भरितस्तस्माद्, वारिधेरिव वारिदः । क्षितिप्रतिष्ठं नगरं, पुनरप्याययौ धनः ॥ २२५ ॥ कालेन तत्र पूर्णायुः, कालधर्ममुपागतः । आस्थितैकान्तसुषमेषूत्तरेषु कुरुष्वसौ ।। २२६ ॥ सीतानद्युत्तरटे, जम्बूवृक्षानुपूर्वतः । उत्पेदे युग्मधर्मेण मुनिदानप्रभावतः ॥ २२७ ॥ तत्राऽष्टस्य पर्यन्ते, मर्त्या भोज्याभिलाषिणः । षट्पञ्चाशशतद्वन्द्वसङ्ख्यपृष्ठकैरण्डकाः ॥ २२८ ॥ युग्मरूपास्त्रिगव्यूतोच्छ्रयाः पल्यत्रयायुषः । पर्यन्तप्रसवाः स्वल्पकपाया ममतोज्झिताः ।। २२९ ।। अपत्ययुग्ममे कोनपञ्चाशतमहानि तु । पालयित्वा विपद्यन्तेऽथोत्पद्यन्ते सुरेषु ते ॥ २३० ॥ शर्करास्वादुसिकताः, शरज्योत्स्नानिभाम्भसः । तत्रोत्तरेषु कुरुषु, भूम्यो रम्याः स्वभावतः ।। २३१ ॥ मद्याङ्गप्रमुखास्तत्र दशधा कल्पपादपाः । मनुजानामयत्नेन, सदा यच्छन्ति वाञ्छितम् ॥ २३२ ॥ ददते तत्र मद्यङ्गा, मद्यं भृङ्गास्तु भाजनम् । तूर्याङ्गकास्तु तूर्याणि वर्याणि विविधैर्लयैः ॥ २३३ ॥ दीपशिखा ज्योतिष्काश्च तन्वन्त्युद्द्योतमद्भुतम् । माल्यं यच्छन्ति चित्राङ्गा, भोज्यं चित्ररसाः पुनः ॥ भूषणानि तु मण्यङ्गा, गेहाकारा गृहाणि तु । सम्पादयन्ति चानना, दिव्यवासांस्यनेकशः || २३५ || एते च नियतानर्थान्, यच्छन्त्यनियतानपि । अन्ये च कल्पतरवस्तत्र सर्वेप्सितप्रदाः ॥ २३६ ॥ १ निर्विघ्नम् । * "वृक्षस्य पू आ, सं २ ॥ युग्मरूपेण सं १, खं ॥ २ चतुर्थे दिवसे । ३ ष्टष्ठस्थितसूक्ष्म गात्रावयवाः । प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते द्वितीयो युग लिकभवः । ॥ ९ ॥ . Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो देवभवः। दिवीव तत्र कल्पद्रुसम्पन्नसकलेप्सितः । धनजीवो युग्मधर्माऽन्वभूद् वैषयिकं सुखम् ॥ २३७ ॥ मिथुनायुः पालयित्वा, धनजीवस्ततश्च सः । प्राग्जन्मदानफलतः, सौधर्मे त्रिदशोऽभवत् ।। २३८ ॥ च्युत्वा सौधर्मकल्पाच, विदेहेष्वपरेष्वथ । विजये गन्धिलावत्यां, वैताठ्यपृथिवीधरे ॥२३९॥ गन्धाराख्ये जनपदे, पुरे गन्धसमृद्धके । राज्ञः शतबलाख्यस्य, विद्याधरशिरोमणेः॥२४॥ भार्यायां चन्द्रकान्तायां, पुत्रत्वेनोदपादि सः । नाम्ना महाबल इति, बलेनाऽतिमहाबलः ॥ २४१॥ रक्ष्यमाणः स आयुक्तैर्लाल्यमानस्तथा तथा । वृद्धिमासादयामास, शाखीव क्रमयोगतः ॥ २४२ ॥ कलानिधिरिवाऽशेषकलापूर्णः शनैः शनैः । स बभूव महाभागो, जनानां नयनोत्सवः ॥ २४३ ॥ स कन्यां विनयवती, मूर्त्ता तु विनयश्रियम् । समय समयाभिज्ञः, पित्रादेशादुपायत ॥ २४४॥ निशातमस्त्रं कामस्य, कामिनीजनकार्मणम् । रतिलीलावनं सोऽथ, यौवनं प्रत्यपद्यत ॥ २४५ ॥ क्रेमौ समतलौ तस्य, क्रमात् कूर्मवदुन्नतौ । सिंहमध्याधरीकारधुरीणं मध्यमप्यभूत् ॥ २४६ ॥ उरःस्थलं चाऽकलयत् , स्वर्णशैलशिलातुलाम् । उडुरौ दधतुः स्कन्धौ, ककुभत्ककुदश्रियम् ॥ २४७॥ भुजौ भुजङ्गमाधीशभोगशोभां च बैंभ्रतुः । अर्द्धाभ्युदितराकेन्दुलीलामलिङमाददे ॥ २४८॥ रदैनखैर्मणिनिभैर्वपुषा कनकत्विषा । सकलां कलयामास, मेरुलक्ष्मी स्थिराकृतिः ॥ २४९॥ ___ अपरेछुः शतबलो, विद्याधरपतिः सुधीः । महासत्त्वस्तत्त्वविज्ञश्चिन्तयामासिवानिदम् ॥ २५० ॥ विधाय सहजाऽशौचमुपस्कारैर्नवं नवम् । गोपनीयमिदं हन्त !, कियत्कालं कलेवरम् ? ॥२५१ ॥ 1 देवः । २ रक्षकैः । ३ वृक्ष इव । ४ तीक्ष्णम् । ५ चरणौ । * बिभ्रतुः सं १, आ॥ ६ ललाटम् । ७ संस्कारैः । हजाऽशौचमुपस्कारावरपतिः सुधीः । महाल, मेरुलक्ष्मी स्थिराकानी Jan Education in For Private & Personal use only . Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१०॥ प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् सत्कृतोऽनेकशोऽप्येष, सत्क्रियेत यदापि न । तदापि विक्रियां याति, कायः खलु खलोपमः ॥२५२ ॥ अहो ! बहिनिपतितैर्विष्ठा-मूत्र-कफादिभिः । हणीयन्ते प्राणिनोऽमी, कायस्याऽन्तःस्थितैन किम् ॥२५३॥ रोगाः समुद्भवन्त्यस्मिन्नत्यन्तातङ्कदायिनः । दन्देशूका इव क्रूरा, जरविटपिकोटरे ॥ २५४ ॥ निसर्गाद् गत्वरश्चाऽयं, कायोऽब्द इव शारदः । दृष्टनष्टा च तत्रेयं, यौवनश्रीस्तडिनिभा ॥२५५॥ आयुः पताकाचपलं, तरङ्गतरलाः श्रियः । भोगिभोगनिभा भोगाः, सङ्गमाः स्वमसन्निभाः ॥ २५६ ॥ काम-क्रोधादिभिस्तापैस्ताप्यमानो दिवानिशम् । आत्मा शरीरान्तःस्थोऽसौ, पच्यते पुटपाकवत् ॥२५७॥ विषयेष्वतिदुःखेषु, सुखमानी मनागपि । नाऽहो ! विरज्यति जनोऽशुचिकीट इवाऽशुचौ ॥ २५८॥ दुरन्तविषयास्वादपराधीनमना जनः । अन्धोऽन्धुमिव पादारस्थितं मृत्युं न पश्यति ।। २५९ ॥ आपातमात्रमधुरैर्विषयैर्विषसन्निभैः । आत्मा मूञ्छित एवाऽऽस्ते, स्वहिताय न चेतति ॥ २६० ॥ तुल्ये चतुर्णा पौमर्थे, पापयोरर्थकामयोः । आत्मा प्रवर्त्तते हन्त !, न पुनर्धर्ममोक्षयोः ॥ २६१ ॥ अस्मिन्नपारे संसारपारावारे शरीरिणाम् । महारत्नमिवाऽनयं, मानुष्यमतिदुर्लभम् ॥ २६२ ॥ मानुष्यकेपि सम्प्राप्ते, प्राप्यन्ते पुण्ययोगतः । देवता भगवानर्हन् , गुरवश्च सुसाधवः ॥ २६३ ॥ मानुष्यकस्य यद्यस्य, वयं नादबहे फलम् । मुषिताः स्म तदधुना, चौरैर्वसति पत्तने ॥२६४ ॥ तदद्य कवचहरे, कुमारेऽस्मिन् महाबले । राज्यभारं समारोप्य, कुर्महे स्वसमीहितम् ॥ २६५ ॥ विमृश्यैवं शतबलः, समाहूय महाबलम् । विनीतं बोधयामास, राज्यग्रहणहेतवे ॥ २६६ ॥ १ सः । * निसर्गग सं : आ॥२ सपं फगातुल्याः । ३ कूपम् । ४ पुरुषार्थत्वे । । संसारे पा सं २॥ ६°बलस्तदाह सं॥ | पूर्वभवचरिते चतुर्थो महाबलभवः। Jain Education Inter For Private Person Use Only . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स राज्यभारमुद्वोढुं, मेने पितृनिदेशतः । भवन्ति हि महात्मानो, गुर्वाज्ञाभङ्गभीरवः ॥ २६७ ॥ ततः शतबलः सिंहासनेऽध्यास्य महाबलम् । अभिषिच्य स्वहस्तेन, चक्रे तिलकमङ्गलम् ॥२६८ ॥ स रराज नवो राजा, कुन्दसोदरकान्तिना । चान्दनेन तिलकेनोदयाचल इवेन्दुना ॥ २६९ ॥ पैतृकेणाऽऽतपत्रेण, हंसपत्रामलेन सः । शुशुभे शारदाभ्रेण, गिरिराज इवोच्चकैः ॥ २७॥ विरेजे प्रेङ्खता चारुचामरद्वितयेन सः । बलाकायुगलेनेव, विमलेन बलाहकः ॥ २७१ ॥ तस्याभिषेके गम्भीरतरो मङ्गल्यदुन्दुभिः । दध्यान ध्वनयन्नाशाश्चन्द्रोदय इवोदधिः ॥ २७२ ॥ समन्तान्मत्रिसामन्तैः, समेत्य समनम्यत । द्वैतीयीकः शतबल, इव रूपान्तरेण सः ॥ २७३ ॥ पुत्र राज्ये निवेश्यैवं, स्वयं शतबलस्ततः । आददे शमसाम्राज्यमाचार्यचरणान्तिके ॥ २७४ ॥ सोऽसारान् विषयान् प्रोज्झ्य, सारं रत्नत्रयं दधौ । तथाऽप्यखण्डा तस्यासीत , सर्वत्र समचित्तता॥ २७५॥ मृलादुन्मूलयामास, कपायान् स जितेन्द्रियः। कूलपापूर इव, कूलस्थितमहीरुहान् ॥ २७६ ।। आत्माराममना वाचंयमो नियतचेष्टितः । अधिसेहे महासत्त्वो, दुःसहान् स परीषहान् ॥ २७७॥ मैत्र्यादिभिर्भावनाभिः, प्रवृद्धध्यानसन्ततिः । सोऽमन्दानन्दनिमग्नस्तस्थौ मुक्ताविवानिशम् ॥ २७८ ॥ ध्यानेन तपसा चाऽऽयुलीलयैवाऽतिवाह्य सः । महात्मा सादयामास, सदनं त्रिदिवौकसाम् ॥ २७९ ॥ __ महाबलोऽपि बलिभिः, खेचरैः परिवारितः । आखण्डल इवाऽखण्डशासनः प्रशशास गाम् ॥२८॥ रम्यावारामराजीषु, स रेमे रमणीवृतः । मुदितः पङ्करुहिणीखण्डेष्विव सितच्छदः ।। २८१ ॥ १ मेघः । २ नद्याः पूर इव । ३ इन्द्रः । ४ पृथ्वीम् । ५ हंसः । For Private & Personal use only . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् । STAGRAAKASEAN अभृवंस्तत्पुरो नित्यसङ्गीतप्रतिशब्दितैः । सङ्गीतकानुवादिन्य, इव वैताढ्यकन्दराः ॥२८२ ॥ अग्रतः पार्श्वयोः पश्चान्नारीभिः परिवेष्टितः। स चकासामास रसः, शृङ्गार इव मूर्तिमान् ॥ २८३ ॥ खच्छन्दं तस्य विषयक्रीडाव्यग्रस्य सर्वदा । समरात्रिन्दिवः कालो, बभूव विषुवन्निभः ।। २८४ ॥ । अनेकामात्यसामन्तैर्मणिस्तम्भरिवाऽपरैः । परिष्कृतां निजास्थानी, सोधितस्थावथैकदा ॥ २८५॥ तं नत्वोपाविशन् सर्वे, यथास्थानं सभासदः । ते तदेकाग्रनयना, योगिलीलामधारयन् ॥ २८६ ॥ ते स्वयम्बुद्ध-सम्भिन्नमती शतमतिस्तथा । महामतिश्च तत्रासाश्चक्रिरे मत्रिणोऽपि हि ॥ २८७॥ स्वामिभक्तिसुधासिन्धुर्मनीषारत्नरोहणः । सम्यग्दृष्टिः स्वयम्बुद्ध, इति तत्र व्यचिन्तयत् ॥ २८८ ॥ 18 • अस्माकं पश्यतामेष, दुर्वाजिभिरिवेन्द्रियैः । हियते विषयासक्तः, स्वामी धिग्न उपेक्षकान् ॥ २८९ ॥ -ईग्विनोदव्यग्रस्य, जन्माऽस्मत्स्वामिनो मुधा । यातीति ताम्यति मनो, मीनः स्तोक इवाम्भसि ॥२९॥ अस्माभिर्मत्रिभिरसौ, न चेदुच्चैःपदं श्रयेत् । तदस्माकं भवेन्नर्ममत्रिणां च किमन्तरम् ? ॥ २९१ ॥. तद्विज्ञपय्य नेतव्योऽस्माभिः स्वामी हिते पथि । नीयन्ते यत्र तत्रैते, यान्ति सारणिवन्नृपाः ॥२९२॥ यद्यप्यपवदिष्यन्ते, स्वामिव्यसनजीविनः। वाच्यं तथाऽपि नोप्यन्ते, यवा मृगभयेन किम् ? ॥२९३ ॥ विमृश्येति स्वयम्बुद्धो, धौरेयो बुद्धिशालिनाम् । इति विज्ञपयामास, राजानं रचिताञ्जलिः ॥ २९४ ॥ आसंसारं सरिनाथः, किं तृप्यति सरिजलैः । सरित्प॑तिपयोभिर्वा, किमेष वडवानलः? ॥२९५॥ * 'पुरे नि सं १, आ ॥ १ सङ्गीतस्य अनुकरणं कुर्वन्त्यः । २ समरात्रिदिनात्मकः कालो विषुवत् । ३ सभाम् । ४ बुद्धिरतस्य रोहणाचलरूपः। ५ समुदः। ६ समुद्रः। पूर्वभवचरिते चतुर्थो महाबलभवः। SSROSESSISSA For Private & Personal use only . Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तको जन्तुभिः किं वा?, किमेधोभिक्षुताशनः । सुखैषयिकैरात्मा, किं तथैष कदाचन ॥२९६॥ कूलच्छाया दुर्जनाच, विषं च विषयास्तथा । दन्दशूकाश्च जायन्ते, सेव्यमाना विपत्तये ॥ २९७ ॥ आसेव्यमानस्तत्कालसुखोऽन्तविरसः स्मरः । कण्डूय्यमाना पामेव, निकामं च प्रवर्द्धते ॥ २९८॥ कामोऽयं नरकदृतः, कामो व्यसनसागरः । कामो विपल्लताकन्दः, कामः पापद्रुसारणिः॥ २९९ ॥ मदनेन मदेनेव, जनः परवशीकृतः । सदाचारपथभ्रष्टः, पतत्येव भावटे ॥ ३० ॥ अर्थ धर्म च मोक्षं च, वेश्मेव गृहमेधिनः । आसादितप्रवेशोऽयं, खनत्यारिव स्मरः ॥ ३०१॥ दर्शनेन स्पर्शनेनोपभोगेन च निर्भरम् । व्यामोहायैव जायन्ते, विषवल्य इव स्त्रियः ॥ ३०२॥ निकाममेव कामिन्यः, कामलुब्धकवागुराः । हरिणानामिव नृणां, जायन्तेऽनर्थहेतवे ॥३०३ ॥ ये नर्मसुहृदः खादाचामैकसुहृदो हि ते । स्वामिनश्चिन्तयन्त्येते, परलोकहितं न यत् ॥ ३०४ ॥ स्त्रीकथाभिगीतनृत्तैर्नर्मोक्त्या मोहयन्त्यमी । पिङ्गाः स्वखामिनमहो!, नीचाः खार्थेकतत्पराः ॥३०५॥ कुसंसर्गात् कुलीनानां, भवेदभ्युदयः कुतः ? । कदली नन्दति कियद्?, बदरीतरुसन्निधौ ॥३०६॥ तत्प्रसीद कुलस्वामिन् !, स्वयं विज्ञोऽसि मा मुहः। विहाय व्यसनासक्तिं, मनो धर्मे निधीयताम् ॥३०७॥ निश्छायेन द्रुमेणेव, सरसेवाऽपवारिणा । निर्गन्धेनेव पुष्पेण, विदन्तेनेव दन्तिना ॥ ३०८ ॥ रूपेणेवाऽलवणिम्ना, राज्येनेवाऽपमत्रिणा । अदेवेनेव चैत्येन, रजन्येवेन्दुहीनया ॥३०९ ॥ , यमराजः । २ का?ः । ३ खसः । ४ भवकूपे । ५ मूषकः । ६ खानपानकमित्राणि । ७ विटाः । Jain Education Inter For Private & Personal use only . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ १२ ॥ Jain Education Internal यतिनेवाऽचरित्रेण, सैन्येनेवाऽपशस्त्रिणा । मुखेनेवाऽक्षिहीनेन, निर्धर्मेण नरेण किम् ? ॥ ३१० ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ।] चक्रवर्त्त्यप्यधर्मः सन्, जन्म तल्लभते पुनः । कदन्नमपि सम्प्राप्तं, साम्राज्यं यत्र मन्यते ॥ ३११ ॥ महाकुलप्रसूतोऽपि धर्मोपार्जनवर्जितः । भवेद् भवान्तरे वेव, परोच्छिष्टान्न भोजनः ॥ ३१२ ॥ धर्महीनो द्विजन्माऽपि नित्यं पापानुबन्धकः । बिडाल इव दुर्वृत्तो, म्लेच्छयोनिषु जायते ।। ३१३ ।। बिडाल - व्याल - शार्दूल- श्येन - गृधादियोनिषु । भवन्ति भूयिष्ठभवा, भविनो धर्मवर्जिताः ॥ ३१४ ॥ धर्महीनाः कृमयः स्युरसकृच्छकृदादिषु । कुक्कुटादेर्लभन्ते च चञ्चचरणताडनम् ॥ ३१५ ॥ जायन्ते धर्मरहिता, नरा नरकभूमिषु । वैरादिव कदर्थ्यन्ते, परमाधार्मिकासुरैः ॥ ३१६ ॥ अनन्तव्यसनावेगज्वलनान्तरवर्त्तिनः । त्रपुः पिण्डानिव हहा !, घिगधर्मान् शरीरिणः ।। ३१७ ॥ धर्मादामोति शर्माणि, परमादिव बान्धवात् । तरण्डेनेव तरति, धर्मेण विपदापगाः ।। ३१८ ॥ पुंसां शिरोमणीयन्ते धर्मार्जनपरा नराः । आश्रीयन्ते च सम्पद्भिर्लताभिरिव पादपाः ।। ३१९ ॥ आधि-व्याधि-विरोधादि, सर्व बाधानिबन्धनम् । विध्यायत्याशु धर्मेण, जलेनेव हुताशनः ॥ ३२० ॥ जन्मान्तरेऽप्यर्पणाय, सर्वकल्याणसम्पदाम् । प्रतिभूर्धर्म एवायमलङ्कमणविक्रमः ॥ ३२९ ॥ किमन्यदुच्यते स्वामिन्! ?, धर्मेणैव बलीयसा । सौधाग्रमिव निश्रेण्या, लोकाग्रं यान्ति जन्तवः || ३२२ ॥ विद्याधरनरेन्द्रत्वं धर्मेणैव त्वमासदः । अतोऽप्युत्कृष्टलाभाय, धर्ममेव समाश्रय ॥ ३२३ ॥ १ कुत्सितमन्नम् । * यत्र राज्याय मन्यते संता ॥ २ पौनःपुन्येन विष्ठादिषु । ३ सीसकपिण्डान् । ४ शाम्यति । ५ समर्थपराक्रमः । प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते चतुर्थो महा बलभवः । ।। १२ ।। . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____देर्शरात्रिरिवाऽत्यन्तमिथ्यात्वतिमिराकरः । ततो विषोपममतिः, सम्भिन्नमतिरत्रवीत् ॥ ३२४॥ साधु साधु खयम्बुद्ध, स्वामिनो हितकाम्यसि । यदाहार इवोद्गारैर्गिरा भावोऽनुमीयते ॥ ३२५॥ . ऋजोः सदा प्रसन्नस्य, स्वामिनः सुखहेतवे । वदन्त्येवं कुलामात्यास्त्वादृशा एव नाऽपरे ॥ ३२६ ॥ निसर्गकठिनः कस्त्वामुपाध्यायोऽध्यजीगपत ? । अकाण्डाशनिपाताभ, प्रभौ यदिदमब्रवीः ॥ ३२७ ॥ वयं भोगार्थिभिः स्वामी, सेव्यते सेवकैरिह । मा भुंक्थास्त्वं तु भोगानित्युच्यते स कथं नु तैः ॥३२॥ त्यक्त्वा यदैहिकान् भोगान् , परलोकाय यत्यते । हित्वा हस्तगतं लेयं, कूर्परालेहनं हि तत् ॥ ३२९ ॥ परलोकफलो धर्मः, कीर्यते तदसङ्गतम् । परलोकोऽपि नाऽस्त्येवाऽभावतः परलोकिनः ॥ ३३० ।। पृथ्व्यप्तेजःसमीरेभ्यः, समुद्भवति चेतना । गुडपिष्टोदकादिभ्यो, मदशक्तिरिव स्वयम् ॥ ३३१ ॥ शरीरान पृथक् कोऽपि, शरीरी हन्त ! विद्यते । परित्यज्य शरीरं यः, परलोकं गमिष्यति ॥ ३३२ ॥ निःशङ्कमुपभोक्तव्यं, ततो वैषयिकं सुखम् । स्वात्मा न वञ्चनीयोऽयं, स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता ॥ ३३३ ॥ धर्माधमौ च नाशङ्कयौ, विघ्नहेतू सुखेषु तत् । तावेव नैव विद्यते, यतः खैरविषाणवत् ॥ ३३४ ॥ स्नपनेनाङ्गरागेण, माल्यवस्त्रविभूषणैः । यदेकः पूज्यते ग्रावा, पुण्यं तेन व्यधायि किम् ? ॥३३५ ॥ अन्यस्य चोपरि ग्राव्ण, आसित्वा मृत्र्यते जनैः। क्रियते च पुरीषादि, पापं तेन व्यधायि किम् ? ॥३३६॥ उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते, कर्मणा यदि जन्तवः । उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते, बुहृदाः केन कर्मणा ? ॥३३७ ।। अमावास्यारात्रिः। रिवोत्पन्नमि' आ॥ २ अनवसरे बज्रपाततुल्यम्। ३ हस्तमध्यभागः "कोणी" इति लोके । गर्दभशूङ्गवत् । ५ पापाणः । त्रिषष्टि, ३ Jan Education International For Private & Personal use only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथम पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥१३॥ तदस्ति चेतनो यावत् , चेष्टयते तावदिच्छया । चेतनस्य विनष्टस्य, विद्यते न पुनर्भवः ॥ ३३८ ।। य एव म्रियते जन्तुः, स एवोत्पद्यते पुनः । इत्येतदपि वामात्रं, सर्वथाऽनुपपत्तितः॥ ३३९ ॥ शिरीषकल्पे तत्तल्पे, रूपलावण्यचारुभिः । रमणीभिः समं स्वामी, रमतामविशङ्कितम् ॥ ३४० ॥ भोज्यान्यमृतरूपाणि, पेयानि च यथारुचि । खाद्यन्तां स्वामिना खैरं, स वैरी यो निषेधति ॥ ३४१॥ कर्परागरुकस्तूरीचन्दनादिभिराँचितः । एकसौरभ्यनिष्पन्न, इव तिष्ठ दिवानिशम् ॥ ३४२ ॥ उद्यानयानजगतीचित्रशालादिशालि यत् । तत्तत् क्षितीश ! प्रेक्षस्ख, चक्षुःप्रीत्यै प्रतिक्षणम् ॥ ३४३ ॥ वेणुवीणामृदङ्गानुनादिभिर्गीतनिखनैः । दिवानिशं तव स्वामिन्नस्तु कर्णरसायनम् ॥ ३४४॥ यावजीवेत् सुखं जीवेत् , तावद् वैषयिकैः सुखैः । न ताम्येद् धर्मकार्याय, धर्माधर्मफलं व तत् ॥३४५॥ ___ स्वयम्बुद्धस्ततोऽवादीनास्तिकैः स्वपरारिभिः । अन्धैरन्धा इवाकृष्य, पात्यन्ते धिगधो जनाः ॥३४६॥ खसंवेदनवेद्योऽयमात्माऽस्ति सुखदुःखवित् । निषेधितुं बाधाभावाच्छक्यते न हि केनचित् ॥ ३४७॥ सुखितोऽहं दुःखितोऽहमिति कस्यापि जातुचित । जायते प्रत्ययो नैव, विनाऽऽत्मानमवाधितः ॥३४८॥ खशरीरे स्वसंवित्तेरेवमात्मनि साधिते । अस्त्येव परकीयेऽपि, शरीरे सोऽनुमानतः ॥३४९ ॥ निश्चीयते शरीरेऽस्ति, परकीयेऽपि चेतनः । सर्वत्र बुद्धिपूर्वायाः, क्रियाया उपलम्भतः॥३५॥ । य एव म्रियते जन्तुः, स एवोत्पद्यते पुनः । अस्त्येवं परलोकोऽपि, चेतनस्य न संशयः ॥ ३५१॥ १ असिद्धितः । २ शिरीषकुसुमतुल्ये । ३ शव्यायाम् । * भिरर्चितः सं १, आ॥ ४ सागन्भ्योत्पन्नः । ५ कर्णामृतम् । स्वानुभववेद्यः । ७ विश्वासः। ८ स्वानुभवात् । ९ प्राप्तः । पूर्वभवचरिते चतुर्थो महाबलभवः। ॥१३॥ For Private & Personal use only , Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्येकमेव चैतन्यं, जन्मतोऽन्यत्र जन्मनि । शैशवादिव तारुण्ये, तारुण्यादिव वाईके ॥३५२ ॥ विना हि पूर्वचैतन्यानुवृत्तिं जातमात्रकः । अशिक्षितः कथं बालो, मुखमर्पयति स्तने? ॥ ३५३ ॥ अचेतनेभ्यो भूतेभ्यश्चेतनो जायते कथम् । कारणस्याऽनुरूपं हि, कार्य जगति दृश्यते ॥ ३५४॥ प्रत्येकं युगपद् वा स्याद् , भूतेभ्यश्चेतनो ननु । आद्यः पक्षो यदि तदा, तावन्तश्चेतना न किम् ॥३५५॥ अथ द्वितीयः पक्षः स्यात्, तदा भिन्नखभावकैः । भृतैरेकस्वभावोऽयं, जन्यते चेतनः कथम् ॥३५६ ॥ रूपगन्धरसस्पर्शगुणा तावद् वसुन्धरा । प्रत्यक्षमेतदापोऽपि, रूपस्पर्शरसात्मिकाः ॥ ३५७ ॥ रूपस्पर्शगुणं तेज, एकस्पर्शगुणो मरुत् । अमीषामेवमावालं, व्यक्ता भिन्नस्वभावता ॥ ३५८॥ तोयादिभ्यो विसदृशां, मुक्तानां जन्मदर्शनात् । भूतेभ्योऽचेतनेभ्योऽपि, चेतनः सम्भवीति चेत् ॥३५९॥ तन्न युक्तं यतस्तोयं, मौक्तिकादिषु दृश्यते । एक पौद्गलिक रूपं, वैसदृश्यं ततः कथम् ॥ ३६०॥ किश्च पिष्टोदकादिभ्यो, मदशक्तिरचेतना । अचेतनेभ्यो जातेति, दृष्टान्तश्चेतने कथम् ॥ ३६१ ॥ न च देहात्मनोरैक्यमिति वाच्यं कदाचन । यद्देहे तदवस्थेऽपि, चेतनो नोपलभ्यते ॥ ३६२ ।। यच्चैकः पूज्यते ग्रावा, मूत्राद्यैर्लिप्यतेऽपरः । तदसत् सुखदुःखादि, कुतस्त्यमपचेतने? ॥ ३६३ ॥ ततो देहाद् विभिन्नोऽयमात्माऽस्ति परलोकवान् । विद्यते परलोकोऽपि, धर्माधर्मनिबन्धनम् ॥ ३६४ ॥ अङ्गनालिङ्गनादग्नितापादिव समन्ततः । विलीयते मनुष्याणां, विवेको नवनीतवत् ॥ ३६५ ॥ निरर्गलं बहुरसांस्तांस्तानाहारपुद्गलान् । भुञ्जानो नैव जानाति, मत्तः पशुरिवोचितम् ॥३६६ ॥ चन्दनागरु कस्तूरी-घनसारादिगन्धतः । आक्रामति नरं सद्यो, दन्दशूक इव स्मरः ।। ३६७॥ Jain Education Internatie For Private & Personal use only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथम पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥१४॥ पुमान् रामादिरूपेषु, विलग्नेनेह चक्षुषा । वृतिलग्नोपसंव्यानाञ्चलेनेव स्खलत्यहो ! ॥ ३६८ ॥ मुहूर्तसुखदानेन, मोहयन्ती मुहुर्मुहुः । धृतमैत्रीव सङ्गीतिः, कुशलाय न सर्वथा ॥३६९ ॥ तत्पीपस्सैकसुहृदो, धमस्सैकविरोधिनः । नरकस्याकृष्टिपाशान् , विषयान् मुञ्च दूरतः ॥ ३७॥ यत् प्रेष्य एको भवति, स्वामी भवति चाऽपरः । एकः प्रार्थयते भिक्षामपरश्च प्रयच्छति ॥ ३७१ ॥ वाहनं च भवत्येकस्तमन्यश्चाधिरोहति । अभयं याचते चैको, द्वितीयस्तु ददाति तत् ॥ ३७२ ॥ इत्यादि सम्यगेवेह, धर्माधर्मफलं महत् । पश्यन्नपि न मन्येत, यस्तसै स्वस्ति धीमते ! ॥ ३७३ ॥ तसद्वागिवाऽधर्मो, हेयो दुःखनिबन्धनम् । स्वामिन् ! सद्वागिवादेयो, धर्मः शमैंककारणम् ॥ ३७४ ॥ __ऊचे ततः शतमतिर्मात्मा कश्चिदिहाऽपरः । पदार्थविषयज्ञानात् , प्रतिक्षणविभङ्गुरात् ॥ ३७५ ॥ यद्वस्तुषु स्थिरत्वे धीर्वासना तत्र कारणम् । पूर्वापरक्षणानां तदेकत्वं वास्तवं न तु ॥ ३७६ ॥ अथोवाच स्वयम्बुद्धो, वस्तु नास्ति निरन्वयम् । अम्भस्तृणादि हि गवां, हन्त ! दुग्धाय कल्पते ॥३७७॥ आकाशपुष्पवत् कूर्मरोमवच्च निरन्वयम् । नैव वस्तु भवत्यत्र, तद् वृथा क्षणभङ्गधीः ॥ ३७८ ॥ वस्तु चेत् क्षणविध्वंसि, सन्तानः क्षणिको न किम् । सन्तानस्य च नित्यत्वे, समस्तं क्षणिकं कुतः१॥३७९॥ सर्वभावेष्वनित्यत्वे, निहितप्रतिमार्गणम् । स्मरणं प्रत्यभिज्ञा च, कथं नामोपपद्यते ? ॥३८॥ जन्मानन्तरनाशित्वे, द्वितीयक्षणसम्भवी । पित्रोन पुत्रः पितरौ, न पुत्रस्येत्यसङ्गतिः ॥३८१॥ * तत्पाकस्यै सं॥ f अयं श्लोकः सं १ पुस्तके न दृश्यते ॥ असज्जनोक्तिवत् पापो, हेयो सं १॥ निःसन्तानम् । २ न्यासीकृतस्य प्रतियाचनम् । पूर्वभवचरिते चतुर्थो महाबलभवः। ॥१४॥ Jan Education Inter Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाहसमयावं, जम्पत्योः क्षणनाशिनोः। न जायायाः पतिः पत्युन जायेत्यसमञ्जसम् ॥ ३८२॥ इह कृत्वाऽशुभं कर्म, स नाऽमुत्राऽश्नुते फलम् । भुङ्क्तेऽन्यः किन्तु तदिति, कृतनाशाऽकृतागमौ ॥३८३॥ __ तुर्योऽप्युवाच मायाऽसौ, तत्त्वतो नास्ति किञ्चन । दृश्यमानमपि स्वम-मृगतृष्णादिसन्निभम् ॥३८४ ॥ गुरुः शिष्यः पिता पुत्रो, धर्मोऽधर्मो निजः परः । इत्यादि दृश्यते यत् स, व्यवहारो न तात्त्विकम् ॥३८५।। विहाय जम्बुको मांसं, तीरे मीनाय धावितः । मीनोऽथ प्राविशत् तोये, मांसं गृध्रोहरद् यथा ॥३८६॥ तथैहिकसुखं हित्वा, परलोकाय धाविताः । आत्मानमुभयभ्रष्टा, वश्च यन्ते हि ते नराः ॥३८७॥ पाखण्डिनामलीकाज्ञां, श्रुत्वा नरकभीरवः । दण्डयन्ति निजं देहमहो! मोहाद् व्रतादिना ॥ ३८८ ॥ यथा मापातशङ्येकाशिणा नृत्यति लावकः । तथाभिशङ्कय नरकपातं जन्तुस्तपस्यति ॥ ३८९ ॥ ___ खयम्बुद्धोऽब्रवीद् वस्तु,न सच्चेदर्थकृत् कथम् । माया चेदीदृशी तर्हि, स्वमेभः किं न कार्यकृत् ।।३९०॥ कार्यकारणभावं चेद्, वस्तूनां पारमार्थिकम् । न मन्यसे तदा किं त्वं, विभेषि पततोऽशनेः ? ॥ ३९१ ॥ एवं सति न त्वं नाऽहं, न वाच्यं न च वाचकः । तदेष्टप्रतिपत्तिः स्याद्, व्यवहारकरी कथम् ॥३९२॥ ___ वितण्डापण्डितैरेभिः, स्वयं विषयगृभुभिः । देव ! प्रतार्यसे नित्यं, शुभोर्दकपराङ्मुखैः ॥ ३९३ ॥ ततो विवेकमालम्ब्य, विषयांस्त्यज दूरतः । धर्ममेवाश्रय स्वामिन्नत्राऽमुत्र च शर्मणे ॥ ३९४ ॥ __अथ राजाऽब्रवीदेवं, प्रसादसुभगाननः । खयम्बुद्ध ! महाबुद्धे !, साधु साधूक्तवानदः ॥ ३९५ ॥ युक्तं धर्म उपादेयो, न धर्मद्वेषिणो वयम् । उपादीयेत कालेऽसौ, मत्रास्त्रमिव सङ्गरे ॥ ३९६ ॥ , असत्याज्ञाम् । २ पक्षिविशेषः । ३ विषयलोलुपैः । ४ शुभोत्तरकालविमुखैः। * वार्जय स्वा सं १ ॥ ५ युद्धे । For Private & Personal use only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि 4959 प्रथमं पर्व प्रथमः शलाकापुरुषचरिते ॥१५॥ सर्गः ऋषभचरितम् । MUSAMASSASSAMSMSMSMSALAMS चिरादभ्यागतं मित्रमिव को नाम यौवनम् । उपेक्षेत तदुचिता, प्रतिपत्तिमकल्पयन् ? ॥ ३९७ ।। धर्मोपदेशस्तदयं, त्वयाऽनवसरे कृतः । वीणायां वाद्यमानायां, वेदोद्गारो न राजते ॥ ३९८॥ परलोको हि धर्मस्य, फलं सन्दिग्धमेव तत् । तदैहिकसुखास्वादमकाण्डे किं निषेधसि ? ॥ ३९९ ॥ अथ विज्ञपयामास, स्वयम्बुद्धः कृताञ्जलिः । आवश्यके धर्मफले, मा शतिष्ठाः कदाचन ॥४०॥ किं न सरसि बालत्वे, यदावां नन्दने वने । अपश्याव गतावेकं, कान्तिरूपधरं सुरम् ॥४०१॥ सप्रसादो जगादेवं, स देवस्त्वां तदा नृप । अहं ह्यतिबलो नाम, भवतोऽस्मि पितामहः॥४०२॥ क्रूरमित्रादिवोद्विग्नोऽमुष्माद् वैषयिकात् सुखात् । राज्यं तृणमिव त्यक्त्वा, त्रिरत्नीमहमाश्रयम् ॥ ४०३॥ व्रतप्रासादकलसः, संन्यासोऽन्तक्षणे मया । गृहीतस्तत्प्रभावेण, जातोऽहं लान्तकाधिपः ॥ ४०४॥ प्रमंदरेण न स्थेयं, तत् त्वयाऽपीत्युदीर्य च । विद्योतितवियद्विद्युदिव सोऽथ तिरोदधे ॥ ४०५॥ मन्यस्व परलोकं तद्, वचः पैतामहं स्मरन् । प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणे किं, प्रमाणान्तरकल्पना? ॥ ४०६ ॥ राजाऽप्यूचे सारितोऽस्मि, साधु पैतामहं वचः । परलोकमहं मन्ये, धर्माधर्मनिबन्धनम् ॥ ४०७ ॥ मिथ्यादृग्वाक्पांशुपुञ्जजलदः सोऽथ मत्रिराद् । लब्धावकाशः सानन्दमिति वक्तुं प्रचक्रमे ॥ ४०८॥ तब वंशेऽभवत् पूर्व, कुरुचन्द्रो नरेश्वरः । जाया कुरुमती तस्य, हरिचन्द्रश्च नन्दनः ॥४०९॥ नृपतिः स तु कौलोऽभून्महारम्भपरिग्रहः । धुर्योऽनार्येषु कार्येषु, निर्दयश्च कृतान्तवत् ॥ ४१० ॥ दुराचारोऽपि रौद्रोऽपि, स राज्यं बुभुजे चिरम् । पूर्वोपार्जितपुण्यानां, फलमप्रतिघं खलु ॥ ४११॥ १ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाम् । २ प्रमादिना । ३ प्रकाशिताकाशः। * हरिश्चन्द्र सं १,२॥ शाक्तः । प्रतिम ख खं,सं २ ॥ पूर्वभवचरिते चतुर्थो महा. बलभवः। Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्यावसानसमये, जज्ञे धातुविपर्ययः । आसन्ननरकक्लेशवणिकामात्रसन्निभः ॥४१२॥ आसीत् कण्टकशय्येव, तूलशय्याऽस्य दुःखदा । निम्बवद् विरसान्यासन् , भोज्यानि सुरसान्यपि ॥४१३॥ चन्दनागरुकर्पूरकस्तूर्यः पूर्तयोऽभवन् । शत्रुवत् पुत्रमित्राद्या, दृशोरुद्वेगहेतवः ॥ ४१४ ॥ कर्णक्लेशाय गीतानि, बभूवुः क्रोष्टुनादवत् । पुण्यच्छेदेऽथवा सर्व, प्रयाति विपरीतताम् ॥ ४१५ ॥ सुखेतरैस्तं विषयोपचारै रतिदैः क्षणम् । कुरुमतीहरिचन्द्रौ, प्रच्छन्नं प्रत्यजागृताम् ॥ ४१६ ॥ चुम्ब्यमान इवाङ्गारैः, प्रत्यङ्गं दाहविह्वलः । रौद्रध्यानपरः प्रापदवसानं स भूपतिः ॥ ४१७ ॥ तस्योर्ध्वदेहिकं कृत्वा, हरिचन्द्रस्तदात्मजः । अशिषद् विधिवद् राज्यं, सदाचारपंथाध्वगः ॥ ४१८॥ सोत्रापि दृष्ट्वाऽयफलं, दृष्ट्वा तन्मरणं पितुः । धर्ममेव पुमर्थेषु, तुष्टावार्क ग्रहेष्विव ॥ ४१९ ॥ सुबुद्धिं बालसुहृदं, श्रावकं सोऽन्यदाऽऽदिशत् । धर्मविद्भ्योऽन्वहं धर्मः, श्रुत्वा शंस्यस्त्वया मम ॥४२०॥ सुबुद्धिर्विदधे नित्यं, तत्तथाऽत्यन्ततत्परः । अनुकूलनिदेशो हि, सतामुत्साहकारणम् ॥ ४२१॥ प्रत्यहं हरिचन्द्रोऽपि, धर्म तत्कथितं भृशम् । श्रद्दधे पापभीतः सन् , रोगभीत इवौषधम् ॥ ४२२ ॥ अन्यदा बहिरुद्याने, शीलन्धरमहामुनेः । उत्पन्ने केवलज्ञानेऽभीयुर्देवास्तमार्चतुम् ॥ ४२३ ॥ सुबुद्धिनैवं कथिते, श्रद्धोल्लिखितमानसः, । स राजा तुरगारूढस्तं मुनीन्द्रमुपाययौ ॥ ४२४ ॥ नमस्कृत्योपविष्टे च, तस्मिन् राज्ञि महामुनिः । विदधे कुमतध्वान्तकौमुदी धर्मदेशनाम् ॥ ४२५॥, 1 दुर्गन्धमय्यः । * °रिश्चन्द्रौ सं १, २ ॥ + 'रिश्चन्द्र सं १, २ ॥ पथानुगः सं २ ॥ इरिश्चन्द्रों से १, २ ॥ २ कुमतान्धकारचन्द्रिकाम् । Jain Education Internal . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथम पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् DAMACARDAMUSEUMS* देशनान्ते स भूपालस्तं पप्रच्छ कृताञ्जलिः । स्वामिन् ! मम पिता मृत्वा, कां गतिं प्रत्यपद्यत ? ॥४२६॥ उवाच सोऽथ भगवान् , महाराज ! पिता तव । सप्तमं नरकं प्राप, स्थानं नान्यत्र तादृशाम् ॥ ४२७ ॥ तदाकर्ण्य समुद्भूतसंवेगः स महीपतिः । वन्दित्वा मुनिमुत्थाय, ययौ निजनिकेतने ॥ ४२८॥ . राज्यं सूनोः सोऽपयित्वा, सुबुद्धिमिदमभ्यधात् । प्रव्रजिष्याम्यहं धर्म, मयीवासिन् सदा दिशेः॥४२९॥ सोऽप्यूचे प्रव्रजिष्यामि, भवन्तमनु भूपते ! । त्वत्सुते मत्सुतो धर्म, वक्ष्यत्यहमिव त्वयि ॥ ४३०॥ कर्माद्रिभेदकुलिशं, व्रतं तौ राजमत्रिणौ । आददाते सुचिरं च, पालयित्वेयतुः शिवम् ॥ ४३१ ॥ - युष्मद्वंशेऽपरश्चासीद् , दण्डको नाम पार्थिवः । प्रचण्डशासनो दण्डधरः साक्षादिवारिषु ॥ ४३२॥ बभूव तनयस्तस्य, मणिमालीति विश्रुतः । अंशुमालीव तेजोभिरभिव्याप्तदिगन्तरः ॥ ४३३ ॥ पुत्रमित्रकलत्रेषु, रत्नस्वर्णधनेषु च । प्राणेभ्योऽप्यत्यभीष्टेषु, मूच्र्छावान् दण्डकोऽभवत् ॥ ४३४ ॥ आर्तध्यानपरः कालाद् , दण्डकः पाप पञ्चताम् । भाण्डागारे निजे सोऽजगरोज्जायत दुर्गरः ॥ ४३५ ॥ तत्रागारे प्रविवेश, यो यस्तं तं स जनसे । दारुणात्मा सर्वभक्षी, हुताशन इवोद्यतः॥४३६॥ अन्यदा ददृशे तेन, मणिमाली गृहं विशन् । प्राग्जन्मस्मरणाचात्मसूनुरित्युपलक्षितः॥४३७॥ प्रशान्तां दर्शयन्मूर्ति, सस्नेहो मूर्तिमानिव । प्राग्जन्मबन्धुनः कोऽपीत्यज्ञायि मणिमालिना ॥ ४३८ ॥ मुनीनां ज्ञानिनां पार्थाज्ज्ञात्वा तं पितरं निजम् । उपविश्य पुरस्तस्य, जैन धर्म शशंस सः॥ ४३९ ॥ सोऽवबुध्याहतं धर्म, संन्यासं प्रत्यपद्यत । शुभध्यानपरो मृत्वा, देवभूयमियाय च ॥४४०॥ १ सम्प्राप्तवैराग्यः । २ कर्मरूपपर्वतबिदारणे वज्रम् । ३ त्यागम् । ४ देवत्वम् । | पूर्वभवचरिते चतुर्थो महा ॥१६॥ Jan Education Inter For Private & Personal use only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्रप्रेम्णा दिवोऽभ्येत्य, सहारं मणिमालिने । दिव्यमुक्तामयमदात् सोऽयमद्यापि ते हृदि ॥ ४४१ ॥ हरिचन्द्रान्वयेऽभूस्त्वं, सुबुद्धेरन्वये त्वहम् । क्रमागताप्तभावेन, ततो धर्मे प्रवर्त्यसे ॥ ४४२ ॥ यद्विज्ञतमकाण्डे तु श्रूयतां तत्र कारणम् । यदद्य नन्दनेऽद्राक्षं, चारणश्रमणावहम् ॥ ४४३ ॥ जगत्प्रकाशजनकौ, महामोहतमच्छिदौ । एकत्र मिलितौ साक्षात् सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ४४४ ॥ कुर्वन्तौ देशनां तत्र, ज्ञानातिशयशालिनौ । तौ मया समये पृष्टौ प्रमाणं भवदायुषः ॥ ४४५ ॥ ताभ्यां तु भवतो मासमात्रमायुर्निवेदितम् । अतस्त्वां त्वरयाम्यद्य, धर्मायैव महामते । ॥ ४४६ ।। महावलोsथाऽभिदधे, स्वयम्बुद्ध ! धियांनिधे ! । त्वमेवैकोऽसि मे बन्धुर्यन्मत्कार्याय ताम्यसि ॥४४७॥ आक्रम्यमाणं विषयैर्निद्रालुं मोहनिद्रया । मामजागरयः साधु, शीधि किं साधयाम्यतः ? ॥ ४४८ ॥ आयुष्यल्पेऽधुना धर्मः, साधनीयः कियान् मया ? । कीदृशं कूपखननं, सद्यो लग्ने प्रदीपैने ॥ ४४९ ॥ स्वयम्बुद्धोऽयुवाचैवं, मा विपीद दृढीभव । परलोकैकसुहृदं, यतिधर्म समाश्रय ॥ ४५० ॥ अप्येकं दिवसं जीवः, परिव्रज्यामुपेयिवान् । अपवर्गमपि प्राप्नोत्येव स्वर्गस्य का कथा ? ।। ४५१ ।। आमेत्युदित्वा स्वसुतं स्वे पदे प्रत्यतिष्ठित् । महाबलस्तदाचार्यः, प्रासादे प्रतिमामिव ।। ४५२ ।। दीनानाथजनेभ्योऽथ, दयादानमदत्त सः । तथा यथा न कोऽप्यासीद्, याज्जादीनो जनः पुनः || ४५३ || विचित्रवस्त्रमाणिक्यसुवर्णकुसुमादिभिः । स चक्रेऽष्टाहिकां सर्वचैत्येष्विन्द्र इवाऽपरः ।। ४५४ ।। ततश्च क्षमयित्वा स्वजनं परिजनं तथा । दीक्षां मुनीन्द्रपादान्तेऽग्रहीन्मोक्षश्रियः सखीम् ।। ४५५ ।। १ शिक्षय २ अनौ । दाभिज्ञः सं १ ॥ चक्रे सर्वचैत्येषु, पूजां शक्र इवापरः आ ॥ . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१७॥ प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् । SSASSAMSALAMAUSAMAUSAMASALAM सर्वसावंद्ययोगानां, विरत्या सममेव सः । चक्रे चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं महामनाः॥४५६॥ असौ समाधिपीयूषड्दमन्नो निरन्तरम् । अम्भोजिनीखण्ड इव, न हि मम्लौ मनागपि ॥ ४५७ ॥ भुञ्जान इव भोज्यानि, पेयान्यपि पिबन्निव । सोऽक्षीणकान्तिरभवन्महासत्त्वशिरोमणिः ॥ ४५८॥ समाहितः स्मरन् पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । द्वाविंशतिदिनान् कृत्वाऽनशनं स व्यपद्यत ॥ ४५९ ॥ ___ स स्वयं सम्भृतैः पुण्यैर्दिव्यैरिव तुरङ्गमैः । ऐशानकल्पं तत्कालमाससाद दुरासदम् ।। ४६० ॥ विमाने श्रीप्रभेऽथोपपादे शयनसम्पुटे । विद्युत्पुञ्ज इवाऽम्भोदगर्भे समुदपादि सः॥ ४६१ ॥ दिव्याकृतिः सुसंस्थानः, सप्तधातूज्झिताङ्गकः । शिरीषसुकुमाराङ्गः, कान्तिक्रान्तदिगन्तरः ॥ ४६२ ॥ वज्रकायो महोत्साहः, पुण्यलक्षणलक्षितः । कामरूपोऽवधिज्ञानी, सर्वविज्ञानपारगः ॥ ४६३ ॥ अणिमादिगुणोपेतो, निर्दोषोऽचिन्त्यवैभवः । ललिताङ्ग इति ख्यातः, स यथार्थाभिधोऽभवत् ॥४६४॥ पादयो रत्नकटके, कटिसूत्रं कटीतटे । हस्तयोः कङ्कणद्वन्द्वं, भुजयोरङ्गदद्वयम् ॥ ४६५॥ वक्षःस्थले हारयष्टिः, कण्ठे ग्रैवेयकं तथा । कुण्डले कर्णलतयोः, सकिरीटौ च मूर्धनि ॥४६६ ॥ इत्यादिभूषणग्रामो, दिव्यानि वसनानि च । सर्वाङ्गभूषणं तस्य, यौवनं च सहाऽभवत् ॥ ४६७ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ]H ननाद नादयन्नाशाः, प्रतिनादेन दुन्दुभिः । पेठुर्जय जगन्नन्देत्यादि मङ्गलपाठकाः॥४६८ ॥ १ सर्वसदोषयोगानाम् । * आत्माराममनाः प्राप, मासान्ते सोऽथ पञ्चताम् आ ॥ २ ग्रीवाभरणम् । पूर्वभवचरिते | पञ्चमो ललिताङ्गदेवभवः। For Private & Personal use only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern गीतवादित्रनिर्घोषबन्दिकोलाहलाकुलम् । तद्विमानं जगर्जेव, नाथागेमभुवा मुदा ॥ ४६९ ॥ सोऽथ सुप्तोत्थितइव, पश्यन्नेवं व्यतर्कयत् । किमिन्द्रजालं ? किं खमः ?, किं माया ? किमिवेदृशम् १ ||४७० ॥ किमेतद् गीतनृत्तादि, मामुद्दिश्य प्रवर्तते । अयं लोको विनीतः किं मह्यं नाथाय तिष्ठते १ ।। ४७१ ।। इदं श्रीमदिदं रम्यमिदं सेव्यमिदं प्रियम् । इदमानन्दसदनं, सदः किमिदमासदम् १ ॥ ४७२ ॥ स्फूर्जद्वितर्कसम्पर्क, तमकैर्कशया गिरा । इति विज्ञपयामास, प्रतीहारः कृताञ्जलिः ॥ ४७३ ॥ अद्य नाथ ! वयं धन्याः, सनाथाः स्वामिना त्वया । कुरु प्रसादं नम्रेषु, पीयूषसदृशा दृशा ।। ४७४ ॥ स्वामिन्नैशानकल्पोऽयं, यथासङ्कल्पितप्रदः । अनल्पानश्वरश्रीकः, सदा सुखनिकेतनम् ॥ ४७५ ॥ अमुष्मन् देवलोके च त्वया पुण्यैरुपार्जितम् । विमानं श्रीप्रभमिदं साध्वलङ्कुरुषेऽधुना ॥ ४७६ ।। त्वत्सभामण्डनममी, तब सामानिकाः सुराः । एकोऽप्यनेक इव यैर्विमानेऽस्मिंस्त्वमीक्ष्यसे ॥ ४७७ ॥ त्रिशा अमी स्वामिन् !, पुंरोधोमश्रितास्पदम् । त्वदादेशमपेक्षन्ते, यथासमयमादिशेः ॥ ४७८ ॥ पारिषद्याः सुराश्चैते, नर्मसाचिव्यकारिणः । लीलाविलासगोष्ठीषु, रमयिष्यन्ति ते मनः ॥ ४७९ ॥ सदा संवैर्मितास्तीक्ष्णपत्रिंशच्छस्त्रधारिणः । स्वामिरक्षामहादक्षा श्रात्मरक्षा अमी तव ॥ ४८० ॥ लोकपाला अमी च त्वत्पुररक्षाधिकारिणः । अनीकपतयश्चैते, त्वदनीकधुरन्धराः ॥ ४८१ ॥ पौरजानपदप्रायाः, प्रकीर्णकसुरा इमे । देव ! त्वदाज्ञानिर्माल्यं, धारयिष्यन्ति मूर्धनि ॥ ४८२ ॥ दास्ययोग्याचाभियोग्याः, सेवन्ते त्वामितस्त्वमी । सुराः किल्विषिकाञ्चैते, म्लेच्छकर्मकृतस्तव ॥ ४८३ ॥ १ स्वामिसमागमजनितया । २ स्फुरद्विकल्पसम्पर्कम् । ३ कोमलया । ४ पुरोहितमन्त्रित्वस्थानम् । ५ कवचिनः । . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥ १८ ॥ Jain Education Intern तवै रम्यरमणीरमणीयतराङ्गणाः । मनःप्रसादजननाः, प्रासादा रत्ननिर्मिताः ॥ ४८४ ॥ अमूर्वाप्यो रत्नमय्यः, सौवर्णकमलाकराः । तवांक्रीडनगाचैते, रत्नकाञ्चनसानवः || ४८५ ॥ एताः स्वच्छजलाः क्रीडानद्यः सद्यः प्रमोददाः । क्रीडोद्यानानि चैतानि नित्यपुष्पफलानि ते ॥ ४८६ ॥ सदः सदनमेतत् ते, स्वर्णमाणिक्यनिर्मितम् । आदित्यमण्डलमिव द्युतिद्योतितदिङ्मुखम् ॥ ४८७ ॥ एताश्च चामरादर्शतालवृन्ताकपाणयः । सर्ववारं वारनार्यस्त्वत्सेवैकमहोत्सवाः ॥ ४८८ ॥ अयं चतुर्विधातोद्यचतुरः पुरतस्तव । गन्धर्ववर्गः सङ्गीतकृते सजोऽवतिष्ठते ।। ४८९ ॥ दत्तोपयोगस्तत्कालमवधिज्ञानतस्ततः । स दिनं ह्यस्तनमिव, पूर्वजन्मैवमस्मरत् ॥ ४९० ॥ विद्याधरपतिः सोsहं, स्वयम्बुद्धेन मत्रिणा । धर्ममित्रेण जैनेन्द्र, धर्ममस्मि विबोधितः ॥ ४९१ ॥ प्रव्रज्यां प्रतिपन्नोऽहं तदैवाऽनशनं व्यधाम् । आसदं तत्फलमिदमहो ! धर्मस्य वैभवम् ॥ ४९२ ॥ इति स्मृत्वा समुत्थाय, दत्तबाहु: स वेत्रिणा । सिंहासनमलञ्चक्रे, स्फूर्जजयजयध्वनिः ।। ४९३ ॥ ततोऽभिषिषिचे देवैरवीज्यत च चामरैः । अगीयत च गन्धर्वैः, कलैमङ्गलगीतिभिः ॥ ४९४ ॥ समुत्थाय ततोऽप्येष भक्तिभावितमानसः । गत्वा चैत्येऽर्हत्प्रतिमाः, पूजयामास शाश्वतीः ॥ ४९५ ।। देवैर्ग्रामत्रयोद्गारमधुरे गीतमङ्गले । क्रियमाणे जिनाधीशं, सोऽस्तावीद् विविधैः स्तवैः ॥ ४९६ ॥ ततोऽसौ वाचयामास, पुस्तकान् ज्ञानदीपकान् । आनर्च माणवस्तम्भस्थितान्यस्थीनि चाऽर्हताम् ॥ ४९७ ॥ अथ दिव्यातपत्रेण, पार्वर्णेन्दुसनाभिना । भ्राजिष्णुर्धार्यमाणेन, स लीलासदनं ययौ ॥ ४९८ ॥ १ क्रीडापर्वताः । २ सभागृहम् । ३ व्यजनम् । ४ वेश्या: । ५ मधुरमङ्गलगीतैः । ६ पूर्णिमाचन्द्रतुल्येन । प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते पञ्चमो ललिताङ्गदेवभवः । ।। १८ ।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नितान्तसुकुमारामिपाणिनेत्राननच्छलात् । लावण्यसिन्धुमध्यस्थारविन्दवनिकामिव ॥ ४९९॥ आनुपूर्येण पृथुलो, वृत्तावूरू च बिभ्रती । न्यासीकृताविव निजी, तूणीरी पुष्पधन्वना ॥ ५०० ॥ राजमानां नितम्बेन, विपुलेनाऽच्छवाससा । कलहंसकुलालीढपुलिनेनेव निम्नगाम् ॥ ५०१॥ राजन्तीमुदरेणाऽतिक्षामेण पंविमध्यवत् । पीनोन्नतकुचद्वन्द्वभारप्रोद्वहनादिव ॥ ५०२ ॥ भान्ती रेखात्रयाङ्कण, कण्ठेन कलनादिना । कम्बुनेव स्मरनृपस्योच्चैर्विजयशंसिना ॥ ५०३ ॥ अधरीकृतविम्वाभ्यामधराभ्यां चकासतीम् । नासया नेत्रनलिननाललीलाजुषाऽपि च ॥ ५०४ ।। अद्धीकृतपार्वणेन्दुलक्ष्मीसर्वस्वहारिणा । हारिणा चित्तहरणी, स्निग्धगण्डालिकेन च ॥ ५०५॥ कर्णी रतिपतेः क्रीडादोलालीलामलिम्लुचौ । भ्रयुगं च सरधनुर्यष्टिश्रीहारि बिभ्रतीम् ॥ ५०६ ॥ शोभमानां कबया च, स्निग्धकालकान्तया । वदनाम्भोरुहस्याऽनुसारिण्येवालिमालया ॥ ५०७॥ सर्वाङ्गीणं च विन्यस्तरत्नाभरणसम्पदा । जङ्गमीभावभावल्पलताविभ्रमहारिणीम् ॥ ५०८॥ मनोज्ञमुखपद्माभिरप्सरोभिः सहस्रशः । परितः परिकरितां, सरिद्भिरिख जाह्नवीम् ॥ ५०९॥ देवीं स्वयम्प्रभां नाम , प्रभाभग्नाचिरप्रभाम् । प्रभूतप्रमदस्तत्र, ददर्श श्रीप्रभप्रभुः ॥५१०॥ [द्वादशभिः कुलकम् ] कृताभ्युत्थानया दूरात् , स्नेहातिशययुक्तया । तया सहकपर्यङ्के, निषसादाऽमराग्रणीः॥५११॥ एकत्र च निषण्णौ तौ, चकासामासतुर्भृशम् । एकालवालमध्यस्थौ, लताविटपिनाविव ॥ ५१२ ।। १ इषुधी । २ वज्रमध्यवत् । ३ मनोहरेण । ४ केशपाशेन । ५ सर्वाङ्गेषु । ६ विद्युतम् । COCOCCRACCIDCOM निषष्टि. ४१ For Private & Personal use only दर . Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ १९ ॥ Jain Education Internatio परस्परमभूच्चेतस्तयोर्लीनं निरन्तरम् । निगडेनेव रागेण, निविडेन नियन्त्रितम् ॥ ५१३ ॥ रममाणस्तया सार्द्धमच्छिन्नप्रेमसौरभः । गमयामास भूयांसं, कालमेकां कलामिव ॥ ५१४ ॥ दलं वृक्षादिव दिवस्ततो ऽच्योष्ट स्वयम्प्रभा । आयुःकर्मणि हि क्षीणे, नेन्द्रोऽपि स्थातुमीश्वरः ||५१५ || आक्रान्तः पर्वतेनेव, कुलिशेनेव ताडितः । प्रियाच्यवनदुःखेन, ललिताङ्गोऽथ मूच्छितः ॥ ५१६ ॥ लब्धसंज्ञः क्षणेनाऽथ, विललाप मुहुर्मुहुः । विमानं श्रीप्रभमपि, प्रतिशब्दैर्विलापयन् ॥ ५१७ ॥ प्राप नोपवने प्रीतिं न वाप्यामपि निर्ववौ । क्रीडाशैलेऽपि न स्वस्थान्नानन्दन्नन्दनेऽपि सः ॥ ५९८ ॥ हा प्रिये ! हा प्रिये ! काऽसि, क्वाऽसीति विलपन्नसौ । स्वयम्प्रभामयं विश्वं पश्यन् बभ्राम सर्वतः ॥५१९ ॥ इतश्च स्वामिमरणोत्पन्नवैराग्यवासनः । स्वयम्बुद्धोऽप्यात्तदीक्षः, श्रीसिद्धाचार्यसन्निधौ ॥ ५२० ।। सुचिरं निरतीचारं, पालयित्वा व्रतं सुधीः । ऐशाने दृढधर्माख्य, इन्द्रसामानिको ऽभवत् ॥ ५२१ ॥ [ सन्दानितकम् ] स पूर्वभवसम्बन्धाद्, बन्धुवत् प्रेमबन्धुरः । आश्वासयितुमित्यूचे, ललिताङ्गमुदारधीः ॥ ५२२ ॥ किं मुह्यसि महासत्व !, महिलामात्रहेतवे ? । धीराः प्राणावसानेऽपि न हि यान्तीदृशीं दशाम् ।। ५२३ ॥ ललिताङ्गोऽप्युवाचेति, बन्धो ! किमिदमुच्यते ? । प्राणान्तः सुसहः कान्ताविरहस्तु सुदुःसहः || ५२४ | | | एकैव ननु संसारे, सारं सारङ्गलोचना । यां विना नूनमीदृश्योऽप्यसाराः सर्वसम्पदः ॥ ५२५ ॥ तदुःखदुःखितः सोऽपीशानसामानिकः सुरः । दत्त्वोपयोगमवधिज्ञानाज्ज्ञात्वाऽब्रवीदिति ॥ ५२६ ॥ १ शृङ्खलया । २ शान्ति जगाम । * स्वस्थो, नानन्दनन्द सं १, २ ॥ प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते पञ्चमो ललिताङ्गदेवभवः । ॥ १९ ॥ . Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा विषीद महाभाग !, भव स्वस्थोऽधुना ननु । मया मृगयमाणेन, प्राप्ताऽस्ति भवतः प्रिया ॥ ५२७ ॥ पृथिव्यां धातकीखण्डे, प्राग्विदेहेषु विद्यते । नन्दिग्रामे गृहपतिर्नागिलो नाम दुर्गतः॥५२८॥ पूरणायोदरस्याऽपि, भ्रमन् प्रेत इवाऽन्वहम् । क्षुधितस्तृषितः शेते, चोत्तिष्ठति च तादृशः ॥ ५२९ ॥ दारिद्यस्य बुभुक्षेव, तस्याऽस्ति सहचारिणी । नागश्रीरित्यभिधया, मन्दभाग्यशिरोमणिः ॥ ५३०॥ उपर्युपरि कन्यां पद्, कन्यास्तत्राऽस्य जज्ञिरे । पामनस्येव पिटका, अधोऽधः पिटकं तनौ ॥ ५३१॥ प्रकृत्या बहुभक्षिण्यः, कुरूपा विश्वगहिताः । बभूवुस्तास्तयोः पुत्र्यो, ग्रामशूकरयोरिव ॥ ५३२॥ आपनसत्वा पत्न्यासीत् , पुनरप्यस्य कालतः। प्रायेण हि दरिद्राणां, शीघ्रगर्भभृतः स्त्रियः॥५३३॥ सोऽथैतच्चिन्तयामास, कस्येदं कर्मणः फलम् ? । यदहं मर्त्यलोकेऽपि, प्रामोमि नरकव्यथाम् ॥ ५३४ ॥ • अमुना जन्मसिद्धेन, दुश्चिकित्सेन भूयसा । उपदेहिकयेव दुर्दारिद्येणाऽसि विद्रुतः ॥ ५३५॥ इतः साक्षादलक्ष्मीभिरिव निर्लक्ष्ममूर्तिभिः । कन्यकाभिः पूर्वजन्मवैरिणीभिरिवादितः॥ ५३६ ॥ अधुना यदि भूयोऽपि, दुहिता प्रसविष्यते । तदा देशान्तरं यास्याम्युज्झित्वैतत् कुटुम्बकम् ॥ ५३७ ॥ एवं चिन्तां प्रपन्नस्य, सुषुवे तस्य गेहिनी । कर्णसूचीप्रवेशाभ, सुताजन्म च सोऽशृणोत् ॥ ५३८ ॥ ययावूर्ध्वमुखः सोऽथ, कुटुम्बं प्रोज्झ्य नागिलः । पर्यस्य भारं सहसा, बलीवर्द इवाऽधमः ॥ ५३९ ॥ तस्याः प्रसवजे दुःखे, पतिप्रवसनव्यथा । समजायत तत्कालं, क्षारक्षेप इव क्षते ॥ ५४०॥ नामाऽपि तस्या नागश्रीर्नाकार्षीदतिदुःखिता । निर्नामिकेति नाम्नाऽसौ, ततो लोकैरुदीरिता ॥५४१॥ १ दरिद्री । २ पामायुक्तस्य । ३ निस्फोटाः । ४ सगर्भा । ५ "उधेइ" इति भाषायाम् । *दुहितभिः सं, १॥ ६ त्यक्त्वा । Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमः । सर्गः ॥२०॥ MUCLOSURES ऋषभचरितम् । साऽपालयन्न तां सम्यगवर्द्धिष्ट तथापि सा । जन्तोर्वजाहतस्यापि, मृत्यु ऽत्रुटितायुषः॥ ५४२ ॥ अत्यन्तदुर्भगा मातुरप्युद्वेगविधायिनी । सा कालं गमयत्यन्यगृहे दुष्कर्म कुर्वती ॥ ५४३ ॥ एकस्मिन्नुत्सवेऽन्येधुराढ्यबालकपाणिषु । ईक्षित्वा मोदकान् सापि, ययाचे मातरं निजाम् ॥ ५४४॥ दन्तैर्दन्तान् घर्षयन्ती, तामम्बाऽपीदमब्रवीत् । याचसे मोदकान् युक्तं, मोदकांदी पिताऽपि ते ॥५४५॥ यदि मोदकलिप्सुस्त्वं, रज्जुमादाय गच्छ तत् । शैलमम्बरतिलक, दारुभारकृते हले!॥५४६ ॥ करीपाग्निसोदरया, दह्यमाना तया गिरा । रुदती रजुमादाय, तं पर्वतमियाय सा ॥ ५४७ ॥ ___ अरेस्तस्य शिरस्यैकरात्रिकप्रतिमानुषः । केवलज्ञानमुत्पदे, युगन्धरमुनेस्तदा ॥ ५४८॥ तस्याऽथ सन्निहिताभिर्देवताभिः प्रचक्रमे । तत्कालं केवलज्ञानमहिमाख्यो महोत्सवः ॥ ५४९ ॥ पर्वतासन्ननगरग्रामवासी ततो जनः । अहंपूर्विकया तत्र, तं वन्दितुमुपाययौ ॥ ५५० ॥ तत्रै यान्तं जनं दृष्ट्वा, नानाभरणभूषितम् । तस्थौ निर्नामिका चित्रलिखितेवाऽतिविस्मयात् ॥ ५५१॥ सा परम्परया ज्ञात्वा, लोकागमनकारणम् । दारुभारं दुःखभारमिवोत्सृज्याऽचलत् ततः॥५५२॥ जनेन सह तेनाऽथ, माऽपि निर्नामिका गिरिम् । तमारुरोह तीर्थानि, सर्वसाधारणानि यत् ॥ ५५३ ॥ कल्पपादपवत् पादौ, मन्यमाना महामुनेः । सा सानन्दमवन्दिष्ट, मतिर्गत्यनुसारिणी ॥ ५५४ ॥ लोकमाह्लादयन्नब्द, इब गम्भीरया गिरा । मुनिविश्वजनीनोऽथ, विदधे धर्मदेशनाम् ।। ५५५॥ आमसूत्रव्यूतखदाधिरोहणसहोदरम् । भवभूमौ निपाताय, नृणां विषयसेवनम् ॥ ५५६ ।। १ धनिबालककरेषु । २ मोदकभक्षकः । तत्रायान्तं आ ३ विश्वहितकर्ता । ४ अपक्कसूत्रव्यूतखटाधिरोहणसदृशम् ।। पूर्वभवचरिते पञ्चमो ललिताङ्गदेवभवः। PASSRUSSISSAGE ॥२०॥ Jan Education interna For Private & Personal use only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकग्रामसभावाससुप्तपान्थजनोपमः । पुत्रमित्रकलत्रादिसङ्गमः सर्वदेहिनाम् ॥ ५५७ ॥ लक्षेषु चतुरशीतो, योनिषु भ्रमतामिह । अनन्तो दुःखसम्भारः, स्वकर्मपरिणामजः॥ ५५८ ।। अथ निर्नामिकाऽवोचद् , भगवन्तं कृताञ्जलिः। तुल्योराज्ञि च रङ्केच, यत् त्वं विज्ञप्यसे ततः ॥५५९॥ संसारो दुःखसदनं, भगवद्भिः प्रकीर्तितः । अस्ति किं कश्चिदप्यत्र, मत्तोऽप्यधिकदुःखितः॥५६॥ भगवानप्युवाचैवं, दुःखं दुःखितमानिनि ! । भवत्याः कीदृशं भद्रे, दुःखितानपरान् शृणु ॥५६१॥ खकर्मपरिणामेनोत्पद्यन्ते नरकावनौ । भैदिकाछैदिकाः शीर्षच्छेद्याश्चाऽपि शरीरिणः ॥ ५६२ ॥ तिलपीडं निपीड्यन्ते, यत्रैस्तत्र हि केचन । दारुदारं च दार्यन्ते, क्रकचैः केपि दारुणैः ।। ५६३ ॥ शूलतूलिकशय्यासु, शाय्यन्ते केऽपि सन्ततम् । असुरैर्वस्त्रवत् केचिदास्फाल्यन्ते शिलातले ॥ ५६४ ॥ कुट्यन्ते केऽप्ययस्पात्राणीव लोहघनैपनैः । खण्ड्यन्ते शार्कपणिका, इव केचन खण्डशः ॥ ५६५ ॥ भूयोऽपि मिलिताङ्गास्ते, भूयो भूयस्तथैव हि । तदुःखमनुभाव्यन्ते, क्रन्दन्तः करुणवरम् ॥ ५६६ ॥ पिपासिताश्च पाय्यन्ते, तप्तत्रपुरसं मुहुः । छायार्थिनो निषाद्यन्ते, चाऽसिपत्रतरोस्तले ॥ ५६७ ॥ मुहूर्त्तमपि न स्थातुं, लभन्ते वेदनां विना | नरके नारकाः कर्म, स्मार्यमाणाः पुराकृतम् ॥ ५६८ ॥ वत्से ! नारकपण्डानां, यद् दुःखं तदशेषतः । श्राव्यमाणमपि प्राणभाजां दुःखाय जायते ॥ ५६९ ॥ किञ्च प्रत्यक्षमीक्ष्यन्ते, जल-स्थल-खचारिणः । प्राणिनो विविधं दुःखमापेदानाः स्वकर्मजम् ॥ ५७० ।। तत्र वारिचराः स्वैरं, खादन्त्यन्योन्यमुत्सुकाः । धीवरैः परिगृह्यन्ते, गिल्यन्ते च वकादिभिः ॥ ५७१ ॥ १ भेदनीयाः। २ छेदनीयाः। ३ लोहपात्राणि । ४ शाकावयवाः । ५ नारकिनाम् । ६ प्रामुवन्तः । SAMACOCALCOMMISCLIC Jain Education Internationa For Private & Personal use only . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥२१॥ SOCCASSACREASSAUG उत्कील्यन्ते त्वचयद्भिर्भुज्यन्ते च भटित्रवत् । भोक्तुकामैर्विपच्यन्ते, निगाल्यन्ते वसार्थिभिः ॥ ५७२ ॥ प्रथमं पर्व प्राणिनश्च स्थलचरा, अबला बलवत्तरः। मृगाद्याः सिंहप्रमुखैार्यन्ते मांसकामिभिः॥ ५७३ ॥ प्रथमः मृगयासक्तचित्तैश्च, क्रीडया मांसकाम्यया । नरैस्तत्तदुपायेन, हन्यन्तेऽनपराधिनः॥ ५७४ ॥ सर्गः क्षुधा-पिपासा-शीतोष्णा-अतिभारारोपणादिना । कशा-ऽङ्कश-प्रतोदेश्च, सहन्ते वेदनाममी ॥ ५७५ ॥ ऋषभखेचरास्तित्तिरि-शुक-कपोत-चटकादयः । श्येन-शिश्चान-गृध्राद्यैर्गृह्यन्ते मांसगृक्षुभिः ॥ ५७६ ॥ चरितम् । मांसलुब्धैः शाकुनिकानोपायप्रपञ्चतः । सङ्गय प्रतिहन्यन्ते, नानारूपैविडम्बनैः॥ ५७७॥ • जलादिशस्त्रादिभवं, तिरश्चां सर्वतो भयम् । अभग्नप्रसरं स्वस्वकर्मबन्धनिबन्धनम् ॥ ५७८ ॥ |पूर्वभवचरिते मानुष्यकेपि सम्प्राप्ते, जायन्ते केऽपि जन्मिनः । जन्मान्धवधिरा जन्मपङ्गयो जन्मकुष्ठिनः॥५७९॥ 18 पञ्चमो ललिचौरिकापारदारिक्यप्रसक्ताः केपि मानवाः। नवनवेनिगृह्यन्ते, निग्रहर्नारका इव ॥ ५८०॥ ताङ्गदेवभवः। विविधव्याधिभिः केऽपि, बाध्यमाना निरन्तरम् । प्रेक्षमाणाः परमुखमुपेक्ष्यन्ते सुतैरपि ॥ ५८१॥ मूल्यक्रीताश्च ताड्यन्ते, केचिदश्वतरा इव । अतिभारेण बाध्यन्तेऽनुभाव्यन्ते तृपादिकम् ॥ ५८२॥ परस्परपराभूतिक्लिष्टानां युसदामपि । स्वस्वामिभाववद्धवानां, दुःखमेव निरन्तरम् ॥ ५८३ ॥ असिन्नसारे संसारे, निसर्गेणाऽतिदारुणे । अवधिन हि दःखाना, यादसामिव वारिधौ ॥ ५८४ ॥ संसारे दुःखनिलये, जैनो धर्मः प्रतिक्रिया । मत्राक्षरमिव स्थाने, भूतप्रेतादिसङ्घले ॥ ५८५ ॥ ॥२१॥ जातु हिंसा न कर्त्तव्या, हिंसया हि शरीरिणः । पोता इवाऽतिभारेण, मञ्जन्ति नरकार्णवे ॥ ५८६ ॥ जलजन्तूनाम् । २ प्रतीकारः । ३ प्रवहणानि । Jain Education Internatione For Private & Personal use only . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्यं सर्वथा त्याज्यमसत्यवचनेन यत् । चिरं भ्रमति संसारे, जन्तुस्तृण्येव वात्यया ॥ ५८७ ॥ अदत्तं नाददीतार्थमदत्तादानतो यतः। कपिकच्छ्रफलस्पर्शादिव जातु सुखं न हि ॥ ५८८॥ अब्रह्म परिहर्त्तव्यमब्रह्मचरणेन हि । धृत्वा गले रङ्क इव, नीयते नरके जनः ॥ ५८९ ॥ परिग्रहो न कर्त्तव्यः, परिग्रहवशेन यत् । दुःखपङ्के जनो मन्जत्यतिभारेण गौरिख ॥ ५९॥ पञ्चाऽप्यमृनि हिंसादीन्युत्सृजेद् देशतोऽपि यः । उत्तरोत्तरकल्याणसम्पदा सोऽपि भाजनम् ॥५९१॥ ____ अथ साऽऽसादयामास, संवेगमतिशायिनम् । अयोगोल इवाऽभेद्यः, कर्मग्रन्थिरभिद्यत ॥ ५९२ ॥ महामुनेः पुरः साऽथ, सम्यक् सम्यक्त्वमाददे । प्रतिपेदे जिनोपज्ञं, गृहिधर्म च भावतः ॥ ५९३ ॥ अहिंसादीनि पश्चापि, तदेवाऽणुव्रतानि सा । परलोकाध्वपाथेयभूतानि प्रत्यपद्यत ॥ ५९४ ॥ मुनिनाथं प्रणम्याऽथ, गृहीत्वा दारुभारकम् । जगाम कृतकृत्येव, मुदिता सा स्वमालयम् ॥ ५९५॥ ततः प्रभृति सा तेपे, तपो नानाविधं सुधीः । स्वनामेवाऽविस्मरन्ती, युगन्धरमुनेर्गिरम् ॥ ५९६ ॥ न हि कश्चिदुपायंस्त, दुर्भगां यौवनेऽपि ताम् । कटुतुम्च्याः पक्कमपि, फलमश्नाति कोऽथवा ? ॥५९७॥ ततो विशिष्टसंवेगा, तत्राद्रावेयुषः पुनः । युगन्धरमुनेरग्रे, साऽस्त्यात्तानशनाऽधुना ॥ ५९८॥ तद् गच्छ दर्शयाऽस्याः खं, त्वयि रक्ता सती मृता । सा ते पत्नी भवेदन्ते, या मतिः सा गतिः किल ॥५९९॥3 तच्चके ललिताङ्गोपि, सापि तद्रागिणी सती । मृत्वा खयम्प्रभा नाम, तत्पल्यजनि पूर्ववत् ॥६००॥ प्रणष्टां प्रणयक्रोधादिव प्राप्य प्रियां ततः । स रेमेऽभ्यधिकं तापे, रत्यै छाया हि जायते ॥६०१॥ तृणसमूह इव । २ लोहगोलः । ३ जिनोपदिष्टम् । ४ गृहीतानशना । Jain Education Intern For Private & Personal use only www.iainelibrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुषचरिते ।। २२ ।। Jain Education Intera रममाणस्तया सार्द्धं, गते काले कियत्यपि । आत्मच्यवन चिह्नानि, ललिताङ्गो व्यलोकयत् ॥ ६०२ ॥ तस्य रत्नाभरणानि, निस्तेजस्कानि जज्ञिरे । मम्लुच मौलिमाल्यानि, तद्वियोगभयादिव ॥ ६०३ ॥ मालिन्यं भेजिरे सद्यस्तस्याऽङ्गं वसनानि च । आसन्ने व्यसने लक्ष्म्या, लक्ष्मीनाथोऽपि मुच्यते ॥ ६०४॥ भोगेष्वत्यन्तमासक्तिस्तस्याऽभूद् धर्मबाधया । प्रकृतिव्यत्ययः प्रायो, भवत्यन्ते शरीरिणाम् ।। ६०५ ।। जजल्प शोकविरसं, तस्य सर्वः परिच्छदः । भाविकार्यानुसारेण, वागुच्छलति जल्पताम् ॥ ६०६ ॥ आकालप्रतिपन्नाभ्यां, प्रियाभ्यां च सहैव हि । कृतापराध इव स, श्रीहीभ्यां पर्यमुच्यत ॥ ६०७ ॥ अदीनोऽपि हि दैन्येन, विनिद्रोऽपि हि निद्रया । स शिश्रिये मृत्युकाले पक्षाभ्यामिव कीटिका ||६०८ || हृदयेन समं तस्य, विश्लिष्यत्सन्धिबन्धनाः । महाबलैरप्यकम्प्याः, कल्पवृक्षाचकम्पिरे ।। ६०९ ।। तस्याऽरुजोऽप्यभज्यन्त, सर्वाङ्गोपाङ्गसन्धयः । भाविदुर्गतियानोत्थवेदनाशङ्कनादिव ॥ ६१० ॥ पदार्थग्रहणे तस्याऽपदुर्दृष्टिरजायत । तथैव स्थितिमन्येपामक्षमेव निरीक्षितुम् ।। ६११ ॥ गर्भावास निवासोत्थदुःखागमभयादिव । प्रकम्पतरलान्यङ्गान्यस्याऽजायन्त तत्क्षणम् ॥ ६१२ ॥ क्रीडागिरि-सरिद्वापी-दीर्घिकोपवनेषु सः । रम्येष्वपि रतिं नाप, सैंपाकल इव द्विपः ॥ ६१३ ॥ ततः स्वयम्प्रभाऽवोचदपराद्धं न किं मया ? । विमनस्कतया देव !, यदेवमुपलक्ष्यसे ॥ ६१४ ॥ ललिताङ्गोऽप्युवाचैवं नाऽपराद्धं प्रिये ! त्वया । अपराद्धं मया सुभ्रु !, यदल्पं प्राकृतं तपः ॥ ६१५ ॥ भोगेषु जागरूकोsहं, धर्मे सुप्त इवाऽनिशम् । पूर्वजन्मन्यभूवं हि, विद्याधरनरेश्वरः ॥ ६१६ ॥ १ विष्णुः । २ परिवारः । सपङ्किल सं १ ॥ ३ पाकलो गजज्वरः । TEETHE प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्व भवचरिते पञ्चमो ललिताङ्गदेवभवः ।। २२ ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -SCARSACCURRENCE मद्भाग्यप्रेरितेनेव, स्वयम्बुद्धेन मन्त्रिणा । धर्म प्रबोधितो जैनमायुःशेषेऽहमाप्तवान् ॥ ६१७ ॥ इयत्कालं च तद्धर्मप्रभावाच्छीप्रभे प्रभुः । सञ्जातोऽहमतश्श्योप्ये, नाऽलभ्यं लभ्यते क्वचित् ॥ ६१८ ॥ एवमाभापमाणस्य, तस्याऽऽदिष्टो बिडौजसा । दृढधर्माभिधो देवो, जगादैवमुपेत्य तम् ॥ ६१९ ॥ जिनेन्द्रप्रतिमापूजा, कर्तुं नन्दीश्वरादिषु । यास्यत्यैशानकल्पेन्द्रस्त्वमप्येहि तदाज्ञया ॥ ६२०॥ अहो! भाग्यवशात् कालोचितं मे स्वामिशासनम् । इति प्रमुदितोऽचालील्ललिताङ्गः सवल्लभः ॥६२१॥ गत्वा नन्दीश्वरे सोर्हत्प्रतिमाः शाश्वतीस्ततः । आनर्च विस्मृतासन्नच्यवनः परया मुदा ॥६२२॥ ततोऽप्यन्येषु तीर्थेषु, गच्छन् स्वच्छेन चेतसा । सोऽगादभावं क्षीणायुः, क्षीणतैलप्रदीपवत् ॥ ६२३ ॥ जम्बूद्वीपे ततः पूर्वविदेहेप्पसागरम् । महानद्याश्च सीताभिधानाया उत्तरे तटे ॥ ६२४॥ विजये पुष्कलावत्यां, लोहार्गलमहापुरे । राज्ञः सुवर्णजङ्घस्य, लक्ष्म्यां पल्यां सुतोऽभवत् ॥६२५॥ [युग्मम् ॥] अथ कन्दलितानन्दावमुष्य दिवसे शुभे । वज्रजङ्ग इति प्रीती, पितरौ नाम चक्रतुः ॥ ६२६ ॥ स्वयम्प्रभाऽपि दुःखार्ता, कालेन कियताऽप्यथ । धर्मकर्मणि संलीना, व्यच्योष्ट ललिताङ्गवत् ॥६२७ | नगर्या पुण्डरीकिण्यां, विजयेऽत्रैव चक्रिणः। वज्रसेनस्य भार्यायां, गुणवत्यां सुताऽभवत् ॥ ६२८ ॥ सर्वलोकातिशायिन्या, श्रियाऽसौ संयुता ततः । श्रीमतीत्यभिधानेन, पितृभ्यामभ्यधीयत ।। ६२९ ॥ लतेबोद्यानपालीभिर्धात्रीभिर्लालिता सती । मृद्वङ्गी विलसत्पाणिपल्लवा ववृधे क्रमात् ॥६३०॥ Jain Education Internatione For Private & Personal use only . Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ २३ ॥ स्निग्धया पल्लवयन्तीमिव कान्त्या नभस्तलम् । तां यौवनमलञ्चक्रे, रत्नं स्वणर्मिकामिव ॥ ६३१ ॥ अन्येद्युः सर्वतोभद्रं, नाम प्रासादमुच्चकैः । शैलं सन्ध्याभ्रलेखेव, क्रीडयाऽध्यारुरोह सा ।। ६३२ ॥ ततो मनोरमोद्याने, सुस्थितस्य महामुनेः । उत्पन्ने केवलज्ञाने, ददर्शाऽऽगच्छतः सुरान् ॥ ६३३ ॥ दृष्टपूर्वं मया वेदमित्यूहीपोहकारिणी । जन्मान्तराणि पूर्वाणि, निशास्वनमिवाऽस्मरत् ॥ ६३४ ॥ हृदये प्राग्भवज्ञानभारं वोढुमिवाऽक्षमा । क्षमातले क्षणादेव, मूच्छिता निपपात सा ।। ६३५ ॥ चन्दनाद्युपचारेण, सखीभिः कल्पितेन सा । लब्धसंज्ञा समुत्तस्थौ, चित्ते चैवमचिन्तयत् ॥ ६३६ ॥ पूर्वजन्मपतिमेंस, ललिताङ्गो विश्युतः । क्व सम्प्रत्यवतीर्णोऽस्तीत्यज्ञानं हा ! दुनोति माम् ॥ ६३७॥ तस्मिन् हृदयसङ्क्रान्ते, नाऽन्यो मे हृदयेश्वरः । कर्पूरभाण्डे को नाम, लवणं विनिवेशयेत् ? ॥ ६३८ ॥ स च प्राणाधिनाथो मे, न चेद् वचनगोचरः । आलप्याडलं तदन्येनेत्याददे मौनमेव सा ।। ६३९ ॥ आधिदैविकदोषाभिशङ्कया तत्सखीजनैः । अकारि मन्त्रतत्रादिरुपचारो यथोचितम् || ६४० ॥ सा मुमोच न मूकत्वमुपचारशतैरपि । व्याधेरन्यस्य न ह्यन्यदोषधं जातु शान्तिकृत् ॥ ६४१ ॥ प्रयोजने परिजनं, स्वं नियोजयति स्म सा । अक्षराणि लिखित्वा भ्रूहस्तादेरथ संज्ञया ॥ ६४२ ॥ अन्येद्युः श्रीमती क्रीडोद्याने यातवती सती। एकान्ते समयं प्राप्य, धात्र्योचे पण्डिताख्यया ॥ ६४३॥ मम प्राणा इवाऽसि त्वं, मातेवाऽस्मि तवाऽप्यहम् । अन्योन्यमावयोस्तेन, नाऽस्त्यविश्वासकारणम् ॥६४४ || मौनमालम्बसे पुत्रि !, हेतुना येन शंस तम् । तदुःखसंविभागं मे, दच्या दुःखं लघूकुरु ।। ६४५ ।। * 'तीमङ्गका' सं १ ॥ १ तर्कवितर्ककारिणी । 'दैवतदो ता ॥ प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते षष्टो वज्रजङ्गभवः । ॥ २३ ॥ . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाययुस्तत्र, भृयांसो समविदः केपिल्य पट स्फुटम् । ज्ञात्वा दुःखं यतिष्येऽहं, तत्प्रतीकारकर्मणे । न ह्यज्ञातस्स रोगस्य, चिकित्सा जातु युज्यते ॥ ६४६ ॥ पण्डितायाः खवृत्तान्तं, साऽपि प्राग्जन्मसम्भवम् । यथावदब्रवीत् प्रायश्चित्तार्थी सद्गुरोरिव ॥ ६४७॥ पटे वृत्तान्तमालेख्य, श्रीमत्यास्तं च पण्डिता। उपायपण्डिता मधु, बहिर्दर्शयितुं ययौ ॥६४८॥ ___ चक्रिणो बज्रसेनस्य, वर्षग्रन्थिरभृत् तदा । प्रस्तावादाययुस्तत्र, भृयांसो वसुधाधवाः ॥ ६४९ ॥ पण्डिता राजमार्गेऽथ, तमालेख्यपटं स्फुटम् । विस्तार्य तस्थौ श्रीमत्या, मनोरथमिवाऽलघुम् ॥६५०॥ तत्राऽऽगमविदः केपि, स्वर्गनन्दीश्वरादिकम् । आगमााविसंवादि, लिखितं परितुष्टुवुः ॥ ६५१॥ इतरे तु महाश्राद्धा, धूनयन्तः शिरोधराम् । प्रत्येकं वर्णयामासुर्विम्बानि श्रीमदर्हताम् ॥ ६५२ ॥ कृणिताक्षमभीक्ष्णं केऽपीक्षमाणाः प्रतिक्षणम् । रेखाशुद्धिं प्रशशंसुः, कलाकौशलशालिनः ॥ ६५३ ॥ इतरे तु सिति-श्वेत-पीत नीला-ऽरुणादिकान् । सन्ध्याभ्राभीकृतपटान् , वर्णकानित्यवर्णयन् ॥ ६५४ ॥ ____ अत्रान्तरे च तनयो, दुर्दर्शनमहीपतेः । यथार्थनामा दुर्दान्त, इति तत्र समाययौ ॥ ६५५॥ स क्षणं तं पट प्रेक्ष्य, प्रेक्षावान् मूर्छया क्षितौ । अलीकयाऽपतदथ, लब्धसंज्ञ इवोत्थितः ॥ ६५६ ॥ मृच्छायाः कारणं पृष्ट, उत्थितश्च जनेन सः । कथयामास वृत्तान्तं, कृत्वा कपटनाटकम् ॥ ६५७ ॥ मम प्राग्जन्मचरितं, पटे केनाऽप्यलेख्यत । जातिस्मरणमुत्पेदे, हन्त ! तदर्शनादिह ॥ ६५८॥ ललिताङ्गोऽस्म्यहं देवो, मम देवी खयम्प्रभा । इत्यादि संवदत्येव, यदत्र लिखितं पटे ॥ ६५९ ॥ ___पप्रच्छ पण्डिता चाऽथ, यद्येवं भद्र! तद्वद । सनिवेशः पटे कोऽयमङ्गुल्या दर्शय खयम्॥६६०॥ स ऊचे मेरुरेषोऽद्रिः, पूरियं पुण्डरीकिणी । पुनः पृष्टो मुने माऽब्रवीन्नामाऽस्य विस्मृतम् ॥ ६६१ ॥ चित्ररचना। Jan Education Internati For Private & Personal use only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पत्र प्रथमः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥२४॥ भूयोऽपि पृष्टः को नाम, नृपोऽयं मत्रिभिर्वृतः।।तपस्विनी च का न्वेषेत्याख्यदाख्यां न वेद्यहम्॥६६२॥ मायावीति च संज्ञातः, सोपहासं तयोदितः । पुत्रेदं संवदत्येव, प्राग्जन्मचरितं तव ॥ ६६३॥ _ ललिताङ्गोऽसि देवस्त्वं त्वत्पत्नी तु खयम्प्रभा ।नन्दिग्रामे कर्मदोषात् ,पङ्गभूताऽस्ति सम्प्रति।।६६४॥ सञ्जातजातिस्मरणादालिख्य चरितं निजम् । पटो मे धातकीखण्डगताया अर्पितस्तया ॥ ६६५॥ तस्याः पङ्ग्वाः करुणया, त्वं मयाऽसि गवेपितः । तदेहि धातकीखण्डे, त्वां नयामि तदन्तिके॥६६६।। वराकी त्वद्वियोगे सा, दुःखं जीवति पुत्रक!। समाश्वासय तामद्य, प्राग्जन्मप्राणवल्लभाम् ।। ६६७ ॥ एवमुक्त्वा पण्डितायां, तूष्णीकायां स मायिकः । इत्थं वयस्यैः स्वैरेव, सोपहासमभाष्यत ॥ ६६८ ॥ कलत्ररत्नाधिगमादहो ! पुण्योदयस्तव । अभिगम्या च पोप्या च, सा पङ्गः सर्वथा तव ॥ ६६९॥ ततो वैलक्ष्यदीनास्यः, स दुर्दान्तः कुमारकः । विक्रीयमाणेभ्य इवाऽवशिष्टः क्वचिदप्यगात् ॥ ६७० ॥ लोहार्गलपुराद् वज्रजङ्घोऽपि हि तदाऽऽययौ । चरितं चित्रलिखितं, तद् ददर्श मुमूर्छ च॥६७१।। व्यजन-जितो नीररुक्षितोऽथ स उत्थितः । जातजातिस्मृतिरभूत , सद्यः स्वर्गादिवागतः ॥ ६७२॥ पटालेख्यमिदं दृष्ट्वा, किं कुमाराऽसि मूच्छितः? । इति पण्डितया पृष्टो, वज्रजङ्घोऽब्रवीदिदम्।।६७३|| चरित्रं सकलत्रस्य, मम प्राग्भवसम्भवम् । इदं हि लिखितं भद्रे !, तद् दृष्ट्वा मृच्छितोऽस्म्यहम् ॥ ६७४॥ श्रीमानशानकल्पोऽयं, विमानं श्रीप्रभंत्विदम् । एपोऽहं ललिताङ्गाख्यः, प्रिया मेऽसौ स्वयम्प्रभा६७५ IG इतश्च धातकीखण्डे, नन्दीग्रामस्य मध्यतः । गृहे महादरिद्रस्य, सुता निर्नामिकेत्यसौ ॥ ६७६ ॥ शैलमम्बरतिलकमध्यारूढास्ति सा त्विह । गृहीतानशनाऽमुष्य, युगन्धरमुनेः पुरः॥ ६७७ ।। पूर्वभवचरिते षष्टो बनजनवः। ॥२४॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मसन्दर्शनायाऽस्या, आगतोऽहमिहामि च । मयि रक्ता मृता जज्ञे, नॅनमेषा स्वयम्प्रभा॥६७८ ॥ इह नन्दीश्वरे जैनबिम्बार्चनपरोऽस्म्यहम् । गच्छन्नितोऽन्यतीर्थेषु, च्यवमानोऽहमस्म्यहम् ॥ ६७९ ॥ इह चैकाकिनी दीना, वराकीयं स्वयम्प्रभा । इह च च्यवमानेयं, मन्ये सैव मम प्रिया ॥ ६८०॥ साऽस्तीह मन्ये लिखितं, जातिस्मृत्या तया त्वदः। अन्यानुभूतं न ह्यन्यो, जनो जानाति जातुचित ॥६८१॥ आमेति पण्डिताऽप्युक्त्वा, श्रीमत्याः पार्श्वमेत्य च । तत्सर्वमाख्यत् हृदयविशल्यकरणौषधम् ॥ ६८२॥ श्रीमती दयितोदन्तगिरा रोमाञ्चिताऽभवत् । अम्भोदध्वनिना रत्नाकरितेव विदूरभूः ॥ ६८३ ॥ पितुर्व्यज्ञपयत् तच्च, श्रीमती पण्डितामुखात् । अस्वातव्यं कुलस्त्रीणां, धर्मो नैसर्गिको यतः॥ ६८४॥ तद्गिरा मुदितः सद्यः, स्तनितेनेव बहिणः । वज्रसेननृपो वज्रजङ्घमाजूहवत् ततः ॥ ६८५ ॥ कुमारमूचे भूपालोऽस्मत्पुत्री श्रीमतीत्यसौ । भवत्विदानी भवतो, गृहिणी पूर्वजन्मवत् ॥ ६८६ ॥ । तथेति प्रतिपन्ने च, कुमारेणोदवाहयत् । श्रीमती भूपतिः प्रीतो, हरिणेबोदधिः श्रियम् ॥ ६८७॥ ज्योत्स्त्रीचन्द्राविव युती, तौ सितक्षौमवाससौ । लोहार्गलपुरं राज्ञाऽनुज्ञातौ जग्मतुस्ततः ॥ ६८८ ॥ योग्यं ज्ञात्वा वज्रजङ्ख, स्वर्णजनोऽथ भूपतिः । राज्ये निवेशयामास, स्वयं दीक्षामुपाददे ॥ ६८९ ।। सूनोः पुष्कलपालस्य, दत्त्वा राज्यश्रियं निजाम् । प्राब्राजीद् वज्रसेनोऽपि, जज्ञे तीर्थकरश्च सः॥६९०॥ विलसन् वज्रजङ्घोऽपि, श्रीमत्या सह कान्तया । उवाह लीलया राज्यमम्भोजमिव कुञ्जरः॥ ६९१ ॥ अप्राप्तयोर्विप्रयोगं, गङ्गासागरयोरिख । तयोर्भुञ्जानयो गान्, सुतः समुदपद्यत ॥ ६९२ ॥ *पुनरेषा व सा, सं॥ मस्म्ययम् ता. दखनिमा र खं॥ ज्योत्स्नाच संता ॥ त्रिषष्टि. ५ For Private & Personal use only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व विषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२५॥ अथ पुष्कलपालस्य, व्यभिद्यन्त महारुषः । समन्तात् सीमसामन्ताः, सर्पभारोपमाजुषः ॥ ६९३ ॥ तेन तेषां द्विजिह्वानामिव साधनहेतवे । नरेन्द्रो वज्रजोऽथ, समाहूतोऽचलद् बली ॥ ६९४ ॥ प्रथमः श्रीमत्यपि समं वज्रजङ्घन जगतीभुजा । अचालीदचला भक्तिः, पौलोमीव बिडौजसा ॥ ६९५ ॥ सर्गः स गच्छन्न मार्गेऽथ, महाशरवणं पुरः । ददर्श दर्शयामिन्यामपि ज्योत्स्नाभ्रमप्रदम् ॥ ६९६ ॥ ऋषभदृग्विषोऽहिरिहाऽस्तीति, विज्ञप्तः सोऽध्वगैरगात् । पथाऽन्येन नयज्ञा हि, प्रस्तुतार्थेषु तत्पराः॥ ६९७॥8 चरितम् । आययौ पुण्डरीकिण्यां, पुण्डरीकोपमोऽथ सः । सामन्तमण्डलं सर्व, वशेऽभूत् पुष्कलस्य च ॥६९८॥ राजा पुष्कलपालोपि, पुष्कलानि विधेयवित् । विविधानि व्यधादस्य, स्वागतानि गुरोरिव ॥ ६९९॥ | पूर्वभवचरिते श्रीमन्तं श्रीमतीवन्धुमनुज्ञाप्याऽन्यदा तु सः । श्रीमत्या सहितोऽचालीच्छ्रियः पतिरिव श्रिया ॥७००॥ षष्ठो वज्रसोऽथ प्राप्तः शरवणं, निकषा कपणो द्विपाम् । इत्यूचे कुशलैर्यात, मध्येनाऽप्यस्य सम्प्रति ॥ ७०१॥ जभवः । उत्पेदे केवलज्ञानं, द्वयोरत्राऽनगारयोः । तत्र देवागमोझोताद् , दृग्विषो निर्विषोऽभवत् ॥ ७०२॥ नाम्ना सागरसेनश्च, मुनिसेनश्च तो मुनी । राजन्नत्रैव विद्यते, सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ७०३ ॥ सोदयों तो मुनी ज्ञात्वा, विशेषमुदितो नृपः । उवास तत्रैव वने, वनमालीव वारिधौ ॥ ७०४ ॥ कुर्वाणो देशनां तत्र, तौ वृत्तौ देवपर्षदा । भक्तिभारादिवाऽऽनम्रः, सभार्यः सोऽभ्यवन्दत ॥७०५॥ देशनान्ते च पानानवस्त्रोपकरणादिभिः । तो प्रत्यलाभयद् राजा, चिन्तयामास चेति सः॥७०६॥ ॥२५॥ धन्यावेतौ निष्कपायौ, निर्ममौ निष्परिग्रहौ । सोदर्यभावे सामान्येऽप्यहो! नाऽस्म्यहमीदृशः॥ ७०७ ॥ १ अन्तर्भेदं प्राप्ताः । २ इन्द्राणी । ३ समीपे । ४ संहारकः । ५ सहोदरौ । ६ विष्णुरिव । * चेतसि सं १, २ ॥ Jain Education Internatio Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्तव्रतस तातस्य, सत्पथेनाऽनुगामिनौ । एतावेवौरसौ पुत्रौ, पुत्रः क्रीत इवाऽस्म्यहम् ॥ ७०८ ॥ पूर्वभवचरिते एवं स्थितेऽपि मे किश्चिन्नायुक्तं प्रव्रजामि चेत् । प्रव्रज्या दीपिकेवाऽऽत्तमात्रापि हि तमश्छिदे॥७०९॥ | सप्तमो युगतदिदानी पुरीं गत्वा, दत्वा राज्यं च सूनवे । हंसस्येव गतिं हंसः, श्रयिष्येऽहं पितुर्गतिम् ॥ ७१०॥ IDIलिकभवः, अष्टमो देवसंवादिन्या व्रतादानेऽनुस्यूतमनसेव सः । सहितः श्रीमतीदेव्या, प्राप लोहार्गलं पुरम् ।। ७११॥ भवश्च। राज्यलुब्धस्तदा त्वस्य, पुत्रः प्रकृतिमण्डलम् । धनैरभेदयत तैर्हि, किन भेद्यं जलैरिव ? ॥ ७१२॥ प्रातः स्वयं व्रतादानं, राज्यदानं सुतस्य च । चिन्तयन्तौ सुषुपतुर्निशायां श्रीमतीनृपौ ॥७१३ ॥ विषधूपं व्यधात् पुत्रस्तयोस्तु सुखसुप्तयोः । कस्तं निरोद्धमीशः स्याद् , गृहादग्निमिवोत्थितम् ? ॥७१४॥ तद्भूपधूमैरधिकैर्जीवाकर्षाङ्कटैरिख । घ्राणप्रविष्टैस्तौ सद्यो, दम्पती मृत्युमापतुः ॥ ७१५॥, अथोत्तरकुरुष्वेतावुत्पन्नौ युग्मरूपिणी । एकचिन्ताविपन्नानां, गतिरेका हि जायते ॥ ७१६ ॥ क्षेत्रानुरूपमायुश्च, पूरयित्वा तथा युतौ । तौ विपद्योदपद्येतां, सौधर्मे स्नेहलौ सुरौ ॥७१७॥ वज्रजङ्घस्य जीवोऽथ, भोगान् भुक्त्वा निरन्तरम् । आयुःक्षयात् ततोऽच्योष्ट,हिमग्रन्थिरिवाऽऽतपात् ७१८ जम्बूद्वीपे विदेहेषु, पुरे क्षितिप्रतिष्ठिते । वैद्यस्य सुविधेः पुत्रः, स जीवानन्द इत्यभूत् ॥७१९॥15 तदेव तस्मिन्नगरे, चत्वारोऽन्येऽपि दारकाः । उदपद्यन्त धर्मस्य, भेदा इव वपुर्जुषः ॥ ७२० ॥ अभृत् तत्रैक ईशानचन्द्रस्य पृथिवीपतेः । भार्यायां कनकवत्यां, सूनुर्नाम्ना महीधरः॥ ७२१॥ मत्रिणोऽन्यः शुनाशीरनाम्नः पल्यामजायत । लक्ष्म्यां श्रीनन्दन इव, सुबुद्धिर्नाम नन्दनः ॥७२२॥ अन्यः सागरदत्तस्य, सार्थवाहपतेरभृत् । भार्यायामभयमत्यां, पूर्णभद्राभिधः सुतः ॥ ७२३ ॥ Jain Education Int l For Private & Personal use only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &% प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते % प्रथमः सर्गः ॥२६॥ ऋषभचरितम्। चतुर्थश्च समुत्पेदे, पन्यां श्रेष्ठिधनस्य तु । शीलमत्यां शीलपुञ्ज, इव नाम्ना गुणाकरः ॥ ७२४ ।। प्रयत्नाद् रक्ष्यमाणास्ते, बालधारैर्दिवानिशम् । समं ववृधिरे सर्वेऽप्यङ्गेऽङ्गावयवा इव ॥ ७२५ ॥ सहपांशुक्रीडिनस्ते, जगृहुः सममेव हि । कलाकलापं सकलं, मेघाम्भः पादपा इव ॥ ७२६ ॥ तत्रैव नगरे जीवः, श्रीमत्या अपि सोऽभवत् । सूनुरीश्वरदत्तस्य, श्रेष्ठिनः केशवाभिधः ॥ ७२७॥ समं च मिलितास्तेन, ते पमित्राणि जज्ञिरे । अवियुक्ताः करणान्तःकरणानीव सर्वदा ॥ ७२८ ॥ विदाञ्चकाराऽऽयुर्वेद, जीवानन्दोपि पैतृकम् । अष्टाङ्गमौषधीश्चाऽपि, रसवीर्यविपाकतः ॥ ७२९ ॥ ऐरावण इवेभेपु, ग्रहेष्विव दिवाकरः । अभूत् प्राज्ञो निरवद्यविद्यो वैद्येषु सोऽग्रणीः ।। ७३० ॥ सौदर्या इव सम्भूय, रममाणाः सदैव ते । कदाचित् कस्यचिद् वेश्मन्यन्योऽन्यस्याऽवतस्थिरे ॥ ७३१॥ एकदा वैद्यपुत्रस्य, जीवानन्दस्य मन्दिरे । एतेषां तिष्ठतामेकः, साधुर्भिक्षार्थमाययौ ॥ ७३२॥ पृथ्वीपालस्य राज्ञः स, सूनुर्नाम्ना गुणाकरः । राज्यं मलमिवोत्सृज्य, शमसाम्राज्यमाददे ॥ ७३३ ॥ सरिदोघ इव ग्रीष्मातपेन तपसा कृशः। कृमिकुष्ठाभिभूतश्च, सोऽकालापथ्यभोजनात् ॥ ७३४ ॥ सर्वाङ्गीणं कृमिकुष्ठाधिष्ठितोऽपि स भेषजम् । ययाचे न क्वचित् कायानपेक्षा हि मुमुक्षवः ।। ७३५॥ गोमत्रिकाविधानेन, गेहाद् गेहं परिभ्रमन् । षष्ठस्य पारणे दृष्टः, स तैर्निजगृहाङ्गणे ॥ ७३६ ॥ महीधरकुमारेण, स किश्चित् परिहासिना । जीवानन्दो निजगदे, जगदेकभिषक् ततः ॥ ७३७ ॥ अस्ति व्याधेः परिज्ञानं, ज्ञानमस्त्यौषधस्य च । चिकित्साकोशलं चाऽस्ति, नाऽस्ति वः केवलं कृपा ॥७३८॥ * सर्वेऽप्यनगाव सं1 करणानि इन्द्रियाणि, अन्तःकरणं मनः, एतान्यपि पट्सङ्ख्याकानि । २ गोमूत्रधारावरकरवेन । पूर्वभवचरिते नवमो जीवानन्दभवः। A A % ॥२६॥ % % Jain Education Intema For Private & Personal use only . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUSSUROTOURURUSAUSSONS सदा संस्तुतमप्यारीमपि प्रार्थकमप्यहो!। वेश्या इव विना द्रव्यं, यूयं नाऽक्ष्णापि पश्यथ ॥ ७३९ ॥ तथाऽप्येकान्ततो नार्थलुब्धैर्भाव्यं विवेकिभिः । धर्ममप्युररीकृत्य, कृत्यं क्वाऽपि चिकित्सितम्॥७४०॥ चिकित्सायां निदाने च, धिक् ते सर्व परिश्रमम् । आयातमीदृशं पात्रं, सरोगं यदुपेक्षसे ॥ ७४१ ॥ जीवानन्दोऽपि विज्ञानरत्नरत्नाकरोऽब्रवीत् । साधु साधु महाभाग, त्वया विसापितोऽस्म्यहम् ॥७४२॥ ब्राह्मणजातिरद्विष्टो, वणिग्जातिरवश्चकः । प्रियजातिरनीालुः, शरीरी च निरामयः ॥ ७४३ ॥ विद्वान् धनी गुण्यगर्वः, स्वीजनश्चाऽपचापलः । राजपुत्रः सुचरित्रः, प्रायेण न हि दृश्यते ॥ ७४४॥ [सन्दानितकम् ] चिकित्सनीय एवाऽहो , महामुनिरयं मया । औषधानामसामग्री, किन्तु यात्यन्तरायताम् ॥ ७४५ ॥ तत्रैकं लक्षपार्क मे, तैलमस्तीह नास्ति तु । गोशीर्षचन्दनं रत्नकम्बलश्चाऽऽनयन्तु तत् ॥ ७४६ ॥ आनेष्यामो वयमिति, प्रोच्य पश्चापि तत्क्षणम् । ते ययुर्विपणिश्रेणी, स्वस्थानं सोऽप्यगान्मुनिः॥७४७॥ स्वकम्बल-गोशीर्षे, मूल्यमादाय यच्छ नः । इत्युक्तस्तैर्वणिग्वृद्धस्ते ददानोऽब्रवीदिदम् ॥ ७४८॥ दीनाराणां लक्षमेकं, प्रत्येकं मूल्यमेतयोः। गृहीत ब्रूत वस्तुभ्यां, किमाभ्यां वः प्रयोजनम् ? ॥७४९॥ तेऽप्यूचुर्मूल्यमादत्स्व, दत्स्व गोशीर्षकम्बलौ । एताभ्यां हि महासाधुचिकित्सा नः प्रयोजनम् ॥ ७५०॥ श्रुत्वा तद्वचनं श्रेष्ठी, विस्मयोत्तानलोचनः । रोमाञ्चसूचितानन्दश्चेतसैवमचिन्तयत् ॥ ७५१ ॥ क्वैषां यौवनमुन्मादप्रमादमदनोन्मदम् ? । मतिविवेकवसतिर्वयोवृद्धोचिता क्व च?॥ ७५२ ॥ १ परिचितम् । २ विघ्नस्त्वम् । Jan Education Internal For Private & Personal use only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका प्रथमं पर्व प्रथमः पुरुषचरिते सर्गः ऋषभ ॥२७॥ चरितम् । जराजर्जरकायाणां, मादृशां योग्यमीदृशम् । कुर्वन्त्यमी यत् तदहोऽदम्यारोऽयमुह्यते ॥ ७५३ ॥ चिन्तयित्वेति सोऽवोचदिमौ गोशीर्षकम्बलौ । गृह्येतामस्तु वो भद्रं, भद्रा ! द्रव्येण चाऽस्तु वः ॥७५४॥ अनयोर्वस्तुनोर्मूल्यमादास्ये धर्ममक्षयम् । धर्मभागीकृतः साधु, युष्माभिः सोदरैरिव ॥ ७५५ ॥ श्रेष्ठिश्रेष्ठोऽपयित्वाऽथ, तेषां गोशीर्षकम्बलौ । भावितात्मा प्रववाज, वव्राज च परं पदम् ॥ ७५६॥ ___आदायौषधसामग्रीमग्रिमास्ते महात्मनाम् । जीवानन्देन सहिताः, प्रययुर्येन तं मुनिम् ॥ ७५७॥ न्यग्रोधपादपस्याऽधस्तत्पादमिव निश्चलम् । कायोत्सर्गेण तिष्ठन्तं, तं नत्वा ते वभाषिरे ॥ ७५८ ॥ धर्मविघ्नं करिष्यामश्चिकित्साकर्मणाऽद्य वः। भगवन्ननुजानीहि, पुण्येनाऽनुगृहाण नः ॥ ७५९ ॥ मुनिमेवमनुज्ञाप्य, तेऽथ गोमृतकं नवम् । आनिन्युर्विचिकित्सन्ति, न हि जातु चिकित्सकाः ॥ ७६०॥ मुनेः प्रत्यङ्गमभ्यङ्गं, तेन तैलेन ते व्यधुः । उद्यानमिव कुल्याम्भः, शरीरान्तस्तदानशे ॥ ७६१॥ तैलेनाऽत्युष्णवीर्येण, जज्ञे निःसंज्ञको मुनिः । योग्यमुग्रस्य हि व्याधेः, शान्त्यामत्युग्रमौषधम् ॥ ७६२ ॥ आकुलास्तेन तैलेन, कृमयस्तत्कलेवरात् । तस्थुवहिर्जलेनेव, चामलरात् पिपीलिकाः ॥ ७६३ ॥ जीवानन्दस्ततो रत्नकम्बलेन समन्ततः । मुनिमाच्छादयामास, शशीव ज्योत्स्नया नभः ।। ७६४ ॥ कृमयोऽथ न्यलीयन्त, शीतत्वाद् रत्नकम्बले । शैवले ग्रीष्ममध्याह्नतप्ताः शफेरिका इव ।। ७६५॥ मन्दमन्दोलयन् वैद्यः, कम्बलं गोशवोपरि । कृमीनपातयदहो!, सर्वत्राऽद्रोहिता सताम् ॥ ७६६ ॥ जन्तुजीवातुभिर्जीवानन्दोऽमृतरसैरिव । मुनिमाश्वासयामास, ततो गोशीर्षचन्दनैः ॥ ७६७ ॥ १ वत्सतरैः । * युर्यत्र तं सं १॥२ वटवृक्षस्य । ३ सारणिजलम् । ४ वल्मीकात् । ५ मत्स्याः । ६ जन्तुजीवनप्रदैः। पूर्वभवचरिते नवमो जीवानन्दभवः। ॥२७॥ Jain Education Internatione X For Private & Personal use only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa कृमयस्त्वग्गता एव, ह्यमी निरसरन्निति । तैलाभ्यङ्गं मुनेर्भूयो, जीवानन्दोऽथ निर्ममे ॥ ७६८ ॥ तेनाभ्यङ्गेन भूयोऽपि, भूयांसो मांसगा अपि । निरीयुः कृमयो वातेनोदानेन रसा इव ॥ ७६९ ॥ तथैवाच्छादने रत्नकम्वले कृमयोऽलगन् । अलक्तकैंपटे दभोऽतिद्र्यहस्येव जन्तवः ॥ ७७० ॥ तस्मिन् गोमृतके भूयस्तान् कृमीन् रत्नकम्बलात् । तथैवाऽपातयदहो !, भिषजो बुद्धिकौशलम् ॥ ७७१ ॥ गोशीर्षचन्दनरसासारैराप्याययन्मुनिम् । जीवानन्दोऽम्भोद इव, वृष्ट्या ग्रीष्मादितं द्विपम् ॥ ७७२ ॥ भूयोऽभ्यङ्गेन निरंयुः, कृमयोऽस्थिगता अपि । न वज्रपञ्जरेऽप्यस्ति, स्थानं रुष्टे बलीयसि ॥ ७७३ ॥ रत्नकम्बललग्नांस्तान्, पुनर्गोमृतके कृमीन् । स चिक्षेपाऽधमं स्थानमधमानां हि युज्यते ॥ ७७४ ॥ गोशीर्षचन्दनरसैर्विलिलेप मुनिं पुनः । भक्त्या परमया देवमिव सद्यो भिषग्वरः ।। ७७५ ।। संरोपणौषधैजीतनवत्वक् कान्तिमान् मुनिः । चकासामास निर्मृष्टकाञ्चनप्रतिमेव सः ॥ ७७६ ॥ तैर्भक्तिदक्षैः क्षमितः, स क्षमाक्षमणस्ततः । ययौ विहर्तुमन्यत्र, नास्था वाऽपि हि तादृशाम् ॥ ७७७ ॥ ततोऽवशिष्टगशीर्षचन्दनं रत्नकम्बलम् । तत्र विक्रीय जगृहस्ते स्वर्ण बुद्धिशालिनः ॥ ७७८ ॥ तेन स्वर्णेन ते चैत्यं, सुवर्णेन स्वकेन च । कारयामासुरुत्तुङ्ग, मेरुशृङ्गमिवाऽऽहृतम् ॥ ७७९ ॥ जिनाचमर्चयन्तस्ते, गुरूपासनतत्पराः । कर्मवत् क्षपयामासुः कञ्चित् कालं महाशयाः ॥ ७८० ॥ ते षडप्येकदा जातसंवेगाः साधुसन्निधौ । धीमन्तो जगृहुदीक्षां मर्त्यजन्मतरोः फलम् ॥ ७८१ ॥ विजहुः पुरि पुरो, ग्रामे ग्रामाद् वने वनात् । तिष्ठन्तो नियतं कालं, राशौ राशेरिव ग्रहाः ॥ ७८२ ॥ * कपुटे आ ॥ १ अतिक्रान्तादिनद्वयस्य । निरीयुः संता ॥ संरोहणी° खं, आ ॥ [ श्रवण संता ॥ . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते सर्गः ॥२८॥ शाणैरिव तपोभिस्ते, तूर्यषष्ठाष्टमादिभिः । चारित्ररत्नं विदधुर्निर्मलं निर्मलादपि ॥ ७८३ ॥ प्रथमं पर्व अपीडयन्तो दातारं, प्राणधारणकारणात् । पारणे जगृहुर्भिक्षां, ते मधुव्रतवृत्तयः ॥ ७८४ ॥ प्रथमः अवलम्बितधैर्यास्ते, क्षुत्पिपासातपादिकान् । परीषहान् सहन्ते स्म, ग्रहारान् सुभटा इव ॥ ७८५ ॥ सेनाङ्गानीव चत्वारि, मोहराजस्य सर्वतः । चतुरोऽपि कषायांस्ते, जिग्युरस्त्रैः क्षमादिमिः ॥ ७८६ ॥ ऋषभकृत्वा संलेखनामादौ, द्रव्यतो भावतश्च ते । भेजिरेऽनशनं कर्मशैलनि शनाशनिम् ॥ ७८७ ॥ चरितम् । समाधिभाजस्ते पञ्चपरमेष्ठिनमस्क्रियाम् । सरन्तस्तत्यजुर्देह, न हि मोहो महात्मनाम् ॥ ७८८ ॥ षडपि द्वादशे कल्पेऽच्युतनामनि तेऽभवन् । शकसामानिकास्तादृग् , न सामान्यफलं तपः ॥ ७८९ ॥ दापर्वविचार आयुस्ते पूरयित्वा द्वाविंशतिं सागरोपमान् । ततोऽच्यवन्ताऽच्यवनं, न हि मोक्षं विना क्वचित् ॥ ७९० ॥ दशमो देव भवः, जम्बूद्वीपाभिधे द्वीपे, विदेहेषु च पूर्वतः । विजये पुष्कलावत्यां, महाम्भोनिधिसन्निधौ ॥७९१॥ एकादशो नगर्या पुण्डरीकिण्यां, वज्रसेनस्य भूपतेः । धारिण्यां जज्ञिरे राज्यां, तेषु पञ्च क्रमात् सुताः ॥७९२॥ तत्र वैद्यस्य जीवोऽभृद्, वज्रनाभोभिधानतः । चतुर्दशमहास्वमसूचितः प्रथमः सुतः ॥ ७९३ ॥ राजपुत्रस्य जीवस्तु, द्वितीयो बाहुसंज्ञया । मत्रिपुत्रस्य जीवोऽपि, सुबाहुरिति नामतः॥ ७९४ ॥ नाम्ना पीठमहापीठौ, श्रेष्टिसार्थेशपुत्रयोः । जीवी जीवः केशवस्य, सुयशा राजपुत्रकः ॥ ७९५ ॥ सुयशाः शिश्रिये वज्रनाभं वाल्यात् प्रभृत्यपि । स्नेहः प्राग्भवसम्बद्धो, ह्यनुबध्नाति बन्धुताम् ॥७९६॥ ॥२८॥ तेऽवर्द्धन्त क्रमाद् राजसूनवः सुयशाः स च । नरभावमिवापन्नाः, पडर्षधरपर्वताः ॥ ७९७ ॥ . वज्रनाम भवश्व। ortant Jain Education inte For Private & Personal use only . Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहयन्तो मुहुर्वाहान् , वाह्याल्यां ते महौजसः । विभराश्चक्रिरेऽनेकरूपरेवन्तविभ्रमम् ॥ ७९८ ॥ कलाभ्यासे कलाचार्योऽभूत् तेषां साक्षिमात्रकः । प्रादुर्भवन्ति महतां, स्वयमेव यतो गुणाः ॥ ७९९ ॥ शैलानपि शिलातोलं, तेषां तोलयतां भुजैः । अपूर्यत बलक्रीडा, न केनापि मनागपि ॥ ८००॥ अथ लोकान्तिकैर्देवैरन्तिकीभूय भूपतिः । वज्रसेनो व्यज्ञपीदं, स्वामिस्तीर्थ प्रवर्त्तय ।। ८०१॥ ,वज्रसेनस्ततो वज्रनाभं वज्रिसमौजसम् । राज्ये निवेशयामास, स्वमिवाऽपरमृर्तितः ॥ ८०२॥ सांवत्सरिकदानेन, प्रीणयामास मेदिनीम् । अम्भोधर इवाऽम्भोभिर्वज्रसेननृपस्ततः ।। ८०३ ॥ देवासुरनृदेवैश्च, कृतनिष्क्रमणोत्सवः । गत्वोद्यानमलञ्चके, स व्योमेव हिमद्युतिः ॥ ८०४ ॥ खयम्बुद्धः स भगवांस्तत्र दीक्षामुपाददे । उदपद्यत च ज्ञानं, मनःपर्ययसंज्ञकम् ।। ८०५॥ आत्मारामः साम्यधनो, निर्ममो निष्परिग्रहः । प्रावर्त्तत विहाँ क्ष्मां, स नानाभिग्रहः प्रभुः ॥ ८०६ ॥ __ भ्रातृभ्यो वज्रनाभोपि, प्रत्येक विषयान् ददौ । लोकपालैरिवेन्द्रोऽभात् , स च तैर्नित्यसेवकैः॥८०७॥ क्षत्ताऽभूत् तस्य सुयशा, अरुणस्तरणेरिव । आत्मानुरूपः कर्त्तव्यः, सारथिर्हि महारथैः ॥८०८॥ उत्पेदे वज्रसेनस्य, घातिकर्ममलक्षयात् । उयोतो दर्पणस्येव, केवलज्ञानमुज्वलम् ।। ८०९ ॥ तदा च वज्रनाभस्य, प्रविवेश महीपतेः । चक्रमायुधशालायामधरीकृतभास्करम् ॥ ८१०॥ त्रयोदश च रत्नानि, तस्याऽऽसन्नपराण्यपि । सम्पद्धि पुण्यमानेनाऽम्भोमानेनेव पमिनी ॥ ८११ ॥ नवापि निधयस्तस्याऽभवन् सेवाविधायिनः । आकृष्टाः प्रबलैः पुण्यैर्गन्धैरिव मधुव्रताः॥ ८१२ ॥ १ सूर्यपुत्रः । २ चन्द्रः । ३ देशान् । ४ सारथिः । Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका 'पुरुषचरिते ॥ २९ ॥ सोऽशेषं साधयामास, विजयं पुष्कलावतीम् । चक्रे च चक्रवर्त्तित्वाभिषेकोऽस्याऽखिलैर्नृपैः ।। ८१३ ॥ भुञ्जानस्याऽप्यस्य भोगान्, धर्मे धीरधिकाधिकम् । वयसो वर्द्धमानस्य, स्पर्द्धयेव व्यवर्द्धत ।। ८१४ ॥ क्रमादस्य प्रभवन्त्या, भववैराग्यसम्पदा । वंहिष्ठा धर्मधीरासीद्, वल्लीवाssवालवारिणा ।। ८१५ ।। एकदा विहरंस्तत्र, वज्रसेनजिनेश्वरः । परमानन्दजननः, साक्षान्मोक्ष इवाऽऽययौ ।। ८१६ ।। स्वामी समवसरणे, ततश्चैत्यतरोस्तले । कर्णामृतप्रपां धर्मदेशनामुपचक्रमे ।। ८१७ ॥ सबन्धुर्वज्रनाभोऽपि, जगद्बन्धोर्जिनप्रभोः । राजहंस इवाऽऽभ्यागादुपपादाम्बुजं मुदा ॥। ८१८ ।। स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, प्रणम्य च जगत्पतिम् | अनुजन्मेव शक्रस्य, पृष्ठतः समुपाविशत् ।। ८१९ ॥ स बोधिमुक्ताजननीं भव्यमानसशुक्तिषु । देशनां खातिवृष्टयामां शुश्राव श्रावकाग्रणीः ।। ८२० ।। गिरं भगवतः शृण्वन् मृगो गीतिमिवोन्मनाः । हर्षाद् विचिन्तयामास स एवं भूमिवासवः ||८२१|| असावपारः संसारः, सरस्वानिव दुस्तरः । तस्याऽपि तारकस्तातो, दिष्ट्याऽसौ विष्टपाधिपः ।। ८२२ ।। अन्धकार इवाऽत्यन्तं, मोहोऽन्धङ्करणो नृणाम् । तस्याऽयमभितो भेत्ता, भगवान् भानुमानिव ।। ८२३ ।। चिरकालभवश्चाऽयं, महाव्याधिरिवोल्वणः । अचिकित्स्यः कर्मराशिस्तातस्तस्य चिकित्सकः ॥ ८२४ ॥ यद्वा किमन्यत् सर्वेषां दुःखानामेष नाशनः । सुखानामेकजननः, करुणामृतसागरः ।। ८२५ ।। खामिन्येवंविधेऽप्यस्मिन्नहो ! मोहप्रमद्वरैः । अस्माभिरात्मनैवाऽऽत्मा, वञ्चितोऽसौ कियच्चिरम् ॥८२६ || चक्रवर्त्ती ततो धर्मचक्रवर्त्तिनमानतः । इति विज्ञपयामास, भक्तिगद्गदया गिरा ।। ८२७ ॥ १ आलवालः । २ स्वाति नक्षत्रवृष्टितुल्याम् । ३ समुद्रः । प्रथमं पर्व प्रथमः सर्गः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते एकादशी वज्रनाभ भवः । ॥ २९ ॥ . Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -SSIOSAX C LUSAROGRAM अर्थप्रसाधनपरैर्नीतिशास्त्रश्चिरं मम । मतिः कदर्थिता नाथ !, क्षेत्रभूः कुशिकैरिव ॥ ८२८ ॥ तथा विषयलोलेन, नित्यं नेपथ्यकर्मभिः । अयमात्मा नटेनेव, चिरं विनटितो मया ॥ ८२९ ॥ इदं हि मम साम्राज्यमर्थकामनिवन्धनम् । चिन्त्यते यस्तु धर्मोत्र, स सात् पापानुबन्धकः॥ ८३०॥ तातस्य पुत्रो भृत्वाऽपि, भवाम्भोधौ भ्रमामि चेत् । तत् कः पुरुषकारः स्यादन्यसाधारणस्य मे ? ॥८३१॥ अपालयमिदं राज्यं, युष्मद्दत्तमहं यथा । तथा संयमसाम्राज्यं, पालयिष्यामि देहि मे ॥ ८३२ ॥ कृत्वा च पुत्रसाद् राज्यं, निजान्वयनभोरवि । व्रतं भगवतः पार्श्वे, प्रपेदे चक्रवर्त्यथ ॥ ८३३ ॥ बाहादयोऽपि जगृहुस्तत्सोदर्यास्तदा व्रतम् । पित्रा ज्येष्ठेन चोपात्तं, तद्धि तेषां क्रमागतम् ॥ ८३४ ॥ सुयशाः सारथिः सोऽपि, पादान्ते धर्मसारथेः । अनुस्वामि प्रवत्राज, भृत्याः स्वाम्यनुगामिनः ॥८३५॥ श्रुतसागरपारीणो, वज्रनाभोऽभवत् क्रमात् । प्रत्यक्षा द्वादशाङ्गीव, जङ्गमैकाङ्गतां गता ॥ ८३६ ॥ एकादशाझ्याः पारीणा, जाता बाह्वादयोऽपि ते । क्षयोपशमवैचिच्याचित्रा हि श्रुतसम्पदः॥ ८३७॥ तीर्थकृत्पादसेवायास्तपसो दुश्चरस्य च । असन्तुष्टाः सदाऽभूवंस्ते सन्तोषधना अपि ॥ ८३८ ॥ ते नित्यं तीर्थकद्वाणीपीयूपरसपायिनः । अपि मासोपवासादितपसा नैव चक्लमुः॥ ८३९ ॥ भगवान् वज्रसेनोऽपि, शुक्लध्यानं श्रितोऽन्तिमम् । निर्वाणं प्राप गीर्वाणप्रपञ्चितमहोत्सवम् ॥ ८४०॥ . सनाभिरिव धर्मस्य, वृतो व्रतसनाभिभिः । मुनिभिर्वज्रनाभोऽपि, विजहार वसुन्धराम् ॥ ८४१॥ स्वामिना वज्रनाभेन, बाहाद्याः स च सारथिः । सनाथा जज्ञिरे पञ्चेन्द्रियाणीवाऽन्तरात्मना ॥८४२॥ .१ दभैः । * दुष्करस्य सं १॥ + सेनाभि सं १ ॥ १ सहोदरः । २ व्रतसहितैः । Jain Education in For Private & Personal use only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमः सर्गः ॥३०॥ ऋषभचरितम् । तेषां योगप्रभावेण, सर्वाः खेलादिलब्धयः। औषध्य इव शैलानामाविरासन् शशित्विषा ॥८४३ ॥ तेषां श्लेष्मलवेनापि, संश्लिष्टं कुष्ठिनो वपुः । कोटिवेधरसेनेव, ताम्रराशिः सुवर्ण्यभूत् ॥ ८४४ ॥ कर्णनेत्रादिभूरङ्गभूश्च तेषामभून्मलः । कस्तूरिकापरिमलो, रोगनः सर्वरोगिणाम् ॥ ८४५॥ तेषां वपुःपरिस्पर्शमात्रादपि शरीरिणः । सरुजो नीरुजोऽभूवन् , सुधाम्भःस्नपनादिव ॥ ८४६ ॥ तदङ्गसङ्गादम्भोदमुक्तं नद्यादिवाह्यपि । सर्वरोगान् पयोहार्षीत् , तमांसीवाशुमन्महः ॥ ८४७ ॥ विषादिदोपाः प्राणश्यस्तदङ्गस्पर्शिवायुना । गन्धसिन्धुरदानाम्भोगन्धेनेवाऽन्यसिन्धुराः॥ ८४८॥ विषसम्पृक्तमन्नादि, तेषां पात्रे मुखेऽपि वा । सम्प्रविष्टं सुधाकुण्ड, इव निर्विषतामगात् ॥ ८४९ ॥ वचनश्रवणात तेषां, विषं मन्त्राक्षरादिव । बाधा महाविषव्याधिबाधितस्याऽप्यपासरत् ॥ ८५० ॥ नखाः केशा रदाश्चान्यदपि तेषां शरीरजम् । भेजे भेषजतां सर्व, मुक्तात्वं शुक्तिवारिवत् ।। ८५१॥ आसन्नणीयसीं मूर्ति, तथा ते कर्तृमीश्वराः । यथा सञ्चरितुमलं, सूचीरन्ध्रेऽपि तन्तुवत् ॥ ८५२ ॥ वपुर्महत्तरीकर्तुं, शक्तिस्तेषां बभूव सा । यया सुमेरुशैलोपि, जानुदनो व्यधीयत ॥ ८५३ ॥ तेषां वपुर्लघीयस्त्वसामर्थ्य तदजायत । समुल्ललचे तद् येन, मारुतस्यापि लाघवम् ॥ ८५४ ॥ वपुर्गरिमशक्तिश्च, वज्रादप्यतिशायिनी । साऽभूत् तेषां न या सह्या, शक्राद्यैत्रिदशैरपि ॥ ८५५ ॥ प्राप्तिशक्तिरभूत तेषां, भूस्थानां स्पर्शनं यया । अङ्गुल्यग्रेण मेर्वग्रग्रहादेवृक्षपत्रवत् ।। ८५६ ॥ साऽभूत् प्राकाम्यशक्तिश्च, भुवीवाऽप्सु यया गतिः । निमज्जनोन्मजने च, पानीय इव भुव्यपि ॥८५७॥ आसीत् तेषां तदैश्वर्य, प्रभवन्ति स येन ते । चक्रभृत्रिदशाधीशऋद्धिमाधातुमात्मनः ॥ ८५८ ॥ | पूर्वभवचरिते एकादशो बज्रनाभभवः। ॥३०॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेषां वशित्वसामर्थ्य, तदपूर्वमजायत । भेजिरे वशितां येन, स्वतत्राः क्रूरजन्तवः ॥ ८५९॥ तेषामप्रतिघातित्वशक्तिः साऽभूद् यया खलु । अद्रिमध्येऽपि निःसङ्गं, गमनं रन्ध्रमध्यवत् ।। ८६०॥ तदन्त नसामर्थ्यमभूत् तेषामनाहतम् । नभस्वतामिवाऽदृश्यरूपता येन सर्वतः ॥ ८६१॥ प्रावीण्यं कामरूपित्वे, तत् तेषामुल्ललास च । अलं पूरयितुं लोकं, नानारूपैर्यथा निजैः ॥ ८६२॥ तेषामाविरभद् बीजबुद्धिता सातिशायिनी । एकार्थवीजतोऽनेकार्थबीजानां प्ररोहिणी ॥ ८६३ ॥ ते कोष्ठबुद्धयोऽभूवन , कोष्ठप्रक्षिप्तधान्यवत् । विना स्मरणमर्थानां, प्राक् श्रुतानां तथास्थितेः ॥ ८६४ ॥ आद्यादन्त्यान्मध्यमाद् वा, श्रुतादेकपदादपि । सर्वार्थग्रन्थबोधात् तेऽभूवन पदानुसारिणः ॥ ८६५ ॥ एकं वस्तु समुद्धृत्याऽन्तर्मुहूर्ताच्छूतोदधेः । अवगाहनसामर्थ्यात् , ते मनोबलिनोऽभवन् ॥ ८६६ ॥ अन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण, मातृकामावलीलया । गुणयन्तः श्रुतं सर्वमासन् वाग्बलिनश्च ते ॥ ८६७ ॥ प्रपद्यमानाः प्रतिमां, चिरकालमपि स्थिराम् । श्रमक्लमाभ्यां रहितास्ते कायवलिनोऽभवन् ॥ ८६८ ॥ अभूवन्नमृतक्षीरमध्वाज्यास्रविणश्च ते । पात्रस्थस्य कदन्नस्याऽप्यमृतादिरसागमात् ॥ ८६९ ॥ दुःखादितेष्वमृतादिपरिणामाद् गिरां च ते । अमृतक्षीरमध्वाज्यास्रविणः साधु जज्ञिरे ॥ ८७०॥ अन्नस्य पात्रपतितस्याऽल्पस्याऽप्यतिदानतः । अक्षयेणाऽक्षीणमहानसर्द्धयश्च तेऽभवन् ॥ ८७१ ॥ तीर्थकृत्पर्षदीवाऽल्पदेशेऽपि प्राणिनां सुखम् । असङ्ख्यानां स्थितेरासंस्ते चाऽक्षीणमहालयाः॥८७२ ॥ एकेनाऽपीन्द्रियेणाऽन्येन्द्रियार्थस्योपलम्भनात् । ते बभूवुश्च सम्भिन्नस्रोतोलब्धिमहर्द्धयः॥ ८७३ ॥ जकाचारणलब्धिश्च, तेषामजनि सा यया । रुचकद्वीपमेकेनोत्पातेन प्राप्तमीश्वराः ॥ ८७४ ॥ त्रिषधि.६ For Private & Personal use only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ ३१ ॥ Jain Education Internation वलन्तो रुचकद्वी पादेकेनोत्पतनेन ते । नन्दीश्वरेऽलमायातुं द्वितीयेन यतो गताः ॥ ८७५ ॥ ते चोर्द्धगत्यामेकेन, समुत्पतनकर्मणा । उद्यानं पाण्डकं गन्तुमलं मेरुशिरः स्थितम् || ८७६ ॥ ततस्ते वलिता एकेनोत्पातेन तु नन्दनम् । अलं गन्तुं द्वितीयेन, प्रथमोत्पातभूमिकाम् ॥ ८७७ ॥ ते विद्याचारणर्थ्याऽऽघुमेकेनोत्पातकर्मणा । मानुषोत्तरमन्येन, द्वीपं नन्दीश्वरं क्षमाः ॥ ८७८ ॥ एकोत्पातात् ततश्रातुं, पूर्वोत्पातमहीतलम् । तिर्यग्यानक्रमेणोर्द्धमप्यलं ते गतागते ।। ८७९ ॥ आसीदाशीविषर्द्धिश्च निग्रहाऽनुग्रहक्षमा । तेषामन्या अप्यभूवन्, बहुलं बहुलब्धयः ॥ ८८० ॥ लब्धीनामुपयोगं ते, जगृहुर्न कदाचन । मुमुक्षवो निराकाङ्क्षा, वस्तुषूपस्थितेष्वपि ॥ ८८१ ॥ इतश्व तीर्थकुन्नामगोत्रकर्मार्जितं दृढम् । स्वामिना वज्रनाभेन, विंशत्या स्थानकैरिति ॥ ८८२ ॥ तत्रैकमर्हतामर्हत्प्रतिमानां च पूजया । अवर्णवादव्याषेघैः सद्भूतार्थस्तवैरपि ॥ ८८३ ॥ सिद्धानां सिद्धिस्थानेषु, प्रतिजागरणोत्सवैः । यथावस्थितसिद्धत्वकीर्त्तनाच्च द्वितीयकम् ॥ ८८४ ॥ बालक - ग्लान- शैक्षादियतीनां यस्त्वनुग्रहः । प्रवचनस्य वात्सल्यं, स्थानकं तत् तृतीयकम् ॥ ८८५ ॥ आहारौषधवस्त्रादिदानादञ्जलियोजनात् । गुरूणामतिवात्सल्यकरणं तु तुरीयकम् ॥ ८८६ ॥ विंशत्यब्दपर्यायाणां षष्टिवर्षायुषां तथा । समवायभृतां भक्तिः, स्थविराणां तु पञ्चमम् ॥ ८८७ ॥ अर्थव्यपेक्षया स्वस्माद्, बहुश्रुतभृतां सदा । अन्नवस्त्रादिदानेन, षष्ठं वात्सल्यनिर्मितिः ॥ ८८८ ॥ सुविकृष्टतपःकर्मनिर्माणानां तपखिनाम् । भक्तिविश्रामणादानैर्वात्सल्यमिति सप्तमम् ॥ ८८९ ॥ द्वादशाङ्गे श्रुते प्रश्नवाचनादिभिरन्वहम् । सूत्राऽर्थोभयगो ज्ञानोपयोगो यस्तदष्टमम् ।। ८९० ॥ प्रथमं पच प्रथमः सगः ऋषभ चरितम् । पूर्वभवचरिते एकादशो वज्रनाभभवः । ॥ ३१ ॥ . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tortortort शङ्कादिदोषरहितं, स्थैर्यादिगुणभूषितम् । शमादिलक्षणं सम्यग्दर्शनं नवमं पुनः॥८९१ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारैश्च चतुर्विधः। कर्मणां विनयनतो, विनयो दशमं पुनः॥ ८९२ ॥ इच्छामिथ्याकरणादियोगेष्वावश्यकेष्वलम् । अतीचारपरीहारो, यत्नादेकादशं तु तत् ॥ ८९३ ॥ अहिंसादिसमित्यादिमलोत्तरगुणेषु या । प्रवृत्तिनिरतीचारा, स्थानकं द्वादशं तु तत् ॥ ८९४ ॥ शुभध्यानस्य करणं,क्षणे क्षणे लवे लवे । प्रमादपरिहारेण, स्थानमेतत् त्रयोदशम् ।। ८९५ ॥ अनाबाधेन मनसो, वपुषश्च निरन्तरम् । यथाशक्ति तपःकर्म, स्थानमेतच्चतुर्दशम् ॥ ८९६॥ अन्नादीनां संविभागो, यथाशक्ति तपस्विषु । मनोवाकायशुद्ध्या यः, स्थानं पञ्चदशं हि तत् ॥ ८९७ ॥ आचार्यादीनां दशानां, भक्तपानाऽऽसनादिभिः । वैयावृत्यस्य करणं, स्थानकं षोडशं तु तत् ॥ ८९८ ॥ चतुर्विधस्य सङ्घस्य, सर्वापायनिषेधनात् । मनःसमाधिजननं, स्थानं सप्तदशं हि तत् ॥ ८९९ ॥ सूत्रस्यार्थस्योभयस्याऽप्यपूर्वस्य प्रयत्नतः । अन्वहं यदुपादानं, स्थानमष्टादशं तु तत् ॥९००॥ श्रद्धानेनोद्भासनेनाऽवर्णवादच्छिदादिना । श्रुतज्ञानस्य भक्तिस्तत् , स्थानमेकोनविंशकम् ॥ ९०१॥ विद्यानिमित्तकवितावादधर्मकथादिभिः । प्रभावना शासनस्य, तद् विंशतितमं पुनः ॥९०२॥ अप्येकं तीर्थकृनामकर्मणो बन्धकारणम् । मध्यादेभ्यः स भगवान् , सर्वैरपि बबन्ध तत् ॥ ९०३ ॥ बाहुनाऽपि च साधूनां, वैयावृत्यं वितन्वता । चक्रवर्तिभोगफलं, कर्मोपार्जितमात्मनः॥९०४॥ विश्रामणां महर्षीणां, कुर्वाणेन तपोजुषाम् । सुबाहुना बाहुबलं, लोकोत्तरमुपार्जितम् ॥ ९०५॥ अहो! धन्याविमौ वैयावृत्य-विश्रामणाकरौ । इति बाहु-सुबाहू तो, वज्रनाभस्तदाऽस्तवीत् ॥ ९०६॥ DSCASSESAMACRORESANG ort Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकार पुरुषचरिते तौ तु पीठ-महापीठौ, पर्यचिन्तयतामिति । उपकारकरो यो हि, स एवेह प्रशस्यते ॥ ९०७ ॥ आगमाध्ययनध्यानरतावनुपकारिणौ । को नौ प्रशंसत्वथवा, कार्यकाको जनः ॥९०८॥ ताभ्यामनालोचयद्भयामितीर्थ्याकृतदुष्कृतम् । मायामिथ्यात्वयुक्ताभ्यां, कर्म स्त्रीत्वफलं कृतम् ॥९०९॥ ते षडप्यनतीचारां, खड्गधारासहोदराम् । प्रव्रज्यां पालयामासुः, पूर्वलक्षांश्चतुर्दश ॥९१० ॥ संलेखनाद्वयपुरःसरमेकधीरास्ते पादपोपगमनानशनं प्रपद्य । सर्वार्थसिद्धिमधिगम्य दिवं त्रयस्त्रिंशाब्ध्यायुषः सुरवराः षडपि ह्यभूवन् ॥ ९११॥ SSES प्रथमं पर्व प्रथमः 1.सर्गः ऋषभचरितम् । ॥३२॥ इत्याचार्यश्रीहेचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि धनादिद्वादशभववर्णनो नाम प्रथमः सर्गः॥१॥ पूर्वभवचरिते द्वादशो देवभवः, प्रथमसर्गसमाप्तिश्च। SESESEARCH ॥३२॥ For Private & Personal use only . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। - इतश्च जम्बूद्वीपस्य, विदेहेष्वपरेषु पूः । नाम्नाऽपराजितेत्यस्ति, द्विषद्भिरपराजिता ॥१॥ तस्यां वसुमतीनाथो, विक्रमाक्रान्तविष्टपः । ईशानचन्द्र इत्यासीदीशानेन्द्र इव श्रिया ॥२॥ तत्र श्रेष्ठी श्रिया श्रेष्ठः, प्रष्ठो धर्मैकशालिनाम् । नाम्ना चन्दनदासोऽभूजगदानन्दचन्दनः ॥३॥ जगतो नयनानन्दनिदानं तस्य नन्दनः । नाम्ना सागरचन्द्रोऽभूत् , सागरस्येव चन्द्रमाः॥४॥ ऋजुशीलः सदैवाऽसौ, धर्मकर्मा विवेकवान् । नगरस्याऽखिलस्यापि, बभूव मुखमण्डनम् ॥५॥ सोऽन्यदेशानचन्द्रस्य, राज्ञो दर्शनहेतवे । सेवोपनतसामन्ताकुलं राजकुलं ययौ ॥६॥ स तदाऽऽसनताम्बूलदानादिप्रतिपत्तितः । महास्नेहेन ददृशे, पित्रेव पृथिवीभुजा ॥७॥ ___ अत्रान्तरे पराभूतशङ्खध्वनितया गिरा । राजद्वारे कश्चिदेत्याऽपाठीन्मङ्गलपाठकः ॥८॥ . उद्यतोद्यानपालीव, त्वदुद्यानेऽद्य भूपते ! । सज्जीकृतानेकपुष्पा, वसन्तश्रीविजृम्भते ॥९॥ विकासिकुसुमामोदसुरभीकृतदिग्मुखम् । सम्भावय तदुद्यानं, महेन्द्र इव नन्दनम् ॥१०॥ राजाऽप्याऽऽज्ञापयद् द्वाःस्थं, यत् प्रातरखिलैर्जनैः । गन्तव्यमस्मदुद्यानमेवमाघोप्यतां पुरे ॥ ११ ॥ त्वयाऽप्येतव्यमुद्यानमिति श्रेष्ठिसुतं नृपः । स्वयमादिशदेवं हि, प्रसन्नस्वामिलक्षणम् ॥ १२॥ ततो राज्ञा विसृष्टोऽसौ, हृष्टः खावसथं ययौ । मित्रायाऽशोकदत्ताय, तां नृपाज्ञा जगाद च ॥ १३ ॥ द्वितीयेऽह्नि ययौ राजाऽप्युद्यानं सपरिच्छदः । पौरलोकोऽप्यगात् तत्र, प्रजा राजानुयायिनी ॥१४॥ १ अग्रणीः । २ स्वावासम् । ३ सपरिवारः । For Private & Personal use only w ww.jainelibrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभ(चरितम् । ॥३३॥ वसन्त इव मलयानिलेन श्रेष्टिनरपि । सुहृदाऽशोकदत्तेन, सहोद्यानं जगाम सः॥१५॥ -पुष्पावचयसन्दर्भगीतनृत्यादिभिस्ततः । प्रवृत्तः क्रीडितुं लोकः, स्थितः कामस्य शासने ॥१६॥ स्थाने स्थाने कृतास्थानाः, पौराः क्रीडाविधायिनः । आवासितस्मरनृपस्कन्धावारधुरां दधुः॥१७॥ पदे पदे सम्प्रवृत्तगीतातोद्यमहाध्वनौ । जयायाऽन्येन्द्रियार्थानामिवाऽभ्यधिकमुत्थिते ॥ १८॥ प्रत्यासन्नादथैकस्मादकस्मात् तरुगह्वरात । त्रायध्वं त्रायध्वमिति, त्रस्तस्त्रीध्वनिरुत्थितः ॥१९॥ तया समाकृष्ट इव, गिरा कर्णप्रविष्टया । किमेतदिति सम्भ्रान्तः, सागरः समधावत ॥२०॥ श्रेष्ठिनः पूर्णभद्रस्य, कन्यकां प्रियदर्शनाम् । स बन्दिमिळूतां तत्राऽपश्यदेणी वृक्केरिख ॥२१॥ एकस्य बन्दिनो हस्तमामोट्याऽथाऽऽददे क्षुरीम् । श्रेष्ठिसूनुर्विषभृतो, ग्रीवां भक्त्वा मणीमिव ॥ २२॥ तस्येति विक्रमं दृष्ट्वा, बन्दिनस्ते विदुद्रुवुः । व्याघ्रा अपि पलायन्ते, ज्वलज्ज्वलनदर्शनात् ॥ २३ ॥ इति सागरचन्द्रेण, बन्दिभ्यः प्रियदर्शना । एधोहारिभ्यो माकेन्दलतेव परिमोचिता ॥ २४ ॥ परोपकारव्यसनी, क एष पुरुषाग्रणीः । आगादिह समाकृष्टो, दिष्ट्या मद्भाग्यसम्पदा?॥२५॥ स्मररूपाधरीका, भर्त्ता भाव्ययमेव मे । चिन्तयन्तीति खं धाम, जगाम प्रियदर्शना ॥२६॥ अनुस्यूतामिव वहन् , हृदये प्रियदर्शनाम् । अशोकदत्तसहितः, श्रेष्ठिपुत्रोऽभ्यगाद् गृहम् ॥ २७॥ अथ चन्दनदासेन, स परम्परयाखिलः। अवावुध्यत वृत्तान्तः, केन छायेत तादृशम् ॥२८॥ स दध्याविति युक्तोऽस्य, रागोऽधिप्रियदर्शनम् । अजयं पङ्कजिन्या हि, राजहंसख युज्यते ॥ २९॥ । हरिणीम् । २ वनश्वानैः । ३ सर्पस्य । ४ काष्ठहारिभ्यः । ५ आम्रलतेव । ६ सङ्गतिः । |कुलकराणामत्पत्तिः। ॥३३॥ For Private & Personal use only HT w w.jainelibrary.org. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयमुद्भटताऽकारि, यत् तदा तन्न साम्प्रतम् । कार्य सपौरुषेणापि, वणिजा न हि पौरुषम् ॥३०॥ सङ्गः किञ्च ऋजोरस्याऽशोकदत्तेन मायिना । न साधुर्जातु बदरीद्रुणेव कदलीतरोः ॥३१॥ विचिन्त्येति चिरं श्रेष्ठी, स समाहूय सागरम् । भद्राद्विपं निषादीव, साम्नाऽऽरभत शासितुम् ॥३२॥ सर्वशास्त्रानुसारेण, व्यवहारेण च स्वयम् । वत्स! सम्यगभिज्ञोऽसि, तथापि ज्ञाप्यसे मया ॥३३॥ वयं हि वणिजस्तात!, कलाकौशलजीविनः । अनुद्भटाऽऽचारवेषाः, सन्तो गामहे न हि ॥ ३४ ॥ भवितव्यं यौवनेपि, भवद्भिर्गुढविक्रमैः । वणिजो लोकसामान्येऽप्यर्थे साशङ्कवृत्तयः ॥ ३५॥ सम्पदो विषयक्रीडा, दानं च च्छन्नमेव नः । अलं भवति शोभायै, शरीरमिव योषिताम् ॥ ३६॥ आत्मजातेरनुचितं, क्रियमाणं न शोभते । चरणे करमस्येव, बद्धं कनकनूपुरम् ॥ ३७॥ ततो निजक्रमौचित्यव्यवहारपरायणैः । दातव्यः प्रहरो वत्स !, गुणानां सम्पदामिव ॥ ३८॥ त्याज्योऽसतां च संसर्गो, निसर्गानृजुचेतसाम् । सोऽलेकविषवत् कालेनाऽपि यात्येव विक्रियाम् ॥३९॥ अयं चाऽशोकदत्तस्त्वां, मित्रं चित्रं तनूमिव । अवाप्तप्रसरो वत्स!, सर्वथा दृषयिष्यति ॥ ४०॥ मनस्यन्यद् वचस्यन्यत्, क्रियायामन्यदेव हि । गणिकाया इवाऽमुष्याऽत्यन्तमायाजुषः सदा ॥४१॥ आदरादुपदिश्यैवं, श्रेष्टिश्रेष्ठे स्थिते सति । इति सागरचन्द्रोऽपि, चिन्तयामास चेतसि ॥४२॥ कन्याबन्दिव्यतिकरस्तातेन सकलोपि सः। विज्ञात इति मन्येऽहमुपदेशदिशाऽनया ॥४३॥ असावशोकदत्तश्च, तातस्याऽभान्न सङ्गतः। मन्दभाग्यतया पुंसां, गुरवः स्युरनीदृशाः॥४४॥ १ सरलस्य । २ महामात्रः । ३ मृदुवचनेन । ४ उष्ट्रस्य । ५ हडक्कयितश्वविषवत् । ६ श्वेतकुष्ठम् । Jain Education Intern For Private & Personal use only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व द्वितीय त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥३४॥ सर्गः ऋषभचरितम् । | कुलकराणामुत्पत्तिः। CAMERCAMERAMSAROSARMA भवत्वेवं तथाऽपीति, विमृश्य मनसि क्षणम् । ऊचे सागरचन्द्रोऽपि, ग्रंश्रयाश्रितया गिरा ।। ४५॥ यंदादिशति तातस्तत् , कर्तव्यं सूनुरस्मि ते । कृतं तेन कृतेनापि, गुर्वाज्ञा यत्र लक्ष्यते ॥ ४६॥ किन्तु दैवादकाण्डेऽपि, कृत्यं तदुपतिष्ठते । नाऽऽलोचकालहरणं, सहते यन्मनागपि ॥४७॥ आलोचं कुर्वतोऽत्येति, कालः कार्यस्य कस्यचित् । पर्ववेलेव ब्रिह्मस्य, पादशौचं वितन्वतः ॥४८॥ ईदृशेऽप्यागते काले, प्राप्तेऽपि प्राणसंशये । तदेवाऽहं करिष्यामि, तव लज्जाकरं न यत् ॥४९॥ तातेनाऽशोकदत्तस्य, यच्च तादृगुदीरितम् । तद्दोषेण न दोष्यस्मि, न गुणी तद्गुणेन वा ॥ ५० ॥ यन्ममाऽशोकदत्तेन, मैत्री तत्रेति कारणम् । सहवासः सहपांशुक्रीडनं दर्शनं मुहुः॥५१॥ समा जातिः समा विद्या, समं शीलं समं वयः । परोक्षेऽप्युपकारित्वं, सुखदुःखविभागिता ॥५२॥ अभिश्च कैतवमहं, न पश्यामि मनागपि । मृपा तातस्य कोऽप्याख्यत् , खलाः सर्वकषाः खलु ॥५३॥ अस्तु वा तादृशो मायाव्येष मे किं करिष्यति ? । एकत्र विनिवेशेऽपि, काचः काचो मणिर्मणिः ॥५४॥ इत्युक्तः सूनुना श्रेष्ठी, तमूचे बुद्धिमानसि । तथापि ह्यवधातव्यं, दुर्लक्षा हि पराशयाः ॥५५॥ सोऽथ स्वमूनो वज्ञस्तदर्थं प्रियदर्शनाम् । शीलादिभिर्गुणैः पूर्णा, पूर्णभद्रादयाचत ॥ ५६ ॥ असावुपकृतिक्रीती, त्वत्सुतेन सुता मम । अग्रेऽपीति वदन पूर्णभद्रोऽमन्यत तद्वचः ॥ ५७ ॥ ततः सागरचन्द्रस्य, प्रियदर्शनया सह । विवाहोऽकारि पितृभिः, शुभे लग्ने शुभे दिने ।। ५८॥ विनयाश्रितया। * अयं श्लोकः सं १ पुस्तके न दृश्यते ॥ २ विचारकालप्रतीक्षणम् । ३ गच्छति । ४ दीर्घसूत्रिणः ।। ५ सर्वक्षोभकारकाः। ६ उपकारकीता। ॥३४॥ Jan Education inte For Prate & Personal use only . Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचिन्तिताया दुन्दुभ्याः, पतनेनेव तो ततः । मनीषितविवाहेन, मुमुदाते वधूवरौ ॥ ५९॥ समानमानसतया, तयोरेकात्मनोरिव । परस्परमवर्द्धिष्ट, प्रीतिः सारसयोरिख । ६०॥ रेजे सागरचन्द्रेण, सा चन्द्रेणेव चन्द्रिका । सहोदयवती सौम्यदर्शना प्रियदर्शना ॥ ६१॥ तयोः शीलभृतो रूपवतोराजवशालिनोः । अनुरूपोऽभवद् योगश्चिराद् घटयतो विधेः॥६२॥ अविस्रम्भो न जात्वासीदन्योऽन्यप्रत्ययात् तयोः। विपरीतं न शङ्कन्ते, कदापि सरलाशयाः॥६३ ॥ अथ सागरचन्द्रस्य, बहिर्गतवतो गृहे । अशोकदत्तोऽभ्यायासीदचे च प्रियदर्शनाम ॥ ६४॥ श्रेष्ठिनो धनदत्तस्य, वध्वा मन्त्रयते रहः । नित्यं सागरचन्द्रो यत् , तत्र किं स्यात् प्रयोजनम् ? ॥६५॥ निसर्गऋज्वी साऽप्यूचे, जानात्येतत् सुहृत् तव । द्वितीयं हृदयं तस्य, त्वं वा जानासि सर्वदा ॥६६॥ रहःसूत्रितकार्याणि, महतां व्यवसायिनाम् । को जानात्यथ जानाति, स कथं कथयेद् गृहे ? ॥ ६७॥ उवाचाऽशोकदत्तोऽपि, त्वत्पतेर्यत तया सह । मन्त्रे प्रयोजनं वेभि, तत् परं कथ्यते कथम् ॥ ६८॥ प्रियदर्शनया किं तदित्युक्तः सोऽब्रवीदिति । त्वया प्रयोजनं यन्मे, सुभ्रुः तस्यापि तत् तया॥६९॥ तद्भावाविज्ञया ऋज्वा, प्रियदर्शनया पुनः । मया प्रयोजनं ते किमित्युक्तः सोऽवदत् पुनः ॥ ७॥ पुंसो रसान्तरविदः, कस्य न स्यात् सचेतसः । त्वया प्रयोजनं सुभ्र, तमेकं त्वत्प्रियं विना ॥ ७१॥ आकर्ण्य कर्णसूच्याभ, दुरीहासचि तद्वचः। सकोपाधोमुखीभूय, सा साक्षेपमभाषत ॥ ७२ ॥ रे निर्मर्याद ! पुस्खेट, त्वयैतचिन्तितं कथम् । चिन्तितं वा कथं तूक्तं ?, धिक साहसमचेतसः॥७३॥ १ मनोऽभीष्टविवाहेन । २ अविश्वासः । ३ स्वभावसरला । ४ कर्णसूचीसदृशम् । ५ हे पुरुषाधम । For Private & Personal use only . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयः सर्गः ॥३५॥ ऋषभचरितम् । किञ्च सम्भावयसि रे!, महात्मानं पतिं मम । आत्मानुरूपमेवैवं, धिक त्वां मित्रमिषाद् द्विषम् ॥७४॥ गच्छ मा तिष्ठ रे पाप!, पापं त्वदर्शनादपि । इत्याक्रुष्टस्तया शीघ्रं, स दस्युरिव निर्ययौ ॥ ७५॥ स गोहत्याकार इवाऽन्धकारमलिनाननः । विमनस्कः समागच्छन् , सागरेण व्यलोक्यत ॥ ७६॥ हे मित्र! हेतुना केन, त्वमुद्विग्न इवेक्ष्यसे । इति सागरचन्द्रेण, सोअच्छि स्वच्छचेतसा ॥७७॥ ततः स मायाकूटाद्रिर्दीघ निःश्वासमुद्वमन् । विकूणिताधरः किश्चिद् , दुष्टः कष्टादिवाऽवदत् ॥ ७८॥ जाड्यहेतुमिव हिमक्ष्माभृदभ्यर्णवासिनाम् । संसारे वसतां भ्रातः!, पृच्छस्युद्धेगकारणम् १ ॥ ७९ ॥ न यच्छादयितुं नापि, प्रकाशयितुमिश्यते । तदस्थानत्रणमिव, किमपीहोपतिष्ठते ॥ ८॥ इत्युदित्वा स्थिते मायादर्शितासविलोचने । अशोकदत्ते सोऽमायश्चिन्तयामासिवानिति ॥ ८१ ॥ अहो! असारः संसारः, पुंसां यत्रेदृशामपि । सन्देहपदमीक्षमकस्मादुपजायते ॥ ८२ ॥ अस्य धैर्यादवदतोऽप्यन्तरुद्वेग उच्चकैः । हुताश इव धूमेन, बलाद् बाष्पेण सूच्यते ॥ ८३ ॥ चिन्तयित्वेति सुचिरं, सद्यस्तदुःखदुःखितः । भूयः सागरचन्द्रस्तमित्युवाच सगद्गदम् ॥८४॥ अप्रकाश्यं न चेद् बन्धो!, तच्छंसोद्वेगकारणम् । दत्त्वा दुःखविभाग मे, स्तोकदुःखो भवाऽधुना ॥ ८५॥ अशोकदत्तोऽपीत्यूचे, मम प्राणसमे त्वयि । अन्यदप्यप्रकाश्यं न, वृत्तान्तोऽयं विशेषतः ॥८६॥ इदं वयस्यो जानाति, सदापि यदिहाऽङ्गना । अनर्थानां प्रसूर्दशिर्वरी तमसामिव ।। ८७ ॥ सागरोऽपि जगादेवमाम किं नाम सम्प्रति । सङ्कटे न्यपतः कस्या, अप्युरग्या इव स्त्रियाः ॥८८॥ * सागरे व सं प्य सदुद्वेग उ° सं १॥ १ अमावास्यारात्रिः । २ माम इति अङ्गीकारे । कुलकराणामुत्पत्तिः। For Private &Personal use only . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यूचेऽशोकदत्तोऽपि, नाटयन् कृत्रिमा त्रपाम् । असमञ्जसम्रचे मां, चिरं हि प्रियदर्शना ॥ ८९॥ लजित्वा स्वयमप्येषा, कदापि स्थास्यतीत्यहो ! । मया सलजं सावज्ञं, सेयत्कालमुपेक्षिता ॥९॥ दिने दिने परमसावसतीत्वोचितोक्तिभिः। मां वदन्ती न विरमत्यहो! स्त्रीणामसहाः ॥९१॥ अद्य त्वावसथे युष्मदन्वेषणकृते गतः । बन्धो ! निरुद्धोऽसि तया, राक्षस्येव छलज्ञया ॥ ९२ ॥ तन्तुबन्धादिव करी, कथश्चिदपि तद्ग्रहात् । आत्मानं मोचयित्वाऽहमिहाऽगममतिद्रुतम् ॥ ९३॥ . ततश्चाचिन्तयमहं, जीवन्तं मां न मोक्ष्यति । असाविति तदात्मानमद्य व्यापादयामि किम् ? ॥ ९४॥ यद्वा न मर्नुमुचितं, मन्मित्रस्य यदीदृशम् । कथयिष्यत्यन्यथाऽसौ, मत्परोक्षे तु तत्तथा ॥९५॥ अथवा कथयाम्येतत्, सर्व स्वसुहृदः स्वयम् । यथाऽस्यां कृतविश्वासो, नाऽपायमुपयात्यसौ ॥ ९६॥ नादोऽपि युक्तं यन्नास्या, मयाऽपूरि मनोरथः। दो शील्यकथनेनाऽथ, क्षते क्षारं क्षिपामि किम ? ॥१७॥ एवं विचिन्तयन्नत्र, त्वया दृष्टोऽस्मि सम्प्रति । उद्वेगकारणं चेदं, मम जानीहि बान्धव ! ॥९८॥ ___ इत्याकर्ण्य वचः पीतंहालाहल इव क्षणम् । निःस्पन्दः सागरोऽथाऽभून्निवात इव सागरः ॥ ९९ ॥ सागरो व्याजहारैवं, युज्यते योषितामिदम् । क्षारत्वमूपरमहीनिपानपयसामिव ॥ १००॥ आसादय विषादं मा, व्यवसाये शुभे भव । स्थातव्यं स्वास्थ्यमास्थाय, स्मरणीयं न तद्वचः॥१०१॥ यादृशी तादृशी वापि, साऽस्तु किं वस्तुतस्तया? । माभृन्मनोमलिनिमा, केवलं भ्रातरावयोः॥१०२॥ तेनैवमृजुना सोऽनुनीतः प्रमुमुदेऽधमः । सत्कारयन्ति ह्यात्मानं, कृत्वाऽप्यागांसि मायिनः॥ १०३॥ , अयुक्तम् । २ पीतविषः । ३ मनोमालिन्यम् । Jain Education Inter ? For Private & Personal use only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । कुलकराणामुत्पत्तिः। ततः प्रभृति निःस्नेहः, सागरः प्रियदर्शनाम् । सोद्वेगं धारयामास, रोगग्रस्तामिवाऽङ्गुलीम् ।। १०४॥ किन्तु तां वर्त्तयामासोपरोधात् प्राग्वदेव सः । वन्ध्याऽप्युन्मूल्यते नैव, लता या लालिता स्वयम् ॥१०५॥ मत्कृतो माऽनयोर्भेदोऽभूदिति प्रियदर्शना । नाऽशोकदत्तवृत्तान्तं, तं प्रियाय न्यवेदयत ॥१०६॥ कारागाराय संसारं, मन्यमानोऽथ सागरः। ऋद्धिं कृतार्थयामास, दीनादिषु नियोगतः॥१०७॥ कालेन पूरयित्वाऽऽयुः, सागरः प्रियदर्शना । अशोकदत्तश्च ययुः, कालधर्म त्रयोऽपि ते ॥१०८॥ ___ जम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रदक्षिणखण्डके । गङ्गासिन्ध्वन्तरस्याऽन्तर्भागे मध्येऽवसर्पिणि ।। १०९॥ तृतीयारे पल्याष्टमांशशेषे युग्मरूपतः । ततः समुदपद्येतां, सागरप्रियदर्शने ॥११० ॥ [युग्मम् ] भारतेषु च वर्षेषु, पञ्चखैरवतेष्विव । द्वादशारं कालचक्रं, हेतुः कालव्यवस्थितेः॥१११॥ कालो द्विविधोऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीविभेदतः । अराः षडवसर्पिण्यां, एकान्तसुषमादयः॥ ११२ ॥ तत्रैकान्तः सुषमारश्चतस्रः कोटिकोटयः । सागराणां सुषमा तु, तिस्रस्तत्कोटिकोटयः ॥ ११३ ।। सुषमदुःषमा ते द्वे, दुःषमसुषमा पुनः । सैका सहस्रैर्वाणां, द्विचत्वारिंशतोनिता ॥ ११४ ॥ एकविंशतिरब्दानां, सहस्राणि तु दु:षमा । एकान्तदुःषमाऽपि स्यात् , तावद्वर्षप्रमाणिका ॥११५॥ अरका अवसर्पिण्यां, य एते समुदीरिताः । उत्सर्पिण्यां त एव स्युः, प्रतिलोमक्रमेण तु ॥ ११६ ॥ तदेवमवसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यां च मीलिताः । सागरोपमकोटीनां, कोटयः खलु विंशतिः ॥ ११७ ॥ तत्राऽरे प्रथमे माः, पल्यत्रितयजीविनः । गव्यूतत्रितयोच्छ्रायाश्चतुर्थदिनभोजिनः ॥ ११८ ॥ चतुरस्रसुसंस्थानाः, सर्वलक्षणलक्षिताः । वज्रऋषभनाराचसंहननाः सदासुखाः ॥ ११९ ॥ Jain Education Internati For Private & Personal use only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पवृक्षाः। अपक्रोधा गतमाना, निर्माया लोभवर्जिताः । सर्ववारं स्वभावेनाऽप्यधर्मपरिहारिणः ॥ १२० ॥ प्रायच्छंस्तत्र तेषां तु, वाञ्छितानि दिवानिशम् । मद्याङ्गाद्याः कल्पवृक्षा, दशोत्तरकुरुष्विव ॥१२१॥ स्वादुमद्यानि मद्याङ्गा, ददुः सद्योऽपि याचिताः। भाजनादीनि भृङ्गाश्च, तद्भाण्डागारिका इव ॥१२२॥ तेनुस्ताङ्गास्तूर्याणि, तूर्यत्रयकराणि तु । उयोतमसमं दीपशिखा ज्योतिषिका अपि ॥ १२३॥ विचित्राणि तु चित्राङ्गा, माल्यानि समढौकयन् । मंदा इव चित्ररसा, भोज्यानि विविधानि तु ॥१२४॥ यथेच्छमर्पयामासुर्मण्यङ्गा भूषणानि तु । गेहाकाराः सुगेहानि, गन्धर्वपुरवत् क्षणात ॥१२५॥ अभमेच्छमनग्नास्तु, वासांसि समपादयन् । एते प्रत्येकमन्यानप्यर्थान् ददुरनेकशः ॥ १२६ ॥ तदा च भूमयस्तत्र, स्वादवः शर्करा इव । सदा माधुर्यधुर्याणि, धुन्यादिषु पयांस्यपि ॥ १२७॥ अतिक्रामत्यरे तत्र, वायुःसंहननादिकम् । कल्पद्रुमप्रभावाश्च, न्यूनं न्यूनं शनैः शनैः ॥ १२८॥ द्वितीये त्वरके माः, पल्यद्वितयजीविनः । गव्यूतद्वितयोच्छ्रायास्तृतीयदिनभोजिनः ॥१२९ ॥ किश्चिन्यूनप्रभावाच, तत्र कल्पमहीरुहः । किश्चिन्माधुर्यतो हीना, आपो भूशर्करा अपि ॥ १३० ॥ असिन्नप्यरके कालात , पूर्वारक इवाऽखिलम् । न्यूनन्यूनतरं स्थौल्यं, स्तम्बेरमकरे यथा ॥ १३१॥ ___ अरके तु तृतीयस्मिन्नेकपल्यायुषो नराः। एकगव्यूतकोच्छ्राया, द्वितीयदिनभोजिनः ॥१३२ ॥ अस्मिन्नप्यरके प्राग्वत , कामति न्यूनमेव हि । वपुरायुमाधुर्य, कल्पद्रुमहिमाऽपि च ॥ १३३ ॥ पूर्वप्रभावरहिते, चतुर्थे त्वरके नराः । पूर्वकोट्यायुषः पञ्चधनुःशतसमुच्छ्याः ॥१३४ ॥ १ सर्वदा । २ रसवतीकारकाः । ३ नद्यादिषु । ४ हस्तिशुण्डायाम् । त्रिषष्टि. ७ For Private & Personal use only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥३७॥ पञ्चमे तु वर्षशतायुषः सप्तकरोच्छ्याः । षष्ठे पुनः षोडशाब्दायुषो हस्तसमुच्छ्रयाः ॥ १३५ ॥ एकान्तदुःखप्रचिता, उत्सर्पिण्यामपीदृशाः । पश्चानुपूर्व्या विज्ञेया, अरेषु किल षट्स्वपि ॥ १३६ ॥ तृतीयारान्तजातत्वाद्, दैये नवधनुःशतौ । पल्यदशमांशायुष्कावभूतां तौ तु युग्मिनौ ॥ १३७ ॥ वज्रऋषभनाराचसन्धिबन्धं वपुस्तयोः । समेन चतुरस्रेण, संस्थानेन परिष्कृतम् ॥ १३८॥ युग्मधर्मी स शुशुभे, जात्यजाम्बूनदद्युतिः । प्रियङ्गवर्णया पन्या, सुमेरुरिख मेध्यया ॥१३९॥ तत्रैवाऽशोकदत्तोऽपि, प्राग्जन्मकृतमायया । श्वेतवर्णश्चतुर्दन्तः, सुरदन्तीव दन्त्यभूत् ॥ १४०॥ भ्राम्यतेतस्ततः खैरमन्येद्युस्तेन दन्तिना । स युग्मधर्मी पुरतः, प्राग्जन्मसुहृदैक्ष्यत ॥ १४१॥ तद्दर्शनामृतासारस्फारीभूततनोस्ततः । बीजस्येवाऽङ्कुरस्तस्य, स्नेहः समुदपद्यत ॥ १४२ ॥ हस्तिना तेन हस्तेनाऽऽदायाऽऽलिङ्गय यथासुखम् । अनिच्छन्नपि स स्कन्धप्रदेशमधिरोपितः ॥ १४३॥ अन्योऽन्यदर्शनाभ्यासाद् , द्वयोरपि तयोस्ततः । जज्ञे परुत्कृतस्येव, स्मरणं पूर्वजन्मनः ॥ १४४ ॥ चतुर्दन्तद्विपस्कन्धारूढं ददृशुरिन्द्रवत् । तमन्ये विस्मयोत्तानलोचना युग्मरूपिणः ॥ १४५ ॥ शङ्खकुन्देन्दुविमलं, गजमारूढ इत्यसौ । ततः प्रोच्यत मिथुनैर्नाम्ना विमलवाहनः॥१४६॥ जातिस्मृत्या स नीतिज्ञो, विमलद्विपवाहनः । प्रकृत्या रूपवांश्चेति, जज्ञे सर्वजनाधिकः ॥ १४७ ॥ कालेन गच्छता तत्र, प्रभावः कल्पभूरुहाम् । मन्दीबभूव चारित्रभ्रष्टानां यतिनामिव ॥ १४८ ॥ मद्याङ्गा विरसं मद्यमदुः स्तोकं विलम्बितम् । दुर्दैवेन परावृत्त्य समानीता इवाऽपरे ॥ १४९ ॥ १ सुवर्णकान्तिः । २ मेघमालया । कुलकराणामुत्पत्तिः। SISUSTASIASSOCESSORS For Private & Personal use only . Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीयतां मा दीयतां वेत्यामर्शविवशा इव । सविलम्ब भाजनानि, भृङ्गा अप्यर्थिता ददुः॥१५॥ आतोद्यादि न ताक्षं, ताङ्गा अप्यसूत्रयन् । तिरस्कारसमाकृष्टा, गन्धर्वा इव विष्टयः॥१५१ ॥ अर्थ्यमाना अपि मुहुर्दीपज्योतिष्कभृरुहः । नोझोतं तादृशं तेनुर्दिवा दीपशिखा इव ॥१५२ ॥ चित्राङ्गा अपि माल्यादि, द्रुतमिच्छानुसारतः । न हि विश्राणयामासुभृत्या दुर्विनया इव ॥ १५३॥ भोज्यं चतुर्विधं चित्ररसं चित्ररसा अपि । प्राग्वन्नादुः क्षीयमाणदानेच्छा इव सैत्रिणः ॥ १५४ ॥ भूषणाद्यर्पयामासुर्न मण्यङ्गास्तथाविधम् । सम्पत्स्यते कथं भूय, इति चिन्ताकुला इव ॥ १५५॥ गेहाकारास्तु गेहानि, मन्दं मन्दं वितेनिरे । सत्काव्यानीव कवयो, मन्दव्युत्पत्तिशक्तयः ॥१५६ ॥ अनग्ना अपि वस्त्राणि, स्खलितस्खलितं ददुः । क्रूरग्रहावग्रहिणो, वारि वारिधरा इव ॥ १५७ ॥ तादृक्कालानुभावेन, मिथुनानामजायत । ममत्वं कल्पवृक्षेषु, स्वदेहावयवेष्विव ॥ १५८ ॥ अन्येन स्वीकृतं कल्पवृक्षमन्यो यदाऽऽश्रयत् । महान् परिभवो ह्यासीत, तदा स्वीकृतपूर्विणः ॥१५९ ॥ तथापराभवं सोढुमसहास्ते परस्परम् । आत्माधिकं स्वामितया, चक्रुर्विमलवाहनम् ॥ १६० ॥ जातिस्मृत्या स नीतिज्ञो, युग्मिनां कल्पपादपान् । ददौ विभज्य स्थविरो, द्रविणं गोत्रिणामिव ।। १६१॥ यो यस्तत्याज मर्यादां, परकल्पद्रुमेच्छया । आविश्वकार हाकारनीति तद्दण्डनाय सः॥१६२॥ हा त्वया दुष्कृतमिति, तस्य दण्डेन युग्मिनः । वार्द्धिवेलाजलानीव, मर्यादां नातिचक्रमुः ॥ १६३ ॥ तेन हाकारदण्डेन, युग्मान्येवममंसत । वरं दण्डादिभिर्घातो, न हाकारतिरस्कृतिः॥ १६४ ॥ १ अरचयन् । २ ददुः । ३ दानशालाकारिणः । ४ शनिरविभौमादय अवृष्टिकारकाः । Jain Education Internat . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥३८॥ प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । कुलकराणामुत्पत्तिः। तस्याऽऽयुरवशेषे तु, वर्षार्द्धप्रमिते सति । भार्यायां चन्द्रयशसि, मिथुनं समजायत ॥ १६५॥ तौ स्त्रीपुंसावसंख्येयपूर्वायुष्की सुसंस्थिती । आद्यसंहननौ श्यामावष्टधन्वशतोच्छ्यौ ॥१६६ ॥ चक्षुष्मांश्चन्द्रकान्ता च, पितृभ्यां कल्पिताऽभिधी । ववृधाते सहोद्भूतौ, लताविटपिनाविव ॥१६७॥ प्रपाल्य युग्मं पण्मासान् , जरारोगौ विना मृतः । सुपर्णककुमारेषत्पेदे विमलवाहनः ॥ १६८॥ तदेव च चन्द्रयशा, मृत्वा नागेष्वजायत । अस्तमीयुषि पीयूषकरे तिष्ठेन्न चन्द्रिका ॥ १६९ ॥ आत्मीयं पालयित्वाऽऽयुस्तत्र स्तम्बेरमोऽपि सः । प्राप नागकुमारत्वं, कालमाहात्म्यमीदृशम् ॥१७॥ हाकारदण्डनीत्यैव, चक्षुष्मानथ युग्मिनाम् । मर्यादां वर्तयामास, यथा विमलवाहनः ॥१७॥ प्राप्ते च चरमे काले, चक्षुष्मच्चन्द्रकान्तयोः। यशस्वी च सुरूपा च, जज्ञाते युग्मरूपिणौ ॥१७२॥ तत्संहननसंस्थानवौँ न्यूनायुषौ मनाक् । कलयामासतुवृद्धिं, वयोबुद्धी इब क्रमात् ॥ १७३ ॥ सदा युग्मचरौ कान्ती, सप्तधन्वशतोच्छ्यौ । बिभराञ्चक्रतुद्वौ तौ, तोरणस्तम्भविभ्रमम् ॥ १७४॥ कालेन पञ्चतां प्राप्य, चक्षुष्मानुदपद्यत । सुपर्णेष्वथ नागेषु, चन्द्रकान्ताऽपि तत्क्षणम् ॥ १७५॥ ततो यशस्वी पिठ्वन्मिथुनान्यखिलान्यपि । सलील पालयामास, गोपाल इव गाश्चिरम् ।। १७६ ॥ अथोल्लचितुमारेभे, हाकारो मिथुनैः क्रमात् । स्फुरदन्तर्मदावस्थैरङ्कुशो वारणैरिव ॥ १७७ ॥ चक्के माकारदण्डं च, यशखी तानि शासितुम् । रोगे ह्येकौषधासाध्ये, देयमेवौषधान्तरम् ॥ १७८ ॥ आगखल्पे नीतिमाद्यां, द्वितीयां मध्यमे पुनः । महीयसि द्वे अपि ते, स प्रायुत महामतिः ॥ १७९॥ १ चन्द्र। * सार्धसप्त खंता, आ॥ ॥३८॥ Jain Education Interna l For Private & Personal use only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UCAUSANSLUSSESSMSSAGAR यशखिनः सुरूपायाश्चाऽसम्पूर्णायुषोर्मनाक् । स्त्रीपुंसौ समजायेतां, सह धीविनयाविव ॥ १८॥ ताभ्यां चन्द्रोज्वलः पुत्रोऽभिचन्द्र इति कीर्तितः । प्रियङ्गुप्रतिरूपा तु, प्रतिरूपेति पुत्र्यपि ॥ १८१॥12 पितृतोऽल्पायुपौ सार्द्धषदकार्मुकशतोच्छ्यौ । शम्यश्वत्थाविव युती, क्रमाद् वृद्धिमुपेयतुः ॥१८२॥ सदैव शुशुभाते तौ, यथा मिलितवारिणौ । मन्दाकिनी-यमुनयोः, प्रवाहाविव पावनौ ॥ १८३॥ पूर्णायुष्को यशखी चाऽब्धिकुमारेष्वजायत । सुरूपाऽप्यभवन्नागकुमारेषु तदैव तु ॥ १८४॥ पितेव चाभिचन्द्रोणपि,सर्वान् युगलधर्मिणः। स्थित्या तयैव नीतिभ्यां,ताभ्यामेवाशिषच्चिरम्॥१८५॥ ततो बहुलभूतेष्टाशर्वर्येव निशाकरः । प्रान्तकाले मिथुनकं, सुषुवे प्रतिरूपया ॥ १८६ ॥ सूनोः प्रसेनजिदिति, पितृभ्यां नाम निर्ममे । चक्षुष्कान्तेति पुत्र्याच, कान्तेयं चक्षुषामिति ॥१८७॥ न्यूनायुषी पितृभ्यां च, तमालश्यामलत्विषो । सहितौ ववृधाते तो, मुद्दुत्साहाविव क्रमात् ॥ १८८॥ पद्कार्मुकशतोत्सेधं, धारयन्तावुभावपि । विषुवद् वासरनिशे, इवाऽभूतां समप्रमौ ॥ १८९ ॥ मृत्वाभिचन्द्रोऽप्युदधिकुमारेदपद्यत । प्रतिरूपा पुनर्नागकुमारेषु तदैव हि ॥ १९॥ बभूव युग्मिनां नाथस्तथैवाऽथ प्रसेनजित् । प्रायो महात्मनां पुत्राः, स्युर्महात्मान एव हि ॥१९१॥ हाकारनीति माकारनीतिं च व्यत्यलङ्घयन् । तदा युग्मानि कामार्ता, हीमोंदे इव क्रमात् ॥ १९२॥ अनाचारमहाभूतत्रासमत्राक्षरोपमाम् । धिक्कारनीतिमपरामकृताऽथ प्रसेनजित् ॥ १९३॥ नीतिभिस्तिसृभिस्ताभिः, स प्रयोगविचक्षणः । शशास सकलं लोकं, यतैत्रिभिरिव द्विपम् ॥ १९४॥ * श्रीवि सं १ शमीपिप्पलवृक्षौ । २ कृष्णचतुर्दशीराव्येव । ३ हषोत्साहौ। समप्रभौ सं १ मा । Jan Education International For Private & Personal use only . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥३९॥ ततश्च पश्चिमे काले, किञ्चिदनायुषी खतः । चक्षुष्कान्तापि सुषुवे, स्त्रीपुंसौ युग्मरूपिणौ ॥ १९५॥ तो तु पञ्चाशदधिकपञ्चधन्वशतोच्छ्यौ । सहैव प्रापतुवृद्धि, वृक्षच्छाये इव क्रमात् ॥ १९६॥ मरुदेव इति मनुः, श्रीकान्तेति च नन्दना । तौ युग्मधर्मिणौ लोके, नाम्ना ख्यातिमुपेयतुः॥१९७॥g प्रियङ्गुवर्णया पत्न्या, मरुदेवः सुवर्णरुक् । शुशुभे नन्दनतरुश्रेण्येव कनकाचलः ॥ १९८ ॥ ततो द्वीपकुमारेषु, जज्ञे मृत्वा प्रसेनजित् । चक्षुष्कान्ता पुनर्नागकुमारेषु तदैव हि ॥ १९९ ॥ . नीतिक्रमेण तेनैव, सर्वान् युगलधर्मिणः । मरुदेवस्ततो देवान् , देवराज इवाऽन्वशात ॥ २०॥ श्रीकान्तायाः प्रान्तकालेज्जायेतां युग्मधर्मिणौ । नाभिश्च मरुदेवा च, स्त्रीपुंसावभिधानतः ॥ २०१॥ पञ्चविंशत्यभ्यधिकपश्चधन्वशतोच्छ्यौ । सहैव प्रापतुर्वृद्धिं, तो क्षमासंयमाविव ॥२०२॥ मरुदेवा प्रियङ्गश्री भिर्जाम्बूनदद्युतिः । पित्रोः सावर्ण्यतोऽभातां, तत्प्रतिच्छन्दकाविव ॥ २०३ ॥ सङ्ख्यातपूर्वप्रमितं, तयोरायुर्महात्मनोः । श्रीकान्तामरुदेवाभ्यां, मनागूनमभूत किल ।। २०४॥ विपद्य मरुदेवोऽथ, प्राप द्वीपकुमारताम् । श्रीकान्ताऽपि हि तत्कालमेव नागकुमारताम् ॥२०५॥ सप्तमोऽभूत् कुलकरो, नाभिस्तदनु युग्मिनाम् । तिसृभिनीतिभिस्तांश्च, यथावत् प्रशशास सः ॥२०६॥ तदा तृतीयारशेषे, पूर्वलक्षेषु सङ्ख्यया । चतुरशीतो सनवाशीतिपक्षेषु सखिह ॥ २०७॥ आषाढमासस्य पक्षे, प्रवृत्ते धवलेतरे । चतुर्थ्यामुत्तराषाढानक्षत्रस्थे निशाकरे ॥ २०८ ॥ प्रपाल्याऽऽयुस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमसम्मितम् । जीवः श्रीवज्रनाभस्य, च्युत्वा सर्वार्थसिद्धितः॥२०९ ॥ १ इन्द्रः । २ तत्प्रतिबिम्बभूतौ। कुलकराणामुत्पत्तिः, मरुदेवायाः कुक्षौ प्रभोरवतरणं च। ॥३९॥ Jan Education Internationell For Private & Personal use only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुदेवायाचतुर्दशमहास्वमदर्शनम्। श्रीनाभिपल्या उदरे, मरुदेव्या अवातरत् । मानसात् सरसो हंस, इव मन्दाकिनीतटे ॥ २१॥ तदा स्वामिन्यवतीणे, त्रैलोक्येऽपि शरीरिणाम् । दुःखच्छेदात् क्षणं सौख्यमुझ्योतश्च महानभृत् ॥२११॥ तत्राऽवतरयामिन्यां, वासागारे प्रसुप्तया । मरुदेव्या ददृशिरे, महास्वमाश्चतुर्दश ॥ २१२॥ आदौ वृषः सितः पीनस्कन्धो दीर्घर्जुवालधिः । सवर्णकिङ्किणीमालः, शरन्मेघ इवोत्तडित् ॥२१३॥ दन्तिराजश्चतुर्दन्तः, श्वेतवर्णः क्रमोन्नतः। क्षरन्मदनदीरम्यः, कैलास इव जङ्गमः ॥ २१४ ॥ पिङ्गाक्षो दीर्घरसनः, केसरी लोलकेसरः । पताकामिव शूरेषु, तन्वन्नुत्पुच्छनच्छलात् ।। २१५ ॥ देवी च पद्मनिलया, पद्मसदृग्विलोचना । दिकुञ्जरकरोत्क्षिप्तपूर्णकुम्भोपशोभिता ॥ २१६ ॥ नानाविधामरतरुप्रसूनपरिगुम्फितम् । दाम प्रलम्बधन्वेव, ऋजुरोहितधन्वनः ॥ २१७ ॥ निजाननप्रतिच्छन्दमिवाऽऽनन्दनिबन्धनम् । कान्तिपूरद्योतिताशामण्डलं चन्द्रमण्डलम् ॥ २१८ ॥ निशायामपि तत्कालं, वासरभ्रमकारकः । सर्वान्धकारच्छिदुरः, स्फुरद्युतिरहपतिः॥२१९ ॥ 'किङ्किणीमालभारिण्या, प्रचलन्त्या पताकया । करीव कर्णतालेन, राजमानो महाँध्वजः॥२२०॥ अम्भ कुम्भः शातकौम्भः, सेराम्भोजार्चिताननः । अम्भोधिमथनोद्गच्छत्सुधाकुम्भसहोदरः ॥२२१॥ स्तोतुं तमाद्यमर्हन्तं, पद्मभृङ्गनिनादिभिः । अनेकवदनीभूत, इव पीकरो महान् ॥ २२२ ॥ भुव्यास्तीर्णशरन्मेघमालालीलामलिम्लुचैः । उद्वीचिनिचयैश्चेतोऽभिरामः क्षीरनीरधिः॥२२३॥ यत्रोषितोऽभृद् भगवान् , देवत्वे तदिवाऽऽगतम् । इहापि पूर्वस्नेहेन, विमानममितद्युति ॥ २२४ ॥ 1 लम्बसरलपुच्छः। *णकिङ्कणीमा खंता, सं २॥ २ आरूढधन्वनः। ३ सूर्यः । । किङ्कणी सं २॥ AUXHAUSES OSASAUGAUS ROG Jain Education Internator For Private & Personal use only . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि | प्रथम पर्व द्वितीया शलाकापुरुषचरिते सर्गः ॥४०॥ ऋषभचरितम् । SANSHORS कुतोऽप्येकत्र मिलितस्तारकाणामिवोत्करः । रत्नपुञ्जो महान् व्योम्नि, पुञ्जीभृतामलद्युतिः ॥ २२५ ॥ तेजस्विनां पदार्थानां, त्रैलोक्योदरवर्त्तिनाम् । सम्पिण्डितं तेज इव, निर्धूमोऽग्निर्मुखेऽविशत् ॥ २२६॥ निशाविरामसमये, स्वामिनी मरुदेव्यपि । स्वमान्ते सयमानास्था, पमिनीव व्यबुध्यत ॥ २२७ ॥ असम्मान्तीं मुदमिवोद्गिरन्ती कोमलाक्षरैः । स्वमानकथयद् देवी, तांस्तथैवाऽऽशु नाभये ॥ २२८ ॥ उत्तमस्ते कुलकरस्तनयो भवितेत्यथ । स्वार्जवस्याऽनुसारेण, नाभिः स्वमान् व्यचारयत् ।। २२९ ॥ स्वामिनः कुलकृन्मात्रसम्भावनमसाम्प्रतम् । इति कोपादिवेन्द्राणामकम्पन्ताऽऽसनान्यथ ॥ २३०॥ किमित्यकस्मादस्माकमासनानां प्रकम्पनम् ? । इति दत्त्वोपयोगं तद्, विदाञ्चक्रुर्बिडौजसः ॥ २३१॥ तत्कालं भगवन्मातुः, स्वमार्थमभिशंसितुम् । सुहृदः कृतसङ्केता, इवेन्द्रास्तुल्यमाययुः ॥ २३२॥ ततस्ते विनयान्मूर्भि, घटिताञ्जलिकुमलाः । स्वप्नार्थ स्फुटयामासुः, सूत्रं वृत्तिकृतो यथा ॥ २३३ ॥ भावी खामिनि ! पुत्रस्ते, स्वमे वृषभदर्शनात् । मोहपङ्कममधर्मस्यन्दनोद्धरणक्षमः ॥२३४ ॥ हस्तिदर्शनतो देवि !, तव सूनुर्भविष्यति । गरीयसामपि गुरुमहास्थामैकधाम च ॥ २३५ ॥ भावी पुरुषसिंहस्ते, तनयः सिंहदर्शनात् । धीरः सर्वत्र निर्भीकः, शूरोऽस्खलितविक्रमः ॥ २३६ ॥ यच्च श्रीर्ददृशे तत्र, तनयः पुरुषोत्तमः । देवि ! त्रैलोक्यसाम्राज्यलक्ष्मीनाथो भविष्यति ॥ २३७ ॥ स्वमे खग्दर्शनात् पुण्यदर्शने! स्यात् तवाऽऽत्मजः । सर्वस्य जगतः स्रग्वच्छिरसोद्वाह्यशासनः ॥ २३८ ॥ जगन्मातस्त्वया यच्च, स्वप्ने पूर्णेन्दुर्रक्ष्यत । तन्नेत्रानन्दनः कान्तो, नन्दनस्ते भविष्यति ॥ २३९ ॥ ईक्षाञ्चके रविर्यच्च, तत्सूनुस्ते भविष्यति । मोहान्धकारविध्वंसाजगदुद्योतकारकः ॥२४॥ ६ इन्दैश्चतुर्दश महास्वमफल कथनम्। ॥४०॥ Jain Education Internat For Priate & Personal use only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलुलोके त्वया खने, यच्च देवि! महाध्वजः। महावंशप्रतिष्ठः स्यात, तत् ते धर्मध्वजोङ्गजः ॥२४१॥ यच्च स्वमे पूर्णकुम्भो, भवत्याऽऽलोकि देवि! तत् । सूनुः समग्रातिशयपूर्णपात्रं भविष्यति ॥ २४२ ॥ यच्च पदसरो दृष्टं, तत् स्वामिनि! तवाऽऽत्मजः । तापं संसारकान्तारपतितानां हरिष्यति ॥ २४३ ॥ सरित्पतिर्यदालोकि, भवत्या तनयस्तव । अधृष्यवाभिगम्यश्च, तदवश्यं भविष्यति ॥ २४४ ॥ विमानं देवि! यद् दृष्टं, भवत्या भुवनाद्भुतम् । वैमानिकैरपि सुरैस्तत् ते सेविष्यते सुतः॥ २४५॥ रत्नपुखः स्फुरत्कान्तिरीक्षामासे च यत् त्वया । तत्सर्वगुणरत्नानामाकरः स्यात् तवाऽऽत्मजः ॥२४६॥ यज्वलज्ज्वलनो दृष्टो, वक्रमध्ये विशंस्त्वया । अन्यतेजस्विनां तेजस्तदपास्यति से सुतः ॥२४७॥ चतुर्दशभिरप्येतैः, स्वमैः स्वामिनि ! सूच्यते । चतुर्दशरज्जुदने, लोके खामी तवाऽऽत्मजः ॥२४८॥ इति स्वमार्थमाख्याय, मरुदेवीं प्रणम्य च । क्षणानि निजस्थानान्यगमनमरेश्वराः ॥ २४९ ॥ स्वामिन्यपीन्द्रैः स्वमार्थव्याख्यानसुधयोक्षिता | वसुधेवाऽम्बुदैरद्भिः, संसिक्ता समुदश्वसत् ॥ २५०॥ सा तेनाऽशोभि गर्भेण, मेघमालेव भानुना । शुक्तिर्मुक्ताफलेनेव, सिंहेनेवाद्रिकन्दरा ॥२५१॥ प्रियकुश्यामवर्णाऽपि, मरुदेवा निसर्गतः । शरदा मेघमालेव, गर्भेण प्राप पाण्डुताम् ॥ २५२ ॥ तस्या अभूतां वक्षोजौ, विशेषात् पीवरोमतौ । स्तन्यपो नौ जगत्स्वामी, भावीतीव प्रमोदप्तः ॥ २५३ ॥ तस्या विशेषतोऽभूतां, सविकाशे विलोचने । भगवद्वदनं द्रष्टुं, दूरमुत्कण्ठिते इव ॥ २५४ ॥ नितम्बभित्तिः खामिन्या, वैपुल्यं विपुलापि हि । भेजे वर्षात्यये निम्नगायाः पुलिनभृरिव ॥ २५५ ॥ * यहेवि ! ज्वलनो ह° सं॥ चतुर्दशरजुप्रमाणे । + 'जस्थानान्यगमन् सर्वेऽपि सुरेश्वराः सं ॥ For Private & Personal use only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयः सर्गः ॥४१॥ ऋषभचरितम्। ऋषभप्रभो मन्दा सहजभावेनाऽप्यस्था मन्दतराऽभवत् । गतिर्मतङ्गजस्येव, मदावस्थामुपेयुषः ॥ २५६ ॥ तस्यास्तदानीं ववृधे, लावण्यश्रीविशेषतः । प्रज्ञेवोषसि विदुषो, ग्रीष्मे वेलेव वारिधेः॥ २५७॥ त्रैलोक्यैकमहासारं, सा गर्भ धारयत्यपि । नाखिद्यत प्रभावोऽयमहतां गर्भवासिनाम् ॥ २५८ ॥ उदरे मरुदेवायाः, शनकैः शनकैस्ततः । निगूढं ववृधे गर्भः, कन्दोऽन्तरवनेरिव ॥ २५९ ॥ स्वामिन्यभृत् तत्प्रभावाद्, विशेषाद् विश्ववत्सला । शीतमप्यम्बु शीतं स्यात्, क्षिप्तया हिममृत्स्नया ॥२६॥ गर्भावतीर्णभगवत्प्रभावान्नाभिरप्यभृत् । पितृतोऽप्यधिकं मान्यः, सर्वेषां युग्मधर्मिणाम् ।। २६१॥ तत्प्रभावाद् विशिष्टानुभावाः कल्पद्रवोऽभवन् । शरत्कालवशादिन्दुकरा स्युरधिकश्रियः ।। २६२॥ तत्प्रभावाच्छान्ततिर्यग्नृवैरा भूरभूच्च सा । सर्वतोऽपि हि शाम्यन्ति, सन्तापाः प्रावृडागमात् ॥ २६३॥ ततो नवसु मासेषु, दिनेष्वर्द्धाष्टमेषु च । गतेषु चैत्रबहुलाष्टम्याम निशाक्षणे ॥ २६४ ॥ उच्चस्थेषु ग्रहेष्विन्दावुत्तराषाढया युते । सुखेन सुषुवे देवी, पुत्रं युगलधर्मिणम् ॥ २६५॥ दिशः प्रसादमासेदुस्तदानीं सम्मदादिव । लोकः क्रीडापरो जज्ञे, धुवासीव महामुदा ॥ २६६ ॥ जरायुरक्तप्रभृतिकलङ्कपरिवर्जितः । उपपादशय्योद्भूत, इव देवो रराज सः ॥ २६७ ॥ तदा कृतजगन्नेत्रचमत्कारोऽन्धकारभित् । बभूव विधुदुयोत, इवोझोतो जगत्रये ॥ २६८॥ किङ्करानाहतोऽप्युच्चैर्मेघगम्भीरनिस्वनः । स्वयं द्यौरिव हर्षेण, ननाद दिवि दुन्दुभिः॥२६९ ॥ अप्राप्तपूर्विणां सौख्यं, नारकाणामपि क्षणम् । समजायत तिर्यग-नृ-सुराणां किं पुनस्तदा ? ॥२७॥ २ मृत्तिकया।२ चैत्रकृष्णाष्टम्याम् । * उत्तराषाढया युक्ते, चन्द्रे चन्द्रमिवेन्द्रदिक् सं २, आ ॥ ३ देव इव । जन्म। 05 OSHOROSAROKASSACREAK ॥४१॥ For Private & Personal use only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपभूमि प्रसर्पद्भिर्मन्दं मन्दं समीरणैः । रजोऽपनिन्ये मेदिन्याः , परिचर्याकरैरिव ॥ २७१ ॥ चेलक्षेपं च गन्धाम्बु, ववृषे स्तनयिबुभिः । सिक्तबीजवदुच्छासमाससाद च मेदिनी ॥ २७२ ॥ अथाऽधोलोकवासिन्यः, सद्यः प्रचलितासनाः । दिकमार्यः समाजग्मुरष्टौ तत्सूतिवेश्मनि ॥ २७३॥ भोगरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिनी।तोयधारा विचित्राच,पुष्पमाला त्वनिन्दिता॥ तत्राऽऽदिमं तीर्थकरं, तीर्थकृन्मातरं च ताम् । तास्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, वन्दित्वा चैवमृचिरे ॥ २७५॥ नमस्तुभ्यं जगन्मातर्जगद्दीपप्रदायिके! । अष्टौ वयमधोलोकवासिन्यो दिक्कुमारिकाः ॥ २७६ ॥ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा, तीर्थकृजन्म पावनम् । तन्महिम्नः करणार्थ, तत्प्रभावादिहाऽऽगताः॥ २७७॥ तन्न भेतव्यमित्युक्त्वा, 'देशे पूर्वोत्तरे स्थिताः । चक्रुः स्तम्भसहस्राङ्क, प्रामुखं सूतिकागृहम् ॥ २७८ ॥ ताच संवर्त्तवातेन, परितः सूतिकागृहम् । आयोजनमपाहार्युः, शर्कराकण्टकादिकम् ।। २७९ ॥ संवर्त्तवातं संहृत्य, भगवन्तं प्रणम्य च । तदासन्ननिषण्णास्तास्तं गायन्त्योऽवतस्थिरे ॥२८॥ तथैवाऽऽसनकम्पेन, ज्ञात्वा मेरुगिरिस्थिताः । ऊर्द्धलोकनिवासिन्योऽप्यष्टेयुर्दिकुमारिकाः ॥ २८१॥ मेघङ्करा मेघवती, सुमेघा मेघमालिनी। सुवत्सा वत्समित्रा च, वारिषेणा बलाहिका ॥२८२ ॥ जिनं जिनजननीं च, नत्वा नुत्वा तथैव ताः । नर्भस्यवनभस्यभ्रपटलं द्राग् विचक्रिरे ॥ २८३ ॥ ताभिः सुगन्धितोयेनाऽऽयोजनं वेश्मपार्श्वतः । समन्ततो रजोऽशामि, कौमुद्येव तमस्ततिः ॥ २८४ ॥ मेधैः। * अथ मेरुरुचकाधोलोकस्थाश्चलि खंता ॥ सुबत्सा वत्समित्रा च, पु. खंता, आ॥ देशे|ऽथोत्तरपश्चिमे खंता ॥ तोयधारा विचित्रा च वारि खंता, आ ॥ २ भाद्रपदमासवत् । SIL For Private & Personal use only . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि प्रथमं पर्व शलाकापुरुषचरिते | द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥४२॥ वसुन्धरां वितन्वानां, नानालेख्यमयीमिव । जानुदनीं पञ्चवर्णैः, पुष्पवृष्टिं वितेनिरे ॥ २८५ ॥ तथैव तीर्थनाथस्य, गायन्त्यो निर्मलान् गुणान् । हर्षप्रकर्षशालिन्यः, स्थाने तस्थुर्यथोचिते ॥ २८६ ॥ दिकुमार्योऽष्ट पौरस्त्यरुचकाद्रिस्थिता अपि । विमानैर्मनसा साई, स्पर्द्धमानैरिवाऽऽययुः॥ २८७॥ ताश्च नन्दोत्तरानन्दे, आनन्दानन्दिवर्द्धने । विजया वैजयन्ती च, जयन्ती चाऽपराजिता ॥ खामिनं मरुदेवां च, नत्वाऽऽख्याय च पूर्ववत् । गायन्त्यो मङ्गलान्यस्थुस्ताः प्राग्दर्पणपाणयः ॥२८९॥ अपाच्यरुचकाद्रिस्थास्तावन्त्यो दिक्कुमारिकाः । तत्राऽऽययुः प्रमोदेन, प्रतोदेनेव नोदिताः ॥२९॥ समाहारा सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा यशोधरा । लक्ष्मीवती शेषवती, चित्रगुप्ता वसुन्धरा ॥२९१॥ जिननाथं तदम्बां च, नत्वा प्राग्वनिगद्य च । भृङ्गारपाणयस्तस्थुर्गायन्त्यो दक्षिणेन ताः ॥ २९२॥ प्रत्यग्रुचकशैलस्था, अप्यष्टौ दिक्कुमारिकाः। आययुस्त्वरयाऽन्योऽन्यमिव भक्त्या जिगीषवः ॥२९३॥ इलादेवी मुरादेवी, पृथिवी पद्मवत्यपि । एकनासा नवमिका, भद्रा सीतेति नामतः ॥२९४॥ नत्वा जिनं जिनाम्बां च, विज्ञपय्य च पूर्ववत् । तस्थुर्व्यजनहस्तास्ता, गायन्त्यः पश्चिमेन तु ॥ २९५॥ उदग्रुचकतोऽप्येयुर्दिकुमार्योऽष्ट वेगतः । वातैरिव रथीभूतैरमरैराभियोगिकैः ॥ २९६ ॥ अलम्बुसा मिश्रकेशी, पुण्डरीका च वारुणी। हासा सर्वप्रभा चैव, श्री हीरित्यभिधानतः।।२९७॥ नत्वा जिनं तदम्बां च, कृत्यं चाऽऽख्याय पूर्ववत् । गायन्त्य उत्तरेणाऽस्थुस्तास्तु चामरपाणयः ॥२९८॥ एयुर्विदिग्भचकाद्रेश्चतस्रो दिक्कुमारिकाः। चित्रा चित्रकनका सतेरा सौत्रामणी तथा ॥ २९९ ॥ १ जानुप्रमाणाम् । * "युः प्रयत्नेन, प्रमोदेनैव चालिताः सं 1॥ दिक्कुमारीविहित ऋषभजिनजन्मोत्सवः। ॥४२॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्कुमारीविहित ऋषभजिनजन्मोरसवः । HOMEMOISSESSIOSANSAR नत्वा जिनं जिनाम्बां च, विज्ञपय्य तथैव हि । गायन्त्योऽस्थुर्दीपहस्ता, ईशानादिविदिक्षु ताः॥३०॥ रुचकद्वीपतोऽप्येयुश्चतस्रो दिकुमारिकाः । रूपा रूपाशिका चाऽपि, सुरूपा रूपकावती ॥३०१॥ चतुरङ्गलवर्ज ता, नाभिनालं जगत्पतेः । न्यकृन्तन् विदरं चख्नुस्तं च तत्र निचिक्षिपुः ॥ ३०२॥ विदरं पूरयामासुर्वत्रै रनैश्च मङ्गु ताः । दूर्वया पीठिकाबन्धं, तस्योपरि च चक्रिरे ।। ३०३ ॥ जिनजन्मगृहात पूर्वदक्षिणोत्तरदिक्षु च । विचक्रुस्त्रीणि कदलीगृहाणि श्रीगृहाणि ताः ॥३०४॥ प्रत्येकमेषां मध्ये च, ताः सिंहासनभूषितम् । विचक्रिरे चतुःशालं, विशालं स्वविमानवत् ।। ३०५॥ ता दक्षिणचतुःशाले, जिनं न्यस्य कराञ्जलौ । निन्युस्तन्मातरं चाऽऽप्सचेटीवद् दत्तबाहवः ॥ ३०६ ॥ सिंहासने निवेश्योभावभ्यानक्षुः सुगन्धिना । ता लक्षपाकतैलेन, जरत्संवाहिका इव ।। ३०७ ॥ अमन्दामोदनिःस्यन्दप्रमोदितदिशा भृशम् । उभावुद्वर्त्तयामासुर्दिव्येनोद्वर्त्तनेन ताः ॥३०८॥ नीत्वा ताः प्राक्चतुःशाले, न्यस्य सिंहासने च तौ । नपयामासुरम्भोभिः, खमनोभिरिवाऽमलैः॥३०९॥ गन्धकाषायवासोभिस्तदङ्गान्यमृजन्नथ । गोशीर्षचन्दनरसैश्चर्चयामासुराशु ताः ॥३१॥ ताभ्यामामोचयामासुर्देवदूष्ये च वाससी । विद्युद्योतसध्यञ्चि, ताश्चित्राभरणानि च ॥३११ ॥ अथोत्तरचतुःशाले, नीत्वा सिंहासनोपरि । न्यषादयन् भगवन्तं, भगवन्मातरं च ताः ॥३१२ ॥ गोशीर्षचन्दनैधांसि, द्राक् क्षुद्रहिमवगिरेः । ताः समानाययामासुरमरैराभियोगिकैः ॥३१३ ॥ उत्पाद्याऽरणिदारुभ्यां, वह्निमह्नाय तास्ततः । होमं वितेनुर्गाशीर्षचन्दनैरेधसात्कृतैः ॥ ३१४ ॥ * विवरं सं १, खं ॥ + विवरं सं १, खं ॥ । विद्युत्प्रकाशसमानानि । निषष्टि, ८ Jain Education Internatione For Private & Personal use only www.iainelibrary.org Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि प्रथमं पर्व शलाकापुरुषचरिते द्वितीय: सर्गः ऋषभ| चरितम् । ॥४३॥ रक्षापोट्टलिका वह्निभसना तेन ता व्यधुः । तयोर्महामहिम्नोरप्यासा भक्तिक्रमः स हि ॥३१५॥ पर्वतायुभवेत्युच्चैरुक्त्वा कर्णान्तिके विभोः । ताः समास्फालयामासुर्मिथः पाषाणगोलकौ ॥३१६ ॥ मतिकाभवने तस्मिन् , मरुदेवां विभुं च ताः । शय्यागतौ विधायाऽस्थुर्गायन्त्यो मङ्गलान्यथ ॥३१७॥ तदा शाश्वतघण्टानां, स्वर्गेषु युगपद् ध्वनिः । बभूव लग्नवेलायामातोद्यानामिवोच्चकैः ॥ ३१८॥ वासवानामासनानि, शैलमूलाचलान्यपि । चकम्पिरे तदानीं च, हृदयानि च सम्भ्रमात् ॥ ३१९ ॥ ततश्च सौधर्मपतिः, कोपाटोपारुणेक्षणः । ललाटपट्टघटितभ्रकुटीविकटाननः ॥ ३२० ॥ अधरं स्फोरयन्नन्तः, क्रोधवः शिखामिव । उच्छ्रसन्नङ्गिणैकेन, स्थिरीकर्तुमिवाऽऽसनम् ॥ ३२१ ॥ कस्योत्क्षिप्तं कृतान्तेन, पत्रमद्येति विब्रुवन् । आदित्सते स्म दम्भोलिं, स्वशौण्डीर्यानलानिलम् ॥ ३२२॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] एवं पुरन्दरं प्रेक्ष्य, क्रुद्धकेसरिसोदरम् । मृत्तॊ मान इवाऽनीकपतिर्नत्वा व्यजिज्ञपत् ॥ ३२३ ॥ किमावेशः स्वयं स्वामिन् !, पदातौ मयि सत्यपि । समादिश जगन्नाथ!, कं मनामि तव द्विषम् ॥३२४॥ ततो मनःसमाधानमाधाय विबुधाधिपः । प्रयुज्याऽवधिमज्ञासीजन्माऽऽदिमजिनप्रभोः ॥३२५॥ मुदा विगलितक्रोधसंवेगस्तत्क्षणादभृत् । शान्तदावानलो वृष्ट्या, सानुमानिव वासवः ॥ ३२६ ॥ धिग् मया चिन्तितमिदं, मिथ्यादुष्कृतमस्तु मे । इति ब्रुवाणो गीर्वाणाग्रणीः सिंहासनं जहौ ॥ ३२७ ॥ गत्वा पदानि सप्ताऽष्टान्युत्तमाङ्गे निधाय च । द्वितीयरत्नमुकुटश्रीविश्राणकमञ्जलिम् ॥ ३२८ ॥ १ वज्रम् । २ इन्द्रम् । सौधर्मेन्द्रागमनम्। Jain Education Internation For Private & Personal use only . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte जानूत्तमाङ्गकमलसंस्पृष्टपृथिवीतलः । नत्वा रोमाञ्चितोऽर्हन्तमिति स्तोतुं प्रचक्रमे ।। ३२९ ॥ तुभ्यं नमस्तीर्थनाथ !, सनाथीकृतविष्टप ! | कृपारससरिनाथ !, नाथ ! श्रीनाभिनन्दन ! ॥ ३३० ॥ मत्यादिभिस्त्रिभिर्ज्ञानैः सहोत्थैर्नाथ ! शोभसे । नन्दनादिभिरुद्यानैरिव मेरुमहीधरः ॥ ३३१ ॥ देवेदं भारतं वर्ष, दिवोऽप्यद्याऽतिरिच्यते । त्रैलोक्यमौलिरत्लेन, यदलङ्कियते त्वया ॥ ३३२ ॥ असौ त्वजन्मकल्याणमहोत्सवपवित्रितः । आसंसारं जगन्नाथ !, वन्द्यस्त्वमिव वासरः ॥ ३३३ ॥ नारकाणामपि सुखं, जज्ञे त्वज्जन्मपर्वणा । अर्हतामुदयः केषां न स्यात् सन्तापहारकः ? ।। ३३४ ॥ जम्बूद्वीपस्य भरतक्षेत्रे नष्टो निधानवत् । त्वदाज्ञावीजकेनाऽतः परं धर्मः प्रकाशताम् ॥ ३३५ ॥ त्वत्पादौ प्राप्य संसारं, तरिष्यन्ति न केऽधुना ? । अयोऽपि यानपात्रस्थं, पारं प्राप्नोति वारिधेः ||३३६ || कल्पवृक्ष इवाऽवृक्षे, नदीस्रोतो मराविव । भगवन्नवतीर्णोऽसि, लोकपुण्येन भारते ॥ ३३७ ॥ भगवन्तमिति स्तुत्वा, प्रथमस्वर्गनायकः । पदात्यनीकाधिपतिं नैगमेषिणमादिशत् ॥ ३३८ ॥ जम्बूद्वीपस्थ भरतदक्षिणार्द्धस्य मध्यमे । भूमिभागे कुलभृतो, नाभेः पत्न्याः श्रियांनिंधेः ॥ ३३९ ॥ नन्दनो मरुदेवाया, जज्ञे प्रथमतीर्थकृत् । आहूयन्तां सुराः सर्वे, तज्जन्मस्त्रात्रहेतवे ॥ ३४० ॥ ततश्च योजनपरिमण्डलामद्भुतखनाम् । स त्रिरुल्लालयन् घण्टां सुघोषाख्यामवादयत् ॥ ३४१ ॥ सर्वापरविमानानां नेदुर्घण्टाः सुघोषया । समं मुखरगायन्या, गायन्य इव पक्षगाः ॥ ३४२ ॥ घण्टानां निखनस्तासां दिङ्मुखोत्थैः प्रतिखनैः । सूनुभिः स्वप्रतिच्छन्दैः सतां कुलमिवाऽवृधत् ॥ ३४३ || * द्वीपीयभ° खंता, द्वीपस्य भ° सं १, आ ॥ + निधिः खंता, आ ॥ १ अग्रसरगायक्या । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥४४॥ सौधर्मेन्द्रागमनम्। GRUSALUSAREEKASGER द्वात्रिंशति विमानानां, लक्षेषु स समुच्छलन् । तालुनीवाऽनुरणनरूपः शब्दो व्यजृम्भत ॥ ३४४ ॥ देवाः प्रमत्तव्यासक्तास्तेन शब्देन मूर्च्छता । किमेतदिति सम्भ्रान्ताश्चक्रिरे सावधानताम् ॥३४५॥ उद्दिश्य तानवहितान् , सेनानीः सोऽथ वज्रिणः । वचसा मेघनिर्घोषगम्भीरेणाऽभ्यधादिति ॥ ३४६ ॥ भो भो देवाः ! समस्तान् वः, सदेव्यादिपरिच्छदान् । इत्यादिशत्यनुल्लयशासनः पाकशासनः ॥३४७॥ जम्बूद्वीपस्थभरतदक्षिणार्द्धस्य मध्यतः । नामे कुले कुलकृतो, जज्ञे प्रथमतीर्थकृत् ॥ ३४८॥ तत्र तजन्मकल्याणमहोत्सवविधित्सया । गन्तुं त्वरध्वमस्मद्वत् , कृत्यं नाऽतः परं परम् ॥ ३४९ ॥ प्रत्यहन्तं रागतः केऽप्यभिवातमिवैणकाः । केपि शक्राज्ञयाऽऽकृष्टा, अयस्कान्तेन लोहवत् ॥ ३५० ॥ दारैरुल्लासिताः केपि, यादांसीव नदीरयैः । केचित् सुहृद्भिराकृष्टा, गन्धा गन्धवहैरिव ॥ ३५१॥ एयुर्विमानै रुचिरैर्वाहनैरपरैरपि । द्यामन्यामिव कुर्वाणा, गीर्वाणाः शक्रसन्निधौ ॥ ३५२ ॥ . [त्रिभिर्विशेषकम् ] आदिशत् पालकं नाम, वासवोऽप्याभियोगिकम् । असम्भाव्यप्रतिमानं, विमानं क्रियतामिति ॥३५३।। तत्कालं पालकोऽपीशनिदेशपरिपालकः । रत्नस्तम्भसहस्रांशुपूरपल्लविताम्बरम् ॥ ३५४ ॥ गवाक्षरक्षिमदिव, दीपोष्मदिव ध्वजैः । वेदीभिर्दन्तुरमिव, कुम्भैः पुलकभागिव ॥ ३५५ ॥ पञ्चयोजनशत्युच्चं, विस्तारे लक्षयोजनम् । इच्छानुमानगमनं, विमानं पालकं व्यधात् ॥ ३५६॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] . * मूञ्छिताः सं १, २, आ॥ : सावधानान् । २ लोहचुम्बकेन । ३ जलजन्तयः । ॥४४॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COMRANSLASSAGE आसंस्तस्य विमानस्य, तिस्रः सोपानपतयः । गिरेहिमवतो नद्य, इव कान्तितरङ्गिताः ॥ ३५७ ॥ तासां पुरस्ताद् विविधवर्णरत्नमयानि च । तोरणानि त्रिधाभूतशक्रधन्वश्रियं दधुः ॥ ३५८ ॥ चन्द्रबिम्बवदादर्शवदालिङ्गिमृदङ्गवत् । दीपमल्लीवदस्यान्तः, समवृत्ता रराज भूः ॥३५९ ॥ न्यस्तरत्नशिलारश्मिपटलैर्विरलेतरैः । भित्तिचित्रोपरितिरस्करणीरिव सा न्यधात ॥ ३६०॥ अभूत् तन्मध्यतः प्रेक्षामण्डपो रत्ननिर्मितः । अप्सरोनिर्विशेषाभिः, पाञ्चालीभिर्विभूषितः ॥ ३६१॥ मण्डपस्य च तस्यान्तश्चारुमाणिक्यनिर्मिता । बभूव पीठिकोन्निद्रपङ्कजस्येव कर्णिका ॥ ३६२ ॥ चकासामास विष्कम्भायामयोरष्टयोजना । सा चतुर्योजना पिण्डे, शय्येव मघवेश्रियः ॥ ३६३ ॥ । रेजे तस्या उपर्येकं, रत्नसिंहासनं महत् । अशेषज्योतिषां सारं, पिण्डयित्वेव निर्मितम् ॥ ३६४ ॥ तस्योपरिष्टाद् विजयदृष्यं दृष्येतरथ्यभात् । विचित्ररत्नखचितं, निचिताम्बरमंशुभिः ॥ ३६५ ॥ तस्य मध्ये कर्ण इवेभस्य वज्राङ्कुशोऽशुभत् । लीलादोलानिभं लक्ष्म्या, मुक्तादाम च कुम्भिकम् ॥३६६॥ तदीयामिभिर्मुक्तादामभिश्चार्धकुम्भिकैः । पार्श्वगैर्दाम रेजे तद् , गङ्गा नद्यन्तररिव ॥ ३६७ ॥ तत्संस्पर्शसुखलोभादिव स्खलितगामिभिः । मन्दं मन्दमदोल्यन्त, तानि प्राच्यादिवायुभिः ॥ ३६८॥ तदन्तः सञ्चरन् वायुश्चक्रे श्रुतिसुखं स्वरम् । चाटुकार इवेन्द्रस्य, गायन्निव यशोऽमलम् ॥ ३६९ ।। तत्सिंहासनमाश्रित्य, वायव्योत्तरयोर्दिशोः । दिशि चोत्तरपूर्वस्यां, सामानिकदिवौकसाम् ।। ३७०॥ चतुरशीतिसहस्रसङ्ख्यानामभवन् क्रमात् । भद्रासनानि तावन्ति, घुश्रीणां मुकुटा इव ।। ३७१ ॥ १ मल्लिकाजातिविशेषः । २ जवनिकाः । ३ पुत्तलिकाभिः । ४ देय विस्तारयोः । ५ इन्द्रश्रियः । For Private & Personal use only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ ४५ ॥ Jain Education Internatio अष्टानामग्रदेवीनां प्राच्यामष्टासनानि तु । सदृशाकारधारीणि, सोदराणीव जज्ञिरे ॥ ३७२ ॥ दिशि दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरसभासदाम् । भद्रासनसहस्राणि द्वादशाऽऽसन् दिवौकसाम् || ३७३ ॥ आसनानि दक्षिणस्यामासन् मध्यसभासदाम् । चतुर्दशानां दिविषत्सहस्राणां क्रमेण तु ॥ ३७४ ॥ दक्षिणपश्चिमायां तु देवानां बाह्यपर्षदः । षोडशानां सहस्राणामासीदासनधोरणी ।। ३७५ ।। दिशि प्रतीच्यां सप्तानामनीकपतिनाकिनाम् । सप्तासनान्येकविम्बपतितानीव रेजिरे ॥ ३७६ ॥ चतुरशीतिः सहस्राण्यासनान्यात्मरक्षिणाम् । भानीव मेरुं परितः, शक्रं प्रतिदिशं बभ्रुः ॥ ३७७ ॥ परिपूर्णं विमानं तद्, विरचय्याऽऽभियोगिकाः । देवा विज्ञपयामासुः, स्वामिने त्रिदिवौकसाम् ॥ ३७८ ॥ पुरन्दरोऽपि तत्कालं विचक्रे रूपमुत्तरम् । नैसर्गिकी हि भवति, घुसदां कामरूपिता || ३७९ ॥ महिषीभिः सहाऽष्टाभिर्दिक्श्रीभिरिव वासवः । गन्धर्वनाट्यानीकाभ्यां दर्श्यमानकुतूहलः ॥ ३८० ॥ ततः प्रदक्षिणीकुर्वन्, पूर्वसोपानवर्त्मना । आरुरोह विमानं तन्निजं मानमिवोन्नतम् ॥ ३८१ ॥ सहस्राक्षः सहस्राङ्ग, इव माणिक्यभित्तिषु । सङ्कान्तमूर्तिरध्यास्त, प्राङ्मुखः स्वं तदासनम् ॥ ३८२ ॥ शक्ररूपान्तराणीव, शक्रसामानिकास्तथा । आरुह्योदीच्यसोपानैर्यथाऽऽसनमुपाविशन् || ३८३ || प्रविश्याऽपाच्यसोपानपङ्क्याऽन्येऽपि दिवौकसः । स्ववासनेषु न्यपदन्, स्वाम्यग्रे नाऽऽसेनात्ययः ॥ ३८४ ॥ सिंहासननिषण्णस्य, पौलोमी भर्तुरग्रतः । दर्पणप्रभृतीन्यष्टमङ्गलान्यष्ट रेजिरे || ३८५ ॥ शुशुभे शशभृत्पाण्डु, पुण्डरीकं विडौजसः । हंसाविवोपसर्पन्तौ, धूयमानौ च चामरौ ॥ ३८६ ॥ १ आसनपरावृत्तिः । २ श्वेतच्छत्रम् । प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । सौधर्मेन्द्रा गमनम् । ॥ ४५ ॥ . Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्रयोजनोत्सेधो, विमानाग्रे हरिध्वजः । अशोभत पताकाभिर्निरैरिव पर्वतः ॥ ३८७ ॥ ततः परिवृतो देवैः, शक्रः सामानिकादिभिः । कोटिसङ्ख्यैरराजिष्ट, स्रोतोभिरिव सागरः ॥ ३८८॥ विमानैरन्यदेवानां, विमानं तच्च वेष्टितम् । रुरुचे परिधिचैत्यैर्मूलचैत्यमिवोच्चकैः ॥ ३८९ ॥ अन्योऽन्यं चारुमाणिक्यमित्तिषु प्रतिविम्बितैः । विमानर्गभिंतानीव, विमानानि चकाशिरे ॥३९॥ मागधानां जयजयध्वानैर्दुन्दुभिनिखनैः । गन्धर्वानीकनाट्यानीकातोयध्वनितैरपि ॥ ३९१ ॥ दिशुखप्रतिफलितद्या दारयदिवाभितः । सौधर्ममध्यतोऽचालीत् , तद् विमानं हेरीच्छया ॥ ३९२ ॥ सौधर्मोत्तरतस्तिर्यग्मार्गेण च तदुत्तरत् । अलक्षि जम्बूद्वीपस्य, पिधानायेव भाजनम् ॥ ३९३ ॥ • हस्तियायिनितो याहि, न मे सिंहः सहिष्यते । सादिनपसर क्रुद्धः, कासरो वाहनं मम ॥ ३९४ ॥ मृगवाहन! माऽम्यागा, नन्वहं दीपिवाहनः । सर्पध्वज! व्रजेतस्त्वं, पश्य मे गरुडं ध्वजे ॥३९५॥ किं पतस्यन्तरे मे त्वं, गतिविघ्नकरः पुरः । विमानं घट्टयसि भोः, स्वविमानेन किं मम ॥ ३९६ ॥ किं पश्चात्पतितोऽस्सेहि, शीघ्रं याति सुराधिपः । मा कुप्य घर्षणेनाऽद्य, सम्मर्दः खलु पर्वणि ॥ ३९७॥ सौधर्मकल्पदेवानां, देवेन्द्रभुपसर्पताम् । एवमौत्सुक्यजन्माऽभृन्मिथः कोलाहलो महान् ॥ ३९८॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] महाध्वजपटं रेजे, तद् विमानं नभस्तलात् । अम्भोधिमध्यशिखराद्, यानपात्रमिवोत्तरत् ॥ ३९९ ॥ नक्षत्रचक्रमध्येन, मध्येद्रुममिव द्विपः । मतीकुर्वदिव दिवं, मेघमण्डलपङ्किलम् ॥ ४०॥ बहिर्मण्डलस्थितचैत्यैः। २ इन्द्रे कछया । * °ण प्राचलत्तरम् सं 1॥ ३ हे अश्वारोह ! । Jain Education Internal For Private & Personal use only www.iainelibrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥४६॥ गमनम् । ROSASALAUNCASESCASSES द्वीपाम्भोधीनसङ्ख्यातान् , वेगेनोल्लङ्घथ वायुवत् । अधिनन्दीश्वरद्वीपं, तद् विमानं समापतत् ॥४०१॥18॥ प्रथमं पर्व तत्र दक्षिणपूर्वस्मिन् , गत्वा रतिकराचले । सञ्चिक्षेप विमानं तदिन्द्रो ग्रन्थं सुधीरिव ॥ ४०२॥ द्वितीयः समुल्लचं समुल्लई, ततोऽर्वाग् द्वीपसागरान् । ततोऽपि सङ्क्षिपस्तच्च, विमानं क्रमयोगतः॥४०३॥ Pा सर्गः जम्बूदीपाऽभिधे द्वीपे, भरतार्द्ध तु दक्षिणे । आदितीर्थकृतो जन्मभवनं प्राप वासवः ॥४०४॥ ऋषभ. अथ तेन विमानेन, स्वामिनः सूतिकागृहम् । स प्रदक्षिणयामास, सुमेरुमिव भास्करः ॥४०५॥ चरितम् । उदनाच्यां तु ककुभि, स पूर्वककुभः प्रभुः । अस्थापयत् तद् विमानं, निधानं धामकोणवत् ॥ ४०६॥ ततो विमानादुत्तीर्य, मानादिव महामुनिः । प्रसन्नमानसः शक्रो, जगाम स्वामिसन्निधौ ॥ ४०७॥ सौधर्मेन्द्राप्रभुमालोकमात्रेऽपि, प्रणनामाऽमराग्रणीः । उपायनं हि प्रथम, प्रणामः स्वामिदर्शने ॥ ४०८॥ ... ततः प्रदक्षिणीकृत्य, भगवन्तं समातरम् । प्रणनाम पुनः शक्रो, भक्तौ न पुनरुक्तता ॥ ४०९॥ . मूर्ध्नि बद्धाञ्जलि भिषिक्तस्त्रिदिवौकसाम् । भक्तिमान् स्वामिनीमेवं, मरुदेवामवोचत ॥ ४१० ॥ कुक्षौ रत्नधरे ! देवि !, जगद्दीपप्रदायिक ! । नमस्तुभ्यं जगन्मातस्त्वं धन्या पुण्यवत्यसि ॥ ४११ ॥ त्वमेवाऽमोघजन्माऽसि, त्वमेवोत्तमलक्षणा । पुत्रिणीषु त्वमेवाऽसि, पवित्रा भुवनत्रये ॥ ४१२॥ धर्मोद्धरणधौरेयश्छन्नमोक्षाध्वदर्शकः । प्रथमस्तीर्थनाथोऽयं, भगवान् सुषुवे यया ॥ ४१३॥ अहं सौधर्मदेवेन्द्रो, देवि! त्वत्तनुजन्मनः । अर्हतो जन्ममहिमोत्सवं कर्तुमिहाऽऽगमम् ॥ ४१४ ॥ ।॥४६॥ भवत्या नैव भेतव्यमित्युदीर्य दिवस्पतिः । अवस्वापनिका देव्यां, मरुदेव्यां विनिर्ममे ॥ ४१५॥ अयं श्लोकः आ पुस्तके न दृश्यते । । एतदाख्यां निद्राम् । Jan Education internation For Private & Personal use only . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभिसूनोः प्रतिच्छन्दं, विदधे मघवा ततः । देव्याः श्रीमरुदेवायाः, पार्श्वे तं च न्यवेशयत् ॥ ४१६ ॥ स चक्रे पञ्चधाऽऽत्मानं, पञ्चशत्रास्ततोऽभवन् । तस्यार्हा स्वामिनो भक्तिर्नैकाङ्गैः कर्तुमीश्यते ||४१७|| एकः सङ्कन्दनस्तत्र, पुरोभूय प्रणम्य च । भगवन्ननुजानीहिीत्युदित्वा श्रयाश्रितम् ॥ ४१८ ॥ गोशीर्षचन्दनात्ताभ्यां पाणिभ्यां भुवनेश्वरम् । मूर्त्तिस्थमित्र कल्याणं, कल्याणीभक्तिराददे ।। ४१९ ॥ 'जगत्तापापनोदैकातपत्रस्य जगत्पतेः । आतपत्रं दधौ मूर्द्धन्येकः शक्रस्तु पृष्ठगः ॥ ४२० ॥ स्वामिनः पार्श्वयोरन्यौ, बाहुदण्डाविव स्थितौ । विभराञ्चक्रतुश्चारुचामरे चाऽमरेश्वरौ ।। ४२१ ॥ दम्भोलिदण्डं विभ्राणो, बल्गन् द्वास्थाग्रणीरिव । अग्रेसरः शुनासीरो, बभूवाऽन्यो जगत्पतेः ।। ४२२ ॥ वृताः सुरैर्जयजयेत्येकरावीकृताम्बरैः । उत्पेतुरम्बरेणेन्द्रा, अम्बरामलचेतसः || ४२३ ॥ उत्कण्ठितानां देवानां निपेतुर्भगवत्तनौ । सुधासरस्यां तृषिताध्वगानामिव दृष्टयः ॥ ४२४ ॥ प्रभोस्तदद्भुतं रूपं द्रष्टुं प्रष्ठा दिवौकसः । पृष्ठवत्तनि नेत्राणि, कामयामासुरात्मनः ।। ४२५ ॥ अतृप्ताः स्वामिनं द्रष्टुममराः पारिपार्श्विकाः । नाशकन्नन्यतो नेतुं, नयने स्तम्भिते इव ॥ ४२६ ॥ अनुगास्तु सुरा द्रष्टुं प्रभुमग्रे यियासवः । पर्यस्यन्तो न हि निजं, मित्रस्वाम्याद्यजीगणन् ॥ ४२७ ॥ हृदयान्तरिवाऽर्हन्तं, हृदयद्वारि धारयन् । दिवौकसामधिपतिः प्राप मेरुमहीधरम् ॥ ४२८ ॥ तत्रान्तः पाण्डवनं, चूलिकां दक्षिणेन तु । अतिपाण्डुकम्बलायां, शिलायाममलत्विषि ।। ४२९ ।। सिंहासनेऽत्नात्रा, निजाङ्कस्थापितप्रभुः । सहर्षं न्यसदत् पूर्वाभिमुखः पूर्वदिक्पतिः ॥ ४३० ।। १ विनयसहितम् । २ इन्द्रः । * पावकाः खंता ॥ ३ एतदाख्यायां शिलायान् । पञ्चरूपेण प्रभोरी नयनम् । . Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित ॥ ४७ ॥ Jain Education Internationa अत्रान्तरे महाघोषाघण्टानादप्रबोधितैः । अष्टाविंशतिविमानलक्षवास्यमरैर्वृतः ॥ ४३१ ॥ ऐशानकल्पाधिपतिः शूलभृद् वृषवाहनः । पुष्पकाभियोग्यकृते, विमाने पुष्पके स्थितः ॥ ४३२ ॥ दक्षिणेनैशान कल्पमुत्तीर्णस्तिर्यगध्वना । अधिनन्दीश्वरमुदक्पूर्वे रतिकराचले ॥ ४३३ ॥ विमानमुपसंहृत्य, सौधर्मेन्द्र इव द्रुतम् । आगात् सुमेरुशिरसि, भक्त्या भगवदन्तिकम् ॥ ४३४ ॥ विमानद्वादशलक्षीवासिभित्रिदशैर्वृतः । सनत्कुमारः सुमनोविमानस्थः स चाऽऽययौ ।। ४३५ ॥ विमानलक्षाष्टक जैर्महेन्द्रोऽप्यन्वितः सुरैः । श्रीवत्सेन विमानेन, मनसेवाऽऽययौ द्रुतम् ॥ ४३६ ॥ चतुर्विमानलक्षस्यैर्वृतो ब्रह्माऽपि नाकिमिः । नन्द्यावर्तविमानेन, स्वामिनोऽभ्यर्णमाययौ ॥ ४३७ ॥ आगाद् विमानपञ्चाशत्सहस्रीवासिभिः सुरैः । कामगवविमानेन, लान्तकोऽपि जिनान्तिकम् ॥ ४३८ ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणां विमानानां सुरैर्वृतः । प्रीतिगमविमानेन, शुक्रोऽगान्मेरुमूर्द्धनि ॥ ४३९ ॥ संहस्रारः सह सुरैः, षड्डिमानसहस्रजैः । मनोरमविमानेनाऽऽययावुपजिनेश्वरम् ॥ ४४० ॥ विमलेन विमानेनाऽनंत-प्राणतवासवः । चतुर्विमानशतजैः सुरैः सह समाययौ ॥ ४४१ ॥ आरणाच्युतराजोऽपि विमानत्रिशतीसुरैः । तत्राऽऽगात् सर्वतोभद्र विमानेनाऽतिरंहसा ॥ ४४२ ॥ रत्नप्रभाया मेदिन्या, बाहल्यान्तर्निवासिनाम् । भवनव्यन्तरेन्द्राणामासनान्यचलंस्तदा ॥ ४४३ ॥ पुर्यां चमरचश्चायां सुधर्मायां च पर्षदि । सिंहासने च चमरे, निषण्ण मरासुरः ॥ ४४४ ॥ जिनजन्मावर्ज्ञात्वा, लोकज्ञप्यै द्रुमेण च । पच्यनीकाधिपेनौघस्वरां घण्टामवादयत् ||४४५ ॥ प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । चतुःषष्टिरिन्द्राः ॥ ॥ ४७ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुःषष्ट्या सहस्रः स, सामानिकदिवौकसाम् । यस्त्रिंशिवायस्त्रिंशैश्चतुर्भिर्लोकपालकैः ॥ ४४६ ॥ पञ्चभिश्चाग्र्यदेवीभिः, पर्षद्भिस्तिसृभिस्तथा । सप्तभिश्च महानीकैस्तदधीशैश्च सप्तभिः ॥ ४४७ ॥ प्रतिदिशं चतुःषष्ट्या, सहस्रैरात्मरक्षिणाम् । वृतोऽपरैरप्यसुरकुमारैः परमद्धिभिः ॥ ४४८॥ पश्चयोजनशत्युचं, महाध्वजविभूषितम् । पञ्चाशतं सहस्राणि, योजनानि तु विस्तृतम् ॥ ४४९ ॥ विमानमाभियोग्येन, सद्यो देवेन निर्मितम् । अधिरुह्याऽचलत् खामिजन्मोत्सवविधित्सया ॥ ४५०॥ समिप्य शक्रवन्मार्गे, विमानं चमरासुरः । जगाम मेरुशिखरं, स्वाम्यागमपवित्रितम् ॥ ४५१॥ बलिश्च बलिचञ्चाया, नगर्या असुरेश्वरः । घण्टां घोषयता तारं, प्राग् महोघखराभिधाम् ॥४५२॥ महाद्रुमेण सेनान्या, सामानिकदिवाकसाम् । षष्ट्या सहस्रराहूतैरारक्षैश्च चतुर्गुणैः ॥ ४५३ ॥ त्रायस्त्रिंशादिभिश्चापि, वृतश्चमरवत् सुरैः । जगामामन्दमानन्दमन्दिरं मन्दराचलम् ॥ ४५४ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] नागेन्द्रो धरणो मेघखराघण्टाप्रताडनात् । पत्तिसेनाधिपतिना, भद्रसेनेन बोधितैः॥४५५॥ पदसामानिकसहस्यात्मरक्षस्तच्चतुर्गुणैः । षभिश्च पट्टदेवीभिवृतोऽन्यैरपि पन्नगैः॥ ४५६ ॥ योजनानां सहस्राणि, पञ्चविंशानि विस्तृतम् । सार्द्धद्वियोजनशतीतुङ्गेन्द्रध्वजभूषितम् ॥ ४५७॥ विमानरत्नमारुह्य, भगवद्दर्शनोत्सुकः । मन्दराचलमूर्द्धानमाससाद क्षणादपि ॥ ४५८ ॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] *त्रयास्त्रंशत्राय आ, त्रयस्त्रिंशैः पारिषद्यैश्चतु° सं 11 °न्याहूतैः सामानिकैः सुरैः आ॥ हौस्तेभ्योऽङ्गरक्षकैश्च सं १ आ॥ Jain Education Inter I T For Private & Personal use only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते SC- ॥४८॥ SONURSERECRURCESS भूतानन्दोऽपि नागेन्द्रो, घण्टा मेघस्वरां नता । पत्त्यनीकेशदक्षेणाहूतैः सामानिकादिभिः ॥४५९॥ प्रथमं पर्व वृतो विमानमारुह्याभियोगिकसुरोद्भवम् । जगाम त्रिजगन्नाथसनाथं मन्दराचलम् ॥ ४६० [युग्मम् ] द्वितीयः इन्द्रौ विद्युत्कुमाराणां, हरिहरिसहस्तथा । सुपर्णानां वेणुदेवो, वेणुदारी च वासवौ ॥ ४६१॥ ला सर्गः इन्द्रावग्निकुमाराणामग्निशिखाग्निमाणवी। समीरणकुमाराणां, वेलम्बाख्यभञ्जनौ ॥४६२॥ ऋपभस्तनितानां सुघोषश्च, महाघोषश्च नायकौ । तथोदधिकुमाराणां, जैलकान्तजलप्रभो ॥४६३॥ चरितम् । पूर्णो विशिष्टश्च द्वीपकुमाराणां पुरन्दरौ । तथैव दिकुमाराणाममितामितवाहनौ ॥ ४६४ ॥ ___ व्यन्तरेषु कालमहाकालौ पिशाचवासवौ । सुरूपः प्रतिरूपच, तथा भूतपुरन्दरौ ॥ ४६५ ॥ 10 चतुःषष्टियक्षराजौ पूर्णभद्रो, माणिभद्रश्च नामतः । इन्द्रौ भीममहाभीमनामानौ रक्षसां पुनः ॥ ४६६ ॥ रिन्द्राः। किन्नरः किम्पुरुषश्च, किन्नराणामधीश्वरी । तथा सत्पुरुषमहापुरुषो किम्पुरुषपौ ॥ ४६७ ॥ अतिकायमहाकायौ, महोरगपुरन्दरी । गीतरतिीतयंशा, गन्धर्वाणां तु वासवी ॥ ४६८॥ तथैवाऽप्रज्ञप्तिपञ्चप्रज्ञयादीनां पोडश । व्यन्तराष्टनिकायानां, वज्रिणः समुपाययुः ॥ ४६९ ॥ तत्राऽप्रज्ञप्तीनामिन्द्रौ, सन्निहितः सैमानकः। धाता विधाता च पञ्चप्रज्ञप्तीनां त्वधीश्वरौ ॥४७०॥ ऋषिवादितकानां तु, ऋषिश्च ऋषिपालकः । तथा भूतवादितानामीश्वरोऽथ महेश्वरः॥४७॥ ऋन्दितानां पुनरिन्द्रौ, संवत्सकविशालको । महाक्रन्दितकानां तु, हासहासरती हरी ॥४७२॥ ॥४८॥ कुष्माण्डानां पुनः श्वेतमहाश्वेतपुरन्दरौ । पत्रकपर्वकपती, पावकानां तु वासवौ ॥ ४७३ ॥ ज्योतिष्काणामसङ्ख्यातो, चन्द्रादित्यावुपेयतुः । इतीन्द्राणां चतुःषष्टिराययौ मेरुमूर्द्धनि ॥४७४॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिक्षदच्यतेन्द्रोऽथ, त्रिदशानाभियोगिकान् । जिनजन्माभिषेकोपकरणान्यानयन्त्विति ॥ ४७५॥ अथ किश्चिदपक्रम्योत्तरपूर्वदिशि क्षणात् । ते वैक्रियसमुद्धातेनाकृष्योत्तमपुद्गलान् ॥ ४७६ ॥ सौवर्णान् राजतान् रत्नमयान् काञ्चनराजतान् । स्वर्णरत्नमयान् स्वर्णरूप्यरत्नमयानपि ॥ ४७७॥ रूप्यरत्नमयान् भौमान् , कलशान् पूँजिताननान् । रम्यान् प्रत्येकमष्टाग्रसहस्रं ते विचक्रिरे ॥ ४७८ ॥ . [त्रिभिर्विशेषकम् ] भृङ्गारान् दर्पणान् रत्नकरण्डान् सुप्रतिष्ठकान् । स्थालानि पात्रिकाचाऽपि, पुष्पचङ्गेरिका अपि ॥४७९ ॥ प्रत्येकं कुम्भसङ्ख्यातांस्तद्वत्स्वर्णादिवस्तुजान् । तत्कालं ढोकयामासुरग्रे निष्पादितानिव ॥ ४८०॥ [सन्दानितकम् ] कलशांस्तानुपादाय, ते देवा आभियोगिकाः । क्षीरोदधावाददिरे, वारि वारिधरा इव ॥४८१॥ तत्रागृहन् पुण्डरीकोत्पलकोकनदानि ते । तदम्भसामभिज्ञानमिव दर्शयितुं हरेः॥४८२ ॥ उदधौ पुष्करोदेऽपि, जगृहुः पुष्कराणि ते । निपान इव पानीयहारिकाः कुम्भपाणयः॥४८३॥ भरतैरवतादीनां, तीर्थेषु मागधादिषु । तेऽम्भो मृत्स्नां च जगृहुः, कर्तुं कुम्भानिवाधिकान् ॥४८४॥ . गङ्गादिकानां च महानदीनामुदकानि ते । समुपाददिरे खैरं, शौल्किका इव वर्णिकाम् ॥ ४८५॥ ते क्षुद्रहिमवत्येत्यागृह्णन् न्यासीकृतानिव । सिद्धार्थपुष्पतुवरगन्धान सर्वोपधीरपि ॥ ४८६॥ तत्र पद्माभिधहदादम्भांस्यम्भोरुहाणि च । विमलानि सुगन्धीनि, जगृहुः पावनानि ते ॥ ४८७ ॥ * योजनान आ ॥ १ कमलभेदाः । २ जलाशये । ३ जलग्राहिण्यः। भरतैरावता आ, सं २॥ त्रिषष्टि, ९ Jan Education International For Private & Personal use only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥४९॥ प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । तेऽन्यवर्षधरेभ्योऽम्बुपद्माद्याददिरे तथा । प्रस्पर्धिन इवाऽन्योन्यमेकस्मिन् कर्मणीरिताः ॥ ४८८ ॥ अगृह्णन्नखिलक्षेत्रवैतादयविजयेष्वपि । अम्भोऽम्भोजादिकं तत्राऽतृप्ताः स्वामिप्रसादवत् ॥ ४८९ ॥ वक्षारकगिरिभ्योऽपि, ते पवित्रं सुगन्धि च । तत् तदाददिरे वस्तु, तदर्थमिव सञ्चितम् ॥ ४९० ॥ देवोत्तरकुरुभ्योऽपि, पूरयामासुरम्भसा । स्वमिव श्रेयसा तेऽथ, कलसानलसेतैराः ॥ ४९१॥ भद्रशाले नन्दने च, सौमनसेऽथ पाण्डके । जगृहुः सर्व तुवरगोशीर्षचन्दनादि ते ॥ ४९२ ॥ गन्धकारा इवैकत्र, गन्धद्रव्यं जलानि च । मेलयित्वा समाजग्मुर्मङ्गु ते मेरुमूर्द्धनि ॥ ४९३ ॥ सामानिकानां दशभिः, सहस्रेस्तचतुर्गुणैः । आत्मरक्षखायस्त्रिंशैत्रयस्त्रिंशन्मितैस्तथा ॥ ४९४ ॥ तिसृभिः परिषद्भिश्च, चतुर्भिर्लोकपालकैः । सप्तभिश्च महानीकैरनीकेशैश्च सप्तभिः॥४९५॥ आरणाच्युतकल्पेन्द्रः, सर्वतः परिवारितः। भगवन्तं स्नपयितुं, ततः शुचिरुपास्थित ॥ ४९६ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] ततः कृतोत्तरासङ्गो, निःसङ्गाभक्तिरच्युतः । उनिद्रपारिजातादिपुष्पाञ्जलिमुपाददे ।। ४९७ ॥ अस्तोकधूपधूमेन, धृपायित्वा सुगन्धिना । मुमोच त्रिजगद्भर्तुः, पुरस्तं कुसुमाञ्जलिम् ॥ ४९८॥ देवैरानिन्यिरे गन्धाम्भस्कुम्भाः स्रग्भिरर्चिताः । सयमाना इव स्वामिसान्निध्योद्भूतया मुदा ॥ ४९९ ॥ चकासामासुरास्यस्यैस्ते प.सुखरालिभिः । अधीयाना इव स्वामिनावमङ्गलमादिमम् ॥ ५००॥ अलक्ष्यन्त च ते कुम्भाः, स्वामित्रपनहेतवे । पातालतः समायाताः, पातालकलशा इव ॥ ५०१॥ १ जलकमलादिकम् । २ आलस्यरहिताः । अच्युतेन्द्रविनिर्मित ऋषभजिनखानोल्सवः। ॥४९॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only . Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचदियामासु किन काराः । मन्थायस्तमहालनिस्रोतःकल्लोल अच्युतेन्द्र उपादत्त, समं सामानिकादिभिः । कुम्भान् सहस्रमष्टाग्रं, फलानीव स्वसम्पदः॥५०२ ॥ ते तेषां रेजुरुत्क्षिप्तभुजदण्डाग्रवर्तिनः । उदस्तोन्नालनलिनकोशलक्ष्मीविडम्बिनः॥ ५०३ ॥ अच्युतेन्द्रः स्त्रपयितुमथाऽऽरेमे जगत्पतिम् । आत्मीयमिव मूर्द्धानं, कलसं नमयन् मनाक् ॥५०४॥ अथोच्चैर्वादयामासु किनः केचिदानकान् । गुहाप्रतिरवैरुच्चैर्वाचालितसुराचलान् ॥ ५०५॥ दुन्दुभीस्ताडयामासुरपरे भक्तितत्पराः । मन्थायस्तमहाम्भोधिध्वानश्रीतस्करध्वनीन् ॥ ५०६ ॥ उत्तालाः कांस्यतालानि, केचिदास्फालयन् मिथः । पर्याकुलधानिस्रोतःकल्लोलाननिला इव ॥ ५०७॥ अवादयन् केऽपि तारं, भेरीरुन्मुखशालिनीः । ऊर्ध्वलोके जिनेन्द्राज्ञां, सर्वतस्तन्वतीरिख ॥ ५०८ ॥ अपूरयन् महानादबहलाः केपि काहलाः । नाईला इव गोशृङ्गाण्यद्रिशृङ्गस्थिताः सुराः॥५०९॥ दुष्टशिष्यानिवोद्घोषहेतवे मुरजान् मुहुः । पाणिभिस्ताडयामासुः, केचन त्रिदिवौकसः॥ ५१० ॥ असङ्ख्यातागतार्केन्दुमण्डलश्रीविडम्बिनीः । स्वर्णरूप्यमयीर्देवा, झल्लरीः केऽप्यवादयन् ॥५११॥ गण्डैः पीयूषगण्डूषगर्भेखि समुन्नतैः । तारमापूरयामासुः, शङ्खान् केपि दिवौकसः॥५१२॥ इत्थं विचित्रातोयेषु, वाद्यमानेषु नाकिभिः । अवादकमिवाऽऽतोय, द्यौरासीत् प्रतिशब्दितैः ॥ ५१३ ॥ जय नन्द जगन्नाथ , सिद्धिगामिन् ! कृपार्णव ! | धर्मप्रवर्तकेत्यादि, चारणश्रमणा जगुः ॥ ५१४ ॥ विचित्रैर्बुवकैः श्लोकैरुत्साहैः स्कन्धकैरपि । गलितैर्वस्तुवदनैर्गद्यैरपि मनोहरैः ॥५१५॥ स्तुतिं पठित्वा मधुरां, कुम्भान् भुवनभर्तरि । शनैः प्रलोठयामासाऽच्युतेन्द्रः खामरैः समम् ॥५१६॥ १दकाविशेषान् । २ किराताः । ३ वादकजनरहितम् । Jain Education in For Private & Personal use only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥५०॥ तेऽम्भस्कुम्भाः शुशुभिरे, लुठन्तः खामिमूर्द्धनि । सुमेरुशैलशिखरे, वर्षन्त इव वारिदाः ॥ ५१७ ॥ 17 प्रथमं पर्व अमरैर्नाम्यमानास्ते, मूर्द्धन्युभयतः प्रभुम् । सद्यः सङ्घटयामासुर्माणिक्योत्तंसविभ्रमम् ॥ ५१८॥ द्वितीय कुम्भेभ्यः पूजितायेभ्यस्ताः पतन्त्यश्चकाशिरे । वारिधारा गिरिदरीमुखेभ्य इव निर्झराः॥५१९ ॥ सगे: , उच्छलन्त्यो मौलिदेशाद् , विष्वद्रीच्यो जलच्छटाः । स्वामिनो धर्मकन्दस्य, प्ररोहा इव रेजिरे ॥ ५२०॥ ऋषभपरिवेषेण विस्तीर्ण, मूर्ध्नि श्वेतातपत्रवत् । ललाटपट्टे प्रसरच्चान्दनीव लेलाटिका ॥ ५२१ ॥ चरितम्। कर्णयोः प्रान्तविश्रान्तनयनोपान्तकान्तिवत् । कपोलपाल्योः कर्पूरपत्रवल्लिवितानवत् ॥ ५२२ ॥ मनोज्ञयोरधरयोः, स्मितद्युतिकलापवत् । कण्ठकन्दलदेशे तूद्दाममौक्तिकदामवत् ॥ ५२३॥ अच्युतेन्द्र स्कन्धदेशोपरिष्टाच, गोशीर्षस्थासकोपमम् । बाहुहृत्पृष्ठभागेषु, विशाल इव चोलकः ॥ ५२४ ॥ विनिर्मित कटिजान्वन्तराले चोत्तरीयमिव विस्तृतम् । पतद् भगवति श्रेजे, क्षीरोदाधुदकं तदा ॥ ५२५ ॥ ऋषभजिन[पञ्चभिः कुलकम् ] खात्रोत्सवः। स्वामिस्नात्रजलं तच्च, भूमावपतदेव हि । श्रद्धया जगृहे कैश्चिन्मेघाम्भश्चातकैरिव ॥ ५२६॥ क नाम प्राप्स्यतेऽस्माभिर्भूयोऽद इति मूर्द्धनि । तत्पयः केचिदमरा, न्यधुर्मरुनरा इव ॥ ५२७॥ पयसा सिषिचे तेन, साभिलाषैश्च कैश्चन । भूयो भूयो वपुर्देवैग्रीष्मात्तैरिव कुञ्जरैः ॥ ५२८ ॥ ॥५०॥ रयेण प्रसरन्मेरुगिरिप्रस्थेषु तत् पयः । अकल्पयन्निर्झरिणीसहस्राणि समन्ततः॥ ५२९ ॥ तत् पाण्डके सौमनसे, नन्दने भद्रशालके । उद्याने प्रसृतातुल्यकुल्यालीलामशिश्रियत् ॥ ५३० ॥ * प्रभोः आ, सं २ ॥ योजनास्येभ्यस्ताः आ॥ १ ललाटालङ्कारः । For Private & Personal use only Jain Education Intels (6 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरेः पयतः कुम्भा, भवन्तोऽधोमुखा बभुः । स्नात्रस्तोकीभवद्वारिसम्पदा लजिता इव ॥ ५३१॥ तानेव विभराञ्चक्रुः, कुम्भान् कुम्भान्तराम्बुभिः । आभियोगिकगीर्वाणाः, कुर्वाणाः स्वामिशासनम्॥५३२॥ वृन्दारकाणां हस्तेषु, हस्तेभ्यः सञ्चरिष्णवः । बभ्राजिरे ते कलशाः, श्रीमतां बालका इव ॥ ५३३ ॥ ढोक्यमानाभितो नाभिसूनुं कलशधोरणी । आरोप्यमाणस्वर्णाब्जमालालीलायितं दधौ ॥ ५३४ ॥ पुनः पालोठयन् कुम्भानमराः स्वामिमूर्द्धनि । पयःशब्दायितमुखानर्हत्स्तुतिपरानिव ॥ ५३५ ॥ खामिस्नात्रे हरे रिक्तरिक्तान् कुम्भानपूरयन् । अमराश्चक्रिणो यक्षा, निधानकलशानिव ॥ ५३६ ॥ रिक्तरिक्ता भृतभृता, रेजिरे सञ्चरिष्णवः । भूयो भूयः कलशास्तेऽरघट्टपटिका इव ॥ ५३७ ॥ एवमच्युतनाथेन, यथेष्टं कुम्भकोटिभिः । स्वामिनो विदधे स्नात्रं, चित्रमात्मा पवित्रितः ॥ ५३८॥ दिव्यया गन्धकाषाय्याऽऽरणाच्युतविभुर्विभोः । अङ्गमुन्मार्जयामास, स्वयं मार्जितमान्यथ ॥ ५३९ ।। सा रेजे गन्धकाषायी, स्पृशन्ती स्वामिनो वपुः । प्रातःसन्ध्याभ्रलेखेव, मण्डलं चण्डरोचिषः ॥ ५४॥ सुवर्णसारसर्वस्वं, सुवर्णाद्रेरिवैकतः । आहृतं शुशुभे तादृगुन्मृष्टं भगवद्वपुः॥ ५४१॥ ___अथाऽऽभियोग्या गोशीर्षचन्दनद्रवकर्दमम् । पात्रिकाभिर्विचित्राभिरच्युतायोपनिन्यिरे ॥ ५४२ ॥ विलेपयितुमारेमे, प्रभु तेन पुरन्दरः । सुमेरुशैलकटकं, ज्योत्स्नयेव निशाकरः ॥ ५४३॥ अभितः खामिनं केचिदुत्तरासङ्गधारिणः । उद्दामधूपदहनपाणयोऽस्थुरथाऽमराः ॥ ५४४ ॥ केपि तत्राक्षिपन् धूपं, स्निग्धया धूमलेखया । मेरोनीलमयीं चूला, रचयन्त इवाऽपराम् ॥ ५४५॥ केपि श्वेतातपत्राणि, धारयामासुरुच्चकैः । कुमुदिव कुर्वाणा, अन्तरिक्षमहासरः ॥ ५४६॥ Jan Education International For Private & Personal use only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुपचरिते सर्गः ॥५१॥ +USA केचिदन्दोलयामासुश्चामराण्यमरोत्तमाः । आह्वयन्त इवाऽऽत्मीयान् , स्वामिदर्शनहेतवे ॥ ५४७ ॥ केचिद् बद्धपरिकरा, विभ्राणाः स्वस्वमायुधम् । परितः स्वामिनं तस्थुरात्मरक्षा इवाऽमराः ॥ ५४८ ॥ द्वितीयः सुराः केचिन्मणिवर्णतालवृन्तान्यचीचलन् । उद्यद्विद्युल्लतालीलां, दर्शयन्तो नभस्तले ।। ५४९ ॥ विचित्रदिव्यसुमनोवृष्टिं त्रिदिववासिनः । हर्षोत्कर्षजुषोऽकार्प, रङ्गाचार्या इवाऽपरे ॥५५० ॥ ऋषभनितान्तसुरभिं गन्धद्रव्यक्षोदं चतुर्दिशम् । अवर्षन्नपरे चूर्णमुच्चाटनमिवांहसाम् ॥५५१॥ " चरितम् । खामिनाधिष्ठितस्याऽद्रेमरोर्ब्रद्धिमिवाऽधिकाम् । चिकीर्षवः केऽपि सुराः, स्वर्णवृष्टिं वितेनिरे ॥ ५५२ ॥3 खामिपादप्रणामावतरत्ताराविडम्बिनीम् । केचिदुच्चै रत्नवृष्टिं, त्रिविष्टपसदो व्यधुः ॥ ५५३ ॥ | अच्युतेन्द्रगन्धर्वानीकमधरीकुर्वन्तो मधुरखरैः । ग्रामरागैर्नवनवैः, केचन खामिनं जगुः ॥ ५५४ ॥ विनिर्मित ततान्यथाऽवनद्धानि, धनानि शुपिराणि च । वादयामासुरातोद्यान्यन्ये भक्तिीनेकधा ॥ ५५५ ॥ ऋषभजिन-- निनर्तयिषव इव, स्वर्णशैलशिरांस्यपि । पादपातैः कम्पयन्तो, ननृतुः केऽपि नाकिनः ॥ ५५६ ॥ खात्रोत्सवः। नाट्यं प्रवर्त्तयामासुर्विचित्राभिनयोज्वलम् । त्रिदशाः सह जायाभिर्जायाजीवा इवाऽपरे ॥ ५५७ ॥ गरुन्मन्त इवोत्पेतुरमराः केचिदम्बरे । निपेतुः क्रीडया केचित् , ताम्रचूडा इवाऽवनौ ॥ ५५८ ॥ ववल्गुल्गु केऽप्यङ्ककारा इव दिवौकसः । केपि सिंहा इवाऽऽनन्दात् , सिंहनादं वितेनिरे ॥५५९॥ उच्चकैश्चक्रिरे केचित् , कुञ्जरा इव बृंहितम् । सहर्षा हेषितं केचित्, तेनिरे तुरगा इव ॥ ५६०॥ ॥५१॥ स्पन्दना इव केचिच्च, व्यधुर्घणघणारवम् । विदूषका इवाऽन्येषां, चक्रुः शब्दचतुष्टयीम् ॥५६१॥ तराचार्याः। २ कुछुटाः । ३ मछाः । For Private & Personal use only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte कूर्दमानाः केऽपि मेरुशिखराण्यदिर्दरैः । अकम्पयन् भृशं शाखिशाखाः शाखामृगा इव ॥ ५६२ ॥ उद्भटं ताडयामासुञ्चपेटाभिर्महीतलम् । रणप्रतिज्ञाकरणोद्यता वीरा इवाऽपरे ।। ५६३ ॥ कोलाहलं विदधिरे, केचिजितपणा इव । स्कन्धातोद्यवदुत्फुल्लौ, गल्लौ केचिदवादयन् ॥ ५६४ ॥ विकृतीभूय विवत्, केsपि लोकानहासयन् । केऽप्यग्रे पार्श्वयोः पश्चाद्, ववल्गुः कन्दुका इव ॥ ५६५॥ · केचिच्च मण्डलीभूय, रासावलयगायिनः । चक्रुर्नृत्तं मनोहारि, हल्लीसकमिव स्त्रियः ।। ५६६ ॥ केऽप्यज्वलन् ज्वलनवदतपन् केऽपि सूर्यवत् । जगर्जुर्मेघवत् केऽपि, केsपि विद्युद्युतन् ॥ ५६७ ॥ केचिदोदनसम्पूर्णा छात्रा इव विचक्रिरे । तादृक् स्वाम्याप्तिजानन्दः, शक्यते केन गोपितुम् ॥५६८ ॥ बहुप्रकारमानन्दविकारं धारयत्स्वपि । देवेष्वच्युतदेवेन्द्रश्चक्रे भर्तुर्विलेपनम् ।। ५६९ ॥ पारिजातादिभिः पुष्पैर्विकसद्भिः स्वभक्तिवत् । ततोऽच्युतपतिः पूजां चक्रे जिनपतेः खयम् ॥ ५७० ॥ अपसृत्य ततः किञ्चित्, स्वामिनं भक्तिवामनः । प्रणनाम ववन्दे च सोऽन्तेवासीव वासवः ।। ५७१ ॥ एवं द्वाषष्टिरन्येऽपि शक्राश्चक्रुर्जगत्पतेः । स्नात्राङ्गरागौ पूजां चाऽनुज्येष्ठं सोदरा इव ।। ५७२ ॥ विकृत्य पञ्चधाऽऽत्मानमथ सौधर्मराजवत् । उत्सङ्गे त्रिजगन्नाथं, जग्राहैशानवासवः ।। ५७३ ॥ .तत्रैको धाद् विभोर्मूर्ध्नि, छत्रं कर्पूरपाण्डुरम् । मुक्तावचूलैः प्रेङ्खद्भिर्दिशां लास्यमिवोद्दिशत् ॥ ५७४ ॥ वीजयामासतुवाऽन्यौ, चामराभ्यां जिनेश्वरम् । विक्षिप्तकरणेनोचैर्नृत्यद्भ्यामिव सम्मदात् ।। ५७५ ।। · शूलमुल्लालयन् पाणावपरः पुरतोऽभवत् । स्वामिनो दृष्टिपातैः खं, पूतीकर्तुमना इव ॥ ५७६ ॥ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रो जगद्भर्तुश्चतुर्दिशम् । चत्वारि स्फाटिकोङ्गवृषरूपाणि निर्ममे || ५७७ ।। . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथम पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥५२॥ उत्तुङ्गशृङ्गरुचिरा, वृषभास्ते चकाशिरे । दिशां चतसृणां चान्द्रकान्ताः क्रीडाचला इव ॥ ५७८ ॥ तेषां स्फोटितपातालनालेभ्य इव सन्तताः । शृङ्गेभ्योऽष्टभ्य उत्पेतुर्वारिधारा नभस्तले ॥ ५७९ ॥ मूले भिन्नास्तोयधाराधोरण्यस्ता निरन्तराः । अन्ते मिलन्त्यः खे चक्रुर्नदीसङ्गमविभ्रमम् ॥ ५८०॥ सकौतुकं वीक्ष्यमाणाः, सुरासुरवधूजनैः । ताः पेतुर्जगतांपत्यावपांपत्याविवाऽऽपगाः॥५८१॥ शृङ्गेभ्यो जलयत्रेभ्य, इव निर्यद्भिरम्बुभिः । शक्रेण स्नपयाश्चक्रे, भगवानादितीर्थकृत् ॥ ५८२॥ दूरमुच्छलता तेन, स्वामित्रपनवारिणा । आसन् भक्त्या मनांसीव, वासांस्थााणि नाकिनाम् ॥ ५८३॥ चतुरोऽपि महोक्षास्तानुपसंहृतवानथ । प्राचीनबर्हिः सहसेन्द्रजालमिव जालिकः ॥५८४॥ नपयित्वाऽतिविच्छददेिवं देवप्रभुः प्रभोः । रत्नादर्शमिवाऽमार्जदङ्ग देवाङ्गवाससा ॥ ५८५ ॥ अथ रत्नमये पट्टे, निर्मलै रूप्यतन्दुलैः । अखण्डैरालिखन् लेखाः, स्वामिनोऽग्रेऽष्टमङ्गलीम् ॥ ५८६ ॥ निजेनेवाऽनुरागेणाऽङ्गरागेण गरीयसा । अङ्गं विलेपयामास, वासवस्त्रिजगद्गुरोः ॥ ५८७॥ खामिनः स्मेरवकेन्दुकौमुदीभ्रमकारिभिः । विशदैर्दिव्यवासोभिः, पूजां व्यधित देवराट् ॥ ५८८ ॥ विश्वमूर्द्धन्यताचिह्न, मृर्द्धनि त्रिजगत्पतेः। वज्रमाणिक्यमुकुटं, स्थापयामास वज्रभृत् ॥ ५८९ ॥ न्यधत्त मघवा भर्तुः, कर्णयोः स्वर्णकुण्डले । व्योम्नः पूर्वापरदिशोः, सायं शशिरवी इव ॥ ५९० ।। लक्ष्म्या विभ्रमदोलेव, दिव्यमुक्तालता तता । न्यक्षेपि पुरुहूतेन, स्वामिनः कण्ठकन्दले ॥ ५९१ ॥ सोऽङ्गदे निदधे बाहुदण्डयोस्त्रिजगत्पतेः । सुवर्णवलये भद्रकलभस्येव दन्तयोः ॥ ५९२ ॥ १ समुद्रे । २ इन्द्रः। ३ देवाः । सौधर्मेन्द्र विहित ऋषभजिनमात्रोत्सवः। ॥५२॥ Jan Education Interna For Private & Personal use only . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्त मौक्तिकमणिकङ्कणे मणिबन्धयोः । स न्यधत्त प्रभोः शाखिशाखान्तस्तबकोपमे ।। ५९३ ॥ स स्वर्णकटिसूत्रं च, कटिदेशे न्यधाद् विभोः । वर्षधरनितम्वस्थ स्वर्णकूलाविलासभृत् ॥ ५९४ ॥ • माणिक्यपादकटके, स न्यवीविशदीशितुः । अथोर्लने देवदैत्यतेजसी इव सर्वतः ।। ५९५ ।। - अलङ्काराय यानीन्द्रो, भूषणानि न्यवीविशत् । अलङ्कृतानि तान्येव, प्रत्युताङ्गैर्जगद्गुरोः ॥ ५९६ ॥ उन्निद्रपारिजातादिदामभिः परमेश्वरम् । भक्तिवासितचैतस्कः, पूजयामास वासवः ॥ ५९७ ।। कृतकृत्य इवाऽथाऽपसृत्य किञ्चित् पुरन्दरः । पुरोभूय जगद्भर्तुरारात्रिकमुपाददे ।। ५९८ ॥ ज्वलद्दीपत्विषा तेन, चकासामास कौशिकः । भास्वदोषधिचक्रेण शृङ्गेणेव महागिरिः ।। ५९९ ।। श्रद्धालुभिः सुखरैः, प्रकीर्णकुसुमोत्करम् । भर्तुरुत्तारयामास, तत्रिस्त्रिदशपुङ्गवः ।। ६०० ॥ शक्रः शक्रस्तवेनाऽथ !, वन्दित्वा परमेश्वरम् । रोमाञ्चितवपुर्भक्त्या, स्तोतुमित्युपचक्रमे ।। ६०१ ॥ नमस्तुभ्यं जगन्नाथ !, त्रैलोक्याम्भोजभास्कर ! । संसारमरुकल्पद्रो !, विश्वोद्धरणबान्धव ! ।। ६०२ ।। वन्दनीयो मुहूर्तोऽयं, यत्र ते धर्मजन्मनः । अपुनर्जन्मनो जन्म, दुःखच्छिद् विश्वजन्मिनाम् ।। ६०३ ॥ युष्मज्जन्माभिषेकाम्भःपूरैराप्लाविताऽधुना । अयत्नक्षालितमला, सत्या रत्नप्रभा प्रभो ! ॥ ६०४ ॥ मनुष्याः खलु ते धन्या, ये त्वां द्रक्ष्यन्त्यहर्निशम् । यथासमयमेव त्वां द्रष्टारः कीदृशा वयम् १ ||६०५ ।। भरतक्षेत्रजन्तूनां मोक्षमार्गोऽखिलः खिलः । त्वया नूतनपान्थेन, नाथ ! प्रकटयिष्यते ॥ ६०६ ॥ · साऽस्तु तावत् तव सुधासधीची धर्मदेशना । त्वद्दर्शनमपि श्रेयो, विश्राणयति जन्मिनाम् ॥ ६०७ ॥ १ इन्द्रः । २ अप्रहृतः केनाऽप्यनाक्रान्तः । ३ ददाति । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित | द्वितीय सर्गः ऋषभचरितम्। ॥५३॥ न कश्चिदुपमापात्रं, भवतो भवतारक ! । ब्रूमस्त्वत्तुल्यमेव त्वां, यदि का तर्हि ते स्तुतिः ? ॥ ६०८॥ नासि वक्तुमलं नाथ, सद्भूतानपि ते गुणान् । खयम्भूरमणाम्भोघेर्मातुमम्भांसि कः क्षमः ॥६०९॥ इति स्तुत्वा जगन्नाथं, प्रमोदामोदिमानसः । विचके पश्चधाऽऽत्मानं, पूर्ववत् पूर्वदिक्पतिः ॥६१०॥ ईशानोत्सङ्गतः शक्रः, एकस्तत्राऽप्रेमद्वरः । रहस्यमिव जग्राह, हृदयेन जगत्पतिम् ॥ ६११॥ अपरे पूर्ववत् खानि, स्वानि कर्माणि चक्रिरे । विनियुक्ता इव खामिसेवाविज्ञा बिडौजसः ॥ ६१२ ॥ वृतो निजामरैः सर्पन्नम्बरेणाऽमराग्रणीः । जगाम धाम तद् देव्याऽलङ्कृतं मरुदेवया ॥ ६१३॥ - तीर्थकृत्प्रतिरूपं तदुपसंहृत्य वासवः । तथैव स्थापयामास, स्वामिनं मातुरन्तिके ॥ ६१४ ॥ तामवखापनी निद्रां, पग्रिन्या इव भास्करः । स्वामिन्या मरुदेवाया, व्यपनिन्ये दिवस्पतिः ॥६१५॥ कूलिनीकूललुलितहंसमालाविलासभृत् । एकं दुकूलयुगलमुच्छी सोऽमुचत् प्रभोः ॥ ६१६ ॥ तत्रैव स न्यधाद् रत्नकुण्डलद्वयमीशितुः । बालत्वेऽपि समुद्भूतभामण्डलविकल्पदम् ॥ ६१७ ॥ एकं श्रीदामगण्डं च, स्वर्णप्राकारनिर्मितम् । विचित्ररत्नहारार्धहाराढ्यं हेमभासुरम् ॥ ६१८॥ उपरि स्वामिनो दृष्टिविनोदाय पुरन्दरः । विताने स्थापयामास, नभसीव नभोमणिम् ॥ ६१९ ॥ [सन्दानितकम् ] : अथ स श्रीदमादिक्षत् , प्रत्येकमपि सम्प्रति । हिरण्यवर्णरत्नानां, कोटीात्रिंशतं द्रुतम् ॥६२०॥ नन्दासन-भद्रासनान्यथ द्वात्रिंशतं पृथक् । अन्यच्च वस्त्रनेपथ्यप्रभृत्यतिमनोहरम् ॥ ६२१ ॥ १सावधानः। सौधर्मेन्द्रविहित ऋषभजिनखात्रोत्सवः। ॥५३॥ For Private & Personal use only | . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna सांसारिकसुखोत्पादि, महार्घं वस्तु सर्वतः । खामिनो भवनेऽमुष्मिन्निधेद्यप इवाऽम्बुदः ।। ६२२ ।। [ त्रिभिर्विशेषकम् ] कुबेरः कारयामास, तत् सद्यो जृम्भकामरैः । आज्ञा ह्याज्ञाप्रचण्डानां वचसा सह सिध्यति ।। ६२३ ॥ अथाभियोगिकान् देवानादिदेशेति वासवः । उच्चैर्देवनिकायेषु चतुर्ष्वघुष्यतामिदम् ।। ६२४ ॥ अर्हतोऽर्हजनन्याश्च, योऽशुभं चिन्तयिष्यति । तस्याऽकैमञ्जरीवत्, सप्तधा मेत्स्यते शिरः ॥ ६२५ ॥ भवनपतिव्यन्तरज्योतिर्वैमानिकेषु तत् । ते समुज्जुघुषुः शिष्या, वाचमुचैर्गुरोरिव ॥ ६२६ ॥ शक्रुः सङ्क्रमयामास, नानाहाररसामृतम् । स्वाम्यङ्गुष्ठेऽमृतानाडीचक्रे भानुरिवाऽम्मर्यम् ।। ६२७ ।। अर्हन्तोऽस्तन्यपा यस्मात्, किन्तु क्षुदुदये सति । प्रक्षिपन्ति मुखेऽङ्गुष्ठं, स्वमेव रसवर्षिणम् ॥ ६२८ ॥ धात्रीकर्माणि सर्वाणि, निर्मापयितुमीशितुः । धात्रीरप्सरसः पञ्चाऽऽदिदेश ग्रुपतिः ॥ ६२९ ॥ तदा च बहवो देवा, जिनस्त्रात्रादनन्तरम् । सुमेरुशिखरादेव, द्वीपं नन्दीश्वरं ययुः ॥ ६३० ॥ श्रीनाभिसूनुसदनात्, सौधर्मेन्द्रोऽपि च द्रुतम्। ययौ नन्दीश्वरद्वीपं निवासं स्वर्गवासिनाम् ॥६३१॥ तत्र शुक्रः क्षुद्रमेरुप्रमाणे पूर्वदिस्थिते । नामतो देवरमणेऽञ्जनाद्राबवतीर्णवान् ।। ६३२ ।। तत्र चैत्ये चतुद्वारे, विचित्रमणिपीठिके । चैत्यद्रुमेन्द्रध्वजाङ्के, प्राविशद् द्युसदांपतिः ।। ६२३ ॥ ऋषभप्रभृतीरर्हृत्प्रतिमास्तत्र शाश्वतीः । यथावत् पूजयामास, सोऽष्टाहृयारम्भपूर्वकम् ।। ६२४ ।। तस्य चाऽद्रेश्चतुर्दिक्स्थमहावापीविवर्त्तिषु । स्फाटिकेषु दधिमुखपर्वतेषु चतुर्ष्वपि ।। ६३५ ॥ १ अर्जकवृक्षस्य मञ्जरीवत् । २ प्रभूता आपो यत्र तद् अम्मयम् । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥५४॥ SAUSASSASS द्वितीय सर्गः ऋषभचरितम् । चैत्येष्वर्हत्प्रतिमानां, शाश्वतीनां यथाविधि । चत्वारः शक्रदिक्पालाश्चक्रुरष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ६३६ ॥ ईशानेन्द्रोऽप्यवातारीदुत्तराशाप्रतिष्ठिते । रमणीयाह्वये नित्यरमणीयेऽञ्जनाचले ॥ ६३७ ॥ तत्र चैत्ये तावतीनां, शाश्वतीनां तथैव सः । प्रतिमानामाहतीनां, चकाराऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ६३८॥ तस्यापि लोकपालास्तद्वापीदधिमुखाद्रिषु । शाश्वताहत्प्रतिमानां, तद्वद् विदधुरुत्सवम् ॥ ६३९ ॥ चमरेन्द्रोऽप्युत्ततार, दक्षिणाशाव्यवस्थिते । नित्योहयोताभिधे रत्ननित्योझोतेऽञ्जनाचले ॥ ६४० ॥ भक्त्या महत्या तत्राऽयमपि चैत्ये यथाविधि । शाश्वतीनां प्रतिमानां, विदधेऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ६४१॥ तद्वाप्यन्तर्दधिमुखाचलेष्वचलचेतसः । चक्रुर्जिनप्रतिमानां, तद्दिक्पाला महोत्सवम् ॥ ६४२ ॥ अवातरद् बलीन्द्रोऽपि, पश्चिमाशानिवासिनि । स्वयम्प्रभाभिधेऽम्भोदप्रभाचौरेऽञ्जनाचले ॥६४३ ॥ शाश्वतीनामृषभादिप्रतिमानामसावपि । उत्सवं विदधे तद्वद्, दिविषदृष्टिपावनम् ॥ ६४४॥ तत्पुष्करिणीकान्तःस्थेपृच्चैदेधिमुखाद्रिपु । चक्रुस्तस्यापि दिक्पालाः, शाश्वतप्रतिमोत्सवम् ॥ ६४५॥ इति नन्दीश्वरे चैत्यमहिमानं विधाय ते । पथा यथागतेनैव, खं खं स्थानं ययुः सुराः ॥ ६४६॥ ___ स्वामिनी मरुदेवापि, सम्प्रबुद्धाऽथ नाभये । नैशं स्वममिवाऽमर्त्यसम्पातं तमचीकथत् ॥ ६४७ ॥ ऊरुप्रदेशे ऋषभो, लाञ्छनं यजगत्पतेः । ऋषभः प्रथमं यच्च, स्वमे मात्रा निरीक्षितः॥ ६४८॥ तत् तस्य ऋषभ इति, नामोत्सवपुरःसरम् । तौ मातापितरौ हृष्टी, विदधाते शुभे दिने ॥ ६४९ ॥ तदा च युग्मजातायाः, कन्याया अपि पावनम् । सुमङ्गलेति पितरौ, यथार्थ नाम चक्रतुः ॥ ६५०॥ शक्रसमिता स्वामी, निजाङ्गुष्ठे सुधामथ । पिबति स यथाकालं, कुल्याजलमिवाऽशिपः ॥ ६५१॥ देवानां नन्दीश्वरे गमन, ऋषभ इति प्रभोर्नामकरणं च। ॥५४॥ Jan Education International Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभप्रभोवंशस्थापना। BARSANSAR भगवान् शुशुभे बालः, पितुरुत्सङ्गमाश्रितः । अङ्के शिखरिणः सिंहकिशोर इव भासुरः ॥ ६५२ ॥ शक्रादिष्टाश्च धान्यस्ताः, पश्चापि परमेश्वरम् । महामुनि समितय, इवाऽमुश्चन् न जातुचित् ॥ ६५३ ॥ - खामिनो जन्मनः किश्चिदूने संवत्सरे सति । सौधर्मवासवो वंशस्थापनार्थमुपाययौ ॥ ६५४ ॥ भृत्येन रिक्तहस्तेन, न कार्य स्वामिदर्शनम् । इति बुद्ध्येव महतीमिक्षुयष्टिं स आददे ॥ ६५५ ॥ सेक्षुयष्टिः सुनासीरः, शरत्काल इवाऽङ्गवान् । नाभ्युत्सङ्गनिषण्णस्य, जगाम स्वामिनोऽग्रतः ॥६५६ ॥ ज्ञात्वा च शक्रसङ्कल्पमवधिज्ञानतो विभुः । तामिक्षुयष्टिमादातुं, करीव करमक्षिपत् ॥ ६५७ ॥ प्रणम्य शिरसा शक्रः, स्वामिने भाववित् ततः । अर्पयामास तामिक्षुलतिकामुपदामिव ॥ ६५८ ॥ यदिक्षुराददे भर्चेक्ष्वाकुरित्याख्यया ततः । स्वामिवंशं प्रतिष्ठाप्य, दिवस्पतिरगाद् दिवम् ॥ ६५९ ॥ देहो युगादिनाथस्य, खेदामयमलोज्झितः । सुगन्धिः सुन्दराकारस्तपनीयारविन्दवत् ॥ ६६० ॥ गोक्षीरधाराधवले, अविस्र मांसशोणिते । आहारनीहारविधिलॊचनानामगोचरः ॥ ६६१॥ . उत्फुल्लकुमुदामोदसोदरं श्वाससौरभम् । चत्वारोऽतिशया एते, बभूवुर्जन्मना सह ॥ ६६२ ॥ वज्रऋषभनाराचं, दधत् संहननं प्रभुः । मन्दं चचाल पादाभ्यां, भूमिभ्रंशभयादिव ॥ ६६३ ॥ प्रभुईभाषे बालोऽपि, गम्भीरमधुरध्वनिः । नृणां लोकोत्तराणां हि, बाल्यं वपुरपेक्षया ॥६६४ ॥ संस्थानं स्वामिनस्तुल्यचतुरस्रमशोभत । श्रियां रिरंसमानानां, क्रीडावेदीव काञ्चनी ॥ ६६५ ॥. सवयोभूय सम्भूयाऽऽयातैः सुरकुमारकैः । अरस्त वृषभस्वामी, तेषां चित्तानुवृत्तये ॥ ६६६ ॥ धूलीधूसरसर्वाङ्गो, विभ्राणो घर्घरस्रजम् । कलभोऽन्तर्मदावस्थ, इव क्रीडन् बभौ विभुः॥६६७ ॥ त्रिषष्टि, १० For Private & Personal use only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ।। ५५ ।। जग्राह पाणिना स्वामी, यत् किञ्चिल्लीलयाऽपि हि । महर्द्धिकोऽपि त्रिदशो, न तदाच्छेत्तुमीश्वरः ||६६८|| बलं परीक्षितुमधादङ्गुलीमपि यः प्रभोः । स श्वासपवनेनाऽपि ययौ दूरेण रेणुवत् ॥ ६६९ ॥ स्वामिनं रमयामासुः, केचित् सुरकुमारकाः । विचित्रैः कन्दुकैर्भूमौ लुठन्तः कन्दुका इव ॥ ६७० ॥ चाटूनि जीव जीवेति, नन्द नन्देत्यनेकशः । केऽपि राजशुकीभूय, चाटुकारा इवाऽवदन् ॥ ६७१ ।। स्वामिनो रमणायैके, केकीभूय दिवौकसः । केकाप्रधानाः पुरतो, ननृतुः षड्जगायिनः ॥ ६७२ ॥ हंसीभूयाऽपरे चेरुः पार्श्वे गान्धारराविणः । प्रभोः सलीलहस्ताब्जग्रहणस्पर्शतृष्णया ।। ६७३ || भूयाऽग्रतः केsपि, मध्यमाराविणोऽरसन् । स्वामिनः प्रीतिमदृष्टिपातामृतपिपासिताः ॥ ६७४ ॥ Paste पुंस्कोकिलीभूय, पञ्चमस्वरमुञ्जगुः । स्थित्वोपस्वामितरुषु तन्मनः प्रीतिहेतवे ॥ ६७५ ॥ आययुस्तुरगीभूय, धैवतध्वनिहेषिणः । स्वामियानतयाऽऽत्मानं, पिपावयिषवोऽपरे ।। ६७६ ॥ asarः कलभीभूय, निषादस्वरराविणः । स्पृशन्तोऽधोमुखीभूय, करेण चरणौ प्रभोः ।। ६७७ ॥ her वृषभीभूय, ऋषभस्वरबन्धुराः । ताडयन्तस्तटीः शृङ्गैर्दृग्विनोदं व्यधुर्विभोः ॥ ६७८ ॥ महिषीभूय केऽप्यस्थुरञ्जनाचलसन्निभाः । युध्यमाना मिथो युद्धक्रीडां भर्त्तुरदर्शयन् ॥ ६७९ ॥ केऽपि भर्तुर्विनोदायाऽऽस्फालयन्तो भुजान् मुहुः । मल्लीभूयाऽक्षवाटान्तराह्वासेत परस्परम् ।। ६८० ॥ एवं विनोदैर्विविधैर्वृन्दारककुमारकैः । उपास्यमानः सततं, परमात्मेव योगिभिः ॥ ६८१ ॥ ताभिर्धात्रीभिरुद्यानपालीभिरिव पादपः । अप्रमत्तं लाल्यमानः क्रमेण ववृधे प्रभुः ॥ ६८२ || [सन्दानितकम् ] * णो बभुः सं १, खं ॥ १ मल्लयुद्धभूमिषु । २ आहूतवन्तः । प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । ऋषभस्य देवैः सह क्रीडनम् । ॥ ५५ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गुष्ठपानावस्थायाः, परस्ताद् वयसि स्थिताः । गृहवासेऽपरेऽर्हन्तः, सिद्धमन्नं हि भुञ्जते ॥ ६८३॥ ऋषभस्य यौवनं देवानीतोत्तरकुरुफलानि बुभुजे सदा । क्षीरोदवारि च पपौ, भगवान्नाभिनन्दनः॥ ६८४॥ देहशोभा बाल्यं कल्यमिवोल्लङ्थ, मध्यन्दिनमिवाय॒मा । विभुर्विभक्तावयवं, द्वितीयं शिश्रिये वयः॥६८५॥Sणानि च । यौवनेऽपि मृद रक्तौ, कमलोदरसोदरौ । उष्णावकम्प्रावखेदौ, पादौ समतलौ प्रभोः॥ ६८६॥ नतार्तिच्छेदनायेव, प्रपेदे चक्रमीशितुः । सदास्थितश्रीकरणोरिव दामाङ्कुशध्वजाः॥ ६८७॥ .. खामिनः पादयोर्लक्ष्मीलीलासदनयोरिव । शङ्खकुम्भौ तले पाणी, स्वस्तिकश्च विरेजिरे ॥ ६८८॥ मांसलो वर्तुलस्तुङ्गो, भुजङ्गमफणोपमः । अङ्गुष्ठः स्वामिनो वत्स, इव श्रीवत्सलाञ्छितः॥ ६८९ ॥ प्रभोनिर्वातनिष्कम्पस्निग्धदीपशिखोपमाः। नीरन्ध्रा ऋजवोऽङ्गल्यो, दलानीव पदाब्जयोः॥ ६९०॥ नन्द्यावर्ता जगद्भर्तुः, पादाङ्गुलितलेष्वभान् । यदिम्बानि क्षितौ धर्मप्रतिष्ठाहेतुतां ययुः॥ ६९१ ॥ यवाः पर्वस्वङ्गुलीनामधो वापीभिरावभुः । उता इव जगल्लक्ष्मीविवाहाय जगत्प्रभोः ॥ ६९२ ॥ कन्दः पादाम्बुजस्येव, पार्णिवृत्तायतः पृथुः । अङ्गुष्ठाङ्गुलिफणिनां, फणामणिनिभा नखाः ॥ ६९३ ॥ हेमारविन्दमुकुलकर्णिकागोलकश्रियम् । गूढौ गुल्फो वितेनाते, नितान्तं स्वामिपादयोः ६९४ ॥ प्रभोः पादावुपर्यानुपूर्व्या कूर्मवदुबतौ । अप्रकाशशिरौ स्निग्धच्छवी लोमविवर्जितौ ॥ ६९५ ॥ अन्तर्मनास्थिपिशितपुष्कले क्रमवर्तुले । एणीजङ्घाविडम्बिन्यौ, जङ्घ गौयौं जगत्पतेः॥ ६९६ ॥ जानुनी स्वामिनोऽधातां, वर्तुले मांसपूरिते । तूलपूर्णपिधानान्तःक्षिप्तदर्पणरूपताम् ॥ ६९७ ॥ ऊरू च मृदुलौ स्निग्धावानुपूर्येण पीवरौ । बिभराञ्चक्रतुः प्रौढकदलीस्तम्भविभ्रमम् ॥ ६९८॥ नस्पेव, पाणिवृत्तावभुः । उता इव जन क्षितौ धर्मप्रतिष्ठा Jain Education Intern For Private & Personal use only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका | प्रथमं पर्व द्वितीयः पुरुषचरिते सर्गः ॥५६॥ ऋषभचरितम् । | ऋषभस्य यौवनं खामिनः कुञ्जरस्येव, मुष्की गूढौ समस्थिती । अतिगूढं च पुंश्चिदं, कुलीनस्येव वाजिनः ॥ ६९९ ॥ तच्चाऽसिरमनिम्नोचमहखादीर्घमश्लथम् । सरलं मृदु निर्लोम, वर्तुलं सुरभीन्द्रियम् ॥ ७००॥ शीतप्रदक्षिणावर्त्तशब्दयुक्तकधारकम् । अबीभत्सावर्त्ताकारकोशस्थं पिञ्जरं तथा ॥ ७०१॥ आयता मांसला स्थूला, विशाला कठिना कटिः । मध्यभागस्तनुत्वेन, कुलिशोदरसोदरः ॥ ७०२ ॥ नाभिर्वभार गम्भीरा, सरिदावर्त्तविभ्रमम् । कुक्षी स्निग्धौ मांसवन्तौ, कोमलौ सरलौ समौ ॥ ७०३ ॥ अधाद् वक्षःस्थलं स्वर्णशिलापृथुलमुन्नतम् । श्रीवत्सरत्नपीठाई, श्रीलीलावेदिकाश्रियम् ॥ ७०४॥ . दृढपीनोन्नती स्कन्धौ, ककुमत्ककुदोपमौ । अल्परोमोन्नते कक्षे, गन्धस्खेदमलोज्झिते ॥ ७०५॥ पीनौ पाणिफणाच्छत्रौ, भुजावाजानुलम्बिनौ । चञ्चलाया नियमने, नागपाशाविव श्रियः ॥ ७०६॥ नवाम्रपल्लवाताम्रतलौ निष्कर्मकर्कशौ । अखेदनावपच्छिद्रावुष्णौ पाणी जगत्पतेः ॥ ७०७ ॥ दण्डचक्रधनुर्मत्स्यश्रीवत्सकुलिशाङ्कुशैः । ध्वजाब्जचामरच्छत्रशकुम्भाब्धिमन्दरैः ॥ ७०८ ॥ मकरर्षभसिंहाश्वरथस्वस्तिकदिग्गजैः । प्रासादतोरणद्वीपैः, पाणी पादाविवाङ्कितौ ॥ ७०९॥ [युग्मम् ]] अङ्गुष्ठोऽङ्गुलयः शोणाः, सरलाः शोणपाणिजाः । प्ररोहा इव कल्पद्रोः, प्रान्तमाणिक्यपुष्पिताः॥७१० ॥ यवाः स्पष्टमशोभन्त, स्वामिनोऽङ्गुष्ठपर्वसु । यशोवरतुरङ्गस्य, पुष्टिवैशिष्ट्यहेतवः ॥ ७११॥ अङ्गुलीमृर्द्धसु विभोः, सर्वसम्पत्तिशंसिनः । दधुः प्रदक्षिणावर्ता, दक्षिणावर्त्तशङ्खताम् ॥ ७१२ ॥ . कृच्छ्रादुद्धरणीयानि, जगन्ति त्रीण्यपीत्यभान् । सङ्ख्यालेखा इव तिस्रो, लेखा मूले कराब्जयोः ॥७१३॥ वर्तुलोऽनतिदीर्घश्च, लेखात्रयपवित्रितः । गम्भीरध्वनिराधत्त, कण्ठः कम्बुविडम्बनाम् ॥ ७१४ ॥ SSROSSESSAGARANA | देहशोभा ला लक्षणानि च। ॥५६॥ Jain Education Interna For Private & Personal use only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F] विमलं वर्तुलं कान्तितरङ्गि वदनं विभोः । पीयूषदीधितिरिवाऽपरो लाञ्छनवर्जितः ॥ ७१५ ॥ मसृणौ मांसलौ स्निग्धौ, कपोलफलको प्रभोः । दर्पणाविव सौवौँ, वाग्लक्ष्म्योः सहवासयोः ॥ ७१६ ॥ अन्तरावर्तसुभगौ, कौँ स्कन्धावलम्बिनौ । प्रभोर्मुखप्रभासिन्धुतीरस्थे शुक्तिके इव ॥ ७१७॥ ओष्ठौ बिम्बोपमौ दन्ता, द्वात्रिंशत् कुन्दसोदराः । क्रमस्फारा क्रमोत्तुङ्गवंशा नासा महेशितुः ॥७१८॥ अहखदीर्घ चिबुकं, मांसलं वर्तुलं मृदु । मेचकं बहलं स्निग्धं, कोमलं श्मश्रु तायिनः ॥ ७१९ ॥ प्रत्यग्रकल्पविटपिप्रवालारुणकोमला । प्रभोर्जिह्वाऽनतिस्थूला, द्वादशाङ्गागमार्थसूः ॥ ७२० ॥ अन्तरा कृष्णधवले, प्रान्तरक्ते विलोचने । नीलस्फटिकशोणाश्ममणिन्यासमये इव ॥ ७२१॥. ते च कर्णान्तविश्रान्ते, कजलश्यामपक्ष्मणी । विकस्वरे तामरसे, निलीनालिकुले इव ॥ ७२२ ॥ बिभराश्चक्रतुर्भर्तुः, श्यामले कुटिले भ्रुवौ । दृष्टिपुष्करिणीतीरसमुद्भिन्नलताश्रियम् ॥ ७२३ ॥ विशालं मांसलं वृत्तं, कठिनं मसृणं समम् । भालस्थलं जगद्भर्खरष्टमीसोमसोदरम् ॥ ७२४ ॥ भुवनखामिनो मौलिरानुपूर्व्या समुन्नतः । दधावधोमुखीभूतच्छत्रसब्रह्मचारिताम् ॥ ७२५ ॥ मौलिच्छत्रे महेशस्य, जगदीशत्वशंसिनि । वृत्तमुत्तुङ्गमुष्णीषं, शिश्रिये कलसश्रियम् ॥ ७२६ ॥ केशाश्चकाशिरे मूर्ध्नि, प्रभोर्धमरमेचकाः । कुञ्चिताः कोमलाः स्निग्धाः, कालिन्या इव वीचयः ॥७२७॥ गोरोचनागर्भगौरी, स्निग्धखच्छा त्वगाबभौ । वर्णद्रवविलिप्तेव, तनौ त्रिजगदीशितुः ॥ ७२८॥ मृदुनि भ्रमरश्यामान्यद्वितीयोद्गमानि च । बिसतन्तुतनीयांसि, लोमानि स्वामिनस्तनौ ।। ७२९ ।। इत्यसाधारणैर्नानालक्षणेर्लक्षितः प्रभुः । रत्नै रत्नाकर इव, सेव्यः कस्येव नाऽभवत् ? ॥ ७३०॥ Jan Education International Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥५७ ॥ द्वितीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । लायन्यायेन मिथुनदारकमिवोत्पावभावा। सुनन्दाया उत्पत्तिः। दत्तहस्तो महेन्द्रेण, यक्षरुत्क्षिप्तचामरः । धरणेन्द्रकृतद्वास्थ्यो, धृतच्छत्रः प्रचेतसा ॥ ७३१॥ विष्वक परिवृतो देवैर्जीव जीवेति वादिभिः। अनुत्सित्तो जगत्स्वामी, विजहार यथासुखम् ॥७३२॥ [युग्मम] देवानीतासनासीनो, बलीन्द्राकाहितक्रमः । चमरेन्द्राङ्कपर्यविन्यस्तोत्तरविग्रहः ॥ ७३३ ॥ अप्सरोभिरुभयतो, हस्तशाटकपाणिभिः । उपास्यमानोऽनासक्तः, सङ्गीतं दीव्यमैक्षत ॥७३४॥ [युग्मम् ] अन्येयुः क्रीडया क्रीडद्, बालभावानुरूपया। मिथो मिथुन किश्चित् , तले तालतरोरगात् ॥७३५॥ तदैव दैवदुर्योगात , तन्मध्यान्नरमूर्द्धनि । तडिद्दण्ड इवैरण्डेऽपतत् तालफलं महत् ॥ ७३६ ॥ प्रहतः काकतालीयन्यायेन स तु मूर्द्धनि । विपन्नो दारकस्तत्र, प्रथमेनाऽपमृत्युना ॥ ७३७ ॥ ययौ सोऽल्पकषायत्वाद्, दिवं मिथुनदारकः । तूलमप्यल्पभारत्वादाकाशमनुधावति ॥ ७३८॥ पुरा हि मृतमिथुनशरीराणि महाखगाः । नीडकाष्ठमिवोत्पाट्य, सद्यश्चिक्षिपुरम्बुधौ ॥ ७३९ ॥ भ्रंशात तस्याऽनुभावस्य, तदानीं तत्कलेवरम् । तस्थौ तथैवाऽवसर्पत्प्रभावा ह्यवसर्पिणी ॥ ७४०॥ बालिकाऽस्य द्वितीयाऽथ, निसर्गान्मौग्ध्यशालिनी । सा विक्रीतावशिष्टेव, तस्थौ तरलितेक्षणा ॥ ७४१॥ आदाय तां तजनकमिथुनं पर्यवर्द्धयत् । नामधेयं पुनस्तस्याः, सुनन्देति विनिर्ममे ॥७४२॥ दिनैः कतिपयैस्तस्या, विपन्नौ पितरावपि । जातापत्यानि युग्मानि, जीवन्ति कियदेव हि ॥७४३॥ किर्त्तव्यजडा सापि, बालिका लोललोचना । यूथभ्रष्टा कुरङ्गीव, बभ्रामैकाकिनी वने ॥ ७४४ ॥ सरलाङ्गुलिपत्राभ्यां, सा पदाभ्यां पदे पदे । विकखराणि पद्यानि, रोपयन्तीव भुव्यपि ॥ ७४५॥ निर्गः। २ उत्तरकायः। ३ महापक्षिणः। ४ हीयमानप्रभावा । ॥५७॥ For Private & Personal use only . Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो काश्चनतूणीराविव कामस्य विभ्रती । आनुपूर्व्यपृथ वृत्तावरू करिकरोपमौ ॥ ७४६ ॥ ऋषभप्रभोः कन्दर्पयूतकृत्स्वर्णशाराफलकविभ्रमम् । विभ्राणेन नितम्बेन, मांसलेन गरीयसा ॥७४७॥ दापाणिग्रहणम्। मुष्टिग्राह्येण मध्येनाऽऽकर्षेणेव मनोभुवः। तस्यैवाऽऽक्रीडवाप्येव, नाभिदेशेन शोभिता ॥ ७४८ ॥ रूपास्तत्रिजगत्स्त्रैणजयरेखात्रयीमिव । वलीतरङ्गत्रितयीमुदरेण च बिभ्रती ॥७४९॥ धारयन्ती रतिप्रीत्योः, क्रीडाशैलाविव स्तनौ । तयोरेव स्वर्णदोलायष्टी इव च दोलते ॥ ७५०॥ कण्ठेन च त्रिरेखेण, कम्युविभ्रमहारिणा । अधरेण पराभूतपक्वविम्बफलत्विषा ।। ७५१ ॥ दन्तैरधरशुक्त्यन्तःस्थितैर्मुक्ताकणैरिव । नासया नेत्रनलिननालेनेवाऽतिहारिणी ॥ ७५२ ॥ गण्डौ भालस्पर्द्धयेवाद्धेन्दुलक्ष्मीमलिम्लुचौ । दधती कुन्तलांश्वाऽऽस्यपद्मलग्नानलीनिव ॥ ७५३ ।। सर्वाङ्गसुभगा पुण्यलावण्यामृतकूलिनी । वनान्तर्वनदेवीव, सञ्चरन्ती व्यराजत ॥७५४॥दिशभिः कुलकम् ]] ततश्चैकाकिनी मुग्धां, मिथुनान्यवलोक्य ताम् । किङ्कर्त्तव्यविमूढानि, श्रीनाभेरुपनिन्यिरे ॥ ७५५॥ एषा ऋषभनाथस्य, धर्मपत्नी भवत्विति । प्रतिजग्राह तां नाभिर्नेत्रकैरवकौमुदीम् ॥ ७५६॥ __ अत्रान्तरेऽवधिज्ञानप्रयोगेण पुरन्दरः । भर्तुर्विवाहसमयं, ज्ञात्वा तत्र समाययौ । ७५७ ॥ प्रणम्य चरणौ पत्युः, पत्तिमात्र इवाऽग्रतः । स्थित्वा दिवस्पतिर्बद्धाञ्जलिरेवं व्यजिज्ञपत् ॥ ७५८ ॥ अज्ञो ज्ञाननिधिं नाथं, यो मत्रणधिया पुमान् । प्रविवर्तयिषेत् कार्येषूपहासास्पदं हि सः॥७५९ ॥ स्वामिनाऽतिप्रसादेन, सदा भृत्या हि वीक्षिताः । स्वच्छन्दमपि जल्पन्ति, कदाचिदपि किञ्चन ॥ ७६०॥ विदित्वा स्वाम्यभिप्रायं, ये पाहुस्ते हि सेवकाः । अज्ञात्वा यद् ब्रुवे तत्राऽप्रसाईनाथ ! मा कृथाः ॥७६१॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व द्वितीय सर्गः ऋषभचरितम् । ऋषभप्रभोः पाणिग्रहणम् । मन्ये स्वामी वीतरागो, गर्भवासात् प्रभृत्यपि । चतुर्थपुरुषार्थाय, सजोऽन्यार्थानपेक्षया ॥ ७६२॥ तथापि नाथ ! लोकानां, व्यवहारपथोऽपि हि । त्वयैव मोक्षवर्मेव, सम्यक् प्रकटयिष्यते ॥ ७६३ ॥ तल्लोकव्यवहाराय, पाणिग्रहमहोत्सवम् । विधीयमानं भवतेच्छामि नाथ ! प्रसीद मे ॥ ७६४॥ सुमङ्गलासुनन्दे च, देव्यौ भुवनभूषणे । स्वानुरूपे रूपवत्यौ, स्वामिन्नुद्वोढुमर्हसि ॥ ७६५॥ खाम्यप्यवधिनाऽज्ञासीत् , कर्म भोगफलं दृढम् । त्र्यशीतिं पूर्वलक्षाणां, यावद् भोक्तव्यमस्ति नः॥७६६॥ अवश्यभोक्तव्यमिदं, कर्मेत्याधूनयन् शिरः । तस्थावधोमुखः स्वामी, तदा सायं सरोजवत् ॥ ७६७ ॥ __अथ भर्तुरभिप्रायमुपलक्ष्य पुरन्दरः । विवाहकारम्भाय, सद्यो देवानजूहवत् ॥ ७६८॥.. अथाभियोगिका देवाः, पाकशासनशासनात् । मण्डपं रचयामासुः, सुधर्माया इवाऽनुजम् ॥ ७६९ ॥ स्वर्णमाणिक्यरजतस्तम्भास्तत्र चकाशिरे । मेरुरोहणवैताढ्यचूलिका इव रोपिताः ॥ ७७० ॥ शातकुम्भमयास्तत्र, कुम्भाः प्रद्योतकारिणः । चक्रिणः काकणीरत्नमण्डलानीव रेजिरे ॥ ७७१ ॥ सुवर्णवेदिकास्तत्र, बभुरुद्यद्भिरंशुभिः । पर्यस्यन्त्य इवाऽदित्यं, तेजोऽन्यदसहिष्णवः ॥ ७७२ ॥ प्रविशन्तो मणिशिलाभित्तिषु प्रतिविम्बिताः । के के न प्राप्नुवंस्तत्र, परिवारपरिक्रियाम् ॥ ७७३ ॥ रतस्तम्भव्यवष्टब्धाः, सङ्गीतश्रान्तनकीः। विडम्बयन्त्यस्तत्रोच्चैः, शालभज्यो बभासिरे ॥ ७७४ ॥ तोरणानि प्रतिदिशं, सन्तानतरुपल्लवैः । तत्राऽभूवन् धनूंषीव, सन्जितानि मनोभुवा ॥ ७७५ ॥ स्फाटिकद्वारशाखासु, बभुलाश्मतोरणाः । शरदभ्रावलीमध्यस्थितकीरालिसन्निभाः॥ ७७६ ॥ . मोक्षाय । * त्रिषष्टिं पूर्व आ ॥ २ पुत्तलिकाः । ॥५८॥ Jain Education Inte l For Private & Personal use only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्वचित् स्फटिकबद्धोवीनिरन्तरमरीचिभिः । सोऽतनोन्मण्डपः क्रीडापीयूषसरसीभ्रमम् ॥ ७७७ ॥ पद्मरागशिलाशोचिनिचयैः प्रसृतैः क्वचित् । सोऽदिशद् दिव्यविस्तारिकौसुम्भांशुकसंशयम् ॥ ७७८ ॥ क्वचिन्नीलशिलारश्मिप्ररोहः सोऽतिहारिभिः। पुनरुक्तोप्तमङ्गल्ययवाङ्कर इवाऽऽबभौ ।। ७७९ ॥ क्वचिन्मरकतक्षोणिरश्मिदण्डैरखण्डितैः । आोपनीतमङ्गल्यवंशशङ्का दिदेश सः॥ ७८० ॥ श्वेतदिव्यांशुकोल्लोचच्छलेन गगनस्थया । गङ्गयेवाऽऽश्रितः सोऽभूत्, तत्कौतुकदिदृक्षया ॥ ७८१॥ उल्लोचं परितस्तं च, लम्बिता मौक्तिकस्रजः । अष्टानां ककुभां हर्षहसितानीव रेजिरे ॥ ७८२ ॥ चतस्रो रत्नकलसश्रेणयोऽभ्रंलिहायकाः । पर्यष्ठाप्यन्त देवीभिर्निधानानि रतेरिव ॥ ७८३ ॥ आर्द्राः शुशुभिरे वंशाः, कुम्भावष्टम्भदायिनः । विश्वावष्टम्भदस्वामिवंशवृद्धेर्नु सूचकाः ॥ ७८४ ॥ आरभख स्रजो रम्भे !, दूर्वामुर्वशि! सज्जय । घृताचि! घृतदध्यादि, वराघोय समाहर ॥ ७८५॥ मञ्जुघोषे ! मञ्जुघोषयाऽऽलीर्धवलमङ्गलान् । त्वं सुगन्धे! सुगन्धीनि, वस्तूनि प्रगुणीकुरु ॥ ७८६ ॥ खस्तिकानुत्तमान् द्वारदेशे देहि तिलोत्तमे ! । मेने ! सम्मानयाऽऽयातानुचितालापभङ्गिभिः ॥ ७८७।। सुकेशि! केशाभरणं, वधूवरकृते धर । सहजन्ये! जन्ययात्रानृणां स्थान प्रदर्शय ॥ ७८८ ॥ चित्रलेखे ! लिखाऽऽलेख्यं, विचित्रं मातृवेश्मनि । प्रगुणीकुरु तूर्ण त्वं, पूर्णपात्राणि पूर्णिनि! ॥७८९॥ पुण्डरीके ! पुण्डरीकैः, पूर्णकुम्भान् विभूषय । त्वं स्थापय यथास्थानमम्लोचे! वरमश्चिकाम् ॥७९०॥ आपादय हंसपादि !, त्वं वधूवरपादुकाः। त्वं पुञ्जिकास्थले ! वेदिस्थली लिम्पाऽऽशु गोमयैः ॥७९१॥ रामे! किं रमसेऽन्यत्र!, हेमे ! किं हेम वीक्षसे । ऋतुस्थले !प्रमत्तेव, किमसि त्वं विसंस्थुला ॥७९२॥ Jain Education Internatione For Private & Personal use only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम् । किंचिन्तयसि मारीचि!?,सुमुख्यसि किमुन्मुखी किमर्वागनासि गान्धर्वि!?,दिव्ये दीव्यसि किं मुधा? आसन्नं वर्तते लग्नं, ननु सर्वात्मना ततः । खे खे त्वरध्वं कर्त्तव्ये, विवाहोचितकर्मणि ॥७९४॥ मिथ इत्यादिशन्तीनां, नामग्रार्ह मुहुमुहुः । सरसोऽप्सरसां जज्ञे, तुमुलस्तत्र सम्भ्रमात् ॥ ७९५॥ [एकादशभिः कुलकम् ]] सुमङ्गलां सुनन्दां च, मङ्गलस्नानहेतवे । ततश्चाऽप्सरसः काश्चिदासयामासुरासने ॥ ७९६ ॥ तयोरुद्गीयमाने च, धवले मङ्गले कले । व्यधुः सर्वाङ्गमभ्यङ्ग, तैलेनाऽथ सुगन्धिना ॥ ७९७ ॥ पतदुद्वर्तनीपुञ्जपवित्रितमहीतलम् । पिष्टातकैः सूक्ष्मपिष्टैश्चक्रुश्चोद्वर्त्तनं तयोः॥ ७९८ ॥ पादयोर्जानुनोः पाण्योरंसयोरलिके तयोः । सुधाकुण्डान्नवेवाऽङ्गलीनास्तास्तिलकान् व्यधुः ॥ ७९९ ॥ कौसुम्भसूत्रैस्तकुस्थैरङ्गं सव्यापसव्ययोः । ताः पस्पृशुः समचतुरस्रतामिव वीक्षितुम् ॥ ८००॥ एवं ते वरवर्णिन्यौ, वर्णके ताभिरहिते । प्रयत्नाद् वारयन्तीभिर्धात्रीभिरिव चापलात् ॥८०१॥ तदैवोद्वर्णकमपि, वर्णकस्येव सोदरम् । व्यधुस्तेनैव विधिना, तयोस्ताः प्रमदोन्मदाः ॥ ८०२॥ निवेश्य चाऽऽसनेऽन्यस्मिन् , स्वर्णकुम्भोदकैरथ । स्वपयन्ति स्म तास्ते खकुलयोरिव देवते ॥ ८०३ ॥ विदधुर्गन्धकाषाय्या, तयोरङ्गप्रमार्जनम् । केशांश्च वेष्टयामासुर्वाससा मसृणेन ताः॥ ८०४ ॥ तास्ते क्षौमाणि संव्याय्याऽऽसयित्वा चाऽऽसनान्तरे । केशेभ्योऽश्चोतयन् वारि, मुक्तावृष्टिभ्रमं दिशत् ८०५ ईषदाानधूपायन् , दिव्यधृपेन कुन्तलान् । स्निग्धधूमलतापुष्टश्रीविशेषांस्तयोश्च ताः॥ ८०६॥ स्थापिते । २ परिधाप्य । ऋषभप्रभोः पाणिग्रहणम्। ॥ ५९॥ Jan Education International Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मखण्डपतद्वालारुणरोचिर्विडम्बिना । अमण्डयंस्तयोः पादानलक्तकरसेन ताः॥८०७॥ अङ्गनारत्नयोरङ्गमङ्गरागेण चारुणा । काञ्चनं गैरिकेणेव, विलिम्पन्ति स्म तास्तयोः ॥ ८०८ ॥ ग्रीवाभुजाग्रवक्षोजगण्डदेशेषु तास्तयोः । प्रशस्तीरिव कामस्स, लिलिखुः पत्रवल्लरीः॥८०९॥ अलिके तिलकं चारु, चक्रुस्ताश्चान्दनं तयोः। रतिदेव्यवताराय, प्रत्यग्रमिव मण्डलम् ॥ ८१० ॥ तयोः प्रसाधयामासुर्नयनान्यञ्जनेन ताः । नीलोत्पलवनापातिभृङ्गसब्रह्मचारिणा ॥ ८११॥ तयोर्बबन्धुधम्मिल्लमुन्मीलन्माल्यदाम ताः । पुष्पायुधेनेव कृतमायुधागारमात्मनः ॥ ८१२॥ पारिणेत्राणि वस्त्राणि, ताभ्यां ताः पर्यधापयन् । लम्बमानदशाश्रेणिन्यकृतेन्दुकराण्यथ ॥ ८१३ ॥ तयोरधिशिरो न्यासन् , विचित्रमणिभासुरौ । ताः किरीटौ पुष्पदन्तौ, पूर्वापरदिशोरिव ॥ ८१४ ॥ तत्कर्णयोर्मणिमयावतंसौ ता न्यवीविशन् । रत्नाकुरितमेरूव/गर्वसर्वखतस्करौ ॥ ८१५ ॥ ताः समारोपयामासुर्दिव्ये मौक्तिककुण्डले । तत्कर्णलतयोर्नव्यपुष्पगुच्छविडम्बिनी ।। ८१६ ॥ निष्कं ताश्चित्रमाणिक्यदीप्तिदन्तुरिताम्बरम् । सजिनेन्द्रधनुर्लक्ष्मीहरं कण्ठे न्यधुस्तयोः ॥८१७॥ हारमारोपयामासुरधिस्तनतटं तयोः । आतन्वानं स्थलारोहदवरोहनदीभ्रमम् ॥ ८१८॥ भुजयोर्योजयामासुः, केयूरे रत्नमण्डिते । पुष्पबाणधनुर्बद्धवीरपट्टोपमे तयोः ॥ ८१९ ॥ आमुक्तौ च तयोर्मुक्ताकङ्कणी पाणिमूलयोः । आवालाविव पानीयशालिनौ लतयोस्तले ॥ ८२०॥ अक्कणत्किङ्किणीश्रेणिं, श्रोणी व्यश्राणयंस्तयोः । मणिकाञ्ची रतेर्देव्या, इव मङ्गलपाठिकाम् ॥ ८२१॥ १ ललाटे। २ नवीनम्। ३ चन्द्रसूर्यो। ४ कण्ठाभरणम् । Jain Education in For Private & Personal use only . Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥६ ॥ प्रथमं पर्व द्वितीय सर्गः ऋषभचरितम् । ऋषभप्रभोः पाणिग्रहणम् तयोरारोपयामासुः, पादयो रत्ननपुरौ । झणझणिति कुर्वाणौ, स्तुवन्ताविव तद्गुणान् ॥ ८२२ ॥ सज्जयित्वैवमुत्पाट्य, देव्यौ देवीजनेन ते । नीत्वा मातृगृहस्साऽन्तरासिते काञ्चनासने ॥ ८२३ ॥ विवाहसजीभवनायोपेत्य नमुचिद्विषा । विज्ञप्यमानो निर्बन्धात्, प्रभुर्वृषभलाञ्छनः॥८२४ ॥ दर्शनीया स्थितिौके, भोक्तव्यं भोग्यकर्म च । अस्ति मे चिन्तयित्वैवमन्वमन्यत तद्वचः ॥ ८२५ ॥ [युग्मम् ] अथ स्वामी महेन्द्रेण, स्त्रपयित्वा विलिप्य च । यथाविधि विधिज्ञेन, भूषितो भूषणादिना ॥८२६॥ वेत्रिणेव महेन्द्रेण, शोध्यमानायवर्त्मकः । उत्तार्यमाणलवणः, पार्श्वयोरप्सरोजनैः ॥ ८२७ ॥ इन्द्राणीभिर्गीयमानश्रेयोधवलमङ्गलः । सामानिकादिदेवीभिः, क्रियमाणावतारणः ॥ ८२८॥ गन्धौधैर्वाद्यमानातोद्यः सद्योभुवा मुदा । स्वामी दिव्येन यानेन, मण्डपद्वारमाययौ ॥ ८२९ ॥ खामी स्वयं विधिज्ञोऽथ, यानादुत्तीर्य तत्र तु । अधिवेलेव मर्यादालताभूमाववास्थित ॥ ८३० ॥ तत्र त्रिदशनाथेन, दत्तबाहुर्बभौ विभुः । महीरुहमवष्टम्भ्य, स्तम्बरम इव स्थितः ॥ ८३१ ॥ तटत्रटिति कुर्वाणलवणानलगर्भितम् । सरावसम्पुटं द्वारि, मुमुचुमण्डपस्त्रियः ॥ ८३२ ॥ रूप्यस्थालं च दूर्वादिमङ्गल्यद्रव्यलाञ्छितम् । काऽप्यग्रे धारयामास, राकेव मृगलाञ्छनम् ॥ ८३३ ॥ • पञ्चशाखेन वैशाखं, प्रत्यक्षमिव मङ्गलम् । उत्क्षिप्यार्घाय काऽप्यग्रे, कौसुम्भवसनाऽभवत् ॥ ८३४ ॥ देह्यर्घमर्षदेऽाय, क्षणं म्रक्षणमुत्क्षिप । स्थालादुद्धेहि च दधि, पीयूषमुदधेरिव ॥ ८३५॥ सुन्दरे! नन्दनाऽऽनीतचन्दनद्रवमुन्नय । आहृतां भद्रशालोा , दूर्वा समृदमुद्धर ॥ ८३६ ॥ Jain Education Internati For Private & Personal use only PF Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि. ११ मिलल्लोकेक्षणश्रेणिजातजङ्गमतोरणः । तोरणद्वारि नन्वेष, जगत्रयवरो वरः || ८३७ ॥ ऊर्ध्वस्तिष्ठत्युत्तरीयाच्छादिताशेषविग्रहः । गङ्गातरङ्गान्तरितराजहंसयुवोपमः || ८३८ ॥ वातेनोद्वान्ति पुष्पाणि, चन्दनं च विशुष्यति । तद्वारि सुन्दरि ! चिरं, वरं मा घर मा धर ।। ८३९ ।। देवस्त्रीभिर्गीयमानेषूच्चकैर्धवलेष्विति । अर्घ त्रिजगदुर्ध्याय, ददावथ वराय सा ॥ ८४० ॥ [ षभिःकुलकम् ] - प्रारब्धधवलेवोच्चैः, क्वणद्भिर्भुजकङ्कणैः । मैथा चुचुम्ब बिम्बोष्ठी, त्रिर्भालं त्रिजगत्पत्तेः ।। ८४१ ।। सरावसम्पुटं साग्निं, हिमकर्परलीलया । पदा सपादुकेनाऽथ वामेनाऽदलयद् विभुः ॥ ८४२ ॥ ततस्तयाऽर्घदायिन्या, कण्ठे कौसुम्भवाससा । प्रक्षिप्तेनाऽऽकृष्यमाणो, ययौ मातृगृहं प्रभुः ॥ ८४३ || कन्देन मदनस्येव, मदनेनोपशोभितम् । वधूवरस्य हस्तेषु, हस्तसूत्रमबध्यत ॥ ८४४ ॥ अग्रतो मातृदेवीनामथोच्चैः काञ्चनासने । आसाञ्चक्रे प्रभुर्मेरुशिलायामिव केसरी ।। ८४५ ॥ शम्यश्वत्थत्वचौ पिष्ट्वा, हस्तालेपं ततः स्त्रियः । निदधुः कन्ययोः पाणौ, स्मरद्रोरिव दोहदम् ॥। ८४६ ॥ शुभलग्नोदये तूर्णमविर्हस्तस्ततः प्रभुः । हस्तालेपयुतौ हस्तौ हस्ताभ्यामग्रहीत् तयोः ॥ ८४७ ॥ हस्तसम्पुटमध्यस्थहस्तालेपान्तरूर्मिकाम् । चिक्षेप तत्र सुत्रामा, पल्वले शालिबीजवत् ।। ८४८ ।। ताभ्यामुभाभ्यामुभयहस्तात्ताभ्यां बभौ विभुः । शाखाद्वितयलग्नाभ्यां, लताभ्यामिव पादपः ।। ८४९ ॥ वधूवरदृशोऽन्योऽन्यं, तारामेलकपर्वणि । सरित्पतिसरित्तोयानीवाऽभिमुखमापतन् ।। ८५० ।। १] सन्धानेन । २ अव्याकुलः । ३ इन्द्रः । - . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व |-द्वितीयः सर्गः ॥६१॥ ऋषभचरितम् । ऋषभप्रभोविवाहोत्सवः। दृष्टिदृष्ट्या तदानीं च, निर्वातजलनिश्चला । मनसेव मनस्तेषां, परस्परमयुज्यत ॥ ८५१॥ कनीनिकासु तेऽन्योऽन्यं, रेजिरे प्रतिबिम्बिताः । प्रविशन्त इवाऽन्योऽन्यं, हृदयेष्वनुरागतः ॥ ८५२ ॥ ___ इतश्चाऽनुचरीभृय, सुराः सामानिकादयः । पार्थेष्वस्थुः प्रभोमेरोरिख विद्युत्प्रभादयः ॥ ८५३ ।। वधूट्योः पारिपार्विक्यश्चतुरा नर्मकर्मणि । एवं कौतुकधवलान्, गातुमारेभिरे स्त्रियः॥ ८५४ ॥ ज्वरीवाब्धि शोषयितुं, मोदकान् परिखादितुम् । श्रद्धालुरनुवरको, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८५५ ॥ मण्डकेभ्योऽखण्डदृष्टिः, कान्दुकस्येव कुकुरः । स्पृहयालुरनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८५६ ॥ आजन्मादृष्टपूर्वी किं, वटकान् रोरवालवत् ? । श्रद्धत्तेऽत्तुमनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ।। ८५७ ॥ तोयानां चातक इव, धनानामिव याचकः । पूगानां श्राद्धोऽनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८५८ ॥ ताम्बूलवल्लीपत्राणां, तृणानामिव तर्णकः । श्रद्धालुरद्याऽनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८५९ ॥ हैयङ्गवीनपिण्डस्य, बिडाल इव लम्पटः । श्राद्धचूर्णस्याऽनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८६० ॥ विलेपनस्य केदारकर्दमस्येव कासरः । श्रद्धां दधात्यनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८६१॥ निर्माल्यानामिवोन्मत्तो, माल्यानां लोललोचनः । श्रद्धानुबन्ध्यनुवरो, मनसा केन नन्वसौ ? ॥ ८६२॥ एवं कौतुकधवलान्, कौतुकोत्कर्णिताननाः । आकर्णयन्तोऽस्थुलेखा, आलेख्यलिखिता इव ।। ८६३ ॥ लोकेषु व्यवहारोऽयं, दर्शनीय इति प्रभुः। विवाद इव मध्यस्थस्तदुपेक्षितवांस्तदा ॥ ८६४ ॥ नावोरिवाञ्चलौ देव्योरञ्चलाभ्यां जगत्पतेः। महाप्रवहणस्येव, बबन्ध बेलसूदनः ॥ ८६५॥ . . हास्यकर्मणि । २ अनुवरको लोके "अणवर" इति प्रसिद्धः। रकबालकवत् । “ देवाः। ५ इन्द्रः। KAROGRAMOROSAROLORCHOCOLON ॥६१॥ For Private & Personal use only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMSUSCRISRUSSELLEGALORSECRE कट्यां स्वामिनमारोह्याऽऽभियोगिक इवाऽमरः । अमराधिपतिर्भक्त्याऽचलद् वेदिगृहं प्रति ॥ ८६६ ॥ इन्द्राणीभ्यां द्रुतं देव्यावप्यारोह्य कटीतटे । अवियोजितहस्ताग्रं, चालिते स्वामिना समम् ॥ ८६७॥ शिरोरत्नस्त्रिजगतस्ते तैः सह वधूवरैः । पूर्वद्वारेण विविशुमध्येवेदिनिकेतनम् ॥ ८६८॥ त्रायस्त्रिंशसुरस्तत्र, वह्निमहाय कोऽप्यथ । आविश्चक्रे वेदिकुण्डे, पृथ्वीमध्यादिवोत्थितम् ॥ ८६९॥ समिदाधानतो धूमलेखा व्यानशिरे दिवम् । कर्णावतंसतां यान्त्यश्चिरं खेचरयोषिताम् ॥ ८७० ॥ तमनिं परितोऽभ्राम्यत्, स्वामी स्त्रीगीतमङ्गलः । सुमङ्गलासुनन्दाभ्यां, यावत् पूर्णाष्टमङ्गली ॥८७१॥18 सहैव पाणिमोक्षेण, तेषामञ्चलमोक्षणम् । गीयमानाभिराशीभिः, कारयामास वासवः ॥ ८७२ ॥ संकलत्रोऽथ मघवा, हस्ताभिनयलीलया। ननर्त रङ्गाचार्यन्ति, स्वाम्युत्सवभवा मुदः ॥ ८७३॥ तमन्वनृत्यन् मुदिता, अपरेऽपि दिवौकसः । मरुता नर्त्तितं वृक्षमन्वाश्रितलता इव ।। ८७४ ॥ कैश्चिजयजयारावकारिभिश्चारणैरिव । कैश्चिद् विचित्रचारीकं, नृत्यद्भिर्भरतैरिव ॥ ८७५ ॥ गन्धर्वैरिव गायद्भिरपरैर्जातिबन्धुरम् । वादयद्भिर्मुखान्यन्यैरातोद्यानीव सुस्फुटम् ॥ ८७६ ॥ सम्भ्रमेण प्लवमानैः, प्लवगैरिव कैश्चन | हासयद्भिर्जनं सर्वमन्यैर्वैहासिकैरिव ।। ८७७ ॥ अपसारयद्भिर्लोकं, प्रतीहारैरिवाऽपरैः । हर्षोन्मत्तैः सुरैरेवं, दर्यमानस्वभक्तिकः ॥ ८७८ ॥ सुमङ्गलासुनन्दाभ्यां, भूषितोभयपार्श्वकः । दिव्ययानाधिरूढोऽथ, स्वस्थानमगमद् विभुः ॥ ८७९ ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] * सपत्नीकोऽथ आ॥ रिक्षाचार्यवत् सं. राचार्यवदाचरन्ति । Jain Education Interna ICS For Private & Personal use only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभ ॥६२॥ चरितम् । | भरतादिपुत्राणामुत्पत्तिः। एवं निवर्तितोद्वाहः, प्रभुं नत्वा स्वमाश्रयम् । ययौ समाप्तसङ्गीतो, रङ्गाचार्य इवाद्रिभित ॥ ८८०॥ ततः प्रभृति सोद्वाहस्थितिः स्वामिप्रदर्शिता । प्रावर्त्तत पराय, महतां हि प्रवृत्तयः ॥ ८८१॥ भोगान् वाम्यप्यनासक्तः, पत्नीभ्यां बुभुजे चिरम् । सद्भेदनीयमपि हि, न कर्म क्षीयतेऽन्यथा ॥८८२॥ विवाहाऽनन्तरं ताभ्यां, समं विलसतः प्रभोः । गतेषु किश्चिदूनेषु, पूर्वलक्षेषु पदस्वथ ॥ ८८३ ॥ बाहजीवपीठजीवी, च्युत्वा सर्वार्थसिद्धतः । कुक्षौ सुमङ्गलादेव्या, युग्मत्वेनाऽवतेस्तुः ॥ ८८४ ॥ तौ सुबाहुमहापीठजीवौ सर्वार्थसिद्धतः। च्युत्वा कुक्षौ सुनन्दायास्तद्वदेवाऽवतेरतुः ॥ ८८५॥ चतुर्दश महास्वप्नान्, गर्भमाहात्म्यशंसिनः । तदैव मरुदेवीव, देव्यपश्यत् सुमङ्गला ॥८८६॥ स्वामिनी स्वामिने स्वमान् , कथयामास तानथ । चक्रभृत् ते सुतो भावीत्याख्यत् प्रभुरपि स्फुटम् ॥८८७॥ सूर्यसन्ध्ये इव प्राची, द्युतिद्योतितदिअखे । अपत्ये भरतब्राहयौ, सुपुवेऽथ सुमङ्गला ॥ ८८८॥ अजीजनद् बाहुबलि-सुन्दयौं सुन्दराकृती । सुनन्दा स्वामिनी प्रावृडिव वारिदविद्युतौ ।। ८८९ ॥ देवी सुमङ्गलैकोनपश्चाशतमथ क्रमात् । असूत सुतयुग्मानि, रत्नानीव विदूरभूः ॥ ८९०॥ अवर्धन्त क्रमेणाऽमी, रममाणा इतस्ततः । महौजसो महोत्साहा, विन्ध्याद्रौ कलभा इव ॥ ८९१॥ शुशुभे वृषभवामी, समन्तात् परिवारितः । तैरपत्यैर्महाशाखी, शाखाभिरिव भूरिभिः ॥ ८९२ ॥ तदा च कालदोषेण, प्रभावः कल्पभूरुहाम् । अहीयत प्रदीपानामिव तेजो दिवामुखे ॥ ८९३ ॥ प्रादुरासन् कषायाश्च, मिथुनानां क्रुदादयः । लाक्षाकणा इवाऽश्वत्थपादपानां शनैः शनैः ॥ ८९४ ॥ अथ हाकारमाकारधिक्काराख्यं नयत्रयम् । यतत्रयमिव व्याला, मिथुनान्यत्यलयन् ॥ ८९५॥ ।। ६२॥ Jain Education Intek Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECORECASSSSSASSACROSECRESCRENCE सम्भूय ऋषभनाथं, मिथुनान्युपतस्थिरे । तच्चाऽसमञ्जसं सर्व, जायमानं व्यजिज्ञपन् ॥ ८९६॥ ज्ञानत्रयधरो जातिसरः स्वामीत्यवोचत । मर्यादोल्लविनां लोके, राजा भवति शासिता ॥ ८९७ ॥ आसयित्वाऽऽसनेऽत्युच्चेऽभिषिक्तः प्रथमं हि सः। चतुरङ्गचलोपेतः, स्यादखण्डितशासनः ॥ ८९८ ॥ तेऽप्यूचुर्भव राजा नस्त्वमेव किमुपेक्षसे । ईक्ष्यते नाऽपरः कोऽपि, मध्येऽस्माकं य ईदृशः॥ ८९९ ॥ अभ्यर्थयध्वमभ्येत्य, नाभिं कुलकरोत्तमम् । स वो दास्यति राजानमित्यभाषत नाभिभूः ॥९००॥ राजानं याचितस्तैस्तु, नाभिः कुलकराग्रणीः । भवताभृषभो राजा, भवत्विति जगाद तान् ॥ ९०१॥ अथो मिथुनधर्माणो, मुदिताः समुपेत्य ते । अस्माकं नाभिना राजाऽर्पितोऽसीत्यचिरे प्रभुम् ॥ ९०२॥ ततः वाम्यभिषेकार्थ, तेऽयुनीराय युग्मिनः । सिंहासनं चाऽकम्पिष्ट, त्रिविष्टपपतेस्तदा ॥९०३॥ विज्ञायाऽवधिना राज्याभिषेकसमयं प्रभोः । तत्राऽऽजगाम सुत्रामा, गेहाद् गेहमिव क्षणात् ॥ ९०४॥ सौधर्मकल्पाऽधिपतिः, क्लस्वा काञ्चनवेदिकाम् । अतिपाण्डुकम्बलावत्, तत्र सिंहासनं न्यधात् ॥९०५॥ राज्याभिषेकमृषभस्वामिनः पूर्वदिक्पतिः । देवानीतैस्तीर्थतोयैः, सौवस्तिक इव व्यधात् ॥९०६ ॥ स्वामिना वासयाञ्चके, दिव्यवासांसि वासवः । चारुचन्द्रातपमयानीव नैर्मल्यसम्पदा ॥९०७ ॥ प्रभोर्जगत्किरीटस्य, किरीटादीनि वृत्रहा । रत्नालङ्करणान्यङ्गे, यथास्थानं न्यवेशयत् ॥९०८॥ आजग्मुर्युग्मिनोऽप्यम्भो, गृहीत्वाऽम्भोजिनीदलैः । उदर्घा इव तस्थुस्ते, पश्यन्तो भूषितं प्रभुम् ॥९०९॥ दिव्यनेपथ्यवस्वालङ्कृतस्य शिरसि प्रभोः। न युज्यते क्षेप्नुमिति, तेऽक्षिपन् पादयोः पयः ॥ ९१० ॥ -१ इन्द्रस्य । २ पुरोहितः। * मूर्तच संता ॥ ३ इन्द्रः। OCAUCAUSEUMSAMROSALASS युज्यते क्षेमामा स तस्थुत्तेत न्यवेशयत Jan Education International For Private & Personal use only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभ४ चरितम् । विनीतानगरीनिर्माणम् विनीताः साध्वमी तेन, विनीताख्यां प्रभोः पुरीम् । निर्मातुं श्रीदमादिश्य, मघवा त्रिदिवं ययौ ॥११॥ द्वादशयोजनायामां, नवयोजनविस्तृताम् । अयोध्येत्यपराभिख्यां,विनीतां सोऽकरोत् पुरीम् ॥९१२॥ तां च निर्माय निर्मायः, पूरयामास यक्षराट् । अक्षय्य वस्त्रनेपथ्यधनधान्यैर्निरन्तरम् ॥ ९१३॥ बजेन्द्रनीलवैडूर्यहर्यकिर्मीररश्मिभिः । भित्ति विनाऽपि खे तत्र, चित्रकर्म विरच्यते ॥ ९१४ ॥ तत्रोच्चैः काञ्चनैहम्मेरुशैलशिरांस्यभि । पत्रालम्बनलीलेव, ध्वजव्याजाद् वितन्यते ॥ ९१५॥ तद्वरे दीप्तमाणिक्यकपिशीर्षपरम्पराः । अयत्नादर्शतां यान्ति, चिरं खेचरयोषिताम् ॥ ९१६ ॥ तस्यां गृहाङ्गणभुवि, स्वस्तिकन्यस्तमौक्तिकैः । खैरं कर्करकक्रीडां, कुरुते बालिकाजनः ॥ ९१७ ॥ तत्रोद्यानोचवृक्षाग्रस्खल्यमानान्यहर्निशम् । खेचरीणां विमानानि, क्षणं यान्ति कुलायताम् ॥ ९१८॥ तत्र दृष्ट्वाऽट्टहर्येषु, रत्नराशीन् समुच्छ्रितान् । तदवकरकूटोऽयं, तय॑ते रोहणाचलः ॥९१९ ॥ जलकेलिरतस्त्रीणां, त्रुटितेहारमौक्तिकैः । ताम्रपर्णीश्रियं तत्र, दधते गृहदीर्घिकाः ॥ ९२० ॥ तत्रेभ्याः सन्ति ते येषां, कस्याऽप्येकतमस्य सः । व्यवहाँ गतो मन्ये, वणिक्पुत्रो धनाधिपः ॥९२१ ॥ नक्तमिन्दुपद्भित्तिमन्दिरस्यन्दिवारिभिः । प्रशान्तपांसवो रथ्याः, क्रियन्ते तत्र सर्वतः ॥ ९२२॥ वापीकूपसरोलक्षैः, सुधासोदरवारिभिः । नागलोकं नवसुधाकुण्डं परिबभूव सा ॥ ९२३ ॥ गतायां जन्मतः पूर्वलक्षाणां विंशतौ तदा । तस्यां नगर्या राजाऽभूत, प्रभुः पालयितुं प्रजाः ॥९२४ ॥ ॐकार इव मत्राणां, नृपाणां प्रथमो नृपः। अपत्यानि निजानीव, पालयामास स प्रजाः॥९२५॥ , निष्कपटः। *दीप्रमा सं १, २॥ तदावकरकू आ, सं २ ॥ ॥६३॥ For Private & Personal use only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IGL Jain Education Internationa असाधुशासने साधुपालने कृतकर्मणः । प्रत्यङ्गानि स्वकानीव, मन्त्रिणो विदधे विभुः ॥ ९२६ ॥ चौर्यादिरक्षणे दक्षानारक्षानप्यसूत्रयत् । सुत्रामेव लोकपालान्, राजा वृषभलाञ्छनः ॥ ९२७ ॥ अनीकस्याङ्गमुत्कृष्टमुत्तमाङ्गं तनोरिव । राज्यस्थित्यै राजहस्ती, हस्तिनः स समग्रहीत् ॥ ९२८ ॥ आदित्यतुरगस्पर्द्धयेवात्युद्धुरकन्धरान् । बन्धुरान् धारयामास, तुरगान् वृषभध्वजः ॥ ९२९ ॥ सुश्लिष्टकाष्टघटितान्, स्यन्दनान् नाभिनन्दनः । विमानानीव भूस्थानि, सूत्रयामास च खयम् ॥ ९३० ॥ सुपरीक्षितसत्त्वानां पत्तीनां च परिग्रहम् । नाभिसूनुस्तदा चक्रे, चक्रवर्तिभवे यथा । ९३१ ॥ नव्यसाम्राज्यसौधस्य, स्तम्भानिव बलीयसः । अनीकाधिपतींस्तत्र स्थापयामास नाभिभूः ॥ ९३२ ॥ गो-बलीवर्द - करभ - सैरिभा -ऽश्वतरादिकम् । आददे तदुपयोगविदुरो हि जगत्पतिः ॥ ९३३ ॥ कल्पद्रुषु समुच्छन्नेष्वनपत्यान्वयेष्विव । कन्दमूलफलादीनि तदा बुभुजिरे जनाः ॥ ९३४ ॥ शालि - गोधूम-चणक- मुद्गाद्या ओषधीरपि । तृणवत् स्वयमुत्पन्नास्ते चखादुरपाकिमाः ॥ ९३५ ॥ · तस्मिन्नजीर्यत्याहारे, तैर्विज्ञप्तोऽवदद् विभुः । मृदित्वा त्वचयित्वा च, हस्तैस्ताः खादताऽधुना ॥ ९३६ ॥ उपदेशं जगद्भर्तुस्तेषां पालयतामपि । काठिन्यादोषधीनां तु, नाऽऽहारो जीर्यति स्म सः ॥ ९३७ ॥ तैर्विज्ञप्तः पुनः स्वामीत्यूचे सङ्घष्य पाणिभिः । तास्तिमित्वा जलैः पत्रपुटे धृत्वा च खादत ॥ ९३८ ॥ ते तथा चक्रिरे तत्राऽप्यजीर्णाहारवेदनाम् । तैर्विज्ञप्तो जगन्नाथः, पुनरप्येवमादिशत् ॥ ९३९ ॥ पूर्वोक्तविधिनाधायौषधीर्मुष्टौ निधाय च । आतपे कक्षयोः क्षित्वा, भक्षयन्तु ततः सुखम् ॥ ९४० ॥ तत्राऽप्यजीर्णाहारेण, विधुरेषु जनेष्वथ । तरुखण्डे मिथः शाखाघर्षणादग्निरुत्थितः ।। ९४१ ।। *4*** अहत्पत्तिः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥६४॥ SAEX ऋषभचरितम् । तृणकाष्ठादि स प्रोक्न् , दीपरत्नभ्रमेण तु । धावित्वाऽऽदातुमारेभे, प्रसारितकरैर्जनैः ॥ ९४२॥ प्रथमं पर्व तेनाऽग्निना दह्यमाना, भीताः प्रभुमुपेत्य ते । नूतनं भूतमुद्भूतं, किञ्चिदप्येवमृचिरे ॥ ९४३॥ | द्वितीयः खाम्यप्यूचे स्निग्धरूक्षकालादेषोऽग्निरुत्थितः । नैकान्तरूक्षे नैकान्तस्निग्धे काले भवत्यसौ ॥ ९४४ ॥ सर्गः स्थित्वाऽस्य पार्श्वतो वढेः, पर्यन्तस्थं तृणादिकम् । अपसारयताऽशेष, पश्चाद् गृह्णीत तं ननु ॥ ९४५॥ ततः पूर्वोक्तविधिना, साधयित्वौषधीरिमाः । ज्वलनेऽस्मिन् परिक्षिप्य, परिपच्य च खादत ॥ ९४६ ॥ ते तथा चक्रिरे मुग्धा, दग्धाश्चौषधयोऽग्निना । आगत्य कथयामासुरिति च स्वामिने पुनः ॥ ९४७॥ वामिन् ! न किञ्चिदस्मभ्यं, ददात्येष बुभुक्षितः । कुक्षिम्भरिरिवेकोत्ति, क्षिप्ताः सर्वत ओषधीः ॥९४८॥ का ऋपभप्रभुतदानीं सिन्धुरस्कन्धाधिरूढः प्रभुरप्यभूत् । तैः समानाययामास, मृत्तिकापिण्डमाकम् ॥ ९४९ ॥ प्रदर्शितानि कुम्भिकुम्भे मृदं न्यस्य, प्रवितन्य च पाणिना । पात्रं चक्रे तदाकारं, शिल्पानां प्रथमं प्रभुः ॥ ९५०॥ । स्वामीत्यूचे कुरुतैवं, भाजनान्यपराण्यपि । तान्यग्नौ न्यस्य पचतौषधीस्तदनु खादत ॥ ९५१ ॥ | ततश्च चक्रिरे ते तु, तथैव खामिशासनम् । तदादि जज्ञिरे कुम्भकाराः प्रथमकारवः ॥ ९५२ ॥ चक्रे वर्द्धक्ययस्कारं, गृहाद्यर्थ जगत्पतिः । विश्वस्य सुखसृष्ट्यै हि, महापुरुषसृष्टयः ॥ ९५३॥ गृहादिचित्रकृतये, कृती चित्रकृतोऽपि सः । सूत्रयामास लोकानां, क्रीडावैचित्र्यहेतुना ।। ९५४ ॥ कुविन्दान् कल्पयामास, लोकसंव्यानहेतवे । सर्वकल्पद्रुमस्थाने, ह्येकः कल्पद्रुमः प्रभुः ॥ ९५५ ॥ ॥६४॥ रोम्णां नखानां वृद्ध्या च, वाध्यमाने भृशं जने । जगदेकपिता स्वामी, नापितानप्यसूत्रयत् ॥ ९५६ ॥ * प्लोषन् संता ॥ + लोकानां गृहहेतोश्च, प्रभुळधित वर्द्धकीन् आ॥ १ तन्तुवायकान् । ERCASS Jain Education Intel 11 For Private & Personal use only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र-पुत्रीभ्यः कला-लिप्यादिप्रदर्शनम् । तानि पञ्चापि शिल्पानि, प्रत्येकं विशिभेदतः । शतधा प्रासरल्लोके, स्रोतांसि सरितामिव ॥ ९५७ ॥ तृणहारकाष्ठहारकृषिवाणिज्यकान्यपि । कर्माण्यासूत्रयामास, लोकानां जीविकाकृते ॥ ९५८ ॥ स्वामी सामदानभेददण्डोपायचतुष्टयम् । जगद्व्यवस्थानगरीचतुष्पथमकल्पयत् ॥ ९५९ ॥ द्वासप्ततिकलाकाण्डं, भरतं सोऽध्यजीगपत् । ब्रह्म ज्येष्ठाय पुत्राय, ब्रूयादिति नयादिव ॥९६०॥ भरतोऽपि स्वसोदस्तिनयानितरानपि । सम्यगध्यापयत् पात्रे, विद्या हि शतशाखिका ॥ ९६१ ॥ नाभेयो बाहुबलिनं, भिद्यमानान्यनेकशः । लक्षणानि च हस्त्यश्वस्त्रीपुंसानामजिज्ञपत् ॥ ९६२॥ अष्टादश लिपीाया, अपसव्येन पाणिना । दर्शयामास सव्येन, सुन्दर्या गणितं पुनः॥९६३ ॥ मानोन्मानाऽवमानानि, प्रतिमानानि वस्तुषु । पोतान् प्रोतांश्च मण्यादीन् , प्रभुः प्रावर्तयत् तदा ॥९६४ ॥ राजाध्यक्षकुलगृहसाक्षिभिः समजायत । व्यवहारस्तदादिष्टो, विवादिप्रतिवादिनाम् ॥ ९६५ ॥ नागाधर्चा धनुर्वेदश्चिकित्सोपासने रणः । अर्थशास्त्रं बन्धघातवधगोष्टयस्ततोऽभवन् । ९६६ ॥ असौ माता पिता भ्राता, भार्या पुत्रो गृहं धनम् । ममेत्यादि च ममताऽभूजनानां तदादिका ॥९६७॥ , दृष्ट्वा स्वामिनमुद्वाहे, प्रसाधितमलङ्कृतम् । प्रासाधयदलञ्चक्रे, लोकोऽपि खं ततः परम् ॥ ९६८ ॥ तदा दृष्ट्वा प्रभुकृतं, पाणिग्रहणमादिमम् । लोकोऽपि कुरुतेऽद्यापि, ध्रुवो ह्यध्वा महत्कृतः ॥९६९ ॥ दत्तकन्योपयमनं, प्रभूद्वाहात् प्रभृत्यभूत् । चूडोपनयनक्ष्वेडापृच्छा अपि ततोऽभवन् ॥ ९७० ॥ एतच्च सर्व सावद्यमपि लोकानुकम्पया । स्वामी प्रवर्त्तयामास, जानन् कर्त्तव्यमात्मनः ॥ ९७१ ॥ * विशमे सं १, २, आ ॥ १ परमतत्त्वम् । २ दक्षिणेन । जन्मानप्रमाणानि सं १॥ ३ गजादिपूजा । ४ स्थिरः । Jan Education Internation . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व द्वितीयः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥६५॥ सर्गः ऋषभचरितम्। ऋषभप्रभो राज्यव्यवस्था। तदाम्नायात् कलादीदमद्यापि भुवि वर्तते । अर्वाचीनैर्बुद्धिमद्भिर्निबद्धं शास्त्ररूपतः॥९७२ ॥ स्वामिनः शिक्षया दक्षो, लोकोऽभूदखिलोऽपि सः । अन्तरेणोपदेष्टारं, पशवन्ति नरा अपि ॥ ९७३ ॥ तदोग्र-भोग-राजन्य-क्षत्रभेदश्चतुर्विधान् । जनानासूत्रयद् विश्वस्थितिनाटकसूत्रभृत् ॥ ९७४ ॥ आरक्षपुरुषा उग्रा, उग्रदण्डाधिकारिणः । भोगा मत्र्यादयो भर्तुत्रायस्त्रिंशा हरेरिख ।। ९७५॥ राजन्या जज्ञिरे ते ये, समानवयसः प्रभोः । अवशेषास्तु पुरुषा, बभूवुः क्षत्रिया इति ॥ ९७६ ॥ विरचय्य नवामेवं, व्यवहारव्यवस्थितिम् । नवोढामिव बुभुजे, नवां राज्यश्रियं विभुः॥९७७॥ यथाऽपराधं दण्ड्येषु, दण्डं प्रायुत नाभिभूः । व्याधितेषु यथा व्याधिचिकित्सक इवाऽगदम् ॥९७८॥ दण्डभीतस्तदालोकश्चक्रे चौर्यादिकं न हि । एकैव दण्डनीतिर्हि, सर्वान्यायाहिजाङ्गुली ॥९७९ ॥ क्षेत्रोद्यानगृहादीनां, मर्यादां कोऽपि कस्यचित् । नाऽत्यकामत् प्रभोराज्ञामिव लोकः सुशिक्षितः॥९८०॥ कालेऽवर्षजलधरः, सस्यनिष्पत्तिहेतवे । न्यायधर्म जगद्भर्तुर्गर्जाव्याजात् स्तुवन्निव ॥९८१॥ सस्यक्षेत्ररिक्षुवाटैर्गोकुलैश्चाऽऽकुलास्तदा । रेजुर्जनपदाः स्वा, स्वाम्यगाभिधायिनः ॥ ९८२॥ हेयादेयविवेकज्ञीकृतैर्लोकैर्व्यधाद् विभुः । प्रायेण भरतक्षेत्रं, विदेहक्षेत्रसन्निभम् ॥ ९८३॥ राज्याभिषेकात् प्रभृति, पृथिवीं परिपालयन् । त्रिषष्टिं पूर्वलक्षाणि, नाभिभूरत्यवाहयत् ॥ ९८४ ॥ प्रभुः स्मरकृतावासे, मधुमासे समेयुषि । अगादन्येधुरुद्याने, परिवारानुरोधतः॥९८५ ॥ पुष्पवासगृहे तत्र, पुष्पाभरणभूषितः । आसाञ्चके जगत्स्वामी, पुष्पमास इवाऽङ्गवान् ॥९८६ ॥ १ पशुवदाचरन्ति । २ सर्पोचाटनी मन्त्रविद्या । For Private & Personal use only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभप्रभुणा वसन्तोत्सवनिरीक्षणम्। गुञ्जद्भिः फुल्लमाकन्दमकरन्दोन्मदालिभिः । मधुलक्ष्मीर्बभूवेव, स्वागतिकी जगत्प्रभोः ॥९८७ ॥ पूर्वरङ्ग इवाऽऽरब्धे, पञ्चमोच्चारिभिः पिकैः । अदर्शयल्लतालास्यं, मलयानिललासकः ॥९८८॥ कामुकेभ्य इवाऽऽश्लेषपादघातमुखासवान् । ददुः कुरबकाऽशोकबकुलेभ्यो मृगेक्षणाः ॥९८९॥ तिलकः प्रबलामोदप्रमोदितमधुव्रतः । अशोभयद् युवभालस्थलीमिव बनस्थलीम् ॥ ९९० ॥ पुष्पस्तवकभारेण ननाम लवलीलता । पीनोरसिजभारेण, भूयसेव कृशोदरी ॥ ९९१ ॥ सहकारलतां मन्दमन्दं मुग्धां वधूमिव । विदग्धः कामुक इव, सखजे मलयानिलः ॥९९२ ॥ जम्बूकदम्बमाकन्दचम्पकाशोकयष्टिभिः । प्रवासिनो हन्तुमलं, याष्टीक इव मन्मथः ॥ ९९३ ॥ प्रत्यग्रपाटलापुष्पसम्पर्कसुरभीकृतः । वारिवत् कस्य न ददौ, मुदं मलयमारुतः ॥ ९९४ ॥ अन्तःसारो मधुरसैर्मधूको मधुभाण्डवत् । मधुपैरुपसर्पद्भिश्चक्रे कलकलाकुलः ॥ ९९५ ॥ गोलिकाधनुरभ्यासं, कर्तुं कुसुमधन्वना । गोलिकाः सन्जिता मन्ये, कदम्बकुसुमच्छलात् ॥ ९९६ ॥ इष्टापूर्तप्रियेणेव, वसन्तेन प्रकल्पिता । वासन्ती भृङ्गपान्थानां, मकरन्दरसप्रपा ॥ ९९७ ॥ सिन्दुवारेण दुर्वारकुसुमामोदसम्पदा । चक्रे घ्राणविषेणेव, महामोहः प्रवासिनाम् ॥ ९९८ ॥ वसन्तोद्यानपालेन, चम्पकेषु नियोजिताः । आरक्षा इव निःशङ्क, भ्रमन्ति स मधुव्रताः॥ ९९९ ॥ उत्तमानुत्तमानामप्यवनीरुहवीरुधाम् । श्रियं मधुर्दिदेश स्त्रीपुंसानामिव यौवनम् ॥ १०००॥ तत्राऽवचेतुं कुसुमान्यारभन्त मृगीदृशः । महातिथेर्वसन्तस्य, दातुमर्षमिवोत्सुकाः ॥१००१॥ असाखायुधभृतासु, स्मरस्याऽन्यैः किमायुधैः । इति बुद्ध्येव कामिन्यः, कुसुमान्यवचिच्यिरे ॥१००२॥ ASSACROSAROKAR Jain Education Internat For Private & Personal use only . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ ६६॥ Jain Education Internatio · उच्चितेषु च पुष्पेषु, तद्वियोगरुजार्दिता । अरोदीदिव वासन्ती, मञ्जुगुञ्जन्मधुत्रता ।। १००३ ॥ मल्ली मुच्चित्य गच्छन्ती, काचित् तल्लनवाससा । तस्थौ निषिध्यमानेव, तया माऽन्यत्र गा इति ॥ १००४ ॥ • चम्पकं चिन्वती काचिदलियूनोत्पतिष्णुना । दश्यते स्माऽधरदले, क्रुधेवाऽऽश्रयभङ्गतः ।। १००५ ।। उच्चैरुच्चैः सुमनसः, काचिदुत्क्षिप्तदोर्लता । जहार मनसा सार्द्धं, यूनां दोर्मूलदर्शिनाम् ॥ १००६ ।। प्रत्यग्रपुष्पस्तवकसनाथीकृतपाणयः । रेजुः पुष्पावचायिन्यो, जङ्गमा इव वलयः ॥ १००७ ॥ प्रतिशाखं विलग्नाभिः, पुष्पोच्चयकुतूहलात् । रेजिरे शाखिनः स्त्रीभिः सञ्जातस्त्रीफला इव ॥ १००८ ॥ मल्लिकाकोरकैः कोऽपि, कामिन्याः स्वयमुच्चितैः । सर्वाङ्गाभरणं चक्रे, मुक्तादामविडम्बकम् ।। १००९ ।। प्रियायाः कोऽपि धम्मिल्लं, विकचैर्निजपाणिना । कुसुमैः पूरयामास, कुसुमेपोरिवेषुधिम् ॥ १०१० ॥ पञ्चवर्णैः स्रजं कश्चिद्, ग्रथित्वा कुसुमैः स्वयम् । विडम्बितेन्द्रधनुषं दत्त्वा कान्तामतोषयत् ॥ १०११ ॥ सलीलं प्रियया कोsपि, प्रक्षिप्तं पुष्पकन्दुकम् । प्रतीच्छति स्म पाणिभ्यां प्रसादमिव किङ्करः ||१०१२ | दोलान्दोलनसञ्जातयातायाता मृगीदृशः । जघ्नुः पादैः पादपाग्रान्, सापराधान् पतीनिव ॥ १०१३ ॥ दोलारूढा नवोढा, पृच्छन्तीनां धवाभिधाम् । काऽप्यालीनां लताघातान्, सेहे हीमुद्रितानना ॥ १०१४ ॥ · कातराक्ष्या समं कश्चिदारूढः सम्मुखीनया । गाढमन्दोलयद् दोलां, तद्गाढालिङ्गनेच्छया ।। १०९५ ॥ प्रतिशाखं लम्बमानदोलान्दोलनलीलया । रेजुरुद्यानवृक्षेषु, युवानः प्लवगा इव ॥ १०१६ ॥ एवं खेलायमानेषु तत्र पौरजनेष्वथ । दध्यौ स्वामी किमीदृक्षा, क्रीडाऽन्यत्राऽपि कुत्रचित् १ ॥ १०१७ | जज्ञेऽथाऽवधिना स्वामी, स्वःसुखं चोत्तरोत्तरम् । अनुत्तरस्वर्गसुखं, भुक्तपूर्वं स्वयं च यत् ॥ १०९८ ॥ प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । ऋषभप्रभुणा वसन्तोत्सवनिरीक्षणम् । ॥ ६६ ॥ . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभप्रभोवैराग्यम् । भयोऽप्यचिन्तयदिदं, विगलन्मोहबन्धनः । धिगेष विषयाक्रान्तो, वेत्ति नाऽऽत्महितं जनः ॥१०१९॥ अहो! संसारकूपेऽस्मिन् , जीवाः कुर्वन्ति कर्मभिः । अरघट्टघटीन्यायेनैहिरेयाहिराक्रियाम् ॥ १०२० ॥ धिग धिग् मोहान्धमनसां, जन्मिनां जन्म गच्छति । सर्वथापि मुधैवेदं, सुप्तानामिव शर्वरी ॥१०२१॥ एते रागद्वेषमोहा, उद्यन्तमपि देहिनाम् । मूलाद् धर्म निकृन्तन्ति, मूषिका इव पादपम् ॥ १०२२ ॥ अहो ! विवर्ध्यते मुग्धैः, क्रोधो न्यग्रोधवृक्षवत् । अपि वर्द्धयितारं खं, यो भक्षयति मूलतः ॥ १०२३ ॥ न किञ्चिन्मानवा मानाधिरूढा गणयन्त्यमी । मर्यादालचिनो हस्त्यारूढा हस्तिपका इव ॥ १०२४ ॥ कपिकच्छवीजकोशीमिव मायां दुराशयाः । उपतापकरी नित्यं, न त्यजन्ति शरीरिणः ॥ १०२५॥ दुग्धं तुषोदकेनेवाऽञ्जनेनेव सितांशुकम् । निर्मलोऽपि गुणग्रामो, लोभेनैकेन दृष्यते ॥ १०२६॥ कषाया भवकारायां, चत्वारो यामिका इव । यावजाग्रति पार्श्वस्थास्तावन्मोक्षः कुतो नृणाम् ? ॥१०२७॥ अङ्गनालिङ्गनव्यग्रा, भूतात्ता इव देहिनः । समन्ततः क्षीयमाणमप्यात्मानं न जानते ॥ १०२८ ॥ तत्तत्प्रकारैराहारैरात्मनोन्माद आत्मनः । उत्पाद्यतेऽनर्थकृते, सिंहारोग्यमिवौषधैः ॥ १०२९ ॥ सुगन्धीदं सुगन्धीदं, किं श्रयामीति लम्पटः ? । मूढो भ्रमरवद् भ्राम्यन्न जातु लभते रतिम् ॥१०३०॥ आपातरमणीयेधिग, रमणीप्रायवस्तुभिः । प्रतारयति लोकः स्वं, बालं क्रीडनकैरिव ॥ १०३१ ॥ वेणुवीणादिनादेषु, दत्तकर्णो निरन्तरम् । स्वार्थाद् भ्रश्यति निद्रालुरिव शास्त्रानुचिन्तनात् ॥१०३२ ॥ युगपद् विषयैरेभिर्वातपित्तकफैरिव । लुप्यते प्रबलीभृतेश्चैतन्यं धिक शरीरिणाम् ॥ १०३३॥ एवं संसारवैराग्यचिन्तासन्ततितन्तुभिः । निःस्यूतमानसो यावद् , बभूव परमेश्वरः ॥१०३४ ॥ त्रिषष्टि, १२ For Private & Personal use only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाका प्रथम पर्व द्वितीयः पुरुषचरिते सर्गः ॥६७॥ तावत् सारखतादित्यवहयो वरुणा अपि । गर्दतोयास्तुषिताश्चाऽव्याबाधा मरुतस्तथा ॥ पाषा मरुतस्तथा ॥ रिष्टाश्चेति नवभेदा, ब्रह्मलोकान्तवासिनः । देवा लोकान्तिकाः पादान्तिकमेत्य जगत्प्रभोः ॥१०३६॥ मूर्ध्नि न्यस्तैरालिभिः, पद्मकोशसहोदरैः । आसूत्रितापरोत्तंसा, इवैवं ते व्यजिज्ञपन् ॥ १०३७ ॥ [चतुर्मिः कलापकम् ] शकचूडामणिविभाम्भोमग्नचरणाम्बुज! । भरतक्षेत्रनिर्नष्टमोक्षमार्गप्रदीपक ! ॥ १०३८ ।। लोकव्यवस्था प्रथमा, यथा नाथ ! प्रवर्तिता । प्रवर्त्तय तथा धर्मतीर्थ कृत्यं निजं सर ॥ १०३९ ॥ एवं देवास्ते प्रभुं विज्ञपय्य, खं खं स्थानं ब्रह्मलोके दिवीयुः । प्रव्रज्येच्छुः स्वाम्यपि खं निशान्तं, सद्योऽयासीन्नन्दनोद्यानमध्यात् ।। १०४० ॥ ऋषभचरितम् । SEISUSESSUAARISTUS | लोकान्तिक| देवैर्धर्मप्रवतनाय विज्ञपनम् । इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि भगवजन्म-व्यवहार-राज्यस्थितिप्रकाशनो नाम द्वितीयः सर्गः ॥२॥ For Private & Personal use only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभप्रभुणा भरतस्य राज्यदानम्। तृतीयः सर्गः। आजूहवदथ स्वामी, सामन्तादीन् समन्ततः । भरतं बाहुबल्यादींस्तनयानितरानपि ॥१॥ प्रभुर्वभाषे भरतं, राज्यमादत्स्व वत्स ! नः । वयं संयमसाम्राज्यमुपादास्यामहेऽधुना ॥२॥ खामिनो वचसा तेन, स्थित्वा क्षणमधोमुखः। प्राञ्जलिर्भरतो नत्वा, जगादेवं सगद्गदम् ॥३॥ त्वत्पादपद्मपीठाग्रे, लुठतो मे यथा सुखम् । रत्नसिंहासने स्वामिन्नासीनस्य तथा नहि ॥४॥ त्वदने धावतः पयां, यथा मम सुखं विभो ! । सलीलसिन्धुरस्कन्धाधिरूढस्य तथा नहि ॥५॥ त्वत्पादपङ्कजच्छायानिलीनस्य यथा सुखम् । जायते मे सितच्छत्रच्छायाच्छन्नस्य नो तथा ॥६॥ त्वया विरहितः स्यां चेत् , तत् किं साम्राज्यसम्पदा । त्वत्सेवासुखदुग्धाब्धे, राज्यसौख्यं हि विन्दुवत् ॥७॥ खाम्यपीत्यवदद् राज्यममाभिस्तावदुज्झितम् । पृथ्व्यां च पार्थिवाभावे, मात्स्यो न्यायः प्रवर्तते ॥८॥॥ पृथिवीं तदिमां वत्स!, यथावत् परिपालय । आदेशकारकोऽसि त्वमादेशोऽप्ययमेव नः ॥९॥ सिद्धादेशं प्रभोरेवं, स लचितुमनीश्वरः । आमेत्यभाषत गुरुष्वेषैव विनयस्थितिः ॥१०॥ प्रणम्य स्वामिनं मूर्धा, विनीतो भरतस्ततः । सिंहासनमलञ्चक्रे, पित्र्यं वंशमिवोन्नतम् ॥११॥ खाम्यादेशादथाऽऽमात्यसामन्तानीकपादिभिः । प्रभोरिव सुरैश्चक्रेऽभिषेको भैरतस्य तु ॥१२॥ तदा च शुशुभे छत्रं, पार्वणेन्दुसहोदरम् । स्वामिनः शासनमिवाऽखण्डं भरतमूर्द्धनि ॥ १३ ॥ १ यथा गुरुल घुमत्स्यान् मत्स्याः भक्षयन्ति तद्वद् राजानं विना लोका अपि एवं कुर्वन्ति । * भरतेशितुः सं १, २ खं ॥ Jain Education Interati For Private & Personal use only . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥६८॥ प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभचरितम्। तत्पार्श्वयोश्चकाशाते, आपतन्तौ च चामरौ । भरतार्द्धद्वयादेष्यच्छ्यिोर्दूताविवाऽऽगतौ ॥ १४ ॥ चकासामास वासोभिर्मुक्तालङ्करणैरपि । गुणैरिव खेरत्यन्तविशदैर्वृषभात्मजः॥१५॥ शशीव स नवो राजा, महामहिमभाजनम् । नमश्चक्रे राजचक्रेणाऽऽत्मकल्याणकाम्यया ॥१६॥ अथो ददौ बाहबलिप्रभृतिभ्यो यथोचितम् । अन्येभ्योऽपि च पुत्रेभ्यो, विभज्य विषयान् विभुः॥१७॥1 __ततश्च सांवत्सरिकं, दानमारभत प्रभुः । कल्पद्रुम इव खेच्छाप्रार्थनानुगुणं नृणाम् ॥ १८ ॥ यो येनार्थी स तद् गृहात्वेवमाधोषणां विभुः । चतुष्पथप्रतोल्यादिस्थानेषूच्चैरकारयत् ॥ १९ ॥ चिरभ्रष्टानि नष्टानि, प्रक्षीणखामिकानि च । अतिप्रनष्टसेतूनि, गिरिकुञ्जगतानि च ॥२०॥ श्मशानस्थानगूढानि, गुप्तानि च गृहान्तरे । रजतस्वर्णरत्नादिधनान्याहृत्य सर्वतः ॥ २१॥ वासवादिष्टधनदप्रेरिता जृम्भका सुराः । ददतोऽपूरयन् भर्तुः, पयांसीव पयोमुचः ॥२२॥ [त्रिभिर्विशेषकम् एक कोटी हिरण्यस्य, लक्षाण्यष्टौ च नाभिभूः। दिने दिने ददौ सूरोदयादाभोजनक्षणम् ॥ २३ ॥ वत्सरेण हिरण्यस्य, ददौ कोटीशतत्रयम् । अष्टाशीतिं च कोटीना, लक्षाशीतिं च नाभिभूः॥२४॥ जातसंसारवैराग्या, दीक्षया स्वामिनो जनाः । शेषामात्रमदोऽगृह्णनिच्छादानेऽपि नाधिकम् ॥ २५॥ ___ अथ वार्षिकदानान्ते, वासवश्चलितासनः । भक्त्याऽन्य इव भरतो, भगवन्तमुपास्थित ॥ २६ ॥ समं सुरखरैरम्भस्कुम्भहस्तैर्जगत्पतेः । दीक्षोत्सवाभिषेकं स, चक्रे राज्याभिषेकवत् ॥ २७॥ . मड-पनीतं तदधिकारिणेव बलारिणा | दिव्यालङ्कारवस्त्रादि, पर्यधत्त जगद्विभुः ॥२८॥ ऋषभप्रभोवार्षिक दानम्। G ॥६८॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only . Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभप्रभोर्दीक्षामहोत्सवः। अनुत्तरविमानानां, विमानमिव किञ्चन । सुदर्शनाख्यां शिविकां, पत्ये हरिरसूत्रयत् ॥ २९ ॥ दत्तहस्तो महेन्द्रेण, शिविकामारुरोह ताम् । प्रभुः प्रथमसोपानमिव लोकाग्रवेश्मनः॥३०॥ आदौ रोमाश्चितैर्मत्यैरमत्यैस्तदनन्तरम् । उद्दधे शिविका मूर्तपुण्यभार इवाऽऽत्मनः ॥३१॥ वर्यमङ्गलतूर्याणि, ताडितानि सुरासुरैः । अपूरयन् दिशो नादैः, पुष्करावर्त्तका इव ॥ ३२ ॥ चकाशे चामरद्वन्द्वं, पार्श्वतस्त्रिजगत्पतेः । नैर्मल्यमिव मूर्तिस्थं, परलोकेहलोकयोः ॥३३॥ प्रीणितश्रवणो नृणामुच्चैर्जयजयारवः । चक्रे पत्युर्वन्दिवृन्दैवि वृन्दारकवजैः ॥ ३४ ॥ नाथोऽपि शिविकारूढः, पथि गच्छन्नराजत । सुरोत्तमविमानस्थशाश्वतप्रतिमोपमः ॥ ३५॥ भगवन्तं तथाऽऽयान्तं, दृष्ट्वा सर्वेऽपि नागराः । सम्भ्रमादन्वधावन्त, पितरं बालका इव ॥ ३६ ॥ दूरतः खामिनं द्रष्टुं, जीमूतमिव केकिनः । उच्चपादपशाखासु, केचिदारुरुहुनराः ॥३७॥ केचिच्च स्वामिनं द्रष्टुमारूढा मार्गवेश्मसु । चन्द्रातपमिव प्रौढ़, सूर्यातपमजीगणन् ॥ ३८ ॥ अश्वानारुरुहुः केपि, कालक्षेपासहिष्णवः । त्वरितं स्वयमेवाऽश्वा, इव पुप्तुविरे पथि ॥ ३९ ॥ अन्तः प्रविश्य लोकानां, केपि वारामिवाऽऽतयः। अग्रे प्रादुर्भवन्ति स्म, स्वामिनो दर्शनेच्छया ॥४०॥ अभि त्रिभुवनाधीशं, धावन्त्यः काश्चिदङ्गनाः । वेगात् त्रुटितहारेण, लाजाञ्जलिमिवाऽमुचन् ॥ ४१॥ । आगच्छतो जगदत्तुरग्रे तस्थुर्दिदृक्षया । कटिस्थवाला आरूढवानरा इव वीरुधः ॥ ४२ ॥ भुजावुभयतः सख्योः , काश्चिदालम्ब्य सत्वरम् । कृत्वा पक्षानिवाऽऽगच्छन्, कुचकुम्भमरालसाः ॥४३॥ गतिभङ्गकरान् भारान्, स्वान् नितम्बान् मृगीदृशः । निनिन्दुः काश्चन स्वामिप्रेक्षणक्षणकामया ॥४४॥ १ आतिः जल निवासी पक्षी । For Private & Personal use only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिपष्टिशलाका द्वितीयः पुरुषचरिते सर्गः ऋषभचरितम् । ऋषभप्रभो शुभकौसुम्भवसना, वर्क्सवेश्मकुलाङ्गनाः । पूर्णपात्रान् दधुः काश्चित्, सेन्दुसन्ध्यासहोदराः ॥ ४५ ॥ काश्चिदप्यश्चलान् पाणिपझैश्चपललोचनाः । चामराणीव चलयामासुरालोकने प्रभोः॥४६॥ काश्चिदप्यभि नामेयं, नार्यो लाजान् निचिक्षिपुः । आत्मनः पुण्यबीजानि, वपन्त्य इव निर्भरम् ॥४७॥ चिरं जीव चिरं नन्देत्याद्याशीर्वचनानि च । काश्चिजगुर्निजकुलसुवासिन्य इवोच्चकैः ॥४८॥ निश्चलाक्ष्यश्चलाक्ष्योऽपि, मडगा मन्दगा अपि । प्रभुं पश्यन्त्योऽनुयान्त्यश्चाऽभूवन पुरयोषितः॥४९॥ नभस्यथ समापेतुरपि देवाश्चतुर्विधाः । महाविमानैः कुर्वाणा, एकच्छायं महीतलम् ॥५०॥ मदाम्भोवर्षिभिः केचित्, कुञ्जरैर्निजरोत्तमाः । आपतन्तो विदधिरे, दिवं मेघमयीमिव ॥५१॥ अपारगगनाम्भोधेस्तरण्डैस्तुरगोत्तमैः । कशानौदण्डसहिता, आपतन् पतिमीक्षितुम् ॥ ५२ ॥ मूर्तिमद्भिः पवमानैरिवाऽतिशयिरंहसा । स्पन्दनैर्युसदः केचिदासदन्नाभिनन्दनम् ॥ ५३॥ अन्योऽन्यं वाहनक्रीडाप्रतिज्ञातपणा इव । प्रतीक्षाञ्चक्रिरे मित्रमपि न त्रिदिवौकसः ॥ ५४॥ खाम्यसौ स्वाम्यसावेवं, कथयन्तो मिथः सुराः । वाहनानि स्थिरीचक्रुः, प्राप्तग्रामा इवाऽध्वगाः ॥ ५५॥ विमानहम्यः करिभिस्तुरगैः स्पन्दनैरपि । नभस्यभूद् द्वितीयेव, विनीता नगरी तदा ॥५६॥ परिवत्रे जगन्नाथः, प्रकृष्टसुरमानुषैः । मानुषोत्तरशिखरीवाऽहस्करनिशाकरैः ॥ ५७ ॥ पार्श्वयोर्भरतबाहुबलिभ्यामुपसेवितः । रोधोभ्यामिव पाथोधिबभासे वृषभध्वजः॥ ५८॥ अष्टानवत्या तनयैर्विनीतैरितरैरपि । अन्वगामि जगत्स्वामी, यथनाथ इव द्विपैः ॥ ५९॥ , माता पत्न्यौ च पुन्यौ च, स्त्रियोऽन्या अपि साश्रवः। सावश्यायकणाः पअिन्य इव प्रभुमन्वगुः ॥६॥ दीक्षामहोरसवः। ॥६९॥ For Private & Personal use only al . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANCTUALLOCALENDAROGRECRUS विमानमिव सर्वार्थसिद्धं प्राक्तनजन्मनि । नाम्ना सिद्धार्थमुद्यानमाससाद जगत्पतिः॥६१॥ तसाच्च शिविकारत्नात्, संसारादिव निर्ममः । समुत्ततार नाभेयस्तत्राऽशोकतरोस्तले ॥ ६२॥ तानि वस्त्राणि माल्यानि, भूषणानि च नाभिभूः । उज्झाञ्चकार सपदि, कपायानिव सर्वतः ॥ ६३ ॥ कोमलं धवलं सूक्ष्म, व्युतं चन्द्रकरैरिव । देवदूष्यं देवराजः, स्कन्धदेशे न्यधाद् विभोः ॥ ६४ ॥ तदा च चैत्रबहुलाष्टम्यां चन्द्रमसि श्रिते । नक्षत्रमुत्तराषाढामहो भागेऽथ पश्चिमे ॥६५॥ भवजयजयारावकोलाहलमिषाद् भृशम् । उद्गिरद्भिर्मुदमिव, वीक्ष्यमाणो नरामरैः ॥६६॥ उच्चखान चतसृभिर्मुष्टिभिः शिरसः कचान् । चतसृभ्यो दिग्भ्यः शेषामिव दातुमनाः प्रभुः ॥ ६७॥ 1 [विभिर्विशेषकम् ] प्रतीच्छति स सौधर्माधिपतिः कुन्तलान् प्रभोः। वस्त्राञ्चले वर्णान्तरतन्तुमण्डनकारिणः ॥ ६८॥ मुष्टिना पञ्चमेनाऽथ, शेषान् केशान् जगत्पतिः । समुच्चिखनिषन्नेवं, ययाचे नमुँचिद्विषा ॥ ६९॥ नाथ ! त्वदंसयोः स्वर्णरुचोर्मरकतोपमा । वातानीता विभात्येषा, तदास्तां केशवल्लरी ॥ ७० ॥ तथैव धारयामास, तामीशः केशवल्लरीम् । याज्जामेकान्तभक्तानां, स्वामिनः खण्डयन्ति न ॥७१ ॥ सौधर्मेशः क्षीरसिन्धौ, केशान् क्षिप्त्वाऽभ्युपेत्य च । रङ्गाचार्य इवारक्षत्, तुमुलं मुष्टिसंज्ञया ॥७२॥ कृतषष्ठतपःकर्मा, कृतसिद्धनमस्कृतिः । देवासुरमनुष्याणां, समक्षमथ नाभिभूः॥ ७३ ॥ सावद्ययोगं सकलं, प्रत्याख्यामीत्युदीरयन् । मोक्षाध्वनो रथमिव, चारित्रं प्रत्यपद्यत ॥७४॥[युग्मम्] १ चैत्रकृष्णाष्टम्याम् । २ समुत्खनितुमिच्छन् । ३ इन्द्रेण । Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय: सर्ग: ऋषभचरितम् । ॥७०॥ खामिदीक्षोत्सवेनाऽऽसीनारकाणामपि क्षणम् । शरदातपतप्तानामिवाऽभ्रच्छायया सुखम् ॥ ७५ ॥ ज्ञानं प्रभोर्मय॑क्षेत्रमनोद्रव्यप्रकाशकम् । मनःपैर्ययमुत्पेदे, दीक्षासङ्केतभागिव ॥ ७६ ॥ वार्यमाणाः सुहृद्वर्ग, रुध्यमानाश्च बन्धुभिः । निषिध्यमाना भरतेश्वरेणाऽपि मुहुर्मुहुः ॥ ७७ ॥ सरन्तः स्वामिनः पूर्वप्रसादमतिशायिनम् । तत्पादपद्मविरहस्याऽसहाः पट्पदा इव ॥ ७८ ॥ हित्वा पुत्रकलत्रादि, राज्यं च तृणलीलया । या गतिः स्वामिनोऽस्माकमपि सैवेति निश्चयात् ॥ ७९ ॥ नृपाः कच्छमहाकच्छादय आददिरे मुदा । दीक्षां सहस्राश्चत्वारो, भृत्यानामेष हि क्रमः॥८॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] आदिनाथं प्रणम्याऽथ, शचीनाथादयः सुराः । एवं विरचयामासू, रचिताञ्जलयः स्तुतिम् ॥ ८१॥ गुणांस्तव यथावस्थान् , वयं वक्तुमनीश्वराः । स्तुमस्तथाऽपि प्रज्ञा हि, त्वत्प्रभावाद् भृशायते ॥ ८२॥ बसस्थावरजन्तूनां, हिंसायाः परिहारतः । स्वामिन्नभयदानैकसत्रिणे भवते नमः ॥ ८३ ॥ नमस्तुभ्यं मृषावादपरित्यागेन सर्वथा । पथ्यतथ्यप्रियवचःसुधारसपयोधये ॥ ८४ ॥ भगवन्नदत्तादानप्रत्याख्यानखिलाध्वनि । प्रथमायाऽध्वनीनाय, नमस्तुभ्यं जगत्पते ! ॥८५॥ अखण्डितब्रह्मचर्यमहातेजोविवस्वते । भगवन् ! मन्मथध्वान्तमथनाय नमोस्तु ते ॥ ८६ ॥ सर्वमेकपदे नाथ!, पृथिव्यादिपरिग्रहम् । पलालवत् त्यक्तवते, तुभ्यं मुक्त्यात्मने नमः ॥ ८७॥ : तुभ्यं नमः पञ्चमहाव्रतभारककुद्मते । संसारसिन्धुतरणकर्मठाय महात्मने । ८८॥ *"पर्याय खं आ, ॥ ३ भ्रमराः । २ भृशं भवतीति भृशायते। खिलेऽध्व खंता ॥ ३ पथिकाय । कच्छ-महाकच्छादी दीक्षा। ॥७ ॥ Jain Education Inte l For Private & Personal use only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभप्रभोरन्यमुनीनां चाहाराप्राप्ति। महावतानां पञ्चानामिव पञ्चाऽपि सोदराः । विभ्रते समितीस्तुभ्यमादिनाथ ! नमो नमः ॥ ८९ ॥ आत्मारामैकमनसे, वचःसंवृतिशालिने । सर्वचेष्टानिवृत्ताय, नमस्तुभ्यं त्रिगुप्तये ॥९॥ इति नाथमभिष्टुत्य, यथास्थानं ययुस्तदा । जन्माभिषेकवन्नन्दीश्वरमध्येन नाकिनः ॥ ९१॥ प्रणम्य नाथं भरतबाहुबल्यादयोऽपि ते । जग्मुनिजनिजस्थानं, कथञ्चिदमरा इव ॥ ९२॥ अनुप्रबजितैः कच्छमहाकच्छादिभिर्नूपैः । अनुयातः प्रभुौनी, मां विहाँ प्रचक्रमे ॥९३॥ भगवान् पारणाहेजपि, भिक्षां न प्राप कुत्रचित् । भिक्षादानानभिज्ञो हि, तदैकान्तऋजुर्जनः ॥९४॥ केऽपि वेगपराभूतोचैःश्रवस्कांस्तुरङ्गमान् । शौर्यनिर्जितदिनागानपरे नागकुञ्जरान् ॥ ९५॥ रूपलावण्यविजिताप्सरसः केपि कन्यकाः । विद्युद्विभ्रमधारीणि, केचिदाभरणानि तु ॥ ९६॥ नानावर्णानि सन्ध्याभ्राणीव वासांसि केचन । माल्यदामानि मन्दारदामस्पर्धीनि केऽपि च ॥९७ ॥ केचित् काश्चनराशिं च, मेरुशृङ्गसहोदरम् । रोहणाचलचूलाभ, रत्नकूटमथाऽपरे ॥ ९८॥ खामिने ढोकयामासुलॊका भिक्षार्थमीयुपे । राजानमेव नाथं स, जानते ते हि पूर्ववत् ॥ ९९ ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] भिक्षामलभमानोऽपि, खाम्यदीनमनाः सदा । विहरन् जङ्गमं तीर्थमिव पृथ्वीमपावयत् ॥ १०॥ सप्तधातुविनाभूतशरीर इव सुस्थितः । भगवान् क्षुत्पिपासादीनधिसेहे परीपहान् ॥ १०१॥ अनुयान्तः खामिनं ते, पोता इव समीरणम् । तथैव विहरन्ति स्म, राजानो दीक्षिताः स्वयम् ॥१०२॥ ___ अथ क्षुदादिभिः क्लान्तास्तत्त्वज्ञानविवर्जिताः । स्वबुद्ध्यनुगुणं दध्युस्ते राजन्यास्तपस्विनः॥१०३ ॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥ ७१ ॥ किम्पाकानीव नाऽत्येष, फलानि मधुराण्यपि । न खादून्यपि पिवति, क्षाराणीव पयांसि च ॥ १०४ ॥ परिकर्मानपेक्षश्च, न स्नाति न विलिम्पति । वस्त्रालङ्कारमाल्यानि, नोपादत्ते च भारवत् ।। १०५ ॥ आलिङ्ग्यते शैल इव, वातोद्धृताध्वधूलिभिः । नितान्तं सहते मूर्ध्नि, ललाटंतपमातपम् ॥ १०६ ॥ शयनादिविहीनोऽपि नाऽऽयासमनुगच्छति । न परिक्लिश्यते शीतोष्णाभ्यां गिरिवरेभवत् ॥ १०७ ॥ न हि क्षुधां गणयति, न जानाति तृषामपि । सवैरः क्षत्रिय इव, निद्रामपि न सेवते ॥ १०८ ॥ अस्माननुचरीभूतान्, कृतागस इवाऽधुना । न प्रीणयति दृष्ट्वाऽपि सङ्कथायास्तु का कथा ? ॥ १०९ ॥ अपि पुत्रकलत्रादिपरिग्रहपराङ्मुखः । न जानीमः किमपि यच्चित्ते चिन्तयति प्रभुः ॥ ११० ॥ ? 'अथ कच्छमहाकच्छी, भर्त्तुरभ्यर्णसेवकौ । आत्मवृन्दपुरोभूतावित्यूचाते तपस्विभिः ।। १११ ॥ कैप स्वामी क्षुद्विजयी ?, व वयं चान्नकीटकाः १ । क्व वा जितपिपासोऽयं ?, क्व वयं वारिदर्दुराः १ ॥ ११२ ॥ . क्व चाऽयमातपजयी ?, क्व च्छायामत्कुणा वयम् ? । क्व शीतापरिभूतोऽयं ?, क शीतकपयो वयम् ॥११३॥ कच निद्रादरिद्रोऽयं ?, क्व निद्राजगरा वयम् ? । क्वाऽयं नित्यमनासीनो ?, वयं क्वाssसनपङ्गवः १ ॥ व्रतेऽनुगमनं भर्त्तुस्तदस्माभिः प्रचक्रमे । उदन्वलङ्घनविधौ, काकैरिव गरुत्मतः ॥ ११५ ॥ किं निजान्येव राज्यानि, गृह्णीमो जीविकाकृते ? । किन्तु तानि गृहीतानि, भरतेन क्व गम्यताम् ॥ किं वा व्रजामो भरतमेव जीवनहेतवे ? । अस्माकं स्वामिनं हित्वा गतानां तत एव भीः ॥ ११७ ॥ तदाय ! कार्यमूढानां किं कार्यं ? ब्रूतमद्य नः । अग्रेऽपि नित्यमासन्नौ, भावाभिज्ञौ युवां विभोः ॥ ११८ ॥ तावप्येवं बभाषाते, स्वयम्भूरमणाम्बुधेः । आसाद्यते यदि स्ताघो, भावोऽपि स्वामिनस्तदा ॥ ११९ ॥ ? प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । कच्छमहाकच्छादिमु नीनां चिन्ता । ॥ ७१ ॥ . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-विनम्योरागमनम् । अग्रेऽपि स्वामिनाऽऽदिष्टमेव नित्यमकृष्वहि । अधुना कृतमौनस्तु, नाऽऽदिशत्येप किञ्चन ॥ १२०॥ वित्थ यूयं यथा नैव, विद्वो नाऽऽवां तथैव हि । गतिः समाना सर्वेषां, ब्रूताऽऽवां किमु कुर्वहे ? ॥१२१॥ सम्भूयाऽऽलोच्य सर्वेऽपि, गङ्गातीरवनानि ते । भेजुर्बुभुजिरे खैरं, कन्दमूलफलाद्यथ ॥ १२२ ॥ प्रावर्तन्त ततः कालात् , तापसा वनवासिनः । जटाधराः कन्दफलाद्याहारा इह भूतले ॥१२३ ॥ अथ कच्छमहाकच्छतनयौ विनयान्वितौ । स्वाम्यादेशाद् दूरदेशान्तराणि गतपूर्विणौ ॥ १२४ ॥ आयान्तौ नमि-विनमिनामानौ तद्वनाध्वना । अपश्यतां स्वपितरावित्यचिन्तयतां च तौ ॥ १२५॥ नाथे वृषभनाथेऽपि, किमनाथाविवेशीम् । अवस्थां प्रतिपेदाते, पितरावावयोरिमौ ? ॥ १२६ ॥ क्क तच्चीनांशुकमिदं, किरातार्ह व वल्कलम् ? । व सोऽङ्गरागो वपुषि, भूरजः क्व पशूचितम् ? ॥१२७॥ क्क माल्यगर्भो धम्मिल्लः?, व जटा वटवृक्षवत् । क्व गजारोहणं? क्वैष, पादचारः पदातिवत् ? ॥१२८॥ एवं विचिन्तयन्तौ तौ, प्रणम्य पितरौ तदा । पप्रच्छतुः कच्छमहाकच्छावप्येवमृचतुः॥१२९॥ त्यक्त्वा राज्यं जगन्नाथो, भगवानृषभध्वजः । भुवं विभज्य भरतादिभ्यो दत्त्वाऽग्रहीद् व्रतम् ॥१३०॥ खामिना सममसाभिरशेष रभसावशात् । तदा तद् व्रतमारेभे, हस्तिनेवेक्षुभक्षणम् ॥ १३१ ॥ क्षुधापिपासाशीतोष्णप्रभृतिक्लेशपीडितैः । तद् व्रतं मुमुचेऽस्माभिय॑स्ता धूः कसरिख ॥ १३२॥ यद्यपि स्वामिनो गत्या, वयं गन्तुं न शक्नुमः । तथापि मुक्त्वा गार्हस्थ्य, वसामोऽत्र तपोवने ॥१३३॥ स्वामिनो भूसंविभागमावामप्यर्थयावहे । इत्युक्त्वा नमि-विनमी, स्वामिपादावुपेयतुः॥ १३४ ॥ निःसङ्ग इत्यजानन्ती, प्रभुं प्रतिमया स्थितम् । प्रणम्यैवं विज्ञपयाम्बभूवतुरुभावपि ॥ १३५॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व द्वितीयः सर्गः ॥ ७२॥ ऋषभचरितम् । ॐॐॐॐॐॐ14-15सकर आवां प्रेप्य प्रेषणेन, दूरदेशान्तरं विभो! । पुत्रेभ्यो भरतादिभ्यस्त्वया दत्ता विभज्य भृः ॥ १३६ ॥ मही गोष्पदमात्रापि, त्वयाऽऽवाभ्यां न किं ददे । इदानीमपि तद्देहि, विश्वनाथ ! प्रसादतः॥१३७॥ दोषः किमावयोः कोऽपि, देवदेवेन वीक्षितः ? । यद् दत्से नोत्तरमपि, दूरेऽन्यद् देयमस्तु तत् ॥१३८॥ प्रभुन किश्चित् प्रत्यूचे, बदन्तावपि तौ तदा । निर्ममा हि न लिप्यन्ते, कस्याऽप्यहिकचिन्तया ॥१३९॥ न ब्रूते यद्यपि स्वामी, तथापि गतिरेष नौ । इति निश्चित्य तौ देवं, प्रवृत्तावुपसेवितुम् ॥ १४ ॥ जलं जलाशयान्नित्यमानीय नलिनीदलैः । ववृषुः स्वामिनोऽभ्यर्णे, रजःप्रशमहेतवे ॥ १४१॥ तावुज्झाञ्चक्रतुर्धर्मचक्रिणः पुरतः प्रगे । पुष्पप्रकरमामोदमाद्यन्मधुकरोत्करम् ॥ १४२॥ कृष्टासी च सिपेवाते, खामिनं पारिपार्श्विको । अहर्निशं मेरुगिरि, सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ १४३॥ त्रिसन्ध्यं च प्रणम्यैवं, ययाचाते कृताञ्जली । आवयोर्नाऽपरः स्वामी, स्वामिन् ! राज्यप्रदो भव ॥१४४॥ ___ अन्येयुर्धरणो नागकुमाराणामधीश्वरः । श्राद्धः समाययौ तत्र, स्वामिपादान् विवन्दिषुः॥१४५॥ खामिनं सेवमानौ तौ, याचमानौ श्रियं ततः । बालाविव ऋजू नागराजः साश्चर्यमैक्षत ॥ १४६ ॥ स तौ जगाद पीयूषस्यन्दसोदरया गिरा । कौ युवां ? किं च याचेथे, दृढं विरचिताग्रहौ ? ॥ १४७ ॥ संवत्सरं जगत्स्वामी, महादानं किमीप्सितम् । प्रददावनवच्छिन्नं, तदानीं क्व गतौ युवाम् ? ॥१४८॥ वर्त्तते सम्प्रति स्वामी, निर्ममो निष्परिग्रहः । रोषतोपविनिर्मुक्तो, निराकासो वपुष्यपि ॥ १४९ ॥ . स्वामिनः सेवकः कश्चिदेपोष्पीति सगौरवम् । धरणं पन्नगाधीशं, प्रत्यूचतुरुभावपि ॥ १५०॥ प्रभुसमीपे नमि-विनम्यो राज्यमार्गणं, धरणेन्द्रागमनं च। ॥७२॥ For Private & Personal use only . Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरत्वम् । K+96 ४ भृत्यावावामसौ भर्ता, क्वचिदंप्यादिशत् स्वयम् । राज्यं विभज्य सर्वेभ्यः, स्वपुत्रेभ्यो ददावथ ॥ १५१॥ नभि-विनअपि प्रदत्तसर्वस्खो, दाताऽसौ राज्यमावयोः । अस्ति नाऽस्तीति का चिन्ता ?, कार्या सेवैव सेवकैः॥१५२॥8| म्योर्विद्यायाचेयां भरतं गत्वा, स्वामिवत् स्वामिभूरपि । इत्युक्तौ धरणेन्द्रेण, पुनस्तावेवमूचतुः ॥ १५३ ॥ विश्वखामिनमाप्याऽमुं, कुर्वः खाम्यन्तरं न हि । कल्पपादपमासाद्य, कः करीरं निषेवते ? ॥ १५४॥ आवां याचावहे नाऽन्यं, विहाय परमेश्वरम् । पयोमुचं विमुच्याऽन्यं, याचते चातकोऽपि किम् ? ॥१५५॥ खस्त्यस्तु भरतादिभ्यस्तव किं चिन्तयाऽऽनया ? । स्वामिनोऽस्माद् यद् भवति, तद् भवत्वपरेण किम् ॥ तदुक्तिमुदितोऽवादीदथेदं पन्नगेश्वरः । पातालपतिरेषोऽस्मि, स्वामिनोऽस्यैव किङ्करः ॥१५७ ॥ महाभागौ महासची, स्वाम्यसावेव नाऽपरः । सेवनीय इति दृढा, प्रतिज्ञा साधु साधु वाम् ।।१५८ ॥ भुवनस्वामिनोऽमुष्य, सेवया राज्यसम्पदः । पुमांसमुपसपेन्ति, पाशाकृष्टा इव द्रुतम् ॥ १५९॥ सेवया चाऽस्य वैतादयगिरौ विद्याधरेन्द्रता । नितान्तसुलभैवेह, पालम्बफलवन्नृणाम् ॥ १६० ॥ सेवामात्रेण चाऽमुष्य, भवनाधिपतिश्रियः । अयत्नप्राप्यतां यान्ति, पादाधःस्थनिधानवत् ॥ १६१॥ अमुं च सेवमानानां, पुंसामुपनमत्यलम् । वशंवदा व्यन्तरेन्द्रश्रीः कार्मणवशादिव ॥ १६२ ॥ अस्यैव सेवकं ज्योतिष्पतिश्रीरपि सत्वरम् । स्वयं वृणीते सुभगं, स्वयंवरवधूरिव ॥ १६३ ॥ भवन्त्यस्यैव सेवातः, पौरन्दर्योऽपि सम्पदः । वसन्तादेव जायन्ते, विचित्राः कुसुमर्द्धयः ॥ १६४॥ अस्यैव सेवनादाशु, लभन्ते दुर्लभामपि । अहमिन्द्रश्रियं मुक्तेरिव यामि कनीयसीम् ॥ १६५॥ * दादिष्टवान् सं ., दप्यादिदेश च खं, आ॥ । भगिनीम् । । त्रिषष्टि. १३ For Private & Personal use only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः ऋषभचरितम् । | वैताब्यगिरिः। अमुमेव जगन्नाथ, सेवमानः शरीरभाक् । प्रामोत्यपुनरावृत्ति, सदानन्दमयं पदम् ॥ १६६॥ इह त्रिभुवनाधीशः, सिद्धरूपः परत्र च । असाविव भवेद् देही, स्वामिनोऽस्यैव सेवया ॥१६७॥ दासोऽहं स्वामिनोऽमुष्य, युवामपि च सेवको । तत्सेवायाः फलं विद्याधरैश्वर्यं ददामि वाम् ॥ १६८॥ स्वामिसेवाप्तमेवैतद्, बुध्येथां हन्त! माऽन्यथा । उयोतोऽरुणजन्माऽपि, सूर्यजन्मैव यद् भुवि ॥१६९॥ सम्बोध्यैवं ददौ गौरीप्रज्ञप्तीप्रमुखां तयोः । अष्टचत्वारिंशद्विद्यासहस्री पाठसिद्धिदाम ॥ १७॥ आदिदेश च वैताट्ये, गत्वा श्रेणिद्वये युवाम् । नगराणि परिष्ठाप्य, कुर्वाथां राज्यमक्षयम् ॥ १७१॥ नत्वाऽर्हन्तं तौ विमानं, पुष्पकाख्यं विकृत्य च । आरुह्य च प्रचलितो, पन्नगस्वामिना समम् ॥१७२॥ स्वामिसेवातरुफलभूतां तां सम्पदं नवाम् । गत्वा पित्रोः कच्छमहाकच्छयोस्तावशंसताम् ॥ १७३ ॥ ज्ञापयामासतुः स्वर्द्वि, गत्वाऽयोध्यापतेश्च तौ । मानिनां मानसिद्धिर्हि, सफला स्थानदर्शिता ॥ १७४ ॥ तत्र खजनमादाय, सर्व परिजनं च तौ । विमानवरमारोह्य, प्रति वैताट्यमीयतुः॥ १७५ ॥ प्रान्तयोलवणाम्भोधिवीचीनिचयचुम्बितम् । पूर्वापरदिशोरन्तर्मानदण्डमिव स्थितम् ॥ १७६ ॥ आघाटभूतं भरतदक्षिणोत्तरभागयोः । पञ्चाशतं योजनानि, दक्षिणोत्तरयोः पृथुम् ॥ १७७॥ षड् योजनानि सक्रोशान्यवगाढं महीतले । उत्सेधं धारयन्तं च, पञ्चविंशतियोजनीम् ॥ १७८ ॥ प्रसारिताभ्यां बाहुभ्यामिव दूराद् हिमाद्रिणा । गङ्गासिन्धुस्रवन्तीभ्यां, समाश्लिष्टं समन्ततः ॥१७९॥ भरतार्धश्रियो लीलाविश्रामसदने इव । खण्डप्रपाता-तमिस्राभिधाने दधतं गुहे ॥ १८० ॥ सिद्धायतनकूटेन, शाश्वतप्रतिमाजुषा । बिभ्राणमद्भुतां शोभां, सुमेरुमिव चूलया ॥ १८१ ॥ ॥७३॥ For Private & Personal use only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानारत्नमयान्युच्चैलीलास्थानानि नाकिनाम् । नवग्रैवेयकाणीव, नवकूटानि बिभ्रतम् ॥ १८२ ॥ वैताये विद्याधराणां ऊवं योजनविंशत्या, दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः । दधानं व्यन्तरावासश्रेण्यौ निवसने इव ॥ १८३॥ नगराणि। आमूलचूलिकं चारुकलधौतशिलामयम् । पृथिव्यां पादकटकमिवैकं विच्युतं दिवः ॥ १८४ ॥ मरुदन्दोलितोद्दामशाखिशाखाभुजैर्मुहुः । आह्वयन्तमिवाऽऽरात तौ, वैतादयगिरिमापतुः ॥ १८५॥ _ [दशभिः कुलकम् ]] क्ष्मातलाद् दशयोजन्या, उपरिष्टान्नमिर्नृपः । तत्राद्रौ दक्षिणश्रेण्यां, चक्रे पञ्चाशतं पुरीः ॥ १८६ ॥ प्राक्किन्नरनरगीतं, बहुकेतुपुरं ततः । पुण्डरीकं हरिकेतु, सेतुकेतुपुरं तथा ॥ १८७ ॥ सारिकेतुनगरं, श्रीबहुश्रीगृहं तथा । लोहार्गला-रिञ्जये च, स्वर्गलीलपुरं तथा ॥ १८८॥ वज्रागलपुरं वज्रविमोकनगरं तथा । तथा महीसार-पुरजये सुकृतमुख्यपि ॥ १८९॥ चतुर्मुखी बहुमुखी, रता च विरताऽपि च । आखण्डलपुरं चापि, विलासयोनिपत्तनम् १९० अपराजितं कांची-दामाख्ये सुविनयं नमः। क्षेमङ्करंसह-चिहपुरं कुसुमपुर्यपि ॥ १९१॥ सञ्जयन्ती शपुरं, जयन्ती वैजयन्त्यपि । विजया क्षेमकरं च, चन्द्रभासपुरं तथा ॥१९२॥8 रविभासपुरं सप्तभूतलावासमेव च । सुविचित्रं महानं च, चित्रकूटं त्रिकूटकम् ॥ १९३ ॥ वैश्रवणकूट-शर्शिपुरे रविपुरं तथा । विमुखी-चाहिन्यौ सुमुखी नित्योयोतिनी तथा ॥१९४॥ श्रीरथनूपुरचक्रवालं तु नगरोत्तमम् । एषां पुराणां मध्यस्थमध्युवास स्वयं नमिः ॥ १९५ ॥ तथैव चोत्तरश्रेण्यां, विनमिः पर्यसूत्रयत् । षष्टिं पुराणि सद्योपि, नागराजस्य शासनात् ॥१९६॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥ ७४ ॥ Jain Education Int पुर्यर्जुनी वारुणीच, वैरिसंहारिणी तथा । कैलासवारुणी विद्युद्दीप्तं किलिंकिलं तथा ॥ १९७॥ चारुचूडामणिचैव चन्द्रभाभूषणं तथा । वंशवत् कुसुमैचूल, हंसगर्भ च मेधकम् ॥ १९८ ॥ शङ्करं लक्ष्मैिहर्म्य च, चामैरं विलं तथा । असुमैत्कृतं च शिवमन्दिरं वसुमत्यपि ॥ १९९॥ सर्वसिद्धेस्तुतं चैव सर्वशत्रुश्रूयं तथा । केतुमालाङ्कनैगरमिन्द्रकान्ताभिधं ततः ॥ २०० ॥ महानन्दनाशोकं च वीतशोकं विशोकैकम् । सुखालोका - ऽलकैतिलक-नभस्तिकान्यपि २०१ मन्दिरं कुमुदकुन्दं, ततो गगनैवल्लभम् । युवतीतिलकसंज्ञमवनीतिलकं ततः ॥ २०२ ॥ सगैन्धर्व मुक्तहारं, ततोऽनिमिषैविष्टपम् । अग्निज्वाला गुरुज्वाला, श्रीनिकेतैपुरं तथा ।। २०३ ॥ ततो जयश्रीनिवास, रत्नकुलिशपत्तनम् । वसिष्ठाश्रयं द्रविणैजयं चाज्य सभट्रैकम् ॥ २०४ ॥ भद्राशयपुरं तस्मात्, फेनशिखरमप्यथ । गोक्षीरवैरशिखराभिधानं तदनन्तरम् ॥ २०५ ॥ वैर्यक्षो भशिखरकं, गिरिशिखरकं ततः । धरणीवारणीसंज्ञ, सुदर्शनपुरं ततः ॥ २०६ ॥ दुर्ग दुर्धर - माहेन्द्रे, विजयं च सुगन्धिनी । सुरतैनागरपुरं, ततो रत्नर्पुराभिधम् ॥ २०७ ॥ एषां प्रधानभूतं तु, पुरं गगनवल्लभम् । विनमिः स्वयमध्यष्ठाद्, धरणेन्द्रमधिष्ठितः ॥ २०८ ॥ तेच विद्याधरश्रेण्यौ, शुशुभाते महर्द्धिके । ऊर्ध्वस्थव्यन्तरश्रेण्याविवाऽधः प्रतिबिम्बिते ॥ २०९ ॥ ग्रामाननेकशः कृत्वा, तौ शाखानगराणि च । स्थापयामासतुः स्थानौचित्याञ्जनपदानपि ।। २१० ।। यस्माद् यस्माजनपदान्नीत्वा तत्राऽऽहिता नराः । तत्संज्ञयैव तत्राऽपि ताभ्यां जनपदाः कृताः ।। २११ ॥ तेष्वथो नम - विनमी, पुरेष्वधिसभं विभुम् । स्थापयामासतुर्नाभिनन्दनं मनसीव तौ ॥ २१२ ॥ प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । वैताये विद्याधराणां नगराणि । ॥ ७४ ॥ . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैताये विद्याधरनिकायाः। torrent _मा विद्यादुर्मदा विद्याधराः कार्पः स दुर्नयम् । धरणेन्द्रस्ततस्तेषां, मर्यादामेवमादिशत् ॥ २१३ ॥ जिनानां जिनचैत्यानां, तथा चरमवर्मणाम् । प्रतिमाप्रतिपन्नानां, सर्वेषां चाऽनगारिणाम् ॥ २१४ ॥ पराभवं लङ्घनं च, ये करिष्यन्ति दुर्मदाः। विद्यास्त्यक्ष्यन्ति तान् सद्यः, कृतालस्यानिव श्रियः२१५॥ [युग्मम्] सात्मस्त्रीकं हनिष्यन्ति, ये नरं येऽपि च स्त्रियम् । रमयिष्यन्त्यनिच्छन्ती, विद्यास्त्यक्ष्यन्ति तान् क्षणात्॥२१६ उच्चैरुदीर्य मर्यादामेवमाचन्द्रकालिकीम् । अलीलिखदहिस्वामी, रत्नभित्तिप्रशस्तिषु ॥ २१७ ॥ विद्याधराधिराजत्वे, सप्रसादं निवेश्य तौ । विरचय्य व्यवस्थां च, धरणेन्द्रस्तिरोदधे ॥ २१८॥ गौरीणां नाम्ना गौरेया, मनूनां मनुपूर्वका गान्धारीणां तु गान्धारा, मानवीनां तु मानवाः२१९ कैशिकीनां तु विद्यानां, कैशिकीपूर्वका मताः। विद्यानां भूमितुण्डानां, कीर्तिता भूमितुण्डकाः २२० विद्यानां मूलवीर्याणां, विश्रुता मूलवीर्यकाः। शङ्ककानां शङ्ककास्तु, पाण्डुकीनां तु पाण्डुकाः२२१ कालीनां कालिकेयास्तु,श्वपाकीनां श्वपाकका मातङ्गीनां तु मातङ्गाः,पार्वतीनां तु पार्वताः२२२ वंशालयानां विद्यानां, ख्याता वंशालया इति । विद्यानां पांसुमूलानां, प्रथिताः पांसुमूलकाः २२३ विद्यानां वृक्षमूलानां,विख्याता वृक्षमूलकाः। स्वस्वविद्याख्ययाख्याता, निकायाः षोडशाऽभवन्॥२२४॥ एवं विद्याधराणां तु, निकाया नमिभूभुजा । आदीयन्त विभज्याऽष्टावष्टौ विनमिना पुनः ॥ २२५॥ खके स्वके निकाये च, खकाय इव भक्तितः । स्थापयाञ्चक्रिरे ताभ्यां विद्याधिपतिदेवताः ॥ २२६ ॥ तो नित्यमृषभखामिमूर्तिपूजाकृतक्षणौ । धर्मानाबाधया भोगान् , बुभुजाते सुराविव ॥ २२७ ॥ दीपान्तजगतीजालकटकेषु कदापि तौ । रेमाते सह कान्ताभिः, शक्रेशानाविवाऽपरौ ॥ २२८ ।। For Private & Personal use only . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका STER प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः पुरुषचरिते ऋषभचरितम् । ॥ ७५॥ सुमेरुशैलोद्यानेषु, कदाचिन्नन्दनादिषु । सदानन्दौ बिजहाते, स्वैरिणौ तौ समीरवत् ॥ २२९ ॥ नन्दीश्वरादितीर्थेषु, जग्मतुस्तौ कदाचन । शाश्वतप्रतिमार्चाय, श्राद्धश्रीणां फलं ह्यदः ॥ २३० ॥ तौ कदाचिद् विदेहादिक्षेत्रेषु श्रीमदर्हताम् । गत्वा समवसरणे, पपतुर्वाक्सुधारसम् ॥ २३१ ॥ चारणश्रमणेभ्यश्च, कदाचिद् धर्मदेशनाम् । तौ शुश्रुवतुरुत्कों , गीतं युवमृगाविव ।। २३२॥ सम्यक्त्ववन्तावक्षीणकोशौ विद्याधरीवृतौ । त्रिवर्गाबाधया राज्यं, यथावत् तौ प्रचक्रतुः॥ २३३ ॥ ते तु कच्छमहाकच्छादयो राजन्यतापसाः । गङ्गाया दक्षिणे कूले, मृगा इव वनेचराः ॥ २३४॥ वल्कलाच्छादनधराः, पादपा इव जङ्गमाः । आहारमुद्वान्तमिवाऽस्पृशन्तो गृहमेधिनाम् ॥ २३५ ॥ चतुर्थषष्ठादितपःपरिशोषितधातुकम् । धारयन्तः कृशतरं, रिक्तभत्रोपमं वपुः ॥ २३६ ॥ भुञ्जानाः पारणाहेपि, शीर्णपर्णफलादिकम् । हृदये भगवत्पादान् , ध्यायन्तोऽस्थुरनन्यगाः ॥ २३७॥ __ आर्यानार्येषु मौनेन, विहरन् भगवानपि । संवत्सरं निराहारश्चिन्तयामासिवानिदम् ॥ २३८ ॥ प्रदीपा इव तेलेन, पादपा इव वारिणा । आहारेणैव वर्तन्ते, शरीराणि शरीरिणाम ॥ २३९॥ द्विचत्वारिंशता भिक्षादोषैर्भृशमदूषितः । स तु वृत्त्या माधुकर्या, काले ग्राह्योऽनगारिणा ॥ २४०॥ अद्यापि यदि वाऽऽहारमतिक्रान्तदिनेष्विव । न गृह्णाम्यभिग्रहाय, किन्तूत्तिष्ठे पुनर्यदि ॥ २४१॥ अमी सहस्राश्चत्वार, इवाऽभोजनपीडिताः । तदा भङ्गं ग्रहीष्यन्ति, भाविनो मुनयोऽपरे ॥ २४२ ॥ खामी मनसिकृत्यैवं, भिक्षार्थं चलितस्ततः । पुरं गजपुरं प्राप, पुरमण्डलमण्डनम् ॥ २४३॥ तस्मिन् पुरे बाहुबलिसूनोः सोमप्रभस्य तु । राज्ञः कुमारेण तदा, खमे श्रेयांसभूभुजा ॥२४४॥ | ऋषभप्रभोः प्रथमा भिक्षा, श्रेयांसस्य लाप्रथमं दानं च। ॥७५॥ . Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte अदृश्यत स्वर्णगिरिः, परितः श्यामलो मया । अभिषिच्य पयस्कुम्भैर्विहितोऽधिकमुज्वलः ॥२४५॥।[युग्मम् ] सुबुद्धिश्रेष्ठिनाऽप्यैक्षि, गोसहस्रं वेश्युतम् । श्रेयांसेनाऽऽहितं तत्र, ततोऽर्कोऽप्यतिभासुरः ॥ २४६ ॥ अदर्शि सोमयशसा, राज्ञैको बहुभिः परैः । रुद्धः समन्ताच्छ्रेयांससाहाय्याजयमीयिवान् ॥ २४७ ॥ त्रयस्ते सदसि स्वप्नानन्योऽन्यस्य न्यवीविदन् । तन्निर्णयमजानन्तः स्वं स्वं स्थानं पुनर्ययुः ॥ २४८ ॥ प्रादुर्भावयितुमिव, तदा तत्स्वप्ननिर्णयम् । भिक्षार्थं प्राविशत् स्वामी, नगरं हस्तिनापुरम् ॥ २४९ ॥ संवत्सरं निराहारोऽप्यायान् वृषभलीलया । ददृशे वृषभस्वामी, नागरैर्जातसम्मदैः ॥ २५० ॥ उत्थायोत्थाय धावित्वा, धावित्वा च ससम्भ्रमम् । पौरैर्देशान्तरायातबन्धुवत् स्वाम्यवेष्ट्यत ।। २५१ ॥ कोsयुवाचैहि भगवन् !, गृहाण्यनुगृहाण नः । वसन्तोत्सववद् देव !, चिरादसि निरीक्षितः ।। २५२ ॥ कोऽप्यवादीदिदंस, स्नानीयं वसनं जलम् । तैलं पिष्टातकचेति, स्त्राहि स्वामिन्! प्रसीद नः ॥ २५३ ॥ कोsप्यूचे खोपयोगेन, स्वामिन् ! मम कृतार्थय । जात्यचन्दनकर्पूरकस्तूरीयक्षकर्दमान् ॥ २५४ ॥ कोऽप्युवाच जगद्रत्न !, रत्नालङ्करणानि नः । स्वाङ्गाधिरोपणात् स्वामिन्नलङ्कुरु दयां कुरु ॥ २५५ ॥ एवं व्यज्ञपयत् कोऽपि गृहे समुपविश्य मे । स्वामिनङ्गानुकूलानि, दुकूलानि पवित्रय ॥ २५६ ॥ कश्चिदप्यब्रवीदेवं, देव ! देवाङ्गनोपमाम् । प्रभो ! गृहाण नः कन्यां धन्याः स्मस्त्वत्समागमात् ॥ २५७ ॥ asure पादचारेण, क्रीडयाऽपि कृतेन किम् ? । इममारोह शैलाभं, कुञ्जरं राजकुञ्जर ! ॥ २५८ ॥ कोऽप्यजल्पन्मम हयान् गृहाणाऽर्कहयोपमान् । किमातिथेयाग्रहणादयोग्यान् विदधासि नः १ ॥ २५९ ॥ * न्यवीवदन् खं, आ ॥ + गृहाणानु सं १, २ ॥ . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥७६॥ कोऽप्युवाचाऽऽदत्व रथान् , सनाथान् जात्यवाजिमिः। किमेभिर्ननु कर्त्तव्यं, पादचारिणि भर्तरि ॥२६॥ प्रथमं पर्व कोऽप्यूचेऽमनि पक्कानि, सहकारफलानि नः । उपादत्स्व प्रभो ! माऽवमंस्थाः प्रणयिनं जनम् ॥ २६१॥ तृतीयः कोऽप्यभाषिष्ट ताम्बूलवल्लीपत्राण्यमूनि मे । क्रमुकाण्यप्युपादत्स्व, प्रसीदैकान्तवत्सल ! ॥२६२ ॥ सगे: बभाषे कश्चिदप्येवमपराद्धं नु किं मया? । यदशृण्वन्निव खामिन्नत्तरं न प्रयच्छसि ॥ २६३ ॥ ऋषभइत्यर्यमानोऽकल्प्यत्वादगृह्णन् किमपि प्रभुः । गेहं गेहमुपेयाय, ऋक्षमृक्षमिवोडुपः ॥ २६४ ॥ चरितम् । ___ प्रातःकाले शकुन्तीनामिव कोलाहलं तदा । पौराणां परिशुश्राव, श्रेयांसः स्वाश्रयस्थितः ॥ २६५॥ किमेतदिति तेनाऽनुयुक्तो वेत्रधराग्रणीः । इति विज्ञपयामास, पुरोभूय कृताञ्जलिः ॥ २६६ ॥ 18ऋषभप्रभोः लुठद्भिः पादपीठाग्रे, किरीटस्पृष्टभूतलम् । इन्दैनरेन्द्रैरिव यः, सेव्यते दृढभक्तिभिः ॥ २६७ ॥ प्रथमा भिक्षा, जीवनोपायकमाणि, लोकेष्वेकानुकम्पया । दर्शयाञ्चक्रिरे येन, पदार्था इव भानुना ॥ २६८ ॥ श्रेयांसस्य विभज्य भरतादीनां, युष्माकं चापि भूरियम् । ददे येन स्वशेषेव, तदा दीक्षां जिघृक्षता ॥ २६९ ॥ यः स्वयं त्वाददे सर्वसावधपरिहारतः । कर्माष्टकमहापङ्कशोषग्रीष्मातपं तपः ।। २७० ॥ व्रतात् प्रभृति नाथोऽसौ, निःसङ्गो ममतोज्झितः । निराहारो विहरते, पादाभ्यां पावयन् महीम् ॥२७॥ सूर्यातपान्नोद्विजते, न च्छायामनुमोदते । तुल्य एवोभयत्रापि, स्वाम्ययं सानुमानिव ॥ २७२ ॥ ॥७६॥ न विरज्यत्यसो शीतादशीते च न रज्यति । वज्रकाय इव स्वामी, यत्र तत्राऽवतिष्ठते ॥ २७३ ॥ युगमात्र दत्तदृष्टिरमृद्गन् कीटिकामपि । पादचारं करोत्येष, संसारकरिकेसरी ॥ २७४ ॥ * रमृदन् सं १, खं। Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षीकारनिर्देश्या, जगत्रितयदेवता । इह भाग्यवशादायात्ययं ते प्रपितामहः ॥ २७५ ॥ गवामिवाऽनुगोपालं, धावतां स्वामिनं ह्यमुम् । असौ सकलपौराणां, कलः कलकलोऽधुना ॥ २७६ ॥ ___ दृष्ट्वा स्वामिनमायान्तं, युवराजोऽपि तत्क्षणम् । अधावत् पादचारेण, पत्तीनप्यतिलङ्घयन् ॥ २७७॥ छत्रोपानहमुत्सृज्य, युवराजेभिधाविनि । अच्छतोपानहा पर्षत, तच्छायेवाऽन्वधावत ॥ २७८ ॥ सम्भ्रमादुल्ललन् लोलकुण्डलो युवराट् बभौ । स्वामिनोऽग्रे पुनर्वाललीलामाकलयन्निव ॥२७९ ॥ गृहाङ्गणजुपो भलुठित्वा पादपङ्कजे । श्रेयांसोऽमार्जयत् केशैभ्रमरभ्रमकारिभिः ॥२८॥ स उत्थाय जगद्भर्तुविधाय त्रिःप्रदक्षिणाम् । ननाम पादौ हांथुवारिभिः क्षालयन्निव ।। २८१॥ स ऊठ्ठीभूय पुरतः, स्वामिनो मुखपङ्कजम् । ईक्षाञ्चके मुदा चन्द्रं, चकोर इव पार्वणम् ।। २८२ ॥ ईदृशं क्व मया दृष्टं, लिङ्गमित्यभिचिन्तयन् । विवेकशाखिनो बीजं, जातिस्मरणमाप सः ॥ २८३ ॥ विवेद चैवं यत् पूर्वविदेहे चक्रवर्त्यभूत । भगवान वज्रनाभोऽयं, जातोऽहं चाऽस्य सारथिः ॥२८४ ॥ तस्मिन्नेव भवे भर्तुर्वज्रसेनाभिधः पिता । ईदृशं तीर्थकुल्लिङ्ग, धारयन्नीक्षितो मया ॥ २८५ ॥ खामिनो वज्रसेनस्य, पादान्ते समुंपाददे । वज्रनाभः परिव्रज्यामहमप्यस्य पृष्ठतः ॥ २८६ ॥ अर्हतो वज्रसेनस्य, मुखादश्रौषमित्यहम् । भरते वज्रनाभोऽसौ, भावी प्रथमतीर्थकृत् ॥ २८७ ॥ खयम्प्रभादींश्च भवान् , पर्याटममुना सह । अधुना वर्त्तते स्वामी, ममैष प्रपितामहः ॥ २८८॥ दिष्ट्या दृष्टो मया नाथः, समग्रजगतामपि । अनुग्रहीतुं मामेष, साक्षान्मोक्ष इवाऽऽगतः ॥ २८९ ॥ * समुपात्तवान् सं १, खं ॥ Jan Education International . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते तृतीयः सर्गः ॥ ७७॥ ऋषभ|चरितम्। अत्रान्तरे कुमारस्य, प्राभृते केनचिन्मुदा । नवेक्षुरससम्पूर्णा, ढौकयाञ्चक्रिरे घटाः ॥ २९ ॥ ततो विज्ञातनिर्दोषभिक्षादानविधिः स तु । गृह्यतां कल्पनीयोऽयं, रस इत्यवदद् विभुम् ॥ २९१॥ प्रभुरप्यञ्जलीकृत्य, पाणिपात्रमधारयत् । उत्क्षिप्योत्क्षिप्य सोऽपीक्षुरसकुम्भानलोठयत् ॥ २९२ ॥ भयानपि रसः पाणिपात्रे भगवतो ममौ । श्रेयांसस्य तु हृदये, ममुर्न हि मुदस्तदा ॥ २९३ ॥ स्त्यानो नु स्तम्भितो न्वासीद्, व्योम्नि लग्नशिखो रसः। अञ्जलौ स्वामिनोऽचिन्त्यप्रभावाः प्रभवः खलु ॥२९४॥ ततो भगवता तेन, रसेनाकारि पारणम् । सुरासुरनृणां नेत्रैः, पुनस्तदर्शनामृतैः ॥ २९५ ॥ दिवि दुन्दुभयो नेदुः, प्रतिनादोन्मदिष्णवः । श्रेयांसश्रेयसां ख्यातिकरा वैतालिका इव ॥ २९६ ॥ रत्नवृष्टिरभूच्छ्रेयांसौकसि त्रिदिवौकसाम् । सममानन्दसम्भूतजननेत्राश्रुवृष्टिभिः ॥ २९७ ॥ दिवो देवाः पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं वितेनिरे । पृथ्वी पूजयितुमिव, स्वामिपादपवित्रिताम् ॥ २९८ ॥ सर्वामरढुकुसुमनिःस्यन्दैरिव सञ्चितैः । चक्रुर्गन्धाम्बुभिवृष्टि, त्रिविष्टपसदस्तदा ॥ २९९ ॥ विदधानो दिवं दीव्यद्विचित्राभ्रमयीमिव । चेलोत्क्षेपः सुरनरैश्चक्रे चामरसोदरः ॥३०॥ राधशुक्लतृतीयायां, दानमासीत् तदक्षयम् । पर्वाक्षयतृतीयेति, ततोऽद्यापि प्रवर्तते ॥३०१॥ श्रेयांसोपज्ञमवनौ, दानधर्मः प्रवृत्तवान् । खाम्युपज्ञमिवाऽशेषव्यवहारनयक्रमः ॥३०२॥ खामिपारणकाद् देवसम्पाताचाऽथ विस्मिताः । राजानो नांगराश्चान्येऽप्येयुः श्रेयांसवेश्मनि ॥३०३॥ १ श्रेयांसकल्याणानाम् । २ बन्दिनः। ३ वैशाख शुक्कुतृतीयायाम् । ४ श्रेयांसोपझं प्रथम श्रेयांसेन प्रकटीकृतो दानधर्मः प्रवृत्तवान् । ५ स्वाम्युपर्श प्रथमं ऋषभस्वामिना प्रकटीकृतोऽशेषव्यवहारनयक्रमः प्रवृत्तवान् । * मानवा खंता ॥ ऋषभप्रभोः प्रथमा भिक्षा, श्रेयांसस्य प्रथमं दानं च। RSSSSSSSSSSSS ॥ ७७॥ For Private & Personal use only . Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते च कच्छमहाकच्छादयः क्षत्रियतापसाः । आजग्मुरुद्दाममुदः, स्वामिपारणवार्तया ॥ ३०४ ॥ राजानो नागराश्चाऽन्ये, जना जानपदा अपि । पुलकोत्फुल्लवपुषः, श्रेयांसमिदमूचिरे ॥३०५॥ भो भोः कुमार! धन्योऽसि, नृणामसि शिरोमणिः । यदिक्षुरस आहारः, स्वामिना ग्राहितस्त्वया ॥३०६॥ प्रदीयमानमस्माभिः, सर्वस्वमपि नाऽऽत्तवान् । नाऽमन्यत तृणायाऽपि, प्रसन्नोऽस्मासु न प्रभुः॥३०७॥ संवत्सरमटन स्वामी, ग्रामाकरपुराटवीः । कस्याऽप्यादत्त नाऽऽतिथ्यं, धिगस्मान् भक्तमानिनः ॥ ३०८॥ दूरेऽस्तु वस्तुग्रहणं, दूरे वेश्मसु विश्रमः । अद्य यावन्न वाचाऽपि, स्वामी नः समभावयत् ॥ ३०९ ॥ पुत्रवत् सातैपूर्वी नः, पूर्वलक्षाण्यनेकशः । असंस्तव इवेदानीं, प्रभुरमासु वर्तते ॥३१॥ श्रेयांसस्तानुवाचैवं, किमेवमभिधीयते । न ह्ययं पूर्ववत् स्वामी, परिग्रहपरो नृपः ॥ ३११ ॥ इदानीं वर्तते भर्ता, भवावर्तीन्निवर्तितम् । कृतनिःशेषसावधव्यापारविरतिर्यतिः॥३१२॥ स्नानाङ्गरागनेपथ्यवस्वाणि स्वीकरोति सः। यो भोगेच्छुः स्वामिनस्तु, तद्विरक्तस्य किं हि तैः? ॥३१३॥ , कन्यकाः स हि गृह्णाति, यः कामविवशो जनः। स्वामिनो जितकामस्य, कामिन्यः काममश्म॑वत् ॥३१४॥ हस्त्यश्वादि स गृह्णाति, यो महीराज्यमिच्छति । भर्तुः संयमसाम्राज्यभाजस्तद्दग्धवस्त्रवत् ॥ ३१५॥ फलादिकं स गृह्णाति, सजीवं यो हि हिंसकः । स्वामी त्वखिलजन्तूनामसौ जीवाभयप्रदः ॥३१६॥ एषणीयं कल्पनीयं, प्रासुकं च जगत्पतिः। आदत्तेऽन्नादि तन्मुग्धा, भवन्तो न हि जानते ॥ ३१७॥ ऊचिरे युवराजं ते, स्वामिना ज्ञापितं पुरा । यत् किश्चिदपि शिल्पादि, तन्मानं जानते जनाः॥३१८॥ १ रक्षितपूर्वी। २ अपरिचित इव । ३ संसाररूपजलावर्तात् । " पाषाणवत् । Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः ऋषभ ॥ ७८॥ चरितम् । आदित्यपीमा न ज्ञापितमिदं भर्चा, न जानीमस्ततो वयम् । त्वया पुनः कुतो ज्ञातमिति शंसितुमर्हसि ॥ ३१९ ॥ व्याजहार कुमारोऽपि, भगवदर्शनान्मम । जातिस्मरणमुत्पन्न, धीरिव ग्रन्थदर्शनात् ॥ ३२०॥ अमुना स्वामिना सार्द्धमष्टौ जन्मान्तराण्यहम् । भृत्यो ग्रामान्तराणीव, पर्याटं वर्गमर्त्ययोः ॥ ३२१ ॥ इतो भवात् तृतीयस्मिन्नतिक्रान्तभवे प्रभोः । पिताऽभवद् वज्रसेनो, विदेहभुवि तीर्थकृत् ॥ ३२२ ॥ तदन्तिके प्रव्रजितः, खामी पश्चादहं पुनः । तज्जन्ममरणादेतदज्ञायि सकलं मया ॥ ३२३ ॥ तमामे तातपादानां, सुबुद्धिश्रेष्ठिनोऽपि च । त्रयाणामपि स्वमानां, प्रत्यक्षमधुना फलम् ॥ ३२४ ॥ श्यामो मेरुर्मया दृष्टः, पयोभिः क्षालितश्च यत् । तपःक्षामः स हि स्वामीक्षुरसैः पारणादभात् ॥ ३२५॥| युध्यमानोऽरिभिर्यस्तु, राज्ञा दृष्टः प्रभुहि सः। मत्पारणकसानिध्यात्, पराजिग्ये परीपहान् ॥ ३२६॥ सुबुद्धिश्रेष्ठिना यच्च, दृष्टमादित्यमण्डलात् । गोसहस्रं च्युतं न्यस्तं, मयाऽथाऽर्कोऽधिकं बभौ ॥ ३२७ ॥ आदित्यो भगवानेष, गोसहस्रं तु केवलम् । तद् भ्रष्टं पारणेनाऽद्य, मयाऽयोजि वभौ च सः॥ ३२८ ।। एतच्छत्वा च ते सर्वे, श्रेयांसं साधु साध्विति । भाषमाणाः प्रमुदिताः, स्थानं निजनिजं ययुः ॥३२९॥ कृतपारणकः स्वामी, श्रेयांससदनात् ततः । जगामाऽन्यत्र नैकत्र, तिष्ठेच्छमस्थतीर्थकृत ॥ ३३०॥ भगवत्पारणस्थानातिक्रमं कोऽपि मा व्यधात् । इति रत्नमयं तत्र, श्रेयांसः पीठमादधे ॥ ३३१॥ त्रिसन्ध्यमपि तद् रत्नपीठं भक्तिभरानतः । श्रेयांसः पूजयामास, साक्षात् पादाविव प्रभोः ॥ ३३२ ॥ किमेतदिति लोकेन, पृष्टः सोमप्रभात्मजः । आदिकृन्मण्डलमिदमिति तं शंसति स्म तत् ॥३३३॥ यत्र यत्र प्रभुर्भिक्षामग्रहीत् तत्र तत्र च । पीठं लोकोऽकृताऽऽदित्यपीठं तच्च क्रमादभूत् ॥ ३३४ ॥ ॥७८ ॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृषभप्रभो बहलीदेशे गमनं, | बाहुबले न्दनार्थमागमन च। खामी सम्पाप सायाहे, निकुञ्जमिव कुञ्जरः। बहलीमण्डले बाहुबलेस्तक्षशिलापुरीम् ॥ ३३५॥ तस्याश्च बहिरुद्याने, तस्थौ प्रतिमया प्रभुः । गत्वा च बाहुबलये, तदायुक्तैन्य॑वेद्यत ॥ ३३६ ॥ अथाऽदिक्षत् पुरारक्षं, मापतिस्तत्क्षणादपि । विचित्रं हट्टशोभादि, नगरे क्रियतामिति ॥ ३३७॥ पदे पदेऽभवद् रम्भास्तम्भतोरणमालिका । लम्बमानमहालुम्बिचुम्बिताध्वन्यमौलिका ।। ३३८ ॥ मञ्चाः प्रतिपथं चासन् , रत्नभाजनभासुराः । विमानानीव भगवदर्शनायातनाकिनाम् ॥ ३३९ ॥ अनिलान्दोलितोद्दामपताकामालिकाच्छलात् । पूः सहस्रभुजीभूय, ननर्तेव मुदा तदा ॥३४॥ नव्यकुङ्कमपानीयच्छटाभिरभितोऽप्यभूत । सद्यो रचितमङ्गल्याङ्गरागेव वसुन्धरा ।। ३४१ ॥ भगवदर्शनोत्कण्ठारजनीजानिसङ्गमात् । पुरं तदानीमुन्निद्रमभूत् कुमुदषण्डवत् ॥ ३४२ ॥ प्रातः खं पावयिष्यामि, लोकं च स्वामिदर्शनात् । इतीच्छतो बाहुबलेः, साऽभून्मासोपमा निशा ॥३४॥ तस्यामीपद्विभातायां, विभावां जगद्विभुः । प्रतिमां पारयित्वाऽगात् , क्वचिदन्यत्र वायुवत् ॥ ३४४ ॥ प्रातच बद्धमुकुटैमहद्भिर्मण्डलेश्वरैः । भूयिष्टैरिव मार्तण्डैः, परितः परिवारितः ॥ ३४५ ॥ उपायानामिवाऽगारैरर्थशास्त्रैरिवाऽङ्गिभिः । शुक्राचैरिव भूयिष्ठैर्वरिष्ठैर्मत्रिभिर्वृतः ॥ ३४६ ॥ जगल्लङ्घनजङ्घालैर्लक्षसङ्खबैस्तुरङ्गमैः । गूढपक्षैः पक्षिराजैखि विष्वग् विराजितः ॥ ३४७॥ क्षरन्मदजलासारशमितक्षितिरेणुभिः । उत्तुङ्गैः शोभितो नागैर्नगैरिख सनिझरैः ॥ ३४८॥ वसन्तश्रीप्रभृत्यन्तःपुरस्त्रीभिः सहस्रशः । पातालकन्याभिरिवाऽसूर्यम्पश्याभिरावृतः ॥ ३४९ ॥ बहलीदेशे। * भूः सह सं १ ॥ २ चन्द्रः। ३ वेगवभिः । त्रिषष्टि. १४ For Private & Personal use only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व तृतीयः त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥७९॥ सर्गः ऋषभचरितम् । सचामराभ्यां च वारस्त्रीभ्यां सेवितपार्श्वकः । सराजहंसाभ्यां गङ्गायमुनाभ्यां प्रयागवत् ॥ ३५०॥ धवलेनाऽऽतपत्रेणोपरिस्थेनाऽतिहारिणा | राकानिशीथशशिना, सानुमानिव शोभितः ॥ ३५१ ॥ सुवर्णदण्डहस्तेन, प्रतीहारेण चाऽग्रतः । शोध्यमानपथो देवनन्दिना देवराडिव ॥ ३५२॥ अन्वीयमानोऽश्वारूढः, रत्नाभरणभूषितैः । पौरैरिभ्यैरसङ्ख्यातैः, श्रीदेव्या इन पुत्रकैः ॥ ३५३ ॥ शिलोच्चयशिलापृष्ठमिव पञ्चाननो युवा । भद्रद्विपपतिस्कन्धमध्यारूढः सुरेन्द्रवत् ॥ ३५४ ॥ विराजमानः शिरसि, तरङ्गीभृतकान्तिना । रत्नमयकिरीटेन, चूलयेवाऽमराचलः ॥ ३५५ ॥ बिभ्रन्मुक्ताकुण्डले च, बदनस्य श्रिया जितौ । सेवाकृते समायातौ, जम्बूद्वीपविधू इव ॥ ३५६ ॥ स्थूलमुक्तामणिमयं, हारयष्टिं च धारयन् । हृदये मन्दिरे लक्ष्म्या , वप्रसब्रह्मचारिणम् ॥ ३५७ ॥ दोमलयोर्दधानश्च, जात्यजाम्बूनदाङ्गदौ । दृढौ नवलतावेष्टाविवोच्चैर्भुजशाखिनोः ॥ ३५८ ॥ मुक्तामणिमयो बिभ्रत्कङ्कणौ मणिवन्धयोः । लावण्यसरितस्तीरवर्तिफेनच्छटोपमौ ॥ ३५९ ॥ अङ्गलीये च बिभ्राणः, कान्तिपल्लविताम्बरे । मणी इवानणीयांसो, पाण्योः फणिफणश्रियोः ॥३६॥ चोलकेनाऽङ्गालग्नेन, सूक्ष्मश्वेतेन शोभितः । असंलक्ष्यविभेदेन, श्रीचन्दनविलेपनात् ॥ ३६१॥ चारुमन्दाकिनीवीचिनिचयस्पर्धिनी पटीम् । धारयन् परितो राकाचन्द्रमाश्चन्द्रिकामिव ॥ ३६२ ॥ विचित्रवर्णरुचिरेणाऽन्तरीयेण रोचितः । नानाधातूंपत्यकया, निषेवित इवाञ्चलः ॥ ३६३॥ १ पूर्णिमारात्रिचन्द्रेण। २ इन्द्रप्रतीहारेण । ३ केशरी। * बराङ्गीभूत सं १॥ ४ जम्बूद्वीपस्थचन्द्रौ इव । ५ जात्यसुवर्णकेयूरौ। ६ महान्तौ। ७ पर्वतासन्नभूम्या । बाहुबलेन्दनार्थमागमनम्। ॥७९॥ For Private & Personal use only . Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | महाबाहुर्बाहुबलिः, पाणिभ्यां वर्तयन् शूणिम् । श्रीणामाकर्षणक्रीडां, कुटिकामुल्वणामिव ॥ ३६४ ॥ प्रभोरदर्शने बन्दिवृन्दजयजयारावपूरितदिङ्मुखः । स्वामिपादपवित्रस्योपवनस्यान्तिकं ययौ ॥ ३६५॥ बाहुबलेः पश्चात्तापः, [एकविंशत्या कुलकम् ] धर्मचक्रअवरुह्य करिस्कन्धाद, बैनतेय इवाऽम्बरात् । छत्रादिप्रक्रियां त्यक्त्वा, तदुद्यानं विवेश सः ॥३६६॥ता स्थापनं च। व्योमेव चन्द्ररहितं, सुधाकुण्डमिवाऽसुधम् । तदस्खामिकमुद्यानमपश्यदृषभात्मजः॥३६७ ॥ क्क नाम भगवत्पादा, नयनानन्ददायिनः । इत्यपृच्छदतुच्छेच्छः, सर्वानुद्यानपालकान् ॥ ३६८॥ तेप्यूचुः किञ्चिदप्यग्रे, यामिनीव ययौ विभुः । यावत् कथयितुं यामस्तावद् देवोऽप्युपाययौ ॥ ३६९॥ हस्तविन्यस्तचिबुको, बाप्पायितविलोचनः । अथेदं चिन्तयामास, ताम्यंस्तक्षशिलापतिः ॥ ३७॥ स्वामिनं पूजयिष्यामि, समं परिजनैरिति । मनोरथो मुधा मेऽभृद् , हृदि बीजमिवोपरे ॥३७१ ॥ चिरं कृतविलम्बस्य, लोकानुग्रहकाम्यया । धिगियं मम सा जज्ञे, स्वार्थभ्रंशेन मूर्खता ॥ ३७२ ॥ धिगियं वैरिणी रात्रिर्धिगियं च मतिर्मम । अन्तरायकरी स्वामिपादपद्मावलोकने ॥ ३७३ ॥ विभातमप्यविभातं, भानुमानप्यभानुमान् । दृशावप्यदृशावेव, पश्यामि स्वामिनं न यत् ॥ ३७४ ॥ अत्र प्रतिमया तस्थौ, रात्रिं त्रिभुवनेश्वरः । अयं पुनर्बाहुबलिः, सौधे 'शेते स्म निवपः ॥ ३७५ ॥ अथ बाहुबलिं दृष्ट्वा, चिन्तासन्तानसङ्कुलम् । उवाच सचिवो वाचा, शोकशल्यविशल्यया ॥३७६॥ अत्र स्वामिनमायातं, नाऽपश्यमिति शोचसि । किं देव ! नित्यवास्तव्यः, स एव हृदि यस्य ते १ ॥३७७॥ १ अङ्कुशम् । * °यारावपूरिताखिलदि आ ॥ २ महेच्छः। ३ क्षारभूमौ । सुप्वाप नि आ, सं २ ॥ Jain Education inte For Private & Personal use only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः ऋषभ चरितम्। कुलिशाङ्कुशचक्राजध्वजमत्स्यादिलाञ्छितैः । दृष्टैः स्वामिपदन्यासैदृष्टः खाम्येव भावतः ॥३७८ ॥ श्रुत्वेति खामिनस्तानि, पदविम्बानि भक्तितः । सान्तःपुरपरीवारः, सुनन्दासूरवन्दत ॥ ३७९॥ पदान्येतानि मा साऽतिक्रामत् कोऽपीति बुद्धितः । धर्मचक्रं रत्नमयं, तत्र बाहुबलिय॑धात् ॥ ३८॥ अष्टयोजनविस्तारं, तच्च योजनमुच्छ्रितम् । सहस्रारं बभौ बिम्ब, सहस्रांशोरिवाऽपरम् ॥ ३८१॥ त्रिजगत्स्वामिनस्तस्य, प्रभावादतिशायिनः । सद्यस्तत्कृतमेवैक्षि, दुष्करं द्युसदामपि ॥ ३८२ ॥ तत् तथाऽपूजयद् राजा, पुष्पैः सर्वत आहृतैः । समलक्षि यथा पौरैः, पुष्पाणामिव पर्वतः ॥ ३८३ ॥ तत्र प्रवरसङ्गीतनाटकादिभिरुद्भटम् । नन्दीश्वरे शक इव, स चक्रेऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ३८४ ॥ आरक्षकानर्चकांश्च, तत्रादिश्य विशांपतिः । नमस्कृत्य च कृत्यज्ञो, जगाम नगरी निजाम् ॥ ३८५ ॥ भगवानप्यनायत्तः, समीरण इवाऽस्खलन् । नानाविधतपोनिष्ठो, विविधाभिग्रहोद्यतः ॥ ३८६॥ यवनाडम्बइल्लादिम्लेच्छदेशेषु मौनभाक् । अनार्यान् भद्रकीकुर्वन् , दर्शनेनापि देहिनः॥३८७॥ उपसगैरसंस्पृष्टः, सहमानः परीषहान् । सहस्रमेकं वर्षाणां, व्यहरद् दिनलीलया ॥ ३८८ ॥ HAI अयोध्याया महापुर्याः, शाखानगरमुत्तमम् । ययौ पुरिमतालाख्यं, भगवानृषभध्वजः॥३८९॥ तस्य चोत्तरतो रम्यं, द्वितीयमिव नन्दनम् । उद्यानं शकटमुखं, नाम न्यविशत प्रभुः॥३९॥. कृताष्टमतपास्तत्र, न्यग्रोधस्य तरोरधः । प्रतिमास्थोऽप्रमत्ताख्यं, गुणस्थानं प्रपन्नवान् ॥ ३९१ ॥ ततश्चाऽपूर्वकरणमारूढः प्रत्यपद्यत । शुक्लध्यानं सवीचारं, पृथक्त्वेन वितर्कयुक् ।। ३९२ ॥ प्राप्यानिवृत्तिं च सूक्ष्मसम्परायगुणं ततः । क्षणात् क्षीणकषायत्वं, प्रतिपेदे जगद्गुरुः ॥ ३९३ ॥ | प्रभोः केवलज्ञानोत्पत्तिः। NAGACARSAREER Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐरावणगजः। ऐक्यश्रुतमवीचारं, शुक्लध्यानं द्वितीयकम् । क्षणादासादयदथ, क्षीणमोहान्तिमक्षणे ॥ ३९४ ॥ पञ्च ज्ञानावरणानि, दृष्ट्यावृतिचतुष्टयम् । अन्तरायांश्च पञ्चेति, घातिशेषमनाशयत् ॥ ३९५॥ अथ व्रतात् सहस्राब्द्यां, फाल्गुनैकादशीदिने । कृष्णे तथोत्तराषाढास्थिते चन्द्रे दिवामुखे ॥३९६॥ उत्पेदे केवलज्ञानं, त्रिकालविषयं विभोः । हस्तस्थितमिवाऽशेषं, दर्शयद् भुवनत्रयम् ॥३९७॥ [ युग्मम् ] दिशः प्रसेदुरभवन् , वायवः सुखदायिनः । नारकाणामपि तदा, क्षणं सुखमजायत ॥ ३९८ ॥ अथेन्द्राणामशेषाणामासनानि चकम्पिरे । तान् नोदितुमिव स्वामिकेवलोत्सवकर्मणे ॥३९९ ॥ प्रणेदुरिन्द्रलोकेषु, महाघण्टाः पटुस्खनाः । सद्यो दूत्य इव स्वस्खलोकाकारणकर्मणि ॥ ४००॥ यियासोः स्वामिपादान्ते, सौधर्माधिपतेः सुरः । ऐरावणो गजीभूय, चिन्तामात्रादुपास्थित ॥ ४०१॥ विराजमानस्तन्वा स, लक्षयोजनमानया । दिक्षुः स्वामिनं मेरुरिव जङ्गमतां गतः ॥ ४०२ ॥ अङ्गप्रभाभि हारधवलाभिः समन्ततः । ककुभां चान्दनमिव, वितन्यानो विलेपनम् ॥ ४०३ ॥ गण्डस्थलगलद्दानजलैरतिसुगन्धिभिः । स्वर्गाङ्गणभुवं कुर्वन् , कस्तूरीस्तबकाङ्किताम् ॥ ४०४॥ कर्णतालैस्तालवृन्तैरिव लोलैर्निवारयन् । कपोलतलसम्पातिगन्धान्धमधुपावलीम् ॥ ४०५॥ कुम्भस्थलपराभूतबालमार्तण्डमण्डलः । आनुपूर्वीपीनवृत्तशुण्डानुकृतनागराद् ॥ ४०६ ॥ मध्वाभनेत्रदशनस्ताम्रपत्राभतालुकः । भम्भावृत्तशुभग्रीवः, पृथुगात्रान्तरालकः ॥ ४०७॥ अधिज्यीकृतधन्वाभपृष्ठवंशः कृशोदरः । चन्द्रमण्डलसङ्काशनखमण्डलमण्डितः ॥४०८ ॥ • दर्शनावरणचतुष्टयम् । * सहस्रक फा खं ॥२ सहस्रवर्षेषु गतेषु। ३ आह्वानकर्मणि। ४ मधुवर्णनेत्रदन्तः । Jain Education Internation in For Private & Personal use only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व | तृतीयः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥८१॥ इन्द्राणामागमनम्। सुगन्धिदीर्घनिश्वासश्चलदीर्घकराङ्गुलिः । दीर्घोष्ठपल्लयो दीर्घमेहनो दीर्घवालंधिः ॥ ४०९॥ घण्टाभ्यां पार्श्वयोश्चन्द्रार्काभ्यां मेरुरिवाङ्कितः । देवद्रुकुसुमावेष्टं, कक्षानाडी च धारयन् ॥ ४१०॥ मुखान्यष्टौ हेमपट्टाश्चितभालानि तस्य च । बभुर्दिगष्टकश्रीणामिव विभ्रमभूमयः॥४११॥ - अष्टौ मुखे मुखे दन्तास्तिरश्चीनायतोन्नताः । दृढाश्चकाशिरे तस्य, महाद्रेरिव दन्तकाः ॥ ४१२ ॥ दन्ते दन्ते पुष्करिणी, स्वादुनिर्मलपुष्करा । गिरौ वर्षधरे वर्षधरे इद इवाऽभवत् ॥ ४१३ ॥ पुष्करिण्यां पुष्करिण्यामष्टावम्भोरुहाणि च । अब्देवीभिः कृतानीव, मुखानि बहिरम्भसः ॥ ४१४॥ दलानि विपुलान्यष्टाम्भोरुहेऽम्भोरुहेऽपि च । क्रीडत्सुरस्त्रीविश्रामान्तरीपाणीव रेजिरे ॥ ४१५॥ दले दलेऽष्टसङ्ग्यानि, नाटकानि विरेजिरे । चतुर्विधैरभिनयैः, सनाथानि पृथक् पृथक ॥ ४१६ ॥ द्वात्रिंशदासन पात्राणि, नाटके नाटकेऽपि च । निर्झरा इव सुखादरसकल्लोलसम्पदः ॥ ४१७ ॥ .. वासवः सपरीवारस्तं वारणवरं ततः । अग्रासनेऽध्यारुरोह, कुम्भाग्रच्छन्ननाभिकः ॥ ४१८ ॥ आसीनसपरीवारवासवो वारणाधिपः । सहसा सकलः कल्पः, सौधर्म इव सोऽचलत् ॥ ४१९ ॥ क्षणादपि तदुद्यानमृषभखामिपावितम् । स प्राप पालक इव, स्ववपुः सनिपन क्रमात् ॥ ४२०॥ इन्द्राः समं देवगणैरपरेऽप्यच्युतादयः। अहंपूर्विकयेवेयुस्तत्रोच्चैर्दधतस्त्वराम् ॥ ४२१॥ इतः समवसरणस्याऽवनीमेकयोजनाम् । अमृजन् वायुकुमाराः, स्वयं मार्जितमानिनः ॥ ४२२॥ गन्धाम्बुवृष्टिभिर्मेघकुमाराः सिषिचुः क्षितिम् । सुगन्धिबाष्पैः सोत्क्षिप्तधूपा'वैष्यतः प्रभोः ॥ ४२३ ॥ शुण्डामः । २ दीर्घपुच्छः। ३ अन्तरद्वीपाणीव । कान्यभिनिन्यिरे सं २, आ॥ ॥८१॥ For Private & Personal use only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरणम्। व्यन्तराः वर्णमाणिक्यरत्नाश्मभिरुदंशुभिः । आत्मानमिव भक्त्या तद्, बबन्धुर्वसुधातलम् ॥ ४२४ ॥ तत्राऽधोमुखवृन्तानि, प्रोद्गतानीव भूतलात् । पञ्चवर्णानि पुष्पाणि, सुगन्धीन्यकिरंश्च ते ॥ ४२५॥ तोरणानि विचक्रुश्च, रत्नमाणिक्यकाञ्चनैः । चतसृष्वपि ते दिक्षु, तद्भूषाकण्ठिका इव ॥ ४२६ ॥ अन्योऽन्यदेहसङ्क्रान्तप्रतिविम्बर्बभासिरे । आलिङ्गिता इवाऽऽलीभिस्तत्रोच्चैः शालभर्जिकाः ॥ ४२७॥ स्निग्धेन्द्रनीलघटिता, मकरास्तेषु रेजिरे । पँणश्यन्मकरकेतुत्यक्तकेतुभ्रमप्रदाः॥ ४२८॥ भगवत्केवलज्ञानकल्याणभवया मुदा । हासा इव दिशां रेजुः, श्वेतच्छत्राणि तत्र च ॥ ४२९ ॥ ध्वजाश्च भ्रजिरे तत्र, भृदेव्याऽतिप्रमोदतः । उत्तम्भिता इव भुजाः, स्वयं नर्तितुकामया ॥ ४३०॥ तोरणानामधस्तेषां, वलिपट्टेष्विवोच्चकैः । मङ्गलस्याऽष्ट चिह्नानि, स्वस्तिकादीनि जज्ञिरे ॥ ४३१॥ तत्रोपरितनं वर्ष, विमानपतयो व्यधुः । रत्नमयं रत्नगिरेराहृतां मेखलामिव ॥ ४३२ ॥ नानामणिमयान्यासन् , कपिशीर्षाणि तत्र च । अंशुभिः सूत्रयन्ति यां, चित्रवर्णाशुकामिव ॥ ४३३ ॥ मध्यभागे पुनः खाङ्गज्योतिभिरिख पिण्डितैः । प्राकारं कनकैयॊतिष्पतयस्तत्र चक्रिरे ॥ ४३४ ॥ रविरचयामासुः, कपिशीर्षाणि तत्र च । सुरासुरवधूवक्ररत्नादर्शायितानि ते ॥ ४३५ ॥ रूप्यवप्रश्च भवनपतिभिस्तद्वहिष्कृतः । भक्तितो मण्डलीभूत, इव वैताट्यपर्वतः ॥ ४३६ ॥ तस्योपरि विशालानि, कपिशीर्षाणि जज्ञिरे । सौवर्णान्यम्बुजानीव, दिविषद्दीर्घिकाजले ॥ ४३७ ॥ भवनाधिपतिज्योतिष्पतिवैमानिकश्रियाम् । एकैककुण्डलेनेव, सा त्रिवप्रीकृता बभौ ॥४३८ ॥ १ पुष्पबन्धनस्थानानि । २ पुत्तलिकाः। * स्वामिप्रभाप्रणश्यन्मकरकेतुभ्रम सं ॥ ३ समवसरणभूमिः । Jain Education Inte For Private & Personal use only . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ।। ८२ ।। Jain Education Internatio माणिक्यतोरणास्तत्र, पताकामालभारिणः । रश्मिजालैर्विरचितान्यपताका इवाऽभवन् ॥ ४३९ ॥ प्रतिवप्रं च चत्वारि, गोपुराणि चकाशिरे । चतुर्विधस्य धर्मस्य, क्रीडावातायना इव ॥ ४४० ॥ · इन्द्रनीलमणिस्तम्भावित धूमलतामुचः । द्वारे द्वारे धूपघट्योऽमुच्यन्त व्यन्तरामरैः ॥ ४४१ ॥ प्रतिद्वारं विचक्रे तैर्वापी काञ्चनपङ्कजा । समवसरणवप्र, इव द्वारचतुष्कभृत् ॥ ४४२ ॥ प्राकारस्य द्वितीयस्याऽन्तरे चोत्तरपूर्वतः । देवच्छन्दं विचक्रुस्ते, खामिविश्रामहेतवे ॥ ४४३ ॥ 1 तत्र प्रथमवप्रस्य, द्वास्थौ प्राग्द्वारि तस्थतुः । स्वर्णवर्णावुभयतो, वैमानिकदिवौकसौ ॥ ४४४ ॥ तस्यैव दक्षिणद्वारपार्श्वयोर्द्वारपालकौ । प्रतिबिम्बे इवाऽन्योऽन्यस्याऽस्थातां व्यन्तरौ सितौ ॥ ४४५ ॥ अभितः पश्चिमद्वारं, ज्योतिष्कौ द्वारपालकौ । रक्तवर्णौ वितष्ठाते, सायमिन्दुखी इव ॥ ४४६ ॥ तस्थतुश्च प्रतीहारावुत्तरद्वारपार्श्वयोः । भवनाधिपती कृष्णौ, मेघाविव समुन्नतौ ॥ ४४७ ॥ द्वितीयवप्रद्वारेषु, प्राक्क्रमेण चतुर्ष्वपि । सर्वा अप्यभयपाशाङ्कुशमुद्गरपाणयः ॥ ४४८ ॥ देव्यो जया च विजया, चाऽजिता चाऽपराजिता । तस्थुश्चन्द्राश्मशोणाश्मस्वर्णनीलत्विषः अन्त्यवप्रे प्रतिद्वारं, तस्थौ द्वास्थस्तु तुम्बुरुः । खद्वाङ्गी नृशिरः स्रग्वी, जटामुकुटमण्डितः ॥ ४५० ॥ मध्ये समवसरणं, चैत्यद्रुर्व्यन्तरैः कृतः । क्रोशत्रयोदयो रत्नत्रयोदयमिवोद्दिशन् ॥ ४५१ ॥ तस्याऽधो विविधै रत्नैः, पीठं विदधिरे च ते । तस्योपरि च्छन्दकं चाप्रतिच्छन्दमणीमयम् ॥ ४५२ ॥ तन्मध्ये पूर्वदिग्भागे, रत्नसिंहासनं ततः । सपादपीठं ते चक्रुः, सारं सर्वश्रियामिव ॥ ४५३ ॥ १] श्वेतवर्णी । २ खाङ्गायुधधारी । ३ मुण्डमाली । ४ उच्छ्रयः । ५ अप्रतिममणिमयम् । क्रमात् ॥ प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । समवसरणम् । ॥ ८२ ॥ . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासमवसरणम्। तस्योपरि विचक्रे च, तैश्छत्रत्रयमुज्वलम् । स्वामिनस्त्रिजगत्स्वाम्यचिह्नत्रयमिवोच्चकैः ॥ ४५४॥ यक्षाभ्यां तत्र दधाते, पार्श्वयोश्चामरौ शुची। हृद्यमान्तौ बहिर्भूती, स्वामिभक्तिभराविव ॥ ४५५ ॥ ततः समवसरणद्वारे हेमाम्बुजस्थितम् । अत्यद्भुतप्रभाचक्र, धर्मचक्र विचक्रिरे ॥ ४५६ ॥ तत्राऽन्यदपि यत् कृत्यं, तत् सर्व व्यन्तरा व्यधुः । साधारणे हि समवसरणे तेऽधिकारिणः॥ ४५७ ॥ चतुर्विधानां देवानामथ कोटीभिरावृतः । भगवान् समवसत्तुं, प्रचचाल दिवामुखे ॥ ४५८ ॥ सहस्रपत्राण्यब्जानि, सौवर्णानि तदा नव । विदधुनिंदधुश्चाऽग्रे, क्रमेण स्वामिनः सुराः ॥ ४५९ ॥ विदधे तेषु च स्वामी, पादन्यासं द्वयोर्द्वयोः । पुरः सञ्चारयामासुराशु शेषाणि नाकिनः ॥ ४६० ॥ पूर्वद्वारेण समवसरणं प्राविशत् ततः । चक्रे च चैत्यवृक्षस्य, जगन्नाथः प्रदक्षिणाम् ॥ ४६१ ॥ तीर्थ नत्वा प्रामुखोऽथ, जगन्मोहतमश्छिदे । स्वामी सिंहासनं भेजे, पूर्वाचलमिवार्यमा ॥ ४६२॥ रत्नसिंहासनस्थानि, दिक्ष्वन्यास्वपि तत्क्षणम् । भगवत्प्रतिबिम्बानि, व्यन्तरास्त्रीणि चक्रिरे ॥ ४६३ ॥ देवाः प्रभोः सदृग्रूपमङ्गष्ठस्याऽपि न क्षमाः । कर्तुं ताशि तान्यासन् , पुनः स्वामिप्रभावतः॥ ४६४ ॥ आविर्बभूवाऽनुशिरस्तदा भामण्डलं विभोः । खद्योतपोतवद् यस्य, पुरो मार्तण्डमण्डलम् ॥ ४६५॥ प्रतिध्वानैश्चतस्रोऽपि, दिशो मुखरयन् भृशम् । अम्भोद इव गम्भीरो, दिवि दध्वान दुन्दुभिः ॥ ४६६ ॥५ भगवानेक एवाऽयं, स्वामीत्यूचीकृतो भुजः । धर्मेणेव प्रभोरग्रे, रेजे रत्नमयध्वजः ॥ ४६७॥ प्रविश्य पूर्वद्वारेण, कृत्वा च त्रिःप्रदक्षिणाम् । तीर्थनाथं च तीर्थ च, नत्वा प्राकार आदिमे ॥४६८॥ सुवर्णकमलस्थितम् । * वाऽनुवपुस्तदा आ ॥ २ पतकशिशुवत् । For Private & Personal use only . Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥८३॥ COMGURUGRECORDS स्थानं विहाय साधूनां, साध्वीनां च तदन्तरे। पूर्वदक्षिणदिश्यूस्तिस्थुवैमानिकस्त्रियः॥४६९॥ [ युग्मम् ]|| प्रथम पर्व प्रविश्याऽपाच्यद्वारेण, विधिना तेन नैर्ऋते । क्रमेणाऽस्थुवनेशज्योतिष्कव्यन्तरस्त्रियः॥४७॥ तृतीयः प्रविश्य प्रत्यरद्वारा प्राग, विधिपूर्व मरुद्दिशि । अतिष्ठन् भवनपतिज्योतिष्कव्यन्तराः सुराः ॥ ४७१ ॥ सर्गः प्रविश्योदीच्यद्वारेण, तेनैव विधिना क्रमात् । ऐशान्यां कल्पदेवाश्च, नरा नार्योऽवतस्थिरे ॥ ४७२ ॥ ऋषभतत्राऽऽदावागतोऽल्पर्द्धिरागच्छन्तं महर्द्धिकम् । नमति साऽऽगतं तु प्रार, नमन्नेव जगाम च ॥ ४७३॥ चरितम् । नियन्त्रणा तत्र नैव, विकथा न च काचन । विरोधिनामपि मिथो, न मात्सर्य भयं न च ॥ ४७४ ॥ द्वितीयस्य तु वप्रस्य, तिर्यञ्चस्तस्थुरन्तरे । वाहनानि तृतीयस्य, प्राकारस्य तु मध्यतः॥ ४७५॥ समवसरणम्। प्राकारस्य तृतीयस्य, बाह्यदेशेऽभवन् पुनः । विशन्तः केपि निर्यान्तः, केपि तिर्यग्नरामराः ॥ ४७६॥ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रो, नमस्कृत्य कृताञ्जलिः । रोमाश्चितो जगन्नाथमिति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥ ४७७ ॥ स्वामिन् ! क्व धीदरिद्रोऽहं, क्व च त्वं गुणपर्वतः। अभिष्टोष्ये तथाऽपि त्वां, भक्त्याऽतिमुखरीकृतः॥४७८॥ अनन्तैर्दर्शनज्ञानवीर्यानन्दर्जगत्पते । रनै रत्नाकर इव, त्वमिहैको विराजसे ॥ ४७९ ॥ देवेह भरतक्षेत्रे, चिरं नष्टस्य सर्वथा । धर्मस्याऽसि प्ररोहाय, बीजमेकं तरोरिख ॥ ४८० ॥ अनुत्तरसुराणां त्वं, तत्रस्थानामिह स्थितः । वेत्सि च्छिनत्सि सन्देहं, न माहात्म्यावधिस्तव ॥४८१॥ फलं त्वद्भक्तिलेशस्य, निवासः स्वर्गभूमिषु । यत् सुराणां समग्राणां, महर्द्धिद्युतिभास्वताम् ॥ ४८२ ॥ देव ! त्वद्भक्तिहीनानां, तपांस्यतिमहान्त्यपि । अबोद्धृणामिव ग्रन्थाभ्यासः क्लेशाय केवलम् ॥ ४८३ ॥ १ दक्षिणद्वारेण । २ वायव्यदिशि। ३ उत्तरद्वारेण । SCRECORRECAMERCESCRICK Jan Education International For Private & Personal use only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुदेवाया विलापः, तत्सान्त्वनं च। BUSSRUSSISSASSIG यस्त्वां स्तवीति यो द्वेष्टि, समस्त्वमुभयोस्तयोः । शुभाशुभं फलं किन्तु, भिन्नं चित्रीयते हि नः॥४८४॥ धुश्रियाऽपि न तोपो मे, नाथ! नाथाम्यदस्ततः । भगवन् ! भूयसी भूयात् , त्वयि भक्तिर्ममाऽक्षया ॥४८५॥ इत्यभिष्टुत्य नत्वा च, निषसाद कृताञ्जलिः । नारीनरनरदेवदेवानामग्रतो हरिः॥ ४८६ ॥ इतोऽपि च विनीतायां, विनीतो भरतेश्वरः । आजगाम नमस्कतुं, मरुदेवां दिवामुखे ॥४८७॥ तनूजविरहोद्भूतैरश्रान्तरस्रवारिभिः । जातनीलिकया लुप्तलोचनाजां पितामहीम् ॥ ४८८ ॥ ज्येष्ठः पौत्रो नमत्येष, देवि! त्वत्पादपङ्कजे । स्वयं विज्ञपयन्नेवं, भरतः प्रणनाम ताम् ॥४८९।। [युग्मम् ] स्वामिनी मरुदेवापि, भरतायाऽऽशिषं ददौ । हृद्यमान्तीं शुचमिव, गिरमित्युञ्जगार च ॥४९॥ मां त्वां महीं प्रजां लक्ष्मी, विहाय तृणवत् तदा । एकाकी गतवान् वत्सो, दुर्मरा मरुदेव्यहो! ॥४९१॥ सूनोश्चन्द्रातपच्छायमातपत्रं क्व मूर्द्धनि ? । सर्वाङ्गसन्तापकरः, वेदानीं तपनातपः ॥ ४९२ ॥ सलीलगतिभिर्यानानं हस्त्यादिभिः क्व तत् ? । वत्सस्य पादचारित्वं, केदानीं पथिकोचितम् ? ॥४९३॥ क्व तद् वारवधृत्क्षिप्तचारुचामरवीजनम् ? । मत्सूनोः क्वाधुना दंशमशकाद्यैरुपद्रवः ॥ ४९४ ॥ क्व तद् देवसमानीतदिव्याहारोपजीवनम् ? । व भिक्षाभोजनं तस्याऽभोजनं वापि सम्प्रति ? ॥ ४९५॥ रत्नसिंहासनोत्सङ्गे, महर्द्धः क्व तदासनम् ? । मत्सूनोः खजिन इव, व निरासनताऽधुना ? ॥ ४९६ ॥ आरक्षरात्मरक्षश्च, रक्षिते व पुरे स्थितिः । सूनोः क्व वासः सिंहाहिदुःश्वापदपदे वने ? ॥ ४९७ ॥ क्व तद् दिव्याङ्गनागीतं, कर्णामृतरसायनम् ? । सूनोः क्वोन्मत्तफेरुण्डफेत्काराः कर्णसूचयः ॥ ४९८॥ १ अश्रुजलैः। २ नेत्ररोगविशेषः । ३ गण्डकाख्यपशोः । Jain Education in For Private & Personal use only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाका तृतीयः पुरुषचरिते सर्गः ॥८४॥ ऋषभचरितम् । अहो ! कष्टमहो ! कष्ट, यन्मे सूनुस्तपात्यये । पद्मखण्ड इव मृदुः, सहते वारिविद्रवम् ॥ ४९९ ॥ हिमत्तौं हिमसम्पातसंक्लेशविवशां दशाम् । अरण्ये मालतीस्तम्ब, इव याति निरन्तरम् ॥ ५००॥ उष्ण वुष्णकिरणकिरणैरतिदारुणैः । सन्तापं चाऽनुभवति, स्तम्बेरम इवाधिकम् ॥ ५०१ ॥ तदेवं सर्वकालेपु, वनेवासी निराश्रयः । पृथग्जन इवैकाकी, वत्सो मे दुःखभाजनम् ॥ ५०२॥ तचदुःखाकुलं वत्सं, पश्यन्त्यग्रे दृशोरिख । वदन्ती नित्यमप्येवं, हा ! त्वामपि दुनोम्यहम् ॥५०३॥ __ इति दुःखाकुलां देवीं, मरुदेवीमुदञ्जलिः । वाचाऽवोचन्नवसुधासधीच्या वसुधाधवः ॥ ५०४ ॥ स्थैर्याद्रेर्वज्रसारस्य, महासत्वशिरोमणेः । तातस्य जननी भूत्वा, किमेवं देवि ! ताम्यसि ? ॥ ५०५॥ तातस्तरीतुं सहसा, संसाराम्भोधिमुद्यतः । कण्ठबद्धशिलाप्रायान् , स्थाने तत्याज नः प्रभुः॥ ५०६ ॥ बने विहरतो भर्तुः, प्रभावाच्छापदा अपि । नोपद्रवं कर्तुमलं, पापाणघटिता इव ॥ ५०७॥ क्षुत्पिपासातपप्राया, दुःसहा ये परीषहाः । सहायाः खलु तातस्य, ते कर्मद्वेषिसूदने ॥ ५०८ ॥ न चेत् प्रत्येपि मद्वाचा, प्रत्येष्यसि तथापि हि । तातस्य न चिराजातकेवलोत्सववार्तया ॥ ५०९ ॥ __अत्रान्तरे महीभापितो वेत्रपाणिना । नाम्ना यमक-शमकौ, पुरुषावभ्युपेयतुः ॥ ५१० ॥ प्रणम्य यमकस्तत्र, भरतेशं व्यजिज्ञपत् । दिष्ट्याऽद्य वधसे देवाऽनया कल्याणवार्त्तया ॥५११॥ पुरे पुरिमतालाख्ये, कानने शकटानने । युगादिनाथपादानामुदपद्यत केवलम् ॥ ५१२ ॥ प्रणम्य शमकोऽप्युच्चैःस्वरमेवं व्यजिज्ञपत् । इदानीमायुधागारे, चक्ररत्नमजायत ॥ ५१३ ॥ 3 जलोपद्रवम् । २ ग्रीष्मत्तौं । ३ अस्मान् । भरतं प्रति प्रभुज्ञानोत्प तेश्चकरतो| त्पत्तेश्च युगपनिवेदनम्। ॥८४॥ Jan Education Inter For Private & Personal use only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुदेवया सह भरतस्य प्रभु वन्दनार्थमागमनम्। SESEORANSSEX उत्पन्न केवलस्तात, इतश्चक्रमितोऽभवत् । आदौ करोमि कस्याऽर्चामिति दध्यौ क्षणं नृपः ॥ ५१४ ॥ क्क विश्वाभयदस्तातः ?, क्व चक्रं प्राणिघातकम् ? । विमृश्येति स्वामिपूजाहेतोः स्वानादिदेश सः॥५१५॥ यथोचितमथो दत्त्वा, पुष्कलं पारितोषिकम् । विससर्ज नरेन्द्रस्तौ, मरुदेवामुवाच च ॥५१६ ॥ देवि! त्वं सर्वदाऽपीदमादिक्षः करुणाक्षरम् । भिक्षाहारो यदेकाकी, वत्सो मे दुःखभाजनम् ॥५१७॥ त्रैलोक्यस्वामिताभाजः, स्वसूनोस्तस्य सम्प्रति । पश्य सम्पदमित्युक्त्वाऽऽरोहयामास तां गजे ॥ ५१८॥ सुवर्णवज्रमाणिक्यभूषणैस्तुरगैर्गजैः । पत्तिभिः स्यन्दनमूर्तश्रीमयैः सोऽचलत ततः ॥५१९ ॥ सैन्यैर्भूषणभाःपुञ्जकृतजङ्गमतोरणैः । गच्छन् दूरादपि नृपोऽपश्यद् रत्नध्वजं पुरः ॥ ५२० ॥ मरुदेवामथाऽवादीद्, भरतः परतो ह्यदः । प्रभोः समवसरणं, देवि ! देवैर्विनिर्मितम् ॥ ५२१॥ । अयं जयजयारावतुमुलस्त्रिदिवौकसाम् । श्रूयते तातपादाब्जसेवोत्सवमुपेयुषाम् ॥ ५२२ ॥ गम्भीरमधुरं मातर्दिव्ययं दुन्दुभिनंदन । तनोति हृदयानन्दं, वैतालिक इव प्रभोः॥ ५२३ ॥ खामिपादाब्जवन्दारुवृन्दारकविमानभूः । अनणुः किङ्किणीनादः, श्रवणातिथिरेष नः ॥ ५२४ ॥ खामिदर्शनहृष्टानां, वेडानादो दिवौकसाम् । स्तनितं स्तनयित्ननामिवैष श्रूयते 'दिवि ॥ ५२५॥ . गन्धर्वाणामियं गीतिग्रामरागपवित्रिता । स्वामिवाचो भुजिष्येव, पुष्यत्यानन्दमद्य नः ॥ ५२६॥ शृण्वत्यास्तत् ततो देव्या, मरुदेव्या व्यलीयत । आनन्दाश्रुपयःपूरैः, पङ्कवन्नीलिका दृशोः॥५२७॥ साऽपश्यत् तीर्थकुल्लक्ष्मी, सूनोरतिशयान्विताम् । तस्यास्तद्दर्शनानन्दात् , तन्मयत्वमजायत ॥ ५२८ ॥ मूर्तिमलक्ष्मीमयैः । २ महान् । * किङ्कणीना खंता ॥ ३ कर्णगोचरः । ४ सिंहनादः । । हृदि खंता ॥ निषष्टे. १५ Jain Education Internatione For Private & Personal use only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते 11 64 11 rss क्षपकश्रेणिमपूर्वकरणक्रमात् । क्षीणाष्टकर्मा युगपत् केवलज्ञानमासदत् ॥ ५२९ ॥ करिस्कन्धाधिरूढैव, स्वामिनी मरुदेव्यथ । अन्तकृत्केवलित्वेन, प्रपेदे पदमव्ययम् ॥ ५३० ॥ एतस्यामवसर्पिण्यां, सिद्धोऽसौ प्रथमस्ततः । सत्कृत्य तद्वपुः क्षीरनीरधौ निदधेऽमरैः ॥ ५३१ ॥ तदादि च प्रववृते, लोके मृतकपूजनम् । यत् कुर्वन्ति महान्तो हि, तदाचाराय कल्पते ।। ५३२ ॥ ततो विज्ञाततन्मोक्षो, हर्ष-शुग्भ्यां समं नृपः । अभ्रच्छायाऽर्कतापाभ्यां शरत्काल इवाऽऽनशे ॥ ५३३ ॥ सन्त्यज्य राज्यचिह्नानि, पदातिः सपरिच्छदः । उदग्द्वारेण समवसरणं प्रविवेश सः ।। ५३४ ॥ चतुर्भिर्देवनिकायैः, स्वामी परिवृतस्तदा । ददृशे भरतेशेन, दृक्चकोरनिशाकरः ॥ ५३५ ॥ त्रिश्व प्रदक्षिणीकृत्य, भगवन्तं प्रणम्य च । मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिः स्तोतुमिति चक्री प्रचक्रमे ॥ ५३६ ॥ जयाऽखिलजगन्नाथ !, जय विश्वाभयप्रद ! जय प्रथमतीर्थेश !, जय संसारतारण ! ॥ ५३७ ॥ अद्याऽवसर्पिणीलोकपद्माकरदिवाकर ! । त्वयि दृष्टे प्रभातं मे प्रनष्टतमसोऽभवत् ।। ५३८ ।। तेषां दूरे न लोकाग्रं, कारुण्यक्षीरसागर ! । समारोहन्ति ये नाथ !, त्वच्छासनमहारथम् ।। ५३९ ।। लोकाग्रतोऽपि संसारमग्रिमं देव ! मन्महे । निष्कारणजगद्वन्धुर्यत्र साक्षात् त्वमीक्ष्यसे ॥। ५४० ॥ त्वद्दर्शनमहानन्दस्यन्दनिष्यन्दलोचनैः । खामिन् ! मोक्षसुखाखादः, संसारेऽप्यनुभूयते ॥ ५४१ ॥ रागद्वेषकषायाद्यै, रुद्धं जगदरातिभिः । इदमुद्वेष्यते नाथ !, त्वयैवाऽभयसत्रिणा ॥ ५४२ ॥ नानावस्कन्दसङ्घा महतग्रामभुवो मिथः । मित्रीभूयेह तिष्ठन्ति राजानस्तव पर्पदि ॥ ५४३ ॥ प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । मरुदेव्याः मोक्षः भरतकृतः प्रभुस्तुतिश्च । ॥ ८५ ॥ . Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभप्रभो दशना। संसारस्वरूपम् । त्वत्पर्षद्ययमायातः, करटी करटस्थलीम् । करेण केसरिकर, कृष्ट्वा कण्डूयते मुहुः ॥ ५४४ ॥ इतश्च महिपमिव, महिषोऽयं मुहर्मुहुः, । स्नेहतो जिह्वया मार्टि, हेषमाणमिमं हयम् ॥५४५॥ लीलालोलितलाङ्गल, उत्कर्णोन्नमिताननः । घ्राणेन व्याघ्रवदनं, जिघ्रत्ययमितो मृगः ॥५४६॥ पार्श्वयोरग्रतः पश्चाल्ललन्तं निजपोतवत् । अयं तरुणमार्जारः, समाश्लिष्यति मूपकम् ॥ ५४७ ॥ अयं च निर्भयो भोगं, कुण्डलीकृत्य कुण्डली । अदभ्रबभोरभ्यर्णे, निषीदति वयस्यवत् ॥ ५४८॥ देव! ये केचिदन्येऽपि, जीवाः शाश्वतवैरिणः । निर्वैरास्तेऽत्र तिष्ठन्ति, त्वत्प्रभावोऽसमो ह्ययम् ॥५४९॥ ___ इति स्तुत्वा जगन्नाथमपक्रम्याश्रितक्रमः । निषसाद महीनाथो, घुसन्नाथस्य पृष्ठतः ॥ ५५०॥ क्षेत्रे योजनमात्रेऽपि, सवानां कोटिकोटयः । ममुस्तसिन् निराबाधं, तीर्थनाथप्रभावतः ॥५५१॥ प्रभुर्योजनगामिन्या, सर्वभाषास्पृशा गिरा । पञ्चत्रिंशदतिशयजुषेमा देशनां व्यधात् ॥ ५५२ ॥ ___ आधिव्याधिजरामृत्युज्वालाशतसमाकुलः । प्रदीप्तागारकल्पोऽयं, संसारः सर्वदेहिनाम् ॥ ५५३ ॥ न युज्यते तद् विदुषः, प्रमादोत्र मनागपि । कः प्रमाद्यति बालोऽपि, निशोल्लङ्घये मरुस्थले ? ॥५५४॥ संसाराब्धाविहाऽनेकयोन्यावर्ताकुले जनैः । दुर्लभं मानुषं जन्म, महारत्नमिवोत्तमम् ॥ ५५५ ॥ परलोकसाधनेन, मानुष्यमपि देहिनाम् । पादपो दोहदेनेव, सफलीभवति ध्रुवम् ॥ ५५६ ॥ आपातमात्रमधुराः, परिणामेऽतिदारुणाः । शठवाच इवाऽत्यन्तं, विषया विश्ववञ्चकाः ॥ ५५७ ।। १ गजः । २ शब्दं कुर्वाणम्। *मूषिकम् खं, सं २, मूषिकाम् आ ॥ ३ सर्पः । ४ महानकुलस्य । GAGRA Jain Education Internal For Private & Personal use only . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि - शलाका पुरुषचरिते ॥ ८६ ॥ Jain Education Internati पदार्थानामशेषाणां, संसारोदरवर्तिनाम् । संयोगा विप्रयोगान्ताः, पतनान्ता इवोच्छ्रयाः ।। ५५८ ॥ आयुर्धनं यौवनं च, स्पर्द्धयेव परस्परम् । सत्वरं गत्वराण्येव, संसारेऽस्मिन् शरीरिणाम् ।। ५५९ ॥ 'संसारस्याऽस्य गतिषु चतसृष्वपि जातुचित् । नाऽस्त्येव सुखलेशोऽपि, स्वादु नीरं मराविव ॥ ५६० ॥ तथाहि क्षेत्रदोषेण, परमाधार्मिकैरपि । मिथथाऽऽक्लिश्यमानानां नारकाणां कुतः सुखम् ? ॥ ५६१ ॥ शीतवातातपाम्भोभिर्वधबन्धक्षुदादिभिः । विविधं बाध्यमानानां तिरश्चामपि किं सुखम् ? ॥ ५६२ ।। गर्भवासजनिव्याधिजरादारिद्र्यमृत्युजैः । क्रोडीकृतानामसुखैर्मनुष्याणां कुतः सुखम् १ || ५६३ ॥ अन्योऽन्यमत्सरामर्षकलहच्यवनाऽसुखैः । सुखलेशोऽपि नैवाऽस्ति, कदाचिद् घुसदामपि ॥ ५६४ ॥ अज्ञानाञ्जन्मिनो भूयो भूयः संसारसम्मुखम् । तथापि परिसर्पन्ति नीचाभिमुखमम्बुवत् ।। ५६५ ।। तद् भव्याश्चेतनावन्तो, निजेनाऽनेन जन्मना । मा पोषयत संसारं, दुग्धेनेव भुजङ्गमम् ॥ ५६६ ॥ संसारवासजं दुःखं, विचार्य तदनेकधा । सर्वात्मनाऽपि मोक्षाय, यतध्वं हे विवेकिनः ! ॥ ५६७ ॥ गर्भवासभवं दुःखं, नरकाऽसुखसन्निभम् । संसारवन्न मोक्षेऽस्ति, जीवानां हन्त ! जातुचित् ॥ ५६८ ॥ घटीमध्याकृष्यमाणनारकार्तिसहोदरा । नेह प्रसवजन्माऽपि जायते जातु वेदना ॥ ५६९ ॥ बहिरन्तःपरिक्षिप्तशल्यतुल्या भवन्ति च । नाऽऽधयो व्याधयो नाऽपि तत्र बाधानिबन्धनम् ।। ५७० ।। अग्रदूती कृतान्तस्य, तेजः सर्वस्वतस्करी । पराधीनत्वजननी, न जरा तत्र सर्वथा ॥ ५७१ ॥ सञ्जायते नारकिकतिर्यग्नृधुसदामिव । न तत्र मरणं भूयो भवभ्रमणकारणम् ।। ५७२ ॥ * संयोगाः स्युर्वियोगान्ताः सं १ ॥ + अयं श्लोकः पा. पुस्तके न दृश्यते ॥ १ जन्तोः । २ अङ्कस्थापितानाम् । प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । ऋषभप्रभोदेशना । मोक्षस्वरूपम्) ॥ ८६ ॥ . Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञानम्। सम्यग्दर्शन तयाप्तिक्रमश्न। किन्तु तत्र महानन्दं, सुखमद्वैतमव्ययम् । रूपं च शाश्वतं ज्योतिः, केवलालोकभास्करम् ॥ ५७३ ॥ स च सम्प्राप्यते मोक्षः, शीलयद्भिनिरन्तरम् । ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रितयमुज्वलम् ॥ ५७४ ॥ तत्र जीवादितत्त्वानां, सङ्घपाद् विस्तरादपि । यथावदवबोधो यः, सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ॥ ५७५ ॥ मतिश्रुताऽवधिमनःपर्यायैः केवलेन च । अमीभिः सान्वयैर्भेदैस्तत् तु पञ्चविधं मतम् ॥ ५७६ ॥ अवग्रहादिभिभिन्न, बह्वाधरितरैरपि । इन्द्रियानिन्द्रियभवं, मतिज्ञानमुदीरितम् ॥ ५७७ ॥ विस्तृतं बहुधा पूर्वैरङ्गोपाङ्गैः प्रकीर्णकैः । स्थाच्छब्दलाञ्छितं ज्ञेयं, श्रुतज्ञानमनेकधा ॥ ५७८ ॥ देवनैरयिकाणां स्यादवधिर्भवसम्भवः । षड्विकल्पस्तु शेषाणां, क्षयोपशमलक्षणः ॥ ५७९ ॥ ऋजुर्विपुल इत्येवं, स्यान्मनःपर्ययो द्विधा । विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां, तद्विशेषोऽवगम्यताम् ॥ ५८० ॥ अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनन्तमेकमत्यक्षं, केवलज्ञानमुच्यते ॥ ५८१॥ रुचिः श्रुतोक्ततत्त्वेषु, सम्यक्श्रद्धानमुच्यते । जायते तनिसर्गेण, गुरोरधिगमेन वा ॥ ५८२॥ तथाह्यनाद्यन्तभवावर्त्तवर्तिषु देहिषु । ज्ञानदृष्ट्यावृतिवेद्यान्तरायाभिधकर्मणाम् ॥ ५८३ ॥ सागरोपमकोटीनां, कोट्यस्त्रिंशत् परा स्थितिः । विंशतिर्गोत्रनाम्नोश्च, मोहनीयस्य सप्ततिः ॥ ५८४ ॥ ततो गिरिसरिद्वावघोलनान्यायतः स्वयम् । श्रीयन्ते सर्वकर्माणि, फलानुभवतः क्रमात् ।। ५८५॥ एकोनत्रिंशदेकोनविंशत्येकोनसप्ततीः । सागराणां कोटिकोटीः, स्थितिमुन्मूल्य कर्मणाम् ॥ ५८६ ॥ देशोनैकावशिष्टाब्धिकोटिकोटौ तु जन्मिनः । यथाप्रवृत्तिकरणाद्, ग्रन्थिदेशं समिति ॥५८७॥ [युग्मम् ] रागद्वेषपरीणामो, दुर्भेदो ग्रन्थिरुच्यते । दुरुच्छेदो दृढतरः, काष्ठादेवि सर्वदा ॥ ५८८ ॥ Jan Education international Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते 11 20 11 तीराभ्यर्णान्महापोता, इव वातसमाहताः । रागादिप्रेरिताः केऽपि, व्यावर्त्तन्ते ततः पुनः ॥ ५८९ ॥ तत्रैव तत्परीणामविशेषादासतेऽपरे । स्थलस्खलितगमनान्यम्भांसि सरितामिव ।। ५९० ॥ अपरे ये पुनर्भव्या, भाविभद्राः शरीरिणः । आविष्कृत्य परं वीर्यमपूर्वकरणेन ते ।। ५९१ ॥ अतिक्रामन्ति सहसा तं ग्रन्थि दुरतिक्रमम् । अतिक्रान्तमहाध्वानो, घट्टभूमिमिवाऽध्वगाः ॥ ५९२ ॥ अथाऽनिवृत्तिकरणादन्तरकरणे कृते । मिथ्यात्वं विरलीकृत्य, चतुर्गतिकजन्तवः ॥ ५९३ ॥ आन्तर्मुहूर्त्तिकं सम्यग्दर्शनं प्राप्नुवन्ति यत् । निसर्गहेतुकमिदं, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते ॥ ५९४ ॥ [युग्मम् ] गुरूपदेशमालम्व्य, भव्यानामिह देहिनाम् । सम्यक् श्रद्धानं तु यत् तद्, भवेदधिगमोद्भवम् ।। ५९५ ।। तच्च स्यादौपशमिकं, साखादनमथाऽपरम् । क्षायोपशमिकं वेद्यं, क्षायिकं चेति पञ्चधा ॥ ५९६ ॥ तत्रौपशमिकं भिन्नकर्मग्रन्थेः शरीरिणः । सम्यक्त्वलाभे प्रथमेऽन्तर्मुहूर्त्तं प्रजायते ॥ ५९७ ॥ तथोपशान्तमोहस्योपशमश्रेणियोगतः । मोहोपशमजमौपशमिकं तु द्वितीयकम् ॥ ५९८ ॥ त्यक्तसम्यक्त्वभावस्य, मिथ्यात्वाभिमुखस्य च । तथाऽभ्युदीर्णानन्तानुबन्धिकस्य शरीरिणः ।। ५९९ ।। यः सम्यक्त्वपरीणाम, उत्कर्षेण पडावलिः । जघन्येनैकसमयस्तत् साखादनमीरितम् ॥ ६०० ॥ अथ तृतीयं मिथ्यात्वमोहक्षयशमोद्भवम् । सम्यक्त्वपुद्गलोदयपरिणामवतो भवेत् ॥ ६०१ ॥ वेदकं नाम सम्यक्त्वं, क्षपकश्रेणिमीयुषः । अनन्तानुबन्धिनां तु, क्षये जाते शरीरिणः । ६०२ ॥ मिथ्यात्वस्याऽथ मिश्रस्य, सम्यग् जाते परिक्षये । क्षायिकसम्मुखीनस्य, सम्यक्त्वाऽन्त्यांशभोगिनः।।६०३ || शुभभावस्य प्रक्षीणसप्तकस्य शरीरिणः । सम्यक्त्वं क्षायिकं नाम, पञ्चमं जायते पुनः ॥ ६०४ ॥ प्रथमं पर्व तृतीयः सर्गः ऋषभ चरितम् । सम्यक्त्वस्य औपशमिका दयः रोचकादयश्च भेदास्तत्स्वरूपं च । ॥ ८७ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वस्थ लक्षणानि । SAUSAISESSISSES ROSESSIS सम्यग्दर्शनमेतच्च, गुणतस्त्रिविधं भवेत् । रोचकं दीपकं चैव, कारकं चेति नामतः॥६०५॥ तत्र श्रुतोक्ततत्त्वेषु, हेतूदाहरणैर्विना । दृढा या प्रत्ययोत्पत्तिस्तद् रोचकमुदीरितम् ॥ ६०६ ॥ दीपकं तद् यदन्येषामपि सम्यक्त्वदीपकम् । कारकं संयमतपःप्रभृतीनां तु कारकम् ॥ ६०७ ॥ शम-संवेग-निर्वेदा-ऽनुकम्पा-ऽऽस्तिक्यलक्षणैः । लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक्, सम्यक्त्वं तत् तु लक्ष्यते॥६०८॥ अनन्तानुबन्धिकषायाणामनुदयः शमः । स प्रकृत्या कषायाणां, विपाकेक्षणतोऽपि वा ॥ ६०९॥ ध्यायतः कर्मविपाकं, संसारासारतामपि । यत् स्याद् विषयवैराग्यं, स संवेग इतीरितः॥ ६१०॥ संसारवासः कारैव, बन्धनान्येव बन्धवः । ससंवेगस्य चिन्तेयं, या निर्वेदः स उच्यते ॥ ६११॥ एकेन्द्रियप्रभृतीनां, सर्वेषामपि देहिनाम् । भवाब्धौ मजतां क्लेशं, पश्यतो हृदयार्द्रता ॥ ६१२ ॥ तदुःखैर्दुःखितत्वं च, तत्प्रतीकारहेतुषु । यथाशक्ति प्रवृत्तिश्चेत्यनुकम्पाभिधीयते ॥ ६१३॥ [युग्मम्] तत्त्वान्तराकर्णनेऽपि, या तत्त्वेष्वाहतेषु तु । प्रतिपत्तिनिराकासा, तदास्तिक्यमुदीरितम् ॥ ६१४ ॥ सम्यग्दर्शनमित्युक्तं, प्राप्तावस्य क्षणादपि । मत्यज्ञानं पुराऽभूद् यत्, तन्मतिज्ञानतां व्रजेत् ॥ ६१५॥॥ जन्मिनो यच्छ्रताऽज्ञानं, तच्छृतज्ञानतां भजेत् । विभङ्गज्ञानमवधिज्ञानभावं च गच्छति ॥ ६१६ ॥ ___ सर्वसावद्ययोगानां, त्यागश्चारित्रमिष्यते । कीर्तितं तदहिंसादिवतभेदेन पञ्चधा ॥ ६१७ ॥ अहिंसा-सूनृता-ऽस्तेय-ब्रह्मचर्या-ऽपरिग्रहाः । पञ्चभिः पञ्चभिर्युक्ता भावनाभिर्विमुक्तये ॥ ६१८॥ न यत् प्रमादयोगेन, जीवितव्यपरोपणम् । सानां स्थावराणां च, तदहिंसावतं मतम् ॥ ६१९॥ प्राणापहरणम् । सम्यक चारित्रम् । सर्वविरतिः। For Private & Personal use only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते तृतीयः सर्गः ऋषभचरितम् । ॥८८॥ देशविरतिः प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं, सूनृतव्रतमुच्यते । तत् तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ ६२० ॥ अनादानमदत्तस्याऽस्तेयव्रतमुदीरितम् । बाह्याः प्राणा नृणामों, हरता'तं हता हि ते ॥६२१॥ दिव्यौदारिककामानां, कृताऽनुमतकारितैः । मनोवाकायतस्त्यागो, ब्रह्माऽष्टादशधोदितम् ॥ ६२२॥ सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । यदसत्स्वपि जायेत, मूर्च्छया चित्तविप्लवः ॥ ६२३ ॥ सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतच्चारित्रमीरितम् । यतिधर्मानुरक्तानां, देशतः स्यादगारिणाम् ॥ ६२४ ॥ सम्यक्त्वमूलानि पञ्चाऽणुव्रतानि गुणास्त्रयः । शिक्षापदानि चत्वारि, ब्रतानि गृहमेधिनाम् ॥६२५॥ पङ्गुकुष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः। निरागस्त्रसजन्तूनां, हिंसां सङ्कल्पतस्त्यजेत् ॥ ६२६ ॥ मन्मनत्वं काहलत्वं, मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्याऽसत्यफलं कन्यालीकाद्यसत्यमुत्सृजेत् ॥ ६२७ ॥ कन्यागोभूम्यलीकानि, न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्यं च पश्चेति, स्थूलासत्यानि सन्त्यजेत् ॥ ६२८॥ दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्यमङ्गच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा, स्थूलस्तेयं विवर्जयेत् ॥ ६२९॥ पण्डत्वमिन्द्रियच्छेदं, वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः । भवेत् खदारसन्तुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥६३०॥ असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्छाफलं कुर्यात, परिग्रहनियत्रणम् ॥६३१॥ दशस्वपि कृता दिक्षु, यत्र सीमा न लङ्घयते । ख्यातं दिग्विरतिरिति, प्रथमं तद् गुणवतम् ॥ ६३२ ॥ भोगोपभोगयोः सङ्ख्या, शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद् , द्वैतीयीकं गुणव्रतम् ॥ ६३३ ॥ आर्त रौद्रमपध्यानं, पापकर्मोपदेशिता । हिंसोपकारिदानं च, प्रमादाचरणं तथा ॥ ६३४॥ १ अर्थम् । २ ब्रह्मचर्यम् । ३ मोहस्य । ४ गृहस्थानाम् । ASSASSUOSIOSSASSIC ॥८८॥ Jan Education Internation1 For Private & Personal use only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभसेनादीनां दीक्षा। शरीराद्यर्थदण्डस्य, प्रतिपक्षतया स्थितः । योऽनर्थदण्डस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणव्रतम् ।। ६३५॥ त्यक्तात्रोद्रध्यानस्य, त्यक्तसावद्यकर्मणः । मुहूर्त समता या तां, विदुः सामायिकवतम् ॥ ६३६॥ दिखते परिमाणं यत् , तस्य सद्धेपणं पुनः। दिने रात्रौ च देशावकाशिकवतमुच्यते ॥ ६३७॥ चतुष्पा चतुर्थादि, कुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचयक्रिया स्नानादित्यागः पौषधव्रतम् ॥ ६३८ ॥ दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागव्रतमुदीरितम् ॥ ६३९ ॥ रत्नत्रयमिदं सम्यग्, यतिभिः श्रावकैरपि । उपासनीयं सततं, निर्वाणप्राप्तिहेतवे ॥ ६४०॥ __ आकर्ण्य देशनामेवमुत्थाय भरतात्मजः । ऋषभस्वामिनं नत्वार्षभसेनो व्यजिज्ञपत् ॥ ६४१॥ खामिनिह भवारण्ये, कपायदवदारुणे । नव्याम्बुद इवाऽवर्षस्तत्त्वामृतमनुत्तरम् ॥ ६४२ ॥ तरण्ड इव मजद्भिः, प्रपेव च पिपासितैः । कृशानुरिव शीतातैस्तापातरिख पादपः ॥ ६४३ ॥ ध्वान्तमग्नैर्दीप इव, निधिदौस्थ्यस्थितैरिव । विषादितैरिव सुधा, रोगितैरिव भेषजम् ॥ ६४४ ॥ विक्रान्तद्विषदाक्रान्तैरिव दुर्ग जगत्पते ।। भवभीतरसि प्राप्तो, रक्ष रक्ष दयानिधे ॥६४५॥[त्रिभिर्विशेषकम्]| पितृभिभ्रातृभिभ्रातपुत्रैरन्यैश्च बन्धुभिः । अनाप्तैरिव पर्याप्तं, भवभ्रमणहेतुभिः ॥ ६४६ ॥ जगच्छरण्य ! शरणं, संसारार्णवतारण त्वामेवाऽऽश्रितवानस्मि, दीक्षां देहि प्रसीद मे ॥६४७॥ [युग्मम् ] उक्त्वेति भरतस्याऽन्यैरेकोनैः पञ्चभिः शतैः । पुत्राणां प्रावजत् पौत्रसप्तशत्या च सोन्वितः॥ ६४८॥ भर्तुः केवलिमहिमां, क्रियमाणां सुरासुरैः। दृष्ट्वा मरीचिर्भरततनयो व्रतमग्रहीत् ॥ ६४९ ॥ * पुत्रैः पौत्रसप्तशत्या, चाऽन्वितो व्रतमाददे आ, सं ॥ RRERAKASHARASHAS विक्रान्ताद्विपदा भातपुत्ररन्यैश्च बन्धुमिलामेवाऽऽश्रितवान For Private & Personal use only . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥८९॥ विसृष्टा भरतेशेन, ब्रायपि व्रतमग्रहीत् । गुरूपदेशः साक्ष्येव, प्रायेण लघुकर्मणाम् ॥ ६५०॥ प्रथमं पर्व विमुक्ता बाहुबलिना, जिघृक्षुः सुन्दरी व्रतम् । भरतेन निषिद्धा तु, श्राविका प्रथमाऽभवत् ॥६५१॥ीय भरतः स्वामिपादान्ते, श्रावकत्वमशिश्रियत् । न हि भोगफले कर्मण्यभुक्ते भवति व्रतम् ॥ ६५२॥ सर्गः नरतिर्यक्सुरेष्वेके, तदानीं जगृहुर्बतम् । श्रावकत्रतमन्ये तु, सम्यक्त्वमपरे पुनः॥ ५३॥ ऋषभते चं कच्छमहाकच्छवर्ज राजन्यतापसाः । आगत्य स्वामिनः पार्श्व, दीक्षामाददिरे मुंदा ॥ ६५४॥ चरितम् । साधवः पुण्डरीकाद्याः,साव्यो ब्राह्मीपुरस्कृताः। श्रावका भरतावास्तु,श्राविकाः सुन्दरीमुखाः॥६५५॥॥ चतुर्विधस्य सङ्घस्य, व्यवस्थेयं तदाऽभवत् । अद्यापि वर्त्तते सेयं, धर्मस्य परमं गृहम् ॥ ६५६ ॥ चतुर्विधसङ्घतदानीं चतुरशीतेर्गणभृन्नामकर्मणाम् । तिनामृषभसेनप्रभृतीनां सुमेधसाम् ॥ ६५७ ॥ हास्य गणधराणां उत्पादो विगमो ध्रौव्यमिति पुण्यां पदत्रयीम् । उद्दिदेश जगन्नाथः, सर्ववाङ्मयमातृकाम् ॥ ६५८ ॥ लाच स्थापनम्। सचतुर्दशपूर्वाणि, द्वादशाङ्गानि ते क्रमात् । ततो विरचयामासुस्तत्रिपद्यनुसारतः ॥६५९॥ अथाऽऽदाय दिव्यचूर्णपूर्ण स्थालं पुरन्दरः । देववृतो देवदेवपादान्तं समुपास्थित ॥ ६६०॥ अथोत्थाय गणभृतां, चूर्णक्षेपं यथाक्रमम् । कुर्वाणः सूत्रेणाऽर्थेन, तथा तदुभयेन च ॥६६१॥ द्रव्यैर्गुणैः पर्यायैश्च, नयैरपि जगत्पतिः । ददावनुयोगानुज्ञां, गणानुज्ञामपि स्वयम् ॥ ६६२॥ ततोऽमरा नरा नार्यो, दुन्दुभिध्यानपूर्वकम् । वासक्षेपं विदधिरे, तेषाभुपरि सर्वतः॥ ६६३॥ तस्थुर्गणधरास्तेऽपि, रचिताञ्जलिसम्पुटाः । स्वामिवाचं प्रतीच्छन्तो, मेघाम्भ इव पादपाः॥६६४॥ ।॥८९॥ + तु खंता ॥ तदा खंता । - For Private & Personal use only . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिः । मृगेन्द्रासनमारुह्य, पूर्ववत् पूर्वदिशुखः । अनुशिष्टिमयीं खामी, विदधे देशनां पुनः ॥ ६६५ ॥ देशनोद्दामवेलायाः, स्वामिवारिधिजन्मनः । मर्यादायाः प्रतिरूपा, तदाऽपूर्यत पौरुपी ॥६६६॥ ___ अत्रान्तरे च कलमैरखण्डैर्निस्तुपोज्वलैः । विनिर्मितश्चतुःप्रस्थीप्रमाणः स्थालसंस्थितः ॥ ६६७ ॥ दिविषन्निहितैर्गन्धैर्द्विगुणीकृतसौरभः । प्रधानपुरुषोत्क्षिप्तो, भरतेश्वरकारितः॥ ६६८॥ देवदुन्दुभिनिर्घोषप्रतिघोषितदिअखः । अन्वीयमानः प्रोद्गीतमङ्गलैर्ललनाजनैः ॥ ६६९ ॥ पौरैः खामिप्रभावोत्थपुण्यराशिरिवाऽऽवृतः । पूर्वद्वारेण समवसरणे प्राविशद् बलिः ॥६७० ॥ प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य, सोऽक्षिप्यत बलिः पुरः । वस्तुं कल्याणसस्यानामिव बीजमनुत्तमम् ॥ ६७१ ॥ अन्तरिक्षानिपततोऽन्तरालेऽपि समाददे । तस्यार्धममरैर्मेघपानीयमिव चातकैः ॥ ६७२॥ तस्य भूमिगतस्याऽय, जग्राह भरतेश्वरः। शेषं तु गोत्रिण इव, विभज्य जगृहुर्जनाः ॥ ६७३ ॥ पूर्वोत्पन्नाः प्रणश्यन्ति, रोगाः सर्वे नवाः पुनः । षण्मासान् नैव जायन्ते, बलेस्तस्य प्रभावतः॥६७४॥ अथोत्थायोत्तरद्वारवर्मना निर्ययौ प्रभुः । अन्वीयमानो देवेन्द्रः, पद्मखण्ड इवालिभिः॥६७५ ॥ रत्नमयस्वर्णमयवप्रयोरन्तरस्थिते । व्यश्राम्यद् भगवान् देवच्छन्द ईशानदिस्थिते ॥ ६७६ ॥ तदानीमृषभसेनो, गणभृन्मुखमण्डनम् । भगवत्पादपीठस्थो, विदधे धर्मदेशनाम् ॥ ६७७॥ स्वामिनः खेदविनोदः, शिष्याणां गुणदीपना । उभयतः प्रत्ययश्च, गणभृदेशनागुणाः ॥ ६७८ ॥ तस्मिन् गणधरे धर्मदेशनाविरते सति । प्रणम्य खामिनं सर्वे, स्थानं निजनिजं ययुः ॥ ६७९॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते सर्गः ॥९ ॥ तीर्थ तत्र समुत्पन्नो, गोमुखो नाम गुंह्यकः। वराऽक्षमालाशालिभ्यां, दोभ्या दक्षिणपार्श्वतः॥६८०॥ मातुलिङ्गपाशभृयां, वामदोभ्या॑ च शोभितः। हेमवर्णो गजरथः, पार्श्वस्थोऽभूत् ततो विभोः॥६८१॥ युग्मम्]18 तृतीयः नामतोऽप्रतिचक्रेति, हेमामा गरुडासना । वरप्रदेषुभृच्चक्रिपाशिभिर्दक्षिणैर्भुजैः॥ ६८२ ॥ वामहस्तैर्धनुर्वनचक्राङ्कुशधरैर्युता । तत्तीर्थभूरभृत् पायें, भर्तुः शासनदेवता ॥ ६८३॥ [युग्मम् ] ऋषभततो विहर्तुमन्यत्र, जगाम भगवानपि । महर्षिभिः परिवृतो, नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः ॥ ६८४ ॥ चरितम् । गच्छतः स्वामिनोऽभूवन् , भक्त्येव तरखो नताः । अधोमुखाः कण्टकाच, शकुनाश्च प्रदक्षिणाः ॥ ६८५॥ ऋत्विन्द्रियार्थानुकूल्यं, वायोरप्यनुकूलता । भर्जिघन्यतोऽप्यासीत , पार्श्वे कोटिर्दिवौकसाम् ॥ ६८६॥ यक्ष-यक्षिण्यो भवान्तरोद्भुतकर्मच्छेदालोकभयादिव । नाऽवर्धन्त कचाः श्मश्रु, नखाश्च त्रिजगत्पतेः ॥ ६८७॥ ऋषभप्रभोखाम्यगाद् यत्र नो तत्र, वैरमारीत्यवृष्टयः । दुर्भिक्षमतिवृष्टिा, भये च स्वाऽन्यचक्रजे ॥ ६८८ ॥ विहारः, विश्वविमयकरैरिति प्रभु भिभूरतिशयैः समन्वितः । संसरजगदनुग्रहैकधीः, मामिमां विहरति स्म वायुवत् ॥ ६८९ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि भगवदीक्षा-छद्मस्थविहार-केवलज्ञान-समवसरणव्यावर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ॥३॥ ॥९०॥ अतिशयाश्च। ** यक्षकः सं १॥ मातुलिङ्गः “बीजोरु" इति भाषायाम् । २ मारी रोगोपद्रवः, ईतयः प्रसिद्धवाः । ३ स्वचक्र परचक्रजाते भये। Jain Education Internatio For Private & Personal use only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः। इतश्च भरतश्चक्री, विनीतामध्यवर्त्मना । प्रययावायुधागारं, चक्रस्योत्कोतिथेखि ॥१॥ तदालोकनमात्रेऽपि, प्रणनाम महीपतिः । मन्यन्ते क्षत्रिया वस्त्र, प्रत्यक्षमधिदैवतम् ॥२॥ रोमहस्तकमादाय, भरतस्तदमार्जयत् । भक्तानां प्रक्रिया ह्येषा, न रत्ने तादृशे रजः॥३॥ स्रपयामास तत् तोयैः, पावनैरवनीपतिः । उदयन्तमिव प्रायसरित्पतिरहर्पतिम् ॥ ४॥ स्थासकान् स्थापयामास, तत्र पूज्यत्वशंसिनः । पृष्ठे धुर्यगजस्येव, राजा गोशीर्षचन्दनैः॥५॥ पुष्पैर्गन्धैचूर्णवासर्वासोभिभूषणैरपि । नृपस्तत् पूजयामास, साक्षादिव जयश्रियम् ॥ ६॥ तस्याग्रे तन्दुलै रौप्यैरालिखत सोऽष्टमङ्गलीम् । पृथक पृथग् मङ्गलायेवैष्यदष्टककुश्रियाम् ॥ ७॥ पञ्चवर्णैश्च कुसुमैरुपहारं तदग्रतः । विचित्रचित्रामवनी, कुर्वाणमकरोन्नृपः ॥८॥ दिव्यचन्दनकर्पूरप्रायं धूपमथोत्तमम् । नृपः प्रयत्नाच्चकाग्रे, द्विपद्यश इवाऽदहत् ॥ ९॥ विश्व प्रदक्षिणीचक्रे, चक्र चक्रधरस्ततः । पदान्यपागात् सप्ताष्टान्यवग्रहाद् गुरोरिव ॥१०॥ वामं जानु समाकुश्य, दक्षिणं न्यस्य च क्षितौ । राजा चक्रं नमश्चक्रे, तमिव प्रणयी जनः॥११॥ तत्रैव च कृतावासश्चक्रस्याऽष्टाहिकोत्सवम् । चकार साकार इव, प्रमोदो मेदिनीपतिः ॥ १२ ॥ चक्रपूजोत्सवश्चक्रे, पौरैरपि महर्द्धिभिः। पूजितैः पूज्यमानो हि, केन केन न पूज्यते ? ॥१३ ।। त्रिषष्टि. १६ 1 उत्कण्ठितः । २ प्रमार्जनसाधनविशेषम् । ३ प्रक्रमः रीतियां ।। पूर्वसमुद्रः । ५ "थापा" इति भाषायाम् । राजानम् । For Private & Personal use only . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व चतुर्थः ॥९१॥ सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । तस्योपयोगमादित्सुश्चक्ररत्नस्य दिग्जयम् । स्नानागारं ययौ राजा, मङ्गलस्नानहेतवे ॥ १४ ॥ विमुक्ताभरणश्रेणिः, शुभस्नानीयवस्त्रभृत् । न्यषदत् प्राअखस्तत्र, स्नानसिंहासने नृपः ॥१५॥ सुरपुष्पनिर्यासमयैरिव सुगन्धिभिः । सहस्रपाकप्रमुखस्तैलैरभ्याञ्जि भृपतिः॥१६॥ संवाहनाभिर्मासा-अस्थि-त्वग्-रोमसुखहेतुभिः । चतुर्विधाभिस्त्रिविधैर्मुदुमध्यद्वैः करैः ॥१७॥ मर्दनीयामर्दनीयस्थानविज्ञाः कलाविदः । नृपं संवाहयामासुः, संवाहकनरास्ततः॥१८॥ आदर्शमिव भूपालमम्लानद्युतिभाजनम् । सूक्ष्मेण दिव्यचूर्णेनोद्वर्त्तयामासुराशु ते ॥१९॥ काश्चित करोद्धृतवर्णपयस्कुम्भा वरस्त्रियः । उन्नालनव्यनलिना, इव लावण्यवापयः ॥२०॥ स्त्यानीभूय पयांसीव, गतान्याधारतामपाम् । राजतानम्बुकलसान् , बिभ्रत्यः काश्चिदङ्गनाः ॥२१॥ लीलानीलोत्पलभ्रान्तिदायिनश्चारुपाणिषु । इन्द्रनीलपयस्कुम्भान्, दधानाः काश्चन स्त्रियः ॥२२॥ नखरत्नप्रभाजालवर्द्धमानाधिकश्रियः । दिव्यरत्नमयान् कुम्भान् , बिभ्रत्यः सुभ्रुवोऽपराः ॥२३॥ सुगन्धिभिः पवित्राम्बुधाराभिर्धरणीधवम् । क्रमेण स्नपयामासुर्जिनेन्द्रमिव देवताः ॥ २४ ॥ कृतस्नानोऽथ भूपालः, कृतदिव्यविलेपनः । वासोभिः शोभितः शुभैः, ककुब्भासैरिवाभितः ॥ २५ ॥ ललाटपट्टे मङ्गल्यं, चान्दनं तिलकं दधत् । यशोदुमस्याऽभिनवं, प्ररोहन्तमिवाऽङ्करम् ॥२६॥ मुक्तामयानलङ्कारान्, खयशःपुञ्जनिर्मलान् । तारकाप्रकरांस्तारांस्तारापथ इवोद्वहन् ॥ २७॥ चश्चन्मरीचिनिचयव्रीडितोष्णमरीचिना । प्रासादः कलसेनेव, किरीटेन विभूषितः ॥ २८॥ मुहुरुत्क्षिप्यमाणाभ्यां, वारनारीकराम्बुजैः । कर्णोत्तंसायमानाभ्यां, चामराभ्यां विराजितः ॥२९॥ भरतस्य दिग्जयार्थ प्रयाणम् ।। ॥९१॥ For Private & Personal use only T . Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa स्वर्णकुम्भभृता श्वेतातपत्रेणोपशोभितः । श्रीसद्मपद्मभृत्पद्मदेन हिमवानिव ॥ ३० ॥ सर्वदा सन्निधानस्यैः, प्रतीहारैरिवाऽभितः । भक्तैः षोडशभिर्यक्षसहस्रैः परिवारितः ॥ ३१ ॥ उत्तुङ्गकुम्भशिखरस्थगितैकद्गिाननम् । आरोहद् वासव इवैरावणं रत्नकुञ्जरम् ॥ ३२ ॥ स गर्जन्नूर्जितं नागकुञ्जरस्तत्क्षणादभृत् । उद्दाममदधाराभिर्धाराधर इवाऽपरः ।। ३३ ।। उत्क्षिप्य पाणीन् कुर्वाणैर्दिवं पल्लवितामिव । युगपद् वैन्दिनां वृन्दैश्चक्रे जयजयारवः ॥ ३४ ॥ दुन्दुभिस्ताड्यमानोऽथ नदन्नुच्चैर्दिशोऽपि हि । नादयामास मुखरंगायनो गायनीरिव ॥ ३५ ॥ दूतीभूतानि निःशेषसैनिकाह्वानकर्मणि । प्रणेदुर्वर्यतूर्याणि, मङ्गलान्यपराण्यपि ॥ ३६ ॥ गजैः सिन्दूरभृत्कुम्भैः, सधातुभिरिवाऽद्रिभिः । अश्वैरनेकधाभूतरेवन्ताश्वभ्रमप्रदैः ॥ ३७ ॥ मनोरथैरिव निजैर्विशालैश्च महारथैः । पत्तिभिश्च महौजोभिः सिंहरिव वशंवदैः ॥ ३८ ॥ प्रचचाल महीपालः पूर्वं पूर्वां दिशं प्रति । संव्यानमिव तन्वानः, सैन्योत्थैः पांशुभिर्दिशाम् ॥ ३९ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] तत्सैन्याग्रेसरं यक्षसहस्राधिष्ठितं ततः । चक्रेरत्नमभूद् विम्बं भानोखि नभश्वरम् ॥ ४० ॥ दण्डरंनधरो वाजिनमारुह्य तत्परः । नाम्ना सुषेण: सेनानीरत्नं चक्रमिवाऽचलत् ॥ ४१ ॥ निःशेषशान्तिकविधौ, शान्तिमन्त्र इवाऽङ्गवान् । पुरोधोरत्नमचलत्, समं वसुमतीभुजा ॥ ४२ ॥ बन्दिवृन्देन च खंता सं २ ॥ २ मुख्य * जात्यकु सं १ आ ॥ १ मेघः । + कुर्वाणान् दिवं खंता ॥ गायकः । ३ सूर्याश्वाः । ४ महापराक्रमैः । ५ वस्त्रम् । १ तत्पुरः सं १ खं ॥ चक्रिणां रत्नानि । . Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ ९२ ॥ Jain Education Internat सैन्ये प्रत्याश्रयं दिव्यभोजनापादनक्षमम् । अचालीद् गृहिरत्नं च, संत्रशालेव जङ्गमा ॥ ४३ ॥ स्कन्धावारादि निर्मातुं, विश्वकर्मेव सत्वरम् । अलं वर्धकिरत्नं च चचाल सह भूभुजा ॥ ४४ ॥ चचाल चर्मरत्नं च च्छंत्ररत्नमिवाऽद्भुतम् । चक्रिणः सकलस्कन्धावारविस्तारशक्तिमत् ॥ ४५ ॥ रत्ने च मणि-काकिण्यौ, ध्वान्तविध्वंसनक्षमे । सह प्रचेलतुर्भाभिः, सूर्याचन्द्रमसाविव ।। ४६ ।। ययौ सह नरेन्द्रेण, खरत्नं च भासुरम् । सुरासुरवरास्त्राणामिव सारैर्विनिर्मितम् ॥ ४७ ॥ ततश्च सचमूचक्रश्चक्रभृद् भरतेश्वरः । प्रतीहारानुग इवाऽगमञ्चक्रानुगः पथि ॥ ४८ ॥ पवनेनाऽनुकूलेनाऽनुकूलैः शकुनैरपि । सर्वतो दिग्जयस्तस्याऽशंसि ज्यौतिषिकैरिव ॥ ४९ ॥ विषमं सुषमीच, सैन्यस्य पुरतो व्रजन् । सेनानीर्दण्डरलेन, मतेनेव कृषिः क्षितिम् ॥ ५० ॥ रुरुचे पृतनोद्भूतरजोभिः कृतदुर्दिनम् । रथद्विपपताकाभिर्बलाकाभिरिवाऽम्बरम् ॥ ५१ ॥ अदृश्यमानपर्यन्ता, सा चमूचक्रवर्त्तिनः । गङ्गाऽलक्षि द्वितीयेव, सर्वत्राऽप्यस्खलद्गतिः ॥ ५२ ॥ चीकृतैः स्यन्दना वाहा, हेषितैर्गर्जितैर्गजाः । अतत्वरन्निवाऽन्योऽन्यं, दिग्जयोत्सवकर्मणे ॥ ५३ ॥ अद्युतन् सादिनां कुन्ताश्चमृत्खाते रजस्यपि । हसन्त इव तच्छन्नान् दीधितीनुष्णदीधितेः ॥ ५४ ॥ आबद्धमुकुटै रेजे, राजभी राजकुञ्जरः । भक्तिमद्भिर्वृतो गच्छन्, शक्रः सामानिकैरिव ।। ५५ ।। गत्वा योजनपर्यन्ते तच्च चक्रमवास्थित । जज्ञे योजनमानं च तत्प्रयाणानुमानतः ॥ ५६ ॥ ततो योजनमानेंन, प्रयाणेन व्रजन् नृपः । गङ्गाया दक्षिणं कूलं, प्रापत् कतिपयैर्दिनैः ॥ ५७ ॥ १ दानशाला । २ देवशिल्पी । ३ सूर्यस्य । प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रि चरितम् । भरतस्य दिग्जयार्थ प्रयाणम् । ॥ ९२ ॥ . Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपोऽपि विपुलां गङ्गापुलिनोवीं निरन्तरैः । विविधैः सङ्कटीकुर्वनावासैर्विश्रमं व्यधात् ॥ ५८ ॥ क्षरत्करिमदाम्भोभिः, पङ्किला कूलमेदिनी । तदा मन्दाकिनीनद्याः, प्रावृट्काल इवाऽभवत् ॥ ५९॥ जाह्नवीस्रोतसि खच्छे, स्वच्छन्दं जगृहुस्ततः । वारीणि वारणवरा, वारिधौ वारिदा इव ॥६॥ अतिपारिप्लवत्वेनोत्प्लवमाना मुहुर्मुहुः । तत्र सस्नुस्तुरङ्गाश्च, तरङ्गभ्रमदायिनः ॥ ६१ ॥ सम्प्रविष्टैः श्रमादन्तर्गजाश्वमहिषोक्षभिः । जातनूतनंनव, चक्रे विष्वक् सरिद्वरा ॥ ६२॥ अनुकूलयितुं कूलस्थितं नृपमिवाऽञ्जसा । श्रमं गङ्गाज्हरच्चम्बास्तरङ्गोद्भूतसीकरैः ॥ ६३ ॥ महीभुजः सेव्यमाना, महत्या सेनया तया । कुशीवभूव गङ्गाऽपि, सद्यः कीर्तिखि द्विषाम् ॥ ६४ ॥ तत्सैन्यगजराजानामयलालानतां ययुः । भागीरथीतीररुहो, देवदारुमहीरुहाः ॥ ६५ ॥ अश्वत्थसल्लकीकर्णिकारोदुम्बरपल्लवान् । लुलुवुः पशुभिर्हस्तिकृते हेस्तिपकाः क्षणात् ॥ ६६ ॥ कुर्वाणास्तोरणानीवोन्नमितेः कर्णपल्लवैः । विरेजुर्वाजिनो बद्धाः, श्रेणीभूताः सहस्रशः ।। ६७ ॥ मैकुष्ठ-मुद्ग-चणक-यवादीनि जवात् पुरः । बन्धूनामिव निदधुरश्वानामश्वपालकाः ॥ ६८॥ बभूवुः शिबिरे तत्र, चत्वराणि त्रिकाणि च । आपणानां श्रेणयश्च, विनीतायामिव क्षणात् ॥ ६९॥ गुप्यद्गुरुस्थूलपटकुटीभिः पटचारुभिः । नासरन् पूर्वसौधानां, सुस्थिताः सर्वसैनिकाः ॥७॥ शमीकर्कन्धुबब्बूलपायान् दूंन लिलिहुर्मयाः। दिशन्त इव सैन्यानां, कार्य कण्टकशोधनम् ॥ ७१॥ तटमेदिनी। २ उत्तमगजाः। * °णवारा सं॥ ३ अतिवेगेन। जनचक्रेव, खंता ॥ ४ मत्स्य विशेषाः। | तदा कतिपयैदिनैः सं ॥ ५ महामात्राः। ६ धान्यकणविशेषाः। - वृक्षान्। ८ उष्ट्राः । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥९३॥ चतुर्थः सगे: ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । खच्छन्दं जाह्नवीतीरतले सिकतिलेऽलुठन् । भृत्या इव स्वामिनो ग्रे, वेसराश्चलकेसराः॥७२॥ केचिदाजहुरेधांसि, सरिदम्भांसि केचन । दूर्वादिभारकान् केचित् , केचिच्छाकफलादिकम् ॥७३॥ प्रचख्नुश्रुल्लिकाः केचित् , तन्दुलान् केऽप्यखण्डयन् । केचिदज्वालयन्नग्निमपचन् केचिदोदनम् ॥ ७४॥ सस्नुः केऽप्येकतस्तत्र, स्वोकसीवोज्वलैजलैः । स्नाता धूपैरधृपायन्, केऽप्यात्मानं सुगन्धिभिः ॥ ७५ ॥ केचिद् बुभुजिरे स्वैरं, पुरो भुञ्जानपत्तयः । सँह स्त्रीभिर्विलिलिपुः, केचिदङ्गं विलेपनैः ॥ ७६ ॥ नाऽमंस्त कटकायातं, कोऽप्यात्मानं मनागपि । लीलोपलभ्यसर्वार्थे, शिविरे चक्रवर्तिनः ॥ ७७ ॥ ___ अहोरात्रे व्यतिक्रान्ते, तस्मिन् पुनरपि प्रेगे । चक्ररत्नं जगामैकं, योजनं चक्रवर्त्यपि ॥ ७८ ॥ एवं योजनमानेन, प्रयाणेन दिने दिने । गच्छंश्चक्रानुगश्चक्री, मागधं तीर्थमासदत् ॥ ७९ ॥ नवयोजनविस्तारं, दैर्घ्य द्वादशयोजनम् । पूर्वाब्धिरोधसि नृपः, स्कन्धावारं न्यवीविशत् ॥ ८॥ आवासान् सर्वसैन्यानां, तत्र व्यधित वर्द्धकिः । एका पौषधशालां च, शालां धर्मैकदन्तिनः ॥ ८१॥ राजा पौषधशालायामनुष्ठानविधित्सया । उत्ततार करिस्कन्धात , पर्वतादिव केसरी ॥ ८२ ॥ तत्र संस्तारयामास, दर्भसंस्तारकं नवम् । राजा संयमसाम्राज्यलक्ष्मीसिंहासनोपमम् ॥ ८३ ॥ मागधतीर्थकुमारं, देवं मनसि कृत्य च । प्रपेदेऽष्टमभक्तं सोऽर्थसिद्धेारमादिमम् ॥ ८४ ॥ स धौतांशुकभृत् त्यक्तनेपथ्यस्रग्विलेपनः । त्यक्तशस्त्रः पुण्यपोषौषधं पौषधमाददे ॥ ८५॥ दर्भसंस्तारके तस्मिन्, प्रतिजाग्रत् स पौषधम् । निष्क्रियो नृपतिस्तस्थौ, सिद्धः पद इवाऽव्यये ।। ८६ ।। १ सिकतामये। *सनारीका वि सं २, आ॥ २ प्रातःकाले। ३ शिविरम् । ४ मोक्षे । भरतस्य दिग्जयार्थ प्रयाणम्। For Private & Personal use only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमान्ते नृपः पूर्णपौषधः पौषधौकसः । शरदभ्रादिवाऽऽदित्यो, निर्ययावधिकद्युतिः॥ ८७ ॥ राजा सर्वार्थनिष्णातः, स्नातो बलिविधि व्यधात् । यथाविधि विधिज्ञा हि, विस्मरन्ति विधिं न हि ॥८॥ उत्पताकध्वजस्तम्भ, प्रासादमिव जङ्गमम् । शस्त्रागारमिवाऽनेकशस्त्रश्रेणिविभूषितम् ।। ८९ ॥ चतुर्दिग्विजयश्रीणामिवाऽऽह्वानार्थमुच्चकैः । टणत्कारकृतो घण्टाश्चतस्रश्चारुविभ्रतम् ॥९॥ पवनैरिव जङ्घालैधीरः पञ्चाननैरिव । अश्वैः सनाथमध्यास्त, स रथं रथिनां वरः ॥ ९१॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] राज्ञो भावविशेषज्ञो, वासवस्येव मातलिः । नुनोद सारथी रथ्यान् , रश्मिचालनमात्रतः ॥९२॥ महाकरिगिरिस्तोमो, महाऽनोमकरोत्करः । विलोलहयकल्लोलश्चित्रशस्वाहिभीषणः ॥ ९३ ॥ उच्छलभूरजोवेलो, रथनिर्घोषगर्जितः । द्वितीय इव पाथोधिः, पाथोधिं प्रत्यगान्नृपः ॥ ९४॥ [युग्मम् ]| संवर्द्धिताम्बुनिर्घोषस्त्रस्तनक्रकुलारवैः । नाभिंदनं रथेनाऽम्भोऽम्भोनिधेः सोऽभ्यगाहत ॥ ९५॥ न्यस्सैकं लस्तके हस्तं, द्वितीयं त्वंटनीतटे । सोऽधिज्यं विदधे धन्व, पञ्चमीन्दुविडम्बकम् ॥ ९६॥ पाणिना किञ्चिदाकृष्य, धनुा भरतेश्वरः । धनुर्वेदोङ्कारमिवोचेष्टङ्कारमकारयत् ॥ ९७ ॥ पातालद्वारनिर्गच्छन्नागराजानुहारकम् । इषुधेराचकर्षेषु, निजनामाङ्कितं नृपः ॥ ९८ ॥ सिंहकर्णिकया मुष्ट्या, धृत्वा पुङ्खाग्रभागके । शिञ्जिन्यां निदधे बाणं, वज्रदण्डमरातिषु ॥ ९९ ॥ सौवर्णकर्णताडङ्कपद्मनालतुलास्पृशम् । आकर्णान्तं स आकर्पत, काञ्चनं तं शिलीमुखम् ॥१०॥ १ स्तमकरकुलशब्दैः। २ नाभिप्रमाणम् । ३ धनुर्मध्यभागे। ४ ज्यारोपणस्थाने । ५ धनुर्गुणे । Jain Education into For Private & Personal use only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुचरिते ॥ ९४ ॥ Jain Education Interr Iseli प्रसरद्भिर्महीभर्त्तुर्नखरत्नमरीचिभिः । शुशुभे स महाबाणः, सोदरैरिव वेष्टितः ॥ १०१ ॥ आकृष्टकार्मुकान्तःस्थो, दीप्यमानः स सायकः । व्यात्तान्तकमुखप्रेङ्खजिह्वालीलामुपाददे ।। १०२ ।। धनुर्मण्डलमध्यस्थः, स मध्यमर्जगत्पतिः । शुशुभे परिवेषान्तैर्भानुमानिव दारुणः ॥ १०३॥ चालयिष्यति किं स्थानान्निग्रहीष्यत्यथैष माम् ? । इतीव चुक्षोभ तदा, सर्वतो लवणाम्बुधिः ॥ १०४ ॥ अथोवशो बहिर्मध्ये, मुखे पुखे च सर्वदा । नागासुरसुपर्णादिदेवताभिरधिष्ठितम् ॥ १०५ ॥ आज्ञाकरं दूतमिव, शिक्षाक्षरभयानकम् । अभि मागधतीर्थेशं, विससर्ज शिलीमुखम् ॥१०६॥ [ युग्मम् ] उद्दामपक्षचत्कारवाचालितनभोङ्गणः । निर्ययौ तत्क्षणं वेगात् स पत्री पत्रिराडिव ।। १०७ ॥ विद्युद्दण्ड इवाम्भोदादुल्काग्निर्गगनादिव । स्फुलिङ्ग इव सप्ताचैर्लेश्यार्चिरिव तापसात् ॥ १०८ ॥ शिखीव सूर्योपलतो, वज्रं वज्रिभुजादिव । निष्पतन्नृपकोदण्डादशोभत स सायकः ॥ १०९ ॥ [सन्दानितकम् ] योजनानि द्वादशाऽतिक्रम्य पत्री क्षणेन सः । सभायां मागधेशस्य, हृदि शल्यमिवाऽपतत् ॥ ११० ॥ अकाण्डैकाण्डपातेन तेन मागधतीर्थराट् | उच्चैश्रुकोप दण्डाभिघट्टनेनेव पन्नगः ॥ १११ ॥ चक्रीकुर्वन् भ्रुवोर्युग्मं, कोदण्डमिव दारुणम् । दधानश्चक्षुषी ताम्रे, दीप्ताग्निविशिखाविव ॥ ११२ ॥ भस्त्रापुटे इवोत्फुल्लीकुर्वाणो नासिकापुटे । स्फोरयन्नधरदलं, तक्षकाहेरिवाऽनुजम् ॥ ११३ ॥ ललाटे घटयन् लेखाः, केतू निव नभस्तले । गृह्णन् दक्षिणहस्तेन, वार्त्तिकोऽहिमिवाऽऽयुधम् ॥ ११४ ॥ १ प्रसारितयममुखचलजिह्वालीलाम् । २ पृथ्वीपतिः । * चकाशे खंता ॥ ३ मण्डलान्तः स्थितः सूर्य इव । ४ गरुडः । ५ अझेः । सूर्यकान्तादिव शिखी व खंता ॥ ६ अग्निः । ७ अकस्माद् बाणपातेन । ८ दण्डताडनेन । ९ गारुडिकः । प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रि चरितम् । भरतस्य दिग्जयार्थ प्रयाणम् । ॥ ९४ ॥ . Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताडयन्नासनं वामहस्तेनाऽरिकपोलवत् । वाचं विषार्चिःसंधीचीमित्यूचे मागधाधिपः ॥ ११५॥ [चतुर्भिः कलापकम् ]] ऐरावणरदांछित्त्वा, कस्ताडङ्कान चिकीर्षति ? । सौपर्णेयस्य कः पक्षरवतंसान विधित्सति ॥ ११६ ॥ कः पन्नगपतेमौलिमणिमालां जिघृक्षति ? । सहस्रदीधितेः को वा, हयानपि जिहीर्षति ? ॥ ११७ ॥ अप्रार्थितप्रार्थकः को, वीरमान्यविमृश्यकृत् । अस्माकमस्मिन् सदसि, प्रचिक्षेप शरं कुधीः ? ॥११८ ॥ सुपर्ण इव सर्पस्य, दर्प तस्य हराम्यहम् । एवं बुवाणो रभसादुत्तस्थौ मागधाधिपः॥ ११९ ॥ बिलादिवोरगं कोशात् , खड्गदण्डं चकर्ष सः । कम्पयामास च व्योम्नि, धूमकेतुभ्रमप्रदम् ॥ १२० ॥ वार्धिवेलेव दुर्वारः, परिवारोऽपि तत्क्षणम् । युगपत् सकलोऽप्यस्य, सकोपाटोपमुत्थितः॥१२१ ॥ खङ्गैः केचिद् दिवं चक्रुः, कृष्णविद्युन्मयीमिव । वसुनन्दैश्च विशदैरनेकेन्दुमयीमिव ॥ १२२ ॥ नितान्तनिशितान् कुन्तान् , खे केचिदुदलालयन् । कृतान्तदन्तशकलश्रेणीभिरिव निर्मितान् ॥ १२३ ।। परशून् केचिदुज्जर्वविजिह्वासहोदरान् । वर्भानुभीमपर्यन्तान् , जगृहुः केपि मुद्गरान् ॥ १२४ ॥ वज्रकोव्युत्कटान्यन्ये, शूलान्याददिरे करे । अपरे दण्डभृद्दण्डचण्डान् दण्डानुदक्षिपन् ॥ १२५ ॥ चक्रः केपि करास्फोटं, वैरिविस्फोटकारणम् । क्ष्वेडानादं व्यधुः केऽपि, मेघनादमिवोर्जितम् ॥ १२६॥ केचिजहि जहीत्यूचुः, केचिद् धर धरेति च । तिष्ठ तिष्ठेति केचिच्च, याहि याहीति केचन ॥ १२७ ॥ इत्यभृच्चित्रसंरम्भचेष्टो यावत् परिच्छदः । तस्य तावदमात्यस्तं, सम्यग् वाणं न्यरूपयत् ॥ १२८ ॥ १ विषज्वालातुल्याम् । २ कर्णभूषणविशेषान् । ३ अविचार्यकारी । ४ दरात् । ५ युद्धसाधनविशेषः । ६ राहुः। *न्यभालयत् खंता । For Private & Personal use only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । महासाराण्युदाराणि, तत्र पत्रिणि मत्रिराट् । दीव्यमन्त्राक्षराणीवेत्यक्षराणि व्यलोकयत् ॥ १२९॥ राज्येन यदि वः कार्य, जीवितव्येन वा यदि । ततः सेवां कुरुध्वं नः, स्वसर्वखोपढौकनात् ॥ १३०॥ इत्यादिशति वः साक्षात् , सुरासुरनरेशितुः । ऋषभस्वामिनः सूनुर्भरतश्चक्रवर्त्ययम् ॥ १३१ ॥ मत्री दृष्ट्वाऽक्षराण्येवं, विज्ञायाऽवधिना च तत् । दर्शयन् स्वामिनो बाणमुच्चकैरित्यवोचत ॥ १३२॥ भो भोः सर्वे राजलोका!, धिग् वो रभसंकारिणः । स्वामिनोऽर्थधियाऽनर्थदायिनो भक्तमानिनः॥१३३॥ भरतो भरतक्षेत्रे, प्रथमश्चक्रवर्त्यभूत् । सूनुः प्रथमतीर्थेशऋषभस्वामिनो ह्ययम् ॥१३४ ॥ स एष याचते दण्डं, दिधारयिपते च वः । पाकशासनवच्चण्डशासनः शासनं निजम् ॥ १३५ ॥ अपि शोप्येत पाथोधिर्मेरुरप्युद्रियेत च । कृतान्तोऽपि निहन्येतोत्क्षिप्येताऽपि वसुन्धरा ॥ १३६॥ दम्भोलिरपि दल्येत, विध्याप्येताऽपि वाडवः । कथश्चन न जीयेत, चक्रवर्ती महीतले ॥१३७॥ [युग्मम्] देवाऽयं वार्यतां लोकः, स्तोकधी(मतांवरः । प्रगुणीक्रियतां दण्डश्चक्रिणे प्रणतो भव ॥ १३८॥ __ आकर्ण्य मत्रिवाचं तां, दृष्ट्वा तान्यक्षराणि च । गन्धेभगन्धमाघ्राय, करीव प्रशशाम सः ॥ १३९ ॥ उपायनमुपादाय, तं चेषु मागधाधिपः । उपेत्य भरताधीशं, नत्वा चैवं व्यजिज्ञपत् ॥ १४॥ दिष्ट्या दृष्टिपथं प्राप्तोऽस्यधुना मम भूपते ! । स्वामिन् ! कुमुदखण्डस्य, शशाङ्क इव पार्वणः ॥१४१॥ भगवानृषभखामी, प्रथमस्तीर्थकृद् यथा । प्रथमश्चक्रवर्ती त्वं, तथा विजयसे भुवि ॥ १४२ ॥ सुरेभस्य प्रतीभः को?, वायोः प्रतिबली च कः?। नभसः प्रतिमानं कः?, प्रतिमल्लश्च तेऽस्तु कः?॥१४३॥ साहसकारिणः । २ धारयितुमिच्छति । ३ इन्द्रवत् । ४ वडवाग्निः । ५ अल्पबुद्धिः । भरतस्य दिग्जयार्थ प्रयाणम् । स्वामिन् ! कुमुदखलजियसे भुवि ॥ १४॥१४॥ ॥९५॥ For Private & Personal use only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aauoon euosamang One p er आकर्णाकृष्टकोदण्डानिर्यातं ते शिलीमुखम् । अलम्भविष्णुः कः सोढुं, विडोजस इवाऽशनिम् ॥१४४॥ प्रसादं कुर्वता त्वेष, प्रमत्तस्य मम त्वया । कर्त्तव्यज्ञापनायेषुः, प्रैषि वेत्रिपुमानिव ॥ १४५॥ अतः परमहं नाथ !, महीनाथशिरोमणे! | शिरोमणिमिवाऽऽज्ञां ते, धारयिष्यामि मूर्धनि ॥ १४६॥ वामिन् ! मागधतीर्थेऽस्मिन् , स्थास्याम्यारोपितस्त्वया । तवैव प्राग्जयस्तम्भ, इव निर्दम्भभक्तिभाक्॥१४७॥ एते वयमिदं राज्यमेष सर्वः परिच्छदः । त्वदीयमेवाऽन्यदपि, शाधि नः पूर्वपत्तिवत् ॥ १४८ ॥ इत्युक्त्वा सोऽर्पयामास, चक्रिणे पत्रिणं सुरः । तच्च मागधतीर्थाम्भः, किरीटं कुण्डले अपि ॥ १४९॥ तच्च राजा प्रतीयेष, मागधाधिपतिं च तम् । सञ्चकार महान्तो हि, सेवोपनतवत्सलाः ॥१५॥ अथो रथं वालयित्वा, पथा तेनैव पार्थिवः । स्कन्धावारं निजमगाव , सुत्रामेवाऽमरावतीम् ॥१५१॥ अवरुह्य रथादङ्ग, प्रक्षाल्य सपरिच्छदः । चकाराऽष्टमभक्तान्तपारणं भरतेश्वरः॥१५२ ॥ तदा मागधनाथस्य, महद्धा वसुधाधवः । चक्रस्येवोपनतस्य, विदधेऽष्टाहिकोत्सवम् ॥१५३ ॥ ____ आदित्यस्यन्दनस्रस्तमिव तेजोभिरुल्वणम् । अष्टाहिकोत्सवान्ते च, चक्ररत्नं चचाल खे ॥१५४ ॥ दक्षिणस्यां वरदामतीर्थ प्रति ययौ ततः । चक्रं तच्चक्रवर्ती च, धातुं प्रादिरिवाऽन्वगात् ॥ १५५ ॥ प्रयाणैः प्रत्यहं गच्छन् , राजा योजनमात्रकैः । दक्षिणाब्धि क्रमात् प्राप, मानसं राजहंसवत् ॥ १५६॥ एलालवङ्गलवलीककोलबहले नृपः । सैन्यान्यावासयामास, दक्षिणाम्भोधिरोधसि ॥ १५७ ॥ आवासान् सर्वसैन्यस्य, पौषधौकश्च वर्द्धकिः । पूर्ववद् रचयामास, शासनाच्चक्रवर्तिनः ॥ १५८॥ वरदामामरं चित्ते, कृत्वाऽष्टमतपोऽकरोत् । नृपतिः पौषधागारे, पौषधं च समाददे ॥१५९ ॥ **A*GARASHURIAS * Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाका चतुर्थः WISASA पुरुषचरिते सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । पौषधान्ते बहिर्भूत्वा, नृपः पौषधवेश्मनः । उपाददे धनुः कालपृष्ठं प्रष्ठो धनुर्भृताम् ॥ १६० ॥ सर्वतः स्वर्णरचितं, खचितं रत्नकोटिभिः । आरुरोह रथं राजा, वासागारं जयश्रियः ॥ १६१॥ अधिष्ठितो नृदेवेनाऽत्युदाराकारधारिणा । प्रासाद इव देवेन, शुशुभे स महारथः ॥ १६२ ॥ अनुकूलमरुल्लोलपताकामण्डिताम्बरः । स स्पन्दनवरोऽम्भोधौ, यानपात्रमिवाविशत् ॥ १६३ ॥ रथाङ्गनाभिद्वयसं, गत्वा जलनिर्जलम् । रथस्तस्थौ स्थाग्रस्थसारथिस्खलितैहयैः ॥ १६४ ॥ अन्तेवासिनमाचार्य, इव विश्वम्भरापतिः । आनतीकृत्य विदधेऽधिगुणं विशिखासनम् ।। १६५॥ सङ्ग्रामनाटकारम्भनान्दीनि?षमुच्चकैः । आह्वानमत्रं कालस्य, ज्याटङ्कारं चकार सः॥१६६ ॥ आकृष्य वाणधेर्वाणं, न्यधाद् बाणासने नृपः । भालान्तरालरचिततिलकश्रीमलिम्लुचम् ॥ १६७ ॥ वक्रीकृतस्य धनुषो, मध्ये धूर्धमदायिनम् । शिलीमुखं महीनाथः, कर्णजाहमुपानयत् ॥ १६८ ॥ किं करोमीति विज्ञीप्सुमिव कर्णान्तमागतम् । विससर्ज शरं राजा, वरदामाधिपं प्रति ॥ १६९ ॥ शैलैः पतत्पविभ्रान्त्या, तायभ्रान्त्या च पन्नगैः । अन्धिना चाऽपरौर्वाग्निभ्रान्त्या सभयमीक्षितः ॥१७॥ गगनं द्योतयन्नुच्चैर्गत्वा द्वादशयोजनीम् । बाणः सोऽपतदुल्केव, वरदामेशपर्षदि ॥१७१॥ [युग्मम् ] विद्विषत्प्रेषितं घातकारं नरमिवाऽग्रतः । पतितं प्रेक्ष्य तं वाणं, चुकोप वरदामराट् ॥ १७२ ॥ उद्वेल इव पाथोधिरुद्धान्तभ्रूतरङ्गितः । उद्दामां वरदामेशो, वाचमेवमवोचत ॥ १७३ ॥ केनाऽद्य केसरी मुप्तः, पदा स्पृष्ठा प्रबोधितः ? । कस्य वाचयितुं पत्रमद्योदक्षेपि मृत्युना ? ॥१७४ ॥ १ धुरा । २ कर्णपयन्तम् । ३ अन्यवडवाग्निभ्रान्त्या । भरतस्य दिग्जयार्थ प्रयाणम् । HASRAHASIAGRA ॥९६॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुष्ठीवोत्पन्नवैराग्यो, जीवितव्यस्य कोऽथवा ? | चिक्षेप यो रभसया, मम पर्षदि पत्रिणम् ॥ १७५ ॥ तमनेनैव बाणेन, हन्मीति वरदामराट् । उत्थाय पाणिना बाणं, तं कोपग्रहिलो ग्रहीत् ॥१७६ ॥ मागधाधीश्वर इव, वरदामेश्वरस्ततः । तानि तत्राऽक्षराणीक्षाञ्चक्रे पत्रिणि चक्रिणः॥१७७ ॥ तान्यक्षराणि सम्प्रेक्ष्या हिर्नागदमनीमिव । वरदामपतिः सद्योऽप्यशाम्यदिति चाऽब्रवीत् ॥ १७८ ॥ मण्डके इव कृष्णाहेश्चपेटां दातुमुद्यतः । प्रजिहीर्षुर्विषाणाभ्यामुरभ्र इव दन्तिनः ॥१७९ ॥ पिपातयिषुरुवीभ्रं, दशनाभ्यामिव द्विपः । मन्दधीभरतेनामि, युयुत्सुश्चक्रवर्तिना ॥ १८ ॥ भवत्वद्यापि नो किञ्चिद्, विनष्टमिति स ब्रुवन् । उपायनान्युपानेतुं, दिव्यानि खान् समादिशत् ॥१८॥ ततस्तं शरमादाय, प्राभृतान्यद्भूतानि च । आर्षभिं सोऽभ्यगादिन्द्र, इव श्रीऋषभध्वजम् ॥१८२॥ स नत्वा तमुवाचैवमद्य मापुरुहूत ! ते । दृतेनेव समाहूतः, पत्रिणाऽहमिहाऽऽगमम् ॥ १८३ ॥ त्वामिहाऽऽयातमुवीश!, न स्वयं यदुपागमम् । सहस्व मे तदज्ञस्य, निडुते दोषमज्ञता ॥ १८४ ॥ श्रान्तेनेवाऽऽश्रमः पूर्ण, तृषितेनेव पल्वलम् । स्वामिन्नस्वामिना स्वामी, मया प्राप्तोऽसि सम्प्रति ॥१८५॥ अद्य प्रभृति भूनाथ !, स्थापितोऽहमिह त्वया । स्थास्यामि भवतो वेलाधरो गिरिरिवोदधेः ॥ १८६ ॥ इत्युक्त्वा भरतेशाय, निर्भरं भक्तिभागसौ । अर्पयामास तं वाणं, न्यासीकृतमिवाऽग्रतः ॥ १८७ ॥ कटीसूत्रं रत्नमयं, रोचीरोचितदिङ्मुखम् । राज्ञः सोऽदात तिग्मरोची रोचिभिरिव गुम्फितम् ॥ १८८॥ पुरतो भरतेशस्य, ढोकयामास चोज्वलम् । मुक्ताराशिं यशोराशिमिव खं चिरसञ्चितम् ॥ १८९॥ भेकः । २ भकाभ्याम् । ३ मेषः । ४ पर्वतम् । ५ भरतम् । ६ हे पृथ्वीन्द!। . लघुजलाशयः । त्रिषष्टि. १७ For Private & Personal use only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथम पर्व चतुर्थ: सगे: ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥९७॥ महीपतेरुपददाववदातोद्यतद्युतिम् । रत्नाकरस्य सर्वखमिव रत्नोत्करं च सः॥ १९० ॥ तत् सर्वमग्रहीद् राजाऽन्वग्रहीद् वरदामपम् । अस्थापयच तत्रैव, तं कीर्तनमिव स्वकम् ॥ १९१॥ वरदामेशमाभाष्य, सप्रसादं विसृज्य च । जगाम जगतीनाथो, विजयी शिबिरं निजम् ॥ १९२ ॥ अवतीर्य रथात् स्नात्वाऽष्टमभक्तान्तपारणम् । चक्रे समं परिजनैः, स राजरजनीकरः ॥ १९३ ॥ वरदामाधिपस्याऽथ, स चक्रेऽष्टाह्निकोत्सवम् । लोके महत्त्वदानाय, महन्त्यात्मीयमीश्वराः ॥ १९४॥ - प्रति प्रतीची प्राचीनबर्हिरन्य इवौजसा । चक्री चक्रानुगोऽचालीत् , प्रभासाभिमुखं ततः॥१९५॥ पूरयन रोदसीरन्ध्र, नीरन्धैः सैन्यरेणुभिः । स प्रयाणैः कतिपयैः, पयोधि प्राप पश्चिमम् ॥ १९६॥ ततः क्रऍकताम्बूलीनालिकेरीवनाकुले । स्कन्धावारं विनिदधे, स रोधस्यपरोद॑धेः॥ १९७॥ प्रभासनाथमुद्दिश्याऽष्टमभक्तं व्यधात ततः। राजा जग्राह च प्राग्वत, पौषधं पौषधौकसि ॥ १९८॥ पौषधान्ते समारुह्य, स्यन्दनं मेदिनीपतिः । प्रविवेश पयोराशि, पाशपाणिरिवाऽपरः ॥ १९९॥ अतिक्रम्य जलं चक्रनाभिदघ्नं महीपतिः । स्यन्दनं धारयामासाधिज्यं च विदधे धनुः ॥२०॥ जयश्रीकेलिवल्लंक्या, धनुर्यष्टेर्विशांपतिः। पाणिना वादयामास, मौवीं तत्रीमिवोच्चकैः ॥२०१॥ शरं चकर्ष शेरीरधेत्रदण्डवत् । आसयच्च नृपो बाणासनेऽतिथिमिवाऽऽसने ॥ २०२॥ ततःप्रभासाभिमुखं, तं चिक्षेप शिलीमुखम् । आदित्यबिम्बादाकृष्टमिवैकं किरणं नृपः ।। २०३॥ कीर्तिकारकमिव । २ राजचन्द्रः। ३ पूजयन्ति । ४ इन्द्रः। ५ द्यावाभूमी । ६ घनैः । ७ पूगवृक्षाः । ८ पश्चिमसमुद्रस्य । ९ वरुणः । १० रथाङ्गनाभिप्रमाणम् । ११ जयलक्ष्मीक्रीडावीणायाः। १२ निषङ्गात् । १३ वृक्षविशेषः । भरतस्य दिग्विजयः। ॥९७॥ For Private & Personal use only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेगाद् वायुरिवोल्लङ्घय, वार्द्धादशयोजनीम् । द्या भाभिर्भासयन् प्राप, स प्रभासेशवेश्मनि ॥२०४॥ क्रुद्धः सोऽपि शरं प्रेक्ष्य, प्रेक्ष्य तत्राऽक्षराणि च । सद्योऽशाम्यन्नट इव, प्रादुष्कृतरसान्तरः॥२०५॥ तं पत्रिणमुपादायोपदामप्यपरां स्वयम् । ययौ भूपं प्रभासेशो, नत्वा चैवं व्यजिज्ञपत् ।। २०६॥ अद्य देव ! प्रभासोऽस्मि, भासितः खामिना त्वया । रवेः करैः कमलानि, कमलानि भवन्ति हि ॥२०७॥ एष प्रत्यग्दिगन्तस्थः, सामन्त इव ते प्रभो! । सर्वदा शासनं मृा, धास्याम्यवनिशासन! ॥२०८॥ इत्युक्त्वा भरतेशस्य, तमादौ प्रहितं शरम् । खलूरिकापत्तिरिख, प्रभासपतिरार्पयत् ॥ २०९॥ कटकानि कटीसूत्रं, चूडामणिमुरोमणिम् । निष्कादि चाऽर्पयद् राज्ञे, मूर्त तेज इव स्वकम् ॥ २१०॥ तस्याऽऽश्वासकृते सर्व, तदुर्वीपतिरग्रहीत् । प्रभोः प्रसादचिह्न हि, प्राभृतादानमादिमम् ॥२११॥ तत्रैव स्थापयित्वा तमावाल इव पादपम् । स आययौ पुनः स्कन्धावारं वैरिनिवारणः ॥ २१२ ॥ तत्कालं गृहिरनेन, कल्पावनिरुहेव सः । उपनीतैर्दिव्यभोज्यैर्विदधेऽष्टमपारणम् ॥ २१३ ॥ नृपः प्रभासदेवस्य, चक्रे चाऽष्टाहिकोत्सवम् । आदौ सामन्तमात्रस्याऽप्युचिताः प्रतिपत्तयः ॥२१४ ॥ ___ अनुदीपमिवाऽऽलोकोऽनुचक्र भूपतिर्ययौ । ततः सिन्धोर्महासिन्धो, रोधः प्राप च दक्षिणम् ॥२१५॥ पूर्वाभिमुखमुवींशो, गत्वा तेनैव रोधसा । निकषा सिन्धुसदनं, स्कन्धावारं न्यवीविशत् ॥ २१६॥ अष्टमं विदधे तत्र, सिन्धुं मनसिकृत्य सः । आसनं सिन्धुदेव्याचाऽचल वाताहतोर्मिवत् ॥ २१७ ॥ ततः साऽवधिनाऽज्ञासीदायातं चक्रवर्तिनम् । प्रभूतैः प्राभृतैर्दिव्यैस्तं चाचितुमुपाययौ ॥ २१८॥ १ शस्त्राभ्यासभूमिः। २ वक्षःस्थलमणिम् । ३ दीनारादि । ४ उपायनग्रहणम् । ५ कल्पवृक्षेण । ६ सत्काराः। ७ समीपे । Jain Education Internate For Private & Personal use only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते चतुर्थः सर्गः ॥९८॥ ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ततो जयजयेत्याशीःपूर्वकं सा नभःस्थिता । इत्यूचेञाऽस्मि ते चक्रिन्, किङ्करी करवाणि किम् ? ॥२१९॥ श्रीदेव्या इव सर्वस्खं, निधीनामिव सन्ततिम् । साऽष्टोत्तरं रत्नकुम्भसहस्रं भृभुजे ददौ ॥ २२०॥ सहोद्वोढुं प्रकृतयोरिव कीर्तिजयश्रियोः । योग्ये नृपतयेऽयच्छद्, रत्नभद्रासने च सा ॥ २२१॥ नागराजशिरोरत्नान्युद्धृत्येव विनिर्मितान् । दीपरत्नमयान् राजे, सा ददौ वाहुरक्षकान् ॥ २२२ ॥ मध्योत्कीर्णार्कबिम्बाभानदत्त कटकांश्च सा । मृदूनि मुष्टिग्राह्याणि, दिव्यानि वसनानि च ॥ २२३ ॥ तत्सर्व प्रतिजग्राह, स सिन्धोः सिन्धुराडिव । तां स प्रसादालापेन, प्रमोद्य विससर्ज च ॥ २२४ ॥ अथाऽभिनवराकेन्दुसोदरे स्वर्णभाजने । चकाराऽष्टमभक्तान्तभोजनं भूभुजां विभुः ॥२२५॥ सिन्धुदेव्या नरदेवो, विदधेऽष्टाहिकोत्सवम् । दर्यमानपथश्चक्रेणाऽग्रेग्वेव चचाल च ॥ २२६ ॥ दिशोदक्पूर्वया गच्छन् , क्रमेण भरतेश्वरः। भरतार्द्धद्वयाघाट, पाप वैताठ्यपर्वतम् ॥ २२७ ॥ नितम्बे दक्षिणे तस्य, स्कन्धावारं न्यवीविशत् । अन्तरीयमिव क्षमापो, विस्तारायामशोभितम् ॥२२८ ॥ चकाराऽष्टमभक्तं च, तत्र विश्वम्भरापतिः । वैताख्याद्रिकुमारस्य, पर्यकम्पिष्ट चाऽऽसनम् ॥२२९॥ उत्पन्नो भरतक्षेत्रे, प्रथमश्चक्रवर्त्यसौ । इत्यज्ञासीदवधिना, वैताठ्याद्रिकुमारकः॥२३०॥ अथाऽभ्यगात् स भरतं, व्योमस्थश्चाऽब्रवीदिदम् । प्रभो ! जय जयेषोऽस्मि, सेवकस्ते प्रशाधि माम् २३१ स महाया॑णि रत्नानि, रत्वालङ्करणानि च । देवदृष्याणि च राजे, कोशायुक्त इवाऽऽर्पयत् ॥ २३२ ॥ भद्रासनानि भद्राणि, भूयास्थवनिशासिने । प्रतापसम्पदः क्रीडावेश्मानि विततार सः॥ २३३ ॥ अभिनवपूर्णिमाचन्द्रसदशे। २ अप्रगामिना । ३ भरतार्द्धद्वयसीमानम् । ४ पृथ्वीपतिः । भरतस्य दिग्विजयः। ॥९८॥ Jain Education Internatie For Private & Personal use only . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य प्रत्यग्रहीत तच्च, सर्व सर्वसहापतिः । अलुब्धा अपि गृहन्ति, भृत्यानुग्रहहेतुना ॥ २३४ ॥ नृपस्तमथ सम्भाष्य, विससर्ज सगौरवम् । महान्तो नाऽवजानन्ति, नृमात्रमपि संश्रितम् ॥ २३५ ॥ चकाराऽष्टमभक्तान्ते, पारणं पृथिवीपतिः । चक्रे च वैतादयगिरिदेवस्याऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ २३६ ॥ गुहां तमिस्रामुद्दिश्य, चक्ररत्नं ततोऽचलत् । राजाऽप्यगात् तस्य पदान्वेषकस्येव पृष्ठतः ॥२३७॥ गत्वा तमिस्रासविधे, सैन्यान्यावासयन्नृपः । विद्याधरपुराणीवाऽवतीर्णानि गिरेरधः ॥ २३८ ॥ कृत्वा मनसि भूपालः, कृतमालमथाऽमरम् । चक्रेऽष्टमतपोऽचालीत, तस्य देवस्य चाऽऽसनम् ॥२३९॥ सोऽज्ञासीदवधिज्ञानादागतं चक्रवर्तिनम् । आजगामाऽर्चितुं तं च, चिराद् गुरुमिवाऽतिथिम् ॥ २४०॥ खामिन् ! तमिस्राद्वारेऽस्मिन् , द्वारपाल इवाऽसि ते । इति ब्रुवन् महीभर्तुः, स सेवां प्रत्यपद्यत ॥२४॥ स्त्रीरत्नयोग्यं तिलकचतुर्दशमनुत्तमम् । दिव्याभरणसम्भारं, विततार स भूभुजे ॥ २४२ ॥ तद्योग्यानि च माल्यानि, दिव्यानि वसनानि च । सोऽदाद् राजे धारितानि, प्राक् तदर्थमिवाऽऽदरात् २४३ राजा तदाददे सर्व, कृतार्था अपि भूभुजः । न त्यजन्ति दिशो दण्डं, चिह्न दिग्विजयश्रियः ॥ २४४ ॥ प्रसादेनाऽतिमहता, सम्भाष्य विससर्ज तम् । शिष्यमध्ययनप्रान्त, उपाध्याय इवाऽऽर्षभिः॥ २४५॥ भून्यस्तभाजनैरग्रे, भुञ्जानै राजकुञ्जरैः । खांशैरिव पृथग्भूतैः, समं चक्रे स पारणम् ॥ २४६ ॥ सोऽकरोत् कृतमालस्य, देवस्याऽष्टाह्निकोत्सवम् । प्रभवः प्रणिपातेन, गृहीताः किं न कुर्वते ? ॥२४॥ सुषेणाभिधमन्येद्युः, सेनापतिमिलापतिः । समाहूय हेरिरिव, नैगमेषिणमादिशत् ॥ २४८॥ १ पृथ्वीपतिः। २ अवज्ञां कुर्वन्ति । * भक्तस्य, खंता ॥ ३ भरतः। * भूमिस्थापितपात्रः। ५ इन्द्रः। For Private & Personal use only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ॥९९॥ ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । सिन्धुसागरवैताव्यसीमानं सिन्धुनिष्कुटम् । दक्षिणं साधयोत्तीर्य, चर्मरत्नेन निम्नगाम् ॥ २४९॥ बदरीवणवत् तत्र, म्लेच्छानायुधयष्टिभिः । ताडयित्वा चित्ररत्नसर्वखफलमाहरेः॥ २५॥ - ततः स सेनाधिपतिर्मृगाधिपतिरोजसा । तेजसा तेजसांनाथो, घिर्षणो धिषणागुणैः॥ २५१॥ निम्नानां निष्कुटानां च, जलस्थलभुवामपि । अन्येषामपि दुर्गाणां, तज्जन्मेव प्रचारवित् ॥ २५२॥ सम्पूर्णलक्षणः सर्वम्लेच्छभाषाविचक्षणः । शिरसा शासनं भर्तुस्तत्प्रसादमिवाऽऽददे ॥ २५३ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] : प्रणम्य स्वामिनं गत्वा, स्वावासे निदिदेश सः। सामन्तादीन् प्रयाणाय, प्रतिच्छन्दानिवाऽऽत्मनः॥२५४॥ अथ स्नात्वा कृतबलिमहाग्रंखल्पभूषणः । संवर्मितः कृतप्रायश्चित्तकौतुकमङ्गलः ॥ २५५ ॥ जयश्रियाऽऽलिङ्गनाय, प्रक्षिप्तामिव दोलताम् । रत्नप्रैवेयकं दिव्यं, धारयन् कण्ठकन्दले ॥ २५६ ॥ शोभितश्चिह्नपट्टेन, पट्टद्विप इवोच्चकैः । गृहीताखः कटौ बिभ्रन्मृता शक्तिमिव क्षुरीम् ॥ २५७॥ विभ्राणः स्वर्णतूणीरावतुच्छो सरलाकृती । पृष्ठतोऽपि रणं कर्तुं, दोर्दण्डाविव वैक्रियौ ॥ २५८ ॥ गणनेतृदण्डनेतृश्रेष्ठिभिः सार्थवाहिभिः । सन्धिपालचराद्यैश्च, युवराज इवाऽऽवृतः ॥२५९ ॥ आरुरोह स सेनानीर्गजरत्नं नगोतम् । निश्चलानासनस्तेनाऽऽसनेन संहभूरिव ॥ २६०॥ [षभिः कुलकम् ] *त्तीर्यमां नदी रत्नचर्मणा खंता ॥ १ सूर्यः। २ बृहस्पतिः ३ बुद्धिगुणैः। ४ मार्गवेत्ता। ५ प्रतिविम्बरूपान् । ६ महामूल्यस्वल्पाभरणः। . रखमय ग्रीवाभरणम् । ८ प्रधानहस्ती। ९ पर्वतोन्नतम् । १. सहजातः इव । भरतख दिग्विजयः। ॥ ९९॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोभमानः सितच्छत्रचामरैः सोऽमरोपमः । वारणं प्रेरयामास, चरणाङ्गुष्ठसंज्ञया ॥ २६१॥ समं राज्ञोऽर्द्धसैन्येन, स गत्वा सिन्धुरोधसि । अस्थादुद्धृतरजसा, सेतुबन्धमिवादधत् ॥ २६२ ॥ योजनान्येधते स्पृष्टं, यच्च द्वादश यत्र च । प्रातरुतानि धान्यानि, निष्पद्यन्ते दिनात्यये ॥२६३ ॥ नंदीनदनदीनाथाम्भासु यत् तारणक्षमम् । तत् सम्पस्पर्श हस्तेन, चर्मरत्नं चमृपतिः॥२६४॥सन्दानितकम् नैसर्गिकप्रभावेन, प्रससार तटद्वयम् । तच्चर्मरत्नं प्रक्षिप्तं, सलिलोपरि तैलवत् ॥ २६५ ॥ संह चम्बा चमूनाथश्चर्मरत्नेन तेन सः । उत्तीर्य पद्ययेवाऽऽपदापायाः परं तटम् ॥ २६६ ॥ तं सिसाधयिषुः सर्व, सिन्धोदक्षिणनिष्कुटम् । कल्पान्तपाथोधिरिख, प्रससार चम्पतिः ॥ २६७ ॥ धनुर्निर्घोषवृत्कारदारुणो रणकौतुकी । लीलयैव पराजिग्ये, स सिंह इव सिंहलान् ॥ २६८ ॥ बर्बरानात्मसाच्चक्रे, मूल्यात्तानिव किङ्करान् । टङ्कणानङ्कयामास, राजाङ्केन हयानिव ॥ २६९ ॥ रत्नाकरमिवानीरं, रत्नमाणिक्यपूरितम् । अजयज्जवनद्वीप, नरद्वीपी स लीलया ॥ २७ ॥ तथा कालमुखास्तेन, जिग्यिरे ते यथाऽभवन् । अभुञ्जाना अपि मुखे, क्षिप्तपञ्चाङ्गुलीदलाः॥२७१॥ म्लेच्छा जोनकनामानस्तस्य प्रसरतः सतः । आसन् पराजुखा वायोरिव पादपपल्लवाः ॥ २७२ ॥ अपरा अपि वैताढ्यपर्वतोपत्यकास्थिताः । म्लेच्छजातीविजिग्ये सोहिजातीरिव वार्तिकः ॥ २७३ ॥ प्रौढप्रतापप्रसरः, प्रसरन्ननिवारितम् । आक्रामत् कच्छदेशोवी, सर्वा दिवमिवार्यमा ॥ २७४ ॥ १ नदीहूदसमुद्रजलेषु । * सचमूकश्च खंता ॥ २ नद्याः। ३ वशीचके। ४ नरव्याघ्रः। ५ पर्वतासबभूमिका स्थिताः। ६ गारुडिकः। ककककक SNESS Jain Education Interna l For Private & Personal use only . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथम पर्व चतुर्थः सर्ग: ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१०॥ इति निष्कुटमाक्रम्य, पञ्चानन इवाऽटवीम् । समोा कच्छदेशस्य, तस्थौ सुस्थश्चमृपतिः ॥ २७५ ॥ म्लेच्छभूपतयस्तत्र, विचित्रोपायनैः समम् । सेनापतिं समापेतुर्भक्त्या पतिमिव स्त्रियः ॥ २७६ ॥ रत्नवर्णोत्करान् केचित् , स्वर्णशैलतटोपमान् । केचिच्चलितविन्ध्याद्रिकल्पान् करटिनो ददुः॥ २७७॥ केचिद् विश्राणयामासुर्वाजिनोऽत्यर्कवाजिनः । केचिदञ्जननिष्पन्नान् , स्थान् देवरथोपमान् ॥ २७८ ॥ तत्राऽन्यदपि यत् सारं, तस्मै सर्वेऽपि तद् ददुः । गिरिभ्योऽपि सरित्कृष्टं, रत्नं रत्नाकरे ब्रजेत् ।। २७९ ॥ तवाऽऽयुक्ता इवाऽऽदेशकरा वयमतः परम् । स्थास्यामः खस्वविषयेष्वित्यूचुस्ते चमूपतिम् ॥ २८॥ महीभुजस्तान् यथाई, सत्कृत्य विससर्ज सः । पूर्ववच्च सुखं सिन्धुमुत्ततार तरङ्गिणीम् ॥२८१॥ म्लेच्छेभ्य आहृतं सर्व, तं दण्डं दण्डनायकः । दोहदं कीर्तिवल्लीनां, ढौकयामास चक्रिणे ॥ २८२॥ सत्कृतः कृतिना सोऽथ, प्रसादाच्चक्रवर्तिना। विसृष्टश्च प्रहृष्टोऽगानिजावासं चम्पतिः॥ २८३ ॥ अयोध्यायामिव सुखं, तत्राऽस्थाद् भरतेश्वरः । सिंहः प्रयाति यत्रापि, तस्यौकः स्वं तदेव हि ॥२८४॥ अन्येाराहूय चमूपतिं भूपतिरादिशत् । उद्घाटय तमिस्रायाः, कपाटद्वितयीमिति ॥ २८५ ॥ आज्ञा नरपतेर्मालामिवोपादाय मौलिना । अविदूरे तमिस्राया, गत्वा तस्थौ चमूपतिः ॥ २८६ ॥ कृत्वा मनसि सेनानीः, कृतमालमथाऽमरम् । चक्रेऽष्टमतपः सर्वास्तपोमूला हि सिद्धयः ॥ २८७ ॥ सेनापतिरथ स्नातः, श्वेतसंव्यानपक्षभृत । निर्ययौ स्नानसदनात, सरसो राजहंसवत् ॥ २८८॥ सौवर्ण धूपदहनं, लीलावर्णारविन्दवत । सुषेणः पाणिना बिभ्रत , तमिस्राद्वारमासदत् ॥ २८९॥ १ सिंहः। २ गजान् । ३ अतिकान्तसूर्याश्वान् । ४ नद्याकृष्टम् । * स्वेषु देशेवित्यूचुस्ते तं च खंता ॥ ISROSCRIBERSTAR भरतस्य दिग्विजयः । ॥१०॥ Jain Education in For Private&Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र चालोकयामास, कपाटौ प्राणमच्च सः। महान्तः शक्तिमन्तोऽपि, प्रथमं साम कुर्वते ॥ २९ ॥ वैताव्यसञ्चरद्विद्याधरस्त्रीस्तम्भनौषधम् । अष्टाहिकोत्सवं तत्र, स व्यधत्त महर्द्धिकम् ॥२९१॥ अखण्डैस्तन्दुलैरष्टमङ्गली मङ्गलावहाम् । मण्डलं मात्रिक इवाऽऽलिलेख पृतनापतिः ॥ २९२ ॥ वजं वज्रधरस्येव, चक्रिणो वैरिसूदनम् । दण्डरत्नमुपादत्त, स्वहस्तेन चम्पतिः ॥ २९३ ॥ आजिघांसुरपाक्रामत् , सप्ताष्टानि पदानि सः । मनागपसरत्येव, प्रजिहीर्षुर्गजोऽपि हि॥२९४ ॥ सेनानीस्तेन दण्डेन, त्रिः कपाटावताडयत् । उच्चस्तरां कन्दरां तामातोद्यमिव नादयन् ॥ २९५ ॥ वैताठ्यपृथिवीध्रस्य, विलोचनपुटे इव । बाढमुजघटाते ते, कपाटे वज्रनिर्मिते ॥ २९६ ॥ ततो विघटमानौ तौ, कपाटौ दण्डताडनात । तडत्तडिति कुर्वाणी, चक्रन्दतुरिवोच्चकैः ॥ २९७॥ उदग्भरतखण्डानां, जयप्रस्थानमङ्गलम् । कपाटोद्घाटनं राजे, सेनानाथो व्यजिज्ञपत् ॥ २९८ ॥ • हस्तिरत्नं समारूढः, प्ररूढप्रौढविक्रमः । अथाऽऽययौ तमिस्रायां, नरेन्द्रश्चन्द्रमा इव ॥ २९९ ॥ मृर्द्धस्थेन शिखाबन्धेनेव येन कदापि हि । उपसँर्गा न जायन्ते, तिर्यग्नरसुरोद्भवाः ॥३०॥ अन्धकारमिवाऽशेषं, येन दुःखं प्रणश्यति । शस्त्रघाता इव रुजः, प्रभवन्ति न येन च ॥३०१॥ नृपो यक्षसहस्रेणाधिष्ठितं चतुरङ्गलम् । उयोतक भास्करवन्मणिरत्नं तदाददे ॥ ३०२॥ [त्रिमिर्विशेषकम् ] दक्षिणे कुम्भिनः कुम्भस्थले सोरिनिषदनः । पूर्णकुम्भ इव स्वर्णपिधानं निदधे च तत् ॥ ३०३॥ * चालोकयाञ्चके खंता ॥ सेनापतिः । २ त्रिवारम् । ३ वैताब्यपर्वतस्य । ४ उपद्भवाः । °िन शेष प्र° खंता ॥ For Private & Personal use only . Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१०॥ चतुरङ्गचमूचक्रयुक्तश्चक्रानुगस्ततः । प्रविवेश गुहाद्वारं, केसरीव नृकेसरी ॥ ३०४ ॥ अष्टसुवर्णप्रमाणं, पद्तलं द्वादशास्रिकम् । समतलं मानोन्मानप्रमाणयोगसंयुतम् ॥३०५॥ सर्वदाधिष्ठितं यक्षसहस्रेणाऽष्टकर्णिकम् । योजनानि द्वादशाऽन्धकारन्यकारकारणम् ॥ ३०६ ॥ अधिकरणीसंस्थानं, सूर्यचन्द्रानलप्रभम् । नृपतिः काकिणीरत्नं, चतुरङ्गुलमाददे ॥३०७॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] गोमूत्रिकाक्रमात् तेन, स गुहापार्श्वयोर्द्वयोः । योजनान्ते योजनान्ते, मण्डलान्यालिखन् ययौ ॥३०८॥ धनुःपञ्चशतायामान्येकैकमेकयोजनम् । उयोतकारीण्येकोनपश्चाशत् तानि जज्ञिरे ॥३०९॥ तावत् स्थायीनि तान्यासन् , गुहा चोद्घाटितानना । यावज्जीवति कल्याणी, चक्रवर्ती महीतले ॥३१॥ मण्डलानां प्रकाशेन, तेनाऽप्रस्खलिता चमूः । सञ्चचार सुखं चक्ररत्नानुगनृपानुगा ॥३११॥ सा गुहा सञ्चरन्तीभिश्चमूमिश्चक्रवर्तिनः । असुरादिवलै रत्नप्रभामध्यमिवाऽऽबभौ ॥३१२॥ अन्तः सञ्चरता तेन, चमृचक्रेण सा गुहा । आसीदुद्दामनि?षा, मन्थानेनेव मन्थनी ॥ ३१३॥ रथैः सीमन्तितः सद्योऽश्वखुरैः क्षुण्णकर्करः । जज्ञे पुरीपथ इव, स खिलोऽपि गुहापथः ॥ ३१४ ॥ अन्तःस्थितेन सा तेन, सेनालोकेन कन्दरा । तिरश्चीनत्वमापन्ना, लोकनालिरिवाऽभवत् ॥ ३१५ ॥ मध्यभागे तमिस्रायाः, संव्यानरसने इव । नृपः प्रापदयोन्मग्ना-निमग्ने नाम निम्नंगे ॥३१६ ॥ याम्योदग्भरतक्षेत्रार्द्धाभ्यामागच्छतां नृणाम् । आज्ञालेखे इव कृते, ते नदीछद्मतोद्रिणा ॥३१७ ॥ द्वादशकोणकम्। २ मन्थनघटी । ३ सञ्चाररहितोऽपि । ४ अधोवस्नमेखले। * 'नवस खंता ॥ ५ नद्यौ । ६ नदी मिषेण । भरतस्य दिग्विजयः। ॥१०१॥ For Private & Personal use only . Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्बीफलमिवैकस्यामुन्मजति शिलापि हि । शिलेव तुम्बीफलमप्यन्यस्यां तु निमज्जति ॥ ३१८ ॥ तमिस्रायाः पूर्वभित्तेर्निर्गते ते तु गच्छतः । भित्तेः प्रतीच्या मध्येन, सिन्धौ सङ्गममानतः ॥ ३१९ ॥ बबन्ध बर्द्धकिः पद्यामनवद्यां ततस्तयोः । वैताब्याद्रिकुमारस्य, रहाशय्यामिवाऽऽयताम् ॥ ३२०॥ पद्या क्षणेन सा जज्ञे, चक्रभृवर्द्धकेः खलु । गेहाकारद्रुमेभ्यो हि, कालक्षेपो न वास्तुनः ॥ ३२१ ॥ भूयोभिरपि पाषाणैः, कृता सुश्लिष्टसन्धिभिः। रेजे तावत्प्रमाणैकपाषाणघटितेव सा ॥ ३२२ ॥ सा पाणिवत् समतला, वज्रवच्च द्रढीयसी । गुहाद्वारकपाटाभ्यामिवाऽलक्ष्यत निर्मिता ॥ ३२३ ॥ ससैन्योऽपि सुखेनैव, निम्नगे दुस्तरे अपि । समर्थः पदविधिवच्चक्रवर्ग्युत्ततार ते ॥ ३२४॥ गुहाया उत्तरं द्वारमुत्तराशामुखोपमम् । सह चम्बा क्रमाद् गच्छन्नासदन्मेदिनीपतिः॥३२५ ॥ आकर्ष्याघातनिर्घोष, याम्यद्वारकपाटयोः । भीताविवोजघटाते, तत्कपाटौ स्वयं क्षणात् ॥ ३२६ ॥ तदा विघटमानौ तौ, सरत्सरितिशब्दतः । सरणप्रेरणमिव, चक्रिसैन्यस्य चक्रतुः ॥ ३२७॥ गुहायाः पार्थभित्तिभ्यां, तथा संश्लिष्य संस्थितौ । अलक्ष्येतां यथा तत्राऽभूतपूर्वाविवारी ॥३२८ ॥ ___ अथ प्रथमतश्चक्रं, पुरोगं चक्रवर्तिनः । निर्जगाम गुहामध्यादभ्रमध्यादिवाय॑मा ॥ ३२९ ॥ महीयसा महीनाथो, गुहाद्वारेण तेन च । बलीन्द्र इव पातालविवरण विनिर्ययो । ३३०॥ तस्या गुहाया निःशङ्कलीलागमनशालिनः । निर्ययुर्दन्तिनो विन्ध्यसानुमद्गह्वरादिव ॥ ३३१ ॥ गुहातो वल्गु वल्गन्तो, निर्गच्छन्ति स्म वाजिनः । अम्भोधिमध्यनिर्गच्छदवाजिविडम्बिनः ॥ ३३२॥ १ एतदाण्यकल्पवृक्षेभ्यः। २ कपाटौ । Jain Education Intern For Private & Personal use only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व चतुर्थः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१०२॥ सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । वैताठ्यकन्दरादाढ्यकुंटीगर्भादिवाऽक्षताः । नादयन्तः खनादैा, निरीयुः स्पन्दना अपि ।। ३३३ ॥ पत्तयोऽपि विनिष्पेतुर्महौजस्का गुहामुखात् । सद्यः स्फुटितवल्मीकवदनादिव पन्नगाः॥ ३३४ ॥ पश्चाशद्योजनायामां, तामतिक्रम्य कन्दराम् । उदग्भरतवर्षाई, विजेतुं प्राविशन्नृपः ॥ ३३५॥ किरातास्तत्र निवसन्त्यापाता नाम दुर्मदाः । आढ्या महौजसो दीप्ता, भूमिष्ठा इव दानवाः ॥३३६॥ तेविच्छिन्नमहाहHशयनासनवाहनाः । अनल्पस्वर्णरजताः, कुबेरस्येव गोत्रिणः ॥ ३३७ ॥ बहुजीवधनास्ते च, बहुदासपरिच्छदाः । अजाताभिभवाः प्रायः, सुरोधानद्रुमा इव ॥ ३३८ ॥ अनेकसम्परायेषु, नियूंढबलशक्तयः । महाशकटभारेषु, महोक्षा इव ते सदा ॥ ३३९ ॥ प्रसह्य भरताधीशे, कृतान्त इव सर्पति । अनिष्टशंसिनस्तेषामुत्पाता अभवन्निति ॥ ३४० ॥ चलद्भरतसैन्यप्राग्भारभारैरिवादिता । प्रकम्पितगृहोद्याना, प्रचकम्पे वसुन्धरा ॥ ३४१ ।। दिगन्तव्यापिभिः प्रौदैः, प्रतापरिव चक्रिणः । अजायन्त दिशां दाहा, दावानलसहोदराः ॥ ३४२ ॥ क्षरता रजसाऽत्यन्तमनालोकनभाजनम् । बभूवुः ककुभः सर्वाः, पुष्पवत्य इव स्त्रियः ॥ ३४३ ॥ दुःश्रवक्रूरनिर्घोषा, आस्फलन्तः परस्परम् । पयोनिधाविव ग्राहा, दुर्वाता विजजृम्भिरे ।। ३४४ ॥ निपेतुर्गगनादुल्का, उल्मकानीव सर्वतः । समस्तम्लेच्छव्याघ्राणां, प्रक्षोभस्य निबन्धनम् ॥ ३४५ ॥ अभवन् वज्रनिर्घाता, महानिर्घोषभीषणाः । क्रुद्धोत्थितकृतान्तस्य, हस्तघाता इव क्षितौ ॥ ३४६ ॥ स्थाने स्थाने काकचिल्लमण्डलानि नभस्तले । भ्रमुः समुपसर्पन्त्याछत्राणीवाऽन्तकश्रियः ॥ ३४७॥ १ धनाढ्यगृहगर्भाद् इव। २ क्षतरहिताः। ३ भूमिस्थिताः । ४ अनेकयुद्धेषु । ५ रजस्वलाः। ६ मत्स्यविशेषाः । भरतस्य दिग्विजयः। ॥१०२॥ Jain Education Interna For Private & Personal use only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सौवर्णसन्नाहपरशुप्रासरश्मिभिः । सहस्ररश्मि कुर्वाणं, कोटिरश्मिमिवाऽम्बरे ॥ ३४८ ॥ दन्तुराम्बरमुद्दण्डैर्दण्डकोदण्डमुद्गरैः । ध्वजस्थव्याघ्रसिंहाहित्रस्ताम्बरचरीगणम् ॥ ३४९ ॥ महाद्विपघटामेघान्धकारितदिगाननम् । यमाननपरिस्पर्द्धिरथाग्रमकराननम् ॥ ३५० ॥ खुरापातैस्तुरङ्गाणां, पाटयन्तमिव क्षितिम् । जयतूर्यरवै|रैः, स्फोटयन्तमिवाऽम्बरम् ॥ ३५१ ॥ भौमेनाऽग्रेसरेणाऽर्कमिव चक्रेण भीषणम् । आयान्तं भरतं दृष्ट्वा, किराताश्रुकुपुस्तराम् ॥ [पञ्चभिः कुलकम्]] मिथः सम्भूय ते क्रूरैग्रहमैत्रीविडम्बिनः । अवनी संजिहीर्षन्त, इव सक्रोधमभ्यधुः॥ ३५३ ॥ अप्रार्थितप्रार्थयिता, कोऽयं बाल इवाऽल्पधीः । पृथग्जन इव श्रीहीधृतिकीर्तिविवर्जितः ॥ ३५४ ॥ परिक्षीणपुण्यचतुर्दशीको हीनलक्षणः । अस्मद्विषयमायाति, मृगः सिंहगुहामिव ? ॥ ३५५ ॥ तदेनमुद्धताकारं, प्रसरन्तमपि क्षणात् । महावाता इवाऽम्भोदं, प्रक्षिपामो दिशोदिशि ॥ ३५६ ॥ इत्युच्चैर्विब्रुवाणास्ते, सम्भूय भरतं प्रति । उदतिष्ठन्त युद्धाय, प्रत्यब्दं शरैभा इव ॥ ३५७ ॥ अभेद्यान् कूर्मपृष्ठास्थिशकलैरिव निर्मितान् । सन्नाहान् धारयामासुः, किरातपतयोऽथ ते ॥ ३५८ ॥ दिशन्ति मूर्नामुत्केशनिशाचरशिरःश्रियम् । ऋक्षादिकेशच्छन्नानि, शिरस्त्राणानि ते दधुः ॥ ३५९ ॥ उत्साहेनोच्छ्सद्देहतया सन्नाहजालिकाः । त्रुटन्ति स प्रतिमुहरहो ! तेषां रणोत्कता ॥ ३६० ॥ शिरोभिरुत्कचैस्तेषां, शिरस्त्राणान्युदासिरे । त्राता किमपरोऽस्माकमित्यमर्षवशादिव ॥ ३६१ ॥ केचित कुपितकीनाशभ्रकुटीकुटिलान्यधुः । धनूंषि शृङ्गघटितान्यधिज्यीकृत्य लीलया ॥ ३६२ ॥ खेचरीगणम् । २ मङ्गलग्रहेण । ३ रविमङ्गलशनिराहुकेतुरूपाः । ४ अष्टापदाः । ५ भालूका दि । ६ रणोत्कण्ठता । त्रिषष्टि. १८५ For Private & Personal use only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाका चतुर्थः पुरुषचरिते सर्गः ऋषभजिन १०३॥ भरतचक्रिचरितम् । केपि सङ्गरदुर्वारांस्तरवारीन् भयङ्करान् । कोशादाचकृषुलीलातेल्पकल्पान् जयश्रियः॥ ३६३ ॥ केचिदुद्दधिरे दण्डान् , दण्डपाणेरिवाऽनुजाः । कुन्ताननर्तयन् केऽपि, केतूनिव नभस्तले ॥ ३६४॥ | शूलान्यधारयन् केपि, शूलाकर्तुमिव द्विषः । प्रीतये प्रेतराजस्याऽऽमत्रितस्य रणोत्सवे ॥ ३६५ ॥ विद्विषद्वर्तिकाचक्रपाणसर्वस्वतस्करान् । अयःशल्यान् निदधिरे, श्येनानिव करेऽपरे ॥ ३६६ ॥ पिपातयिषव इव, नमस्तस्तारकोत्करम् । केचिदाददिरे सद्यो, मुद्गरानुदुरैः करैः ॥ ३६७ ॥ विविधान्यायुधान्यन्येऽप्यधुरायोधनेच्छया । विना शस्त्रं न कोऽप्यासीद् , विना विषमिवोरगः ॥३६८॥ उद्दिश्य भरतानीकमनीकरसलालसाः । अभ्यधावन्नेककालमेकात्मान इवाऽथ ते ॥ ३६९ ॥ भरतस्याऽग्रसैन्येन, सार्द्ध युयुधिरे स्यात् । म्लेच्छाः शस्त्राणि वर्षन्तोऽरिष्टाब्दाः कर्रकानिव ॥ ३७० ॥ भुवो मध्यादिवोत्पेतुर्दिअखेभ्य इवाऽपतन् । पेतुश्च व्योमत इव, तेभ्यः शस्त्राणि सर्वतः ॥ ३७१॥ भरतेशाग्रसेनायां, किरातानां शिलीमुखैः । न तदासीन यद् भिन्नं, दुर्जनानामिवोक्तिभिः ॥३७२ ॥ म्लेच्छसैन्येन पर्यस्ता, भरतेशाग्रसादिनः । नदीमुखोमय इवाऽवलन् वारिधिवेलया ॥ ३७३ ॥ चक्रिणः करिणखेमू, रसन्तो विरसखरम् । निम्नत्सु म्लेच्छसिंहेषु, शिलीमुखनखैः शितैः ॥ ३७४ ॥ ताडिता म्लेच्छसुभटैश्चण्डैदण्डायुधैर्मुहुः । भूपतेः पत्तयः पेतुर्लुलन्तः कन्दुका इव ॥ ३७५ ॥ स्वच्छन्दं म्लेच्छसैन्येन, नृपानध्वजिनीरथाः । अभज्यन्त गदाघातैर्वज्रधातैरिवाऽद्रयः॥ ३७६ ॥ तिमिङ्गिलैरिव म्लेच्छेस्तसिन समरसागरे । ग्रस्तत्रस्तं नृपचमूनकचक्रमजायत ॥ ३७७ ॥ १ खनान् । २ लीलाशय्यासदृशान् । ३ यमस्य । ४ लोहशल्यान् । ५ उत्पातमेघाः । ६ वर्षांपलान् । . महामत्स्यैः । भरतस्य दिग्विजयः। ॥१०३॥ For Private & Personal use only . Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाथामिव तां सेना, सेनानाथः पराजिताम् । पश्यन् सुषेणः कोपेनाऽनोदि राज्ञ इवाऽऽज्ञया ॥३७८॥ आताम्रनयनस्ताम्रवदनः स क्षणादभृत् । दुरीक्षो नररूपेण, वैश्वानर इव स्वयम् ॥ ३७९ ॥ रक्षोराज इवाऽशेषान् , ग्रसितुं परसैनिकान् । स्वयं संवर्मयामास, सुषेणः पृतनापतिः॥ ३८॥ उत्साहोच्छुसदङ्गत्वादतिगाढत्वमागतम् । सौवर्ण वर्म सेनान्यस्त्वगन्तरमिवाऽशुभत् ॥ ३८१॥ अशीत्यङ्गुलमुच्छ्रेित्यामेकन्युनशताङ्गुलम् । परिणाहे दैर्ये पुनरष्टोत्तरशताङ्गुलम् ॥ ३८२ ॥ द्वात्रिंशदङ्गुलोत्सेधं, सततोन्नतमौलिकम् । चतुरङ्गुलकर्ण च, विंशत्यङ्गुलबाहुकम् ॥ ३८३ ॥ षोडशाङ्गुलजङ्घाकं, चतुरङ्गुलजानुकम् । चतुरङ्गुलोच्चखुरं, वृत्तं वलितमध्यकम् ॥ ३८४॥ विशालसङ्गतनतप्रसन्नपृष्ठशालिनम् । दुकूलतन्तुभिरिव, कोमलैर्लोमभिर्युतम् ॥ ३८५॥ प्रशस्तद्वादशावर्त, शुद्धलक्षणलक्षितम् । सुजातयौवनप्राप्तशुकपिच्छहरिच्छविम् ॥ ३८६ ॥ कशानिपातरहितं, सादिचित्तानुगामिनम् । रत्नस्वर्णवल्गाव्याजाद् , दोभ्यां श्लिष्टमिव श्रिया ॥३८७ ॥ काञ्चनैः किङ्किणीजालैः, क्वणद्भिर्मधुरस्वरम् । अन्तर्ध्वनन्मधुकराम्भोजस्रग्भिरिवार्चितम् ॥ ३८८॥ पञ्चवर्णमणीमिश्रस्वर्णालङ्करणांशुभिः । रूपाद्वैतपताकाङ्कमिव बिभ्राणमाननम् ॥३८९ ॥ काञ्चनाम्भोजतिलक, भौमाङ्कितमिवाऽम्बरम् । चामरोसनिभतोऽन्यौ कर्णाविव विभ्रतम् ॥ ३९० ॥ वज्रिणो वाहनमिवाऽऽकृष्टं पुण्येन चक्रिणः । मुञ्चन्तं चरणौ वक्रो, पतन्तौ लालकादिव ॥ ३९१ ॥ सुपर्णमन्यमृयैव, मूर्तिमन्तमिवाऽनिलम् । क्षणेन योजनशतोल्लङ्घने दृष्टविक्रमम् ॥ ३९२ ॥ १ अग्निः । २ औनत्ये। ३ विशालतायाम्। * किङ्कणी खंता ।। Jain Education Internet For Private & Personal use only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१०४॥ Jain Education Inter कर्दमोदकपाषाणशर्करागर्त्तदुःपमात् । महास्थलीगिरिदरीदुर्गाश्चोत्तारणक्षमम् ॥ ३९३ ॥ ईषद्भूलग्नपादत्वात्, सञ्चरन्तमिवाऽम्बरे । मेधाविनं विनीतं च पञ्चधाराजितश्रमम् ॥ ३९४ ॥ कमलामोदनिःश्वासं, कमलापीडमाख्यया । साक्षाज्जयमिवाऽऽरोहद्, वाजिराजं चमूपतिः ॥ ३९५ ॥ [ चतुर्दशभिः कुलकम् ] पञ्चाशदङ्गुलं दैर्घ्य, विस्तारे षोडशाङ्गुलम् । अर्द्धाङ्गुलं च बाहल्ये, स्वर्णरत्नमयत्संरु ।। ३९६ ॥ अपास्तकोशं निर्मुक्तनिर्मोकमिव पन्नगम् । तीक्ष्णधारमतिदृढं, द्वैतीयीकमिवाऽशनिम् ।। ३९७ ॥ विचित्रपुष्करश्रेणिव्यक्तवर्णविराजितम् । खड्गरलं स जग्राह द्विषां पत्रमिवाऽन्तकः ॥ ३९८ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] जातपक्ष इवाहीन्द्रः सन्नद्ध इव केसरी । बभूव खड्गरलेन, स तेन पृतनापतिः ।। ३९९ ।। तडिद्दण्ड इवाssकाशे, तरलं भ्रमयन्नसिम् । वाजिनं प्रेरयामास, सांयुगीनं चमूपतिः ॥ ४०० ॥ जलकान्तो जलमिव, स्फाटयन् विद्विषद्धलम् । विवेश वाजिना तेन, सुषेणः समराङ्गणम् ॥। ४०१ ॥ सुषेणे निघ्नति सुर्द्विषः केऽपि मृगा इव । नेत्रे निमील्य केऽप्यस्थुः पतित्वा शशका इव ॥ ४०२ ॥ ऊर्द्धभूयाऽपरे तस्थुः खेदिता रोहिता इव । आरोहन् विषमस्थानं, केऽपि शाखामृगा इव ॥ ४०३ ॥ केषाञ्चित् पेतुरस्त्राणि, पत्राणीव महीरुहाम् । आतपत्राणि केषाञ्चिद्, यशांसीव समन्ततः ॥ ४०४ ॥ केषाञ्चित् तुरगास्तस्थुर्मन्त्रस्तब्धा इवोरगाः । केषाञ्चिदप्यभज्यन्त, स्यन्दना मृन्मया इव ॥ १ खड्गमुष्टिः । * चोदयामास सं २, आ. नोदयामास खंता ॥ २ रणकुशलम् । ४०५ ॥ ३ कपयः । प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रि चरितम् ॥ भरतस्य दिग्विजयः । ॥१०४॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खमप्यसंस्तुतमिव, प्रत्यक्षन्त न केचन । आत्मप्राणान् गृहीत्वा तु, ययुर्लेच्छा दिशोदिशम् ॥ ४०६॥ पर्यस्तास्ते सुषेणेनाऽम्भःपूरेण द्रुमा इव । निःस्थामानो योजनानि, भूयांसि व्यपचक्रमुः ॥४०७॥ ते वायसा इवैकत्र, सम्भूयाऽऽलोच्य च क्षणम् । आतुरा मातरमिव, ययुः सिन्धुं महानदीम्।।४०८॥ तस्याश्च सैकते कृत्वा, संस्तरान् सिकतोत्करैः । ते सम्भूयोपविविशुरपनानोद्यता इव ॥ ४०९ ॥ नग्ना उत्तानका मेघमुखान् खकुलदेवताः । चित्ते नागकुमारांस्ते, कृत्वाऽष्टमतपो व्यधुः ॥ ४१०॥ तदष्टमतपःप्रान्ते, चक्रितेजोभयादिव । तेषां नागकुमाराणामासनानि चकम्पिरे ॥ ४११॥ ते दृष्ट्वाऽवधिना तांस्तु, म्लेच्छानास्तिथास्थितान् । अर्त्या पितृवदभ्येत्य, प्रादुरासंस्तदग्रतः ॥ ४१२ ॥ ब्रूत भो! भवतामर्थः, कोऽधुना मनसीप्सितः? । अन्तरिक्षस्थिता एवं, ते किरातान् बभाषिरे ॥४१३।। दृष्ट्वा मेघमुखान्नागकुमारानभसि स्थितान् । तेऽवननञ्जलीन् भालेष्वत्यन्तषिता इव ॥ ४१४ ॥ अमद्देशमनाक्रान्तपूर्व कोऽप्यागतोऽधुना । यथा स गच्छति तथा, कुरुतेत्यूचिरे च ते ॥ ४१५॥ ऊचुर्मेघमुखाश्चैवं, भरतश्चक्रवर्त्ययम् । देवासुरनरेन्द्राणामप्यजय्यो महेन्द्रवत् ॥ ४१६ ॥ मन्त्रतत्रविषास्त्राग्निविद्यादीनामगोचरः । गिरिग्रोवेव टङ्कानां, चक्रवर्ती महीतले ॥ ४१७ ॥ युष्माकमनुरोधेन, वयमस्य तथाऽपि हि । उपसर्ग करिष्याम, इत्युक्त्वा ते तिरोऽभवन् ॥ ४१८ ॥ अम्भोधय इवोत्पत्य, भुवोऽम्भोदा नभस्तलम् । व्याप्नुवन्तोऽञ्जनश्यामरुचः सञ्जज्ञिरे क्षणात् ॥४१९॥ तेऽतर्जयन्निव तडितजेन्या चक्रभृच्चमूम् । ऊर्जितैगर्जितरवैश्वाऽऽचुक्रुशुरिवाऽसकृत् ॥ ४२० ।। अपरिचितम् । २ निर्बलाः। ३ मृतस्नाने उद्यता इव । ४ पूर्वमनाक्रान्तम् । ५ गिरिपाषाणः । ६ पाषाणभेदनास्त्राणाम् । ७ विद्युद्रूपतर्जन्यङ्गुल्या। Jan Education International For Private & Personal use only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः पुरुषचरिते ॥१०५॥ ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम् । ते तस्थुरुपरि मापस्कन्धावारस्य तत्क्षणम् । चूर्णनाय तत्प्रमाणोद्यतवज्रशिलोपमाः ॥ ४२१॥ अयोग्रेरिव नाराचैरिव दण्डैरिवाऽथ ते । धाराभिरम्भसां तत्र, प्रावर्त्तन्त प्रवर्षितुम् ॥ ४२२ ॥ मेघाम्भसा पूर्यमाणे, समन्तादपि भूतले । अनाव्यन्त स्थास्तत्राऽनकायन्त गजादयः ॥ ४२३ ।। क्वाऽप्यगच्छदिवाऽऽदित्यः, प्रणेशुरिव पर्वताः । तेन मेघान्धकारेण, स्फूर्जता कालरात्रिवत् ॥ ४२४ ॥ एकान्धकारता चैकजलभावश्च भूतले । तदानीं युगपद् युग्मधर्माविव बभूवतुः ॥ ४२५ ॥ __अरिष्टवृष्टिमुत्कृष्टां, प्रेक्ष्य तां चक्रवर्त्यपि । चर्मरत्रं स्वहस्तेन, प्रियभृत्यमिवाऽस्पृशत ॥४२६॥ स्पृष्टं तच्चक्रिहस्तेन, चर्मरत्नमवर्द्धत । योजनानि द्वादशोदवनेनेव वारिदः॥ ४२७ ॥ तस्मिन् जलस्योपरिस्थे, घनाब्धेरिव भृतले । चर्मरत्ने समारुह्य, तस्थौ राजा ससैनिकः ॥ ४२८ ॥ मण्डितं नवनवत्या, सहौतिचारुभिः । चामीकरशलांकाभिः, क्षीराब्धिमिव विद्रुमैः ॥ ४२९ ॥ व्रणग्रन्थिविहीनेन, सरलत्वैकशालिना । नालेन नलिनमिव, स्वर्णदण्डेन शोभितम् ॥ ४३०॥ तोयातपमरुद्रेणुत्राणक्षममिलापतिः । पस्पर्श पाणिना छत्रं, चर्मवद् ववृधे च तत् ॥ ४३१॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] छत्रदण्डस्योपरि च, ध्वान्तध्वंसकृते नृपः । तेजसाऽतिनभोरनं, मणिरत्नं न्यवेशयत् ॥ ४३२ ॥ तरदण्डमिवाऽराजत् , सम्पुटं च्छत्रचर्मणोः । ततः प्रभृति लोकेऽभूद् , ब्रह्माण्डमिति कल्पना ॥ ४३३॥ लोहाः । २ नौवदाचरणमकुर्वत । ३ नक्रवदाचरणमकुर्वत । ४ उत्तरपवनेन । * • पैश्चारुरोचिषाम् सं १ खं ॥ It°लाकानां, सं १ खं ॥ ५ प्रवालैः। ६ अन्धकारनाशार्थम् । ७ अतिक्रान्तसूर्यम् । भरतस्य दिग्विजयः। ॥१०५॥ For Private & Personal use only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चर्मरत्ने च सुक्षेत्र, इवोप्तानि दिवामुखे । सायं धान्यान्यजायन्त गृहिरत्नप्रभावतः ॥ ४३४॥ प्रातरुताश्च कूष्माण्डपालक्यामूलकादयः । दिनान्ते निरपद्यन्त, प्रासादा ऐन्दवा इव ॥ ४३५॥ उप्ता दिनमुखे चूतकदल्याद्याः फलद्रुमाः। दिवान्तेऽपि फलन्ति स्स, प्रारम्भा महतामिव ॥ ४३६ ॥ धान्यशाकफलान्येतान्यभुक्त मुदितो जनः । उद्यानकेलिगतवन्नाबुद्ध कटकश्रमम् ॥ ४३७ ॥ चर्मरत्नच्छत्ररत्नमध्ये मध्यजगत्पतिः । प्रासादस्थ इव स्वस्थोऽवतस्थे सपरिच्छेदः ॥ ४३८ ॥ सप्ताऽभृवन्नहोरात्राण्यश्रान्तं तत्र वर्षताम् । तेषां नागकुमाराणां, तदा कल्पान्तकालवत् ॥ ४३९॥ पापाः केऽमी ममेदृक्षोपसर्ग कर्तुमुद्यताः । इति भावं नरेन्द्रस्य, विदित्वाऽथ महौजसः॥४४॥ सदा सन्निहिता यक्षास्ते सहस्राणि षोडश । सन्नद्धा बद्धतूणीरा, अधिज्यीकृतकार्मुकाः॥ ४४१॥ दिर्धक्षव इव क्रोधानलेन परितः परान् । एत्य मेघमुखान् नागकुमारानेवमब्रुवन् ॥ ४४२॥ अरे वराकाः! किं यूयं, हन्त ! निश्चेतना इव । न जानीथ महीनाथं, चक्रिणं भरतेश्वरम् ॥ ४४३॥ विश्वाजय्ये नृपेऽमुष्मिन्नारम्भो वोऽयमापदे । महाशिलोच्चये दन्तप्रहारो दन्तिनामिव ॥ ४४४॥ एवं सत्यप्यपयात, त्वरितं मत्कुणा इव । अदृष्टपूर्वो भावी वोऽपमृत्यु ढमन्यथा ॥ ४४५॥ __ इत्याकाऽऽकुला मेघबलं मेघमुखाः सुराः । संजहुरिन्द्रजालज्ञा, इन्द्रजालमिव क्षणात् ॥ ४४६ ॥ ययुः किरातांस्ते मेघमुखास्तच्चाऽऽचचक्षिरे। भरतं शरणं गत्वाऽऽश्रयध्वमिति चाऽऽदिशन् ॥४४७॥ ततस्तद्वचनान्म्लेच्छा, भग्नेच्छा भरतेश्वरम् । शरण्यं शरणायेयुरनन्यशरणास्तदा ॥ ४४८॥ १ कूष्माण्ड: "कोलु" इति भाषायाम् । २ सैन्यश्रमम् । ३ सपरिवारः । ४ दग्धुमिच्छवः । * °च्छास्ते भीता भ° सं 20 Jan Education in For Private & Personal use only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पर्व चतुर्थः त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१०६॥ सर्ग: ऋषभजिन| भरतचक्रि चरितम् । फणामणीनिवाहीनामेकतः पुञ्जितान् मणीन् । अन्तःसारमिव मेरोश्वारुचामीकरोत्करम् ॥ ४४९॥ अश्वरत्नप्रतिच्छन्दानिवाऽश्वानपि लक्षशः । उपायनेऽर्पयामासुस्ते नत्वा भरतेशितुः॥४५०॥ [युग्मम् ]] निबद्धाञ्जलयो मूर्ध्नि, वाचा चाटूक्तिगर्भया । संगर्भा इव Vतानामिति चोचैबभाषिरे ॥ ४५१ ॥ विजयस्व जगन्नाथ !, प्रचण्डाखण्डविक्रम आखण्डल इवाऽसि त्वं, पखण्डे क्षोणिमण्डले ॥४५२॥ वैताख्यपर्वतस्याऽस्मद्भूर्वप्रस्मैकभूपते ! । गुहाप्रतोली त्वदृते, क उद्घाटयितुं क्षमः? ॥ ४५३ ॥ ज्योतिश्चक्रमिवाऽऽकाशे, स्कन्धावारं जलोपरि। अन्यो धर्तुमलम्भूष्णुर्जिष्णो! त्वामन्तरेण कः? ॥४५४॥ एवमद्भुतया शक्त्या, स्वामिन्नापि दिवौकसाम् । अजय्य इति विज्ञातोऽस्यज्ञानागः सहख नः ॥ ४५५ ॥ नवं जीवातुमधुना, पृष्ठे हस्तं प्रयच्छ नः । स्थास्यामोऽतः परं नाथ, त्वदाज्ञावर्तिनो वयम् ॥ ४५६॥ भरतोऽप्यात्मसात्कृत्य, तान् सत्कृत्य च कृत्यवित् । विससर्बोत्तमानां हि, प्रणामावधयः क्रुधः॥४५७॥ गिरिसागरमर्यादं, सिन्धोरुत्तरनिष्कुटम् । नृपाज्ञया सुषेणोऽथ, साधयित्वा समाययौ ॥ ४५८॥ भोगान तत्रोपभुञ्जानश्चिरं तस्थौ महीपतिः । आयीकर्तुमिवाऽनार्यान् , निजार्यजनसङ्गमात् ॥ ४५९ ॥ अन्यदाऽयुधशालाया, भाविशालं महीभृतः । चक्ररत्नं निरक्रामत् , प्रतिभूः ककुभां जये ॥४६॥ गच्छतः पूर्वमार्गेणाभि क्षुद्रहिमवगिरिम् । ययौ तस्याऽध्वना राजा, प्रवाह इव कुल्यया ॥ ४६१ ॥ कैश्चित् प्रयाणकैर्गच्छन्, गजेन्द्र इव लीलया । नितम्ब दक्षिणं क्षुद्रहिमाद्रेः प्राप भूपतिः ॥ ४६२ ॥ अश्वरत्नप्रतिविम्बानीव। २ सहोदराः। ३ बन्दिनाम् । ४ अस्मद्भूमिदुर्गस्य । ५ समर्थः। ६ अज्ञानापराधम् । सञ्जीवनौषधरूपम् । ८ कान्तिविशालम् । भरतस्य दिग्विजयः। ॥१०६॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मिंश्च भूर्जतगरदेवदारुवनाकुले । न्यधान्नरेन्द्रः शिबिरं, महेन्द्र इव पाण्डके ॥ ४६३ ॥ उद्दिश्य क्षुद्र हिमवत्कुमारं तत्र चाऽऽर्षभिः । चक्रेऽष्टमं कार्यसिद्धेस्तपो मङ्गलमादिमम् ॥ ४६४ ॥ ततश्चाऽष्टमभक्तान्ते, निशान्त इव भास्करः । रथारूढो महातेजा, निर्ययौ शिबिरोदधेः ॥ ४६५ ॥ वेगेन गत्वा हिमवत्पर्वतं त्रिरताडयत् । साटोपो रथशीर्षेण, शीर्षण्यः पृथिवीभुजाम् ॥ ४६६ ॥ हिमाचलकुमाराय निजनामाङ्कितं शरम् । विससर्जाऽथ भूनाथो, वैशाखस्थानकस्थितः ॥ ४६७ ॥ द्वासप्ततिं योजनानि, विहायसा विहङ्गवत् । शरः स गत्वा हिमवत्कुमारस्य पुरोऽऽपतत् ॥ ४६८ ॥ स समालोक्य तं वाणमारां व्याल इव द्विपः । कोपादजनि तत्कालं, लोहितायितलोचनः ॥ ४६९ ।। स करेण गृहीत्वेपुं, तत्र नामाऽक्षराणि च । दृष्ट्वा शमं ययौ दीप, इव पन्नगदर्शनात् ॥ ४७० ॥ प्रधानपुरुषेणेव राज्ञस्तेनेषुणा सह । उपायनान्युपादाय स ययौ भरतेश्वरम् ॥ ४७१ ॥ उक्त्वा जयजयेत्युच्चैरन्तरिक्षस्थितोऽथ सः । आदौ भूपाय तं काण्ड, काण्डकार इवाऽऽर्पयत् ॥ ४७२ ॥ सोऽदाद् देवद्रुसुँमनोमालां गोशीर्षचन्दनम् । सर्वौषधीर्हृदाम्भव, राज्ञे सारं हि तस्य तत् ॥ ४७३ ॥ कटकान् बाहुरक्षांच, देवदूष्यांशुकानि च । ददौ नरपतेर्दण्डे, प्राभृर्तच्छद्मनाऽथ सः ॥ ४७४ ॥ स्वामिन्नुत्तरदिक्प्रान्ते, तवाऽऽयुक्तं इवाऽस्म्यहम् । इत्युक्त्वा विरतो राज्ञा, स सत्कृत्य व्यसृज्यत ॥ ४७५ || अद्रेस्तस्य प्रस्थमिव, सह प्रस्थितमुच्चकैः । स वालयामास रथं, मनोरथमिव द्विषाम् ॥ ४७६ ॥ १ पाण्डके वने । २ प्रातःकाले ३ अग्रणीः । ४ अङ्कुशम् । ५ दुष्टगजः । ६ याणकारकः । ७ कल्पवृक्षपुष्पमालाम् । ८ उपायनमिषेण । ९ भृत्यः । . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते प्रथमं पर्व चतुर्थः सगः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१०७॥ भरतस्य गत्वा ऋषभकूटाद्रिमृषभखामिभूस्ततः । जघान रथशीर्षण, त्रिर्दन्तेनेव दन्तिराट् ॥ ४७७ ॥ स्थापयित्वा रथं तत्र, पृथिवीपतिरग्रहीत् । पाणिना काकिणीरनं, रश्मिकोशमिवार्यमा ॥४७८ ॥ अवसर्पिण्यां तृतीयारप्रान्ते भरतोऽस्म्यहम् । चक्रीति वर्णान् काकिण्या, तत्पूर्वकटकेऽलिखत् ॥४७९॥ ततो व्यावृत्य सद्वत्तः, स्कन्धावारं निजं ययौ । चकाराऽष्टमभक्तान्तपारणं च महीपतिः॥४८॥ ततश्च क्षुद्रहिमवत्कुमारस्य नरेश्वरः । अष्टाह्निकोत्सवं चक्रेऽनुरूपं चक्रिसम्पदः ॥ ४८१॥ ___ गङ्गासिन्धुमहानद्योरन्तरालमहीतले । अमाद्भिरिव वियत्युत्प्लवमानस्तुरङ्गमैः ॥ ४८२ ॥ सैन्यभारपरिक्लान्तां, सेक्तुकामैरिवाऽवनिम् । प्रस्रवद्भिर्मदजलप्रवाहं गन्धसिन्धुरैः ॥ ४८३ ॥ उद्दामनेमिरेखाभिः, सीमन्तालतामिव । विदधानैर्वसुमती, सन्दिभिः स्यन्दनोत्तमैः ।। ४८४ ॥ पत्तिभिः कोटिसङ्ख्यैश्च, प्रसरद्भिर्महीतले । दर्शयद्भिर्नराद्वैतमिवाऽद्वैतपराक्रमैः ॥ ४८५ ॥ अश्ववारानुगो जात्यमतङ्गज इव वजन् । चक्ररत्नानुगश्चक्री, प्राप वैताव्यपर्वतम् ॥ ४८६ ॥ शिविरं शबरीगीताविगीतादिजिनस्तवे । उदनितम्बे तस्याऽद्रेनरेन्द्रः सन्न्यवेशयत् ॥ ४८७॥ __ ततो नमिविनम्याख्यौ, विद्याधरपती प्रति । प्रैजिधाय विशामीशो, मार्गणं दण्डमार्गणम् ॥४८८॥ आलोक्य मार्गणं तं च, विद्याधरपती वरौ । कोपाटोपसमाविष्टावित्यमन्त्रयतां मिथः ॥ ४८९ ॥ द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य, वर्षेऽत्र भरतेऽधुना । उत्पेदे भरतो हन्त !, प्रथमश्चक्रवर्त्ययम् ॥ ४९०॥ असावृषभकूटाद्रौ, चन्द्रबिम्ब इव स्वयम् । नामधेयं लिखित्वा खं, वलितोत्र समाययौ ॥ ४९१॥ * काकणी खंता ॥ काकण्या, खंता ॥ नरमयम् । २ अनिन्द्यः । प्रेरयामास । ४ दण्डयाचकम् । दिग्विजयः। ॥१०७॥ For Private & Personal use only . Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोहक इवेभस्य, वैतादयस्याऽस्य भूभृतः । पार्श्वे कृतपदोऽस्त्येप, भूपतिर्भुजगर्वितः ॥ ४९२॥ तदेष जितकासी सन्नसत्तोऽपि जिघृक्षति । मन्ये दण्डं तदुद्दण्डं, चिक्षेपाऽस्मासु सायकम् ॥४९३॥ तावन्योऽन्यमुदित्वैवमुत्थाय समरोन्मुखौ । प्रतस्थाते गिरिप्रस्थं, स्थगयन्तौ निजैर्बलैः ॥ ४९४ ॥ तत्र धुसद्धलानीव, सौधर्मेशाननाथयोः । आज्ञयाऽथ तयोर्विद्याधरानीकान्युपाययुः॥ ४९५ ॥ तेषामुच्चैः *किलिकिलारावैर्वैताख्यपर्वतः । जहासेव जगजेंव, पुस्फोटेव समन्ततः ॥ ४९६॥ विद्याधरेन्द्रभृतकाः, कलधौतमयान् पृथून् । दुन्दुभीन् वादयामासुर्वैताव्यस्येव कन्दरान् ॥ ४९७ ॥ उदग्दक्षिणयोः श्रेण्योभूमिग्रामपुराधिपाः । विचित्ररत्नाभरणा, रत्नाकरसुता इव ॥ ४९८ ॥ अस्खलद्गतयो व्योम्नि, सौपर्णेया इवाऽचलन् । समं नमिविनमिभ्यां, तन्मूर्त्तय इवाऽपराः ॥ ४९९॥ एयुर्विचित्रमाणिक्यप्रभोद्भासितदिअखैः । विमानैः केऽप्यसंलक्ष्यभेदा वैमानिकामरैः ॥५०॥ गर्जद्भिः शीकरासारवर्षिभिर्गन्धसिन्धुरः । पुष्करावर्तकाम्भोदसोदरैरपरेऽचलन् ॥५०१॥ आच्छिन्नैरिन्दुमार्तण्डप्रभृतिज्योतिषामिव । सुवर्णरत्वरचितैः, स्यन्दनैः केचिदापतन् ॥ ५०२॥ गगने वल्गु वल्गद्भिवेगातिशयशालिभिः । केपि प्रतस्थिरे वायुकुमाररिख वाजिभिः॥ ५०३ ॥ विहस्तहस्ताः शस्त्रोधैर्वज्रसन्नाहधारिणः । प्लवमानाः प्लंबङ्गवत् , केचिदेयुः पदातयः॥५०४॥ तावथोत्तीर्य वैतात्याद्, विद्याधरबलावृतौ । युयुत्समानी सन्नद्धी, भरतेश्वरमीयतुः॥५०५॥ कृतस्थानः। २ जयाभिमानी। ३ देवसैन्यानि इव। * किलकिला सं १, २. ॥ सीकरा सं १, खं ॥ x४ व्याकुलहस्ताः। प्लवगवत् आ॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥१०८॥ Jain Education Internatio कुर्वन् मणिविमानैद्य, बहुसूर्यमयीमिव । प्रज्वलद्भिः प्रहरणैस्तडिन्मालामयीमिव ।। ५०६ ॥ उद्दामदुन्दुभिध्वानैर्मेघघोषमयीमिव । विद्याधरबलं व्योमन्यपश्यद् भरतस्ततः ।। ५०७ ॥ दण्डार्थिन् ! दण्डमस्मत्तस्त्वं गृह्णासीति भाषिणौ । आहवायाह्वयेतां तौ, विद्यादृप्तौ महीपतिम् ।। ५०८ ।। अथ ताभ्यां ससैन्याभ्यां, प्रत्येकं युगपच्च सः । युयुधे विविधैर्युद्धैर्युद्धार्ज्या यञ्जयश्रियः ॥ ५०९ ॥ युधा द्वादशवार्षिक्या, विद्याधरपती जितौ । प्राञ्जली प्रणिपत्यैवं, भरताधीशमूचतुः ॥ ५१० ॥ वेरुपरि किं तेजो ?, वायोरुपरि को जैवी ? | मोक्षस्योपरि किं सौख्यं १, कश्च शूरस्तवोपरि ? ॥ ५११ ॥ ऋषभो भगवान् साक्षादद्य दृष्टस्त्वमार्ष मे ! | अज्ञानाद् योधितोऽस्माभिः, कुलखामिन् ! सहस्व तत् ॥ ५१२ ॥ ऋषभखामिनो भृत्यौ, पुरा वामधुना तु ते । सेवावृत्तिर्न लजायै, स्वामिवत् स्वामिनन्दने ।। ५१३ ।। याम्योदग्भरतार्द्धान्तर्वर्त्तिवैताढ्यपार्श्वयोः । दुर्गपालाविवेहाऽऽवां, स्थास्यावः शासनेन ते ।। ५१४ ।। इत्यस्य वचनस्याऽन्ते, विनम्य विनमिर्नृपः । विदधे दित्समानोऽपि, यियाचिषुरिवाऽञ्जलिम् ।। ५१५ ।। समचतुरस्राकारां, सूत्रं दत्त्वेव निर्मिताम् | त्रैलोक्यवर्तिमाणिक्यतेजःपुञ्जमयीमिव ।। ५१६ ॥ यौवनेन नखैः केशैः, श्रीमद्भिः सर्वदा स्थितैः । विराजमानामत्यन्तं कृतज्ञैरिव सेवकैः ।। ५१७ ।। सर्वामयोपशमनीं, वल्यां दिव्यामिवौषधीम् । यथाकामीनशीतोष्णसंस्पर्शा दिव्यवारिवत् ॥ ५९८ ॥ त्रिषु श्यामां त्रिषु श्वेतां, त्रिषु ताम्रां त्रिषून्नताम् । त्रिंगम्भीरां त्रिविस्तीर्णा, ज्यायतां त्रिऋशीयसीम् ॥५१९।। १ विद्योन्मत्तौ । २ वेगवान् । ३ सर्वरोगोपशमनीम् । ४ बलहेतुकाम् । ५ यथेच्छशीतोष्ण संस्पर्शाम् । ६ केशादिषु । ७ देहादिषु । ८ करतलादिषु । ९ स्तनादिषु । १० नाभ्यादिषु । ११ नितम्बादिषु । १२ लोचनादिषु । १३ उदरादिषु । प्रथम पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । भरतस्य दिग्विजयः । ॥ १०८ ॥ . Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयन्ती केशपाशेन, कलापान् प्रचलाकिनाम् । पराभवन्ती भालेन, पक्षमध्यक्षपाकरम् ॥ ५२०॥ रतिप्रीत्योरिव क्रीडादीर्घिके दधतीं दृशौ । नासां च भाललावण्यजलधारामिवाऽऽयताम् ॥ ५२१॥ कपोलाभ्यां नववर्णादर्शाभ्यामिव शोभिताम् । दोलाभ्यामिव कर्णाभ्यां, लग्नाभ्यामंसदेशयोः॥५२२॥ विभ्राणामधरौ युग्मजातविम्बविडम्बिनौ । दन्तांश्च वज्रशकलश्रेणिशोभाभिभावकान् ॥ ५२३ ॥ विभ्राणां मध्यमिव च, त्रिरेखं कण्ठकन्दलम् । भुजे च नलिनीनालसरले बिसकोमले ॥ ५२४ ॥ कुचौ दधानां कामस्य, कल्याणकलसाविव । स्तनापहृतबाहल्यमिव मध्यं च पेलवम् ॥ ५२५॥ वहन्तीं सरिदावर्त्तसनाभिं नाभिमण्डलम् । रोमाली च नाभिवापीतीरदविलीमिव ॥ ५२६ ॥ नितम्बेन विशालेन, तल्पेनेव मनोभुवः । दोलासुवर्णस्तम्भाभ्यामिवोरुभ्यां च राजिताम् ॥ ५२७ ॥ जवाभ्यामणिकाज , अधरीकुर्वतीतराम् । पाणिभ्यामिव पादाभ्यां, पङ्कजानि निकुर्वतीम् ॥ ५२८ ॥ पाणिपादाङ्गलिदलैर्वल्ली पल्लवितामिव । नखै रनै रोचमानै, रत्नाचलतटीमिव ॥ ५२९ ॥ शोभमानां च वासोभिर्विशालखच्छकोमलैः । चलॅन्मृदुमरुज्जातोत्कलिकाभिरिवाऽऽपगाम ॥ ५३०॥ मनोरमैरवयवः, खच्छकान्तितरङ्गितैः । भूषयन्ती भूषणानि, रत्नवर्णमयान्यपि ॥५३१ ॥ पृष्टतछत्रधारिण्या, छाययेव निषेविताम् । सश्चरचामराभ्यां च, हंसाभ्यामिव पद्मिनीम् ॥ ५३२ ॥ अप्सरोभिः श्रियमिवाऽऽपगाभिर्जाह्नवीमिव । सहस्रशो वयस्याभिः, परितः परिवारिताम् ॥ ५३३ ॥ मयूराणाम् । २ भष्टमीचन्द्रम् । * °कण्ठमण्डलम् आ॥ ३ मृगीज । “तिरस्कुर्वतीम्। ५मलम्मृदुपवनजातलहरीभिः। त्रिषष्टि. १९ Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१०९॥ Jain Education Internatio नाम्ना सुभद्रां स्त्रीरत्नं, स स्वां दुहितरं ततः । राज्ञे विश्राणयामास, स्थिरीभूतामिव श्रियम् ॥। ५३४ ॥ [ विंशत्या कुलकम् ] महामूल्यानि रत्नानि भूभुजे नमिरप्यदात् । गृहागते स्वामिनि हि, किमदेयं महात्मनाम् १ ।। ५३५ ॥ अथ राज्ञा विसृष्टौ तौ राज्यान्यारोप्य सूनुषु । विरक्तावृषभेशाङ्खिमूले जगृहतुर्व्रतम् ।। ५३६ ।। . ततोऽपि चलितवतश्चक्ररत्नस्य पृष्ठतः । गच्छन् सोऽमन्दतेजस्कः, प्राप मन्दाकिनीतटम् ॥ ५३७ ॥ नात्यासन्ने नातिदूरे, जाह्नवीसदनस्य सः । सैन्यान्यावासयामास, वसुंमत्येकवासवः ॥ ५३८ ॥ गङ्गां सिन्धुवदुत्तीर्य, नृपादेशाच्चमूपतिः । सुषेणः साधयामास, गाङ्गमुत्तरनिष्कुटम् ।। ५३९ ।। ततः सोऽष्टमभक्तेन, गङ्गादेवीमसाधयत् । उपचारः समर्थानां सद्यो भवति सिद्धये ॥ ५४० ॥ राज्ञे विश्राणयामास, रत्नसिंहासनद्वयम् । अष्टोत्तरं रत्नकुम्भसहस्रं च सरिद्वरा ॥ ५४१ ॥ भरतं रूपलावण्यकिङ्करीकृतमन्मथम् । तत्राऽवलोक्य गङ्गाऽपि प्राप क्षोभमयीं दशाम् ॥ ५४२ ॥ विराजमाना सर्वाङ्गं, मुक्तामयविभूषणैः । वदनेन्दोरनुगतैस्तारैस्तारागणैरिव ॥ ५४३ ॥ वस्त्राणि कदलीगर्भत्वक्सगर्भाणि विभ्रती । स्वप्रवाहपयांसीव, तद्रूपपरिणामतः ।। ५४४ ॥ रोमाञ्चकञ्चुकोदञ्चत्कुचस्फुटितकञ्चुका । स्वयंवरस्रजमिव क्षिपन्तीं धवलां दृशम् ५४५ ॥ प्रेमगद्गदया वाचा, गाढमभ्यर्थ्य पार्थिवम् । रिरंसमाना साऽनैषीद्, देवी रैतनिकेतनम् ॥ ५४६ ॥ 1 [ चतुर्भिः कलापकम् ] १ पृथ्व्यामेक इन्द्रः । २ गङ्गा । ३ सम्भोगस्थानम् । प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । भरतस्य दिग्विजयः । | ॥ १०९ ॥ . Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुञ्जानो विविधान् भोगांस्तत्र राजा तया सह । एकाहमिव वर्षाणां, सहस्रं सोऽत्यवाहयत् ॥ ५४७ ॥ कथञ्चिदपि सम्बोध्य, सोऽनुज्ञाप्य च जाह्नवीम् । खण्डप्रपाताभिमुखं, चचाल प्रबलैर्बलैः॥५४८॥ गुहां खण्डप्रपाताख्यामखण्डितपराक्रमः । ततः स्थानान्नृपः प्राप, केसरीव वनाद् वनम् ॥ ५४९ ॥ अथ खण्डप्रपाताया, गुहायाः सोऽपि दूरतः । निवेशयामास बलं, बलेनाऽतिमहाबलः ॥ ५५० ॥ तत्र देवं नाट्यमालं, कृत्वा मनसि भूपतिः । चक्रेऽष्टमतपोऽचालीत, तस्य देवस्य चाऽऽसनम् ॥५५॥ स ज्ञात्वाऽवधिना तत्राऽऽयातं भरतचक्रिणम् । उपायनैरुत्तमर्णमधमर्ण इवाऽऽययौ ॥ ५५२ ॥ पदखण्डमाभूषणस्य, स देवो भूरिभक्तिभाक् । भूषणान्यर्पयामास, सेवां च प्रत्यपद्यत ॥ ५५३ ॥ कृतनाट्यं नटमिव, नाट्यमालसुरं ततः । प्रसादपूर्वमुर्वीशो, विससर्ज विवेकयुक् ॥ ५५४ ॥ पारणं विदधे भूपस्तस्य चाऽष्टाह्निकोत्सवम् । सुषेणं चाऽऽदिशत् खण्डप्रपातोडाव्यतामिति ॥५५५॥ नाट्यमानं चमूनाथः, कृत्वा मनसि मत्रवत् । चक्रेऽष्टममग्रहीच, पौषधं पौषधौकसि ॥ ५५६॥ निष्क्रम्य पौषधागारादष्टमान्ते चम्पतिः । प्रतिष्ठायामिवाऽऽचार्यवर्यो बलिविधिं व्यधात ॥५५७ ॥ ततश्च विहितप्रायश्चित्तकौतुकमङ्गलः । महाय॑स्वल्पनेपथ्यभृद् धूपदहनं दधत् ।। ५५८ ॥ खण्डप्रपातां स ययावालोकेऽपि ननाम च । आनर्च तत्कपाटे च, लिलेख चाऽष्टमङ्गलीम् ॥ ५५९ ॥ पदान्यपेत्य सैताऽथ, कपाटोद्घाटनाय सः । उपाददे दण्डरनं, काश्चनीमिव कुञ्चिकाम् ॥ ५६० ॥ तेनाऽऽहतं च दण्डेन, तत्कपाटद्वयं क्षणात् । व्यघटिष्टाऽशुमद्रश्मिस्पृष्टपङ्कजकोशवत् ॥ ५६१॥ १ एकदिनमिव । * सप्ताष्ट, कसं २, आ॥ Jain Education into For Private & Personal use only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥११०॥ चतुर्थः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । आरूढः करिणः स्कन्धं, कुम्भदेशे च दक्षिणे । मणिरत्नं निवेश्योच्चैस्तां विवेश गुहां नृपः ॥५६२॥ अन्वीयमानः सैन्येन, भरतस्तिमिरच्छिदे । काकिण्या पूर्ववत् तत्र, मण्डलान्यालिखन् ययौ ॥ ५६३॥ निःसरन्त्यौ गुहाप्रत्यभित्तेः प्राग्भित्तिमध्यतः। भूत्वा मिलन्त्यौ जाह्वव्या,सख्या सख्याविवाऽभितः॥५६४ ते उन्मना-निमग्नाख्ये, निम्नगे पाप भूपतिः । प्राग्वच पद्यया सद्यो, ललझे सह सेनया ॥ ५६५॥ तद्गुहादक्षिणद्वारं, स्वयमुजघटे क्षणात् । सैन्यशल्यातुरेणेव, वैताख्येनाद्रिणेरितम् ॥ ५६६ ॥ निर्ययौ तद्गुहामध्यात् , केसरीव नरेश्वरः । स्कन्धावारं च निदधे, गाङ्गे रोधसि पश्चिमे ॥ ५६७ ॥ उद्दिश्य च निधीन् पृथ्वीपतिश्चक्रेऽष्टमं तपः । प्राक्तपोर्जितलब्धीनामागमे मार्गदर्शकम् ॥ ५६८॥ अष्टमान्ते तमभ्येयुर्निधयो नव विश्रुताः । सदा यक्षसहस्रेण, ते प्रत्येकमधिष्ठिताः ॥ ५६९ ॥ नैसर्पः पाण्डकश्चाऽथ, पिङ्गलः सर्वरत्नकः।महापद्मः कालमहाकाली माणवशङ्कको ॥५७०॥ तेऽष्टचक्रप्रतिष्ठाना, उत्सेधे चाऽष्टयोजनाः । नवयोजनविस्तीर्णा, दैर्घ्य द्वादशयोजनाः ॥ ५७१॥ वैडूर्यमणिकपाटस्थगितवदनाः समाः । काश्चना रत्नसम्पूर्णाश्चक्रचन्द्रार्कलाञ्छनाः ॥ ५७२॥ तेषामेवाऽभिधानस्तु, तदधिष्ठायकाः सुराः । पल्योपमायुषो नागकुमारास्तन्निवासिनः ॥ ५७३ ॥ स्कन्धावारपुरग्रामाकरद्रोणमुखौकसाम् । मडम्बपत्तनानां च, नैसर्पाद् विनिवेशनम् ॥ ५७४ ॥ मानोन्मानप्रमाणानां, सर्वस्य गणितस्य च । धान्यानामथ बीजानां, सम्भवः पाण्डकान्निधेः॥५७५॥ नराणामथ नारीणां, हस्तिनां वाजिनामपि । सर्वोऽप्याभरणविधिनिधेर्भवति पिङ्गलात् ॥ ५७६ ॥ १मार्गेण । २ प्रेरितम् । ३ आकरः खनिः, जल-स्थलपथाभ्यां यत्र भाण्डाद्यागच्छति तद् द्रोणमुखम् । RESEARCRACAAAAAA भरतस्य | दिग्विजयः। नव विधयः। ॥११०॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकेन्द्रियाणि सप्ताऽपि, सप्त पञ्चेन्द्रियाणि च । चक्रिरत्नानि जायन्ते, सर्वरत्नाभिधे निधौ ॥ ५७७ ॥ वस्त्राणां सर्वभक्तीनां, शुद्धानां रागिणामपि । सञ्जायते समुत्पत्तिर्महापद्मान्महानिधेः॥ ५७८॥ भविष्यद्भूतयोर्ज्ञानं, वत्सरांस्त्रीन् सतोऽपि च । कृष्यादीनि च कर्माणि, शिल्पान्यपि च कालतः॥५७९॥ प्रवालरजतस्वर्णशिलामुक्ताफलायसाम् । तथा लोहाद्याकराणां, महाकाले समुद्भवः ॥ ५८०॥ योधानामायुधानां च, सन्नाहानां च सम्पदः । युद्धनीतिरशेषापि, दण्डनीतिश्च माणवात् ॥ ५८१॥ चतुर्धा काव्यनिष्पत्तिर्नाट्यनाटकयोविधिः । तूर्याणामखिलानां चोत्पत्तिः शङ्खान्महानिधेः ॥ ५८२॥ ___ ऊचुस्ते च वयं गङ्गामुखमागधवासिनः । आगतास्त्वां महाभाग!, भवद्भाग्यवशीकृताः॥५८३ ॥ यथाकाममविश्रान्तमुपभुस प्रयच्छ च । अपि क्षीयेत पाथोऽब्धौ, न तु क्षीयामहे वयम् ॥ ५८४ ॥ वशं यातेषु निधिपु, नृपो व्यधित पारणम् । अष्टाहिकोत्सवं तेषां, निर्विकारश्चकार च ॥ ५८५ ॥ नृपाज्ञया सुषेणोऽपि, गङ्गादक्षिणनिष्कुटम् । पल्लीवल्लीलया सर्व, साधयित्वा समाययौ ॥ ५८६ ॥ तत्राऽस्थाल्लीलयाऽऽक्रान्तपूर्वापरपयोनिधिः । द्वितीय इव वैताठ्यो, बहुकालमिलापतिः॥५८७॥ ____ अन्येयुः साधिताशेषभरतं भरतेशितुः। अयोध्याभिमुखं चक्रमचालीद् गगनस्थितम् ।।५८८॥ भरतोऽपि कृतस्त्रानो, विधाय बलिकर्म च । नेपथ्यभृत् कृतप्रायश्चित्तकौतुकमङ्गलः॥ ५८९ ॥ कुञ्जराधिपतिस्कन्धमारूढो देवराडिव । नवभिनिधिभिः पुष्टकोशः कल्पद्रुमैरिव ॥ ५९०॥ निरन्तरं महारत्नेश्चतुर्दशभिरावृतः । सुमङ्गलायाः स्वमानां, पृथग्भूतैः फलैरिव ॥ ५९१॥ वर्तमानस्य । २ जलम् । kcR99*99****** For Private & Personal use only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व चतुर्थः सगेः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । त्रिषष्टि- राज्ञां कुलश्रीभिरिवोढाभिहितृभिः क्रमात् । द्वात्रिंशता सहस्रैश्चाऽसूर्यम्पश्याभिरन्वितः॥५९२ ॥ शलाका- तावद्भिर्जनपदभूस्त्रीसहस्रैश्च सुन्दरैः । अप्सरोभिरिवाऽत्यन्तचारुभिः परिशोभितः ॥ ५९३ ॥ पुरुषचरिते श्रितो द्वात्रिंशता राजसहस्त्रैः पदिकरिव । चतुरशीत्येभलक्षैर्विन्ध्याद्रिरिव राजितः॥ ५९४ ॥ अश्वै रथैश्च तावद्भिर्विश्वतोऽप्याहृतैरिख । भंटानां पण्णवत्या च, कोटिभिश्छन्नभूतलः ॥ ५९५॥ ॥११॥ आद्यप्रयाणदिवसादतिक्रान्तेषु सत्वथ । पष्टौ वर्षसहस्रेषु, चक्रमार्गानुगोऽचलत् ॥ ५९६ ॥ [अष्टभिः कुलकम् ] सैन्योद्भूतरजःपूरपरिस्पर्शमलीमसान् । खेचरानपि कुर्वाणः, कृतभूलुठनानिव ॥ ५९७ ॥ व्यन्तरान् भवनपतींश्चाऽपि भूमध्यवासिनः । सैन्यभारान्महीभेदशङ्कोत्पादेन भापयन् ॥ ५९८ ॥ गोकुले गोकुले गोपसुंदृशां विकसदृशाम् । गृह्णन् हैयङ्गंचीनाघमनय॑मिव भक्तितः ॥ ५९९ ॥ कुम्भिकुम्भस्थलोद्भूतमौक्तिकप्रभृतीनि च । प्राभृतानि किरातानामाददानो वने वने ॥६००॥ पर्वते पर्वते भूपैः, "पार्वतीयैः पुरो धृतम् । रत्नस्वर्णखनीसारं, खीकुर्वन्नवनेकशः॥६०१॥ ग्रामे ग्रामे ग्रामवृद्धान् , सोत्कण्ठान् बान्धवानिव । अनुगृह्णन् सप्रसादमात्तानात्तैरुपायनैः ॥ ६०२॥ निजाज्ञायष्टिनोग्रेण, विष्वक् प्रसृमरानपि । ग्रामेभ्यः सैनिकान् रक्षन् , क्षेत्रेभ्यो गा इवाभितः ॥६०३॥ * राजन्यकदुहितॄणां, मूर्तानां तच्छ्रियामिव । द्वात्रिंशता सहस्रैश्च, नवोढानां समावृतः सं १, खं ॥ Clt पैस्तथोच्चकैः सं १॥ वृतो भटैः षण्णवत्या, सं २, आ॥ षष्टिवर्ष सं १॥ गोपालखीणाम् । २ नवनीतम् । पर्वतीयः खं, सं २॥ ३ महत् । ४ गृहीतागृहीतैः। ५ प्रस्तान् । दिग्विजय कृत्वा भरतस्य विनीतायामागमनम्। ॥११॥ d. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *% वृक्षाधिरूढान् प्लवगानिव ग्रामीणदारकान् । सहर्ष पश्यतः पश्यन् , जनकस्तनयानिव ॥६०४॥ धान्यैधनजीवधनैः, सर्वदा निरुपद्रवैः । ग्रामाणां सम्पदं पश्यन् , निजनीतिलताफलम् ॥६०५॥ आपगाः पङ्किलीकुर्वन् , सरांसि परिशोषयन् । वापीकूपांश्च कुर्वाणः, पातालशुषिरोपमान् ॥६०६॥ मलयानिलवल्लोकसुखं गच्छन् शनैः शनैः । विनीतां प्रापदुर्वीशो, दुर्विनीतारिशासनः ॥६०७॥ _ [एकादशभिः कुलकम् ] अविदुरे विनीतायाः, स्कन्धावारं न्यवेशयत् । तस्याः सहोदरमिवाऽतिथीभूतं महीपतिः ॥६०८॥ कृत्वा मनसि तां राजधानी राजशिरोमणिः । चकार निरुपसर्गप्रत्ययं सोष्टमं तपः ॥६०९॥ निष्क्रम्याऽष्टमभक्तान्ते, पौषधागारतो नृपः । पारणं विदधे दिव्यरसवत्या नृपैः सह ॥ ६१०॥ ___ अयोध्यायां त्वबध्यन्त, तोरणानि पदे पदे । दिगन्तरागतश्रीणां, क्रीडादोला इवोच्चकैः ॥ ६११॥ चक्रुः पौराः पथि पथि, सेकं कुङ्कमवारिभिः । गन्धाम्बुवृष्टिभिरिव, स्वर्गिणो जिनजन्मनि ॥६१२॥ मञ्चान् विरचयामासुः स्वर्णस्तम्भैः पुरीसदः । अनेकीभूय निधिभिः, पुरोभूयागतैरिव ॥ ६१३ ॥ अभानुभयतो मार्ग, मश्चास्तेऽन्योऽन्यसम्मुखाः । स्वर्णाद्रय इव कुरुष्वभितो ह्रदपञ्चकम् ॥ ६१४ ॥ प्रतिमश्चमजायन्त, रत्नभाजनतोरणाः । प्राचीनबहिकोदण्डश्रेणिशोभाभिभाविनः ॥६१५॥ समं वीणामृदङ्गादिवादकैर्गायनीजनः । विमानेष्विव गन्धर्वानीकं मश्चेष्ववास्थित ॥ ६१६॥ मुक्तावचूला मञ्चेषु, बभुरुल्लोचलम्बिनः । कान्तिस्तबकिताकाशा, वासागारेष्विव श्रियः ॥ ६१७॥ . नदीः। २ पातालच्छिद्रोपमान् । ३ सेचनम् । ४ इन्द्रधनुःश्रेणिशोभातिरस्कारिणः ॥ ASANSARASREGARGEORGAROO Jain Education in For Private & Personal use only . Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व चतुर्थः त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥११२॥ सगे: ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । SLAAISOSISUSTUS AUCTOS प्रमोदमानपूर्देव्या, हसितैरिव चामरैः । दिवो मण्डनभङ्गीभिरिव चित्रकचर्मभिः ॥ ६१८॥ कौतकादागतैर्धिष्ण्यैरिव काञ्चनदर्पणैः । खेचराणां हस्तशाटेरिव वासोभिरद्भुतैः ॥ ६१९ ॥ विचित्रमणिमालाभिर्मेखलाभिरिव श्रियाम् । उत्तम्भितेषु स्तम्भेषु, हट्टशोभा व्यधुर्जनाः ६२०॥ [विभिर्विशेषकम् ] प्रक्वणत्किङ्किणीमालाः, पताकाश्च बबन्धिरे । दर्शयन्त्यः शरत्कालं, कलनिर्हादसारसम् ॥ ६२१॥ प्रत्यदृ प्रतिगेहं च, यक्षकर्दमगोमयैः । लिप्तेष्वदादङ्गणेषु, मौक्तिकस्वस्तिकान् जनः ॥ ६२२ ॥ अपूर्यन्ताऽगरुक्षोदैधूपघट्यः पदे पदे । उच्चैधूमायमाना द्यामपि धूपायितुं ध्रुवम् ॥ ६२३ ॥ प्रवेष्टकामो नगरीमारुरोह शुभेक्षणे । गजं मेघमिवोद्गर्ज, चक्री भृमेघवाहनः ॥ ६२४ ॥ एकेनैवाऽऽतपत्रेण, कर्पूरक्षोदपाण्डुना । हिमांशुमण्डलेनेव, गगनं परिशोभयन् ॥ ६२५ ॥ सद्धिप्य खं वपुर्भक्त्या, चामरद्वितयच्छलात् । अभ्युपेत्य समं गङ्गासिन्धुभ्यामिव सेवितः ॥ ६२६॥ वासोभिः शोभितः शुभैः, सुसूक्ष्मर्मसृणैधनैः । स्फाटिकाद्रिशिलासारं, त्वचर्यित्वेव निर्मितैः ॥६२७॥ प्रेम्णा रत्नप्रभाभूम्या, निजसारैरिवाऽपितैः । विचित्ररत्नालङ्कारैः, सर्वाङ्गीणमलङ्कृतः ॥ ६२८ ॥ नृपैराबद्धमाणिक्यमुकुटैः परिवारितः । फणामणिधरैर्नागकुमारैरिव नागराद् ॥ ६२९ ॥ वैतालिकैर्जयजयारावपूर्व प्रमोदिभिः । कीर्त्यमानाद्भुतगुणः, सुत्रीमा चारणैरिव ॥ ६३० ॥ * मानभूर्देव्या सं॥ १ नक्षत्रैः। २ हस्तपटैः। श्रियः आ, सं २॥ ३ अगरुचूर्णैः । राजा। ५ कोमलैः। स्फिटिका सं १२॥ ६ खण्डयित्वा । ७ सर्वाङ्गेषु । ८ इन्द्रः । 54 SASSARI भरतस्य प्रवेशोत्सवः। ॥११२॥ Jain Education Into For Private & Personal use only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAUSOSAUGIOSOS मङ्गल्यतूर्यनिर्घोपप्रतिशब्दापदेशतः । रोदसीभ्यामपि भृशं, कृतमाङ्गलिकध्वनिः॥ ६३१ ॥ तेजोबिडोजा नृपतिर्भाण्डागारमिवौजसाम् । यतेन कुञ्जरं किश्चित् , प्रेरयन् प्रचचाल सः॥ ६३२ ॥ [अष्टभिः कुलकम् ] अवतीर्ण दिव इव, भूमध्यादिव चोत्थितम् । चिरायातं नृपं द्रष्टं, ग्रामादिभ्योऽभ्यगाजनः ॥ ६३३॥ सा राज्ञः सकला सेना, लोकश्च मिलितो बभौ । मर्त्यलोकः समग्रोऽपि, पिण्डीभूत इवैकतः॥६३४॥ नैरन्तर्यादनीकानां, लोकानां चाऽभ्युपेयुपाम् । मुक्तस्तिलोऽपि हि तदा, न पपात महीतले ॥ ६३५॥ स्तूयमानो मुदोत्तालैः, कैश्चिद् वैतालिकैरिव । वीज्यमानोऽञ्चलैः कैश्चिच्चञ्चलैचामरैरिव ॥ ६३६ ॥ भालस्थाञ्जलिभिः कैश्चिद् , वन्द्यमानोऽशुमानिव । अर्यमाणफलपुष्पः, कैश्चिदारामिकैरिव ॥ ६३७ ॥ प्रणम्यमानः स्वकुलदेवतेव च कैश्चन । कैश्चित प्रदीयमानाशीर्गोत्रवृद्धाजनैखि ॥ ६३८ ॥ प्रविवेश विशामीशश्चतुर्द्वारा पुरीं स ताम् । पूर्वद्वारेण समवसरणं नाभिभूरिख ॥६३९॥[चतुर्भिः कलापकम् प्रत्येकमपि मश्चेषु, सङ्गीतानि तदाऽभवन् । युगपल्लग्नघटिकातूर्यनादा इवोच्चकैः ॥ ६४०॥ पुरो गच्छति भूपाले, राजमार्गापणस्थिताः । मुदिताः पौरसुदृशो, लाजान् दृश इवाऽक्षिपन् ॥ ६४१॥ पौरप्रक्षिप्तकुसुमदामभिः पिहितोऽभितः । सोऽभूत् पुष्परथप्रायो, राजकुञ्जरकुञ्जरः ॥ ६४१॥ शनैः शनै राजपथे, प्रययौ जंगतीपतिः । उत्कण्ठितानां लोकानामकुण्ठोत्कण्ठया पुनः ॥ ६४३॥ नाजीगणन् गजभयमभ्यर्णेऽभ्येत्य भूभुजे । फलादीन्यार्पयन् पौराः, प्रमोदो बलवान् खलु ॥६४४॥ १ व्याजतः । २ तेजसा इन्दः। * यत्नेन खं। मदोत्तालैः सं २, आ॥ ३ भृष्टवीहीन् । जिगतांपतिः आ ॥ O CHOSOS For Private & Personal use only . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरि ॥११३॥ ताडयन् सृर्णिदण्डेन, मध्येकुम्भस्थलं नृपः । मञ्चयोर्मञ्श्चयोरन्तः, स्थिरीचक्रे मतङ्गजम् ॥ ६४५ ॥ मञ्चानामुभयेषां चाऽग्रस्थाः प्रवरयोषितः । कर्पूरारात्रिकं चक्रुर्युगपच्चक्रवर्तिनः ॥ ६४६ ॥ भूपतिः पार्श्वयोर्भ्राम्यज्वलदारात्रिकस्तदा । बभारोभयपार्श्वस्थार्केन्दुमेरुगिरिश्रियम् ॥ ६४७ ॥ स्थालान्युत्क्षिप्य पूर्णानि, मौक्तिकैरक्षतैरिव । आपणाग्रे स्थितान् दृष्ट्वाऽऽलिलिङ्गेव स वाणिजान् ॥ ६४८ ॥ मार्गासन्नेषु हर्म्येषु, द्वारस्थकुलयोषिताम् । मङ्गलानि प्रतीयेषं, स्वसृणामिव पार्थिवः ॥ ६४९ ॥ दिदृक्षयाऽन्तिकीभूतान् जनान् परिजनानिव । वेत्रिभ्योऽरक्षदुत्क्षिप्ताभयप्रदकरो नृपः ॥ ६५० ॥ अग्रभूमावुभयतो, बद्धाभ्यामतिबन्धुरम् । सिन्धुराभ्यां राज्यलक्ष्मीक्रीडाद्रिभ्यामिवोच्चकैः ।। ६५१ ।। द्वारेणोभयतः स्वर्णकुम्भाभ्यामतिशोभिना । स्रोतसेव रथाङ्गाभ्यां, विशालेन विराजितम् ।। ६५२ ।। माकन्ददलपूर्णेन, तोरणेनाऽतिहारिणा । इन्द्रनीलमयग्रीवाभरणेनेव भूषितम् ।। ६५३ ॥ क्वचिन्मुक्ताकणगणैः, क्वचित् कर्पूरपांशुभिः । क्वचिच्च चन्द्रमणिभिः कृतस्वस्तिकमङ्गलम् ॥ ६५४ ॥ क्वचिच्च चीनवासोभिर्दुकूलवसनैः क्वचित् । देवदूष्यैरपि क्वापि, पताकामालभारिणम् || ६५५ ।। क्वचित् कर्पूरपानीयैः, पुष्पद्रुतिरसैः क्वचित् । क्वचिद् गजमदाम्भोभिरजिरे कृतसेचनम् ॥ ६५६ ॥ विश्रान्तपूषाणमिव, सुवर्णकलसच्छलात् । सप्तभ्रमं भूमिपालः, पित्र्यं प्रासादमासदत् । ६५७ ।। [ सप्तभिः कुलकम् ] तस्याङ्गणावलभीवेद्यां पादं निवेशयन् । उत्ततार द्विपाद् वेत्रिदत्तहस्तस्ततो नृपः ॥ ६५८ ॥ १ अङ्कुशेन । २ स्वीचकार । ३ भगिनीनाम् । ४ गजाभ्याम् । ५] अङ्गणे । प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रि चरितम् । प्रासाद वर्णनम् । ॥११३॥ . Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CREASUSUSCRECORRESTOREA आचार्य इव सम्पूज्य, स्वाधिष्ठायकदेवताः । ताः षोडश सहस्राणि, व्यसृजजगतीपतिः ॥ ६५९ ॥ तद्वद्वात्रिंशतं राजसहस्राणि चमूपतिम् । पुरोहितं गृहपति, वर्द्धकिं विससर्ज सः॥ ६६०॥ 'सूदांश्च स त्रिषष्टीनि, शतानि त्रीणि भूपतिः । स्वस्थानायाऽऽदिशद् दृष्ट्याऽऽलानायेव मतङ्गजान् ॥६६१॥ श्रेष्टिनोऽष्टादशश्रेणिप्रश्रेणीर्दुर्गपालकान् । व्यसृजत् सार्थवाहानप्युत्सवान्तेऽतिथीनिव ॥ ६६२ ॥ शक्रः शच्येव सहितः, स्त्रीरत्नेन सुभद्रया । द्वात्रिंशता सहस्रैश्च, राज्ञीनां राजजन्मनाम् ॥ ६६३ ॥ तावतीभिर्जनपदाग्रणीकन्याभिरावृतः। प्रत्येकं द्वात्रिंशत्पात्रस्तावद्भिर्नाटकैरपि ॥ ६६४ ॥ मणिरत्नशिलाश्रेणिविश्राणितगुत्सवम् । प्रासादं प्राविशद् भूपः, कैलासमिव यक्षराद् ॥ ६६५ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] तत्र च प्रामुखः सिंहासने स्थित्वा क्षणं नृपः । कृत्वा च सङ्कथाः काश्चिद्, ययौ स्नाननिकेतनम् ॥६६६॥ सरसीव द्विपस्तत्र, कृत्वा स्नानं नरेश्वरः । समं परिजनेश्चक्रे, सुरसाहारभोजनम् ॥ ६६७ ॥ तैर्नाटकैनवरसैः, सङ्गीतैश्च मनोरमैः । निनाय कालं कमपि, योगैर्योगीव भूपतिः ॥ ६६८॥ तं च विज्ञपयामासुभक्त्या सुरनरा इति । सविद्याधरराजेयं, षट्खण्डाऽसाधि भूस्त्वया ॥ ६६९ ॥ अमांस्तदनुमन्यस्ख, शंतमन्युपराक्रम! । महाराज्याभिषेकं ते, स्वच्छन्दं कुर्महे यथा ॥ ६७० ॥ राज्ञा तथेत्यनुज्ञाताः, सुराः पुर्या बहिर्व्यधुः । सुधर्मायाः खण्डमिव, पूर्वोदग्दिशि मण्डपम् ॥ ६७१ ॥ * षोडशसहस्रसङ्ख्या, व्यसृ सं 1, खं ॥ सूदानां स खं ॥ १ पाचकान् । राशीभी राजजन्मभिः आ, सं२॥ २ कुबेरः। सर आ, सं १ ॥ ३ विद्याधरराजसहिता । ४ इन्द्रः। ५ ईशानदिशि । Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥११४॥ Jain Education Interhol T देभ्यो हर्दिनीभ्यश्च, इदिनीनाथतोऽपि च । तीर्थेभ्यश्चाऽऽहरनीरमौषधीर्मृत्तिकाश्च ते ।। ६७२ ॥ गत्वा पौषधशालायां, राजाऽष्टमतपोऽग्रहीत् । राज्यं तपसाऽऽप्तमपि तपसैव हि नन्दति ।। ६७३ | राजाऽष्टमे परिणमत्यन्तःपुरवृतो ययौ । वारणेन परीवारयुतस्तं दिव्यमण्डपम् ।। ६७४ ॥ अन्तःपुरेण सह तैर्नाटकैश्च सहस्रशः । भरतः प्रविवेशाऽभिषेकमण्डपमुन्नतम् ॥ ६७५ ।। स मृगेन्द्रासनं तत्र स्नानपीठं मणीमयम् । चक्री प्रदक्षिणीच, मेरुशैलमिवाऽर्यमा ॥ ६७६ ॥ पूर्व सोपान पद्धत्या, स्नानपीठं तदुच्चकैः । आरुरोह महीनाथः, शैलप्रस्थमिव द्विपः ॥ ६७७ ॥ प्राचीपतेरिव प्रीत्या प्राग्दिशोऽभिमुखस्ततः । रत्नसिंहासने तत्रोपाविशद् भरतेश्वरः ।। ६७८ ॥ ति द्वात्रिंशत्सहस्राणि, भूपाः कतिपया इव । सुखमारुरुहुः पीठमुदक्सोपानवर्त्मना ।। ६७९ ॥ चक्रिणो नातिदूरोर्व्या, तस्थुर्भद्रासनेषु ते । बद्धाञ्जलिपुटा देवमिव वेन्दारवो नृपाः ।। ६८० ॥ सेनापतिर्गृहपतिर्वर्द्धकिश्च पुरोहितः । श्रेष्ठयादयोऽप्यारुरुहुर्याम्यसोपानमालया ।। ६८१ ॥ आसनेषु समासीनाः, स्वोचितेषु यथाक्रमम् । बद्धाञ्जलिपुटास्तस्थुर्विज्ञीप्सव इव प्रभुम् ॥ ६८२ ॥ ततश्च नरदेवस्यादिदेवस्येव वासवाः । आभियोगिकदेवास्तेऽभिषेकाय डुढौकिरे ।। ६८३ ॥ स्वाभाविकक्रियैव, पयोगभैर्घनैरिव । वदनन्यस्तकमलै, रथाङ्गविहगैरिव ॥ ६८४ ॥ पतत्पानीयनादेन, तूर्यनादानुवादिभिः । ते रत्नकलसैश्चकुरभिषेकं महीपतेः । ६८५ ॥ [ युग्मम् ] १ नदीभ्यः । २ समुद्रात् । ३ गजेन । *ण सहितैर्ना आ ॥ + षमुत्तमम् सं १ ॥ ४ इन्द्रस्य । । द्वात्रिंशत्सहस्रसंख्या भू सं १ ॥ ५ वन्दनशीलाः | ६ चक्रवाकपक्षिभिः । t प्रथमं पर्व चतुर्थः सगेः ऋषभ जिनभरतचक्रिचरितम् । भरतस्य चक्रवर्तित्वमहोत्सवः । ॥११४॥ . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं द्वात्रिंशत् सहस्राणि, शुभेऽभिषिषिचुः क्षणे । नृपाः कुम्भै ठत्तोयैहर्षात् खनयनैरिव ॥ ६८६ ॥ ते शिरस्यञ्जलीन् बद्धा, पद्मकोशसहोदरान् । चक्रिणं वर्द्धयामासुर्जय त्वं विजयस्व च ॥ ६८७॥ सेनापतिप्रभृतयोऽपरे श्रेष्ठ्यादयश्च तम् । अभ्यषिञ्चन जलैर्वाक्यैश्चाऽस्तुवंस्तैरिवोज्वलैः ॥ ६८८ ॥ शुचिपक्ष्मलया गन्धकाषाय्या सुकुमारया । माणिक्यमिव तस्याऽङ्गममृजन्नथ ते भृशम् ॥ ६८९ ॥ गोशीर्षचन्दनरसै, राज्ञो विलिलिपुश्च ते । कान्तिपोषकरैरङ्गं, गैरिकैरिव काञ्चनम् ॥ ६९० ॥ शक्रप्रदत्तमृषभवामिनो मुकुटं ततः। मूर्ध्नि मूर्धाभिषिक्ताग्रेसरस्य निदधुः सुराः ॥ ६९१॥ ते पर्यधापयन् राज्ञा, कर्णयो रत्नकुण्डले । चित्रास्वाती इव मुखहिमांशोः पारिपार्श्वगे ॥ ६९२ ॥ तत्कण्ठे ते न्यधुहोरं, ग्रथितं शुचिमौक्तिकैः । अलक्ष्यसूत्रैयुंगपन्मालारूपोद्गमैरिव ॥ ६९३ ॥ निवेशयाम्बभूवे चाहारस्तैर्नृपोरसि । अलङ्करणराजस्य, हारस्य युवराडिव ॥ ६९४ ॥ अभ्रकान्तःपुटमये, इवाऽच्छच्छविशालिनी । वाससी देवदूष्ये ते, भूभुजा पर्यधापयन् ॥ ६९५ ॥ उद्दाम सुमनोदाम, नृपतेः कण्ठकन्दले । ते प्राक्षिपन्नुरोवेश्मच्छायावप्रमिव श्रियः ॥ ६९६ ॥ कल्पद्रुम इवाऽनय॑वस्त्रमाणिक्यभूषणः । भूपतिर्मण्डयामास, स्वाखण्डमिव मण्डपम् ॥ ६९७ ॥ आह्वाय्य वेत्रिपुरुषैः, स सर्वपुरुषाग्रणीः । आयुक्तपुरुषानेवमादिदेश विशालधीः ॥ ६९८ ॥ भो! यूयं सिन्धुरस्कन्धमधिरुह्य समन्ततः । पर्यट्य च प्रतिपथं, विनीतां नगरीमिमाम् ॥ ६९९ ॥ अशुल्कामकरादण्डाकुदण्डामविशद्भटाम् । नित्यप्रमोदां कुरुत, वर्षद्वादशकावधिः ॥ ७००॥ [युग्मम् ] * राज्ञां कु° संपारिपाश्चिके संी, परिपार्श्वगे खं,आ,सं२॥ १ अकरां अदण्डां अकुदण्डां इति पदत्रयस्य समासः। निषधि. २० For Private & Personal use only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व | चतुर्थः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रि| चरितम् । ॥११५॥ तत् तथा तत्क्षणादेव, ते चक्रुरधिकारिणः । रत्नं पञ्चदर्श ह्याज्ञा, चक्रिणः कार्यसिद्धिषु ॥ ७०१॥ रत्नसिंहासनात तस्मादुत्तस्थावथ पार्थिवः । प्रतिविम्बानि तस्येवाऽन्येऽप्युत्तस्थुः सहैव हि ॥ ७०२॥ निजागमनमार्गेणोत्ततार भरतेश्वरः । तथाऽन्येऽप्युत्तरन्ति स्म, स्नानपीठाद गिरेरिव ॥ ७०३॥ स्वप्रतापमिवाऽसह्यमारुह्य वरहस्तिनम् । महीपतिर्महोत्साहः, प्रासादमगमनिजम् ॥ ७०४॥ तत्र स्नानगृहं गत्वा, तोयैः स्नात्वा च निर्मलैः । चकाराऽष्टमभक्तान्तपारणं धरणीधवः ॥ ७०५॥ अभिषेकोत्सवे वृत्ते, तस्मिन् द्वादशवार्षिके । स्नातः कृतवलिः प्रायश्चित्तकौतुकमङ्गली ॥७०६॥ गत्वा च बहिरास्थानीमात्मरक्षकदेवताः । तान् षोडश सहस्राणि, सत्कृत्य व्यसृजन्नृपः ॥७०७॥ ततश्च प्रासादवरारूढो वैषयिकं सुखम् । भुञ्जानोऽस्थाद् विमानस्थ, इव शक्रो महीपतिः ॥ ७०८ ॥ चक्रं छत्रमसिर्दण्डो, रत्नान्येतानि जज्ञिरे । एकेन्द्रियाणि चत्वारि, तस्याऽऽयुधनिकेतने ॥ ७०९॥ काकिणीचर्ममणयो, निधयो नव चाऽभवन् । श्रीगृहे श्रीमतस्तस्य, माणिक्यानीव रोहणे ॥ ७१०॥ सेनापतिर्गृहपतिः, पुरोधो-बर्द्धकी अपि । चत्वारि नररत्नानि, स्वपुर्या तस्य जज्ञिरे ॥ ७११॥ गजा-ऽश्वरत्ने वैताव्यगिरेमले बभूवतुः । उदग्विद्याधरश्रेण्यां, स्त्रीरत्नं तूदपद्यत ॥ ७१२ ॥ नयनानन्ददायिन्या, मृा सोम इवाऽशुभत् । दुःसहेन प्रतापेन, भरतो भानुमानिव ॥ ७१३ ॥ अलब्धमध्यः सोऽम्भोधिरिव पुरूपतां गतः । प्राप्तो मनुष्यधर्मेव, मनुष्यस्वामितां पुनः ॥ ७१४ ॥ अशोभत महारत्नैः, स चतुर्दशभिः सदा । जम्बूद्वीप इव गङ्गासिन्धुप्रभृतिसिन्धुभिः ॥ ७१५॥ * षोडशसहस्रसङ्ख्याः , स° सं 1, खं ॥ आयुधशालायाम् । 1 काकणी खंता, सं २॥ २ पुरोहितः। भरतख राज्याई। ॥११५॥ Jan Education International For Private & Personal use only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internatio पदाधःस्थतया तस्य, नवाऽपि निधयोऽनिशम् । हेमाब्जानीव वृषभप्रभोर्विहरतोऽभवन् ॥ ७१६ ॥ सदा षोडशभिर्देवसहस्रैः पारिपार्श्विकैः । अनल्पवेर्तनक्रीतैरात्मरक्षैरिवाऽऽवृतः ॥ ७१७ ॥ नृपाणां नृपकन्यानामिव निर्भरभक्तितः । द्वात्रिंशता सहस्रैः स निरन्तरमुपास्यत ।। ७१८ ।। द्वात्रिंशता सहस्रैः स, ||नाटकानामिवाऽनिशम् । जानपदीनां कन्यानामरंस्ताऽवनिवासवः ।। ७१९ ।। स जगत्यामेकभूपः, सूपकारवरैरभात् । शतैस्त्रिभित्रिपथ्यग्रैर्वासरैरिव वत्सरः ॥ ७२० ॥ श्रेणिप्रश्रेणिभिः सोऽष्टादशभिः पृथिवीतले । प्रावर्तयद् व्यवहारं, लिपिभिर्नाभिभूरिव ॥ ७२१ ॥ लक्षैश्चतुरशीत्याऽभात्, स रथद्विपवाजिनाम् । प्रत्येकं ग्रामपत्तीनां षण्णवत्या च कोटिभिः ॥ ७२२ ॥ द्वात्रिंशतो जनपदसहस्राणामधीश्वरः । द्वासप्ततेः पुरवरसहस्राणां च स प्रभुः ॥ ७२३ ॥ सहस्रोनद्रोणमुखलक्षस्याऽधिपतिश्च सः । पत्तनाष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणां च सोऽधिभूः ॥ ७२४ ॥ कर्बटानां मडम्बानामिव साडम्बरश्रियाम् । चतुर्विंशतिसहस्रसङ्ख्यातानां स ईशिता ।। ७२५ ।। स विंशतिसहस्राणामाकराणों करेश्वरः । तथा खेटसहस्राणां षोडशानां प्रशासिता ।। ७२६ ॥ चतुर्दशानां सम्बाधसहस्राणामपि प्रभुः । अधिपोऽन्तरोदकानां स षट्पञ्चाशतोऽपि च ॥ ७२७ ॥ 8 * पादाधः स्थितयस्तस्य खंता ॥ + पार्श्वकैः खं, सं१॥ १ बहुमूल्यक्रीतैः । राजभी राजकन्याभिरिव सं२, आ ॥ | नाटकैरिव चारुभिः । जानपदीभिः कन्याभिररं सं २, आ ॥ ६ सूदानामत्यराजत सं १, खं ॥ ॥ शैस्त्रिदिनोनाकवर्षवत् सं, खं ॥ [ लक्षैश्चतुरशीत्येभैरश्वैरिव रथैरिव । स कोटिभिः षण्णवत्याऽभाद् ग्रामैरिव पत्तिभिः सं१, खं ॥ + णां नरेश्वरः खं ॥ २ अन्तरद्वीपानाम् । . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥११६॥ Jain Education Inte पञ्चाशतः कुराज्यानामेकोनायाश्च नायकः । स मध्ये भरतक्षेत्रमन्येषामपि शासिता ॥ ७२८ ॥ विनीतायां स्थितः कुर्वन्नाधिपत्यमखण्डितम् । अभिषेकोत्सवप्रान्ते, स्मर्त्तुं प्रववृते स्वकान् ॥ ७२९ ॥ षष्टिं वर्षसहस्राणि, विरहाद् दर्शनोत्सुकान् । अदर्शयन् निजान् राज्ञो, नियुक्तपुरुषास्ततः ॥ ७३० ॥ ततः कृशां ग्रीष्मकालाक्रान्तामिव तरङ्गिणीम् । म्लानां हिमानी सम्पर्कवशादिव सरोजिनीम् ॥ ७३१ ॥ प्रनष्टरूपलावण्यां, हैर्मनेन्दुकलामिव । पाण्डुक्षामकपोलां च, रम्भां शुष्कदलामिव ॥ ७३२ ॥ सोदरां बाहुबलिनः, सुन्दरीं गुणसुन्दरः । नामग्राहं स्वपुरुषैर्दश्यमानां ददर्श सः॥ ७३३॥[त्रिभिर्विशेषकम् तथाविधां च सम्प्रेक्ष्य, तां परावर्त्तितामिव । सकोपमवनीपालः स्वायुक्तानित्यवोचत ।। ७३४ ॥ किं कदाप्यस्मदीयेऽपि, सदने नौदनान्यरे ! १ । न किं लवणपाथोधौ, विद्यन्ते लवणान्यपि १ ।। ७३५ ॥ सूपकारा न किं सन्ति, तत्तद्रसवतीविदः । निरादराः किमथवा, तर्ह्यमी वृर्त्तितस्कराः १ ॥ ७३६ ॥ द्राक्षाखर्जूरमुख्यानि, खाद्यान्यपि हि नेह किम् ? । न हि किं विद्यते स्वर्णमपि स्वर्णशिलोच्चये ? ॥७३७|| किमुद्यानेषु ते वृक्षा, बभ्रुवुरवैकेशिनः ? । फलन्ति तरवः किं हि, न नन्दनवनेऽपि हि १ ।। ७३८ ।। नवा दुग्धानि धेनूनां घटोनीनामपीह किम् ? । किं नु शुष्कस्तनस्रोताः सञ्जाता कामर्गव्यपि १ ॥७३९ ॥ अथ भोज्यादिसम्पत्सु, सतीष्वपि हि सुन्दरी । न किञ्चिदश्नाति यदि, तदसावामँयाविनी ॥ ७४० ॥ आमयः कोऽपि चेदस्याः, कायसौष्ठवतस्करः । तत् किं बभूवुः सर्वेऽपि कथाशेषा भिषवराः १ ॥ ७४१|| · हेमन्तकालचन्द्रकलामिव । २ कदलीम् । ३ परावर्तितरूपामिव । ४ आजीविकाचौराः । ५ निष्फलाः | ६ कामधेनुः । ७ रोगिणी । ८ रोगः । ९ मृत्युङ्गताः । १० वैद्याः । प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ऋषभजिन भरतचत्रि चरितम् । सुन्दरीं दृष्ट्वा भरतस्य चिन्ता | ॥११६॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S EHISSGARRIAK यदि चौषधयो दिव्याः, प्राप्यन्ते नाऽसदोकसि । तदौषधीभी रहितो, हिमाद्रिरपि सम्प्रति ॥ ७४२॥ दये पश्यन्निमां क्षामां, दरिद्रतनयामिव । तदहो! वैरिभिरिव, भवद्भिर्वञ्चितोऽस्म्यहम् ॥ ७४३ ॥ प्रणम्य भरतं तेऽपि, प्रोचुरेखं नियोगिनः । सर्वमप्यस्ति देवस्य, देवेन्द्रस्येव सद्मनि ॥ ७४४ ॥ किन्तु देवो यदाचगाद् , दिग्जयाय तदाद्यसौ । आचामाम्लानि कुरुते, प्राणत्राणाय केवलम् ॥७४५॥ तथा यदैव देवेन, प्रव्रजन्ती न्यषिध्यत । ततः प्रभृत्यसौ तस्थौ, भावतः संर्यतैव हि ॥ ७४६ ॥ कल्याणिनेयि ! कल्याणि !, प्रविजिषसीति सा । अनुयुक्ता महीनाथेनैवमेवेत्यवोचत ॥ ७४७॥ भरतोऽप्यभ्यधादेवं, प्रमादेनाऽऽर्जवेन वा । अहमस्या इयत्कालं, व्रतविघ्नकरोऽभवम् ॥ ७४८॥ अपत्यं तातपादानामनुरूपमसौ खलु । असक्तं विषयासक्ता, राज्यातृप्ताश्च के वयम् ? ॥ ७४९ ॥ आयुर्विनश्वरतरं, वार्द्धिवारितरङ्गवत । जानन्तोऽपि न जानन्ति, जना विषयगृनवः ॥ ७५०॥ गत्वरेणाऽऽयुषाऽनेन, मोक्षः साध्येत साधु तत् । मार्गावलोकनमिव, विद्युता दृष्टनष्टया ॥ ७५१ ॥ यकृच्छकॅन्मूत्रमलखेदामयमयस्य यत् । प्रसाधनं वपुषस्तद्, गृहस्रोतोऽधिवासनम् ॥ ७५२ ॥ आदत्से वपुषाऽनेन, साधु मोक्षफलं व्रतम् । क्षीराब्धितोऽपि रत्नानि, गृहन्ति निपुणाः खलु ॥७५३ ॥ अनुज्ञाता नरेन्द्रेण, मुदितेन व्रताय सा । तपःकृशाऽप्यकृशेव, प्रमदोच्छुसिताऽभवत् ॥ ७५४ ॥ १ यतः प्रभृति । *आचाम्लानि कुरुते च प्रा खं ॥ श्लोकोऽयं आपुस्तके नोपलभ्यते । २ दीक्षिता । ३ कल्याण्याः अपत्यं कल्याणिनेयी तत्सम्बुद्धौ। ४ प्रवजितुमिच्छसि। ५ पृष्टा । ६ निरन्तरम् । . कुक्षौ दक्षिणभागस्थो मांसपिण्डः । ८ विष्टा । ९ मण्डनम् । Jain Education Internatione For Private & Personal use only . Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते चतुर्थः सर्गः ॥११७॥ ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ___ अत्रान्तरे च भगवान् , विहरन् वृषभध्वजः । अष्टापदगिरावागाजगदर्हिबलाहकः ॥ ७५५ ॥ चक्रुश्च देवाः समवसरणं तत्र पर्वते । अपरं पर्वतमिव, रत्नकाञ्चनरूप्यजम् ॥ ७५६ ॥ कुर्वाणं देशनां तत्र, स्वामिनं गिरिपालकाः । एत्य विज्ञपयामासुर्भरतस्वामिने द्रुतम् ।। ७५७ ॥ पखण्डभरतक्षेत्रविजयादधिकं ततः । तमुंदन्तं समाकर्ण्य, मुमुदे मेदिनीपतिः ॥ ७५८ ॥ वामिनमागमयट्यो भृत्येभ्यः पारितोषिकम् । ददौ कोटीः सुवर्णस्य, सार्द्धा द्वादश पार्थिवः ॥७५९ ॥ त्वन्मनोरथसंसिद्धिरिव मूर्त्ता जगद्गुरुः । विहरन्नाजगामेह, सुन्दरीमित्युवाच च ॥ ७६०॥ अकारयनिष्क्रमणाभिषेकं भरतेश्वरः । तस्याः स्वान्तःपुरवधूर्जनैर्दासीजनैरिव ॥ ७६१ ॥ कृतस्नानाऽथ सा सद्यः, कृतपुण्यविलेपना । विलेपनान्तरमिव, पर्यधात् सदशांशुके ।। ७६२ ॥ आमुमोच च सा रत्नालङ्कारानुत्तमानथ । तस्याः शीलमलङ्कारोऽलङ्काराः प्रक्रियाकृते ॥ ७६३ ॥ तथास्थितायाः सुन्दर्याः, पुरतो रूपसम्पदा । स्त्रीरत्नं सा सुभद्रापि, चेटीव॑त् प्रत्यभासत ॥७६४ ॥ यो यद् ययाचे तत् तस्मै, वितताराविलम्बितम् । जङ्गमा कल्पवल्लीव, सुन्दरी शीलसुन्दरी ॥७६५॥ कर्पूरधूलिधवलासोभिरुपशोभिता । कुमुदिनी मैरालीच, शिविकामारोह सा ॥ ७६६ ॥ निपादिसादिपादातस्यन्दनच्छन्नभूमिना । अन्वयायि नरेन्द्रेण, मरुदेवीव सुन्दरी ॥ ७६७ ॥ वीज्यमाना चामराभ्यां, श्वेतच्छत्रेण शोभिता । वैतालिकैः स्तूयमाननिबिडव्रतसंश्रवा ॥ ७६८ ॥ १ जगन्मयूरमेघः। २ वृत्तान्तम् । * स्वाम्यागमयतां तेषां भृत्यानां पा सं २, आ ॥ ३ आचारार्थम् । ४ दासीवत् । ५ हंसीव । सुन्दरीदीक्षो. पक्रमः। ॥११७॥ For Private & Personal use only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भरत-सुन्दरीभ्यां विहिता ऋषभप्रभोः स्तुतिः, सुन्दरीदीक्षा च। 26261-6-95605405 भ्रातृजायाभिरुद्गीतप्रव्रज्योत्सवमङ्गला । उत्तार्यमाणलवणा, वरखीभिः पदे पदे ॥ ७६९॥ राजन्ती सह गच्छद्भिः, पूर्णपात्रैरनेकशः । स्वामिपादपवित्रं सा, प्रापदष्टापदाचलम् ॥ ७७०॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] सच्चन्द्रमिव पूर्वादि, तमदि खाम्यधिष्ठितम् । दृष्ट्वा भरतसुन्दयों, महान्तं हर्षमीयतुः ॥ ७७१॥ वर्गापवर्गयो राज्यं, सोपानमिव विस्तृतम् । तं विशालशिलं शैलं, समारुरुहतुश्च तौ ॥ ७७२ ॥ ततः समवसरणं, शरणं भवभीजुषाम् । तौ प्रापतुश्चतुरिं, सज्ञिप्तां जगतीमिव ॥ ७७३ ॥ भरतेश्वरसुन्दर्यावुत्तरद्वारवर्त्मना । अथो समवसरणं, विशतः स्म यथाविधि ॥ ७७४ ॥ समं हर्षविनयाभ्यामुच्छ्रसत्सङ्घचत्तनू । प्रदक्षिणीचक्रतुस्तावथ त्रिः परमेश्वरम् ।। ७७५ ॥ पञ्चाङ्गस्पृष्टभूमिकौ, नेमतुश्च जगत्पतिम् । रत्नभूतलसङ्क्रान्तमपि द्रष्टुमिवोत्सुकौ ।। ७७६ ॥ चक्रवर्ती ततो धर्मचक्रवर्तिनमादिमम् । स्तोतुं प्रचक्रमे चारुगिरा भक्तिपवित्रया ॥ ७७७ ॥ सद्भूतान् गुणान् जल्पन् , जनः स्तौतीतरं जनम् । गुणान् सतोऽपि ते वक्तुमक्षमोऽहं स्तुवे कथम् ॥ तथापि हि जगन्नाथ!, करिष्यामि तव स्तुतिम् । न ददाति दरिद्रः किं, श्रीमतामप्युपायनम् ॥ ७७९ ॥ युष्मत्पादैदृष्टमात्रैरन्यजन्मकृतान्यपि । गलन्त्येनांसि शेफालीपुष्पाणीन्दुकरिव ॥ ७८० ॥ दुश्चिकित्समहामोहसन्निपातवतामपि । खामिन् ! जयन्ति ते वाचोऽमृतौषधिरसोपमाः॥७८१॥ चक्रवर्तिनि रङ्के वा, कारणं प्रीतिसम्पदाम् । समास्त्वदृष्टयो नाथ!, वार्षिक्य इव वृष्टयः ॥ ७८२॥ १ संसारभयवताम् । २ हर्षेणोच्वसन्त्यौ विनयेन सङ्कुचन्त्यौ तन कायौ यथोस्तौ । * असद्भूतगु खंता ॥ ३ पापानि । 05-05-05- Jain Education in For Private & Personal use only . Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पर्व चतुर्थः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥११८॥ सर्ग: ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम् । HOROSCARAMSARSMS क्रूरकर्महिमग्रन्थिविद्रावणदिवाकरः । स्वामिन्नसादृशां पुण्यरिमा विहरसे महीम् ॥ ७८३ ॥ शब्दानुशासनव्यापिसंज्ञासूत्रोपमा प्रभो! । जन्मव्ययध्रौव्यमयी, जयति त्रिपदी तव ॥ ७८४ ॥ यस्त्वां स्तौतीह भगवंस्तस्याऽप्येषोऽन्तिमो भवः । शुश्रूषते ध्यायति वा, यः पुनस्तस्य का कथा ? ॥७८५।। भगवन्तमिति स्तुत्वा, नत्वा च भरतेश्वरः । पूर्वोत्तरस्यां ककुभि, निषसाद यथोचितम् ॥ ७८६ ॥ सुन्दर्यपि हि वन्दित्वा, खामिनं वृषभध्वजम् । कृताञ्जलिर्जगादेवं, गद्गदाक्षरया गिरा ॥७८७॥ मनसा दृश्यमानोऽभूरियत्कालं जगत्पते । प्रत्यक्षं बहुभिः पुण्यैर्दिष्ट्या दृष्टोऽसि सम्प्रति ॥ ७८८॥ मृगतृष्णोपमसुखे, संसारमरुमण्डले । पुण्यैः प्राप्तोऽसि लोकेन, त्वं पीयूषमहादः ॥ ७८९ ॥ निर्ममोऽपि जगन्नाथ !, जगतोऽप्यसि वत्सलः । कथं विषमदुःखाब्धेस्तत्समुद्धरसेऽन्यथा? ॥ ७९०॥ कृतिनी स्वामिनी ब्राह्मी, भ्रातृव्याः कृतिनो मम । भ्रातृव्यजाश्च कृतिनो, ये हि त्वत्पथमन्वगुः ॥७९१।। भरतेशोपरोधेन, यन्मयाऽग्राहि न व्रतम् । भगवंस्तदियत्कालं, स्वयमेवाऽस्मि वश्चिता ॥ ७९२ ॥ विश्वतारक ! मां दीनां, तात! तारय तारय । गृहोयोतकरो दीपः, किं नोयोतयते घटम् ? ॥ ७९३ ॥ प्रसीद देहि दीक्षां मे, विश्वत्राणैकदीक्षित! । संसाराम्भोधितरणयानपात्रनिभां विभो॥ ७९४ ॥ साधु साधु महासत्त्वे !, ब्रुवन्निति ददौ विभुः । तस्यै दीक्षां सामायिकसूत्रोच्चारणपूर्विकाम् ॥ ७९५॥ महाव्रतद्रुमारामसुधासारणिसन्निभाम् । अनुशिष्टिमयीं तस्यै, देशनां विदधे विभुः ॥ ७९६ ॥ मोक्षप्राप्तमिवाऽऽत्मानं, मन्यमाना महामनाः । अनुज्येष्ठं निषसाद, सा मध्येवतिनीगणम् ॥ ७९७॥ १ कृतार्था । २ भ्रातृपुत्राः । ३ शिक्षामयीम् । भरत-सुन्दरीभ्यां विहिता ऋषभप्रभोः स्तुतिः, सुन्दरीदीक्षा च । ॥११८॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशनां स्वामिनः श्रुत्वा, पादपद्मे प्रणम्य च । ययावयोध्यां नगरीं, मुदितो भरतेश्वरः ॥ ७९८ ।। दिदृक्षोः खं जनं सर्व, पुनस्तस्याऽधिकारिभिः । आगताः समदर्श्यन्ताऽस्मार्यन्ताऽनागता अपि ।। ७९९ ।। आतॄननागतान् ज्ञात्वा, खाभिषेकोत्सवेऽपि तान् । तेषामेकैकशो दूतान्, प्राहिणोद् भरतेश्वरः ॥८०० ॥ राज्यानि चेत् समीहध्वे, सेवध्वं भरतं ततः । दूतैरित्युदिताः सर्वेऽप्यालोच्यैवाऽवदन्निदम् ॥ ८०१ ॥ विभज्य राज्यं दत्तं नस्तातेन भरतस्य च । संसेव्यमानो भरतोऽधिकं किं नः करिष्यति ? ॥। ८०२ ॥ समापतन्तं किं काले कालं प्रस्खलयिष्यति ? । किं जराराक्षसीं देहग्राहिणीं निग्रहीष्यति १ ।। ८०३ ॥ बाधाविधायिनः किं वा, व्याधि॑िव्याधान् हनिष्यति । । यथोत्तरं वर्द्धमानां, यद्वा तृष्णां दलिष्यति ? ८०४ ई सेवाफलं दातुं न चेद् भरत ईश्वरः । मनुष्यभावे सामान्ये, तर्हि कः केन सेव्यताम् ॥। ८०५ ।। प्राज्यराज्योऽप्यसन्तोषादस्मद्राज्यं जिघृक्षति । स्थाम्ना चेत् तद् वयमपि, तस्य तातस्य सूनवः ।। ८०६ ॥ अविज्ञपय्य तातं तु, सोदर्येणाऽग्रजन्मना । त्वदीयस्वामिना योद्धुं न वयं प्रोत्सहामहे ॥ ८०७ ॥ ते दूतानभिधायैवं, तदैवाऽष्टापदाचले । स्थितं समवसरणे, वृषभस्वामिनं ययुः ॥ ८०८ ॥ त्रिव प्रदक्षिणीकृत्य, प्रणेमुः परमेश्वरम् । शिरःसु बद्धाञ्जलयः सर्वेऽप्येवं स्तुतिं व्यधुः ।। ८०९ ।। देवैरप्यपरिज्ञेयगुणं कः स्तोतुमीश्वरः । त्वां स्तोष्यामस्तथापीश !, विलसद्भालचापलाः ॥ ८१० ॥ तपस्यतामप्यधिकास्त्वां नमस्यन्ति ये सदा । वरिवस्यन्ति ये तु त्वां योगिनामपि तेऽधिकाः ।। ८११ ।। नमस्यतां प्रतिदिनं, विश्वालोकदिनेश्वर ! | धन्यानामैवतंसन्ति, त्वत्पादनखरश्मयः ।। ८१२ ॥ १ रोगरूपव्याधान् । २ बलेन । ३ सेवन्ते । ४ हे विश्वप्रकाशसूर्य ! ५ अवतंसवदाचरन्ति । भरतेन श्रातून प्रति दूतप्रेषणम् । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि प्रथमं पर्व शलाका पुरुषचरिते चतुर्थः सगः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥११९॥ न किञ्चित् कस्यचित् साम्ना, बलाद् वा गृह्यते त्वया । त्रैलोक्यचक्रवर्ती त्वं, तथाऽप्यसि जगत्पते ॥८१३॥ स्वामिस्त्वमेको जगतां, समं चेतःसु वर्त्तसे । पीयूषदीधितिः सर्वजलाशयजलेष्विव ॥ ८१४ ॥ त्वां स्तोता स्तूयते देव !, सर्वैस्त्वामर्चिताऽर्च्यते । त्वां नन्ता नम्यते सर्वा, त्वयि भक्तिर्महाफला ॥८१५॥ त्वं देव ! दुःखदावाग्नितप्तानामेकवारिदः । मोहान्धकारमूढानामेकदीपस्त्वमेव हि ॥ ८१६ ॥ रोराणामीश्वराणां च, मूर्खाणां गुणिनामपि । साधारणोपकारी त्वं, छायाद्रुम इवाऽध्वनि ॥ ८१७॥ इति स्तुत्वा भ्रमरवत् , स्वामिपादारविन्दयोः । निवेशितदृशस्तेऽथ, सम्भूयैवं व्यजिज्ञपन् ॥ ८१८ ॥ तदानीं तातपादैनः, संविभज्य पृथक् पृथक् । देशराज्यानि दत्तानि, यथार्ह भरतस्य च ॥ ८१९॥ तैरेव राज्यैः सन्तुष्टास्तिष्ठामो विष्टपेश्वर! । विनीतानामलङ्घया हि, मर्यादा खामिदर्शिता ॥ ८२० ॥ खराज्येनाऽन्यराज्यैश्चाऽपहृतैभरतेश्वरः। न सन्तुष्यति भगवन् !, बडवाग्निरिवाऽम्बुभिः॥८२१॥ आचिच्छेद यथाऽन्येषां, राज्यानि पृथिवीभुजाम् । अस्माकमपि भरतस्तद्वदाच्छेत्तुमिच्छति ।। ८२२ ॥ त्यज्यन्तामाशु राज्यानि, सेवा वा क्रियतां मम | आदिदेशेति पुरुषैर्भरतो नः परानिव ।। ८२३॥ वचोमात्रेण मुश्चामस्तस्याऽऽत्मवहुमानिनः । तातदत्तानि राज्यानि, क्लीबा इव कथं वयम् ॥ ८२४ ॥ सेवामपि कथं कुर्मो, निरीहा अधिकद्धिषु ? । अतृप्ता एव कुर्वन्ति, सेवां मान विघातिनीम् ॥ ८२५॥ राज्यामुक्तावसेवायां, युद्धं स्वयमुपस्थितम् । तातपादांस्त्वनापृच्छय, न किञ्चित् कर्तुमीश्महे ॥ ८२६ ॥ अम्लानकेवलज्ञानसङ्कान्ताशेषविष्टपः । कृपावान् भगवानादिनाथोऽपीत्यादिदेश तान् ॥ ८२७॥ १चन्द्रः। २ दीनानाम् । ३ हे जगदीश्वर । ४ नपुंसकाः। ५ निःस्पृहाः । ६ अमोचने । सेवाया अकरणे । भरतभ्रातॄणां प्रभोः समीपे आगमनम् । KESANAA सन ॥११९॥ For Private & Personal use only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्रान् प्रति अङ्गारकारक दृष्टान्तेन प्रभोरुपदेशः, तेषां दीक्षा च। वत्साः ! पुरुषवीरैर्हि, पुरुषव्रतधारिभिः । योद्धव्यं वैरिवर्गेणाऽनर्गलं द्रोहकारिणा ॥ ८२८ ॥ रागो द्वेषश्च मोहश्च, कषायाश्चेति वैरिणः । अनर्थदायिनः पुंसां, जन्मान्तरशतेष्वपि ॥ ८२९ ॥ रागो हि सद्गतौ पुंसामायसी पादशृङ्खला । द्वेषश्च नरकावासनिवासप्रतिभूली ॥ ८३० ॥ मोहो भवार्णवावर्त्तप्रक्षेपणपणो नृणाम् । कषायाः स्वाश्रयानेव, दहन्ति दहना इव ॥ ८३१॥ अनपायमयैस्तैस्तैरुपायास्त्रेनिरन्तरम् । युद्धा युद्धा विजेतव्यास्तदमी वैरिणो नृभिः ॥ ८३२ ॥ सेवाऽपि हि विधातव्या, धर्मस्यैवैकतायिनः । तच्छाश्वतानन्दमयं, पदमीपत्करं यया ॥ ८३३ ॥ अनेकयोनिसम्पातानन्तबाधानिबन्धनम् । अभिमानफलैवेयं, राज्यश्रीः सापि नश्वरी ॥ ८३४ ॥ किं च या स्वःसुखैस्तृष्णा, नाऽत्रुट्यत् प्राग्भवेषु वः। साऽङ्गारकारकस्येव, मर्त्य भोगैः कथं त्रुटेत?॥८३५॥ ___ अङ्गारकारकः कश्चिदादाय पयसो दृतिम् । जगाम कर्तुमगारानरण्ये रीणवारिणि ॥ ८३६ ॥ सोऽङ्गारानलसन्तापान्मध्याह्नातपपोपितात् । उद्भूतया तृषाऽऽक्रान्तः, सर्व दृतिपयः पपौ ॥ ८३७॥ तेनाऽप्यच्छिन्नतृष्णः सन् , सुप्तः स्वमे गृहं गतः । आलूकलसनन्दानामुदकान्यभितोऽप्यपात् ॥ ८३८॥ तजलैरप्यशान्तायां, तृष्णायामग्नितैलवत् । वापीकूपतडागानि, पायं पायमशोषयत् ॥ ८३९ ॥ तथैव तृषितोऽथाऽपात्, सरितः सरितांपतीन् । न च तस तृषाऽत्रुट्यनारकस्येव वेदना ॥ ८४०॥ मरुकूपे ततो यातः, कुशपूलं स रज्जुभिः । बद्धा चिक्षेप पयसे, किमातः कुरुते नहि ? ॥ ८४१॥ लोहमयी। २ प्रतिनिधिः। ३ ग्लहः। नित्यानन्दमयम् । ५ शुष्कजले। ६ जलपात्रभेदाः। ७दर्भपूलम् ।। Jan Education Interna For Private & Personal use only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व चतुर्थः सर्गः ॥१२०॥ दूराम्बुत्वेन कूपस्य, मध्येऽपि गलिताम्बुकम् । निथोत्य पूलं द्रमकः, स्नेहपोतमिवाऽपिबत् ॥ ८४२ ॥ नच्छिन्ना यार्णवाद्यैस्तृट, छेद्या पूलाम्भसा न सा । तद्वद् वः स्वःसुखाच्छिन्ना, छेद्या राज्यश्रिया किमु ? अमन्दानन्दनिःस्यन्दनिर्वाणप्राप्तिकारणम् । वत्साः! संयमराज्यं तद् , युज्यते वो विवेकिनाम् ॥ ८४४॥ तत्कालोत्पन्नसंवेगवेगा भगवदन्तिके । तेऽष्टानवतिरप्याशु, प्रव्रज्यां जगृहुस्ततः ॥ ८४५ ॥ अहो ! धैर्यमहो ! सत्त्वमहो ! वैराग्यधीरिति । चिन्तयन्तस्तत्स्वरूपं, दूता राज्ञे न्यवेदयन् ॥ ८४६ ॥ ज्योतीपीव ज्योतिषां ज्योतिरीशस्तेजांसीवाऽहपतिः पावकानाम् । वारीणीव स्रोतसां वारिराशिस्तेषां राज्यान्याददे चक्रवर्ती ॥ ८४७॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि भरतच कोत्पत्ति-दिग्विजय-राज्याभिषेक सोदर्यव्रतग्रहणकीर्तनो नाम चतुर्थः सर्गः॥४॥ *हप्रोत खं, सं॥ १ स्वर्गसुखाच्छिन्ना । ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । पुत्रान् प्रति अङ्गारकारक दृष्टान्तेन प्रभोरुपदेशः, तेषां दीक्षा च। ॥१२०॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः। ततश्च भरताधीशः, सदासदनमीयिवान् । सुषेणसेनापतिना, नमस्कृत्येत्यभाष्यत ॥१॥ कृत्वाऽपि दिग्जयमिदं, तव चक्र पुरीमिमाम् । अद्यापि न प्रविशति, स्तम्भं व्याल इव द्विपः ॥२॥ बभाषे भरतोऽप्येवं, पट्खण्डभरतान्तरे । अद्यापि वीरः को नाम, ममाऽऽज्ञान प्रतीच्छति ॥३॥ __ तदैव सचिवोऽवोचजाने देवेन निर्जितम् । एतद्धि भरतक्षेत्रमा क्षुद्रहिमवगिरि ॥४॥ जेयः किमवशिष्टोऽस्ति, दिग्यात्राकृत्यपि त्वयि ? । भ्रमद्वरद्दे पतितास्तिष्ठन्ति चणकाः किमु ? ॥५॥ पुर्यामप्रविशञ्चैतच्चक्रं सूचयति प्रभो ! । कमप्यद्यापि जेतव्यं, त्वदाबालङ्घनोन्मदम् ॥६॥ देवेष्वपि न पश्यामि, जेतव्यं दुर्जयं च ते । आ ज्ञातमथवाऽस्त्येको, जेतव्यो विश्वदुर्जयः॥७॥ ऋषभस्वामिनः सूनुः, स्वामिन्नवरजस्तव । महाबलो बाहुबलिबलिनां बलसूदनः ॥८॥ सर्वास्त्राण्येकतो वज्रमेकतश्च यथा तथा । एकतो राजकं सर्व, स बाहुबलिरेकतः॥९॥ लोकोत्तरो यथाऽसि त्वमृषभखामिनन्दनः । तथा सोऽपि तदेतस्मिन्नजिते किं जितं त्वया ? ॥१०॥ षट्खण्डे भरते दृष्टो, न कोऽपि स्वामिनः समः । तज्जये परंभागोऽस्तु, को नाम भरतेशितुः? ॥११॥ अयं खलु जगन्मान्यां, भवदाज्ञां न मन्यते । तदसाधनतश्चक्रमेति हीणमिवेह न ॥१२॥ उपेक्षितव्यो न परः, स्वल्पोऽप्यामयवद् यतः । तदद्याऽलं विलम्बेन, यतध्वं तज्जयं प्रति ॥१३॥ निषष्टि. २१ १ सभामण्डपम् । २ दुष्टगजः । ३ लघुभ्राता । : राजसमूहम् । ५ उत्कर्षता । ६ लज्जितमिव । ७ शत्रुः। Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥१२१॥ दावाग्निमेघवृष्टिभ्यामिवाऽद्रिर्भरतेश्वरः । सद्यः कोपोपशान्तिभ्यामाश्लिष्टोऽथाऽब्रवीदिदम् ॥ १४ ॥ नानुजोऽपि करोत्याज्ञामिति लज्जाकृदेकतः । सार्द्धं कनीयसा युद्धमिति चैकत्र बाधते ॥ १५ ॥ स्वगृहेऽपि न यस्याऽऽज्ञा, तस्याऽऽज्ञा हासकृद् बहिः । प्रवादश्च कनिष्ठस्याऽविनयासहने मम ॥ १६ ॥ एकतो राजधर्मोऽयं दृप्तानां दर्पशार्तनः । इतो भ्रातरि सौभ्रात्रं, सङ्कटे पतितोऽस्मि हा ! ॥ १७ ॥ अमात्योऽप्यभ्यधादेवं, स्वमहत्त्वेन सङ्कटम् । यद् देवस्य कनीयांस्तत् स एव ह्यपनेष्यति ॥ १८ ॥ आज्ञा हि ज्यायसा देया, कर्त्तव्या च कनीयसा । आचारो रूढ एवाऽयं, सामान्यगृहिणामपि ॥ १९ ॥ भ्रातरं तत् कनीयांसं, लोकरूडेन वर्त्मना । आज्ञापयतु देवोऽपि, प्रेष्य सन्देशहारकम् ॥ २० ॥ आज्ञां सर्वजगन्मान्यां, वीरमानी तवाऽनुजः । सहिष्यते न चेद् देव !, पर्याणमिव केसरी ॥ २१ ॥ प्रशास्यास्त्वं तदा पाकशासनोद्गाढशासनः । न चाऽपवादस्ते लोके, लोकाचारानतिक्रमात् ॥ २२ ॥ तथेति प्रतिपेदे तद्वचनं मेदिनीपतिः । उपादेया शास्त्रलोकव्यवहारानुगा हि गीः ॥ २३ ॥ अनुशिष्य ततो दूतं, नयज्ञं वाग्मिनं दृढम् । सुवेगं नाम नृपतिः, प्रैषीद् बाहुबलिं प्रति ॥ २४ ॥ स्वामिशिक्षां दौत्यदीक्षामिवाऽऽदाय स सौष्ठवाम् । सुवेगो रथमारुह्याऽचलत् तक्षशिलां प्रति ।। २५ ।। सारसैन्यपरीवारो, रथेनाऽसंघरंहसा । निर्ययौ स विनीताया, राजाज्ञेव वपुष्मती ॥ २६ ॥ कार्यारम्भविधौ वामं, दैवं पश्यदिवाऽसकृत् । पस्पन्दे लोचनं वामं गच्छतस्तस्य वर्त्मनि ॥ २७ ॥ नाडी नाडीधमस्येव वह्निमण्डलमध्यतः । उवाह दक्षिणा तस्य, रोगाभावेऽप्यनारतम् ॥ २८ ॥ १] गर्वनाशकः । २ ज्येष्ठेन । ३ लघुना । ४ वाचालम् । ५ वेगवता । ६ प्रतिकूलम् । ७ सुवर्णकारस्य । प्रथमं पर्व पश्चमः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । भरत बाहुबलियुद्धम् । ॥१२१॥ . Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna समेष्वपि हि मार्गेषु, रथस्तस्याऽस्खलन्मुहुः । अप्यसंयुक्तवर्णेषु, जिह्वा लल्लंगिरामिव ॥ २९ ॥ सादिभिर्वार्यमाणोऽपि प्रेर्यमाण इवाऽसकृत् । कृष्णसारः पुरस्तस्य दक्षिणाद् वामतो ययौ ॥ ३० ॥ तस्याग्रे कैरटः शुष्के, निविष्टः कण्टकद्रुमे । अरसत् कटुकं घर्ष शस्त्रमिवोर्पले ॥ ३१ ॥ उत्ततार पुरस्तस्य, प्रलम्बः कृष्णपन्नगः । क्षिप्तार्गलेव दैवेन तद्यानैनिरुरुत्सया ॥ ३२ ॥ प्रतिकूलो ववौ वायुश्चक्षुषोः प्रक्षिपन् रजः । पर्यस्यन्निव तं पश्चाद्, विचारैकविपश्चितम् ॥ ३३ ॥ तस्य दक्षिणतो भृत्वा, विररास च रासभः । अभोजितप्रस्फुटितमृदङ्गविरसखरः ।। ३४ ।। सुवेगोऽगादनिमित्तान्येतानि प्रविदन्नपि । सद्भृत्याः स्वामिनः क्वाऽपि काण्डवत् प्रस्खलन्ति न ॥३५॥ ललचे स बहून् ग्रामनगराकर कर्बटान् । तद्वासिभिर्दृश्यमानो, वात्यावर्त इव क्षणम् ॥ ३६ ॥ तरुखण्डसरः सिन्धुपु लिनप्रभृतिष्वपि । विशश्राम न स स्वामिकार्यतोऽत्र प्रवर्त्तितः ॥ ३७ ॥ किरातैः सजकोदण्डैः, शरव्यीकृतकुञ्जरैः । चमूरुचर्मसंव्यानैर्जातुधानैरिवाऽऽकुलाम् ॥ ३८ ॥ चंमूरु- चित्रक - व्याघ्र-हरिभिः शरभैरपि । सगोत्रैरन्तकस्येव, क्रूरसचैर्निरन्तराम् ॥ ३९ ॥ युध्यमानाहि-नकुलवामँलूरविभीषणाम् । भल्लूकीकेशधरणव्यग्रबालकिरातिकाम् ॥ ४० ॥ मिथो महिषसङ्ग्रामभज्यमानजरत्तरुम् । नाहलोत्थापितक्षौद्रमक्षिकाभिरसञ्चराम् ॥ ४१ ॥ १ स्खलद्गिराम् । २ मृगविशेषः । ३ काकः । ४ पाषाणे । ५ कृष्णसर्पः । * ननिषिषित्सया खंता ॥ ६ विचारकचतुरम् । ७ गर्दमः । ८ बाणवत् । ९ चक्रवातः । १० लक्ष्यीकृतकुअरैः । चमूरच खंता, सं २, आ ॥ ११ मृगविशेषः । + चमूरैश्चित्रकैर्व्याघ्रैर्ह खंता, सं २, आ ॥ १२ अष्टापदैः । १३ वल्मीकाः । . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दा प्रथम पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१२२॥ पञ्चमः सर्ग: ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम् । अभ्रंलिहतरुस्तोमतिरोहितदिवाकराम् । रहोरतभुवं मृत्योरिवाऽऽप स महाटवीम् ॥४२॥ [पञ्चभिः कुलकम्] घोरां तामटवीं वेगात् , सुवेगो वेगवद्रथः । सलीलं लश्यामास, विपदं पुण्यवानिव ॥४३॥ मार्गान्ततरुविश्रान्तरलङ्करणधारिभिः । संलक्ष्यमाणसौराज्यं, सुस्थैः पान्थवधूजनैः ॥४४॥ गोकुले गोकुले वृक्षतलासीनैः प्रमोदिभिः । गीयमानर्षभस्वामिचरितं गोपदारकैः॥४५॥ भद्रशालादिवाऽऽहत्याऽऽरोपितैः फलमालिभिः । अलङ्कताखिलग्राम, बहलैर्बहुभिर्द्वमैः ॥ ४६॥ पत्तने पत्तने ग्रामे, ग्रामे वेश्मनि वेश्मनि । दानकदीक्षितैरिभ्यः, शोध्यमानवनीपकम् ॥४७॥ आगतैर्भरतात् त्रस्तैरिवोदग्भरतार्द्धतः । प्रायेणाऽध्यासितग्राम, म्लेच्छैरक्षीणऋद्धिभिः॥४८॥ षड्भ्यो भरतखण्डेभ्यः, खण्डान्तरमिव स्थितम् । भरताज्ञानभिज्ञं स, बहलीदेशमासदत् ॥ ४९ ॥ . [सप्तभिः कुलकम् ] ऋते श्रीबाहुबलिनं, राजान्तरमजानतः । जनान् जानपदान् मार्गेष्वना न् वार्तयन् मुहुः॥५०॥ वनेचरान् गिरिचरान् , दुर्मदान् श्वापदानपि । द्राक् खञ्जीभवतः पश्यन् , सुनन्दानन्दनाज्ञया ॥५१॥ प्रजानामनुरागोत्या, महतीभिश्च ऋद्धिभिः । अद्वैतमनुमिमानः, श्रीबाहुबलिनो नयम् ॥ ५२ ॥ भरतावरजोत्कर्षाकर्णनाद् विस्मृतं मुहुः । अनुस्मरन् वाचिकं स, प्राप तक्षशिलापुरीम् ॥ ५३॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] किञ्चिल्लोचनपातेन, पुरीपरिसरोषितैः । प्रेक्ष्यमाणः क्षणं लोकैरेकपान्थावलीढया ॥५४॥ १ घनैः। २ याचकम् । ३ सुखिनः। * हिंस्रप्राणिनः। ५ अनुमानं कुर्वन् । ६ नीतिम् । • सन्देशम् । भरत-बाहुबलियुद्धम् । ॥१२॥ Jan Education International For Private & Personal use only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीलोद्यानेषु सम्भूय, खेलेन खुरलीजुषाम् । सुभटानां भुजास्फोटैस्त्रस्यद्रथतुरङ्गमः ॥ ५५ ॥ इतस्ततः पौरऋद्धिप्रेक्षणव्यग्रताजुषा । दक्षिणस्थेनानिषिद्धोत्पथगामिस्खलद्रथः ॥ ५६ ॥ एकत्रेवेभरत्नानि, समस्तद्वीपचक्रिणाम् । बद्धान् वरगजान् पश्यन् , बहिरुद्यानशाखिषु ॥ ५७ ॥ प्रेक्षमाणो मन्दुराश्च, बन्धुरास्तुरगोत्तमैः । ज्योतिष्काणां विमानानि, विहायेव समागतैः ॥५८॥ भरतावरजैश्वर्याश्चर्यालोकनजन्मना । शिरोऽत्येव शिरो धुन्वन् , प्रविवेश स तां पुरीम् ।। ५९ ॥ [पड़िः कुलकम् ] खच्छन्दवृत्तीनत्याढ्यानार्पणेषु वणिग्जनान् । अहमिन्द्रानिव पश्यन् , राजद्वारं जगाम सः॥६॥ सहस्ररोचिषो रोचीष्याच्छिद्येव विनिर्मितान् । कुन्तान् दधानः कुत्रापि, पत्त्यनीकैरधिष्ठितम् ॥ ६१॥ विभ्राणैरिक्षुपत्रास्यान्ययःशल्यानि पत्तिभिः । शोभितं कुत्रचिच्छौर्यद्रुमैः पल्लवितैरिव ॥ ६२॥ अभङ्गानश्मभङ्गेऽपि, बिभ्रद्भिर्लाहमुद्गरान् । सनाथं क्वापि सुभटैरेकदन्तैरिव द्विपैः ॥ ६३ ॥ फलकासिधरैः क्वापि, चन्द्रकेतुधरैरिख । शोभितं वीरपुरुषप्रकाण्डैश्चण्डशक्तिभिः ॥६४॥ आ नक्षत्रगणं दुरापातिभिः शब्दवेधिभिः । तूणपृष्ठैः कालपृष्ठपाणिभिः क्वाऽप्यधिष्ठितम् ॥६५॥ उद्दामशुण्डादण्डाभ्यां, स्थिताभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः । इभाभ्यां द्वारपालाभ्यामिव दूराद् भयङ्करम् ॥ ६६ ॥ सिंहद्वारं नृसिंहस्य, पश्यन् विस्मितमानसः । द्वाःस्थप्रतीक्षितस्तस्थौ, स्थितिरेषा नृपौकसाम् ॥ ६७ ॥ [ सप्तभिः कुलकम् ] १ शराभ्यासजुषाम्। २ सारथिना। ३ अश्वशालाः । ४ हट्टेषु । ५ सूर्यस्य । ६ तेजांसि । ७ नक्षत्रगणपर्यन्तम् । ८ धनुःपाणिभिः । For Private & Personal use only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१२३॥ गत्वा च बाहुबलये, द्वास्थेनेति न्यवेद्यत । त्वद्रातुर्ज्यायसो दूतः, सुवेगो द्वारि तिष्ठति ॥ ६८ ॥ वेत्रिणाऽथाऽऽज्ञया राज्ञोऽनुमतो धीमतां वरः । बुधोऽर्कमण्डलमित्र, सुवेगः प्राविशत् सदः ॥ ६९ ॥ आबद्धरत्नमुकुटैस्तेजस्विभिरिलाघवैः । दिवाकरैरिव दिवो, भुवं प्राप्तैरुपासितम् ॥ ७० ॥ प्रदीप्तचूलामणिभिरधृष्यैर्जगतोऽपि हि । कुमारप्रवरैर्नागकुमारैरिव सेवितम् ॥ ७१ ॥ स्वामिविश्वाससर्वस्ववल्लीसन्तानमण्डपैः । सचिवैरुपधाशुद्वैधमद्भिः परिवारितम् ॥ ७२ ॥ सहस्रशश्चाऽऽत्मरक्षैर्निष्कोशायुधपाणिभिः । उज्जिह्वैरिव फणिभिभीषणं मलयाद्रिवत् ॥ ७३ ॥ वारस्त्रीभिवज्यमानं, चामरैरतिचारुभिः । शैलं हिमालयमिव, चमरीभिर्निरन्तरम् ॥ ७४ ॥ स्वर्णदण्डधरेणाऽग्रे, शुचिवेषेण वेत्रिणा । सविद्युता शरद्वारिधरेणैवोपशोभितम् ।। ७५ ।। रत्नसिंहासनासीनं, तेजसामिव दैवतम् । ददर्श बाहुबलिनं, स तत्रोद्भूतविस्मयः ॥ ७६ ॥ [ सप्तभिः कुलकम् ] नरनाथं ननामाऽथ, ललाटस्पृष्टभूतलः । स करीब रणद्दीर्घतरकाञ्चनशृङ्खलः ।। ७७ ।। ततो भूसंज्ञया राज्ञा, तत्कालमुपनायिते । प्रदर्शिते प्रतीहारेणाऽऽसाञ्चक्रे स आसने ॥ ७८ ॥ तं प्रसादसुधाधौता पश्यन् नृपोऽब्रवीत् । सुवेग ! कुशलं कच्चिदार्यस्य भरतेशितुः १ ॥ ७९ ॥ तातपादैर्लालितायां, पालितायां च सुन्दर ! । तस्यां पुरि विनीतायां, कच्चित् कुशलिनी प्रजा ? ॥ ८० ॥ षण्णां भरतखण्डानां, कीमादीनामिव द्विषाम् । निरन्तरायं विजयं, कच्चिद् व्यधित भूपतिः १ ॥ १ भूपतिभिः । २ काम-क्रोध-लोभमान-मद-हर्षाणाम् । ८१ ॥ प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रि चरितम् । भरत बाहुबलियुद्धम् । ॥१२३॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टिं वर्षसहस्राणि, कृत्वा कटकमुत्कटम् । सेनान्यादिपरीवारः, कच्चित् कुशलमागतः ॥ ८२॥ सिन्दूरारुणितैः कुम्भैद्या सन्ध्याभ्रमयीमिव । वितन्वती करिघटा, राज्ञः कच्चिन्निरामया ? ॥ ८३॥ आ हिमाद्रिमहीमेतां, समाक्रम्य समेयुषाम् । राज्ञो वरतुरङ्गाणां, वर्तते कच्चिदक्लमः ॥ ८४ ॥ अखण्डाज्ञस्य सर्वत्र, सेव्यमानस्य पार्थिवैः । सुखेन व्यतिगच्छन्ति, कच्चिदार्यस्य वासराः ॥ ८५ ॥ परिपृच्छयेति तूष्णीके, स्थिते वृषभनन्दने । कृताञ्जलिरनावेगः, सुवेग इदमभ्यधात् ॥८६॥ ___ इलायाः सकलाया यः, करोति कुशलं खयम् । अस्ति तस्य स्वतः सिद्धं, कुशलं भरतेशितुः॥८७॥ पुर्याः सुषेणादीनां च, हस्त्यश्वस्य च किं क्षमः । देवोऽप्यकुशलं कर्तुं, येषां नेता तवाग्रजः॥८८॥ तुल्योऽधिको वा किं कोऽपि,क्वाऽप्यस्ति भरतेशितुः। षण्णां भरतखण्डानां,जये यो विघ्नकृद् भवेत्।।८९॥ अखण्डिताज्ञः सर्वत्र, सेव्यते च नरेश्वरैः । तथापि भरताधीशो, जातु नाऽन्तः प्रमोदते ॥९॥ दरिद्रोऽपि कुटुम्बेन, सेव्यते यः स ईश्वरः । न सेव्यते तु यस्तेन, तस्यैश्वर्यसुखं कुतः? ॥९१॥ पष्टिवर्षसहस्रान्तादेयुषा ज्यायसा तव । उत्कण्ठया कनिष्ठानामागंमाध्वा निरीक्षितः ॥ ९२॥ सर्वे तत्राऽऽययुर्वन्धुसम्बन्धिसुहृदादयः । विदधुश्च महाराज्याभिषेकं भरतेशितुः ॥ ९३ ॥ आसतां तैः समायातैः, सुरैरपि सवासबैः । न हृष्यति महीनाथोऽपश्यन् पार्श्वे निजानुजान् ॥९४ ॥ द्वादशस्खपि वर्षेषु, ज्ञात्वा भ्रातृननागतान् । तानाह्वातुं नरं प्रैषीदुत्कण्ठा हि बलीयसी ॥ ९५ ॥ अश्रमः। * सुखेनैवातिग सं १, खं ॥ । एवमापृच्छ्य तू सं २, आ ॥ २ स्थिरः । ३ पृथ्व्याः । ४ नायकः । ५ अन्तःकरणे। ६ आगतेन । ७ आगमनमार्गः।। Jain Education Interna . l Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्ग: ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१२४॥ कश्चिद् विकल्पं सङ्कल्प्य, भरतं न समाययुः। ययुस्तु तातपादान्तं, दीक्षामाददिरे च ते ॥९६ ॥ तेषां सम्प्रत्यरागाणां, न कोपि खो न वा परः । तैः कथं पूर्यते राज्ञो, भ्रातृवात्सल्यकौतुकम् ॥९७॥ तदेहि देहि हृदयप्रमोदं मेदिनीपतेः । तवाऽपि यदि तत्रास्ति, स्नेहः सौभ्रात्रसम्भवः ॥ ९८॥ कुलिशादप्यधिकं वः, कठोरांस्तर्कयाम्यहम् । चिराद् दिगन्तादायाते, ज्येष्ठेऽप्येवं यदास्यते ॥ ९९ ॥ शङ्के वो गुर्ववज्ञानान्निभयेभ्योऽपि निर्भयान् । शूरैरपि वर्त्तितव्यं, गुरौ हि सभयैरिव ॥ १०॥ एकत्र विश्वविजयी, विनयी चाऽन्यतो गुरौ । पारिपधैर्विचार्यालं, द्वैतीयीकः प्रशस्यते ॥१०१॥ तवाऽविनयमप्येवं, सोढा सर्वसहो नृपः । कर्णेजपानां किन्त्वेवमवकाशो निरङ्कशः ॥ १०२॥ पिशुनानां गिरस्तत्र, त्वदभक्तिप्रकाशिकाः । दूषयिष्यन्ति तच्चेतः, क्षीरं शुक्तच्छटा इव ॥१०३ ॥ अत्यल्पमपि तद् रक्ष्यमात्मच्छिद्रं निजे प्रभौ । छिद्रेण लघुनाऽप्यम्भः, सेतुमुन्मूलयत्यहो! ॥ १०४॥ इयत्कालं नागतोऽस्मीत्याशङ्कां हृदि मा कृथाः । अधुनाऽप्येहि सुस्वामी, गृह्णाति स्खलितं नहि ॥१०५॥ त्वयि तत्र गते सद्यः, पिशुनानां मनोरथाः । विलीयन्तां हिमानीव, नभोभाजि नेभोमणौ ॥१०६ ॥ तेजोभिश्चिरमेधस्व, खामिना तेन सङ्गमात् । अद्यैव पर्वणि दिवाकरेणेव निशाकरः ॥१०७॥ खामीयन्तस्तमन्येऽपि, बहवो बाहुशालिनः । सेवाशालीनतां हित्वा, सेवन्ते प्रतिवासरम् ॥१०८॥ अवश्यं सेवनीयो हि, चक्रवर्ती महीधवैः । निग्रहानुग्रहसहः, सहस्राक्ष इवाऽमरैः॥१०९॥ भरत-बाहुबलियुद्धम् । ORPHOSISSAASAASA ॥१२४॥ १ पिशुनानाम् । २ भरतस्य चेतः। ३ कातिकम् । ४ हिमसमूहः। ५ सूर्ये । ६ स्वामिवदाचरन्तः। • इन्द्रः। Jain Education in . Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्तित्वपक्षेपि, तस्य सेवा त्वया कृता । अद्वैतभ्रातृसौहार्दपक्षमुयोतयिष्यति ॥ ११० ॥ भ्रातेति यदि निर्भीको, नाऽऽयास्येतन्न साम्प्रतम् । आज्ञासारा न गृह्यन्ते, ज्ञातेयेन महीभुजः ॥ १११॥ अयस्कान्तैरिवाज्यासि, देवदानवमानवाः । कृष्टाः प्रकृष्टैस्तेजोभिरायान्ति भरतेश्वरम् ॥ ११२॥ यम सनदानेन, वासवोऽपि संखीयति । तमागमनमात्रेणाऽनुकूलयसि किं नहि ॥११३॥ वीरमानितया चेत् तं, राजानमवमन्यसे । तर्हि तस्मिन् ससैन्योऽपि, त्वमब्धौ सक्तुमुष्टिवत् ॥ ११४ ॥ चतुरशीतिलक्षास्तद्गजाः शक्रेभसन्निभाः । सह्याः केनाभिसर्पन्तः, पर्वता इव जङ्गमाः? ॥११५॥ तावतोऽश्वान् स्थांश्चाऽस्य, विष्वक् प्लावयतो महीम् । कल्लोलानिव कल्पान्तोदधेः कः स्खलयिष्यति॥११६॥ तस्य षण्णवतिग्रामकोटिभर्तुः पदातयः । तेंद्रामप्रमिताः सिंहा, इव त्रासाय कस्य न? ॥११७ ॥ एकः सुषेणः सेनानीर्दण्डपाणिः समापतन् । कृतान्त इव किं शक्यः, सोढुं देवासुरैरपि ? ॥ ११८॥ अमोघं बिभ्रतश्चक्र, चक्रिणो भरतस्य तु । सूर्यस्येव तमस्तोमः, स्तोकिकैव त्रिलोक्यपि ॥ ११९ ॥ तेजसा वयसा ज्येष्ठो, नृपः श्रेष्ठः स सर्वथा । राज्यजीवितकामेन, सेव्यो बाहुबले! त्वया ॥ १२०॥ अथ बाहुबलिर्बाहुबलापास्तजगदलः । इत्यभाषिष्ट गम्भीरध्वानोऽर्णव इवाऽपरः ॥१२१ ॥ साधु दूत! त्वमेवैको, वाग्मिनामग्रणीरसि । ममापि पुरतो वाचं, य एवं वक्तुमीशिषे ॥ १२२॥ ताततुल्यो हि मे भ्राता, ज्यायान् सोऽपि यदिच्छति । समागम बान्धवानां, युक्तमेव तदप्यहो॥१२३॥ १ अद्वैतभ्रातृवात्सल्यपक्षम् । २ ज्ञातिभावेन । ३ लोहानि । ४ सखिवदाचरति । * कोट्यः षण्णवति सिं सं २, आ॥ ५ अल्पमात्रा। ६ अग्रेसरः। Jan Education International RSS Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते RECE प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम् । ॥१२५॥ सुरासुरनृपश्रीभिक्रद्धः सोऽस्माभिरागतैः । लजिष्यतेऽल्पविभवैरागमायेति नो वयम् ॥ १२४ ॥ पष्टिं वर्षसहस्राणि, परराज्यानि गृह्णतः । कनिष्ठराज्यग्रहणे, व्यग्रता तस्य कारणम् ॥ १२५ ॥ सौभ्रानं कारणं तस्य, यदि तत् प्राहिणोत् कथम् । भ्रातृणामेकशो दृतान् , राज्यसङ्घामकाम्यया ? ॥१२६॥ को भ्राता ज्यायसा सार्द्ध, लुब्धेनापि हि योत्स्यते । इति बुद्ध्या महासत्त्वाः, कनिष्ठास्तातमन्वगुः ॥१२७॥ तेषां च राज्यग्रहणेनापि त्वत्स्वामिनो ध्रुवम् । छलमन्वीक्षमाणस्य, प्रकटं बकचेष्टितम् ॥ १२८॥ असावसास्वपि स्नेह, तादृशं दर्शयन्नहो । प्रजिंघाय विशिष्टं त्वां, वाक्प्रपञ्चविचक्षणम् ॥ १२९ ॥ प्रव्रज्य भ्रातृभी राज्यदानाद् याऽकारि तस्य मुत् । आगतेन मया राज्यगृथ्नोः किं सा करिष्यते ॥१३०॥ वज्रादपि कठोरोऽहं, यत् स्वल्पविभवोऽपि सन् । तस्य ऋद्धिं न गृह्णामि, भ्रातृन्यक्कारकातरः ॥ १३१॥ स तु पुष्पादपि मृदुर्मायावी योऽनुजन्मनाम् । अवर्णवादभीरूणां, राज्यानि स्वयमाददे ॥१३२ ॥ निर्भया निर्भयेभ्योऽपि, कथं दूत! वयं ननु । भ्रातृराज्यानि गृहन्तं, यदुपेक्षामहे स्म तम् ? ॥ १३३ ॥ गुरौ प्रशस्यो विनयी, गुरुयदि गुरुभवेत् । गुरौ गुरुगुणहीने, विनयोऽपि त्रपास्पदम् ॥ १३४ ॥ गुरोरप्यवलिप्स्य, कार्याकार्यमजानतः । उत्पथप्रतिपन्नस्य, परित्यागो विधीयते ॥ १३५ ॥ तस्याऽऽच्छिन्नं किमश्वादि?, भग्नं वा नगरादिकम् ? । येनाऽविनयमस्माकं, सोढा सर्वसहो नृपः॥१३६॥ दुर्जनप्रतिकाराय, न तत्र प्रयतामहे । विमृश्यकारिणः सन्तः, किं दृष्यन्ते खलोक्तिभिः? ॥ १३७ ॥ इयत्कालं नाऽऽगताः मो, यतो हेतोः स किं ययौ । अनीहालक्षणः क्वाऽपि?, यामो येनाऽद्य चक्रिणम् ॥१३८॥ प्रेषयामास । २ राज्यलुब्धस्य । ३ भ्रातृतिरस्कारकातरः । ४ लज्जास्थानम् । ५ सावलेपस्य । ६ निःस्पृहालक्षणः । भरत-बाहुबलियुद्धम् । ॥१२५॥ I For Private & Personal use only . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्राऽप्यप्रमत्तानामलुब्धानां च नः सदा । स्खलितं किं स गृह्णीयाच्छलान्वेष्यपि भृतवत ? ॥१३९॥ किमप्यनाददानानां, तदीयं नीवृंदादिकम् । खाम्येव नः कथं नाम, स भवेद् भरतेश्वरः ॥१४॥ भगवानृषभखामी, खाम्येको मम तस्य च । मिथः स्वस्वामिसम्बन्धो, घटते कथमावयोः? ॥१४१॥ तेजोहेतोर्मयि गते, तत्र स्यात् तस्य कीदृशम् । तेजोऽभ्युदितवत्यर्के, तेजस्वी नहि पावकः ॥१४२॥ स्वामीयन्तोऽक्षमास्ते तु, निपेवन्तां क्षमाभुजः । एष येषु वराकेषु, निग्रहानुग्रहक्षमः ॥ १४३॥ सेवामिन् भ्रातृसौहार्दपक्षेणाऽपि मया कृता । चक्रवर्त्तित्वपक्षे स्याद् , यदबद्धमुखो जनः ॥ १४४ ॥ भ्राताऽस्म्यभीः स चाऽऽज्ञेश, आज्ञापयतु यद्यलम् । ज्ञातिस्नेहेन किं वज्र, वज्रेण न विदार्यते ? ॥१४५|| सुरासुरनरोपास्त्या, प्रीतोऽस्त्वेष मयाऽस्य किम् ? । मार्ग एव क्षमः स्तंम्बे, रथः सजोऽपि भज्यते॥१४६॥ तातभक्तो महेन्द्रश्चेज्येष्ठं तं तातनन्दनम् । आसयत्यासनस्याऽद्धे, स किं तेनापि दृप्यति? ॥१४७॥ ते त्वन्येऽसिन् समुद्रे ये, ससैन्याः सक्तुमुष्टिवत् । तेजोभिर्दुःसहोऽहं तु, हन्त ! स्यां वडवानलः ॥१४८॥ पत्तयोऽश्वा रथा नागाः, सेनानीर्भरतोऽपि च । मयि सर्वे प्रलीयन्तां, तेजांसीवाऽर्कतेजसि ॥ १४९ ॥ करिणेव करेणोच्चैर्यः समादाय पादयोः । मयोदलालि गगने, बालत्वे लोष्टुलीलया ॥१५॥ गगने दूरमध्वानं, गत्वा यश्च पतन भुवि । मा भृत् परासुरित्येष, मया प्रत्यैषि पुष्पवत् ॥ १५१॥ चाटुभिश्चाटुकाराणां, निर्जितानां क्षमाभुजाम् । व्यस्मार्षीत् तदसौ प्राप्तो, जन्मान्तरमिवाऽधुना ॥१५२॥ ग्रहणं अकुर्वाणानाम्। २ देशादिकम् । ३ स्वामिवदाचरन्तः। ४ भरतः। ५ निर्भीकः। ६ आज्ञाकारकः । उपासनया। ८ काण्डरहिते वृक्षादी। ९प्रत्यग्रहीष्ट। Jan Education in For Private & Personal use only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथम पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१२६॥ चाटुकाराः प्रणश्यन्ति, ते सर्वेऽपि स्वयं त्वसौ । एकः सहिष्यते बाहुबलिबाहुबलाद् व्यथाम् ॥१५३॥ याहि दूत ! स एवैतु, राज्यजीवितकाम्यया । तातदत्तांशतुष्टेन, मयैवोपैक्षि तस्य भूः ॥१५४ ॥ चित्रकायैरिव दृढस्वाम्याज्ञापाशयत्रितैः । प्रकोपताम्रनयनः, प्रेक्ष्यमाणो नरेश्वरैः ।। १५५ ॥ रोपाद्धत हतेऽत्यन्तणद्भिः स्फुरिताधरैः । कटाक्ष्यमाणो विकटं, कुमारैश्च मुहुर्मुहुः ॥ १५६ ॥ जिधन्सुभिरिवो कैः, किश्चिचलितहेतिभिः । दृढाबद्धपरिकरैरीक्ष्यमाणोऽङ्गरक्षकैः ॥१५७ ॥ हनिष्यते वराकोऽयं, केनाऽपि रभसाजुपा । नः स्वामिपंदिकेनेति, चिन्त्यमानश्च मत्रिभिः ॥१५८ ॥ सजीकृतेन हस्तेन, पादमुत्क्षिप्य तस्थुषा । कण्ठे धर्तुमिवोत्केनोत्थापितो वेत्रपाणिना ॥ १५९ ॥ सुवेगो धैर्यमालम्ब्य, मनसि क्षुभितोऽपि सन् । निर्जगाम समुत्थाय, सदासदनतस्ततः ॥ १६० ॥ [षभिः कुलकम् ] क्रुद्धतक्षशिलाधीशतारशब्दानुमानतः । द्वारस्थया पत्तिंचम्बा, रोपक्षुभितया भृशम् ॥ १६१ ॥ आस्फाल्यमानैः फलकैनर्त्यमानैर्महासिभिः । उदस्यमानैश्चक्रेश्च, गृह्यमाणैश्च मुद्गरैः ॥१६२ ॥ स्फाट्यमानैस्त्रिंशल्यैश्च, पीड्यमानैश्च तूंणकैः । आदीयमानैर्दण्डैश्चोद्यम्यमानैश्च पशुभिः ॥१६३ ॥ | सर्वतोऽप्यात्मनो मृत्युमिव पश्यन् पदे पदे । स्खलत्पदो नृसिंहस्य, सिंहद्वारात् स निर्ययौ ॥ १६४ ॥ [चतुर्भिः कुलकम् ] १ अत्तुमिच्छुभिः। २ जीकृतभ्रकुटिभिः। ३ चलितखझैः। ४ साहसिकेन । ५ स्वामिपत्तिना । ६ उत्कण्ठितेन । ७ पदातिसेनया । ८ अस्त्रप्रतिघातनिवारकैः "ढाल" इति लोके। ९ शस्त्रविशेषः। १० निषङ्गैः । CAREERSAGAR भरत-बाहुबलियुद्धम्। ॥१२६॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क एष नूतनो राजद्वारान्निरगमत् पुमान् ? । आगतः खल्वयं दूतो, भरतस्य महीपतेः ॥१६५॥ राजा किमपरः कश्चिदप्यस्तीह महीतले ? । भ्राता बाहुबलेज्येष्ठोऽयोध्यायां भरतेश्वरः ॥१६६ ॥ अत्र च प्रजिघायेमं, स दूतं केन हेतुना ? । आकारणाय खभ्रातुः, श्रीबाहुबलिभूपतेः ॥ १६७ ॥ इयत्कालं गतः क्वाऽऽसीद्, भ्राताऽस्मत्स्वामिनो ननु । षदखण्डभरतक्षेत्रजयाय स गतो ह्यभूत्॥१६८॥ उत्कण्ठितः कनिष्ठं स, किं समाह्वयतेऽधुना? । अन्यराजन्यसामान्यां, सेवां कारयितुं ननु ॥ १६९॥ तस्याऽसारान् नृपान् जित्वा, किं कीलेऽत्राऽधिरोहणम् ? । अखण्डश्चक्रवर्तित्वाभिमानस्तत्र कारणम् ॥१७०॥ कनिष्ठेन जितो राज्ञां, खं कथं दर्शयिष्यति । न वेत्ति जितकासी स, भाविनं स्वपराभवम् ॥ १७१ ॥ मन्त्रणे नाऽऽखुरप्यस्ति, भूपतेर्भरतस्य किम् ? । भूयांसो मत्रिणः सन्ति, मतिमन्तः क्रमागताः॥१७२॥ स कण्डयियिषुस्तुण्डमहेः किं तैन वारितः । न वारितः प्रेरितः किन्त्वीदृशी भवितव्यता ॥ १७३॥ नागराणामिति मिथो, जल्पतामुच्चकैर्गिरम् । आकर्णयन् रथारूढो, नगर्या निर्जगाम सः ॥१७४ ॥ [दशभिः कुलकम् ] देवताभिरिव प्रादुष्कृतां द्वारे व्रजन्नसौ । आर्षभ्योविग्रहकथामितिहासमिवाऽशृणोत् ॥ १७५ ॥ क्रोधात् त्वरितमप्यस्य, गच्छतः स्पर्धयेव सा। वर्त्मनि त्वरिततरं, तद्विग्रहकथा ययौ ॥ १७६ ॥ वार्त्तयाऽपि तया राजादेशेनेव क्षणाद् भटाः । प्रतिग्राम प्रतिपुरं, कटकाय ससजिरे ॥ १७७ ॥ स्थान साङ्घामिकान कृष्ट्वा, शालाभ्योऽक्षादिभिनवैः । केचिद् दृढतरीचक्रुः, शरीराणीव योगिनः ॥१७८॥ * प्यते खं, सं १॥ १ मूषकः। २ मुखम् । ३ बाहुबलि-भरतयोः। । सैन्याय । ५ रथावयवादिभिः । त्रिषष्टि. २२ Jan Education International . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१२७॥ आरुह्याssor बाह्याल्यां धाराभिरपि पञ्चभिः । कर्तुं रणसहानश्वान्, केऽपि श्रममजापयन् ॥ १७९ ॥ अयस्कारगृहेष्वेत्य, कृपाणादिकमायुधम् । अपरे तेजयामासुस्तेजोमूर्तिमिव प्रभोः ॥ १८० ॥ संयोज्य शृङ्गसाराणि, बद्धाऽभिनवतत्रिभिः । यमभ्रूसोदराण्यन्ये, शार्ङ्गधन्वान्यसूत्रयन् ॥ १८१ ॥ वर्मादिवहनायोष्ट्रानरण्यात् केचिदानयन् । तूर्याणि प्राणवन्तीव, प्रयाणेषु प्रणादिनः ॥ १८२ ॥ सवाणान् वाणधीन केचित, सशिरस्कांच कङ्कटान् । दृढानपि दृढीचक्रुः, सिद्धान्तानिव तार्किकाः ॥ १८३ ॥ asu गुप्यगुरू काण्डपैंटान् पटकुटीरपि । गन्धर्वभवनानीव, वितत्याऽऽलोकयन् क्षणात् ॥ १८४ ॥ स्पर्द्धयेव मिथः सर्वे, भक्ता बाहुबलौ नृपे । युधि सञ्जीभवन्ति स्म, जना जानपदा अपि ।। १८५ ।। आप्तेन तत्र यः कोऽपि न्यवार्यत रणोन्मुखः । अनाप्तायेव तस्मै सोऽकुप्यद् भक्तिचिकीर्नृपे ।। १८६ ।। प्राणैरपि प्रियं राज्ञोऽनुरागेण चिकीर्षताम् । जनानामेवमारम्भं स ददर्श पथि व्रजन् ॥ १८७ ॥ श्रुत्वा दृष्ट्वा च तल्लोके, पर्वतीयनृपा अपि । प्रतिराजानमद्वैतभक्तिमानितयाऽमिलन् ॥ १८८ ॥ गावो गोपखरेणेव, निकुञ्जेभ्यः सहस्रशः । तेषां गोशृङ्गनादेन, किराताः प्रदधाविरे ॥ १८९ ॥ द्वीपिपुच्छत्वचा केचित् केकिपिच्छैश्च केचन । लताभिः केऽपि वेगेन, बबन्धुः कुन्तलान् भटाः ॥ १९० ॥ दन्दशत्वचा केsपि, तारव्या केचन त्वचा । केचिद् गोधात्वचाञ्चनन्, परिधानं मृगत्वचम् ॥ १९९ ॥ " कनात १ अश्वपाटिकायाम् । २ अश्वगतिभिः । ३ लोहकारगृहेषु । ४ यमभ्रूसदृशानि । ५ निषङ्गान् । ६ वर्माणि । ७ इति लोके । * भूभुजः पार्वता अपि खंता । पार्व सं १ ॥ ८ पर्वतसम्बन्धिनो नृपाः । ९] लतागृहेभ्यः । १० व्याघ्रपुच्छत्वचा । १३ मयूरपिच्छेः । १२ सर्पत्वचा | १३ तरुसम्बन्धिन्या । प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रिचरितम् । भरत बाहुबलियुद्धम् । ॥१२७॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रावहस्ता धनुर्हस्ताः, प्लवमानाः प्लवङ्गवत् । स्वपतीन् परिवत्रुस्ते, पतिभक्ताश्ववद् भृशम् ॥ १९२ ॥ अद्य दो बाहुबलिप्रसादावक्रयं चिरात् । भरताक्षौहिणीक्षोदादिति तेषां गिरोऽभवन् ॥ १९३ ॥ तेषामप्येवमारम्भ, ससंरम्भं निरूपयन् । सुवेगश्चिन्तयामास, मनसैवं विविक्तधीः ॥ १९४॥ पैतृकेणेव वैरेण, त्वरन्ते रणकर्मणे । अहो! अमी बाहुबलिगृह्या विषयवासिनः ॥ १९५॥ *किराता अप्यमी हन्तोत्सहन्ते हन्तुमागतम् । असद्धलं बाहुबलिबलाग्रे समरेच्छवः ॥ १९६॥ तं कञ्चन न पश्यामि, यः सज्जति युधे नहि । विद्यते स न कोऽपीह, रक्तो बाहुबलौ न यः॥१९७॥ शूराश्च स्वामिभक्ताश्च, बहल्यां हलिनोऽप्यहो । तत् किं देशस्वभावोऽयमुत बाहुबलेर्गुणः? ॥१९८॥ भवन्तु वेतनक्रीताः, सामन्ताद्याः पदातयः । अहो ! अस्य गुणक्रीती, पत्तीभूताऽखिलापि भूः ॥१९९॥ बह्वीमपि चक्रिचमू, मन्ये लध्वीं लघीयसः। श्रीबाहुबलिसैन्यस्य, तृण्यां वढेरिवाऽग्रतः॥२०॥ महावीरस्य किं चाऽस्य, न्यून बाहुबले पुरः । कलभं शरभस्येव, शङ्के चक्रिणमप्यहो! ॥२०१॥ ओजस्वी भुवि चत्र्येव, वज्येव दिवि विश्रुतः । तयोरन्तरवर्द्धवर्ती वा लघुरार्षभिः॥२०२॥ अपि तच्चक्रिणश्चक्रमपि वज्रं च वज्रिणः । मन्ये विफलमेवाऽस्य, चपेटाघातमात्रतः ॥ २०३॥ ऋक्षः कर्णे तदात्तोऽयं, महाहिर्मुष्टिना धृतः । विरोधितो यदस्माभिरहो ! बाहुबलिबली ॥ २०४॥ मृगमेकमिव द्वीपी, गृहीत्वा भूमिखण्डलम् । सन्तुष्टोऽयं मुधाऽस्माभिस्तर्जयित्वा खलीकृतः ॥२०५॥ अनेकनृपसेवाभिः, किमपूर्ण नृपस्य ? यत् । अयमारम्भि सेवाय, वाहनायेव केसरी ॥ २०६॥ * अयं श्लोक आ पुस्तके पतितः। 1रे क्व च खं ॥ १ कृषीवलाः। २ तृणसमूहम् । ३ बाहुबलिः । Jain Education Inter Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१२८॥ धिग मत्रिणः स्वामिहितमानिनोऽस्मानपीह धिक् । यैषिद्भिरिखोपेक्षाञ्चके खाम्यत्र कर्मणि ॥ २०७॥ प्रथमं पर्व गत्वैकेन सुवेगेन, विग्रहश्चालितः प्रभोः । भणिष्यतीति लोकस्तु, धिर दौत्यं गुणपणम् ॥ २०८ ॥ पञ्चमः एवं विचिन्तयन् नित्यं, दिनैः कतिपयैरपि । सुवेगो नगरी प्राप, विनीतां नीतिकोविदः॥२०९ ॥ सर्गः नीतः सभायां द्वास्थेन, प्रणामरचिताञ्जलिः । न्यपीदत् सोऽथ पप्रच्छे, सादरं चक्रवर्त्तिना ॥ २१॥ ऋषभजिनकिं नाम कुशलं बाहुबलेर्मदनुजन्मनः । यत् त्वं सुवेग! वेगेनाऽऽगतोऽसि क्षुभितोऽसि तत् ॥२१॥ | भरतचक्रिअथवा तेन पर्यस्तस्ततस्त्वरितमागतः । वीरवृत्तिरियं युक्ता, मद्भातुस्तस्य दोष्मतः ॥२१२ ॥ चरितम् । __ सुवेगोऽपि जगादैवं, देव! देवोऽपि न क्षमः । तस्याऽकुशलमाधातुं, तवेवाऽनवमौजसः ॥ २१३॥ स उक्तः स्वामिसेवार्थ, पूर्व विनयपूर्वकम् । मया तवाऽनुजन्मेति, नितान्तहितकाविणा ॥ २१४॥ भेषजेनेव तीव्रण, परिणामोपकारिणा । सोऽवाच्यवचनीयेन, वचसा तदनन्तरम् ॥ २१५॥ बलियुद्धम् । न साम्ना न खरेणापि, देवसेवां स मन्यते । किं नाम भेषजं कुर्याद्, विकारे सानिपातिके ? ॥२१॥ मानसारस्तृणायैतत् , त्रैलोक्यमपि मन्यते । स सिंह इव जानीते, प्रतिमल्लं न कञ्चन ॥ २१७॥ अस्मिन् सुषेणसेनान्यां, सैन्ये च तव वर्णिते । किमेतदिति दुर्गन्धादिवाऽभासीत् स नासिकाम् ॥२१८॥ प्रभोभरतपदखण्ड विजये प्रस्तुते च सः। अनाकर्णितकं कुर्वन्, खंदोर्दण्डौ निरीक्षते ॥ २१९॥ 13॥१२८॥ तातदत्तांशतुष्टस्य, ममैवोपेक्षयाग्रहीत् । भरतो भरतक्षेत्रषट्खण्डमिति चाऽऽह सः ॥ २२०॥ पर्याप्त सेवया तस्य, प्रत्युताऽऽह्वयतेऽधुना । रणाय देवं स व्याघीमिव दोहाय निर्भयः ॥ २२१॥ १ बलवतः। २ उत्तमपराक्रमस्य । ३ तीक्ष्णेन। ४ स्वभुजदण्डौ । भरत-बाहु Jain Education Inter For Private & Personal use only . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईदृक् तावत् तव भ्रातजखी मानी महाभुजः । गन्धेद्विप इवाऽसाः, सहते नाऽन्यविक्रमम् ॥ २२२ ॥ सभायां तस्य सामन्ता, हरेः सामानिका इव । प्रचण्ड भुजशौण्डीर्या, न हीयन्ते तदाशयात् ॥ २२३ ॥ कुमारा अपि तस्योच्चै, राजतेजोभिमानिनः । रणकण्डूलदोर्दण्डास्ततो दशगुणा इव ।। २२४ ॥ तन्मत्रमनुमन्यन्ते, मत्रिणोऽप्यस्य मानिनः । यादृशो भवति स्वामी, परिवारोऽपि तादृशः ॥ २२५ ॥ तस्याऽनुरागिणः पौरा, अप्यन्यं पार्थिवं न हि । जानन्ति न सहन्ते च सत्योऽपरपतीनिव ॥ २२६ ॥ जना जानपदा ये च तस्याऽष्टकरविष्टयः । भृत्या इवानुरागेण, तेऽपि प्राणैः प्रियैषिणः ॥ २२७ ॥ वनेचरा गिरिचराः, सिंहा इव भटाच ये । मानसिद्धिं चिकीर्षन्ति तेऽपि तस्य वशंवदाः || २२८ ॥ अलमुक्त्वा बह्वथवा, स वीरो वर्त्ततेऽधुना । युयुत्सया दिदृक्षुस्त्वां स्वामिन्नुत्कण्ठया न तु ॥ २२९ ॥ यदात्मने रोचतेऽतः परं स्वामी करोतु तत् । दूता न मन्त्रिणः किन्तु, सत्यवाचिकवाचिनः ॥ २३० ॥ युगपद् विस्मयामर्षमर्षहर्षादि तत्क्षणम् । नाटयित्वा भरतवद्, भरतोऽथाऽब्रवीदिति ॥ २३१ ॥ सुरासुरमनुष्येषु, तुल्यो नाऽमुष्य कश्चन । अर्थोऽनुभूत एवाऽयं, शिशुक्रीडास्वपि स्फुटम् ॥ २३२ ॥ जगत्रयस्वामिसूनोस्तस्याऽस्मदनुजन्मनः । त्रिलोक्यपि तृणायेति, वास्तवं न पुनः स्तवः ॥ २३३ ॥ सर्वथा श्लाघ्य एवाऽहमनेनाऽवरजन्मना । भांति नैको गुरुर्बाहुर्द्वितीयस्मिन् लघीयसि ॥ २३४ ॥ १ गन्धहस्ती इव । २ प्रचण्डभुजपराक्रमाः । * किं च तस्य कुमारा अप्योजस्ते' खंता ॥ दण्डाः । ४ पतिव्रताः स्त्रियः । ५. योद्धुमिच्छया । | सत्यसन्देशवाचिनः । ७ सूत्रधारवत् । त्येको गुरुर्बाहुर्न द्वितीये ल° खंता ॥ ३ रणकण्डूयुक्तभुज८ सत्यम् । राज . Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥१२९॥ सिंहः सहेताऽऽलीनं चेच्छरभो वा वशं व्रजेत् । वश्यो बाहुबलिश्च स्यात्, किं हि न्यूनं तदा भवेत् १ ॥ २३५ ॥ तत् सहिष्यामहे तस्य, वयं दुर्विनयानपि । यदि लोका अशक्तं मां, वदिष्यन्ति वदन्तु तत् ॥ २३६ ॥ सर्वमप्याप्यते वस्तु, पौरुषेण धनेन वा । न भ्राता प्राप्यते क्वाऽपि तादृशस्तु विशेषतः ॥ २३७ ॥ किमेवं युज्यते नो वा?, तूष्णीमास्थाय किं स्थिताः । उदासीना इव यूयं ?, यथार्थं ब्रूत मत्रिणः ! ॥ २३८॥ क्षमया खामिनो बाहुबलेरविनयेन च । प्रहारेणेव दूनोऽथ सेनानीरित्यवोचत ।। २३९ ॥ ऋषभखामिनः सूनोः, सुप्रभोर्भरतेशितुः । उचितैव क्षमा किन्तु, करुणाभाजने जने ॥ २४० ॥ वसेद् ग्रामेऽपि यो यस्य तस्याधीनः स जायते । स देशमपि भुञ्जानो, वाचाऽपि न वशस्तव ।। २४१ ॥ प्राणापहार्यपि वरं, वैरी तेजः प्रवर्द्धयन् । न तु बन्धुरपि भ्रातुस्तेजोवधविधायकः ॥ २४२ ॥ कोशैः सैन्यैः सुहृद्भिच, तनयैर्वपुषाऽपि च । तेजो रक्षन्ति राजानस्तेषां तेजो हि जीवितम् ॥ २४३ ॥ किमपूर्ण स्वराज्येनाऽप्यभृद् भर्तुः कृतस्तु यः । षट्खण्ड भरतक्षेत्रविजयस्तेजसे स तु ॥ २४४ ॥ एकत्राऽपि क्षतं तेजः, सर्वत्र क्षतमेव हि । एकदाऽपि सती लुप्तशीला स्यादसती सदा ।। २४५ ॥ संविभागो धनेष्वेव, गृहिणामपि बान्धवैः । गृह्यमाणं तेऽपि तेजो, नोपेक्षन्ते मनागपि ॥ २४६ ॥ सकलं भरतं जिष्णोर्यदिहाऽविजयः प्रभोः । उत्तीर्णस्य पयोराशिं गोष्पदे तन्निमञ्जनम् ॥ २४७ ॥ किश्च श्रुतमिदं वाऽपि दृष्टं वा क्वाऽपि यद् भुवि । चक्रिणोऽपि प्रतिस्पद्ध, राजा राज्यं भुनक्ति च १ ॥ २४८ ॥ तत्राऽविनीते यः स्नेहो, भ्रातृसम्बन्धमात्रजः । तदेतदेकहस्तेन, तालिकावादनं विभोः ॥ २४९ ॥ १ बन्धनम् । २ दयापात्रे । ३ गृहिणोऽपि । ४ समुद्रम् । * °ते स्नेहोऽयं, खंता ॥ प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रि चरितम् । भरत -बाहुबलियुद्धम् । ॥१२९॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्याजन इवाऽस्नेहे, तत्रापि स्नेहलः प्रभुः । एवं निगदतो नश्चेनिषेधति निषेधतु ॥ २५०॥ शत्रून् सर्वान् विजित्याऽन्तःप्रवेक्ष्यामीति संश्रवात् । निषेधिता कथं चक्रं, देवोऽद्यापि बहिःस्थितम्।।२५१॥ भ्रातृव्याजाद् द्विषन्नेष, युज्यते न ह्युपेक्षितुम् । असुमर्थ प्रभुः पृच्छत्वपरानपि मत्रिणः ॥ २५२ ॥ सम्मुखालोकनेनाऽनुयुक्तो वसुमतीभुजा । वाचस्पतिसमोऽवोचदथैवं सचिवाग्रणीः ॥ २५३॥ सेनानीरुक्तवान् युक्तं, कोऽन्यो वक्तुमिदं क्षमः । स्वामितेजो ह्युपेक्षन्ते, विक्रमायासमीरवः॥२५४॥ तेजसे स्वामिनाऽऽदिष्टा, अपि प्रायो नियोगिनः । रचयन्त्युत्तरं स्वार्थे, व्यसनं वर्द्धयन्ति वा ॥ २५५ ॥ अयं तु सेनाधिपतिर्देवकीयस्य तेजसः। पवनः पावकस्व, केवलं वृद्धिहेतवे ॥ २५६ ॥ चक्ररत्नमिव स्वामिन् , सेनाधिपतिरप्यसौ । अपि स्तोकं द्विषच्छेषमविजित्य न तुष्यति ॥ २५७ ॥ पर्याप्तं तद् विलम्बेन, दण्डहस्तैस्त्वदाज्ञया । प्रयाणभम्भा तेऽद्यैव, ताड्यतां प्रतिपक्षवत् ॥ २५८ ॥ सर्पता तन्निनादेन, सवाहनपरिच्छदाः । मिलन्तु सैन्याः सुघोषाधोपेणेव दिवौकसः ॥२५९ ॥ विदधातु प्रयाणं च, देवस्तक्षशिलां प्रति । उत्तराभिमुखं तेजोवृद्धये भानुमानिव ॥२६॥ गत्वा स्वयमपि स्वामी, भ्रातुः सौभ्रात्रमीक्षताम् । वेत्तु सत्यमसत्यं वा, सुवेगमुखवाचिकम् ॥ २६१॥ तद्वचो भरताधीशस्तथेति प्रत्यपद्यत । युक्तं वचोऽपरस्यापि, मन्यन्ते हि मनीषिणः ॥ २६२ ॥ ततः शुभेति भूपालः, कृतयात्रिकमङ्गलः । आरुरोह प्रयाणाय, नाग नगमिवोन्नतम् ॥ २६३ ॥ स्यन्दनाश्वरथारूढः, पत्तिभिश्च सहस्रशः । यात्रातूर्याण्यवाद्यन्ताऽन्यराजैकचमूनिभैः॥२६४॥ १ शत्रुः। २ प्रेरितः। ३ देवसम्बन्धिनः। शत्रुवत् । Jain Education into a For Private & Personal use only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१३॥ सर्गः नादैः प्रयाणतूर्याणां, सर्वसैन्यान्यथाऽमिलन् । समहस्तकनिषैरिव सङ्गीतकारिणः ॥ २६५॥ | प्रथमं पर्व नरेन्द्रमत्रिसामन्तचमूपैः परिवारितः । अनेकमूर्तिर्भूत्वेव, नगर्या निर्ययौ नृपः ॥ २६६ ॥ पञ्चमः __अथ यक्षसहस्रेणाधिष्ठितं भरतेशितुः । अभूत् सेनापतिरिव, चक्ररत्नं पुरस्सरम् ॥२६७ ॥ राज्ञः प्रयाणपिशुनाः, पांशुपूराश्चमूत्थिताः । दूरमाशु प्रससृपुरपसा इव द्विषाम् ॥ २६८ ॥ ऋषभजिनतदा प्रचलितैस्तस्य, लक्षसङ्खथैर्मतङ्गजैः । अलक्ष्यन्त गजोत्पत्तिभूमयो निर्गजा इव ।। २६९ ॥ भरतचक्रिचलद्भिस्तस्य तुरगैः, स्सन्द सरैर्मयैः । निर्वाहनमभृन्मन्ये, सर्वमन्यन्महीतलम् ॥ २७॥ चरितम् । पादातं पश्यतां तस्य, बभौ नरमयं जगत् । अम्भोधिं वीक्षमाणानामम्भोमयमिवाऽखिलम् ॥ २७१ ॥ साधितं भरतक्षेत्रं, क्षेत्रमेकमिवाऽमुना । पूर्वाणीव मुनिः प्राप, रत्नान्येष चतुर्दश ॥ २७२ ॥ भरत-बाहुआयुक्ता इव निधयोऽस्याऽभूवन वशगा नव । एवं सति कुतो हेतोः, क्व वा प्रास्थित पार्थिवः ॥२७३॥18॥ | बलियुद्धम् । यदृच्छया गच्छति वा, खदेशान् वैष वीक्षितुम् । द्विषत्साधनहेतुस्तच्चक्रमग्रे प्रयाति किम् ? ॥ २७४॥ ध्रुवं दिगनुमानेन, याति बाहुबलिं प्रति । अहो ! अखण्डप्रसराः, कपाया महतामपि ॥ २७५ ॥ स तावच्छ्यते देवासुरैरपि सुदुर्जयः । तं जिगीपुरसौ मेरुमङ्गुल्योद्धर्तुमिच्छति ॥ २७६ ॥ जितोऽनुजोऽनुजेनाऽपि, जित इत्ययशो महत् । महीपतेरुभयथाऽप्यत्र नूनं भविष्यति ॥ २७७ ॥ इति प्रवादा लोकानां, ग्रामे ग्रामे पुरे पुरे । मार्गे मागें च भूपस्य, गच्छतो जज्ञिरे चिरम् ॥ २७८ ॥ ॥१३०॥ [ सप्तभिः कुलकम् ] *मन्तैश्चमू सं २, भा॥ प्रयाणसूचकाः। २ गुप्तचराः। ३ पदातीनां समूहम् । Jain Education Intern For Private Person Use Only . Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्द्धिष्णुमिव विन्ध्याद्रिमन्धकारमिवोच्छलत् । उत्पतत्पांशुपूरेण, सर्वतोऽपि प्रदर्शयन् ॥ २७९ ॥ हेपाबृहितचीत्कारकरास्फोटरवैदिशः । नादयन् पृतनाङ्गानां, चतुर्णामानकैरिव ॥ २८॥ शोषयन् मार्गसरितो, ग्रीष्मार्क इव सर्वतः । पवमान इवोद्दामः, पातयन्नध्वपादपान् ॥ २८१ ॥ बलाकिनीमिव दिवं, कुर्वन् सैन्यध्वजांशुकैः । सैन्यार्दितामिभमदैर्भुवं निर्वापयन्निव ॥ २८२ ॥ दिने दिने नरपतिर्गच्छंश्चक्रपदानुगः । राश्यन्तरमिवाऽऽदित्यो, बहलीदेशमासदत् ॥ २८३ ॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] प्रवेशे तस्य देशस्य, निवेश्य शिबिरं नृपः । अवतस्थे समर्यादो, मर्यादायामिवाऽर्णवः ॥ २८४ ॥ अज्ञासीदागतं तत्र, सुनन्दानन्दनोपि तम् । राजनीतिगृहस्तम्भैः, सद्यः प्रणिधिपूरुषैः ॥ २८५ ॥ __ अथ बाहुबलियात्राहेतोभम्भामवीवदत । प्रतिनादैनिनदन्ती, द्यां भम्भीकुर्वतीमिव ॥ २८६ ॥ कृतप्रस्थानकल्याणः, कल्याणमिव मृतिमत् । आरुरोहोत्साहमिव, भद्रं बाहुबलिपिम् ॥ २८७ ॥ नृपैः कुमारैः सचिवैः, प्रवीरैरपरैरपि । सद्योऽपि परिवत्रे स, सुरैखि पुरन्दरः ।। २८८ ॥ महाबलैर्महोत्साहैरेककार्यप्रवृत्तिभिः । अभेद्येस्तैरात्मनोऽशैरिव बाहुबलिर्बभौ ॥ २८९ ।। निपादिनः सादिनश्च, रथिनोऽथ पदातयः । तस्येयुर्लक्षशः सद्यस्तन्मनोधिष्ठिता इव ॥ २९० ॥ ओजस्विभिरुदडैः खैरेकवीरमयीमिव । स वीरै रचयन्नवी, चचालाऽचलनिश्चयः ॥ २९१ ॥ अहमेकोऽपि जेष्यामि, परानिति परस्परम् । तद्वीरा व्यवदनिःसंविभागजयगृधवः ॥ २९२ ॥ १ टक्काख्यवाद्यविशेषैः । २ पवनः । ३ बलाका युताम् । ४ मेषादिराश्यन्तरम् । ५ गुप्तचरैः । . Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते पञ्चमः सर्गः ॥१३॥ ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । तत्र सैन्ये वीरमानी, काहलावादकोऽप्यभृत् । सर्वेऽपि मणिताभाजः, कर्करा अपि रोहणे ॥ २९३ ॥ महामाण्डलिकच्छत्रमण्डलैरिन्दुपाण्डुभिः । पुण्डरीकमयीव द्यौस्तदानीं समजायत ॥ २९४ ॥ ययौ बाहुबलिः पश्यन् , प्रत्येकमपि भूभुजः । भुजानिव निजानुच्चैर्मन्यमानो महौजसः॥ २९५ ॥ भुवं भारैरनीकानां, जयतूर्यस्वैर्दिवम् । आस्फोटयदिवोदामैत्रजन् बाहुबलिः पथि ॥ २९६ ॥ खदेशसीम्नि दूरेऽपि, शीघ्र बाहुबलिययौ । वायुतोऽपि भृशायन्ते, समरोत्कण्ठिताः खलु ॥२९७ ॥ गङ्गातटे बाहुबलिः, स्कन्धावारं न्यवेशयत् । नात्यासन्ने नातिदूरे, शिविराद् भरतेशितुः ॥२९८ ॥ प्रातयुद्धोत्सवायाऽथ, मागधैर्ऋषभात्मजौ । निमन्त्रयामासतुस्तावन्योऽन्यमतिथी इव ॥ २९९ ॥ ____ अथ बाहुबलिनक्तं, राजकानुमतं सुतम् । चके सेनापति सिंहरथं सिंहमिवौजसा ॥३०॥ मूर्ध्नि पट्टद्विपस्येव, रणपट्टोऽस्य भूभुजा । खयं न्यवेशि सौवर्णः, प्रताप इव भासुरः ॥३०१॥ स राजानं नमस्कृत्य, लब्धया रणशिक्षया । भुवेव प्राप्तया हृष्टो, ययावावासमात्मनः ॥३०२॥ राजा युद्धार्थमादिश्याऽन्यानपि व्यसृजन्नृपान् । स्वयं रणार्थिनां तेषां, सत्कारः स्वामिशासनम् ॥३०३॥ ___ कुमारनृपसामन्तसम्मतां भरतोऽपि हि । रणदीक्षां सुषेणस्य, ददावाचार्यवर्यवत् ॥ ३०४॥ *सिद्धिमत्रमिवाऽऽदाय, सुषेणः स्वामिशासनम् । चक्रवाक इव प्रातः, काम्यन् निजगृहं ययौ ॥३०५॥ कुमारान् बद्धमुकुटान् , सामन्तानितरानपि । आहृय भरताधीशः, समरायैवमन्वशात् ॥ ३०६॥ सेनापतिः सुषेणोऽयं, रणे मदनुजन्मनः । अप्रमत्तैरहमिवाऽनुगम्यो हे महौजसः!॥३०७॥ १ कांस्याख्यवाद्यविशेषः। २ रोहणाचले। ३ चारणैः। ४ रात्रौ । * सिद्धम सं१, खं ॥ भरत-बाहुबलियुद्धम् । ॥१३॥ Jan Education International T Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भो भो ! भवद्भिर्भूयांसो, भृभुजो भुजदुर्मदाः । महामात्रैरिव व्याला, व्यधीयन्त वशंवदाः ॥३०८ ॥ वैताठ्याद्रिमतिक्रम्य, किराताश्च दुराक्रमाः। विक्रान्तै ढमाक्रान्ता, हन्त : देवैरिवाऽसुराः ॥३०९॥ जीयन्तां हन्त ते सर्वे, यतस्तेषु न कोऽप्यभृत् । अपि तक्षशिलाधीशपत्तिमात्रस्य सन्निभः॥३१०॥ एकोऽपि सोमः सैन्यानि, तूलानीव समीरणः । दिशो दिशि क्षेसुमलं, ज्येष्ठो बाहुबलेः सुतः॥३१॥ कनिष्ठो वयसा तस्याऽकनिष्ठो विक्रमेण तु । महारथः सिंहरथः, शत्रुसैन्यदवानलः ॥ ३१२ ॥ किश्च बाहुबलेः पुत्रपौत्रादिप्वपरेषु च । एकैकोऽक्षौहिणीमल्लः, कृतान्तस्यापि भीतये ॥३१३ ॥ सामन्ताद्याश्च ये तस्य, स्वामिभक्त्या बलेन च । तोल्यन्ते तेऽपि तैः सार्द्ध, प्रतिमानस्थिता इव ॥३१४॥ अन्यसैन्येऽग्रणीयदृग्, भवत्येको महाबलः । सर्वेऽपि तादृशाः सैन्याः, सैन्ये तस्य महौजसः ॥३१५ ॥ दूरे बाहुबलिस्तावत् , स महाबाहुराहवे । एतस्यैकोऽपि हि व्यूहो, दुःस्फोटो हन्त ! वज्रवत् ॥ ३१६ ॥ तयुद्धायाभिगच्छन्तं, सुषेणमनुगच्छत । प्रावृषेण्यं पयोवाहं, पौरस्त्यपवना इव ॥ ३१७ ॥ सुधोपमगिरा भर्तुरन्तस्ते पूरिता इव । स्फारीबभूवुर्वपुषः, पुलकेन समन्ततः ॥ ३१८ ॥ विसृष्टास्ते नरेन्द्रेण, जयश्रीणामिव स्वयम् । वरणं प्रतिवीराणां, कुर्वाणाः खगृहं ययुः ॥ ३१९ ॥ द्वयोरपि तदाऽऽर्षभ्योः , प्रसादामहार्णवम् । तितीर्षवो वीरवराः, ससज्जू रणकर्मणे ॥ ३२०॥ कृपाणचापतूणीरगदाशक्त्यादिकान्यथ । आनछुर्देवतानीव, खानि स्वान्यायुधानि ते ॥ ३२१॥ शस्त्राग्रे वादयामासुस्तूर्याण्युच्चैर्महाभटाः । तालं पूरयितुमिवोत्साहाच्चित्तस्य नृत्यतः॥३२२ ।। १ दुष्टगजाः । २ पराक्रमेण श्रेष्टः । ३ प्रतिविम्बस्थिता इव । ४ युद्धे। ५ सैन्यरचनाविशेषः । ६ मेघम् । ७ पूर्वदिक्पवनाः। Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१३२॥ Jain Education Intern आत्मानं मार्जयन्ति स्म, चन्दनोद्वर्त्तनैर्नवैः । महाभटाः सुरभिभिः स्वयशोभिरिवाऽमलैः ॥ ३२३ ॥ चक्रुर्मटा मार्गमदीर्ललाटेषु ललाटिकाः । आबद्ध मेचकपटवीरपट्टविडम्बिनीः ॥ ३२४ ॥ शस्त्राणि जाग्रतां भाविशस्त्राशस्त्रिकथाकृताम् । सैन्यद्वयेऽपि वीराणां, निद्रा भीतेव नाऽऽययौ ॥ ३२५ ॥ सैन्यद्वितयवीराणां प्रातर्युद्धाभिकाङ्क्षिणाम् । त्रियामा शतयामेव, कथञ्चिदपि सा ययौ ॥ ३२६ ॥ आर्षभ्योवीक्षितुमिव, रणक्रीडाकुतूहलम् । अथाऽऽरुरोह चण्डांशुरुदयाचलचूलिकाम् || ३२७ ॥ मन्दरक्षुब्धसङ्गुभ्यत्पयोधिपयसामिव । पुष्करावर्त्तमेघानामिव प्रलयजन्मनाम् || ३२८ ॥ दम्भोलिताड्यमानानामिव सानुमतां महान् । प्रणादो रणतूर्याणां सैन्ययोरुभयोरभृत् ॥ ३२९॥ [ युग्मम् ] उत्कर्णतालास्तत्कालं, वित्रेसुर्दितङ्गजाः । सभयभ्रान्तयादस्काचक्षुश्च पयोधयः ॥ ३३० ॥ गुहासु विविशुः क्रूराण्यपि सच्चानि सर्वतः । रन्धादपि हि रन्ध्रेषु, न्यलीयन्त महोरगाः ॥ ३३१ ॥ गण्डशैलीभवच्छृङ्गाः, शैलाश्च प्रचकम्पिरे । विभय सङ्कुचत्पादकण्ठं कमठराडपि ॥ ३३२ ॥ वामध्वंसतेव द्यौर्विदद्र इव मेदिनी । रणातोद्यप्रणादेन, तदा तेन प्रसर्पता ।। ३३३ ॥ [ चतुर्भिः कलापकम् ] राजदौवारिकेणेच, रणतूर्येण चालिताः । उभयोः सैन्ययोः सैन्याः, ससज्जुरथ संयते ॥ ३३४ ॥ रणोत्साहोच्छ्रसदेहात, त्रुट्यन्तीर्वर्म जालिकाः । भूयो भूयो नवनवास्ताः केऽपि समचारयन् ।। ३३५ ।। आरोचकितया श्वान केsप्यात्मना समनाहयन् । स्वतोऽपि ह्यधिकां रक्षां, भटाः कुर्वन्ति वाहने ||३३६ ॥ १ ललाटालङ्कारान् । २ कृष्णवस्त्रं बोध्यम् । ३ शस्त्राशस्त्रियुद्धकथाः कुर्वाणानाम् । ४ भयं प्राप्तः । ५ युद्धाय । ६ कवचजालिकाः । प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रि चरितम् । भरत-बाहुबलि युद्धम् । ॥१३२॥ . Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COMPAGALOREIGNSCRE सन्नाह्याऽऽरुह्य केऽप्यश्वान् , परीक्षितुमवाहयन् । दुःशिक्षितो जडश्वाऽश्वः, शत्रवत्येव सादिनि ॥ ३३७॥ सन्नाहग्राहणे केऽपि, हेषमाणांस्तुरङ्गमान् । आनचुर्देववद् युद्धे, हेषा हि जयसूचिनी ॥ ३३८ ॥ लब्धावान् केऽप्यसन्नाहान् , सन्नाहान् विजहुर्निजान् । शौण्डीरदोष्णां समरेष्विदं हि पुरुषव्रतम् ॥३३९॥ अस्खलन् सञ्चरे|रे, रणे मत्स्य इवार्णवे । दर्शयेः कौशलमिति, शशासुः केपि सारथिम् ॥ ३४॥ पथिका इव पाथेयैरस्त्रैः केऽपि निजान् रथान् । समन्तात् पूरयामासुः, पश्यन्तः समरं चिरम् ॥३४१॥ दूरादात्मख्यापनाय, केपि वैतालिकानिव । उत्तम्भितखस्खचिह्नान , ध्वजस्तम्भान् दृढान् व्यधुः॥३४२॥ रथेष्वायोजयन् केपि, सुश्लिष्टयुगशालिषु । परसैन्यपयोराशिजलकान्तांस्तुरङ्गमान् ॥ ३४३॥ सारथिभ्यो द्रेढीयांसि, तनुत्राणानि केऽप्यदुः। रथाः सरथ्या अपि हि, निष्फलाः सारथिं विना ॥३४४॥ उद्दामलोहवलयश्रेणिसम्पर्ककर्कशान् । आनचुदन्तिनां दन्तान् , केचिनिजभुजानिव ॥ ३४५॥ करिष्वारोपयन् शारीः, पताकामालभारिणीः । केचिद् वासगृहाणीव, समेष्यन्त्या जयश्रियः ॥३४६॥ सद्यःस्फुटद्गण्डगजमदैर्मृगमदैरिव । जल्पन्तः शकुनमिति, तिलकान् केपि चक्रिरे ॥ ३४७॥ परेभमदगन्धाढ्यं, वायुमप्यसहिष्णवः । कैश्चिदप्यारुरुहिरे, मनोवद् दुर्धरा गजाः ॥३४८ ॥ सौवर्णान् ग्राहयामासुः, सर्वैः सर्वेऽपि सिन्धुरैः । समरोत्सवशृङ्गारचोलकानिव कङ्कटान् ॥ ३४९॥ उन्नालनीलनलिनीलीलया लोहमुद्गरान् । कुञ्जरैग्राहयामासुः, कराग्रेषु निषादिनः ॥ ३५०॥ १ शत्रुवदाचरति । २ अश्वशब्दः । ३ पराक्रमिभुजानाम् । ४ चारणान् । ५ दृढतमानि । ६ कवचानि । ७ अश्वसहिताः । ८ गजकवचान् । ९ कस्तूरीभिः । C RA त्रिषष्टि, २३ For Private & Personal use only कष्ट ww.jainelibrary.org. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्ग: ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१३३॥ कालीयसमयान कोशानाशु हस्तिपकाः शितान् । यमस्येवाऽऽहृतान् दन्तान् , दन्तिदन्तेषु विन्यधुः॥३५१॥ 'वेसराः शकटाश्चाऽत्रपूर्णास्तूर्ण प्रयान्त्वनु । अन्यथा लघुर्हस्तानामस्त्रं पूरिष्यते कथम् ॥ ३५२ ॥ वर्मपूर्णाश्च यान्तूष्ठा, वाण्यग्रे धृतानि यत् । त्रुटिष्यन्ति हि वीराणामत्रुटद्रणकर्मणाम् ॥ ३५३ ॥ स्थान्तराणि गच्छन्तु, सज्जानि रथिनामनु । भज्यन्ते हि रथाः शस्त्राशनिपातान्नगा इव ॥ ३५४ ॥ श्रान्तेषु प्रथमाश्वेषु, युद्विघ्नो मास भूदिति । सादिनां पृष्ठतो यान्तु, शतशोऽश्वान्तराण्यपि ॥ ३५५॥ एकैकं बद्धमुकुट, भृयांसोऽप्यनुयान्त्विभाः। न निर्वहति यत् तेषामिभेनैकेन सङ्गरः॥३५६ ॥ गच्छन्तु महिपाश्चाऽनुसैनिकं वारिवाहिनः । रणायासनिदाघ तप्तानां जङ्गमपाः॥ ३५७॥ कोश इवौषधीशस्य, सारं हिमगिरेरिख । उत्पाट्यन्तां च गोणीमी, रोहणौषधयो नवाः॥ ३५८ ॥ रणे राजनियुक्तानामित्याज्ञापनजन्मभिः । कोलाहलेरतायिष्ट, रणतूर्यमहारवः॥ ३५९ ॥ [अष्टभिः कुलकम् ] विश्वं शब्दमयमिव, तुमुलैर्विष्वगुत्थितैः । अयोमयमिव चाऽऽसीत् , सर्वतः प्रेङ्खदायुधैः ॥ ३६०॥ स्मारयन्तश्चरित्राणि, पूर्वेषां दृष्टपूर्विवत् । शंसन्तो रणनिर्वाहफलं व्यासवदुच्चकैः ॥ ३६१॥ उद्दीपनाय वीराणां, कीर्तयन्तो मुहुर्मुहुः । उपस्थितान् प्रतिभटान् , सादरा नारदर्षिवत् ॥ ३६२ ॥ प्रतिनागं प्रतिरथं, प्रत्यश्वं पर्ववन्मुदा । वैतालिका रणोत्तालास्तत्र भ्रमुरनाकुलम् ॥ ३६३ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] कृष्णलोहमयान् । २ हस्तलाघववताम् । ३ अविच्छिन्नरणकर्मणाम् । ४ रणप्रयासग्रीष्मर्तृतप्तानाम् । ५ जनमजलसत्राणि । ६ चन्द्रस्य । ७ व्रणरोहणी। ८ लोहमयमिव । SASSESSES भरत-बाहुबलियुद्धम्। ॥१३३॥ For Private & Personal use only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ बाहुबलिः स्नात्वा, प्रययौ देवमचितुम् । देवागारे गरीयांसः, कार्ये गुप्यन्ति न क्वचित् ॥३६४॥ ऋषभखामिनस्तत्र, प्रतिमां गन्धवारिभिः । भक्त्या सोऽस्नपयजन्माभिषेक इव वासवः ॥ ३६५ ॥ दिव्यया गन्धकाषाय्या, निष्कपायस्ततः स ताम् । ममार्ज परमश्राद्धः, श्रद्धयेव निजं मनः ॥ ३६६ ॥ प्रतिमायास्ततो यक्षकर्दमेन विलेपनम् । चक्रे दिव्यांशुकमयं, रचयन्निव चोलकम् ॥ ३६७॥ राजा जिनार्चामानर्च, विचित्रैः पुष्पदामभिः। सुर<सुमनोदामसोदरैरिव सौरभात् ॥ ३६८॥ सौवर्णे धूपदहने, दिव्यं धूपं ददाह च । तभूमै रचयन् पूजां, नीलोत्पलमयीमिव ॥ ३६९ ॥ ततः कृतोतरासङ्गो, मकरस्थ इवार्यमा । प्रतापमिव जग्राहाऽऽरात्रिकं दीप्रदीपकम् ॥ ३७० ॥ तदाऽऽरात्रिकमुत्तार्य, प्रणम्य च कृताञ्जलिः । आदिनाथं बाहुबलिर्भक्तिमानेवमस्तवीत् ॥ ३७१॥ ___ अवज्ञायाऽज्ञतां स्वस्थ, सर्वज्ञ ! त्वां स्तवीम्यहम् । यन्मां मुखरयत्येषा, दुर्वारा भक्तिमानिता ॥३७२॥ जयन्त्यादिमतीर्थेश!, त्वत्पादनखदीप्तयः । वज्रपञ्जरतां यान्त्यो, भवारित्रस्तदेहिनाम् ॥ ३७३॥ देव! त्वच्चरणाम्भोजमीक्षितुं राजहंसवत् । धन्याः प्रतिदिनं दूरादपि धावन्ति देहिनः ॥ ३७४ ॥ घोरसंसारदुःखात्तैः, शीतातैरिव भास्करः । शरणीक्रियसे देव!, त्वमेवैको विवेकिभिः ॥ ३७५ ॥ ये त्वां पश्यन्ति भगवन् !, नेत्रैरनिमिषैर्मुदा । परलोकेऽप्यनिर्मिषीभावस्तेषां न दुर्लभः॥३७६॥ देव! त्वद्देशनावाग्भिाति कर्ममलो नृणाम् । क्षीरेण क्षौमवस्त्राणामिव मालिन्यमाञ्जनम् ॥ ३७७॥ महान्तः। २ सुगन्धिद्रव्यमिश्रितविलेपनविशेषेण । ३ कल्पवृक्षपुष्पमालासमानैरिव । ४ कृतः उत्तरासको येन सः, सूर्यपक्षे कृतः उत्तरदिशः सङ्गो येन सः । ५ मकरराशिस्थितः । ६ सूर्यः। ७ संसाररिपुत्रस्तप्राणिनाम्। ८ देवत्वम् । ९ कज्जलसम्बन्धि । Jain Education Interne For Private & Personal use only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१३४॥ Jain Education Interna स्वामिन्नृषभनाथेति, जप्यमाना तवाऽभिधा । आलम्बते सर्वसिद्धिसमाकर्षण मन्त्रताम् ॥ ३७८ ॥ न वज्रमपि भेदाय, न शूलमपि हि च्छिदे । तेषां शरीरिणां नाथ !, येऽधित्वद्भक्तिवर्मिताः ।। ३७९ ॥ भगवन्तमिति स्तुत्वा, नत्वा च पुलकाश्चितः । निरगाद् देवतागारान्नरेश्वरशिरोमणिः ॥ ३८० ॥ जग्राह वज्रसन्नाहं, हेममाणिक्यमण्डितम् । विजयश्री विवाहाय, स कञ्चुकमिवोच्चकैः ॥ ३८१ ॥ शुशुभे वर्मणा तेन, भासुरेण नरेश्वरः । घनंविद्रुमसंहत्याऽधिपतिर्यादसामिव ।। ३८२ ॥ शिरस्त्राणं च शिरसि, न्यधत्त धरणीधवः । शैलशृङ्गनिविष्टाभ्रमण्डलश्रीविडम्बकम् || ३८३ || पृष्ठेऽवनाच्च तूणीरौ, लोहनाराचपूरितौ । महाफणिगणाकीर्णपातालविवरोपमौ ॥ ३८४ ॥ युगान्तसमयोदस्तयमदण्डसहोदरम् । कोदण्डं वामदोर्दण्डे, धारयामास भूपतिः ।। ३८५ ॥ आशास्यमानः स्वस्तीति, सौवस्तिकवरैः पुरः । जीव जीवेत्युच्यमानः, स्वगोत्रजरतीजनैः ॥ ३८६ ॥ नन्द नन्देत्युच्यमानो, जरदाप्तजनैः पुनः । चिरं जय जयेत्युच्चैर्गद्यमानश्च वन्दिभिः ॥ ३८७ ॥ मेरुशृङ्गमिव स्वारौद्र, महेभं स महाभुजः । आरुरोहाऽऽरोहण, दत्तहस्तावलम्बनः ॥ ३८८ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] इतस्तदानीमेव श्री भरतेशोऽपि पुण्यधीः । जगाम देवतागारं कोशागारं शुभश्रियः ॥ ३८९ ॥ प्रतिमामादिनाथस्य, रुपयामास तत्र सः । दिग्जयानी तपद्मादितीर्थतोयैर्महामनाः ॥ ३९० ॥ मार्ज राजशार्दूलो, देवदृष्येण वाससा । प्रतिमां तामप्रतिमां, शिल्पिवय मणीनिव १ ॥ ३९१ ॥ १ वज्रकवचम् | २ विपुलप्रवालसमूहेन । ३ यादसां अधिपतिः समुद्रः । ४ पुरोहितैः । ५ इन्द्रः । * शिवथि वा ॥ 6 प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रि चरितम् । भरत बाहुबलियुद्धम् । ॥१३४॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिमाचलकुमारादिदत्तैर्गोशीपचन्दनैः । विलिलेप प्रतिमां तां, स्वयशोभिरिवाऽवनीम् ॥ ३९२ ॥ पौर्विकस्वरैः पद्मासद्मपद्मसहोदरैः । रचयामास पूजां च, नयनस्तम्भनौषधीम् ॥ ३९३ ॥ प्रतिमायाः पुरो धूपं, निर्ददाह महीपतिः । आलिखन्निव कस्तूरीपत्राली धूमवल्लिभिः ॥ ३९४ ॥ निःशेषकर्मसमिधामग्निकुण्डमिवोल्वणम् । आदत्ताऽऽरात्रिकं दीप्रदीपकं राजदीपकः ॥ ३९५॥ तदुत्तार्याऽऽदिनाथाय, नमस्कृत्य च भूपतिः। विरचय्याञ्जलिं मूर्ध्नि, स्तोतुमित्युपचक्रमे ॥ ३९६ ॥ . त्वां जडोऽपि जगन्नाथ!, युक्तमानी स्तवीम्यहम् । लल्ला अपि हि बालानां, युक्ता एव गिरो गुरौ ॥३९७॥ देव ! त्वामाश्रयन् जन्तुर्गुरुकर्माऽपि सिध्यति । अयोऽपि हेमीभवति, स्पर्शात् सिद्धरसस्य हि ॥ ३९८ ॥ त्वां ध्यायन्तः स्तुवन्तश्च, पूजयन्तश्च देहिनः । धन्याः स्वामिन्नाददते, मनोवाग्वपुषां फलम् ॥ ३९९ ॥ पृथ्व्यां विहरतः स्वामिन्नपि ते पादरेणवः । महामतङ्गजायन्ते, पापद्न्मूलने नृणाम् ॥ ४००॥ नैसर्गिकेण मोहेन, जन्मान्धानां शरीरिणाम् । विवेकलोचनं नाथ !, त्वमेको दातुमीशिषे ॥ ४०१॥ सुचिरं चश्चरीकन्ति, ये भवत्पादपद्मयोः । तेषां न दूरे लोकाग्रं, मेर्वादि मनसामिव ॥ ४०२॥ देव ! त्वद्देशनावाग्भिर्गलन्त्याशु शरीरिणाम् । कर्मपाशा जम्बुफलानीव वारिदवारिभिः ॥ ४०३ ॥ इदं याचे जगन्नाथ :, त्वां प्रणम्य मुहुर्मुहुः । त्वयि भक्तिस्त्वत्प्रसादादक्षयाऽस्त्वब्धिवारिवत् ॥ ४०४॥ __ आदिनाथमिति स्तुत्वा, नमस्कृत्य च भक्तिमान् । निर्ययौ देवतागारान्नरदेवदिवाकरः ॥ ४०५॥ भयो भूयोऽपि शिथिलीकृत्य माने विनिर्मितम् । अङ्गेन हर्षोच्छ्रसितेनाऽऽददे कवचं नृपः॥४०६ ॥ १ लक्ष्मीगृहपद्मसदृशैः । २ समग्रकर्मकाष्टानाम् । ३ स्खलिताः। ४ सुवर्णी भवति । ५ भ्रमरायन्ते । * एकं खंता ॥ For Private & Personal use only 81ww.jainelibrary.org Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१३५॥ रेजे तेनाङ्गलनेन, दिव्येन मणिवर्मणा । माणिक्यपूजया देवप्रतिमेव महीपतिः ॥ ४०७ ॥ स्वर्णरत्नशिरस्त्राणं, मध्योच्चं छत्रवर्तुलम् । द्वैतीयीकमिवोष्णीषं बभार भरतेश्वरः ॥ ४०८ ॥ नागराजाविवाऽत्यन्ततीक्ष्णनाराचदन्तुरौ । पृष्ठे निषङ्गौ बिभराञ्चक्रे विश्वम्भराघवः || ४०९ ॥ उपाददे ततो वैरिवामं वामेन पाणिना । कालपृष्ठं महाचापं, वज्रीव ऋजुरोहितम् ॥ ४१० ॥ अन्यतेजखिनां तेजो, ग्रसमानो ग्रहेन्द्रवत् । लीलास्थिरपदन्यासं, क्रामन् भद्रगजेन्द्रवत् ॥ ४११ ॥ तृणवद् गणयन्नग्रे, प्रतिवीरान् मृगेन्द्रवत् । दृष्ट्वाऽपि दुर्विषहया, भीषणः पन्नगेन्द्रवत् ॥ ४१२ ॥ बन्दिवृन्दारकैरुच्चैः, स्तूयमानो महेन्द्रवत् । नरेन्द्रों रणनिस्तन्द्रमारुरोह महागजम् ॥ ४१३ ॥ [[त्रिभिर्विशेषकम् ] मागधेभ्यः प्रयच्छन्तौ, द्रविणं कल्पशाखिवत् । पश्यन्तावागतान् सैन्यान्, सहस्रेक्षणवन्निजान् ॥४१४॥ बिभ्राणौ वाणमेकं च, मृणालं राजहंसवत् । कुर्वाणौ रणवार्त्ता च, रतवार्त्ता विलासिवत् ॥ ४१५ ॥ महोत्साहौ महौजस्कौ, नभोमध्यं दिनेशवत् । उभावप्यार्ष भी स्वस्वसैन्यमध्यमथेयतुः ॥ ४१६ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] भरतो बाहुबलि, निजसैन्यान्तरस्थितः । बभार जम्बूद्वीपान्तर्वर्त्तिमेरुगिरिश्रियम् ॥ ४१७ ॥ तयोश्च सेनयोरन्तर्वर्तिनी भूरलक्ष्यत । विदेहक्षेत्रभूमीव, मध्ये निषधनीलयोः ॥ ४१८ ॥ उभे अपि तयोः सेने, पक्कीभूयाऽभ्यसर्पताम् । कल्पान्तसमये पूर्वीपरवारिनिधी इव ॥ ४१९ ॥ १ शिरोवेष्टनम् । २ पृथ्वीपतिः । ३ वैरिप्रतिकूलम् । ४ पूर्व पश्चिमसमुद्री । प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रि चरितम् । भरत-बाहुबलियुद्धम् । ॥१३५॥ . Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहिर्विस्फुट्य गच्छन्तो, न्यवार्यन्त पदातयः । राजदौवारिकैर्वारिप्रवाहा इव सेतुभिः ॥ ४२०॥ मिथः समपदन्यासं, चेलू राजाज्ञया भटाः । ते तालेनैकसङ्गीतवर्त्तिनो नर्तका इव ॥ ४२१ ॥ अलचितनिजस्थानं, चलद्भिः सर्वसैनिकैः । पताकिन्यौ तयोरेकतनू इव विरेजतुः ॥ ४२२ ॥ दारयन्तः शताङ्गानां, रथाङ्गैरायसाननैः । अयःकुद्दालकल्पैश्च, खनन्तो वाजिनां खुरैः॥ ४२३ ॥ भिन्दाना वेसरखुरैर चन्द्ररिवाऽऽयसैः । क्षुन्दन्तश्च पदातीनां, चरणैर्वज्रपाणिभिः ॥ ४२४ ॥ खण्डयन्तः क्षुरप्राभैमहिपोक्षखुरैः खरैः । मुद्राभैः करिपादैचूर्णयन्तश्च मेदिनीम् ॥ ४२५॥ छादयन्तो रजोभिमन्धकारसहोदरैः । द्योतयन्तश्च शस्त्रोत्रैभानुमद्भानुबन्धुभिः ॥ ४२६ ॥ भूयसा निजभारेण, क्लिश्नन्तः कूर्मकर्परम् । दंष्ट्रां महावराहस्य, नामयन्तः समुन्नताम् ॥ ४२७॥ गाढं शिथिलयन्तश्च, फणाटोपं फणीशितुः। दिग्गजानपि खर्वाङ्गीकुर्वन्तो निखिलानपि ॥ ४२८॥ ब्रह्माण्डमाण्ड क्ष्वेडाभिर्वादयन्त इवोच्चकैः । करास्फोटप्रणादैश्च, स्फोटयन्त इवोत्कटैः॥ ४२९॥ उपलक्ष्योपलक्ष्योचैर्विश्रुतैः केतुलाञ्छनैः । नामग्राहं च वृण्वन्तः, प्रतिवीरान महौजसः॥ ४३०॥ अन्योन्यमाह्वयमाना, मानशौण्डीर्यशालिनः । अग्रसैन्यैरग्रसैन्या, अमिलन सैन्ययोद्वयोः ॥ ४३१॥ [नवभिः कुलकम् ] गजिनो गजिनां यावद्, यादांसि यादसामिव । सादिनां सादिनो यावद् , वीचिनामिव वीचयः॥४३२॥ रथिनां रथिनो यावद् , वायूनामिव वायवः । पत्तीनां पत्तयो यावच्छ्रङ्गिणामिव शृङ्गिणः ॥ ४३३॥ १ राजद्वारपालैः। २ रथानाम् । ३ चकैः । ४ महिषवृषखुरैः। ५सूर्यकिरणसदृशैः। ६ कूर्मपृष्ठम्। ७ कुटजीकुर्वन्तः । ८ सिंहनादैः । Jain Education Interne l l For Private & Personal use only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१३६॥ Jain Education Interna १ प्रासं प्रासस्याऽसिमसेर्मुद्गरं मुद्गरस्य च । दण्डं दण्डस्य चाऽमर्षान्मेलयन्तो डुढौकिरे ॥ ४३४ ॥ तावन्नभसि सम्भ्रान्तास्त्रैलोक्योन्माथशङ्कया । उपर्युपरि गीर्वाणं, गीर्वाणाः समुपागमन् ॥ ४३५ ।। [ चतुर्भिः कलापकम् ] सङ्घर्षः कोऽयमार्षभ्योः, स्वकयोरिव हस्तयोः १ । इत्यामृशन्तस्ते प्रोचुरुभयोः सैनिकानिति ॥ ४३६ ॥ ऋषभखामिनोऽत्राऽऽज्ञा, योद्धव्यं केनचिन्न हि । युष्माकं स्वामिनौ यावद्, बोधयामो मनखिनौ ॥४३७॥ आज्ञया त्रिजगद्भर्त्तुरुभयेऽपि हि सैनिकाः । तथैव तस्थुस्ते सर्वेऽप्यालेख्य लिखिता इव ॥ ४३८ ॥ किममी बाहुबलिनः १, किं वा भरततः सुराः । एवं तु चिन्तयामासुः, सैनिकास्ते तथास्थिताः॥४३९॥ नव्यनश्यदहो ! कार्य, भद्रं लोकाय सम्प्रति । इति ब्रुवाणा गीर्वाणाश्चक्रिणं ययुरादितः ॥ ४४० ॥ दत्त्वा जयजयेत्याशीर्वादं देवाः प्रियंवदाः । युक्तियुक्तेन वचसा तं मत्रिण इवाऽवदन् ॥ ४४१ ॥ साधु षट्खण्ड भरतक्षेत्रे भूपास्त्वया जिताः । नृदेव ! देवराजेन, पूर्वदेवा इवाऽभितः ॥ ४४२ ॥ तवौजसा तेजसा च तेषु राजेन्द्र ! राजसु । मृगेषु शरभस्येव, प्रतिमल्लो न कोऽप्यभूत् ॥ ४४३ ॥ अपूर्यत रणश्रद्धा, तैर्नूनं भवतो नहि । हैयङ्गवीनश्रद्धेव, वारिकुम्भैर्विलोडितैः ॥ ४४४ ॥ द्वितीयेनाऽऽत्मनो भ्रात्रा, सहाऽऽरेभे त्वया ततः । युद्धमेतत् स्वहस्तेन, स्वहस्तस्येव ताडनम् ॥ ४४५ ॥ दोः कण्डूरेव ते राजंस्तद्रणे कारणं ध्रुवम् । गण्डकण्डूरिवेभस्य, महातरुनिघर्षणे ॥ ४४६ ॥ भुजक्रीडाऽपि युवयोर्जगतां प्रलयाय हि । वनभङ्गाय सम्फेटो, मत्तयोर्हि वनेभयोः ॥ ४४७ ॥ १ चित्रलिखिता इव । २ न विनष्टम् । ३ असुराः । ४ प्रतिस्पर्धी । ५ नवनीतश्रद्धा । ६ युद्धम् । प्रथमं पर्व पञ्चमः सगः ऋषभजिनभरतचक्रि चरितम् । भरत-बाहुबलियुद्धम् । | ॥१३६॥ . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAGAR विश्वं संहर्तुमारब्धं, क्रीडामात्रकृते कुतः । क्षणिकग्रीतये मांसादिना खगकुलं यथा ॥ ४४८॥ जगत्रातुः कृपाम्भोधे ऋषभादाप्तजन्मनः । अग्निवृष्टिः सुधास्तेरिवेदं किं तवोचितम् ? ॥ ४४९॥ तद् घोरात् सगरादस्मात् , सङ्गेभ्य इव संयमी । विरम क्षोणिरमण!, निजं ब्रज निकेतनम् ॥ ४५०॥ त्वय्यायाते समायातो, याते यास्थत्यसावपि । तवाऽनुजो बाहुबलिः, कार्य हि खलु कारणात् ॥४५१॥ शुभं भवतु वां विश्वक्षयांहःपरिहारतः । उभयेभ्योऽपि सैन्येभ्यश्चाऽस्तु क्षेमं रणोज्झ्नात् ॥ ४५२ ॥ त्वत्सैन्यभारसम्भूतभूमिभङ्गविरामतः । भूगर्भवासिनः सन्तु, भवनेन्द्रादयः सुखम् ॥ ४५३॥ भूमिः शैलाः समुद्राश्च, प्रजाः सत्त्वानि सर्वतः । क्षोभं त्यजन्तु त्वत्सैन्यविमर्दविरहादिह ॥ ४५४ ॥ युष्मत्समरसम्भाविविश्वसंहारशङ्कया । विना भूताः सुखं तिष्ठन्त्वपि सर्वे दिवौकसः ॥ ४५५ ॥ ___ इत्युदित्वा कार्यवादं, विरतेषु सुपर्वसु । बभाषे भरताधीशो, गिरा स्तनितधीरया ॥ ४५६ ॥ इमां विश्वहितां वाचं, के ब्रूयुभवतो विना ? । जनो धुदास्ते प्रायेण, परकौतुकमीक्षितुम् ॥ ४५७ ॥ किन्त्वत्र समरोत्थानकारणं वस्तुतोऽन्यथा । युक्त्याऽन्यथा तु युष्माभिरूहितं हितकाटिभिः॥४५८॥ कार्यमूलमविज्ञाय, स्वयमभ्यूह्य किञ्चन । शासितुः शासनं मोघं, भवेत् सुरगुरोरपि ॥ ४५९ ॥ दोष्मानसीति सहसा, सङ्ग्रामेच्छर्न खल्वहम् । सति भूयसि किं तैले, शैलाभ्यङ्गो विधीयते ? ॥४६०॥ षट्खण्डभरतक्षेत्रे, नृपतीन् जयतो मम । प्रतिमल्लो यथा नाऽऽसीत् , तथाऽद्यापि न विद्यते ॥४६१॥ १ मांसभक्षिणा । २ चन्द्रात् । ३ विश्वक्षयपापपरिहारतः। ४ रणत्यागात् । ५ देवेषु। ६ मेघगर्जनगभीरया । 1. उदासीनो भवति । ८ वितयं । ९ बलवान् अस्मि । १० पर्वतमर्दनम् । For Private & Personal use only allow.jainelibrary.org. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम्। ॥१३७॥ CACASSASSACREGAON प्रतिमल्लो द्विपन्नेव, जयाजयनिबन्धनम् । बाहुबलिस्त्वहमेव, जातभेदो विधेर्वशात् ॥ ४६२॥ निर्वादभीरुलजावान् , विवेकी विनयी सुधीः । पुरा तातमिवाऽमस्त, मां हि बाहुबलिः खलु ॥४६३॥ पष्टिं वर्षसहस्राणि, कृत्वा दिग्जयमागतः । तं वीक्षेऽन्यादृशमिव, भूयान् कालोन कारणम् ।। ४६४॥ ततोऽभिषेकवर्षेषु, द्वादशस्वपि मां न हि । आगाद् बाहुबलिस्तत्र, प्रमादस्तर्कितो मया ॥ ४६५॥ आह्वानाय मया दुते, प्रहितेऽप्येष नैति यत् । तय॑ते मत्रिणां मत्रदोषस्तत्रापि कारणम् ॥ ४६६ ॥ अहमप्याहयाम्येनं, न लोभान्न च कोपतः । किन्त्वन्तन विशेच्चक्रमेकस्मिन्नप्यनानते ॥ ४६७॥ न चक्ररत्नं नगरी, प्रविशत्येष मां न च । परस्परस्पर्द्धयेवेत्यनयोः सङ्कटेऽपतम् ॥ ४६८॥ स एकवारमायातु, मम भ्राता मनस्व्यपि । अन्योर्वीमपि गृह्णातु, मत्तः पूजामिवातिथिः॥ ४६९ ॥ विना चक्रप्रवेशं मे, नाऽन्यत् सङ्घामकारणम् । नतेनाऽप्यनतेनाऽपि, न मे मानोऽनुजन्मना ॥ ४७०॥ ____ अथोचिरे सुरा राजन् !, महत् सङ्घामकारणम् । अल्पेन कारणेनेक्, प्रवृत्तिर्न भवादृशाम् ॥ ४७१॥ उपेत्य बाहुबलिनं, बोधयामोऽधुना वयम् । युगक्षय इवाऽऽगच्छन् , रक्षणीयो जनक्षयः ॥ ४७२ ॥ भवानिव युधः सोऽपि, याच्चैः कारणान्तरम् । वदेत् तथापि युद्धेन, योद्धव्यमधमेन न ॥ ४७३॥ दृष्टि-वाग्बाहु-दण्डाद्यैर्युद्धेर्योद्धव्यमुत्तमैः । वधो निरपराधानां, गजादीनां यथा न हि ॥ ४७४ ॥ तथेति प्रतिपेदाने, चक्रवर्तिनि नाकिनः। द्वितीयस्मिन् बैले बाहुबलिराजानमभ्ययुः ॥ ४७५॥ अहो ! अधृष्यो मृाऽसौ, दृढावष्टम्भगर्भया । इत्यन्तर्विस्मयजुषस्ते तमेवं वभाषिरे ॥ ४७६ ॥ .. अननीभूते। २ सैन्ये । ३ धर्षितुमशक्यः । भरत-बाहु| बलियुद्धम् । ॥१३७॥ Jan Education International For Private & Personal use only Howw.jainelibrary.org Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUSANTARI O S चिरं जय चिरं नन्द, वृषभस्वामिनन्दन! । जगन्नेत्रचकोराणामानन्दैकनिशाकर !॥ ४७७॥ अम्भोधिरिव मर्यादां, नोल्लङ्घन्यसि जातुचित् । विभेष्यवर्णवादाच, समरादिव कातरः॥ ४७८॥ निजसम्पत्स्वनुत्सेकी, परसम्पत्स्वमत्सरी । विनेता दुर्विनीतानां, विनीतश्च गुरुष्वपि ॥ ४७९ ॥ विश्वाभयकृतो देवस्याऽनुरूपस्त्वमात्मजः । उच्छेदायाऽपरस्यापि, नाभ्ययुक्था मनागपि ॥ ४८०॥ तत् किं ते भ्रातरि गुरावारम्भोऽयं भयङ्करः । त्वत्ता-सम्भाव्यते नैष, पञ्चत्वममृतादिव ॥ ४८१॥ इयत्यपि गते कार्य, न विनष्टं मनागपि । तद्रणारम्भसंरम्भ, खलमैत्रीमिव त्यज ॥ ४८२ ॥ सम्पयरयाद् वीरान , निवारय नरेश्वर ! । निजाज्ञया प्रसरतो, मन्त्रेणेव महोरगान् ॥ ४८३॥ भरते भ्रातरि गुरौ, गत्वा भव वशंवदः । एवं च श्लाघ्यसेऽत्यन्तं, शक्तो विनयभागिति ॥ ४८४॥ तदिदं भरतक्षेत्रं, पट्खण्डं भरतार्जितम् । मुख स्वोपार्जितमिव, युवयोहि किमन्तरम् ॥ ४८५॥ | - इत्युदित्वा विरतेषु, तेषु वृष्ट्वा घनेष्विव । एवं बाहुबलिः साऽऽह, सित्वा गम्भीरया गिरा ॥४८६॥ आवयोर्विग्रहे हेतुमज्ञात्वा परमार्थतः । निजस्वच्छतया यूयमेवं वदथ हे सुराः!॥ ४८७ ॥ तातभक्ताः सदा यूयमावां तातस्य चाऽऽत्मजौ । इति सम्बन्धतोऽप्युक्तं, युक्तं युष्माभिरीदृशम् ॥४८॥18 पुरा हि दीक्षासमये, तातोऽर्थिभ्यो हिरण्यवत् । विभज्य देशानसभ्यमदत्त भरताय च ॥ ४८९ ।। वयं सर्वेऽपि तिष्ठामः, सन्तुष्टाः स्वखनीवृता | धनमात्रकृते हन्त !, परदोहं करोति कः? ॥ ४९०॥ असन्तुष्टस्तु भरतो, जग्रसे भरतोदधौ । मत्स्यानिव महामत्स्यो, राज्यान्यखिलभृभुजाम् ॥ ४९१॥ 5 गर्वरहितः । २ नाभियोगमकुरुथाः । ३ मरणम् । ४ युद्धवेगात् । ७ निजहृदयनैर्मल्येन । ६ स्वस्वदेशेन । ७ मरतक्षेत्रसमुद्रे । For Private & Personal use only RECHE Jain Education Internal . Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पञ्चमः पुरुषचरिते ॥१३८॥ राज्यस्तैरप्यसन्तुष्ट, आयून इव भोजनैः। आचिच्छेद स राज्यानि, खेषामवरंजन्मनाम् ॥ ४९२ ॥ प्रथमं पर्व पितृदत्तानि राज्यानि, भ्रातॄणामाच्छिनत्ति यः । गुरुत्वमात्मनस्तेन, खयमेव निवारितम् ॥ ४९३ ॥ सर्गः वयोमात्रेण न गुरुर्गुरुर्गुरुवदाचरन् । गुरुत्वं दर्शितं तेन, भ्रातृनिर्वासनादिदम् ॥ ४९४॥ भ्रान्तेनाध्यमियत्कालं, दृष्टो गुरुधिया मया । स्वर्णबुड्या पित्तलवन्मणिबुद्ध्या च काचवत् ॥ ४९५॥ ऋषभजिनपित्रा वंश्येन वाऽन्यस्याऽप्युवी दत्तां निरागसः। न हरेदल्पराज्योऽपि, किं पुनर्भरतेश्वरः ॥४९६॥ भरतचक्रि हृत्वाऽनुजानां राज्यानि, नूनमेष न लज्जितः । जितकासी राज्यकृते, मामप्याह्वयते यतः ॥ ४९७ ॥ चरितम् । जित्वाऽसौ भरतं सर्व, रयादास्फलितो मयि । तीर्वाऽम्भोधि पोत इव, दन्ते तटमहीभृतः॥ ४९८॥ ज्ञात्वा लुब्धममर्याद, ऋव्यादमिव निघृणम् । अमुं ममाऽनुजन्मानोऽप्यभजन लज्जया नहि ॥ ४९९ ॥ भरत-बाहुतस्य केन गुणेनाऽहं, भवाम्यद्य वशंवदः । ब्रूत माध्यस्थ्यमास्थाय, सभासद इवाऽमराः! ॥ ५००॥ बलियुद्धम्। अथ स्वविक्रमेणाऽयं, मां करोति वशंवदम् । तत् करोत्वेष पन्था हि, क्षत्रियाणां वशंवदः ॥५०१॥ 12 एवं स्थितेऽपि ह्यालोच्य, वलित्वा हन्त ! याति चेत् । एष क्षेमेण तद् यातु, लुब्धोऽहं न ह्यसाविव ॥५०२॥दू तद्दत्तं भरतं सर्व, भुजेऽहमिति किं भवेत् । केसरी केनचिद् दत्तं, किमश्नाति कदाचन ? ॥५०३ ॥1 भरतं गृह्णतस्तस्य, वर्षपष्टिसहस्यगात् । इदं यद्यजिघृक्षिष्यमग्रहीष्यं तदाऽपि हि ॥ ५०४॥ .. ॥१३८॥ कालेनैतावता तस्य, जातं भरतवैभवम् । तर्द्धनस्य धनमिव, कथं भ्राता हराम्यहम् ॥५०५॥ करीव जातीकवलेनाऽमुना वैभवेन चेत् । अन्धम्भविष्णुर्भरतः, सुखं न स्थातुमीश्वरः ॥ ५०६॥ ६ उदरपूरकः । २ लघुभ्रातृणाम् । ३ बन्धुनिष्कासनात् । ४ राक्षसम् । ५ निर्दयम् । ६ कृपणस्य । SEARCREAKERGARLSCREE* Jain Education internatio For Private & Personal use only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेतद् भरतक्षेत्रवैभवं भरतेशितुः । हृतमेव मया वित्थोपेक्षितं ह्यनपेक्षया ॥ ५०७ ॥ मह्यमर्पयितुं कोशं, हस्त्यश्वादि यशोऽपि च । प्रतिभूभिरिवाऽऽनीतोऽमात्यैः स्वसदृशैरसौ ॥ ५०८ ॥ युद्धान्निषेधतैनं तद्, यद्यस्य हितकाभिणः । अयुध्यमानेनाऽन्येनाऽप्यहं युध्ये न जातुचित् ॥५०९॥ ____ ऊर्जितं तद् वचस्तस्य, पर्जन्यस्येव गर्जितम् । आकर्ण्य विस्मयोत्कर्णास्ते भूयोऽप्येवमभ्यधुः॥५१०॥ इतो जल्पन् युधे हेतुं, चक्री चक्राप्रवेशनम् । न शक्योऽनुत्तरीकृत्य, निरोढुं गुरुणाऽपि हि ॥ ५११॥ युध्यमानेन युध्येऽहमिति जल्पन भवानपि । युद्धान्निरोद्धं नियतं, शक्रेणापि न शक्यते ॥५१२॥ द्वयोरप्यृषभस्वामिदृढसंसर्गशालिनोः । द्वयोरपि महाबुद्ध्योर्द्वयोरपि विवेकिनोः ॥ ५१३ ॥ द्वयोरपि जगत्रात्रोद्वयोरपि दयावतोः । भाग्यक्षयेण जगतां, युद्धोत्पात उपस्थितः ॥ ५१४ ॥ [युग्मम्] तथापि प्रार्थ्यसे वीर!, प्रार्थनाकल्पपादप । उत्तमेनैव युद्धेन, युध्येथा माऽधमेन तु ॥५१५॥ अधमेन हि युद्धेन, युवयोरुग्रतेजसोः । भूयिष्ठलोकप्रलयादकाले प्रलयो भवेत् ॥ ५१६ ॥ दृष्टियुद्धादिभियुद्धेर्योद्धव्यं साधु तेषु हि । आत्मनो मानसिद्धिः स्याल्लोकानां प्रलयो न च ॥ ५१७ ॥ आमेति तस्मिन् वदति, नातिदूरे दिवौकसः । तस्थुष्टुं तयोयुद्धं, नगर्या नागरा इव ॥ ५१८ ॥ अथाऽऽज्ञया बाहुबलेः, प्रतीहारो गजस्थितः । गर्जन् गज इवोर्जस्त्रि, जगादेति स्वसैनिकान् ॥५१९।। भो भोः ! समस्तराजन्याश्चिरं चिन्तयतां हि वः । उपस्थितं स्वामिकार्यमभीष्टं पुत्रलाभवत् ॥ ५२०॥ परं वः खल्पपुण्यत्वाद् , देवैर्देवोऽयमर्थितः। भरतेन सह द्वन्द्वयुद्धहेतोर्महाभुजः॥ ५२१॥ १ जानीथ । २ प्रतिनिधिभिः। ३ मेघस्य । करक त्रिषाप्टे. २४ For Private & Personal use only . Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१३९॥ प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रि चरितम् । खतोऽपि द्वन्द्वयुद्धेच्छुः, किं पुनः प्रार्थितः सुरैः । स्वामी खाराजतुल्यौजाः, समराद्वो निषेधति ॥५२२॥ हस्तिमल्ल इबैकाङ्गमल्लो युष्माभिरेष तत् । युध्यमानः प्रेक्षणीयस्तटस्थैरमरैरिव ॥ ५२३ ॥ वालयित्वा स्थानश्वान् , कुञ्जरांश्च महौजसः । अपामत तद् यूयं, वक्रीभूता इव ग्रहाः ॥ ५२४ ॥ खड्गान् क्षिपत कोशेषु, करण्डेष्विव पन्नगान् । कुन्तान् केतूनिवोदस्तान् , मोचकान्तर्विमुञ्चत ॥ ५२५॥ मुद्रान् न्यञ्चतोदस्तान् , हस्तानिव महाद्विपाः । उत्तारयत कोदण्डान्मौवीं भालादिव ध्रुवम् ॥५२६॥ भूयोऽपि बाणधौ बाणं, निधत्ताऽर्थं निधानवत् । शल्यानि संवृणुत च, विद्युतो वारिदा इव ॥५२७॥ प्रतीहारगिरा वज्रनिर्घोषेणेव घूर्णिताः । सैनिका बाहुबलिनश्चेतस्येवं व्यचिन्तयन् ॥ ५२८ ॥ अहो ! रणाद् भाविनोऽपि, भीतैर्वाणिजकैरिव । भरतेश्वरसैन्येभ्यो, लब्धोत्कोचैरिवोच्चकैः ॥ ५२९ ॥ प्राग्जन्मवैरिभिरिवाऽकस्मादस्माकमागतैः । हा प्रभुं प्रार्थ्य विबुधै, रुद्धो युद्धोत्सवोऽधुना ॥५३०॥ [युग्मम् ] अग्रतो भाजनमित्र, भोजनाय निषेदुपाम् । पर्यङ्कतः सूनुरिव, लालनायोपसर्पताम् ॥ ५३१॥ आकर्षणीरजरिव, कूपान्निर्गच्छतामहो ! अहारि देवेनाऽस्माकमागतोऽपि रणोत्सवः ॥५३२॥ [युग्मम्] अन्यो भरततुल्यः कः, प्रतिपक्षो भविष्यति । स्वामिनो येन सङ्ग्रामे, भविष्यामोऽनृणा वयम् ॥५३३॥ मुधोपादायि दायादेखि स्तेयंकरखि । सौवासिनेयैरिव चाऽमाभिर्वाहुबलेर्धनम् ॥ ५३४ ॥ CRESEARNAGARIKAARC भरत-बाहुबलियुद्धम्। ॥१३९॥ इन्द्रतुल्यपराक्रमः। २ युद्धात् । ३ हस्तिश्रेष्ठः। ४ वक्रगतियुक्ताः। ५ कोशान्तः। ललाटात्। ८ 'लांच' इति लोके । ९ रणरहिताः। १० चौरैः। ११ चिरपितृगृहवासिनीस्त्रीपुत्रैः । नीचैः कुरुत ।। For Private & Personal use only . Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *नूनं गतं मुधा बाहुदण्डवीर्यमिदं च नः । अरण्यभववृक्षाणामिव प्रसवसौरभम् ॥ ५३५॥ क्लीबैः स्त्रीणामिवाऽस्त्राणामसाभिः सङ्ग्रहो मुधा । व्यधायि शस्त्राभ्यासश्च, शास्त्राभ्यासः शुकैरिव ॥५३६॥ इदं चाऽगृह्यताऽस्माभिः, पादातमपि निष्फलम् । कामशास्त्रपरिज्ञानमिव तापसदारकैः ॥ ५३७ ॥ . मुधैव कारिता माराभ्यासमेते मतङ्गजाः । वाजिनश्च श्रमजयमस्माभिर्हतबुद्धिभिः॥ ५३८॥ मुधा गर्जितमस्माभिर्वारिदैरिव शारदैः। महिपीभिरिवाऽमाभिर्विकटं च कटाक्षितम् ॥ ५३९ ॥ मुधा सन्नद्धमस्माभिः, सामग्रीदर्शकैरिख । तच्चाऽहङ्कारगर्भत्वमपूर्णे युद्धदोहदे ॥ ५४०॥ एवं विचिन्तयन्तस्ते, विषादविषगर्भिताः । समूत्काराः सफूत्कारा, इव सपा अपासृपन् ॥ ५४१॥ तत्कालं भरतेशोऽपि, क्षत्रव्रतमहाधनः । वामपासारयत् सेना, वेलामिव महार्णवः॥ ५४२ ॥ चक्रिणा सैनिकाः स्खेऽपसार्यमाणा महौजसा । एवमालोचयामासुर्वृन्दीभूय पदे पदे ॥ ५४३ ॥ खामिना कस्य मत्रेण, मत्रिव्याजेन वैरिणः। द्विबाहुमात्रकेणेव, द्वन्द्वयुद्धममन्यत ? ॥ ५४४ ॥ खामिना यो हि सङ्घामो, यद् भोजनमुदविता । पर्याप्तमेव तदहो, किं कृत्यं नस्ततः परम् ॥५४५॥ षदखण्डभरतक्षेत्रभृभुजां रणकर्मसु । कोपि नः किमपक्रान्तो, यन्निषिध्यामहे रणात् ॥५४६ ॥ युक्तं भृत्येषु नष्टेषु, विजितेषु हतेषु वा । युद्धं भर्तुर्नाऽन्यथा तु, विचित्रा हि रणे गतिः ॥ ५४७ ॥ 'स्वामिनः संशयं युद्धे, जातु शङ्कामहे न हि । विनैकं बाहुबलिनं, प्रतिपक्षो भवेद् यदि ॥ ५४८॥ उदग्रबाहुना बाहुबलिना सममाहवे । विजये संशयः पाकशासनस्यापि केऽपरे ? ॥ ५४९ ॥ * मन्ये ग आ, सं२॥ १ युद्धमनोरथे। २ तक्रेण । + अयं श्लोकः खं पुस्तके नोपलभ्यते ॥ ३ शत्रुः। ४ इन्द्रस्य । Jain Education international For Private & Personal use only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते पञ्चमः ॥१४॥ सा सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । महाकल्लोलिनीपूरस्येव दुस्सहरंहसः। तस्य प्रथमतोऽप्याजौ, स्थातुं भर्तन युज्यते ॥ ५५०॥ अस्माभिर्योधिते पूर्व, भर्तुस्तत्रोचितो रणः । पूर्वमश्वदमैर्दान्ते, वाजिनीवाधिरोहणम् ॥ ५५१ ॥ अन्योऽन्यं सैनिकानेवं, गृणतः प्रेक्ष्य चक्रभृत् । भावज्ञ इङ्गिताकारः, समाहूयेत्यभाषत ॥ ५५२ ॥ तमोनिर्दलने भानोर्यद्वदग्रेसराः कराः । द्विपदायोधने तद्वद् , यूयमग्रेसरा मम ॥ ५५३ ॥ युष्मासु सत्सु योधिषु, न मां कोऽप्याययौ रिपुः । परिखायामगाधायामिव वप्रतटं द्विपः ॥ ५५४॥ अदृष्टपूर्विणो युद्धं, ततो मे यूयमीदृशम् । आशङ्कध्वे मुधा भक्तिीपदेऽपीक्षते भयम् ॥ ५५५ ॥ सर्वे कुरुवं सम्भूय, दोर्बलालोकनं मम । शङ्का नश्यति वो येनाऽगदेनेव गदः क्षणात् ॥ ५५६ ॥ इत्युदित्वा क्षणेनाऽपि, चक्री खनकपूरुषैः । अतिविस्तीर्णगम्भीरं, गर्तमेकमखानयत् ॥ ५५७ ॥ तीरे दक्षिणपाथोधेरिव सह्यमहीधरः । अर्वंटस्य तटे तस्योपाविशद भरतेश्वरः॥ ५५८ ॥ वामे स दोष्णेि निविडाः, शृङ्खलाः प्रतिशृङ्खलाः । अबन्धयल्लम्बमाना, वटवृक्षे जटा इव ॥ ५५९ ॥ ताभिः सहस्रसङ्ख्याभिः, सहस्रांशुरिवाऽशुभिः । महाद्रुरिव वल्लीभिश्चकासामास चक्रभृत् ।। ५६० ॥ सोऽथ राज्ञ उवाचैवं, यूयं सबलवाहनाः । महाशकटवद् गावो, मामाकर्षत निर्भयम् ॥ ५६१॥ सर्वे सर्वोजसा कृष्ट्वा, मां गर्ने पातयन्त्विह । मद्दोबलपरीक्षार्थ, स्वाम्यवज्ञाछलं नवः॥ ५६२॥ दुःस्वमोऽप्ययममाभिदृष्टस्तत् प्रतिहन्यताम् । स हि मोधीभवेदेव, चरितार्थीकृतः खयम् ॥ ५६३ ॥ भूयो भूयश्चक्रिणेवमादिष्टास्ते ससैनिकाः । कथञ्चित् प्रत्यपद्यन्त, खाम्याज्ञा हि बलीयसी ॥५६४॥ १ दुस्सहबेगस्य । २ युद्धे । ३ एतदाख्यः पर्वतः। ४ गतस्य । ५ भुजे । ६ वृषभाः। भरत-बाहुबलियुद्धम् । | ॥१४॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चकृषुः शृङ्खलाजालं, सैन्याश्चक्रिभुजस्य ते । नेत्रीभूतमहिं मन्थगिरेरिव सुरासुराः॥ ५६५॥ गाढलग्नाः प्रलम्बासु, चक्रिदोःशृङ्खलासु ते । उत्तुङ्गशाखिशाखाग्रेष्विव शाखामृगा वभुः ॥५६६ ॥ इभानिवाऽदि भिन्दानान्, कर्षतः खं च सैनिकान् । कौतुकप्रेक्षणायोपेक्षाञ्चक्रे चक्रभृत् स्वयम् ॥५६७॥ हृद्यङ्गरागं चक्रेऽथ, चक्री तेनैव पाणिना । मालाबद्धघटीमालान्यायात् ते तु सहाऽपतन् ॥ ५६८॥ निरन्तरं लम्बमानैः, सैनिकैश्चक्रिणो भुजः। रराज खजूरतरुशाखा खजूंरकैरिव ॥ ५६९॥ हृष्यन्तः स्वामिनः स्थाना, सैन्यास्तद्वाहुशङ्खलाः । प्राकृतामिव दुःशङ्कामुज्झाञ्चक्रुः क्षणादपि ॥ ५७०॥ चक्रभृत् कुञ्जरारूढस्तदेव समराजिरम् । जग्राह प्राक्तनं भूयोऽप्युराहमिव गायनः ॥ ५७१ ॥ उभयोः सैन्ययोर्मध्ये, विपुलं विपुलातलम् । गङ्गायमुनयोरन्तर्वेदिदेश इवाऽऽबभौ ॥ ५७२॥ जगत्संहाररक्षातो, मुदिता मरुतस्ततः । आयुक्ता इव शनकैस्तत्रोप्महरन् रजः ॥५७३ ॥ गन्धाम्बुवृष्ट्या समवसरणोविमिवाऽभितः । तां मेदिनीमभ्यषिञ्चन्नुचितज्ञा दिवौकसः ॥ ५७४ ॥ मात्रिका मण्डलावन्यामिव तत्र रणावनौ । उन्मेषवन्त्यनिमिषाः, कुसुमानि विचिक्षिपुः ॥ ५७५ ॥ कुञ्जरादवतीर्याऽथ, तावुभौ राजकुञ्जरौ । कुञ्जराविव गर्जन्तौ, प्रविष्टौ समरावनिम् ।। ५७६ ॥ उभावपि महौजस्को, सर्पन्तौ लीलयापि हि । पदे पदेऽरोपयतां, कूर्मेन्द्रं प्राणसंशये ॥ ५७७ ॥ दृष्टियुद्धेन योद्धव्यं, प्रतिज्ञायेति तस्थतुः । सम्मुखावनिमेषाक्षौ, शक्रेशानाविवाऽपरौ ॥ ५७८ ॥ सम्मुखौ मुखमन्योऽन्यस्पेक्षतामरुणेक्षणौ । उभयत्र स्थितार्केन्दुसायाह्नगगनश्रियौ ॥ ५७९ ॥ १ मन्थनरज्जुभूतम् । २ मन्दराचलस्य । ३ कपयः । ४ बलेन । ५ पृथ्वीतलम् । ६ देवाः । ७ विकसितानि । ८ देवाः । For Private & Personal use only , Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१४॥ प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रि|चरितम् । उभौ मिथो निध्यायन्ती, ध्यायन्ताविव योगिनौ । चिरकालं वितस्थाते, तौ निश्चलविलोचनौ ॥५८०॥ दिवाकरकराक्रान्तनीलोत्पलवदीक्षणे । ज्येष्ठस्य ऋषभस्वामिनन्दनस्य न्यमीलताम् ॥ ५८१॥ कीर्तेर्महत्या भरतपट्खण्डजयजन्मनः । वारीवाऽस्रजलव्याजाददातां चक्रिणोऽक्षिणी ॥ ५८२ ॥ __ तदा शिरांसि धुन्वानाः, प्रत्यूषे पादपा इव | विदधुर्बाहुबलिनि, पुष्पवृष्टिं दिवौकसः॥ ५८३॥ विजये बाहुबलिनो, वीरैः सोमप्रभादिभिः । हर्षकोलाहलचक्रे, सूर्यस्येवोदये खगैः॥ ५८४॥ जयतूर्याण्यवाद्यन्त, राज्ञो वाहुबले लैः । तत्कालं कीर्तिनतक्या, नृत्तारम्भ इवोद्यते ॥ ५८५ ॥ अभूवन भरतस्यापि, सैन्या मन्दायितौजसः । मूर्छिता इव संसुप्ता, इव रोगातुरा इव ॥ ५८६ ॥ ते विषादप्रमोदाभ्यामयुज्येतामुमे बले । अन्धकारप्रकाशाभ्यां, मेरुपार्थाविवाधिकम् ॥ ५८७ ॥ विजितं काकतालीयन्यायेनेति स मा बदः । वाग्युद्धेनाऽपि युध्यस्वेत्यवोचचक्रिणं नृपः॥ ५८८॥ फणीव चरणस्पृष्टः, सामर्षश्चक्रवर्त्यपि । जितकासिन् ! भवत्वेवमित्यभाषत भूपतिम् ॥ ५८९ ॥ ईशानोक्षेव निनदं, शक्रेभ इव बृंहितम् । स्तनितं वारिद इवोच्चैः क्ष्वेडा भरतोऽकरोत् ॥ ५९० ॥ रणेक्षकाणां देवानां, विमानान् पातयन्निव । नभस्तो ग्रहनक्षत्रतारकाः संसयन्निव ॥ ५९१॥ कुलाचलानामत्युच्चैः, शृङ्गाणि चलयन्निव । समन्ताजलराशीनां, जलान्युच्छालयन्निव ॥ ५९२ ॥ व्यानशे प्रसरंस्तस्य, श्वेडानादः स रोदसी । महास्रवन्त्याः परितः, पूरवारीव रोधेसी ॥ ५९३ ॥ [विभिर्विशेषकम् ] १ईशानेन्द्रस्य वृषभ इव । २ऐरावत इव । ३ धावाभूमी। ४ महानद्याः। ५ तटे । भरत-बाहुबलियुद्धम्। ॥१४॥ For Private & Personal use only www.iainelibrary.org Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रश्मि नाजीगणन् रेथ्या, गुर्वाज्ञामिव दुर्धियः। सुणीन् नाऽमानयन् नागाः, पिशुना इव सद्विरम् ॥५९४॥ अश्वा नाऽज्ञासिपुर्वल्गां, कटुत्वं श्लेष्मला इव । मैया नाऽगणयन् नासारखं लजां विटी इव ॥ ५९५ ॥ न वेसराः कशाघातं, भृताविष्टा इवाऽविदन् । त्रस्यन्तस्तेन नादेन, न केपि स्थैर्यमादधुः॥ ५९६ ॥ ___ अथाऽऽपतत्पक्षिराजपक्षनिर्घोषबुद्धितः । पातालतोऽपि पातालं, विविक्षुभिरिवोरगैः ॥ ५९७ ॥ अन्तःप्रविष्टमन्थाद्रिमन्थनध्वानशङ्कया । मध्येजलधि यादोभित्रस्यद्भिः सर्वतोऽपि च ॥ ५९८॥ | भूयो जम्भारिनिर्मुक्तदम्भोलिध्वनितभ्रमात् । क्षयं स्वस्याऽऽशङ्कमानैः, कम्पमानैः कुलाचलैः ॥ ५९९।। कल्पान्तपुष्करावर्तमुक्तविद्युद्धनिभ्रमात् । लुठद्भिरवनीपीठे, मध्यलोकनिवासिभिः ॥६००॥ अकाण्डागतदैत्यावस्कन्दकोलाहलभ्रमात् । आकुलैश्वाऽमरकुलैः, श्रूयमाणोऽतिदुःश्रवः ॥६०१॥ लोकनालिस्पर्द्धयेव, वर्धमानोऽधरोत्तरम् । विदधे बाहुबलिना, सिंहनादोऽतिभैरवः॥ ६०२॥ [षडिः कुलकम् ] भूयो व्यधत्त भरतः, सिंहनादं महाबलः । वैमानिकानां वनितास्त्रासयन्तं मृगीरिव ॥ ६०३ ॥ एवं क्रमेण चक्राते, चक्रिभृपौ महाध्वनिम् । जगतो मध्यमस्याऽस्य, क्रीडया भीषकाविव ॥६०४॥ हस्तो मतङ्गजस्येव, शरीरं दृक्श्रुतेरिव । अहीयततमां शब्दः, क्रमेण भरतेशितुः ॥ ६०५॥ सिंहनादो बाहुबलेर्ववृधे त्वधिकाधिकम् । प्रवाहः सरित इव, सज्जनस्येव सौहृदम् ॥ ६०६ ॥ १ प्रग्रहान् । २ रथयोजिताश्वाः । ३ अङ्कुशान् । ४ श्लेष्मरोगिणः । ५ उष्ट्राः। ६ जाराः। ७ गरुडः। ८ इन्द्रः। ९ सर्पस्य । १० अतिशयेन हीनोऽभवत् । Jain Education Internet For Private & Personal use only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः पुरुषचरिते ॥१४२॥ ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । शास्त्रीयवाग्युद्धेऽप्येवं, वादिना प्रतिवाद्यसौ । वीरेण बाहुबलिना, विजिग्ये भरतेश्वरः॥ ६०७ ॥ अथ तो बाहुयुद्धार्थमुभावपि हि बान्धवौ । बवन्धतुः परिकरं, बद्धकक्षद्विपोपमौ ॥ ६०८॥ अथ बाहुबलेगर्जनुढेल इव वारिधिः । स्वर्णदण्डधरः साऽऽह, प्रतीहाराग्रणीरिति ॥ ६०९॥ वज्रकीलानिव शैलानवष्टभ्य विशेषतः । आस्थाय थाम चाऽशेषमपि पृथ्वि! स्थिरीभव ॥ ६१० ॥ परितः पूरयित्वा च, कुम्भयित्वा च मारुतम् । हे नागराज! नगवद् , दृढीभूय धरां धर ॥ ६११ ॥ लुठित्वा वारिधेः पङ्के, विहायाऽग्रेतनं श्रमम् । पुनर्नवीभूय महाक्रोड ! क्रोडीकुरु क्षितिम् ॥ ६१२॥ वज्रमानिन् ! निजाङ्गानि, सङ्कोच्य परितोऽपि हि । स्वपृष्ठं कर्मठप्रष्ठ!, द्रढयित्वा महीं वह ॥ ६१३ ॥ प्रमादतो मदतो वा, निद्रां मा धत्त पूर्ववत् । सर्वात्मना सावधाना, वसुधां धत्त दिग्गजाः!॥ ६१४ ॥ वज्रसारो बाहुबलिर्वज्रसारेण चक्रिणा । यदसौ मल्लयुद्धेन, योद्धमुत्तिष्ठतेऽधुना ।। ६१५॥ __ महामल्लौ तडिद्दण्डताडिताद्रिरवोपमम् । विदधानौ करास्फोटमाह्वासातां मिथोऽथ तौ ॥ ६१६॥ तौ सलीलपदन्यासं, चेलतुश्चलकुण्डलौ । सार्केन्दू धातकीखण्डात्, क्षुद्रमेरू इवाऽऽगतौ ॥ ६१७ ॥ तावन्योऽन्यं कराभ्यां चाऽऽस्फालयामासतुः करौ। नदन्तौ बलवद्दन्तौ, दन्ताभ्यां दन्तिनाविव ।। ६१८॥ अयुज्येतां क्षणेनापि, व्ययुज्येतां क्षणेन च । तावासन्नमहावृक्षाविवोद्दण्डानिलेरितौ ॥ ६१९ ॥ उत्पेततः क्षणेनापि, क्षणेनापि निपेततुः । वीरौ तौ दुर्दिनोन्मत्तमहाम्भोधितरङ्गवत् ॥ ६२०॥ अथ स्नेहादिवाऽमर्षाद् , धावित्वा तावुभावपि । अङ्गेनाऽङ्गं पीडयन्ती, सखजाते महाभुजौ ॥ ६२१ ॥ १ बलम् । २ स्तम्भयित्वा । ३ हे महावराह । ४ मध्येकुरु। ५ हे कूर्मश्रेष्ठ!। ६ आलिङ्गितवन्तौ । भरत-बाहुबलियुद्धम। |॥१४२॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणादधः क्षणादूर्ध्व, कदाचित् कश्चिदप्यभूत् । नियुद्धविज्ञानवशात् , प्राणी कर्मवशादिव ॥ ६२२ ॥ उपर्यसावधोऽसावित्यज्ञायेतां जनैन तौ । जलान्तर्मत्स्यवद् वेगान्मुहुर्विपरिवर्तिनौ ॥ ६२३ ॥ चक्रतुर्बन्धविज्ञानं, महाही इव तौ मिथः । निरासतुश्च सद्योऽपि, चपलौ प्लवंगाविव ॥ ६२४॥ मुहुर्महीलुठनतस्तावुभौ धूलिधूसरौ । बभासाते प्राप्तधूलीमदौ मदकलाविव ॥ ६२५ ॥ असहिष्णुस्तयोर्भार, शैलयोरिव सर्पतोः । पादनिर्यातनिर्घोषादारैराटेव मेदिनी ॥ ६२६ ॥ अथ बाहुबलिः क्रुद्धः, करेणैकेन चक्रिणम् । शर्रभः कुञ्जरमिवोदग्रहीदुग्रविक्रमः ॥ ६२७ ॥ व्योमन्युल्लालयामास, स तं रूपंमिव द्विपः । अहो ! निरवधिः सर्गो, बलिनो बलिनामपि ॥ ६२८॥ चापादिपुरिवोन्मुक्तः, पाषाण इव यत्रतः । तारापथपथे दूरं, जगाम भरतेश्वरः ॥ ६२९ ॥ भरतेशादापततः, शक्रमुक्तात् पैवेरिख । पलायाञ्चक्रिरे सर्वे, खेचराः समरेक्षिणः॥ ६३० ॥ हाहारवो महान् जजे, सेनयोरुभयोरपि । कस दुःखाकरो न स्यान्महतां ह्यापदागमः ॥ ६३१॥ धिग मे बलमिदं बाह्वोर्धिग् धिग् रामसिकं च माम् । एतत् कर्मोपेक्षकांच, धिग् राज्यद्वयमत्रिणः॥६३२॥ किंवा विगहितैरेभिर्यावदद्यापि मेग्रजः । पतित्वा मेदिनीपृष्ठे, कणशो न विशीर्यते ॥ ६३३॥ तावत् पतन्तं गगनात् , प्रतीच्छामीति चिन्तयन् । तल्पकल्पौ भुजौ तस्याऽधो दधौ बाहुबल्यपि ॥६३४॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ]] ऊर्ध्वबाहुबतीवो वाहुर्बाहुबलिः क्षणम् । तस्थौ दिनकरालोकव्रतीव च तदोन्मुखः ॥ ६३५ ॥ १ वानरौ । २ हस्तिनौ । ३ आचुकोश । ४ अष्टापदः । ५ पशुम् । ६ गगनमागें । ७ बज्रात्। ८ साहसिकम् । ९ शय्यातुल्यौ । For Private & Personal use only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१४३॥ चरितम्। पादाग्रप्राणतस्तिष्ठन्नुत्पित्सुरिव स क्षणात् । निपतन्तं प्रतीयेषाऽग्रजं गेन्दुकलीलया ॥ ६३६ ॥ 13 प्रथमं पर्व भरतोत्क्षेपणोद्भूतं, विषादं द्रागबाधत । चम्बोस्तद्रक्षणाद्धर्ष, उत्सर्गमपवादवत् ॥ ६३७ ॥ पश्चमः लवर्षभेर्विवेकेन, भ्रातरक्षणजन्मना । विद्या शीलगुणेनेव, पौरुषं तुष्टुवे जनैः ॥ ६३८॥ सर्गः उपरिष्टाद् बाहुबले, पुष्पवृष्टिं व्यधुः सुराः । तादृग्वीरव्रतजुषस्तस्येदमथवा कियत् ॥ ६३९ ।। ऋषभजिनतदा वैलक्ष्यकोपाभ्यां, युगपद् भरतेश्वरः। धूमध्वज इव धूमज्वालाभ्यां समयुज्यत ॥ ६४०॥ भरतचक्रि___ अथ बाहुबलिलजानमद्वदनपङ्कजः । वैलक्ष्यं ज्यायसो हर्तुमित्युवाच सगद्गदम् ॥ ६४१॥ मा विषीद जगन्नाथ :, महावीर्य! महाभुज । दैवात् कदाचित् केनापि, विजय्यपि विजीयते ॥६४२॥ एतावता नाऽसि जितो, विजयी चाऽस्मि नेयता । घुणाक्षरन्यायभवं, मन्येऽद्याप्यात्मनो जयम् ॥६४३॥ इयत्यपि त्वमेवैको, वीरोऽसि भुवनेश्वर! । अमरैर्मथितोऽप्यब्धिरब्धिरेव न दीपिका ॥ ६४४ ॥ | बलियुद्धम् । फालच्युत इव द्वीपी, पखण्डभरतेश्वर !। किं तिष्ठसि ? समुत्तिष्ठोत्तिष्ठस्व रणकर्मणे ॥ ६४५॥ बभाषे भरतोऽप्येवं, निजदोषस्य मार्जनम् । करिष्यत्येव दोर्दण्डो, मुष्टिं प्रगुणयन्नयम् ॥ ६४६ ॥ ततो मुष्टिं समुद्यम्य, फणामिव फणीश्वरः । प्रकोपताम्रनयनोऽपेत्याऽधावत चक्रभृत् ॥ ६४७॥ भरतो मुष्टिना तेनाऽऽजघान नृपतेरुरः । कपाटं गोपुरस्येव, दशनेन मतङ्गजः ॥६४८॥ प्रदानवदसत्पात्रे, बधिरे कर्णजापवत् । सत्कारवच्च पिशुने, जलवृष्टिवषरे ॥ ६४९॥ ॥१४३॥ उत्पतितुमिच्छुः । २ जग्राह । ३ कन्दुकलीलया। ४ बाहुबलिनः । ५ अग्निः । ६ ज्येष्ठस्य । ७ वापिका । ८ अपमृत्य । ९ मूर्ख। १० क्षारभूमौ । भरत-बाहु Jan Education International For Private & Personal use only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गीतवदरण्यान्यां, हिमान्यां वह्निपातवत् । मुधाऽभूच्चक्रिणो मुष्टिप्रहारः पार्थिवोरसि ॥६५०॥ [युग्मम् ]] ___ असभ्यमपि किं क्रुद्ध, इत्याशङ्येक्षितोऽमरैः । उचिक्षेपोच्चकैमुष्टिं, सुनन्दानन्दनोऽप्यथ ॥६५१॥ मुष्टिनाऽताडयत् तेन, स चक्रिणमुरःस्थले । कुम्भस्थले महामात्रोऽयोगोलेनेव कुम्भिनम् ॥ ६५२ ॥ घातेन तेन दम्भोलिनिपातेनेव पर्वतः । पपात मू विधुरो, भूतले भरतेश्वरः ॥ ६५३॥ चकम्पे पतता तेन, भूः पत्येव कुलाङ्गना । पर्वता अप्यवेपन्त, बान्धवेनेव बान्धवाः ॥ ६५४ ॥ क्षत्रियाणां कुहेवाकः, कोऽयं वीरव्रताग्रहे ? । विग्रहो निग्रहान्तोऽयं, यत्र भ्रातर्यपीदृशः ॥ ६५५ ॥ न जीवेदग्रजश्चेत् तज्जीवितेन ममाऽप्यलम् । एवं मनसि कुर्वाणः, सिञ्चन् नयनवारिभिः॥६५६॥ स्वमुत्तरीयं व्यजनीकृत्य बाहुबलिस्ततः । भरतं वीजयामास, यो बन्धुर्बन्धुरेव सः॥ ६५७ ॥ [विभिर्विशेषकम् ] चक्री सुप्त इवोत्तस्थौ, लब्धसंज्ञः क्षणादथ । ददर्श च पुरो भृत्यमिव बाहुबलिं स्थितम् ॥ ६५८ ॥ अधोमुखौ वितस्थाते, बान्धवौ तावुभावपि । पराजयो जयश्चाऽपि, लज्जायै महतामहो! ॥६५९ ॥ किश्चित् पश्चात्पदन्यासमपचक्राम चक्रभृत् । पुंसामोजायमानानां, युयुत्सालक्षणं ह्यदः॥६६॥ युयुत्सुः पुनरप्यायः, शङ्के युद्धेन केनचित् । नोज्झन्ति मानिनो मानं, यावजीवं मनागपि ॥ ६६१॥ अवर्णवादो बलवान् , भावी बाहुबलेः खलु । भ्रातृहत्याभवो मन्ये, नैवाऽन्तेऽपि विरस्वति ॥ ६६२॥ इति सञ्चिन्तयामास, यावद् बाहुबलिः क्षणम् । तावच्चक्रधरो दण्डं, दण्डपाणिरिवाऽऽददे ॥ ६६३ ॥ १ महति अरण्ये। २ महति हिमे। ३ अङ्कुशेन । ४ कुस्वभावः। ५ तालवृन्तीकृत्य । ६ यमराजः । Jain Education Interne Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१४४॥ तेनोदस्तेन दण्डेन, चकासामास चक्रभृत् । चूलयेवाऽचलश्छायापथेनेव मरुत्पथः ॥ ६६४ ॥ अथ तं दण्डमुत्पातकेतुभ्रमविधायिनम् । नभसि भ्रमयामास, क्षणं भरतभूपतिः ॥ ६६५॥ पञ्चाननयुवा पुच्छदण्डेनेव महीतलम् । शिरस्यताडयच्चक्री, तेन दण्डेन भूपतिम् ॥ ६६६ ॥ समास्फलन्त्या सह्याद्री, वेलयेव महोदधेः । तन्मूर्ध्नि चक्रिणो दण्डघातेनाऽभून्महान् ध्वनिः ॥६६७ ॥ दण्डेनाऽचूर्णयचक्री, किरीटं मूर्ध्नि भूपतेः । अयोधनेनाध्य इवाधिकरण्यामवस्थितम् ॥ ६६८ ॥ किरीटरत्नखण्डानि, निपेतुर्नुपमूर्धतः । वातान्दोलितवृक्षाग्रादिव पुष्पाणि भूतले ॥ ६६९ ॥ भूपतिस्तेन घातेन, क्षणं मुकुलितेक्षणः । तन्निर्घोषेण घोरेण, लोकश्च समजायत ॥ ६७० ॥ उन्मील्य नयने हस्तेनाऽऽददे बाहुबल्यपि । उद्दण्डमायसं दण्डं, साङ्ग्रामिक इव द्विपः ॥ ६७१ ॥ पाटयिष्यत्यसौ किं मां ?, किं मामुत्पाटयिष्यति ? । इत्याशशङ्के स द्यावापृथिवीभ्यां यथाक्रमम् ॥६७२॥ रेजे बाहुबलेर्मुष्टौ, लोहदण्डः स आयतः । पर्वतस्याऽग्रभागस्थवामलूर इवोरगः ॥ ६७३ ॥ दूरतोऽप्यन्तकाह्वानसंज्ञावस्त्रमिवाऽथ तम् । भृशमुद्धमयामास, दण्डं तक्षशिलापतिः॥ ६७४ ॥ निर्दयं हृदये तेन, चक्रिणं बहलीपतिः । ताडयामास लकुंटेनेव बीजस्य मूटकम् ॥ ६७५ ॥ तेन घातेन घटवद्, द्रढीयानपि खण्डशः। विशीर्यते स्म सहसा, सन्नाहश्चक्रवर्तिनः ॥ ६७६ ॥ निरभ्र इव मार्तण्डो, निधूम इव पावकः । शीर्णवर्मा चक्रवर्ती, दिद्युतेऽमर्षतोऽधिकम् ॥ ६७७ ॥ क्षणार्धं विह्वलीभूतो, नाऽचेतयत किञ्चन । भरतः सप्तममदावस्थाप्राप्त इव द्विपः ॥ ६७८ ॥ १ सिंहयुवा। २ लोहशिलायाम् । ३ दण्डेन । * बीजान्नमूटकम् सं २, आ ॥ ४ निर्मेघः । भरत-बाहु| बलियुद्धम्। ॥१४४॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमित्रमिवाऽऽलम्ब्याविलम्बाद् बाहुपौरुषम् । चक्रभृद् दण्डमुद्यम्य, भूयो राक्षेऽभ्यधावत ॥६७९॥ पीडयन्नधरं दन्तै कुटीभङ्गभीषणः । भरतोऽभ्रमयद् दण्डमौर्वावर्तविडम्बिनम् ॥ ६८० ॥ मूर्ध्नि बाहुबलिं तेन, चक्रपाणिरताडयत् । तडिद्दण्डेन कल्पान्तजीमूत इव पर्वतम् ॥ ६८१ ॥ ममजाऽऽजानु घातेन, तेन बाहुबलिर्भुवि । लोहाधिकरणीमध्ये, वज्रोपल इवाऽऽहतः ॥ ६८२॥ आस्फल्य बाहुबलिनि, वज्रसारे व्यशर्यत । खेन तेनाऽऽगसा भीत, इव दण्डः स भारतः ॥ ६८३ ॥ आजानु मनो मेदिन्यामवगाढ इवाऽचलः । निष्क्रान्तशेषः शेषाहिरिव बाहुबलिर्बभौ ॥ ६८४ ॥ अधूनयत् स मूर्धानं, घातवेदनया तया । अन्तश्चमत्कृत इव, ज्यायसो भ्रातुरोजसा ॥ ६८५ ॥ आत्माराम इव योगी, न किञ्चिदशृणोत् क्षणम् । तदा बाहुबलिस्तेन, घातेन प्राप्तवेदनः ॥ ६८६ ॥ निर्ययौ मेदिनीमध्यात्, सुनन्दानन्दनस्ततः । आश्यानकूलिनीकूलपङ्कमध्यादिव द्विपः ॥६८७॥ लाक्षारसारुणैदृष्टिपातैरातर्जयन्भिव । स्खौ दोर्दण्डौ च दण्डं चाऽपश्यत् सोऽमर्षणाग्रणीः ॥ ६८८॥ दुष्प्रेक्षं तक्षकमिवाऽभीक्ष्णं तक्षशिलापतिः। ततस्तं भ्रमयामास, दण्डमेकेन पाणिना ॥ ६८९ ॥ सुनन्दासूनुना दण्डो, भ्रम्यमाणोऽतिवेगतः । राधावेधपरिभ्राम्यच्चक्रलक्ष्मीमुवाह सः॥ ६९० ॥ कल्पान्तसागरावर्तगर्तभ्रान्तादिमत्स्यवत् । स भ्राम्यन् प्रेक्ष्यमाणोऽपि, भ्रमि व्यधित चक्षुषाम् ॥ ६९१॥ उत्पतंस्तपनं कांस्यपात्रवत् स्फोटयिष्यति । भारुण्डाण्डवक्षेशमण्डलं चूर्णयिष्यति ॥ ६९२ ॥ १ वडवानलः । २ कल्पान्तमेघः । ३ वज्रमणिः। ४ शेषनागः। ५ शुष्कनदीतटपङ्कमध्यात् । ६ नागविशेषम् । सूर्यम् । ८ भारण्डपक्षिणः अण्डवत् । ९ चन्द्रमण्डलम् । त्रिषष्टि. २५ For Private & Personal use only , Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व पञ्चमः | सर्ग: ऋषभजिनभरतचक्रि| चरितम् । त्रिषष्टि- तारागणानामलकीफलवद् भ्रंशयिष्यति । वैमानिकविमानानि, नीडवत् पातयिष्यति ॥ ६९३ ॥ शलाका- पैतन् पर्वतशृङ्गाणि, नाकुवद् दलयिष्यति । महातरुनिकुञानि, निष्पेक्ष्यति तृणाघवत ॥ ६९४ ॥ पुरुषचरिते अपक्कमृत्तिकागोलवच्च भेत्स्यति मेदिनीम् । हस्तादमुष्य दैवाच्चेद् , दण्ड एष पतिष्यति ॥ ६९५॥ इत्याशङ्काकुलैः सैन्यैः, प्रेक्ष्यमाणोऽमरैरपि । भूपतिश्चक्रिणं तेन, दण्डेन शिरसि न्यहन् ॥ ६९६ ॥ ॥१४५॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] तेन दण्डाभिघातेन, चक्रवर्ती महीयसा । आकण्ठं प्रविवेशोया, मुद्गराहतकीलवत् ॥ ६९७ ॥ यथाऽमत्स्वामिनो दत्तं, विवरं देहि नस्तथा । इतीव पेतुर्मेदिन्यां, विषण्णाश्चक्रिसेवकाः ॥ ६९८॥ राहुग्रस्त इवाऽऽदित्ये, भूमग्ने चक्रवर्तिनि । तुर्मुलोऽभूद् भुवि महान् , नृणां दिवि दिवौकसाम् ॥६९९॥ निमीलिताक्षः श्यामास्वः, षदखण्डभरतेश्वरः। लजयेव महीमध्ये, क्षणमेकमवास्थित ॥ ७००॥ अथैकस्य क्षणस्याऽन्ते, तेजसा सोऽतिभासुरः । निर्ययाववनीमध्यान्निशान्त इव भास्करः ॥७०१॥ - सोऽथैवं चिन्तयामास, युद्धेषु निखिलेष्वपि । जितोऽहममुना द्यूतेष्विवाऽन्धद्यूतकारकः॥७०२॥ किं स्यादस्योपयोगाय, साधितं भरतं मया ? | गोदोहकस्येव गवा, जग्धं दुर्वातणादिकम् ॥ ७०३ ॥ एकस्मिन् भरतक्षेत्रे, युगपच्चक्रवर्तिनौ । उभावसी कोश इव, न च दृष्टौ न वा श्रुतौ ॥ ७०४॥ इन्द्रो विजीयते देवैश्चक्रवर्ती च पार्थिवैः । अनाकर्णितपूर्व नश्चेदं खरविषाणवत् ॥ ७०५॥ एतदाख्यवृक्षफलवत् । २ पक्षिगृहवत्। * अयं श्लोकः खं पुस्तके पतितः। ३ वल्मीकवत् । ४ कोलाहलः । ४५ सत्र्यन्ते। ६ भुक्तम् । भरत-बाहुबलियुद्धम्। ॥१४५॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुना विजितश्चक्रवर्ती किं न भवाम्यहम् ? । मयाऽप्यविजितो विश्वाजय्यस्तच्चक्रवर्त्यसौ ? ॥७०६॥ एवं चिन्तयतस्तस्य, चिन्तामणिविडम्बकैः । यक्षराजैः समानीय, चक्रमारोपितं करे ॥ ७०७ ॥ तत्प्रत्ययाच्चक्रिमानी, चक्रं भ्रमयति स्म सः । वात्यावर्त इवाऽम्भोजरजोमण्डलमम्बरे ॥ ७०८॥ कालानल इवाऽकालेऽप्यौर्वानल इवाऽपरः । वज्रानल इवाऽकस्मादुल्कापुञ्ज इवोच्चकैः ॥ ७०९ ॥ रविविम्बमिव भ्रस्यद् , विद्युद्गोल इव भ्रमन् । ज्वालाजालकरालं तच्चक्रं व्योमन्यलक्ष्यत ॥७१०॥[युग्मम्] भ्रम्यमाणं प्रहाराय, तच्चक्रं चक्रवर्तिना । निध्याय दध्यौ मनसि, मनस्वी बहलीपतिः॥७११॥ धिक् तातपुत्रमानित्वमस्य क्षत्रव्रतं च धिक् । मयि दण्डायुधे चक्रादानं यद् भरतेशितुः॥ ७१२॥ समक्षं घुसदामस्योत्तमयुद्धप्रतिश्रवम् । धिगहो! बालकस्येव, संव्यानादानमीदृशम् ॥ ७१३ ॥ तेजोलेश्यां तपस्खीव, रुष्टश्चक्रं प्रदर्शयन् । यथेषोऽभापयद् विश्वं, मां विभाययिषुस्तथा ॥ ७१४॥ निजदोर्दण्डदण्डानां, सारं विज्ञातवान् यथा । असौ तथा रथाङ्गस्याऽप्यस्य जानातु विक्रमम् ॥७१५॥ एवं चिन्तयतो याहुबलेर्दोर्बलशालिनः । प्रेर्य सौंजसा चक्रं, मुमोच भरतेश्वरः ॥७१६॥ दण्डेन दलयाम्याशु, किमिदं जीर्णभाण्डवत । किंवा कन्दुकवत् पश्चात, क्षिपाम्याहत्य हेलया ७१७॥ शकुलावत् किमथवा, लीलयोल्लालयामि खे१। यदि वा मेदिनीमध्ये, न्यस्यामि शिशुनालवत् ॥७१८॥ गृह्णामि पाणिना किं वोल्ललच्चटकपोतवत् । । अथाऽपहस्तयाम्याराद्, वधानर्हापराधिवत् ? ।। ७१९ ॥ अथाऽधिष्ठायकानस्य, सहस्रं यक्षकानमृन् । दलयाम्याशु दण्डेन, घरदेन कणानिव ? ॥ ७२०॥ १ वडवाग्निः। २ दृष्ट्वा । ३ चक्रस्य । ४ उत्पलपत्रिकावत् । Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्ग ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१४६॥ विधेयमथवा सर्वमिदं पश्चादमुष्य हि । जानामि प्रथमं तावदलकीणतावधिम् ॥ ७२१ ॥ एवं विमृशतस्तक्षशिलाभतुरुपेत्य तत् । चक्रे प्रदक्षिणां चक्रमन्तेवासी गुरोरिव ॥ ७२२॥ [षद्धिः कुलकम् ] न चक्रं चक्रिणः शक्तं, सामान्येऽपि खगोत्रजे । विशेषतस्तु चरमशरीरे नरि तादृशे ॥ ७२३ ॥ चक्रं चक्रभृतः पाणिं, पुनरप्यापपात तत् । वासयष्टिं खग इव, तुरङ्ग इव मन्दुराँम् ॥ ७२४ ॥ विषं विषधरस्येवाऽमोघं मारणकर्मणि । इदमेवाऽस्खसर्वस्वमस्य नाऽन्यदतः परम् ॥ ७२५॥ __ मयि दण्डायुधे चक्रमोक्षादन्यायकारिणम् । तदेनमेष मृद्रामि, सचक्रमपि मुष्टिना ॥७२६॥ अमोच्चिन्तयित्वैवं, सुनन्दानन्दनो दृढाम् । मुष्टिमुद्यम्य यमवद्, भीषणः समधावत ॥ ७२७ ॥ करीवोन्मुद्गरकरः, कृतमुष्टिकरो द्रुतम् । जगाम भरताधीशान्तिकं तक्षशिलापतिः॥७२८ ॥ मर्यादोयामिवोदन्वांस्तत्र तस्थौ स्यादपि । एवं च स महासत्त्वश्चिन्तयामास चेतसि ॥ ७२९ ॥ __ अहो ! राज्यस्य लुब्धेन, लुब्धकादपि पापिना । अमुनेव समारब्धो, धिर धिम् भ्रातृवधो मया ॥७३०॥ यदादावपि हन्यन्ते, भ्रातृभ्रातृव्यकादयः । शाकिनीमत्रवत् तस्य, राज्यस्याऽर्थे यतेत कः ? ॥ ७३१ ॥ राज्यश्रिया प्राप्तयापि, यथेच्छं भुक्तयाऽपि च । सुरयेव सुरापस्य, पुंसस्तृप्तिन जायते ॥ ७३२॥ भवेदाराध्यमानापि, प्राप्य स्तोकमपि च्छलम् । राज्यलक्ष्मीः क्षणात् क्षुद्रदेवतेव पराङ्मुखी ।। ७३३ ॥ १ पराक्रमावधिम् । २ शिष्यः। ३ अश्वशालाम् । ४ भरतस्य । ५ समुदः। ६ व्याधात् । ७ भ्रातुः पुत्रादयः । 1८ मदिरापानकारकस्य । भरत-बाहुबलियुद्धम् । | ॥१४६॥ Jan Education inte For Private & Personal use only . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्यलक्ष्मीरमावास्यारात्रिवद् भूरितामसा । उज्झाञ्चकार तृणवत, तातोऽप्येनां कुतोऽन्यथा ? ॥७३४॥ तस्य तातस्य पुत्रेण, सताऽप्येषा मया चिरात् । दुर्वृत्तत्वेन विज्ञाता, ज्ञास्यत्यन्यः कथं ह्यमूम् ? ॥७३५॥ सर्वथा त्यजनीयेयमिति निश्चित्य चेतसि । महामना बाहुबलिरित्यूचे चक्रवर्त्तिनम् ॥ ७३६ ॥ तितिक्षस्व क्षमानाथ !, राज्यमात्रकृतेऽपि यत् । द्विषन्निव मया भ्रातरेवं त्वमसि खेदितः॥ ७३७ ॥ | महाभवहदेऽमुष्मिस्तन्तुपाशसहोदरैः । भ्रातृपुत्रकलत्रायै, राज्येन च कृतं मम ॥ ७३८ ॥ त्रिजगत्स्वामिनो विश्वाभयदानैकसत्रिणः । एष पान्थीभविष्यामि, पथि तातस्य सम्प्रति ॥ ७३९ ॥ इत्युदित्वा महासत्त्वः, सोऽग्रणीः शीघ्रकारिणाम् । तेनैव मुष्टिना मज़, उद्दधे तृणवत् कंचान् ॥ ७४०॥ साधु साध्विति सानन्दं, निगदन्तो दिवौकसः । बाहुबलेरुपरिष्टात् , पुष्पवृष्टिं वितेनिरे ॥ ७४१ ॥ सोऽप्येवं चिन्तयामास, प्रतिपन्नमहाव्रतः । किं तातपादपद्मान्तमहं गच्छामि सम्प्रति ? ॥ ७४२ ॥ नो वा यास्यामि पूर्वात्तव्रतानां ज्ञानशालिनाम् । मध्येऽनुजानामपि मे, यल्लघुत्वं भविष्यति ॥ ७४३ ॥ इहैव दग्ध्वा घातीनि, कर्माणि ध्यानवह्निना । अवाप्तकेवलज्ञानो, यास्यामि स्वामिपर्षदि ॥ ७४४ ॥ मनखी चिन्तयन्नेवं, प्रलम्बितभुजद्वयः । कायोत्सर्गेण तत्रैवाऽस्थाद् रत्नप्रतिमेव सः ॥ ७४५ ॥ भरतस्तं तथा दृष्ट्वा, विचार्य खं कुकर्म च । बभूव न्यश्चितग्रीवो, विविक्षुरिव मेदिनीम् ॥ ७४६ ॥ शान्तं रसं मूर्तमिव, भ्रातरं प्रणनाम सः । नेत्रयोरश्रुभिः कोष्णैः, कोपशेषमिवोत्सृजन् ॥ ७४७॥ भरतः प्रणमस्तस्याऽधिकोपास्तिविधित्सया । नखादशेषु सङ्क्रान्त्या, नानारूप इवाऽभवत् ॥ ७४८ ॥ १ तन्तुपाशसदृशैः। २ केशान् । ३ नम्रीभूतग्रीवः। ४ प्रवेष्टुमिच्छुः । ५ अधिकोपासनां विधातुमिच्छया। For Private & Personal use only , Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते प्रथमं पर्व पञ्चमः सर्गः ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम् । ॥१४७॥ सुनन्दानन्दनमुनेर्गुणस्तवनपूर्विकाम् । खनिन्दामित्यथाऽकार्षीत् , खापवादगदौषधीम् ॥ ७४९॥ घन्यस्त्वं तत्यजे येन, राज्यं मदनुकम्पया । पापोऽहं यदसन्तुष्टो, दुर्मदस्त्वामुपाद्रवम् ॥ ७५० ॥ खशक्तिं ये न जानन्ति, ये चाऽन्यायं प्रकुर्वते । जीयन्ते ये च लोभेन, तेषाममि धुरन्धरः।। ७५१॥ राज्यं भवतरोबीजं, ये न जानन्ति तेऽधमाः । तेभ्योऽप्यहं विशिष्ये तदजहानो विदअपि ॥ ७५२ ॥ त्वमेव पुत्रस्तातस्य, यस्तातपथमन्वगाः । पुत्रोऽहमपि तस्य स्था, चेद् भवामि भवादृशः॥ ७५३ ॥ विषादपङ्कमुन्मूल्य, पश्चात्तापजलैरिति । तत्पुत्रं सोमयशसं, तद्राज्ये स न्यबीविशत् ॥ ७५४ ॥ तदादि सोमवंशोऽभूच्छाखाशतसमाकुलः । तत्तत्पुरुषरत्नानामेकमुत्पत्तिकारणम् ।। ७५५ ॥ ततो बाहुबलिं नत्वा, भरतः सपरिच्छदः । पुरीमयोध्यामगमत् , स्वाराज्यश्रीसहोदराम् ।। ७५६ ॥ भगवानपि तत्रैकस्तस्थौ बाहुबलिमुनिः । भूमेरिव समुद्भूतोऽवतीर्णो गगनादिव ॥ ७५७ ॥ ध्यानकतानो नासान्तविश्रान्तनयनद्वयः । निष्कम्पः स मुनिः शङ्करिव दिक्साधनो बभौ ॥ ७५८ ॥ विकिरन्तीं वह्निकणानिवोष्णान् वालुकाकणान् । उष्ण वात्यां देहेन, स सेहे वनवृक्षवत् ॥ ७५९ ॥ अग्निकुण्डमिव ग्रीष्ममध्यन्दिनरविं च सः । शुभध्यानसुधामग्नो, नाज्ञासीन्मयपि स्थितम् ॥ ७६० ॥ आशिरःप्रपदं ग्रीष्मतापात् स स्खेदवारिभिः । रजःपङ्कीकृतैः क्रोर्ड, इवाऽभात् पङ्कनिर्गतः ॥ ७६१ ॥ स प्रावृषि महाझञ्झानिलघूर्णितपादपैः । धारासारैर्गिरिरिव, नाभिद्यत मनागपि ॥ ७६२॥ विद्युत्पातेषु निर्घातकम्पितादिशिरःस्वपि । न कायोत्सर्गतो नापि, ध्यानतः प्रचचाल सः॥ ७६३ ॥ • * °लिनुपः खंता ॥ १ स्थाणुरिव । २ ग्रीष्मर्तुवातसमूहम् । ३ आमस्तकपादानम् । ५ सूकरः। भरत-बाहुबलियुद्धम् । ॥१४७॥ For Private & Personal use only . Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधोवहद्वारिभवैः, शैवलैश्वरणद्वयम् । तस्योद्वंसग्रामवापीसोपानवदलिप्यत ॥ ७६४ ॥ हिमत्तौं हिमसाद्भूतद्विपदघ्नसरित्यपि । सोऽस्थात् कर्मेन्धनप्लोषोद्युक्तध्यानाग्निना सुखम् ॥ ७६५ ॥ मिष्टषु त्रिषु कुन्दैवत् । धर्म्यं ध्यानं बाहुबलेरुजजृम्भे विशेषतः ॥ ७६६ ।। तस्मिन्नरण्यमहिषा, विषाणाच्छोटपूर्वकम् । महातरुस्कन्ध इव, स्कन्धकण्डूयनं व्यधुः ॥ ७६७ ॥ वपुषा तद्वपुरवष्टभ्य शैलतटीमिव । वार्षीणसकुलान्यन्वभूवन्निद्रासुखं निशि ॥ ७६८ ॥ सल्लकीपल्लवभ्रान्त्या, तत्पाणिचरणं मुहुः । कर्षन्तः कटुमसहा, वैलक्ष्यं करिणो ययुः ॥ ७६९ ॥ उत्कण्टककरालाभिर्जिह्वाभिः करपत्रवत् । विश्वस्तास्तं लिहन्ति मोदाननाश्वमरीगणाः ॥ ७७० ॥ लताभिः शतशाखाभिः, प्रसरन्तीभिरुच्चकैः । सुरजेश्वर्मवधीभिरिव सोऽवेश्यताऽभितः ॥ ७७१ ॥ परितस्तं शरस्तम्बाः, प्ररोहन्ति स्म सन्तताः । पूर्वस्नेहवशायातशराढ्यशरधिश्रियः ॥ ७७२ ॥ उद्ययुः पादयोस्तस्य, प्रावृदपङ्कनिमग्नयोः । चलच्छंतपदीगर्भा, अदभ्रा दर्भसूचयः ॥ ७७३ ॥ प्रचक्रिरे कुलीयांच, तद्देहे वल्लिसङ्कुले । परस्पराविरोधेन, ते श्येनचटकादयः ॥ ७७४ ॥ अरण्यकेकिकेकातस्त्रस्तास्तत्र महोरगाः । वल्लीवितानगहने, समारोहन् सहस्रशः ॥ ७७५ ॥ शरीरमधिरूढैस्तैर्लम्बमानैर्भुजङ्गमैः । बभौ बाहुबलिर्बाहुसहस्रमिव धारयन् ।। ७७६ ॥ १ निर्जनग्रामवापीसोपानवत् । २ हिमसाद्भूतगजप्रमाणसरिति । ७ गण्डकाख्यः पशुविशेषः । ५ माध्यकुसुमवत् । ६] शृङ्गाच्छोटनपूर्वकं । ११ नीडानि । १२ अटवीमयूरवाणीतः । हेमन्तर्त्तसम्बन्धिनीषु । ८ ऊर्ध्वमुखाः । ९ मृदङ्गः । ४ हिमदग्धवृक्षासु । १० कीटविशेषः । . Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१४८॥ SACROREGAONLCASSES पादपर्यन्तवल्मीकविनिर्यातैर्महोरगैः । पादयोर्वेष्टयाञ्चक्रे, स पादकटकैरिव ॥ ७७७ ॥ प्रथमं पर्व इत्थं स्थितस्य ध्यानेन, तस्यैको वत्सरो ययौ । विनाऽऽहारं विहरतो, वृषभस्वामिनो यथा ॥ ७७८ ॥ पञ्चमः ___ पूर्णे तु वत्सरे विश्ववत्सलो वृषभध्वजः । आहूय भगवान् ब्राह्मीसुन्दर्यावेवमादिशत् ॥ ७७९॥3॥ सर्गः स इदानीं बाहुबलिः, क्षीणप्रचुरकर्मकः । शुक्लचतुर्दशीरात्रिरिव प्रायेण निस्तमाः ॥ ७८०॥ ऋषभजिनमानात् स मोहनीयांशाज्ज्ञानं नाऽऽमोति केवलम् । तिरोहितः काण्डपटेनाऽप्यर्थो न हि दृश्यते ॥७८१॥ | भरतचक्रियुवयोर्वचसा मानं, सद्यस्त्यक्ष्यति सोऽद्य तत् । यातं तस्योपदेशाय, समयः खलु वर्तते ॥ ७८२॥ । 1६चरितम् । तामाज्ञां शिरसाऽऽदाय, नत्वा च चरणौ प्रभोः। प्रति बाहुबलिं ब्राह्मीसुन्दयो चेलतुस्ततः ॥७८३॥ ज्ञात्वापि तन्मानमुपेक्षाश्चक्रे वत्सरं प्रभुः । अगूढलक्ष्या अर्हन्तः, समये ह्युपदेशकाः ॥ ७८४ ॥ ते आर्ये जग्मतुस्तत्र, देशे वल्लीतिरोहितम् । रत्नं रजभ्छन्नमिवाऽलक्षयेतां न तं मुनिम् ॥ ७८५ ॥ बलियुद्धम्। मुहुरन्वेषयन्तीभ्यां, ताभ्यामथ तथास्थितः । उपालक्षि कथश्चित् स, वृक्षेभ्यो ह्यविशेषभाक् ॥ ७८६ ॥ निपुणं लक्षयित्वा तं, कृत्वा त्रिश्च प्रदक्षिणाम् । महामुनि बाहुबलिं, ते वन्दित्वैवमूचतुः ॥ ७८७ ॥ | आज्ञापयति तातस्त्वां, ज्येष्ठार्य! भगवानिदम् । हस्तिस्कन्धाधिरूढानामुत्पद्यत न केवलम् ॥ ७८८ ॥ इत्युदित्वा भगवत्यौ, जग्मतुस्ते यथागतम् । सोऽपि विस्मयमानोऽन्तर्महात्मैवमचिन्तयत् ॥ ७८९ ॥ त्यक्तसावद्ययोगस्य, कायोत्सर्गजुषस्ततः । अस्मिंस्तरोरिखाऽरण्ये, ममेभारोहणं कुतः ॥ ७९०॥ ॥१४८॥ इमे भगवतः शिष्ये, भाषेते न मृषा क्वचित् । तत् किमेतदहो! यद्वा, हुं ज्ञातं हि चिरान्मया ॥७९१॥ १ पटखण्डेन । २ गच्छतम् । ३ हस्त्यारोहणम् । For Private & Personal use only Jain Education Inter Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARRRRRRRRR को हि व्रतगरिष्ठानां, कनिष्ठानां नमस्क्रियाम् । कति मान एवेभस्तमारूढोऽस्मि निर्भरम् ॥ ७९२ ॥ जगत्रयगुरोस्तस्य, चिरं सेवाजुषोऽपि मे । नाऽभूद् विवेकस्तरणं, कुलीरस्येव वारिणि ॥ ७९३ ॥ प्रतिपन्नव्रतेष्वादौ, स्वभ्रातृषु महात्मसु । कनिष्ठा इति यत् तेषु, नाऽभून्मम विवेन्दिषा ॥ ७९४ ॥ इदानीमपि गत्वा तान्, वन्दिष्येऽहं महामुनीन् । चिन्तयित्वेति स महासत्त्वः पादमुदक्षिपत् ॥ ७९५॥ लतावल्लीवत् त्रुटितेष्वभितो घातिकर्मसु । तस्मिन्नेव पदे ज्ञानमुत्पेदे तस्य केवलम् ॥ ७९६ ॥ उत्पन्नकेवलज्ञानदर्शनः सौम्यदर्शनः । वेरिख शशी सोऽथ, जगाम स्वामिनोऽन्तिकम् ॥ ७९७ ॥ प्रदक्षिणां तीर्थकृतो विधाय, तीर्थाय नत्वा च जगन्नमस्यः । महामुनिः केवलिपर्षदन्तस्तीर्णप्रतिज्ञो निपसाद सोऽथ ॥ ७९८ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि बाहुबलिसङ्ग्राम-दीक्षा-केवलज्ञानसङ्कीर्तनो नाम पञ्चमः सर्गः ॥५॥ १ कर्कटस्य जलजन्तुविशेषस्य । २ वन्दितुमिच्छा। ३ जगतां नमस्करणीयः । For Private & Personal use only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥१४९॥ षष्ठः सर्गः । इतश्च स्वामिनः शिष्यो, मरीचिर्भरतात्मजः । एकादशानामङ्गानामध्येता निजनामवत् ॥ १ ॥ सहितः श्रामणगुणैः, सुकुमारो निसर्गतः । कलभो यूथपेनेव, विहरन् खामिना समम् ॥ २ ॥ ग्रीष्मे मध्यन्दिने भीष्मैर्दिवाकरकैरोत्करैः । नाडीन्धमैरिवाऽऽध्मातेष्वभितो मार्गपांशुषु ॥ ३ ॥ अदृश्याभिर्हुतवहज्वालाभिरिव सर्वतः । महावात्याभिरुष्णाभिः, खिलीभूतेषु वर्त्मसु ॥ ४ ॥ आपादमस्तकोद्भूतस्वेदधारानिरन्तरे । अग्निर्तप्तेषदाद्वैधः सधीचि निजर्वर्ष्मणि ॥ ५ ॥ पयःसंसिक्तसंशुष्कचर्मगन्धवदुद्धते । प्रखेदक्लिन्नवस्त्राङ्गमलगन्धे च दुःसहे ॥ ६ ॥ पादयोर्दह्यमानश्चाऽवतप्ते नकुलस्थितम् । नाटयंस्तृष्णयाऽऽक्रान्तचेतसैवमचिन्तयत् ॥ ७ ॥ [ सप्तभिः कुलकम् ] केवलदर्शनज्ञानार्केन्दुमेरुमहीभृतः । ऋषभखामिनस्तावदस्मि पौत्रो जगद्गुरोः ॥ ८ ॥ अखण्डषदखण्डमहीमण्डलाखण्डलस्य च । विवेकैकनिधेस्तस्य पुत्रोऽस्मि भरतेशितुः ॥ ९ ॥ चतुर्विधस्य सङ्घस्याऽवक्षं च स्वामिनोऽन्तिके । प्रात्राजिषं पञ्चमहाव्रतोच्चारणपूर्वकम् ॥ १० ॥ एवं सति स्थानतोऽस्माल्लञ्जयार्गलितस्य मे । न युज्यते गृहे गन्तुं वीरस्येव रणाजिरात् ॥ ११ ॥ श्रम गुणभारं च महाद्रिमिव दुर्वहम् । मुहूर्त्तमपि चोद्वोढुमलमस्मि न साम्प्रतम् ॥ १२ ॥ * करैरसौ खं ॥ १ अतितेपदाकाष्ठसमाने । २ स्वशरीरे । ३ प्रत्यक्षम् । प्रथमं पर्व षष्ठः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्र चरितम् । मरीचेर्वेष परिवर्तनम् । ॥१४९॥ . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतः कुलायमलिनमितश्चाऽसुकरं व्रतम् । इतस्तटीतः शार्दूलः, सङ्कटे पतितोऽसि हा!॥१३॥ आ ज्ञातमथवाऽस्तीह, सुषमो विषमेऽपि हि । पर्वते दण्डकपथ, इव पन्था अयं खलु ॥१४॥ मनोवाकायदण्डानां, जयिनः श्रमणा ह्यमी । तैरहं विजितोऽस्मीति, भविष्यामि त्रिदण्डिकः॥१५॥ अमी मुण्डाः शिरकेशलुश्चनेन्द्रियनिर्जयैः । अहं पुनर्भविष्यामि, क्षुरमुण्डशिखाधरः ॥१६॥ स्थूलसूक्ष्मप्राणिवधादिभ्योऽमी विरताः सदा । स्थूलप्राणातिपातादिविरतिर्भवतान्मम ॥ १७॥ एते ह्यकिश्चना मेऽस्तु, स्वर्णमुद्रादि किश्चन । एतेऽनुपानेहोऽहं तु, परिधास्थाम्युपानही ॥१८॥ एतेष्टादशशीलासहस्याऽतिसुगन्धयः । शीलेनाऽहं तु दुर्गन्ध, आदास्ये चन्दनादिकम् ॥ १९॥ अपमोहाः साधवोऽमी, मोहच्छन्नोऽस्म्यहं ततः । तच्चिद्रं धारयिष्यामि, च्छत्रकं मस्तकोपरि ॥२०॥ श्वेतवस्त्रधरा एते, कषायकलुषस्त्वहम् । तत्स्मृत्यै परिधास्यामि, काषायाण्यंशुकान्यहम ॥२१॥ पापभीताः प्राज्यजीवं, जलारम्भं त्यजन्त्यमी । अस्तु स्नानं च पानं च, पानीयेन मितेन मे ॥२२॥ खबुद्ध्या कल्पयित्वैवं, मरीचिलिङ्गमात्मनः । बभार तादृशश्चाऽथ, विजहे स्वामिना सह ॥ २३ ॥ नाऽश्वो न च खरः किन्तूभयांशोऽश्वतरो यथा । न संयतो न च गृही, मरीचिरभवत् तथा ॥२४॥ महर्षिषु विजातीयं, मरालेष्विव वायसम् । तं निरीक्ष्य जनो भृयान् , धर्म पप्रच्छ कौतुकात् ॥ २५ ॥ मूलोत्तरगुणप्रष्ठं, साधुधर्ममुपादिशत् । स्वयं च तदनाचारे, पृष्टोऽशक्तिं जगाद सः ॥ २६ ॥ १ काञ्चनादिरहिताः । २ चर्मपादुकारहिताः। ३ मोहरहिताः। ४ वस्त्राणि । ५ हंसेषु । ६ काकम् । Jain Education inter-KHE For Private & Personal use only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पर्व त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१५०॥ प्रतिबोध्याऽऽगतान् भव्यान्, परिविवजिपून सतः। मरीचिःप्रेषयामास, समीपे स्वामिपादयोः॥२७॥ प्रतिबुध्यागतानां च, तेषां दीक्षा स्वयं ददौ । निष्कारणोपकारैकबन्धुः खाम्वृषभध्वजः ॥२८॥ मरीचेः खामिना सार्द्ध, एवं विहरतोऽन्यदा । शरीरे रोग उत्पेदे, काष्ठे घुण इवोल्वणः॥२९॥ पालम्बभ्रष्टकपिवद्, व्रतभ्रष्टो बहिष्कृतः । स्खयथ्यसंयतैनँव, मरीचिः प्रत्यपाल्यत ॥ ३०॥ अजातप्रतिचारोऽसौ, बबाधे व्याधिनाधिकम् । इक्षवाट इवाऽऽरक्षवर्जितः सूकरादिना ॥ ३१ ॥ रोगे निपतितो घोरे, महारण्य इवाऽसखा । एवं विचिन्तयामास, मरीचिनिजचेतसि ॥ ३२॥ __अहो! मम भवेऽत्रैवोदीर्ण कर्म शुभेतरम् । मां यदेते परमिवोपेक्षन्ते खेऽपि साधवः॥ ३३ ॥ यद्वा दिवाकरस्येवोलूकेऽनालोककारिणः । दोषो न कस्यापि मयि, साधोरप्रतिचारिणः ॥ ३४ ॥ सावधविरतास्ते हि, सावधनिरतस्य मे । वैयावृत्यं कथं कुर्युर्लेच्छस्येव महाकुलाः ॥३५॥ न तान् कारयितुं युक्तं, वैयावृत्यं ममापि हि । व्रतभ्रंशोत्थपापस्य, सन्तानाय हि तद् भवेत् ॥ ३६॥ तदात्मप्रतिचाराय, मन्दधर्माणमात्मवत् । अन्वेषयामि कमपि, युज्यन्ते हि मृगैर्मृगाः॥ ३७॥ मरीचिश्चिन्तयन्नेवमुल्लाघः कथमप्यभूत् । कालादनूपरत्वं हि, व्रजत्यूपरभूरपि ॥ ३८॥ अन्यदा खामिनः पादपद्मान्ते दूरभव्यकः । कुतोऽपि कपिलो नाम, राजपुत्रः समाययौ ॥३९॥ विश्वोपकारकरणप्रावृषेण्यपयोमुचः । कुर्वतो देशनां भर्तुर्धर्मस्तेन च शुश्रुवे ॥४०॥ ज्योत्स्नेव चक्रवाकायोलूकायेव दिवामुखम् । प्रक्षीणभागधेयाय, रोगितायेव भेषजम् ॥ ४१॥ * इत आरभ्य ५२ पर्यन्तं श्लोकाः सं १, खपुस्तकयोर्न सन्ति ॥ १ असहायः। २ स्वकीया अपि। ३ नीरोगः । सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रि चरितम् । रस्सल मरीचिशरीरे पीडा, कपिलस्यागमनं च। ॥१५॥ Jain Education into For Private & Personal use only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभजिनातिशयाः। शीतलं वातलायेव, छागायेव धनागमः । स धर्मः खामिगदितो, रुरुचे कपिलाय न ॥४२॥ [ युग्मम् ]| धर्मान्तरं तु शुश्रूषुः, क्षिपन् दृष्टिमितस्ततः । प्रेक्षाञ्चके मरीचिं स, खामिशिष्यविलक्षणम् ॥४३॥ मरीचिं स्वामितः सोऽगाद्, धर्मान्तरजिघृक्षया । महेभ्याट्टाद् दरिद्रादृमिव कायकबालकः ॥४४॥ धर्म तेनाऽनुयुक्तस्तु, मरीचिरिदमभ्यधात् । नेहाऽस्ति धर्मो धर्मार्थी, यदि तत् स्वामिनं श्रय ॥४५॥ ऋषभखामिनः पादाभ्यर्ण भूयो जगाम सः। पुनराकर्णयामास, धर्म तत्र तथैव तम् ॥ ४६॥ स्वकर्मपितायाऽस्मै, स्वामिधर्मोऽरुचन्न हि । चातकस्य वराकस्य, सम्पूर्णसरसाऽपि किम् ? ॥४७॥ मरीचिमाययौ भूयः, स इत्यूचे च किं तव । योऽपि सोऽपि न धर्मोऽस्ति, निधर्म किं व्रतं भवेत् ॥४८॥ मरीचिश्चिन्तयामासाऽनुरूपः कोऽप्ययं मम । अहो ! दैवादयं जज्ञे, योगः सदृशयोश्चिरात् ॥ ४९॥ सहायो निःसहायस्य, ममाऽस्त्विति विचिन्त्य सः । तत्रापि धर्मोऽस्त्यत्राऽपि, धर्मोऽस्त्येवमभाषत ॥५०॥ दुभाषितेन तेनेकेनाऽप्युपार्जयदुल्वणम् । अब्धिकोटीकोटिमानं, मरीचिर्भवमात्मनः ॥५१॥ अदीक्षयत् स कपिलं, स्वसहायं चकार च । परिव्राजकपाखण्डं, ततः प्रभृति चाऽभवत् ।। ५२॥ अथ साग्रं योजनानां, शतं लोकान् रुजां क्षयात् । अनुगृहंस्तापशान्त्या, प्रावृषेण्य इवाऽम्बुदः ॥५३॥ पतङ्गमूपकशुकमायेतेरप्रवृत्तितः । अनीतेवि भूपालः, सुखयन्नखिलाः प्रजाः॥५४॥ नैमित्तिकानां वैराणां, शाश्वतानां च सर्वतः । प्रशमात् प्रीणयन् जन्तून्, रविर्घान्तक्षयादिव ॥५५॥ व्यवहारप्रवृत्त्याऽग्रे, सर्वसौस्थ्यकृता यथा । आनन्दयन्नमार्या च, परितोऽपि प्रजास्तथा ॥५६॥ १ वातरोगिणे । २ मेपाय । ३ धनाढ्यापणात् । ४ पृष्टः । ५ पादसमीपम् । त्रिषष्टि. २६ Jain Education Internal . Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते 2-61- प्रथमं पर्व षष्ठः । सर्ग: ऋषभजिनभरतचक्रि| चरितम् । ॥१५॥ 2.SAMSUN अत्यन्तवृष्टयनावृष्टी, अजीर्णातिक्षुधाविव । प्रभावेनागदेनेव, जगतोऽप्यपसारयन् ॥ ५७॥ स्वान्यचक्रभवेनाऽन्तःशल्येनेवाऽपगच्छता । सद्यः प्रीतर्जनपदैः, क्रियमाणागमोत्सवः॥५८॥ सर्वसंहारघोराच्च, रक्षन् दुर्भिक्षतो जगत् । रक्षसो मान्त्रिक इव, स्तूयमानो भृशं जनैः॥ ५९॥ भामण्डलं दधानश्च, जितमार्तण्डमण्डलम् । बहिर्भूतमिवाऽनन्तं, ज्योतिरन्तरसम्मितम् ॥ ६॥ चक्रवर्तीव चक्रेण, निःसाधारणतेजसा । प्रसर्पता पुरो व्योम्नि, धर्मचक्रेण राजितः ॥ ६१॥ लघुध्वजसहस्रेण, पुरो धर्मध्वजेन च । सर्वकर्मजयस्तम्भेनेव तुङ्गेन शोभितः ॥ ६२॥ स्वयं शब्दायमानेन, दिव्यदुन्दुभिना दिवि । क्रियमाणप्रयाणाहकल्याण इव निर्भरम् ॥ ६३ ।। नभःस्थितेन स्फटिकरत्नसिंहासनेन च । पादपीठसमेतेन, यशसेवोपशोभितः ॥ ६४ ॥ सुरैः सञ्चार्यमाणेषु, सौवर्णेष्वम्वुजन्मसु । कुर्वाणश्चरणन्यासं, सलीलं राजहंसवत् ।। ६५॥ भिया रसातलमिव, विविक्षुभिरधोमुखैः । तीक्ष्णतुण्डैः कण्टकैरप्यनाक्लिष्टपरिच्छदः ॥ ६६ ॥ *उपास्यमानो युगपद्, ऋतुभिनिखिलैरपि । कर्तुं प्रायश्चित्तमिवाऽनङ्गेसाहाय्यपाप्मनः ॥ ६७॥ मार्गावनीरुहैरुच्चैरान्नमितमूर्द्धभिः । अपसंज्ञैरपि नमस्क्रियमाण इवाऽभितः ॥ ६८ ॥ तालवृन्तानिलेनेव, मृदुना शीतलेन च । अनिलेनाऽनुकूलेन, सेव्यमानो निरन्तरम् ॥ ६९॥ न शुभं खामिवामानामिति ज्ञात्वेव पक्षिभिः । प्रदक्षिणं प्रोत्तरद्भिर्लङ्घचमानाग्रवर्त्मकः ॥७॥ १ औषधेन । २ स्वचक्रपरचक्रभवेन । ३ केवल ज्ञानम् । ४ कमलेषु। * इमौ ६७-६८ तमौ श्लोकी खं पुस्तके न विद्यते । ५ कामसाहाय्यपापस्य । ६ मार्गबृक्षः। ७ निश्चेष्टः । ८ स्वाभिप्रतिकूलानाम् । ऋषभजिनातिशयाः। ॥१५१॥ GA Jan Education International For Private & Personal use only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टापदः। जघन्यतः कोटिसक्यै, राजमानः सुरासुरैः । यातायातपरैर्वेलातरङ्गैरिय सागरः ॥ ७१ ॥ भक्तिप्रभाववशतः, सप्रमेण दिवापि हि । इन्दुनेव नभःस्थेनाऽऽतपत्रेण विराजितः॥७२॥ इन्दोर्मरीचिसर्वस्वकोशैरिव पृथकृतैः । गङ्गातरङ्गधवलैर्वीज्यमानश्च चामरैः ॥ ७३ ॥ तपसा दीप्यमानश्च, सौम्यैश्च श्रमणोत्तमैः । लक्षशः परिकरितः, उडुनाथ इवोडुभिः ॥ ७४ ॥ प्रतिग्राम प्रतिपुरं, भव्यजन्तून प्रबोधयन् । प्रतिसिन्धु प्रतिसरः, पङ्कजानीव भास्करः॥७५॥ ग्रामाकरपुरद्रोणमुखकर्बटपत्तनैः । मडम्बाश्रमखेटाद्यैश्चापूर्णा विहरन् महीम् ॥ ७६ ॥ विश्वोपकारप्रवणो, भगवानृषभध्वजः । अपरेधुः क्रमात् प्रापदष्टापदमहाचलम् ॥ ७७ ॥ [पञ्चविंशत्या कुलकम् ] शारदानामिवाऽभ्राणां, राशिमकत्र कल्पितम् । संस्त्यानीभूतदुग्धाब्धिवेलाकूटमिवाऽऽहृतम् ॥ ७८॥ जन्माभिषेकविकृतपुरन्दरककुद्मताम् । एकं ककुंअन्तमिवोत्तुङ्गशृङ्गमिव स्थितम् ॥ ७९ ॥ नन्दीश्वरमहाद्वीपवर्तिपुष्करिणीसदाम् । मध्याद् दधिमुखाद्रीणामिवेकतममागतम् ॥ ८॥ जम्बूद्वीपारविन्दस्य, बिसखण्डमिवोद्धृतम् । उद्भटं मुकुटमिव, श्वेतरत्नमयं भुवः ॥ ८१॥ नैर्मल्याद् भासुरत्वाच, नित्यमेव धुसद्गुणैः । स्नप्यमानमिवाऽम्भोभिZज्यमानमिवाऽशुकैः ॥ ८२ ॥ स्फटिकोपलकूलेषु, निर्मलेप्वङ्गनाजनैः । उपलक्ष्यसरिद्वारिं, वातोद्धृताजरेणुना ॥ ८३ ॥ १ साधूत्तमैः । २ चन्द्रः। ३ नक्षत्रैः। ४ घनीभूतक्षीरसमुद्रवेलाकूटम् । ५ वृषभम् । ६ नालखण्डम् ।। 4. देवसङ्घः। ८ उपलक्षणीयनदीजलम् । Jain Education Inte20 For Private & Personal use only . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१५२॥ सर्गः ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम् । शृङ्गाग्रभागविश्रान्तविद्याधरमृगीदृशाम् । वैताब्यक्षुद्रहिमवद्विस्मारणभवान्तरम् ॥ ८४ ॥ आदर्शमिव रोदस्योर्दिशां हासमिवाऽसमम् । ग्रहनक्षत्रनिर्माणमृत्स्नास्थलमिवाऽक्षयम् ॥ ८५॥ मध्यभागसमासीनक्रीडाश्रान्तकुरङ्गकैः । शिखरदर्शितानेकमृगलाञ्छनविभ्रमम् ॥ ८६ ॥ आमुक्तामलसंव्यानमिव निर्झरपतिभिः । उत्पताकमिवोदञ्चदर्ककान्तोपलांशुभिः ॥ ८७॥ तुङ्गनिर्मलशृङ्गाग्रसङ्कान्तेन विवस्वता । मुग्धसिद्धपुरन्ध्रीणां, दत्तोदयगिरिभ्रमम् ॥ ८८॥ अत्यापत्रबहलैः, सन्ततच्छायमतिपैः । मयूरपत्ररचितैरातपत्रैरिवोरुभिः ॥ ८९॥ खेचरीभिाल्यमानेष्वेणपोतेषु कौतुकात् । उत्प्रस्रवमृगीक्षीरसिच्यमानलतावनम् ॥९॥ कदलीपत्रसंव्यानशबरीलास्समीक्षितुम् । श्रेणीकृताक्षिपत्राभिः, सुरस्त्रीभिरधिष्ठितम् ॥ ९१ ॥ रतश्रान्तोरगीपीतदरिद्रितवनानिलम् । वनानिलनटक्रीडाप्रनर्त्तितलतावनम् ॥ ९२ ॥ किन्नरस्त्रीरतारम्भमन्दिरीभूतकन्दरम् । अप्सरोमजनभरोत्तरङ्गितसरोजलम् ॥ ९३ ॥ शाराद्यूतपरैः क्वापि, पानगोष्ठीरतैः क्वचित् । क्वचनाऽऽबद्धपणितैर्यक्षस्तुमुलितोदरम् ॥ ९४ ॥ क्वचिच्छवरनारीभिः, किन्नरीभिः क्वचित् पुनः । क्वचिद् विद्याधरस्त्रीभिः, क्रीडाप्रक्रान्तगीतिकम् ॥१५॥ पक्चद्राक्षाफलोन्मत्तशुकैः क्वाऽपि कृतारवम् । क्वाऽपि चूताङ्कुरोन्मत्तपिकोदाहितपञ्चमम् ॥ ९६॥ क्वचिन्नवविसावादमत्तहंसखरोद्धरम् । सरित्तटोन्मदक्रौञ्चक्रेङ्कारमुखरं क्वचित् ॥९७ ॥ क्वाऽप्यासन्नघनोन्माद्यत्केकिकेकारवाकुलम् । क्वचित् सरस्परिसरत्सारसखरसुन्दरम् ॥ ९८॥ १ द्यावाभूम्योः। २ सूर्येण । ३ वृक्षैः । ४ मृगशिशुषु । ५ पाशफलकद्यूतपरैः। ६ कोलाहलीकृतमध्यम् । अष्टापदः। ॥१५२॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only www.jamelibrary.org Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरणम्। कौसुम्भवाससमिव, रक्ताशोकवनैः क्वचित् । तमालतालहिन्तालैनीलाम्बरमिव क्वचित् ॥ ९९॥ पीतांशुकमिव क्वाऽपि, किंशुकैः कुसुमाश्चितैः । श्वेतवस्त्रमिव क्वापि, मालतीमल्लिकावनैः ॥१०॥ अष्टयोजनमानेनोच्छ्रायेणाऽभ्रंलिहं ततः। गिरि गिरिगरिष्ठस्तमारुरोह जगद्गुरुः ॥१०१॥ [चतुर्विंशत्या कुलकम् ] ___ मरुत्कीर्णैर्दुकुसुमैस्तथा निर्झरवारिभिः । त्रिजगत्स्वामिनः सोऽद्रिरघपाये व्यधादिव ॥ १०२॥ अष्टापदगिरिः सोऽथ, खामिपादैः पवित्रितः । न हीनमान्यभून्मेरोस्तजन्मस्नानपावितात् ॥१०३॥ प्रहृष्टपरपुष्टादिकूजितव्याजतो मुहुः । जगाविव जगन्नाथगुणानष्टापदाचलः ॥ १०४ ॥ क्षेत्रे योजनमात्रेऽथ, तृणकाष्ठादिकं क्षणात् । वर्द्धनीजीविन इव, जहुर्वायुकुमारकाः॥१०५॥ विकृत्य सद्योऽप्यभ्राणि, पानीयमहिषानिव । गन्धाम्बुभिस्तां सिपिचुः, क्षिति मेघकुमारकाः ॥१०६॥ स्वर्णरत्नशिलाभिव, विशालाभिर्दिवौकसः । सममादर्शतलवद्, बबन्धुर्धरणीतलम् ॥१०७॥ पञ्चवर्णाः शक्रधनुःखण्डोत्करविडम्बिनीः । जानुदनीः सुमनसो, ववृषुर्व्यन्तरामराः ॥१०८॥ व्यन्तरास्तत्र कालिन्दीवीचिश्रीतस्करान् व्यधुः । द्रुदलैस्तोरणानार्दैः, ककुप्सु चतसृष्वपि ॥ १०९॥ तोरणान्यभितः स्तम्भेष्वराजन्मकराकृतिः । सिन्धूभयतटस्थास्नुमकरश्रीविडम्बिनी ॥ ११ ॥ तेषु श्वेतातपत्राणि, चत्वारि च चकाशिरे । दिग्देवीनां चतसृणां, राजता इव दर्पणाः ॥१११ ॥ _ * °कदलैः सं १॥ १ गगनपर्यन्तोन्नतम् । + गरिष्ठं तसं १॥ २ अर्घ्यपाद्योदके। ३ प्रहर्षितकोकिलादिकूजितमिषात् । ४ मार्जनीजीविनः । ५ जानुप्रमाणाः। ६ पुष्पाणि । ७ यमुना। अयं श्लोकः खंपुस्तके पतितः । Jain Education Internationa . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१५॥ सगे: ऋषभजिन भरतचक्रि|चरितम् । रेजुर्ध्वजपटास्तेषु, समीरणतरङ्गिताः। आकाशगङ्गातरलतरङ्गभ्रान्तिदायिनः ॥ ११२॥ अधोऽधस्तोरणान्यासन् , मौक्तिकस्वस्तिकादयः । जगतो मङ्गलमिहेत्यालेख्यलिपिविभ्रमाः॥११३॥ तत्रोया रचिते पीठे, वप्रं वैमानिकाः सुराः । रत्नाकरश्रीसर्वस्खमिव रत्नमयं व्यधुः॥११४ ॥ तैश्चके तत्र माणिक्यकपिशीर्षपरम्परा । चन्द्रचण्डांशुमालेव, मानुषोत्तरसीमनि ॥११५॥ बलयीकृत्य हेमाद्रिशृङ्गमेकमिवाऽमलम् । प्राकारं मध्यमं ज्योतिष्पतयः काञ्चनं व्यधुः॥११६॥ चक्रिरे कपिशीर्षाणि, तत्र रत्नमयानि ते । सचित्राणीव सुचिरं, प्रेक्षकप्रतिबिम्बितैः ॥ ११७॥ विदधुर्भवनाधीशा, रौप्यं वप्रमधस्तनम् । कुण्डलीभूतशेषाहिभोगभ्रमविधायिनम् ॥ ११८ ॥ चक्रुस्ते काञ्चनीं तत्र, कपिशीर्षपरम्पराम् । क्षीरोदेतीरनीरस्थसुपर्णश्रेणिविभ्रमाम् ॥ ११९ ॥ वप्रे वने च चत्वारि, चक्रिरे गोपुराणि तैः । तदा विनीतानगरीप्राकारे गुरकैरिव ॥ १२० ॥ गोपुरेषु च माणिक्यतोरणान्यक्रियन्त तैः । प्रसारिभिः शतगुणानीव खैरेव रश्मिभिः ॥ १२१ ॥ द्वारे द्वारे न्यधीयन्त, व्यन्तरैधूपचारकाः । चक्षूरक्षाञ्जनलेखासदृग्धूपोर्मिधारिणः ॥ १२२ ॥ मध्यवप्रान्तरे पूर्वोदीच्या विश्रान्तये विभोः । देवच्छन्दं व्यधुर्देवा, देवालयमिवौकसि ॥ १२३ ॥ त्रिकोशमानश्चैत्यद्रर्विचके व्यन्तरामरैः । अन्तःसमवसरणं, पोतान्तखि केपकः ॥ १२४ ॥ पीठं रत्नमयं चक्रुस्तेऽथ चैत्यतरोरधः। तं मूलतः पल्लवितमिव कुर्वाणमंशुभिः ॥ १२५॥ * मूर्द्धनि खंता ॥ १ मण्डलीकृत्य । २ क्षीरसमुद्रतटजलस्थगरुडपतिविभ्रमाम् । ३यक्षैः । ४ किरणैः। खायितधू | खंता। ५प्रवहणान्तः कृपस्तम्भ इव । ६ चैत्यतरुम् । समवसरणम्। ॥१५३॥ Jan Education International For Private & Personal use only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intert मृज्यमानं मुहुश्चैत्यशाखिशाखान्तपल्लवैः । तस्योपरिष्टात् पीठस्य, ते रत्नच्छन्दकं व्यधुः ॥ १२६ ॥ तस्यान्तः प्राक् साङ्घ्रिपीठं, रत्नसिंहासनं व्यधुः । कर्णिकामिव विकचाम्भोजकोशस्य मध्यतः ॥ १२७ ॥ छन्दकस्योपरि च्छत्रत्रितयं ते विचक्रिरे । आवर्त्तितं त्रिपथगास्रोतस्त्रयमिवाऽभितः ॥ १२८ ॥ कुतोऽपि हि समाहृत्य, पूर्वसिद्धमिव क्षणात् । इत्थं समवसरण मस्थाप्यत सुरासुरैः ॥ १२९ ॥ ततश्च पूर्वद्वारेण, मोक्षद्वारं जगत्पतिः । भव्यानां हृदयमिव, प्रविवेश तदुच्चकैः ॥ १३० ॥ तत्कालं श्रवणोत्तंसीभवच्छाखान्तपल्लवम् । ततः प्रदक्षिणीचक्रे, तमशोकतरुं प्रभुः ॥ १३१ ॥ नमस्तीर्थायेति वदन्, पूर्वाशाभिमुखोऽथ तत् । राजहंस इवाम्भोजं, भेजे सिंहासनं विभुः ॥ १३२ ॥ दिक्ष्वन्याखपि तिसृषु, रूपाणि परमेष्ठिनः । रत्नसिंहासनस्थानि, विचक्रुत्र्यंन्तरामराः ॥ १३३ ॥ पूर्व द्वाराऽविशन् साधु-साध्वी- वैमानिक स्त्रियः । प्रदक्षिणीकृत्य नेमुर्जिनं तीर्थं च भक्तितः ॥ १३४ ॥ प्राकारे प्रथमे तत्र, धर्माराममहाद्रुमाः । पूर्वदक्षिणदिश्यासाञ्चक्रिरे सर्वसाधवः ॥ १३५ ॥ तेषां च पृष्ठतस्तस्थुरुर्द्धा वैमानिकस्त्रियः । तासां च पृष्ठतस्तस्थुस्तथैव त्रैतिनीगणाः ॥ १३६ ॥ प्रविश्य दक्षिणद्वारा, प्राग्विधानेन नैर्ऋते । तस्थुर्भवनेशज्योतिर्व्यन्तराणां स्त्रियः क्रमात् ॥ १३७ ॥ प्रविश्य पश्चिमद्वारा, तद्वनत्वाऽवतस्थिरे । मरुद्दिशि भवनेशज्योतिष्कव्यन्तराः क्रमात् ॥ १३८ ॥ तदा च नाथं समवसृतं विज्ञाय वासवः । छादयन् द्यां विमानौधैस्तत्र सत्वरमाययौ ॥ १३९ ॥ प्रविश्योदीच्यद्वारेण, स्वामिनस्त्रिः प्रदक्षिणाम् । कृत्वा नत्वा च सुत्रीमा, भक्तिमानेवमस्तवीत् ॥ १४० ॥ १ गङ्गाप्रवाहत्रयम् । २ प्रथम निष्पन्नमिव । ३ पूर्वदिशाभिमुखः । ४ धर्मोद्यानमहावृक्षाः । ५ साध्यः । ६ इन्द्रः । समवसरणम् । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१५४॥ सगे: ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । अपि सर्वात्मना ज्ञातुमशक्या योगिपुङ्गवैः। स्तुत्याः क ते गुणाः? स्तोता, क्वाऽहं नित्यप्रमद्वरः॥१४१॥ तथापि नाथ ! स्तोष्यामि, यथाशक्ति भवद्गुणान् । दीर्घऽध्वनि व्रजन खञ्जः, किं केनापि निवार्यते ? ॥१४२॥ भवदुःखातपक्लेशविवशानां शरीरिणाम् । छत्रच्छायायमानाङिच्छाय! त्रायख नः प्रभो!॥ १४३ ॥ कृतार्थस्त्वं स्वयं नाथ !, कृते लोकस्य केवलम् । एवं विहरसे स्वार्थायोद्याति किमहस्करः? ॥१४४॥ मध्यन्दिनादित्य इव, त्वयि प्रतपति प्रभो! । सङ्घचत्यभितः कर्म, देहच्छायेव देहिनाम् ॥१४५॥ तिर्यञ्चोऽपि हि धन्यास्ते, ये त्वां पश्यन्ति सर्वदा । भवद्दर्शनवन्ध्यास्तु, त्रिविष्टपसदोऽपि न ॥ १४६॥ प्रकृष्टेभ्यः प्रकृष्टास्ते, भविकास्त्रिजगत्पते ! । एको हृदयचैत्येषु, येषां त्वमधिदेवता ॥ १४७ ॥ एकं याचे भवत्पादान् , ग्रामाद् ग्रामं पुरात् पुरम् । विहरन्नपि मा जातु, विहासीहृदयं मम ॥ १४८॥ प्रभुं स्तुत्वेति पञ्चाङ्गस्पृष्टभूमिः प्रणम्य च । पूर्वोत्तरस्यां दिश्यासाश्चक्रे दिविषदां पतिः॥१४९ ॥ तथा च समवसृतं, स्वामिनं शैलपालकाः । शशंसुश्चक्रिणे तत्र, तदर्थ स्थापिता हि ते ॥ १५० ॥ स वान्यो ददौ स्वर्णकोटीादश सार्द्धिकाः । तेभ्यो जिनं ज्ञपययः, सर्व स्तोकं हि तादृशाम् ॥१५१॥ सिंहासनादथोत्थायाऽभिमुखं भगवदिशः । गत्वा पदानि सप्ताऽष्टान्यनमद् विनयात् प्रभुम् ॥ १५२॥ स्थित्वा सिंहासने भूयो, भृय आजूहवन्नृपान् । स्वामिपादान्तयानाय, पुरन्दर इवाऽमरान् ॥ १५३॥ आययुः सर्वतो भूपाः, क्षणेन भरताज्ञया । वेलयेव पयोराशेरुच्चैर्वीचिपरम्पराः ॥ १५४ ॥ १ पादविकलः । २ सूर्यः । ३ देवाः। ४ श्रेष्ठः । * सप्ताऽष्टी, ननामाऽन्वक्षवत् प्रभुम् खंता ॥ भूयः सैन्यानाजूहवत् सं २, खंता, आ॥ सेनाः खंता ॥ ऋषभस्तुतिः। ॥१५४॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A जगर्जुर्दन्तिनस्तारं, वाजिनश्च जिहेपिरे । त्वरयन्त इव स्वामियानाय स्वाधिरोहकान् ॥१५५ ॥ रथिनः पत्तयश्चेयुः, प्रमोदपुलकाश्चिताः । राजाज्ञा भगवद्याने, सुगन्धिस्वर्णसन्निभा ॥१५६ ॥ सैन्यान्याष्टापदायोध्यं, न मान्ति स स्थितान्यपि । महानिर्झरिणीपूरपयांसीवाऽऽतटीद्वयम् ॥१५७॥ श्वेतातपत्रैर्मायूरातपत्रैश्च वियत्यपि । मन्दाकिनीयमुनयोर्वेणीसङ्ग इवाऽभवत् ॥ १५८ ॥ सादिवीरकराग्रस्थाः, स्फुरद्भिः स्वैर्मरीचिभिः । कुन्ता अपि समुत्क्षिप्तकुन्ता इव चकाशिरे ॥१५९ ॥ गर्जद्भिर्जितं हर्षादारूढैवीरकुञ्जरैः । कुञ्जरा अपि चोढकुञ्जरा इव रेजिरे ॥ १६० ॥ चक्रितोऽप्यौत्सुकायन्त, सैन्या नन्तुं जगत्पतिम् । असिकोशस्तदसितो, नितान्तं निशितोऽभवत् ॥१६१॥ सर्वतो मिलिताः सैन्या, महाकोलाहलेन ते । द्वाःस्थेनेव न्यवेद्यन्त, मध्यस्थस्यापि चक्रिणः ॥ १६२॥ ___ अथाऽङ्गशौचं स्नानेन, प्रचक्रे चक्रवर्त्यपि । रागद्वेषजयेनेव, मनःशौचं मुनीश्वरः ॥ १६३ ॥ भरतेशः कृतप्रायश्चित्तकौतुकमङ्गलः । पर्यधाद् वस्त्रनेपथ्यान्युजलानि खवृत्तवत् ॥ १६४ ॥ मूर्ध्नि श्वेतातपत्रेण, चामराम्यां च पार्श्वयोः । भ्राजमानः स शुभ्राभ्यां, ययौ वेश्मान्तवेदिकाम् ॥१६५॥ पूर्वाचलमिवाऽऽदित्यस्तामारुह्य महीपतिः । नभोमध्यमिवोदग्रमारुरोह महागजम् ॥ १६६ ॥ भेरीशङ्खानकप्रायवर्यतूर्यमहारवैः । अनुवानोऽम्बराभोगं, यन्त्रधाराजलैरिव ॥ १६७ ॥ दिशो गजैर्निरन्धानोऽम्बुदैरिव मदाम्बुभिः । तुरङ्गैश्छादयन्नुर्वी, तरङ्गैरिव सागरः ॥ १६८॥ १ महानदीपू पयांसीव । २ उत्सुका अभवन् । ३ तीक्ष्णः । UGREECRECORRECORROSCOMSMS For Private & Personal use only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रि ॥१५५॥ चरितम् । हर्षत्वराभ्यां युग्मिभ्यामिव कल्पद्रन्वितः । सान्तःपुरपरीवारः, सोऽगादष्टापदं क्षणात् ॥ १६९॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] सोऽवरुह्य गजात् तस्मादारुरोह महागिरिम् । गृहस्थधर्मादुत्तुङ्गं, चारित्रमिव संयमी ॥ १७० ॥ उदग्द्वारेण समवसरणं प्रविवेश सः । प्रभुं ददर्श चाऽऽनन्दकन्दलोद्गमवारिदम् ॥ १७१॥ त्रिश्च प्रदक्षिणां कृत्वा, नत्वा च चरणौ प्रभोः । बद्धाञ्जलिः शिरस्येवमारेमे भरतः स्तुतिम् ॥ १७२॥ कुम्भैानमिवाऽम्भोधेः, स्तवनं मादृशैस्तव । स्तोष्यामि तदपि स्वामिन् !, भक्त्या ह्यस्मि निरङ्कशः।।१७३॥ त्वदाश्रितास्त्वया तुल्या, भवन्ति भविनः प्रभो!। यान्ति दीपस्य सम्पर्काद्, वर्त्तयोऽपि हि दीपताम् ॥१७४॥ माद्यदिन्द्रियदन्तीन्द्रामदीकरणभेषजम् । तव स्वामिन् ! विजयते, शासनं मार्गशासनम् ॥ १७५ ॥ हत्वा घातीनि कर्माणि, शेषकर्माण्युपेक्षसे । भुवनानुग्रहायैव, मन्ये त्रिभुवनेश्वर ! ॥ १७६ ॥ पादलग्नास्तव विभो, लङ्घन्ते भविनो भवम् । उदन्वन्तं पक्षिराजपक्षमध्यगता इव ॥ १७७ ॥ जयत्यनन्तकल्याणदुमोल्लासनदोहदम् । विश्वमोहमहानिद्राप्रत्यूषं दर्शनं तव ॥ १७८ ॥ त्वत्पदाम्भोजसंस्पर्शाद, दीयते कर्म देहिनाम् । इन्दोमुंदुभिरप्युर्दन्तिदन्ताः स्फुटन्ति हि ॥ १७९॥ वृष्टिर्वारिधरस्येव, मृगाङ्कस्येव चन्द्रिका । जगन्नाथ ! प्रसादस्ते, सर्वसाधारणः खलु ॥ १८ ॥ एवं जगत्पति स्तुत्वा, नत्वा च भरतेश्वरः । निषसाद हरेः पृष्ठे, सामानिक इवाऽमरः ॥ १८१॥ दिवौकसां पृष्ठतश्च, निषेदुरपरे नराः । नराणां पृष्ठतो नार्य, ऊर्द्धा एवाऽवतस्थिरे ॥ १८२ ॥ १ समुद्रम् । २ रश्मिभिः। ऋषभस्तुतिः। ॥१५५॥ For Private & Personal use only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMGAOSANSAROSAMASSAMSKSE इत्थं प्रथमवप्रान्तस्तस्थौ सङ्घश्चतुर्विधः । चतुर्विधो धर्म इवाऽनवद्ये स्वामिशासने ॥ १८३ ॥ प्राकारे च द्वितीयस्मिंस्तियञ्चस्तस्थुरुन्मुदः । विरोधिनोऽपि हि मिथः, सस्नेहाः सोदरा इव ॥१८४ ॥ तार्तीयीके पुनर्वग्रे, नृपादीनामुपेयुपाम् । देशनाकर्णनोत्कर्णास्तस्थुर्यानपरम्पराः ॥१८५ ॥ सर्वभाषानुगामिन्या, मेघनिर्घोषधीरया । गिरा त्रिभुवनस्वामी, विदधे धर्मदेशनाम् ॥ १८६॥ आसक्तभारनिर्मुक्ता, इवाऽऽप्तेष्टपदा इव । कृताभिषेककल्याणा, इव ध्यानस्थिता इव ॥ १८७ ॥ प्राप्ता इवाऽहमिन्द्रत्वं, परं ब्रह्म गता इव । शृण्वन्तो देशनां हर्षात, तस्थुस्तियनरामराः॥१८८॥ [युग्मम् | देशनान्ते च भरतो, भ्रातृनात्तमहाव्रतान् । निरीक्ष्य समनस्तापो, मनस्येवमचिन्तयत् ॥ १८९॥ बन्धूनां गृह्णता राज्यमेतेषां किं कृतं मया । अनारतमतृप्तेन, भमकामयिनेव हा॥१९॥ अन्येभ्योऽपि ददानोऽस्मि, लक्ष्मी भोगफलामिमाम् । तच्च मे भमनि हुतमिव मूढस्य निष्फलम् ॥१९॥ काकोऽप्याहूय काकेभ्यो, दत्त्वाऽन्नाद्युपजीवति । ततोऽपि हीनस्तदहं, भोगान् भुजे विना ह्यमन् ॥१९२॥ दीयमानान् यदि पुनर्भोगान् भूयोऽपि मच्छुभैः । आददीरनमी भिक्षा, मासापणिका इव ॥ १९३ ॥ एवमालोच्य भरतः, पादमूले जगद्गुरोः । भ्रातून निमन्त्रयामास, भोगाय रचिताञ्जलिः ॥ १९४॥ प्रभुरप्यादिदेशैवमृज्वाशय! विशाम्पते । भ्रातरस्ते महासत्त्वाः, प्रतिज्ञातमहाव्रताः ॥ १९५॥ संसारासारतां ज्ञात्वा, परितस्त्यक्तपूर्विणः। न खलु प्रतिगृह्णन्ति,भोगान् भूयोऽपि वान्तवत्।।१९६॥[युग्मम्] *."हन्मदाः सं २॥ १ वाहनपरम्पराः। २ मनःसन्तापसहितः । ३ भस्मकरोगिणेव । ४ मासोपवासिनो मुनयः ।। Jain Education in For Private & Personal use only DAN Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१५६॥ SCREDUCAUGUSUM अवग्रहः। एवं निषिद्धो भोगेषु, स्वामिना भरतेश्वरः। भृयो विचिन्तयामास, सानुतापेन चेतसा ॥ १९७॥ प्रथमं पर्व यदि तावदमी त्यक्तसङ्गा भोगान् न भुञ्जते । तथापि तावदाहारं, भोक्ष्यन्ते प्राणधारणम् ॥ १९८॥18 एवं विचिन्त्य शकटशतैः पञ्चभिरुच्चकैः । आनाय्याऽऽहारमनुजान, न्यमन्त्रयत् स पूर्ववत् ॥ १९९॥ सर्गः खामी भूयोऽप्युवाचैवमन्नादि भरतेश्वर ! । आधाकर्माऽऽहृतं जातु, यतीनां न हि कल्पते ॥२०॥ 1 ऋषभजिनएवं निराकृतो भूयोऽप्यकृताकारितेन सः । अनेनाऽऽमत्रयाञ्चके, शोभते सर्वमार्जवे ।। २०१॥ भरतचक्रिराजेन्द्र ! राजपिण्डोऽपि, महर्षीणां न कल्पते । एवं भूयो निराचक्रे, चक्रभृद् धर्मचक्रिणा ॥ २०२ ॥ चरितम् । स्वामिना प्रतिषिद्धोऽस्मि, सर्वथेति महीयसा । अद्यताऽनुतापेन, राहुणेव निशाकरः ॥ २०३॥ उपलक्ष्य विलक्षत्वं, सहस्राक्षः क्षमापतेः । पप्रच्छ स्वामिनमिति, कतिधा स्यादवग्रहः ॥२०४॥ स्वाम्यपि व्याजहारैवं, पञ्चधा स्यादवग्रहः । इन्द्रचक्रिनृपागारिसाधुसम्बन्धिभेदतः ॥ २०५॥ उत्तरेणोत्तरेणैषां, पूर्वः पूर्वः प्रवाध्यते । विधिः परोक्तो बलवान , यत पूर्वोक्तपरोक्तयोः॥२०६॥ शकोऽप्यूचेऽवग्रहे मे, साधवो विहरन्ति ये । तदमीयां मया देवानुजज्ञेऽवग्रहो निजः ॥२०७॥ इत्युदित्वा स्वामिपादान , वन्दित्वाऽवस्थिते हेरौ । एवं सञ्चिन्तयामास, भूयोऽपि भरतेश्वरः॥२०८॥ एभिर्मदीयं मुनिभिर्यद्यप्यन्नादि नाऽऽदृतम् । अवग्रहानुज्ञयाऽद्य, कृतार्थः स्यां तथाऽप्यहम् ॥२०९ ॥ सम्प्रधार्येति हृदये, हृदयालुर्महीपतिः । शक्रवत् खामिपादाग्रेऽन्वज्ञासीत् स्वमवग्रहम् ॥ २१ ॥ ॥१५६॥ सब्रह्मचारिणमिवेत्यपृच्छद् वासवं च सः । मया कि कार्यममुना, भक्तपानादिनाऽधुना? ॥ २११ ॥ १ पश्चात्तापसहितेन । २ सरलत्वे ।३ तीर्थकरेण । ४ इन्द्रः। ५ इन्द्रे । MSMSK Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रस्य रूपम्। गुणोत्तरेभ्यो दातव्यमिति शक्रेण भाषिते । एवं स दध्यौ मम के, विना साधून गुणोत्तराः ॥२१२॥ आ:! ज्ञातमथवा सन्ति, विरताविरताः खलु । गुणोत्तराः श्रावका मे, तेभ्यो देयमिदं मया ॥२१३॥ __ कर्त्तव्यं तच्च निश्चित्य, चक्रवर्ती दिवस्पतेः । भाखदाकृतिक रूपं, दृष्ट्वा पप्रच्छ विस्मितः॥२१४ ॥ किमीशेन रूपेण, यूयं स्वर्गेऽपि तिष्ठथ ? । रूपान्तरेण यदि वा, कामरूपा हि नाकिनः ॥ २१५॥ देवराजोऽब्रवीद् राजन्निदं रूपं न तत्र नः । यत् तत्र रूपं तन्मत्यैनं द्रष्टुमपि पार्यते ॥ २१६ ॥ भरतः पुनरप्यूचे, सहस्राक्ष ! ममोच्चकैः । यौष्माकीणस्य रूपस्य, दर्शने तस्य कौतुकम् ॥ २१७॥ तस्या दिव्याकृतेः स्वस्था, दर्शनेन दिवस्पते । परिप्रीणय मे चक्षुश्चकोरमिव चन्द्रमाः ॥ २१८ ॥ त्वं पुमानुत्तमोऽसीति, मा तेऽभूत् प्रणयो मुधा । तदेकमङ्गावयवं, दर्शयिष्यामि भूपते ! ॥ २१९॥ इत्युदीर्य शुनासीरो, योग्यालङ्कारशालिनीम् । स्वाङ्गली दर्शयामास, जगद्वेश्मैकदीपिकाम् ॥ २२०॥ पार्वणेन्दुमिवोदन्वान् , विकसद्भासुरद्युतिम् । तां महेन्द्राङ्गुली दृष्ट्वा, मुमुदे मेदिनीपतिः ॥ २२१ ।। भगवन्तं प्रणम्याऽथ, राजानमनुमान्य च । शतमन्युस्तिरोऽधत्त, सन्ध्याभ्रमिव तत्क्षणात् ॥ २२२ ॥ खामिनं प्रणिपत्याऽथ, चक्रवर्त्यपि शक्रवत् । कृत्यानि चिन्तयंश्चित्ते, विनीतां नगरीं ययौ ॥२२३॥ शक्राङ्गुली न्यस्य रानी, भरतोष्टाह्निका व्यधात । भक्तौ स्नेहेऽपि च सतां, कर्त्तव्यं तुल्यमेव हि ॥२२४॥ इन्द्रस्तम्भं समुत्तभ्य, ततः प्रभृति सर्वतः । इन्द्रोत्सवः समारब्धो, लोकैरद्यापि वर्तते ॥ २२५॥ विजहार ततोऽन्यत्राअष्टापदाद् भगवानपि । भव्याजबोधकृत क्षेत्रात्, क्षेत्रान्तरमिवार्यमा ॥२२६ ॥ प्रार्थना। २ इन्द्रः। त्रिषष्टि. २७ Jan Education Internationa For Private & Personal use only . Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१५७॥ सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । भरतोऽथ समाहूय, श्रावकानभ्यधादिदम् । गृहे मदीये भोक्तव्यं, युष्माभिः प्रतिवासरम् ॥ २२७॥ कृष्यादि न विधातव्यं, किन्तु स्वाध्यायतत्परैः । अपूर्वज्ञानग्रहणं, कुर्वाणैः स्थेयमन्वहम् ॥ २२८॥ भुक्त्वा च मेऽन्तिकगतैः, पठनीयमिदं सदा । जितो भवान् वर्धते मीस्तस्मान्मा हन मा हन ॥ २२९॥ प्रतिपद्य तथा ते तु, भुञ्जते स तदोकसि । तथा च तद् वचः पेठुः, स्वाध्यायमिव तत्पराः॥२३०॥ रतिमन्नो देव इव, नृदेवोऽपि प्रमद्वरः। तच्छब्दाकर्णनादेव, किश्चिदेवं व्यचिन्तयत् ॥ २३१॥ जितोऽसि केन? हुं ज्ञातं, कषायैर्वधते च भीः । कुतो मे तेभ्य एवेति, मा हन्यां प्राणिनस्ततः॥२३२॥ एवं च सारयन्त्येते, नित्यमेव विवेकिनः । अहो ! मम प्रमादित्वमहो ! विषयलुब्धता ॥ २३३ ॥ औदासीन्यमहो! धर्मेऽप्यहो! संसाररागिता । अहो ! महापुरुषतोचिताचारविपर्ययः ॥२३४॥ अनया चिन्तया धर्मध्यानं प्रावर्त्तत क्षणम् । गङ्गाप्रवाहः क्षाराब्धाविव तस्मिन् प्रमादिनि ॥२३५॥ भूयोऽपि भूपः शब्दादिष्विन्द्रियार्थेष्वसज्यत । कर्म भोगफलं कोऽपि, नाऽन्यथा कर्तुमीश्वरः ॥२३६॥ सूदाध्यक्षस्थाऽन्येधुरेवं व्यज्ञपि भूपतिः । श्रावकोऽश्रावको वापि, भूयस्त्वानोपलक्ष्यते ॥ २३७ ॥ आदिशद् भरतः सूदान् , श्राद्धा यूयमपि स्थ यत् । परीक्षापूर्वकं देयमतः प्रभृति भोजनम् ।। २३८ ॥ को भवान् ? श्रावकोऽहं, तद्वतानि कति? शंस नः। तानि न श्रावकाणां स्युः, किन्त्वस्माकं सदापि हि ॥२३९॥ अणुव्रतानि पश्चाऽथ, सप्त शिक्षावतानि च । एवं परीक्षानियंढास्तैस्तेऽदर्यन्त भूपतेः ॥२४॥ ज्ञानदर्शनचारित्रलिङ्गं रेखात्रयं नृपः । वैकक्ष्यमिव काकिण्या, विदधे शुद्धिलक्षणम् ॥ २४१॥ १ पाचकाधिपतिभिः । २ तिर्यकक्षावलम्बी हारभेदः । * काकण्या खंता ॥ भरतेन श्रावकेभ्यो भोजनदानम् ॥१५७॥ For Private & Personal use only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतेनार्य वेदानां निर्माणम् । अर्द्धवर्षेऽर्द्धवर्षे च, परीक्षां चक्रिरे नवाः । श्रावकाः काँकिणीरत्नेनाऽऽलम्ब्यन्त तथैव हि ॥२४२॥ तल्लाञ्छना भोजनं ते, लेभिरेऽथाऽपठन्निदम् । जितो भवानित्याधुच्चैाहनास्ते ततोऽभवन् ॥ २४३॥ निजान्यपत्यरूपाणि, साधुभ्यो ददिरे च ते । तन्मध्यात् स्वेच्छया कैश्चिद् , विरक्तैर्बतमाददे ॥ २४४ ॥ परीषहासहैः कैश्चिच्छावकत्वमुपाददे । तथैव बुभुजे तैश्च, काकिणीरत्नलाञ्छितैः ॥ २४५॥ भूभुजा दत्तमित्येभ्यो, लोकोऽपि श्रद्धया ददौ । पूजितैः पूजितो यस्मात् , केन केन न पूज्यते ॥२४६॥ अर्हत्स्तुतिमुनिश्राद्धसामाचारीपवित्रितान् । आर्यान् वेदान् व्यधाच्चक्री, तेषां स्वाध्यायहेतवे ॥२४७॥ क्रमेण माहनास्ते तु, ब्राह्मणा इति विश्रुताः । काकिणीरत्नलेखास्तु, प्रापुर्यज्ञोपवीतताम् ॥ २४८॥ इयं भरतराज्येऽभूत् , स्थितिर्कयशाः पुनः । स्वर्णयज्ञोपवीतानि, चक्रे काकिण्यभावतः ॥ २४९॥ महायशाप्रभृतयः, केचिद् रौप्याणि चक्रिरे। पट्टसूत्रमयान्यन्येऽपरे सूत्रमयानि तु ॥२५०॥[युग्मम्] भरतादादित्ययशास्ततश्चाऽऽसीन्महायशाः। अतिबलो बलभद्रो, बलवीर्यस्ततोऽपि च ॥२५१॥ कीर्तिवीर्यो, जलवीर्यो, दण्डवीर्यस्ततोऽष्टमः । इत्यष्टौ पुरुषान् यावदाचारोऽयं प्रवृत्तवान् ॥२५२ ॥ एभिभूपैश्च बुभुजे, भरताधं समन्ततः । भगवन्मुकुटः शक्रोपनीतो मूय॑धारि च ॥ २५३ ॥ शेषैर्महाप्रमाणत्वान्न स वोढुमपार्यत । हस्तिभिर्हस्तिभारो हि, वोढुं शक्येत नाऽपरः ॥ २५४॥ जज्ञे साधुविच्छेदोऽन्तनवमदशमाहेतोः । एवं सप्तस्वन्तरेषु, जिनानामेष वृत्तवान् ॥ २५५ ॥ वेदाश्चाऽर्हत्स्तुतियतिश्राद्धधर्ममयास्तदा । पश्चादनार्याः सुलसायाज्ञवल्क्यादिभिः कृताः ॥२५६ ॥ * काकणी खंता ॥ + काकणी खंता काकणी खंता ॥ काकण्य खंता ॥ सुविधिशीतलाख्यतीर्थकृतोः । इतः खंता ॥ अनार्यवेदाः। Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते सर्गः ॥१५८॥ ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम्। -- इतश्च भरतस्तस्थौ, दिवसानतिवाहयन् । श्राद्धदानैः कामकेल्या, विनोदैरपरैरपि ॥ २५७ ॥ अवनि पावयन् पादैर्गगनं चन्द्रमा इव । अन्येधुर्भगवानागादष्टापदमहागिरिम् ॥२५८॥ सद्यश्च तत्र समवसरणे निर्मिते सुरैः । आसाञ्चक्रे जगन्नाथो, विदधे धर्मदेशनाम् ॥ २५९॥ तथास्थितो जगत्स्वामी, समेत्याऽऽयुक्तपूरुषैः । शशंसे भरतेशाय, त्वरितैरनिलैरिव ॥ २६॥ पूर्वप्रमाणं तेभ्योऽदाद्, भरतः पारितोषिकम् । दिने दिने कल्पतरुर्ददानो न हि हीयते ॥ २६१ ॥ *अष्टापदे च समवसृतं स्वामिनमेत्य सः । प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य चक्रीति तुष्टुवे ॥२६२॥ त्वत्प्रभावात् स्तवीमि त्वामप्राज्ञोऽपि जगत्पते । शशिनं पश्यतां दृष्टिमन्दापि हि पट्टयते ॥२६३॥ मोहान्धकारनिर्मग्नजगदालोकदीपक !। आकाशवदनन्तं ते, स्वामिन् ! जयति केवलम् ।। २६४ ॥ प्रमादनिद्रामन्नानां, नाथ ! कार्येण मादृशाम् । एवं गतागतानि त्वं, करोष्यर्क इवाऽसकृत् ।। २६५ ॥ जन्मलक्षार्जितं कर्म, त्वदालोकाद् विलीयते । कालेन दृषैदीभूतमप्याज्यं वह्निना द्रवेत् ॥ २६६ ॥ एकान्तसुषमातोऽपि, साध्वी सुषमदुःषमा । यत्र कल्पद्रुमेभ्यस्त्वं, विशिष्टफलदोऽभवः ॥२६७ ॥ . समस्तभुवनेशेदं, भुवनं भूषितं त्वया । राज्ञा पुरीव ग्रामेभ्यो, भुवनेभ्यः प्रकृष्यते ॥ २६८ ॥ पिता माता गुरुः स्वामी, यत् सर्वेऽपि न कुर्वते । एकोऽप्यनेकीभूयेव, त्वं हितं विदधासि तत् ॥२६९॥ निशा निशाकरेणेव, हंसेनेव महासरः । वदनं तिलकेनेव, शोभते भुवनं त्वया ॥ २७० ॥ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य, भगवन्तं यथाविधि । निषसाद यथास्थानं, विनयी भरतेश्वरः ॥ २७१ ॥ १ नियुक्तपुरुषैः । * इमौ द्वौ २६२,२६३ तमौ श्लोको खंपुस्तके पतितौ । २ समर्था भवति । ३ स्त्यानीभूतम् । ४ घृतम् । |॥१५८॥ Jain Education in For Private & Personal use only PIN Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवन्तं प्रति भरतस्य पृच्छाः । तीर्थकृतः। आयोजनविसर्पिण्या, सर्वभाषानुयातया । भारत्या भगवान् विश्वोपकृत्यै देशनां व्यधात् ॥ २७२ ॥ देशनाविरतौ नत्वा, स्वामिनं भरतेश्वरः। रोमाञ्चितवपुर्वद्धाञ्जलिरेवं व्यजिज्ञपत् ॥ २७३॥ नाथेह भरते यूयं, यथा विश्वहितास्तथा । कत्यन्ये भाविनो धर्मचक्रिणश्चक्रिणः कति ? ।। २७४ ॥ तेषां च नगरं गोत्रं, पितरावभिधाऽऽयुषी । वर्ण मानान्तरे दीक्षागती च ज्ञापय प्रभो॥२७५ ॥ अथाऽचचक्षे भगवान् , भरते भाविनोऽपरे । त्रयोविंशतिरहन्त, एकादश च चक्रिणः॥ २७६ ॥ जिनौ च विंशद्वाविंशी, तत्र गोतमवंशजौ । काश्यपान्वयजास्त्वन्ये, सर्वे निर्वाणगामिनः ॥ २७७॥ अयोध्यायां जितशत्रु-विजयातनयोऽजितः । द्वासप्ततिपूर्वलक्षायुष्को निष्कसमद्युतिः ॥ २७८ ॥ अर्द्धपश्चमकोदण्डशतान्युत्तुङ्गविग्रहः । पूर्वाङ्गोनपूर्वलक्षपर्यायोऽसौ भविष्यति ॥ २७९ ॥ तथा मदीयनिर्वाणाऽजितनिर्वाणकालयोः । सागरोपमकोटीना, लक्षाः पश्चाशदन्तरम् ॥ २८० ॥ श्रावस्त्यां जितारि-सेनाभूः स्वर्णाभश्च सम्भवः । षष्टिपूर्वलक्षायुष्कश्चतुर्धन्वशतोच्छ्यः ॥२८१॥ चतुःपूर्वाङ्गहीना च, पूर्वलक्षाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीनां, लक्षाणि त्रिंशदन्तरम् ।। २८२॥ विनीतापुर्या संवर-सिद्धार्थाजोभिनन्दनः । पञ्चाशत्पूर्वलक्षायुः, सार्द्धधन्वशतत्रयः ॥ २८३॥ स्वर्णाभः पूर्वलक्षाऽष्टपूर्वाङ्गोनाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीनां, दशलक्षाणि चाऽन्तरम् ॥ २८४ ॥ तत्पुर्या सुमतिर्मेघ-मङ्गलाभूः सुवर्णरुक् । सद्विचत्वारिंशत्पूर्वलक्षायुविधनुःशतः ॥ २८५॥ . सर्वभाषानुगामिन्या। २ तीर्थकराः। ३ नाम । ४ सुवर्णकान्तिः। ५ शरीरम् । * चत्वरिंशत्पूर्वलक्षायुधनुत्रिशतीमितः सं २॥ . For Private & Personal use only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पर्व पष्टः त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१५९॥ सर्ग: ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । तीर्थकृतः। द्वादशपूर्वाङ्गहीना, पूर्वलक्षाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीनां, नवलक्षाणि चाऽन्तरम् ॥ २८६॥ ___ कौशाम्ब्यां धर-सुसीमामनुः पद्मप्रभोऽरुणः। त्रिंशत्पूर्वलक्षायुष्कः, सार्द्धधन्वशतद्वयः ॥२८॥ षोडशपूर्वाङ्गन्यूनो, पूर्वलक्षोऽस्य तु व्रते । अब्धिकोटिसहस्राणां, नवतिः पुनरन्तरम् ॥ २८८॥ __ वाराणस्यां तु प्रतिष्ठ-पृथ्वीमनुः सुवर्णरुक् । सुपाश्चों विंशतिपूर्वलक्षायुर्द्विधनुःशतः ॥ २८९ ॥ विंशत्यङ्गविहीनोऽस्य, पूर्वलक्षो व्रते पुनः । सागरोपमकोटीनां, सहस्राणि नवाऽन्तरम् ॥ २९० ॥ चन्द्रानने महासेन-लक्ष्मणाभूः शशिप्रभः । दशपूर्वलक्षायुष्कः, शुभ्रः सार्धधनुःशतः ॥२९शा चतुर्विंशत्यङ्गहीना, पूर्वलक्षाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीनां, शतानि नव चाऽन्तरम् ॥ २९२ ॥ ___ काकन्द्यां सुग्रीव-रामातनयः सुविधिः सितः। पूर्वलक्षद्वयायुष्क, एकधन्वशतोच्छ्रयः ॥२९३॥ अष्टाविंशत्यङ्गहीना, पूर्वलक्षाऽस्य तु व्रते । सागरोपमकोटीना, नवतिः पुनरन्तरम् ॥ २९४ ॥ ___ शीतलो भद्रिलपुरे, नन्दा-दृढरथात्मजः । स्वर्णाभः पूर्वलक्षायुर्धनुर्नवतिमुच्छ्रितः॥ २९५ ॥ अमुष्य तु व्रते पूर्वसहस्राः पञ्चविंशतिः । अन्तरं तु सरिनाथोपमानां कोटयो नव ॥ २९६ ॥ सिंहपुरे विष्णुराज-विष्ण्वोः सूनुः सुवर्णरुक् । श्रेयांसस्तु जिनोऽशीतिशरासनसमुन्नतिः॥२९७॥ वर्षाणां चतुरशीत्या, लक्षैः प्रमितजीवितः । अमुष्य तु व्रते वर्षलक्षाणामेकविंशतिः॥ २९८॥ पविशत्याऽब्दसहस्रैः, षषष्ट्या वर्षलक्षकैः । तथाऽर्णवशतेनोनाऽर्णवकोटिर्जिनान्तरम् ॥ २९९ ॥ चम्पापुयों वासुपूज्यो, वसुपूज्य-जयात्मजः। द्वासप्तत्यब्दलक्षायुर्धनुःसप्ततिमुन्नतः॥३०॥ रक्तोऽस्य चतुःपञ्चाशद्वर्षलक्षाणि तु व्रतम् । तथा सागरोपमाणां, चतुःपञ्चाशदन्तरम् ।। ३०१॥ ॥१५९॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम्पिल्ये च कृतवर्म-श्यामाभूर्विमलो जिनः । पष्टिवत्सरलक्षायुः, पष्टिधन्वा सुवर्णरुक् ॥३०२॥ अमुष्य च पञ्चदश वर्षलक्षाणि तु व्रतम् । वासुपूज्यान्ततन्मोक्षान्तरे च त्रिंशदर्णवाः ॥३०३॥ अयोध्यायां सिंहसेन-सुयशोभूः सुवर्णरुक् ।अनन्तस्त्रिंशल्लक्षाब्दायुः पञ्चाशद्धनून्नतिः॥३०४॥ सार्दानि वर्षलक्षाणि, सप्त तस्य पुनर्वतम् । विमलमोक्षतन्मोक्षान्तरे च नव सागराः ॥ ३०५॥ धर्मो रत्नपुरे भानु-सुव्रताभूः सुवर्णरुक् । दशाब्दलक्षायुः पञ्चचत्वारिंशद्धनूनतिः ॥ ३०६॥ पर्यायस्तस्य वर्षाणां, सार्द्ध लक्षद्वयं खलु । अनन्तमोक्षतन्मोक्षान्तरेऽर्णवचतुष्टयम् ॥ ३०७॥ पुरे गजपुरे शान्तिर्विश्वसेना-चिरासुतः । स्वर्णवर्णोऽब्दलक्षायुश्चत्वारिंशद्धनूनतिः॥३०८॥ पञ्चविंशतिरब्दानां, सहस्राण्यस्य तु व्रते । अब्धित्रयं पल्यचतुर्भागत्रिकोनमन्तरम् ॥ ३०९ ॥ ___ कुन्थुर्गजपुरे स्वर्णवर्णः सूर-श्रियोः सुतः । पञ्चनवत्यब्दसहस्रायुः पल्यार्द्धकान्तरः ॥ ३१०॥ पञ्चत्रिंशद्धनुस्तुङ्गः, पर्यायेऽस्य तु वत्सराः । त्रयोविंशतिसहस्राः, सार्द्धसप्तशतानि च ॥ ३११॥ __ स्वर्णाभोऽरो गजपुरे, देवी-सुदर्शनात्मजः । चतुरशीत्यब्दसहस्रायुस्त्रिंशद्धनून्नतिः ॥ ३१२ ॥ पर्याये तस्य वर्षाणां, सहस्राण्येकविंशतिः। पल्यतुर्याशोऽब्दकोटिसहस्रोनो जिनान्तरम् ॥ ३१३॥ __ मल्लिनाथो मिथिलायां, कुम्भ-प्रभावतीप्रसूः । पञ्चविंशतिधन्वाऽब्दकोटीसहस्रकान्तरः ॥३१४॥ नीलोऽस्याऽब्दसहस्राणि, पञ्चपञ्चाशदायुपि । एकवर्षशतोनानि, पूर्वोक्ताब्दानि तु व्रते ॥३१५॥ पद्मा-सुमित्रसू राजगृहे कृष्णस्तु सुव्रतः। त्रिंशद्वर्षसहस्रायुधनुर्विंशतिमुन्नतः ॥ ३१६ ॥ सप्तवर्षसहस्राणि, सार्द्धान्येतस्य तु व्रतम् । चतुष्पश्चाशदब्दानां, लक्षाणि तु जिनान्तरम् ॥३१७ ॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१६०॥ सगे: ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम् । |चक्रवर्तिनः । मिथिलायां स्वर्णवर्णो, वप्रा-विजयभूमिः । दशवर्षसहस्रायुः, पञ्चदशधनूनतिः ॥३१८ ॥ समासहस्रद्वितयं, सार्द्धमेतस्य तु व्रतम् । मोक्षान्तरं मुनिनम्योर्वर्षलक्षाः षडेव हि ॥३१९ ॥ ___ *शिवा-समुद्रविजयात्मजः शौर्यपुरे शितिः । नेमिर्दशधनुस्तुङ्गः, समासहस्रजीवितः ॥३२०॥ शतानि सप्त वर्षाणां, प्रव्रज्यायाममुष्य तु । मुक्त्यन्तरे नमिनेम्योर्वर्षलक्षाणि पश्च तु ॥ ३२१॥ वामा-ऽश्वसेनभूः पाश्चों, वाराणस्यां विनीलरुक् । नवहस्तप्रमाणाङ्गः, शतवत्सरजीवितः॥३२२॥ वर्षाणां सप्ततिस्तस्य, व्रतेऽन्तरे तु वत्सराः । सहस्राणि त्र्यशीतिः सार्दानि सप्तशतानि च ॥ ३२३ ॥ ___ कुण्डग्रामे महावीरः, सिद्धार्थ-त्रिशलासुतः । स्वर्णाभः सप्तहस्ताङ्गो, द्वासप्तत्यब्दजीवितः ॥३२४॥ द्वाचत्वारिंशदब्दानि, प्रव्रज्यायाममुष्य च । पार्श्ववीरान्तरालं तु, सार्द्ध वर्षशतद्वयम् ॥ ३२५॥ काश्यपाश्चक्रिणः स्वर्णवर्णा अष्टेषु मोक्षगाः। त्वं मयीवाऽजिते तत्राऽयोध्यायां सगरः खलु ॥३२६॥ तुक सुमित्र-यशोमत्योः, सार्द्धधन्वचतुःशतः । द्वासप्तत्या पूर्वलक्षैः, स तु प्रमितजीवितः ॥ ३२७॥ श्रावस्त्यां मघवा भद्रा-समुद्रविजयात्मजः । पञ्चाब्दलक्षायुः सार्द्धद्विचत्वारिंशधन्वकः ॥ ३२८॥ सनत्कुमारोऽब्दलक्षत्रयायुर्हस्तिनापुरे । प्राग्मानादेकधन्वोनः, सहदेव्यश्वसेनभूः ॥ ३२९॥ धर्मशान्त्यन्तरे चैतौ, तृतीयस्वर्गगामिनौ । शान्तिः कुन्थुररश्चैतेर्हन्तश्चक्रभृतोऽपि च ॥ ३३०॥ तारा-कृतवीर्यसुतः, सुभूमो हस्तिनापुरे । षष्टिवर्षसहस्रायुरष्टाविंशिधनून्नतिः॥ ३३१ ॥ * इमौ द्वौ ३२०, ३२१ तमौ श्लोकौ खं पुस्तके नोपलभ्यते ॥ १ श्यामवर्णः । । वर्षाणि खंता ॥ व्रतेऽगादन्तरे पुनः हासं २, आ, दीक्षायामन्तरे पुनः सं ॥ २ काश्यपगोत्रिणः । ३ पुत्रः । ॥१६॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरमल्यन्तरे भावी, सप्तमं नरकं गमी । वाराणस्यां पुनः पद्मो, ज्वाला - पद्मोत्तरात्मजः ॥३३२॥ त्रिंशद्वर्षसहस्रायुर्धनुर्विंशतिमुच्छ्रितः । काम्पिल्ये हरिषेणस्तु, मेरा महाहरिप्रसूः ॥ ३३३ ॥ दशवर्षसहस्रायुः, पञ्चदशधनून्नतिः । मुनिर्नम्योर्विहरतोर्द्वावप्येतौ भविष्यतः ॥ ३३४ ॥ वप्रा विजयभू राजगृहे द्वादशकार्मुकः । जयख्यब्दसहस्रायुर्नमिनेमिजिनान्तरे ॥ ३३५ ॥ काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्तु, चुलनी ब्रह्मनन्दनः । सप्तवर्षशतायुष्कः, सप्तधन्वसमुन्नतिः ॥ ३३६ ॥ श्री नेमिनाथ श्री पार्श्वनाथतीर्थान्तरे त्वसौ । रौद्रध्यानपरो गामी, सप्तमीं नरकावनीम् ॥ ३३७ ॥ तत्र प्रभुपृष्टोऽपीत्याख्यच्चत्र्यर्द्धविक्रमाः । त्रिखण्डावनिभोक्तारो, वासुदेवा नवाऽसिताः ॥ ३३८ ॥ अष्टमः काश्यपकुलस्तेषु शेषास्तु गौतमाः । सापत्ना भ्रातरस्तेषां बलदेवाः सिता नव ॥ ३३९ ॥ त्रिपृष्टः केशवस्तत्र, नगरे पोतनाह्वये । प्रजापति-मृगावत्योः, सुतोऽशीतिधनून्नतिः ॥ ३४० ॥ महीं विहरमाणे तु, श्रेयांसजिनपुङ्गवे । चतुरशीत्यब्दलक्षायुरन्त्यं नरकं गमी ॥ ३४९ ॥ द्वारवत्यां द्विपृष्ठस्तु, धनुःसप्ततिमुन्नतः । भुवं विहरमाणे तु, वासुपूज्यजिनेश्वरे ॥ ३४२ ॥ द्वासप्ततिवर्ष लक्षायुः पद्मा ब्रह्मनन्दनः । गमिष्यति च सोऽवश्यं, षष्ठीं नरकमेदिनीम् ॥ ३४३ ॥ द्वारवत्यां स्वयम्भूस्तु, धनुःषष्टिसमुन्नतः । षष्टिवत्सरलक्षायुर्विमलस्वामिवन्दकः ॥ ३४४ ॥ भद्रराजस्य पृथिवीदेव्याचैष तनूरुहः । गमिष्यति च पूर्णायुः, षष्ठिकां नरकावनीम् ॥ ३४५ ॥ १] पद्माख्यश्वी । * नम्यन्तराले तु द्वा° खंता ॥ २ जयाख्यश्चकी । ३ कृष्णवर्णाः । ४ गौतमकुलाः । + इत आरभ्य ३४८ पर्यन्तं श्लोकाः संपुस्तके पतिताः ॥ वासुदेवाः । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१६१॥ Jain Education Internatio तस्यामेव नगर्यां तु, पुरुषोत्तम आख्यया । पञ्चाशत्कार्मुकोत्तुङ्गः, सोम-सीतातनूरुहः ॥ ३४६ ॥ वर्त्तमाने जिनेऽनन्ते, त्रिंशल्लक्षाब्दजीवितः । समाप्तायुरसौ षष्ठीं नरकोव गमिष्यति ॥ ३४७ ॥ अश्वपुरे तु पुरुषसिंहो नाम्ना भविष्यति । धर्मनाथजिने पञ्चचत्वारिंशद्धनुन्नतिः ॥ ३४८ ॥ शिवराजा-मृतानुर्वलक्षाण्यसौ दश । आयुरनुपाल्य पष्ठीं, नरकोवीं गमिष्यति ॥ ३४९ ॥ चक्रपुर्यां तु पुरुषपुण्डरीकोऽभिधानतः । अरमल्यन्तरे लक्ष्मीवती- महाशिरः सुतः ।। ३५० ।। एकोनत्रिंशतं चापानयमुन्नतविग्रहः । पञ्चषष्टिसहस्राब्दायुः षष्ठं नरकं गमी ।। ३५१ ॥ दत्तो वाराणसीपुर्यां षड्विंशतिधनुन्नतिः । जिनान्तरे तु तत्रैव, शेषवत्यग्निसिंहभूः ॥ ३५२ ॥ षट्पञ्चाशत्सहस्राणि वर्षाणामस्य जीवितम् । गमिष्यति च पूर्णायुः, पञ्चमीं नरकावनीम् ॥ ३५३ ॥ नारायण इति ख्यातः, पुरे राजगृहाह्वये । द्वादशाब्दसहस्रायुर्मुनिनम्यन्तरे त्वसौ ॥ ३५४ ॥ सुमित्रादशरथ भूर्धनुः षोडशकोन्नतिः । गमिष्यति च पूर्णायुस्तुरीयां नरकावनीम् ॥। ३५५ ॥ कृष्णस्तु मथुरापुर्या, देवकीवसुदेवभूः । वन्दिता नेमिनाथस्य, दशधन्वसमुच्छ्रयः ॥ ३५६ ॥ सहस्रमेकं वर्षाणामायुरस्य भविष्यति । ततो नरकमेदिन्यां तृतीयायां गमिष्यति ॥ ३५७ ॥ प्रथम वलदेवस्तु तत्र भद्रासुतोऽचलः । पञ्चाशीतिवर्ष लक्षाण्यायुरस्य भविष्यति ॥ ३५८ ॥ द्वितीयस्तु बलदेवो, भावी विजय आख्यया । सुभद्राभूः पञ्चसप्तत्यब्दलक्षाणि जीविता ।। ३५९ । तृतीयस्तु बलदेवो, भद्र इत्यभिधानतः । सुप्रभाभूः पञ्चपष्टिर्वर्षलक्षाणि जीविता ॥ ३६० ॥ * इमौ द्वौ ३५४, ३५५ तमौ श्लोकौ खंपुस्तके न दृश्येते । कैकेयीद खंता, सं १, २ ॥ प्रथमं पर्व षष्ठः सर्गः ऋषभजिन भरतचक्रि चरितम् । बलदेवाः । ॥१६१॥ . Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिवासुदेवाः । चतुर्थस्तु बलदेवः, सुप्रभो नामधेयतः । सौदर्शनेयोऽब्दपञ्चपञ्चाशल्लक्षजीवितः ॥ ३६१॥ पञ्चमो बलदेवस्तु, भावी नाम्ना सुदर्शनः । सप्तदशवर्षलक्षजीवितो विजयासुतः ॥ ३६२॥ षष्ठो बलो वैजयन्त्याः , सूनुरानन्द आख्यया । पञ्चाशीतिसहस्राणि, वर्षाणामस्य जीवितम् ॥ ३६३ ॥ सप्तमो बलदेवस्तु, नन्दनो नामधेयतः । पञ्चषष्टिसहस्राब्दायुर्जयन्तीसमुद्भवः॥ ३६४॥ अष्टमस्तु बलदेवः, पद्मोऽपराजितासुतः । पञ्चदश सहस्राणि, वर्षाणामस्य जीवितम् ॥ ३६५॥ नवमस्तु बलदेवो, राम इत्यभिधानतः । द्वादशाब्दशतायुष्को, रोहिणीतनुसम्भवः ॥ ३६६ ।। तत्राऽष्टौ मोक्षगा रामो, ब्रह्मकल्पं गमिष्यति । उत्सर्पिण्यां स भरते, कृष्णतीर्थे तु सेत्स्यति॥३६७॥ ___ अश्वग्रीवस्तारकश्च, मेरको मधुरेव च । निशुम्भ-बलि-प्रह्लाद-लकेश-मगंधेश्वराः॥३६८॥ वासुदेवप्रतिमल्लाः, सर्वे चक्रप्रहारिणः । हनिष्यन्ते निजैश्चर्वासुदेवकरङ्गतैः ॥ ३६९॥ श्रुत्वा तद् भरताधीशो, भव्यसत्त्वैः समाकुलाम् । दृष्ट्वा च तां सभा हुष्टः, पप्रच्छ स्वामिनं पुनः॥३७॥ जगत्रय इवैकत्र, सामस्त्येनापि तस्थुषि । तिर्यग्नरामरमये, सदसि त्रिजगत्पते ॥ ३७१ ॥ अत्र किं कश्चिदप्यस्ति, भगवन् ! भगवानिव ?। तीर्थ प्रवर्त्य भरतक्षेत्रं यः पावयिष्यति ॥३७२॥[युग्मम्]] शशंस भगवानेवं, य एष तव नन्दनः। मरीचिर्नामधेयेन, परिव्राजक आदिमः ॥ ३७३॥ आर्तरौद्रध्यानहीनः, सम्यक्त्वेन च शोभितः । ध्यायश्चतुर्विधं धर्मध्यानं च रहसि स्थितः ॥ ३७४ ॥ दुकूलमिव पङ्केन, निःश्वासेनेव दर्पणः । कर्मणा मलिनोऽमुष्य, जीवः सम्प्रति वर्त्तते ॥ ३७५ ॥ * सिद्धिगा खंता ॥ । सिद्धिं गमिष्यति । २ प्रतिवासुदेवाः । Jain Education Internal . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KIR प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाका. षष्ठः पुरुषचरिते ॥१६॥ सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । शुक्लध्यानाग्निसंयोगादग्निशौचमिवाऽशुकम् । जात्यं सुवर्णमिव च, स क्रमाच्छुद्धिमेष्यति ॥ ३७६ ॥ इहैव भरतक्षेत्रे, नगरे पोतनाभिधे । त्रिपृष्ठो नाम दाशार्हः, प्रथमोऽसौ भविष्यति ॥ ३७७॥ क्रमात् प्रत्यग्विदेहेषु, मूकायां पुरिचयसौ। तुग् धनञ्जय-धारिण्योः, प्रियमित्रो भविष्यति ॥३७८॥ चिरं च संसृत्य भवे, भविष्यत्यत्र भारते । अयं नाम्ना महावीरश्चतुर्विंशस्तु तीर्थकृत् ॥ ३७९ ॥ इति श्रुत्वा स्वाम्यनुज्ञामादाय भरतेश्वरः। मरीचिं वन्दितुं भक्त्या, भगवन्तमिवाऽभ्यगात् ॥३८॥ नाम्ना त्रिपृष्ठः प्रथमो, दाशार्हाणां भविष्यति । चक्रवती विदेहेषु, प्रियमित्राभिधश्च यत् ॥३८१॥ न तद् वन्दे न चेदं ते, पारिवाज्यं न जन्म च । किन्तु वन्दे चतुर्विंशो, यत् त्वमर्हन् भविष्यति॥३८२॥ इति बुवाणः शिरसि, बद्धाञ्जलिपुटस्ततः । तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, ववन्दे भरतेश्वरः॥ ३८३॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] अथ नत्वा जगन्नाथं, जगाम जगतीपतिः । अयोध्या नगरी नागराजो भोगवतीमिव ॥ ३८४ ॥ __ मरीचिस्तद्राि दृप्यंत्रिः करास्फोटपूर्वकम् । जातप्रमोदोऽभ्यधिक, वक्तुमेवं प्रचक्रमे ॥ ३८५ ॥ यद्याद्यो वासुदेवानां, विदेहेषु च चक्रभृत् । अन्त्योर्हन् भविताऽस्मीति, पूर्णमेतावता मम ॥३८६ ॥ पितामहोऽर्हतामाद्यश्चक्रिणां च पिता मम । दाशार्हाणामहं चेति, श्रेष्ठं कुलमहो! मम ॥ ३८७॥ त्रैलोक्यमेकतः सर्वमेकतश्च कुलं मम । एकतोऽन्यद् गजकुलं, यथैरावण एकतः ॥ ३८८ ॥ ग्रहेभ्य इव चण्डांशुरुडेभ्य इव चन्द्रमाः । सर्वेभ्योऽपि कुलेभ्यो मे, कुलमेकं प्रकृष्यते ॥ ३८९ ॥ १ पुत्रः। २ परिव्राजकत्वम् । ३ नागपुरीम् । ४ चरमतीर्थकरः श्रीमहावीरः। ५ नक्षत्रेभ्यः । मरीचेर्गवः। SHARABASEARSANSARSUSBASA ॥१६२॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एचमात्मकुलमदं कुर्वाणेन मरीचिना । लूतयेव पुटं नीचगोत्रं सूत्रितमात्मनः ॥३९॥ पुण्डरीकप्रभृतिभिर्वृतो गणधरैरथ । नाथोऽप्यचालीत प्रघुनन्, विहारव्याजतो महीम् ॥ ३९१॥ कृपया पुत्रवद् धर्मकौशलं कौशलान् नयन् । तपस्यमुग्धान् मगधान्, कुर्वन् परिचितानिव ।। ३९२ ॥ काशीन विकाशयन् पद्मकोशानिव दिवाकरः । आनन्दयन् दशार्णाश्चाऽर्णवानिव निशाकरः॥३९३ ॥ देशनासुधया चेदींश्चतयन् मूञ्छितानिव । मालवैर्मालयन धर्मधुरां वत्सतरैरिव ॥ ३९४ ॥ कुर्वन् पापविपन्नाशानिर्जरानिव गूर्जरान् । सौराष्ट्रान् पटयन् वैद्य, इव शत्रुञ्जयं ययौ ।। ३९५॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] विदेशमिव वैताढ्यं, क्वचिद् रूप्यशिलाचयैः । स्वर्णग्रावोच्चयैः क्वापि, मेरोस्तटमिवाऽऽहृतम् ॥३९६॥ क्वचिच्च रत्नखानीभी, रत्नाचलमिवाऽपरम् । क्वाऽप्यौषधीभिर्हिमाद्रिमिव स्थानान्तरस्थितम् ॥ ३९७ ॥ आमुक्तचोलकमिवाऽसक्तसंसक्तवारिदैः । स्कन्धावलम्बिसंव्यानमिव निर्झरवारिभिः ॥ ३९८ ॥ शिरोऽभ्यर्थजुषा सूर्येणोत्किरीटमिवाऽहनि । नक्तं च चन्दनरसतिलकाङ्कमिवेन्दुना ॥ ३९९ ॥ सहस्रमूर्द्धानमिव, शृङ्गैर्गगनरोधिभिः । अनेकदोर्दण्डमिव, तुङ्गैस्तालमहीरुहैः॥ ४०॥ नालिकेरीवनेषूच्चैः, पाकपिङ्गासु लुम्बिषु । निजापत्यभ्रमाद् वेगोत्पतत्प्लवगसङ्कलम् ॥ ४०१॥ चूतावचायसक्तानां, सौराष्ट्रहरिणीदृशाम् । आकर्ण्यमानमधुरगीतिकर्णितैर्मृगैः ॥ ४०२॥ १“करोलियो" इति भाषायाम् । २ पवित्रीकुर्वन् । ३ पापविपत्तिविनाशात् । ४ देवानिव । ५ फलगुच्छेषु । ६ आम्रावचयनासक्तानाम् । * मुत्कर्णकैz खंता, सं १ ॥ ONESCOCALORAMACREC ENE त्रिषष्टि. २८ For Private & Personal use only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१६३॥ उद्बुद्धसूचिच्याजेन, सञ्जातपलितैरिव । जरद्भिः केतकीवृक्षरशून्याधित्यकाभुवम् ॥ ४०३ ॥ स्थाने स्थाने सिन्दुवारैः, श्रीखण्डद्रवपाण्डुभिः । कृतसर्वाङ्गमङ्गल्यपुण्ड्रावलिमिवोच्चकैः ॥ ४०४ ॥ शाखास्थितगोलाङ्गललाङ्गुलजटिलीकृतैः । चिञ्चाद्रुमैरनुकृतप्लक्षन्यग्रोधपादपम् ॥ ४०५॥ सर्गः अद्भुतवपरीणाहसम्पदा मुदितैरिख । नित्यं कण्टकिलफलैः, पनसैरुपशोभितम् ॥४०६॥ ऋषभजिनश्लेष्मातकैरारात्रितमःसब्रह्मचारिभिः । अञ्जनाचलचूलाभिराहताभिरिवाऽङ्कितम् ॥ ४०७॥ है भरतचक्रिकिंशुकैः शुकचञ्चवदारक्तकुसुमर्द्धिभिः । शोभमानं महानागं, कुङ्कुमस्थासकैरिव ॥४०८॥ चरितम् । कापि द्राक्षाभवं वापि, खार्जूरं क्वापि तालजम् । मध्वापिबद्भिराबद्धगोष्ठीकं शबरीजनैः ॥ ४०९॥ अभेद्यैरककिरणेषणामस्खलतामपि । सन्नाहमिव बिभ्राणं, ताम्बूलीवनमण्डपैः ॥४१०॥ शत्रुञ्जयतीथे आर्द्राकुराखाव्सुहितैर्मृगमण्डलैः । आवध्यमानरोमन्थं, महाविटपिनां तले ॥ ४११॥ ऋषभप्रभुः। सहकारफलास्वादमग्नचऋपुटैश्विरम् । शुकैर्निरन्तरर्जात्यवेड्यैरिव मण्डितम् ॥ ४१२॥ केतकी-चम्पका-ऽशोक-कदम्ब-बकुलोद्भवैः । परागैः पवनोद्भूतै, रजस्खलशिलातलम् ॥ ४१३ ॥ पान्थसार्थास्फाल्यमाननालिकेरीफलाम्भसा । परितः पङ्किलीभूतोपत्येकातटभूतलम् ॥ ४१४ ॥ भद्रशालप्रभृतीनां, मध्याद् वैशाल्यशालिना । वनेनैकतमेनेव, तरुखण्डेन मण्डितम् ॥ ४१५॥ पञ्चाशद्योजनं मूले, शिखरे दशयोजनम् । तमष्टयोजनोत्सेधमारुरोह गिरिं प्रभुः॥ ४१६ ॥ ॥१६३॥ [एकविंशत्या कुलकम् ] | अशून्यपर्वतोपरिसमभूमिकम् । २ वृक्षविशेपैः।३ कपयः । ४ अम्लिकावृक्षैः । ५विसारः। अमावास्यारात्रितमःसमानैः । ७महागजम् । * °दमुदितैर्मू सं १॥ आबध्यमानचर्वितचर्वणम् । ९ आसन्नभूमिः। 10 विशालत्वशोभिना। ११ अष्टयोजनोच्छ्रितम् । For Private & Personal use only . Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र सद्योऽपि समवसरणे सुरनिर्मिते । सर्वीयो भगवानासाश्चक्रे चक्रे च देशनाम् ॥ ४१७ ॥ गम्भीरया गिरा भर्तुर्विदधानस्य देशनाम् । अनूवादेव स गिरिगह्वरोत्थैः प्रतिस्वनैः॥ ४१८॥ वृष्टेरिव पयोवाहः, प्रावृषि त्रिजगत्पतिः । गतायामथ पौरुष्यां, व्यरंसीद् देशनाविधेः॥ ४१९ ॥ उत्थाय च ततः स्थानान्मध्यप्राकारमण्डले । देवच्छन्दे देवदेवो, न्यषीदद् देवनिर्मिते ॥ ४२०॥ ततश्च स्वामिनः पादपीठे गणधराग्रणीः । श्रीपुण्डरीको न्यपदत , सम्राजो युवराडिव ॥ ४२१ ॥ तथैव हि निषेदुष्यां, सभायां गणभृद्वरः । भगवल्लीलया धर्मदेशनां विदधेतराम् ।। ४२२ ॥ सोऽपि द्वितीयपौरुष्यां, पारयामास देशनाम् । अवश्यायसुधासेकं, समीरण इव प्रेगे ॥ ४२३ ॥ एवं सत्त्वोपकाराय, कुर्वाणो धर्मदेशनाम् । कञ्चित् कालं तत्र तस्थावष्टापद इव प्रभुः॥४२४ ॥ अन्यतश्च प्रतिष्ठासुरपरेबुर्जगद्गुरुः । गणभृत्पुण्डरीकं तं, पुण्डरीकं समादिशत् ॥ ४२५॥ . महामुने! प्रयास्यामो, विहत्तुं वयमन्यतः । गिरौ तिष्ठ त्वमत्रैव, मुनिकोटिभिरावृतः॥४२६ ॥ अत्र क्षेत्रानुभावेन, भवतोऽचिरकालतः । ज्ञानं सपरिवारस्योत्पत्स्यते केवलं खलु ॥ ४२७॥ इहैव शैले शैलेशीध्यानमासेदुषस्तव । परिवारसमेतस्याऽचिरान्मोक्षो भविष्यति ॥ ४२८ ॥ तथेति स्वामिनो वाचं, प्रतिपद्य प्रणम्य च । तत्रैव सोऽस्थाद् गणभृत् , सहैव गणकोटिभिः ॥ ४२९ ॥ तीरगर्तेषु रत्नौघमुद्वेल इव वारिधिः । मुक्त्वा तं तत्र नाथोऽगादन्यतः सपरिच्छदः॥ ४३०॥ पुण्डरीकः स्थितस्तत्र, पर्वते मुनिभिः समम् । उदयाद्रितटे सार्द्धमौखि निशाकरः ॥ ४३१ ॥ १सर्वहितकारी ।२ विरामं प्राप्तवान् । ३ मण्डलेश्वरस्य । ४ हिमामृतसिञ्चनम् । ५ प्रातःकाले । ६ प्रस्थातुमिच्छुः। ७ नक्षत्रैः। Jain Education Intel Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते सगे: ॥१६४॥ ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ततः परमसंवेगावेगान्मधुरया गिरा । पुण्डरीको गणधरः, श्रमणानित्यभाषत ॥ ४३२॥ गिरिः क्षेत्रप्रभावेण, सोऽयं सिद्धिनिबन्धनम् । जिगीषूणां दुर्गमिव, सीमान्तावनिसाधकम् ॥ ४३३ ॥ कार्या संलेखना मुक्तेः, साधनान्तरमप्यहो! । भवति द्विविधा सा तु, द्रव्यभावविशेषतः ॥४३४॥ सर्वोन्मादमहारोगनिदानानां समन्ततः । शोषणं सर्वधातूनां, द्रव्यसंलेखना मता ॥ ४३५॥ यो रागद्वेषमोहानां, कषायाणां च सर्वतः । नैसर्गिकद्विषां छेदो, भावसंलेखना तु सा ॥ ४३६ ॥ इत्युदित्वा पुण्डरीकः, समं श्रमणकोटिभिः । सर्वानालोचयामासाऽतीचारान् सूक्ष्मबादरान् ॥ ४३७॥ महाव्रतारोपणं च, भृयश्चक्रेऽतिशुद्धये । क्षौमस्य क्षालनं द्विविद्यतिनैर्मल्यकारणम् ॥ ४३८ ॥ जीवाः क्षाम्यन्तु सर्वे मे, तेषां च क्षान्तवानहम् । मैत्री मे सर्वभूतेषु, वैरं मम न केनचित् ॥ ४३९ ॥ इत्युक्त्वा भवचरम, निराकारं सुदुष्करम् । प्रतिपेदे सोऽनशनं, समस्तश्रमणैः समम् ॥ ४४०॥ क्षपकश्रेणिमारूढस्याऽत्रुट्यनभितोऽपि हि । घातीनि कर्माणि तस्यौजखिनो जीर्णरज्जुवत् ॥ ४४१॥ साधूनां कोटिसङ्खयानां, तेषामपि हि तुत्रुटुः । सद्यो घातीनि कर्माणि, सर्वसाधारणं तपः॥४४२॥ मासान्ते चैत्रराकायां, पुण्डरीकस्य केवलम् । ज्ञानं बभूव प्रथम, पश्चात् तेषां महात्मनाम् ॥ ४४३॥ शुक्लध्याने स्थितास्तूर्ये, निर्योगे ते च योगिनः । प्रक्षीणाशेषकर्माणो, निर्वाणपदवीं ययुः ॥ ४४४ ॥ समागत्य दिवो देवा, मरुदेव्या इव क्षणात् । भक्त्या विदधिरे तेषां, निर्वाणगमनोत्सवम् ॥ ४४५॥ भगवानृषभस्वामी, प्रथमस्तीर्थकुद् यथा । तथाऽभूत् प्रथमं तीर्थ, शत्रुञ्जयगिरिस्तदा ॥ ४४६॥ १ वस्त्रस्य । २ चैत्रपूर्णिमायाम् । ३ पारे । द्रव्य-भावसंलेखना। पुण्डरीकगणभृतो निर्वाणम् । ॥१६॥ Jain Education inte For Private & Personal use only . Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्रैकोऽपि यतिः सिध्येत् , तीर्थ तदपि पावनम् । किं पुनर्यत्र तावन्तः, सिपिधुस्ते महर्षयः ॥४४७॥ अथ शत्रुञ्जयगिरौ, चैत्यं रत्नशिलामयम् । अकारयन्मेरुचूलाग्रस्पर्द्धि भरतेश्वरः ॥ ४४८॥ पुण्डरीकप्रतिमया, सहितां प्रतिमा प्रभोः । चेतनामिव चेतोऽन्तस्तन्मध्येऽस्थापयन्नृपः ॥ ४४९ ॥ नानादेशेषु विहरन् , भविनो भगवानपि । अन्वग्रहीद् बोधिदानाच्चक्षुर्दानादिवाऽन्धलान् ॥ ४५० ॥ प्रभोराकेवलज्ञानाच्छ्रमणानां तु जज्ञिरे । चतुरशीतिसहस्राः, साध्वीलक्षत्रयं तथा ॥ ४५१॥ स पश्चाशत्सहस्रं तु, श्राद्धलक्षत्रयं तथा । श्राद्धीलक्षाः पञ्च सार्दाश्चतुःसहस्रसंयुताः ॥ ४५२ ॥ सहस्राणि तु चत्वारि, तथा सप्त शतानि च । पश्चाशदधिकान्यासन् , श्रीचतुर्दशपूर्विणाम् ॥ ४५३ ॥ *अवधिज्ञानिसाधूनां, सहस्राणि नवाऽभवन् । केवलज्ञानिसाधूनां, सहस्राणि तु विंशतिः ॥ ४५४ ॥ जातवैक्रियलब्धीनां, श्रमणानां महात्मनाम् । षट्शताभ्यधिकान्यासन , सहस्राणि तु विंशतिः॥४५५॥ पृथक् पृथग वादिनां च, मनःपर्ययिणां तथा । द्वादशाऽऽसन् सहस्राणि, सपश्चाशच पदशती ॥४५६ ॥ अनुसरविमानोपपातिनां च महात्मनाम् । द्वाविंशतिसहस्राणि, चाऽभवन् भुवनप्रभोः ॥ ४५७ ॥ एवं चतुर्विधं सङ्घ, भगवानादितीर्थकृत् । धर्मे संस्थापयामास, व्यवहार इव प्रजाः ॥ ४५८ ॥ दीक्षाकालात् पूर्वलक्षं, क्षपयित्वा ततः प्रभुः । ज्ञात्वा स्वमोक्षकालं च, प्रतस्थेऽष्टापदं प्रति ॥४५९॥ शैलमष्टापदं प्राप, क्रमेण सपरिच्छदः । निर्वाणसौधसोपानमिवाऽऽरोहच्च तं प्रभुः ॥ ४६॥ हमी द्वौ ४५४-४५५ तमौ श्लोकौ खंपुस्तके नोपलभ्येते । पिर्यायिणां सं १, २॥ द्वादश सहस्राणि सचतु-1 विशतिपट्शतीं सं० १॥ मोक्षप्रासादसोपानम् । Jan Education International For Private & Personal use only . Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व षष्ठः त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१६५॥ सगे ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । समं मुनीनां दशभिः, सहस्रैः प्रत्यपद्यत । चतुर्दशेन तपसा, पादपोपगमं प्रभुः ॥ ४६१ ॥ तस्थिवांसं तथा विश्वनाथं पर्वतपालकाः । आशु विज्ञापयामासुर्गत्वा भरतचक्रिणे ॥ ४६२॥ प्रभोश्चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं निशम्य सः । शोकेन शङ्कनेवान्तःप्रविष्टेन व्यबाध्यत ॥ ४६३ ॥ ततोऽकृशेन संस्पृष्टः, सद्यः शोककृशानुना । तरुः सिमिसिमा विन्दनिवाऽश्रुणि मुमोच सः॥४६४ ॥ सान्तःपुरपरीवारो, दुरासुखपीडितः । प्रतस्थे पादचारेण, प्रत्यष्टापदमार्षभिः ॥ ४६५ ॥ नाजीगणत् कर्करान् स, कर्कशानपि पादयोः । वेद्यते वेदना नैव, हर्षेणेव शुचापि यत् ॥ ४६६॥ अक्षरन् रक्तधाराश्च, पदोः कर्करदूनयोः । आसीच्चालक्तकाङ्केच, तस्याशिन्यासपद्धतिः ॥ ४६७ ॥ अवाजगणदुर्वीशो, जनान् यानोपनायिनः । आरोहणक्षणेनापि, मा भृद् विघ्नो गतेरिति ॥४६८॥ आतपत्रे शिरःस्थेऽपि, तप्ततप्तो जगाम सः। न तापो मानसो जातु, सुधावृष्ट्यापि शाम्यति ॥४६९॥ शुंग्विहस्तो हस्तदातृनपहस्तयते स सः । मार्गे विलगतः शाखिशाखाप्रान्तानिवोच्चकैः ॥ ४७०॥ अग्रेसरान् वेत्रधरानपि पश्चाच्चकार सः । स्यात् तरीव तीरद्रून् , सरिदायामगामिनी ॥४७१॥ पदे पदे स्खलन्तीश्च, वेगाच्चामरधारिणीः । चक्री प्रतीक्षाञ्चके न, चित्तवद् गन्तुमुत्सुकः ॥ ४७२ ॥ उच्छल्योच्छल्य वेगेनोरःस्थलास्फालनमुहुः । विशीर्णमपि नाज्ञासीन्मुक्ताहारं महीपतिः॥४७३॥ प्रभौ गतमनस्कत्वात् , पार्श्वस्थानप्यजूहवत् । भूयः प्रष्टुं स्वामिवात्ता, वेत्रिणा गिरिपालकान् ॥ ४७४॥ नाऽपश्यत् किश्चिदप्यन्यन्नाऽशृणोत् कस्यचिद् वचः। दध्यौ स प्रभुमेवैकं, ध्यानस्थ इव योगवित्॥४७५॥ कीलेन । * प्रतिष्ठेन खंता, खं ॥२ महता। ३ शोकाग्निना । ४ अत्यन्तदुःखपीडितः । ५ कठोरान् । ६ अतितप्तः । ७ शोकेन बिलः । ८ नाविका । । योगिवत् सं १, २॥ ऋषभप्रभोनिर्वाणम् । ॥१६५॥ . Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुकुर्वन्निवाऽध्वानं, रंहसा भरतेश्वरः । समीरण इव प्राप, क्षणेनाऽष्टापदाचलम् ॥ ४७६ ॥ परिश्रममजानानो, जनवत् पादचायपि । अध्यारुरोह भरतस्ततोऽष्टापदपर्वतम् ॥ ४७७ ॥ ईक्षाञ्चक्रे चक्रवर्ती, शोकहर्षसमाकुलः । तत्र च त्रिजगन्नाथं, पर्यङ्कासनसंस्थितम् ॥ ४७८ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य, वन्दित्वा च जगत्पतिम् । देहच्छायेव पार्श्वस्थः, समुपास्ते स चक्रभृत् ॥ ४७९ ॥ इत्थं स्थिते प्रभावतेऽप्यसासु कथमासते ? । इति हेतोरिवेन्द्राणामासनानि चकम्पिरे ॥ ४८०॥ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वाऽऽसनकम्पस्य कारणम् । इन्द्रा जिनेन्द्रमभ्येयुश्चतुःषष्टिरपि द्रुतम् ॥ ४८१॥ तेऽपि प्रदक्षिणीकृत्य, जगन्नाथं प्रणम्य च । विषण्णाश्च निषण्णाश्च, तस्थुरालिखिता इव ॥४८२॥ तथाऽस्यामवसर्पिण्यां, तृतीयस्याऽरकस्य तु । पक्षेष्वेकोननवताववशिष्टेषु सत्सु च ॥ ४८३ ॥ माघाभिधानमासस्य, कृष्णत्रयोदशीतिथौ । पूर्वाह्नेऽभीचिनक्षत्रे, शशियोगमुपागते ॥ ४८४ ॥ तथा निषण्णः पर्यङ्कासने स्थित्वा च बादरे । काययोगे बादरौ वाक्चित्तयोगौ रुरोध च ॥ ४८५॥ सूक्ष्मेण काययोगेन, काययोगं च बादरम् । रुद्वा रुरोध मूक्ष्मौ च, योगौ वाक्चित्तलक्षणौ ॥ ४८६॥ इति सूक्ष्मक्रियं नाम, शुक्लध्यानं तृतीयकम् । अस्तसूक्ष्मतनूयोगं, क्रमात् प्रभुरसाधयत् ॥ ४८७॥ ततश्च ध्यानमुँच्छन्नक्रियं नाम तुरीयकम् । पञ्चहखाक्षरोच्चारमितकालमशिश्रियत् ॥ ४८८ ॥ सर्वदुःखपरित्यक्तः, केवलज्ञानदर्शनी । क्षीणकर्मा निष्ठितार्थोऽनन्तवीर्यसुखर्द्धिकः ॥ ४८९ ॥ बन्धाभावार्ध्वगतिरेरण्डफलबीजवत् । प्रभुः खभावादृजुना, पथा लोकाग्रमासदत् ॥ ४९०॥ * ° मुत्सन्न सं १ ॥ १ अ इ उ ऋ ल इति पञ्चहस्वाक्षरोच्चारे यावान् कालो जायते तावत्कालमितं कालम् । शैलेशी करणम्। Jain Education inte For Private & Personal use only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टि शलाकासुरुषचरिते १६६॥ सगे: ऋषभजिन| भरतचक्रि चरितम् । प्रपन्नानशनास्तेऽपि, संहस्रा वतिनां दश । क्षपकश्रेणिमारूढाः, सर्वेऽप्युत्पन्न केवलाः ॥ ४९१ ॥ मनोवचनकायानां, योगं रुद्धा च सर्वतः । क्षणादासादयामासुः, स्वामिवत् परमं पदम् ॥ ४९२ ॥ स्वामिनिर्वाणकल्याणानिर्वाणो दुःखपावकः । अदृष्टसुखलेशानां, नारकाणामपि क्षणम् ॥ ४९३ ॥ महाशोकसमाक्रान्तश्चक्रवर्ती तु तत्क्षणम् । पपात मूछितः पृथ्व्यां, वज्राहत इवाञ्चलः ॥ ४९४ ॥ महत्यप्यागते दुःखे, दुःखशैथिल्यकारणम् । विदाञ्चकार रुदितं, न कश्चिदपि यत् तदा ॥ ४९५॥ दुःखशैथिल्यहेतुं तच्चक्रिणोऽज्ञापयत् स्वयम् । शक्रश्चकार रुदितं, महापूत्कारपूर्वकम् ॥ ४९६ ॥ अनु सङ्क्रन्दनं चक्रे, क्रन्दनं त्रिदशैरपि । समा हि समदुःखानां, चेष्टा भवति देहिनाम् ॥ ४९७ ॥ तेषां च रुदितं श्रुत्वा, संज्ञामासाद्य चयपि । उच्चैःस्वरेण चक्रन्द, ब्रह्माण्डं स्फोटयन्निव ॥ ४९८॥ रुदितेनाऽस्फुटद् राज्ञः, शोकग्रन्थिमहानपि । पालीबन्धो महास्रोतोरंहसेव महीयसा ।। ४९९ ॥ सुरासुरमनुष्याणां, रुदितै रुदितैस्ततः । त्रैलोक्ये करुणरस, एकच्छत्र इवाऽभवत् ॥५०॥ ततः प्रभृति लोकेऽपि, देहिनां शोकसम्भवे । रोदनाधा प्रववृते, शोकशल्यविशल्यकः॥५०१॥ नैसर्गिकमपि त्यक्त्वा, धैर्य भरतभूपतिः । दु:खितो विललावं, तिरश्चोऽपि हि दुःखयन् ॥५०२॥ हा तात ! हा जगद्वन्धो !, हा कृपारससागर ! । अज्ञानिह भवारण्ये, त्यक्तवानसि नः कथम् ॥५०३॥॥ अम्लानकेवलज्ञानप्रकाशेन विना त्वया । तमसीव ऋते दीपं, स्थास्यामोत्र कथं भवे ॥५०४॥ छनस्थस्येव ते मौनं, किमेतत् परमेश्वर ! ?। कुरुष्व देशनां नाऽनुगृह्णासि किममुं जनम् ॥५०५॥ * सहस्राणि दशर्षयः खंता ॥ १ महाप्रवाहवेगेन । २ रोदनमार्गः । ऋषभप्रभो निर्वाणम् । ॥१६६॥ Jain Education Intern For Private & Personal use only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाग्रमथवाज्यासीभगवन् ! भाषसे न यत् ।आभाषन्ते दुःखितं मां, तेऽपि मद्वन्धवो न किम् ? ॥५०६॥ हुं ज्ञातमथवा ते हि, सदा स्वाम्यनुगामिनः । स्वामिनोऽननुगो नास्ति, मत्कुले मां विनाऽपरः ॥५०७॥ तातो जगत्रयत्राता, बाहुबल्यादयोऽनुजाः । स्वसारौ ब्राह्मीसुन्दौ , पुण्डरीकादयः सुताः॥५०८॥ श्रेयांसाद्याश्च नप्तारो, हत्वा कैर्मद्विषोऽखिलान् । ययुलोकाग्रमद्यापि, जीवामि प्रियजीवितः॥५०९॥ शोकाजीवितनिर्विणं, मुमघुमिव चक्रिणम् । दृष्ट्वा बोधयितुमिति, प्रारेभे पार्कशासनः ॥५१॥ भरतेश! महासत्त्व!, खाम्यसौ तावदावयोः। संसाराम्भोधिमतरत् , तारयामास चाऽपरान् ॥५११॥ एतत्कृतेन तीर्थेन, तीर्थेनेवे महानदीम् । उत्तरिष्यन्ति संसारं, चिरं संसारिणोऽपरे ॥५१२ ॥ कृतकृत्यः स्वयं ह्येष, भगवानपरानपि । कृतकृत्यान् जनान् कर्तु, पूर्वलक्षमवास्थित ॥ ५१३ ॥ अनुगृह्याखिलं लोकं, स्थानं तदपुनर्भवम् । आसेदुषो जगद्भर्त, राजन् ! किं नाम शोचसि ॥५१४॥ प्रत्यँ यो योनिलक्षेषु, महादुःखैकवेश्मसु । अनेकशः सञ्चरति, परासुः स हि शोच्यते ॥ ५१५॥ तत् किं न लजसे शोचन् , प्रभावन्यजनेष्विव ? । शोचितुः शोचनीयस्य, चोभयोरपि नोचितम् ॥५१६॥ एकदापि हि योऽश्रौषीत , स्वामिनोधर्मदेशनाम् । न सोऽपि शोकहर्षाभ्यां, जीयते किं पुनर्भवान् ॥५१७।। महाम्भोधेरिव क्षोभः, कम्पो मेरुगिरेरिव । उद्वर्त्तनमिवाऽवन्याः, कुलिशस्येव कुण्ठता ॥ ५१८ ॥ पीयूषस्येव वैरेस्यमनुष्णांशोरिवोष्णता । असम्भाव्यं महीनाथ!, तवेदं परिदेवनम् ॥५१९॥ [युग्मम् ] १ पौत्राः। २ कर्मशत्रून् । ३ मर्तुमिच्छुम् । ४ इन्द्रः। ५ जलावतारमार्गेण । ६ मोक्षस्थानम् । ७ मृत्वा । ८ मृतः ६९रसराहित्यम् । १० चन्द्रस्य । ११ विलापः । For Private & Personal use only 456 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१६७॥ सर्गः ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम्। धीरो भव धराधीश, विद्ध्यात्मानं यदीशितुः । जगत्रयैकधीरस्य, तनयस्तस्य नन्वसि ॥ ५२०॥ गोत्रवृद्धेनेव वृद्धश्रवसैवं प्रबोधितः । आललम्बे नृपो धैर्य, सहजं शैत्यमम्बुवत् ॥ ५२१॥ अथ स्वाम्यङ्गसंस्कारोपस्कराहरणे द्रुतम् । आदिदेश शुनासीरखिदशानाभियोगिकान् ॥ ५२२॥ ततः सङ्कन्दैनादेशान्नन्दनोद्यानतः क्षणात् । गोशीर्षचन्दनैधांसि, समानिन्युर्दिवौकसः ॥ ५२३ ॥ इन्द्रादेशादथैन्यां ते, खामिदेहस्य हेतवे । वृत्तामारचयामासुश्चितां गोशीर्षचन्दनैः॥५२४ ॥ कृते तथा महर्षीणामिक्ष्वाकुकुर्लजन्मनाम् । दिशि व्यधुर्दक्षिणस्यां, व्यस्राकारां चितां सुराः॥५२५॥ अन्येषामनगाराणां कृते च त्रिदिवौकसः । चतुरस्रां चितां चक्रुरपरस्यां पुनर्दिशि ॥ ५२६ ।। अथ क्षीरोदपाथोधेः, पुष्करावर्त्तकैरिख । देवैरानाययामास, द्रुतं पार्थीसि वासवः ॥ ५२७ ॥ तेन च स्वपयामास, पयसा भगवत्तनुम् । गोशीर्षचन्दनरसैर्विलिलेप च वज्रभृत ॥ ५२८॥ वासवो वासयामास, वाससा हंसलेक्ष्मणा । ततस्तद् देवदूष्येण, शरीरं परमेशितः ॥ ५२९ ॥ सर्वतो भूषयामास, दिव्यैर्माणिक्यभूषणैः । परमेष्ठिशरीरं तत् , त्रिविष्टंपसदग्रणीः ॥ ५३०॥ अन्ये तु देवा अन्येषां, मुनीनामपि तत्क्षणम् । इन्द्रवद् विदधुर्भक्त्या, तत् सर्व स्नपनादिकम् ॥५३१॥ जगत्रय्या रत्नसारैः, पृथक पृथगिवाऽऽहुतैः। सहस्रवाह्याः शिविकास्तिस्रश्चक्रुर्दिवौकसः॥५३२॥ प्रणम्य चरणौ भर्तुर्वपुश्चाऽऽरोप्य मूर्धनि । शिविकायां निचिक्षेप, स्वयमेव पुरन्दरः ॥ ५३३ ॥ वपूंषीक्ष्वाकुवंश्यानामपरस्यां दिवौकसः । शिविकायां शिवपदातिथीनां परिचिक्षिपुः ॥५३४॥ १ इन्द्रेण । २ इन्द्रादेशात् । ३ पूर्वदिशि । * °लजन्मिनाम् खं ॥ ४ जलानि । ५ हंसचिह्नन । ६ इन्द्रः । ऋषभजिननिर्वाणमहोत्सवः। ॥१६७॥ For Private & Personal use only . Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिविकायां तृतीयस्यामन्येषामनगारिणाम् । निदधुर्विबुधाः कायान् , निजेष्वारोप्य मृर्धसु ॥ ५३५॥ अथ तां स्वामिशिविकामुद्दधार स्वयं हरिः । मुनीनामपरेषां तु, शिविके अपरे सुराः ॥५३६ ॥ अप्सरःसु ददानासु, तालरासकमेकतः । कुर्वाणासु च सङ्गीतं, मधुरधानमन्यतः ॥ ५३७ ॥ पुर:पुरो धृपघटीर्धारयत्सु सुपर्वसु । धूपधूमच्छलाद् बाष्पं, वमन्तीरिव शोकतः॥५३८॥ क्षिपत्सु पुष्पदामानि, शिविकोपरि केपुचित् । शेषाहेतोश्च तान्येवोपाददानेषु केषुचित ॥५३९ ॥ देवदृष्यस्तोरणानि, पुरःकुर्वत्सु केषुचित् । ददत्सु केषुचिद् यक्षकर्दमैः सेकमग्रतः ॥ ५४०॥ केषुचिद् विलुठत्स्वग्रे, यत्रभ्रष्टाश्मगोलवत् । धावत्सु पृष्ठतोऽन्येषु, मोहचूर्णाहतेष्विव ॥५४१ ॥ उच्चैःशब्दायमानेषु, नाथ! नाथेति केषुचित् । मन्दभाग्या हताः स्मः स्वमिति निन्दत्सु केषुचित ॥५४२॥ शिक्षा नो देहि नाथेति, मुहुर्नार्थत्सु केपुचित् । को धर्मसंशयं छेत्स्यत्येवं जल्पत्सु केपुचित ॥ ५४३॥15 वयं यामोऽन्धवत् क्वेति, सानुशयेषु केचित् । देदातु भूनों विवरमित्याकासत्सु केपुचित ॥ ५४४॥ वाद्यमानेषु तूर्येषु, तां खामिशिविकां हरिः । उपचित्यं निनायाऽन्ये, निन्युश्च शिबिके सुराः॥५४५॥ [नवभिः कुलकम् ] प्राचीनबर्हिः प्राचीनचितायां स्वामिनस्तनुम् । शनकैः स्थापयामास, वपुत्र इव कृत्यवित् ॥५४६॥ चित्यायां दाक्षिणात्यायामिक्ष्वाकुकुलजन्मनाम् । वपूंषि स्थापयन्ति स्म, सनोभय इवाऽमराः॥५४७॥ अन्येषामनगाराणां, शरीराण्यपरे सुराः । प्रतीचीनचितायां तु, समीचीनविदो न्यधुः॥ ५४८॥ १ साधुनाम् । २ देवेषु । ३ याचमानेषु । * इदमुत्तरार्धं खंपुस्तके नास्ति ॥ ४ इन्द्रः । ५ सहोदराः । Jain Education in d a For Private & Personal use only . Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१६८॥ सर्गः ऋषभजिनभरतचकिचरितम् । अथ गोत्रभिदादेशान्नाकिनोऽग्निकुमारकाः। चितासु तासु तत्कालमग्निकायान् विचक्रिरे ॥५४९॥ शक्राज्ञया विचक्रुश्च, वायून वायुकुमारकाः । अभितो ज्वालयामासुर्वह्निमहाय ते ततः॥ ५५० ॥ चिताविन्द्राज्ञया देवाः, करादीनि भारशः । निदधुः कुम्भशश्चापि, सपौषि च मधूनि च ॥५५१॥ मुक्त्वाऽस्थि धातवो यावद् , दग्धास्तावच्चितानलम् । व्यध्यापयन् सुराः क्षीराम्भोभिर्मेषकुमारकाः॥५५२॥ प्रतिमावत पूजयितुं, स्वविमाने पुरन्दरः । अग्रहीदुपरितनी, दंष्ट्रां वामेतरां प्रभोः ॥५५३ ॥ ईशानोऽप्युपरितनी, तदंष्ट्रां दक्षिणेतराम् । अधस्तनी दक्षिणां तु, चमरेन्द्र उपाददे ॥ ५५४ ॥ बलिर्वामामधोदंष्ट्रां, जग्राहाऽन्ये तु वासवाः । शेषदन्तान् नाकिनोऽन्ये, जगृहु: कीकसानि तु ॥५५५॥ मार्गन्तः श्रावका देवैर्दत्तकुण्डत्रयाग्नयः । ततः प्रभृत्यभूवंस्ते, ब्राह्मणा अग्निहोत्रिणः॥ ५५६॥ ते हि खामिचितावह्नि, गृहे नित्यमपूजयन् । रक्षन्ति स्म च निर्वातं, लक्षदीपमिवेश्वराः॥ ५५७ ॥ इक्ष्वाकुवंश्यशेषानगाराणां ते चितानलौ । निर्वाणो जीवयन्ति स्म, स्वामिचित्याकृशानुना ॥५५८ ॥ इक्ष्वाकूणां महर्षीणामपि चित्याकृशानुना । अन्यानगारिचित्याग्निं, ते निर्वाणमबोधयन् ॥ ५५९ ॥ अन्यानगारिचित्याग्निं, चित्याग्योरन्ययोः पुनः । न हि सङ्कमयन्ति स्म, द्विजेष्वद्याऽप्यसौ विधिः॥५६॥ केचित् तु लब्धभसानो, भक्त्या भस्म ववन्दिरे । ततः प्रभृति जाताच, तापसा भसभूषणाः॥५६१॥। चितास्थानत्रये देवा, रत्नस्तूपत्रयं ततः । अष्टापदगिरेनव्यं, शृङ्गत्रयमिव व्यधुः ॥ ५६२॥ ततो नन्दीश्वरद्वीपे, शाश्वतप्रतिमोत्सवम् । कुर्वाणास्ते तु गीर्वाणाः, सेन्द्राः स्वं खं पदं ययुः॥५६३॥ १ इन्द्रादेशात् । २ शीघ्रम् । ३ घृतानि । ४ अस्थीनि । ५ अग्निना। ६ देयाः । I ऋषभजिननिर्वाणमहो त्सवः। ॥१६८॥ Jain Education inte For Private & Personal use only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALESSISSESESSOARA इन्द्राः स्वस्खविमानेषु, सुधर्मायां च पर्षदि । अधिमाणवकस्तम्भ, वृत्तवज्रसमुद्के ।। ५६४ ॥ न्यवेशयन् खामिदंष्ट्रा, आनर्चुश्च निरन्तरम् । तासां प्रभावात् तेषां च, सदा विजयमङ्गले ॥ ५६५॥ भरतस्तत्र च स्वामिसंस्कारासन्नभूतले । प्रासादं योजनायाम, त्रिगव्यूतसमुच्छ्रयम् ॥ ५६६ ॥ नामतः सिंहनिषद्यां, पद्यां निर्वाणवेश्मनः । उच्चैर्वर्द्धकिरत्नेन, रत्नाश्मभिरकारयत् ॥ ५६७ ॥ तस्य द्वाराणि चत्वारि, स्फटिकाश्ममयानि च । रम्याणि स्वामिसमवसरणस्येव जज्ञिरे ॥५६८॥ प्रतिद्वारमुभयतो, बभूवुस्तत्र षोडश । रत्नचन्दनकलसाः, कोशा इव शिवश्रियाम् ॥ ५६९॥ द्वारे द्वारे रत्नमयास्तोरणाः षोडशाऽभवन् । साक्षादिव समुद्भूताः, परितः पुण्यवल्लयः ॥ ५७० ॥ द्वारे द्वारेऽष्टमङ्गल्यो, मङ्गल्याः षोडशाऽभवन् । प्रासादद्वारविन्यस्तप्रशस्तिलिपिसन्निभाः ॥ ५७१॥ द्वारेषु तेषु चाऽभूवन , विशाला मुखमण्डपाः । दिक्पालानां चतुर्णामप्याहृता इव पर्षदः॥ ५७२ ॥ तेषां चतुर्णा च मुखमण्डपानां पुरोऽभवन् । श्रीवल्लीनां मण्डपान्तः, प्रेक्षासदनमण्डपाः ॥ ५७३ ।। तेषां प्रेक्षामण्डपानां, मध्यभागेषु जज्ञिरे । अक्षवाटा वज्रमयाः, सूर्यबिम्बोपहासिनः ॥ ५७४ ॥ अक्षवाटेऽक्षवाटे च, मध्यभागे मनोहरम् । रत्नसिंहासनमभून्मध्येऽब्जमिव कर्णिका ॥ ५७५ ॥ प्रतिप्रेक्षामण्डपा, बभूव मणिपीठिका । चैत्यस्तूपास्तदुपरि, चाऽभवन् रत्नशालिनः ॥ ५७६ ॥ तेषां च चैत्यस्तूपानां, पुरतो घोतिताम्बरा । प्रत्येकं च प्रतिदिशं, महती मणिपीठिका ॥ ५७७॥ प्रत्येकं तदुपरिष्टात् , पञ्चधन्वशतप्रमाः। चैत्यस्तूपसन्मुखीनाः, सर्वाङ्गं रत्ननिर्मिताः ॥ ५७८ ।। ऋषभा वर्तमानाच, ततश्चन्द्राननापि च । वारिषेणेति पर्यङ्कासनासीना मनोहराः॥ ५७९ ॥ अष्टापदोपरि भरतकारितः सिंहनिषद्याजिनमालाम त्रिषष्टि. २९ Jain Education Internation For Private & Personal use only . Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते षष्ठः सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । ॥१६९॥ शाश्वत्यः प्रतिमा जैन्यो, नेत्रकैरवचन्द्रिकाः। नन्दीश्वरमहाद्वीपचैत्यमध्य इवाऽभवन् ॥ ५८०॥ तेषां च चैत्यस्तूपानां, प्रत्येकं पुरतोऽभवत् । अनर्थ्यमाणिक्यमयी, विशाला चारुपीठिका ॥ ५८१॥ | पीठिकानां पुरस्तासां, प्रत्येकं चैत्यपादपाः । चैत्यद्रूणां पुरस्तेषां, प्रत्येकं मणिपीठिकाः॥५८२॥ उपरीन्द्रध्वजस्तासां, प्रत्येकमपि चाऽभवत् । जयस्तम्भो दिशि दिशि, धर्मेणेवाधिरोपितः ॥ ५८३ ॥ इन्द्रध्वजानां च पुरः, प्रत्येकमपि चाऽभवत् । नाम्ना नन्दा पुष्करिणी, त्रिसोपाना सतोरणा ॥५८४॥ स्वच्छशीतजलापूर्णा, विचित्राम्भोजशालिनी । मनोहरा दधिमुखाधारपुष्करिणीनिभा ॥ ५८५॥ आसीत् सिंहनिषद्याया, महाचैत्यस्य तस्य तु । मध्यभागे सुमहति, महती मणिपीठिका ॥ ५८६ ॥ तस्याश्चोपरि समवसरणस्येव मध्यतः । चित्ररत्नमयो देवच्छन्दकः समजायत ।। ५८७ ॥ नानावांशुकमय, उल्लोचस्तदुपर्यभूत् । उद्भावयन्नकालेऽपि, सन्ध्याभ्रपटलश्रियम् ॥ ५८८ ॥ उल्लोचस्याऽन्तरे पार्श्वतश्च वज्रमयाङ्कुशाः । आसन्नुल्लोचशोभा तु, तथाऽप्यासीन्निरङ्कुशा ॥ ५८९॥ सुधाधारोपमा हारा, अङ्कुशेष्ववलम्बिताः । कुम्भमेयैरामलकस्थूलैर्मुक्ताफलैः कृताः ॥ ५९० ॥ हारप्रान्तेषु चाऽभूवन् , विमला मणिमालिकाः । त्रैलोक्यमणिखानीनामाहृता इव वर्णिकाः ॥ ५९१ ॥ प्रान्तेषु मणिमालानाममला वज्रमालिकाः । औलिका इव भादोभिरालिङ्गन्त्यः परस्परम् ॥ ५९२ ॥ तद्भित्तिषु गवाक्षाश्चाऽभवंश्चित्रमणीमयाः । स्वप्रभापटलैर्जाततिरस्करिणिका इव ॥ ५९३॥ दह्यमानागरुधूमस्तोमास्तेषु चकाशिरे । गिरेस्तस्य नवोद्भुतनीलचूलाभ्रमप्रदाः ॥ ५९४ ॥ १ नेत्रकुमुदज्योत्स्नाः । २ आमलकफलवत् स्थूलैः । ३ सख्यः । ४ कान्तिभुजैः। ५ जातजवनिकाः । अष्टापदोपरि भरतकारितः सिंहनिषद्या| जिनप्रासाद ॥१६९॥ For Private & Personal use only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवच्छन्देऽभवन् रत्नप्रतिमास्तत्र निर्मलाः । ऋषभखामिमुख्यानां, चतुर्विंशतिरर्हताम् ॥ ५९५ ॥ प्रतिमाः स्वस्वसंस्थानमानवर्णधरास्तु ताः । साक्षादिव खामिनोऽभान, शैलेशीध्यानवर्तिनः ॥ ५९६ ॥ तत्र पोडश सौवण्र्यो, राजावर्त्तकृते उभे । द्वे स्फाटिक्यौ द्वे वैडूर्यमय्यौ शोणाश्मजे उभे ॥ ५९७ ॥ तासां चाहत्प्रतिमानां, सर्वासामपि जज्ञिरे । लोहिताक्षप्रतिसेका, अङ्करत्नमया नखाः ॥५९८॥ नाभीकेशान्तभूजिह्वातालुश्रीवत्सचूचुकम् । तलानि हस्तपादस्य, तोपनीयानि जज्ञिरे ॥ ५९९ ॥ पक्ष्माणि ताराः श्मश्रूणि, ध्रुवो रोमाणि मूर्द्धजाः । रिष्टरत्नमयान्यासन् , वैद्रुमा दन्तवाससः॥६००॥ दन्ताश्च स्फटिकमयाः, शीर्षघट्यस्तु वज्रजाः । नासाश्चाऽन्तलोहिताक्षप्रतिसेकाः सुवर्णजाः ॥६०१॥ लोहिताक्षप्रतिसेकप्रान्ता अङ्ककृता दृशः । इत्यनेकमणीमय्यः, प्रतिमास्ताश्चकाशिरे ॥६०२॥ तासां च पृष्ठे प्रत्येकमेकैका रत्ननिर्मिता । छत्रधारप्रतिमा च, यथावन्मानशालिनी ॥६०३॥ मुक्ताप्रवालजालाङ्क, सकुरण्टकदामकम् । श्वेतातपत्रं स्फटिकमणिदण्डं दधत्यभूत् ॥ ६०४॥ [ युग्मम् ] प्रत्येकं पार्श्वयोस्तासामुत्क्षिप्तमणिचामरे । चामरधारप्रतिमे, रत्नमय्यौ बभूवतुः ॥६०५॥ नौगयक्षभूतकुण्डधाराणां प्रतिमे उभे । प्रत्येकमग्रे भगवत्प्रतिमानां बभूवतुः ॥ ६०६ ॥ ताः कृताञ्जलयो रत्नमय्यः सर्वाङ्गमुज्ज्वलाः । निषेदिवांसः प्रत्यक्षा, इव नागादयो बभुः॥६०७॥ देवच्छन्दे रत्नघण्टाश्चतुर्विंशतिरुज्वलाः । सङ्क्षिप्तादित्यबिम्बाभास्तथा माणिक्यदर्पणाः ॥६०८॥ स्थानस्थदीपिका हैम्न्यस्तथा रत्नकरण्डकाः । पुष्पचङ्गेरिकाश्चङ्गाः, सरिदावर्त्तवर्तुलाः ॥ ६०९॥ १ राजावतख्यरत्रविशेषकृते । २ लोहिताक्षमणिरसच्छटाः। ३ अङ्काख्यरत्रविशेषमयाः । ४ स्तनाग्रभागः। ५ सौवर्णानि । ६ रिष्याख्यरत्नविशेषमयानि । ७ ओष्ठाः। ८ द्वे नागप्रतिमे, द्वे यक्षप्रतिमे, द्वे भूतप्रतिमे, वे कुडधारप्रतिमे च । Jain Education in For Private & Personal use only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१७॥ | सर्ग: ऋषभजिन| भरतचत्रिचरितम् । लोमहस्तपटल्योऽथ, विभूषणकरण्डकाः । हैमानि धूपदहनकानि चाऽऽरात्रिकाणि च ॥ ६१०॥ रत्नमङ्गलदीपाश्च, रत्नभृङ्गारका अपि । स्फाराणि रत्नस्थालानि, तापनीयाः पतनहाः ॥ ६११॥ रत्नचन्दनकलसा, रत्नसिंहासनानि च । रत्नमय्योऽष्टमङ्गल्यो, हैमास्तैलसमुद्गकाः ॥ ६१२ ॥ धूपभाण्डानि हैमानि, हैमाश्चोत्पलहस्तकाः। पुरो बभूवुश्च चतुर्विशतेः श्रीमदर्हताम् ॥ ६१३ ॥ इति नानारत्नमय, त्रैलोक्येऽप्यतिसुन्दरम् । मर्नेन धर्मेणेवेन्दुकान्तवप्रेण शोभितम् ॥ ६१४ ॥ ईहामृगोक्ष-मकर-तुरङ्ग-नर-किन्नरैः । विहङ्ग-वालक-रुरु-शरभैश्चमरैर्द्विपैः ॥ ६१५ ॥ बनलताऽब्जलताभिर्विचित्राद्धृतभङ्गिकम् । बहुगुममिवोद्यानं, रत्नस्तम्भसमाकुलम् ॥ ६१६ ॥ व्योमगङ्गोर्मिभिरिव, पताकाभिर्मनोरमम् । उन्नतैर्दन्तुरमिव, ध्वजदण्डैश्च काश्चनैः ॥ ६१७ ॥ ध्वजस्थकिङ्किणीकाणैः, प्रसरद्भिनिरन्तरैः । खेचरस्त्रैणरसनादामध्वनिविडम्बकम् ॥ ६१८ ॥ उपरि भ्राजमानं च, विशालद्युतिशालिना । पद्मरागाश्मकुम्भेन, माणिक्येनाऽङ्गुलीयवत् ॥ ६१९ ।। क्वचित् पल्लवितमिव, संवर्मितमिव क्वचित् । क्वचिद् रोमाञ्चितमिव, क्वचिल्लिप्तमिवाऽशुभिः ॥ ६२० ॥ गोशीर्षचन्दनरसमयस्थासकलाञ्छितम् । अतिसुश्लिष्टसन्धित्वादेकग्राव्णेव निर्मितम् ॥ ६२१ ॥ माणिक्यशालभञ्जीभिश्चेष्टावैचित्र्यचारुभिः । अधिष्ठितनितम्बं चाऽप्सरोभिर्मेरुशैलवत् ॥ ६२२ ॥ द्वारदेशमुभयतो, लिप्ताभ्यां चन्दनद्रवैः । कुम्भाभ्यां पुण्डरीकाभ्यां, स्थलजाभ्यामिवाङ्कितम् ॥ ६२३ ॥ धूपितैर्दामभी रम्यं, तिर्यग्बद्धावलम्बितैः । कुसुमैः पञ्चवर्णैश्च, रचितप्रकरं तले ॥ ६२४ ॥ , चामरसमूहाः। २ पात्राणि। ३ वृकः। ४ मृगविशेषः। ५ अष्टापदः । CRORSEECAUSESCACAN अष्टापदोपरि भरतकारितः सिंहनिषद्याजिनप्रासादः। | ॥१७॥ Jan Education Inte For Private & Personal use only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RASAKAR कर्पूरागरुकस्तूरीधूपधूमैश्च सन्ततैः । कालिन्येव कलिन्दादि, प्लाव्यमानमहर्निशम् ॥ ६२५ ॥ अप्सरोगणसङ्कीर्ण, द्योः पालकमिवाऽऽगतम् । वैताढ्यमेखलाखण्डमिव विद्याधरीवृतम् ॥ ६२६ ॥ अग्रतः पार्श्वतः पश्चाचारुभिश्चैत्यपादपैः । माणिक्यपीठिकाभिश्च, भूषणैरिव भूषितम् ।। ६२७॥ अष्टापदाद्रेमूर्धन्यमिव माणिक्यभूषणम् । नन्दीश्वरादिचैत्यानां, स्पर्द्धयेवाऽतिपावनम् ॥ ६२८ ॥ तचैत्यं भरतस्याऽऽज्ञातुल्यकालं कलाविदा । तेन वर्द्धकिरत्नेम, व्यधीयत यथाविधि ॥ ६२९॥ [पोडशभिः कुलकम् ] तत्रैव कारयामास, दिव्यरत्नशिलामयीः । भ्रातृणां नवनवतेः, प्रतिमा भरतेश्वरः॥ ६३०॥ शुश्रूषमाणां प्रतिमामात्मनोऽपि महीपतिः । कारयामास तत्रैव, स हि भक्तेरवृप्तिकः ।। ६३१॥ चैत्याद् बहिर्भगवतः, स्तूपमेकमकारयत् । भ्रातृणां शतमेकोनं, स्तूपांश्च भरतेश्वरः ॥ ६३२॥ अत्र माऽऽशातनां कार्युर्गमनागमनैनराः । इत्यकाद् यत्रमयान् , लौहानारक्षकान् नृपः ॥ ६३३ ॥ आरक्षपुरुषैलौहैर्यत्रायुक्तैश्च तैरभूत् । नृणामगम्यं स्थानं तन्माद् बहिरिव स्थितम् ॥ ६३४ ॥ दण्डरलेन रत्नेशो, दन्तांश्चिच्छेद तत्र च । ऋजूच्चस्तम्भवत् सोऽदिरनारोह्यस्ततोऽभवत् ॥ ६३५॥ नृपो नृभिरलङ्घयानि, योजनान्तरितानि च । पदानि मेखलारूपाण्यष्टौ तं परितो व्यधात् ॥ ६३६ ।। ततःप्रभृति शैलोऽसौ, नाम्नाष्टापद इत्यभूत् । लोके हराद्रिः कैलासः, स्फटिकाद्रिश्च कीर्यते ॥६३७॥ इति चैत्यं विनिर्माप्य, प्रतिष्ठाप्य च चक्रभृत् । श्वेतांशुकधरस्तत्राविशन्मेघ इवोडुपः ॥ ६३८॥ १ यमुनया। २ आज्ञासमनन्तरम् । ३ चक्री। शशी। अष्टापदोपरि भरतकारितः सिंहनिषद्याजिनप्रासाद Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१७॥ सर्गः ऋषभजिनभरतचकिचरितम् । कृत्वा प्रदक्षिणां तत्र, प्रतिमास्ताः सुगन्धिभिः । उदकैः स्त्रपयामास, भूपतिः सपरिच्छदः॥ ६३९ ॥ ममार्ज देवदृष्यैश्च, भरतः परितोऽपि ताः । रत्नादर्श इवाऽभूवंस्तास्ततश्चाधिकोज्वलाः ॥ ६४०॥ गोशीर्षचन्दनरसैविलिलेप नृपोऽथ ताः । सुगन्धिस्त्यानतां प्राप्तोत्स्नापूरैरिवाऽमलैः ॥ ६४१॥ ताः क्षमापतिरानर्च, विचित्र रत्नभूषणैः । दिव्यदामभिरुद्दामैर्देवदृष्यांशुकैरपि ॥ ६४२॥ ददाह वादयन् घण्टां, धूपं तद्भूमवर्तिभिः । कुर्वन् चैत्यान्तरं नीलवल्लरीभिरिवाङ्कितम् ॥ ६४३॥ ततश्चोत्तारयामास, कर्पूरारात्रिकं नृपः । संसारशीतमीतानामग्निकुण्डमिव ज्वलत् ॥ ६४४ ॥ ऋषभखामिनो नत्वा, प्रतिमां भरतेश्वरः । आक्रान्तः शोकभक्तिभ्यां, स्तोतुं प्रस्तुतवानिति ॥६४५॥ __ कल्याणैः पञ्चभिर्दत्तसुखाय श्वभ्रिणामपि । जगत्सुखाकर! नमस्तुभ्यं त्रिजगदीश्वर ! ॥ ६४६ ॥ खामिन् ! विचजनीनेन, त्वया विहरताऽन्वहम् । रविणेवाऽनुगृहीतं, चराचरमिदं जगत् ॥ ६४७ ॥ अप्यार्याणामनार्याणां, प्रीतये व्यहरश्चिरम् । गतिः परोपकाराय, भवतः पवनस्य च ॥ ६४८॥ उपकर्तुमिहाऽन्येषां, व्यहार्भगवंश्चिरम् । मुक्तौ कस्योपकाराय, गतोऽसि परमेश्वर ! १ ॥६४९ ॥ लोकाग्रमद्य लोकाग्रं, भवता यदधिष्ठितम् । मत्त्यलोकोऽयमद्यैव, मत्यलोकस्त्वयोज्झितः ॥ ६५० ॥ अद्यापि साक्षात् त्वमसि, तेषां भव्यशरीरिणाम् । विश्वानुग्रहकरिणी, देशनां ये स्मरन्ति ते ॥ ६५१॥ रूपस्थमपि ये ध्यानं, त्वयि नाथ ! प्रयुञ्जते । प्रभो! प्रत्यक्षमेवाऽसि, तेषामपि महात्मनाम् ॥ ६५२॥ १ सुगन्धिघनताम् । २ चैत्यमध्यम् । ३ नारकाणाम्। ४ विश्वहितकारकेण। ५ मोक्षम्। सर्वलोकोत्तरम् । ७ मनुष्यलोकः। ८ मरणोचितलोकः । अष्टापदनासादान्तःस्थितानां जिनानां स्तुतयः। ॥१७॥ Jan Education International For Private & Personal use only . Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern यथा संसारमत्याक्षीरशेषं परमेश्वर ! । निर्ममोऽपि तथा जातु, मा त्याक्षीर्मानसं मम ॥ ६५३ ॥ आदिनाथमिति स्तुत्वा जिनेन्द्रानपरानपि । नत्वा नत्वेति प्रत्येकमुपश्लोकयति स्म सः || ६५४ ॥ जयाsजित ! जगन्नाथ !, कषायविषयाजित ! | विजयाकुक्षिमाणिक्य !, जितशत्रुनृपात्मज ! ॥ ६५५ ।। जितारिनो ! श्रीसेनाकुक्षिसम्भव ! सम्भव ! | भवव्योमातिक्रमणप्रभाकर ! नमोऽस्तु ते ।। ६५६ ।। सिद्धार्थापूर्वदिक्सूर्य !, संवरान्वयमण्डन ! । विश्वाभिनन्दन ! विभोऽभिनन्दन ! पुनीहि नः ॥ ६५७ ॥ भगवन् ! मङ्गलादेवीमेघमालैकमौक्तिक ! । मेघान्वयावनीमेघ !, सुमते ! भवते नमः ।। ६५८ ॥ खामिन् ! धरधराधीशसरित्पतिनिशाकर! । सुसीमाजाह्नवीपद्म !, पद्मप्रभ ! नमोऽस्तु ते ॥ ६५९ ॥ श्रीसुपार्श्वप्रभो ! पृथ्वीमलयावनिचन्दन ! । श्रीप्रतिष्ठकुलगृहप्रतिष्ठास्तम्भ ! पाहि माम् || ६६० ॥ महसेनान्वयनभश्चन्द्र ! चन्द्रप्रभ ! प्रभो ! भगवन् ! लक्ष्मणाकुक्षिसरसीहंस ! रक्ष नः ॥ ६६१ ॥ श्रीरामानन्दनाराममहीकल्पमहीरुह ! । सुग्रीवसूनो ! सुविधे !, विधेहि शिवमाशु नः ॥ ६६२ ।। नन्दादेवीहदानन्द !, खामिन्! दृढरथात्मज ! | जगदाह्लादशीतांशो !, श्री शीतल ! मुदे भव ||६६३ ।। श्रीविष्णुदेवीतनय !, विष्णुराड्वंशमौक्तिक ! । निःश्रेयसश्रीरमण !, श्रेयांस ! श्रेयसे भव || ६६४॥ जयाविदूरभूरत्न!, वसुपूज्यनृपात्मज ! । वासुपूज्य ! जगत्पूज्य !, विश्राणय शिश्रियम् ॥। ६६५ ।। श्यामाशमीशमीगर्भ !, कृतवर्मनृपात्मज ! । भगवन् ! विमलखामिन् !, विमलीकुरु मे मनः ॥ ६६६ ॥ श्री सिंहसेन भूपालकुलमङ्गलदीपक ! । सुयशः स्वामिनीनोऽनन्ताऽनन्तं सुखं तनु ॥ ६६७ ॥ सुत्रताप्राग्गिरितटीभानो! भानुनृपात्मज ! । श्रीधर्मनाथ ! भगवन्!, धेहि धर्मे धियं मम ॥ ६६८ ॥ अष्टापदप्रासादान्तः स्थितानां जिनानां स्तुतयः । . Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका प्रथमं पर्व पुरुषचरिते ॥१७२॥ सर्गः ऋषभजिन| भरतचक्रिचरितम् । विश्वसेनकुलोचंसाऽचिरादेवीतनूद्भव! | श्रीशान्तिनाथ! भगवन् !, भव नः कर्मशान्तये ॥६६९॥ सूरान्वयवियत्सूर!, श्रीराज्ञीकुक्षिसम्भव! । कुन्थुनाथ! जगन्नाथ !, जयोन्मथितमन्मथ !॥ ६७०॥ . देवीशरच्छ्रीकुमुद, सुदर्शननृपात्मज ! । अरनाथ ! वितर मे, भवोत्तरणवैभवम् ॥ ६७१ ॥ कुम्भाम्भोधिसुधाकुम्भ!, प्रभावत्यङ्गसम्भव! । कर्मक्षयमहामल्ल, मल्लिनाथ! शिवं दिश ॥६७२॥ सुमित्रहिमवत्पाहूद ! पद्मावतीसुत । मुनिसुव्रततीर्थेश, नमस्ते परमेश्वर ! ॥ ६७३ ।। वप्रावज्राकरमहीवन! श्रीविजयात्मज! । जगन्नमस्यपादाब्ज, नमस्तुभ्यं नमिप्रभो!॥ ६७४॥ शिवगामिन् ! शिवासूनो, समुद्रानन्दचन्द्रमः! अरिष्टनेमे ! भगवन् !, नमः कारुणिकाय ते॥६७५॥ अश्वसेनावनीपालकुलचूलामणे! प्रभो! । वामासूनो! नमस्तुभ्यं, श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वर! ॥ ६७६ ॥ सिद्धिसम्प्राप्तिसिद्धार्थ, सिद्धार्थनृपनन्दन! । त्रिशलाहृदयाश्वास, श्रीवीर ! भवते नमः॥६७७॥ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य, सर्वान् प्रत्येकमर्हतः। चैत्यात् सिंहनिषद्याया, निर्ययो भरतेश्वरः॥६७८॥ विलोकयन् वलद्धीवं, तच्चैत्यं प्रियमित्रवत् । उत्तताराष्टापदाद्रेर्भरतः सपरिच्छदः ॥ ६७९॥ . | प्राग्विलग्नमना लग्नवस्वाञ्चल इवाञ्चलत् । मन्दं मन्दं प्रत्ययोध्यमयोध्याधिपतिस्ततः ॥ ६८०॥ , शोकपूरैरिवाऽऽकुलाः । दिशोऽपि कुर्वन् शोकार्तस्तां पुरीं प्राप भृपतिः ॥ ६८१॥ तदुःखदुःखितै ढं, सोदरैरिव नागरैः । सास्त्रदृग्भिदृश्यमानो, विनीतां प्राविशन्नृपः ।। ६८२॥ सारं सारं स्वामिपादान् , वृष्टशेष इवाऽम्बुदः । सोऽसाम्बुविग्रुषो वर्षन् , स्खं विवेश निवेशनम् ।। ६८३॥ १ सूरवंशगगनसूर्य ! । २ देवीशरलक्ष्मीकुमुद !। ३ सुमित्रहिमाचलपानद!। ४ अश्रुजलबिन्दून् । *भरतस्य स्वगृ. ४ा हे गमनं, शोकापनोदश्च। ॥१७२॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only ख Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिष्ठन् गच्छन् वपन् जाग्रद् , बहिर्मध्ये दिवा निशि । दध्यौ स प्रभुमेवार्थ, हतार्थ इव तद्धनः ॥६८४॥ अप्यन्यहेतुनाऽऽयातानष्टापदतलानरान् । प्रभुं प्रथयतः पूर्व, स पूर्ववदमन्यत ॥ ६८५॥ आदौ पशुवदज्ञानं, व्यवहारनये जनम् । इमं प्रवर्त्तयामास, गृहवासस्थितोऽपि यः॥ ६८६ ॥ आत्तदीक्षश्च भगवानचिरोत्पन्नकेवलः । उद्दिधीपुभवाम्भोधेधर्मे प्रावर्त्तयजगत् ॥ ६८७ ॥ कृतकृत्यः स्वयं कृत्वा, कृतकृत्यान् जनानपि । यः पदं परमं प्राप, तं कथं नाम शोचसि ?॥ ६८८ ॥ शोकाकुलः कुलामात्यैः, कथञ्चिदपि बोधितः । शनकै राजकार्येषु, प्रावर्त्तत महीपतिः॥ ६८९ ॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] शनैः शनैः शोकमुक्तो, राहमुक्त इवोडपः । पहिर्विहारभूमिषु, विचचार नरेश्वरः ॥ ६९० ॥ खामिपादानसौ स्मृत्वा, गजो विन्ध्यस्थलीमिव । विषदन्नेत्याऽऽतजनैः, सदाऽऽसन्नैर्व्यनोद्यत ॥ ६९१॥ परिवारानुरोधेन, कदाऽप्यारामवीथिषु । विनोदोत्पत्तिभूमिषु, जगाम जगतीपतिः ॥ ६९२ ॥ स्त्रीराज्येनेवाऽऽगतेन, समं स्त्रैणेन तत्र च । लतामण्डपशय्यासु, रेमे रम्यासु भूपतिः ॥ ६९३ ।। कुसुमाहरणां विद्याधराणामिव तत्र सः । कुसुमावचयक्रीडां, यूनामैक्षिष्ट कौतुकात् ॥ ६९४ ॥ ग्रथित्वा पुष्पनेपथ्यं, वरवामभुवः स्वयम् । प्रसून धन्वनः पूजामिव तस्योपनिन्यिरे ॥ ६९५ ॥ सर्वाङ्गपुष्पाभरणाश्चिक्रीडुस्तत्पुरोऽङ्गनाः । ऋतुश्रिय इवाऽसङ्ख्यीभृतास्तं समुपासितुम् ॥ ६९६ ॥ रराज राजराजोपि, सर्वतः पुष्पभूषणः । तासामृतुदेवतानामिवैकमधिदैवतम् ॥ ६९७॥ १ कृपणः । २ उद्धर्तुमिच्छुः । ३ आगत्य । ४ स्त्रीसमूहेन। ५ कामदेवस्य । भरतस्य भोगाः। For Private & Personal use only . Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१७३॥ कदाचित् क्रीडितुं क्रीडादीर्घिकां सवधूजनः । राजहंस इव खैरं प्रययौ भरतेश्वरः ।। ६९८ ।। तत्र चक्रे जलक्रीडां, वामनेत्राभिरार्षभिः । करेणुकाभिः सहितो, रेवायामिव कुञ्जरः ॥ ६९९ ॥ आलिङ्गन्त्यः क्षणं कण्ठे, क्षणं दोष्णोः क्षणं हृदि । तमापेतुः पयोवीच्यो, वामाक्षीशिक्षिता इव ।। ७०० ॥ अवतंसीकृताम्भोजश्चलन्मौक्तिककुण्डलः । भरतो वरुणः साक्षादिवाऽलक्ष्यत वारिणि ॥ ७०१ ॥ लीलाविलाससाम्राज्यनिवेशायेव भूपतिः । अहंपूर्विकया स्त्रीभिरभ्यषिच्यत वारिभिः ॥ ७०२ ॥ अप्सरोभिखि जलदेवताभिरिवाऽभितः । जलकेलिप्रसक्ताभी, रेमे ताभिर्महीपतिः ॥ ७०३ ॥ स्वप्रतिस्पर्द्धिनां वारिजन्मनामिव दर्शनात् । वारिभिस्ताम्रतामापुः कुरङ्गकदृशां दृशः ॥ ७०४ ॥ अङ्गनानामङ्गरागैरङ्गाद् विगलितैर्घनैः । आपः सकर्दमा यक्षकर्दमत्वं प्रपेदिरे ।। ७०५ ।। सङ्गीतकं कारयितुं, कदाचिदपि शक्रवत् । विलासमण्डपास्थानीमातस्थौ पृथिवीपतिः ॥ ७०६ ॥ ॐकारमिव मत्राणामाद्यं सङ्गीतकर्मणाम् । सुखरं पूरयामासुर्वेणुं वैणविकोत्तमाः ॥ ७०७ ॥ पुष्पादिभिः श्रुतिसुखैर्व्यक्तैर्व्यञ्जनधातुभिः । वैणिका वादयामासुर्वीणा एकादशाऽपि ताः ॥ ७०८ ॥ तत्तत्कवित्वानुगतं, नाम्ना प्रस्तारसुन्दरम् । रङ्गाचार्या दधुस्तालं, नृत्ताभिनयमातरम् ॥ ७०९ ।। प्रियमित्रवदन्योऽन्यमनुज्झन्तो मनागपि । मार्दङ्गिकाः पाणविकाः खं खं वाद्यमवादयन् ॥ ७१० ॥ जातिरागान् नवनवान्, खरगीतिमनोरमान् । गायनाश्च जगुर्हाहाहूह्वहङ्कारहारिणः ॥ ७११ ॥ १ नर्मदायाम् । २ भुजयोः । ३ जलदेवः । * इत आरभ्य + एतचिह्नपर्यन्तं पाठो नास्ति खंपुस्तके ॥ ४ कमलानाम् । नानाप्र सं १, खं ॥ ५ सूत्रधाराः । ६ मृदङ्गवादकाः । ७ पणववादकाः । प्रथमं पर्व पष्टः सर्गः ऋषभजिनभरतचत्रि चरितम् । भरतस्य भोगाः । ॥१७३॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रीयमाणाश्चित्रैश्चाऽङ्गहारैः करणैरपि । नर्तक्यो ननृतुस्तारं, लास्यताण्डवपण्डिताः॥ ७१२ ॥ प्रेक्षाश्चक्रे प्रेक्षणीयानीत्यविघ्नं महीपतिः । यत्र तत्र प्रसक्तानां, प्रभृणां को हि बाधकः ? ॥७१३ ॥ सांसारिकसुखान्येवं, भुञ्जानो भरतेश्वरः । स्वामिमोक्षदिनात् पूर्वलक्षाः पञ्चात्यवाहयत् ॥ ७१४ ॥ __ अपरेयुः कृतस्नानः, प्रकृप्तबलिकर्मकः । देवदूष्यांशुकोन्मृष्टशरीरः स्रग्विकुन्तलः ॥ ७१५॥ गोशीर्षचन्दनकृतसर्वाङ्गीणविलेपनः । सर्वाङ्गनिहितानय॑दिव्यरत्नविभूषणः ॥ ७१६ ॥ सोऽन्तःपुरनिकेतान्तवरस्त्रीपरिवारितः । वेत्रिण्या दर्यमानाध्या, रत्नादर्शगृहं ययौ ॥७१७॥ _ [त्रिभिर्विशेषकम् ] प्रतिबिम्बितमत्यच्छे, गगनस्फटिकोपमे । यथाप्रमाणं सर्वाङ्ग, रूपं तत्र हिं दृश्यते ॥ ७१८॥ तत्र च प्रेक्षमाणस्य, खं वपुर्भरंतेशितुः । अङ्गुल्या एकतमस्या, निपपाताऽङ्गुलीयकम् ॥ ७१९ ॥ तदङ्गल्या गलितमप्यङ्गुलीयं महीपतिः । नाऽज्ञासीद् बैर्हिणो बहभाराद् बेहमिवैककम ॥ ७२०॥ वपुः पश्यन् क्रमेणेक्षाञ्चक्रे तां चयनूमिकाम् । अङ्गुली गलितज्योत्नां, दिवा शशिकलामिव ॥ ७२१॥ अहो ! विशोभा किमसावङ्गुलीति विचिन्तयन् । ददर्श पतितं भूमावङ्गुलीयं नरेश्वरः ॥ ७२२ ॥ किमन्यान्यपि विशोभान्यङ्गान्याभरणैर्विना ? । इति मोक्तुं स आरेभे, भूषणान्यपराण्यपि ॥७२३ ॥ आदावुत्तारयामास, माणिक्यमुकुटं नृपः । तद्धीनं च शिरोऽपश्यच्युतरत्नामिवोर्मिकाम् ।। ७२४ ॥ माणिक्यकुण्डले प्रोज्झ्य, तद्धीनौ च ददर्श सः । कर्णपाशावनन्दु, पूर्वापरदिशाविव ॥ ७२५॥ * स्निग्धकुन्तलः आ ॥ ह्यश्यत खंता ॥ भरतेश्वरः सं २, आ॥ १ मयूरस्य । २ पिच्छम् । ३ सूर्यचन्द्ररहिते। भरतस्य रवादर्शगृहान्तः केवलोत्पत्तिः। Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं पर्व त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥१७४॥ सर्गः ऋषभजिनभरतचक्रिचरितम् । अवेयकमहासीच्च, ग्रीवां तद्रहितामथ । नृपो ददर्श निःश्रीकां, निम्नंगामिव निर्जलाम् ॥ ७२६ ।। हारमुत्तारयामासाऽऽलोकयामास च क्षणात् । वक्षःस्थलं तद्विहीनं, व्योमेव गततारकम् ॥ ७२७॥ केयूरे चाऽमुचद् बाहू, तन्मुक्ती च ददर्श सः । उद्वेष्टितार्द्धलतिकापाशौ सालद्रुमाविव ॥ ७२८ ॥ कङ्कणौ चाऽत्यजत् पाणिमूले ताभ्यां च वर्जिते । निरामलसारकाग्रप्रासादवदुदैवत ॥ ७२९ ॥ अन्यान्यप्यङ्गुलीयानि, तत्याजाऽऽलोकयच्च सः । तद्धीना अङ्गुलीभ्रष्टमणीः फणिफणा इव ॥ ७३०॥ तत्याज पादकटको, ददर्शाऽङ्गी तदुज्झितौ । गलितवर्णवलयौ, राजेभदशनाविव ॥ ७३१॥ इति क्रमेण भरतस्त्यक्तसर्वाङ्गभूषणम् । स्वमपश्यत् गतश्रीकं, शीर्णपर्णमिव द्रुमम् ॥ ७३२ ॥ __ अचिन्तयच्च धिगहो !, वपुषो भूषणादिभिः । श्रीराहायैव कुड्यस्य, पुस्तायैरिख कर्मभिः ॥ ७३३ ॥ अन्तःक्लिन्नस्य विष्ठाद्यैर्मलैः स्रोतोभवैबहिः । चिन्त्यमानं शरीरस्य, किमप्यस्य न शोभनम् ॥ ७३४ ॥ इदं शरीरं कर्पूरकस्तूरीप्रभृतीन्यपि । दूषयत्येव पाथोदपाथांस्यूपेरभृरिव ॥ ७३५॥ विरज्य विषयेभ्यो यैस्तेपे मोक्षफलं तपः । तैरेव फलमेतस्य, जगृहे तत्त्ववेदिभिः ॥ ७३६ ॥ इति चिन्तयतः सम्यगपूर्वकरणक्रमात् । क्षपकश्रेण्यारूढस्य, शुक्लध्यानमुपेयुषः ॥७३७॥ घातिकर्मक्षयादाविरासीत् तस्याऽथ केवलम् । सूर्यप्रकाशो जीमूतपटलापगमादिव ॥ ७३८ ॥ सहसाऽऽसनकम्पोऽभूत, तदानी च दिवस्पतेः । महट्यो महतामृद्धिमपि शंसन्त्यचेतनाः॥ ७३९ ।। भक्त्या तमभ्यगाचेन्द्रो, भक्ता हि प्रतिपत्तिदाः । खामिवत् खामिपुत्रेऽपि, किं पुनः प्राप्तकेवले? ॥७४०॥ १ ग्रीवाभूषणम् । २ नदीम् । * चाऽमुचत् खं ॥ ३ भित्तेः। ४ लेप्यकर्माद्यैः । ५ क्षारभूमिः । तमन्वगा सं २॥5 भरतस्य स्वादर्शगृहान्तः केवलोत्पत्तिः BASAHAAAAX ॥१७॥ Jain Education Inters For Private & Personal use only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - CHAMPARENCREATE शक्रोऽभ्यधाद् द्रव्यलिङ्गं, प्रतिपद्यस्व केवलिन् ! । यथा वन्दे विदधे च, तब निष्क्रमणोत्सवम् ॥७४१॥ ततश्च बाहुबलिवद् , विदधे भरतेश्वरः । प्रव्रज्यालक्षणं केशोत्पाटनं पञ्चमुष्टिकम् ॥ ७४२ ॥ उपनीतं यथा सन्निहितदेवतया ततः । रजोहरणमुख्योपकरणं भरतोऽग्रहीत् ॥ ७४३ ॥ ववन्दे देवराजेन, ततश्च भरतेश्वरः । न जातु वन्द्यते प्राप्तकेवलोऽपि ह्यदीक्षितः ॥ ७४४ ॥ राज्ञां दशसहस्राश्च, प्राव्रजन्नार्षभिं श्रिताः । तादृशखामिसेवा हि, परत्रापि सुखाकरी ॥ ७४५ ॥ ___ अथ विश्वम्भराभारं, सोढर्भरतजन्मनः । राज्याभिषेकमकरोदादित्ययशसो हरिः ॥ ७४६ ॥ आरभ्य केवलोत्पत्तेर्ऋषभस्वामिवत् ततः । ग्रामाकरपुरारण्यगिरिद्रोणमुखादिषु ।। ७४७ ॥ धर्मदेशनया भव्यान् , देहभाजः प्रबोधयन् । पूर्वलक्षं विजहार, भरतः सपरिच्छदः ॥ ७४८ ॥ अष्टापदगिरी गत्वा, ततश्च भरतेश्वरः । चक्रे चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं यथाविधि ।। ७४९ ॥ अथैकमासपर्यन्ते, चन्द्रे श्रवणऋक्षगे । सिद्धानन्तचतुष्कोऽसौ, सिद्धिक्षेत्रमुपाययौ ॥ ७५० ।। ___ एवं च भरतः पूर्वलक्षाणां सप्तसप्ततिम् । कुमारभावेऽगमयत , प्रभो शासति मेदिनीम् ॥ ७५१ ॥ एकं माण्डलिकत्वे च, सहस्रं शरैदामसौ । अतिवाहितांश्छमस्थतया भगवानिव ॥ ७५२ ॥ एकवर्षसहस्रोनपूर्वलक्षाणि षट् तथा । आर्षभिर्व्यतिचक्राम, चक्रवर्तित्वमुद्वहन् ॥ ७५३ ॥ उत्पन्न केवलज्ञानो, विश्वानुग्रहकाम्यया । विजहे पूर्वलक्षं च, दिवसं भानुमानिव ॥ ७५४ ॥ *नृपा दशसहस्राणि प्रा° आ, सं २॥ : परलोकेऽपि । २ श्रवणनक्षत्रगे। ३ वर्षाणाम् । त्रिषष्टि.३० For Private & Personal use only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ १७५ ॥ Jain Education Internation इत्यायुषा चतुरशीतिमतीत्य पूर्वलक्षाणि मोक्षमगमद् भरतो महात्मा । शक्रेण मोक्षमहिमा विदधे च तस्य देवैः समं सपदि कन्दलितप्रमोदैः ।। ७५५ ।। स्वामिप्राग्भववर्णनं कुलकरोत्पत्तिः प्रभोर्जन्म चोहादिव्यवहारदर्शनमथो राज्यं व्रतं केवलम् । चक्रित्वं भरतस्य मोक्षगमनं भर्तुः क्रमाच्चक्रिणो यस्मिन् पर्वणि वर्णितं वितनुतात् पर्वाणि सर्वाणि वः ॥७५६॥ इत्याचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमे पर्वणि मरीचिभव भाविशलाकापुरुष-भगवन्निर्वाण भरतनिर्वाणवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥ समाप्तं च श्रीऋषभखामि भरतचक्रवर्त्तिप्रतिबद्धं प्रथमं पर्व ॥ १ ॥ प्रथमं पर्व षष्ठः सर्गः ऋषभजिनभरतचत्रि चरितम् । भरतस्य निर्वाणम् । 1180411 . Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000-34-4 000000000000- -2.000000000 गन्यापागनिधिजेनाचार्य श्री श्री र मामीनपानन्द सरि आत्मारामजी महाराज स्व-परशास्त्रपरमार्थप्रपंचप्रवीण-वृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्य-पंजाबदेशोद्धारक-न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी (श्रीआत्मारामजी महाराज) जन्म-वि० सं० १८९३ चैत्र सुदि १ बृहस्पतिवार-गाम लेहरा (पंजाब ) तहसील जीरा, जिला फिरोजपुर. 900 स्थानकवासी दीक्षा-वि० सं० १९१० मालेरकोटला (पंजाब) संविग्नदीक्षा-वि० सं० १९३२ अमदावाद. आचार्यपद-वि० सं० १९४२ पालीताणा. स्वर्गगमन-वि० सं० १९५२ गुजरांवाला (पंजाथ ) ....... .manton... 10000nesamanna notes Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GOOOOOOOG 60@@@@ @ @@O: " खंता” (प्रास्ताविके विलोकनीयम् ) Fasht समाधी सर्वतयाचहीम सस्कृतिहासाविसममधिल निस्विक्षेमादिमतीहीमा दवासकासमायानामयिक बालाइहतिवानमथिट्रान विनियामानामग्रीवासमातिपदिक्षाद गडाकायका सयमदम्मिनदनाममुपास्नादारयादिमधिधीमाक्षमा यस्यामिर्मसुमावदेशमसितंक्षिपकमलाकरसामागवलामाका हलहातावामऊँल्यायल्यास तिमामादमाममाययावावाससवय), त्यासमरामानकासमतीसाहिल समवासनचंद्रमाद्द्याद सदमान समनिचालीतानाच सिमसानिया वारूणालाशीसुपार्श्वजिॉनकायमान डिमरीचिनिमायाकलानित रुगवासस्मिंदनगाधसकिरीरशाणायाम जयकिनरवाचविनावान शवरुपादादिडासा सवयशियनतरंगारिमघानाकापाययादि महिमाझायानमचवलसंचगगनाांगणघासालघरुवा सिता नानाभानवधिायसुचना करामजवाहिश्वकलयनाकवला अन्त्य Ehsसिलवासपागाशुबमो ছিলেঙ্গুরাবাহাইকােসিসেচ্চলিৰ मोहनौपरिणतिगारलाईमा युटिशापादशाह विनितीनवाससीवापानीजनपरण्यावहतानकमार्गको माध्यमिवधमाकामयामफलमहजERRAS चालापके विशालयमदीनानातिनःशुदितादिति यावसमयानाडामदासाचा विक्रमालानुहासिललोकलाकामगातारकतिलामाका धामीसबीवायवर्ततमुत्पति अक्षाकामयामसामहाराविधीमाट्री यायपासागासवर मागवाशिम Waqयनादबारामत यावदियायायुचरेड कमालागामगगहाणीमान झरे श्रीविकमी यायावेदविरोधितिमाशा मरा पत्रम् M aalotina000000000000 POOGOI HOJPGyan :श्री महोदय मि.ग्रेस-भावनगर. 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