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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
की अपेक्षा से जिसके पास सहस्रों मुद्रायें हैं, यह दृष्टान्त दिया है तो वह पुरुष, जिसके पास मात्र एक पैसा है सर्वमान्य - जिसे सब स्वीकार करते हैं, अर्थ को ही साबित करता है क्योंकि जिसके पास सहस्त्रों मुद्राएं हैं उसकी तुलना में वह पुरुष निःसन्देह निर्धन है, जिसके पास मात्र एक पैसा है, यदि आप पुरुषों की अपेक्षा से उस पुरुष को जिसके पास एक पैसा है, निर्धन कहते हैं तो यह सही नहीं है क्योंकि उन पुरुषों की अपेक्षा से जिनके पास एक भी पैसा नहीं है, जो जीर्ण क्षीर्ण वस्त्र धारण किये रहते हैं वह एक पैसा वाला भी धनवान ही है। यदि आप किसी विशिष्ट सामर्थ्योपेत - विशिष्ट शक्ति सम्पन्न पुरुष की क्रिया की दृष्टि से अपेक्षा से आत्मा को निष्क्रिय या क्रिया शून्य बतलाते हैं तब तो कोई हानि - बाधा नहीं है किन्तु यदि सर्व सामान्य की अपेक्षा से आत्मा को निष्क्रिय बताते हों तो यह संगत नहीं है क्योंकि सर्व सामान्य की अपेक्षा आत्मा सक्रियक्रियाशील है । अब प्रस्तुत विषय में और अधिक कहना अति प्रासांगिक होगा वैसा कहना आवश्यक नहीं है ।
अस्तु, पूर्ववर्ती चर्चा के अनुसार जिस वृक्ष द्वारा फल दिया जाना निश्चित नहीं है और निश्चित रूप से फल नहीं देता- जो अकाल फलत्व-ठीक समय पर फल नहीं देता, आगे पीछे फल देता है उसमें भी वृक्षत्व का अभाव नहीं होता । वह वृक्ष तो है ही । वृक्ष वृक्ष से भिन्न नहीं इत्यादि दृष्टान्त को यहां पोषित करना चाहिये-यथावत समझना चाहिये। इसी प्रकार जो गाय बिल्कुल दूध नहीं देती या जो गाय अल्प मात्रा में दूध देती है वहां गौत्व का अभाव सिद्ध नहीं होता अर्थात् वे गायें ही नहीं हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता । गायें तो वे हैं ही। इस उदाहरणों द्वारा तद्गत तथ्य की पोसना करनी चाहिये । तुलनापूर्वक सत्य की स्थापना करना चाहिये ।
संति
पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया ।
आय छट्टो पुणो आहु, आया लोगे य सास ॥१५॥
छाया संति पंच महाभूतानि इहैकेषामाख्यातानि ।
आत्मषष्ठानि पुनराहु, रात्मा लोकश्च शाश्वतः ॥
अनुवाद – कई वादी- सैद्धान्तिक ऐसा निरूपित करते हैं कि इस जगत में पृथ्वी आदि पांच महाभूत हैं। छठी आत्मा है । वे पुनः यो प्रतिपादन करते हैं कि आत्मा और लोक नित्य हैं ।
टीका • साम्प्रतमात्मष्ठवादिमतं पूर्वपक्षयितुमाह- 'संति' विद्यन्ते 'पंच महाभूतानि' पृथिव्यादीनि 'इह' अस्मिन् संसारे 'एकेषां' वेद वादिनां सांख्यानां शैवाधिकारिणाञ्च एतद् आख्यातम् आख्यातानि वा भूतानि, तेच वादिन एवमाहुः - एवमाख्यातवन्तः, यथा 'आत्मषष्ठानि' आत्मा षष्ठो येषां तानिआत्मषष्ठानि भूतानि विद्यन्ते इति एतानि चात्मषष्ठानि भूतानि यथाऽन्येषां वादिनामनित्यानि तथा नामीषामिति दर्शयति आत्मा 'लोकश्च' पृथिव्यादिरूपः ‘शाश्वतः " अविनाशी, तत्रात्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्त्तत्वाच्चाकाशस्येव शाश्वतत्वं पृथिव्यादीनां च तद्रुपाप्रच्युतुतैरविनश्वरत्वमिति ॥१५॥
टीकार्थ - सूत्रकार अब आत्मषष्ठवादी के सिद्धान्त को पूर्व पक्ष के रूप में उपस्थित करते हुए कहते हैं। वेद वादी - वेदों में विश्वास करने वाले सांख्य और शिव को परम तत्त्व मानने वाले वैशेषिक ऐसा निरूपित
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