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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः मन, पंचमहाभूत एक पुरुष-आत्मा-को जान लेता है, वह चाहे जिस आश्रम में वास करे, चाहे जटा धारण करे तथा मस्तक मंडाये रहे अथवा शिखा-चोटी धारण करे निश्चय ही वह मुक्त हो जाता है, मोक्ष पा लेता है, यह कथन भी अपार्थक-निरर्थक होगा । ।
आत्मा को सबमें व्यापक मानने से, नित्य मानने से देवयोनि, मनुष्य योनि आदि में जाना, वहां से आना-पुनः किसी योनि में जन्म लेना यह संभव नहीं हो सकता । आत्मा को नित्य मानने से उसे किसी प्रकार की विस्मृति-विस्मरण या भूल नहीं होती । उसमें सब यथावत स्मृति में बना रहता है। ऐसा होने से जाति स्मरणपूर्व जन्म का ज्ञान आदि क्रिया भी उत्पन्न-निष्पन्न नहीं होती । 'तथा' आदि के प्रयोग से यहां यह तात्पर्य है कि प्रकृति कर्तृ है-जो कुछ क्रिया जगत में की जाती है उसका कर्तृत्त्व प्रकृति में है । पुरुष उसके फल का भोक्ता है । सांख्य में आत्मा को पुरुष कहा जाता है । इसलिये यहाँ इसका तात्पर्य यह है कि प्रकृति द्वारा किये गये कर्मों का फल आत्मा भोगती है । ऐसा सिद्ध नहीं होता क्योंकि भोगना भी एक क्रिया है । आत्मा को सांख्य में निष्क्रिय या अक्रिय माना जाता है । यदि यों कहा जाय कि मुद्रा प्रतिबिम्ब न्याय से आत्मा द्वारा प्रकृतिकृत कर्मों का फल भोगा जाना माना जा सकता है अर्थात् जैसे मुद्रा-मूर्ति आदि बाहर रहते हुए भी दर्पण में प्रतिबिम्बित होते हैं, वे दर्पण में रहे हुए प्रतीत होते हैं, उसी तरह भोग क्रिया यद्यपि आत्मा में नहीं होती पर वह दर्पण में प्रतिबिम्बित मूर्ति की ज्यों प्रतीत होती है । यह कथन केवल वाक् विलास है, युक्ति शून्य है । इसे आपके वही सुहदमित्र स्वीकार करेंगे जिन्हें वास्तविकता का बोध नहीं होता । यह भी क्या विचारणीय नहीं है कि दर्पण में प्रतिबिम्ब का उदित होना भी एक प्रकार की क्रिया ही है । जब आत्मा नित्य है-अविकारीविकार रहित या परिवर्तन रहित है, तो उसमें यह क्रिया कैसे हो सकती है । दर्पण में मूर्ति के प्रतिबिम्ब के उदित होने की तरह आत्मा में उस प्रकार की क्रिया का अभाव रहता है, वैसी क्रिया कभी निष्पन्न होती नहीं। यदि ऐसा कहते हो कि आत्मा में भुजि क्रिया-भोगात्मक क्रिया तथा प्रतिबिम्ब का उदय होता है । अतएव इस अपेक्षा से हम आत्मा को सक्रिय मानते हैं तो ठीक है। इतने मात्र से-इस क्रिया की अपेक्षा से हम आत्मा को सक्रिय मान सकते हैं किन्तु इतने मात्र से हम उसे समस्त क्रियाएं करने में सक्षम या समुद्यत नहीं मान सकते । समस्त क्रियाएं करने पर आत्मा को सक्रिय माना जा सकता है । ऐसी आशंका कर नियुक्तिकार लिखते
फल का न लगना वृक्ष के अभाव को सिद्ध नहीं करता क्योंकि वृक्ष के यदि फल लगे तो वह वृक्ष कहलाये और फल न लगे तो वह वृक्ष कहलाने योग्य नहीं है, ऐसा नहीं होता । इसी प्रकार यद्यपि आत्मा शयनादि दैहिक स्थितियों में कथंचित-उक्त स्थितियों की अपेक्षा से निष्क्रिय-क्रिया रहित होती है किन्तु इतने मात्र से उसे क्रिया शून्य कहा जाय ऐसा संगत नहीं होता । जिन वृक्षों के थोड़े फल लगते हैं वे वृक्ष के अभाव या अवृक्षत्व के साधक नहीं होते अर्थात् भरपूर फल लगने से ही पृथक् कहा जाय ऐसा नहीं होता। कटहल आदि वृक्षों के बहुत कम फल लगते हैं, पर वे वृक्ष कहे जाते हैं । इसी प्रकार आत्मा यदि स्वल्प क्रियावान हो-थोड़ी क्रियाकर्ती हो तो भी वह क्रियावान-सक्रिय कही जाती है । यदि आप अपना मन्तव्य यों बतलाये कि जिसके थोड़ी क्रिया होती है, वह क्रिया-शून्य ही है, जिसके पास मात्र एक पैसा हो वह धनी नहीं कहा जाता इसी प्रकार आत्मा भी स्वल्प क्रियत्व-थोड़ी क्रियाकारिता के कारण सक्रिय नहीं कही जाती है, वह अक्रिय ही है-यों कहना अचारू-असुन्दर या अनुपयुक्त नहीं है । प्रश्न है आपने यह दृष्टान्त किसी प्रतिनियत-विशेष पुरुष की अपेक्षा से दिया है अथवा समस्त पुरुषों की अपेक्षा से दिया है । यदि आपने किसी ऐसे व्यक्ति
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