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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
तज्जीव तच्छरीरवादी सैद्धान्तिकों ने आत्मा के संबंध में जो बतलाया कि वह विज्ञान घन - अत्यन्त विज्ञान समनिम्वत तथा विज्ञान पिंड है, पंचभूतों से समुत्थित आविर्भूत होकर उनका विनाश होने पर विनष्ट हो जाती है, यह ठीक नहीं है । जिस श्रुति का शास्त्रवाक्य का वे उल्लेख करते हैं उस श्रुति का अभिप्राय इस प्रकार है - विज्ञान घन, विज्ञानपिंड आत्मा पूर्व भव में आचीर्ण कर्मों के अनुसार देह रूप परिणत पंचमहाभूतों के माध्यम से अपने कर्मों का फल भोग कर, उन भूतों का विनाश हो जाने पर अपने उस रूप से वह विनष्ट हो जाती है और फिर अपर पर्याय- दूसरे देह में- भव में उत्पन्न होती है। उन भूतों के साथ आत्मा विनष्ट हो जाती है, इस श्रुति का ऐसा अभिप्राय नहीं है। साथ ही यह जो कहा गया है कि धर्मी रूप में आत्मा का अस्तित्त्व सिद्ध न होने से धर्म रूप पाप पुण्य का भी अस्तित्व सिद्ध नहीं होता जब धर्मी आत्मा नहीं है तो पाप पुण्य रूप धर्म कहां से होंगे। ऐसा कहना भी युक्ति संगत नहीं है अभी पहले जो युक्तियां उपस्थित की गई है, उनसे धर्मी रूप आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। जब धर्मी के रूप में आत्मा की सिद्धि हो जाती है तो पाप पुण्य जो उसके धर्म है-वे भी सिद्ध हो जाते हैं, ऐसा समझना चाहिये । तथा इस संसार में विचित्रता विलक्षणता या विविधता दृष्टिगोचर होती है, उससे भी पाप पुण्य का होना सिद्ध होता है ।
तज्जीव तच्छरीरवादी ने स्वभाव का आशय लेकर जगत की विचित्रता सिद्ध करने हेतु पाषाणखण्डों का जो उदाहरण दिया वह भी उपयुक्त नहीं है क्योंकि वह उन पाषाण खण्डों का भोग करने वाले उनके अधिकारियों या मालिकों के कर्मों के प्रभाव वैसा हुआ है । उनके अनुसार पाप पुण्य का सद्भाव - अस्तित्व मिटाया नहीं जा सकता । आत्मा का अभाव या नास्तित्व सिद्ध करने हेतु केले के तने आदि के जो उदाहरण दिये गये हैं, वे भी केवल कथन मात्र हैं, क्योंकि पहले जो युक्तियां दी गई हैं, उससे परलोक जाने वाले भूतों से पृथक् आत्मा- जो सारभूत है - सिद्ध हो जाता है । इसलिये इस संबंध में और अधिक विस्तार में जाना आवश्यक नहीं है ।
अवशिष्ट सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा जाता है । यह संसार चार गतियों के प्राणियों से युक्त है। वह एक भव से दूसरे भव में जाते हैं। कोई सुभग- सौभाग्ययुक्त, कोई दुर्भग- दुर्भाग्ययुक्त, कोई सुरुप - सुन्दर रूप युक्त, कोई मंद रूप-रूप रहित या कुरुप, कोई ऐश्वर्यशाली - धन वैभव सम्पन्न तथा कोई दरिद्र - अभावग्रस्त इत्यादि भिन्न-भिन्न रूपों में उत्पन्न होता है। भूतों से पृथक् आत्मा नामक स्वतन्त्र पदार्थ न मानने वाले तज्जीव तच्छरीरवादियों के सिद्धान्तानुसार यह किस प्रकार हो सकता है। किस युक्ति से घटित होता है । वे आत्मा का अस्तित्त्व नहीं मानते, इसलिये उनके सिद्धान्तानुसार जगत की विचित्रता, विविधरूपता घटित नहीं होती । अतः वे नास्तिक - परभव आदि में आस्था नहीं रखने वाले, ऐसी आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते जो परलोकगामी है । अतः वे पुण्य-पाप को भी नहीं मानते । इसलिये जैसा मन में आता है वे करते हैं । वे एक अज्ञानरूप अंधकार से निकल कर फिर दूसरे अज्ञान मूलक अंधकार में जाते हैं। इसका अभिप्राय यह है वे यों करते हुए ज्ञानावरणीय ज्ञान को ढंकने वाले कर्म आदि के रूप में महत्तर- बड़े से बड़े अंधकार का संचय करते हैं अथवा जो अंधकार के सदृश्य है उसे यहां तम के रूप में अभिहित किया गया है । नरक आदि के स्थान के लिये, जहां जीवों को घोर कष्ट दिये जाते हैं, जिसके कारण उन स्थानों में नारकीयों का सद्भाव - विवेक नष्ट हो जाता है, यह शब्द प्रयुक्त है, उस अंधकार से उन नरक स्थानों से निकलकर उस से भी घोर तर अंधकार में-नरकों में प्रयाण करते हैं उससे आगे वे सप्तम नरक भूमि में जिसमें रौरव, महारौरव, काल, महाकाल, अप्रतिष्ठान संज्ञक नरक खास विद्यमान है, जाते हैं ।
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