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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
अब प्रश्न उठाया जाता है-वे नरकों में क्यों जाते हैं ? समाधान में कहा जाता है वे मंद - ज्ञान रहित जड़ - बौद्धिक चेतना शून्य है, मूर्ख हैं। आत्मा के युक्तियों द्वारा सिद्ध होने पर भी अपने अभिनिवेश-मिथ्या आग्रह के कारण उसे नहीं मानते हैं और विवेकशील पुरुषों ने प्राणी उपमर्दन-प्राणी हिंसा रूप जिन कार्यों की निंदा की है उसमें वे निश्चित रूपेण लगे रहते हैं । वे पुण्य और पाप कुछ नहीं है ऐसा मानकर परलोक से सर्वथा निरपेक्ष रहते हुए, उसकी चिन्ता या परवाह न करते हुए आरंभ मिश्रित हिंसा आदि आरंभ समारंभ कार्यों में उद्यत रहते हैं। नियुक्तिकार ने भी तज्जीवतशरीरवादी के सिद्धान्त का निराकरण करते हुए 'पंचण्ह' इत्यादि गाथा का प्रतिपादन किया । वह गाथा पहले की ज्यों यहां पर भी लागू होती है । अब अकारकवादी के सिद्धान्त को आश्रित कर लेते हुए इस श्लोक की पुनः व्याख्या की जाती है ।
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ये अकारकवादी अमूर्तत्व-निराकारता, नित्यत्व, अविनश्वरता तथा सर्वव्यापित्व सर्वत्र व्यापकता - इन्हें आत्मा का गुण मानते हैं, तदनुसार आत्मा को वे नित्य, अमूर्त सर्वव्यापी कहते हैं । निष्क्रिय मानते हैं । यदि उनके मत को सही माना जाय, आत्मा वस्तुतः निष्क्रिय हो, तो वृद्धावस्था, मृत्यु दुःख, आक्रन्दन-शोक से रोना पीटना तथा हर्ष आदि और नारक तिर्यंच मनुष्य और देव गति रूप यह संसार कैसे संभव हो सकता है । निष्क्रियता से ये बातें कैसे सध सकती है । यदि आत्मा को उत्पत्ति और विनाश रहित, स्थिरतायुक्त तथा एक स्वभाव से विद्यमान माना जाये तो पूर्वोक्त संसार की स्थिति किसी प्रकार नहीं बनती, इसलिये वे अकारकवाद में आस्थावान पुरुष जो दृष्ट-देखी जाती और ईष्ट चाही जाती वस्तु के स्वीकारने में बाधा उपस्थित करने वाले एक अज्ञान से निकलकर उससे भी निम्न कोटि के अज्ञान को, यातना स्थान - नरकादि घोर पीड़ा जनक स्थान को प्राप्त करते हैं । ऐसा क्यों होता है, इस पर कहते हैं कि वे मंद एवं जड़ है प्राणियों के अपकार - हिंसा में उन्हें पीड़ा देने में संलग्न रहते हैं । अब नियुक्तिकार अकारकवादियों के सिद्धान्त का निराकरण - खण्डन करने हेतु प्रतिपादित करते हैं ।
अकृत्-नहीं किया हुआ कर्म कौन जानता है ? अर्थात् यदि कोई कर्त्ता नहीं है तो उस द्वारा कृतकिया कर्म भी नहीं हो सकता। जो नहीं किया गया है उसे कौन कैसे अनुभव कर सकता है। यदि आत्मा को निष्क्रिय क्रिया रहित - कतृत्व रहित माना जाय तो अनुकूल प्रतिकूल वेदनीयात्मक सुख दुःख भी घटित नहीं होता । यदि किसी कर्म के न किये जाने पर भी उसका सुख दुःख भोगा जाय तो अकृतागम और कृतनाश के रूप में दोष उपस्थित होते हैं । अकृतागम का तात्पर्य जो कर्म नहीं किये गये है, उनका फल भोगना है। जिसे असम्भव की कोटि में माना जा सकता है तथा कृत कर्म का फल न भोगना कृतनाश दोष के रूप अभिहित होता है । कर्म किया गया हो और फल न भोगा जाय, यह भी असंभव जैसी स्थिति है ।
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आत्मा के सर्व व्यापित्व मूलक पक्ष को दृष्टि में रखते हुए कहा जाता है कि वैसा होने से एक प्राणी द्वारा किये गये पाप कर्मों को सब प्राणी भोगे, दुःखी हो तथा किसी एक के द्वारा आचरित पुण्य कार्य से सभी प्राणी सुखी हो ऐसा होना चाहिये । किन्तु ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता और न ऐसा होना इष्ट- अभीप्सित ही है । आत्मा यदि सर्व व्यापक है वह नित्य है तो नरक गति, तिर्यक् गति, मनुष्य गति देवगति तथा मुक्ति में पांचों सध नहीं सकती। तो आप सांख्य मतालम्बियों द्वारा काषाय वस्त्र धारण किया जाना, मस्तक आदि का मुंडन कराया जाना, दण्ड धारण किया जाना, भिक्षा में प्राप्त भोजन द्वारा निर्वाह करना, पंचरात्र नामक अपने शास्त्र के उपदेशानुरूप यम-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का पालन करना निरर्थक होगा । साथ
साथ यह जो कहा गया है कि जो पच्चीस तत्त्वों-प्रकृति, महत्, अहंकार, पंचतन्मात्राएं, दस इन्द्रियां, एक
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