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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् किसी द्वारा कृत निर्मित नहीं है, वह आदियुक्त और निश्चित आकारयुक्त नहीं होता, जैसे आकाश इसका उदाहरण है । अतएव जो पदार्थ आदियुक्त तथा निश्चित आकार युक्त होता है उसका सकर्तृक होता है-वह किसी न किसी द्वारा कृत-किया हुआ होता है, यह व्याप्ति है-व्यापकता का सिद्धान्त है । जहां व्यापकता की निवृत्ति होती है-जहां व्यापक नहीं होता, वहां व्याप्य की भी विनिवृत्ति होती है-वहां व्याप्य भी नहीं होता । अतएव यदि देह किसी द्वारा कृत नहीं है तो वह सादि और नियत आकार युक्त भी नहीं हो सकता । इस बात को सब जगह जोड़ना चाहिये और भी-इन्द्रियों का कोई न कोई अवश्य ही अधिष्ठाता है-संचालक है, क्योंकि इन्द्रियाँ करण या साधन का रूप लिये हुए है । इस संसार में जो जो करण-साधन होते हैं, उनका कोई न कोई संचालयिता अवश्य ही होता है । चाक घुमाये जाने के लिये प्रयुक्त कुम्हार का दंड या डण्डा इसका उदाहरण है । दंड साधन है, कुम्भकार इसका अधिष्ठाता या संचालक नहीं होता, वह करण या साधन नहीं हो सकता। आकाश इसका उदाहरण है । आकाश का कोई अधिष्ठायक नहीं है, इसलिये आकाश करण या सादन नहीं है । इन्द्रियों का अधिष्ठायक आत्मा है । वह उन इन्द्रियों से पृथक् है-भिन्न है । उन इन्द्रियों और विषयों का आदाता-ग्राहक, ग्रहण करने वाला कोई अवश्य है क्योंकि वहां आदानादेय भाव-ग्राहक ग्राह्यभावग्रहण करने वाले और ग्रहण किये जाने वाले का संबंध दृष्टिगोचर होता है-प्रतीत होता है। जहां जहां आदानादेय या ग्राहक ग्राह्य भाव होता है वहां आदान या ग्रहण करने वाला कोई न कोई पदार्थ अवश्य होता है । उदाहरण के लिये लौह के पिंड और संडासी को लिया जा सकता है । संडासी को इंद्रिय स्थानीय और लौह पिंड को विषय रूप माना जा सकता है । लुहार उनका अधिष्ठायक या संचालक है । इंद्रिय विषय और उनके ग्राहक आत्मा के साथ इस उदाहरण को जोड़ा जा सकता है।
___इसलिये इन्द्रियात्मक या इन्द्रिय रूप करणों या साधनों द्वारा जो विषयों का आदाता या ग्राहक होता है वह उनसे-इन्द्रियों से पृथक् आत्मा है । अर्थात् इस शरीर का भोक्ता-भोग करने वाला कोई अवश्य होना ही चाहिये क्योंकि चावल आदि खाद्य पदार्थ जिस प्रकार भोग्य है उसी प्रकार यह शरीर भी एक भोग्य पदार्थ है । पूर्ववर्ती उदाहरण में आये कुम्भकार पदार्थ मूर्त-मूर्त्तिमान अनित्य-नश्वर तथा अवयवी अवयववान है । इन्हें देखते आत्मा भी मूर्त, नश्वर और अवयववान अंगोपांग युक्त क्यों नहीं है । ऐसी शंका करना युक्ति विरुद्ध है-नहीं करनी चाहिये ? क्योंकि सांसारिक आत्माएं कर्म के साथ बंधी हुई होने से कथञ्चित-एक सीमा तकएक अपेक्षा से मूर्तत्व आदि से युक्त भी मानी जाती है।
_यह जो कहा गया कि प्राणी परलोक में नहीं जाते, नया जन्म नहीं ग्रहण करते, ऐसा कहना भी अयुक्तियुक्त है क्योंकि उसी दिन जन्मे बच्चे में अपनी माँ के स्तनों का दूध पीने की अभिलाषा और चेष्टा दिखाई पड़ती है । यह ज्ञान या प्रवृत्ति अन्य विज्ञानपूर्वक किसी पहले के ज्ञान के कारण होती है क्योंकि जो जो इच्छा उत्पन्न होती है-ज्ञान होता है, उसके पूर्व में अन्य इच्छा और ज्ञान रहते हैं । बालक का ज्ञान उसका उदाहरण है । उसी दिन जन्मा हुआ बालक जब तक यह नहीं जान पाता, नहीं निश्चय कर पाता कि वह यही स्तन है, जो उसका अनुभूतपूर्व है, तब तक वह रूदन छोड़कर उस स्तन में मुंह नहीं लगाता । इससे यह साबित होता है कि बालक में विज्ञान लेश-आंशिक ज्ञान अवश्य है । वह आंशिक ज्ञान अन्य विज्ञानपूर्वक है, अर्थात् उसके पूर्व में अन्य विज्ञान रहा हुआ है। वह अन्य विज्ञान भवान्तर का विज्ञान है । दूसरे भव में प्राप्त ज्ञान या अनुभव के अनुसार है । इससे यह सिद्ध होता है कि प्राणी औपपातिक है-परलोकगामी है, दूसरे भव में जन्म लेता
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