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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ।। पान ४५ ॥
अस्ति नास्तिअवक्तव्य ऐसा कहिये । ऐसें विधिनिषेधके सप्तभंग शब्द वस्तुकों साधे हैं ॥
बौद्धमती ऐसे कहै हैं, जो, वस्तूका निजस्वरूप तौ वचनगोचर नांही, प्रत्यक्षगोचर है । तातें अवक्तव्यही है । सो यहु सर्वथा एकांतकरि युक्त नांही । सर्व वस्तु समानपरिणाम असमान परिणामरूप हैं । तहां जे समानपरिणाम हैं ते तौ वचनगोचर हैं । बहुरि सर्वथा असमान परिणाम शुद्धद्रव्यके शुद्ध पर्याय अर गुरुलघुगुणके अविभागप्रतिच्छेदरूप पर्याय है । सो यहु काहु द्रव्य के समान नांही । तातैं वचनगोचर नांही । जातें वचनका परिणाम तौ संख्यातही है । अरु ए असमानपरिणाम अनंतानंत हैं । तातैं वचनमैं इनिकी संज्ञा वधै नांही । तातें अवक्तव्यही है । ऐसें वक्तव्यावक्तव्यरूप वस्तुका स्वरूप है बहुरि वाक्यविषै ऐसें ही है ऐसा नियमवचनभी चाहिये । जातैं नियम कह्याविना, वचन कह्याही न कह्यासमान है | अरु नियम कहै अन्यका निषेध होय है । तातैं अपने अर्थका नियम करने कूं अन्यशब्दका सहाय चाहिये । बहुरि अनेकांतके प्रकाशनेकू स्यात् शब्दका प्रयोगभी अवश्य चाहिये । जातैं सर्वथा एकांतका निराकरण कथंचित् वचन होय है । सो याका वाचक स्यात् ऐसा निपातशब्द है । सो सर्वनय तथा प्रमाणके वाक्य आदि कहना । इहां उदाहरण -- स्यादस्त्येव जीवादिः स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावात् ।
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