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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ।। पान ४३ ॥
मिथ्या है । जातें कल्पनामात्रही है । मिथ्यात्वकर्मके उदयतें यह निपजै हैं । वस्तुस्वरूप कल्पित है ही । बहुरि नय हैं ते श्रुतज्ञान के अंश हैं । मति अवधि मनःपर्यय ज्ञानके अंश नांही । तातें वचननिमित्ततें उपज्या जो परोक्ष श्रुतज्ञान ताहीके विशेष संभवै, प्रत्यक्षके विशेष संभव नाही । बहुरि प्रमाणनयकरि भया जो अपनां स्वरूपका आकार तथा अन्यपदार्थका आकारसहित निश्चय ari अधिगम कहिये । सो यहू प्रमाणका कथंचित् अभेदरूप फल है ||
केई वेदांतवादी तथा विज्ञानाद्वैतवादी अपनां स्वरूपका निश्वयकों ई अधिगम कहे हैं । केई परका निश्चयकों ई कहे हैं । तिनका कहना बाधासहित हैं । केई ज्ञानकों अर्थके आकारमान नेकों प्रमाण कहै हैं । ताका अभेदरूप अधिगमकूं फल कहैं हैं । भी सर्वथा एकांतवादिनिकै
ही | ज्ञान अर्थसमान होय नांही । ज्ञान तौ ज्ञानही है । अपनी स्वच्छतातें अन्य अर्थकों जाने है, तहां तदाकारभी कहिये । बहुरि कोई नेत्र आदि इंद्रियनिकूं प्रमाण कहै हैं । तभी बिना समझा हैं हैं । अचेतन इंद्रिय प्रमाण कैसें होय ? बहुरि भावइंद्रिय ज्ञानरूप हैं ते प्रमाणके भेदनिमें हैं ही ॥
बहुरि प्रमाणनयकर अधिगम का सोभी ज्ञानात्मकके तथा शब्दात्मकके भेदकर दोय
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