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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान ४२ ।।
पग पगथली अंगुली आदि अंग हैं, उपांग हैं । तिनिकूं अवयवभी कहिये । अंशभी कहिये । धर्मभी कहिये । बहुरि गोश सावला आदि वर्ण हैं तिनि गुण कहिये । बाल, कुमार, जुवान, बूढा आदि अवस्थाकूं पर्याय कहिये । सो सर्वका समुदाय कथंचिद्भेदाभेदरूप वस्तु है । तां अवयवी कहिये, अंगी कहिये, अंशी कहिये, धर्मी कहिये । ऐसें अंशीकूं कल्पित कैसे कहिये ? कल्पित होगा तो प्रत्यक्षबुद्धी में स्पष्ट कैसे भासेगा? बहुरि अनेक कार्य करने की शक्तिरूप जो अर्थक्रिया की शक्ति कैसे होगी ? सर्वथा भेदरूप अंशनिही मैं पुरुषके करनेयोग्य कार्यकी शक्ति नांही ।
कि इस मनुष्य नाम अंशीकी कल्पना छूटि अन्यवस्तूकी कल्पना होतैं वह मनुष्यवस्तु उत्तरकाल जैसा तैसा काहेकुं रहता ? तातें अंशी सत्यार्थ है । सोही प्रमाणगोचर भेदाभेदरूप भासै है | बहुरि नय हैं ते अंशनिकूं ग्रहण करे हैं । तहां मनुष्य गौणरूप होय है । जब केवल एक अभेदमाव अशी नांमा अंशकं ग्रहण करे तब तौ द्रव्यार्थिकनय है । तहां अभेदपक्ष मुख्य है, भेदपक्ष गौण है । बहुरि जब भेदरूप अंशनिकूं जुदे जुदे ग्रहण करे तहां पर्यायार्थिकनय है । इहां अभेदरूप गौण है, भेदपक्ष मुख्य है । तहांभी किसी एक अंशकूं मुख्य करे तब दूसरा अंश गौण हो है ऐसे सर्वही जीवादक पदार्थ प्रमाणनयकरि सत्यार्थ प्रतिभासे हैं । जो सर्वथा एकांतकी पक्ष है सो कल्पना
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