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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥पान ४० ॥
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कहसी । तहां प्रमाण दोय प्रकार है । एक स्वार्थ एक परार्थ । तहां स्वार्थ तो ज्ञानस्वरूप कहिये । बहुरि परार्थ वचनरूप कहिये । तामैं च्यारि ज्ञान तो स्वार्थरूप हैं । बहुरि श्रुतप्रमाण ज्ञानरूपभी है वचनरूपभी है। तातें स्वार्थपरार्थ दोऊ प्रकार है । बहुरि श्रुतप्रमाणके भेद विकल्प हैं ते नय हैं । इहां कोई पूछै नयशदके अक्षर थोडे हैं तातें बंदसमासमें पूर्वनिपात चाहिये । ताका उत्तर-प्रमाण प्रधान है, पूज्य है । सर्व नय हे ते प्रमाणके अंग हैं। जातें ऐसें कह्या है वस्तुको प्रमाणते ग्रहण करि बहुरि सत्त्व असत्त्व, नित्य अनित्य इत्यादि परिणामके विशेषते अर्थका अवधारण करना सो नय है । बहुरि प्रमाण सकल धर्म अर धर्मीकू विषय करै है । सोही कहा है सकलादेश तौ प्रमाणाधीन है । बहुरि विकलादेश नयाधीन है । ताते प्रमाणहीका पूर्वनिपात युक्त है । बहुरि नयके दोय भेद कहे । तहां पर्यायार्थिक नयकरि तौ भावतत्त्व ग्रहण करनां । बहुरि नाम स्थापना द्रव्य ये तीन द्रव्यार्थिकनयकरि ग्रहण करना । जातें द्रव्यार्थिक है सो सामान्यक्रू ग्रहण करै है । द्रव्य है विषय प्रयोजन जाका ताळू द्रव्यार्थिक कहिये । पर्याय है विषय प्रयोजन जाका ताकू पर्यायार्थिक कहिये । ये सर्व भेले प्रमाणकरि जानै ॥
इहां प्रश्न- जो, जीवादिकका अधिगम तौ प्रमाणनयनितें करिये । बहुरि प्रमाणनयनिका
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