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ॐ सिद्ध भगवान् .
जैसे घर के मध्यभाग में स्तंभ खड़ा होता है । उसी प्रकार लोक के मध्य में एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊपर नीचे तक लम्बी त्रसनाड़ी है। वसनाड़ी के अन्दर बस और स्थावर जीव होते हैं । बाकी सारा लोक स्थावर जीवों से ही भरा है । वसनाड़ी के बाहर ब्रस जीव नहीं होते ।x
लोक के तीन विभाग किये गये हैं-(१) अधोलोक (नीचालोक), (२) मध्यलोक (बीच का लोक), और (३) ऊर्ध्वलोक। इनका वर्णन क्रम से आगे किया जायगा।
अधोलोक
(नरक का वर्णन) लोक के नीचे और अलोक के ऊपर, वलय के अन्दर एक रज्जु ऊँची और ४६ रज्जु ( राजू ) के घनाकार विस्तार में माधवती ( तमस्तमःप्रभा) नामक नरक है। इसमें १०८००० योजन मोटा पृथ्वीमय पिण्ड है। उसमें से ५२॥ हजार योजन नीचे और ५२॥ हजार योजन ऊपर छोड़ कर बीच में ३ हजार योजन की पोलार है। उसमें एक पाथड़ा (प्रस्तर-गुफा जैसी जगह) है । उस पाथड़े में काल, महाकाल, रुद्र, महारुद्र और अप्रतिष्ठ नामक पाँच *नारकावास-नारक जीवों के रहने के स्थान हैं, जिनमें
४ सनाड़ी के बाहर त्रसजीव तीन कारणों से पाया जाता है-(१) किसी त्रसजीव ने त्रसबाड़ी के बाहर के स्थावरजीव के रूप में उत्पन्न होने की आयु बाँधी हो। वह मारगान्तिक समुद्घात करके आत्मप्रदेशों को त्रसनाड़ी से बाहर फैलाता है, (२) त्रसजीव आयु पूर्ण करके, विग्रहगति से जब त्रसनाड़ी के बाहर आता है, (३) केवलिसमुद्घात करते समय जब केवली के आत्मप्रदेश चौथे-पाँचवे समय में सम्पूर्ण लोक में फैलते हैं। (यह तीनों कारण कादाचित्क और सूक्ष्म समय के हैं)।
* जैसे मकान में मंजिल होती है वैसे ही नरक की मंजिलों को अन्तर कहते हैं और जैसे मंजिलों के बीच पृथ्वी का पिण्ड होता है तैसे ही अन्तर के बीच के पिण्ड को पाथड़ा कहते हैं। यह सब पाथड़े तीन-तीन हजार योजन के जाड़े (मोटे) और असंख्यात योजन लम्बे-चौड़े होते हैं। इसमें से एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे छोड़कर बीच में १००० योजन के पोले हैं। इन्हीं में नारकावास हैं। नारकावासों में नारकजीव रहते हैं।