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सिद्ध भगवान्
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अलोक अनन्तानन्त, अपरम्पार, अखण्ड, अमूर्तिक और केवल आकाशास्तिकाय ( पोलार ) मय है । जैसे किसी विशाल स्थान के मध्य में छींका लटका हो, उसी प्रकार लोक के मध्य में लोक है । विवाहप्रज्ञप्ति ( भगवती ) सूत्र में कहा है कि—जैसे जमीन पर एक दीपक उलटा रख कर उसके ऊपर दूसरा दीपक सीधा रख दिया जाय और उस पर तीसरा दीपक फिर उलटा रख दिया जाय तो जैसा आकार बनता है, वैसा ही कार लोक का है ।
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यह लोक नीचे सात राजू चौड़ा है। फिर ऊपर-ऊपर अनुक्रम से एक-एक प्रदेश कम चौड़ा होता होता, सात राजू की उँचाई पर — दोनों दीपकों की सन्धि के स्थान पर - एक राजू चौड़ा रह गया है । इससे आगे अनुक्रम से चौड़ाई बढ़ती गई है और साढ़े तीन राजू (नीचे से १० || राजू ) की उँचाई पर - दूसरे और तीसरे दीपक के सन्धिस्थान पर पाँच राजू चौड़ा है। फिर क्रम से घटता घटता अन्तिम भाग में तीसरे दीपक के अन्तिम भाग पर - एक राजू चौड़ा है। इस प्रकार सम्पूर्ण लोक नीचे से ऊपर तक सीधा १४ राजू लम्बा है और घनाकार मपती से ३४३ राजू परिमाण है । (अर्थात् - सम्पूर्ण लोक के विषम स्थान को सम करने से चौरस सात राजू लम्बा, सात राजू चौड़ा और सात राजू जाड़ा (मोटा ), इस प्रकार ७९७ = ४६ और ४६७ = ३४३ राजू होते हैं । तात्पर्य यह है कि यदि एक राजू लम्बे, एक राजू चौड़े और एक राजू मोटे खण्ड की कल्पना की जाय तो सम्पूर्ण - लोक के सब खण्ड ३४३ होते हैं । )
जैसे वृक्ष सभी ओर से त्वचा (छाल) से वेष्टित होता है, इसी प्रकार वेष्टित ( घिरा हुआ ) है । पहला 1
सम्पूर्ण लोक तीन प्रकार के वलयों से वलय घनोदधि ( जमे हुए पानी) का है।
वह नीचे के भाग में २०००
* राजू का परिमाण ३, ८१, २७, ६७० मन वजन को भार कहते हैं। ऐसे १००० भार के लोहे के गोले को कोई देवता ऊपर से नीचे फैंके । वह गोला छह महीने, छह दिन, छह प्रहर, छह घड़ी में जितने क्षेत्र को लाँघ कर जावे, उतने क्षेत्र को राजू-परिमाण जगह कहते हैं।