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धवला-टीका-समन्वितः
षट्खंडागमः
वेदनानयनिक्षेप-नयविभाषणता
नामविधान-द्रव्यविधान
खंड ४
भाग १,२,३,४
पुस्तक १०
सम्पादक
हीरालाल जैन
donlodinternational
wwaitianelarary.org
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श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतपलि-प्रणीतः .
षटखंडागमः
श्रीवीरसेनाचार्यविरचित-धवला टीका-समन्वितालार (राज.)
तस्य
चतुर्थखंडे वेदनानामधेये
हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टे : सम्पादितानि
वेदनानुयोगद्वारगर्भितानि वेदनानिक्षेपवेदनानयविभाषणताचेदनानामविधान वेदनाद्रव्यविधानानुयोगद्वाराणि
सम्पादकः नागपुर-विश्वविद्यालय-संस्कृत-पाली-प्राकृत-विभागाध्यक्ष : एम्. ए., एल्. एल्. बी., डी. लिट्. इत्युपाधिधारी
हीरालालो जैनः
सहसम्पादकः पं. बालचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री
संशोधने सहायकः डॉ. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथः उपाध्यायः एम् . ए., डी. लिट्.
प्रकाशक: श्रीमन्त शेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक फंड-कार्यालय
अमरावती ( बरार)
वि. सं. २०११]
[ ई. स. १९५४
वीर निर्वाण संवत् २४८१ मूल्यं रूप्यक द्वादशकम्
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प्रकाशकश्रीमन्त शेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र "जैन-साहित्योद्धारक फंड-कार्यालय ..
अमरावती ( बरार)
मुद्रक- . सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, अमरावती.
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THE
SATKHANDĀGAMA
OF
PUSPADANTA AND BHŪTABALĪ
WITH
THE COMMENTARY DHAVALA OF VIRASENA
VOL. X
Vednanikṣep-Vednanayavibhāṣanta-Vednānāmavidhana-Vednādravyavidhāna
Anuyogadwaras
Edited
with translation, notes and indexes
BY
Dr. HIRALAL JAIN M. A., LL. B., D. Litt.
ASSISTED BY
Pandit Balchandra Siddhanta Shastri,
with the cooperation of Dr. A. N. UPADHYE M. A., D. LITT.
Published by
Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra Jaina Sahitya Uddharaka Fund Karyalaya, AMRAVATI ( Berar).
1954.
Price rupees twelve only.
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Published by
Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra
Jaina Sahitya Uddharaka Fund Karyalaya, AMRAVATI (Berar)..
Printed by
Saraswati Printing Press,
AMRAVATI (Berar)
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विषय-सूची
१ प्राक् कथन
१
प्रस्तावना १ विषय-परिचय २ विषय-सूची ३ शुद्धि-पत्र
मृल, अनुवाद और टिपण १ वेदनानिक्षेप २ वेदनानयविभाषणता ३ वेदनानामविधान ४ वेदनाद्रव्यविधान
१-५१२ १- ९-१२ १३-१७ १८-५१२
१-१६
परिशिष्ट १ वेदनानिक्षेप आदिका सूत्रपाठ २ अवतरण-गाथा-सूची ३ न्यायोक्तियां ४ ग्रन्थोल्लेख ५ पारिभाषिक शब्द-सूची
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प्राक् कथन
षट्खंडागम भाग ९ को प्रकाशित हुए कोई पांच वर्ष व्यतीत हो गये । इस असाधारण विलम्बके पश्चात् यह दसवां भाग पाठकोंके हाथोंमें जा रहा है, इसका हमें खेद है। इस विलम्बका विशेष कारण है मुद्रणालयकी व्यवस्थामें गड़बड़ी और विपरिवर्तन । बीच में तो हमें यही दिखाई देने लगा था कि इस भागका शेषांश संभवतः अन्यत्र मुद्रित कराना पड़ेगा । किन्तु फिर व्यवस्था सम्हल गई, और कार्य धीरे धीरे अग्रसर होता हुआ अब यह भाग पूर्ण हो पाया है। पाठक इसके लिये हमें क्षमा करें। उन्हें यह जानकर संतोष होगा कि मुद्रणालयकी उक्त अव्यवस्थाके कालमें भी हम प्रमादग्रस्त नहीं रहे । अगले दो भागोंका मुद्रण भिन्न भिन्न मुद्रणालयोंमें चलता रहा है जिसके फल स्वरूप अब कुछ महिनोंके भीतर ही वे भाग भी पाठकोंके हाथोंमें पहुंच सकेंगे।
इस कालमें हमारा वियोग पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्रीसे हो गया जिसका हमें भारी दुख है। पंडितजी इस प्रकाशनके प्रारंभसे ही सम्पादकमण्डलमें रहे और यथासमय हमें उनसे पर्याप्त साहाय्य मिलता रहा। इस कारण उनका वियोग हमें बहुत खटका है। किन्तु कालकी गतिसे किसीका वश नहीं । संयोग-वियोगका क्रम अनिवार्य है। इसी विचारसे संतोष धारण करना पड़ता है।
__ इसी कालान्तरमें ताम्रपट लिखित प्रतिका भी प्रकाशन हो गया। जबसे यह प्रति हमारे हस्तगत हुई तबसे हमने अपने पाठके संशोधनमें अमरावती, कारंजा और आराकी हस्तलिखित प्रतियोंके साथ साथ इस मुद्रित प्रतिका भी उपयोग किया है। किन्तु हम अनेक स्थलोंपर इस संस्करणके पाठको भी स्वीकृत नहीं कर सके, जैसा कि पाठक पाद-टिप्पणमें दिये गये पाठान्तरोंसे जान सकेंगे। इस उपयोगके लिये हम उक्त प्रतियोंके अधिकारियों एवं ताम्रपट प्रतिके सम्पादकों व प्रकाशकोंके अनुगृहीत हैं।
प्रस्तुत भागके तैयार करनेमें पृष्ठ २९६ तक पाठ व अनुवाद संशोधनमें हमें पं. फूलचन्द्रजी शास्त्रीका सहयोग मिला है जिसके लिये हम उनके आभारी हैं। तथा पं. बालचन्द्र जी शास्त्रीको प्रूफपाठन, पाठमिलान एवं सूत्रपाठादि संकलन कार्यमें उनके चिरंजीव राजकुमार और नरेन्द्रकुमारसे भी सहायता मिलती रही है। इस कार्यके लिये सम्पादक-मण्डलकी ओर से वे आशीर्वादके पात्र हैं। श्री. पं. रतनचन्दजी मुख्तारने प्रस्तुत पुस्तकके मुद्रित फार्मोंपरसे स्वाध्याय कर अनेक संशोधन प्रस्तुत किये हैं जिनको हम साभार शुद्धि-पत्रमें सम्मिलित कर रहे हैं। शेष व्यवस्था पूर्ववत् स्थिर है।
__ श्रद्धेय पंडित नाथूरामजी प्रेमीका इस प्रकाशन कार्यमें आदिसे ही पूर्ण सहयोग रहा है। इस भागके प्रकाशनमें जो भारी विलम्ब हुआ उससे इस प्रकाशन कार्यका कोष प्रायः समाप्त हो गया है। इससे जो आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ उसके निवारणका भार प्रेमीजीने सहज ही स्वीकार कर लिया है । इसके लिये उनका जितना उपकार माना जाय थोड़ा है। १-११-१४}
हीरालाल जैन
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विषय-परिचय
। अग्रायणीय पूर्वकी पंचम वस्तु चयनलब्धिके अन्तर्गत २० प्राभृतोंमें चतुर्थ प्राभृतका नाम 'कर्मप्रकृति ' है। इसमें कृति व वेदना आदि २४ अनुयोगद्वार हैं। इनमेंसे कृति व वेदना नामक २ अनुयोगद्वार षट्खण्डागमके 'वेदना' नामसे प्रसिद्ध इस चतुर्थ खण्डमें वर्णित हैं। उनमें कृति अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा पूर्व प्रकाशित पुस्तक ९ में विस्तारपूर्वक की जा चुकी है। वेदना महाधिकारके अन्तर्गत निम्न १६ अनुयोगद्वार हैं-- (१) वेदनानिक्षेप (२) वेदनानयविभाषणता ( ३) वेदनानामविधान ( ४ ) वेदनाद्रव्यविधान ( ५ ) वेदनाक्षेत्रविधान (६) वेदनाकालविधान (७) वेदनाभावविधान (८) वेदनाप्रत्ययविधान (९) वेदनास्वामित्वविधान (१०) वेदना-वेदनाविधान (११) वेदनागतिविधान (१२) वेदना-अन्तरविधान (१३ ) वेदनासंनिकर्षविधान (१४) वेदनापरिमाणविधान (१५) वेदनाभागाभागविधान और (१६) वेदनाअल्पबहुत्व । प्रस्तुत पुस्तकमें इनमेंसे आदिके चार अनुयोगद्वार प्रगट किये जा रहे हैं।
१ वेदनानिक्षेप ___ इस अनुयोगद्वारमें वेदनाको नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना; इन चार भेदोंमें निक्षिप्त किया गया है । बाह्य अर्थका अवलम्बन न करके अपने आपमें प्रवृत्त 'वेदना' शब्दको नामवेदना कहा गया है । वह वेदना यह है' इस प्रकार अभेदपूर्वक वेदना स्वरूपसे व्यवहृत पदार्थ स्थापनावेदना कहा जाता है। वह सदभावस्थापना और असदभावस्थापनाके भेदसे दो प्रकार है । वेदनाका अनुसरण करनेवाले पदार्थमें वेदनाके आरोपको सद्भावस्थापना और उसका अनुसरण न करनेवाले पदार्थमें उक्त वेदनाके आरोपको असद्भावस्थापना बतलाया है ।
द्रव्यवेदनाके आगमद्रव्यवेदना और नोआगमद्रव्यवेदना ये दो भेद किये गये हैं । इनमेंसे नोआगमद्रव्यवेदनाके ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त इन तीन भेदोंके अन्तर्गत ज्ञायकशरीरके भी भावी, वर्तमान और समुध्यात ( त्यक्त) ये तीन भेद बतलाये हैं। तव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यवेदनाके कर्म व नोकर्म रूप दो भेदोंमेंसे कर्मवेदना ज्ञानावरणादिके भेदसे आठ प्रकारकी और नोकर्मवेदना सचित्त, अचित्त एवं मिश्रके भेदसे तीन प्रकारकी बतलाई गई है। इनमें सिद्ध जीवद्रव्यको सचित्त द्रव्यवेदना; पुद्गल, काल, आकाश, धर्म व अधर्म द्रव्योंको अचित्त द्रव्यवेदना; तथा संसारी जीवद्रव्यको मिश्रवेदना कहा गया है।
भाववेदना आगम और नोआगम रूप दो भेदोंमें विभक्त की गई है । इनमें वेदनाअनुयोगद्वारके जानकार उपयोग युक्त जीवको आगमद्रव्यवेदना निर्दिष्ट करके नोआगमभाववेदनाके जीवभाववेदना और अजविभाववेदना ये दो भेद बतलाये हैं । उनमें जीवभाववेदना औदायिक भादिके भेदसे पांच प्रकार तथा अजीवभाववेदना औदायक व पारिणामिकके भेदसे दो प्रकारकी निर्दिष्ट की गई है।
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(२)
प्रस्तावना
२ वेदनानयविभाषणता वेदनानिक्षेप अनुयोगद्वारमें बतलाये गये वेदनाके उन अनेक अर्थों मेंसे यहां कौनसा अर्थ प्रकृत है, यह प्रगट करनेके लिये प्रस्तुत अनुयोगद्वारकी आवश्यकता हुई । तदनुसार यहां यह बतलाया गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार, इन तीन द्रव्यार्थिक नयोंके अवलम्बनसे वेदनानिक्षेपमें निर्दिष्ट सभी प्रकारकी वेदनायें अपक्षित हैं। ऋजुसूत्र नय एक स्थापनावेदनाको स्वीकार नहीं करता, शेष सब वेदनाओंको वह भी स्वीकार करता है । स्थापनावेदनाको स्वीकार न करनेका कारण यह है कि स्थापनानिक्षेपमें पुरुषसंकल्पके वशसे पदार्थको निज स्वरूपसे ग्रहण न करके अन्य स्वरूपसे ग्रहण किया जाता है। यह ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, एक समयवर्ती वर्तमान पर्यायको विषय करनेवाले इस नयके अनुसार पदार्थका अन्य स्वरूपसे परिणमन हो नहीं सकता। शब्दनय नामवेदना और भाववेदनाको ही ग्रहण करता है, स्थापनावेदना और द्रव्यवदनाको वह ग्रहण नहीं करता। यहां द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा बन्ध, उदय व सत्त्व स्वरूप नोआगमकर्मद्रव्यवेदनाको; ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा उदयगत कर्मवेदनाको, तथा शब्दनयकी अपेक्षा कर्मके उदय व बन्धसे जनित भाववेदनाको प्रकृत बतलाया गया है।
३ वेदनानामविधान बन्ध, उदय व सत्त्व स्वरूपसे जीवमें स्थित कर्मरूप पौद्गलिक स्कन्धोंमें कहां कहां किस किस नयका कैसा प्रयोग होता है, इस प्रकार नयाश्रित प्रयोगप्ररूपणाके लिये प्रस्तुत अनुयोगद्वारकी आवश्यकता बतलाई गई है। तदनुसार नैगम और व्यवहार नयके आश्रयसे नोआगमद्रव्यकर्मवेदना ज्ञानावरणीय आदिके भेदसे आठ प्रकारकी कही गई है, कारण यह कि यथाक्रमसे उनके अज्ञान, अदर्शन, सुख-दुखवेदन, मिथ्यात्व व कषाय, भवधारण, शरीररचना, गोत्र एवं वीर्यादिविषयक विघ्न स्वरूप आठ प्रकारके कार्य देखे जाते हैं। यह हुई वेदनाविधानकी प्ररूपणा । नामविधानकी प्ररूपणामें ज्ञानावरणीय आदि रूप कर्मद्रव्यको ही ' वेदना' कहा गया है। संग्रहनयकी अपेक्षा सामान्यसे आठों कर्मोंको एक वेदना रूपसे ग्रहण किया गया है, क्योंकि, एक ही वेदना शब्दसे समस्त वेदनाविशेषोंकी अविनाभाविनी एक वेदना जातिकी उपलब्धि होती है । ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना आदिका निषेध कर एक मात्र वेदनीय कर्मको ही वेदना स्वीकार किया गया है, क्याकि, लोकमें सुख-दुखके विषयमें ही वेदना शब्दका व्यवहार देखा जाता है । शब्दनयकी अपेक्षा वेदनीय कर्मद्रव्यके उदयसे उत्पन्न सुख-दुखका अथवा आठ कर्मोंके उदयसे उत्पन्न जीवपरिणामको ही वेदना कहा गया है, क्योंकि, शब्दनयका विषय द्रव्य सम्भव नहीं है।
४ वेदनाद्रव्यविधान वेदनारूप द्रव्यके सम्बन्धमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट एवं जघन्य आदि पदोंकी प्ररूपणाका नाम वेदनाद्रव्यविधान है। इसमें पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य बतलाये गये हैं।
(१) पदमीमांसामें ज्ञानावरणीय आदि द्रव्यवेदनाके विषयमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य,
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विषय-परिचय
अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोम-नोविशिष्ट; इन १३ पदोंका यथासम्भव विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त सामान्य चूंकि विशेषका अविनाभाषी है, अत एव उक्त १३ पदोंमेंसे एक एक पदको मुख्य करके प्रत्येक पदके विषयमें भी शेष १२ पदों की सम्भावनाका विचार किया गया है। इस प्रकार ज्ञानावरणादि प्रत्येक कर्मके सम्बन्ध १६९ { १३ + ( १३ × १२ ) = १६९ } प्रश्न करके उक्त पदों के विचारका दिग्दर्शन कराया गया है। उदाहरण के रूपमें ज्ञानावरणको ही ले लें। उसके सम्बन्धमें इस प्रकार विचार किया गया है
ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यसे क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है, क्या ओज है, क्या युग्म है, क्या ओम है, क्या विशिष्ट है, और क्या नोम-नोविशिष्ट है; इस प्रकार १३ प्रश्न करके उनके ऊपर क्रमशः विचार करते हुए कहा गया है कि ( १ ) उक्त ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यसे कथंचित् उत्कृष्ट है, क्योंकि, गुणितकर्माशिक सप्तम पृथिवीस्थ नारकी जीवके उस भवके अन्तिम समय में ज्ञानावरणीयको उत्कृष्ट वेदना पाई जाती है । ( २ ) कथंचित् वह अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, गुणितकर्मशिकको छोड़कर शेष सभी जीवोंके ज्ञानावरणीयका द्रव्य अनुत्कृष्ट पाया जाता है । ( ३ ) कथंचित् वह जघन्य है, क्योंकि, क्षपितकर्माशिक क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीवके इस गुणस्थानके अन्तिम समय में ज्ञानावरणीयका द्रव्य जघन्य पाया जाता है । ( ४ ) कथंचित् वह अजघन्य हैं, क्योंकि, उक्त क्षपितकर्माशिकको छोड़कर अन्य सब प्राणियों में ज्ञानावरणीयका द्रव्य अजघन्य देखा जाता है । ( ९ ) कथंचित् वह सादि है, क्योंकि, उत्कृष्ट आदि पदोंका परिवर्तन होता रहता है, वे शाश्वतिक नहीं हैं । (६) कथंचित् वह अनादि है, क्योंकि, जीव व कर्मका बन्धसामान्य अनादि है, उसके सादित्वकी सम्भावना नहीं है । ( ७ ) कथंचित् वह ध्रुव है, क्योंकि, अभव्यों तथा अभव्य समान भव्य जीवों में भी सामान्य स्वरूपसे ज्ञानावरणका विनाश सम्भव नहीं है । ( ८ ) कथंचित् वह अध्रुव है, क्योंकि, केवलज्ञानी जीवों में उसका विनाश देखा जाता है । इसके अतिरिक्त उक्त उत्कृष्ट आदि पदका शाश्वतिक अवस्थान सम्भव न होनेसे उनमें परिवर्तन भी होता ही रहता है । ( ९ ) कथंचित् वह युग्म है, क्योंकि, प्रदेशोंके रूपमें ज्ञानावरणीयका द्रव्य सम संख्यात्मक पाया जाता है । (१०) कथंचित् वह ओज है, क्योंकि, उसका द्रव्य कदाचित् विषम संख्या के रूपमें भी पाया जाता
(₹)
१ ओजका अर्थ विषम संख्या है। इसके २ भेद हैं- कलिओज और तेजोज । जिस राशि में ४ का भाग देनेपर ३ अंक शेष रहते हैं वह तेजोज ( जैसे १५ संख्या ), तथा जिसमें ४ का भाग देनेपर १ अंक शे रहता है वह कलिओज ( जैसे १३ संख्या ) कही जाती है । २ युग्मका अर्थ सम संख्या है। इसके २ भेद हैंकृतयुग्म और बादरयुग्म ( बादर यह वापर शब्दका विगड़ा हुआ रूप प्रतीत होता है । भवगतीसूत्र आदि श्वेताम्बर ग्रंथों में दावर - द्वापर शब्द ही पाया जाता है ) । जिस राशिमें ४ का भाग देनेपर कुछ शेष नहीं रहता वह कृतयुग्म राशि कही जाती है ( जैसे १६ संख्या ) । जिस राशिमें ४ का भाग देनेपर २ अंक शेष रहते हैं वह बादरयुग्म कही जाती है (जैसे १४ संख्या ) ।
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(४)
प्रस्तावना है। (११) वह कथंचित् ओम है, क्योंकि, उसके प्रदेशोंमें कदाचित् हानि देखी जाती है। (१२) कथंचित् वह विशिष्ट है, क्योंकि, कदाचित् उसके प्रदेशोंमें व्ययकी अपेक्षा आयकी अधिकता देखी जाती है । (१३) कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, प्रत्येक पदके अवयवकी विवक्षामें वृद्धि और हानि दोनोंकी ही सम्भावना नहीं है।
इसी प्रकारसे उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है इत्यादि स्वरूपसे एक एक पदको विवक्षित करके उसके विषयमें भी शेष १२ पदोंकी सम्भावनाका विचार किया गया है ( देखिये पृ. ३० पर दी गई इन पदोंकी तालिका )।
(२) स्वामित्व अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट आदि पद किन किन जीवोंमें किस किस प्रकारसे सम्भव हैं, इस प्रकारसे उनके स्वामियोंका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । उदाहरणार्थ ज्ञानावरणीयको लेकर उसकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीका विचार करते हुए कहा गया है कि जो जीव बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें साधिक २००० सागरोपमोंसे हीन कर्मस्थिति (७० कोड़ाकोड़ि सागरोपम) प्रमाण रहा है, उनमें परिभ्रमण करता हुआ जो पर्याप्तोंमें बहुत वार और अपर्याप्तोंमें थोड़े वार उत्पन्न होता है ( भवावास), पर्याप्तोंमें उत्पन्न होता हुआ दीर्घ आयुवालोंमें तथा अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होता हुआ अल्प आयुवालोंमें ही जो उत्पन्न होता है ( अद्धावास), तथा दीर्घ आयुवालोंमें उत्पन्न हो करके जो सर्वलघु कालमें पर्याप्तियोंको पूर्ण करता है, जब जब वह आयुको बांधता है तत्प्रायोग्य जघन्य योगके द्वारा ही बांधता है ( आयुआवास ), जो उपरिम स्थितियोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको तथा अधस्तन स्थितियोंके निषेकके जघन्य पदको करता है (अपकर्षण-उत्कर्षणआवास अथवा प्रदेशविन्यासावास), बहुत बहुत वार जो उत्कृष्ट योगस्थामोंको प्राप्त होता है (योगावास ), तथा बहुत बहुत वार जो मन्द संक्लेश परिणामोंको प्राप्त होता है (संक्लेशावास)। इस प्रकार उक्त जीवोंमें परिभ्रमण करके पश्चात् जो बादर त्रस . पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, उनमें परिभ्रमण कराते हुए उसके विषयमें पहिलेके ही समान यहां भी भवावास, अद्धावास, आयुआवास, अपकर्षण-उत्कर्षणआवास, योगावास और संक्लेशावास, इन आवासोंकी प्ररूपणा की गई है। उक्त रीतिसे परिभ्रमण करता हुआ जो अन्तिम भवग्रहणमें सप्तम पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ है, उनमें उत्पन्न हो करके प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होते हुए जिसने उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया है, उत्कृष्ट वृद्धिसे जो वृद्धिंगत हुआ है, सर्वलघु अन्तमुहूर्त कालमें जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, वहां ३३ सागरोपम काल तक जो रहा है, बहुत बहुत बार जो उत्कृष्ट योगस्थानोंको तथा बहुत बहुत बार बहुत संक्लेश परिणामोंको जो प्राप्त हुआ है, उक्त प्रकारसे परिभ्रमण करते हुए जीवितके थोड़ेसे अवशिष्ट रहनेपर जो योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें जो आवलीके असंख्यातवें भाग रहा है, द्विचरम व त्रिचरम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ है, तथा चरम व द्विचरम समयमें जो उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ है। ऐसे उपर्युक्त जीवके नारक भवके अन्तिम समयमें स्थित होनेपर ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट रोती है (पही गणितकौशिक जविका लक्षण है)।
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विषय-परिचय उक्त जीवके उतने समयमें कितने द्रव्यका संचय होता है तथा वह संचय भी उत्तरोत्तर किस क्रमसे वृद्धिंगत होता है, इत्यादि अनेक विषयोंका वर्णन श्री वीरसेन स्वामीने गणित प्रक्रियाके अवलम्बनसे अपनी धवला टीकाके अन्तर्गत बहुत विस्तारसे किया है। आगे चलकर आयुको छोड़कर शेष ६ कर्मोंकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामियोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके ही समान बतला करके फिर आयु कर्मकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा करते हुए बतलाया गया है कि पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला जो जीव जलचर जीवोंमें पूर्वकोटि मात्र आयुको दीर्घ आयुबन्धकक काल, तत्प्रायोग्य संक्लेश और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा बांधता है; योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलीके असंख्यातवें भाग रहा है, तत्पश्चात् क्रमसे मृत्युको प्राप्त होकर पूर्वकोटि आयुवाले जलचर जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, वहांपर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, दीर्घ आयुबन्धक कालमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा पूर्वकोटि प्रमाण जलचर-आयुको दुवारा बांधता है, योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है, अन्तिम गुणहानिस्थानान्तरमें आवलीके असंख्यातवें भाग रहा है, तथा जो बहुत बहुत वार साता वेदनीयके बन्ध योग्य कालसे सहित हुआ है, ऐसे जीवके अनन्तर समयमें जब परभविक आयुके बन्धकी परिसमाप्ति होती है उसी समय उसके आयु कर्मकी वेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट होती है। सभी कर्मोंकी उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना कही गई है।
ज्ञानावरणीयकी जघन्य वेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि जो जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण सूक्ष्म निगोद जीवोंमें रहा है, उनमें परिभ्रमण करता हुआ जो अपर्याप्तोंमें बहुत बार और पर्याप्तोंमें थोड़े ही वार उत्पन्न हुआ है, जिसका अपर्याप्तकाल बहुत और पर्याप्तकाल थोड़ा रहा है, जब जब आयुको बांधता है तब तब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगसे बांधता है, जो उपरिम स्थितियों के निषेषके जघन्य पदको और अधस्तन स्थितियोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको करता है, जो बहुत बहुत वार जघन्य योगस्थानको प्राप्त होता है, बहुत बहुत बार मन्द संक्लेश रूप परिणामोंसे परिणमता है, इस प्रकारसे निगोद जीवोंमें परिभ्रमण करके पश्चात् जो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंमें उत्पन्न होकर वहां सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें मरणको प्राप्त होकर जो पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, जिसने वहांपर गर्भसे निकलनेके पश्चात् आठ वर्षका होकर संयमको धारण किया है, कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमका परिपालन करके जो जीवितके थोड़ेसे शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, जो मिथ्यात्व सम्बन्धी सबसे स्तोक असंयमकालमें रहा है, तत्पश्चात् मिथ्यात्वके साथ मरणको प्राप्त होकर जो दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है, वहांपर जो सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें जो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, उक्त देवोंमें रहते हुए जो कुछ कम दस हजार वर्ष तक सम्यक्त्वका परिपालन कर जीवितके थोड़ेसे शेष रहनेपर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, मिथ्यात्वके साथ मरकर जो फिरसे बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंमें उत्पन्न हुआ है, वहांपर जो सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में मृत्युको प्राप्त होकर जो सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, फ्ल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र
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प्रस्तावना
स्थितिकाण्डकघातोंके द्वारा पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र कालमें कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके जो फिरसे भी बादर वृथिवीकायिक पर्याप्तोंमें उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार नाना भवग्रहणोंमें आठ संयमकाण्डकोंको पालकर, चार वार कषायोंको उपशमा कर, पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र संममासंयमकाण्डकों और इतने ही सम्यक्त्वकाण्डकोंका परिपालन करके उपर्युक्त प्रकारसे परिभ्रमण करता हुआ जो फिरसे भी पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ है; वहां सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न होकर जो आठ वर्षका हुआ है, पश्चात् संयमको प्राप्त होकर और कुछ कम पूर्वकोटि काल तक उसका परिपालन करके जो जीवितके थोड़ेसे शेष रहने पर दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणामें उद्यत हुआ है, इस प्रकारसे जो जीव छद्मस्थ अवस्थाके अन्तिम समयको प्राप्त हुआ है उसके उक्त छद्मस्थ अवस्थाके अन्तिम समयमें ज्ञानावरणीयकी बेदना द्रव्यसे जघन्य होती है ( यही क्षपितकाशिकका लक्षण है )।
- ३ अल्पबहुत्व अनुयोगदारमें ज्ञानवरणादि आट कर्मोंकी जघन्य, उत्कृष्ट एवं जघन्य-उत्कृष्ट वेदनाओंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है। इस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन ३ अनुयोगद्वारोंके पूर्ण हो जानेपर द्रव्यविधानकी चूलिकाका प्रारम्भ होता है।
___इस चूलिकामें योगके अल्पबहुत्व और योगके निमित्तसे आनेवाले कर्मप्रदेशोंके भी अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करके पश्चात् अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा, इन १० अनुयोगद्वारोंके द्वारा योगस्थानोंकी विस्तृत प्ररूपणा की गई है।
Jain Education international
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विषय-सूची
३२
क्रम विषय पृष्ठ | क्रम
विषय धवलाकारका मंगलाचरण
उत्कृष्ट ज्ञानावरणवेदना ३१-२२४ वेदना अधिकारके अन्तर्गत
बादर प्रथिवीकायिक जीवोमें १६ अनुयोगद्वारोंका निर्देश
अवस्थान १ वेदनानिक्षेप
७ उनमें परिभ्रमण करते हुए
पर्याप्त भवोंकी अधिकता १ नामवेदना आदि चार प्रकारकी वेदनाका स्वरूप व उसके
और अपर्याप्त भवोंकी अल्पउत्तरभेद
ताका निर्देश
८ वहांपर पर्याप्त कालकी २वेदना-नयविभाषणता
दीर्घता और अपर्याप्त कालकी १ उपर्युक्त नामवेदना आदिमेंसे
हूस्वताका उल्लेख किस किस वेदनाको कौन
तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे कौनसे नय विषय करते हैं,
आयुके बांधनेका विधान ३८ इसका विवेचन
अधस्तन स्थितियोंके निषेक , ३ वेदनानामविधान
का जघन्य पद और उपरि१ नैगमादि नयोंकी अपेक्षा
तन स्थितियों के निषकका वेदनाके भेद व उनका स्वरूप
उत्कृष्ट पद करनेका विधान ४ वेदनाद्रव्यविधान
बहुत बहुत वार उत्कृष्ट १ वेदना द्रव्यविधानके अन्तर्गत
योगस्थानों की प्राप्तिका निर्देश ४५ पदमीमांसा आदि३ अनुयोग
बहुत बहुत वार बहुत द्वारोंका निर्देश
संक्लेश रूप परिणामोसे परि२ इन ३ अनुयोगद्वारोंके अति
णत होनेका विधान रिक्त संख्या व गुणकार
एकेन्द्रियोंमें त्रसस्थितिसे आदि अन्य ५ अनुयोगद्वारोंकी
रहित कर्मस्थिति तक परिसम्भावनाविषयक शंका व
भ्रमण करने के पश्चात् बादर उसका परिहार
त्रस पर्याप्त जीवों में उत्पन्न पदमीमांसा २०-३० होनेका उल्लेख ३ पदमीमांसामें द्रव्य की अपेक्षा
असोमें परिभ्रमण कराते हुए झानावरणीयवेदनाविषयक
छह आवासोंकी प्ररूपणा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट आदि पदोंकी
इस प्रकार परिभ्रमण करते प्ररूपणा
हुए उसके अन्तिम भवमें शेष सात कमौसे सम्बद्ध
सातवीं प्रथिवीमें उत्पन्न होनेका उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट आदि पदोकी
उल्लेख प्ररूपणा
वहांपर उत्कृष्ट योगके द्वारा स्वामित्व , ३०-३८४ आहारग्रहणादिका नियम
५४ ५ स्वामित्वके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट
१७ योगयवमध्यप्ररूपणामें प्ररूपदविषयक २ भेदोंका निर्देश ३० । पणा-प्रमाणादि ६ अनुयोगद्वार ६१
२० ।
.
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________________
( ८ )
क्रम
विषय
१८ अनन्तरोपनिधामें अवस्थितभागहारादि ४ भागद्दारों के द्वारा योगस्थानजीवोंका प्रमाण १९ परम्परोपनिधामें प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन ३ अनुयोगद्वारोंका उल्लेख २० अवहारकालकी प्ररूपणा २१ भागाभाग व अल्पबहुत्वका कथन
२२ अन्तिम गुणहानिस्थानान्तर में रहनेका कालप्रमाण
२३ नारकभव के अन्तिम समय में स्थित होनेपर ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट वेदनाका विधान
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
२४ संचित उत्कृष्ट ज्ञानावरणद्रव्य के उपसंहारकी प्ररूपणा में संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और समयप्रबद्धप्रमाणानुगम इन तीन अनुयोगद्वारों में संचयानुगमका निरूपण
२६ मोहनीयकी
भागहारप्रमाणानुगम
२५ भागद्दारप्रमाणानुगम में प्ररूपणा आदि ६ अनुयोगोंके द्वारा निषेकरचनाका निरूपण
नानागुणहानि
शलाकाओं का प्रमाण
२७ ज्ञानावरणीयादि अन्य कर्मोकी नानागुणहानिशलाकायें
२८ नानागुणहानिशलाकाओं का अल्प
बहुत्व
२९ आठ कर्मों की अन्योन्याभ्यस्त राशिका अल्पबहुत्व
पृष्ठ
६६
E*
७६
९५
१११ ११३-२०१
९८
१०९
११४
११८
११९
१२०
१२१
३० संदृष्टिरचनापूर्वक समयप्रबद्ध के अवहारकी प्ररूपणा
१२२
३१ भागाभाग व अल्पबहुत्वका कथन १४१ ३२ चारित्रमोहनीयकी क्षपणा में आई
विषय
हुई वीं मूलगाथा सम्बन्धी चार भाषगाथाओं में से तीसरी भाषगाथाके अर्थकी प्ररूपणा ३३ कर्मस्थिति के द्वितीय समय सम्बन्धी संचयका भागद्दार ३४ तृतीय समयमें बांधे गये समयप्रबद्ध के संचयका भागद्दार ३५ एक समय अधिक गुणहानि ऊपर जाकर बांधे गये समयप्रबद्ध के संचयका भाग हार
३६ दो समय अधिक गुणहानि ऊपर जाकर बांधे गये समयप्रबद्ध के संचयका भागहार
क्रम
४६ ज्ञानावरणीयकी अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदनाका कथन करते हुए अनन्त
पृष्ठ
१४३
99
१४७
१६६
३७ तीन समय आदिसे अधिक गुणदानि ऊपर जाकर बांधे गये समयप्रबद्ध के संचयका भागद्दार १६९ ३८ दो गुणहानि मात्र अध्वान जाकर बांधे गये द्रव्यके संचयका भागहार
३९ एक समय अधिक दो गुणहानियां
जाकर बांधे गये द्रव्यका भागद्दार १७० ४० दो समय अधिक दो गुणहानियां
जाकर बांधे गये द्रव्यका भागद्दार १७१ ४१ तीन गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यका भागद्दार
१७२ ४२ चार गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार
४३ पांच गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार
४४ उक्त भागहारकी अन्य प्रकार से प्ररूपणा
४५ आबाधाके भीतर बांधे गये समयप्रबद्धों के उत्कर्षण द्वारा नष्ट हुए द्रव्यकी परीक्षा
१६८
35
१७५
१७८
१८१
१९४
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विषय-सूची
२६४
क्रम विषय पृष्ठ | क्रम विषय
पृष्ठ भागहानि आदिका निरूपण २१० पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होनेका नियम २३९ ४७ गुणितकौशिक, गुणितघोलमान, ५९ आयु कर्मके द्रव्यप्रमाणकी परीक्षा क्षपितघोलमान और क्षपित
रूप उपसंहारकी प्रपरूणा २४४ कौशिक जीवोंका आश्रय कर ६. आयु कर्मकी द्रव्यसे अनुत्कृष्ट
पुनरुक्त स्थानोंकी प्ररूपणा २१६ । वेदनाकी प्ररूपणा ४८ त्रस जीव योग्य स्थानों सम्बन्धी ६१ द्रव्यसे जघन्य ज्ञानावरणवेदनाजीवसमुदाहारके कथनमें प्ररूपणा
के स्वामीका स्वरूप (सूत्र ४८-७५) २६८ आदि ६ अनुयोगद्वार. २२१ ६२ द्वीन्द्रियादि अपर्याप्त जीवोंमें ४९ स्थावर जीव योग्य स्थानों
उत्पत्तिवारों प्रमाण ।
२७० सम्बन्धी जीवसमुदाहारके कथनमें ६३ द्वीन्द्रियादि पर्याप्त जीवोंकी आयुप्ररूपणा आदि ६ अनुयोगद्वार २२३ स्थितिका प्रमाण
२७१ ५० आयुको छोड़कर शेष दर्शनावर- ६४ निगोद जीवोंमेंसे मनुष्यों में उत्पन्न णीय आदि ६ कमौके उत्कृष्ट अनु
हुए जीवोंके केवल सम्यक्त्व व स्कृष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा
संयमासंयमके ही ग्रहणकी योग्यआयु कर्मकी द्रव्यसे उत्कृष्ट वेदनाका
ताका उल्लेख
२७६
गर्भसे निकलने के प्रथम समयसे स्वामित्व २२५-२४३ ।।
लेकर आठवाँके वीतनेपर संयम५१ महाबन्धके अनुसार ८ अपकर्षों
ग्रहणकी योग्यताका उल्लेख २७८ द्वारा आयुको बांधनेवालोंके आयुः।
| ६६ गर्भमें आने के प्रथम समयसे लेकर बन्धक कालका अल्पबहुत्व २२८ | आठ वर्षों के वीतनेपर संयमग्रहण५२ सोपक्रमायु जीवोंमें परभविक
की योग्यता विषयक आचार्यान्तरआयुके बांधनेका नियम २३३ /
का अभिमत और उसकी असंगति २७९ ५३ निरुपक्रमायु जीवों में परभविक ६७ गुणश्रेणिनिर्जराका क्रम
२८२ __आयुका बन्धनविधान २३४
६८ भिन्न भिन्न पर्यायों में उत्पत्तिके ५४ आठ व सात आदि अपकर्षों द्वारा आयु
योग्य मिथ्यात्वकालका अल्पबहुत्व २८४ को बांधनेवाले जीवोंका अल्पबहुत्व ,, संयमकाण्डकों,संयमासंयम५५ योगयवमध्यके ऊपर रहनेका
काण्डको, सम्यक्त्वकाण्डकों और कालप्रमाण
कषायोपशामनाकी वारसंख्या २९४ ५६ चरम गुणहानिस्थानान्तरमें रहने
७० गुणश्रेणिनिर्जराका अल्पबहुत्व २९५ - का कालप्रमाण
२३६ | ७१ उपसंहारप्ररूपणामें प्रवाह व अ. ५७ क्रमसे कालको प्राप्त हुये उक्त
__ प्रवाह स्वरूपसे आये हुए उपदेशों जीवके पूर्वकोटि आयुवाले जल
द्वारा प्ररूपणा अनुयोगद्वारका चर जीवों में उत्पन्न होने का नियम
निरूपण बतलाते हुए आयुबन्धविषयक ७२ ज्ञानावरण सम्बन्धी अजघन्य व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रसे विरोधकी
द्रव्यकी चार प्रकार प्ररूपणामें आशंका व उसका परिहार २३७ क्षपितकौशिकके कालपरिहानि .५८ उक्त जीवके अन्तमुहूर्तमें सब । द्वारा उक्त प्ररूपणा
२९९
et
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
३२२
३२७
क्रम विषय पृष्ठ क्रम विषय
पृष्ठ ७३ गुणितकर्माशिकके कालपरिहानि
होनेसे उसकी प्ररूपणा, प्रमाण द्वारा अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा ३०६ और अल्पबहुत्व इन ३ अनुयोग७४ क्षपितकर्माशिकके सत्त्वके आश्रित द्वारोंके द्वारा विशेष प्ररूपणा ४०३
अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा ३०८ योगस्थानोंका अल्पबहुत्व ४०४ ७५ गुणितकौशिकके सत्त्वाश्रित | ९५ चौदह जीवसमासों में योगाविभागअजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा
प्रतिच्छदोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व ,, ७६ दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त
९६ उनका परस्थान अल्पबहुत्व ४०६ राय सम्बन्धी जघन्य वेदनाकी ९७ उनका सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व ४०८ प्ररूपणा
३१३ ७७ उक्त तीन कर्मोंकी अजघन्य वेदना ३१४ |
९८ उपपाद, एकान्तानुवृद्धि और
परिणाम योगोंका अस्तित्व ४२० ७८ वेदनीय सम्बन्धी जघन्य वेदनाके
९९ उपर्युक्त अल्पबहुत्वोंकी संदृष्टियां ४२१ स्वामीकी प्ररूपणा (सूत्र७९-१०८) ३१६
१०० कर्मप्रदेशोंका अल्पबहुत्व ४३१ ७९ दण्ड, कपाट, प्रतर और लोक
१०१ योगस्थानप्ररूपणामें १० अनुपूरण समुद्घातोंका स्वरूप ३२०
योगद्वारोंका उल्लेख
४३२ ८. योगनिरोधका क्रम
१०२ योगके विषय में नामादि निक्षेपों ८१ कृष्टिकरणविधान
३२३
की योजना ८२ वेदनीय सम्बन्धी अजघन्य वेदनाकी प्ररूपणा
स्थानके विषयमें नामादि निक्षेपों। की योजना
४३४ ८३ क्षपितकाशिकके सत्त्वका आश्रय कर अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा
१०४ योगस्थानप्ररूपणाके अन्तर्गत ८४ गणितकोशिकके सत्त्वका आश्रय
१० अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश और उनका क्रम
४३८ ___ कर अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा ३२९ ८५ नाम व गोत्रके जघन्य एवं अजघन्य
१०५ अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा (१) ४३९ १०६ वर्गणाप्ररूपणा (२)
४४२. द्रव्यकी प्ररूपणा ८६ आयु कर्म सम्बन्धी द्रव्यके स्वामी
१०७ गुरूपदेशके अनुसार प्ररूपणा
आदि ६ अनुयोगद्वारोंके द्वारा की प्ररूपणा ८७ आयु कर्म सम्बन्धी अजघन्य द्रव्य
प्रथमादि वर्गणाओं सम्बन्धी वेदनाकी प्ररूपणा
जीवप्रदेशोंका निरूपण १०८ स्पर्धकप्ररूपणा (३)
४५२ ____ अल्पबहुत्व ३८५-३९४
१०९ अन्तरप्ररूपणा (४)
४५५ ८८ जघन्य पदविषयक अन्पबद्दुत्व
११० स्थानप्ररूपणा (५) ८९ उत्कृष्ट पद , "
१११ अनन्तरोपनिधा (६) ९० जघन्य-उत्कृष्ट, ३९२ ११२ परम्परोपनिधा (७)
૪૮૮ __ चूलिका ३९५-५१२ ११३ समयप्ररूपणा (८)
४९४ ९१ योगका अल्पबहुत्व ३९५ ११४ वृद्धिप्ररूपणा (९)
४९७ ९२ योगगुणकारका निर्देश
अल्पबहुत्व (१०)
५०३ ९३ उक्त अल्पबहुत्वालापके देशामर्शक | ११६ प्रदेशबन्धस्थानोंकी प्ररूपणा
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शुद्धि-पत्र
[पुस्तक ९] पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ८१ १२ पचास
पचवन १९१ २० पु. २, १९९ १३ चतुरिन्द्रिय रूप
चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय रूप २७८ २४ प्रत्येकशरीर पर्याप्त
प्रत्येक शरीर ये पर्याप्त २९३ १९ उत्कर्षसे दो
उत्कर्षसे साधिक दो ३२४ प्रहण
ग्रहण ३२७ २७ हुए देव व नारकीके
हुए मनुष्य व तिर्यचके ३३९ २० सघातन
परिशातन ३५३ २२ ही संघातन
ही जघन्य संघातन ३७४ २९ जीवों में तीनों पदोंकी
जीवोंके पदोंकी ३८७ २६ एक कम
एक समय कम ३९० १७ समय सात
समय कम सात ,,' २३ संघातन-परिशातन
संघातन व परिशातन , ३१ ३९१ २५ निगोद व बादर ... जीवोमें निगोद जीवों में ३९२ १४ संघातन कृतिका
संघातन-परिशातन कृतिका __, २५ संघातन-परिशातन
संघातन व परिशासन जानकर
जानकार " , भावकरणकृति
भावकृति
[पुस्तक १०] ७ २ -दव्वट्टवणा
-दव्वट्ठवणा णामण
णामण १३ २ दंसणावरणीयवेणा
दसणावरणीयवेयणा ३३ १३ योगस्थान
योग ३४ २५ है उन सोंमें
हैं उनका त्रसोंमें ६५ खविद-कम्मंसिय
खविदकम्मंसिय ,, - १८ क्षपितकर्माशिकके भपित, क्षपितकोशिक, क्षपितघोलमान और
गुणित व घोलमान पर्याप्त- गुणितघोलमान जीवोंके पर्याप्तभवोंकी अ
भवोंकी अपेक्षा बहुत हैं। पेक्षा गुणितकर्माशिकके पर्याप्तभव बहुत हैं। ,, २२ क्षपितकर्माशिकके क्षपित क्षपितकौशिक, क्षपितघोलमान और
गुणित व घोलमान अपर्याप्त- गुणितघोलमान जीवोंके अपर्याप्तभवोसे
भवोंसे ... ३७ १० ॥९॥?
,, १३ क्षपितकर्माशिकके क्षपित- क्षपितकर्माशिक, क्षपितघोलमान और
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हुआ दीर्घ
ş
(१२)
षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध गुणित और घोलमान पर्याप्त. गुणितघोलमान जीवोंके पर्याप्तकालोसे कालोसे दीघ अपर्याप्तकाल दीर्घ हैं । अपर्याप्तकाल थोड़े हैं।
थोडे ३७ १६ क्षपितकर्माशिकके क्षपित- क्षपितकर्माशिक, क्षपितघोलमान और
गुणित और घोलमान गुणितघोलमानके , १८ हुआ भी दीर्घ ३८ १५ क्षपितकोशिकके क्षपित- क्षपितकर्माशिक, क्षपितघोलमान और गुणित और घोलमान
गुणितघोलमान सव्वभागहारण .
सव्वभागहाराण नद्धदव्वस्स
लद्धदव्वस्स होहि अंक संदृष्टिकी
अंकसंदृष्टिकी बंधेसमयादो
बंधसमयादो स्थितिका
स्थितिके असंख्यातवे भागमें
असंख्यात बहुभागका -णुववत्तीदो पुधभूद
-णुववत्तीदो जोगादो पुधभूद४ जोगो चेव जवो तस्स मज्झं । जोगो चेव जवो [ जोगजवो ] तस्स मज्झं जवमझ
[जोग.] जवमज्झं यवमध्य
[ योग] यवमध्य अवहिरि देसु
अवहिरिदेसु
१; द्वि. नि. १४२२ ४ एगससयसत्तिहिदिविसेसादो एगसमयसत्तिहिदिसेसादो , १० णिक्खेवाणभावादो णिक्खेवाणमभावादो , २१ गुणित और घोलमान
गणितघोलमान
३ प्रतिषु ' सत्तिहिदिविसेसादो' इति पाठः । ११२ १२ ४०५० , ३० xxx
प्रतिषु ४०५० इति पाठः। १२० ११ सणावरणीय-अंतराइयाणं दंसणावरणीय-[वेयणीय-] अंतराइयाणं , २६ दर्शणावरणीय व
दर्शणाबरणीय, [वेदनीय ] व १२५ ११ णिसेगे
णिसेगो १३१ संदृष्टिमें १९४ १३४ ७ अवणिद
अवणिदे
* * * *
* * *
४११, १७२२
१३४ २१ ७+ १४७
१४. १ दियड्ड
दिवन
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________________
शुद्धि-पत्र
शुद्ध
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १४२ १६ ७८८ १४३ ६ क्खवणाय १४८ ४ वग्गमूलगुणे
, २० वर्गमूलसे गुणित १५२ १० छेत्तण
com
क्खवणाए वग्गमूल [दु] गुणे वर्गमूल को [द्वि ] गुणित
छेत्तूण
१५३ ११ १
४ १६ १५७ २१ ६१७
१६१७ १७० २६ र
.. २५ १८५ १८ - ४ = २; २१६ २९ अपुरुस्त
अपुनरुक्त २३३ .९ ७२
७२२ २८७ ५ वे , ६ जोगण
जोगण २९३ १० संखेज्जभागहीणं
असंखेज्जैभागहीणं , २८ संख्यातवें
असंख्यातवें , ३० x x x
३ प्रतिषु 'संखेज्ज ' इति पाठः । २९९ ५ चउत्थो
चउत्था ३०४ २९ असंख्यातगुणा प्राप्त
असंख्यातगुणे उत्कृष्ट के प्राप्त ३०५ १० साभी
सामी ३११ ९ णिप्पडिय
णिप्पिडिय ३२४ २७ १३४३
१२४३ ३२५ २ परिणामेदि
परिणामेदि ३३३ १३ वुत्तो ३३९ १५ अपवर्तित कम करनेपर अपवर्तित करनेपर --, २९ याग
योग ३७० २ एदासिं
एदासि ३८७ ६ सेसाणं
सेसाणं' ७ तुल्लायव्वयत्तादो
तुल्लायव्वयत्तादो ४०३ ९ समाण
समासाण ४०७ ८ लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सुव- णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुव
, ९ णिव्यत्तिअपज्जत्यस्स जहम्णुव- लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सुव
जुत्तो
.
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________________
षटखंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध . ४०७ २३ लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट . निवृत्त्यपर्याप्तकके जघन्य
,, ,, निवृत्यपर्याप्तकके जघन्य लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट ४२६ ४ णिव्वत्तिअपज्जत्तयाण . णिवत्तिपज्जत्तयाणे , १६ निवृत्यपर्याप्तकोंके
निर्वृत्तिपर्याप्तकोंके २ अ-आ-काप्रतिषु णिवत्तिअपज्जत्तयाण', ताप्रती
‘णिचत्तिअपज्जत्तियाण पति पाठः। ४२८ २० वह एकान्तानुवृद्धि
वह तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें क
एकान्तानुवृद्धि ,, २१ तद्भवस्थ होनेके द्वितीय ४२९ ६ -णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं -णिव्वत्तिपज्जत्ताणं , २१ निर्वृत्त्यपर्याप्तोंके
निर्वृत्तिपर्याप्तोंके , ३२ x x x
१ प्रतिषु ‘णिव्वचिअपज्जताणं ' इति पाठः । ४३१ ४ णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं
णिव्वत्तिपज्जत्ताणं ___, १८ निर्वृत्त्यपर्याप्तोंके
निर्वृत्तिपर्याप्तोंके ४४९ ४ केत्तियमेत्तेण ? चरिमवग्गणाए केत्तियमेत्तेण १चरिमवग्गणमेत्तेण अचरिमासु
वग्गणासु जीवपदेसा:विसेसाहियां । केत्तिकै
मेत्तेण ? चरिमवग्गणाए ,, १८ हैं ? चरम वर्गणासे हैं ? चरम वर्गणा मात्रसे वे विशेष अधिक
हैं । उनसे अचरम वर्गणाओं में जीवप्रदेश विशेष अधिक हैं। कितने मात्र विशेषसे के अधिक हैं ? चरम वर्गणासे
, अ-आ-काप्रतिषु त्रुटितोऽयमेतावान् पाठः । ४५२ ६ तत्स्पर्द्धकम् ।
तत्स्पर्द्धकम् ४७० १० अणिज्जमाणे
आणिज्जमाणे ४७९ १५ प्रकार प्ररूपणा
प्रकार प्रमाणप्ररूपणा ४८५ ४ ॥२५॥ ४८८ १६ १५+१६
१५+२ . ४९४ २ जहणजोगट्ठाणफद्दएहि ऊण- जहण्णजोगट्ठाणफद्दएहि । [अजहण्णजोग
ट्ठाणफयाणि विसेसाहियाणि जहण्णजोग
फद्दएहि ] ऊण.:, १७ स्पर्धकोसे हीन
सार्धकोसे विशेष अधिक हैं। [उनसे अजघन्य योगस्थानोंके स्पर्धक जघन्य योगस्थानके स्पर्धकोसे हीन
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________________
(सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूदषलि-पणीदो
छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समणियो
तस्स चउत्थे वेयणाखंडे
वेदणाणियोगद्दारं कम्मट्ठजणियवेयण-उवहिसमुत्तिण्णए जिणे णमिउं ।
वेयणमहाहियारं विविहहियारं परूवेगो ॥१॥) (वेदणा ति । तत्थ इमाणि वेयणाए सोलस अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति-वेदणणिक्खेवे वेदणणयविभासणदाए वेदणणामविहाणे वेदणदव्वविहाणे वेदणखेत्तविहाणे वेदणकालविहाणे वेदणभावविहाणे वेदणपच्चयविहाणे वेदणसामित्तविहाणे वेदण-वेदणविहाणे
आठ कर्मों के निमित्तसे उत्पन्न हुई वेदनारूपी समुद्रसे पार हुए जिनोंको नमस्कार करके जो विविध अधिकारों में विभक्त है ऐसे वेदना नामक महाधिकारकी हम प्ररूपणा करते हैं ॥१॥
अब वेदना अधिकारका प्रकरण है। उसमें वेदनाके ये सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-वेदननिक्षेप, वेदन-नयविभाषणता, वेदननामविधान, वेदनद्रव्यविधान, वेदनक्षेत्रविधान, . वेदनकालविधान, वेदनभावविधान, वेदनप्रत्ययविधान, वेदनस्वामित्वविधान, वेदन-वेदन
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२]
छक्खंडागमे वेयणाखंड . [१, २, १. वेदणगइविहाणे वेदणअणंतरविहाणे वेदणसण्णियासविहाणे वेयणपरिमाणविहाणे वेयणभागाभागविहाणे वेयणअप्पाबहुगे त्ति ॥ १।)
_पुव्वुद्दिद्वत्थाहियारसंभालणढे 'वेदणा त्ति' परविदं । एदाणि सोलस णामाणि पढमाविहत्तिअंताणि । कधं पुण एत्थ अंते एयारो ? 'एए छच्च समाणा' इच्चेएण कयएकारत्तादो।
एदेसिमहियाराणं पिंडत्थो विसयदिसादरिसणटुं उच्चदे- वेयणासदस्स अणेयत्थेसु वट्टमाणस्स अपयदढे ओसारिय पयदत्थजाणावणटुं वेयणाणिक्खेवाणियोगद्दारं आगयं । सव्वो ववहारो णयमासेज अवहिदो त्ति एसो णामादिणिक्खेवगयववहारो कं कं णयमस्सिदूण द्विदो त्ति आसंकियस्स संकाणिराकरणटुं अव्वुप्पण्णजणव्वुप्पायणटुं वा वेयण-णयविभासणदा आगया । बंधोदय-संतसरूवेण जीवम्मि हिदपोग्गलक्खंधेसु कस्स कस्स णयस्स कत्थ कत्थ
.........................................
विधान, वेदनगतिविधान, वेदनअनन्तरविधान, वेदनसन्निकर्षविधान, वेदनपरिमाणविधान, वेदनमागाभागविधान और वेदनअल्पबहुत्व ॥१॥
पूर्वोद्दिष्ट अर्थाधिकारका स्मरण करानेके लिये सूत्र में 'वेदना' इस पदका निर्देश किया है । ये सोलह नाम प्रथमा विभक्त्यन्त हैं। __ शंका-यहां इन सोलह पदोंके अन्त में एकारका होना कैसे सम्भव है ?
समाधान- 'एए छच्च समाणा' इस सूत्रसे यहां एकारका आदेश किया। गया है, इसलिये वैसा होना सम्भव है ।
अब विषयकी दिशा दिखलाने के लिये इन अधिकारों का समुदयार्थ कहते हैंवेदना शब्द अनेक अर्थों में वर्तमान है, उनमेंसे अप्रकृत अर्थोको छोड़कर प्रकृत अर्थका ज्ञान करानेके लिये वेदनानिक्षेपानुयोगद्वार आया है। चूंकि सभी व्यवहार नयके आश्रयसे अवस्थित है अतः यह नामादि-निक्षेपगत व्यवहार किस किस नयके आश्रयसे स्थित है, एसी आशंका जिसे है उसकी उस शंकाका निवारण करनेके लिये अथवा अव्युत्पन्न जनोंको व्युत्पन्न करानेके लिये वेदन-नयविभाषणता अधिकार आया है । जो पुद्गलस्कन्ध बन्ध, उदय और सत्त्व रूपसे जीवमें स्थित हैं उनमें किस किस नयका कहां कहां कैसा
१ प्रतिषु 'पुग्वुट्टित्ताहियार ' इति पाठः । २ प्रतिषु · विहात्ति ' इति पाठः । ३ प्रतिषु । एक्कारचादो' इति पाठः। जयधवला भा. १, पृ. ३२६.
Page #24
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१, २, १.] वेयणमहाहियारे सोलसणिोगद्दारणिदेसो केरिसो पओओ होदि त्ति णयमस्सिदण पओअपरूवणटुं वेयणणामविहाणमागयं । वेदणदव्वमेयवियप्पं' ण होदि, किंतु अणेयवियप्पमिदि जाणावणटुं संखेज्जासंखेज्जपोग्गलपडिसेहं काऊण अभव्वसिद्धिएहि अणतगुणा सिद्धेहिंतो अणतगुणहीणा पोग्गलक्खंधा जीवसमवेदा वेयणा होति त्ति जाणावणटुं वा वेयणदव्वविहाणमागयं । संखेज्जखेत्तोगाहणमोसारिय अंगु.. लस्स असंखेज्जदिभागमादि कादूण जाव घणलोगो ति वेयणादव्वाणमोगाहणा होदि त्ति जाणावणटुं वेयणखेत्तविहाणमागयं । वेयणदव्वक्खंधो वेयणभावमजहिदूण जहण्णेणुक्कस्सेण य एत्तियं कालमच्छदि त्ति जाणावणटुं वेयणकालविहाणमागयं । संखेज्जासंखेज्जाणंतगुणपडिसहं काऊण वेयणदव्वक्खंधम्मि अणताणतभाववियप्पजाणावण8 वेयणभावविहाणमागयं । . वेयणदव्वक्खेत्त-काल-भावा ण णिक्कारणा, किंतु सकारणा त्ति पण्णवणटुं वेयणपच्चयविहाणमागयं । जीवाणोजीवा एगादिसंजोगेण अट्ठभंगा वेयणाए सामिणो होति, ण होति ति. णए अस्सिदूण पण्णवणटुं वेयणसामित्तविहाणमागयं । बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंतपयडिभेएण एगादि.. संजोगगएण णए अस्सिदूण वेयणवियप्पपण्णवणटुं वेयणवेयणविहाणमागयं । दव्वादिभेय
प्रयोग होता है, इस प्रकार नयके आश्रयसे प्रयोगकी प्ररूपणा करनेके लिये वेदननामविधान अधिकार आया है । वेदनाद्रव्य एक प्रकारका नहीं है, किन्तु अनेक प्रकारका है। ऐसा शान कराने के लिये अथवा संख्यात व असंख्यात पुद्गलोंका प्रतिषेध करके अभव्यसिद्धिकोसे अनन्तगुणे और सिद्धोंसे अनन्तगुणे हीन पुद्गलस्कन्ध जीवसे समवेत होकर वेदना रूप होते हैं, ऐसा ज्ञान कराने के लिये वेदनद्रव्यविधान अधिकार आया है। वेदनाद्रव्योंकी अवगाहना संख्यात-क्षेत्र नहीं है, किन्तु अंगुलके असंख्यातवें भागसे लेकर घनलोक पर्यन्त है; ऐसा जतलाने के लिये वेदनक्षेत्रविधान अधिकार आया है। वेदनाद्रव्यस्कन्ध बेदनात्वको न छोड़कर जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे इतने काल तक रहता है, ऐसा ज्ञान करानेके लिये वेदनकालविधान अधिकार आया है । वेदनाद्रव्यस्कन्धमें संख्यातगुणे, असंख्यातगुणे और अनन्तगुणे भावविकल्प नहीं है, किन्तु अनन्तानन्त भावविकल्प हैं; ऐसा ज्ञान करानेके लिये वेदनभावविधान अधिकार आया है। वेदनाद्रव्य, वेदनाक्षेत्र, वेदनाकाल और वेदनाभाव निष्कारण नहीं हैं, किन्तु सकारण हैं; इस बातका ज्ञान कराने के लिये वेदनप्रत्ययविधान अधिकार आया है । एक आदि संयोगले आठ भंग रूप जीव व नोजीव वेदनाके स्वामी होते हैं या नहीं होते हैं, इस प्रकार नयोंके आश्रयसे ज्ञान करानेके लिये वेदनास्वामित्वविधान अधिकार आया है। एक-आदि-संयोग-गत बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त रूप प्रकृतियोंके भेदसे जो वेदनाभेद प्राप्त होते हैं उनका नयोंके आश्रयसे ज्ञान करानेके लिये वेदन-वेदनविधान अधिकार आया है। द्रव्यादिके भेदोंसे भेदको प्राप्त
१ प्रतिषु । मियवियप्पं ' इति पाठः।
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छक्खंडागमे बेयणाखंड
[१, २,१ मिण्णवेयणा किं हिदा किमहिदा किं ट्ठिदाहिदा त्ति णयमासेज्ज पण्णवणटुं वेयणगइविहाणमागयं । अणतरबंधा' णाम एगेगसमयपबद्धा, णाणासमयपबद्धा परंपरबंधा' णाम, ते दो वि तदुभयबंधा; एदेसिं तिण्हं पि णयसमूहमस्सिदूण पण्णवणटुं वेयणअणंतरविहाणमागयं । दव्व-खत्त-काल-भावाणमुक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णेसु एक्कं णिरुद्धं काऊण सेसपदपण्णवणहूँ वेयणसण्णियासविहाणमागयं । पैयडिकाल-खत्ताणं भेएण मूलुत्तरपयडीणं पमाणपरूवणटुं वेयणपरिमाणविहाणमागयं । पगडि अट्ठदा-ट्ठिदिअट्ठदा-क्खेत्तपच्चासेसु उप्पण्णपयडीओ सव्वपयडीणं केवडिओ भागो त्ति जाणावणटुं वेयणभागाभागविहाणमागयं । एदासिं चेव तिविहाणं पयडीणमण्णोण्णं पेक्खिऊण थोव-बहुत्तपदुप्पायणटुं वेयणअप्पाबहुगविहाणमागयं । एवं सोलसण्हमणिओगद्दाराण पिंडत्थपरूवणा कया ।
हुई वेदना क्या स्थित है, क्या अस्थित है, या क्या स्थित अस्थित है। इस प्रकार नयके आश्रयसे परिक्षान कराने के लिये वेदनगतिविधान अधिकार आया है। एक एक समयप्रबद्धोंका नाम अनन्तरंबन्ध है, नाना समयप्रबद्धोंका नाम परम्परबन्ध है, और उन दोनों ही का नाम तदुभयवन्ध है । इन तीनोंका नयसमूहके आश्रयसे ज्ञान करानेके लिये घेदनअनन्तरविधान अधिकार आया है । द्रव्यवेदना, क्षेत्रवेदना, कालवेदना और भाववेदना इनके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदोंमें से एकको विवक्षित करके शेष पदोंका ज्ञान करानेके लिये वेदनसन्निकर्षविधान अधिकार आया है । प्रकृतियों के काल और क्षेत्रके भेदसे मूल और उत्तर प्रकृतियोंके प्रमाणका प्ररूपण करनेके लिये वेदनपरिमाणविधान अधिकार आया है। प्रकृत्यर्थता, स्थित्यर्थता (समयप्रवद्धार्थता) और क्षेत्रप्रत्याश्रयमें उत्पन्न हुई प्रकृतियां सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं, यह जतलानेके लिये वेदनमागाभागविधान अधिकार आया है । और इन्हीं तीन प्रकारकी प्रकृतियोंका एक-दूसरेकी अपेक्षा अल्प-बहुत्व बतलानेके लिये वेदन अल्पबहुत्वविधान आधिकार भाया है। इस प्रकार इन सोलह अनुयोगद्वासेकी समुदयार्थ प्ररूपणा की गई है।
१ अणंतरबंधो णाम कम्मइयवग्गणाए हिदपोग्गलक्खंवा मिच्छत्तादिकम्मभावेण परिणदपटमसमए अनंतरवंधो । अ. पत्र १०७३.
को परंपरबंधो णाम ? बंधबिदियसमयप्पहुडि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम | अ. पत्र १.७२.
३ सणियासो णाम किं १ दव-खेत-काल-भावेसु जहण्णुक्कस्सभेदभिण्णेसु एक्कम्मि विरुद्ध[णिरद्धे] सेसाणि किमुक्कस्साणि किमणुक्कस्साणि किं जहण्णाणि किमजहण्णाणि वा पदाणि होति ति जा परिक्सा सो सग्नियासो णाम | अ. पत्र १०७४.
५ आप्रतौ 'पहुडि' इति पाठः।
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[५
४, २, १, २.]
वेयणमहाहियारे वेयणणिक्खेवो एत्थ सोलस अणियोगद्दाराणि त्ति एदं देसामासियवयणं, अण्णेसि पि अणियोगद्दाराणं मुत्तजीवसमवेदादीणमुवलंभादो । एदेसु अणियोगद्दारेसु पढमाणियोगद्दारपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि
वेयणणिक्खेवे त्ति । चउविहे वेयणणिक्खेवे ॥२॥
वेयणणिक्खेवे त्ति पुवुद्दिद्वत्थाहियारसंभालणटुं भणिदमण्णहा सुहेण अवगमाभावादो। एत्थ वि पुव्वं व ओआरस्स एआरादेसो दट्ठन्यो । वेयणणिक्खेवो चउविहो त्ति एवं पि देसामासियवयण, पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे खत्तकालादिवेयणाणं च दंसणादो ।
णामवेयणा ट्ठवणवेयणा दव्ववेयणा भाववेयणा चेदि ॥ ३॥ तत्थ अट्टविहबज्झत्थाणालंबणो' वेयणासदों णामवेयणा । कधमप्पणो अप्पाणम्हि
यहां 'सोलह अनुयोगद्वार ' यह देशामर्शक वचन है, क्योंकि, मुक्त-जीव-समवेत आदि अन्य अनुयोगद्वार भी पाये जाते हैं ।
अब इन अनुयोगद्वारों से प्रथम अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
अब वेदनानिक्षपका प्रकरण है । वेदनाका निक्षेप चार प्रकारका है ॥ २ ॥
यहां 'वेदनानिक्षेप' यह पद पूर्वोद्दिष्ट अर्थाधिकारका स्मरण करानेके लिये कहा है, अन्यथा इसका सुखपूर्वक ज्ञान नहीं हो सकता है। यहां भी पूर्वके समान 'एए छच्च समाणा' इस सूत्रसे ओकारके स्थानमें एकारादेश समझना चाहिये। 'वेदनानिक्षेप चार प्रकारका है' यह भी देशामर्शक वचन है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर क्षेत्रवेदना व कालवेदना आदि भी देखी जाती हैं।
नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना ॥३॥
उनमेंसे एक जीव, अनेक जीव आदि आठ प्रकारके बाह्य अर्थका अवलम्बन न करनेवाला 'वेदना' शब्द नामवेदना है ।
शंका-अपनी अपने आपमें प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ?
१ प्रतिषु · वेयणासद्दा' इति पाठः ।
१ संतपरूवणा भा. १, पृ. १९. ३ प्रतिषु । कथमुप्पण्णो'इति पाठः।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, १, ३. पवुत्ती ? ण, पईव-सुजिदु-मणीणमप्पप्पयासयाणमुवलंभादो । कथं संकेदणिरवेक्खो सद्दो अप्पाणं पयासदि १ ण, उवलंभादो । ण च उवलंभमाणे अणुववण्णदा, अव्ववत्थावत्तीदो । ण च सद्द। संकेदबलेणेव बज्झत्थपयासओ त्ति णियमो अस्थि, सद्देण विणा सदत्थाणं वाचियवाचयभावेण संकेदकरणाणुववत्तीदों । ण च सद्दे सद्दत्थाणं संकेदो कीरदे, अणवत्थापसंगादो सद्दम्मि अच्छंतीए' सत्तीए परदो उप्पत्तिविरोहादो चणेयंतो एत्थ जोजेयव्यो ।
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समाधान-नहीं, क्योंकि जैसे अपने आपको प्रकाशित करनेवाले प्रदीप, सूर्य, चन्द्र व माणि पाये जाते हैं वैसे ही यहां भी जानना चाहिये।
शंका -संकेतकी अपेक्षा किये बिना शब्द अपने आपको कैसे प्रकाशित करता है ?
सामाधन - नहीं, क्योंकि वैसी उपलब्धि होती है। और वैसी उपलन्धि होनेपर अनुपपत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। दूसरे, शब्द संकेतके बलसे ही बाह्य अर्थका प्रकाशक हो, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, नाम शब्दके विना शब्द और अर्थका वाच्य-वाचक रूपसे संकेत करना नहीं बन . सकता है । तीसरे, शब्दमें शब्द और अर्थका संकेत किया जाता है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर एक तो अनवस्था दोष आता है और दूसरे, शब्दमें स्वयं ऐसी शक्तिके रहनेपर दूसरेसे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है, इसलिये इस विषयमें अनेकान्तकी योजना करनी चाहिये।
विशेषार्थ- यहां नामवेदनाका निर्देश करते समय नामनिक्षेपको अनिमित्तक बतलाया गया है । इसपर यह प्रश्न हुआ है कि यदि नामनिक्षेप अनिमित्तक माना जाता है तो यह कैसे मालूम पड़े कि यह अमुक नाम है । सर्वत्र साधारणतः विवक्षित पदार्थके आधारसे विवक्षित नाम का ज्ञान हो जाता है। किन्तु जब नामनिक्षेपमें नाम शब्दका आधार भूत कोई पदार्थ ही नहीं माना जाता है तो उस नाम शब्दका ज्ञान ही कैसे हो सकेगा? इस प्रश्नका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि जिस प्रकार चन्द्र आदि पदार्थ स्वभावसे स्वप्रकाशक होते हैं उसी प्रकार नाम शब्द भी जानना चाहिये। वह स्वभावसे ही स्वमें प्रवृत्त है, उसे अन्य आलम्बनकी कोई आवश्यकता नहीं है। शब्द स्वतंत्र है, तभी तो शब्दका अर्थके साथ वाच्य-वाचक सम्बन्ध हो सकता है। यदि शब्दमें शब्द और अर्थ दोनोंका संकेत माना जाय तो इससे अनवस्थाका प्रसंग आता है। इसलिये इस विषयमें सर्वथा एकान्त नहीं मानना चाहिये। किन्तु ऐसा समझना चाहिये कि कथंचित् कोई भी शब्द स्वयं प्रवृत्त हुआ है और कथंचित् पदार्थके आलम्बनसे प्रवृत्त हुआ है। यहां नामनिक्षेपकी प्रमुखता है, इसलिये अन्य आलम्बनका निषेध किया है।
१ प्रतिषु · अथवत्तावत्तीदो' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः 'संकेदकरणाणुवृत्तीदो' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' अच्चंताए ' इति पाठः ।
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४, २, १, ३. ]
daणमहाहियारे वेयणणिक्खेबो
सा वेणा एस त्ति अभेएण अज्झवसियत्थो ट्ठवणा । सा दुविहा सब्भावासम्भाववणभए । तत्थ पाएण अणुहरंतदव्वभेदेण इच्छिददव्वट्टवणा सम्भावट्ठवर्णवेयणा, अण्णा असब्भावट्ठवणवेयणा ।
Goddaणा दुविहा आगम-णोआगमदव्ववेयणाभेएण aruपाहुजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्ववेयणा । जाणुगसरीर-भविय तव्वदिरित्तभेण णोआगमदव्ववेयणा तिविहा । तत्थ जाणुगसरीरं भविय वट्टमाण - समुज्झादभेदेण तिविहं । वेयणाणियोगद्दारस्स अणागमस्स उवायाणकारणत्तणेण भविस्सरूवेण सहियो जेण आगम भवियदव्ववेयणा | तव्वदिरित्तणोआगमदव्ववेयणा कम्म-णोकम्मभेएण दुविहा 1 तत्थ कम्मवेयणा णाणावरणादिभेएण अट्ठविहा | णोकम्मण आगमदव्ववेयणा सचित्त-अचित्त-मिस्सयमेएण तिविहा । तत्थ सचित्तदव्ववेयणा सिद्धजीवदव्वं । अचित्तदव्ववेयणा पोग्गल-कालागास-धम्माधम्मदव्वाणि । मिस्सदव्ववेयणा संसारिजीवदव्वं, कम्म- णोकम्मजीवसमवायस्स जीवाजीवेहिंतो पुधभावदंसणादो |
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वह वेदना यह है ' इस प्रकार अभेद रूपसे जो अन्य पदार्थमें वेदना रूपसे अध्यवसाय होता है वह स्थापनावेदना है । वह सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनाके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमेंसे जो द्रव्यका भेद प्रायः वेदनाके समान है उसमें इच्छित द्रव्य अर्थात् वेदनाद्रव्यकी स्थापना करना सद्भावस्थापनवेदना है और उससे मिन असद्भावस्थापनवेदना है ।
द्रव्यवेदना दो प्रकारकी है- आगम-द्रव्यवेदना और नोआगम-द्रव्यवेदना । जो वेदनाप्राभृतका जानकार है किन्तु उपयोग रहित है वह आगम-द्रव्यवेदना है। नोआगमद्रव्यवेदना ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकारकी है । उनमें से शायकशरीर यह भावी, वर्तमान और त्यक्तके भेद से तीन प्रकारका है । जो वेदनानुयोगद्वारका अजानकार है, किन्तु भविष्य में उसका उपादान कारण होगा; वह भावी नोआगमद्रव्यवेदना है । तद्व्यतिरिक्त नोआगम-द्रव्यवेदना कर्म और नोकर्मके भेद से दो प्रकारकी है । उनमेंसे कर्मवेदना ज्ञानावरण आदि के भेद से आठ प्रकारकी है, तथा नोकर्म-नोआगमद्रव्यवेदना सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकार की है। उनमें से सचित्त द्रव्यवेदना सिद्ध-जीव द्रव्य है । अचित्त द्रव्यवेदना पुद्गल, काल, आकाश, धर्म और अधर्म द्रव्य हैं । मिश्र द्रव्यवेदना संसारी जीव द्रव्य है, क्योंकि, कर्म और नोकर्मका जीवके साथ हुआ सम्बन्ध जीव और अजीवसे भिन्न रूपसे देखा जाता है ।
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[१, २, १, ३. भाववेयणा आगम-णोआगमभेएण दुविहा । तत्थ वेयणाणियोगद्दारजाणओ उवजुत्तो आगमभाववेयणा । अपरा दुविहा जीवाजीवभाववेयणाभेएण । तत्थ जीवभाववेयणा ओदइयादिभेएण पंचविहा । अट्ठकम्मजणिदा आदइया वेयणा । तदुवसमजणिदा अउवसमिया । तक्खयजणिदा खइया । तेसिं खओवसमजणिदा ओहिणाणादिसरूवा खवोवसमिया । जीवभविय-उवजोगादिसरूवा पारिणामिया । सुवण्ण-पुत्त-ससुवण्णकण्णादिजणिदवेयणाओ एदासु चेव पंचसु पविसति त्ति पुध ण वुत्ताओ । जा सा अजीवभाववेयणा सा दुविहा ओदइया पारिणामिया चेदि । तत्थ एक्केक्का पंचरस-पंचवण्ण-दुगंधट्ठफासादिभेएण अणेयविहा । एवमेदेसु अत्थेसु वेयणासद्दो वट्टदि त्ति केण अत्थेण पयदमिदि ण णवदे । सो वि पयदत्थो णयगहणम्मि णिलीणो त्ति ताव णयविभासा कीरदे । एवं वेयणणिक्खेवे त्ति समत्तमणियोगद्दारं ।
भाववेदना आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमेंसे जो वेदनानुयोगद्वारका जानकार होकर उसमें उपयोग युक्त है वह आगमभाववेदना है। नोआगमभाववेदना जीवभाववेदना और अजीवभाववेदनाके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमेंसे जीवभाववेदना औदयिक आदिके भेदसे पांच प्रकारकी है। आठ प्रकारके कोके उदयसे उत्पन्न हुई वेदना औदयिक वेदना है । कर्मोंके उपशमसे उत्पन्न हुई वेदना औपशमिक वेदना है । उनके क्षयसे उत्पन्न हुई वेदना क्षायिक वेदना है। उनके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुई अवधिज्ञानादि स्वरूप वेदना क्षायोपशमिक वेदना है। और जीवत्व,भव्यत्व व उपयोग आदि स्वरूप पारिणामिक वेदना है। सुवर्ण, पुत्र व सुवर्ण सहित कन्या आदिसे उत्पन्न हुई वेदनाओंका इन पांच में ही अन्तर्भाव हो जाता है, अतः उन्हें अलगसे नहीं कहा है।
और जो पहिले अजीवभाववेदना कही है वह दो प्रकारको है-औदयिक और पारिणामिक । उनमें प्रत्येक पांच रस, पांच वर्ण, दो गन्ध और आठ स्पर्श आदिके भेदसे अनेक प्रकारकी है।
इस प्रकार इन अर्थों में वेदना शब्द वर्तमान है। किन्तु यहां कौनसा अर्थ प्रकृत है, यह नहीं जाना जाता है । वह भी प्रकृत अर्थ नयग्रहणमें लीन है । अत एव प्रथम नय. विभाषा की जाती है।
विशेषार्थ -- यहां सर्व प्रथम वेदनानिक्षेप इस अधिकारका निर्देश किया गया है। वेदनानिक्षेप चार प्रकारका है-नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना । निक्षेपके यद्यपि और अनेक भेद हैं, पर सूत्रकारने मुख्य रूपसे चारका ही ग्रहण किया है । शेषका ग्रहण देशामर्शक भावसे हो जाता है । बाह्य अर्थके आलम्बनके बिना वेदना यह शब्द नामवेदना है। इसमें वेदना शब्दकी ही प्रमुखता है। तात्पर्य यह है कि किसी अन्य पदार्थका वेदना ऐसा नाम रखना यहां नामवेदना विवक्षित नहीं है, किन्तु
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वेयण - णयविभासणदा
( वेयण-यविभासणदाए को णओ काओ वेयणाओ इच्छदि ? ॥ १ ॥ )
वेणणयविभासणदाए त्ति अहियार संभालणवयणं । को णओ इच्छदि ति गेंद पुच्छासुत्तं, किंतु चालणासुतं । सा च चालणा जाणिय कायव्वा ।
स्वतंत्र रूपसे वेदना ऐसा नामकरण ही नामवेदना है । किसी पदार्थमें ' वेदना 'ऐसी स्थापना करना स्थापनावेदना है। इसके सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना ऐसे दो भेद हैं । सद्भाव स्थापना तदाकार पदार्थमें की जाती है और असद्भावस्थापना अतदाकार पदार्थ में की जाती है । जो पदार्थ वेदनासे लगभग मिलता-जुलता है उसमें ' वेदना ' ऐसी स्थापना करना सद्भाव स्थापनावेदना है, और जो पदार्थ वेदनासे मिलता-जुलता नहीं है उसमें 'वेदना' ऐसी स्थापना करना असद्भावस्थापनावेदना है । द्रव्यवेदनाका निर्देश सुगम है। फिर भी नोआगमद्रव्यवेदनाके तद्व्यतिरिक्त के भेदोंपर प्रकाश डालना आवश्यक है। इसके दो भेद हैं-कर्म और नोकर्म । बन्धसमय से लेकर उदयके पूर्व तकके कर्मको कर्म-तद्व्यतिरिक्त-नोआगमद्रव्यवेदना इसलिये कहते हैं क्योंकि ये जीवोंके विविध अवस्थाओं व विविध प्रकारके परिणामोंके होने में तथा शरीर, वचन व मनके होनेमें भविष्य में निमित्त कारण होंगे। इसलिये ये तद्व्यतिरिक्तके अवान्तर भेद रूपसे द्रव्यकर्म कहे जाते हैं । तथा नाकर्म इस दूसरे भेदसे इनके सहकारी कारण लिये जाते हैं । जो स्त्री, पुत्र, धनादि भविष्य में कर्मके उदय में सहायक होते हैं वे तद्व्यतिरिक्त के दूसरे भेद नोकर्म हैं। इनका स्पष्ट उल्लेख कर्मकाण्ड में किया है । भाववेदना में दूसरे भेद नोआगमभाववेदनाका जो अजीवभाववेदना है उसके दो भेद हैं- औदयिक और पारिणामिक । सो इनमेंसे औदयिक भेद द्वारा पुद्गलविपाकी कर्मोंके उदयसे जो रूप-रसादि रूप परिणमन होता है वह लिया गया है और पारिणामिक भेद द्वारा शेष पुद्गलोका रूप रसादि रूप परिणमन लिया गया है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
इस प्रकार वेदना निक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
अब वेदन-नयविभाषणताका अधिकार है। कौन नय किन वेदनाओंको स्वीकार करता है ? ॥ १ ॥
'वेदन- नयविभाषणता ' यह अधिकारका स्मरण करानेवाला वचन है । 1 कौन नय स्वीकार करता है ' यह पृच्छासूत्र नहीं है, किन्तु चालनासूत्र है । वह चालना जानकर करना चाहिये ।
छ. बे. २.
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१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१,२,२,२. (णेगम-ववहार-संगहा सव्वाओं ॥२॥)
इच्छंति त्ति पुन्वसुत्तादो अणुवट्टावेदव्बो, अण्णहा सुत्तट्ठाणुववत्तीदो । णामणिक्खेवो दव्वट्ठियणए कुदो संभवदि ? एक्कम्हि चेव दव्वम्हि वट्टमाणाणं णामाणं तब्भवसामण्णम्मि तीदाणागय-वट्टमाणपज्जाएसु संचरणं पडुच्च अतदव्वववएसम्मि अप्पहाणीकयपज्जायम्मि पउत्तिदंसणादो, जाइ-गुण-कम्मेसु वट्टमाणाणं सारिच्छसामण्णम्मि वत्तिविससाणुवुत्तीदो लद्धदव्वववएसम्मि अप्पहाणीकयवत्तिभावम्मि पउत्तिदसणादो, सारिच्छसामण्णप्पयणामण विणा सहववहाराणुववत्तीदो च ।
कधं दव्वट्ठियणए कृवणणामसंभवो ? पडिणिहिज्जमाणस्स पडिणिहिणा सह एयत्तज्झवसायादो सब्भावासब्भावट्ठवणभेएण सव्वत्थेसु. अण्णयदसणादो च । आगम-णोआगम
नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब वेदनाओंको स्वीकार करते हैं ॥ २॥
स्वीकार करते हैं, इसकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति करानी चाहिये; क्योंकि, उक्त पदकी अनुवृत्ति किये विना सूत्रका अर्थ नहीं बन सकता है।
शंका- नामनिक्षेप द्रव्यार्थिक नयमें कैसे सम्भव है ?
समाधान-चूंकि एक ही द्रव्यमें रहनेवाले नामों (संज्ञा शब्दों) की, जिसने अतीत, अनागत व वर्तमान पर्यायोंमें संचार करनेकी अपेक्षा 'द्रव्य' व्यपदेशको प्राप्त किया है और जो पर्यायकी प्रधानतासे रहित है ऐसे तद्भवसामान्यमें, प्रवृत्ति देखी जाती है; जाति, गुण व क्रिया में वर्तमान नामोंकी, जिसने पक्तिविशेषों में अनुवृत्ति होनेसे 'द्रव्य व्यपदेशको प्राप्त किया है और जो व्यक्तिभावकी प्रधानतासे रहित है ऐसे सादृश्यसामान्य में, प्रवृत्ति देखी जाती है; तथा सादृश्य सामान्यात्मक नामके विना शब्दव्यवहार भी घटित नहीं होता है, अतः नामनिक्षेप द्रव्यार्थिक नयमें सम्भव है।
शंका-द्रव्यार्थिक नयमें स्थापनानिक्षेप कैसे सम्भव है ?
समाधान-एक तो स्थापनामें प्रतिनिधीयमानकी प्रतिनिधिके साथ एकताका निश्चय होता है, और दूसरे सद्भावस्थापना व असद्भावस्थापनाके भेद रूपसे सब पदार्थों में अन्वय देखा जाता है; इसलिये द्रव्यार्थिक नयमें स्थापनानिक्षेप सम्भव है।
१ णेगम-संगह-ववहारा सव्वे इच्छति । जयध. (च २ प्रतिषु चेव दव्वंतो वट्ट-' इति पाठः । ४ कापतौ वत्तिविससाणवलंभादो' इति पाठः।
.) १, पृ. २५९, २७७.
३ प्रतिषु 'अत्थदव्व ' इति पाठः।
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१, २, २, ३.] वैयणामहाहियारे णयविमासणदा दव्वाणं दव्वट्ठियणयविसयत्तं सुगमं । कथं भावो वट्टमाणकालपरिच्छिण्णो दव्वट्ठियणयविसयो ? ण, वट्टमाणकालेण वंजणपज्जायावट्ठाणमेत्तेणुवलक्खियदव्वस्स दव्वट्ठियणयविसयत्ताविरोहादो। ( उजुसुदो ट्ठवणं णेच्छदि ॥३॥)
कुदो ? पुरिससंकप्पवसेण अण्णत्थस्स अण्णत्थसरूवेण परिणामाणुवलंभादो । तब्भवसारिच्छसामण्णप्पयदव्वमिच्छंतो उजुसुदो कधं ण दवट्ठियो ? ण, घड-पड-त्थंभादिवंजणपज्जायपरिच्छिण्णसगपुव्वावरभावविरहियेउजुवट्टविसयस्स दव्वट्ठियणयत्तविरोहादो ।
। सद्दणओ णामवेयणं भाववेयणं च इच्छदि ॥ ४॥
. आगमद्रव्यनिक्षेप व नोआगमद्रव्यनिक्षेप ये द्रव्यार्थिकनयके विषय हैं, यह बात सुगम है।
शंका-वर्तमान कालसे परिच्छिन्न भावनिक्षेप द्रव्यार्थिकनयका विषय कैसे है।
समाधान नहीं, क्योंकि, व्यञ्जन पर्यायके अवस्थान मात्र वर्तमान कालसे उपलक्षित द्रव्य द्रव्यार्थिक नयका विषय है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है।
ऋजुसूत्र नय स्थापनानिक्षेपको स्वीकार नहीं करता है ॥३॥
क्योंकि, पुरुषके संकल्प क्श एक पदार्थका अन्य पदार्थ रूपसे परिणमन नहीं पाया जाता है।
शंका-तद्भवसामान्य व सादृश्यसामान्य रूप द्रव्यको स्वीकार करनेवाला ऋजुसूत्र नय द्रव्यार्थिक कैसे नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऋजुसूत्र नय घट, पट व स्तम्भादि स्वरूप व्यञ्जन पर्यायोंसे परिच्छिन्न ऐसे अपने पूर्वापर भावोंसे रहित वर्तमान मात्रको विषय करता है, अतः उसे द्रव्यार्थिक नय माननेमें विरोध आता है।
शब्दनय नामवेदना और भाववेदनाको स्वीकार करता है ॥४॥
१ प्रतिषु · उजुसुदा ' इति पाठः। २ उजुसुदो ठवणवज्जे । जयध. (चू. सू.) १, पृ. २६२, २७७. ३ प्रतिषु ' भावथिरहिय- ' इति पाठः। ४ प्रतिषु 'वेयणं वेयणं च ' इति पाठः। ५ सद्दणयस्स णामं भावो च । जयध. (चू. सू.) १, पृ. २६४, २७९.
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, २, ४. किमिदि दव्वं णेच्छदि ? पज्जायंतरसंकंतिविरोहादो सद्दभेएण अस्थपढणवावदम्मि वत्थुविसेसाणं णाम-भाव मोत्तूण पहाणत्ताभावादो । एमा णयपरूवगा जदि वि जुगवं वोत्तुमसत्तीदो सुत्ते पच्छा परूविदा तो वि णिक्खवट्ठपरूवणादो पुव्वं चेव परूविदव्वा, अण्णहा णिक्खेवट्ठपरूवणाणुववत्तीदो।
संपहि पयदवेयणापरूवणं कस्सामो - एदासु वेयणासु काए पयदं १ दव्वट्ठियणय पडच्च णोआगमकम्मदव्ववेयणाए बंधोदय-संतसरूवाए पयदं । उजुसुदणयं पडुच्च उदयगदकम्मदव्ववेयणाए पयदं । सद्दणयं पडुच्च कम्मोदय-बंधजणिदभाववेयणाए ण पयदं, भावमहिकिच्च” एत्थ परूवणाभावादो । एवं वेयणणयविभासणदा त्ति समत्तमणियोगद्दारं ।
शंका-शब्दनय द्रव्यनिक्षेपको स्वीकार क्यों नहीं करता ?
समाधान-एक तो शब्दनयकी अपेक्षा दूसरी पर्यायका संक्रमण मानने में विरोध भाता है। दूसरे, वह शब्दभेदसे अर्थके कथन करने में व्यापृत रहता है, अतः उसमें नाम और भावकी ही प्रधानता रहती है, पदार्थोंके भेदोंकी प्रधानता नहीं रहती; इसलिये शब्द. नय द्रव्यनिक्षेपको स्वीकार नहीं करता।
__ एक साथ कहनेके लिये असमर्थ होनेसे यह नयप्ररूपणा यद्यपि सूत्र में पीछे कही गई है तो भी निक्षेपार्थप्ररूपणासे पहले ही उसे कहना चाहिये, अन्यथा निक्षेपार्थकी प्ररूपणा नहीं बन सकती है।
__ अब प्रकृत वेदनाकी प्ररूपणा करते हैं इन वेदनाओंमें कौनसी वेदना प्रकृत है ? द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा बन्ध, उदय और सत्त्व रूप नोआगमकर्मद्रव्यवेदना प्रकृत है। ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा उदयको प्राप्त कर्मद्रव्यवेदना प्रकृत है । शब्दनयकी अपेक्षा कर्मके उदय व बन्धसे उत्पन्न हुई भाववेदनों यहां प्रकृत नहीं है, क्योंकि, यहां भावकी अपेक्षा प्ररूपणा नहीं की गई है।
इस प्रकार वेदन-नयविभाषणता नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
१ प्रतिषु अत्थपदणवावदम्मि' इति पाठः। २ प्रतिषु 'गुणभा' इति पाठः । ३ अतोऽग्रे अ-आप्रत्योः ‘णोआगमदव्ववेयणासु काए पयदं दवट्ठियणयं पडुच्च' इत्यधिक पाठः। ४ प्रतिषु · वमहीकिच्च ' इति पाठः।
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वेयणणामविहाणं
वेयणाणामविहाणे ति । णेगम-ववहाराणं णाणावरणीयवेयणा दंसणावरणीयवेणा वेयणीयवेयणा मोहणीयवेयणा आउववेयणा णामवेयणा गोदवेयणा अंतराइयवेयणा ॥ १ ॥
वेयणाणामविहाणं किमट्ठमागय ? पयदवेयणाए विहाणपरूवणहूँ तण्णामविहाण'परूवणटुं च आगदं । तत्थ ताव णेगम-ववहाराण वेयणविहाणं उच्चदे । तं जहा-जा सा णोआगमदव्वकम्मवेयणा सा अट्ठविहा णाणावरणीय-दसणावरणीय-बेयणीय-मोहणीय-आउअणाम-गोद-अंतराइयभेएण । कुदो ? अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादसण-सुहदुक्खवेयणमिच्छत्त-कसाय-भवधारण-सरीर-गोद-वीरियादिअंतराइयकज्जस्स अण्णहाणुक्वत्तीदो । ण च
अब वेदनानामविधानका अधिकार है । नैगम व व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञाना. वरणीयवेदना, दर्शनावरणीयवेदना, वेदनीयवेदना, मोहनीयवेदना, आयुवेदना, नामवेदना, गोत्रवेदना और अन्तरायवेदना, इस प्रकार वेदना आठ भेद रूप है ॥१॥
शंका-इस सूत्रमें वेदनानामविधान, यह पद किसलिये आया है ?
समाधान-प्रकृत वेदनाके विधानका कथन करनेके लिये और उसके नामका निर्देश करने के लिये 'वेदनानामविधान' पद आया है।
उसमें पहले नैगम व व्यवहार नयकी अपेक्षा वेदनाका विधान करते हैं। वह इस प्रकार है- जो वह नोआगमद्रव्यकर्मवेदना कही है वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके भेदसे आठ प्रकारकी है, क्योंकि, ऐसा नहीं माननेपर जो यह अज्ञान, अदर्शन, सुख-दुखवेदन, मिथ्यात्व व कषाय, भव. धारण, शरीर व गोत्र रूप एवं वीर्यादिके अन्तराय रूप आठ प्रकारका कार्य दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है । यदि कहा जाय कि यह जो आठ प्रकारका कार्य भेद दिखाई
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१ प्रतिषु ' तण्णाममीहाण ' इति पाठः।
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११) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ३, १. कारणभेदेण विणा कज्जभेदो अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो । होदु कज्जभेदेण उदयगयकम्मस्स अट्ठविहत्तं, तदो तस्सुप्पत्तीदो; ण बंध-संताणं, तक्कज्जाणुवलंभादो तिण, उदयट्ठविहत्तणेण उदयकारणसंतस्स संतकारणबंधस्स य अट्ठविहत्तसिद्धीदो । एवं वेवयणाए विहाणं परूविदं ।
___ संपहि तण्णामपरूपणं कस्सामो। तं जहा- णाणावरणीयवेयणा ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयं कर्मद्रव्यम् , ज्ञानावरणीयमेव वेदना ज्ञानावरणीयवेदना । एत्थ तप्पुरिससमासो ण कायव्वो, दव्वट्ठियणएसु भावस्स' पहाणत्ताभावादो । एदेसु णएसु पदाणं समासो वि जुज्जदे, विहत्तिलोवेण एगपदभावुवलंभाँदो एगत्थत्थित्तसणादो च। वेयणासदो वि पादेक्कं पओत्तव्यो, अट्ठण्हं भिण्णवेयणाणं एक्कस्स वेयणासहस्स वाचयत्तविरोहादो।
देता है वह कारणभेदके बिना भी बन जायगा, से। ऐसा मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि, अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता है। ( अतः शानावरणीय आदि वेदना आठ प्रकारकी है, यही सिद्ध होता है । )
शंका-कार्यके भेदसे उदयगत कर्म आठ प्रकारका भले ही होओ, क्योंकि, उससे उसकी उत्पत्ति होती है। किन्तु बन्ध और सत्व आठ प्रकारके नहीं हो सकते, क्योंकि, उनका कार्य नहीं पाया जाता।
समाधान नहीं, क्योंकि जर उदय आठ प्रकारका है तब उदयका कारण सत्त्व और सत्त्वका कारण बन्ध भी आठ प्रकारका सिद्ध होता है । इस प्रकार वेदनाके भेदोंकी प्ररूपणा की।
अब उसके नामोंकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणीयवेदना, इसका निरुस्त्यर्थ है ज्ञानका जो आवरण करता है वह शानावरणीय कर्मद्रव्य है, और 'शानावरणीय रूप वेदना ही ज्ञानावरणीयवेदना ' है । यहां तत्पुरुष समास नहीं करना चाहिये, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयोंमें भावकी प्रधानता नहीं पायी जाती। इन नयों में पदोंका समास भी योग्य है, क्योंकि, एक तो विभक्ति का लोप हो जानेसे एकपदत्व पाया जाता है और दूसरे उनका एकत्र अस्तित्व भी देखा जाता है । यहां वेदना शब्दका भी प्रत्येकके साथ प्रयोग करना चाहिये, क्योंकि, आठों वेदनायें भिन्न भिन्न हैं इसलिये उनका एक वेदना शब्द वाचक है, ऐसा माननेमें विरोध आता है।
१ आप्रतौ ' तप्पुरिससमासो कायव्वो ण दवट्टियणए भावस्स ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' एगत्थमस्थिदंसणादो चे' इति पाठः।
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१, २, ३, २.]
वेयणणामविहाणं संगहस्स अट्टण्णं पि कम्माणं वेयणा ॥२॥ .. एत्थ वेयणाए विहाणं पुव्वं व परूवेदव्वं, अविसेसादो । णामविहाणं उच्चदे । तं जहा- अट्ठण्णं पि कम्माणं वेयणा त्ति वत्तव्वं, अट्ठत्तम्मि णाणावरणादिसयलकम्मभेदसंभवादो एक्कादो वेयणासदादो सयलवेयणाविसेसाविणाभाविएगवेयणाजादीए उवलंभादो, अण्णहा संगहवयणाणुववत्तीदो ।
उजुसुदस्स [णो] णाणावरणीयवेयणा णोदसणावरणीयवेयणा णोमोहणीयवेयणा णोआउअवेयणा णोणामवेयणा णोगोदवेयणा णोअंतराइयवेयणा वेयणीयं चेव वेयणा ॥३॥
उजुसुदस्स पज्जवट्टियस्स कधं दव्वं विसओ ? ण, वंजणपज्जायमहिट्ठियस्स दव्वस्स
संग्रहनयकी अपेक्षा आठों ही कर्मीकी एक वेदना होती है ॥ २ ॥
यहां वेदनाका विधान पूर्वके समान कहना चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । अब नामविधानका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है । आठों ही कर्मोंकी वेदना, ऐसा कहना चाहिये; क्योंकि, आठ इस संख्यामें ज्ञाणावरणादि कमौके सब भेद सम्भव हैं । सूत्रमें जो एक 'वेदना' शब्द कहा है सो उससे वेदनाके सब भेदोंकी अविनाभाविनी एक वेदना जातिका ग्रहण होता है, क्योंकि, इनके विना संग्रह वचन नहीं होता।
- विशेषार्थ-संग्रहनयका काम एक सामान्य धर्म द्वारा अवान्तर सब भेदोंका संग्रह करना है । प्रकृतमें नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा वेदना आठ प्रकारकी बतलाई है, किन्तु संग्रहनय उन आठों ही कर्मोंकी एक वेदना जाति स्वीकार करता है। क्योंकि, संग्रह नयमें अभेदकी प्रधानता होती है। यही कारण है कि इस नयकी अपेक्षा आठों ही कर्मोकी घटित एक वेदना कही है।
ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा [न] ज्ञानावरणीयवेदना है, न दर्शनावरणीय वेदना है, न मोहनीयवेदना है, न आयुवेदना है, न नामवेदना है, न गोत्रवेदना है और न अन्तरायवेदना है, किन्तु एक वेदनीय ही वेदना है ॥ ३॥
शंका--ऋजुसूत्रनय चूंकि पर्यायार्थिक है अतः उसका द्रव्य विषय कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, व्यञ्जन पर्यायको प्राप्त द्रव्य उसका विषय है, ऐसा
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ३, ३. तव्विसयत्ताविरोहादो। ण च उप्पाद-विणासलक्खणतं तव्विसयदव्वस्स विरुज्झदे, अप्पिदपज्जायभावाभावलक्खण-उप्पाद-विणासवदिरित्तअवठ्ठाणाणुवलंभादो । ण च पढमसमए उप्पण्णस्स बिदियादिसमएसु अवट्ठाणं, तत्थ पढम-बिदियादिसमयकप्पणाए कारणाभावादो । ण च उप्पादो चेव अवट्ठाणं, विरोहादो उप्पादलक्खणभाववदिरित्तअवहाणलक्खणाणुवलंभादो च । तदो अवट्ठाणाभावादो उप्पाद-विणासलक्खणं दव्वमिदि सिद्धं ।।
वेदणा णाम सुह-दुक्खाणि, लोगे तहा संववहारदसणादो । ण च ताणि सुह-दुक्खाणि वेयणीयपोग्गलखधं मोत्तूण अण्णकम्मदव्वेहितो उप्पज्जंति, फलाभावेण वेयणीयकम्माभावप्पसंगादो । सम्हा सम्बकम्माणं पडिसेहं काऊण पत्तोदयवेयणीयदव्वं चेव वेयणा ति उत्तं । अट्ठण्णं कम्माणमुदयगदपोग्गलक्खंधो वेदणा त्ति किमé एत्थ ण घेप्पदे १ ण, एदम्हि
मानने में कोई विरोध नहीं आता। यदि कहा जाय कि ऋजुसूत्र नयके विषयभूत द्रव्यको उत्पाद विनाशलक्षण मानने में विरोध आता है सो भी बात नहीं है क्योंकि, विवक्षित पर्यायका सद्भाव ही उत्पाद है और विवक्षित पर्यायका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतंत्र रूपसे नहीं पाया जाता । यदि कहा जाय कि प्रथम समयमें पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयोंमें उसका अवस्थान होता है सो यह बात भी नहीं बनती, क्योंकि, उसमें प्रथम द्वितीयादि समयोंकी कल्पनाका कोई कारण नहीं है । यदि कहा जाय कि उत्पाद ही अवस्थान है सो भी बात नहीं है, क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दुसरे उत्पाद स्वरूप भावको छोड़कर अवस्थानका और कोई लक्षण पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थानका अभाव होनेसे उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ।
घेदनाका अर्थ सुख-दुख है, क्योंकि, लोकमें वैसा व्यवहार देखा जाता है। और वे सुख दुख वेदनीय रूप पुद्गलस्कन्धके सिवा अन्य कर्मद्रव्योंसे नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, इस प्रकार फल का अभाव होनेसे वेदनीय कर्मके अभावका प्रसंग आता है। इसलिये प्रकृतमें सब कौका प्रतिषेध करके उदयगत वेदनीय द्रव्यको ही 'वेदना' ऐसा
कहा है।
शंका-आठ कर्मोंका उदयगत पुद्गलस्कन्ध वेदना है, ऐसा यहां क्यों नहीं ग्रहण करते?
समाधान नहीं, क्योंकि, वेदनाको स्वीकार करनेवाले ऋजुसूत्र नयके अभिप्रायमें
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१, २, ३, ४.] वेयणणामविहाणं
[ १७ अहिप्पाए तदसंभवादो । ण च अण्णम्हि उजुसुदे अण्णस्स उजुसुदस्स संभवो, मिण्णविसयाणं णयाणमेयविसयत्तविरोहादो ।
सदणयस्स वेयणा चेव वेयणा ॥ ४ ॥
वेयणीयदव्वकम्मोदयजणिदसुह-दुखाणि अट्ठकम्माणमुदयजणिदजीवपरिणामो वा वेदणा, ण दवं; सद्दणयविसए दवाभावादो। एवं वेयणणामविहाणमिदि समतमणियोगद्दारं ।
वैसा मानना सम्भव नहीं है। [अर्थात् जब कि वेदनाका अर्थ सुख-दुख है तो वह ऋजुलून नयकी अपेक्षा उदयगत वेदनीयस्कन्ध ही हो सकता है, उदयगत अन्य कर्मस्कन्ध वेदना नहीं हो सकता। और अन्य ऋजुसूत्र में अन्य ऋजुसूत्र सम्भव नहीं है, क्योंकि, भिन्न भिन्न विषयोंवाले नयोंका एक विषय मानने में विरोध आता है। यही कारण है कि यहां ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा वेदना शब्द द्वारा आठ कौके उदयगत पुद्गलस्कन्ध नहीं प्रहण किये गये हैं।]
विशेषार्थ-यहां ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा वेदना' का क्या अर्थ है, यह बतलाया गया है। सूत्रमें इस नयकी अपेक्षा केवल वेदनीय कर्मको ही वेदना कहा है जिससे ऋजुसत्र नयका विषय विचारणीय हो गया है। ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक नयका एक भेद है, अत: ऐसी शंका होना स्वाभाविक है कि ऋजुसूत्र नयका विषय द्रव्य कैसे हो सकता है। इस शंकाका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि एक तो व्यंजन पर्यायकी अपेक्षा ऋजुसूत्र नयका विषय द्रव्य बन जाता है। दूसरे, उत्पाद और व्ययसे द्रव्य सर्वथा स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। इसलिये इस अपेक्षासे द्रव्यको जुसूत्र नयका विषय मानने में कोई बाधा नहीं आती। शेष कथन सुगम है।
शब्द नयकी अपेक्षा वेदना ही वेदना है ॥ ४ ॥
शब्द नयकी अपेक्षा वेदनीय द्रव्य कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ सुख-दुख अथवा माठ कमौके उदयसे उत्पन्न हुआ जीवका परिणाम वेदना कहलाता है, द्रव्य नहीं, क्योंकि, शब्द नयका विषय द्रव्य नहीं है।
इस प्रकार वेदनानामविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुमा।
१बापतौ 'समवो पि' इति पाठः।
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वेयणदव्वविहाणं
• वेयणादवविहाणे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति- पदमीमांसा सामित्तमप्पाबहुए त्ति ॥ १ ॥
वेयणा च सा दव्वं तं वेयणादव्वं, तस्स विहाणं उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णादिपरूवणं; विधीयते अनेनेति व्युत्पत्तेः । तं वेयणदत्वविहाणं । तत्थ इमाणि पदमीमांसादितिण्णि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तत्थ पदं दुविहं- ववत्थापदं भेदपदमिदि । जस्स जम्हि अवट्ठाणं तस्स तं पदं, हाणमिदि वुत्तं होदि । जहा सिद्धिखेत्तं सिद्धाणं पदं । अस्थालावो अत्थावगमस्स पदं । उत्तं च
अत्यो पदेण गम्मइ पदमिह अट्ठरहियमणमिलप्पं । पदमत्थस्स णिमेणं अत्थालावो' पदं कुणई ॥ १ ॥
___अब वेदनाद्रव्यविधानका प्रकरण है। उसमें पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, में तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं ॥१॥
वेदना पदका द्रव्य पदके साथ कर्मधारय समास है-वेदना जो द्रव्य वह घेदना द्रव्य । इसके विधान अर्थात् भेद उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य आदि अनेक हैं जिनका इस अधिकारमें कथन किया गया है। विधान शब्दका व्युत्पत्यर्थ है 'विधीयते थनेन' जिसके द्वारा विधान किया जाय । यह 'वेदनाद्रव्यविधान' पदका अर्थ है। इसके ये पदमीमांसा आदि तीन अनुयोगद्वार जानने चाहिये ।
पद दो प्रकारका है-व्यवस्थापद और भेदपद । जिसका जिसमें अवस्थान है वह उसका पद अर्थात् स्थान कहलाता है, यह उक्त कथनका तातार्य है। जैसे सिद्धिक्षेत्र "सिद्धोका पद है । अर्थालाप अर्थपरिशानका पद है। कहा भी है
.., अर्थ पदसे जाना जाता है। यहां अर्थ रहित पद उच्चारण के अयोग्य है। पद . अर्थका स्थान है । अतः अर्थोच्चारण पदको उत्पन्न करता है ॥१॥
१ अप्रतौ ' णामेत्त', आप्रतौ ' णमेत्त', काप्रतौ 'नामेत्त' इति पाठः। २ अप्रतौ ' अत्थालोवा', आप्रतौ ' त्रुटितोऽत्र पाठः, स-काप्रत्योः ' अत्थालोवो ' इति पाठः। .
३ पदमत्थस्स निमेणं पदामिह अत्थरहियमणहिलप्पं । तम्हा आइरियाणं अत्थालावो पदं कुणई॥ बबब. १.१. ९१.
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१, १, १, १.] यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे पदमीमांसा
भेदो विसेसो पुधत्तमिदि एयद्यो । पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम्, भेदो चेवपदं भेदपदम् । एत्थ भेदपदेण उक्कस्सादिसरूवेण अहियारो । उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्ण-सादि-अणादि-धुव-अदुव-ओज-जुम्म-ओम-विसिट्ठ-णोमणोविसिट्ठपदभेदेण एत्थ तेरस पदाणि । एदेखि पदाणं मीमांसा परिक्खा जत्थ कीरदि सा पदमीमांसा । उक्कस्सादिचदुण्णं पदाणं पाओग्गजीवपरूवणं जत्थ कीरदि तमणियोगद्दारं सामित्तं णाम । जत्थ एदेसि । चदुण्णं पदाणं थोवबहुत्तं वुच्चदि तमप्पाबहुगं णाम ।
__ एदं देसामासियसुत्तं, तेण संखा-गुणयार-ओज-ट्ठाण-जीवसमुदाहारा ति पंच अणियोगदाराणि अण्णाणि वत्तव्वाणि भवंति, अण्णहा संपुण्णपरूवणाभावादो । तेण पुव्विल्लेहि सह एत्थ अट्ठ अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति । उत्तं च
(पदमीमांसा संखा गुणयारो चउत्थयं च सामित्तं ।
आजो अप्पाबहुगं ठाणाणि य जीवसमुहारो ॥२॥ (इदि के वि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे ) कुदो १ ण ताव ओजअणियोगदारं
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भेद, विशेष और पृथक्त्व, ये एकार्थक शब्द हैं। पद शब्दका निरुक्त्यर्थ है'पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते' जो जाना जाय वह पद है, भेद रूप ही पद भेदपद कहलाता है। यहां उत्कृष्ट आदि रूप भेदपदका अधिकार है। उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओम-नोविशिष्ट पदके भेदसे यहां तेरह पद हैं । इन पदोंकी मीमांसा अर्थात् परीक्षा जिस अधिकारमें की जाती है वह पदमीमांसा अनुयोगद्वार है । उत्कृष्ट आदि चार पदोंके योग्य जीवोंकी प्ररूपणा जहाँ . की जाती है उसका नाम स्वामित्व अनुयोगद्वार है। जहां इन चार पदोका 3 कहा जाता है वह अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है।
यह देशामर्शक सूत्र है, इसलिये यहां संख्या, गुणकार, ओज, स्थान और जीवसमदाहार, ये पांच अन्य अनुयोगद्वार और वक्तव्य हैं, क्योंकि, इनके विना सम्पूर्ण प्ररूपणा नहीं हो सकती । इसलिये उन पूर्वोक्त तीन अनुयोगद्वारोंके साथ यहां आठ अनुयोगद्वार सातव्य है । कहा भी है
पदमीमांसा, संख्या, गुणकार, चौथा स्वामित्व, ओज, अल्पबहुत्व, स्थान और जीवसमुदाहार, ये आठ अनुयोगद्वार हैं ॥ २॥
ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु वह घटित नहीं होता। उसीको आगे स्पर करते हैं-- ओज अनुयोगद्वार तो पृथग्भूत है नहीं, क्योंकि, ओज और युग्म प्ररूपणाकी
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२.] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, २. पुषभूदमथि, ओज-जुम्मपरूवणाविणाभाविपदमीमांसाए तस्स पवेसादो। ण संखाणिओगद्दारो वि अस्थि, उवसंहारपरूवणाविणाभाविसामित्तम्मि तस्स पवेसादों । ण गुणगाराणिओगदारं पि अस्थि, तस्स गुणगाराविणाभाविअप्पाबहुगम्मि पवेसादो। ण ठाणाणियोगद्दारं पि अत्थि, तस्स हाणपरूवणाविणाभाविअजहण्ण-अणुक्कस्सदव्यसामित्तम्मि पवेसादो। ण जीवसमुदाहारो वि . अत्थि, तस्स वि जीवाविणाभाविचउव्विहदव्वसामित्तम्मि पवेसादो। तम्हा पदमीमांसा- . सामित्तमप्पाबहुअमिदि तिण्णि चेव आणियोगद्दाराणि भवंति ।
(पदमीमांसाए णाणावरणीयवेदणा दव्वदो किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा ? ॥ २॥
एदं पुच्छासुत्तं देसामासिय, तेण अण्णाओ णव पुच्छाओ कायव्वाओ; अण्णहा पुच्छामुत्तस्स असंपुण्णत्तप्पस्संगादो । ण च भूदबलिभडारओ महाकम्मपयडिपाहुडपारओ असंपुण्णमुत्तकारओ, कारणाभावादो। तम्हा णाणावरणीयवेयणा किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा कि
अधिनाभाविनी पदमीमांसामें उसका अन्तर्भाव हो जाता है। संख्या अनुयोगद्वार भी पृथक् नहीं है, क्योंकि, उपसंहार प्ररूपणाके अविनाभावी स्वामित्वमें उसका अन्तर्भाव हो जाता है। गुणकार अनुयोगद्वार भी भिन्न नहीं है, क्योंकि, उसका गुणकारके अविनाभावी अल्पबहुत्वमें अन्तर्भाव हो जाता है । स्थान अनुयोगद्वार भी भिन्न नहीं है, क्योंकि, उसका स्थानप्ररूपणाके अविनाभावी अजघन्य अनुत्कृष्ट द्रव्यका कथन करनेवाले स्वामित्वअनुयोगद्वारमें अन्तर्भाव हो जाता है। जीवसमुदाहार भी भिन्न नहीं है, क्योंकि, उसका भी जीवके अविनाभावी चार प्रकारके द्रव्यका कथन करनेवाले स्वामित्व अनुयोगद्वारमें अन्तर्भाव हो जाता है । इस कारण पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन ही अनुयोगद्वार हैं; यह सिद्ध होता है।
पदमीमांसाका प्रकरण है। ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यसे क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है १ ॥ २॥
यह प्रच्छासूत्र देशामर्शक है, अतः यहां अन्य नौ प्रश्न और करने चाहिये। क्योंकि, इनके बिना पृच्छासूत्रकी अपूर्णताका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि इस तरह तो महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके पारगामीभूतबलि भट्टारक असम्पूर्ण सूत्रके कर्ता प्राप्त होते
सो बात नहीं है क्योंकि, उसका कोई कारण नहीं है । इसलिये शानावरणीयवेदना क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादि है, क्या अनादि
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१ सप्रतौ ' पदेसादो' इति पाठः ।
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१, २, ४, ३] वेयणमहाहियारे वैयणदत्वविहाणे पदमीमांसा (२१ जहण्णा किमजहण्णा किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमडुवा किमोजा किं जुम्मा किमोमा किं विसिट्ठा किण्णोमणोविसिट्ठा त्ति तेरसपदविसयमेदं पुच्छासुत्तं दट्ठव्वं । णाणावरणीयवेयणाए विसेसाभावेण स्रामण्णरूवाए तेरस पुच्छाओ परूविदाओ। सामण्णं विसेसाविणाभावि त्ति कट्ट एदेणेव सुत्तेण सूचिदाओ तेरसपदपुच्छाओ वत्तइस्सामो । तं जहा
उक्कस्सणाणावरणीयवेयणा किमणुक्कस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमडुवा किमोजा किं जुम्मा किमोमा किं विसिट्टा किण्णोमणोविसिट्ठा त्ति बारस पुच्छाओ उक्कस्सपदस्स हवंति । एवं सेसपदाणं पि बारस बारस पुच्छाओ पादेक्कं कायवाओ । एत्थ सवपुच्छासमासो एगूणसत्तरिसदमेत्तो | १६९/तिम्हा एरम्हि देसामासियसुत्ते अण्णाणि तेरस सुत्ताणि पविट्ठाणि त्ति दट्ठव्वं ।
उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा जहण्णा वा अजहण्णा वा ॥३॥ .. एदं पि देसामासियसुत्तं, तेणेत्थ सेसणवपदाणि वत्तव्वाणि । देसामासियत्तादो चेव सेसतेरससुत्ताणमेत्थ अंतब्भावो वत्तव्यो । तत्थ ताव पढमतुतपरूवणा कीरदे। तं जहाणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, गुणिदकम्मंसियसत्तमपुढवीणेरइयम्मि भवद्विदिचरिम
है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है, क्या ओज है, क्या युग्म है, क्या ओम है, क्या विशिष्ट है, और क्या नो-ओम-नोविशिष्ट है, इस प्रकार तेरह पदविषयक यह पृच्छासूत्र समझना चाहिये । इस प्रकार ज्ञानावरणीयवेदनाके विषयमें विशेषके विना सामान्य रूपसे प्ररूपणा करनेपर तेरह पृच्छायें कही गई हैं। किन्तु सामान्य विशेषका अविनाभावी होता है, ऐसा समझ करके इसी सूत्रसे सूचित होनेवाली अन्य तेरह पदपृच्छाओंको कहते हैं। वे इस प्रकार हैं
उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है, क्या ओज है, क्या युग्म है, क्या ओम है, क्या विशिष्ट है, और क्या नोओम-नोविशिष्ट है। इस प्रकार बारह पृच्छायें उत्कृष्ट पदविषयक होती हैं । इसी प्रकार शेष पदों से भी प्रत्येक पद विषयक बारह बारह पृच्छायें करनी चाहिये । यहां सब पृच्छाओं का योग एक सौ उनत्तर होता है|१६९|| इसी कारण इस देशामर्शक सूत्र में तेरह सूत्र और प्रविष्ट है, ऐसा यहां समझना चाहिये।
उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है ॥ ३ ॥
यह भी देशामर्शक सूत्र है, इसलिये यहां शेष नौ पद कहने चाहिये और देशामर्शक होनेसे ही शेष तेरह सूत्रोंका यहां अन्तर्भाव कहना चाहिये । उनमेंसे पहले प्रथम सूत्रकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है-शानावरणीयवेदना स्यात् उत्कृष्ट है, क्योंकि, भवस्थितिके अन्तिम समयमें वर्तमान गुणितकोशिक सप्तम-पृथिवीके
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२२ छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २,९४, ३. समए वट्टमाणम्मि उक्कस्सदव्वुवलंभादो । सिया अणुक्कस्सा, कम्महिदिचरिमसमयगुणिदकम्मंसियं मोत्तूण अण्णत्थ सव्वत्थाणुक्कस्सदव्वुवलंमादो। सिया जहण्णा, खविदकम्मंसियखीणकसायचरिमसमए जहण्णदव्वुवलंभादो । सिया अजहण्णा, सुद्धणयखविदकम्मंसियखीणकसायचरिमसमयं मोत्तूण अण्णत्थ अजहण्णदव्वुवलंभादो । सिया सादिया, उक्कस्सादि. पदाणमेगसरूवेण अवठ्ठाणाभावादो। कधं दवट्ठियणए उक्कस्सादिपदविसेसाणं संभवो? - ण, णइकगमे णइंगमे सामण्णविसेससंभवं पडि विरोहाभावादे।। सिया अणादिया, जीवकम्माणं बंधसामण्णस्स आदित्तविरोहादो । सिया धुवा, अभविएसु अभवियसमाणभविएसु , च णाणावरणसामण्णस्स वोच्छेदाभावादो । सिया अदुवा, केवलिम्हि णाणावरणवोच्छेदुवलंभादो चदुण्णं पदाणं सासदभावेण अवट्ठाणाभावादो वा । (सिया जुम्मा । जुम्मं सममिदिएयट्ठो । तं दुविहं कद-बादरजुम्मभेरण । तत्थ जो रासी चदुहि अवहिरिन्जदि सो कदजुम्मो'।
नारकीके उत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है। स्यात् अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, कर्मस्थितिके अन्तिम समयवर्ती गुणितकौशिक नारकीको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र अनुत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है। स्यात जघन्य है, क्योंकि, क्षपितकौशिक जीवके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य द्रव्य पाया जाता है। स्यात् अजधन्य है, क्योंकि, शुद्ध नयकी अपेक्षा क्षपितकौशिक जीवके क्षीणकषायके अन्तिम समयको छोड़कर अन्यत्र अजघन्य द्रव्य पाया जाता है । स्यात् सादि है, क्योंकि, उत्कृष्ट आदि पदोंका एक रूपसे अवस्थान नहीं रहता।
शंका-द्रव्यार्थिक नयमें उत्कृष्ट आदि पदविशेष कैसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, अनेकको विषय करनेवाले नैगम नयमें सामान्य और विशेष दोनों सम्भव हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता।
स्यात् अनादि है, क्योंकि, जीव और कर्मके बन्धसामान्यको सादि मानने में विरोध आता है । स्यात् ध्रुव है, क्योंकि, अभव्यों और अभव्य समान भन्यों में ज्ञानावरणसामान्यका विनाश नहीं होता । स्यात् अध्रुव है, क्योंकि, केवलीमें ज्ञानावरणका व्युच्छेद पाया जाता है,अथवा उक्त चार पदोंका शाश्वत रूपसे अवस्थान नहीं रहता। स्यात् युग्म है। युग्म और सम ये एकार्थवाचक शब्द है। वह कृतयुग्म और बादरयुग्मके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें से जो राशि चारसे अवहृत होती है वह कृतयुग्म कहलाती है । जिस
१ प्रतिषु । अदित्त' इति पाठः। २ अप्रतौ ' समाणाभविएस ' इति पाठः।
३चतुष्केण हियमाणश्चतुःशेषो हि यो भवेत् । अमावाद् भागशेषस्य संख्यातः कृतयुग्मकः ॥१॥ xxx चतुष्केण हियमाणस्त्रिशेषस्थ्योज उच्यते । द्विशेषो द्वापरयुग्मः कस्योजश्चैकशेषकः ॥२॥xxx तथा च मगवतीसूत्रे-गो. ! जे गं रासी चउक्केण अवहारेणं अवहीरमाणे अवहीरमाणे चउपज्जवसिए से गं कडजम्मे; एवं तिपज्जवसिंए तेजओए, दुपज्जवसिए दावरजग्मे, एगपज्जवसिए कलिओगे” इति । लो. प्र. १२,..
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४, २, ४, ३. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे पदमीमांसा
(२३
जो रासी चदुहि अवहिरिज्जमाणो दोरूवग्गो होदि सो बादरजुम्मं । जो एगग्गो' सो कलियोजो । जो तिगग्गो सो तेजोजो' । उत्तं च
चोदस बादरजुम्मं सोलस कदजुम्ममेत्य' कलियोजो तेरस तेजोजो खलु पण्णरसेवं खु विष्णेया ॥ ३ ॥
तदो णाणावरणम्हि समदव्वसंभवादो जुम्मत्तं घडदे । सियो आजा, कत्थ वि तत्थ विसमसंखदव्वुवलंभादो । सिया ओमा, कयाई पदेसाणमव चयदंसणादो । सिया विसिट्ठा, कयाई " वयादा अहियायदंसणादो । सिया गोमणोविसिट्ठा', पादेवकं पदावयवे णिरुद्धे वड्डि-हाणीणमभावाद । एवं पढमसुत्तपरूवणा कदा | १३ ।।
संपहि विदियसुत्तत्थो वुच्चदे । तं जहा
उक्करसणाणावरणीयवेयणा जहण्णा अणुक्कस्सा च ण होदि, पडिवक्खे तस्स अत्थित्तविरोहादो । सिया अजहण्णा, जण्णादो उवरिमसेसदव्ववियप्पावट्ठिदे अजहणणे उक्कस्सस्स वि संभवादो । सिया सादिया, अणु
राशिको चारसे अवहृत करनेपर दो रूप शेष रहते हैं वह बादरयुग्म कही जाती है । जिसको चार से अवहृत करनेपर एक अंक शेष रहता है वह कलिओज राशि है । और जिसको चारसे अवहृत करनेपर तीन अंक शेष रहते हैं वह तेजोज राशि है । कहा भी है
यहां चौदहको बादरयुग्म, सोलह को कृतयुग्म, तेरहको कलिओज और पन्द्रहको तेजोज राशि जानना चाहिये ॥ ३ ॥
इसलिये ज्ञानावरण में समान द्रव्यकी सम्भावना होनेसे युग्मत्व घटित होता है । म्यात् ओज रूप है, क्योंकि, कहींपर उसमें विसम संख्या युक्त द्रव्य स्यात् ओम है, क्योंकि, कदाचित् प्रदेशोंका अपचय देखा जाता है । क्योंकि, कदाचित् व्ययकी अपेक्षा अधिक आय देखी जाती है नोविशिष्ट है, क्योंकि, प्रत्येक पदभेदकी विवक्षा होनेपर वृद्धि हानि इस प्रकार प्रथम सूत्रकी. प्ररूपणा की | १३ ||
पाया जाता है । स्यात् विशिष्ट है, । स्यात् नोओमनहीं देखी जाती ।
अब द्वितीय सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है - उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना जघन्य और अनुत्कृष्ट नहीं होती, क्योंकि, अपने प्रतिपक्ष रूपसे उसका अस्तित्व माननेमें विरोध आता है । स्यात् अजघन्य है, क्योंकि, अजघन्यमें जघन्यसे ऊपरके शेष सब द्रव्यविकल्प सम्मिलित हैं, इसलिये उसमें उत्कृष्ट भी सम्भव है । स्यात् सादि है, क्योंकि,
,
१ प्रतिषु ' योगग्गो' इति पाठः । ३ प्रतिषु मेत्त ' इति पाठः । ५ प्रतिषु कदाचे ' इति पाठः ।
. २ द्रव्यप्रमाण पृ. २४९.
४ प्रतिषु ' कयाहं परूवणाणमव ' इति पाठः । ६ मप्रतौलिया म. जोमगोविसिद्वा इति पाठः ।
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२४ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३.
क्कस्सादा उक्स्सदव्वुष्पत्तीए । सिया अद्भुवा, उक्कस्सपदस्स' सव्वकालमवट्ठाणाभावादो । [सिया ] तेजोजो, चदुहि अवहिरिज्जमाणे तिण्णिरूवावद्वाणादो। [सिया ] णोमणोविसिट्ठा, वड्डिहाणीणं तत्थ विरोद्दादो । एवमुक्कस्सणाणावरणीयवेयणा पंचपदपिया | ५ | |
अणुक्कस्सणाणावरणीयवेयणा सिया जहण्णा, उक्कस्सं मोत्तूण सेसहेट्ठिमासेसवियप्पे अणुक्कस्से जहण्णस्स वि संभवादो । सिया अजहण्णा, अणुक्कस्सस्स अजहण्णाविणाभावितादो । सिया सादी, उक्कस्सादो अणुक्कस्सुप्पत्तीदा अणुक्कस्सादो वि अणुक्कस्सुप्पत्तिदंसणादा च । अणादिया [ण ] होदि, अणुक्कस्सपदविसेसविवक्खादो | अणुक्कस्ससामण्णम्मि अप्पिदे व अणादिया ण होदि, उक्कस्सादो अणुक्कस्सपदपदिदं पडि सादित्तदंसणादो | ण च णिच्चणिगोदेसु वि अणादित्तं लब्भदि, तत्थाणुक्कस्सपदाणं पल्लट्टणेण सादित्तुवलंभादो । सिया अद्धवा, अणुक्कस्सेक्कपदविसेसस्स सव्वदा अवट्ठाणाभाषादो | सिया ओजा, कत्थ वि पदविसेसम्हि अवट्ठिदविसम संखुवलंभादो । सिया जुम्मा, कत्थवि
अनुत्कृष्टसे उत्कृष्ट द्रव्यकी उत्पत्ति होती है । स्यात् अध्रुव है, क्योंकि, यह उत्कृष्ट पद सर्व काल अवस्थित नहीं रहता । स्यात् तेजोज है, क्योंकि, इसे चारसे अवहृत करनेपर तीन रूप अवस्थित रहते हैं । स्यात् नोओमनोविशिष्ट है, क्योंकि, उसमें वृद्धि और हानि मानने में विरोध आता है । इस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना पांच पद रूप है | ५ ||
अनुत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना स्यात् जघन्य है, क्योंकि, उत्कृष्ट विकल्पको छोड़कर अधस्तन शेष समस्त विकल्प रूप अनुत्कृष्ट पदमें जघन्य पद भी सम्भव है । स्यात् अजघन्य है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट पद अजवन्य पदका अविनाभावी है । स्यात् सादि है, क्योंकि, उत्कृष्टसे अनुत्कृष्टकी उत्पत्ति होती है और अनुत्कृष्टसे भी अनुत्कृष्टकी उत्पत्ति देखी जाती है। अनादि [नहीं] है, क्योंकि, यहां अनुत्कृष्ट रूप पदविशेषकी विवक्षा है। अनुत्कृष्टसामान्यकी विवक्षा होनेपर भी अनादि नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट पदके होनेपर सादित्व देखा जाता है । यदि कहा जाय कि इस पदका नित्यनिगोदिया जीवोंमें अनः दित्व प्राप्त हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि, वहां अनुत्कृष्ट पदके पलटने से यह सादित्व पाया जाता है । स्यात् अध्रुव है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट रूप एक पदविशेषका सर्वदा अवस्थान नहीं रहता । स्यात् ओज है, क्योंकि, अनुत्कृष्टके जितने भेद हैं उनमें से किसी भी पदविशेषमें विषम संख्याका सद्भाव पाया जाता है । स्यात् युग्म है,
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प्रतिषु पदस्स ऍदस्स', मप्रतौ ' पदस्स पदस्स ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३.] वेयणमहाहियारे दव्वविहाणे पदमीमांसा
[२५ दुविहसमसंखदसणादों। सिया ओमा, कत्थ वि हाणीदो समुप्पण्णअणुक्कस्सपदुवलंभादो। सिया विसिहा, कत्थ वि वड्डीदो अणुक्कस्सपदुवलंभादो । सिया णोमणोविसिट्ठा, अणुक्कस्सजहण्णम्मि अणुक्कस्सपदविसेसे वा अप्पिदे वड्डि-हाणीणमभावादो । एवं णाणावरणाणुक्कस्सवेयणा णवपदप्पिया । ९ ।। एवं तदियसुत्तपरूवणा कदा।
जहण्णा णाणावरणवेयणा सिया अणुक्कस्सा, अणुक्कस्सजहण्णस्स ओघजहाणेण विसेसाभावादो । सिया सादिया, अजहण्णादो जहण्णपदुप्पत्तीए । सिया अदुवा, सासदभावेण अवट्ठाणाभावादो । सिया जुम्मा, चदुहि अवहिरिज्जमाणे अग्गाभावादो । सिया णोमणोविसिट्ठा, वडि-हाणीणमभावादो। एवं जहण्णवेयणा पंचपयारा सरूवेण छप्पयारावा | ५। एवं चउत्थसुत्तपरूवणा ।
.....................................
क्योंकि, कहींपर दोनों प्रकारकी समसंख्या (ऐसी संख्या जिसे चारसे विभक्त करनेपर कुछ भी शेष न रहे या दो अंक शेष रहें ) देखी जाती है। स्यात् ओम है, क्योंकि, कहींपर हानि होनेसे उत्पन्न हुआ अनुत्कृष्ट पद पाया जाता है । स्यात् विशिष्ट है, क्योंकि, कहींपर वृद्धिके होनेसे उत्पन्न हुआ अनुत्कृष्ट पद पाया जाता है । स्यात् नोओम-नोविशिष है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट रूप जघन्य पदकी अथवा अनुत्कृष्ट रूप पदविशेषकी विवक्षा होनेपर वृद्धि और हानि नहीं होती। इस प्रकार शानावरण अनुत्कृष्ट वेदना नौ पद रूप है|९|| इस प्रकार तृतीय सूत्रकी प्ररूपणा की।
जघन्य ज्ञानावरणवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, सामान्य जघन्य पदसे अनुत्कृष्ट रूप जघन्य पदमें कोई अन्तर नहीं है। कथंचित् सादि है, क्योंकि, अजघन्यले जघन्य पद उत्पन्न होता है । कथंचित् अध्रुव है, क्योंकि, वह शाश्वत रूपसे नहीं पाया जाता । कथंचित् युग्म है, क्योंकि, उसे चारसे अवहृत करनेपर कोई अंक शेष नहीं रहता । कथंचित् नोओमनोविशिष्ट है, क्योंकि, उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती । इस प्रकार जघन्य वेदना पांच प्रकारकी है अथवा स्वपदके साथ छह प्रकारकी है|५। [आशय यह है कि जघन्य वेदना अन्य अजघन्य आदि रूप पदोंकी अपेक्षा पांच प्रकारको है और इनमें जघन्य पदको जघन्य रूप मानकर मिला देनेपर वह छह प्रकारकी हो जाती है। ] इस प्रकार चतुर्थ सूत्रकी प्ररूपणा की।
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१ प्रतिषु ' एवं कदिसुत्त.' इति पाठः । २ अ-सप्रयोः ‘वा | ६ [' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३.
अजहण्णा णाणावरणवेयणा सिया उक्कस्सा, अजहण्णुक्कस्सस्स ओघुक्कस्सा दो पुध अणुवलंभादो । सिया अणुक्कस्सा, तदविणाभावित्तादो । सिया सादिया, पल्लट्टणेण विणा अजहण्णपदविसेसाणमवट्ठाणाभावादो । सिया अद्भुवा । कारणं सुगमं । सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिद्धा । सुगमं । सिया णोमणेोविशिट्ठा, पदविसेसगिरोहादो | एवमजहण्णा गवभंगा दसभंगा वा | ९ || एसो पंचमसुत्तत्थो ।
.२६ ]
सादियणाणावरणवेयणा सिया उक्कस्सिया, सिया अणुक्कस्सिया, सिया जहण्णा, सिया अण्णा, सिया अद्भुवा । ण धुवा, सादिस्स धुवत्तविरोहादो । सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया. ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोमणोविसिट्ठा | एवं सादियवेयणाए दस भंगा एक रसभंगा वा | १० | | एसो छट्ठसुत्तत्थो ।
अणादियणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, ( अजहण्णा, सिया सादिया । कधमणादियाए वेयणाए सादित्तं ? ण, वेयणासामण्णवेक्खाए
अजघन्य ज्ञानावरणवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, क्योंकि, जब उत्कृष्ट पद अजघन्य रूपसे विवक्षित होता है तो वह ओघ उत्कृष्ट पद से पृथक् नहीं पाया जाता । कथंचित् अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, वह उसका अविनाभावी है । कथंचित् सादि है, क्योंकि, परिवर्तन हुए विना अजघन्य पदविशेषोंका अवस्थान नहीं होता है । कथंचित् अध्रुव है । इसका कारण सुगम है । कथंचित् ओज है, कथंचित् युग्म है, कथंचित् ओम है, और कथंचित् विशिष्ट है । इनका कारण सुगम है । कथंचित् नोओम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, जिसकी हानि-वृद्धि नहीं हुई ऐसे पदविशेषकी विवक्षा होने से यह विकल्प पाया जाता है । इस प्रकार अजघन्यके नौ अथवा दस भंग हैं | ९ || यह पांचवें सूत्रका अर्थ है ।
सादि ज्ञानावरणवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कथंचित् जघन्य है, कथंचित् अजघन्य है, और कथंचित् अध्रुव है । ध्रुव नहीं है, क्योंकि, सादिको ध्रुव माननेमें विरोध है । कथंचित् ओज है, कथंचित् युग्म है, कथंचित् ओम है, कथंचित् विशिष्ट है, और कथंचित् नोओम-नोविशिष्ट है । इस प्रकार सादि वेदनाके दस अथवा ग्यारह भंग हैं | १० || यह छठे सूत्रका अर्थ है ।
अनादि ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कथंचित् जघन्य है, कथंचित् अजघन्य है, और कथंचित् सादि है ।
शंका - अनादि वेदना में सादित्व कैसे सम्भव है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, जो वेदनासामान्यकी अपेक्षा अनादि है उसके उत्कृष्ट
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[२
४, २, ४, ३.] वैयणमहाहियारे दव्वाविहाणे पदमीमांसा अणादिम्मि उक्कस्सादिपदावेक्खाए सादियत्तविरोहामावादो । सिया धुवा, वेयणासामण्णस्स विणासाभावादो । सिया अडवा, पदविसेसस्स विणासदसणादो । सिया ओजा,सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोमणोविसिट्ठा । एवमणादियवेयणाए पारसभंगा |१२|| एसो सत्तमसुत्तत्थो।
धुवणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया. अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अणादिया, सिया अडुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोमणोविसिट्ठा । एवं धुवपदस्स बारसभंगा तेरसभंगा वा | १२|| . एसो अट्ठमसुत्तत्थो।
अडवणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिहा, सिया णोमणोविसिट्ठा । एवमडुवपदस्स दस एक्कारस भंगा वा । १० । एसो णवमसुत्तत्थो ।
ओजणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया अजहण्णा, सिया
आदि पर्दोकी अपेक्षा सादि होने में विरोध नहीं है ।
कथंचित् ध्रुव है, क्योंकि, वेदनासामान्यका विनाश नहीं होता। कथंचित् अध्रुव है, क्योंकि, पदविशेषका विनाश देखा जाता दै। कथंचित् ओज है, कथंचित् युग्म है, कथंचित् ओम है, कथंचित् विशिष्ट है, और कथंचित् नोओम-नोविशिष्ट है। इस प्रकार अनादि वेदनाके बारह भंग हैं | १२|। यह सातवें सूत्रका अर्थ है ।
ध्रुव ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कथंचित् जघन्य है, कथंचित् अजघन्य है, कथंचित् सादि है, कथंचित् अनादि है, कथंचित् अध्रुव है, कथंचित् ओज है, कथंचित् युग्म है, कथंचित् ओम है, कथंचित् विशिष्ट है, और कथंचित् नोओमनोविशिष्ट है। इस प्रकार ध्रुव पदके बारह अथवा तेरह भंग हैं | १२ | । यह आठवें सूत्रका अर्थ है।
. अध्रुव ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कनि जघन्य है, कथंचित् अजघन्य है, कथंचित् सादि है, कथंचित् ओज है, कथंचित् युग्म ... कथंचित् ओम है, कथंचित् विशिष्ट है, और कथंचित् नोओम-नोविशिष्ट है। इस प्रव. अवध पदके दस अथवा ग्यारह भंग हैं |१०|। यह नौवें सूत्रका अर्थ है ।
भोज ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कथंचित्
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२८)
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, ३.. सादिया, सिया अदुवा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोमणोविसिट्ठा । एवमोजस्स अट्ठ णव मंगा वा | ८J। एसो दसमसुत्तत्थो ।
जुम्मणाणावरणीयवेयणा सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अदुवा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोमणोविसिट्ठा। एवं जुम्मस्स बट्ट णव मंगा वा |८|| एसो एक्कारसमसुत्तत्थो ।
. ओमणाणावरणवेयणा सिया अणुक्कस्सा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अदुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा । एवमोमपदस्स छ सत्त भंगा वा | ६|। एसो बारसममुत्तत्थो।
विसिट्ठणाणावरणवेयणा सिया अणुक्कस्सा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अदुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा । एवं विसिट्ठपदस्स छ सत्त भंगा वा | ६ || एसो तेरसमसुत्तत्थो।
णोमणोविसिट्ठा णाणावरणवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा,
मजघन्य है, कथंचित् सादि है, कथंचित् अध्रुव है, कथंचित् ओम है, कथंचित् विशिष्ट है, मौर कथंचित् नोओम-नोविशिष्ट है । इस प्रकार ओजके आठ अथवा नौ भंग हैं |८|| यह दसवें सूत्रका अर्थ है।
युग्म ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कथंचित् जघन्य है, कथंचित् अजघन्य है, कथंचित् सादि है, कथंचित् अध्रुव है, कथंचित् ओम है, कथंचित् विशिष्ट है, और कथंचित् नोओम-नोविशिष्ट है । इस प्रकार युग्मके आठ अथवा नौ भंग है | ८ || पह ग्यारहवें सूत्रका अर्थ है।
ओम शानावरणवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कथंचित् अजघन्य है, कथंचित् सादि है, कथंचित् अध्रुव है, कथंचित् ओज है, और कथंचित् युग्म है । इस प्रकार ओम पदके छह अथवा सात भंग हैं|६|। यह बारहवें सूत्रका अर्थ है।
विशिष्ट ज्ञानावरणवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कथंचित् अजघन्य है, कथंचित् सादि है, कथंचित् अध्रुव है, कथांचित् ओज है, और कथंचित् युग्म है । इस प्रकार विशिष्ट पदके छह अथवा सात भंग हैं । यह तेरहवें सूत्रका अर्थ है।
नोमोम-नोविशिष्ट शानावरणवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, कथंचित् अनुत्कृष्ट है,
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४, २, ४, ४.] वेयणमहाहियारे दव्वविहाणे पदमीमांसा
[२९ सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अद्भुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा । एवमट्ठभंगा |८|| एसो चोद्दसमसुत्तत्थो । एदेसिं पदाणमंकविण्णासो - १३ । ५।९।५।९।१०। १२ । १२ । १० । ८।८।६।६। ८ । एत्थ गाहा
तेरस पण णव पण णव दस दोबारस दस अट्टेव ।
छच्छक्कट्ठेव तहा सामण्णपदादिपदभंगा ॥ ४ ॥ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ४॥ जहा णाणावरणीयस्स पदमीमांसा कदा तहा सेससत्तण्णं कम्माणं कायव्वा, विसेसा
कथंचित् जघन्य है, कथंचित् अजघन्य है, कथंचित् सादि है, कथंचित् अध्रुव है, कथंचित् ओज है, और कथंचित् युग्म है । इस प्रकार आठ भंग हैं | ८|। यह चौदहवें सूत्रका अर्थ है। इन पदोंका अंकविन्यास-१३।५।९।५।९।१०।१२।१२।१०।८।८।६। ६।८। यहां गाथा
तेरह, पांच, नौ, पांच, नौ, दस, दो वार बारह, दस, आठ, आठ, छह, छह तथा . आठ, ये सामान्य पद आदिके पदभंग हैं ॥४॥
इसी प्रकार सात कर्मों के उत्कृष्ट आदि पद होते हैं ॥४॥ जैसे ज्ञानावरणीय कर्मकी पदमीमांसा की है वैसे ही शेष सात कर्मोंकी करनी चाहिये, क्योंकि, इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है।
विशेषार्थ-पदमीमांसाका अर्थ है पदोंका विचार करना। जिसमें उत्कृष्ट आदि पदोंका विचार किया जाता है उसे पदमीमांसा अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रकृतमें मुख्यतया झानावरण कमेकी अपेक्षा उत्कृष्ट आदि तेरह पदोका विचार किया गया है। यद्यपि सूत्र कारने कुल उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन चार पदोंका ही निर्देश किया है। पर देशामर्षक भावसे इनके अतिरिक्त सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओम-नोविशिष्ट, ये नौ पद और लिये गये हैं। इस प्रकार कुल तेरह पद मिलाकर इनका ज्ञानावरण कर्मद्रब्यकी अपेक्षा विचार किया गया है। सर्वप्रथम तो यह बतलाया गया है कि शानावरण कर्ममें ये तेरह पद कैसे घटित होते हैं। फिर इसके बाद ज्ञानावरण कर्मको उत्कृष्ट आदि पदोंमेंसे एक एक रूप स्वीकार करके उसमें अन्य पद कहां कितने सम्भव हैं, यह बतलाया गया है और इस प्रकार इतने विवेचनके बाद अन्य सात कौकी भी इसी प्रकार प्ररूपणा करनेकी सूचना करके पदमीमांसा प्रकरण समाप्त किया गया है । अब आगे इन्हीं विशेषताओंको कोष्टक द्वारा बतलाया जाता है
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छक्खंडागमे वैयणाखंड भावादो । एवं अंतोखिसओजाणियोगहारा पदमीमांसा समत्ता ।
सामित्तं दुविहं जहण्णपदे उक्कस्सपदे ॥ ५॥
...............
ज्ञानावरण
जघन्य
अनादि
विशिष्ट
ओम.
x
x
उत्कृष्ट
x
अनु.
x. x
x
जघन्य
अजघन्य
x
x
x
सादि अनादि
: ::
ध्रुव
:
x
अध्रुव ओज
x
x
:
x
४ :
x
x
युग्म
ओम विशिष्ट नोओ.
x
x
४ :
x
3
झानावरणके उत्कृष्ट आदि पदोंमें उनके ये अवान्तर पद जिस प्रकार बतलाये हैं उसी प्रकार शेष सात कर्मों में भी घटित कर लेना चाहिये । सामान्य पद सर्वत्र तेरह ही हैं, इसलिये उनका अलगसे कोष्ठक नहीं दिया है।
इस प्रकार ओजानुयोगद्वारगर्भित पदमीमांसा समाप्त हुई। स्वामित्व दो प्रकारका है- जपन्य पद रूप और उत्कृष्ट पद रूप ॥५॥
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१, २, ४, ६.) वेयणमहाहियारे दव्वविहाणे सामिक्तं
पदे इदि ण एसा सत्तमी विहत्ती, किंतु पढमा चेव आदिद्वेयारा। पदसद्दो ठाणवाचओ घेत्तव्यो । जहण्णं पदं जस्स सामित्तस्स तं जहण्णपदं । उक्कस्सं पदं जस्स सामित्तस्स तमुक्कस्सपदं । ण च जहण्णुक्कस्ससामित्तहिंतो वदिरित्तमण्णं सामित्तमत्थि, अणुचलंभादो । अजहण्ण-अणुक्करसदव्वाणं सामित्तेण सह चउव्विहं सामित्तं किण्ण वुच्चदे ? ण, अजहण्णअणुक्कस्सदव्वसामित्त भण्णमाणे वि जहण्णुक्करसविहाणं मोत्तूणण्णेण पयारेण सामित्तपरूवणाणुववत्तीदो । तम्हा दुविहं चेव सामित्तमिदि उत्तं । अधवा जहण्णपदे उक्कस्सपदे इदि सत्तमीणिदेसो । तेण जहण्णपदे एग सामित्तं उक्क्क स्सपदे अवरं सामित्त, एवं दुविहं चेव सामित्तमिदि वत्तव्वं ।
सामित्तण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा दबदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥६॥
'पदे' यह सप्तमी विभक्ति नहीं है, किन्तु प्रथमा विभाक्ति ही है क्योंकि इसमें एकारका आदेश हो जानेसे 'पदे' यह रूप हो गया है । यहां पद शब्द स्थानका वाचक लेना चाहिये । 'जिस स्वामित्वका' जघन्य पद है वह जघन्यपद कहलाता है, और जिस स्वामित्वका उत्कृष्ट पद है वह उत्कृष्टपद कहलाता है। और जघन्य व उत्कृष्ट स्वामित्वको छोड़कर दूसरा कोई स्वामित्व है नहीं, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता।
शंका-अजघन्य और अनुत्कृष्ट द्रव्यके स्वामित्वके साथ चार प्रकारका स्वामित्व क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अजघन्य और अनुत्कृष्ट द्रव्यके स्वामित्वका कथन करनेपर भी जघन्य और उत्कृष्ट विधानको छोड़कर अन्य प्रकारसे स्वामित्वकी प्ररूपणा नहीं बनती। इस कारण सूत्रमें 'दो प्रकारका ही स्वामित्व है ' ऐसा कहा है । अथवा, 'जहण्णपदे उक्कस्सपदे' यह सप्तमी विभक्तिका निर्देश है । इसलिये जघन्य पदमें एक स्वामित्व है और उत्कृष्ट पदमें दूसरा स्वामित्व है, इस तरह दो प्रकारका ही स्वामित्व है; ऐसा सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये।
अब स्वामित्वकी अपेक्षा उत्कष्ट पदका प्रकरण है। ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥६॥
१ अ-आप्रलो. अदिडेयारा' इति पाठः।
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छपखंडागमे वेयणाखंड
णाणावर
उक्कस्सपदे जंट्ठियं सामित्तं तेण अणुगमं णाणावरणीयस्स कस्सामोणीयवेयणावयणं सेसवेयणापडिसहफलं । दव्वदो त्ति णिसो खेत्तादिपडिसेहफलो । उक्कस्सणिद्दसा जहण्णादिपडिसेहफलो । एदमाएंकियसुत्तं, पुच्छाए कारणाभावादो ।
३२ ]
[ ४,
जो जीवो बादरपुढवीजीवेसु बेसागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि ऊणियं कम्मद्विदिमच्छिदों ॥ ७ ॥
२, ४, ७.
जीवो चेव उक्कस्सदव्वसामी होदि त्ति कथं णव्वदे ? ण, मिच्छत्तासंजम कसायजोगाणं कम्मासवाणमण्णत्थाभावाद। । तेण जो जीवो त्ति जीवो विसेसियं कदा । उवरि उच्चमाणाणि सव्वाणि विसेसणाणि । बादरपुढवी दुविहा जीवाजीवभेएण । तत्थ बादरपुढवीजीवेसु अंतोमुहुत्तूणतसठिदीए ऊणियं कम्मट्ठिदिमच्छिदो जीवो सो उक्कस्सदव्वसामी होदि । कुदो ? सुहुमेइंदियजोगादो बादरेइंदियजोगस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । आउकाइय
उत्कृष्टपद में जो स्वामित्व स्थित है उसके साथ ज्ञानावरणका अनुगम करतें हैं'ज्ञानावरणीय वेदना' इस वचनका फल शेष वेदनाओंका प्रतिषेध करना है । ' द्रव्यसे ' इस निर्देशका फल क्षेत्रादिका प्रतिषेध करना है । ' उत्कृष्ट ' पदके निर्देशका फल जघन्य आदिका प्रतिषेध करना है । यह आशंकासूत्र है, क्योंकि, यहां पृच्छाका कोई कारण नहीं है ।
जो जीव बादर पृथिवीकायिक जीवों में कुछ अधिक दो हजार सागरोपमसे कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहा हो ॥ ७ ॥
शंका - जीव ही उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी होता है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग रूप कर्मोंके आस्रव अन्यत्र नहीं पाये जाते । इसीलिये ' जो जीव ' इस प्रकार जीवको विशेष्य किया है और आगे कहे जानेवाले सब इसके विशेषण हैं ।
बादर पृथिवी जीव और अजीवके भेदसे दो प्रकारकी है । उनमेंसे बादर पृथिवीकायिक जीवों में अन्तर्मुहूर्त कम त्रसस्थिति से हीन कर्मस्थति प्रमाण काल तक जो जीव रहा है वह उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी होता है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके योगसे बादर एकेन्द्रियका योग असंख्यातगुणा पाया जाता है ।
१ जो बायरत सकालेणूणं कम्मट्ठिई तु पुढबीए। बायर [ रि ] पज्जतापज्जत्तगदीहेयरद्धासु ॥ जोगकसाउ कोसो बहुसो णिच्चमवि आउबंधं च । जोगजहणणेणुवरिल्लट्ठिइनिसेगं बहु किच्चा ॥ कर्म प्रकृति २, ७४-७५. २ प्रतिषु ' अंतोहुतूतस्सठिदीए ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ७.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे पदमीमांसा आदिबादरजीवे परिहरिदूण बादरपुढवीकाइएसु किमर्से हिंडाविदो ? ण, उववादएयंताणुवड्डिजोगे परिहरिदूण पुढवीकाइएसु देसूणबावीसवाससहस्साणि परिणामजोगेहि सह पाएण अवठ्ठाणुवलंभादो । दसवाससहस्सेहितो अहियाउअपुढवीकाइएसु बहुवार हिंडाविय तत्थुप्पत्तीए संभवाभावे सत्त-तिषिण-दसवाससहस्साउअ-आउकाइय-वाउकाइय-वणप्फदिकाइएसु किण्ण उप्पाइदो ? ण, तेसिं पज्जत्तापज्जत्तजोगादो पुढवीकाइयपज्जत्तापज्जत्तजोगस्स असंखेज्जगुणत्तादो । तं कुदो णव्वदे १ बादरपुढवीकाइएसु चेव अच्छिदो त्ति णियमण्णहाणुववत्तीदो । अहवा पहाणणिद्देसोयं तेण अण्णत्थ वि समयाविरोहेणच्छिदो त्ति दट्ठव्वं । बादरपुढविकाइएसु
शंका-अप्कायिक आदि बादर जीवोंका परिहार करके बादर पृथिवीकायिक जीवों में किस लिये घुमाया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगोंको छोड़कर पृथिवीकायिकोंमें कुछ कम बाईस हजार वर्ष तक परिणामयोगोंके साथ प्रायः अवस्थान पाया जाता है । आशय यह है कि अन्य एकेन्द्रिय कायवालोंकी अपेक्षा पृथिवीकायिक जीवोंकी स्थिति अधिक होती है, इसलिये वहां अधिक काल तक परिणाम योगस्थान सम्भव है। इसीसे इस जीवको अन्य एकेन्द्रिय कायवालोमें न घुमाकर पृथिवी कायिक जीवों में घुमाया है।
शंका - दस हजार वर्षोंसे अधिक आयुवाले पृथिवीकायिकोंमें बहुत बार घुमाकर जब वहां पुनः उत्पन्न कराना सम्भव न हो तब सात हजार, तीन हजार व दस हजार वर्षकी आयुवाले अप्कायिक, वायुकायिक व वनस्पतिकायिक जीवों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया?
समाधान -नहीं, क्योंकि उनके पर्याप्त व अपर्याप्त योगसे पृथिवीकायिक जीवोंका पर्याप्त व अपर्याप्त योग असंख्यातगुणा है ।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान- बादर पृथिवीकायिकोंमें ही रहा ' यह नियम अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना है कि अप्कायिकादिकोंके पर्याप्त व अपर्याप्त योगसे पृथिवीकायिकोंका पर्याप्त व अपर्याप्त योग असंख्यातगुणा होता है। अथवा यह प्रधान निर्देश है, इसलिये 'अन्य जीवोंमें भी आगमाविरोधसे रहा' ऐसा इस सूत्रका आशय समझना चाहिये।
१ प्रतिषु ' सहस्साउमा आउ-' इति पाठः।
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३१] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, १, ७. सयलं कम्महिदि किण्ण हिंडाविदो ? ण, तसकाइएसु एइंदिएहितो असंखेज्जगुणजोगाउएसु संकिलेसबहुलेसु हिंडाविय तत्तो असंखेज्जगुणदव्वसंचयस्स तत्थेवावट्ठिदस्स अणुवलंभादो । जदि एवं तो तसकाइएसु चेव कम्मट्ठिदिं किण्ण हिंडाविदो ? ण, सादिरेयबेसागरोवमसहस्सं मोत्तूण तत्थ तीससागरोवमकोडाकोडिकालमवहाणामावादो । तसकाइएसु सगहिदिकालभंतरे उक्कस्सदव्वसंचयं काऊण पुणो बादरपुढवीकाइएसुप्पज्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो तसहिदि भमिय एइंदिएसुप्पाइय एवं कम्मट्ठिदि किण्ण हिंडाविदो ? ण, तसहिदिं समाणिय एइंदिएसु पविट्ठस्स तसेसु संचिददव्वमगालिय णिग्गमाभावादा । एदं कुदो णव्वद १ तस
शंका- बादर पृथिवीकायिकोंमें सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्रमाण काल तक क्यों नहीं घुमाया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियोंसे त्रसोंका योग और आयु असंख्यातगुणी होती है और वे संक्लेश बहुत होते हैं इसलिये पृथिवीकायिकोंमें घुमानेके पश्चात् प्रसोंमें घुमाया। यदि एकेन्द्रियोंमें ही रखते तो इनकी अपेक्षा त्रसोंमें जो असंख्यातगुणे द्रव्यका संचय होता है वह नहीं प्राप्त होता । यही कारण है कि सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्रमाण काल तक एकेन्द्रियोंमें नहीं घुमाया है।
शंका-यदि ऐसा है तो प्रसकायिकोंमें ही कर्मस्थिति प्रमाण काल तक क्यों नहीं घुमाया ?
समाधान-नही, क्योंकि वहां कुछ अधिक दो हजार सागरोपम काल तक ही अवस्थान हो सकता है। पूरे तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम काल तक अवस्थान नहीं हो सकता।
शंका-प्रसकायिकों में अपनी स्थिति प्रमाण कालके भीतर उत्कृष्ट द्रव्यका संचय करके पुनः बादर पृथिवीकायिकोंमें उत्पन्न होकर वहां अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर प्रसस्थिति काल तक त्रसोंमें भ्रमण करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराते । इस तरह कर्मस्थिति प्रमाण काल तक क्यों नहीं घुमाया ?
. समाधान-नहीं, क्योंकि प्रसस्थितिको पूर्ण करके जो जीष एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते है उन प्रसोंमें सांचत हुए द्रव्यको विना गाले निकलना नहीं होता।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
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४, २, ४, ८ ]
वेपणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे पदमीमांसा
[ ३५
द्विदीए ऊणियं कम्मट्ठदिमच्छिदो ति सुत्तणिद्देसादो । बादरपुढवीकाइए अच्छंतस्स परिणमणनियमपरूवणा उत्तरसुत्तेहि कीरदे -
तत्थ य संसरमाणस्स बहुवा पज्जत्तभवा' थोवा अपज्जतभवा भवंति ॥ ८ ॥
उप्पत्तिवारा भवाः, पज्जत्ताणं भवा पज्जत्तभवा, ते बहुआ । पज्जत्तेसुप्पण्णवारसलागाओ बहुवा त्ति' वुत्तं होदि । के पेक्खिय बहुआ पज्जत्तभवा ? खविदकम्मंसिय-खविदगुणिद-घोलमाणपज्जत्तभवे । अपज्जत्तभवा थोवा । केहिंतो ? खविद-कम्मंसिय-खविद-गुणिद
समाधान - यह ' त्रसस्थिति से कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहा ' सूत्रके इसी निर्देशसे जाना जाता है ।
अब बादर पृथिवीकायिकोंमें रहनेवाले जीवके परिणमनके नियमोंकी प्ररूपणा आगे सूत्रों द्वारा की जाती है
वहां परिभ्रमण करनेवाले जीवके पर्याप्तभव बहुत और अपर्याप्तभव थोड़े होते हैं ॥ ८ ॥
उत्पत्तिके वारोंका नाम भव है और 'पर्याप्तोंके भव पर्याप्तभव ' कहलाते हैं । वे बहुत हैं । पर्याप्तों में उत्पन्न होनेकी वारशलाकायें बहुत हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका — किनकी अपेक्षा पर्याप्तभव बहुत हैं ?
समाधान - क्षपितकर्माशिकके क्षपित, गुणित व घोलमान पर्याप्तभवोंकी अपेक्षा
बहुत हैं ।
अपर्याप्तभव थोडे है ?
शंका - किनसे थोडे हैं ?
समाधान - क्षपितकर्माशिक के क्षपित गुणित व घोलमान अपर्याप्त भवसे थोड़े हैं।
१ प्रतिषु भावा ' इति पाठः ।
6
३ प्रतिषु ' पज्ञत्तेसु पण्णवारसगाउ बहुबा वित्ति इति ' पाठः ।
२ क. प्र. २-७४.
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. छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, ८. घोलमाण-अपज्जत्तभवेहिंतो । गुणिदकम्मंसियस्स अपज्जत्तभवेहितो तस्सेव पज्जत्तभवा बहुगा त्ति किण्ण भण्णदे ? ण, बादरपुढवीकाइयअपज्जत्तभवसलागाहिंतो पज्जत्तभवसलागाणं पहुतस्स अणुत्तसिद्धीदो । कुदो बहुत्तं णव्वदे ? बादरणिगोदपज्जत्ताणं भवहिदी संखेज्जवस्ससहस्समेत्ता अपज्जत्ताणमंतोमुहुत्तमेत्ता त्ति कालाणिओगद्दारसुत्तादो। सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद् भवति । ण चैतद्विशेषणमत्रार्थवत् व्यभिचाराभावात् । तदो पुचिल्लो चेव अत्थो घेत्तव्यो । किमर्से पज्जत्तेसु चेव बहुसो उप्पादिदो ? अपज्जत्तजोगेहिंतो पज्जत्तजोगाणमसंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । किमर्ट जोगबहुत्तमिच्छिज्जदे ? ण, जोगादो पदेसबहुत्त
शंका-गुणितकांशिकके अपर्याप्त भवोंसे उसके ही पर्याप्तभव बहुत हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, बादर पृथिवीकायिककी अपर्याप्त-भव-शलाकाओंसे पर्याप्त-भव-शलाकायें बहुत हैं, यह विना कहे भी सिद्ध है।
शंका-उनका बहुत्व किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
सामाधन-'बादर निगोद पर्याप्तोंकी भवस्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है और अपर्याप्तोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र है' इस कालानुयोगद्वारके सूत्रसे जाना जाता है।
व्यभिचारके होनेपर या उसकी सम्भावना होने पर विशेषण प्रयोजनवाला होता है ऐसा नियम है। किन्तु यह विशेषण यहां प्रयोजनवाला नहीं है, क्योंकि, व्यभिचारका अभाव है। इस कारण पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये।
शंका-पर्याप्तोंमें ही बहुत बार ख्यों उत्पन्न कराया ?
समाधान- चूंकि अपर्याप्तकोंके योगोंसे पर्याप्तकोंके योग असंख्यातगुणे पाये जाते हैं, अतः उन्हींमें बहुत बार उत्पन्न कराया है ।
शंका-योगोंकी बहुलता क्यों अभीष्ट है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, योगसे प्रदेशोंकी अधिकता सिद्ध होती है।
१ अप्रतौ ' भाणदे ' इति पाठः।
२ कालाणुगम १५६.
३ प्रतिषु · पंडितेसु' इति पाठः ।
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४, २४, ९.] वेयणमहाहियारे वेयगदवाविहाणे पदमीमांसा सिद्धीदो । तं पि कुदो ? जोगा पयडि-पदेसा ति सुत्तादो।
दीहाओ पज्जत्तद्धाओ रहस्साओ अपज्जत्तद्धाओं ॥९॥
पज्जत्ताणमद्धाओ आउआणि पज्जत्तद्धाओ, ताओ दीहाओ । कत्तो ? खविदकम्मंसियखविद-गुणिद-घोलमाणपज्जत्तद्धाहिंतो । अपज्जत्तद्धाओ रहस्साओ । केहिंतो ? खविदकम्मंसिय-खविद-गुणिद-घोलमाणअपज्जत्तद्धाहिंतो । पज्जत्तेसुप्पज्जमाणो दीहाउएस चेव उप्पज्जदि अपज्जत्तएसु उप्पज्जमाणो अप्पाउएसु चेव उप्पज्जदि त्ति वुत्तं होदि । अपज्जत्तद्धाहिंतो सगपज्जत्तद्धाओ दीहाओ त्ति किण्ण भण्णदे १ न व्यभिचाराभावेन विशेषणस्य
शंका-वह भी किस प्रमाणसे सिद्ध है ? ' समाधान- 'योगसे प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं ' इस सूत्रसे वह सिद्ध है ? पर्याप्त काल दीर्घ और अपर्याप्त काल थोड़े होते हैं ॥ ९॥? पर्याप्तोंके काल अर्थात् आयु पर्याप्तकाल कहलाते हैं । वे दीर्घ हैं। शंका-किनसे दीर्घ हैं ?
समाधान-क्षपितकर्माशिकके क्षपित-गुणित और बोलमान पर्याप्तकालोंसे दधि अपर्याप्तकाल थोड़े हैं ।
शंका - किनसे थोड़े हैं ?
समाधान--क्षपितकर्माशिकके क्षपित-गुणित और घोलमान अपर्याप्तकालोंसे थोड़े हैं।
पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होता हुआ भी दीर्घ आयुवालोंमें ही उत्पन्न होता है और अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होता हुआ अल्प आयुवालोंमें ही उत्पन्न होता है, यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है। _ शंका-अपर्याप्तकालोंसे अपना पर्याप्तकाल दीर्घ है, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, इस कथनमें कोई व्यभिचार न होनेसे उक्त विशेषणके
१ गो. क २५७.
२ क.प्र. २-७४. ३ प्रतिषु ' आउअणि 'इति पाठः।
४ प्रतिषु ' कत्ता' इति पाठः। ५ अ-आ-स प्रतिषु — पजचीस ' इति पाठः; काप्रती त्वत्र त्रुटितः पाठः ।
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३८) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, १०. वेफल्यप्रसंगात् ।
एत्थेव सुत्तम्मि णिलीणस्स बिदियसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- पज्जत्तएसु दीहाउएसु उप्पण्णस्स आउअभागा दो हवंति एगो पज्जत्तभागो अवरो अपज्जत्तभागो ति । तत्थ दीहाओ पज्जत्तद्धाओ त्ति उत्ते खविदकम्मंसिय-खविद-गुणिद-घोलमाणपज्जत्तद्धाहितो गुणिदकम्मंसियपज्जत्तद्धाओ दीहाओ, तेसिमपज्जत्तद्धाहिंतो एदस्स अपज्जत्तद्धाओ रहस्साओ त्ति घेत्तव्वं । पज्जत्तएसु दीहाउएसु उप्पण्णो वि सव्वलहुएण कालेण पज्जत्तीयो समाणेदि त्ति वुत्तं होदि । किमढें एंदाणि दो वि सुत्ताणि उच्चंति ? एयंताणुवड्डिजोगे परिहरिय परिणामजोगग्गहणटुं।
जदा जदा आउअंबंधदि तदा तदा तप्पाओग्गेण जहण्णएण जोगेण बंधदि ॥ १०॥
अपज्जत्त-पज्जत्तुववादेयंताणुवड्डिजोगाणं परिहरणट्ठमाउअबंधपाओग्गजहण्णपरिणाम
.....................
निष्फल होनेका प्रसंग आता है।
__ अब इसी सूत्रमें गर्भित द्वितीय सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-दीर्घ आयुवाले पर्याप्तकों में उत्पन्न हुए जीवके आयुके दो भाग होते है एक पर्याप्तभाग और दूसरा अपर्याप्त भाग । सो यहां पर्याप्तकाल दीर्घ होते हैं ' ऐसा कहनेपर क्षपितकर्मों. शिक क्षपितगुणित और घोलमान पर्याप्तकालोंसे गुणितकांशिकके पर्याप्तकाल दीर्घ होते हैं और उनके अपर्याप्तकालोंसे इसके अपर्याप्तकाल थोड़े होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । दीर्घ आयुवाले पर्याप्तों में उत्पन्न होकर भी सबसे अल्प काल द्वारा पर्याप्तियोंको पूर्ण करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका - ये दोनों ही सूत्र किसलिये कहे जाते है ? .
समाधान-एकान्तानुवृद्धियोंको छोड़कर परिणामयोगोंका ग्रहण करनेके लिये उक्त दोनों सूत्र कहे गये हैं।
जब जब आयुको बांधता है तब तब उसके योग्य जघन्य योगसे बांधता है ॥१०॥
अपर्याप्त व पर्याप्त भवसम्बन्धी उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगोंका निषेध करनेके लिये तथा आयुबन्धके योग्य जघन्य परिणाम योगका ग्रहण करनेके लिये उसके
१
.प्र.२-७५.
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४, २, ४, १०.]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे पदमीमांसा
[ १९
जोगग्गहणङ्कं च तप्पा ओग्गजहण्णजोगग्गहणं कदं । कम्मट्ठिदिपढमसमयप्पहुडि जाव तिस्से चरिमसमओ त्ति ताव गुणिदकम्मंसियपाओग्गाण जोगट्टाणाणं' पंतीए देसादिनियमेणाafgare खग्गधारा सरिसीए जहण्णुक्कस्सजोगा' अस्थि । तत्थ आउअबंधपाओग्गजहण्णजोगेहि चैव आउअं बंधदि त्ति उत्तं होदि ।
किम जहण्णजोगेण चेव आउअं बंधाविज्जदे ? णाणावरणस्स उक्कस्ससंचय, ण अण्णा उक्कस्ससंचओ । कुदो ? उक्कस्सजोगकाले आउए बंधाविदे जहण्णजोगेण आउअं बंधमाणस्स णाणावरणक्खयादो असंखेज्जगुणदव्वक्खयदंसणादो । एदमत्थं संदिट्ठीए जाणावेमो - एत्थ ताव छसत्तट्ठ रासीओ तिण्णि वि ओहट्टाविय एगरूवावसेसे सव्वभागहारणमण्णोष्णमासे कदे णिरुद्धरासी उप्पज्जदि । तिस्से पमाणमसट्ठियं । १६८ । । एदं संदिट्ठीए जहण्णजोगागददव्वं बत्तीसरूवेहि | ३२ | उक्कस्सजोगगुणगारो त्ति कप्पिदेहि गुणिदे उक्कस्तदव्वं तेवण्णं छहत्तरिमोत्तियं' होदि | ५३७६ | | एत्थ सत्तविधबंधगस्स णाणावरणेण बद्धदव्वं सत्त
योग्य जघन्य योगका ग्रहण किया है । कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर उसके अन्तिम समय तक गुणितकर्माशिक जीवके योग्य योगस्थानोंकी देशादिके नियमसे खङ्गधाराके समान एक पंक्ति में अवस्थित जघन्य व उत्कृष्ट दोनों प्रकारके योग पाये जाते है । उनमें से आयुबन्धके योग्य जघन्य योगसे ही आयुको बांधता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका - जघन्य योगसे ही आयुका बन्ध क्यों कराया जाता है ?
समाधान -ज्ञानावरणकर्मका उत्कृष्ट संचय करानेके लिये जघन्य योगसे ही आयुका बन्ध कराया जाता है, अन्यथा उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता । कारण कि उत्कृष्ट योगके काल में आयुके बंधानेपर, जघन्य योगसे आयुको बांधनेवालेके ज्ञानावरणद्रव्यका जो क्षय होता है उससे, असंख्यातगुणे द्रव्यका क्षय देखा जाता है । इसी अर्थको संदृष्टि द्वारा जतलाते हैं- यहां छह, सात व आठ राशियां हैं, इन तीनोंको ही अपवर्तित कर एक रूपके शेष होनेपर समस्त भागहारोंका परस्पर गुणा करनेपर विवक्षित राशि उत्पन्न होती है । उसका प्रमाण एक सौ अडसठ है | १६८ | | यह संदृष्टिमें जघन्य योग से प्राप्त द्रव्य है । इसे उत्कृष्ट गुणकार रूपसे कल्पित बत्तीस | ३२ | रूपों से गुणित करनेपर उत्कृष्ट द्रव्य तिरेपन सौ छयत्तर [ १६८ x ३२ = ५३७६ ] होता है। यहां [ आयुके बिना ] सात कमको बांधनेवालेके ज्ञानावरण द्वारा प्राप्त द्रव्य सात सौ अड़सठ [ ५३७६÷७=
-
१ प्रतिषु ' जोगट्ठाण ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'छाहचरिवेत्तियं' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' जोगो' इति पाठः ।
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2.] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ११. सट्ठसहिमत्तियं Ist | अट्ठविहबंधगस्स णाणावरणेण लद्धदव्वं छस्सदबाहत्तरिमेत्तं, पुग्विल्लनव्वस्स अट्ठमभागक्खयादो । ६७२ | । हाणिपमाणं छण्णउदी |९६ ।। जहण्णजोगदव्वम्मि सत्तं बंधमाणस्स पायावरणभागो चउबीस | २४ । अटुं बंधमाणस्स णाणावरणभागो एक्कबीस | २१ ], पुव्वदव्वस्स अट्ठमभागाभावादो। दोण्णमंतरं तिण्णि । एदमुक्कस्सदव्वस्स लद्धंतरम्मि सोहिदे संदिट्ठीए तिणउदी णाणावरणक्खओ होदि । ९३ | । रूऊणुक्कस्सजोगगुणगारेण जहण्णजोगदव्वक्खए गुणिदे जो रासी उप्पज्जदि, जोगं पडि एत्तियमेतदव्यपरिरक्खणहमाउअं जहण्णजोगेण बंधाविदं । एदमपवादसुत्तं । तेण बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगवणाणि गच्छदि त्ति एदस्स उस्सग्गसुत्तस्स बाहयं होदि । आउअबंधकालं मोत्तण अण्णत्थ तं पयदि त्ति उत्तं होहि ।
___उवरिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे हेडिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स जहण्णपदे ॥ ११ ॥
७६८].मात्र है। आठ कौको बांधनेवालेके ज्ञानावरण द्वारा प्राप्त द्रव्य छह सौ बहत्तर [५३७६:८६७२] मात्र है, क्योंकि, यहां पूर्वके प्राप्त द्रव्यके आठवें भाग [ ७ ६ ८ ] का क्षय है। हानिका प्रमाण छयानबै [७६८-६७२-९६] है। जघन्य-योग सम्बन्धी द्रव्यके रहते हुए सातको बांधनेवालेके ज्ञानावरणका भाग चौबीस [१६८:२४ ) है । आठको बांधनेवालेके ज्ञानावरणका भाग इक्कीस [१६८:८२१] है, क्योंकि, यहां पूर्व द्रव्यके आठवें भाग [ २ ] का अभाव है। दोनोंका अन्तर तीन है । इसको उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त हुए. अन्तरमेंसे घटा देनेपर अंक संदृष्टिकी अपेक्षा तेरानबै अंक प्रमाण ९६-३-९३] शानावरणका क्षय होता है। एक कम उत्कृष्ट योगके गुणकारसे जघन्य योगके द्रव्यके क्षयको गुणित करनेपर जो राशि उत्पन्न होती है।(३२ - १)- ३ = ९३ योगके प्रति इतने मात्र द्रव्यके रक्षणार्थ आयुको जघन्य योग द्वारा बंधाया है ।
यह अपवादसूत्र है । इसलिये ' बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है' इस उत्सर्गसूत्रका वह बाधक है । आयुके बन्धकालको छोड़कर अन्यत्र वह सूत्र प्रकृत होता है, यह फलितार्थ है।
उपरिम स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद होता है। और अधस्तन स्थितियों के निषेकका जघन्य पद होता है ॥११॥
१क.प्र. २-७५.
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४, २, ४, ११. ]
यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ १
उ कस्सपदे उक्कस्सपदं जहण्णपदे जहण्णपदं त्ति वृत्तं होदि । खविदकम्मंसियखविद-गुणिद-घोलमा णाणं उक्कड्डणादो एदस्स उक्कड्डणा बहुगी । तेसिं चैव तिण्णमाकडणादो एदेणेोकड्डिज्जमाणदव्वं थोवं ति उत्तं होदि । गुणिदकम्मंसियओोकड्डिज्जमाणदव्वादो तेणेव उक्कड्डिज्जमाणदव्वं बहुगमिदि किण्ण भण्णदे ? ण, विसोहिअद्धा तहाणुवलंभादो । एइंदिए णाणावरणुक्कस्सट्ठिदिबंधो सागरोवमस्स तिण्णिसत्तभागमेत्तो । तेण बंधेसमयादो एत्तियमेत्ते काले गदे पयदसमयपबद्धस्स सव्वे परमाणू परिसदंति । तदो णत्थि उक्कड्डणाए पओजणमिदि १ ण, सागरोवमतिष्णिसत्तभागमेत्ते काले अदिक्कते पयदसमयपबद्धस्स ण सव्वे कम्मक्खंधा गलेति, उक्कडणाए वड्डाविदट्ठिदिसंतत्तादो । तं पि कुदो णव्वदे ? बेसागरोवमसहस्सेहि ऊणियं कम्मविदिमच्छिदो ति सुत्तण्णहाणुववत्ती दो । जदि एवं तो अनंतकाल -
' उक्कस्लपदे ' से 'उक्कस्लपदं' और 'जहण्णपदे' से ' जहण्णपदं ' ऐसी प्रथमा विभक्तिका अभिप्राय है । क्षपितकर्माशिक जीवके क्षपित-गुणित और घोलमान कर्माके उत्कर्षणसे इसका उत्कर्षण बहुत है । और उन्हीं तीनके अपकर्षणसे इसके द्वारा अपकर्षित किया जानेवाला द्रव्य थोड़ा है, यह उसका फलितार्थ है ।
शंका- गुणितकर्माशिकके अपकर्षमाण द्रव्यसे उसके ही द्वारा उत्कर्षमाण द्रम्य बहुत है, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान – नहीं, क्योंकि, विशुद्धिकालमें वैसा नहीं पाया जाता ।
शंका - एकेन्द्रियोंमें ज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरोपमके सात भागों में से तीन भाग प्रमाण होता है । इसलिये बन्धसमयसे लेकर इतने कालके वीतनेपर प्रकृत समयप्रबद्ध के सब परमाणू निजीर्ण हो जाते हैं । इस कारण प्रकृत में ऐसे उत्कर्षणसे कुछ प्रयोजन नहीं है ?
समाधान नहीं, सागरोपमके सात भागों में से तीन भाग मात्र कालके वीतने पर प्रकृत समयप्रबद्धके सब कर्मस्कन्ध नहीं गलते, क्योंकि, उत्कर्षण द्वारा उनका स्थितिसरव बढ़ा लिया जाता है ।
शंका- वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
3
समाधान -' दो हजार सागरोपमोंसे कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहा यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता, अतः जाना जाता है कि स्थितिसत्त्व बढ़ा लिया जाता है ।
शंका - यदि ऐसा हो तो अनन्त काल तक उत्कर्षणा कसकर संचयका क्यों नहीं
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४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ११. मुक्कड्डाविय किण्ण संचओ घेप्पदे १ ण, कम्मक्खंधाणं तेत्तियमेत्तकालमुक्कड्डणसत्तीए अभावादो । तं पि कुदो णव्वद ? वत्तिकम्मट्ठिदिअणुसारिणी सत्तिकम्मद्विदि त्ति वयणादो । बहुसो बहुसो बहुसंकिलेस गदो त्ति सुत्तादो चेव विदिबंधबहुत्तमुक्कड्डणाबहुत्तं च सिद्धं, तदो णिरत्थयमिदं सुत्तमिदि ? होदि णिरत्थयं जदि कसायमेत्तमुक्कड्डणाए कारणं, किंतु तिव्वमिच्छतं अरहंत-सिद्ध-बहुसुदाइरियच्चासणा तिव्वकसाओ च उक्कड्डणाकारणं । तेण ण णिरत्थयमिदं सुत्तं।
अधवा 'उवरिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स' एदस्स सुत्तस्स एवमत्थपरूवणा कायव्वा । तं जहा- बज्झमाणुक्कड्डिज्जमाणपदेसग्गं णिसिंचमाणो गुणिदकम्मंसिओ अंतरंगकारणसहाओ पढमाए हिदीए थोवं णिसिंचदि, बिदियाए विसेसाहियं, तदियाए विसेसाहियं, एवं
प्रहण किया जाता?
समाधान नहीं, क्योंकि, कर्मस्कन्धोंकी उतने काल तक उत्कर्षणशक्तिका अभाव है। - शंका- वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-' व्यक्त अवस्थाको प्राप्त हुई कर्मस्थितिका अनुसरण करनेवाली शक्ति रूप कर्मस्थिति होती है' इस वचनसे जाना जाता है ।
शंका-' बहुत बहुत वार बहुत संक्लेशको प्राप्त हुआ' इस सूत्रसे ही स्थितिबन्धकी अधिकता और उत्कर्षणकी अधिकता सिद्ध है, अतः यह सूत्र निरर्थक है ?
समाधान -- यदि कषाय मात्र ही उत्कर्षणका कारण होता तो वह सूत्र निरर्थक होता। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, तीव्र मिथ्यात्व व अरहंत, सिद्ध, बहुश्रुत एवं आचार्यकी अत्यासना अर्थात् आसादना और तीन कषाय उत्कर्षणका कारण है । इस कारण यह सूत्र निरर्थक नहीं है।
___ अथवा 'उपरिम स्थितियोंके निषेकका' इस सूत्रके अर्थका इस प्रकार कथन करना चाहिये। यथा- बध्यमान और उत्कर्षमाण प्रदेशाग्रको निक्षिप्त करता हुआ गुणितकर्माशिक जीव अन्तरंग कारण वश प्रथम स्थितिमें थोड़े प्रक्षिप्त करता है । द्वितीय स्थितिमें विशेष अधिक प्रक्षिप्त करता है । तृतीय स्थितिमें विशेष अधिक प्रक्षिप्त करता
१ अ-आ-का प्रतिषु ' -मुक्कड्डणाविय ' इति पाठः ।
२ अ-का-सप्रतिषु तदो तण्णिरत्थय ', आप्रतौ 'तदो ताणिरत्थय ', मप्रतौ । तदो ण णिरत्थय.' इति पाठः। .
३पंचेव अधिकाया छज्जीवणिकाय महव्वया पंच। पवयणमाउ-पयत्था तेतीसच्चासणा भणिया ॥ मूला. १, १०.
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४, २, ४, ११. ]
dr महाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ४३
विसेसाहियकमेण णिसिंचदि जा उक्कस्सट्ठिदिति । एसा णिसेयरचणा गुणिदकम्मंसियस्स होदिति कथं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणत्थापसंगादो ।
पदेसबंधविण्णासेण विणा उक्कड्डणापदेसरचणाए इदं सुत्तं किण्ण उच्चदे ? ण, बंधाणुसारिणीए उक्कड्डणाए पुधपदेसविण्णासाणुववत्तदो । पदेसविण्णासविसेस महोदूण सेसपुरिसोकक्कड्डणार्हितो गुणिदकम्मं सिओकड्डुक्कड्डणांण त्थावबहुत्तपटुप्पायणङ्कमिदं सुतं किण्ण भवे ? ण, बहुसो बहुसो संकिलेसं गदो त्ति सुत्तादो एदस्स अत्थपसिद्धीदो । चतित्यरादीणमासादणालक्खणमिच्छत्तेण विणा तिव्वकसाओ होदि, अणुवलंभादो |
है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक विशेष अधिकके क्रमसे प्रक्षेप करता है । शंका यह निषेकरचना गुणितकर्माशिक जीवके होती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
-
समाधान इसी सूत्र से जाना जाता है । और एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अनवस्था दोषका प्रसंग आता है ।
शंका- - यह सूत्र बंधनेवाले प्रदेशोंकी रचनाका निर्देश नहीं करता, किन्तु उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले प्रदेशोंकी रचनाका निर्देश करता है; ऐसा व्याख्यान क्यों नहीं करते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उत्कर्षण बन्धका अनुसरण करनेवाला होता है, इस लिये उसमें दूसरे प्रकारसे प्रदेशोंकी रचना नहीं बन सकती ।
शंका- प्रदेशविन्यासविशेषके लिये न होकर शेष पुरुषोंके अपकर्षण और उत्कर्षणकी अपेक्षा गुणितकर्माशिक के अपकर्षण और उत्कर्षणके अल्पबहुत्वको बतलाने के लिये यह सूत्र क्यों नहीं हो सकता ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, 'बहुत बहुत वार संक्लेशको प्राप्त हुआ ' इस सूत्र से उस अर्थकी सिद्धि हो जाती है । और तीर्थकरादिकों की आसादना रूप मिथ्यात्व के विना तीव्र कषाय होती नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता । तथा इस प्रकारकी कषाय
१ अ आ का प्रतिषु णावं धोवबहुत ' इति पाठः ।
"
२ प्रतिषु ' कदों ' इति पाठः ।
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४४ ]
खंडागमे बेयणाखंड
[ ४, २, ४, ११
ण च एवंविहो कसाओ ट्ठिदिउक्कड्डुर्णडिदिबंधाणमणिमित्तो, एदासिं णिक्कारणप्प संगादो । सदो तिव्वसंकिलेसो विलोमपदेसविण्णासकारणं, मंदसंकिलेसो अणुलोमविण्णास कारणमिदि घेत्तव्यं । किंफला इमा पदेसरचणा ? बहुकम्मक्खंधसंचयफला । संकिलेस - विसोहीहिंतो अणुलोमो चेव पदेसविण्णासो किण्ण जायदे ? ण, विरुद्धाणमेक्ककज्जकारित्तविरे|हादो । एसो उच्चारणाइरियअहिप्पाओ परुविदो । एदेण किं सिद्धं ? पच्चक्खाणजहण्णसंतकम्मियजीवहि मिच्छत्तस्स सगजहण्णादा गिरयगदीए असंखेज्जभागमहियत्तं सिद्धं ।
(भूदबलिपादाण पुण अहिष्पाओ विलोमविण्णासस्स गुणिदकम्मंसियत्तमणुलोमविण्णासस्स खविदकम्मंसियत्तं कारणं, ण संकिलेस - विसोहीओ | पंचिंदियाणं सण्णीणं पज्जत्ताणं
स्थितिउत्कर्षण और स्थितिबन्धकी निमित्त न हो सो भी नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर उनके निष्कारण होनेका प्रसंग आता है । इसलिये तीव्र संक्लेश विलोम रूपसे प्रदेशविन्यासका कारण है और मंदसंक्लेश अनुलोम रूपसे प्रदेशविन्यासका कारण है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
शंका- इस प्रदेशरचनाका क्या फल है ?
समाधान
शंका - संक्लेश और विशुद्धि इन दोनोंसे अनुलोम रूपसे ही प्रदेशविन्यास होता है, ऐसा क्यों नहीं मानते ?
-
- बहुत कर्म स्कन्धों का संचय करना ही इसका फल है ।
-
समाधान- - नहीं, क्योंकि, विरुद्ध कारणोंसे एक कार्य होता है, ऐसा माननेमें बिरोध आता है | यह उच्चारणाचार्यका अभिप्राय कहा है ।
शंका- इससे क्या सिद्ध होता है ?
समाधान – इससे त्यागके बलसे जघन्य सत्कर्मको प्राप्त हुए जीवके मिथ्यात्वका जो अपना जघन्य सत्व प्राप्त होता है उससे नरकगतिमें उसका सत्त्व असंख्यातवां भाग अधिक सिद्ध होता है ।
किन्तु भूतबलि भट्टारक के अभिप्राय से विलोम विन्यासका कारण गुणितकर्माशिकत्व और अनुलोम विन्यासका कारण क्षपितकर्माशिकत्व है, न कि संक्लेश और विशुद्धि | शंका – पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त जीवोंके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय
१ प्रतिषु ' कसाओ त्ति उक्कड्डण ' इति पाठः । ३ अ - आप्रत्योः ' खंविदकम्मुसमयत्तं इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' भवियत्तं ' इति पाठः ।
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१,३१, १२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
। ४५ णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेयणीय-अंतराइयाणं तिण्णिवाससहस्समाबा, मोतूण जे पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियसमए णिसित्तं पदेसग्गं तं विसेसहीणं, एवं णेदव्वं जावुक्कस्सेण तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ ति कालविहाणे उक्कस्सठिदीए वि अणुलोमपदेसविण्णासदसणादो । एदेण कालविहाणसुत्तुद्दिट्ठपदेसविण्णासेण कधमेदं वक्खाणं ण बाहिज्जदे १ ण, गुणिद-घोलमाणादिविसए वट्टमाणे,ण सावकासेण कालसुत्तेण एदस्स वक्खाणस्स पाहाणुववत्तीदो। उच्चारणाए व भुजगारकालभतरे चेव गुणिदत्तं किण्ण उच्चदे ? ण, अप्पदरकालादो गुणिदभुजगारकालो बहुगो त्ति वुवदेसमवलंबिय एदस्त सुत्तस्स पउत्तीदो ।
बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ॥ १२ ॥ बहुसो उक्कस्सजोगट्ठाणगमणे को लाहो ? बहुपदेसागमणं । कुदो ? जोगादो
और अन्तराय कर्मके तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें प्रदेशाग्न निषिक्त होता है वह बहुत है। जो द्वितीय समयमें प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह विशेष हीन है। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम तक ले जाना चाहिये । इसकार कालविधानमें उत्कृष्ट स्थितिका भी अनुलोमक्रमसे प्रदेशविन्यास देखा जाता है। अतः इस कालविधानसूत्र में कहे गये प्रदेशविन्याससे यह व्याख्यान कैसे नहीं बाधित होगा?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, गुणित व घोलमान आदिके विषयमें आये हुए कालसूत्रसे इस व्याख्यानका बाधा जाना सम्भव नहीं है।
शंका-उच्चारणाके समान भुजगारकालके भीतर ही गुणितत्व क्यों नहीं कहते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, ' अल्पतरकालसे भुजगारकाल बहुत है' इस उपदेशका अवलम्बन करके वह सूत्र प्रवृत्त हुआ है।
बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ .. शंका- बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त करने में क्या लाभ है? सभाधान-उत्कृष्ट योगस्थानोंके द्वारा बहुत प्रदेशोंका आगमन होता है, क्योंकि,
१ कांप्रती ' गुणिदम्वे ' इति पाठः।
२. प्र. २-७५.
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, १, १३. पदेसो बहुगो आगच्छदि त्ति वयणादो। एदं सुत्तं सामण्णविसयत्तेण आउअबंधकालं मोत्तूण अण्णत्थ पयट्टदे।
बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ १३॥
किमहुँ बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामाणं णिज्जदे ? बहुदव्वुक्कड्डणमुक्कस्सद्विदिबंधटुं च । उक्कस्सट्टिदी चेव किमर्से बंधाविज्जदे ? हेछिल्लगोउच्छाणं सुहुमत्तविहाणटुं उवरि दूरमुक्खित्ताण कम्मक्खंधाण उवसामणा-णिकाचणाकरणेहि ओकड्डणाणिवारणटुं च ।
एवं संसरिदूण बादरतसपज्जत्तएसुववण्णो' ॥ १४ ॥ एदेण विहाणेण कम्मक्खंधाणं संचयकरणेण एइंदिएसु विगयतसहिदि कम्मट्ठिदि
योगसे बहुत प्रदेश आता है, ऐसा वचन है ।
यह सूत्र सामान्यको विषय करता है अर्थात् उत्सर्गका व्याख्यान करनेवाला है, इसलिये वह आयुके बन्धकालको छोड़कर अन्यत्र प्रवृत्त होता है।
बहुत बहुत बार बहुत संक्लेश रूप परिणामवाला होता है ॥ १३ ॥
शंका -बहुत बहुत बार बहुत संक्लेश रूप परिणामोंको क्यों प्राप्त कराया जाता है ?
समाधान-बहुत द्रव्यका उत्कर्षण करानेके लिये और उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करानेके लिये बहुत बहुत बार संक्लेश रूप परिणामोंको प्राप्त कराया जाता है। __ शंका-उत्कृष्ट स्थिति ही किसलिये बंधायी जाती है ?
समाधान-अधस्तन गोपुच्छोंकी सूक्ष्मताके विधानके लिये और ऊपर दूर उत्क्षिप्त कर्मस्कन्धोंके उपशामना व निकाचना करणों द्वारा अपकर्षणका निवारण करनेके लिये उत्कृष्ट स्थिति बंधायी जाती है।
इस प्रकार परिभ्रमण करके बादर त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ ॥ १४ ॥ इस पूर्वोक्त विधिसे कर्मस्कन्धोंका संचय करता हुआ एकेन्द्रियों में प्रसस्थितिसे
१ क. प्र. २-७५,
२ प्रतिषु ' -णिकाचणाकारणेहि ' इति पाठः । ३ पायरतसेसु तक्कालमेवमंते य सत्तमखिईए । सव्वलहुं पज्जतो जोग-कसायाहिओ बहुसो। क. प्र.२-७१.
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४, २, ४, १४. ]
यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ १७
संसरिदूण बादरतसपज्जत्तसुववण्णो । तसणिद्देसो यावर डिसेहफलो । थावरतं किमिद पडिसिज्झदे ? थावरजोगादो असंखेज्जगुणेण तसुक्कस्सजोगेण कम्मसंकलणङ्कं थावरकम्मट्ठिदीदो संखेज्जगुणट्ठिदीसु कम्मक्खंधे विरलिय गोवुच्छाण सुहुमत्तविहाणट्ठमुक्कडिदूण दोहि करणहि ओकड्डणाणिराकरणङ्कं च । पज्जत्तणिद्देसो अपज्जत्तपडिसेहफलो । किमट्ठमपज्जत्तेभावा पडिसिज्झद ? तिविहअपज्जत्तजेोगेर्हितो असंखेज्जगुणेहि तिविह॑पज्जत्तजोगेहि कम्मसंकलण सुहुमणिसेग उवसामणा-णिकाचणेहि ओकड्डणापडिसेहद्वं च । बादरणिद्देसो सुहुमत्तपडिसेहफलो । थावरपडिसेहेणेव सुहुमत्तं पडिसिद्धमण्णत्थ सुहुमाणमभावादोत् उत्ते-- ण, सुहुमणामकम्मोदयजणिदसुहुमत्तेण विणा विग्गहगदीए वट्टमाणतसाणं सुहुम
रहित कर्मस्थिति प्रमाण काल तक परिभ्रमण करके बादर त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ । सूत्रमें त्रस शब्द के निर्देशका फल स्थावरोंका प्रतिषेध करना है ।
शंका- • इस प्रकार स्थावरोंका प्रतिषेध किसलिये किया जाता है ?
समाधान - स्थावरयोगसे असंख्यातगुणे त्रसोंके उत्कृष्ट योग द्वारा कर्मोंका संचय करनेके लिये, स्थावरोंकी कर्मस्थितियोंसे संख्यातगुणी कर्मस्थितियोंमें कर्मस्कन्धोंका विरलन करके गोपुच्छों की सूक्ष्मताका विधान करनेके लिये, तथा उत्कर्षण करके दोनों करणों द्वारा अपकर्षणका निराकरण करनेके लिये स्थावरोंका प्रतिषेध किया गया है ।
पर्याप्तकोंके निर्देशका फल अपर्याप्तकोंका निषेध करना है । शंका - अपर्याप्तभावका प्रतिषेध किसलिये किया जाता है ?
समाधान - तीन प्रकारके अपर्याप्तकों के योगों की अपेक्षा असंख्यातगुणे तीन प्रकार के पर्याप्तकों के योगों द्वारा कर्मका संचय करनेके लिये, अधस्तन निषेकोंकी सूक्ष्म रूपसे रचना करनेके लिये और उपशामना एवं निकाचना करण द्वारा अपकर्षणका प्रतिषेध करनेके लिये अपर्याप्तकोंका प्रतिषेध किया गया है ।
बादर शब्दके निर्देशका प्रयोजन सूक्ष्मताका प्रतिषेध करना है ।
-
शंका-स्थावरका प्रतिषेध करनेसे ही सूक्ष्मताका प्रतिषेध हो जाता है, क्योंकि, सूक्ष्म जीव और दूसरी पर्याय में नहीं पाये जाते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहांपर सूक्ष्म नामकर्मके उदय से जो सूक्ष्मता उत्पन्न
१ प्रतिषु ' असं ज्अगुणतिविह- ' इति पाठः ।
२ अ आ-सप्रतिषु -मुप्पज्जत्त-' इति पाठः ।
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४८ ]
छखंडागमे क्यणाखंड
[ ४, २, ४, १४.
तन्भुवगमादो । कधं ते सुहुमा ? अणंताणंतविस्ससोबच एहि उवचियओरालियणोकम्मक्खवादो विणिग्गयदेहत्तादो । किमहं सुहुमत्तं पडिसिज्झदे ? जोगवड्डणिमित्तं णोकम्ममिदि जाणावणडुं पज्जत्तकाल डावण च । एदं मज्झदीवयं, तेण सव्वत्थ कम्मट्ठिदीए विग्गहाभावा दट्ठव्वो ।
पज्जत्तापज्जत्तएसु उप्पज्जणसंभवे संते पढमं पज्जत्तएसु चैव किमहं उप्पादो १ एसो पाएण पज्जत्तेसु चैव उप्पज्जदि, णो अपज्जत्तरसु त्ति' जाणावणङ्कं । एसो अत्थो भवावासेण चैव परुविदो, पुणो किमट्ठमेत्थ उत्तो ? तस्सेव अत्थस्स दिढीकरण' । बादरतस
होती है उसके बिना विग्रहगतिमै वर्तमान त्रसोंकी सूक्ष्मता स्वीकार की गई है । शंका- वे सूक्ष्म कैसे हैं ?
समाधान - क्योंकि, उनका शरीर अनन्तानन्त विन्नसोपचयोंसे उपचित औदारिक नोकर्मस्कन्धोंसे रहित है, अतः वे सूक्ष्म हैं ।
शंका - सुक्ष्मताका प्रतिषेध किसलिये किया जाता है ?
समाधान - योगवृद्धिका निमित्त नोकर्म है, इस बातको जतलाने के लिये तथा पर्याप्तकालको बढ़ानेके लिये उसका प्रतिषेध किया गया है ।
यह सूत्र मध्यदीपक है, अतः सर्वत्र कर्मस्थितिमें विग्रहगतिका अभाव है यह समझना चाहिये ।
शंका- पर्याप्तक व अपर्याप्तक इन दोनोंमें ही उत्पन्न होनेकी सम्भावना होनेपर पहिले पर्याप्तकोंमें ही किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान - यह प्रायः पर्याप्तकोंमें ही उत्पन्न होता है, अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न नहीं होता; इस बातको जतलानेके लिये पहिले पर्याप्तकोंमें ही उत्पन्न कराया है ।
शंका- यह अर्थ भवावासके निरूपण द्वारा ही कहा जा चुका है, उसे फिर यहां किसलिये कहा गया है ?
समाधान - उसी अर्थको दृढ़ करनेके लिये यहां उसे फिरसे कहा है ।
१ अप्रतौ ' अपज्जत एस ते ', आ-का-स प्रतिषु ' अपज्जतएसु सुत्ते ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' दिङ्गीकरण', मप्रतौ ' दडीकरणहं ' इति पाठः ।
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४ २, ४, १४.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्याविहाणे सामित्तं
[१९ पज्जत्तएसु उजुगदीए उक्कस्सजोगेण तप्पाओग्गुक्कस्सकसाएण च उप्पण्णपढमसमए अंतोकोडाकोडीए ठिदि बंधदि । एइंदिएसु बद्ध समयपबद्धे आबाधं मोत्तूग तिस्से उवरि उक्कड्डमाणो किं सवे सममुक्कड्डिज्जति' आहो अण्णहा इदि उत्ते वुच्चदे- कम्मट्ठिदिआदिसमयपबद्धकम्मपोग्गलक्खंधा अंतोमुहुत्तूणतसहिदिमुक्कड्डिज्जति, एत्तियमेत्तसत्तिहिदिसेसादो । बिदियसमए पबद्ध। तत्तो जाव समउत्तरहिदी ता उक्कड्डिज्जदि, तस्स सम उत्तरसत्तिढिदिसेसाद। । एवं सवे समयपबद्धा सम उत्तरकमेणुक्कड्डिज्जति । जस्स समयपबद्धस्स सत्तिट्ठिदी वट्टमाणबंधट्ठिदिसेमाणा सो समयपबद्धो वट्टमाणबंधचरिमहिदि त्ति उक्कड्डिज्जदि। एसो समयपबद्धो कम्महिदीए केत्तियमद्धाणं चडिदूण पबद्धो ? कम्महिदिपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहत्तणतसहिदिविसुद्धवट्टमाणबंधहिदिमेतं चढिदूण पबद्धो । एदम्हादो उवरि समयपबद्धाणमुक्कड्डणा एदस्साणंतरादीदसमयपबद्धस्स उक्कड्डणाए तुल्ला ।
बादर त्रस पर्याप्तकोंमें ऋजुगति, उत्कृष्ट योग और उसके योग्य उत्कृष्ट कषायसे उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें अन्तःकोड़ाकोडि प्रमाण स्थितिको बांधता है।
शंका-एकेन्द्रियों में बांधे हुए समयप्रबद्धोंका आबाधाको छोड़कर उसके ऊपर उत्कर्षण करता हुआ क्या सबका एक साथ उत्कर्षण करता है अथवा अन्य प्रकारसे ?
__ समाधान-इस प्रकार पूछनेपर उत्तर देते हैं-कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बांधे हुए कर्म पुद्गलस्कन्धोंका अन्तर्मुहूर्त कम त्रसस्थिति काल प्रमाण उत्कर्षण किया जाता है, क्योंकि, इनकी इतनी शक्तिस्थिति शेष है। द्वितीय समयमें बांधे हुए समयप्रबद्धका उसले एक समय अधिक त्रसस्थितिकाल प्रमाण उत्कर्षण किया जाता है, क्योंकि, उसकी एक समय अधिक शक्तिस्थिति शेष है । इस प्रकार आगेके सर समयप्रबद्धोंका एक एक समय अधिकके क्रमसे उत्कर्षण किया जाता है। जिस समयप्रबद्धकी शक्तिस्थिति वर्तमान में बंधे हुए कर्मकी स्थितिके समान है उस समयप्रवद्ध का वर्तमान में बंधे हुए कर्मको अन्तिम स्थिति तक उत्कर्षण किया जाता है।
शंका - यह समयप्रबद्ध कर्मस्थितिका कितना काल जाने पर बांधा गया है ?
समाधान-कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कम त्रसस्थितिसे रहित वर्तमान समयप्रबद्ध की स्थिति मात्र चढ़कर बांधा गया है।
इससे आगेके समयप्रबद्धोंका उत्कर्षण इसके अनन्तर अतीत समयप्रबद्धके उत्कर्षणके समान है।
१ अप्रतौ 'समुक्कड्डि', काप्रती 'सममुक्कड्डि' इति पाठः । २ प्रतिषु ' -वट्टमाणखंडविदि-' इति पाठः ।
३ अ-आ-काप्रतिषु · उवरिमसमय- ' इति पाठः । क. वे, ७.
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५०]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १५. तस्थ य संसरमाणस्स बहुआ पज्जत्तभवा, थोवा अपज्जतभवा ॥१५॥
एदेण भवावासो परूविदो । एदस्सत्थो पुव्वं व परूवेदव्वो। एइंदिएसु परूविदाणं छण्णमावासयाण' पुणो परूवणा किम कारदे ? एइंदियेसु परूविदछावासया' चेव तसकाइएसु वि होति णो अण्णे इदि जाणावणहूँ ।
दीहाओ पज्जत्तद्धाओ रहस्साओ अपज्जत्तद्धाओ ॥ १६ ॥ एदेण अद्धावासो परूविदो १ सेसं सुममं ।
जदा जदा आउगं बंधदि तदा तदा तप्पाओग्गजहण्णएण जोगेण बंधदि ॥ १७॥
वहां पारभ्रमण करनेवाले उक्त जीवके पर्याप्तभव बहुत होते हैं और अपर्याप्तभव थोड़े होते हैं ॥ १५॥
___ इस सूत्र द्वारा भवावासकी प्ररूपणा की गई है । इसका अर्थ पूर्व (सूत्र ७) के समान कहना चाहिये।
शंका-एकेन्द्रियोंके कहे गये छह आवासोंका यहां फिरसे कथन किसलिये किया जाता है ?
समाधान- एकेन्द्रियों में जो छह आवास कहे हैं वे ही प्रसकायिकोंमें भी होते हैं, भन्य नहीं; इस बातका ज्ञान करानेके लिये यहां फिरसे उनका कथन किया है।
पर्याप्तकाल दीर्घ होता है और अपर्याप्तकाल थोड़ा होता है ॥ १६ ॥ इस भूत्र द्वारा अद्धावासकी प्ररूपणा की गई है। शेष कथन सुगम है। जब जब आयुको बांधता है तब तब उसके योग्य जघन्य योगसे बांधता है॥१०॥
१ आवासाया हु भवअद्धाउस्सं जोगसंकिलेसो य । ओकड्डुक्कतणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे ॥ गो.जी. २५०.
२ प्रतिषु "-परविदत्थावासया- ' इति पाठः।
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१, २, ४, २०.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[५१ एदेण आउवावासो परूविदो । सेसं सुगमं ।
उवरिल्लीणं ट्ठिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे हेट्ठिल्लीणं ट्ठिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदे ॥ १८ ॥
एदेण ओकड्डुक्कड्णावासो परूविदो ओकड्डुक्कडूडणा-बंधाणं पदेसविण्णासावासो वा । सेसं सुगमं ।।
बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगहाणाणि गच्छदि ॥ १९ ॥ एदेण जोगावासो परूविदो । सेसं सुगमं । बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ २० ॥
एदेण संकिलेसावासो परूविदो । संकिलेसावासो पदेसविण्णासावासे किण्ण पददे ? ण' संकिलेसो पदेसविण्णासस्स कारण, किंतु गुणिदकम्मंसियत्तं तक्कारणं; तेण ण तत्थ पददे।
........................
इस सूत्र द्वारा आयुआवासकी प्ररूपणा की गई है। शेष कथन सुगम है।
उपरिम स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद होता है और नाचेकी स्थितियोंके निषेकका जघन्य पद होता है ॥ १८॥
इस सूत्र द्वारा अपकर्षण उत्कर्षणआवासका कथन किया गया है। अथवा अपकर्षण, उत्कर्षण और बंधके प्रदेशविन्यासावासका कथन किया गया है। शेष कथन सुगम है।
बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है ॥ १९ । इसके द्वारा योगावासकी प्ररूपणा की गई है। शेष कथन सुगम है। बहुत बहुत बार बहुत संक्लेश परिणामवाला होता है ॥ २० ॥ इसके द्वारा संक्लेशावासकी प्ररूपणा की गई है। शंका-संक्लेशावासका प्रदेशविन्यासावासमें अन्तर्भाव क्यों नहीं किया गया है।
समाधान-संक्लेश प्रदेशविन्यासका कारण नहीं है, किन्तु गुणितकोशिकत्व उसका कारण है । इस कारण उसका प्रदेशविन्यासावासमें अन्तर्भाव नहीं किया है।
१ प्रतिषु · किण्ण पदे ण ' इति पाठः।
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५२) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, २१. एवं संसरिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववण्णों ॥ २१ ॥
अपच्छिमे भवे णेरइएसु किम8 उप्पाइदो ? उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सद्विदिबंधणट्ठमुक्कस्सुक्कड्डणटुं च । उक्कड्डणा णाम किं ? कम्मपदेसहिदिवड्डावणमुक्कड्डणा । उदयावलियट्टिदिपदेसा ण उक्कड्ज्जिति । कुदो ? साभावियादो। उदयावलियबाहिरहिदीओ सव्वाओ [ण ] उक्कड्डिज्जंति । किंतु चरिमद्विदी आवलियाए असंखेज्जदिभागमइच्छिदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागे उक्कड्डिज्जदि', उवरि हिदिबंधाभावादो। एसा जहण्णउक्कड्डणा । पुणो उवरिमट्ठिदिबंधेसु अइच्छावणा वड्ढावेदव्वा जाव आवलियमेत पत्ता त्ति । पुणो उवरि णिक्खेवो चेव वड्ढदि। अइच्छावणा-
णिखेवाभावा णथि उक्कड्डणा
इस प्रकार परिभ्रमण करके अन्तिम भवग्रहणमें नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ ॥ २१॥
शंका - अन्तिम भवमें नारकियोंमें किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान-उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेके लिये और उत्कृष्ट उत्कर्षण करानेके लिये वहां उत्पन्न कराया है।
शंका–उत्कर्षण किसे कहते हैं ? समाधान- कर्मप्रदेशोंकी स्थितिको बढ़ाना उत्कर्षण कहलाता है ।
उदयापलिकी स्थितिके प्रदेशोंका उत्कर्षण नहीं किया जाता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। तथा उदयावालिके बाहिरकी सभी स्थितियोंका उत्कर्षण [नहीं किया जाता है। किन्तु चरम स्थितिका आवलीके असंख्यातवें भागको अतिस्थापना रूपसे स्थापित करके आवलीके असंख्यातवें भागमें उत्कर्षण होता है, क्योंकि, ऊपर स्थितिबन्धका अभाव है। यह जघन्य उत्कर्षण है। पुनः उपरिम स्थितियों में अतिस्थापनाको आवालि मात्र प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये । फिर ऊपर निक्षेपकी ही वृद्धि होती है। अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव होनेसे नीचे उत्कर्षण नहीं होता है । उत्कृष्ट अतिस्थापना एक
१ क. प्र. २-७६.
२ प्रतिषु ' कम्मटुं' इति पाठः । ३ सत्तम्गद्विदिबंधो आदिट्ठिदुक्कट्टणे जहण्णेण । आवलिअसंखभागं तेत्तियमेत्तेव णिक्खियदि ॥ लब्धिसार ६१.
४ प्रतिषु — बंधावेदव्वा' इति पाठः। ५ प्रतिषु 'मेत्तं पच्छा त्ति ' इति पाठः।
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१, २, ४, २१.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[५३ हेट्ठा। उक्कस्सिया अइच्छावणा रूवाहियावलियूगाबाधता । जण्णिया आवलियपमाणा। पदेसाणं ठिदीणमोवट्टणा ओक्कड्डणा णाम । तिस्से अइच्छाव गा ट्ठिदिखंडयादो अण्णत्थ आवलियमेता। णवीर उदयावलियबाहिरहिदीए समऊगावलियाए बेत्तिभागा अइच्छावणा । रूवाहियतिभागो णिक्खो । उवरिल्लीसु हिदीसु रूवाहियकमेग अइच्छावणा चेव वड्ढावेदव्वा जा उक्कस्सेण आवलियमेतं पत्ता त्ति । ततो उवरि रूवाहियकोग द्विदि पडि णिक्खयो वड्ढावेदवो । जदि एवं तो णेरइएसु चेव बहुवार किण्ण उप्पाइदो ? ण एस दोसो, णेरइएसु चेव बहुवारमुपज्जदि, किंतु तत्थुप्पज्जणसंभवाभावे अण्णत्थुप्पत्तीदो । णेरइएसु उप्पज्जमाणो बहुवारं सत्तमपुढवीणेरइ रसु चेव उपज्जदि, अण्णत्थ तिव्वसंकिलेस-दीहाउवहिदीणमभावादो।
...........................................
समय अधिक आवलिसे न्यून आवाधा प्रमाण है और जघन्य अतिस्थापना आवलि प्रमाण है।
कर्मप्रदेशोंकी स्थितियों के अपवर्तनका नाम अपकर्षण है । उसकी अतिस्थापना स्थितिकाण्डकको छोड़कर अन्यत्र आवलि प्रमाण है। विशेषता इतनी है कि उदयावलिके बाहिरकी प्रथम स्थितिकी एक समय कम आवलोके दो त्रिभाग प्रमाण अतिस्थापना है और एक समय अधिक विभाग प्रमाण निक्षेप है। इससे उपरिम स्थितियों में एक समय अधिकके कमसे उत्कृष्ट रूपसे आवलि प्रमाण अतिस्थापनाके प्राप्त होने तक अतिस्थापना बढ़ाना चाहिये । उससे आगे एक समय अधिकके क्रमसे प्रत्येक स्थितिके प्रति निक्षेप बढ़ाना चाहिये।
शंका-यदि ऐसा है तो नारकियों में ही बहुत बार क्यों नहीं उत्पन्न कराया ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वह नारकियों में ही बहुत बार उत्पन्न होता है । किन्तु उनमें उत्पत्तिको सम्भावना न होनेपर अन्यत्र उत्पन्न होता है। नारकियों में उत्पन्न होता हुआ बहुत बार सप्तम पृथिवीके नारकियों में ही उत्पन्न होता है, क्योंकि, दूसरी पृथिवियों में तीव्र संक्लेश और दीर्घ आयुस्थितिका अभाव है।
१ प्रतिषु · रूवाहियावलियाणआबाधमत्ता' इति पाठः।
२ तत्तोदित्थावणगं वझदि जावावली तदुक्कस्सं । उवरीदो णिक्खेवो वरं तु बंधिय विदी जेहें॥ वोलिय बंधावलियं उक्कट्टिय उदयदो दु णिक्विविय । उबरिमसमए बिदियावलिपढमुक्कट्टणे जादे ॥ तक्कालवज्जमाणे वरहिदीए अदित्थियाबाहा । समयजुदावलियाबाहूणो उक्कस्सठिदिबंधो ॥ लब्धिसार ६२-६४.
. ३ णिक्खेवमदित्थावणमवरं समऊणआवलितिभागं । तेणूणावलिमत्तं बिदियावलियादिमणिसेगे ॥ एत्तो समऊणावलितिभागमेतो तु तं खु णिक्खेवो । उवरिं आवलिवज्जिय सगहिदी होदि णिक्खेवो । लब्धिसार ५६-५७.
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५. छपखंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, २२. तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्सेण जोगेण आहारिदो ॥ २२ ॥
पढमसमयतब्भवत्थस्स णिद्देसो बिदिय-तदिय समयतब्भवत्थपडिसेहफलो । जहण्णउववादजोगादिपडिसेहफलो उक्कस्सजोगणिद्देसो । कतारे एसा तइया । तेण आहारिदो पोग्गलक्खंधो त्ति संबंधो काययो । एत्थ 'इन' सदो उपमहो । जहा कम्महिदीए एसो जीवो पढमसमयआहारओ पढयममयतब्भवत्थो च, विग्गहगदीए अभावादो । तहा एत्थ वि । तेण सिद्धं तेग पढमसमयआहारएण पढम समयतब्भवत्येण उक्कस्सजोगेणेव आहारिदो, कम्मपोग्गलो गहिदो त्ति उत्तं हेोदि ।
उक्कस्सियाए वढिए वढिदो ॥ २३ ॥ बिदियसमयप्पहुडि एयंताणुवड्डिजोगो होदि, समयं पडि असंखेज्जगुणाए सेडीए
प्रथम समयमें आहारक और प्रथम समयमें तद्भवस्थ होकर उसने उत्कृष्ट योगके द्वारा कर्मपुद्गलको ग्रहण किया ।। २२ ॥
'प्रथम समय तद्भवस्थ' पदके निर्देश का फल द्वितीय व तृतीय समय तद्भवस्थका प्रतिषेध करना है । जघन्य उपपाद योग आदिका प्रतिषेध करने के लिये 'उत्कृष्ट योग' पदका निर्देश किया है । कर्ता कारकमें यह तृतीया विभक्ति है।' उसने पुदगलस्कन्धको ग्रहण किया' ऐसा यहां सम्बन्ध करना चाहिये। यहां सूत्र में 'इव' शब्द उपमार्थक है। आशय यह है कि जिस प्रकार कर्मस्थितिके भीतर सर्वत्र यह जीव प्रथम समयमें आहारक होता है और प्रथम समयमें तद्भवस्थ होता है, क्योंकि, इसके विग्रहगति नहीं होती। उसी प्रकार यहां नरकगतिमें भी जानना चाहिये । इससे सिद्ध हुआ कि प्रथम समयमें आहारक और प्रथम समयमै तद्भवस्थ जीवने उत्कृष्ट योगके द्वारा ही आहरण किया, अर्थात् कर्मपुद्लको ग्रहण किया; यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ ॥ २३॥ उत्पन्न होनेके द्वितीय समयसे लेकर एकान्तानुवृद्धि योग होता है, क्योंकि, प्रत्येक
१ क.प्र.२,७६.
२ प्रतिषु · विल्ले तेण ' इति पाठः ।
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४, २, १, २५.] वैयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्तं वडिदसणादो। तत्थ गुणगारो जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तभेएण तिविहो । तत्थ सेसदोवड्डीओ परिहरणट्ठमुक्कस्सियाए वड्डीए वड्डिदो त्ति भणिदं, अण्णहा उक्कस्सदव्वसंचयाणुववत्तीदो ।
अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ॥२४॥
पज्जत्तीणं समाणकालो एगसमयादिओ णत्थि त्ति परूवणट्ठमंतोमुहुत्तवयणं । तिस्से अजहण्णकालपडिसेहढे सव्वलहुवयणं । एक्काए वि पज्जत्तीए असमत्ताए पज्जत्तएसु परिणामजोगो ण होदि त्ति जाणावणटुं सबाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ति उत्तं । किं फलमिदं सुतं ? अपज्जत्तजोगादो पज्जत्तजोगो असंखेज्जगुणो त्ति जाणावणफलं ।
तत्थ भवहिदी तेत्तीससागरोवमाणि ॥२५॥ एदेण अद्धावासो' परूविदो । सेस सुगमं ।
समयमें असंख्यात गुणित श्रेणि रूपसे योगकी वृद्धि देखी जाती है । वहां गुणकार जघन्य, उत्कृष्ट तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमेंसे शेष दो वृद्धियोंका परिहार करनेके लिये 'उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ' ऐसा कहा है, अन्यथा उत्कृष्ट द्रव्यका संचय नहीं बन सकता है ।
अन्तर्मुहूर्त द्वारा अति शीघ्र सभी पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ २४ ॥ __ पर्याप्तियोंकी पूर्णताका काल एक समय आदिक नहीं है, इस बातका कथन करनेके लिये सूत्र में ' अन्तर्मुहूर्त' पदका ग्रहण किया है । पर्याप्तियोंके अजघन्य कालका निषेध करनेके लिये 'सर्वलघु' पद कहा है। एक भी पर्याप्तिके अपूर्ण रहनेपर पर्याप्तकोंमें परिणाम योग नहीं होता, इस बातके ज्ञापनार्थ 'सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ' ऐसा कहा है।
शंका-इस सूत्रका क्या प्रयोजन है।
समाधान-अपर्याप्त योगसे पर्याप्त योग असंख्यातगुणा है, यह बतलाना इस सूत्रका प्रयोजन है।
वहां भवस्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण है ।। २५ ॥ इस सूत्र द्वारा अद्धावासकी प्ररूपणा की गई है। शेष कथन सुगम है।
१ प्रतिषु 'ससव्वाहि' इति पाठः।
२ प्रतिषु अस्थावासो' इति पाठः।
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५६) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, २६. आउअमणुपालेतो बहुसो बहुसो उक्कस्ताणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ॥ २६ ॥
एदेण जोगावासो परूविदो । बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ २७ ॥
एदेण संकिलेसावासो परविदो । सेसा तिण्णि आवासया किण्ण परूविदा १ ण ताव भवावासो एत्थ संभवदि, एक्कम्हि भवे बहुत्ताभावादो। ण आउआवासो परूविज्जदि, तस्स जोगावासे अंतब्भावादो । कथं जोगबहुत्तमिच्छिज्जदि ? णाणावरणस्स बहुदव्यसंचयणिमित्तं । ण च आउअमुक्कस्स जोगेण बंधतस्स णाणावरणस्सुक्कस्ससंचयो होदि, णाणावरणस्स बहुदव्वक्खयदंसणादो। तो जोगावासादो चेव आउवं जहणजोगेण चेव बज्झदि
आयुका उपभोग करता हुआ बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है ॥ २६ ॥
इसके द्वारा योगावासकी प्ररूपणा की गई है। बहुत बहुत बार बहुत संक्लेश परिणामवाला होता है ॥ २७ ॥ इसके द्वारा संक्लेशाबासकी प्ररूपणा की गई है। शंका -शेष तीन आवालोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की है ?
समाधान-यहां भवावास तो सम्भव नहीं है, क्योंकि, एक ही भव में भवबहुत्वका अभाव है। आयु-आवासकी प्ररूपणा भी नहीं की जा सकती है, क्योंकि, उसका योगावासमें अन्तर्भाव हो जाता है।
शंका-यहां योगबहुत्व क्यों स्वीकार किया जाता है ?
समाधान-ज्ञानावरणके बहुत द्रव्यका संचय करनेके लिये यहां योगबहुत्व स्वीकार किया जाता है ।
यदि कहा जाय कि आयुको उत्कृष्ट योग द्वारा बांधनेवाले के ज्ञानावरणका उत्कृष्ट संचय होता ही है सो भी बात नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारसे तो ज्ञानावरणके बहुत द्रव्यका क्षय देखा जाता है और इसलिये योगावाससे आयु जघन्य योग द्वारा ही बंधती
१ प्रतिषु ' आउअमशुसापालेंतो' इति पाठः। .
२ प्रतिषु ' भवे भवे' इति पाठः ।
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१, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[५. त्ति णव्वदे। तम्हा आउवावासो जोगावासे पविट्ठो ति पुध ण परूविदो । ण मोक्कड्डुक्कड्डणावासो वि परूविज्जदि, तस्स संकिलेसावासे अंतब्भावादो । एसा संगहणयविसया आवासयपरूवणा परूविदा एगभवविसया ।
एवं संसरिदूण त्थोवावसेसे जीविदव्वए ति जोगजवमझस्सुवरिमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदों ॥ २८ ॥
एत्थ जोगस्स. बीइंदियपज्जत्तसव्वजहण्णजोगट्ठाणपहुडि अवविदपक्खेउत्तरकमेण उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणे ति गदस्स पढमदुगुणवाड्डअद्धाणादो दुगुण-चदुगुणादिकमेण गदगुणवड्डिअद्धाणस्स करिकराकारस्स कथं जवभावो । जवाभावे ण तस्स मझं पि, असंते मज्झत्तविरोहादो त्ति? एत्थ उत्तरं वुच्चदे । तं जहा-बीइंदियपज्जत्तसव्वजहण्णपरिणामजोगट्ठाणमादि कादूण जाव सण्णिपंचिंदियपज्जत्तउक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणे त्ति घेत्तूण पंत्तिया
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है, यह जाना जाता है। अत एव आयुरावास योगावासमें अन्तर्भूत है, अतः उसकी पृथक् प्ररूपणा नहीं की है। तथा यहां अपकर्षण-उत्कर्षण-आवासकी भी प्ररूपणा नहीं की जाती है, क्योंकि, उसका संक्लेशावासमें अन्तर्भाव हो जाता है । यह संग्रहनयकी विषयभूत एक भवविषयक आवासकी प्ररूपणा कही है।
इस प्रकार परिभ्रमण करके जीवनके थोड़ा शेष रहनेपर योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहा ॥ २८॥
शंका-यहां द्वीन्द्रिय पर्याप्तके सबसे जघन्य योगस्थानसे लेकर अवस्थित प्रक्षेप उत्तर क्रमसे उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान तक प्राप्त हुआ जितना भी योग है, जो कि पहले दुगुणवृद्धि-स्थानले दुगुण-चतुर्गुण आदिके क्रमसे उत्तरोत्तर गुणवृद्धि रूप स्थानोको प्राप्त है और जो हाथीके शुण्डादण्डके आकारका है, वह योग यवाकार कैसे हो सकता है । जब वह यवाकार नहीं है तब उसका मध्य भी सम्भव नहीं है, क्योंकि,. जो वस्तु असत् है उसका मध्य मानने में विरोध आता है ?
- समाधान-यहां उक्त शंकाका उत्तर कहते हैं । वह इस प्रकार है-द्वीन्द्रिय पर्याप्तके सबसे जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान तकके सब योगोंको ग्रहण करके एक पंक्तिमें स्थापित करनेपर उन
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१ प्रतिषु · मुहुपत्थमच्छिदो' इति पाठः । जोगजवमज्झस्सुवीरं मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे । तिचरिमदुचरिमसमए पूरित्त कसायठक्कस्सं ॥ क. प्र. २-७७.
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५८ ]
छक्खंडागमे बेयणाखंड
[ ४, २, ४, २८.
गारेण इदे सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तो जोगट्ठाणायामो होदि । तत्थ सव्वजहण्णपरिणाम - जोगडाणमादिं कादूण उवरि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजोगंट्ठाणाणि चदुसमयपाओग्गाणि । तदो उवरि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजोगट्ठाणाणि पंचसमयपाओग्गाणि । एवं परिवाडीए उवरि पुध पुध छ-सत्त- अट्ठसमयपाओग्गाणि जोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । तो उवरि जहाकमेण सत्त-छं- पंच-चदु-ति-दुसमयपाओग्गाणि जे गट्ठाणाणि सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ।
एत्थ अट्ठसमय पाओग्गजोगट्ठाणाणि थोवाणि । दोसु वि पासेसु सत्तसमयपाओग्गजोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु छसमयपाओग्गाणि जोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु पंचसमयपाओग्गाणि जोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । दोसु वि पासेसु चदुसमयपाओग्गाणि जोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । उवरि तिसमयपाओग्गजोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । बिसमयपाओग्गाणि जोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । गुणगारो सव्वत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।
सब योगस्थानोंका आयाम जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है । उनमें से सबसे जघन्य परिणाम योगस्थान से लेकर आगे के जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान चार समय प्रायोग्य हैं । फिर इससे आगे जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान पांच समय प्रायोग्य हैं । इस प्रकार परिपाटी क्रमसे आगे के पृथक् पृथक् छह सात व आठ समय प्रायोग्य योगस्थान प्रत्येक जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। फिर इससे आगे यथाक्रमसे सात, छह, पांच, चार, तीन व दो समय प्रायोग्य योगस्थान प्रत्येक जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं ।
यहां आठ समय प्रायोग्य योगस्थान थोड़े हैं। दोनों ही पार्श्वभागों में स्थित सात समय प्रायोग्य, योगस्थान असंख्यातगुणे हैं। दोनों ही पार्श्वभागों में स्थित छह समय प्रायोग्य योगस्थान असंख्यातगुणे हैं । दोनों ही पार्श्वभागों में स्थित पांच समय प्रायोग्य योगस्थान असंख्यातगुणे हैं । दोनों ही पार्श्वभागों में स्थित चार समय प्रायोग्य योगस्थान असंख्यातगुणे हैं। ऊपर तीन समय प्रायोग्य योगस्थान असंख्यातगुणे हैं । दो समय प्रायोग्य योगस्थान असंख्यातगुणे हैं । गुणकार सर्वत्र पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ।
१ प्रतिषु 'जहाकमेण सव्वत्थ पंच- ' इति पाठः ।
२ अट्ठसमयस्स थोवा उभयदिसासु वि असंखसमुणिदा । चउसमयो त्ति तहेव य उबरिं ति-समयजोग्गाओ ॥ गो. क्र. २४३.
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[५९
१, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयगदव्वविहाणे सामित्तं
तत्थ एदेसिं जोगट्ठाणाणं विसेसणभूदो कालो सगसंखं पडुच्च जवाकारो, मज्झे थूलो होदूण दोसु वि पासेसु कमहाणीए गमणादो । ४।५।६।७।८।७।६।५।४।३।२। एदेहि विसेसिदजोगट्ठाणं पि एक्कारसविहं होदि, अण्णहा विसेसियत्ताणुववत्तीदो पुधभूदकालाणुवलंभादो। जेोगो चेव जवो, तस्स मज्झं जवमझं, अट्ठसमइयजोगट्ठाणाणि त्ति उत्तं होदि । तस्स उवरि उवरिमजोगट्ठाणेसु सव्वजोगट्ठाणाणमसंखेज्जेसु भागेसु अंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो । कुदो १ चत्तारिवड्डि-हाणीणं संभवदसणादो । चदुवड्डि-हाणिकालो अंतोमुहुत्तमिदि कधं णव्वदे ? असंखेज्जगुणवड्डि-हाणिकालो अंतोमुहुत्तं, सेसवड्डि-हाणीणं कालो आवलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति बंधसुत्तादो । किमर्से तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छाविदो ? जवमज्झादो उवरिमजोगाणं हेट्ठिमजोगेहिंतो बहुत्तुवलंभादो । जोगजवमज्झादो एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे
यहां इन योगस्थानोंका विशेषणभूत काल अपनी संख्याकी अपेक्षा यवाकार हो जाता है, क्योंकि, वह मध्यमें तो स्थूल है और दोनों ही पार्श्वभागोंमें क्रमसे हानि होती गई है। ४।५।६।७।८।७।६।५।४।३।२। इस प्रकार इन चार आदि समयोसे विशेषित योगस्थान भी ग्यारह प्रकारका है, अन्यथा वह कालका विशेष्य नहीं बन सकता, क्योंकि, योगसे पृथग्भूत काल नहीं पाया जाता। यहां योगको ही यव कहा है और उसका मध्य यवमध्य कहलाता है। यवमध्यसे आठ समयवाले योगस्थान लिये जाते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उस यवमध्यके ऊपर सब योगोंके असंख्यात बहुभाग प्रमाण योगस्थानों में अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहा, क्योंकि, वहां चार वृद्धियों और चार हानियोंकी सम्भावना देखी जाती है ।
शंका-चार वृद्धियों और चार हानियोंका काल अन्तर्मुहूर्त है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -' असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका काल अन्तर्मुहर्त है तथा शेष वृद्धियों और शेष हानियों का काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है' इस बन्धसूत्रसे यह जाना जाता है कि चार वृद्धियों और चार हानियों का काल अन्तर्मुहूर्त है ।
शंका-वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक किसलिये स्थित कराया ? - समाधान-चूंकि यवमध्यसे आगेके योग पिछले योगोंसे बहुत पाये जाते हैं, अतः वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है।
विशेषार्थ-प्रति समय मन, वचन और कायके निमित्तसे जो आत्मप्रदेशपरिस्पंद होता है उसे योग कहते हैं और इनके स्थानोंको योगस्थान कहते हैं । योगस्थान तीन प्रकारके होते हैं- उपपाद योगस्थान, एकान्तवृद्धि योगस्थान और परिणाम योगस्थान । भवके प्रथम समय में स्थित जीवके उपपाद योगस्थान होते हैं । इसके पश्चात्
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१.] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २,१, २८. दवट्ठियणयं पडुच्च जोगजवमज्झसण्णिदजीवजवमज्झादो उवरिमअद्धाणम्मि अंतोमुहुत्तमच्छिदो ति किण्ण उच्चदे १ ण, जीवजवमज्झउवरिमअद्धाणम्मि हेट्ठिमअद्धाणादो विसेसा
शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होने तक एकान्तवृद्धि योगस्थान होते हैं। याद लब्ध्यपर्याप्त जीव होता है तो आयुके अन्तिम तीसरे भागको छोड़कर उपपाद योगके बाद अन्यत्र एकान्तानुवृद्धि योगस्थान होते हैं। इसके बाद शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होनेके समयसे लेकर या लब्ध्यपर्याप्तकके अन्तिम तीसरे भागमें परिणाम योगस्थान होते हैं । ये परिणाम योगस्थान द्वीन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य योगस्थानोंसे लेकर संशी पंचन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट योगस्थानों तक क्रमसे वृद्धिको लिये हुए होते हैं । इनमें आठ समयवाले योगस्थान सबसे थोड़े होते हैं। इनसे दोनों पार्श्वभागों में स्थित सात समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे दोनों पार्श्वभागोंमें स्थित छह समयवाले योगस्थान भसंख्यातगुणे होते हैं। इनसे दोनों पार्श्वभागोंमें स्थित पांच समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्वभागोंमें स्थित चार समयवाले योगस्थान असंस्यातगुणे होते हैं । इनसे तीन समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं और इनसे यो समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। ये सब योगस्थान चार, पांच, छह, सात, आठ, सात, छह, पांच, चार, तीन और दो समयवाले होनेसे ग्यारह भागोंमें विभक हैं, अतः समयकी दृष्टिसे इनकी यवाकार रचना हो जाती है। आठ समयवाले योगस्थान मध्यमें रहते हैं । फिर दोनों पार्श्वभागोंमें सात समयवाले योगस्थान प्राप्त होते हैं । फिर दोनों पार्श्वभागोंमें छह समयवाले योगस्थान प्राप्त होते हैं । फिर दोनों पार्श्वभागोंमें पांच समयवाले योगस्थान प्राप्त होते हैं । फिर दोनों पार्श्वभागोंमें चार समयवाले योगस्थान प्राप्त होते हैं । फिर आगेके भागमें क्रमसे तीन समय और दो समयवाले योगस्थान प्राप्त होते हैं । इनमें से आठ समयवाले योगस्थानोंकी यवमध्य संशा है । यवमध्यसे पहलेके योगस्थान थोड़े होते हैं और आगेके योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इन आगेके योगस्थानों में संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि ये चारों वृद्धियां तथा ये ही चारों हानियां सम्भव हैं। इसीसे इन योगस्थानों में उक्त जीवको अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है, क्योंकि, योगस्थानोंका अन्तर्मुहूर्त काल यही सम्भव है । (देखिये कर्मकाण्ड गा. २१८ आदि)
शंका-'जोगजवमझादो-' इस सूत्रका अर्थ कहते समय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा योगयवमध्य संज्ञावाले जीवयवमध्यसे आगेके स्थानमें अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहा, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जीवयवमध्यका आगेका स्थान पिछले स्थानसे विशेष
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१, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[१ हियम्मि अंतोमुहुत्तमच्छणसंभवाभावादो । कुदो १ तत्थ असंखेज्जगुणवड्डीए अभावादो ।
जीवजवमज्ञहेट्ठिमअद्धाणादो उवरिमअद्धाणस्स विसेसाहियभावपदुप्पायणटुं परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागो अप्पाबहुगं चेदि जोगट्ठाणहिदजीवे आधार कादूण एदेसि छण्णमणियोगद्दाराणं परूवणा कीरदे । तं जहा
जहण्णए जोगट्ठाणे अस्थि जीवा । एवं जाव उक्कस्सए वि जोगट्ठाणे जीवा अस्थि त्ति सव्वत्थ वत्तव्यं । परूवणा गदा ।
जहण्णए जोगट्ठाणे असंखेज्जा जीवा । तेसिं पमाणमसंखेन्जाओ सेडीओ। एवं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणजीवे त्ति सव्वत्थ वत्तव्वं । जहण्णजोगट्ठाणम्मि असंखेज्जसेडिमेत्ता जीवा होति त्ति कधं णवदे १ उच्चदे- पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण जगपदरे भागे हिदे सव्वजोगट्ठाणाणं तसपज्जत्तजीवपमाणं होदि। एदम्मि तीहि जीवगुणहाणीहि सव्वजोगडाण
अधिक है । अतः वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि, वहां असंख्यातगुणवृद्धि नहीं पाई जाती।
अब जीवयवमध्यके पिछले स्थानसे आगेका स्थान विशेष अधिक है, इस बातका कथन करनेके लिये प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, इन छह अनुयोगद्वारोंकी योगस्थानों में स्थित जीवोंको आधार करके प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है
- जघन्य योगस्थानमें जीव हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक सब योगस्थानोंमें जीव हैं, ऐसा सर्वत्र कथन करना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई।
___ जघन्य योगस्थानमें असंख्यात जीव हैं । उनका प्रमाण असंख्यात जगश्रेणियां है। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक सर्वत्र जीवोंकी संख्या कहनी चाहिये ।
शंका-जघन्य योगस्थानमें असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण जीव हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? .
समाधान-स शंकाका उत्तर कहते हैं। प्रतरांगुलके संख्यातवें भागका जगप्रतरमें भाग देनेपर सब योगस्थानों में स्थित प्रस पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है। इसमें समस्त योगस्थान अध्वानके असंख्यातवें भाग प्रमाण तीन जीवगुणहानियोंके
१ सप्रतौ सेडीए अवहारो' इति पाठः।
२ आवलिअसंखसंखेणवहिदपदरंगुलण हिदपदरं । कमसो तसतप्पुषणा पुष्णूणतसा अपुग्णा गो.बी. २११.
॥
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, २८. द्धाणस्स असंखेज्जदिभागाहि भागे हिदे असंखेज्जसेडिमेत्ता जवमझजीवा आगच्छंति, सव्वजीवे जवमज्झपमाणेण कीरमाणे तिण्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झपमाणुवलंभादो । हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ' विरलिय बिगुणिय अण्णोणब्भत्थरासिणा तिण्णिगुणहाणीओ गुणिदे जोगट्ठाणद्धादों असंखेज्जगुणो सेडीए असंखेज्जदिभागो होदि । तेण तसपज्जत्तरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जसेडिमेत्ता जहण्णजोगट्ठाणजीवा आगच्छंति, जगपदरभागहारस्स सेडीए असंखेज्जदिभागत्तुवलंभादो । एदेणुवदेसेण उक्कस्सजोगट्ठाणजीवा वि असंखेज्जसेडिमेत्ता त्ति साहेदव्वा । जहण्णुक्कस्सजोगट्ठाणजीवपमाणे असंखेज्जसेडित्तेण सिद्धे सव्वजोगट्ठाणजीवपमाणं असंखेज्जसेडित्तेण सिद्धं चेव, तत्तो इदरेसिं जीवाणं बहुत्तुवलंभादो । पमाणपरूवणा गदा।
कालका भाग देनेपर असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण यवमध्यके जीव आते हैं, क्योंकि, सय जीवोंको यवमध्यमें स्थित जीवोंके प्रमाणसे करनेपर तीन गुणहानियोंका जितना काल है उतने यवमध्य प्राप्त होते हैं । पिछली नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर द्विगुणित करनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है। इससे तीन गुणहानियोंको गुणित करनेपर योगस्थानकाल असंख्यातगुणा हो कर भी जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग होता है । उसका त्रस पर्याप्त राशिमें भाग देनेपर असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण जघन्य योगस्थानस्थित जीव आते हैं, क्योंकि, यहांपर जगप्रतरका भागहार, जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग पाया जाता है । इस प्रकार इस उपदेशसे उत्कृष्ट योगस्थानके जीव भी असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण होते हैं, ऐसा सिद्ध कर लेना चाहिये । इस प्रकार जघन्य व उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंकी संख्या असंख्यात जगीण प्रमाण सिद्ध हो जानेपर सब योगस्थानोंके जीवोंकी संख्या असंख्यात जगणि प्रमाण सिद्ध ही है, क्योंकि, उक्त वो स्थानोंके जीवों की संख्याकी अपेक्षा इतर योगस्थानोंके जीवोंकी संख्या बहुत पाई जाती है।
विशेषार्थ- यहां त्रसपर्याप्त सम्बन्धी कुल योगस्थानों में अलग अलग और मिलकर कितने जीव हैं, यह बतलाते हुए सर्वप्रथम जघन्य आदि प्रत्येक योगस्थानके
की संख्याकी सिद्धि की गई है और उस परसे त्रसपर्याप्त सम्बन्धी सब योगस्थानोंके जीवोंकी संख्या फलित की गई है। आवलिके संख्यातवें भागका प्रतरांगुलमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसका जगप्रतरमें भाग देनेसे त्रसपर्याप्तराशि प्राप्त होती है, ऐसा नियम है। फिर भी यह राशि जगश्रेणियोंकी अपेक्षा कितनी जगश्रोण प्रमाण है, यह देखना है। ऐसा मोटा नियम है कि समस्त त्रसपर्याप्तराशिमें तीन जीवगुणहानियोंके कालका भाग
१ अप्रतौ ' असंखेज्अभिागे हिंदे' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः ' -सलागावो' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'जोगट्ठाणद्धाशववत्तीदो असंखेज्जगुणो' इति पाठः।
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१, २, ४, २८.] - वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[६३ सेडिपरूवणा दुविहा- अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा ताव उच्चदे । तं जहा- जीवगुणहाणिसलागाहि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेताहि तेरासियकमेण सव्वजोगट्ठाणद्धाणे भागे हिदे एगगुणहाणी आगच्छदि । तं विरलेदूण जहणण
देनेपर यवमध्यके जीव आते हैं। उदाहरणार्थ अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा तीन जीवगुणहानियोंका काल १२ है और त्रस पर्याप्तराशिका प्रमाण १४२२ है। अतः इस राशिमें कुछ कम १२ का अर्थात् ४११ का भाग देनेपर यवमध्यके जीवोंका प्रमाण १२८ होता है जो अर्थसंदृष्टिकी अपेक्षा असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण है । यहां यद्यपि मूलमें तीन गुणहानियोंके कालका भाग दिलाया गया है पर वह स्थूल कथन है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करनेपर कुछ कम तीन गुणहानियों के कालका भाग दिलानेपर ही यह संख्या प्राप्त होती है, ऐसा यहां समझना चाहिये। इस प्रकार जब कि त्रस पर्याप्तराशिमें कुछ कम तीन गुणहानियों के कालका भाग देनेपर यवमध्यके जीवोंका प्रमाण आता है तो उस राशिको यवमध्यके जीवोंके प्रमाण रूपसे करनेपर वह कुछ कम तीन गुणहानियोंकी जितनी संख्या होगी उतने यवमध्य प्रमाण प्राप्त होगी, इसमें जरा भी संन्देह नहीं। अब यह देखना है कि इस राशिमेंसे जघन्य योगस्थानको प्राप्त कितने जीव हैं। इसके लिये यह नियम है कि अधस्तन गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे कुछ कम तीन गुणहानियों के कालको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उसका समस्त त्रस पर्याप्तराशिमें भाग देनेपर जघन्य योगस्थानके जीवोंका प्रमाण आता है। उदाहरणार्थ अधस्तन गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि ८ है। इससे कुछ कम तीन गुणहानियों के काल ११ को गुणित करनेपर ८८५ प्राप्त होते हैं, और इसका सब त्रस पर्याप्तराशि १४२२ में भाग देनेपर १६ प्राप्त होते हैं जो सबसे जघन्य त्रस पर्याप्त योगस्थानवाले जीवोंका प्रमाण है। सबसे उत्कृष्ट त्रस पर्याप्त योगस्थानवाले जीवोंका प्रमाण भी इसी प्रकार ले आना चाहिये । अतः यह राशि असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण है, क्योंकि, जगप्रतरमें जगणिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर यह राशि आती है। अतः सम्पूर्ण त्रस पर्याप्त राशि असंख्यात जगीण प्रमाण है, यह अपने आप सिद्ध हो जाता है । ( कर्मकाण्ड गा. २४५-२४६)
इस प्रकार प्रमाण प्ररूपणा समाप्त हुई।
श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनसे अनन्तरोपनिधाको कहते हैं। वह इस प्रकार है-पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण जीवगुणहानिशलाकाओंका त्रैराशिकक्रमसे समस्त योगस्थानकालमें भाग देनेपर एक गुणहानि आती है । उसका विरलन कर प्रत्येक एकपर जघन्य योगस्थानके जीवोंको
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छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, २८. जोगट्ठाणजीवेसु समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि जीवपक्खेवपमाणं पावदि । एत्थ जीवपक्खेवपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा - जवमझादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा तिण्णिगुणहाणीओ गुणिदे जोगट्ठाणद्धाणादो असंखेज्जगुणतं पत्तेण तसपज्जत्तरासिम्हि भागे हिदे जहण्णजोगट्ठाणजीवा असंखेज्जसेडिमेत्ता आगच्छंति । तासिं सेडीणं विक्खंभसूची सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्ता । कधमेदं णव्वदे ? जोगट्ठाणद्धाणागमणहेदुजगसेडिभागहारम्मि सेडीए असंखेज्जदिभागत्तुवलंभादो । तं पि कुदो णव्वदे ? सबजोगट्ठाणाणि जहण्णजोगाणजहण्णफयपमाणेण कादूण तत्थेगफद्दयवग्गणसलागाहि सेडीए असंखेजदि
समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति जीवप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है।
उदाहरण-जीवगुणहानिशलाका ८, सब योगस्थानोंका काल ३२, जघन्य योगस्थानके जीव १६ ॥
३२ ८ = ४ एक गुणहानिका काल; ४४४४ २११९ जीवप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त हुआ।
अब यहां जीवप्रक्षेपके प्रमाणका विचार करते हैं। वह इस प्रकार है-यव. मध्यसे पहलेकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्यास्यस्त राशिसे तीन गुणहानियोंको गुणित करनेपर योगस्थानके कालसे असंख्यातगुणा प्राप्त होता है, फिर उसका प्रस पर्याप्तराशिमें भाग देनेपर असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण जघन्य योगस्थानके जीव आते हैं। उन श्रेणियोकी विष्कम्भसूची जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
उदाहरण-अधस्तन नानागुणहानिशलाका ८, तीन गुणहानियों का काल १२, स पर्याप्तराशि १४२२;
१२४८ = ९६, कुछ कम इसका अर्थात् ८८१ का १४२२ में भाग देनेपर जघन्य योगस्थानोंके जीवोंका प्रमाण १६ प्राप्त हुआ।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि, योगस्थान सम्बन्धी कालके लानेके लिये निमित्तभूत जो जगणिका भागहार है वह जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग पाया जाता है।
शंका-यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि, सब योगस्थानोंको जघन्य योगस्थानके जघन्य स्पर्द्धकोंक प्रमाण रूपसे करके उसमें एक स्पर्द्धककी श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणा
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१, २, ४, २८. वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं भागमेत्ताहि तम्हि गुणिदे सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव वग्गणाओ हॉत्ति ति गुरूवदेसादो।
एत्थ सव्वजोगट्ठाणवग्गणाणयणविहाणं उच्चदे । तं जहा-रूवूणजोगट्ठाणद्धार्ण सयलजोगट्ठाणद्धाणेण गुणिय अद्धिय' पुणो पक्खेवफद्दयसलागाहि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताहि गुणिय जहण्णजोगट्ठाणजहण्णफद्दयसलागाओ जोगट्ठाणद्धाणगुणिदाओ पक्खित्ते सव्वजोगट्टाणाणं जहण्णफद्दयसलागाओ होति । पुणो ताओ सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तएगफद्दयवग्गणसलागाहि गुणिदे सव्ववग्गणाओ आगच्छंति । एसा रासी सव्वो वि सेडीए असंखेज्जदिभागो। एत्थ जइ जोगट्ठाणद्धाणागमणढं सेडीए ठविदभागहारो सेढिपढमवम्गमूलमेत्तो होज्ज तो जोगट्ठाणद्धाणं वग्गिदे जगसेडी उप्पज्जेज्ज । अह जइ दुगुणो तो जोगट्ठाणद्धाणं वग्गिय चदुगुणिदे जगसेडी होज्ज । अह चउगुणो, वग्गिय सोलसेहि गुणिदे सेडी होज्ज । एवं संखेज्जासंखेज्जेसु णेदव्वं जाव संदेहविच्छेदो त्ति । णवरि एत्थ जोगट्ठाणद्धाणं वग्गिय सेडीए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे वि जगसेडी ण उप्पण्णा, तिस्से असंखेशलाकाओंसे सब योगस्थानोंको गुणित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवे भाग मात्र ही वर्गणायें प्राप्त होती हैं, इस गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि योगस्थानोंका काल लाने के लिये जगश्रेणिका भागहार जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है।
यहां सब योगस्थानोंकी वर्गणाओंके लानेका विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक कम योगस्थानके कालको समस्त योगस्थानके कालसे गुणित करके आधा कर फिर अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र प्रक्षेप-स्पर्धक शलाकाओंसे गुणित करके जो लन्ध आवे उसमें योगस्थानके कालसे गुणित जघन्य योगस्थानकी जघन्य स्पर्धकशलाकाओंका प्रक्षेप करनेपर समस्त योगस्थानोंकी जघन्य स्पर्धकशलाकायें होती हैं । पुनः उनको श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र एक स्पर्धककी वर्गणाशलाऔसे गुणित करनेपर समस्त वर्गणायें आती हैं। यह सभी राशि श्रेणिके असंख्यातवे भाग प्रमाण है। यहां योगस्थानका
नके लिये श्रेणिका जो भागहार स्थापित किया जाय वह यदि जगश्रेणिके प्रथम वर्गमूल प्रमाण होवे तो योगस्थानोंके कालको वर्गित करनेपर जगश्रेणि उत्पन्न होगी। अथवा, यदि वह भागहार श्रेणिके प्रथम वर्ग मूलसे दुगुणा होवे तो योगस्थानके कालको वर्गित कर चारसे गुणा करनेपर जगश्रेणि उत्पन्न होगी। अथवा, यदि श्रेणिके प्रथम वर्गमूलसे चौगुणा होवे तो योगस्थानोंके कालको वर्गित करके सोलहसे गुणित करनेपर जगश्रेणि उत्पन्न होगी। इस प्रकार संशयके दूर होने तक संख्यातगुणे व असंख्यातगुणे तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां योगस्थानोंके कालको वर्गित कर श्रेणिके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर भी जगश्रेणि उत्पन्न नहीं हुई,
उसका असंख्यातवां भाग ही उत्पन्न हुआ। इससे जाना जाता है कि जगश्रेणिका १ प्रतिषु 'लद्धिय ' इति पाठः।
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६६ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, २८.
ज्जदिभागो चेपणो । एदेण णव्वदि' जहा सेडीए असंखेज्जदिभागो होंतो वि पढमवग्गमूलं सेडीए असंखेज्जदिभागेण गुणिदमेत्तो सेडिभागहारो होदि ति । जहण्णजोगट्ठाण - जीवभागहारमेगगुणहाणिणा गुणिदे जोगट्ठाणद्धाणवग्गो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदो जेण उष्पज्जदि तेणेदेण तसजीवरासिम्हि भागे हिदे सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजगसेडीओ जीवपक्खेवपमाणाओ उप्पज्जेति त्ति सिद्धं । एवं जीवपक्वपमाणं परूविदं ।
संपहि अणंतरोवणिधाए अवट्ठिदभागहारो रूवाहियभागहारो रूवूणभागहारो छेदभागहारो त्ति देहि चदुहि भागहारेहि जोगट्ठाणजीवा उप्पादव्वा । तं जहा - तत्थ ताव अवदिभागहारादो उपपत्ति भण्णमाणे सेडीए असंखेज्जदिभागमेगगुणहाणिं विरलिय जहण्णजोगट्ठाणजीवे समभागं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगजीवपक्वपमाणं पावदि । तत्थ एगपक्खेवं घेचूण जहण्णजोगट्ठाणजीवे पडिरासिय तत्थ पक्खिते बिदियजोगट्ठाणजीवप्रमाणं होदि । एदं पडिसिय बिदियपक्खेवे पक्खित्ते तदियजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि । एवं णेदव्वं जाव विरलणरासिमेत्तजीवपक्खेवा सब्बे पट्ठा त्ति । ताधे दुगुणवड्डी होदि, जहण्ण
भागहार जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता हुआ भी वह जगश्रेणिके प्रथम वर्गमूलको जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग से गुणित करनेपर जितना लब्ध आवे उतना है । जघन्य योगस्थान के जीवभागहारको एक गुणहानि से गुणित करनेपर योगस्थानकालका वर्ग पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित होकर चूंकि उत्पन्न होता है अतः इसका त्रसजीवराशिमें भाग देनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र जगश्रेणियां जीवप्रक्षेप प्रमाण उत्पन्न होती हैं, यह सिद्ध है । इस प्रकार जीवप्रक्षेपप्रमाणकी प्ररूपणा की ।
अब अनन्तरोपनिधाके आधारसे अवस्थित भागहार, रूपाधिक भागहार, रूपोन भागहार और छेदभागहार, इन चार भागद्दारों द्वारा योगस्थानोंके जीवोंको उत्पन्न कराना चाहिये । यथा - वहां प्रथमतः अवस्थित भागहारके आधारसे योगस्थानों के जीवोंकी उत्पत्तिका कथन करनेपर जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण एक गुणहानिका विरलन कर जघन्य योगस्थान के जीवोंको समभाग करके देनेपर प्रत्येक विरलन के प्रति एक एक जीवप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । फिर उनमें से एक प्रक्षेपको ग्रहण कर जघन्य योगस्थान के जीवोंको प्रतिराशि कर उसमें प्रक्षिप्त करनेपर द्वितीय योगस्थान के जीवोंका प्रमाण होता है । फिर इसको प्रतिराशि करके इसमें द्वितीय प्रक्षेपके मिलानेपर तृतीय योगस्थानके जीवोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार विरलन राशि प्रमाण सब जीवप्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिये । उस समय दुगुणी वृद्धि होती है, क्योंकि,
१ प्रतौ ' गव्वदे ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' होता ' इति पाठः ।
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४ २, ४, २८. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविज्ञाणे सामित्तं
[ ६७
जोगट्ठाणजीवाणमुवरि तेत्तियमेत्ताणं चेव पवेसदंसणादो । पुणो दुगुणवड्डिजीवेसु तिस्से व विरलणाए समखंड करिय दिण्णेसु रूवं पडि पक्खेवपमाणं पावेदि । णवरि पुव्विल्लपक्खेवादो संपहियपक्खेवा दुगुणो, विहज्जमाणरासिदुगुणत्तादो । एदम्मि पक्खेवे दुगुणवड्डिजीवे पडरासिय पक्खित्ते तदणंतर उवरिमज। गट्ठाणजीवपमाणं होदि । एदं पडिरासिय बिदियपक्खेवे पक्खित्ते तत्तो अंतरउवरिमजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि । एवं दव्वं जाव जवमज्झे त्ति । णवरि जीवपक्खेवा पढमगुणहाणिप्पहुडि उवरि सव्वत्थ गुणहाणिं पडि दुगुण-दुगुणा सि वत्तव्वा, अवट्ठिदभागहारत्तादो | तेणेव कारणेण गुणहाणिअद्धाणं पि अवट्ठिदभावेण दट्ठव्वं ।
जघन्य योगस्थानके जीवों के ऊपर उतने मात्र अंकोंका ही प्रवेश देखा जाता है । फिर दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हुए जीवोंको उसी विरलनपर समखण्ड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति दूसरे प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । विशेष इतना है कि पूर्वोक्त प्रक्षेपसे यह प्रक्षेप दुगुणा है, क्योंकि, जो राशि विभक्त करके विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति दी गई है वह दूनी है। इस प्रक्षेपको दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हुए जीवोंको प्रतिराशि करके उसके ऊपर देनेपर उससे आगे के उपरिम योगस्थान के जीवोंका प्रमाण होता है । इसको प्रतिराशि करके इसमें द्वितीय प्रक्षेपके मिलानेपर उससे आगे के उपरिम योगस्थान के जीवोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि जीवप्रक्षेप प्रथम गुणहानिसे लेकर ऊपर सर्वत्र प्रत्येक गुणहानिके प्रति दुगुणे दुगुणे होते जाते हैं, ऐसा यहां कहना चाहिये, क्योंकि, प्रक्षेपका प्रमाण लानेके लिये जो भागहारका प्रमाण कहा है वह सर्वत्र अवस्थित अर्थात् एक रूप है और इसी कारण से गुणहानिके कालको भी अवस्थित रूपसे जानना चाहिये ।
विशेषार्थ – अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा उक्त विषयका खुलासा इस प्रकार है- गुणहानिका काल ४ है । इसका ११११ इस प्रकार विरलन करके उस पर जघन्य योगस्थानके जीव १६ को विभक्त कर ४ ४ ४ ४ इस क्रम से स्थापित करनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति ४ प्राप्त होते हैं । प्रथम प्रक्षेपका यही प्रमाण है । इसे १६ में मिलानेपर २० यह दूसरे योगस्थान के जीवोंकी संख्या होती है । इसमें ४ के मिलानेपर २४ यह तीसरे योगस्थानके जीवोंकी संख्या होती है । इस प्रकार जीवों की संख्या की दूनी वृद्धि होने तक यही क्रम जानना चाहिये । फिर गुणहानिके कालका पूर्ववत् विरलन करके उसपर अन्तमें प्राप्त ३२ इस संख्याको विभक्त कर क्रमसे स्थापित करना चाहिये । इससे द्वितीय प्रक्षेपका प्रमाण ८ उत्पन्न होता है । इस प्रकार यवमध्य के जीवों की संख्या १२८ उत्पन्न होने तक यही क्रम जानना चाहिये । अतः यहां भागद्दार जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग अवस्थित रूपसे सर्वत्र विवक्षित है । इसीलिये गुणहानिका काल भी अवस्थित रूपसे ही लिया गया है, क्योंकि, इन दोनोंका परस्परमें सम्बन्ध है ।
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६८] . छक्खंडागमे वेषणाखंड
[, २, ४, २८. संपहि जीवजवमज्झस्सुवरि भण्णमाणे दुगुणो पुवभागहारो विरलेदव्वो, अण्णहा बनमन्झपखेवाणुष्पत्तीदो । ण च अवट्टिदभागहारपइज्जाविरोहो वि, जवमज्झस्स हेढुवरिममागसु पुध पुष अवट्टिददाभागहारब्भुवगमादो। एदं विरलिय समखंडं करिय जीवजवमज्झे दिले रूवं पडि पक्व पमाणं होदि । पुणो जवमज्झं पडिरासिय तत्थ एगपक्खेवे अवणिदे तदयंतरजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि । तं पडिरासिय बिदियपक्खेवे अवणिदे तदणंतरउवरिमबोगहाणाजीवपमाणं' होदि । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणजीवे ति ।
अब जीवयवमध्यके ऊपरके स्थानोंका कथन करनेपर पूर्व भागहारसे दुगुणे भागहारका विरलन करना चाहिये, क्योंकि, ऐसा किये निजा यवमध्यका प्रक्षेप नहीं बन सकता। दुगुणे भागहारका विरलन करनेसे अवस्थित भागहारकी प्रतिक्षाका विरोध होगा सो भी नहीं है, क्योंकि, यवमध्य के अधस्तन और उपरिम भागोंमें पृथक् पृथक् भवस्थित रूपसे दो भागहार स्वीकार किये गये हैं । इस प्रकार इस दूने भागहारका चिरलन कर समखण्ड करके जीवयवमध्यके देने पर प्रत्येक एकके प्रति प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर यवमध्यको प्रतिराशि कर उससे एक प्रक्षेपके कम करनेपर इससे आगेके योगस्थानके जीवोंका प्रमाण होता है । उसको प्रतिराशि कर उसमेंसे द्वितीय प्रक्षेपके कम करने पर उससे उपरिम योगस्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका प्रमाण आने तक ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ- पहले जो क्रम बतला आये हैं उससे जीवयवमध्यके आगेका क्रम बदल जाता हैं। यहां भागहारका प्रमाण पूर्वकी अपेक्षा दूना हो जाता है। जीवयवमध्यके पहले प्रत्येक योगस्थानके जीवोंका प्रमाण लानेके लिये भागहारका प्रमाण जगश्रेणिके भसंख्यातवें भाग प्रमाण बतला आये थे । किन्तु यहां वह दूना हो जाता है, अन्यथा यवमध्यके जीवों के आधारसे आगेके प्रक्षेपका प्रमाण नहीं लाया जा सकता है। इसपर यह शंका होती है कि जब सर्वत्र अवस्थित भागहार स्वीकार किया गया है तब फिर यहां उसे दूना कैसे किया जा सकता है । इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यवमध्यसे पूर्वकी गुणहानियों में सर्वत्र एक भागहार स्वीकार किया गया है और आगेकी गुणहानियों में दूसरा भागहार स्वीकार किया गया है। इसलिये भागहारको अवस्थित मानने में कोई बाधा नहीं आती। फिर भी यहां इतना विशेष समझना चाहिये नियमध्यमें सबसे अधिक जीव होते हैं, इसलिये यवमध्यके आगेकी गणहानियों में सर्वत्र प्रक्षेपको घटाते जाना चाहिये और प्रत्येक गुणहानिमें उसे आधा आधा करते बासा चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका प्रमाण आने तक यह क्रम जानना
१ प्रतिषु · जोगदाणं ' इति पाठः।
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४, २, ४, २८. वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
अधवा दोगुणहाणीओ विरलिय जवमज्झं समखंडं करिय दिण्ण रूवं पडि जवमज्झजीवपक्वपमाणं पावदि । पुणो जवमज्झं पडिरासिय' दोपासहिदजवमज्झेसु विरलणाए पढमपक्खेवे अवणिदे जवमज्झदोपासट्टियपढमजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि । पुणो ते दो वि पडिरासिय उभयत्थ बिदियपक्खवे अवणिदे जवमज्झदोपासट्ठियबिदियजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि । एवं णेदव्वं जाव विरलणरासीए अद्धं खीणमिदि । तदो सेसरूवधरिदं अद्धिय अणाहेयरूवाणं परिवाडीए दिण्णे जवमज्झं पेक्खिदूण बिदियगुणहाणीए पक्खवो होदि, पुव्विलपक्खेवस्स दुभागत्तादो । एदे पक्खेवे पुव्वं व अवणिय णेदव्वं जाव बिदियगुणहाणिचरिमणिसेयो त्ति । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव जहण्णजोगट्ठाणजीवपमाणं दोसु वि पासेसु पत्तमिदि। पुणो हेट्ठा ण णिज्जदि, तत्तो परं बीइंदियपज्जत्तजोगट्ठाणाभावादो। उवरि पुव्वं व असंखेज्जगुणहाणीओ हेट्टिमगुणहाणीणमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ पुमो वि णेदवाओ जाव उक्कस्सजोगट्ठाणजीवपमाणं पत्तमिदि । एवं कदे जवमझदोसु वि पासेसु एकको अवविदभागहारो सिद्धो ।
अथवा, दो गुणहानियोंका विरलन कर यवमध्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति यवमध्य जीवप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर यवमध्यको प्रतिराशि करके पार्श्व में स्थित दो योगस्थानोंके जीवोंकी अपेक्षा दो यवमध्योंमेंसे विरलनाके प्रथम प्रक्षेपको कम करनेपर यवमध्यके दोनों पार्श्वभागों में स्थित प्रथम योगस्थानोंके जीवोंका प्रमाण होता है। फिर उन दोनोंको ही प्रतिराशि करके उभय राशियों में से द्वितीय प्रक्षेपको
रनेपर यवमध्यके दोनों पावों में स्थित द्वितीय योगस्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। इस प्रकार विरलन राशिके अर्ध भागके क्षीण होने तक ले जाना चाहिये। तत्पश्चात् विरलन राशिके शेष अंकोंपर स्थित राशिको आधा करके अनाहेय अंकोंको परिपाटीसे देनेपर यवमध्यकी अपेक्षा द्वितीय गुणहानिका प्रक्षेप होता है, क्योंकि, यह पूर्वोक्त प्रक्षपसे आधा है। फिर इन प्रक्षेपोंको पहले के समान दूसरी गुणहानिके अन्तिम निषेकके प्राप्त होने तक घटाते हुए ले जाना चाहिये। इस प्रकार जानकर दोनों ही पार्श्वभागों में जघन्य योगस्थानके जीवोंका प्रमाण प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। फिर नीचे नहीं ले जाया जा सकता है, क्योंकि, उसले आगे द्वीन्द्रय पर्याप्तके योगस्थान नहीं पाये जाते । किन्तु ऊपर पूर्वके समान अधस्तन गुणहानियोंके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात गुणहानियोंको उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका प्रमाण प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार करनेपर यवमध्यके दोनों ही पार्श्वभागों में एक अवस्थित भागहार सिद्ध होता है ।
१ प्रतिषु तिप्पडिरासिय ' इति पाठः।
२ प्रतिषु ' तदिय ' इति पाठः ।
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७० ]
छक्खंडागमे वैयणाखंड
[ ४, २, ४, २८.
संपहि रूवाहियभागृहारेण अणंतरावणिधा वुच्चदे—- गुणहाणिणा जहण्णजोगट्ठाण - जीवेसु भागे हिदे पक्खेवो लब्भदि । तं पडिरासिदजहण्णजे गट्टाणजीवेसु पक्खित्ते बिदिय - जीवा होंति । पुणो रूवाहियपुव्वभागहारेण बिदियद्वाणजीवे खंडिय तत्थेगखंडे तं चेव पडिरासिय पत्रिखत्ते तदियट्ठाणजीवपमाणं होदि । पुणो अणंतरहेट्ठिमभागहारेण रूवाहिएण एदं खंडिय लद्धे पडिरासिदजीवेसु पक्खित्ते चउत्थट्ठाणजीवा होंति । एवं दव्वं जाव पढमैंदुगुणवड्ढि त्ति । एवं पत्तेयं पत्तेयं जवमज्झट्ठिमसव्वगुणहाणीणं रूवाहियभागहारो परूवेदव्वो । कुदो सगगुणहाणिणियमा रूवाहियभागहारस्स ? गुणहाणिं पडि पक्खेवाणं तुल्लत्ताभावादो ।.
विशेषार्थ - - पहले यवमध्यसे पूर्वकी गुणहानियों में प्रारम्भ से प्रत्येक योगस्थानके जीवोंकी संख्या में प्रक्षेपको जोड़ते हुए यवमध्य तकके जीवों की संख्या उत्पन्न करके बतलाई गई थी और यवमध्यसे आगे सर्वत्र प्रक्षेपको घटानेकी प्रक्रिया के निर्देश द्वारा उत्कृष्ट योगस्थान तकके जीवोंकी संख्या निकाल कर बतलाई गई थी । किन्तु यहां यवमध्य से दोनों ओर प्रक्षेपको घटाते हुए किस प्रकार प्रत्येक योगस्थानके जीवोंकी संख्या आती है, इस विधिका निर्देश किया गया है । प्रारम्भ में यहां दो गुणहानियोंके कालका विरलन करा कर यवमध्य के जीवोंको समविभक्त कर दिया गया है और एक विरलनके प्रति जितनी संख्या प्राप्त हो उतनी संख्या दोनों ओर क्रमशः घटाई गई है । किन्तु यह क्रम आधे विरलनोंके समाप्त होने तक ही चालू रखा गया है । आगे प्रत्येक गुणहानि में प्रक्षेपका प्रमाण आधा आधा होता गया है और इस प्रकार दोनों ओर गुणहानिके अनुसार प्रत्येक योगस्थानके जीवोंकी संख्या लाई गई है । यह सब इसलिये किया गया है, क्योंकि इसमें भागहारका प्रमाण नहीं बदलता है ।
अब रूपाधिक भागहार के आधार से अनन्तरोपनिधाका कथन करते हैं - गुणहानि के कालका जघन्य योगस्थान के जीवोंमें भाग देनेपर प्रक्षेप प्राप्त होता है । उसे प्रतिराशि रूपसे स्थित जघन्य योगस्थानके जीवों में मिलानेपर द्वितीय स्थानके जीव होते हैं । पुनः एक अधिक पूर्व भागहारसे द्वितीय स्थानके जीवोंको भाजित कर उनमें एक खण्डको उसी दूसरे स्थानकी राशिको ही दूसरी राशि बनाकर उसमें मिला देनेपर तृतीय स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है । फिर एक अधिक अनन्तर अधस्तन भागहारसे इस दूसरे स्थानकी राशिको खण्डित कर जो प्राप्त हो उसे प्रतिराशि रूप से स्थापित तीसरे स्थानके जीवों में मिला देने पर चतुर्थ स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार प्रथम स्थानसे दुगुणी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार यवमध्यकी अधस्तन सब गुणहानियोंका अलग अलग एक एक गुणहानिके प्रति एक अधिकके क्रमसे भागहार कहना चाहिये ।
शंका- रूपाधिक भागहारके लिये अपनी गुणहानिका नियम कैसे है ?
समाधान - क्योंकि, प्रत्येक गुणहानिके प्रक्षेप एक समान नहीं हैं, इसलिये रूपाधिक भागहार के लिये अपनी अपनी गुणहानिका नियम बन जाता है ।
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४, २, ४, २८.]
वेयणमद्दाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ७१
एवं उवरिं पिवत्तव्वं । णवरि उक्कस्सजोगट्टाणजीवे रूवाहियगुणहाणिणा खंडिय लद्धे पडिरासिदउक्करसजे गट्ठाणजीवेसु पक्खित्ते दुचरिमजोगट्ठाणजीवा होंति त्ति वत्सव्वं ।
संपहि रूवूणभागहारेण' अणंतरोवणिधा बुच्चदे । तं जहा - दोगुणहाणीहि जव
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इसी प्रकार आगे भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोको एक अधिक गुणहानिसे खण्डित करके जो लब्ध आवे उसे प्रतिराशि रूपले स्थापित उत्कृष्ट योगस्थानके जीवों में मिलानेपर द्विचरम योगस्थान के जीवोंका प्रमाण होता है, ऐसा कहना चाहिये ।
विशेषार्थ – यहां रूपाधिक भागहारके क्रमसे प्रत्येक योगस्थान के जीवोंकी संख्या लाई गई है। सर्वप्रथम गुणहानि के कालका जघन्य योगस्थान के जीवोंकी संख्या में भाग देकर प्रथम प्रक्षेप प्राप्त किया गया है और इसे जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्यामें मिलाकर दूसरे स्थानके जीवोंकी संख्या प्राप्त की गई है । फिर इस प्रक्षेपमें एक मिलाकर उसका भाग दूसरे स्थानके जीवोंकी संख्या में देकर दूसरा प्रक्षेप प्राप्त किया गया है और उसे दूसरे स्थानके जीवों की संख्या में मिलाकर तीसरे स्थानकी संख्या प्राप्त की गई है। उदाहरणार्थ, गुणहानिके काल ४ का जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्या १६ में भाग देनेपर ४ लब्ध आते हैं । अतः यह प्रथम प्रक्षेप हुआ । इसे जघन्य योगस्थान के जीवोंकी संख्या १६ में मिला देने पर दूसरे योगस्थानके जीवों की संख्या २० होती है । फिर पूर्व प्रक्षेप ४ में १ मिलाकर ५ का २० में भाग देना चाहिये और इस प्रकार जो पुनः ४ लब्ध आवे उसे दूसरे योगस्थानके जीवोंकी संख्या २० में मिला देनेसे तीसरे योगस्थानके जीवोंकी संख्या २४ होती है । इस प्रकार यह क्रम सर्वत्र जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यवमध्यके आगे पूर्वके समान वहांके अनुरूप प्रक्षेप प्राप्त करके घटाते जाना चाहिये | किन्तु अन्तिम गुणहानिमें अन्तिम स्थानसे पीछे की तरफ प्रक्षेपका निक्षेप करते हुए लौटना चाहिये । वहां अन्तके स्थानके जीवोंकी जो संख्या हो उसमें एक अधिक गुणहानिके कालका भाग देकर प्रक्षेप प्राप्त करना चाहिये और उसे मिलाते हुए गुणहानि के प्रथम स्थान तक आना चाहिये। उदाहरणार्थ, अन्तिम गुणहानि के अन्तिम स्थानके जीवों की संख्या ५ है । इसमें १ अधिक गुणहानिके काल ४ अर्थात् ५ का भाग देकर १ संख्या प्रमाण प्रक्षेप प्राप्त होता है । इसे अन्तिम स्थानके जीवोंकी संख्या में मिला देनेपर द्विचरम योगस्थानके जीवोंकी संख्या होती है । इसी प्रकार आगे भी एक-एक मिलाते जाना चाहिये | यहां सर्वत्र पूर्व प्रक्षेपमें एक एक बढ़ा कर उसके भाग द्वारा नया प्रक्षेप प्राप्त किया गया है, इसलिये इसे रूपाधिक भागहार कहा है ।
अब रूपोन भागहार के द्वारा अनन्तरोपनिधाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार
१ प्रतिषु ' भागहारो ' इति पाठः ।
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७२] 'छपखंडागमे वेयणाखंडं.
( १, २, ४, २८. मज्झं खंडिय लद्धे जवमज्झादो अवणिदे तस्स दोपासहिदजीवपमाणं होदि । पुणो पुबिल्लभागहारादो रूचूणेण भागहारेण पुध पुध दोपासहिदजीवणिसेगे खंडिय अवणिदे तदियणिसेगा होति । एवं णेदव्वं जाव दोसु वि पासेसु गुणहाणिअद्धाणं समत्तं त्ति । एवं सेंसहेट्ठिम-उवरिमगुणहाणीणं पि वत्तव्वं, विसेसाभावादो । रूवूणभागहारस्स एगगुणहाणिणियमत्ते कारणं पुव्वं व वत्तव्यं ।
छेदभागहारेण अणतरोवणिधा वुच्चदे। तं जहा- पक्खेवभागहारेण जहण्णजोगट्ठाणजीवे खंडिय लद्धे तत्थेव पक्खित्ते बिदियट्ठाणजीवा होति । पुणो पुव्वभागहारदुभागण जहण्णट्ठाणजीवेसु अवहिरि देसु दो पक्खेवा लब्भंति । तेसु तत्थेव पक्खित्तेसु. तदियट्ठाणंजीवा
है - दो गुणहानियोंसे यवमध्यको खण्डित कर प्राप्त राशिको यवमध्यसे घटानेपर उसके दोनों पाश्चों में स्थित जीवोंका प्रमाण होता है । फिर पूर्वोक्त भागहारसे एक कम भागहार द्वारा पृथक् पृथक् दोनों पार्श्वस्थ जीवनिवेकोंको खण्डित कर प्राप्त राशिको उभय पार्श्वस्थ जीवनिषेकोमेसे कम करनेपर तृतीय स्थानके निषेक होते हैं। इस प्रकार दोनों ही पार्श्वभागों में गुणहानिके कालके समाप्त होने तक ले जाना चाहिये । इसी प्रकार शेष अधस्तन व उपरिम गुणहानियोंका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि, इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है । रूपोन भागहारकी एक गुणहानिनियमतामें कारण पूर्वके ही समान कहना चाहिये।
विशेषार्थ- आशय यह है कि जहां विवक्षित भागहारमेंसे एक कम करके उससे आगेके स्थानकी संख्या प्राप्त की जाती है वह रूपोन भागहार होता है। उदाहरणार्थ दो गुणहानियोंके काल ८ से यवमध्य १२८ के भाजित करनेपर प्राप्त हुई राशि १६ को यवमध्यमेसे घटा देनेपर पार्श्वस्थ दोनों राशियां ११२, ११२ प्राप्त होती हैं । फिर पूर्वोक्त भागहारमेंसे १ कम करके ७ का भाग उक्त दोनों राशियों में देनेपर जो १६ लब्ध आये उसे घटा देनपर तीसरे स्थानकी राशि ९६ प्राप्त होती है। फिर इस भागहारमेंसे १ कम करके ६ का भाग ९६ में देनेपर जो १६ लब्ध आये उसे घटा देनेपर चौथे स्थानकी राशि ८० प्राप्त होती है। इसी प्रकार रूपोन भागहारके द्वारा सब स्थानों की संख्या ले आनी चाहिये।
अब छेदभागहार द्वारा अनन्तरोपनिधाका कथन करते हैं । वह इस प्रकार हैप्रक्षेपभागहारसे जघन्य योगस्थानके जीवोंको खण्डित कर लब्ध राशिको उलीमें मिला देनेपर द्वितीय स्थानके जीवों का प्रमाण होता है । पुनः पूर्व भागहारके द्वितीय भागका जघन्य स्थानके जीवोंमें भाग देनेपर दो प्रक्षेप प्राप्त होते हैं । उनको उक्त जीवोंमे मिला
१ प्रतिषु बिदियट्ठाण ' इति पाठः।
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१, २, १, २८.] वेयणमहाहियोर वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[७१ होति । पुव्वभागहारतिभागेण भागे हिदे तिण्णि पक्खेवा लब्भंति । तेसु तत्थेव पक्खित्तेसु चउत्थट्ठाणजीवा होति । एवं णेदव्वं जाव गुणहाणिअद्धाणं समत्तमिदि। एवं सव्वगुणहाणीणं पि छेदभागहारो जोजयव्वो ।
__ परंपरोवणिधा वुच्चदे । तं जहा-- जहण्णजोगट्ठाणजीवेहिंतो सेडीए असंखेज्जदिभागं गंतूण जीवा दुगुणा होति । पुणों वि तेत्तियं चेव अद्धाणं गंतूण जीवाणं दुगुणवड्डी होदि । एवं णेयव्वं जाव जवमज्झे त्ति । तदो उवरि तेत्तियं चेव अद्धाणं गंतूण जीवाणं दुगुणहाणी । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणजीवे त्ति । एगजीवदुगुणहाणिमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगा गुणहाणिसलागा लब्भदि तो सव्वजोगट्ठाणद्धाणम्मि किं लभदि ति गुण
देनेपर तृतीय स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। पुनः पूर्व भागहारके त्रिभागका भाग देनेपर तीन प्रक्षेप प्राप्त होते हैं । उनको उक्त जीवों में मिला देनेपर चतुर्थ स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। इस प्रकार गुणहानिके जितने स्थान हैं उनके समाप्त होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार सब गुणहानियोंके छेदभागहारको देखना चाहिये।
विशेषार्थ-अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा प्रक्षेपभागहारका प्रमाण चार है। इसका जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्या १६ में भाग देनेपर ४ ही लब्ध आते हैं। अतः इसे १६ में मिला देनेपर दूसरे स्थानके जीवोंकी संख्या २० आती है। फिर पूर्वोक्त भागहार ४ के आधे अर्थात् २ का जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्या १६ में भाग देनेपर प्राप्त हुए दो प्रक्षेप ८ को जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्या १६ में मिला देनेपर तीसरे स्थानकी संख्या २४ आती है। फिर पूर्वोक्त भागहारके तीसरे भाग ४ का भाग जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्यामें देनेपर प्राप्त हुए तीन प्रक्षेप १२ को पूर्वोक्त राशि १६ में मिला देनेपर चौथे स्थानकी संख्या २८ आती है । इसी प्रकार सब गुणहानियों में जानना चाहिये ।
___ अब परम्परोपनिधाका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है- जघन्य योगस्थानके जीवोंसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर जीव दुगुणे होते हैं। फिर भी उतने ही स्थान जानेपर जीवोंकी दुगुणी वृद्धि होती है । इस प्रकार यवमध्य तक ले जाना चाहिये । उससे आगे उतने ही स्थान जाकर जीवोंकी दुगुणी हानि होती है । इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंकी संख्या प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । एक जीव दुगुणहानि प्रमाण स्थान जाकर यदि एक गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो सब योगस्थान अध्वानमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार गुणहानिका फल राशिसे गुणित इच्छा
...............................
२ प्रतिषु ' सवुत्तमिदि ' इति पारः।
१ प्रतिषु ' ते तत्थेव पक्खित्ते ' इति पाठः। .३ प्रतिजदि एसो गुण-' इति पाठः। ...१०.
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७४ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, २८. हाणिणा फलगुणिदिच्छाए अवहिरदाए सव्वगुणहाणिसलागाओ आगच्छंति । एदाओ दुगुणवड्डिसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्ताओ । कुदो णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो ।
एत्थ तिण्णि अणिओगद्दाराणि परूवणा पमाणं अप्पाबहुगं चेदि । परूवणा सुगमा । पमाणं-णाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। एगगुणहाणी सेडीएअसंखेज्जदिभागमेत्ता, णाणागुणहाणिसलागाहि जोगट्ठाणद्धाणे ओवट्टिदे तदुवलंभादो । __ अप्पाबहुगं- सव्वत्थोवाओ जवमज्झादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ । उवरिमाओ
राशिमें भाग देनेपर सब गुणहानिशलाकायें आती हैं । ये दुगुणवृद्धिशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है ।
विशेषार्थ-जहां परम्पराले हानि या वृद्धि प्राप्त की जाती है उसे परम्परोपनिधा कहते हैं। प्रकृतमें इसी बातका निर्देश किया गया है । पहले एक गुणहानिसे दूसरी गुणहानिमें जीवोंकी संख्या किस प्रकार दूनी दूनी होती जाती है, इसका निर्देश किया गया है और यादमें जीवयवमध्यसे लेकर वह संख्या प्रत्येक गुणहानिमें किस प्रकार आधी आधी होती गई है, यह बतलाया गया है और यहां परम्परासे हानि और वृद्धि के क्रमका निर्देश किया गया है।
यहां तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणा सुगम है । प्रमाण- नानागुणहानि शलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं और एक गुणहानि जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र है, क्योंकि, नानागुणहानिशलाकाओंसे योगस्थानके भाजित करनेपर अध्वान जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है।
अल्पबहुत्व- यवमध्यसे नीचेकी नानागुणहानिशलाकायें सबसे थोड़ी हैं ।
१ पल्लासंखेज्जदिमा गुणहाणिसला हवंति इगिठाणे । गो. क. २२४. णाणागुणहाणिसला छेदासखेज्जभागमेत्ताओ । गो. क. २४८.
२ ... पदेसगुणहाणी । सेढिअसंखेज्जदिमा... ॥ गो. क. २२७.
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१, २, ४, २८.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[७५ विसेसाहियाओ। केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण । सव्वाओ विसेसाहियाओ । केत्तियमेत्तेण १ हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागमेत्तेण । एगगुणहाणिअद्धाणमसंखेज्जगुणं ।
- एदम्हादो अविरुद्धाइरियवयणादो णव्वदे' जहा [जीव-] जवमज्झहेट्ठिमअद्धाणादो उवरिमअद्धाणं विसेसाहियमिदि ।
एत्थतणजीवअप्पाबहुगादो वा । तं जहा- जहण्णजोगट्ठाणजहण्णजीवप्पहुडि जा
उनसे उपरिम नानागुणहानिशलाकायें विशेष अधिक हैं । कितनी अधिक हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण अधिक हैं । उनसे सब नानागुणहानिशलाकायें विशेष अधिक हैं । कितनी अधिक हैं ? अधस्तन नानागुणहानिशलाका प्रमाण अधिक हैं । एक गुणहानिका अध्वान असंख्यातगुणा है।
इस प्रकार इस अविरूद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है कि जीवयवमध्यके अधस्तन स्थानसे उपरिम स्थान विशेष अधिक है।
विशेषार्थ- यहां ' एवं संसरिदूण त्थोवावलेसे जीविदव्वए' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या चालू है । इसमें ' योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा' यह कहा है। प्रश्न यह है कि यहां योगयवमध्यसे किसका ग्रहण किया जाय? योगयवमध्यका ग्रहण किया जाय या जीवयवमध्यका । वीरसेन स्वामीने बतलाया है कि योगयवमध्यके अधस्तन भागसे उपरिम भाग असंख्यातगुणा होनेसे वहां चारों हानियां और चारों वृद्धियां सम्भव हैं और अन्तर्मुहूर्त काल तक जीवका वहीं रहना सम्भव है, इसलिये योगयवमध्य इस पद द्वारा उसीका ग्रहण करना चाहिये, जीवयवमध्यका नहीं। इसपर यह प्रश्न हुआ कि जीवयवमध्यके उपरिम भागमें जीवका अन्तर्मुहूर्त काल तक रहना क्यों सम्भव नहीं है ? वीरसेन स्वामीने इसी प्रश्नका उत्तर देनेके लिये प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, इन छह अनुयोगद्वारोंके द्वारा यह सिद्ध किया है कि योगयवमध्य संक्षित जीवयवमध्यके नीचेके भागसे उपरिम भाग मात्र विशेषाधिक है, इसलिये इसके उपरिम भागमें जीवका अन्तर्मुहूर्त काल तक रहना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि यहां योगयवमध्य पदसे उसीका ग्रहण किया गया है, जीवयवमध्यका नहीं।
अथवा यहांके जीवोंके अल्पबहुत्वसे वह जाना जाता है। यथाजघन्य योगस्थानके जघन्य जीवनिषेकसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक जीव.
१ का-मप्रत्योः 'णज्जदे' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, २८. उक्कस्सजोगट्ठाणे ति जीवणिसगाणं संदिट्ठी एसा । १६ । २० । २४ । २८ । ३२ । ४० । ४८ । ५६ । ६४ । ८० । ९६ । ११२ । १२८ । ११२ । ९६ । ८० । ६४ । ५६ । ४८ । ४० । ३२ । २८ । २४ । २० । १६ । १४ । १२ । १० । ८।७।६।५। संदिट्ठीए गुणहाणिअद्धाणं चत्तारि |४|- जोगट्ठाणद्धाणं बत्तीस | ३२ । णाणागुणहाणिसलागाओ अट्ठ 1८1 जवमज्झादो हेट्ठा तिण्णि [३), उवरि पंच |५|| हेटवरि अण्णोपणन्भत्थरासिपमाणं अट्ठ बत्तीस 1 ८ । ३२) । पक्खेवभागहारो चत्तारि ।।। संपहि अवहारकालपरूवणा कीरदे - एत्थ ताव जोगट्ठाणसव्वजीवे जवमज्झजीव
| ४० | ४० पमाणेण कस्सामो । तं जहा- जवमज्झगुणहाणिखेत्तं ठविय
६४
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निषेकोंकी संदृष्टि यह है
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२४
संदृष्टिमें गुणहानिका अध्वान चार ४, योगस्थानका अध्वान बत्तीस ३२, नानागुणहानिशलाकायें आठ ८ यवमध्यसे नीचेकी तीन ३ और ऊपरकी पांच ५, नीचे व ऊपरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण क्रमशः आठ और बत्तीस ८,३२, तथा प्रक्षेपभागहार चार ४ है।।
अब अवहारकालका प्ररूपणा करते हैं- यहां सर्वप्रथम योगस्थानके सब जीवोंको यवमध्यके जीवोंके प्रमाणसे करते हैं । यथा- यवमध्यकी गुणहानिके क्षेत्रको
दव्वतियं हेवरिमदलवारा दुगुणमुभयमण्णोणं । जीवजवे चोद्दससयबावीसं होदि बत्तीस ॥ चत्तारि तिणि कमसोपण अड अटुं तदो य बत्तीसं । किंचूणतिगुणहाणिविभजिददव्वे दु जवमज्झं ॥ गो. जी. २४५-४६.
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१, २, ४, २८.
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
।
|- ६४|
| ८|
|६४ | १६
८ / ६४ | ८
| ३२ | ६४ | ३२/ ६४ | ६४
६४ । एदेहि चदुहि विहाणेहि पादिय समकरणं करिय जवमज्झपमाणेण कदे गुणहाणीए तिण्णिचदुब्भागमेत्तजवमज्झाणि जवमज्झचदुब्भागो च उप्पज्जदि । तस्सेसा संदिट्ठी | ३ ।।।। पुणो बिदियादिगुणहाणिदव्वं पि पढमगुणहाणिदव्वमेत्तमसंत दादूण समीकरणे कदे एदं पि तेत्तियं चेव होदि । । ।। णवरि जहण्णजोगट्ठाणजीवे मोत्तूण विदियजोगट्ठाणजीवप्पहुडि पढमगुणहाणी घेत्तव्वा । एदे दो वि मेलाविदे दिवड्ड. गुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि जवमझेदुभागो च उप्पज्जदि । तस्स संदिट्ठी
स्थापित कर और इन चार प्रकारों (मूलमें देखिये ) से उसके खंड कर समीकरण करके यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर गुणहानिके तीन बटे चार भाग मात्र यवमध्य और यवमध्यका चौथा भाग उत्पन्न होता है। उसकी यह संदृष्टि है (३१)।
उदाहरण - यवमध्यकी गुणहानि ४१६, यवमध्य १२८,
यहां ४१६ में १२८ का भाग देनेपर ३ यवमध्य और एक यवमध्यका चौथा भाग उत्पन्न होता है । इस प्रकार यवमध्यकी गुणहानिमें कुल ३१ यवमध्य होते हैं। यहां यवमध्यकी गुणहानिके द्रव्यसे तृतीय गुणहानिके अन्तिम तीन स्थानोंका द्रव्य और चौथी गुणहानिके प्रथम स्थानका द्रव्य लिया गया है।
फिर द्वितीयादि गुणहानियोंके द्रव्यका भी, इसमें प्रथम गुणहानिके द्रव्य प्रमाण असत् द्रव्य देकर, समीकरण करनेपर यह भी उतना ही होता है (३ )। विशेष इतना है कि जघन्य योगस्थानके जीवोंको छोड़कर द्वितीय योगस्थानके जीवोंसे लेकर प्रथम गुणहानि ग्रहण करना चाहिये ।
- उदाहरण- द्वितीयादि गुणहानिका द्रव्य ३४४, जो द्रव्य ऊपरसे मिलाया गया है वह ७२; कुल जोड़ ४१६, यहां भी ४१६ में १२८ का भाग देनेपर तीन यवमध्य और एक यवमध्यका चौथा भाग उत्पन्न होता है। यहां जो ७२ संख्या प्रमाण द्रव्य ऊपरसे मिलाया गया है वह प्रथम गुणहानिका द्रव्य है। इसमेंसे जघन्य योगस्थानके जीवोंका प्रमाण १६ घटा दिया गया है ।
इन दोनोंको ही मिला देनेपर डेढ़ गुणहानि मात्र यवमध्य और एक यवमध्यका द्वितीय भाग उत्पन्न होता है। उसकी संदृष्टि ६१ है।
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७८ ]
छपखंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, २८.
। जवमज्झादो उवरिमदव्वं पि जवमज्झप्पमाणेण कदे एत्तियं चैव होदि | | | कुदो ? असंतेगचरिमगुणहाणिदव्वजवमज्झदव्वपवेसादो । एदाणि दे। वि दव्वाणि मेलाविदे रुवाहियतिण्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि होंति । तत्थेगरूवमवणेदव्वं पुव्वप्पवेसिदजवमज्झस्स असंतस्स अवणयणङ्कं |२२|| एवमव्वुप्पण्णजणवुप्पायण' तिष्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि ति त्ति परूविदं । सुहुमबुद्धीए णिहालिज्जमाने किंचूणतिष्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि होंति । तं जहा - जहणजो गट्ठाण जीवेहि ऊणपढम चरिमगुणहाणिजीवाणमेत्थासंताणमहियत्तुवलंभादो । तमहियदव्वं संदिट्ठीए चोदसुत्तरसदमेत्तं । ११४) । अत्थदो असंखेज्जाणि' जवमज्झाणि ।
उदाहरण – ३ + ३ = ६ यवमध्य ।
यवमध्य से उपरिम द्रव्यको भी यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर इतना ही होता है६ यवमध्य, क्योंकि, यहां अविद्यमान एक अन्तिम गुणहानिका द्रव्य यवमध्योंके द्रव्य में मिलाया गया है ।
उदाहरण- - यवमध्यका उपरिम द्रव्य ८०६, अन्तिम गुणहानिका द्रव्य २६; कुल जोड़ ८३२ । यहां ८३२ में यवमध्यके द्रव्य १२८ का भाग देनेपर ६३ यवमध्य आते हैं । यवमध्यकी उपरिम गुणहानि ५ है । उनका कुल द्रव्य ८०६ मात्र होता है । किन्तु इसमें अन्तिम गुणहानिका द्रव्य २६ दुवारा मिलाकर ६ यवमध्य प्राप्त किये गये हैं ।
इन दोनों ही द्रव्योंको मिलानेपर एक अधिक तीन गुणहांनि मात्र यवमध्य होते हैं । उनमें पूर्व प्रवेशित अविद्यमान यवमध्यको कम करनेके लिये एक अंक कम करना चाहिये १२ ।
इस प्रकार अव्युत्पन्न जनोंके व्युत्पादनार्थ 'तीन गुणहानि मात्र यवमध्य होते है ' ऐसा कहा है । किन्तु सूक्ष्म बुद्धिसे देखनेपर कुछ कम तीन गुणहानि मात्र यवमध्य होते हैं । इसका कारण यह है कि यहां पर जघन्य योगस्थान के जीवोंसे कम प्रथम व अन्तिम गुणहानिके जीवोंकी, जो यहां अविद्यमान हैं, अधिकता पायी जाती है । वह अधिक द्रव्य संदृष्टिमें एक सौ चौदह ११४ मात्र है । अर्थसंदृष्टिकी अपेक्षा असंख्यात यवमध्य प्रमाण है ।
-
उदाहरण – ६३ + ६३ १३ यवमध्य | किन्तु इनमें यवमध्यकी संख्या १२८ दो बार सम्मिलित हो गई है अतः १ यवमध्य कम कर देनेपर कुल १२ यवमध्य रहते हैं ।
१ प्रतिषु ' -मव्युप्पण्णअण्णमप्पायण ' इति पाठः ।
२ सप्रतौ ' संखेज्जाणि ' इति पाठः ।
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४, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[७९ एदस्स अवणयणविहाणं वुच्चदे- जवमज्झस्स जदि एगरूवावणयणं लब्भदि तो चोद्दसुत्तरसदस्स किं परिहाणिं पेच्छामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमेत्तिय होदि | ५ | । एदम्मि तिहि गुणहाणीहितो अवणिदे सेडीए असंखेज्जदिभागेणूणतिण्णिगुणहाणीओ होति । तासि पमाणमेदं । एदेण जवमज्झे गुणिदे बावीसुत्तरचोइससदमेत्तं संदिहीए सव्वदव्वं होदि १४२२||
अधवा जवमज्झादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरसिमत्तजहण्णजोगट्ठाणजीवाणं जदि एगं जवमज्झपमाणं लब्भदि तो किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्तजहण्णजोगट्ठाणजीवाणं किं लभामो ति सरिसमणिय जवमज्झट्ठिमअण्णाण्णब्भत्थरासिणा किंचूणदिवड्डम्मि भागे हिदे असंखेज्जाणि जवमज्झाणि आगच्छति । तेसिं संदिट्ठी | १६ || किंचूणुवरिम
६४.
फिर भी यह स्थूल दृष्टिसे परिगणना है । सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करनेपर ११४ संख्या कम होकर ११ से कुछ अधिक यवमध्य आते हैं।
__ अब इसकी हानिके विधानको कहते हैं - यवमध्य अर्थात् १२८ अंककी अपेक्षा यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है तो एक सौ चौदह की अपेक्षा कितनी हानि होगी, इस प्रकार फल राशिसे गुणित इच्छा राशिमें प्रमाण राशिका भाग देनेपर लब्ध इतना १४ होता है | इसको तीन गुणहानियोंमेंसे कम करनेपर जगश्रेणिका असंख्यातनं भाग कम तीन गुणहानियां होती हैं । उनका प्रमाण यह है-११४ । इससे यवमध्यके गुणित करनेपर संदृष्टि में सब द्रव्य चौदहसौ बाईस होता है १४२२ । ।
उदाहरण- यवमध्यका प्रमाण १२८; गुणहानिका काल ४;
१२८ में १ की हानि होती है तो ११४ में कितनी हानि होगी, इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर फलराशि १ को इच्छाराशि ११४ से गुणा करके उसमें प्रमाणराशि १२८ का भाग देनेपर १७ आते हैं । फिर इसे तीन गुणहानियोंके काल १२ मेंसे कम करने. पर ११ आते हैं और इसको यवमध्यके प्रमाण १२८ से गुणित करनेपर कुल योगस्थानके जीवोंका प्रमाण १४२२ आता है।
अथवा, यवमध्यसे अधस्तन नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका जितना प्रमाण है उतने जघन्य योगस्थानके जीवोंका यदि एक यवमध्य प्राप्त होता है तो कुछ कम डेढ़ गुणहानिका जितना प्रमाण है उतने जघन्य योगस्थानके जीवोंका क्या प्रमाण
प्ति होगा, इस प्रकार समान राशियोंका अपनयन करके यवमध्यकी अधस्तन अन्योन्याभ्यस्त राशिका कुछ कम डेढ़ गुणहानिमें भाग देनेपर असंख्यात यवमध्य आते हैं। उनकी संदृष्टि ११ है । कुछ कम उपरिम अन्योन्याभ्यस्त राशिका जितना प्रमाण
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८. ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, २८. अण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्तुक्कस्सजोगट्ठाणजीवाणं जीद जवमज्झपमाणं लब्भदि तो किंचूणदिवड्डगुणहाणिमत्तुक्कस्सजोगट्ठाणजीवाणं किं लभामो त्ति किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासिणा किंचूणदिवड्डम्मि भागे हिदे सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजवमज्झाणि लब्भंति । तेसिं संदिट्ठी ।१३।। दो वि सरिसच्छेदं कादूण मेलाविदे एत्तिय होदि|६४।। एवं तिसु गुणहाणीसु अवणिदे किंचूणतिण्णिगुणहाणिपमाणं होदि । तस्स संदिट्ठी |१९|| एदेण जवमज्झे गुणिदे सव्वव्वं होदि । तस्स संदिट्ठी बावीसुत्तरचोइससदमेत्ता |१४२२ । एदं किंचूणतीहि गुणहाणीहि ओवहिदे जेण जवमज्झमागच्छदि तेण जवमज्ज्ञपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे किंचूणतिण्णिगुणहाणिकालेण अवहिरिज्जदि त्ति सिद्धं ।
है उतने उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका यदि एक यवमध्यके बराबर प्रमाण प्राप्त होता है तो कुछ कम डेढ़ गुणहानिका जितना प्रमाण है उतने उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका क्या प्रमाण प्राप्त होगा, इस प्रकार कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका कुछ कम डेढ़ गुणहानिमें भाग देनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र यवमध्य प्राप्त होते हैं। उनकी संदृष्टि । है । दोनोंके समान खण्ड करके सिलाने पर इतना होता है ।
उदाहरण --अधस्तन अन्योन्याभ्यस्त राशि ८ में यदि एक यवमध्य राशि है तो कुछ कम डेढ़ गुणहानिमें कितनी यवमध्य राशि होगी। यहां कुछ कम डेढ़ गुणहानिका प्रमाण = ५१।
११ ४ ? = ११ यवमध्य भाग ।
उपरितन प्रमाणके लिये कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि निकालनी है, अतः उपरितन ३२ अन्योन्याभ्यस्त राशिको गणितकी दृष्टि से १२८ माना गया। यदि १२८ राशिमें एक यवमध्य राशि है तो कुछ कम डेढ़ गुणहानिमें कितनी यवमध्य राशि होगी। यहां कुछ कम डेढ़ गुणहानिका प्रमाण ५३;
२.६ x २५८ = १३ यवमध्य भाग ।
इसको तीन गुणहानियोंमेंसे कम करनेपर तीन गुणहानियोका कुछ कम प्रमाण होता है । उसकी संदृष्टि १२ - ५४ = ७१.१ है। इससे यवमध्यको गुणित करनेपर सर्व द्रव्य होता है। उसकी संदृष्टि चौदह सौ बाईस है- १२८ x १.१ = १४२२ । इसे चूंकि कुछ कम तीन गुणहानियोंसे अपवर्तित करनेपर यवमध्य आता है, अतः यवमध्यके प्रमाणसे सर्व द्रव्यके अपहृत करनेपर वह कुछ कम तीन गुणहानियोंके कालसे अपहृत होता है, यह सिद्ध होता है।
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४ २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[८१ जहण्णजोगट्ठाणजीवपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे असंखेज्जगुणहाणिकालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा - एक्कम्हि जवमझे जदि जवमज्झहेट्ठिमअण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्तजहण्णजोगट्ठाणजीवा लभंति तो किंचूणतिण्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झेसु किं लभामो त्ति जबमज्झस्स जवमझं सरिसमिदि अवणिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा किंचूणतिण्णिगुणहाणीसु गुणिदासु असंखेज्जगुणहाणीयो उप्पज्जति । तासिं संदिट्ठी/७१ || एदेण सव्वदब्वे भागे हिदे जहण्णजोगट्ठाणजीवा होति | १६ | ।
बिदियजोगट्ठाणजीवपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे असंखेन्जगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा--- जहण्णजोगट्ठाणजीवभागहारं विरलिय सव्वदव्वं समखंड करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि जहण्णजोगट्ठाणदव्वं होदि । पुणो एदम्हादो बिदियणिसेगो एगपक्खेवणाहिओ ति तेण सह आगमणटुं भागहारपरिहाणी कीरदे । तं जहा- एदिस्से विरलणाए हेट्ठा एगगुणहाणि विरलिय जहण्णजोगट्ठाणदव्वं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगपक्खेवपमाणं पावदि । ते घेत्तूण उवरिमरूवधरिदजहण्णजोगट्ठाणजीवेसु पक्खित्तेसु बिदियजोगट्ठाणजीवपमाणं होदि रूवाहियहट्टिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण एगरूवपरिहाणी च
जघन्य योगस्थानके जीवोंके प्रमाणले सब द्रव्यका अपवर्तन करनेपर वह असंख्यात गुणहानियोंके कालसे अपवर्तित होता है। यथा- एक यवमध्यमें यदि यवमध्यकी अधस्तन अन्योन्याभ्यस्त राशिकी संख्या प्रमाण (१६४८ = १२८) जघन्य योगस्थानके जीव पाये जाते हैं तो कुछ कम तीन गुणहानि प्रमाण यवमयोंमें क्या प्राप्त होगा; इस प्रकार एक यवमध्य दूसरे यवमध्यके समान होनेसे इन दोनों गुणकोंको निकालकर अन्योन्याभ्यस्त राशिसे कुछ कम तीन गुणहानियोंको गुणित करनेपर असंख्यात गुणहानियां उत्पन्न होती हैं । उनकी संदृष्टि ११ x ८ = ७११ । इसका सब द्रव्यमें भाग देनेपर जघन्य योगस्थानवी जीव होते हैं १४२२७११=१६।
द्वितीय योगस्थानवी जीवोंके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह असंख्यात गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। यथा-जघन्य योगस्थानके जीवोंके भागहारको विरलित कर सब द्रव्यको समखण्ड करके देने पर विरलन एक एकके प्रति जघन्य योगस्थानका द्रव्य प्राप्त होता है । फिर इससे द्वितीय निषेक चूंकि एक प्रक्षेप अधिक है अतः उसके साथ जघन्य योगस्थानका द्रव्य लाने के लिये भागहारको कम करते हैं। यथा- इस विरलनके नीचे एक गुणहानिको विरलित कर उसपर जघन्य योगस्थानके द्रव्यको समखण्ड करके देनपर विरलन रूपके प्रति एक एक प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। उनको ग्रहण कर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त हुए जघन्य योगस्थानवी जीवों में मिला देनेपर द्वितीय योगस्थानवी जीवोंका प्रमाण होता है और एक अधिक अधस्तन विरलन प्रमाण स्थान जाकर एक रूपकी हानि प्राप्त होती है। इस छ. वे, ११.
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८२]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, २८. लन्मदि। एवं पुणो पुणो कादव्वं जाव उवरिमविरलणरासिधरिदसव्वजीवा विदियजोगट्ठाणजीवपमाणं पत्ते त्ति ।
एत्थ परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे । तं जहा-- रूवाहियगुणहाणिमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी उवरिमविरलणाए लब्भदि तो किंचूणतिगुणण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्तउवरिमगुणहाणिविरलणाए केत्तियाणि परिहीणरूवाणि लभामो त्ति रूवाहियगुणहाणीए' उवरिमविरलणं खंडिय लद्धे तत्थेव अवणिदे बिदियजोगट्ठाणजीवाणमवहारो होदि । तस्स . संदिट्ठी। १.१ ।।
प्रकार उपरिम विरलन राशिको प्राप्त हुए सब जीवोंके द्वितीय योगस्थानवी जीवोंके प्रमाणको प्राप्त होने तक बार बार करना चाहिये ।
अब यहां कम हुए अंकोंका प्रमाण कहते हैं । यथा- एक अधिक गुणहानि प्रमाण स्थान जाकर उपरिम विरलनमें यदि एक रूपकी हानि प्राप्त होती है तो कुछ कम तिगुणी अन्योन्याभ्यस्त राशि प्रमाण उपरिम गुणहानिविरलनमें कितने परिहीन रूप प्राप्त होंगे, इस प्रकार रूपाधिक गुणहानिसे उपरिम विरलनको खण्डित कर लब्धको उसीमेंसे कम कर देनेपर द्वितीय योगस्थानके जीवोंका अवहार होता है । उसकी संदृष्टि-७११ ।
विशेषार्थ- आशय यह है कि द्वितीय योगस्थानके जीवोंकी संख्या २० है। इसका कुल योगस्थानवी जीवराशि १४२२ में भाग देनेपर १.१ आते हैं। यही कारण है कि इस द्वितीय योगस्थानके जीवोंका प्रमाण लाने के लिये इतना अवहारका प्रमाण बतलाया है। प्रथम योगस्थानके जीवोंका प्रमाण लानेके लिये जो ७११ अवहारका प्रमाण बतला आये हैं उसमेंसे *१.१ घटानेपर दूसरे योगस्थानकी संख्या लानेके लिये भागहारका प्रमाण होता है।
प्रथम योगस्थानकी जीवराशि लानेके लिये भागहार ७११, सब जीव राशि १४२२, गुणहानि आयाम'; प्रक्षेप ४; प्रथम योगस्थानकी राशि १६,
अधस्तन विरलन ४४४४ = १६ प्रथम योगस्थान राशि ११११% ४ गुणहानि आयाम उपरितन विरलन
१६ १६ १६ १६ १ १ १ १
१६ १६... १ १ १... "१५ स्थान
१ प्रतिषु ' गुणहाणीणं ' इति पाठः ।
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४, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[८३ . तदियजोगट्ठाणजीवपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाण असंखेज्जगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा- पुत्वविरलणाए हेट्ठा गुणहाणिदुभागं विरलेदूण उवरिमविरलणपढमरूवधरिदजहण्णजोगट्ठाणजीवणिसेगं समखंडं करिय दिपणे विरलणरूवं पडि दो दो पक्खेवा पावेंति । तत्थ एगरूवधरिदमुवरि बिदियरुवधरिदम्मि दिण्णे तदियणिसेगपमाणं होदि । एवं हेट्ठिमसव्वरूवधरिदेसु परिवाडीए पविढेसु एगरूवपरिहाणी होदि। एवं पुणो पुणो कीरमाणे एगरूवपरिहाणी होदि त्ति कट्ट तेसिं परिहाणिरूवाणमागमणविहाणं वुच्चदउवरिमविरलणम्मि रूवाहियहेट्टिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सव्विस्से उवरिमविरलणाए केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति रूवाहियगुणहाणिदुभागेण किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्त-तिसु गुणहाणीसु ओवट्टिदासु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि । तं तत्थेव अवणिदे तदियणिसेगभागहारो होदि । तस्सेसा संदिट्ठी | |
यहां ५ स्थान जाकर एककी हानि हुई है इसलिये ११ स्थान जानेपर ".. की हानि होगी। अतः १ - १ = ३५५१.७११ ७१ द्वितीय स्थानकी संख्या लानेके लिये भागहार ।
- तृतीय योगस्थानवी जीवोंके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करनेपर असंख्यात गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। यथा- पूर्व विरलनके नीचे गुणहानिके द्वितीय भागका विरलन कर उपरिम विरलनके प्रथम अंकके प्रति प्राप्त जघन्य योगस्थानवी जीवनिषेकको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति दो दो प्रक्षेप प्राप्त होते हैं। वहां अधस्तन विरलनमें एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको ऊपरके विरल नमें द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त राशिके ऊपर देनेपर तृतीय निषेकका प्रमाण होता है । इस प्रकार अधस्तन विरलनके सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशियोंके क्रमसे प्रविष्ट हो जानेपर एक अंककी हानि होती है । इस प्रकार पुनः पुनः करनेपर एक एक अंककी हानि होती है, ऐसा मानकर उन हीन अंकोंके लाने की विधि कहते हैं- एक अधिक अधस्तन विरलन प्रमाण स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें एक अंककी हानि पायी जाती है तो पूरे उपरिम विरलनमें कितने अंकोंकी हानि प्राप्त होगी, इस प्रकार एक अधिक गुणहानिके द्वितीय भागसे अन्योन्याभ्यस्त राशि प्रमाण कुछ कम तीन गुणहानियोंके अपवर्तित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग आता है। उसको उसी उपरिम विरलनमेंसे कम करनेपर तृतीय निषेकका भागहार होता है। उसकी यह संदृष्टि
विशेषार्थ- यहां तृतीय योगस्थानके जीवोंका भागहार प्राप्त करना है। साधा. रणतः यह भागहार १४२२ में २४ का भाग देनेसे प्राप्त हो जाता है । पर प्रथम
१ प्रतिषु · दुरूवाहिय ' इति पाठः। -
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८४]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, २८. पुणो तिरूवाहियपुवभागहारस्स तिभागेण उवरिमविरलणमोवट्टिय लद्धे तत्थेव अवणिदे चउत्थणिसेयभााहारो होदि । तस्स संदिट्ठी । ७.२.१ ।।. एवमवणयणरूवाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि होदूण गच्छमाणाणि केत्तियमद्धाणमुवरि गंतूण पलिदोवम; पमाणं पावेंति त्ति वुत्ते वुच्चदे- किंचूणतिगुणजवमज्झट्ठिमअण्णोण्णब्भत्थरासिणावट्टिदपलिदोवममेत्तद्धाणं सादिरेगमुवरि चडिदे परिहाणिरूवाणं पमाणं पलिदोवमं होदि । एत्थ संदिहि ठविय हिस्साणं पडिवोहो कायब्वो । एत्थुवउज्जती गाहा ---
अवहारेणोवट्टिदअवहिणिज्जम्मि जं हवे लद्धं । तेजोवट्टिदमिट्ठे अहिय' लद्धीय अद्धाणं ॥५॥
योगस्थानके भागहारमेंसे किस प्रक्रियासे कितना कम करने पर यह भागहार होगा यही विधि यहां बतलाई गई है। जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्या १६ और तृतीय योगस्थानके जीवोंकी संख्या २४ है, इसलिये जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्याके लानेके लिये १४२२ संख्याका जो भागहार बतलाया है उससे यह भागहार एक तिहाई कम हो
आयगा । इसीसे मूममें एक अधिक अधस्तन विरलन प्रमाण स्थान जाने पर उपरिम विरलनमें एक स्थानकी हानि बतलाई गई है। इस प्रकार तृतीय स्थानका भागहार १३ प्राप्त होता है । इसका भाग १४२२ में देने पर योगस्थानके तृतीय स्थानके जीवोंकी संख्या २४ लब्ध आती है।
पुनः तीन अधिक पूर्व भागहारके तृतीय भागसे उपरिम विरलनको अपवर्तित कर लब्धको उसीमेंसे कम करनेपर चतुर्थ निषेकका भागहार होता है। उसकी संदृष्टि७.११ है । इस प्रकार उत्तरोत्तर हीन किये जानेवाले अंक पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होकर जाते हुए कितने स्थान ऊपर जाकर पल्योपमके प्रमाणको प्राप्त करते हैं, ऐसा पूछनेपर कहते हैं- कुछ कम तिगुणे यवमध्य और अधस्तन अन्योन्याभ्यस्त राशिसे अपवर्तित पल्योपम मात्र स्थानोंसे कुछ अधिक स्थान ऊपर चढ़नेपर घटाये जानेवाले अंकोंका प्रमाण पल्योपम होता है । यहां संदृष्टि स्थापित कर शिष्यों को प्रतिबोध कराना चाहिये । यहां उपयुक्त गाथा
भागहारका भज्यमान राशिमें भाग देनेपर जो लब्ध आता है उससे इष्टको भाजित करनेपर लब्धिके अधिक स्थान प्राप्त होते हैं ॥५॥
१४
-
काप्रतौ । अहिए ' इति पाठः ।
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४, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
एवं गंतूण बिदियदुगुणवड्डिपढमणिसेयपमाणेण सव्वदवे अवहिरिज्जमाणे जहण्णजोगट्ठाणजीवभागहारस्स दुभागेण अवहिरिज्जदि । कुदो ? जहण्णजोगट्ठाणजीवेहिंतो एत्थतणजीवाणं' दुगुणतुवलंभादो । एदस्स संदिट्ठी । १६ । । संपहि तदणतरजोगट्ठाणजीवपमाणेण अवहिरिज्जमाणे असंखेज्जगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । णवरि तदणतरवदिक्कंतअवहारकालादो संपहिअवहारकालो विसेसहीणो । को विसेसो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे।। तस्स संदिट्ठी ।.।। तत्थतणतदियणिसेयभागहारसंदिट्ठी ।। चउत्थणिसेगभागहारसंदिट्ठी । ११ ।।
तदियगुणहाणिपढमसमयणिसेगभागहारो पढमगुणहाणिपढमणिसेगभागहारस्स चउब्भागो। कुदो ? तत्थतणलद्धादो एदस्स चउगुणत्तुवलंभादो । एवमसंखेज्जगुणहाणीओ भागहारं होदूण गच्छमाणीओ कम्हि उद्देसे जहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तीओ हाँति त्ति वुत्ते वुच्चदेजवमझादो हेट्ठिमकिंचूणतिगुणण्णोण्णब्भत्थरासिस्स जेत्तियाणि अद्धछेदणयाणि जपणपरित्तासखेज्जछेदणएहि ऊणाणि तेत्तियमेत्तासु गुणहाणीसु चडिदासु तदित्थणिसेगस्स भागहारो
इस प्रकार जाकर द्वितीय दुगुणी वृद्धि के प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करने पर वह जघन्य योगस्थानवी जीवोंके भागहारके द्वितीय भागसे अपहृत होता है, क्योंकि, जघन्य योगस्थानवी जीवोंकी अपेक्षा इस स्थानके जीव दगुणे पाये जाते हैं । इसकी संदृष्टि-४११ । अब उसके अनन्तर योगस्थानवी जीवोंके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करनेपर असंख्यात गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। विशेष इतना है कि इससे अनन्तर पूर्वके अवहारकालसे इस समयका अवहारकाल विशेष हीन है। विशेषका प्रमाण क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उसकी संदृष्टि-७१ १ है। द्वितीय गुण हानिके तृतीय निषेकके भागहारकी संदृष्टि ७१.१ है । चतुर्थ निषेकके भागहारकी संदृष्टि ७.१.१ है।
ततीय गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रथम निषेकके भागहारके चतुर्थ भाग प्रमाण है, क्योंकि, वहांके लब्धसे यहांका लब्ध (तृतीय गुणहानिका प्र. निषेक ) चौगुणा पाया जाता है। इस प्रकार असंख्यात गुणहानियां भागहार होकर जाती हुई किस स्थानमें जघन्य परीतासंख्यात मात्र होती हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं- यवमध्यसे अधस्तन कुछ कम तिगुणी अन्योन्याभ्यस्त राशिके जितने अर्धच्छेद जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे कम हों उतनी मात्र गुणहानियोंके चढ़ने
१ प्रतिषु । एत्थ तेणेव जीवाणं ' इति पाठः। २ अप्रतौ ' को विसेसो विसेसहीणो' इति पाठः ।
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८६ छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, २८ जहण्णपरित्तासंखेज्जगुणहाणिपमाणो होदि । एदम्हादो उवरिमगुणहाणिम्हि जहण्णपरित्तासंखेज्जस्स अद्धमत्तीओ गुणहाणीओ भागहारो होदि । एवं गंतूण जवमज्झादो' हेट्ठा चउत्थगुणहाणिपढमणिगभागहारो किंचूणअडदालगुणहाणिमेत्तो। एवं चदुवीस-बारस-छग्गुणहाणीओ उवरिमगुणहाणिपढमणिसेगाणं भागहारो होदि त्ति वत्तव्यो ।
जवमज्झपमाण सव्वद वे अवहिरिज्जमाण देसूणतिष्णिगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तस्स संदिट्ठी | १.१ । । संपहि तदणंतरजोगजीवपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे जवमज्झअवहारकालादो सादिरेगेण अवहिरिज्जदि । तं जहा- जबमज्झभागहारं विरलिय सव्वदव्वे समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि जवमज्झपमाणं पावेदि । पुणो हेट्ठा दोगुणहाणीओ विरलिय जवमज्झं समखंडं करिय दिण्णे हेटिमविरलणरूवं पडि जवमज्झपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो एदम्मि पक्खेवे उवरिमविरलणारूवधरिदसव्वजवमज्झेसु सोहिदे सेस बिदियणिसेगपमाणं होदि ।
संपहि उवरिमविरलणमेत्तपक्खेवे पयदणिसेगपमाणेण कस्सामो- हेट्ठिमविरलण
पर वहांके निषेकका भागहार जघन्य परीतासंख्यात गुणहानि प्रमाण होता है। इससे उपरिम गुणहानिमें जघन्य परीतासंख्यातकी आधी मात्र गुणहानियां भागहार होती हैं। इस प्रकार जाकर यवमध्यसे नीचे चतुर्थ गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार कुछ कम अड़तालीस गुणहान मात्र होता है। इस प्रकार चौबीस, बारह और छह गुणहानियां क्रमशः उपरिम गुणहानियोंके प्रथम निषेकोंका भागहार होता है, ऐसा कहना चाहिये ।
__ यवमध्यके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करनेपर कुछ कम तीन गुणहानि स्थानान्तरकालसे वह अपहृत होता है। उसकी संदृष्टि- १४२२ १२८ = ११.५ =७११ । अब तदनन्तर योगस्थानवर्ती जीवोंके प्रमाणसे सब द्रव्यकं अपहृत करनेपर कुछ आधिक यवमध्यके अवहारकालसे अपहृत होता है। यथा- यवमध्यके भागहारका विरलन कर सब द्रव्यको समानखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति यवमध्यका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर नीचे दो गुणहानियोंका विरलन कर यवमध्यको समानखण्ड करके देनेपर अधस्तन विरलनके प्रत्येक अंकके प्रति यवमध्यके प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इस प्रक्षेपको उपरिम विरलनके अंकोंपर रखे हुए सब यवमध्यों से कम करनेपर द्वितीय निषेकका प्रमाण होता है।
अब उपरिम विरलन मात्र प्रक्षेपोंको प्रकृत निषेकके प्रमाणसे करते हैं- एक
१ प्रतिषु जवमजादो ' इति पाठः।
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४, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[८७ रूवूणमेत्तपक्खेवेसु समुदिदेसु जदि एगो पयदणिसेगो एगा अवहारकालसलागा च लभदि तो उवरिमविरलणमेत्तपक्खेवेसु किं लभामो त्ति रूवूणदोगुणहाणीहि जवमज्झभागहारे आवट्टिदे सादिरेयदिवड्डरूवाणि लब्भंति । ताणि उवरिमविरलणम्मि पक्खित्ते तदणंतरउवरिमणिसेगभागहारो होदि । तस्स संदिट्ठी | ६||
___ उरि तदियणिसेगभागहारे आणिज्जमाणे रूवूणगुणहाणीए जवमज्झभागहारमोवट्टिय लद्धं तत्थेव पक्खित्ते तदियणिसेगभागहारो होदि । तस्स संदिट्ठी |७१।। उवरिमगुण
कम अधस्तन विरलन मात्र प्रक्षेपोंके समुदित होनेपर यदि एक प्रकृत निषेक और एक अवहारकालशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन मात्र प्रक्षेपोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार रूप कम दो गुणहानियोंसे यवमध्यके भागहारको अपवर्तित करनेपर कुछ अधिक डेढ़ रूप प्राप्त होते हैं। उन्हें उपरिम विरलनमें मिलानेपर उसके अनन्तर उपरिम निषेकका भागहार होता है । उसकी संदृष्टि ७.११ ।
विशेषार्थ-यवमध्यके भागहार ७१.१ में एक कम दो गुणहानि आयाम ७ का भाग देनेपर ४११ लब्ध आते हैं। पुनः ४११ को यवमध्यके भागहार ४१.१ में जोड़ देनेपर ७११ यवमध्यके अगले निषेक ११२ के लानेके लिये भागहार होता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । एक कम दो गुणहानि आयाम ७; यवमध्यभागहार ७१.१;
आगे तृतीय निषेकके भागहारको लाते समय एक कम गुणहानिसे यवमध्यके भागहारको अपवर्तित कर लब्धको उसीमें मिला देनेपर तृतीय निषेकका भागहार होता . है । उसकी संदृष्टि ४१ है ।
उदाहरण-एक कम गुणहानि आयाम ३: यवमध्यभागहार ११ + १ = १२३, ६१.१ + ११३ = २४९५ = ४.१ तृ. नि. का भागहार।
-
....................................
१ मप्रतौ ' समुदिदे ' इति पाठः।
२ मप्रतावत्र तदियाणिसेगहारे अवणिज्जमाणे रूवृणगुणहाणीए जवमझभागहारमोवट्टिय लद्धं तत्व परिवत्ते' इत्यधिकः पाठः।
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८८ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
हाणीणं पढम-चिदियणिसेगाणं कमेण भागहारसंदिट्ठी | ७११ ७११ ७११ / ७११
३२
१६ १४
७११ १४२२ 1
४
७
1
अधवा जवमज्झभागहारो संपुण्णतिण्णिगुणहाणिमेत्तो । सव्वदव्वं छत्तीसाहियपण्णारससदमेत्तं त्ति मणेण संकप्पिय अवहारकालपरूवणा कीरदे । तं जहा - जवमज्झट्ठिमअण्णोष्ण भत्थरासिणा तिसु गुणहाणीसु गुणिदासु' जहण्णजे गट्ठाणजीवभागहारो होदि । तेण सव्वदव्वे भागे हिदे जहण्णजोगट्ठाणजीवा आगच्छति । एवं पुव्वविधाणेण णेदव्वं जाव जवमज्झेति । पुणो तिण्णि ु णहाणीयो विरलेदूण सव्वदव्वेसु समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि जवमज्झमाणं पावेदि । पुणो एदस्स हेट्ठा दोगुणहाणीयो विरलिय जवमज्झं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि पक्खेवपमाणं होदि । तम्मि उवरिमविरलणजवमज्झे सु. पादेक्कमवणिदे सेसा तिणिगुणहाणिमेत्तविदियणिसेगा चेति । तिण्णिगुणहाणिमेत्तपक्खेवेसु रुवूण दोगुणहात्तिपक्खेवेसु समुदिदेसु एगो पयदणिसेगो होदि एगा च अवहारसलागा लब्भदि ।
७११
७
आगेकी गुणहानियोंके प्रथम व द्वितीय निषेकोंके भागहारोंकी संदृष्टि - द्वि. गुण. प्र. नि. ू; द्वि. नि. ३ । तु. गु. प्र. नि. द्वि.नि. ' । च. गु. प्र. नि. ७१ १; द्वि. नि. ७११ । पं. गु
१।
प्र. नि. ७ ७ ११;
=
[ ४, २, ४, २८.
दु
१४२२ है ।
७११ ७११
८
अथवा यवमध्यका भागहार पूरा तीन गुणहानि प्रमाण है । सब द्रव्य पन्द्रह सौ छत्तीस है, ऐसी मनमें कल्पना करके अवहारकालकी प्ररूपणा करते हैं । यथा— यवमध्यकी अधस्तन अन्योन्याभ्यस्त राशिसे तीन गुणहानियोंको अर्थात् तीन गुणहानियों के कालको गुणित करने पर जघन्य योगस्थानवर्ती जीवोंका भागहार [ ( ४×३ ) × ८=९६ ] होता है । उसका सब द्रव्यमें भाग देने पर जघन्य योगस्थानके जीवोंका प्रमाण आता है [ १५३६ : ९६ १६ ] | इस प्रकार पूर्व विधान के अनुसार यवमध्य के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये ।
१ प्रतिषु ' गुणिदेसु ' इति पाठः ।
67
पुनः तीन गुणहानियोंका विरलन कर सब द्रव्यको समखण्ड करके देने पर विरलनके एक अंकके प्रति यवमध्यका प्रमाण प्राप्त होता है । फिर इसके नीचे दो गुणहानियोंका विरलन कर यवमध्यको समखण्ड करके देनेपर विरलन के प्रत्येक एकके प्रति प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । उसको उपरिम विरलनके प्रत्येक यवमध्योंमेंसे कम करनेपर शेष तीन गुणहानि मात्र द्वितीय निषेक रहते हैं। तीन गुणहानि मात्र प्रक्षेपों में से एक कम दो गुणहानि मात्र प्रक्षेपोंके मिलानेपर एक प्रकृत निषेक होता है और एक अव
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४, २, ४, २८. ]
यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ८९
पुणे सेसा रूवाहियगुणहाणिमेत्ता पक्खेवा अस्थि, तेहि पयदणिसेगो ण होदि त्ति अण्णेगरूवपक्खेवो णत्थि | अवरेसु केत्तिएस संतेसु बिदियरूवपक्खेवो होदि त्ति वुत्ते दुरूवूणगुणहाणिमत्सु संत होदि । तेण रूवूण दोगुणहाणीहि रूवाहियगुणहाणिमोवट्टिय लद्वेणव्वहियएगरूनपक्व होदित्ति घेत्तव्वं ।
हारशलाका प्राप्त होती है। पुनः शेष एक अधिक गुणहानि मात्र प्रक्षेप हैं, पर उनसे प्रकृत निषेक नहीं प्राप्त होता, अतः भागहार में मिलानेके लिये अन्य एक अंकका प्रक्षेप नहीं है । शंका- तो फिर इतर कितने प्रक्षेपोंके होनेपर दूसरे अंकका प्रक्षेप होता है ?
समाधान -- दो कम एक गुणहानेि मात्र प्रक्षेपोंके होनेपर दूसरे अंकका प्रक्षेप होता है।
इस कारण एक कम दो गुणहानियोंसे एक अधिक गुणहानिको अपवर्तित कर जो लब्धं आवे उतना अधिक एक अंकका प्रक्षेप होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
विशेषार्थ — यहां यवमध्यका भागहार तीन गुणहानियोंके काल प्रमाण और सब द्रव्य १५३६ प्रमाण निश्चित करके अन्य निषेकोंका भागहार प्राप्त किया गया है । यवमध्यका प्रमाण १२८ है और उसके पासके द्वितीय निषेकका प्रमाण ११२ है । यदि १५३६ मैं १२ का भाग देने से यवमध्यका प्रमाण १२८ प्राप्त होता है तो १५३६ में कितनेका भाग देनेसे द्वितीय निषेक ११२ प्राप्त होगा, इसी बातको यहां गणित प्रक्रिया द्वारा सिद्ध करके बतलाया गया है | इस विधि से द्वितीय निषेक ११२ का भागहार प्राप्त हो जाता है । इसका भाग १५३६ में देनेपर द्वितीय निषेक ११२ प्राप्त होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है | अन इसी बातको मूलके अनुसार उदाहरण द्वारा दिखलाते हैं
उदाहरण
अधस्तन विरलन
१६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ શ્ १ १ १ १ १ १ १
उपरिम विरलन
१२८ १५८ १२८ १२८ १२८ १२८ १२८ १२८ १२८१२८ १२८ १२८ १ १ १ १ १ १ १ १ हूँ १ १ १
१५३६ । यहां एक प्रक्षेपका प्रमाण १६ है । इसे उपरिम विरलन में स्थित प्रत्येक संख्या में से कम कर देने पर तीन गुणहानि मात्र द्वितीय निषेक प्राप्त होते हैं और तीन गुणहानि
१ आ. काप्रत्योः ' अणेग ' इति पाठः ।
छ. वे. १२.
*
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९०]
छपखंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, २८. तदियणिसेगपमाणेणावहिरिज्जमाणे पक्खेवरूवगवेसणा कीरदे- तिण्णिगुणहाणिआयद-जवमज्झविक्खंभखेत्तम्मि दोपक्खेवविक्खंभ-तिण्णिगुणहाणिआयदत्तमुवरिमभागे तच्छे. दूण अवणिदे सेसं तदियणिसेगपमाणं होदि । अवणिदफालिं पक्खेवविक्खंभेण फालिय आयामण ढोइदे पक्खेवविक्खंभ-छगुणहीणिआयदखेत्तं होदि । तत्थ दुरूवूणदोगुणहाणिमेत्तपक्खेवेहि पयदगोवुच्छा होदि त्ति छपक्खेवाहियतिण्णिपक्खेवरूवाणि लभंति । पुणो अट्ठपक्खेवूणदोगुणहाणिमेत्तपक्खेवेसु संतेसु चउत्थपक्खेवरूवमुप्पज्जदि । ण च एत्तियमस्थि, तदो एगरूवस्स असंखेज्जीदमागेणब्भहियतिण्णिरूवाणि पक्खेवा होदि । एत्थ उवउज्जतीओ गाहाओ
फालिसलागभहियाणुवरिदरूवाण जत्तिया संखा । तत्तियपक्खेवूणा गुणहाणीरूवजणणटुं ॥ ६ ॥ ओजम्मि फालिसंखे गुणहाणी रूवसंजुआ अहिया । सुद्धा रूवा अहिया फाली संखम्मि जुम्मम्मि ॥ ७ ॥
मात्र प्रक्षेप शेष रहते हैं। इनमें से ७ प्रक्षेपोंका एक निषेक होता है तथा शेष ५ प्रक्षेप रहते हैं । इसलिये यहां द्वितीय निषेकका द्रव्य लाने के लिये १३४ लिया गया है ।
अब तृतीय निषेकके प्रमाणसे भाजित करनेपर भागहारमें कितने प्रक्षेप अंक प्राप्त होते हैं, इसका विचार करते हैं - तीन गुणहानि प्रमाण लम्बे और यवमध्य प्रमाण चौड़े क्षेत्र से दो प्रक्षेप प्रमाण चौड़े और तीन गुणहानि प्रमाण लम्बे क्षेत्रको उपरिम भागकी ओरसे छीलकर पृथक् कर देनेपर शेष तृतीय निषेक प्रमाण चौड़ा क्षेत्र प्राप्त होता है। निकाली हुई फालिको एक प्रक्षेपकी चौड़ाईसे फाड़कर लम्बाई में जोड़ देनेपर एक प्रक्षेप प्रमाण चौड़ा और छह गुणहानि प्रमाण लम्बा क्षेत्र होता है। यहां दो कम दो गुणहानि मात्र प्रक्षेपोंकी एक प्रकृत गोपुच्छा होती है, इसलिये छह प्रक्षेप अधिक भागहारमें मिलानेके लिये तीन प्रक्षेप अंक प्राप्त होते हैं। आठ प्रक्षेप कम दो गुणहानि मात्र प्रक्षेपोंके होनेपर भागहारमें मिलानेके लिये चौथा प्रक्षेप अंक प्राप्त होता है। पर इतना है नहीं. इसलिये भागहारमें मिलानेके लिये एकका असंख्यातवां भाग अधिक तीन अंक प्रमाण प्रक्षेप होता है । यहां उपयोगी पड़नेवाली गाथायें ये हैं
फालिशलाकाओंसे अधिक पूर्ववर्ती अंकोंकी जितनी संख्या हो, गुणहानिके स्थानोंको उत्पन्न करनेके लिये उतने प्रक्षेप कम करने चाहिये ॥६॥
फालियोंकी ओज अर्थात् विषम संख्याके होनेपर गुणहानिमें एक मिलानेपर अधिक स्थान आता है, एक जोड़नेपर अधिक गुणहानि आती है, और फालियोंकी सम संख्याके होनेपर शून्य जोड़नेपर अधिक गुणहानि आती है ॥ ७॥
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१, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
तिण्णं दलेण गुणिदा फालिसलागा हवंति सव्वत्थ । फालिं पडि जाणेज्जो साहू पक्खेवरूवाणिं ॥ ८ ॥ फालीसख तिगुणिय अद्धं काऊण सगलरूवाणि । पुणरवि फालीहि गुणे विसेससंखाणमेदि फुड' ॥९॥ रूवूणिच्छागुणिदं पचयं सादिं गुणेउ फालीहि ।
तिण्णेगादितिउत्तरविसेससंखाणमेदि फु९ ॥ १० ॥ एवं तिण्णि-चत्तारि-पंचादिफालीओ अवणेदूणिच्छिदजोगट्ठाणजीवपमाणेण कादण णेदव्वं जाव जवमज्झजीवगुणहाणीए अद्ध गदे त्ति ।
पुणो तदित्थजोगजीवपमाणेण सगदव्वे अवहिरिज्जमाणे चत्तारिगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा- जीवजवमज्झादो तदित्थजोगणिसगो चदुब्भागूणो होदि त्ति पुविल्लखेत्तं चत्तारिफालीओ कादूण तत्थेगफालिमवणिदे सेसक्खेत्तं जीवजवमज्झतिण्णिचदुब्भागविक्खंभेण तिण्णिगुणहाणिआयामेण चेदि । अवणिदफाली वि जवमज्झचदुभागविक्खंभा तिष्णिगुणहाणिआयामा । पुणो एदमायामेण तिणि खंडाणि कादूण एदाणि तिण्णि
तीनके आधेसे गुणा करनेपर सर्वत्र फालिकी शलाकायें होती हैं। और प्रत्येक फालिके प्रति प्रक्षेप रूपोंको भले प्रकार जान लेना चाहिये (?) ॥ ८॥
फालियोंकी संख्याको तिगुणा कर फिर आधा करनेपर जो समस्त अंक प्राप्त होते हैं उन्हें फिर भी फालियोंकी संख्यासे गुणित करनेपर स्पष्ट रूपसे विशेषोंकी संख्या आती है (?) ॥ ९॥
एक कम इच्छाराशिसे गुणित प्रचयको पुनः फालियोंकी संख्यासे गुणा करनेपर स्पष्ट रूपसे तीन एक आदि तीनोत्तर विशेषोंकी संख्या आती है (?) ॥१०॥
इस प्रकार तीन, चार, पांच आदि फालियोंको अलग कर इच्छित योगस्थानके जीवोंके प्रमाणसे करते हुए यवमध्य जीवगुणहानिका अर्ध भाग वीतने तक ले जाना चाहिये।
पुनः वहांके योगस्थानके जीवोंके प्रमाणसे योगस्थानके द्रव्यके अपहृत करनेपर वह चार गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। यथा- जीवयवमध्यसे चूंकि वहांका योगनिषेक चौथा भाग कम है अतः पूर्व क्षेत्रकी चार फालियां करके उनमेंसे एक फालिको कम कर देनेपर शेष क्षेत्र जीवयवमध्यका तीन बटे चार भाग प्रमाण चौड़ा और तीन गुणहानि प्रमाण लम्बा स्थित होता है । अलग की हुई फालि भी यवमर चतुर्थ भाग प्रमाण चौड़ी और तीन गुणहानि आयामवाली होती है । पुनः इस निकाली हुई फालिके आयामकी ओरसे तीन खण्ड करके यवमध्यके चतुर्थ भाग प्रमाण चौड़े और
१ मप्रतौ ' फुधं ' इति पाठः।
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९२ - छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४,२८. वि खंडाणि जवमज्झचदुब्भागविक्खंभाणि गुणहाणिदीहाणि घेतूण दक्खिणदिसाए पडिवाडीए' तिसु खंडेसु ढोइदे चत्तारिगुणहाणिआयामं पय दणिसेगविक्खंभखेत जेण होदि तेण चत्तारिगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि त्ति उत्तं ।
पंचगुणहाणिमेत्तभागहारे उप्पाइज्जमाणे अड्डाइज्जखंडाणि जवमझं कादूण तत्थेगखंडे अवणिद सेसमिच्छिदखेत्तं होदि । अवणिदेगखंडम्मि अड्डाइज्जदिमभागविक्खंभ-दोगुणहाणिआयदखेतं घेत्तूण विक्खंभं विक्खंभेण आइय पढमखंडे ढाइदे पंचगुणहाणीओ आयामो होदि । सेसखंड मज्झम्मि फाडिय विक्खंभं विक्खंभम्मि ढोइय कृविदे पंचभागविक्खभ दोगुणहाणिआयदं खेत्तं होदि । एदमुच्चाइदूण पंचमभाग पंचमभागम्मि आइय पासे ढोइदे एत्थ वि पंचगुणहाणीओ आयामो होदि । तेणेत्थ पंचगुणहाणीयो भागहारो । एवमण्णत्थ वि सिस्समइविप्फारणहें भागहारपरूवणा कायव्वा । एत्थ उवउज्जती गाहा -
इच्छहिदायामेण य रूजुदेणवहरेज्ज विक्खंभ । लद्धं दीहत्तजुदं इच्छिदहारो हवइ एवं ॥ ११ ॥
गुणहानि प्रमाण लम्बे इन तीनों ही खण्डोंको ग्रहण कर दक्षिण दिशामें परिपाटीसे पूर्वोक्त तीन खण्डोंमें मिलानेपर यतः चार गुणहानि प्रमाण लम्बा व प्रकृत निषक प्रमाण चौड़ा क्षेत्र होता है, अतः 'चार गुणहानिस्थानान्तरकालसे विवक्षित योगस्थानका द्रव्य भपहत होता है, ऐसा कहा है। .
पांच गुणहानि मात्र भागहारके उत्पन्न कराते समय यवमध्यके अढ़ाई खण्ड करके उनसे एक खण्डको अलग कर देनेपर शेष इच्छित क्षेत्र होता है । अलग किये हुए एक खण्डमेंसे अढ़ाईवें भाग विस्तृत और दो गुणहानि आयत क्षेत्रको ग्रहण कर विस्तारको विस्तारके साथ मिलाकर प्रथम खण्डमें मिला देनेपर पांच गुणहानियां आयाम होता है। शेष खण्डको मध्यमें फाड़कर विस्तारको विस्तारमें मिलाकर स्थापित करनेपर पांचवां भाग विस्तृत और दो गुणहानि आयत क्षेत्र होता है। फिर इसे उठा कर पांचवें भागको पांचवें भागके पास लाकर पार्श्व भागमें मिलानेपर यहां भी पांच गुणहानियां आयाम होता है। इस कारण यहां पांच गुणहानियां भागहार है। इसी प्रकार अन्यत्र भी शिष्योंकी बुद्धिको विकसित करने के लिये भागहारकी प्ररूपणा करना चाहिये। यहां उपयुक्त गाथा
रूपाधिक इच्छित आयामसे विस्तारको अपहृत करना चाहिये । ऐसा करनेसे जो लब्ध हो उसमें दीर्घताको मिलानेपर इच्छित भागहार होता है ॥ ११ ॥
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१ प्रतिषु ' परिवाडीओ' इति पाठः ।
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१, २, ४, २८.] वेयणनहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ९६ एवं णेदव्वं जाव गुणहाणिअद्धाणं समत्तं त्ति ।
बिदियगुणहाणिपढमणिसेयपमाणेण अवहिरिज्जमाणे छगुणहाणीयो भागहारो होदि । पुग्विल्लखेतं मज्झम्मि फालिय' पासम्मि ढोइदे जवमझ द्वैविक्खंभ-छगु गहाणि आयदखेत्तुप्पत्तीदो, एगगुणहाणि चडिदो त्ति एगरूवं विरलिय विगं करिय अण्णोण्णगुणिदरासिणा तिण्णिगुणहाणीयो गुणिदे छगुणहाणिसमुप्पत्तीदो वा । एदिस्से वि गुणहाणीए पुव्वं परूविदगणिदैकिरिया सिस्समइविष्फारणटुं एव्वा परवेदव्वा ।
उवरिमगुणहाणिपढमणिसेयस्स बारहगुणहाणीयो भागहारो होदि, जवमज्झविक्खंभं चत्तारिफालीयो काऊण पासे ढाइदे बारसगुणहाणिसमुप्पत्तीदो, दोगुणहाणीयो चडिदो त्ति दो रूवाणि विरलिय बिगुणिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा तिणिगुणहाणीयो गुणिदे बारसगुणहाणिसमुप्पत्तीदो वा । उवरि सादिरेयवारसगुणहाणीयो भागहारो होदि ।
उदाहरण - इच्छित आयाम ३ गुणहानि; विष्कम्भ ८ प्रक्षेप; ३ + १ = ४, ८४ = २, ३ + २ = ५ गुणहानि, इच्छित द्रव्यका अवहारकाल ।
इस प्रकार गुणहानिके सब स्थानोंके समाप्त होने तक जानना चाहिये ।
द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेकके प्रमाणसे अपहृत करनेपर छह गुणहानियां भागहार होता है, क्योंकि, पहले के क्षेत्रको मध्यमें फाड़कर पार्श्व भागमें मिलानेपर यवमध्यसे अर्धभाग प्रमाण विस्तृत और छह गुणहानि आयत क्षेत्र उत्पन्न होता है, अथवा एक गुणहानि आगे गये हैं इसलिये एक रूपका विरलन करके दुगुणित कर अन्योन्यगुणित राशिसे तीन गुणहानियोंके गुणा करनेपर छह गुणहानियां उत्पन्न होती हैं। शिष्योंकी बुद्धिको विकसित करने के लिये इस गुण हानिकी भी पूर्व में कही गई गणित-. प्रक्रिया सब कहना चाहिये।
इससे आगेकी गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार बारह गुणहानियां हैं, क्योंकि, यवमध्य प्रमाण विस्तृत क्षेत्रकी चार फालियां करके पार्श्व भागमें मिलानेपर बारह गुणहानियां उत्पन्न होती हैं, अथवा दो गुणहानियां आगे गये हैं इसलिये दो संख्याका बिरलन करके द्विगुणित कर परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो उससे तीन गुणहानियोंको गुणित करनेपर बारह गुणहानियां उत्पन्न होती हैं। आगे साधिक बारह गुणहानियां भागहार हैं ।
१ सप्रती फोडिय' इति पाठः। ३ सपतौ । परूविदगुणिद-' इति पाठः।
२ प्रतिषु ' जवमझब्बाविक्खंभ' इति पाठः। . ४ प्रतिषु ' फासे ' इति पाठः।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, २८. उवरिमगुणहाणिपढमणिसेगस्स चउवी सगुणहाणीओ भागहारो होदि, पुरखेत्तस्स विक्खंभमट्ठखंडाणि काऊग तत्थ सत्त खंडाणि आयामेण ढोइदे [चउवीसगुणहाणिसमुप्पत्तीदो । ] तिगुणहाणीओ चडिदो त्ति तिण्णमण्गोण्णभत्थरासिणा तिण्णिगुणहाणीओ गुणिदे चउवीसगुणहाणिसमुप्पत्तीदो वा । एवं जत्तिय-जत्तियगुणहाणीओ उवरि चडिदूण भागहारो इच्छिज्जदि तत्तिय-तत्तियमेत्तीओ गुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा तिण्णिगुणहाणीओ गुणि तेणेव रासिगा. जबमज्झविक्खंभं खंडिय पासे ढोइदे वि तदित्थ-तदित्थअवहारकालो होदि त्ति दहवं । एवमणेग विहाणेण णेदव्वं जाव दुरूवूणजहण्णपरित्तासंखेज्जच्छेदणयमेतीओ गुगहाणीओ उवरि चडिदाओ त्ति । एवमुवरि वि णेदव्वं । णवरि एत्तो उवरिमगुणहाणीसु सम्बत्थ असंखेज्जगुणहाणीओ अवहारकालो हेदि । उक्कस्सजोगजीवपमाणेण सव्वदवे अवहिरिज्जमाणे असंखेज्जगुगहाणीओ अवहारो होदि, जवमज्झुवरिमसव्वगुणहाणिसलागाओ विरलिय दुगुणिय अण्णोणमत्यरामिणा किंचूणेग तिण्णिगुणहाणीसु गुणिदासु उक्कस्सजोगजीवभागहारुप्पत्तीदो ।
इससे आगेकी गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार चौबीस गुणहानियां होती हैं, क्योंकि, पूर्व क्षेत्रके विष्कम्भके आठ खण्ड करके उनमें सात खण्डोंको आयामसे मिला देनेपर [चौबीस गुणहानियां. उत्पन्न होती हैं ] । अथवा, तीन गुणहानियां आगे गये हैं, इसलिये तीनकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे तीन गुणहानियोंको गुणित करनेपर चौबीस गुणहानियां उत्पन्न होती हैं ।
इस प्रकार जितनी जितनी गुणहानियां आगे जाकर भागहार इच्छित हो उतनी उतनी मात्र गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर दुगुणा करके अन्योन्याभ्यस्त राशिसे तीन गुणहानियोंको गुणित करने पर अथवा उसी राशिसे यवमध्यके विस्तारको खण्डित करके पार्श्व भाग में मिला देने पर भी वहां वहांका अवहारकाल होता है, ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार इस विधानसे रूप कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर गणहानियां आगे जाने तक यह क्रम जानना चाहिये । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये । विशेष इतना है कि इससे आगेकी गुणहानियों में सर्वत्र असंख्यात गुणहानियां अवहार काल होती हैं।
___ उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करनेपर असंख्यात गुणहानियां अवहारकाल होती हैं, क्योंकि, यवमध्यके आगेकी सब गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दुगुणित कर कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे तीन गुणहानियोंको गुणित करनेपर उत्कृष्ट योगजीवभागहार उत्पन्न होता है।
उदाहरण- उपरिम गुणहानियां ५, २ २ २ २ २ = ३२; कुछ कम अन्यो. १३।। १२८ x २ = २५३ उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंकी संख्या लाने के लिये भागहार ।
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४, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्तं
• भागाभागो वुच्चदे - जवमज्झजीवा सवजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? तिषिणगुणहाणीओ । जहण्णजोगट्ठाणजीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । उक्कस्सजोगट्ठाणजीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । एवं सव्वत्थ वत्तव्यं ।
__ अप्पाबहुगं तिविहं- जवमज्झादो हेट्ठा उवरि उभयत्थप्पाबहुगं चेदि । तत्थ सव्वत्थोवा जहण्णजोगट्ठाणजीवा १६ । जवमज्झजीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारे। ? जवमज्झहेट्ठिमसव्वगुणहाणिसलागाणमण्णाण्णब्भत्थरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो |१२८ । जवमज्झादो हेट्ठिमा जहण्णजोगट्ठाणादो उवरिमा जोवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? किंचूणदिवड्डगुणहाणीओ सेडीए असंखेन्जदिभागो । तस्स संदिट्ठी | || एदेण जवमझं गुणिदे हेट्ठिमसव्वजीवपमाणं होदि ६००।। जवमज्झादो हेट्ठा सव्वजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तण ? जहणणजोगजीवमेत्तेण ६१६ । अजहण्णए जोगट्ठाणे जीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णजोगजीवपमाणूणजवमज्झजीवमेत्तेण ७२८| ! जवमझप्पहुडिहेट्ठिमसव्व
अब भागाभागका कथन करते हैं- यवमध्यके जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। प्रतिभाग क्या है ? प्रतिभाग तीन गुणहानियां हैं । जघन्य योगस्थानके जीव सब जीवोंके कितनेवें भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । उत्कृष्ट योगस्थानके जीव सब जीवोंके कितनेवें भाग प्रमाण हैं ? सब जीवोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार सर्वत्र कहना चाहिये ।
अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है - यवमध्यसे अधस्तन अल्पवहुत्व, उपरिम अल्पबहुत्व और उभयत्र अल्पबहुत्व । उनमें जघन्य योगस्थानके जीव सबसे स्तोक हैं (१६)। उनसे यवमध्यके जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? यवमध्यसे अधस्तन सब गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि मुणकार है जो कि पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है ( १२८ यवमध्यके जीव)। यवमध्यसे अधस्तन और जघन्य योगस्थानसे उपरिम जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? कुछ कम डेढ़ गुणहानियां गुणकार हैं जो कि जगणिके असंख्यात भाग प्रमाण है। उसकी संदृष्टि ५५ है। इस गुणित करनेपर अधस्तन सब जीवोंका प्रमाण होता है- ४१२८ = ६००। उससे यवमध्यसे अधस्तन सब जीव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं ? जघन्य योग स्थानके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ६००+१=११६। उनसे अजघन्य योगस्थानमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं । कितने अधिक है ? यवमध्यके जीवोंकी संख्यामेंसे जघन्य योगस्थानके जीवोंकी संख्या कम कर देने पर जितना प्रमाण शेष रहे उतने अधिक हैं ६१६+(१२८-१६)-७२८। उनकी अपेक्षा यवमध्यसे लेकर अधस्तन सब जीव विशेष अधिक
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९६ )
छक्खंडागमे येयणाखंडं
[४, २, ४, २८. जीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णजोगजीवमेत्तेण ।.४४।।
_ जवमज्झादो उरि अप्पाबहुगं वुच्चदे । तं जहा- सव्वत्थोवा उक्कस्सए जोगट्ठाणे जीवा 1५।। जवमज्झजीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जवमज्झउवरिमसव्वगुणहाणिसलागाणं किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्स संदिट्ठी 1१२।। एदेण उक्कस्सजोगजीवे गुणिदे जवमज्झजीवपमाणं होदि १२८ । जवमज्झादो उवरि उक्कस्सजोगट्ठाणादो हेट्ठा जीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? किंचूणदिवड्वगुण · हाणीयो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। तासिं संदिट्ठी एसा ६५३] । एदेण जवमज्झे गुणिदे अप्पिददव्वं होदि ६७३|| जवमज्झस्सुवरिमजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? उक्कस्सजोगजीवमेत्तेण ६७८ । अणुक्कस्सजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? उक्कस्सजोगजीवपमाणूणजवैमज्झमेत्तेण ८०२।। जवमझप्पहुडिमुवरिमसव्वजोगजीवा विसेसाहिया । केत्तियमत्तेण ? उक्कस्सजोगजीवमेत्तण ८०६ ।।
हैं । कितने अधिक हैं ? जघन्य योगस्थानके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ७२८ + १६ = ७४४ ।
अब यवमध्यसे आगेके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। यथा- उत्कृष्ट योगस्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं (५)। इनसे यवमध्यके जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? यवमध्यसे उपरिम सब गुणहानिशलाकाओंकी कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है जो कि पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उसकी संदृष्टि - १२८ है। इससे उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंको गुणित करने पर यवमध्यके जीवोंका प्रमाण होता है १ २८.४ ५ = १२८ । इनसे यवमध्यसे आगेके और उत्कृष्ट योगस्थानसे पीछेके जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? कुछ कम डेढ़ गुणहानियां गुणकार हैं जो कि जगणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । उनकी संदृष्टि यह है-३। इससे यव. मध्यको गुणित करनेपर विवक्षित द्रव्यका प्रमाण होता है ६७३ ४ १ २८ = ६७३ । इनसे यवमध्यसे आगेके जीव विशेष अधिक हैं । कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ६७३ + ५= ६७८ । अनुत्कृष्ट योगस्थानके जीव विशेष अधिक हैं । कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंके प्रमाणसे हीन यवमध्यके जीवोका जितना प्रमाण है उतने अधिक है ६७८ + (१२८-५)=८०१। इनसे यवमध्यको लेकर आगे के सब योगस्थानोंके जीव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ८०१ + ५ = ८०६ ।
१ प्रतिषु 'ताओ' इति पाठः।
२ प्रतिषु · जीवपमाणजव ' इति पाठः ।
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४, २, ४, २८.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
जवमज्झादो हेढ़वरिमाणमप्पाबहुगं वत्तइस्सामो । तं जहा- सव्वत्थोवा उक्कस्सए जोगट्ठाणए जीवा । जहण्णए जोगट्ठाणे जीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जहण्णजोगट्ठाणसरिससउवरिमजीवाणं उवरिमसव्वगुणहाणिसलागाणं किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभाममेत्ता । तिस्से संदिट्ठी एसा । १.६ || एदेण उक्कस्सजोगजीवेसु गुणिदेसु जहण्णजोगजीवा होति ।१६ । जवमज्झजीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जहण्णजोगसरिसजीवाणं हेट्ठा जवमज्झजीवाणमुवरि सव्वगुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागा । तिस्से संदिट्ठी । ८।। एदेण जहण्णजोगजीवेसु गुणिदेसु जवमज्झजीवा होति | १२८|| जवमज्झादो हेट्ठा जहण्णजोगादो उवरिमजीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? किंचूणदिवड्डगुणहाणीओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ |१६|| एदेण जवमझं [गुणिदे] अप्पिददव्वं होदि १६०० । जवमज्झादो हेट्ठिमजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तण ? जहण्णजोगजीवमेत्तेण ६१६ । जवमज्झादो उवरिमउक्कस्सजोगादो हेट्ठिमजीवा
...........
अब यवमध्यसे अधस्तन और उपरिम योगस्थानोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं। यथा- उत्कृष्ट योगस्थानके जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य योगस्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? जघन्य योगस्थान सदृश उपरिम जीवोंकी उपरिम सब गुणहानिशलाकाओंकी कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है जो कि पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसकी संदृष्टि यह है ६ । इससे उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंको गुणित करनेपर जघन्य योगस्थानके जीवोंका प्रमाण होता है १६.४ ५ = १६ । इनसे यवमध्यके जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? जघन्य योगस्थानके सदृश जीवोंकी नीचेकी और यवमध्यके जीवोंकी ऊपरकी सब गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है जो कि पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसकी संदृष्टि ८ है। इससे जघन्य योगस्थानके जीवोंको गुणित करनेपर यवमध्यके जीव होते हैं १६ x ८.१२८ । इनसे यवमध्यसे नीचेके और जघन्य योगसे आगेके जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? कुछ कम डेढ़ गुणहानियां गुणकार हैं जो कि जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग मात्र हैं १४ । इससे यवमध्यको [ गुणित करनेपर ] विवक्षित द्रव्यका प्रमाण होता है x १२८ = ६०० । इनसे यवमध्यसे नीचेके जीव विशेष अधिक हैं । कितने अधिक हैं ? जघन्य योगस्थानके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ६०० + १६ = ६१६ । इनसे यवमध्यसे आगेके और उत्कृष्ट योगसे नीचेके जीव विशेष अधिक हैं। कितने
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१ प्रतिषु जहण्णएग्गेगहाणे ' इति पाठः । क.ने. १३.
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, २९ विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णुक्कस्सजोगजीवविरहिदअन्तिमदोगुणहाणिदव्वमेत्तेण |६७३ । जवमज्झादो उवरिमजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? उक्कस्सजोगजीवमेत्तेण ६७८ । अणुक्कस्सजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? उक्कस्सजोगजीवूणजवमज्झमेत्तेण [८०१ । जवमज्झप्पहुडिं उवरि सव्वजोगजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? उक्कस्सजोगजीवमेत्तण | ८०६ । सव्वजोगट्ठाणजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जवमज्झादो हेट्ठिम-- जीवमेत्तेण |१४२२||
तदो जीवजवमज्झट्ठिमअद्धाणादो उवरिमअद्धाणं विसेसाहियमिदि सिद्धं । तेणेत्थ अंतोमुहुत्तकालमच्छणसंभवो णत्थि त्ति कालजवमज्झस्स उवरिनंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो त्ति घेत्तव्वं ।
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ २९ ॥
अधिक हैं ? जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंसे रहित अन्तकी दो गुणहानियोंके द्रव्यका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ६१६ + ७८ - २१ = ६७३ । इनसे यवमध्यसे आगेके जीव विशेष अधिक है। कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ६७३ + ५ = ६७८ । इनसे अनुत्कृष्ट जीव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं । उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंसे रहित यवमध्यके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ६७८+ (१२८ - ५) = ८०१ । इनसे यवमध्यसे लेकर आगेके सब योगस्थानोंके जीव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट योगस्थानके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ८०१ + ५ = ८०६। सब योगस्थानके जीव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं? यवमध्यसे नीचेके जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं ८०६+६१६ = १४२२ ।
इसलिये जीवयवमध्यसे नीचेके स्थानसे आगेका स्थान विशेष अधिक है, यह सिद्ध हुआ। अत एव यहां चूंकि अन्तर्मुहूर्त काल रहना सम्भव नहीं है इसीलिये कालयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
विशेषार्थ- यहां यवमध्यसे जीवयवमध्यका ग्रहण होता है या कालयवमध्यका ? इसी प्रश्नका निर्णय कर यह बतलाया गया है कि प्रकृतमें यवमध्य पदसे कालयवमध्यका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जीवयवमध्यके उपरिम भागमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहना सम्भव नहीं है।
अन्तिम जीवगुणहानिस्थानमें आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक रहा ॥ २९ ॥
१ प्रतिषु : विरहिदअहियगुणं- ' इति पाठः ।
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१, २, ४, २९.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
___ चरिमजीवदुगुणवड्डीए अंतोमुहुत्तं किण्ण अच्छिदो ? ण, तत्थ असंखेज्जगुणवटिहाणीणमभावादो । ण च एदाहि वड्डि-हाणीहि विणा अंतोमुहुत्तद्धमच्छदि, ' असंखेज्जभागवडि-संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं एदासिं हाणीणं च कालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो 'त्ति वयणादो। चरिमजीवदुगुणवड्डीए पुण असंखेज्जभागवड्डि-हाणीओ' चेव, ण सेसाओ। तेण तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिमाग चेव अच्छदि ति णिच्छओ कायव्वो । तत्थ असंखेज्जभागवडि-हाणीयो चेव अत्थि, अण्णाओ पत्थि त्ति कधं णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहा- बीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणमादि कादूण पक्खेवुत्तरकमेण जोगट्ठाणाणि वड्डमाणाणि गच्छंति जाव पक्खेवूणदुगुणजोगट्ठाणे त्ति । पुणो तस्सुवरि एगपक्खेवे वड्डिदे हेट्ठिमदुगुणवड्डिअद्धाणादो दुगुणमद्धाणं गंतूण एत्थतणपढमदुगुणवड्डी जादा । एवं दुगुण-दुगुणमद्धाणं गंतूण सव्वदुगुणवड्डीयो उप्पज्जंति जाव
शंका-अन्तिम जीवदुगुणवृद्धि में अन्तर्मुहूर्त काल तक क्यों नहीं रहा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, वहां असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती । यदि कहा जाय कि असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके विना भी अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है सो भी बात नहीं हैं, क्योंकि, " असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका तथा इन्हीं तीन हानियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है" ऐसा वचन है। पर अन्तिम जीवदुगुणवृद्धिमै असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि ये दो ही होती हैं, शेष वृद्धि हानियां वहां नहीं होती । इसलिये वहां आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक ही रहता है, ऐसा निश्चय करना चाहिये।
शंका- वहां असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि ही होती है, अन्य वृद्धि-हानियां नहीं होती; यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-यह बात युक्तिसे जानी जाती है । यथा-द्वीन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर एक एक प्रक्षेप-अधिकके क्रमसे योगस्थान एक प्रक्षेप कम दुगुणे योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ते हुए चले जाते हैं । पुनः उसके ऊपर एक प्रक्षेपके बढ़नेपर अधस्तन दुगुणवृद्धि स्थानले दुगुणा स्थान जाकर यहांकी प्रथम दुगुणवृद्धि हो जाती है । इस प्रकार दुगुणे दुगुणे स्थान जाकर अन्तिम दुगुणवृद्धिके
१ प्रतिषु ' -हाणीदो' इति पाठः।
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१०.]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, २९. चरिमदुगुणवड्डिपढमजोगो त्ति । संपधि चरिमगुणवड्डीए हेट्ठिमसव्वगुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णब्भासुप्पण्णरासिणा बेइंदियपज्जत्तजहण्णपरिणामजोगट्ठाणपक्खेवभागहारे गुणिदे चरिमजोगदुगुणहाणिपढमजोगट्ठाणपक्खेवभागहारो होदि । तं विरलेदूण चरिमदुगुणवडिपढमजोगट्ठाणं समखंड कादूण दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगपक्खेवो पावदि । तत्थेवेगपक्खेवे तस्सुवरि वड्डिदे असंखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो बिदियपक्खेव वड्डिदे वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदूण ताव गच्छदि जाव एदम्मि पक्खेवभागहारं उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदे तत्थ रूवूणेगखंडमेत्तपक्खेवा पविट्ठा त्ति । पुणो तस्सुवरि एगपक्खेवे वड्डिदे संखेज्जभागवड्डी पारभदि । पुणो तस्सुवरि अण्णेगपक्खेवे वड्डिदे वि संखेज्जभागवड्डी चेव । एवं दो-तिण्णिचत्तारि आदि जाव रूवूणपक्खेवभागहारमेत्तपक्खेवा पविठ्ठा त्ति । पुणो चरिमपक्खेवे पविढे दुगुणवड्डी होदि । एवं चरिमगुणहाणीए तिणि चेव वड्ढीयो ।
संपधि पुबमागहारमुक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणि कादूण तत्थेगखंडमेत्तपक्खेवेसु पविद्वेसु जं जोगट्ठाणं तमाधारं कादूण वड्डिगवेसणा कीरदे । तं जहा- अद्धजोगपक्खेवभागहार
प्रथम योगस्थानके प्राप्त होने तक सब दुगुणवृद्धियां उत्पन्न होती हैं । अब अन्तिम गुणवृद्धिके नीचेकी सब गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और उसे द्विगुणित कर जो अन्योन्याभ्यस्तराशि उत्पन्न होती है उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य परिणाम योगस्थान सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारको गुणित करनेपर अन्तिम योग सम्बन्धी दुगुणहानिके प्रथम योगस्थानका प्रक्षेपभागहार होता है। उसका विरलन कर अन्तिम दुगुणवृद्धिके प्रथम योगस्थानको समखण्ड करके देने पर विरलन रूपके प्रनि एक एक प्रक्षेप प्राप्त होता है। उनमेंसे एक प्रक्षेप उसके ऊपर बढ़ानेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। फिर द्वितीय प्रक्षेपके बढ़ानेपर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होकर तब तक जाती है जब तक इसमें प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर उससे एक कम एक खण्ड मात्र प्रक्षेप प्रविष्ट न हो जावें । पुनः उसके ऊपर एक प्रक्षेपके बढ़ानेपर संख्यातभागवृद्धि प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात उसके ऊपर अन्य एक प्रक्षेपके बढ़ानेपर भी संख्यातभागवृद्धिही होती है। इस प्रकार दो, तीन, चार आदि एक कम प्रक्षेपभागहार प्रमाण प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक संख्यातभागवृद्धि ही होती है । पुनः अन्तिम प्रक्षेपके प्रविष्ट होनेपर दुगुणवृद्धि होती है । इस प्रकार अन्तिम गुणहानिमें तीन ही वृद्धियां होती हैं ।
. अब पूर्व भागहारके उत्कृष्ट संख्यात मात्र खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड मात्र प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होनेपर जो योगस्थान हो उसको आधार करके वृद्धिका विचार करते हैं।
१ सप्रतौ · जाव पटमद्गुण ' इति पाठः ।
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४, २, ४, २९.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[१०१ मुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदण तत्थेगखंडे तत्थेव पक्खित्ते अप्पिदजोगट्ठाणस्स पक्खेवभागहारो होदि । एदं पक्खेवभागहार विरलिय अप्पिदजोगट्टाणं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगपक्खवपमाणं पावदि । एत्थ एगपक्खेवमप्पिदजोगट्ठाणम्मि पक्खित्ते असंखेज्जभागवडी होदि । एवमसंखेज्जभागवड्डी चेव होदूण ताव गच्छदि जाव एत्थतणपक्खेवभागहारमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदूण तत्थ रूवूणेगखंडमेत्तपक्खेवा पविट्ठा त्ति । पुणो एगपक्खेव पविहे संखेज्जभागवड्डी होदि । पुव्विल्लअसंखेज्जभागवड्डिअद्धणादो एदमसंखेज्जभागवड्डिअद्धाणं विसेसाहिय होदि । केत्तियमेत्तेण ? अद्धजोगपखवभागहारमुक्कस्ससंखेज्जवग्गेण खंडिदे तत्थेगखंडमेत्तेण । एवमेत्थ संखेज्जभागवड्डीए आदी' होदण संखेज्जभागवड्डी ताव गच्छदि जाव रूवूणउक्कस्ससंखज्जमेत्तसेसखंडाणि सव्वाणि पविट्ठाणि त्ति । ताधे दुगुणवड्डी होदि । ण च एत्थ दुगुणवड्डी उप्पज्जदि, अंतिमदोखंडमेत्तजोगपक्खेवाणं पवेसाभावादो।
अधवा अद्धजोगमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदूण तत्थेगखंडेण अव्वहियजोगट्ठाणं णिरुभि
यथा- अर्ध योगप्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उनमेंसे एक खण्डका उसी प्रक्षेप करने पर विवक्षित योगस्थानका प्रक्षेपभागहार होता है। इस प्रक्षेपभागहारका विरलन कर विवक्षित योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति एक एक प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। इनमेंसे एक प्रक्षेपको विवक्षित योगस्थानमें मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार यहांके प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उसमें एक कम एक खण्ड मात्र प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक असंख्यातभागवृद्धि ही होकर जाती है । पुनः एक प्रक्षेपके प्रविष्ट होनेपर संख्यातभागवृद्धि होती है । पूर्वोक्त असंख्यातभागवृद्धि के स्थानसे यह असंख्यातभागवृद्धिका स्थान विशेष अधिक है। कितना अधिक है ? अर्ध योगप्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातके वर्गसे खण्डित करने पर उनमेंसे एक खण्ड मात्र अधिक है। इस प्रकार यहां संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होकर संख्यातभागवृद्धि तब तक जाती है जब तक कि एक कम उत्कृष्ट संख्यात मात्र शेष खण्ड सब नहीं प्रविष्ट हो जाते । तब दुगुणवृद्धि होती है । परन्तु यहां दुमुणवृद्धि नहीं उत्पन्न होती, क्योंकि, अभी अन्तिम दो खण्ड मात्र प्रक्षेपोंका प्रवेश . नहीं हुआ है।
. अथवा अर्ध योगको उत्कृष्ठ संख्यातसे खण्डित कर उनमेंसे एक खण्ड अधिक
१ अप्रतौ ' तावइ ' इति पाठः। ३ अप्रतौ ' आदीदो' इति पाठः ।
२ अ-आप्रयोः ' एग ', काप्रतौ 'एक' इति पाठः। . .
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, २९. दूण वडिपरूवणा एवं कायव्वा । तं जहा-रूवाहियमुक्कस्ससंखेज्जं विरलेदूण णिरुद्धजोगठाणं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि अद्धजोगमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूणेगखंडपमाणं पावदि । कुदो ? अद्धजोगं पेक्खिदूण एदस्स एयखंडेण अहियत्तदंसणादो । पुणो एदस्स हेट्टा अद्धजोगपक्खेवभागहारमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिय एगखंडं विरलिय उवरिमविरलणाए एगरूवधरिदखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एगेगपक्खेवपमाणं पावदि । तत्थेगपक्खेवं घेत्तूण णिरुद्धजोगट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते असंखेज्जभागवड्विजोगट्ठाणं होदि । पुणो विदियपक्खेवं घेत्तूण पढमअसंखेज्जभागवड्डिहाणं पडिससिय पक्खित्ते बिदियअसंखेज्जभागवड्डिठ्ठाणमुप्पजदि । एवं विरलणमेत्तपक्खेवेसु परिवाडीए सव्वेसु पविढेसु वि असंखेज्जभागवड्डी ण समप्पदि । पुणो बिदियखंडं घेत्तूण हेट्टिमविरलणाए समखंडं करिय. दिण्णे पुव्वं व पक्खेव. पमाणं पावदि ।
संपधि इमं विरलणमुक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ रूवूणेगखंडमेत्तपक्खेवा नाव पविसंति ताव असंखेज्जभागवड्डी चेव । पुणो अण्णेगे पक्खेवे पविढे संखेज्जभागवड्डीए भादी होदि । कुदो १ णिरुद्धजोगं उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदे अद्धजोगमुक्कस्ससंखेज्जेण
योगस्थानको विवक्षित कर वृद्धिकी प्ररूपणा इस प्रकार करनी चाहिये। यथा- एक अधिक उत्कृष्ट संख्यातका विरलन कर विवक्षित योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलन रूपके प्रति अर्ध योगको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर एक खण्ड प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि, अर्ध योगकी अपेक्षा यह एक खण्ड अधिक देखा जाता है । पुनः इसके नीचे अर्ध योगप्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके एक खण्डको विरलित कर उपरिम विरलनाके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपरप्रत्येक एकके प्रति एक प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। उनमेंसे एक प्रक्षेपको ग्रहण कर विवक्षित योगको प्रतिराशि करके मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धि रूप योगस्थान होता है। पुनः द्वितीय प्रक्षेपको ग्रहण करके प्रथम असंख्यातभागवृद्धिस्थानको प्रतिराशि कर मिलानेपर द्वितीय असंख्यातभागवृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार परिपाटीसे सब विरलन मात्र प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होनेपर भी असंख्यातभागवृद्धि समाप्त नहीं होती। पनः द्वितीय खण्डको ग्रहण कर अधस्तन विरलनाके समखण्ड करके देनेपर पूर्वके समान प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है।
- अब इस विरलनाके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण खण्ड करके उनमें एक कम एक खण्ड मात्र प्रक्षेप जब तक प्रविष्ट होते हैं तब तक असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। पश्चात् अन्य एक प्रक्षेपके प्रविष्ट होनेपर संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है, क्योंकि, विवक्षित योगको उत्कृष्ट संख्यातसे खंडित करनेपर अर्ध योगको उत्कृष्ट संख्यातसे खंडित
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४, २, ४, २९.] यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं खंडिदेगखंडस्स तं चैव तव्वग्गेण खंडिदेगखंडस्स च आगमाणुवलंभादो । अधवा उक्कस्स. संखेज्जं विरलेदूण णिरुद्धजोगं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि तस्स संखेज्जदिभागो पावदि । पुणो हेट्ठा णिरुद्धजोगपक्खेवभागहार उक्कस्ससंखज्जण खंडिय तत्थेगखंड विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि पक्खेवपमाणं पावदि । तत्थेगपक्खेवं घेत्तूण पडिरासिदणिरुद्धजोगम्मि पक्खित्ते असंखेज्जभागवड्डी होदि । एवं ताव असंखेज्जभागवड्डी होदूण गच्छेदि जाव रूवूणहेट्टिमविरलणमेत्तपवखेवा पविट्ठा त्ति । पुणो अण्णेगपक्खेवे पविढे संखेज्जभागवड्ढी होदि, पुवभागहारमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदेगखंडेण पुव्वभागहारादो एदस्स भागहारस्स अहियत्तुक्लभादो । चरिमगुणहाणिअद्धाणमुक्करससंखेज्जमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ एगेगखंडस्स पढमजोगट्ठाणणिरंभण कादूण वडिपरूवणे कीरमाणे एवं चेव तिविहा परूवणा कायव्वा । णवरि खंडं पडि एगखंडमुक्कस्ससंखेजमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ एगखंडमादिउत्तरकमेण गंतूण बिदियखंडभतरे संखेज्जभागवड्डी होदि ।
बिदियपरूवणाए उक्कस्ससंखेज्जभागहारो एगादिएगुत्तरकमेण खंड पडि बड्डावेदव्वो । बिदियखंडे णिरुद्धे दुगुणवड्डी ण उप्पज्जदि, उक्कस्सजोगादो उवरि दोण्णं खंडाणम
करनेपर एक खण्डका तथा उसको ही उसके वर्गसे खण्डित करनेपर एक खण्डका आना नहीं पाया जाता । अथवा उत्कृष्ट संख्यातका विरलन कर विवक्षित योगको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति उसका संख्यातवां भाग प्राप्त होता विवक्षित योग सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उनमेंसे एकखण्डका विरलन कर उपरिम विरलनके एकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । उनसे एक प्रक्षेपको ग्रहण कर प्रतिराशिभूत विवक्षित योगमें मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार असंख्यातभागवृद्धि होकर तब तक जाती है जब तक कि एक कम अधस्तन विरलन मात्र प्रक्षेप प्रविष्ट न हो जावें। पश्चात् अन्य एक प्रक्षेपके प्रविष्ट होनेपर संख्यातभागवृद्धि होती है, क्योंकि, पूर्व भागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर एक खण्डसे पूर्व भागहारकी अपेक्षा यह भागहार अधिक पाया जाता है। अन्तिम गुणहानिस्थानके उत्कृष्ट संख्यात मात्र खण्ड करके उनसे एक एक खण्डके प्रति प्रथम योगरथानको विवक्षित कर वृद्धिकी प्ररूपणा करते समय इसी प्रकार ही तीन तरह प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि खण्ड खण्डके प्रति एक खण्डके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण खण्ड करके उनमें एक खण्डसे लेकर उत्तर क्रमसे जाकर द्वितीय खण्डके भीतर संख्यातभागवृद्धि होती है।
द्वितीय प्ररूपणामें उत्कृष्ट संख्यातका भागहार एकादि एकोत्तर क्रमसे प्रत्येक खण्डके प्रति बढ़ाना चाहिये। द्वितीय खण्डके रहते हुए दुगुणवृद्धि नहीं उत्पन्न होती है,
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१०.] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ५, २९. भावादो । तदिए विणिरुद्ध ण उप्पज्जदि, तत्तो उवरि चउण्णं खंडाणमभावादो। एवं खंड पडि दोआदिदोउत्तरकमेण खंडामावलिंगं परुवेदव्वं । दुगुणिदहेहिमखंडसलागमेत्तखंडेहि वा परूवेदव्वं । कुदो १ हेहिमखंडसलागमेत्तखंडाणं भागहारस्सुवरि अधियाणमुवलंभादो हेहिमखंडसलागाहि ऊणउक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणं' चेव उवरि पवेसदसणादो च ।२।४।६। ८ । १० । १२ । १४ । १६ । १८ ।
संपघि चरिमखंडजहण्णजोगट्ठाणणिरंभणं कादूण वड्डिपरूवणे कीरमाणे दुगुणुक्कस्ससंखेज्जं रूवूणं विरलेदूण अप्पिदजोगट्ठाणं समखंडं करिय दिण्णे पुव्वखंडेहि सरिसखंडाणि होदूण चेट्ठति । पुब्बिल्लेगखंडपक्खेवभागहारं विरलेदूण उवरिमविरलणाए एगखंडं घेत्तूण समखंडं काद्ण दिण्णे पक्खेवपमाणं पावदि । तत्थेगपक्खेवं घेत्तूण अप्पिदजोगट्टाणं पडिरासिय पक्खित्ते असंखेज्जमागवड्डी होदि । तं पडिरासिय बिदिय [ पक्खेवे ] पक्खित्ते वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि । एवं ताव असंखेज्जभागवड्डी गच्छदि जाव विरलणमेत्ता पक्खेवा पविट्ठा ति । एत्थ असंखेज्जदिभागवड्डी एक्का चेव, उवरि जोगवाणामावादो । एदं
क्योंकि, उत्कृष्ट योगसे ऊपर दोनों खण्डोंका अभाव है। तृतीय खण्डके रहते हुए भी दुगुण वृद्धि नहीं उत्पन्न होती, क्योंकि, उससे ऊपर चार खण्डौंका अभाव है । इस प्रकार खण्ड खण्डके प्रति उत्तरोत्तर दो दो खण्डोंके अभावका हेतु कहना चाहिये । अथवा द्विगुणित अधस्तन खण्डशलाका प्रमाण खण्डोंके द्वारा इसका कथन करना चाहिये, क्योंकि, एक तो अधस्तन खण्डशलाका प्रमाण खण्डोंका भागहारके ऊपर आधिक्य पाया जाता है और दूसरे अधस्तन खण्डकी शलाकाओंसे कम उत्कृष्ट संख्यात मात्र खण्डोंका ही ऊपर प्रवेश देखा जाता है २, ४, ६, ८, १०, १२, १४, १६, १८ ।
अब अन्तिम खण्डके जघन्य योगस्थानको विवक्षित करके वृद्धिकी प्ररूपणा करते समय एक कम दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातका विरलन कर विवक्षित योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर पूर्व खण्डोंके सदृश खण्ड होकर स्थित होते हैं। पूर्वोक्त एक खण्ड सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारका विरलन कर उपरिम विरलनके एक खण्डको ग्रहण कर समखण्ड करके देनेपर प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। उसमेंसे एक प्रक्षेपको ग्रहण कर विवक्षित योगस्थानको प्रतिराशि करके मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है । उसको प्रतिराशि कर द्वितीय प्रक्षेपको मिलानेपर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस प्रकार तब तक असंख्यातभागवृद्धि जाती है जब तक विरलन मात्र प्रक्षेप प्रविष्ट नहीं हो जाते। यहां एक असंख्यातभागवृद्धि ही है, क्योंकि, ऊपर योगस्थानका अभाव है। इस अन्तिम
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डाणि- ' इति पाठः ।
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४, २, ४, २९.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[१०५ चरिमखंडं उक्कस्ससंखेजण खंडिदे तत्थ रूवूणुक्कस्ससंखज्जमेत्तखंडाणं जत्तिया समया तत्तियमेत्तजोगट्ठाणाणि उवरि जदि अत्थि तो संखेज्जभागवड्ढी होज्ज। ण च एवमणुवलंभादो। एवं पढमखंडे तिण्णिवड्डीओ । चरिमखंडे असंखेज्जभागवड्डी एक्का चेव । सेसखंडेसु असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी चेदि दो चेव वड्डीयो । जोगट्ठाणचरिमगुणहाणीए अच्छणकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागो चेव, तत्थ असंखेज्जगुणवड्डि-हाणीणमभावादो । जदि जोगट्ठाणचरिमगुणहाणीए वि आवलियाए असंखेज्जदिभागं चेव अच्छदि तो एत्तो असंखेज्जगुणहीणाए चरिमजीवगुणहाणीए अच्छणकालो णिच्छएण [आवलियाए] असंखेज्जदिभागो चेव होदि त्ति घेत्तव्यो ।
जोगट्ठाणचरिमगुणहाणीए असंखेज्जदिभागो जीवगुणहाणी होदि त्ति कुदो णव्वदे? तंतजुत्तीदो । तं जहा- जदि जीवगुणहाणी चरिमजोगगुणहाणिमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदेगखंडमेत्ता होदि तो सव्वजीवदुगुणहाणिसलागाओ दुगुणुक्कस्ससंखेज्जमेत्ता चेव होज्ज,
खण्डको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करने पर वहां एक कम उत्कृष्ट संख्यात मात्र खण्डोंके जितने समय है उतने मात्र योगस्थान यदि ऊपर हैं तो संख्यातभागवृद्धि हो सकती है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, इतने वे पाये नहीं जाते । इस प्रकार प्रथम खण्डमें तीन वृद्धियां होती हैं । अन्तिम खण्डमें एक असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। शेष खण्डोंमें असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि ये दो ही वृद्धियां होती हैं। योगस्थानकी अन्तिम गुणहानिमें रहनेका काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है, क्योंकि, वहां असंख्यातगणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती। जब योगस्थानकी अन्तिम गुणहानि में भी आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक ही रहता है तो इससे असंख्यातगुणी हीन अन्तिम जीवगुणहानिमें रहनेका काल निश्चयसे [ आवलीके] असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
शंका-योगस्थानकी अन्तिम गुणहानिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जीवगुणहानि होती है, यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ?
समाधान-वह बात आगमके अनुकूल युक्तिसे जानी जाती है। यथा- यदि जीक्गुणहानि अन्तिम योगगुणहानिको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर एक खण्ड प्रमाण होती है तो सब जीवदुगुणहानिशलाकाएं दुगुणे उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण ही होंगी,
१ प्रतिषु · गुणहाणीण ' इति पाठः ।
२ अप्रतौ ' संखेजमेताओ', काप्रतौ — संखेज्जमेत्तादो' इति पाठः। .वे.१४.
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१०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१,२, ४, २९. सकलजोगट्ठाणद्धाणस्स सादिरेयअद्धम्मि चरिमजोगदुगुणवड्डीए अवठ्ठाणादो । जदि एगखंडम्मि दो-दोजीवगुणहाणीयो लब्भंति तो सव्वजीवगुणहाणीओ चदुगुणुक्कस्ससंखेज्जमेत्ताओ होति । अह जइ तिणि तो छगुणुक्कस्ससंखेज्जमेत्ताओ । अह जइ चत्तारि तो अट्टगुणुक्कस्ससंखेज्जमेत्ताओ। ण च एवं, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तीओ जीवगुणहाणीओ होति त्ति परमगुरूवदेसादा । तेण एगखंडम्मि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवगुणहाणीहि होदव्वं । तं जहा- दुगुणुक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडेसु जदि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ जीवगुणहाणिसलागाओ लब्भंति तो एगखंडम्मि केत्तियाओ लभामो त्ति सरिसमवणिय दुगुणुक्कस्ससंखेज्जेण जीवगुणहाणिसलागासु ओवट्टिदासु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतीओ एगखंडगयजीवदुगुणहाणिसलागाओ लब्भंति । तदो सिद्धं चरिमजोगगुणवड्डीए असंखेज्जदिभागो जीवगुणहाणि त्ति ।
एदाणि णिरयभवं णिरुभिय परूविदसव्वसुत्ताणि गुणिदकम्मंसियसव्वभवेसु पुध पुध परूवेदव्वाणि, एदेसिं सुत्ताणं देसामासियत्तदंसणादो' । ण च एक्कम्मि भवे जवमज्झस्सुवरि ।
क्योंकि, समस्त योगस्थान अध्वानके साधिक अर्ध भागमें अन्तिम योगदुगुणवृद्धिका अव. स्थान है। यदि एक खण्डमें दो दो जीवगुणहानियां पायी जाती हैं, तो सब जीवगुणहानियां चौगुणे उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण होती हैं । अथवा यदि एक खण्डमें तीन तीन जीवगुणहानियां पायी जाती हैं तो सब जीवगुणहानियां छहगुणे उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण होती हैं। अथवा यदि एक खण्डमें चार जीवगुणहानियां पायी जाती है तो सब जीवगुणहा आठगुणे उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण होती हैं। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र जीवगुणहानियां होती हैं, ऐसा परमगुरुका उपदेश है । इसलिये एक खण्डमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र जीवगुणहानियां होना चाहिये । यथादुगुणे उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण खण्डोंमें यदि पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र जीवगुण. हानिशलाकायें प्राप्त होती हैं तो एक खण्डमें कितनी प्राप्त होंगी, इस प्रकार समान राशियोका अपनयन कर दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातका जीवगुणहानिशलाकाओमें भाग देनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण एक खण्डगत जीवदुगुणहानिशलाकाएं प्राप्त होती हैं। इससे सिद्ध है कि अन्तिम योगगुणवृद्धिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जीवगुणहानि : होती है।
नारक भवका आश्रयकर कहे गये ये सब सूत्र गुणितकर्माशिकके सब भवों में पृथक पृथक् कहने चाहिये, क्योंकि, ये सूत्र देशामर्शक देखे जाते हैं । यदि कहा जाय कि एक
१ प्रतिषु · देसामासियदंसणादो' इति पाठः।
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१, २, ४, ३०.] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्त [१.७ चरिमगुणहाणीए च अंतोमुहुत्तमावलियाए असंखेज्जदिमागं चेव अच्छदि, जाव संभवो ताव तत्थेव अवठ्ठाणपरूवणादो ।
दुचरिम-तिचरिमसमए उक्कस्ससंकिलेसं गदो ॥ ३०॥
दुचरिम-तिचरिमसमएसु किमट्ठमुक्कस्ससंकिलेसं णीदो १ बहुदव्वुक्कड्डणटुं । जदि एवं तो दोसमए मोत्तूण बहुसु समएसु णिरंतरमुक्कस्ससंकिलेसं किण्ण णीदों ? ण, एदे समए मोत्तूण णिरंतरमुक्कस्ससंकिलेसेण बहुकालमवट्ठाणाभावादो। ण वत्तव्वमिदं सुतं, संकिलेसावाससुत्तेणेव परविदत्थत्तादो ? ण एस दोसो, संकिलेसावाससुत्तादो मेरइयचरिम
भवमें यवमध्यके ऊपर और अन्तिम गुणहानिमें अन्तर्मुहूर्त व आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक रहता है सो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि, जहां तक सम्भव है वहां तक यहींपर भवस्थान कहा गया है।
द्विचरम व त्रिचरम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ ॥ ३० ॥ शंका-द्विचरम व त्रिचरम समयों में उत्कृष्ट संक्लेशको किसलिये प्राप्त कराया ?
समाधान-बहुत द्रव्यका उत्कर्षण करानेके लिये उन समयों में उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त कराया गया है।
शंका-यदि ऐसा है तो उक्त दो समयोंको छोड़कर बहुत समय तक निरन्तर उस्कृष्ट संक्लेशको क्यों नहीं प्राप्त कराया गया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, इन दो समयोंको छोड़कर निरन्तर उत्कृष्ट संक्लेशके साथ बहुत काल तक रहना सम्भव नहीं है।
शंका-इस सूत्रको नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा संक्लेशावाससूत्रसे ही हो जाती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संक्लेशावाससूत्रसे जो नारक भवके
१ प्रतिषु · सकिलेस णीलो' इति पाठः । २ प्रतिषु णीलो ' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' एगसमए ', मप्रतौ ‘ए समए ' इति पाठः ।
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१०४ - छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, ३, ४, ३१. समयम्मि पत्तुक्कस्ससंकिलसपडिसहफलत्तादो। किमढें तस्स तत्थ पडिसेहो कीरदे ? ओकड्डिदे वि दव्वविणासाभावादो । हेट्ठा पुण सव्वत्थ समयाविरोहेण उक्कस्ससंकिलेसो चेव, अण्णहा संकिलेसावाससुत्तस्स विहलत्तप्पसंगादो।
चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदों ॥ ३१ ॥
किमटुं चरिम-दुचरिमसमएसु जोगं णीदों ? उक्कस्सजोगेण बहुदव्वसंगहढें । जदि एवं तो दोहि समएहि विणा उक्कस्सजोगेण णिरंतरं बहुकालं किण्ण परिणमाविदो ? ण एस दोसो, णिरंतरं तत्थ तियादिसमयपरिणामाभावादो । णारद्धव्वमिदं सुत्तं, जोगावासेण परूविद
मन्तिम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशका प्रसंग प्राप्त था उसका प्रतिषेध करना इस सूत्रका प्रयोजन है।
शंका-उत्कृष्ट संक्लेशका नरकभवके अन्तिम समयमें प्रतिषेध किसलिये किया जाता है?
समाधान- क्योंकि, वहां अपकर्षणके होनेपर भी द्रव्यका विनाश नहीं होता।
चरम समयके पहले तो सर्वत्र यथासमय उत्कृष्ट संक्लेश ही होता है, क्योंकि, ऐसा नहीं माननेपर संक्लेशावाससूत्रके निष्फल होनेका प्रसंग प्राप्त होता है ।
चरम और द्विचरम सयममें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ॥ ३१ ॥ शंका-चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको किसलिये प्राप्त कराया ?
समाधान-उत्कृष्ट योगसे बहुत द्रव्यका संग्रह करानेके लिये उक्त समयोंमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त कराया है।
शंका-यदि ऐसा है तो दो समयोंके सिवा निरन्तर बहुत काल तक उत्कृष्ट योगसे क्यों नहीं परिणमाया ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, निरन्तर उत्कृष्ट योगमें तीन आदि लमय तक परिणमन करते रहना सम्भव नहीं है।
शंका-इस सूत्रकी रचना नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, योगावाससूत्रसे इस
१ नोगुक्कोसं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमयम्मि। संपुण्णगुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्तं ॥ क.प्र.२-७८.
२ प्रतिषु णीलो' इति पाठः।
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१, २, १, ३२.] वेयणमहाहियारे बेयणदव्वविहाणे सामित्तं स्थत्तादो ? ण एस दोसो, संकिलेसस्सेव उक्कस्सजोगस्स कम्मट्ठिदिअभंतरे पडिसेहो णत्थि त्ति परूवणफलत्तादो। हेट्ठा सव्वत्थ समयाविरोहण उक्कस्सजोगो चेव, अण्णहा जोगावासस्स विहलत्तप्पसंगादो ।
चरिमसमयतब्भवत्थो जादो । तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सा ॥ ३२ ॥
किमट्ठमेत्येव उक्कस्ससामित्तं दिज्जदे ? ण, वत्तिहिदिअणुसारिसत्तिहिदीए अधियाए अभावादो कम्मट्टिदीए पढमसमयम्मि बद्धकम्मखंधाण उवरिमसमए अवठ्ठाणाभावादो । उवार पि जाणावरणस्स बंधो अत्थि त्ति तत्थुक्कस्ससामित्तं ण दादु जुत्तं, जे तेण विणा आगच्छमाणउववादजोगदव्वादो गुणिदकम्मंसियउदयगयगोवुच्छाए बहुत्तुवलंभादो । आउअबंधामिमुहचरिमसमए उक्कस्रासामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण एस दोसो, आउअबंधकाले वि तक्का.
सूत्रके अर्थका कथन हो जाता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संक्लेशके समान उत्कृष्ट योगका कर्मस्थितिके भीतर प्रतिषेध नहीं है, यह बतलाना इस सूत्रका प्रयोजन है।
नीचे सर्वत्र यथासमय उत्कृष्ट योग ही होता है, क्योंकि, ऐसा माने विना योगावाससूत्र के निष्फल होने का प्रसंग आता है।
चरम समयमें तद्भवस्थ हुआ। उस चरम समयमें तद्भवस्थ हुए जीवके ज्ञानावरणकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ।। ३२॥
__शंका - यहीं नारकभवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व किसलिये दिया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, व्यक्तिस्थितिका अनुसरण करनेवाली ही शक्तिस्थिति होती है, उससे अधिक नहीं होती। इसका कारण यह है कि कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बंधे हुए कर्मस्कन्धोंका कर्मस्थितिसे आगेके समयों में अवस्थान नहीं पाया जाता।
आगे भी ज्ञानावरण कर्मका बन्ध होता है इसलिये यदि कोई कहे कि वहां उत्कृष्ट स्वामित्व देना योग्य है सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि, उसके विना उपपाद योगकै निमिससे प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे गुणितकर्माशिकके उदयको प्राप्त हुआ गोपुच्छाका द्रव्य बहुत पाया जाता है।
शंका-आयुबन्धके अमिमुख हुए जीवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक तो आयुबन्धके कालमें भी
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११० ]
छक्खंड गमे यणाखंड
[ ४, २, ४, १२.
लियणाणावरणस्स बंधादो उदयगयगोवुच्छाए गुणिदकम्मंसियम्मि त्योवचुवलंभादो, आउवबंधकालम्मि जाददव्वसंचयादो' उवरिं बहुदव्वसंचयदंसणादो च ।
संपधि कम्मट्ठिदीए पढमसमयम्मि बद्धदव्वमुदयट्ठिदीए चेव उवलब्भदि, तस्स एगससयसंत्तिट्ठिदिविसेसादो । बिदियसमयसंचिददव्वमुदयादिदोसु ट्ठिदीसु चिट्ठदि, सत्तिट्ठिदिम्हि दोसमय से सत्तादो । एवं सव्वसमयपबद्धाणं अवट्ठाणपाओग्गट्ठिदीयो वत्तव्वाओ । ण च एस णियमा वि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसमयपबद्धाणमक्कमेण गुणिद-घोलमाणादिसु णिज्जरे|वलंभादो । संपधि चरिमसमयगुणिदकम्मंसियम्मि कम्मट्ठिदिपढमसमयपबद्धो उक्कड्डणाए ज्झीणो । बिदियसमयपबद्धो वि ज्झीणो । एवं कम्म ट्ठिदिपढमसमय पहुडि जाव तिण्णिवाससहस्त्राणि उवरि अब्भुस्सरिदूण बद्धसमयपबद्धो उक्कड्डणादो ज्झीणो, अइच्छ|वण-णिक्खेवाणभावादो । समयाहियतिण्णिवाससहस्साणि चडिदूण बद्धसमयपबद्ध उक्कड्डुदो झीणो, तिणिवाससहस्समेत्तआबाधमइच्छिण उवरिमएमट्ठिदीए णिखेवलंभादो |
तात्कालिक ज्ञानावरणके बन्धसे गुणितकर्माशिक के उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छा स्तोक पाई जाती है और दूसरे आयुबन्धके कालमें संचित हुए द्रव्यसे आगे बहुत द्रव्यका संचय देखा जाता है, इसलिये आयुबन्धके अभिमुख हुए जीवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व नहीं दिया गया है ।
कर्मस्थितिके प्रथम समय में बंधा हुआ द्रव्य उदयस्थिति में ही पाया जाता है, क्योंकि, उसकी शक्तिस्थिति एक समय शेष रहती है । कर्मस्थितिके द्वितीय समय में संचित हुआ द्रव्य उदयादि दो स्थितियोंमें पाया जाता है, क्योंकि, उसकी शक्तिस्थिति दो समय शेष रहती है। इस प्रकार सब समयप्रबद्ध की अवस्थानके योग्य स्थितियां कहनी चाहिये । और यह नियम भी नहीं है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण समयबद्धों की अक्रमसे गुणित और घोलमान आदि अवस्थाओंके होनेपर निर्जरा पाई जाती है । इसलिये यह निष्कर्ष निकला कि कर्मस्थितिका प्रथम संमयप्रबद्ध गुणितकर्माशिक जीवके अन्तिम समयमें उत्कर्षणके अयोग्य है । द्वितीय समयप्रबद्ध भी उत्कर्षणके अयोग्य है । इस प्रकार कर्मस्थिति के प्रथम समय से लेकर तीन हजार वर्ष तक आगे जाकर बंधा हुआ समयप्रबद्ध भी उत्कर्षणके अयोग्य है, क्योंकि, इनकी अतिस्थापना और निक्षेप नहीं पाया जाता। किन्तु एक समय अधिक तीन हजार वर्ष आगे जाकर बंधा हुआ समयप्रबद्ध उत्कर्षणके अयोग्य नहीं है, क्योंकि, तीन हजार वर्षे प्रमाण बाघाको अतिस्थापित करके आगेकी एक स्थिति में इसका निक्षेप पाया जाता है । दो
१ प्रतिषु ' जादवयादो' इति पाठः ।
२ काप्रतौ ' एगसमयस्स सचिट्ठिदि ' इति पाठः ।
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ar महाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ १११
४, २, ४, ३२. ] दुसमयाहियतिण्णिवाससहस्साणि उवरिमन्भुस्तरिय बद्धसमयपबद्धो वि उक्कड्डुणादो ण ज्झीणो, तिण्णिवाससहस्साणि अइच्छाविय उवरिमदोठिदीसु णिक्खेवदंसणादो । एवमवट्ठिदमइच्छावणं काढूण तिसमउत्तरादिकमेण णिक्खेवो चैव वढावेदव्वा जाव कम्मट्ठदिअन्यंतरे बंधिय समयाहियबंधावलियकालं गालिय द्विदसमयपबद्धो त्ति । अगलिदबंधावलियाणं णत्थि उक्कड्डुणा ओकड्डणा वा ।
जहा कम्मट्ठदिचरिमसमयम्मि ठाइदूण उक्कड्डुणपरिक्खा कदा तथा दुचरिमादिकम्मट्ठिदिपढमसमयपज्जवसाणसमयाणं णिरंभणं काऊण उक्कड्डणविहाणं वत्तव्वं । एवमेदेण विहाणेण संचिदुक्कस्सणाणावरणदव्वस्स उवसंहारो वुच्चदे । को उवसंहारो णाम १ कम्महिदिआदिसमय पहुड जाव चरिमसमओ त्ति ताव एत्थ बद्धसमयपबद्धाणं सव्वेर्सि पादेक्कं वा पमाणपरिक्खा उवसंहारो णाम । तत्थ तिण्णि अणियोगद्दाराणि संचयाणुगमो भागहारपमाणाणुगमो समयपबद्धपमाणाणुगमो चेदि । तत्थ संचयाणुगमे तिण्णि अणिओगद्दाराणि परूवणा पमाणं अप्पाबहुअं चेदि । परूवणाए अस्थि कम्मट्ठिदिआदिसमय संचिददव्वं ।
समय अधिक तीन हजार वर्ष आगे जाकर बंधा हुआ समयप्रबद्ध भी उत्कर्षणके अयोग्य नहीं है, क्योंकि, तीन हजार वर्षको अतिस्थापित करके आगेकी दो स्थितियों में इसका निक्षेप देखा जाता है । इस प्रकार अतिस्थापनाको अवस्थित करके तीन समय आदिके क्रमसे कर्मस्थितिके भीतर बांधकर एक समय अधिक बन्धावलिको गलाकर स्थित हुए समयप्रबद्ध के प्राप्त होने तक निक्षेप ही बढ़ाना चाहिये । किन्तु अगलित बन्धावलियोंका न तो उत्कर्षण ही होता है और न अपकर्षण ही ।
इस तरह जिस प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें ठहरा कर उत्कर्षणका विचार किया है उसी प्रकार कर्मस्थितिके द्विचरम समयसे लेकर प्रथम समय तक के समयोंको विवक्षित करके उत्कर्षणविधिका कथन करना चाहिये ।
इस प्रकार इस विधि से संचित हुए उत्कृष्ट ज्ञानावरणके द्रव्यके उपसंहारका कथन करते हैं
--
शंका - उपसंहार किसे कहते हैं ?
समाधान - - कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक के इन समयोंमें बांधे गये सब समयप्रबद्धों के अथवा प्रत्येकके प्रमाणकी परीक्षाका नाम उपसंहार है । इसके तीन अनुयोगद्वार हैं- संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और समयप्रबद्धप्रमाणानुगम | उनमेंसे संचयानुगममें तीन अनुयोगद्वार हैं- प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व | प्ररूपणाकी अपेक्षा कर्मस्थितिके प्रथम समय में संचित द्रव्य है । द्वितीय समयमें
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११२] छक्खंडागमे बेयणाखंड
[ ४, २, ४, १२. विदियसमयसंचिददव्वं पि अत्थि । तदियसमयसंचिददव्वं पि अस्थि । एवं णेदव्वं जाव कम्मट्टिदिचरिमसमओ त्ति । एवं परूवणा गदा ।
कम्मद्विदिआदिसमयपबद्धस्स हेरइयचरिमसमए अणता परमाणवो। एवं सव्वत्थ वत्तव्वं । पमाणपरूवणा गदा ।
कम्मट्ठिदिआदिसमयसंचओ थोवो । चरिमसमयसंचओ असंखेज्जगुणो । को गुणमारो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं पुरदो भणिस्सामो । अपढम-अचरिमसमयसंचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? किंचूणदिवड्डगुणहाणीओ । एत्थ वि कारणं पुरदो भणिस्सामो । अचरिमसमयसंचओ विसेसाहिओ । अपढमसमयसंचओ विसेसाहिओ। कम्महिदिसंचओ विसेसाहिओ । कम्मढिदिसव्वदव्वसंदिट्ठी एसा३३८८ १६४४ ७७२ ३३६ ११८ १८०४
३७६
। १३८ ४०५० १९८० ९४० ४२० १६० ४४४४ २१७२ १०३६ ४६८ ४८६० २३८० ११४० ५२० २१० ५३०८ २६०४ १२५२ ५७६ | २३८ ५७८८ २८४४ १३७२ ६३६ ६३०० ३१०० | १५०० ।
८५२
१८४
| ३००
एवं संचयाणुगमो समत्तो ।
संचित द्रव्य भी है। तृतीय समयमें संचित द्रव्य भी है । इस प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई।
___ जो समयप्रबद्ध कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बंधता है उसके नारक भयके अन्तिम समयमें अनन्त परमाणु हैं। इसी प्रकार सर्वत्र कहना चाहिये। प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
कर्मस्थितिके प्रथम समयका संचय स्तोक है। उससे अन्तिम समयका संचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार अंगुलका असंख्यातवां भाग है। इसका कारण आगे कहेंगे। अप्रथम-अचरम समयका संचय उससे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? गुणकार कुछ कम डेढ़ गुणहानियां है। इसका भी कारण आगे कहेंगे। अचरम समय सम्बन्धी संचय उससे विशेष अधिक है। अप्रथम समय सम्बन्धी संचय उससे विशेष अधिक है। कर्मस्थिति सम्बन्धी संचय उससे विशेष अधिक है। कर्मस्थितिके सब द्रव्यकी संरष्टि ग्रह है (मूलमें देखिये)। इस प्रकार संचयानुगम समाप्त हुआ।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[१६. भागहारपमाणाणुगमो वुच्चदे । तं जहा- कम्मट्टिदिआदिसमयसंचिदस्स अंगुलस्स . असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ भागहारो होदि । कधमेदं णन्चदे ? कम्मट्ठिदिआदिसमयसमयपबद्धस्स सव्वुक्कस्ससंचओ मिच्छादिट्ठिणा सव्वसंकिलिट्टेण तिण्णिवाससहस्साणि आबाध कादूण आबाधूणतीसकोडाकोडीणं पदेसरचणं कुणमाणेण चरिमट्ठिदीए णिसित्तदव्वमेत्तो त्ति पाहुडसुत्तम्मि परविदत्तादो। तं जहा- कसायपाहुडे टिदिअंतियो णाम अत्थाहियारो । तस्स तिण्णि अणियोगद्दाराणि - समुक्कित्तणा सामित्तमप्पाबहुगं चेदि । तत्थ समुक्कित्तणाए अत्थि उक्कस्सटिदिपत्तयं णिसेयहिदिपत्तयं अद्धाणिसेयढिदिपत्तयं उदयहिदिपतयं चेदि । तत्थ जो समयपबद्धो कम्मट्टिदिकालमच्छिदण णिल्लेविज्जमाणो तस्स पोग्गलक्खंधाणमुदयविदिपत्ताणमग्गद्विदिपत्तयमिदि सण्णा । जं कम्मं जिस्से ठिदीए णिसित्तं तमोकड्डुक्कड्डणाहि हेट्ठिम-उवरिमहिदीणं गंतूण पुणो ओकड्डुक्कड्डणवसेण ताए चेव हिदीए होदण जहाणिसित्तेहि सह उदए दिस्सदि तण्णिसेगट्टिदिपत्तयं णाम । जं कम्मं जिस्से हिदीए णिसित्तमणोकड्डिदमणुकड्डिदं च होदण तिस्से चेव हिदीए उदए दिस्सदि तमद्धाणिसेगहिदि
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अब भागहारप्रमाणानुगमका कथन करते हैं । यथा-कर्मस्थितिके प्रथम समयमें संचित द्रव्यका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियोंके जितने समय हैं उतना है।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बंधे हुए समयप्रबद्धका सबसे उत्कृष्ट संचय सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टिके द्वारा तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधा करके आवाधासे हीन तीस कोड़ाकोड़ियोंकी प्रदेशरचना करते हुए चरम स्थितिमें निषिक्त द्रव्य प्रमाण है, ऐसा प्राभृतसूत्रमें कहा गया है। यथा- कषायप्राभृतमें स्थित्यन्तिक नामक एक अर्थाधिकार है। उसके तीन अनुयोगद्वार हैं- समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उनमेंसे समुत्कीर्तना अधिकार में उत्कृष्टस्थितिप्राप्त, निषेकस्थितिप्राप्त अद्धानिकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका निर्देश किया है। उनमें जो समयप्रबद्ध कर्मस्थितिकाल तक रहकर निर्जीर्ण होनेवाला है उसके उदयस्थितिको प्राप्त हुए पुद्गलस्कन्धोंकी अग्रस्थितिप्राप्त संज्ञा है। जो कर्म जिस स्थितिमें निषिक्त है वह अपकर्षण और उत्कर्षण द्वारा अधस्तन व उपरिम स्थितिको प्राप्त होकर फिरसे अपकर्षण व उत्कर्षण द्वारा उसी स्थितिको प्राप्त होकर यथानिषिक्त परमाणुओंके साथ उदयमें दिखता है वह निषेकस्थितिप्राप्त कहलाता है। जो कर्म जिस स्थितिमें निषिक्त होकर अपकर्षण व उत्कर्षणके बिना उसी स्थितिमें उदयमें दिखता है वह अद्धानिषेकस्थितिप्राप्त कहलाता है। तथा छ. वे. १५
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११४ ] छक्खंडागमे वेयणांखड
[४, २, ४, ३२. पत्तयं णाम । कम्मं जत्थ वा तत्थ वा उदए दिस्सदि तमुदयविदिपत्तयं णाम । तत्थ मिच्छत्तस्स अग्गद्विदिपत्त्याक्को वा दो वा परमाणू । एवं जावुक्कस्सेण सण्णिपंचिंदियपज्जत्तेण सब्द संकिलिटेण क-महिदिचरिमसनए णिसित्तमेत्तमिदि कसायपाहुडे वुत्तं ।
एगसमयपबद्धस्स णिसभरचणाए अणवगयाए चरिमणिसेगपमाणं ण णव्वदि त्ति तप्पमाणणिण्णयजणगट्टमेगसमयपबद्धस्स ताव णिसेगपरूवणा कीरदे । तत्थ छअणिओगद्दाराणि -- परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागो अप्पाबहुगं चेदि । सण्णिमिच्छादिट्ठिपज्जत्त-सव्वसंकिलिट्टेण बज्झमाणमिच्छत्तस्स ताव पदेसरचणाए परूवणा कीरदे । तं जहासत्तवाससहस्साणि आबा, मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं अत्थि, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं पि अस्थि । एवं णेदव्वं जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिचरिमसमओ त्ति। परूवणा गदा।
पढमाए हिदीए जे णिसित्ता परमाणू ते अणंता । एवं णेदव्वं जावुक्कस्सहिदि त्ति । पमाणं गदं ।
जो कर्म जहां तहां उदयमें देखा जाता है वह उदयस्थितिप्राप्त कहा जाता है। उनसे मिथ्यात्व कर्मका अग्रस्थितिको प्राप्त हुआ द्रव्य एक अथवा दो परमाणु होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे सर्वसंक्लिष्ट संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक द्वारा कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें जितना द्रव्य निषिक्त होता है उतना होता है, ऐसा कषायप्राभृतमें कहा है। (इससे जाना जाता है कि उक्त भागहार अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।)
एक समयप्रबद्धकी निषेकरचनाके अज्ञात होनेपर चूंकि अन्तिम निषेकका प्रमाण नहीं जाना जा सकता है अतः उसके प्रमाणका निर्णय करानेके लिये एक समयप्रबद्धके निषकोंकी प्ररूपणा करते हैं। उसमें छह अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अव. हार, भागाभाग और अल्पबहुत्व। उसमें भी सर्वप्रथम संशी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त सर्वसंक्लिष्ट जीवके द्वारा बांधे जानेवाले मिथ्यात्व कर्मकी प्रदेशरचनाको प्ररूपणा करते हैं। यथा- सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निषिक्त होता है वह है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त होता है वह भी है । इस प्रकार सत्तर कोड़ाकोड़ि सागरोपमके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये। प्ररूपणा समाप्त हुई।
प्रथम स्थितिमें जो परमाणु निषिक्त होते हैं वे अनन्त हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये । प्रमाणको प्ररूपणा समाप्त हुई।
१ अप्रतौ · कदा' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
सेडिपरूवणा दुविहा- अणतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । अणतरोवणिधाए सत्तवाससहस्साणि आबाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसगं णिसित्तं तं बहुगं । ज बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं । एवं विसेसहीणकमेण णेदव्वं जाव कम्मद्विदिचरिमसमओ त्ति । णिसेगभागहारेण पढमणिसेगे भागे हिदे जं लद्धं तत्तियमेत्तदव्वं हीयमाणं गच्छदि जाव णिसेगभागहारस्स अद्धं गदं त्ति । तत्थ दुगुणहाणी होदि । एवं सव्वगुणहाणीणं वत्तव्वं । णवीर एत्थ अवट्ठिदभागहारो रूवूणभागहारो रूवाहियभागहारो छेदभागहारो त्ति एदे चत्तारि वि भागहारा जाणिय वत्तव्वा । एवमणंतरोवणिधा गदा ।
परंपरावणिधाए पढमसमयणिसित्तपदेसग्गदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहाणी । एवं णेदव्वं जाव चरिभदुगुणहाणि त्ति । एत्थ तिण्णि अणिओगद्दाराणि
श्रेणिकी प्ररूपणा दो प्रकारकी है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा सात हजार वर्ष आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाग्न प्रथप समयमें निषिक्त होता है वह बहुत है। जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त होता है वह विशेष हीन है । इस प्रकार विशेष हीनके क्रमसे कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । निषेकभागहारका प्रथम निषेकमें भाग देनेपर जो द्रव्य प्राप्त हो उतना द्रव्य प्रत्येक निषेकके प्रति हीन होता हुआ निषेकभागहारका अर्ध भाग व्यतीत होने तक जाता है। वहां दुगुणी हानि होती है। इसी प्रकार सब गुणहानियोंका कथन करना चाहिये। विशेष इतना है कि यहां अवस्थित भागहार, रूपान भागहार, रूपाधिक भागहार और छेद भागहार इन चारों ही भागहारोंको जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई ।
विशेषार्थ- उपनिधाका अर्थ मार्गणा है इसलिये अनन्तरोपनिधाका अर्थ हुआ अव्यवहित समीपके स्थानका विचार करना। प्रत्येक गुणहानिके जितने निषेक होते हैं उनमेंसे प्रथम निषेकसे दूसरे निषेकमें और दूसरे निषेकसे तीसरे निषेकमें कितना कितना द्रव्य कम होता जाता है, इसका यहां विचार किया गया है। नियम यह है कि प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकके द्रव्यसे अगली गुणहानिके प्रथम निषेकका द्रव्य आधा रह जाता
और यह क्रम अन्तिम गुणहानि तक चालू रहता है । इसलिये प्रत्येक गुणहानिमें प्रथम निषेकले दूसरे निषेकमें जितना द्रव्य घटता है उतना ही उत्तरोत्तर उस गुणहानिके अन्तिम निषेक तक घटता जाता है। प्रथम गुणहानिके प्रथाः निषेकसे दूसरे निषेकमें कितना द्रव्य घटता है, इसका निर्देश मूलमें किया ही है।
परम्परोपनिधाकी अपेक्षा प्रथम समयमें निषिक्त प्रदेशाग्रसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर दुगुणी हानि होती है। इस प्रकार अन्तिम दुगुणहानि तक ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-परम्परोपनिधामें एक गुणहानिसे दूसरी गुणहनिमें कितना द्रव्य कम
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११६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ३२. परूवणा पमाणमप्पाबहुगं चेदि । अत्थि एगेगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि, णाणापदेसगुणहाणिसलागाओ च अस्थि । परूवणा गदा ।
एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । णाणापदेसदुगुणहाणिट्ठाणंतरसलागाओ पलिदोवमपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो पलिदोवमछेदणएहितो थोवाओ पलिदोवमपढमवग्गमूलच्छेदणएहिंतो पुण बहुआओ। कधमेदं णव्वदे १ णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय बिग करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलसमुप्पत्तीदो। एदं पि कुदो णव्वदे ? बाहिरवग्गणाए पदेसविरइयसुत्तादो। तं जहातत्थ पदेसविरइयअत्थाहियारे छअणिओगद्दाराणि - जहणिया अग्गद्विदी, अग्गट्ठिदिविसेसो, अग्गहिदिट्ठाणाणि, उक्कस्सिया अग्गहिदी, भागाभागं, अप्पाबहुगं चेदि । तत्थ जमप्पाबहुअं
हो जाता है, इसका विचार किया गया है। प्रत्येक गुणहानिमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण निषेक होते हैं, इसलिये इतने स्थान जानेपर दूनी हानि हो जाती है। यह बतलाना उक्त कथनका तात्पर्य है।।
___ यहां तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । एक एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर हैं और नानाप्रदेशगुणहानिशलाकायें भी है । प्ररूपणा समाप्त हुई।
एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथमवर्गमूल प्रमाण है। नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तरशलाकायें पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं जो पल्योपमके अर्धच्छेदोंसे तो स्तोक हैं, पर पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके भर्धच्छेदोंसे बहुत हैं।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान--क्योंकि, नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दुगुणित करनेके पश्चात् उनको परस्पर गुणित करनेपर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंकी उत्पत्ति होती है।
शंका-यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-बाह्य वर्गणामें प्रदेशविरचित सूत्रसे यह जाना जाता है । यथा-वहां प्रदेशविरचित अर्थाधिकारमें छह अनुयोगद्वार बतलाये हैं- जघन्य अग्रस्थिति, अग्रस्थितिविशेष, अग्रस्थितिस्थान, उत्कृष्ट अग्रस्थिति, भागाभाग और अल्पबहुत्व । उनमें
१ काप्रतौ ' णाणापदेसगुणहाणि ' इति पाठः।
२ ध. अ. प. १३०५. ८५.
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्यावहाणे सामित्तं
। ११७ तं तिविहं- जहण्णपदे उक्कस्सपदे जहण्णुक्कस्सपदे चेदि । तत्थ जहण्णुक्कस्सपदेसअप्पाबहुगे भण्णमाणे सव्वत्थोवं चरिमाए हिदीए पदेसग्गं [९J। चरिमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पदेसग्गमसंखेज्जगुण १००। पढमाए ठिदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं [५१२ । अपढमअचरिमगुणहाणिट्ठाणंतरे पदेसग्गमसंखेज्जगुणं त्ति भणिदं |५७७९ । संपधि एत्थ अप्पाबहुगे चरिमगुणहाणिदव्वस्सुवरि पढमणिसेगो असंखेज्जगुणो त्ति भाणदं । तत्थ चरिमगुणहाणिदव्वमसंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणचरिमणिसेगं । तस्स संदिट्ठी | ९ | १: ।। पढमणिसेगो पुण किंचूणण्णोण्णभत्थरासिमेत्तचरिमणिसेगो | ९ । ५१२ || असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमत्तदिवडगुणहाणीहिंतो किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासिस्स असंखेज्जगुणत्तण्णहाणुववत्तीदो णव्वदे णाणागुणहाणिसलागाओ पढमवग्गमूलच्छेदणएहितो बहुगाओ त्ति । बहुगीओ होतीयो विसेसाहियाओ चेव, ण दुगुणाओ; अण्णोण्णब्भत्थरासिस्स पलिदोवमपमाणत्तप्पसंगादो । पलिदोवमवग्गसलागछेदणयमादि कादूण जाव पलिदोवमबिदियवग्गमूलच्छेदणयपज्जवसाणाओ
जो अल्पबहुत्व है वह तीन प्रकारका बतलाया है-जघन्य पद, उत्कृष्ट पद और जघन्यउत्कृष्ट पद । उनमेंसे जघन्य-उत्कृष्टप्रदेशअल्पबहुत्वका कथन करते समय “ अन्तिम स्थितिमें प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है ९। इससे अन्तिम गुणहानिस्थानान्तरमें प्रदेशात असंख्यातगुणा है १०० । इससे प्रथम स्थितिमें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है ५१२ । इससे अप्रथम-अचरम गुणहानिस्थानान्तरमें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है ५७७९" ऐसा कहा है । इस प्रकार इस अल्पबहुत्वमें अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका निर्देश करके उससे प्रथम निषेकका द्रव्य असंख्यातगुणा है, ऐसा कहा है। उसमें अन्तिम गुणहानिका द्रव्य पल्यो. पमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण अन्तिम निषेकोंका जितना द्रव्य हो उतना है। उसकी संदृष्टि - २x२ । और प्रथम निषेक कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र अन्तिम निषेकोंका जितना प्रमाण हो उतना है x ५१२ । पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलों प्रमाण डेढ़ गुणहानियोंसे चूंकि कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यातगुणी अन्यथा बन नहीं सकती, अतः इसीसे जाना जाता है कि नाना गुणहानिशलाकायें पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके अधच्छोसे बहुत है। बहुत होती हुई भी वे प्रथम वर्गमूलके अधेच्छदासे विशेष अधिक ही हैं, दुगुणी नहीं हैं; क्योंकि, उन्हें दूनी मान लेने पर अन्योन्याभ्यस्त राशिके पल्योपमके प्रमाण प्राप्त होनेका प्रसंग आता है । पल्योपमकी वर्गशलाकाओंके अर्धच्छेदसे लेकर पल्योपमके द्वितीय वर्गमूलके अर्धच्छेद पर्यन्त सब अर्धच्छेदोंकी शलाकाओंको
.१३१.
१ . अ. प. १३०७ सू. १०५. २ धं. अ. प.१३०९ सू. १३०. ३ ध. अ. प. १३०९ ४ घ. अ. प. १३०९ सू. १३२. ५ध. अ. प. १३०९ सू. १३३.
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३२.
११८ ] सव्वद्धछेदणयसलागाओ मेलाविय पलिदोवमपढमवग्गमूलच्छेदणएस पक्खित्ते णाणागुणहाणि - सलागाणं पमाणं होदि । कधमेदासिं मेलावणं कीरदे ? १लिदोवमवग्गसलागपमाणवग्गमार्दि कादूण जाव पलिदोवमविदियवग्गमूले त्ति ताव एदेसिं वग्गाणं सलागाओ विरलिय बिगं करिय अण्णोण्णन्भत्थरासिणा पलिदोवम पढमवग्गमूलछेदणए ओवष्टिय लद्धं रूवूणभागहारेण गुणिदे इच्छिदद्धच्छेदण यसलागाणं मेलाओ होदि । णाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमवग्गसलागछेदणएहि ऊणपलिदोवमछेदणयमेत्ताओ चैव होंति, ऊणा अहिया वा ण होंति त्ति कथं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो | एवं मोहणीयस्स णाणागुणहाणि सलागाणं पमाणपरूवणा कदा |
मिलाकर पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदों में मिलानेपर नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण होता है ।
शंका- इनको कैसे मिलाया जाता है ?
समाधान- - पल्योपमकी वर्गशलाका प्रमाण वर्गसे लेकर पल्योपमके द्वितीय वर्गमूल तक इन वर्गोंकी शलाकाओंका विरलन कर दुगुणा करके अन्योन्याभ्यस्त राशि से पस्योपमके प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसे रूपोनभागहारसे गुणित करनेपर इच्छित अर्धच्छेदशलाका औंका योग होता है ।
शंका - नानागुणहानिशलाकायें पल्योपमकी वर्गशलाकाओंके अर्धच्छेदोंसे हीन पल्योपमके जितने अर्धच्छेद हों इतनी ही हैं, कम व अधिक नहीं है; यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- - यह अविरूद्ध आचार्यके वचनसे जाना जाता है ।
इस प्रकार मोहनीयकी नानागुणहानिशलाकाओंके प्रमाणकी प्ररूपणा की ।
विशेषार्थ – यहां परम्परोपनिधाके प्रसंगसे एक गुणहानिके निषेकोंकी संख्या बतलाकर मोहनीयकी नानागुणहानियोंका ठीक प्रमाण कितना है, यह युक्तिपूर्वक सिद्ध करके बतलाया गया है । साधारणतः मोहनीयकी गुणहानिशलाकायै पत्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण मानी जाती हैं। पर इससे वास्तविक संख्या ज्ञात नहीं होती । इसलिये इस संख्याका ठीक ज्ञान करानेके लिये बतलाया है कि यह संख्या पल्योपम के अर्धच्छेदोंसे तो कम है पर पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंसे अधिक है । इतना क्यों है, इसी बातको सिद्ध करनेके लिये युक्ति दी गई है । युक्ति वर्गणाखण्ड के प्रदेशविरचित अल्पबहुत्वके आधारसे दी गई है। वहां बतलाया है कि अन्तिम गुणहानिके समूचे द्रव्यसे प्रथम गुणहानि के प्रथम निषेकका द्रव्य असंख्यातगुणा है । यहां तीन बातें ज्ञातव्य हैं - अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका प्रमाण, प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकके द्रव्यका प्रमाण और इन दोनोंके तारतम्यका वास्तविक ज्ञान एक गुणहानिमें पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण निषेक होते हैं । साधारणतः इन निषेकों के
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
संपधि सत्तरूवाणि विरलिय मोहणीयणाणागुणहाणिसलागाओ समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दससागरोवमकोडाकोडीणं गुणहाणिसलागाओ पलिदोवमपढमवग्गमूलादो हेट्ठा तदियछट्ठ-णव-बारसम-पण्णारसमादितदियादि-टिवुत्तरवग्गाणमद्धछेदणयसमासमेत्तीओ पावेंति । तत्थ तिण्णिरूवधरिददव्वच्छेदणयाणं समासे कदे तीससागरोवमकोडाकोडिट्ठिदिणाणावरणीयस्स गुणहाणिसलागाओ बिदिय-तदिय पंचम छट्ठम-णवमादि-दो दोवग्गाणमेगंतरिदाणमद्धछेदणयसमासमेत्तीओ हत्ति ।
एवं दंसणावरणीय-वेयणीय-अंतराइयाणं वत्तव्वं, णाणावरणीएण समाणविदित्तादो । दोरूवधरिदसमासो णामा-गोदाणं णाणागुणहाणिसलागाओ होति, वीससागरोवमकोडाकोडि
प्रमाणको अन्तिम निषेकके द्रव्यसे गुणाकर देनेपर अन्तिम गुणहानिका द्रव्य होता है। यथार्थतः इसमें, अन्तिम गुणहानिके प्रचय द्रव्यका जितना प्रमाण प्राप्त होगा, उतना और मिलाना पड़ेगा तब अन्तिम गुणहानिका समस्त द्रव्य प्राप्त होगा। यह तो अन्तिम गुणहानिका द्रव्य है। प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकका द्रव्य अन्तिम निषेकके द्रव्यको नानागुणहानिशलाकाओंकी कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे गुणा करनेपर प्राप्त होता है । यह प्रथम निषेकका द्रव्य है। जैसा कि प्रदेशविरचित अल्पबहुत्वसे ज्ञात होता है कि अन्तिम गुणहानिके द्रव्यसे प्रथम निषेकका द्रव्य असंख्यातगुणा है, यह बात तभी बन सकती है जब कि डेढ़गुणहानिगुणित पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलके प्रमाणसे नाना गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यातगुणी मान ली जाती है । यतः यह असंख्यातगुणी है, इससे ज्ञात होता है कि नानागुणहानिशलाकायें पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंसे साधिक हैं ।
अब सात रूपोंका विरलन करके मोहनीयकी नानागुणहानिशलाकाओंको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति दस कोड़ाकोड़ि सागरोपोंकी गुणहानिशलाकायें प्राप्त होती हैं जो पल्योपमके प्रथम वर्गमूलसे नीचे तीसरे, छठे, नौवें, बारहवें व पन्द्रहवें आदि इस प्रकार तीसरेसे लेकर उत्तरोत्तर तीन अधिक वर्गोंके अर्धच्छेदोंके योग रूप होती हैं। उनमेंसे तीन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यके अर्धच्छेदोंका योग करनेपर तीस कोडाकोड़ि सागरोपम प्रमाण स्थितिवाले ज्ञानावरणीय कर्मकी गुणहानिशलाकायें दूसरा, तीसरा, पांचवां, छठा व आठवां नौवां आदि एकान्तरित दो दो वर्गोंके अर्धच्छेदोंके योग मात्र होती है।
इसी प्रकार दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मोकी नाना गुणहानिशलाकायें कहनी चाहिये, क्योंकि, ज्ञानावरणीयके समान उनकी स्थिति होती है। दो दो अंकोंके प्रति प्राप्त नानागुणहानिशलाकाओंका जितना योग हो उतनी नाम कर्मकी नानागुणहानिशलाकायें होती हैं, क्योंकि, उनकी स्थिति बीस कोड़ाकोडि
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१२.०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४ ३२. हिदित्तादो । एगरूवधरिदस्स संखेज्जदिभागो आउअस्स णाणागुणहाणिसलागाओ । चदुरूवधरिददव्वसमासो चदुकसायणाणागुणहाणिसलागाओ होति । कारणं सुगमं । एवं पलिदोवमहिदीणं णाणागुणहाणिसलागाओ तेरासियकमेण उप्पादेदव्वाओ।
णाणावरणीयस्स अण्णोण्णब्मत्थरासीदो दिवड्डगुणहाणीओ असंखेजगुणाओ ति [एदम्हादो, उवरि ] परूविदपदेसविरइयअप्पाबहुगादो च णव्वदे जहा णाणावरणीयणाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमबिदियवग्गमूलद्धछेदणएहिंतो विसेसाहियाओ त्ति । तं जहासव्वत्थोवो चरिमणिसेगी। पढमाणसेगो असंखेज्जगुणो । चरिमगुणहाणिदव्वमसंखेज्जगुणमिदि । एवं पदेसविरइयअप्पाबहुगं । एदाहि णाणागुणहाणिसलागाहि सग-सगकम्मट्ठिदिमोवट्टिदे गुणहाणिपमाण सव्वकम्मेसु संखाए उवगदसमभावमुप्पज्जदे।
सव्वत्थोवाओ आउअस्स णाणागुणहाणिसलागाओ । णामा-गोदाणं संखेज्जगुणाओ । णाण-दसणावरणीय-अंतराइयाणं गुणहाणिसलागाओ विसेसाहियाओ । मोहणीयगुणहाणि
सागरोपम प्रमाण है। एक अंकके प्रति प्राप्त राशिके संख्यातवें भाग प्रमाण आयु कर्मकी नानागुणहानिशलाकायें हैं। चार अंकोंके प्रति प्राप्त राशिका जितना योग हो उतनी चार कषायोंकी नानागुणहानिशलाकायें होती हैं। इसका कारण सुगम है। इसी प्रकार पल्योगम मात्र स्थितिवाले कर्मोंकी नानागुणहानिशलाकाओंको त्रैराशिक क्रमसे उत्पन्न कराना चाहिये।
झानावरणीयकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे डेढ़ गुणहानियां असंख्यातगुणी हैं, इसखे और आगे कहे गये प्रदेशविरचित अल्पबहुत्वसे जाना जाता है कि ज्ञानावरणीयकी नानागुणहानिशलाकायें पल्योपमके द्वितीय वर्गमूलके अर्धच्छेदोंसे विशेष अधिक हैं। यथा- "अन्तिम निषेक सबसे स्तोक है। उससे प्रथम निषेक असंख्यातगुणा है । उससे अन्तिम गुणहानिका द्रव्य असंख्यातगुणा है ।" यह प्रदेशविरचित अल्पबहुत्व है।
इन नानागुणहानिशलाकाओंसे अपने अपने कर्मकी स्थितिको अपवर्तित करने पर सब कर्मों में संख्यासे समभावको प्राप्त गुणहानिका प्रमाण अर्थात् गुणहानिके कालका प्रमाण उत्पन्न होता है।
आयुकर्मकी नानागुणहानिशलाकायें सबसे स्तोक हैं। उनसे नाम व गोत्र कर्मकी नानागुणहानिशलाकायें संख्यातगुणी हैं। उनसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तरायकी गुणहानिशलाकायें विशेष अधिक हैं। उनसे मोहनीयकी गुणहानिशलाकायें संख्यातगुणी हैं।
प्रतिषु ति य परूविद-इति पाठः।
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं सलागाओ संखेज्जगुणाओ । कारणं सुगमं ।
__ सव्वत्थोवो आउअस्स अण्णोण्णब्भत्थरासी । णामा-गोदाणमण्णोण्णन्भत्थरासी असंखेज्जगुणो । तिसियाणमण्णोण्णब्भत्थरासी अण्णोण्णेण समो होदूण असंखेज्जगुणो। मोहपीयस्स अण्णोण्णब्भत्थरासी असंखेज्जगुणो । एवं पमाणपरूवणा गदा। .
सव्वत्थोवाओ सव्वेसिं कम्माणं णाणागुणहाणिसलागाओ । एगपदेसगुणहागिट्टाणंतरम संखेज्जगुण । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । अप्पाबहुगं गदं ।
२८८ ३२० ३५२ ३८४
१४४ १६० १७६
१९२
२०८ २२४ २४०
umar or mar
४४८ ४८० ५१२
१२०
२५६
१२८
एदिस्से संदिट्ठीए विण्णासकमो ताव उच्चदे । तं जहा- तेसहि-सदमेत्तसमयपषद्धो
इसका कारण सुगम है।
आयु कर्मकी अन्योन्याभ्यस्त राशि सबसे स्तोक है। उससे नाम व गोत्रकी अन्योन्यभ्यस्त राशि असंख्यातगुणी है। उससे तीस कोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थितिवाले ज्ञानावरणीय आदिकी अन्योन्याभ्यस्त राशि परस्पर समान हो करके असंख्यातगुणी है। उससे मोहनीयकी अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यातगुणी है । इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
सब कर्मोंकी नानागुणहानिशलाकायें सबसे स्तोक हैं। उनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्याता भा है जो पल्यापमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल मात्र है । अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
अब सर्वप्रथम इस संदृष्टि (मूल में देखिये ) का विन्यासक्रम कहते हैं। यथा..वे. १६.
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१२२ ]
छक्खंडागमे बेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३२.
ति गहिदो | ६३००| । कम्मट्ठदिदीहत्तमट्ठेतालीसं | ४८ । । छ णाणागुणहाणिसलागाओ । एदेहि अद्वेतालीसम्म ट्ठदिमोवाट्टेदे लद्धमट्ठ गुणहाणी होदि | ८ || गुणहाणीए दुगुणिदाए' णिसे गभागहारो होदि | १६ | | पंचसदाणि बारसुत्तराणि पढमणिसेगो । ५१२ || णिसेगभागहारेण पढमणिसेगे भागे हिदे लद्धं बत्तीस गोवुच्छविसेसो | ३२ || एदस्सद्धं विदियगुणहाणि - गोवुच्छविसेसो | १६ | | एदस्सद्धं तदियगुणहाणिगोवुच्छविसेस | ८ ! | एवं गुणहाणिं पडि अद्धद्धेण हीयमाणो गच्छदि जाव कम्मट्ठिदिचरिमगुणहाणि त्ति । अण्णाण्णव्भत्थरासी चउसकी ६४ || एवं संदिट्ठि ठविय संपहि अवहारो वुच्चद
मोहणीयस्स पढमट्ठिदिपदेसग्गेण समयपबद्धो केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जदि ? दिवङ्गुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा पढमगुणहाणिपढमणिसंग ठविय गुणहाणी गुणिदे गुणहाणिमेत्तपढमणिसेगा होंति | ५१२ | ८ | | पढमणिगादा बिदिय - णिसेगो एगगोवुच्छविसेसेण परिहीणो । तदिओ दोहि, चउत्थो तीहि परिहीणो | एवं गंतूण
यहां संदृष्टिमें समयप्रबद्धका प्रमाण तिरेसठ सौ ६३०० ग्रहण किया है । कर्मस्थितिकी दीर्घताका प्रमाण अड़तालीस ४८ है । नानागुणहानिशलाकायें छह हैं । इनसे ४८ समय प्रमाण कर्मस्थितिको अपवर्तित करनेपर लब्ध आठ समय प्रमाण एक गुणहानि होती है । गुणहानिको द्विगुणित करनेपर निषेकभागहारका प्रमाण १६ होता है । प्रथम निषेकका प्रमाण पांच सौ बारह ५१२ है । निषेकभागहारका प्रथम निषेकमें भाग देने पर लब्ध बत्तीस ३२ गोपुच्छविशेषका प्रमाण है । इससे आधा १६ द्वितीय गुणहानिका गोपुच्छ विशेष है । इससे आधा ८ तृतीय गुणहानिका गोपुच्छविशेष है । इस प्रकार कर्मस्थितिकी अन्तिम गुणहानि तक एक एक गुणहानि के प्रति गोपुच्छविशेष आधा आधा हीन होता हुआ चला जाता है । अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण चौंसठ ६४ है । इस प्रकार संदृष्टिको स्थापित कर अब अवहारकालको कहते हैं
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मोहनीयका एक समयप्रबद्ध उसके प्रथम स्थितिप्रदेशाग्र के द्वारा कितने कालसे अपहृत होता है ? डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरकालके द्वारा अपहृत होता है । यथाप्रथम गुणहानि के प्रथम निषेकको स्थापित कर गुणहानिसे अर्थात् एक गुणहानिके काल से गुणित करने पर गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेक होते ( ५१२ × ८ = ८ प्रथम निषेक ) हैं । प्रथम निषेककी अपेक्षा द्वितीय निषेक एक गोपुच्छविशेषसे हीन है । तृतीय निषेक दो गोपुच्छविशेषोंसे और चतुर्थ निषेक तीन गोपुच्छविशेषोंसे हीन है । इस प्रकार जाकर
१ अप्रतौ ' गुणहाणिदाए', आ-काप्रत्योः ' गुणिदाए ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' पंचमदाणि वारसुतरसदाणि ' इति पाठः ।
३ कामतौ ' एवं ' इति पाठः ।
४ अतौ ' कालादो ' इति पाठः ।
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ १२३ पढमगुणहाणिचरिमणिसेगो रूवूणगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसेहि ऊणो। तेण रूवूणगुणहाणिसंकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा अहिया होति । एदेसिमेगादिएगुत्तरवड्डीए रूवूणगुणहाणिमेत्तद्धाणगदगोवुच्छविसेसाणमवणयणं कस्सामो। तं जहा- एदेसिं मूलग्गसमासे कदे रूवूणगुणहाणिअद्धमेत्ता पढमणिसगदुभागा होति । पुणो ते दो दो एक्कदो कदे एगरूवचदुभागेणूणगुणहाणिचदुब्भागमेत्तपढमणिसेगा होति । पुणो एदेसु पढमणिसेगेसु गुणहाणिमेत्तपढमणिसेगेहिंतो अवणिदेसु गुणहाणितिण्णिचदुब्भागमेत्तपढमणिसेया चदुब्भागेणब्भहिया चेटुंति, गुणहाणीए किंचूणगुणहाणिचदुब्भागानावादो । तेसिमेसा संदिट्ठी ठवेदव्वा । ५१२ । ५१२ । ५१२।५१२।५१२।५१२।१२८ । पढमगुणहाणिदव्वे पढमणिसेगपमाणण कदे एत्तियं होदि । सेसगुणहाणिदव्वे वि अप्पप्पणो [पढम] णिसेयपमाणेण कदे एवं चेव होदि । तम्मि मेलाविदे चरिमगुणहाणिदव्वेणूणं पढमगुणहाणिदत्वमेत' होदि । पुणो चरिमगुणहाणिदवे पक्खित्ते पढम
प्रथम गुणहानिका अन्तिम निषेक एक कम गुणहानि प्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे हीन है। इसलिये प्रत्येक गुणहानिमें एक कम गुणहानिके संकलन प्रमाण गोपुच्छविशेष अधिक होते हैं। अब एकादि एकोत्तर वृद्धि रूप इन एक कम गुणहानि प्रमाण स्थानगत गोपुच्छविशेषोंका अपनयन करते हैं । यथा- मूलसे लेकर अब तकके इन गोपुच्छविशेषोंका जोड़ करनेपर एक कम गुणहानिके आधे भाग प्रमाण जो प्रथम निषेक हैं उनके आधे भाग प्रमाण होते हैं (५१२ ४.२ = ८९६) । पुनः उन दो दो भागोंको इकट्ठा करने पर एक चौथाई कम गुणहानिके चतुर्थ भाग मात्र प्रथम निषेक होते हैं [५१२४-१ = ५१२ ४ (-१) = ८९६ ।। फिर इन प्रथम निषेकोंको गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेकोमैसे कम करनेपर एक चतुर्थ भाग अधिक गुणहानिके तीन चतुर्थ भाग मात्र प्रथम निषेक शेष रहते हैं, क्योंकि, गुणहानिमें गुणहानिके कुछ कम एक चतुर्थ भागका अभाव है। उनकी यह संदृष्टि स्थापित करनी चाहिये- प्रथम गुण. हानिका द्रव्य ३२००, उसे प्रथम निषेकके प्रमाणसे विभाजित करनेपर वह इस शकलमें प्राप्त होता है-५१२, ५१२, ५१२, ५१२, ५१२,५१२, १२८। प्रथम गुणहानिके द्रव्यको प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर इतना होता है ।
.. शेष गुणहानियोंके द्रव्यको भी अपने अपने [प्रथम] निषेकके प्रमाणसे करनेपर इसी प्रकार ही होता है। उसको (सब गुणहानियों के द्रव्यको) मिलानेपर वह सब अन्तिम गुणहानिके द्रव्यसे हीन प्रथम गुणहानिका द्रव्य मात्र होता है (१६०० + ८५० + ४०० + २००+ १०० = ३१०० = ३२००-१००)। पुनः इसमें अन्तिम गुणहानिक द्रव्यको मिलानेपर प्रथम गुणहानिके द्रव्यके बराबर होता है। ३१०० + १०० = ३२०० प्रथम
१ प्रतिषु ' -६व्वेण ण पदमगुणहाणिदव्वमेते' इति पाठः।
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१२] ' छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ३२. गुणहाणिश्वमेतं होदि । चरिमगुणहाणिदव्वपक्खेवो किमढ़ कीरदे ? संपुण्णदिवड्डगुणहाणि. उप्पायणढें । तं पि कुदो ? अव्वुप्पण्णसाहुजणवुप्पायणटुं । तस्स संदिट्ठी। ५१२ । ५१२ । ५१२ । ५१२ । ५१२ । ५१२ । १२८ । पढमगुणहाणितिण्णिचउब्भागमेत्तपढमणिसेगेसु बिदियादिगुणहागिसमुप्पण्णगुणहाणितिपिणचदुब्भागमेत्तपढमाणसेगेसु पक्खिनेसु देिवड्डगुणहाणिमेत्तपढमणिसेया होंति, अवणिदपढमणिसेयद्धत्तादो । दिवड्वगुणहाणीए पमाणं संदिट्ठीए पारस १२ । एदेण पढमणिसेगे गुणिदे समयपबद्धपमाणमात्तयं होदि |६१४४ ।।
खेत्तदो पढमणिसेगविक्खंभं दिवड्डगुणहाणिआयदखेत्तं होदि ! ।। जेण पढम
गुणहानिका द्रव्य ।
शंका-अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका प्रक्षेप किसलिये किया जाता है ?
समाधान-सम्पूर्ण डेढ़ गुणहानिको उत्पन्न कराने के लिये उसका प्रक्षेप किया गया है।
शंका-वह भी किसलिये ? समाधान-अव्युत्पन्न साधु जनोंको व्युत्पन्न कराने के लिये वैसा किया गया है। उसकी संदृष्टि- ५१२ + ५१२ + ५१२ + ५१२ + ५१२ + ५१२ + १२८ = ३२०० ।
प्रथम गुणहानिके तीन चतुर्थ भाग मात्र प्रथम निषेकोंमें द्वितीयादि गुणहानियोंके प्रथम गुणहानि रूपसे उत्पन्न हुए तीन चतुर्थ भाग मात्र प्रथम निषेकोंके मिलानेपर डेढ़ गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेक होते हैं, क्योंकि, प्रथम निषेकका अर्ध भाग इसमें कम किया गया है। संदृष्टिमें डेढ़ गुणहानिका प्रमाण बारह १२ है। इससे प्रथम निषेकको गुणित करनेपर समयप्रबद्धका प्रमाण इतना होता है- ५१२४ १२ = ६१४४।
विशेषार्थ-प्रथम गुणहानिके द्रव्यमें सवा छह प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं। द्वितीयादि सब गुणहानियोंके द्रव्यमें अन्तिम गुणहानिका द्रव्य दूसरी बार मिलानेपर भी इतने ही प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं। इनको जोड़ने पर साधिक डेढ़ गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेक आते हैं। पर यहां आधा निषेक कम कर दिया है, इसलिये सब निषेक डेढ़ गुणहानि प्रमाण बतलाये हैं । इस हिसाबसे समयप्रबद्धका कुल द्रव्य ६१४४ होता है, क्योंकि, ५१२ को १२ से गुणा करनेपर इतना ही द्रव्य प्राप्त होता है।
क्षेत्रकी अपेक्षा प्रथम निषेकोंका विस्तार डेढ़ गुणहानि प्रमाण आयत क्षेत्र होता है।
१ प्रतिषु 'अणमुप्पायण' इति पाठः ।
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१, २, १, ३२.] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्त । १२५ मिसेगपमाणेण कदे एत्तियं होदि तेण सव्वदव्वे पढमणिसेगेण अवहिरिज्जमाणे दिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि त्ति वुत्तं ।
बिदियणिसेयपमाणेण सव्वदव्वं सादिरेया गड्ढगुणहाणीए अवहिरिज्जदि । तं जहापुव्वुत्तदिवड्डखेत्तम्मि एगगोवुच्छविसेसविक्खंभ-दिवड्वगुणहागिदीहरप्फालिं' तछेदूण अवगिदे रेसखे बिदियगोवुच्छविक्खंभ-दिवड्डगुणहादीहरं होदूण चेट्ठदि । संपधि अवणिदफालिं पयदगोवुच्छपमाणेण कीरमाणे एगं पि पयदगोवुच्छं ण होदि, गुणहाणिअद्धरूवूणमेत्तगोवुच्छविसेसाणमभावादो। तेणेदस्स विगलरूवनाधारं होदि । तस्स पमाणमाणिज्जदे । तं जहा - रूवूणणिसेगभागहारमेत्तगोवुच्छविसेसाणं जदि विरलणाए एगरूवपक्खेवो लब्भदि तो दिवड्डगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविससाणं किं लभामो त्ति सरिसमवणिय रूवूणणिसेगभागहारेण दिवड्डगुणहाणीए ओवट्टिदाए एगरूवस्स सादिरेयतिण्णिचदुब्भागा आगच्छंति । ते दिवड्डगुणहाणीए पक्खिविय सव्वदव्वे भागे हिदे बिदियणिसेगे आगच्छदि । तेण सादिरेयदिवड्गुणहाणीए अवहिरिज्जदि त्ति सिद्धं ।
यतः प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर सब द्रव्य इतना होता है, अत एव सब द्रव्यको प्रथम निषेकसे अपहृत करनेपर डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है, ऐसा कहा है।
द्वितीय निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्य साधिक डेढ़ गुणहानि द्वारा अपहृत होता है। यथा- पूर्वोक्त डेढ़ गुणहानि क्षेत्रमेंसे एक गोपुच्छविशेष प्रमाण विस्तारवाली और डेढ़ गुणहानि प्रमाण दीर्घ फालि रूप क्षेत्रको छील कर अलग करनेपर शेष क्षेत्र द्वितीय गोपुच्छ मात्र विस्तारवाला व डेढ़ गुणहानि प्रमाण दीर्घ रह जाता है। अब अलग की हुई फालिको प्रकृत गोपुच्छ (द्वितीय निषेक) के प्रमाणसे करनेपर एक भी प्रकृत गोपुच्छ नहीं होता, क्योंकि, गुणहानिके आधेमेसे एक कम गोपुच्छविशेषोंका वहां अभाव है । इसलिये इसका विकल रूप आधार होता है । अब उसका प्रमाण लाते हैं । यथा- एक कम निषेकभागहार प्रमाण गोपुच्छविशेषोंका विरलन करनेपर यदि डेढ़ गुणहानिमें एक अंकका प्रक्षेप प्राप्त होता है तो डेढ़ गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेषोंका विरलन करनेपर क्या प्राप्त होगा. इस प्रकार समान राशिका अपनयन कर एक कम निषेकभागहारका डेढ़ गुणहानिमें भाग देनेपर एक अंकका साधिक तीन बटे चार भाग आता है । उसे डेढ़ गुणहानिमें मिलाकर उसका सब द्रव्यमें भाग देनेपर द्वितीय निषेक आते हैं । इसीलिये द्वितीय निषेककी अपेक्षा सब द्रव्य साधिक डेढ़ गुणहानिसे अपहृत होता है, यह सिद्ध होता है।
१ प्रतिषु दीहरप्पाली', मप्रतौ 'दीहठप्पाली' इति पाठः।
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१२६] - छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. तदियणिसेयपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे सादिरेयदिवड्डगुणहाणीए अवहिरिज्जदि । एत्थ वि पुवक्खेत्तम्मि दोफालीओ तच्छिय अवणिदे सेस पयदगावुच्छविक्खंभं दिवड्डगुणहाणिआयामं होदूण चेहदि । अवणिददोफालीसु दोपक्खेवरूवाणि ण बुप्पज्जंति, दुगुणफालिसलागमेत्तरूवेहि ऊणगुणहाणीए अभावादो । तेण सादिरेयदिवड्डरूवाणि पक्खेवो होदि । एवं जत्तिय-जतियगोवुच्छाओ उवरि चडिय भागहारो इच्छदि दिवढे तत्तिय-तत्तियमेत्तफालीओ काऊण तेरासियकमेण पक्खेवरूवसाहणं कायव्वं ।
संपहि एगगुणहाणिअद्धमेत्तं चडिय ठिदणिसेयपमाणेण सव्वदव्वं दोगुणहाणिकालेण
अवहिरिजदि । तं जहा
--पढमाणसेगविक्खंभं दिवड्डगुणहाणिआयाम खेत्तं
ठविय विक्खंभेण चत्तारिफालीओ करिय तत्थ चउत्थफालिमायामेण तिण्णिफालीओ काऊण
विशेषार्थ- कुल द्रव्य ६१४४ है । इसमें द्वितीय निषेक ४८० का भाग देनेपर १२६ आते हैं। यही कारण है कि यहां सब द्रव्यमें द्वितीय निषेकका भाग देनेपर वह साधिक डेढ़ गुणहानिसे अपहृत होता है, यह सिद्ध किया है।
___ तृतीय निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करने पर वह साधिक डेढ़ गुणहानिसे अपहृत होता है। यहां भी पूर्व क्षेत्रमेंसे दो फालियोंको छील करके अलग करनेपर शेष क्षेत्र प्रकृत गोपुच्छ (तृतीय निषेक) प्रमाण विस्तृत और डेढ़ गुणहानि आयत होकर स्थित रहता है । अलग की हुई दो फालियोंमें दो प्रक्षेप अंक नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, दुगुणी फालिशलाका मात्र रूपोंसे अर्थात् चार गोपुच्छविशेषोंसे रहित गुणहानिका यहां अभाव है । इस कारण यहां साधिक डेढ़ अंक प्रमाण प्रक्षेप है।
विशेषार्थ-तृतीय निषेकका प्रमाण ४४८ है । इसका ६१४४ में भाग देनेपर १३५ भाते हैं । इसीसे यहां सब द्रव्यको तृतीय निषेकके प्रमाणसे करनेपर वह साधिक डेढ़ गुणहानिसे अपहृत होता है, ऐसा कहा है।
इस प्रकार जितनी जितनी गोपुच्छायें ऊपर चढ़कर भागहार इच्छित हो, डेढ़ गुणहानि प्रमाण उतनी उतनी फालियोंको करके त्रैराशिक क्रमसे प्रक्षेप अंकोंकी सिद्धि करनी चाहिये।
अब एक गुणहानिका आधा भाग मात्र स्थान आगे जाकर स्थित निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करनेपर वह दो गुणहानियोंके कालसे अपहृत होता है। यथा-प्रथम निषेक प्रमाण चौड़े और डेढ़ गुणहानि प्रमाण लम्बे क्षेत्रको स्थापित कर विस्तारकी अपेक्षा चार फालियां करके उनसे चतुर्थ फालिकी आयामकी ओरसे तीन
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे घेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[१२७ विक्खंभं विक्खंभे जोएदूण तिण्णि वि फालीयो पासे ठविदे पयदगोवुच्छविक्खंभं दोगुणहाणिआयदखेत्तं होदि । तेण दोगुणहाणिहाणंतरेण अवहिरिज्जदि त्ति वुत्तं ।
अधवा तेरासियकमेण पक्खेवरूवाणि भणिस्सामो । तं जहा-णिसेगभागहारतिण्णिचदुब्भागमेत्तगोवुच्छविसेसेसु जदि एगो पयदणिसेगो लब्भदि तो णिसेयभागहारचदुब्भागमेत्तगोवुच्छविसेसविक्खंभ-दिवड्वगुणहाणिआयदखेत्तम्मि किं लभामो त्ति सरिसमवाणिय पमाणेण भागे हिंदे गुणहाणिअद्धमत्तपक्खेवरूवाणि लभंति । ताणि दिवड्ढगुणहाणिम्हि पक्खित्ते दोगुणहाणीओ होति | ३२ । १२ । १ । ३२ । ४ । १२ । अधवा णिसेयभागहारतिण्णिचदुब्भागमेत्तगोवुच्छविसेसु जदि एगा पयदगोवुच्छा लब्भदि तो दिवड्ढगुणहाणिगुणिदणिसेगभागहारमेत्तगोवुच्छविसेसु किं लभामो त्ति सरिसमवणिय पमाणेणिच्छाए ओवट्टिदाए दोगुणहाणीयो लन्भंति [ ३२ । १६ । ३ । १ । ३२ । १६ । १२ लद्धं | १६) । एदेण सव्वदन्वे
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फालियां करके विस्तारको विस्तार में मिलाकर तीनों फालियोंको पार्श्व भागमें स्थापित करनेपर प्रकृत गोपुच्छ प्रमाण विस्तारवाला और दो गुणहानि प्रमाण आयत क्षेत्र होता है । इस कारण प्रकृत निषेककी अपेक्षा दोगुणहानिस्थानान्तरकालसे सब द्रव्य अपहृत होता है, ऐसा कहा है ।
अथवा, त्रैराशिक क्रमसे प्रक्षेप अंकोंको कहते हैं। यथा- निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग मात्र गोपुच्छविशेषों में यदि एक प्रकृत निषेक प्राप्त होता है तो निषेकभागहारके एक चतुर्थ भाग मात्र गोपुच्छविशेष विस्तारवाले और डेढ़ गुणहानि प्रमाण आयत क्षेत्रमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार सदृशका अपनयन करके प्रमाण राशिका भाग देनेपर गुणहानिके अर्ध भाग मात्र प्रक्षेप अंक प्राप्त होते हैं । उनको डेढ़ गुणहानिमें मिलानेपर दो गुणहानियां होती हैं। - ४४३२४१२ = ४ प्रक्षेप अंक; १२+ ४ = १६ दो गुणहानि ।
अथवा, निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग मात्र गोपुच्छविशेषों में यदि एक प्रकृत गोपुच्छा (प्रकृत निषेक ) प्राप्त होती है तो डेढ़गुणहानिगुणित निषेकभागहार मात्र गोपुच्छविशेषोंमें कितनी प्रकृत गोपुच्छायें प्राप्त होंगी, इस प्रकार सदृशका अपनयन कर प्रमाणसे इच्छाको अपवर्तित करनेपर दो गुणहानियां प्राप्त होती हैं।
गो. वि. ३२, नि. भा. १६, उसका तीन चतुर्थांश १२, ३२४१२४१ - १६, लब्ध १६ होता है । इसका सब द्रव्यमें भाग देनेपर इच्छित निषेक आता है
१ प्रतिषु — लोएदण ' इति पाठः।
२ अप्रतौ । ३२ । ८ । १६J' इति पाठः ।
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१२८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[ १, २, ४, ३२. भागे हिदे इच्छिदणिसेगो आगच्छदि | ३८४ | । उवरि जाणिदूण भागहारो वत्तव्यो ।
विदियगुणहाणिपढमणिसेयपमाणेण सव्वदव्वं तिण्णिगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदिः। तं जहा- पढमगुणहाणि-पढमणिसेयादो बिदियगुणहाणि-पढमणिसेगो अद्ध होदि त्ति दिवड्डखेत्तं ठविय मज्झम्मि दोफालीयो करिय - एगफालीए सीसे बिदियफालिं संधिय ठविदे तिण्णिगुणहाणिआयाम-बिदियगुणहाणिपढमणिसेगविक्खंभखेत्तं होदि । अधवा एगगुणहाणि चडिदो त्ति एगरूवं विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवढे गुणिदे तिण्णिगुणहाणीओ होति |२४|| एदेहि सव्वदव्वे भागे हिदे बिदियगुणहाणि-पढमणिसेगो लब्भदि । २५६ | । उवरि जाणिय वत्तव्यं ।
तदियगुणहाणिपढमणिसेगेण सव्वदव्वं छगुणहाणिकालेण अवहिरिज्जदि, बिदियगुणहाणिपढमणिसेयविक्खंभं तिण्णिगुणहाणिआयदखेत्तं मज्झम्मि दोफालीयो करिय सीसे संघिदे
६१४४ १६ = ३८४ । इसी प्रकार आगे जानकर भागहार कहना चाहिये ।
द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्य तीन गुणहानिस्थानान्तर. कालसे अपहृत होता है । यथा-प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेकसे द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक आधा है । अत एव डेढ़ गुणहानि मात्र क्षेत्रको अर्थात् डेढ़ गुणहानि प्रमाण आयामवाले व प्रथम गुणहानिके प्रथम निषेक प्रमाण विस्तारवाले क्षेत्रको स्थापित कर मध्यमें दो फालियां करके (संदृष्टि मूलमें देखिये) एक फालिके शीर्षपर द्वितीय फालिको जोड़कर स्थापित करनेपर तीन गुणहानि आयत और द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेक प्रमाण विस्तृत क्षेत्र होता है।
___ अथवा एक गुणहानिके आगे गये हैं अतः एक अंकका विरलन कर दुगुणा करके परस्पर गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उससे डेढ़ गुणहानिको गुणित करनेपर तीन गुणहानियां होती हैं (१४२४ १२ = २४)। इनका सब द्रव्यमें भाग देनेपर द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक प्राप्त होता है- ६१४४ : २४ = २५६ । आगे जानकर कहना चाहिये।
तुतीय गुणहानिके प्रथम निषेकसे सब द्रव्य छह गुणहानियोंके कालसे अपहृत होता है, क्योंकि, द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेक प्रमाण विस्तारवाले और तीन गुणहानि भायत क्षेत्रकी मध्य में दो फालियां करके शीर्ष में जोड़ देनेपर छह गुणहानि मात्र
१ प्रतिषु
एवंविधात्र संदृष्टिः ।
२ अ-काप्रत्योः ‘सीरसे', आप्रतौ ' सरिते' इति पाठः।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे घेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ १२९ छगुणहाणिआयामसमुप्पत्तीदो| अधवा दिवड्डखेत्तं विक्खंभेण चत्तारि फालीओ कादूण एगफालीए उवरि सेसतिण्णिफालीयो कमेण संधिय ठविदे छगुणहाणिआयदं खेत्तं होदि । अधवा दोगुणहाणीओ चडिदो त्ति दोरूवे विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कादूण दिवटगुणहाणिं गुणिदे छग्गुणहाणीयो होति ४८ । एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे तदियगुणहाणिपढमणिसेगो लब्भदि | १२८ | । एवं जत्तिय-जत्तियगुणहाणीओ उवरि चडिदूण भागहारो इच्छिज्जदे तत्तिय तत्तियमेत्तगुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवढे गुणिदे गुणगाररूवद्धमेत्ततिण्णिगुणहाणीओ लब्भंति । ताओ तदित्थणिसेगस्स भागहारो होदि । अधवा अण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवड्डखेत्तं विक्खंभेण खंडिय एगखंडस्स सिरे सेसखंडेसु
आयामकी उत्पत्ति होती है (संदृष्टि मूलमें देखिये)।
अथवा, डेढ़ गुणहानि मात्र क्षेत्रकी विस्तार की अपेक्षा चार फालियां करके एक फालिके ऊपर शेष तीन फालियोंको ऋमसे जोड़ करके स्थापित करनेपर छह गुणहानि आयत क्षेत्र होता है।
अथवा, दो गुणहानियां आगे गये हैं, अतः दो संख्याका विरलन करके दुगुणा कर परस्पर गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उससे डेढ़ गुणहानियों को गुणित करनेपर छह गुणहानियां प्राप्त होती है- १४२ = २, २ x २ ४ १२ = ४८ । इसका सब द्रव्यमें भाग देनेपर तृतीय गुणहानिका प्रथम निषेक आता है - ६१८४:४८ % १२८ ।।
इस प्रकार जितनी जितनी गुणहानियां आगे जाकर भागहार इच्छित हो उतनी उतनी गुणहानिशलाकाओका विरल कर दुगुणा करके परस्पर गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उससे डेढ़ गणहानिको गणित करने पर गुणकारसंख्याके आधे अंकों प्रमाण तीन गुणहानियां प्राप्त होती हैं। वे वहांके निषेकका भागहार होती हैं। [ उदाहरणार्थ चतुर्थ शुणहानिके प्रथम निषेकका द्रव्य लाना है, इसलिये
२ x २ x २ = ८ x १२ = ९६ प्रमाण १२ गुणहानि, या गुणकार ८ का आधा ४ को तीन गुणहानि २४ से गुणा करजेपर १२ गुणहानिकी ९६ संख्या लब्ध आती है। इसका सब द्रव्य ६१४४ में भाग देनेपर चतुर्थ गुणहानिका प्रथम निषेक ६४ आता है ।]
अथवा, अन्योन्याभ्यस्त राशिले उढ़ गुणहानि प्रमाण क्षेत्रको विस्तारसे खण्डित कर एक खण्डके सिरपर शेष खण्डोंको परिपाटीसे जोड़नेपर इच्छित गुणहानिके प्रथम
१ प्रतिषु |--एवंविधान संदष्टिः ।
१ प्रतिषु
एवंविधात्र संहाष्टः।
छ. वे. १७.
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१३.] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ३२. परिवाडीए संधिदेसु इच्छिदगुणहाणिपढमणिसेगविक्खंभं अण्णोण्णब्भत्थरासिअद्धमेत्ततिण्णिगुणहाणिआयाम खेत्तं होदि । एवं जाणिदूण णेदवं जाव कम्मट्ठिदिचरिममिसगो ति । एवं दिवड्डगुणहाणिभागहारो गुणहाणि पडि दुगुण-दुगुणकमेण वड्डमाणो कम्हि पलिदोवमपमाणं पावेदि त्ति वुत्ते पलिदोवम-बे-त्तिभागणाणागुणहाणिसलागाणमद्धछेदणयमेत्तगुणहाणीयो उवरि चडिदे होदि,दिवड्डगुणहाणिआगमणटुं पलिदोवमस्स ठविदभागहारेण पलिदोवम-बे-तिभागणाणागुणहाणिसलागाणं समाणत्तुवलंभादो । एदेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे पलिदोवममेत्तकालेण अवहिरिज्जदि । एवं पलिदोवमस्स दुभाग-तिभाग-चदुब्भागादिभागहारा साधेदव्वा । जदि वि सछेदमेदमद्धाणमुप्पज्जदि तो वि बालजणवुप्पायणट्ठमेदं वत्तव्यं । तदुवरिमगुणहाणिपढमणिसेगेण सव्वव्वं दोपलिदोवमैट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । एवं संखेज्जरूवच्छेदणयमेत्तगुणहाणीओ उवरि चडिदगुणहाणिपढमणिसेयपमाणेण सव्वदव्वं कम्मढिदिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । एदस्सुवरि जहण्णपरित्तासंखेज्जच्छेदणयमेत्तगुणहाणीयो चडिदहिदगुणहाणीए
निषेक प्रमाण विस्तृत और अन्योन्याभ्यस्त राशिके अर्ध भाग मात्र तीन गुण हानि आयत क्षेत्र होता है । इस प्रकार जानकर कर्मस्थितिके अन्तिम निषेक तक ले जाना चाहिये।
शंका-इस प्रकार डेढ़ गुणहानि प्रमाण भागहार प्रत्येक गुणहानिके प्रति उत्तरोत्तर दूना दूना होता हुआ किस स्थानमें पल्यापम के प्रमाणको प्राप्त होता है ?
समाधान-इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि पल्योपमके दो त्रिभाग मात्र नानागुणहानिशलाकाओंके अर्धच्छेदोंके बराबर गुणहानियां आगे जाजेपर वह पल्योपमके प्रमाणको प्राप्त होता है, क्योंकि, डेढ़ गुणहानियोंके लानेके लिये पल्योपमके स्थापित भागहारके साथ पल्योपमकी दो त्रिभाग मात्र नानागुणहानिशलाज्ञाओंको समानता पायी जाती है।
इससे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह पल्यापम मात्र कालसे अपहृत होता है। इसी प्रकार पल्योपमके द्वितीय भाग, तृतीय भाग व चतुर्थ भाग आदि रूप भाग हारोंको सिद्ध कर लेना चाहिये। यद्यपि यह सछेद स्थान उत्पन्न होता है तो भी इसे बालजनोंके व्युत्पादनार्थ कहना चाहिये ।
__उससे आगेकी गुणहानिके प्रथम निवेकसे सब द्रव्य दो पल्योपमस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । इस प्रकार संख्यात अंकों के अर्धच्छेद मात्र गुणहानियां आगे जाकर प्राप्त हुई गुणहानिके प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्य कर्मस्थितिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । इससे आगे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेद मात्र गुणहानियां
1 अप्रतौ ' बालहुण' इति पाठः।
२ प्रतिषु — दो वि पलिदोवम ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामितं
[ १३१ पढमणिसेगेण सव्वदव्वं असंखेज्जकम्मट्टिदिकालेण अवहिरिज्जदि । एदम्हादो उवरिमसव्व. णिसेगाणं असंखेज्जकम्महिदीओ भागहारो होदि । एवं गंतूण कम्मट्टिदिचरिमणिसेगपमाणेण सव्वदव्वं केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जदि त्ति वुत्ते अंगुलस्स असंखेज्जदिमागेण असंखेज्जओसप्पिणि-उस्सप्पिणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि, अण्णोण्णब्भत्थरसिणा असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलेण दिवड्डगुणहागिमसंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलं गुणिय सव्वदव्वे भागे हिदे चरिमणिसेगुप्पत्तीदो। एत्थ भागहारसंदिट्ठी एसा | ७६८ । एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे चरिमणिसेगो आगच्छदि । एत्थ सबदवपमाणमेदं । ६१४४ । । एसा असम्भूदपरूवणा, कदजुम्मासु गुणहाणीसु णिसेगट्टिदीसु च अट्ठण्णं चरिमणिसेगत्ताणुववत्तीदो, अद्धद्धेण गदगुणहाणिदोसु दिवढगुणहाणिमत्तपढमणिसेगाणमसंभवादो च ।
संपहि फुडत्थपरूवणाए कीरमाणाए. १४४ १४४ २५६ । ३२ २५६/२५६ | १६ | १६ | १६ | २५६, १६ २५६
S VY
१२०
१७६ १४४
२५६ |२५६
२५६
१२८
२५६
१२८ २५६
२१६
२५
प्रथम
आगे जाकर स्थित हुई गुणहानिके प्रथम निषेकसे सा द्रव्य असंख्यात कर्मस्थितिकालसे अपहृत होता है । इससे आगे नव निरेकोंका असंख्यात कर्मस्थितियां भागहार होती हैं। इस प्रकार जाकर कर्मस्थिति के अन्तिम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्य कितने कालसे अपहृत होता है, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि वह अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यात
मूल प्रमाण अन्यान्याभ्यस्त राशिले पल्यापम के असंख्यात प्रथम वर्गमूल मात्र डेढ़ गुगहानिको गुणित करके सब द्रव्यमें भाग देनेपर अन्तिम निषेक उत्पन्न होता है । यहां भागहारकी संदृष्टि यह है- ७६८ । इसका सब द्रव्यमें भाग देनेपर अन्तिम निषेक आता है। यहां सब द्रव्यका प्रमाण यह है- ६१४४। यह असद्भूतप्ररूपणा है. क्योंकि, एक तो कृतयुग्म रूप गुणहानियों और निषेकस्थितियों में आठ संख्या प्रमाण अन्तिम निषेक बन नहीं सकता। दूसरे, प्रत्येक गुणहानिका द्रव्य उत्तरोत्तर आधा
॥ है, अतः सब द्रव्यमें डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम निषकोकी सम्भावना भी नहीं है।
अब स्पष्ट अर्थकी प्ररूपणा करते समय इन चार प्रकारोंसे (संदृष्टि मूलमें
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छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ४, ३२. एदेहि चउहि पयोरहि पढमगुणहाणिखेत्तं फाडिये दिवड्वगुणहाणिमत्तपढमणिसेगा उप्पादेदव्वा ।
सोलसयं छप्पण्णं तत्तो गोवुच्छविसेप्सएण अहियाणि ।। जाव दु बे-सद-सोलस तत्तो य पि-सद छप्पण्णं ॥ १२ ॥ अडदाल सीदि बारसअहियसदं तह सदं च चोदालं ।
छावत्तरि सदमेयं अट्टत्तर-बिसद-छप्पण्ण ॥ १३ ॥
एदाहि दोहि गाहाहि तत्थ चउत्थखेत्तखंडपमाणं जाणिदव्वं । एदेण कमेण सव्वदव्वे पढमणिसेयपमाणेण कदे सादिरेयदिवडगुणहाणीओ होति, चरिमगुणहाणिव्वं पक्खिविय उप्पाइदत्तादो । तं चेदं ।
संपाध एत्थ चरिमगुणहाणिव्यस्स अवणयणकमो बुच्चदे । तं जहा- किंचूणपणोण्णभत्थरासिमेत्तचरिमणिसेगाणं जदि एगो पढमाणसेगो लब्भदि तो चारभगुणहाणिदव्वम्मि किंचूणदिवट्टगुणहाणितत्तचरिमणिनम्भि किं लभामा ति । ५.२ ११९१०० | सरिसमवणिय किंचूणण्णोण्णभत्थरासिणा एगरूवस्स असंखेज्जेहि भागेहि ऊंणदिवढे ओ
देखिये) प्रथम गुणहानिके क्षेत्रको फाड़ कर डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम निषकों को उत्पन्न कराना चाहिये।
सोलह, छप्पन, इससे आगे दो सौ सोलह प्राप्त होने तक एक गोपुच्छविशेष (३२) से उत्तरोत्तर अधिक, इसके पश्चात् दो सौ छप्पन तथा अड़तालीस, अस्सी, एक सौ बारह, एक सौ चवालीस, एक सौ छ्यत्तर, दो सौ आठ और दो सौ छप्पन, ये चतुर्थ क्षेत्रके खण्डोंका प्रमाण है ॥ १२-१३॥
इन दो गाथाओं द्वारा वहां चतुर्थ क्षेत्रके खण्डोंका प्रमाण जानना चाहिये। इस क्रमसे सब द्रव्यको प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर साधिक डेढ़ गुणहानियां होती हैं, क्योंकि, यह द्रव्य अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको मिलाकर उत्पन्न कराया गया डेढ़ गुणहानिका प्रमाण यह है- १२३ ।
अब यहां अन्तिम गुणहानिके द्रव्यके अपनयनक्रमको कहते हैं । यथा-कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र अन्तिम निषेकोका यदि एक प्रथम निषेक प्राप्त होता है तो अन्तिम गुणहानिके द्रव्यके कुछ कम डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेकोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार सहशका अपनयन करके कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे एकका असंख्यातवां भाग कम डेढ़ गुणहानिको भाजित करनेपर एकका असंख्यातवां भाग
१ प्रतिषु 'पादिय' इति पाठः।
२ अप्रतौ 'भागे हिदे ऊण' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२.} वेयणमहाहियारे वेगणदव्वविहाणे सामित्त
। १३३ वट्टिदे एगरूवस्स असंखेज्जीदभागो आगच्छदि, दिवढगुणहाणीहितो मोहणीयअण्णोण्णब्भत्थरासीए असंखेज्जगुणत्तादो । एद पढमणिसेगस्स असंखेज्जदिमागं पढमणिसेगद्धम्मि अवणिदे मोहणीयस्स सादिरेयदिवड्डगुणहाणिमेत्तपढमाणिसेया होति । एगरूवस्स असंखेज्जदिभागो अवणिज्जमाणो संदिट्ठीए एसो | २१ । अवणिदे सेसमेदं | १९७४ ।
___णाणावरणीयपढमणिसेयपमाणेण सव्वदवे अवहिरिज्जमाणे किंचूणदिवड्वगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं कधं ? सण्णिपंचिंदियपज्जत्तसव्वसंकिलिट्ठउक्कस्स. जोगमिच्छाइट्ठी तीस सागरोवमकोडाकोडिट्ठिदि बंधमाणो तम्हि समए आगदकम्मपरमाणूणमद्धं चरिमगुणहाणिव्वेणब्भहियं पढमगुणहाणीए णिसिंचदि । बिदियादिगुणहाणीसु चरिमगुणहाणिदव्वेणूणमद्धं णिसिंचदि । तेण विदियादिगुणहाणिदवम्मि चरिमगुणहाणिव्वे पक्खित्ते पढमगुणहाणिवपमाणं होदि ।
१२८
आता है, क्योंकि, डेढ़ गुणहानिसे मोहनीयकी अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यातगुणी है। इस प्रथम निये के असंख्यातवें भागको प्रथम निषेकके अर्ध भागमेसे कम कर देनेपर मोहनीयके साधिक डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम निषेक होते हैं । कम किया गया एकका असंख्यातवां भाग संदृष्टि में यह है-२५ । इसको सार्ध डेढ़ गुणहानिमेंसे कम करनेपर शेष यह रहता है- १९७४ ।
उदाहरण- कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि ११२, अन्तिम गुणहानिकी अपेक्षा कुछ कम डेढ़ गुणहानि १००, १००४९ : ५१२४९ = १००४९४,९२२-१०० २५, 1-२८- ३२८, २+ ३९८ - १९५८ साधिक डेढ़ गुणहानि । सब द्रव्यमें इतने प्रथम निषेक होते हैं।
शानावरणीयके प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर कुछ कम डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। वह कैसे ? संशी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त सर्वसंक्लिष्ट व उत्कृष्ट योग युक्त मिथ्यादृष्टि जीव तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण स्थितिको बांधता हुआ उस समयमें आये हुए कर्मपरमाणुओंमेंसे अन्तिम गुणहानिके द्रव्यसे अधिक अर्ध भागको प्रथम गुणहानिमें देता है। द्वितीयादिक गुणहानियों में अन्तिम गुणहानिके द्रव्यसे हीन अर्ध भागको देता है। इसीलिये द्वितीयादिक गुणहानियाके द्रव्यमें अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको मिलानेपर प्रथम गुणहानिके द्रव्यका प्रमाण होता है।
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१ प्रतिषु 'सादिरेयाणि दिवई' इति पाठः ।
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१३४ ]
छक्खंडागमे वैयणाखंड
[ ४, २, ४, ३२.
संपधि पढमगुणहाणिदव्वे पढमणिसेय मागेण कीरमाणे गुणहाणितिणिचदुब्भागमेषपदमभिसी परमामा क || बिदियागुणहाणिदव्वं
काम
पि पढमणिसेयपमाणेण कदे एत्तियं चेव होदि | ६ पक्खित्तचरिमगुणहाणिदव्वत्तादो । पुणो
"
'
दो वि तिणिचदुब्भागेसु मेलाविदेसु दिवड गुणहाणिमत्त पढमणिसेया होंति ५१२/१२ ; दो वि चदुब्भागम्मि मेलाविदे पढमणिसयस्स अर्द्ध होदि १२१६|| एदं तत्य पक्खित्ते प
एत्तियं होदि | ५१२ १२
१ 1 २
संपधि चरिमगुणहाणिणिसेगेसु सव्वत्थ चरिमणिसेगे अवणिद गुणहाणिमेत्ता चरिमणिसेगा लब्भंति | ९ || पुणो रूवूणगुणहाणिसंकलणमेत्ता गोवुच्छविसेसा अहिया अस्थि । ते वि चरिमणिसेयपमाणेण कस्सामा । तं जहा - एगं गोवुच्छविसेसं घेतून रूवूणगुणहाणिमत्तगच्छविसेसेसु पक्खित्तेसु गुणहाणिमेत्तगोबुच्छविसेसा होंति । एवं सन्धेसि मूलग्ग
४
अब प्रथम गुणहानिके द्रव्यको प्रथम निषेक के प्रमाणसे करनेपर गुणहानिके तीन चतुर्थ भाग (८ x ३ = ६ ) मात्र प्रथम निषेक और प्रथम निषेकका चतुर्थ भाग ( ५१२ = १२८) प्राप्त होता है । उसकी संदृष्टि ६४ है। द्वितीबादि गुणद्दानियाँके द्रव्यको भी प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर इतना ही होता है - ६, क्योंकि, इसमें अन्तिम गुणहानिका द्रव्य मिलाया गया है । पुनः दोनों ही तीन-चतुर्थ भागोंको मिलानेपर डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम निरेक होते हैं - ५१२ × १२, और दोनों ही चतुर्थ भागोंको मिलानेपर प्रथम निषेकका अर्ध भाग होता है - ५१२ × ३ । इस अर्थ भागको डेढ़ गुणहानि मात्र प्रथम निषेकों में मिलानेपर इतना होता है- ५१२ x २५ ।
२
अब अन्तिम गुणहानिके निषेकों में से सर्वत्र अन्तिम निषेकको कम करनेपर गुणहानि मात्र अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं - ९x८ । पुनः एक कम गुणहानिके संकलन मात्र [८ - १ = ७, इसका संकलन २८ ] गोपुच्छविशेष अधिक हैं । उनको भी अन्तिम निषेकके प्रमाणसे करते हैं। यथा- एक गोपुच्छविशेषको ग्रहण कर उसमें एक कम गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेषों को मिलाने पर गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेष होते हैं । इस प्रकार सबका मूल और अग्रको जोड़ कर समीकरण करना चाहिये । इस
७ + १ × ७ २
१ अप्रतौ ' कीरमाणे ग्रतिष्णि ' आ-काप्रत्योः ' कीरमाणे गूणतिण्णा ' इति पाठः २ अप्रतौ ' पुणो वि दो वि ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः ।
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१, २, ४, ३२.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामितं
[१३५ समासेण समकरणं कादव्वं । एवं कदे रूवूणगुणहाणिअद्धमत्ता गोवुच्छविसेसा जादा | ८ ८ ८४ । गुणहाणिअद्धमेत्तगोबुच्छविससेसु दुरूवूणगुणहाणिअद्धमत्तगोउच्छविसेसे घेत्तूण तत्थ एगेगगोवुच्छविससे दोरूऊणगुणहाणिअद्धमत्तगोवुच्छपुंजेसु पक्खित्तेसु दुरूवूणगुणहाणिअद्धमेत्ता चरिमाणिसेगा होति । पुणो रूवाहियगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसेसु जदि एगो चरिमणिसेगो लब्भदि तो उबरिदेगगोवुच्छविसेसम्मि किं लभामो त्ति सरिसमवणिय पमाणेणिच्छाए ओवहिदाए एगरूवरस असंखज्जदिभागो आगच्छदि १।३ | एदम्मि
गुणहाणिमेत्तचरिमणिसेगेसु पक्खित्ते किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्तचरिमणिसेगा हेति ९/११ ।।
एदमेवं चेव ह्रविय पुणो अण्णोणब्भत्थरासिं विरलेदूण पढमणिसेगं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि गोवुच्छविसेसूणचरिमणिसेगो पावदि । पुणो हेट्ठा गुणहाणिं विरलिय एगरूवधरिदं दादूण समकरणं करिय परिहाणिरूवेसु तेरासियकमेण आणिदेसु रूवाहियगुणहाणिणोवट्टिदअण्णोण्णभत्थरासिमे ताणि होति । एत्थ णाणावरणादीणमेगरूवस्स असंखेज्जदिभागो
प्रकार करनेपर एक कम गुणहानिके अर्ध भाग मात्र गोपुच्छविशेष होते हैं - ८, ८, ८, ४ । गुणहानिके अर्ध भाग प्रमाण गोपुच्छविशेषों में से दो कम गुणहानिके अर्थ भाग मात्र गोयुच्छविशेषोंको ग्रहण कर उनमें से एक एक गोपुच्छविशेषको दो कम गुणहानिके अर्ध भाग मात्र गोपुच्छयुंजोंमें मिलानेपर दो कम गुणहानिके अर्ध भाग मात्र अन्तिम निषेक होते हैं। पुनः एक अधिक गुणहानिके बराबर गोपुच्छविशेषामें यदि एक अन्तिम निषेक पाया जाता है तो बचे हुए एक गोपुच्छविशेष में क्या पाया जायगा, इस प्रकार सदृशका अपनयन करके प्रमाणसे इच्छाको अपवर्तित करने पर एकका असंख्यातवां भाग आता है-2। ३२ इसे गुणहानि मात्र अन्तिम निषेकों में मिलाने पर कुछ कम डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेक होते हैं-८+३१ = ११३ । इसको इसी प्रकार स्थापित करके पश्चात् अन्योन्याभ्यस्त राशिका विरलन करके प्रथम निषेकको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति
से हीन अन्तिम जिषक प्राप्त होता है। पश्चात् नीचे गुणहानिका विरलन करके ऊपर एक विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यको देकर समीकरण करके परिहीन रूपोको त्रैराशिककमसे लानेपर चे एक अधिक गुणहानिसे अपवर्तित अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र होते हैं। यहां ज्ञानावरणादिकका एकका असंख्यातवां भाग आता है, क्योंकि, उनकी
१ प्रतिघु उब्विरिदेविदेग'; मप्रतीउविहिदेग' इति पाठः । २ प्रतिषु | ९ ३ | इति पाठ :।
३ प्रतिषु | ९| ११ ( इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. आगच्छदि, अण्णोण्णभत्थरासीदो गुणहाणीए असंखेज्जगुणत्तादो । मोहणीयस्स असंखेज्जाणि रूवाणि लब्भंति, गुणहाणीदो अण्णोण्णभत्थररासिस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । एदमवणिय सेसेण चरिमणिसेगेसु गुणिदे पढमणिसेगो हेदि । ९ । ५१२ । एत्तियमेत्तचरिमणिसेगाणं जदि एगो पढमणिसेगो लब्भदि तो चरिमगुणहाणिदव्वस्स किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्तचरिमणिसेगाणं किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छाए ओवहिदाए असंखज्जाणि रूवाणि लब्भंति । कुदो [णयदे] ? पदेसविरइयअप्पाबहुगादो । तं जहा-सव्वत्थोवो चरिमणिसगो। पढमणिसेगो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? किचूणण्णोण्णब्भत्थरासी । चरिमगुणहाणिदव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अण्णोण्णब्भत्थरासिणोवट्टिददिवड्ढगुणहाणीओ। तेण असंखज्जरूवागमणं सिद्धं । एदेसु असंखेज्जरूवेसु अद्धरूवाहियदिवड्डगुणहाणासु सोहिदेसु णाणावरणादणं पढमणिसेगस्स भागहारो किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्तो जादो ।
संपहि दिवड्डगुणहाणीयो विरलिय सव्वदव्वं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि पढमनिसेगो पावेदि । हेट्ठा णिसेगमागहारं विरलेदूण पढमणिसेगं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि गोवुच्छाविसेसो पावदि । तम्मि उवरिमविरलणमेत्तपढमणिसेगेसु अन्योन्याभ्यस्त राशिसे गुण हानि असंख्यातगुणी है । और मोहनीयके असंख्यात अंक प्राप्त होते हैं, क्योंकि, उसकी गुणहानिसे अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यातगुणी पायी जाती है । इसको कम करके शेषसे अन्तिम निषेकको गुणित करनेपर प्रथम निषेक होता है- ९४ ५१२ । इतने मात्र अन्तिम निषेकोंका यदि एक प्रथम निषेक प्राप्त होता है तो अन्तिम गुणहानि सम्बन्धी द्रव्यके कुछ कम डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेकोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे इच्छाको अपवर्तित करनेपर असंख्यात अंक प्राप्त होते हैं।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- यह प्रदेशविरचित अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथा" अन्तिम निषेक सबसे स्तोक है। उससे प्रथम निषेक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? कुछ कम अन्योन्याम्यस्त राशि गुणकार है। उससे अन्तिम गुणहानिका द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अन्योन्याम्यस्त राशिसे अपवर्तित डेढ़ गुणहानि गुणकार है।" इससे असंख्यात अंकोंका आगमन सिद्ध है।
इन असंख्यात अंकोंको अर्ध रूप अधिक डेढ़ गुणहानिमें से घटा देनेपर ज्ञानावरणादिके प्रथम निषेकका भागहार कुछ कम डेढ़ गुणहानि मात्र हो जाता है।
अब डेढ़ गुणहानिका विरलन करके सब द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति प्रथम निषेक प्राप्त होता है। इसके नीचे निषेकभागहारका विरलन करके प्रथम निषेकको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है। उसको उपरिम विरलन मात्र प्रथम निषेकोंमेंसे
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४, २, ४, ३२ /
अवणि दिवगुणहाणिमेत्तविदियशिसेगा चिद्वेति ।
पुणो दिवङ्क्षगुणहाणिमेतगोवुच्छावेसेसे विदियणिसेयपमाणेण कस्यामो । तं जहा - रुणणिसेग भागहारमेतविसेसाणं जदि एगो चिदियणिसेगो लब्भदि तो दिवड्डुगुणहाणिमेत्तविसेसाणं किं लभामो त्ति | ३२ | १५ | १ | ३२ | १५७५ | सरिसमवणिय पमाणेणिच्छाए ओ
१२८
वेयणमहाडियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
ट्टिए एगरुवस्स किंचूणतिण्णि-चदुब्भागो आगच्छदि । तम्मि दिवड गुणहाणिम्हि पक्खित्ते बिदियणिसे गभागहारो होदि । तस्स संदिट्ठी | १५७५ /
१२०
संपहि तदियणिसेगभागहारो बुच्चदे । तं जहा -- णिसेगभागहारदुभागं विरलिय एगरूवधरिदं समखंडं करिय दिगे एक्केक्कै पडि दोद्दोगो वुच्छविसेसा चेट्ठेति । एदम्मि उवरिमविरलणपढमणिसे एसु अवणिदे एदमधियदव्वं होदि । णिसेग भागहारद्धरूवूणमेत्त
कम कर देनेपर डेढ़ गुणहानि मात्र द्वितीय निषेक रह जाते हैं ।
पुनः डेढ़ गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेषको द्वितीय निषेकके प्रमाणसे करते हैं। यथा- एक कम निवेकभागद्दार मात्र गोपुच्छविशेषौका यदि एक द्वितीय निषेक प्राप्त होता है तो डेढ़ गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेषों का क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार सरशका अपनयन करके प्रमाणसे इच्छाको अपवर्तित करनेपर एकका कुछ कम तीन चतुर्थ भाग आता है :
३९
उदाहरण- गोपुच्छविशेष ३२, एक कम निषेकभागहार १५, डेढ़ गुणहानि १२ १२८
१५७५ १५७५४३२ १५४३२ १०५ १२८ १२८ ર ६२८
÷
1
उसको डेढ गुणहानिमें मिला देनेपर द्वितीय निषेकका भागहार होता है । उसकी संदृष्टि
१५७५ १२०
उदाहरण- डेढ़ गुणहानि १२ १२८
[ १३७
।
छ. जे. १७५
१ अप्रतौ ' एक्केक्s '
,
१५७५ १०५ १६८० १५०६ +--- १२८ ૮ १२८ १२०
द्वितीय विषेक
भरहार |
अब तृतीय विषेकका भागहार कहा जाता है । यथा-- निषेकरके द्वितीय भागका विरलन करके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर एक एक प्रति दो दो गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं । इसको उपरि विरलनके प्रथम निषेकों में से करनेपर यह अधिक द्रव्य होता है ।
=
आप्रतौ ' एक्केक्क०', काप्रतौ ' एक्केक्का ' इति पाठः
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११२ ।
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. विससाणं जदि एगो तदियणिसेगो लब्भदि तो दिवड्डगुणहाणिमेत्तदोहोविससाणं किं लभामो त्ति भाग घेत्तूण लद्धे पक्खित्ते तदियणिसेगभागहारो होदि | १५७५ । एवं णेदव्वं जाव पढ़मगुणहाणिचरिमणिसेओ त्ति ।
___पुणो पुव्वविरलणं दुगुणं १५७५ | विरलिय सव्वदव्वं समखंड करिय दिण्णे बिदियगुणहाणिपढमणिसेगो होदि । सेसं जाणिदूण वत्तव्यं । तदियगुणहाणिपढमाणसेगभारहारो पुब्वभागहारादो चउग्गुणो | १५७५ । चउत्थगुणहाणिपढमणिपगभागहारो अगुणो होदि | १५७५ || पंचमगुणहाणिपढमणिसेगभागहारो पुवभागहारादो सोलसगुणो २५.५। एवमसंखेज्जगुणहाणीयो गंतूण चरिमगुणहाणिपढमणिसेयस्स भागहारो वुच्चदे- रूवूण
६४
निषेकभागहारके एक कम अर्व भाग मात्र विशेषांका यादे एक त॒नीय निषेक प्राप्त होता है तो डेढ़ गुणहानि मात्र दो दो विशेषोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार भागको ग्रहण कर लब्धमें मिलानेपर तृतीय निषेकभागहार होता है ५७ ।
११२ १५७५४६४७४६४ १५७५४६४ उदाहरण१२८
१२८ ७४६४१५८ १२४ + २२८ = १२० - ११५ तृतीय निषेकका भागहार । इस प्रकार प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषकके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये।
पुनः पूर्व विरलनको दुगुणा (१५७५) कर विरलन करके सब द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर द्वितीय गुणहानिका प्रथम निक होता है। शेषका कथन जानकर करना वाहिये । तृतीय गुणहानिके प्रथम निषेक का भागहार पूर्व भागहारसे चौगुणा है १४ । उदाहरण - पूर्वभागहार १५६८, १५२८ - १५३५ ।
चतुर्थ गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार पूर्व भागहारसे आठगुणा है । पंचम गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार पूर्व भागहारसे सोलहगुणा है १५७५ । इस प्रकार असंख्यात गुणहानियां जाकर अन्तिम गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार
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४, २, ४ ३२.) वैयणमहाहियारे वेयणदव्वाविहाणे सामित्त
।१३९ णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिगुणिददिवड्डगुणहाणीओ विरलिय सव्वदव्वं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि चरिमगुणहाणिपढमणिसेगो होदि । भागहारसंदिट्ठी | ११७५ ।
पुणो तदणंतरबिदियणिसेगभागहारे भण्णमाणे पुव्वविरलगाए हेट्ठा णिसेगभागहार विरलिय पढमणिसेगं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि गोवुच्छविसेसो पावदि । एदेण पमाणेण उवरिमविरलणरूवधरिदेसु अवणिदे तमधियदव्वं होदि । एवं तप्पमाणेण करिय अधिगदव्वस्स विरलणरूवुप्पत्ती वुच् वदे । तं जहा - रूवूणणिसेगभागहारमेत्तविसेसेसु जदि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तविसेसेसु किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लढे तत्थेव पक्खिते भागहारो होदि | ६३०० ।। एवं णेदव्वं जाव चरिमणिसेओ त्ति ।
.........................................
कहा जाता है- एक कम नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दुगुणा कर जो अन्योन्याम्यस्त राशि उत्पन्न हो उससे गुणित डेढ़ गुणहानियोंका विरलन करके सब द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति अन्तिम गुणहानिका प्रथम निषेक प्राप्त होता है । भागहाराष्ट १५७५ है।
१२८
उदाहरण-एक कम नानागुणहानि ५; इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि ३२ ,
x१९१७ अन्तिम गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार ।
पुनः तदनन्तर द्वितीय निषेकके भागहारको कहते समय पूर्व विरलनके नचेि निषेकभागहारका बिरन करके प्रथम निषेकको समखण्ड करके देपर प्रत्येक एकके प्रति गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है। इस प्रमाण ले उपरिम विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यमेंसे गोपुच्छविशेषों को कम करनेपर वह अधिक द्रव्य होता है । इसको उसके प्रमाणसे करके अधिक द्रव्यके विरलन रूगोंकी उत्पत्ति कहते है । यथा-एक कम निषेकभागहार मात्र विशेषों में यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन मात्र विशेषों में क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छा राशिमें प्रमाण राशिका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसको उसी पूर्व विरलन राशिमें मिला देनेपर भागहार होता है ५२०० ।
उदाहरण- एक कम निषेकभागहार १५, उपरिम विरलन १३००,
६३०० १५ ६३००६-४२० , ६३०० + १३० - ६७६० ६३०० अन्तिम गुण
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हानिके द्वितीय निषेकका भागहार । इस प्रकार अन्तिम निषेक तक भागहारका क्रम ले जाना चाहिये। ..........
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२४० लग्नंटाग देयणाख
। ४,, ४, २२. संपधि चरिगणिसेयपमाणेण सव्वदा मंगुलस्स येदिभागमेतेणे काले अरहिरिज्जदि । तं जहा- चरिम गुणवाणिदवे चरिमाणसेयाम करे रावस्स असंखेन्जदिमागेग अहियरूवूणदिवगहाणनेत चरिमणि सेयः होते । तस्स संदिट्ठो !
संधि चरिमगुणहाणिदव्व पहुांडे सेनगुणहाणिदवाण दुगुप-बुगणकमेण गछीत जात्र पदमगुणहाणिदव्वं । १०० | २०० | १०० ८०० १६०० ! ३००० ति, भरिमगुणहाणिदव्ने रूवूणण्णोण्णमत्यरासिणा गुणिदे सव्वदव्वसमुप्पत्तोदो । रूवूणण्णाषणमत्थराति सम्वदने भागे हिदे परिममुणहाणिदव्वनागच्छदि । किंचूदिवड्वगुणहाणीए रूबगोषणभत्यरासिं गुणिय सम्वदव्व भागे हिदे चरिमपिसेगो आगच्छदि । कुदो ? निगुणादिवम्मि किंचूगदिवड्डगुणहाणिवेत्तचरिमणिसे गुवलंभादो । एदस्स संदिट्ठी । ६३०० ।। एसो भागहारो अंगु लस्स असंखेज्जनिभागो असंजाओ ओपिनि उस्मपिणीओ : जहा – जाणागुणहाणिसलागोवविदरूवूणण्णोण्णभत्थरासिं विरलिय रूवूणण्णोण्णभत्यससे चेव समखंड करिय दिग्णे रुवं पडि गाणागुणहाणिसलागामाणं पावदि । तत्थ एगरूवधरिदरासिणा
अब अन्तिम निषेक के प्रमाण से सब द्रव्य अंगुके असंख्यात भाग मात्र कालसे अपह्रत होता है, यह बतलाते हैं । यथा- अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको अन्तिम निषेकके प्रमाणसे करनेपर एकका असंख्यातवां भाग अधिक एक कम डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेक होते हैं । उसकी संदृष्टि--११५ ।
अब अन्तिम गुणहानिक द्रव्यसं लेकर शेष गुणहानियों का द्रव्य प्रथम गुणहानिके द्रव्यके प्राप्त होने तक दूना दूना होता जाता है-- १००, २००, ४००, ८००, १६००, ३२००, क्योंकि, अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे गुपित करनेपर सब द्रव्यकी उत्पत्ति होती है । एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका सब द्रव्य में भाग देनेपर अन्तिम गुणहानिका द्रव्य आता है। कुछ कम डेढ़ गुणहानिसे एक कम् अन्योन्याभ्यस्त राशिको गुणित कर सब द्रव्यमें माग देनेपर अन्तिम निषेक आता है, क्योंकि, अन्तिम गुणहानिके द्रव्यमें कुछ कम डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेक पाये जाते हैं । इसकी संदृष्टि ५२००। यह मागहार अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी मात्र है। यथा- नानागुणहानिशलाकाओंसे भाजित एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका विरलन करके एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिको ही समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति नानागुणहानियोंकी शलाकाओंका प्रमाण प्राप्त होता है। उनमेंसे एक अंकेके प्रति प्राप्त राशिसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करने पर डेढ़ कर्म
१ प्रतिषु ' - भागहारमेतेण' इति पाठः ।
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४, २, ४, २१. देशणमहाहियारे वेयपदविणे सामित्त
[१४१ दियड्ढगुणहानि गणिदे दिवड्ढकम्मट्ठिदी उप्पज्जदि । दोरूवारदेण गुणिदे तिण्णिकम्मद्विदीओ उप्पज्जति । एवं गंतूण जहणपरित्तासंबेज्ज-ब-त्तिभागभेत्तरूवधरिदरामिणा गुणिदे असंखेज्जकम्मट्ठिदीओ उप्पज्जति । एवं णदव्यं जाव णिस्संदेहो साहुजणो जादो त्ति । तेण चरिमणिसे गभागहारो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ति सिद्धं । अवहारपरूवणा गदा ।
जधा अवहारकालो तधा भागाभागं, सव्वसियाणं सव्वदव्वस्स असंखेजदिभागत्ताद।। भागाभागपरूवणा गदा।
सव्वत्थोवो चरिमणिसेगो ।९।। एटमणिसेगो असंखेज्जगुणो । ५२२ ।। को गुणगारो ? किंचूगण्णोन्मत्थरासी | ५१२ । अपढम-अचारमदव्बमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? एगरूवेण एगरूवस्स असंखज्जाद भागण च परिहीणदिवड्गुणहाणी गुणगारो | ५७७९ । कुदो ? पढमणिले यस्स गुणगारम्मि जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो चरिमणिसेगाहियपटमणिसेगस्स किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छाए ओवट्टिदाए । ५२१ | एगरूवस्स
स्थिति उत्पन्न होती है १२४ ६ = ७२ । दो विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त राशिसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करने पर तीन कर्मस्थितियां उत्पन्न होती हैं १२४ १२ = १४४ । इस प्रकार जाकर जघन्य परीतासंख्यातके दो तीन भाग मात्र विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त राशिसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करनेपर असंख्यात कर्मस्थितियां उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार साधजनके सन्देह रहित हो जाने तक ले जाना चाहिये। इसलिये अन्तिम निषेकका भागहार अंगुलका असंख्यातवां भाग है, यह सिद्ध होता है । अवहारप्ररूपणा समाप्त हुई।
जिस प्रकार अवहारकाल है उसी प्रकार भागाभाग है, क्योंकि, सब निषेक सब द्रव्यके असंख्यातवे भाग मात्र हैं । भागाभागप्ररूपणा समाप्त हुई।
अन्तिम निषेक (९) सबसे स्तोक है । प्रथम निषेक (५१२) उससे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? गुणकार कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि है-६४ - ७१-५१२। उससे अप्रथम-अचरम द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ?
५७७९
एक और एकके असंख्यातवें भागसे हीन डेढ़ गुणहानि गुणकारह-७-११,१४०। इसका कारण यह है कि प्रथम निषेकके गुणकारमें यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो अन्तिम निषेकसे अधिक प्रथम निषेकके गुणकारमें कितने अंकोंकी हानि पायी जायगी, इस प्रकार प्रमाण राशिसे इच्छा राशिको भाजित करनेपर एकका असंख्यातवां भाग अधिक
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५१२
१४२ छवंडागमे बैयणाखंड
[४, २, ४, ३३. असंखेज्जदिमागेणाहियएकरूवस्स परिहाणिदसणादो। १ ।। एदम्मि पत्ता । १२ ।
| १२८ अवणिदे गुणगारो आगच्छदि । तस्स पमाणदं ५७७९ | एदेण फलमणिसेगे गुणिदे एत्तियं होदि | ५७७९ ! अपढमदव्वं विसेसाहियं, चरिमणिसेगपवेसादो । ५७८८ । अचरिमदवं विसेसाहियं, चरिमणिलेंगेणूगपढमणिसेगप्पवेसादो | ६२९१ । सव्वासु हिदीसु दव्वं विसेसाहियं, चरिमणिसेगप्पादो। ६३ ।। एवमप्पाबहुगपरूवणा गदा ।
जेणेवमेगसमयपबद्धस्स रचणा होदि तेग कम्मद्विदिआदिसमयपत्रद्धसंचयस्स भाग हारो अंगुलस्स असंखेज्जदिभायो त्ति सिद्धा । पाहुडे अग्गट्ठिादेपत्तगम्मि भण्णमाणे एगसमयपबद्ध रस कम्मट्टिदिणिमित्तव्यस्त कालो दुधा गच्छदि सांतवेदगकालेण णिरंतरवेदगकालेण च । तत्थ बद्धसमयादो आवलियाअदिक्कंतो समयपबद्धो णियमेण ओकड्डिदूष वेदिज्जदि । तदो उवरि णिरंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालं णियमेण वेदिज्जदि ।
एक अंककी हानि देखी जाती है- ५२१ = १६९३ । इसको इसमें ( १२,३९ ) से घटा देनेपर गुणकार आता है। उसका प्रमाण यह है-- ६१-५२१-५६९। इससे प्रथम निषेकको गुणित करनेपर इतना होता है- ५७७९४५१२ = ५७७९ । अप्रथन
५१२ अचरम द्रव्यसे अप्रथम द्रव्य विशेष अधिक है, क्योंकि, उसमें अन्तिम निषेक प्रविष्ट है-५४७२+९= ५७.८। उससे अचरम द्रव्य विशेष अधिक है, क्योंकि उसमें चरम निषेकसे रहित प्रथम निषक प्रविष्ट है-७८८+ ५१२-९ = ६२९ । उसो सब स्थितियों का द्रव्य विशेष अधिक है, क्योंकि, उसमें अन्तिम निषेक प्रविष्ट है६२९१+९=६३०० । इस प्रकार अल्पब हुत्वप्ररूपणा समाप्त हुई।
यतः एक समयप्रबद्ध की रचना इस प्रकारकी होती है, अत एव कर्मस्थितिके प्रथम समयप्रबद्धके संचयका भागहार अंगुलका असंख्यातवां भाग है, यह सिद्ध होता है।
प्राभूतमें अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यका कथन करते समय कर्मस्थिति में निक्षिप्त हुए समयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्यका काल सान्तरवेदककाल और निरन्तरवेदककालके रूपमें दो प्रकारसे जाता हुआ बतलाया है। उनमेंसे बन्धसमयसे लेकर एक भावलिके पश्चात् प्रत्येक समयप्रवद्ध अपवर्तित होकर नियमसे वेदा जाता है, जो कि इसके आगे पश्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक नियमसे निरन्तर वेदा जाता
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४, २, ४, ३२] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[१४३ एसो णिरंतरो वेदगकालो णाम । तदो उवरिमसमए णियमा अवेदगकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो' । तदो णियमा एगसमयमादि कादूण जावुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागो त्ति णिरंतरवेदगकालो होदि । एवं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमतवेदगकालेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत अवेदगकालेग च समयपबद्धो गच्छदि जाव कम्मट्टिदिचरिमसमयं पत्तो त्ति ।
चारित्तमोहणीयक्खवणाय अहमी जा मूलगाथा तिस्से चत्तारि भासगाहाओ। तत्थ तदियभासगाहाए वि एसो चेव अत्थो परविदो । तं जहा- असामण्णाओ द्विदीओ एक्का वा दो वा तिणि वा, एवं णिरंतरमुक्कस्सेण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ति गच्छंति त्ति । च उत्थगाहाए वि खवगस्स सामण्णहिदीणमंतरमुक्कस्सेण आवलियाए असंखे. ज्जदिभागो त्ति परविदं । तेण कम्महिदिअभंतरे बद्धसमयपबद्धाणं णिरंतरमवट्ठाणाभावादो भागहारपरूवणा ण घडदि त्ति ? ण एस दोसो, उक्कड्डणाए संचिददबस्स गुणिदकम्म. सियचरिमसमए भागहारपरूवणादो। होदि एस दोसो जदि ठिदिपडिबद्धपदेसाणं भागहार
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है। इसको निरन्तरवेदककाल कहते हैं। इससे आगेके समयमें अवेदककाल आता है जो जघन्यसे एक समय और उत्कृष्ट रूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है। तत्पश्चात् एक रूपयसे लेकर उकृष्ट रूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक नियमसे निरन्तरवेदककाल होता है । इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र वेदककाल और पल्योरमके असंख्यातवें भाग मात्र अवेदककालले कर्मस्थितिका अन्तिम समय प्राप्त होने तक समयबद्ध जाता है ।
चारित्रमोहनीयकी क्षपणामें जो मूल गाथा आयी है उसकी चार भाष्यगाथायें हैं। उनमें तीसरी भाष्यगाथामें भी इसी अथकी प्ररूपणा की गई है। यथा- असामान्य स्थितियां एक हैं, दो हैं अथवा तीन हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे पलपोपमके असंख्यातवें भाग तक निरन्तर जाती हैं।
शंका - चतुर्थ गाथामें भी क्षपककी सामान्य स्थितियों का अन्तर उत्कृष्ट रूपसे आवलीका असंख्यातवां भाग कहा गया है। इसलिये कर्मस्थितिके भीतर बांधे गये समयप्रबद्धोंका निरन्तर अवस्थान न होनेसे भागहारकी प्ररूपणा घटित नहीं होती है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कर्षणा द्वारा संचित हुए व्यका गुणितकौशिकके अन्तिम समयमें भागहार कहा गया है । याद यहां स्थितिके सम्बन्धसे प्रदेशोंकी भागहारप्ररूपणा की जाती तो यह दोष हो सकता था । किन्तु यहां
१ प्रतिषु · संखेजदिभागो' इति पाठः ।
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१४४] छक्खंडागमे बेयणाखंड
[१, २, ४, ३२. परूवणा कीरदि । ण च एत्थ ठिदिणियमो अस्थि । तेण णिरंतरभागहारपरूवणा ण सांतरणिरंतरवेदगकालेण सह विरुज्झदे । उक्कड्डणाए उवरिमविदीओ पत्ताणं एगसमयपबद्ध. पदेसाणं कधं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालमोक्कड्डणुदयाभावो जुज्जदे ? ण, उवसामणादिकरणवसेण तेसिं तदविरोहादो। ओकड्डणाए णट्ठदवं सुट्ट स्थावं त्ति तमप्पहाणं करिय एत्थ ताव भागहारो उच्चदे- कम्मद्विदिआदिसमयपबद्धसंचयस्स भागहारो परूविदो । एहि कम्मट्ठिदिबिदियसमयसंचयस्स भागहारो उच्चदे । तं जहा- कम्मट्ठिदिपढमसमयसंचिददवभागहारं विरलिय सबदव्वं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि चरिमणिसेगपमाणं पावदि । पुणो एदस्स भागहारस्स अद्धं विरलिय सव्वदव्वं समखंड करिय दिण्णे दो दो चरिमणिसमा रूवं पडि पावेंति । ण च दोहि चरिमणिसेगेहि चेव कम्मढिदिबिदियसमयसंचओ होदि, तस्म चरिम-दुचरिमणिसंगपमाणत्तादो। तम्हा दोणं चरिमणिसेगाणमुवरि जहा एगो गोवुच्छविसेसो अहियो होदि तहा अवहारकालस्स
स्थितिका नियम नहीं है। इस कारण निरन्तर भागहारकी प्ररूपणा सान्तर व निरन्तर पेदककालके साथ विरोधको नहीं प्राप्त होती।
शंका-उत्कर्षणा द्वारा उपरिम स्थितियोंको प्राप्त हुए एक समयबद्धके प्रदेशोंका पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल तक अपकर्षण और उदयका अभाव कैसे बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उपशामना आदि करणोंके द्वारा उनका उतने काल तक अपकर्षणका अभाव और उदयाभाव मानने में कोई विरोध नहीं आता।
अपकर्षणा द्वारा नष्ट हुवा द्रव्य बहुत स्तोक है; इस कारण उसे गौण करके यहां सर्वप्रथम भागहारका कथन करते हैं - कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बन्धको प्राप्त हुए संचयके भागहारकी प्ररूपणा की जा चुकी है। यहां कर्मस्थितिके द्वितीय समयमें हुये संचयका भागहार कहते हैं । यथा- कर्मस्थितिके प्रथम समयमें संचित द्रव्यके भागहारका विरलन करके सब द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति अन्तिम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इस भागहारके अर्थ भागका विरलन करके सब द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति दो दो अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं। किन्तु मात्र दो अन्तिम निषेकोंके द्वारा कर्मस्थितिके द्वितीय समयका संचय नहीं होता, क्योंकि, वह चरम और द्विवरम निषेक प्रमाण है। इस कारण दोनों अन्तिम निषेकोंके ऊपर जिस प्रकार एक गोपुच्छविशेष अधिक होवे उस प्रकार अवहारकालकी परिहानि की जाती है। यथा - नीचे एक अधिक गगहानिको जितने स्थान आगेक विवक्षित हों उनसे गुणत करके जो लब्ध आव उसे जितने स्थान
१ अ-आप्रत्योः चिरिमाणसेगो' इति पाठः !
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१, २, १, ३२.1 वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त
[१०५ परिहाणी कीरदे । तं जहा - हेट्ठा रूवाहियगुणहाणि चडिदद्धाणगुणं रूवूणाडिदाणसंकलणाए ओकड्डिय विरलिय एगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे एवं पडि एरोगगोवुच्छविसेसो पावदि । एत्थ एगविससं घेत्तूण उवरिमविरलणाए बिदियरूवधरिदम्मि दिण्णे चरिमदुचरिमणिसेयपमाणं कम्मट्टिदिबिदियसमयसंचयतुल्लं होदि । एवं सेसविसेसे वि उवरिमरूवधरिदेसु दादूण समकरणं करिय परिहाणिरूवाणि उप्पाएदव्वाणि । तं जहा- स्वाहियगुणहाणिणा दुगुणेण रूवूणगुणगारसंकलणाए ओवट्टिय कर्यरूवाहिएण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहाणिरूवाणि लभंति । पुणो तेसु तत्तो सोहिदेसु भागहारो होदि । एदेण समयपबद्धे भागे' हिंदे चरिम-दुचरिमणिसेगपमाणं होदि । का भागहार लाना है, एक कम उनके संकलनका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसका विरलन करके एक अंकेके ऊपर रखी हुई राशिको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति एक एक गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है। यहां एक विशेषको ग्रहण कर उपरिम विरलनके द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त राशिके ऊपर देनेपर चरम और द्विचरम निषेकोंका प्रमाण कर्मस्थितिके द्वितीय समय सम्बन्धी संचयके तुल्य होता है। इसी प्रकार शेष विशेषोंको भी उपरिम विरलन अंकोंके ऊपर देकर समीकरण करके हीन अंकोंको उत्पन्न कराना चाहिये। यथाएक अधिक गुणहानिको दूना कर उससे एक कम गुणकारके संकलनको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे एक अधिक करनेसे यदि एक अंककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे अपवर्तित करनेपर परिहीन अंक प्राप्त होते हैं । पुनः उनको उक्त राशिमेंसे घटानेपर भागहार प्राप्त होता है। इसका समयप्रबद्धमें भाग देनेपर चरम और द्विचरम निषेकोंका प्रमाण होता है।
उदाहरण- पूर्व भागहारका अर्ध भाग ३५०; गुणहानि ८, चडित अध्वान २, एक कम चडित अध्वान संकलन १।
६३०० ३५० = १८ दो अन्तिम निषेक। ८ + १ = ९, ९४२ = १८, १८ : १ = १८ विरलन राशि
३५०’ १९ = ३५०, ३५० - ३५० = ३३१ ११ चरम द्विचरम निषेक प्राप्त कर
नेका भागहार। ६३०० ’ ६३०० = १९ चरम-द्विचरम निषेक ।
१९
२९
१९
१ अप्रतौ 'विरलणाए' इति पाठः। २ अप्रतौ · सुकलणाए ओवदि कय-' इति पाठ । ३ प्रतिषु 'समयपबद्रेण भागे' इति पाठः।
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१४६] छक्खंडागमे बेयणाखंड
४, २, ४ ३२. ... एवं रूवाहियगुणहाणि चडिदद्धाणण गुणिय चडिदद्धाणरूवूणसंकलणाए ओवट्टिय रूवाहियं करिय एदेण फलगुणिदिच्छामोवट्टिय परिहाणिरूवाणमुप्पत्ती सव्वत्थ वत्तव्वा । अधवा दुरूवाहियणिसेगभागहारं रूवूणचडिदद्धागेण ओवट्टिय रूवाहियं करिय फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहाणिरूवाणि लभंति । अथवा रूवूणचडिदद्धाणद्धेण रूवाहियगुणहाणिमावीट्टय स्वाहियं काऊण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहाणिरूवाणि लब्भंति । अधवा रूवाहियगुणहाणिणा चरिमणिसेयभागहारं गुणिय विरलिय समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगगोवुच्छविसेसो पावदि त्ति कादूण चडिदद्धाणेण रूवाहियगुणहाणिं गुणिय चडिदद्धाणरूवूणसंकलणं तत्थेव पक्खिविय पुव्वविरलणाए ओवट्टिदाए इच्छिदसमयपबद्धसंचयस्स भागहारो होदि । एवं चदुहि पयारेहि एगसमयपबद्धसंचयस्स भागहारो
...........
इस प्रकार एक अधिक गुणहानिको आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनसे गुणित कर आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनकी एक कम संकलनासे अपवर्तित करके जो प्राप्त हो उसमें एक मिलाकर इससे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर परिहीन रूपोंकी उत्पत्ति सर्वत्र कहना चाहिये।
__अथवा, दो अधिक निषेकभागहारको एक कम आगेके जितने स्थान विवक्षित हो उनसे अपवर्तित कर जो प्राप्त हो उसमें एक मिलाकर उससे फलगुणित इच्छाके भाजित करनेपर परिहीन अंक प्राप्त होते हैं।
उदाहरण-निषेकभागहार १६, चडित अध्वान २;
१६ + २ = १८, १८ : १ = १८; १८ + १ = १९, ३५० : १९ = ३५०, ३५० - १५० = ३३१११.
अथवा एक कम आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनके अर्ध भागसे एक आधिक गुणहानिको भाजित कर जो प्राप्त हो उसमें एक मिलाकर उससे फलगुणित इच्छाको भाजित करने पर परिहीन रूप प्राप्त होते हैं ।
उदाहरण- चडित अध्वान २; गुणहानि ८; २-१=१,१४ १ - १ ; ८+ १ = ९ १ १८, १८+ १ = १९
३५०- १९ = ३२९ ३५० - ३५० = ३३१ ११ ।
अथवा, एक अधिक गुणहानिसे अन्तिम निषेकके भागहारको गुणित करके विरलित कर समयप्रबद्धको समणण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति एक एक गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है, ऐसा समझकर आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनसे एक अधिक गुणहानिको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसमें ही आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनके एक कम संकलनको मिलाकर पूर्व विरलनके अपवर्तित करनेपर इच्छित समयप्रबद्धके संचयका भागहार होता है।
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४, २, ४, ३२.1 वेयणमहाहियारे वेयणदध्वविहाणे सामित्त
[१७ साधेदव्यो। विदियसमयपबद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी | ६३०० ।
१९ । संपधि तिण्णिसमए उवरि चडिय बद्धसमयपबद्धसंचयस्स भागहारे आणिज्जमाणे चरिमणिसगभागहीरतिभागं विरलिय समयपबद्धं समखंड करिय दिपणे एवं पडि तिषिणतिण्णि चरिमणिसेगा पाति । पुणो हेवा दुगुणरूवाहियगुणहाणिं रूवूणचडिदद्धाणेण खंडिदं विरलिय उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं करिय दिप्णे रूवं पडि रूवूणचडिदद्धाणसंकलणमेत्तगोवुच्छविसेमा पार्वति । तेसु उवरिमविरलणरूवधरिदतिसु चरिमणिसेगसु पक्खित्तेसु इच्छिदसंचओ होदि, रूवाहियटिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण एगरूवपरिहाणी च लन्भदि । एवं समकरणे कदे परिहाणिरूवाणं पमाणमुच्चदे--- रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लभामो त्ति फलगुणिदिच्छाए पमाणेणोवट्टिदाए परिहाणिरूवाणि लभंति । पुव्वं व एदाणि चदुहि पयारेहि आणिय उवरिमविरलणाए अवणिदेसु इच्छिदसंचयभागहारो होदि । ६३०० | । एदेण समयपबद्धे भागे
। ३०
उदाहरण- अन्तिम निषेकभागहार ७००, गुणहानि ८, चडित अध्वान २; ८+ १ = ९, ७००४९ = ६३००। ८+१- ९९४२ - १८; १८ + १ = १९ ६३०० * १९ = ६३०० इच्छित भागहार
इस तरह चार प्रकारसे एक समयप्रबद्धके संचयका भागहार सिद्ध करना चाहिये। द्वितीय समयप्रबद्ध के संचयके भागहारकी संदृष्टि- ६३००।
अब तीन समय आगे जाकर बांधे समयप्रबद्ध के संचयके भागहारको लाते समय अन्तिम निषेकके भागहारके त्रिभागका विरलन करके समयबद्ध को समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति तीन तीन अन्तिम निषक प्राप्त होते हैं। पश्चात् उसके नीचे आगेके जितने स्थान विवक्षित हों, एक कम उनसे भाजित एक अधिक गुणहानिके दुनेका विरलन करके उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति एक कम आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनके संकलन मात्र गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। उनको उपरिम विरलनपर धरे हुए तीन अन्तिम निषेकों में मिलाने पर इच्छित संचयका प्रमाण होता है, तथा एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर एक अंककी हानि भी पायी जाती है। इस प्रकार समीकरण करनेपर कम हुए अंकका प्रमाण कहते हैं- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान आकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें कितने अंकोंकी हानि पायी जावेगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे अपवर्तित करने पर परिहीन अंक प्राप्त होते हैं। पूर्वके समान इनको उक्त चारों प्रकारोले लाकर उपरिम विरलनमैसे घटा देने पर इच्छित संचयका भागहार होता है- ६३०० । इसका समयप्रषद्ध में
१ अ-काप्रत्योः ‘भागहारं विलिय ' सप्रती 'भागहारविभागं विरलिय' इति पाठः ।
३०
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१९८] छक्खंडागमे वैयणाखंड
[४, २, ४, ३२ हिदे इच्छिददव्वं होदि । एवं सव्वत्थ अब्वामोहेण चदुहि पयोरेहि भागहारो साहेयव्यो ।
संपधि एगादिएगुत्तरकमेण वड्डमाणा केत्तियमद्धाणं गंतूण रूवाहियगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसा होति जेण रूवाहियचडिदद्धाणेणं चरिमणिसेगभागहारस्स ओवट्टणा कीरदे ? कम्मद्विदिपढेमसमयप्पहुडि गुणहाणिअद्धवग्गेमूलगुणे रूवाहिए उवरि चडिदे होदि । तं जहा- तत्थ ताव गुणहाणिपमाणं संदिट्ठीए बारसुत्तर-पंच-सदं । ५१२ ।। गुणहाणिअद्धमेदं | २५६ ।। एदमद्धवग्गमूलं । १६ ।। अद्धपमाणमेदं | ३२ । गुणहाणिअद्धवग्गमूलमणवट्टिदभागहारो णाम, एदस्स अवट्ठाणाभावादो। एसो पढमरूवे उप्पाइज्जमाणे असंखज्जपलिदोवमबिदियवग्गमूलमेत्तो, सव्वकम्मगुणहाणीणं असंखज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो। उवरि हायमाणो गच्छदि जाव एगरूवं पत्तो त्ति । एदीए संदिट्ठीए अत्थो साहेदव्वो । तं जहा- अणवहिद
भाग देनेपर इच्छित द्रव्य होता है । इस प्रकार व्यामोहसे रहित होकर सर्वत्र चार प्रकारसे भागहार सिद्ध करना चाहिये।
उदाहरण- अन्तिम निषेकका भागहार ७००, चडित अध्वान ३ । ६३०० ७०० = २७ तीन अन्तिम निषेक। ३ - १ = २, ८+ १ - ९,९४२ = १८, १८ : २ = ९; २७ : ९ ३ चडित अध्वानके संकलन मात्र गोपुच्छविशेष । २७ +३ = ३० इच्छित संचय ।
अब एक आदि उत्तरोत्तर एक अधिक क्रमसे बढ़ते हुए कितने स्थान जाकर एक भधिक गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेष होते हैं, जिससे एक अधिक आगेके विवक्षित स्थानोंसे अन्तिम निषेकके भागहारकी अपवर्तना की जाती है ? कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर गुणहानिके अर्ध भागके वर्गमूलसे गुणित कर एक अधिक आगे जानेपर उक्त गोपुच्छविशेष एक अधिक गुणहानि मात्र होते हैं । यथा-गुणहानिका प्रमाण संदृष्टिमें पांच सौ बारह ५१२ है। गुणहानिका आधा यह है-२५६ । यह अर्ध भागका वर्गमूल १-१६। अद्धाका प्रमाण यह है-३२ गुणहानिके अर्ध भागका वर्गमल अनवस्थित भागहार है, क्योंकि, यह अवस्थित नहीं पाया जाता । प्रथम रूपके उत्पन्न कराते समय यह असंख्यात पल्योपमके द्वितीय वर्गमूल प्रमाण होता है, क्योंकि, सब गुणहानियां भसंख्यात पल्योपमोंके प्रथम वर्गमूलोंके बराबर हैं । आगे वह एक रूप प्राप्त होने तक हीन होता हुआ चला जाता है।
................
१ अप्रतौ ' चडिदहाणीग', आप्रतौ ' चडिदद्धाणाणं', काप्रती ' चडिदद्धाणीण ', मप्रतौ ‘चडिदाणेण'
इति पाठः । २ अप्रतौ ‘गुणवग्ग ' इति पाठः। ३ आप्रती ' एदमेत्य ' कापतो 'एदमत्थ' इति पाठः।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वैयणदत्वविहाणे सामित्त भागहारेण गुणहाणिअद्धाणे खंडिदे भागहारादो दुगुणमागच्छदि | ३२।। लद्धमेदं रूवाहियमुवरि चडिदूण बद्धसमयपबद्धसंचयरस भागहारो रूवाहियचडिदद्धाणेण चरिमणिसेगभागहारे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तो होदि । तं कधं णव्वदे ? उच्चदे- चरिमणिसेगादि चडिदद्धाणगच्छगोवुच्छविसेसुत्तरसंकलणखेत्तं ठविय । । । एत्थ चरिमणिसेग
१३२
विक्खंभं चडिदद्धाणदीहखेत्तं तच्छेदूण पुध विदे तत्थ चडिदद्धाणमेत्तचरिमणिसेगा लभंति |९|३२|| पुणो अवणिदसेससखेत्तमेवं | १
ठविय मज्झम्मि फालिय
३२
अधोसिरं करिय बिदियादोपासे संघिदे गुणहाणिअद्धवम्गमूलं अद्धरूवाहियं विक्खभो । आयामो पुण रूवूणचडिदद्धाणमेत्तो । पुणो अणवहिदभागहारविक्खंभेण लद्धमत्तायामे गुणिदे गुणहाणिमेतगोवुच्छविसेसा होति । पुणो तत्थ उव्वट्टिदअणवहिदभागहारमत्तगोवुच्छासेसेसु एगगोवुच्छविसेसं घेतूण पक्खित्ते एगो चरिमणिसेगो उप्पज्जदि । तम्मि पुन्विल्लणिसेगेसु
इस संदृष्टिका अर्थ कहते हैं । यथा- अनवस्थित भागहारका गुणहानिके प्रमाणमें भाग देनेपर भागहारसे दुगुणा आता है ३२। इस लब्धमें एक मिलानेपर जो प्रमाण हो उतना आगे जाकर बांधे हुए समयप्रबद्ध के संचयका भागहार एक अधिक जितने स्थान आगे गये हों उससे अन्तिम निषेकके भागहारको भाजित करनेपर उनमें एक खण्डके बराबर होता है।
शंका - वह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- इस शंकाका उत्तर कहते हैं। यहां अन्तिम निषेक प्रमाण विस्तारघाले और जितने स्थान आगे गये हैं उतने आयामवाले क्षेत्रको छीलकर अलग रखनेपर उसमें जितने स्थान आगे गये हैं उतने अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं ९ x ३३ । पुनः निकाले हुए शेष क्षेत्रको इस प्रकार (संदृष्टि मूलमें देखिये) स्थापित कर बीचमेंसे फाड़कर
और [उलटा कर] दूसरे क्षेत्रके पार्श्व भागमें मिला देनेपर एकका आघा अधिक गुणहानिके अर्ध भागके वर्गमूल प्रमाण विष्कम्भ होता है और आयाम एक कम जितने स्थान
गे गये हैं उतना होता है । फिर अनवस्थित भागहार रूप विष्कम्भसे लब्ध मात्र आयामके गुणित करनेपर गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेष होते हैं ३२४ १६ = ५१२ । पुनः उन बचे हुए अनवस्थित भागहार मात्र गोपुच्छविशेषोंमेंसे एक गोपुच्छविशेष ग्रहण कर मिला देनेपर एक अन्तिम निषेक उत्पन्न होता है। उसको पूर्व निषेकोंमें मिलाने
, काप्रती 'मागहारो' इति पाठः।
२ काप्रतौ गिसेगाणं 'शीत पाठः ।
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१५.1 छक्खंडागमे वैयणाखंड
१, २, ४, ५२. पक्खित्ते रूवाहियचडिदद्धाणमेत्तचरिमणिसेगा होति । पुणो एदाहि चरिमणिसेगसलागाहि चरिमणिसेगमागहारमावट्टिय उवहिदगोवुच्छविसेसाणमागमणटुं किंचूर्ण कदे इच्छिदभागहारो होदि ।
एत्थ अत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- अणवहिदभागहारं वग्गिय दुगुणेदूण गुणहाणिम्हि भागे हिंदे पक्खेवरूवाणि आगच्छति । दुगुणिदभागहारे पक्खेवरूवेहि गुणिदे अद्धमागच्छदि । संपहि रूवूणुप्पण्णद्धाणस्स पुध परूवणा कीरदे । तं जहा- जम्हि अद्धाणे एगादिएगुत्तरवडीए गदगोवुच्छविससा सव्वे मेलिदूण रूवाहियगुणहाणिमेत्ता होंति तम्हि एगरूवमुप्पज्जदि । एत्थ रूवाहियगुणहाणी गोवुच्छविसेसाणं संकलणसंदिट्ठी | ९ ।।
धणमट्टत्तरगुणिदे विगुणादीउत्तरूणवग्गजुदे ।
मूलं पुरिमूलूणं बिगुणुत्तरभागिदे गच्छो ॥ १४ ॥ एदीए गाहाए गच्छाणयणं वत्तव्यं । तं जहा - धणमट्ठहि गुणिदे संदिट्ठीए बाहतरि | ७२।। उत्तरं गुणिदे एसा चेव होदि, उत्तरस्स एगत्तादो । दुगुणमादिमुत्तरूणं । १ ।
पर एक अधिक जितने स्थान आगे गये हैं उतने अन्तिम निषेक होते हैं । पुनः इन अन्तिम
कोकी शलाकाओंसे अन्तिम निषेकके भागहारको अपवर्तित कर उपस्थित गोपुच्छविशेषोंके लानेके लिये कुछ कम करनेपर इच्छित भागहार होता है।
यहां अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- अनवस्थित भागहारका वर्ग करके दुगुणित कर गुणहानिमें भाग देनेपर प्रक्षेप रूप आते हैं। दुगुणित मागहारको प्रक्षेपरूपोंसे गुणित करनेपर अध्वान आता है । अब उत्पन्न हुए एक अध्वानकी पृथक प्ररूपणा करते हैं। यथा- जिस अध्वानमें एकसे लेकर उत्तरोत्तर एक अधिक वृद्धिको प्राप्त हुए गोपुच्छविशेष सब मिलकर एक अधिक गुणहानि मात्र होते हैं उसमें एक रूप उत्पन्न होता है। यहांपर एक अधिक गुणहानि (९) गोपुच्छविशेषोंके संकलनकी संरष्टि है।
धनको आठसे और फिर उत्तरसे गुणा करके उसमें, द्विगुणित आदि से उत्तरको कम करके जो राशि प्राप्त हो उसके वर्गको जोड़ दे । फिर इसके वर्गमूल में से पहलेके प्रक्षेपके वर्गमूलको कम करके शेष रही राशिमें द्विगुणित उत्तरका भाग देने पर गच्छका प्रमाण आता है ॥१४॥
इस गाथा द्वारा गच्छ लानेकी विधि कहनी चाहिये । यथा-- धनको आठसे गुणित करनेपर संदृष्टिकी अपेक्षा बहत्तर ७२ होते हैं। इसे उत्तरसे गुणा करनेपर थही संख्या होती है, क्योंकि, यहां उत्तरका प्रमाण एक है । आदिको दुना करके फिर उससे उत्सरको कम करके (१४२ - २,२-१% १) वर्गित कर मिलानेपर इतना
१ प्रतिषु — रूउप्पण्णद्धाणस्स ' इति पाठः।
२ प्रतिषु | ६ |, मप्रतौ |९] इति पाठः ।
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। १५१
.
४, २, ४, ३२.] वेयणमहोहियारे वेयणदध्वविहाणे सामित्त वग्गिय पक्खित्ते एत्तियं होदि । ७३ । । एसा करणिसुद्धं वग्गमूलं ण देदि ति एवं चेव हुवेदव्वा । पुव्विल्लपक्खेवमूलमेक्को । १।। पुव्विल्लरासी जदि रूवगया तो तत्थ एदस्स अवणयणं कीरदे । सा पुण करणिगया त्ति एदिस्से ण तत्थ अवणयणं काउं सक्किज्जदि त्ति पुध द्ववेदम्पा | || सोज्झमाणादो एदिस्से रिणसण्णा । पुणो विगुणेण उत्तरेण भागे घेप्पमाणे करणीए करणी चेव रूवगयरस रूवगय चेव भागहारो हेोदि ति णायादो करणी' चदुहि छेत्तव्वा, रूवगयं दोहि।। | एसो रूवाहियगुणहाणिमेत्तसंकलणाए गच्छो । एसो
घेव रूवाहिओ चडिदद्धाणं होदि ।
संपहि एदम्हादो गच्छादो रूवाहियगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसाणमुप्पत्ती उच्चदे । तं जहा- संकलणरासिम्मि छेदो रासी द्धावयाँ (१) हि त्ति दो गच्छा ठवेदब्बा |७३७३ ।।
एत्थ एगरासी रूवं पक्खिविय अद्धेदव्वा त्ति रिणद्धरूवं धण-धणरूवम्हि अवणिय अद्धिदे अर्थात् ७२ + १ = ७३ होता है। इससे करणिशुद्ध वर्गमूल नहीं प्राप्त होता, इसलिये इसे इसी प्रकार रहने देना चाहिये। पहले के प्रक्षेपका वर्गमूल एक है। पहले की राशि यदि रूपगत अर्थात् प्रत्येक हो तो उसमेंसे इसे घटा देना चाहिये । परन्तु वह करणिगत है, इसलिये इसे उसमें से नहीं घटाया जा सकता है। अत एव इसे अलग स्थापित कर देना चाहिये + । शोध्यमान अर्थात् घटाने योग्य होनेसे इसकी ऋण संशा है । फिर दुगुने उत्तरका भाग ग्रहण करते समय करणिगतका करणिगत ही भागहार होता है और रूपगतका रूपगत ही भागहार होता है, इस नियमके अनुसार करणिमें चारसे और रूपगतमें दोसे भाग लेना चाहिये। यह एक अधिक गुणहानि मात्र संकलनका
४२
गच्छ है। यही एकाधिक करनेपर आगेका स्थान होता है।
अब इस गच्छके आधारसे एक अधिक गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेषोंकी उत्पत्ति का कथन करते हैं । यथा- संकलन राशिमेंसे छेद राशि ...
....... (8) इसलिये दो गच्छ स्थापित करना चाहिये ७३ १ ७३ ।। यहां इस राशिमें एक मिलाकर आधी करनी चाहिये। इसलिये ऋणके एक बटे दोको धनधन रूप राशिमेंसे घटा कर आधा करने पर इतना .७३१ होता है। इससे गच्छको दुप्रति
१ प्रतिषु · रूवगच्छियस्स' इति पाठः २ प्रतिषु 'करण' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'रूवगये' इति पाठः । ४ मप्रतौ स्थावया' इति पाठः ।
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१५२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. एत्तियं होदि |७३ । । । एदेहि गच्छं दुप्पडिरासिय गुणिदे सो रासी उप्पज्जदि
| एत्थ वाम-दाहिणदिसाठिदकरणिगयधण-रिणाणं सरिसाणमवणयणं
६४
काऊण सेसकरणिगयस्स मूलमेत्तियं होदि |७३ । एत्थ हेडिमरिणमेगरूवट्ठमभागं सोहिय अट्ठहि भागे हिदे स्वाहियगुणहाणिमेत्ता गोवुच्छविसेससंकलणा होदि ।९।।
संपहि बिदियरूवे उप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं चउसहि [६४) । गुणहाणिचदुभागो | १६ । चदुब्भागवग्गमूलं [४] । चदुब्भागवग्गमूलेण गुणहाणिअद्धाणम्मि भागे हिदे भागहारादो चदुगुणमागच्छदि । १६|| एदं रूवाहियमुवरि चडिदूण बंधमाणस्स रूवाहियचडिदद्धाणमेत्तरूवोवट्टिदचरिमणिसंगभागहारो होदि । तं जहा- संकलणक्खेतं ठविय चरिमणिसेयपमाणेण तच्छिय पुध दृविदे चडिदद्धाणमेत्तचरिमाणसेगा होंति ९ | १७। सेसखेत्तं भागहारचदुगुणमेत्तसम-त्तिभुजं चेहदि । पुणो एवं मझे छेत्तण समकरणे कदे भाग
राशि करके गुणा करने पर यह राशि उत्पन्न होती है .५३२९,
यहां वाम और दक्षिण दिशामें स्थित करणिगत धन और ऋणके सदृश अंकोंका अपनयन कर शेष करणिगतका मूल इतना होता है । इसमेंसे अधस्तन ऋण एक बटे आठको कम करके आठका भाग देने पर एक अधिक गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेषोंका संकलन होता है ३१ = ७२, ७२ : ८ = ९।
अब द्वितीय रूपके उत्पन्न करानेपर गुणहानिका प्रमाण ६४ है । गुणहानिका चौथा भाग १६ है । चौथे भागका वर्गमूल ४ है । चौथे भागके वर्गमूलसे गुणहानिअध्यान में भाग देनेपर भागहारसे चौगुना १६ आता है। एक अधिक ऊपर जाकर इसे बांधनेवालेके रूपाधिक जितने स्थान आगे गये हों तन्मात्र अंकोंसे भाग देनेपर अन्तिम निषेकका भागहार होता है । यथा- संकलन क्षेत्रको स्थापना करके अन्तिम निषेक प्रमाण छीलकर पृथक् रखनेपर जितने स्थान आगे गये हों उतने अन्तिम निषेक होते हैं ९४१७ । शेष क्षेत्र भागहारसे चौगुना सम त्रिभुजाकार स्थित रहता है। फिर इसे बीच में चीरकर समीकरण करनेपर भागहारसे चौगुना आयामवाला और दुगुना विस्तारवाला होकर
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४, २, ४, ३२. ]
यणमहाहियारे यणदव्वविहाणे सामित्तं
विक्खंभा
૨૬
हारचद्गुणमेत्तायामदुगुणविक्खंभं है|दूण चेदि ||१६|| दो खंभायामाणं पुध पुध संवग्गं काऊण उव्वरिभागहारद्वगुणमत्त गोवुच्छविसेसेसु दोगो वुच्छविसेसे घेतू पक्खित्ते दो रिमणिसेगा उप्पज्जेति । ते चडिदद्धाणमेत्तचरिमणिसेगेसु पक्खिविय [९ | १९] चरिमणिसेगसलागाहि चरिमणिसगभागहारे ओवट्टिदे इच्छिदभागहारो होदि । वरि उव्वरिदेविसेसागमणङ्कं किंचूणं कायव्वं ।
संपहि एत्थ पुधद्वाणपरूवणा कीरदे । तं जहा दुगुणरूवाहियगुणहाणि - गच्छविसेसंकलणं ठविय | १८ | अट्ठहि उत्तरेहि य गुणिय उत्तरुण दुगुणादिं वग्गिय पक्खित्ते एत्तियं हादि १४५ || एसा करणिपैक्खवमूलं ||| एदाओ दो वि सीओ समयाविरोहण अच्छिदे गच्छो होदि + । एत्थ रूवं पक्खित्ते चडिदद्धाणं होदि ।
१४५ १
४ २
दहादो गच्छादो संकलणाणयणविवरणं' उच्चदे । तं जहा
गच्छम्म रिणद्धं रूवम्मि
स्थित रहता है । फिर दोनों खण्डोंके विष्कम्भ और आयामका अलग अलग संवर्ग करके शेष बचे भागहारके दूने मात्र गोपुच्छविशेषोंमें से दो गोपुच्छविशेषोंको ग्रहण कर मिलानेपर दो अन्तिम निषेक उत्पन्न होते हैं । उन्हें जितने स्थान आगे गये हों उतने अन्तिम निषेकोंमें मिलाकर ९, १९ अन्तिम निषेकोंकी शलाकाओंसे अन्तिम निषेकके भागहारमें भाग देनेपर इच्छित भागहार होता है । इतनी विशेषता है कि शेष बचे विशेषोंको लानेके लिये कुछ कम करना चाहिये ।
अब यहां पृथक् अध्वान का कथन करते हैं । यथा - एक अधिक गुणहानिको दूना करके जो संख्या उत्पन्न हो उतने गोपुच्छविशेषका संकलन ( १८ ) स्थापित कर आठसे और उत्तरसे गुणित करके उसमें एक कम दूने आदि (एक) का वर्ग मिलाने पर इतना होता है १४५ । [ एक अधिक गुणहाणिका दुगुना ८ + १ = ९ ९ x २ = १८ । १८ x ८ = १४४; उत्तरका प्रमाण १, १४४ x १ = १४४; ( १ x २ = २; २ - १ = १ ) ; ( १ ) = १; १४४ + १ = १४५ । ] यह करणिप्रक्षेपका मूल है + १ [ पहिलके प्रक्षेपका वर्गमूल १ है जो १४५ के वर्गमूलकी ऋण राशि है । ] इन दोनों राशियोंको यथाविधि स्थापित करनेपर गुच्छ होता है १ । इसमें एक सिल।नेपर आगेका विवक्षित स्थान होता है ।
१
+
२
अब इस गच्छके आधार से संकलन के लानेका विवरण कहते हैं । यथा[ यहां दो गच्छ स्थापित करना चाहिये और उनमें से एक गच्छ में एक मिलाकर आधा करना चाहिये । ] ऋण राशिके अर्ध भागको एक मेंसे घटा कर शेष धनके अर्ध भागको
-
-
[ १५१
१४५ ४
२ अप्रतौ ' पुधट्ठाण ' इति पाठः । ३ ताप्रतौ ' करणे ' इति पाठः ! ५ अ-काप्रत्योः ' सकलणाणयणविवराण, ताप्रतौ संकलणणविवरां
।
१ प्रतिषु ' उवरिद ' इति पाठः । ४ ताप्रतौ ' अ - ( त ) च्छिदे ' इति पाठः ( ? ) णे ' इति पाठः । छ. व. २०.
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१५४ ]
छक्खंडागमे बेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३२.
फाडिय सेसधणद्धरुवं पक्खिविय अद्धिए एदं | १४५ | १ | | एदेहि दोहि वि पुध पुध
१६/४
पडिरासिय गच्छं दुगुणिदे एत्तियं होदि
दिसादिरासीणं धण- रिणाणमवणयणं काऊण मूलं घेत्तूण रिणट्ठमभागमवणिय अट्ठहि भागे हिदे दोचरिमणिसेगा आगच्छंति | १८ | 1
तिसु पक्खेवरूवेसु उप्पाइज्जमाणसु गुणहाणिपमाणं छण्णउदी | ९६ | । एदस्स छब्भागो | १६ | | छब्भागमूलं | ४ || एदेण अणवद्विदभागहारेण गुणहाणिम्हि भागे हिदे भागहारादो गुणमा गच्छदि । पुणो एदं रूवाहियमुवरि चडिदूण बंधमाणस्स ओवट्टण - रुवाणं प्रमाणं तिरूवाहियचडिदद्वाणं होदि । कुदो ? संकलणखेत्तं ठविय मज्झम्हि फाडिय समकरणे कदे भागहारादो तिगुणविक्खंभ- छग्गुणायाम खेत्तुप्पत्तिदंसणादो । एदस्स खेत्तस्स
गच्छ में मिलाकर आधा करनेपर इतना होता है
१६ ४
१४५ + । फिर इन दोनों ही राशियों से अलग अलग दुप्रतिराशि रूपसे स्थित गच्छको गुणित करनेपर इतना होता है १४५ + - 2 | यहां वाम और दक्षिण दिशा में ६४
१४५
२१०२५ ६४
६४
८
स्थित धन और ऋण राशियोंका अपनयन करनेके पश्चात् वर्गमूल ग्रहण कर ऋण रूप एक बटे आठको घटा कर आठका भाग देनेपर दो अन्तिम निषेक आते हैं १८ ।
१४४
[J
२१०२५ ६४
१ १४५ ८ ८
१४४ ÷ ८ = १८; यह दो प्रतिम
निषेक प्रमाण गोपुच्छविशेषका संकलन है । अर्थात् कर्मस्थितिके प्रथम समय से लेकर + स्थान आगे जानेपर गोपुच्छविशेष दो अन्तिम निषेक प्रमाण
१४५
२
-
१ अप्रतौ | २१०२५
૪
+ १४५
६४
--
+ + + । एत्थ वाम-दाहिण
२१०२५ १४५ १४५ १ ६४ ६४
६४
- 1⁄2
होते हैं ] |
तीन प्रक्षेप अंकों को उत्पन्न कराते समय गुणहानिका प्रमाण छयानबे ९६ है । इसका छठा भाग १६ है । छठे भागका वर्गमूल ४ है । यह अनवस्थित भागहार है । इससे गुणहानिके भाजित करनेपर भागहारसे छहगुना आता है । फिर इससे एक अधिक स्थान आगे जाकर बांधनेवाले के अपवर्तन रूप अंकोंका प्रमाण तीन अंक अधिक जितने स्थान आगे गये हों उतना होता है, क्योंकि, संकलनक्षेत्रको स्थापित करके और बीचसे फाड़कर समीकरण करनेपर भागहारसे तिगुने विस्तारवाले और छहगुने आयामवाले क्षेत्रकी उत्पत्ति देखी जाती है । फिर इस क्षेत्रके विस्तारको
+
८
=
एवंविधात्र संदृष्टेः । २ मप्रतिमाश्रित्य कृतसंशोधने ' समकरणी कदे
इति पाठः ।
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१, ३, ४, ३२.] यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त विक्खंभं तीहि खंडिय | ४|२३| पुध पुध विक्खंभायामसंवग्गं काऊण उव्वरिदविसेसेसु
तिण्णि विसेसे घेत्तूण पक्खित्ते तिगुणरूवाहियगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसा तिण्णिरूवुप्पत्तिणिमित्ता होति । एदेसु रूवेसु चडिदद्धाणम्मि पक्खित्तेसु ओवट्टणरूवपमाणं होदि । तं चेदं | २८ । संपहि पुधद्धाणे' आणिज्जमाणे पुव्वं व किरिया कायव्वा । णवरि करणिगच्छो एसो [...]। एदं रूवाहियं चडिदद्धाणं होदि ।
तीनसे खण्डित कर ४ ३४ तथा विष्कम्भ और आयामका अलग अलग संवर्ग करके शेष बचे हुए विशेषोंमें [९६, ९६ : ६ = १६, १६ = ४, ९६ : ४ = २४ = ४ x ६, २४ + १ = २५ स्थान, २५+३ = २८ अपवर्तन अंक, ९ से ३३ अंक तकका जोड़ ५२५, (२५ ४९) + (१२ x २४) = ५१३; ५२५ - ५१३ = १२ बचे हुए विशेष ] से तीन विशेषों को ग्रहण करके मिलानेपर तीन अंकोंकी उत्पत्तिके निमित्तभूत एक अधिक गुणहानिले तिगुने गोपुच्छविशेष होते हैं। फिर इन अंकोंको जितने स्थान आगे गये हैं उनमें मिलानेपर अपवर्तन रूप अंकोंका प्रमाण होता है । वह यह है २८ । अब पृथक् अध्वानको लाते समय पहले के समान क्रिया करनी चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहांपर करणिगत गच्छका प्रमाण यह है V२१७-६। यह एक अधिक आगेका स्थान होता है।
विशेषार्थ - एक अधिक गुणहानिके तिगुने प्रमाण गोपुच्छविशेषसंचयका स्थान - एक अधिक गुण हानि ८ + १ = ९ का तिगुना १ ४ ३ = २७, २७ x ८ = २१६, २१६ + १ = २१७, २१७ का वर्गमूल V२१७ यह करणिगत है: V२२७ में से १ घटाकर आधा करनेपर ४२१७ १ गच्छका प्रमाण आता है, और एक अधिक करनेपर आगेका स्थान होता है । V२१७ १ का संकलन लाने के लिये इस राशिको
दो अगह अलग अलग स्थापित करके उनमेंसे एक राशिमें एक जोड़कर V२१७.१ भाधा करनेपर ४२९७ १ आता है। इससे दुप्रतिराशिको गुणा करनेपर २४७०४९
३७ . २१४-2 - ४४०८९ १ - २१७ -२४६ - ७॥
१ अ-काप्रसोः फुदद्धाणे 'इति पाठः।
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१५६) छक्खंडागमै वेयणाखंड
[१, २, ४, ३२. चत्तरिरूवुप्पत्तिमिच्छिज्जमाणे गुणहाणिपमाणमेदं (१२८ । एदस्स अट्ठमभागो [१६] । एदस्स वग्गमूलं | ४|| एदेण गुणहाणिमोवट्टिदे भागहारादो अहगुणमागच्छदि। एदं रूवाहियं चडिदद्धाणं । पुणो चडिदद्धाणमेत्तचरिमणिसेगसु तच्छेदूण अवणिदेसु एत्तिया चरिमणिसेगा होति |९|३३ । पुणो सेसतिकोणखेत्तं मज्झे फाडिय समकरणे कदे भागहारादो चदुग्गुणविक्खंभमट्टगुणायाम खेत्तं होदि | ४|३२|' । एत्थ विक्खंभा
यामाणं पुध पुध संवग्गं काऊण चत्तारिविसेसेसु पक्खित्तेसु चत्तारिचरिमणिसेगा होति । एदेसु चडिदद्धाणम्मि पक्खित्तेसु ओबट्टणरूवाणं पमाणं होदि | ३७।।
पंचरूवेसु उप्पाइज्जमाणेसु गुणहाणिपमाणं । १६० । दसमभागो | १६ । । एदस्स
चार अंकोंकी उत्पत्ति चाहनेपर गुणहानिका प्रमाण यह है १२८ । इसका आठवां भाग १६ है । इसका वर्गमूल ४ है। इससे गुणहानिको भाजित करनेपर भागहारसे आठगुना आता है । यह एक अधिक आगेका स्थान है। फिर जितने स्थान आगे गये हैं उतने अन्तिम निषेकोको छील कर पृथक् कर देनेपर इतने अन्तिम निषेक होते हैं ९, ३३ । फिर शेष बचे त्रिकोण क्षेत्रको बीचसे फाड़ कर समीकरण करनेपर भाग
४ हारसे चौगुने विस्तारवाला और आठगुने आयामवाला क्षेत्र होता है ।
३२.
४ ३२ फिर यहां विष्कम्भ और आयामका अलग अलग संवर्ग करके चार विशेषोंके मिलानेपर चार अन्तिम विषेक होते हैं। इन्हें जितने स्थान आगे गये हैं उनमें मिलानेपर अपवर्तन रूप अंकोंका प्रमाण होता है ३७ ।
विशेषार्थ- गुणहानि १२८, १२८ ८ = १६ /१६ = ४, १२८ : ४ = ३२= ४४८, ३२+ १ = ३३, (९४ ३३) + ( ३२४ १६) = ८०९, ९ से ४१ तक अंकोंका जोड़ ८२५, ८२५ - ८०९ = १६ शेष बचे गोपुच्छविशेष । ३३ + ४ = ३७ अपवर्तन अंक । यहांपर करणिगत गच्छका प्रमाण यह है-२९९ -२; इससे १ अधिक आगेका विवक्षित स्थान होता है।
पांच अंकोंको उत्पन्न कराने पर गुणहानिका प्रमाण १६० है । दसवां भाग
, प्रतिषु संदृष्टिरियं 'चचारिचरिमणिसेगा होंति ' इत्यतः पश्चादुपलभ्यते ।
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४, २, ४, ३२. वैयणमहाहियारे वैयणदव्यावहाणे सामित्त (१५७ वग्गमूलेण गुणहाणिम्मि भागे हिदे भागहारादो दसगुणमागच्छति | ४० ।। सेसं पुव्वं व वत्तव्यं ।
छरूवेसु उप्पाइज्जमाणेसु गुणहाणिपमाणं | १९२। । बारसमभागो | १६ || एदस्स वग्गमूलेण [गुणहाणिम्मि] भागे हिदे भागहारादो बारसगुणमागच्छदि |३८ । सेसं पुत्वं व वत्तव्वं ।
सत्तरूवेसु उप्पाइज्जमाणेसु गुणहाणिपमाणं ।२२४ । गुणहाणिचाइसमभागो | १६ । एदस्स वग्गमूलेण गुणहाणिग्मि' भागे हिंदे भागहारादो चोद्दसगुणमागच्छदि । रूवाहियमेदं चीडदद्धाणं होदि । ५७ । सेसं जाणिय वत्तव्वं ।।
अट्ठरूवपक्खेवे इच्छिज्जमाणे गुणहाणिपमाणं २५६ । सोलसमभागो । १६ ।। एदस्स वग्गमूलेण गुणहाणिम्हि भागे हिदे भागहारादो सोलसगुणमागच्छदि । एदं रूवाहियं चडिदद्धाणं होदि । सेसं जाणिय वत्तव्वं ।
२६ है । इसके वर्गमूलका गुणहानिमें भाग देनेपर भागहारका दसगुना आता है ४० । शेष कथन पहले के समान करना चाहिये । [१६० : १० = १६, १६ = ४, १६०:४= ४० = ४४ ९०,४० + १ = ४१ स्थान; (९x४१)+ (२०४४०) = ११६९, ९ से ४९ तक अंकोंका जोड़ १९८९, ११८९ - ११६९ = २० शेष गो. वि । ४१+५= ४६ अपवर्तन अंक । करणिगत गच्छ - ३६१.१।]
छह अंकोंको उत्पन्न कराते समय गुणहानिका प्रमाण १९२ है। बारहवां भाग १६ है । इसके वर्गमूल का [गुणहानिमें ] भाग देनेपर भागहारसे बारहगुणा ४८ आता है। शेष कथन पहलेके ही समान करना चाहिये । [ १९२ १२ = १६, १६ = ४, १९२-:--४८= १२४४,४८+१=४९ स्थान: (९x४९) + (२४-४८)-१५९३६ ९ से ५७ तक अंकोंका जोड़ ६१७, १६१७ - १५९३ = २४ शेष गो. वि. । ४९ + ६ = ५५ अपवर्तन अंक । करणिगत गच्छ ५४३३. १।
सात रूपोंके उत्पन्न कराते समय गुणहानिका प्रमाण २३४ और गुणहानिका चौदहवां भाग १६ है । इसके वर्गमूल का गुणहानिमें भाग देनेपर भागहारसे चौदहगुणा आता है (२२४ : ४ = ५६)। यह एक अधिक आगेका स्थान होता है। (५६+ १ = ५७)। शेष जानकर कहना चाहिये।
आठ अंकोंके प्रक्षेपकी इच्छा करनेपर गुणहानिका प्रमाण २५६ और इसका सोलहवां भाग १६ है। इसके वर्गमूलका गुणहानिमें भाग देनेपर भागहारसे सोलहगुणा आता है। इसमें एक मिलानेपर आगेका स्थान होता है। शेष जानकर कहना चाहिये।
प्रतिषु ' गुणे चोइसम'; तापतौ [गुणे ] चौइसम' इति पाठ ।
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१५८ छक्खंडागमे वैयणाखंड
[४, २, ४, ३३. __ एवमुवरिमरूवाणि णव दस एक्कारस-बारसादीणि उपाएदव्याणि । णवीर दुगुणिदरूवेहि गुणहाणिमोवट्टिय लद्धस्स वगमूलमणवहिदभागहारो होदि त्ति सव्वत्थ वत्तव्वं । जहण्णपरित्तासंखेजमेत्तरूवाणि केत्तियमद्धाणं गंतूण उप्पज्जति ति उत्ते दुगुणजहण्णपरित्तासंखेज्जेण भागहार गुणिय रूवे पक्खित्ते जो रासी उप्पज्जदि सो चडिदद्धाणं । सेसमेत्थं जाणिय वत्तव्यं । एवमावलिय-पदरावलियादिरूवाणमुप्पत्ती जाणिदूग वत्तव्वा । एवमोवणरूवेसु वड्डमाणेसु भागहारे च झीयमाणे केत्तियमद्धाणमुवरि चडिदूण बद्धसमयपबद्धसंचयस्स पलिदोवमं भागहारो होदि त्ति उत्ते पलिदोवमवग्गसलागाणं बेत्तिभागेण सादिरेगेण गुणहाणिम्हि ओवट्टिदे लद्धं रूवाहियमेत्तं कम्मट्टिदिपढमसमयादो उवरि चडिदूण बद्धदव्वसंचयस्स पलिदोवमं भागहारो होदि । तं जहा- पलिदोवमेण चरिमणिसेगभागहारे
ओवडिदे पक्खेवरूवसहिदं चडिदद्धाण होदि, पलिदोवमवग्गसलागाणं सादिरेयबेत्तिभागेहि गुणहाणिअद्धाणे भागे हिदे लद्धरूवाहियचडिदद्धाणसमुप्पत्तीदो । तेण पलिदोवमवग्गसलागाणं बेत्तिभागं विरलिय गुणहाणिअद्धाणं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि पक्खेवरूवसहिदं चडिदद्धाणं पावदि।
- इसी प्रकार नौ, दस, ग्यारह और बारह आदि उपरिम अंकोंको उत्पन्न कराना चाहिये । विशेष इतना है कि दुगुणित अंकों का गुणहानिमें भाग देनेपर
जो लब्ध हो उसका वर्गमूल अनवस्थित भागहार होता है, ऐसा सर्वत्र कहना चाहिये। कितना अध्वान जाकर जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण अंक उत्पन्न होते हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि दूने जघन्य परीता संख्यातसे भागहारको गुणित करके और उसमें एकका प्रक्षेप करनेपर जो राशि उत्पन्न होती है यह आगेका स्थान है। शेष यहां जानकर कहना चाहिये । इसी प्रकार आवली और प्रतरावली आदि रूपोकी उत्पत्तिको जानकर कहना चाहिये। इस प्रकार अपवर्तन रूपोंके बढनेपर और भागहारके क्षीयमान होने पर कितने स्थान आगे जाकर बांधे गये समयप्रबद्धके संचयका पल्योपम भागहार होता है, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि पल्योपमकी वर्गशलाकाओंके साधिक दो त्रिभागका गुणहानिमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसमें एक
प्राप्त हुई राशि मात्र कर्मस्थितिके प्रथम समयसे आगे जाकर बांधे हुए द्रव्यका पल्योपम भागहार होता है । यथा - पल्योपम द्वारा अन्तिम निषेकके भागहारको अपवर्तित करनेपर प्रक्षेप रूपसे सहित आगेका स्थान होता है, क्योंकि, पल्योपमकी धर्गशलाकाओंके साधिक दो त्रिभागोंका गुणहानिअध्यानमें भाग देनेपर लब्ध हुई राशिसे एक अधिक आगेका विवक्षित स्थान उत्पन्न होता है। इसीलिये पल्योपमकी घर्गशलाकाओंके दो त्रिभागोंका विरल न करके गुणहानिअध्वानको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्रक्षेप अंक सहित आगेका विवक्षित अध्वान प्राप्त होता है।
1 अप्रती ' मेत्त' इति पाठः। २ प्रतिषु 'एद-' इति पाठः । ३ मप्रतौ ' रूवाणिमुत्पत्ती ' इति पा।
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१,२४, ३२ ] वेयणमहाहियारे वेयणदच्यविहाणे सामित्तं
____एत्थ जधा पक्खेवरूवाणि हाइदृण चडिदद्धाणं चेव सुद्धमागच्छदि तधा परूवणं कस्सामो । तं जहा- लद्धभागहारं वग्गिय दुगुणिय गुणहाणिअद्धाणे भागे हिदे पक्खेवरूवाणि आगच्छंति । तेसिं ठवणा | ९११ ।। पुणो दुगुणिदपक्खेवरूवेहि अणवहिदभागहारं गुणिदे अद्धपमाणं होदि । पुणो एगरूवे पक्खित्ते चडिदद्धाणं होदि । तस्स ठवणा | २ | २ ।। दुगुणिदअणवहिदभागहारेण रूवाहिएण पक्खेवरूवाणि गुणिय पच्छा एगरूवे पक्खित्ते परखेवरूवसहिदचडिदद्धाणं होदि । एदस्स आगमणटुं गुणहाणीए भागहारो पलिदोवमवग्गसलागाणं बेत्तिभागो । एदस्स ठवणा |४|२॥ एवं होदि त्ति कादूण पक्खेवरूवम्हि एगरूवधारदे भागे हिदे अणवहिदभागहारो दुगुणो एगरूवेण एगरूवस्स असंखेज्जीदभागेण अहियो आगच्छदि । पुणो तं विरलिय उवरिमेगस्वधरिदं समखंडं करिय दिण्णे पक्खेवरूवपमाणं पावदि । तमुवरिमरूवधरिदे अवणिदे अवणिदसेसं चडिदद्धाणं होदि । हेट्ठिमविरलणरूवूणमेत्तपक्खेवरूवाणं जदि एगा अवहारपक्खेवसलागा
२२
यहां जिस प्रकारसे प्रक्षेप अंक हीन होकर आगेका विवक्षित अध्वान ही शुद्ध आता है उस प्रकारसे प्ररूपणा करते हैं । यथा- लब्ध भागहारका वर्ग करके दुगुणित कर गुणहानिअध्वानमें भाग देने पर प्रक्षेप अंक आते हैं । उनकी स्थापना ९९१ । फिर दुगुणित प्रक्षेप अंकोंसे अनवस्थित भागहारको गुणित करने पर अध्वान का प्रमाण होता है। पुनः उसमें एकका प्रक्षेप करनेपर आगेका विवक्षित अध्वान होता है। उसकी स्थापना- (मूलमें देखिये)। दुगुणित अनव स्थित भागहार में एक मिलाकर उससे प्रक्षेप रूपोंको गुणित कर पश्चात् उसमें एक अंक मिलानेपर प्रक्षेपरूप सहित आगेका विवक्षित अध्वान होता है । इसके निकालनेके लिये गुण हानिका भागहार पल्योपमकी वर्गशलाकाओंके दो त्रिभाग मात्र है। इसकी स्थापना ४२ ऐसी है, ऐसा मानकर एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त प्रक्षेप रूपमें भाग देने पर एक और एकके असंख्यातवें भागसे अधिक दूना अनवस्थित भागहार आता है। पश्चात् उसका विरलन कर उपरिम एक विरलन अंकक प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर प्रक्षेप रूपाका प्रमाण प्राप्त होता है। उस विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यमसे कम करने पर शेष आगेका विवक्षित अध्वान हे ता है। अधस्तन विरलनमें से एक कम करके तन्मात्र प्रक्षेप रूपोंकी यदि एक अवहारप्रक्षेप
, अस्तौ |
| कापतौ।
ताप्रती | ७ |
मप्रती | ९.९१ इति पाठः ।
२ अ-काप्रत्यो।
ता
२-.९-
१
०
हात पाल ।
। इति पार
|९९२२९
, तापता २..९.१ ।
३ अप्रतौ
काप्रती
sat1
२ इति पाठः । ४ मप्रतौ 'रूवधरिदेसु अवणिदेस
अवाणिदे सेसं इति पाठः ।
Wk
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१९०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. लम्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवटिदाए एगरूवस्स दुभागो' एगरूवासंखेज्जदिभागेण ऊणो आगच्छदि । तं पलिदोवमवग्गसलागाणं वेत्तिभागे पक्खिविय गुणहाणिम्हि ओवट्टिदे चडिदद्धाणं होदि । पुणो एत्थ पक्खेवरूवाणि दादूण चरिमणिसेगभागहारे ओवट्टिदे पलिदोवममागच्छदि त्ति सिद्धं ।
अधवा वग्गसलागाणं बेत्तिभागाणं उवरि सादिरेगं एवं वा आणेदव्वं । तं जहाओवट्टणरूवेहि गुणहाणिम्हि ओवट्टिदे वग्गसलागाणं बेत्तिभागो आगच्छदि । तं विरलेदूण गुणहाणिं समखंडं कादण दिण्णे सूवं पडि ओवट्टणरूवपमाणं पावदि । पुणो एत्थ रूवाहियपक्खवरूवाणं अवणयणं कस्सामो । तं जहा- रूवाहियपक्खेवरूवेहि एगरूवधरिदं भागं घेत्तूण लद्धं हेट्ठा' विरलेदूण उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं कादूण दिण्णे रूवं पडि रूवाहियपक्खेवरूवाणि पावंति । एदाणि उअरिमरूवधरिदेसु अवणिदे अवणिदसेसं लद्धपमाणं होदि । अवणिदरूवाहियपक्खेवरूवाणि लद्धपमाणेण कीरमाणे रूवूणहेट्टिमविरलणमेत्ताणं जदि एगपक्खेवसलागा लब्भदि तो ओवट्टीणेरूवोवट्टिदगुणहाणिमेत्तुवीरमविरलणम्हि किं लमामो ति हेट्ठिमविरलणं रूवूर्ण कीरमाणे छेदमेत अवणेदव्व ।
शलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन मात्र द्रव्यमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक रूपके असंख्यातवें भागसे हीन एक रूपका द्वितीय भाग आता है। उसको पल्योपमकी वर्गशलाकाओंके दो त्रिभागोमें मिलाकर उस से गुण हानिको अपवर्तित करनेपर आगेका विवक्षित अध्वान होता है । फिर इसमें प्रक्षेप रूपोंको देकर अन्तिम निषेकभागहारको अपवर्तित करनेपर पल्योपम आता है, ऐसा सिद्ध होता है।
अथवा [पल्योपमकी] वर्गशलाकाओंके दो विभागों के ऊपर साधिक इस प्रकार लाना चाहिये । यथा- अपवर्तन रूपोका गुणहानिमें भाग देनेपर वर्गशलाकाओंका दो त्रिभाग आता है। उसका विरलन करके गुणहानिको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति अपवर्तन रूपोंका प्रमाण प्राप्त होता है। अब यहां एक अधिक प्रक्षेप रूपोंका अपनयन करते हैं। यथा- एक रूपसे अधिक प्रक्षेप रूपोंका एक विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यमें भाग देकर जो लब्ध हो उसका नीचे विरलन करके उपरिम एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति रूपाधिक प्रक्षेप रूप प्राप्त होते हैं। इनको उपरिम विरलनअंकके प्रति प्राप्त द्रव्यमेंसे कम करनेपर जो शेष रहे वह लब्धका प्रमाण होता है । कम किये गये एक अधिक प्रक्षेप रूपोंको लब्धके प्रमाणसे करने पर एक कम अधस्तन विरलन मात्र अंकोंकी यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो अपवर्तन रूपोसे अपवर्तित गुणहानि मात्र उपरिम विरलन राशि क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार अधस्तन विरलनमसे एक कम करत हुए छद मात्र कम
परलन अंकके प्रतिर जा लब्ध हो जायक प्रक्षेप रूपोंका
, ताप्रती · ओवट्टिदाए एगरूवस्स दुभागो' इत्ययं पाठस्त्रुटितः । २ अ-काप्रयोः ओवट्टीण' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्तं
[१६१ अवणिदे हेट्टवीर' रूवाहियपक्खेवरूवाणि लद्धं च होदूण चिट्ठदि । एदेण उवरिमविरलणम्हि भागम्हि घेप्पमाणे हेडिमरूवाहियपक्खेवरूवाणि उवरिमगुणहाणीए गुणगाराणि होति । पुणो हेट्टवरिमलद्धं गुणहाणी च अण्णोणं ओवट्टिज्जमाणे हेट्ठा एगरूवं उवरिभागहारमेत्ताणि । पुणो रूवाहियपक्खेवरूवेसु एगरूवमवणिदे भागहारमेत्तं ओसरदि, अवसेसपक्खेवरूवाणि भागहारेण गुणिदे लद्धस्सद्ध होदि । पुणो हेट्ठिमछेदं ओवट्टणरूवाणि ताणि लद्धं पक्खेवरूवाणि एगरूवं च अणुवलंभाणि विरलेदूण लद्धस्सद्धं लद्धमेत्तविरलिदरूवाणं दिज्जमाणे अद्धद्धरूवं पावदि । पुणो ओसरिदभागहारमेत्तरूवाणि दुगुणभागहारमेत्तरूवाणं दिज्जमाणे एदाणं पि अद्धद्धरूवं पावदि । पुणो रूवाहियपक्खेवरूवाणि दुगुणभागहारेणूणाणि अणादेयाणि चट्ठति । पुणो तेसि पि दादुमिच्छिय एगरूवधरिदं सयलविरलणमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ दुगुणभागहारेणूणरूवाहियपक्खेवरूवमेत्ताणि खंडाणि घेत्तूण अणादेयरूवेसु रूवं पडि दादूण एवं सेसरूवधरिदेसु वि घेतूण समकरणं कादव्वं । एवं कदे रूवं पडि अद्धरूवं ओवट्टणरूवमेत्तखंडाणि कादूण दुगुणभागहारेणब्भहियलद्धमत्तखंडाणि होति । जदि दुगुणभागहारेणूणरूवाहियपक्खेवरूवमेत्तखंडाणि होति तो अद्धरुवं होदि । ण च एत्तियमस्थि । तेण
करना चाहिये। कम करनेपर नीचे व ऊपर एक अधिक प्रक्षेप रूप और लब्ध होकर स्थित होता है। इसका उपरिम विरलन राशिम भाग देनेपर नीचेके एक अधिक प्रक्षेप रूप उपरिम गुणहानिके गुणकार होते हैं। पुनः अधस्तन व उपरिम लब्ध और गुणहानि, इनको परस्परमें अपवर्तित करनेपर नीचे एक रूप ऊपर भागहार मात्र होते हैं। पुनः एक अधिक प्रक्षेप रूपोंमेंसे एक रूपको कम करनेपर भागहार मात्र कम होता है। शेष प्रक्षेप रूपोंको भागहारसे गुणित करनेपर लब्धका आधा होता है। पुनः अघस्तन छेदको, उन अपवर्तित रूपोंको, लब्धको, प्रक्षेप रूपों व एक रूपको अनुपलभमान विलित करक लब्धके अधे भागको लब्ध मात्र विरलित रूपोंके ऊपर देनेपर आधा आधा रूप प्राप्त होता है (१)। पुनः अलग किये गये भागहार मात्र रूपोंको दुगुणे भागहार प्रमाण रूपोंके ऊपर देनेपर इनके प्रति भी आधा आधा रूप प्राप्त होता है । पुनः एक अधिक प्रक्षेप अंक दुगुणे भागहारसे कम होकर अनादेय स्थित रहते हैं। फिर उनके भी देनेकी इच्छा करके एक रूपपर रखी हुई राशिके समस्त विरलन राशि प्रमाण खण्ड करके उनमें से दुगुणे भागहारसे हीन एक अधिक प्रक्षेप रूपों प्रमाण खण्डोंको ग्रहण करके अनादेय रूपोंमेंसे प्रत्येक रूपके प्रति देकर. इसी प्रकार शेष रूपधरितोंमेंसे भी ग्रहण करके समकरण करना चाहिये । ऐसा करने पर प्रत्येक अंकके प्रति अर्ध रूपके अपवर्तन रूपों प्रमाण खण्ड करके दुगुणे भागहारसे अधिक लब्ध प्रमाण खण्ड होते हैं। यदि दुगुणे भागहारसे हीन एक अधिक प्रक्षेप रूपों प्रमाण खण्ड होते हैं तो अर्ध रूप होता है। परन्तु इतना
१ अप्रतौ ' आवणिदे हेहवरिम. ' काप्रतौ ' आवणिदे हेहवरि ' इति पाठः।।
२ अप्रतौ ' अणुवलंभाणि', काप्रती · अणुवलंभणाणि', ताप्रती · अणुवलग्गाणि ' इति पाठः। छ, वे. २१.
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छक्खंडागमे यणाखंड
[१, २, ४, २२. किंचूणद्धरुवं वग्गसलागवेत्तिभागाणमुवरि पक्खित्ते लद्धागमण8 भागहारो होदिः ।।
अधवा पलिदोवमवग्गसलागवेत्तिभागाणमुवरि केत्तिएण वि अधियं जादे भागहारो होदि । तं पुण. ताव एत्तियमिदि ण णव्वदे। तं पुण पच्छा जाणाविज्जदे । तं ताव वग्गसलागवेत्तिभागाणं उवार' पक्खिविय भागहारमिदि कप्पिऊण विरलिय समखंड कादूण दिण्णे एवं पडि लद्धपमाणं पावदि ।
पुणो एत्थ स्वाहियपक्खेवरूवाणि लद्धरुवेहि सह जहा एगभागहारेण गच्छंति तहा किरियं करिस्सामो । तं जहा- रूवाहियपक्खेवरूवेहि एगरूवधरिदं लद्धपमाणं भार्ग हरिय हेट्ठा विरलेदण एगरूवधरिदं समखंडं कादूण दिण्णे रूवं पडि रूवाहियपक्खेवरूवाणि पावेति । एदाणि उवरिमरूवधरिदेसु दादूण समकरणं कायव्वं । संपहि परिहीणरूवपमाणाणयणं उच्चदे । तं जहा- रूवाहियहेट्टिमविरलणमेत्तद्धाणं उरि गंतूण जदि एगा परिहाणिसलागा लन्मदि तो सयलउवरिमविरलणम्हि केत्तियाणि परिहाणिरूवाणि लभामो त्ति रूवाहियं कीरमाणे छेदमेत्तं पक्खिविदव्वं । पक्खित्ते उवरि ओवट्टणरूवाणि हेट्ठा स्वाहियपक्खेवरूवाणि एदेहि भागहारमोवट्टिदे हेहिमच्छेदो भागहारस्स गुणगारो होदि । पुणो ओवट्टणरूवाणि विरलिय भागहारगुणिदरूवाहियपक्खेवरूवाणि' पुवं व है नहीं, अत एव कुछ कम अर्ध रूपका वर्गशलाकाओंके दो त्रिभागोंके ऊपर प्रक्षेप करनेपर-लब्धको लानेके लिये भागहार होता है।
- अथवा, पल्योपमकी वर्गशलाकाओंके दो त्रिभागोंके ऊपर कुछ प्रमाणसे अधिक होनेपर भागहार होता है । परन्तु वह इतना है, ऐसा नहीं जाना जाता है। उसे पीछे ज्ञात कराया जाता है। उसका वर्गशलाकाओंके दो त्रिभागोंके ऊपर प्रक्षेप करके भागहारकी कल्पना कर विरलित करके समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति लब्धका प्रमाण प्राप्त होता है।
_ अब यहां एक अधिक प्रक्षेप रूप लब्ध रूपोंके साथ जिस प्रकार एक भागहारसे जाते हैं उस प्रकारकी क्रियाको करते हैं। वह इस प्रकार है- एक अधिक प्रक्षेप रूपोंसे एक रूपधरित लब्ध प्रमाण भागको अपहृत करके नीचे विरलित कर एक रूपधरित राशिको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक अंकके प्रति एक अधिक प्रक्षेप रूप प्राप्त होते हैं। इनको उपरिम रूपधरित राशियोंपर देकर समकरण करना चाहिये । अब परिहीन रूपोंके लानेक विधानको कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक अधिक अधस्तन घिरलन राशि प्रमाण अध्वान ऊपर जाकर यदि एक परिहानिशलाका प्राप्त होती है तो समस्त उपरिम विरलन राशिमें कितने परिहानि. रूप प्राप्त होंगे, इस प्रकार रूप आधिक करते समय छेद. मात्रका प्रक्षेप करना चाहिये। उक्त प्रकारसे प्रक्षेप करनेपर ऊपर अपवर्तन रूप व नीचे रूप अधिक प्रक्षेप रूप, इनसे भागहारको अपवर्तित करनेपर अधस्तन छेद भागहारका गुणकार होता है। फिर अपवर्तन रूपोंका विरलन करके भागहारसे गुणित रूप अधिक प्रक्षेप रूपोंको
१ अ-काप्रत्योः 'सलागा- ' इति पाठः । २ अप्रतौ ' उवरिम ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'अद्ध-' इति पाठः । ४ तापतौ ' भागहारगुणियपक्खेवरूवाणि' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त दादूण किंचूणद्धरूवं दरिसेयव्वं । एदं भागहारम्हि अवणिदे अवणिदसेस वग्गसलागाणं बेत्तिभागा होति । एदेहि गुणहाणिमोवट्टिदे रूवाहियपक्खेवरूवसहिदलद्धमागच्छदि । अधवा किंचूणद्धरूवं एवं वा आणेदव्वं । तं जहा- वग्गसलागाणं बेत्तिभागे विरलिय गुणहाणि समखंडं कादूण दिण्ण रूवं पडि ओवट्टणरूवपमाणं पावदि । पुणो एत्थ रूवाहियपक्खेवाणं अवणयणं' कीरमाणे भागहारवड्डी कीरदे । तं जहातेहि चेव रूवाहियपक्खेवरूवेहि एगरूवधरिदमोवट्टिय हेट्ठा विरलिय उवरिमएगरूवधारदं समखंड कादूण दिण्णे रूवाहियपक्खेवरूवाणि पावेंति । पुणो एदेण पमाणेण उवरिमसव्वरूवधरिदेसु अवणिदे अवणिदसेसं लद्धपमाण होदि । पुणो अवणिददन्वं सेसपमाणेण कीरमाणे रूवूणहेट्टिमविरलणमेत्ताण जदि एक्का पक्खेवसलागो लब्भदि तो वग्गसलागवेत्तिभागाणं किं लभामा त्ति स्वर्ण कीरमाणे छेद मेत्तमवणेदव्वं । अवणिदे हेट्ठा उवरिं च रूवाहियपक्खेवरूवाणि लद्धं च होदि । एदेण भागे हिदे हेडिमछेदो वग्गसलागवत्तिभागाणं गुणगारो होदि । एवं गुणिदे किमत्थुप्पणं ति ण णव्वदे। तेण वग्गसलाग
पूर्वके समान देकर कुछ कम आधे रूपको दिखलाना चाहिये। इसको भागहारमेसे कम करनेपर शेष वर्गशलाकाओंके दो त्रिभाग होते हैं। इनसे गुणहानिको अपवर्तित करनेपर एक अधिक प्रक्षेप रूपों सहित लब्ध आता है । अथवा, कुछ कम अर्ध रूपको इस प्रकारसे लाना चाहिये । यथा- वर्गशलाकाओके दो त्रिभागोंका विरलन करके गुणहानिको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति अपवर्तन रूपोंका प्रमाण प्राप्त होता है।
अब यहां एक अधिक प्रक्षेप रूपोंका अपनयन करने पर भागहारकी वृद्धि की जाती है । वह इस प्रकार है- एक अधिक उन्हीं प्रक्षेप रूपोंसे एक रूपधरित राशिको अपवर्तित करके नीचे बिरलित कर उपरिम एक रूपधरित राशिको समखण्ड करके देनेपर एक अधिक प्रक्षेप रूप प्राप्त होते है । पुन: इस प्रमाणसे ऊपरकी सब रूपोंपर रखी हुई राशियोंमेंसे कम करनेपर अपनयनसे शेष रहा लब्धका प्रमाण होता है। फिर कम किये गये द्रव्यको शेषके प्रमाणसे करनेपर एक कम अधस्तन विरलन मात्र उनके यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो वर्गशलाकाओंके दो त्रिभागों में कितनी प्रक्षेपशलाकायें प्राप्त होगी, इस प्रकार रूपसे कम करते समय छेद मात्रको कम करना चाहिये। इस प्रकार कम करनेपर नीचे व ऊपर एक अधिक प्रक्षेप रूप व लब्ध होता है। इसका भाग देनेपर अधस्तन छेद धर्मशलाकाओंके दो त्रिभागोंका गुणकार होता है । इस प्रकारसे गुणित करनेपर यहां क्या उत्पन होता है, यह ज्ञात नहीं होता। इसलिये घर्गशलाकाओंके दो त्रिमार्गोंकि ऊपर
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ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः 'रूवाहिय पत्ते खेत्तरूवाणमवणयणं' इति पाठः। १ भ-कापत्योः 'एक्को पक्खेवसलागा', तापतौ ' एक्को पक्खेवसलागो' इति पाठ।।
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१६४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४ २, ४, ३२. त्तिभागाण उवरि पुविल्लकिंचूणद्धरूवं पक्खित्ते भागहारो होदि । एवं पक्खित्ते रूवाहियपक्खेवरूवेहि गुणिदकिंचूणद्धरूवं पविसदि । तं ताव पविट्ठअभावदव्वं पच्छा अवणेदव्वं । रूवाहियपक्खेवरूवेसु रूवं अवणिदे भागहारमेत्तं ओसरदि । सेसपक्खेवरूवेहि भागहार गुणिदे लद्धस्सद्धं होदि । हेडिमछेदभूदलद्धं विरलिय लद्धस्सद्धं समखंडं कादूण दिण्णे अद्धद्धरूवं पावदि । पुणो अवणिदभागहारमेत्तरूवाणि वि समखंड कादण दिण्णे लद्वैण भागहारं खंडेदूण एगेगं खंडं पावदि। पुणो अद्धरूवेण सह सरिसछेद कादूण मेलाविदे हेट्ठा उवारं च दुगुणलद्धं दुगुणभागहारेणाहियलद्धं च होदूण रूवं पडि चढदि । पुणो एदेसु सवरूवधरिदेसु पुवपविट्ठअभावदव्वं केत्तियमिदि भणदे हेट्ठा दुगुणोवट्टणरूवाणि उवरि रूवाहियपक्खेवरूवाणि दुगुणभागहोरणब्भहियलद्धं च गुणगार-गुणिज्जमाणसरूवेण द्विदं एदं सव्वरूवधरिदेसु अवणिज्जमाणं होदि । एदै चेव लःण खंडिदे एगेगरूवधरिदस्सुवरि अवणिज्जमाणं होदि । पुणो एगेगरूवधरिदं सरिसछेदं कीरमाणे ओवट्टणरूवेहि हेट्टवरि गुणिय रूवाहियपक्खेवाणि अवणिदे पविट्ठअभावदव्यं फिट्टदि । अवणिदसेसं पि ओवट्टिज्जमाणे हेट्ठिम-उवरिम-उवरिमलद्धाणि अवणिदे सेस अद्धरूवं ओवट्टण
पूर्वोक्त कुछ कम अर्ध रूपका प्रक्षेप करने पर भागहार होता । इस प्रकारसे प्रक्षेप करनेपर एक अधिक प्रक्षेप रूपोंसे गुणित कुछ कम अर्ध रूप प्रविष्ट होता है। उस प्रविष्ट अभाव द्रव्यको पीछ कम करना चाहिये । एक अधिक प्रक्षेप रूपोंमेंसे एक अंकको कम करनेपर भागहार मात्र कम होता है। शेष प्रक्षेप रूपोंसे भागहारको गुणित करनेपर लब्धका आधा होता है। अधस्तन छेदभूत लब्धका विरलन करके लब्धके अर्ध भागको समखण्ड करके देनेपर अर्ध अर्ध रूप प्राप्त होता है। पश्चात कम किये गये भागहार प्रमाण रूपोंको भी समखण्ड करके देनेपर लब्धसे भागहारको खण्डित कर एक एक खण्ड प्राप्त होता है । फिर अर्ध रूपके साथ समच्छेद करके मिलानेपर नीचे व ऊपर दुगुणा लब्ध और दुगुणे भागहारसे अधिक लब्ध होकर रूपके प्रति स्थित होता है । अब इन समस्त रूपधरित राशियों में पूर्व प्रविष्ट अभाव द्रव्य कितना है, ऐसा पूछे जाने पर उत्तर देते हैं कि नीचे दुगुणे अपवर्तन रूप, ऊपर एक अधिक प्रक्षेप रूप और गुणकार व गुण्य स्वरूपसे स्थित एवं दुगुणे भागहारसे अधिक लब्ध; यह सब रूपधरितोंमें अपनीयमान द्रव्य है। इसको ही लब्धसे खण्डित करने पर एक एक रूपधरित राशिके ऊपर अपनीयमान द्रव्य होता है। पुनः एक एक रूपधरितको समच्छेद करते समय अपवर्तन रूपोंसे नीचे व ऊपर गुणित करके एक अधिक प्रक्षेपोको कम करनेपर प्रविष्ट अभाव द्रव्य फिट जाता है। कम करनेसे शेष रहे द्रव्यका भी अपवर्तन करते समय अधस्तन व उपरिम-उपरिम लब्धोंको
१ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः ‘परिसदि' इति पाठः।
२ अप्रतौ ' एवं ' इति पाठः ।
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१, २, ४, ३२. वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[१६५ रूवेहि खंडिय दुगुणियभागहारेणब्महियलद्धमत्तखंडाणि' रूवं पडि पावेंति । एदं वग्गसलागबेत्तिभागाणमुवरि पक्खित्ते भागहारो होदि । कम्महिदिभागहारो केत्तियमद्धाणं चीडदूण बद्धदव्वस्स भागहारो होदि त्ति वुत्ते कम्मट्ठिदिपलिदोवमसलागाहि पलिदोवमवग्गसलागाणं बेत्तिभागे गुणिय गुणहाणिमोवट्टिय लद्धम्मि पक्खेवरूवेसु अवणिदे चडिदद्धाणं होदि । तदवणयणटुं भागहारम्मि किंचूणेगरूवद्धपक्खेवो पुव्वं व कायवो।
संपधि पढमरूवुप्पण्णद्धाणं किं बहुअं, जम्हि अद्धाणे पलिदोवमं भागहारो जादो किं तमद्धाणं बहुगमिदि उत्ते उच्चद- रूवुप्पण्णद्धाणादो असंखेज्जपलिदोवमबिदियवग्गमूलपमाणादो पलिदोवमभागहारद्धाणमसंखेज्जगुणं, असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो । णाणावरणादणं पुण पलिदोवमभागहारद्धाणादों रूवुप्पण्णद्धाणमसंखेज्जगुणं, असंखेज्जबिदियवग्गमूलत्तणेण दोण्णमद्धाणाणं भेदाभावे वि सांतर-णिरंतरवग्गट्ठाणगुणगारेण कयभेदत्तादो । एदेण कमेण गुणहाणीए अणवहिदभागहारो जहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तो जादो। ताधे पक्खेवरूवाणं किं पमाणं ? दुगुणेण जहण्णपरित्ताअलग करने पर शेष अर्ध रूपको अपवर्तन रूपोंसे खण्डित करके दुगुणे भागहारसे अधिक लब्ध मात्र खण्ड प्रत्येक अंकके प्रति प्राप्त होते हैं। इसका वर्गशलाकाओंके दो त्रिभागोंके ऊपर प्रक्षेप करनेपर भागहार होता है । कर्मस्थितिका भागहार कितना अध्वान जाकर बांधे गये द्रव्य का भागहार होता है, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि कर्मस्थितिकी पल्योपमशलाकाओंसे पल्योपमकी वर्गशलाकाओंके दो त्रिभागोंको गुणित करके गुणहानिको अपवर्तित कर लब्धमेंसे प्रक्षेप रूपोंको कम कर देनेपर आगेका विवक्षित अध्वान होता है । उसको अलग करनेके लिये भागहारमें कुछ कम एक रूपके अर्ध भागका प्रक्षेप पहिलेके ही समान करना चाहिये।
अब प्रथम रूपोत्पन्न अध्वान बहुत है, अथवा जिस अध्यानमें पल्योपम भागहार होता है वह अचान क्या बहुत है ? ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं- असंख्यात पल्योपम द्वितीय वर्गमूल के बराबर रूपोत्पन्न अध्वानकी अपेक्षा पल्योपम भारहारका अध्वान असंख्यातगुणा है, क्योंकि, वह असंख्यात पल्योपमोके प्रथम वर्गमूलके बराबर है। परन्तु ज्ञानावरणादिकोका रूपोत्पन्न अध्वान पल्योपमभागहारके अध्वानसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, असंख्यात द्वितीय वर्गमूल स्वरूपसे दोनों अध्वानों में कोई भेद न होने पर भी सान्तर-निरन्तर वर्गस्थानोंके गुणकारसे उनमें भेद किया गया है। इस क्रमसे गुणहानिका अनवस्थित भागहार जघन्य परीतासंख्यातके बराबर हो जाता है।
शंका-सब प्रक्षेप रूपोंका प्रमाण कितना होता है ?
समाधान-जघन्य परीतासंख्यातके वर्गको दूना करके उसका गुणहानिअध्यानमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र प्रक्षेप रूप होते हैं।
१ प्रतिषु 'अद्ध मेतखंडाणि' इति पाठः। २ ताप्रती · भागहाराणि दो-' इति पाठः ।
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१५६)
छक्खंडागमे वेयणाखंड (४, २, ४, ५९. संखेज्जवग्गेण गुणहाणिअद्धाणे भागे हिंदे भागलद्धमत्ताणि पक्खेवरूवाणि होति । अणवहिदभागहारे चदुरूवपमाणे जादे पक्खेवरूवाणं किं पमाणं १ गुणहाणिअद्धाणस्स बत्तीसदिमभागो पक्खेवरूवाणि । अणवहिदभागहारे दोरूवमेत्ते जादे पक्खेवरूवाणं पमाणं गुणहाणीए अट्ठमभागो । अणवहिदभागहारे एगरूवमेत्ते जादे पक्खेवरूवाणि गुणहाणिदुभागमेत्ताणि होति । एदाणि चडिदद्धाणम्मि पक्खित्ते दिवड्वगुणहाणीओ हति । एदाहि चरिमणिसेगमागहारे ओवट्टिदे रूवूणण्णोण्णभत्थरासी तदित्थसंचयस्स भागहारो होदि।
__ संपधि समयाहियगुणहाणिमुवरि चढिदूण बद्धसमयपबद्धसंचयस्स किंचूणण्णोणभत्थरासी भागहारो होदि । तं जहा- अण्णोण्णभत्थरासिं रूवूर्ण विरलेदूण समयपषद्धदव्वं समखंडं करिय दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स चरिमगुणहाणिदव्वं पावदि । पुणो दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगण |१८ चरिमगुणहाणिदवे भागे हिदे भागलद्धमेदं | ५० पुव्वविरलणाए हेट्ठा विरलेदूण उवीरमएगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं ९ । पडि दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगो पावेदि । एत्थ एगरूवधरिदं घेतूण उवरिमविरलणाए एगरूवधरिदचरिमगुणहाणिदव्वम्मि
शंका-अनवस्थित भागहारके चार अंक प्रमाण होनेपर प्रक्षेप रूपोंका प्रमाण कितना होता है?
समाधान-उक्त प्रक्षेप रूप उस समय गुणहानिअध्वानके बत्तीसवें भाग मात्र होते हैं।
___अनवस्थित भागहारके दो अंक प्रमाण होनेपर प्रक्षेप रूपोका प्रमाण गुणहानिके आठवें भाग मात्र होता है। अनवस्थित भागहारका प्रमाण एक अंक मात्र होनेपर प्रक्षेप अंक गुणहानिके द्वितीय भाग प्रमाण होते हैं। इनको आगेके विवक्षित अध्वानमें ' मिलानेपर डेढ़ गुणहानियां होती हैं। इनके द्वारा चरम निषेकभागहारको अपवर्तित करने पर एक कम अन्योन्याम्यस्त राशि वहाँके संचयका भागहार होता है।
ब एक समय आधक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये समयप्रबद्धके संचयका भागहार कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है । यथा-रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका विरलन करके समयप्रबद्धके द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति अन्तिम गुणहानिका द्रव्य प्राप्त होता है । पश्चात् द्विचरम गुणहानिके चरम निषेकका चरम गुणहानिके द्रव्यमें भाग देनेपर लब्ध हुर ५. इसका पूर्व विरलनके नीचे विरलन करके उपरिम विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति द्विचरम गुणहानिका चरम निषक प्राप्त होता है। यहां एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करके उपरिम घिरलनके एक मंकके प्रति प्राप्त चरम गुणहानिके द्रव्यमें स्थापित करनेपर इच्छित द्रब्यका प्रमाण होता
प्रति किंचूणरूवणण्णोण्ण' इति पाठः । ३ प्रतिष्वतः प्राक् णाणावरणीय विरलिय विगं करिय' इत्यधिक
प्राप्यते। ३ प्रतिषु ५० इति पाठः ।
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१, २, ५, ३१.] वेयणमहाहियारे वेयणदध्वविहाणे सामितं
[१५. ठविदे इच्छिददव्वफ्माण होदि । एवं विदियं तदिये, तदियं चउत्थे, चउस्थं पंचमे पक्खिषिय णेदव्वं जाव हेट्ठिमविरलणसव्वरूवधरिद उवरिमविरलगचरिमगुणहाणिदव्वेसु पनि ति । एत्थ एगरूवपरिहाणी लब्भदि । पुणो तदणंतरएगरूवधरिदं हेट्ठिमविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे तदणंतररूवधरिदप्पहुडि पुत्वं व पक्खित्ते' एत्थ बिदियरूवपरिहाणी लब्भदि । एवं उवरिमविरलणसव्वदव्वस्स समकरणे कदे परिहीणरूवाणमाणयणविहाणं वुच्चदे । तं जहा-रूवाहियद्विमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिमेनुवरिमविरलणाए किं लभामो चि
| पमाणेण फलगुणिदिच्छामोवट्टिय लद्धं उवरिमविरलणम्मि सोहिदे | सेसमिच्छिदभागहारो होदि । तस्स संदिट्ठी ३१५० ।।
___ संपधि मोहणीयस्स एत्थ अवणिदरूवाणि असंखज्जाणि हवंति, गुणहाणितिण्णिचदुभागेण रूवाहिएण रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिम्मि ओवडिदे असंखेज्जरूवागमणदंसणादो । सेसकम्माणं पुण अवणिदपमाणमेगरूवस्स असंखज्जीदभागो, भागहारभूदगुणहाणितिण्णिहै। इस प्रकार द्वितीयको तृतीयमें, तृतीयको चतुर्थमें, चतुर्थको पंचममें मिलाकर अधस्तन विरलन सम्बन्धी सब अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यके उपरिम विरलन सम्बन्धी
निके द्रव्योंमें प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिये। यहां एक अंककी हानि पायी जाती है। फिर तदनन्तर एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको अधस्तन विरलनके ऊपर समखण्ड करके देकर इसे उपरिम विरलनमें तदनन्तर अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यसे लेकर पहिलेके समान मिलानेपर यहां द्वितीय अंककी हानि पायी जाती है। इस प्रकार उपरिम विरलन राशि सम्बन्धी सब द्रव्यका समीकरण करनेपर कम हुए अंकोंके लानेका विधान कहते हैं। यथा- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र उपरिम विरलनमें कितने अंकोंकी हानि होगी, इस प्रकार फल राशिसे गुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसे उपस्मि विरलनमेंसे कम कर देनेपर शेष रहा इच्छित भागहार होता है। उसकी संदृष्टि
उदाहरण-यदि ६ + १ पर एक अंककी हानि होती है तो ६३ पर कितने अंकों की हानि होगीः-६३४१ ५ = ११, ६३ = ७५६, ५२७ - १ = १५. इच्छित भागहार।
अब यहां मोहनीय कर्मके हीन हुए अंक असंख्यात हैं, क्योंकि, गुणहानिके एक अधिक तीन चतुर्थ भागका एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देनेपर असं. ख्यात रूपोंका आगमन देखा जाता है। परन्तु शेष कौके कम हुए अंकोंका प्रमाण एक रूपके असंख्यातवें भाग मात्र होता है, क्योंकि, भागहारभूत गुणहानिके तीन-चतुर्थ
१ प्रतिषु 'पुष्वपक्खित्ते' इति पाठः ।
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१६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. चदुब्भागं पेक्खिदूण उवरिमविरलणअण्णोण्णब्भत्थरासीए असंखेज्जगुणहीणत्तादो । ३१५० एदेण समयपबद्धे भागे हिदे दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगेण सह चरिमगुण| ५९ । हाणिदव्वमागच्छदि ११८ ।
पुणो कम्मद्विदिआदिसमयप्पहुडि दुसमयाहियगुणहाणिमेत्तद्धाणमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारो वुच्चदे । तं जहा- धुवरासिदुभागं २५/ विरलेदण उवरिमपढमरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दोदो गोवुच्छाओ | ९ | पावेंति । पुणो एत्थ दोगोवुच्छविसेसागमण8 बिदियविरलणाए हेट्ठा ख्वाहियगुणहाणि दुगुणं विरलिय बिदियविरलणाए एगरूवधारदं समखंडं करिय दिण्णे एक्केक्कस्स रुवस्स दोदो गोवुच्छविसेसा पावेंति । पुणो एत्थ एगेगरूवधरिदं घेतूण मज्झिमविरलणाए बिदियरूवधरिदप्पहुडि दादूण समकरणे कीरमाणे मज्झिमविरलणाए परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे । तं जहादुगुणरूवाहियगुणहाणिं सरूवं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो मज्झिमविरलणद्धाणम्हि केत्तियाणि परिहाणिरूवाणि लभामो त्ति | १९ १।२५। पमाणेण फलगुणिदिच्छामोवट्टिय लद्धं मज्झिमविरलणाए अवणिदे इच्छिद- १ भागहारो होदि भागकी अपेक्षा उपरिम विरलन रूप अन्योन्याभ्यस्त राशि "असंख्यातगुणी हीन है। ६१° इसका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर द्विचरम गुणहानि सम्बन्धी चरम निषेकके साथ चरम गुणहानिका द्रव्य आता है ६३००:३५° = ११८।।
____ अब कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर दो समय अधिक गुणहानि मात्र स्थान आगे जाकर बांधे हुए द्रव्यके संचयका भागहार कहते हैं । यथा-ध्रुव राशिके द्वितीय भाग (२५ ) का विरलन करके उपरिम विरलनके प्रथम अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति दो दो गोपुच्छ प्राप्त होते हैं । फिर यहां दो गोपुच्छविशेषोंके लानेके लिये द्वितीय विरलनके नीचे एक अधिक गुणहानिके दूनका विरलन करके द्वितीय विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति दो दो गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं । फिर यहां एक एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण कर मध्यम विरलनके द्वितीय आदि अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यमें देकर समीकरण करने पर मध्यम विरलनमें कम हुए अंकोंका प्रमाण कहते हैं । यथा- एक अधिक गुणहानिके दुगुणे प्रमाणमें एक अंक और मिलानेपर जो [ (८+१) x २+ १ = १९ ] प्राप्त हो उतने स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो मध्यम विरलनके अध्वानमें कितने हीन अंक प्राप्त होंगे, इस प्रकार फल राशिसे गुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे अपवर्तित कर लब्धको मध्यम विरलनमेंसे कम कर देनेपर इच्छित भागहार होता है . २५४१:१९ = ३५ ७५% ७५ -२ = १ = १९।
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१ अ-काप्रत्योः 'परिहीणे', ताप्रतौ 'परिहीणं' इति पाठः।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामितं ५० । एदमद्धाणं रूवाहियं गतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि १९ किं लभामो त्ति | ६९।१।६३ | पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलणम्मि सोहिदे । १९ पयदसंचयस्स भागहारो होदि | ३१५० ।। एदेण समयपबद्ध भागे हिदे दुचरिमगुणहाणिचरिम-दुचरिमणिसेगेहि । ६९ । सह चरिमगुणहाणिदव्वमागच्छदि १३८ । एवमुवरि जाणिदूण तीहि विरलणाहि भागहारो साधेदव्यो । णवरि तिसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी ३१५। चदुसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी । ८.
१५७५ । पंचसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदृण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी ६३०।। | ४६ । छसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी २१,
३१५० । सत्तसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी १५७१। । ११९ एवं गंतूण कम्मट्ठिदिपढमसमयादो दोगुणहाणिमेत्तद्धाणं चडिद्ग | ६७ बद्धव्वभागहारो [रूवूण-] अण्णोण्णब्भत्थरासिस्स तिभागो होदि २१ । दोगुणहाणीओ
___एक अधिक यह स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें कितने अंकोंकी हानि पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाका अपवर्तन कर लब्धको उपरिम विरलनमेंसे कम करनेपर प्रकृत संचयका भागहार होता है-६३४१ : ३६ = १६०, ६३= ४१४७, १४७ - १३= १५ । इसका समयप्रबद्ध में भाग देने पर विचरम गुणहानिके चरम और द्विचरम निषेकों के साथ चरम गुण हानिका द्रव्य आता है-६३००:१५° = १३८ = (१००+१८+२०)। इस प्रकार आगे जानकर तीन विरलनोंसे भागहारको सिद्ध करना चाहिये। विशेषता केवल इतनी है कि तीन समय अधिक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्बन्धी भागहारकी संदृष्टि १५ है। चार समय अधिक एक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्बन्धी भागहारकी संदृष्टि '१५ है। पांच समय अधिक एक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्बन्धी भागहारकी संदृष्टि है। छह समय अधिक एक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्ब भागहारकी संदृष्टि १५ है। सात समय अधिक एक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्बन्धी भागहारकी संदृष्टि ११७५ है। इस प्रकार जाकर कर्मस्थिति के प्रथम समयसे लेकर दो गुणहानि मात्र स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचयका भागहार [एक कम ] अन्योन्याभ्यस्त राशिके तृतीय भाग मात्र होता
१ = २१ । चूंकि दो गुणहानियां चढ़ा है, अतः दो अंकोंका विरलन कर दुगुणा
छ, वे. २२.
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१७०
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, ३२. चडिदो त्ति दोरूवाणि विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं करिय रूवमवणिदे तिण्णि रूवाणि लब्भंति, तेहि रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिम्मि ओवट्टिदे तस्स तिभागविलंभादो । एदेण समयपबद्धे भागे हिदे पढम-बिदियगुणहाणीयो चडिऊण बद्धदव्वसंचओ आगच्छदि | ३००।।
संपहि समयाहियदोगुणहाणीयो चडिऊण बंधमाणस्स रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासितिभागो किंचूणो भागहारो होदि । तं जहा-रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासितिभागं विरलेदूण समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे चरिम [-दुचरिम ] गुणहाणिदव्वं पावदि । पुणो तदणंतरतिचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगेण संह आगमणमिच्छिय |३६ | एदेण चरिम-दुचरिमगुणहाणिदव्वे भागे हिदे धुवरासी आगच्छदि २५ । एदं विरलेदण उवरिमविरलणेगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे तिचरिमगुणहाणि-|३| चरिमणिसेगो पावदि । तं बिदियरूवधरिदप्पहुडि दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे- रूवाहियहेडिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि' एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं
करके और परस्पर गुणा करके उसमेंसे एक अंकको कम करनेपर तीन अंक प्राप्त होते हैं, क्योंकि, उनका एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देनेपर उसका तृतीय भाग आता है-[(६४ - १) (२४२ - १) = २१] । इसका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर प्रथम व द्वितीय गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका संचय आता है६३००:२१ % ३०० ।
अब एक समय आधिक दो गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे जानेवाले
गहार एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके तृतीय भागसे कुछ कम होता है। वह इस प्रकारसे-एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके तृतीय भागका विरलन करके समयप्रबद्धको समखण्ड करके देने पर अन्तिम [ व द्विचरम ] गुणहानिका द्रव्य प्राप्त होता है [ ६४-१ = २१, ६३००:२१ = ३०० चरम और द्विचरम गुणहाणियोंका द्रव्य]। पुनः चूंकि तदनन्तर त्रिचरम गुणहानिके चरम निषेकके साथ लाना अभीष्ट है, अतः इस (३६) का चरम और द्विचरम गुणहानियोंके द्रव्य में भाग देनेपर ध्रुवराशि आती है-३००:३६=२७ । इसका विरलन करके उपरिम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर त्रिचरम गुणहानिका चरम निषेक प्राप्त होता है [३०="g°; 8°:२७-३६ त्रिचरम गुणहानिका चरम निषक] | फिर उसे [उपरिम विरलनके ] द्वितीय आदि अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यमें देकर समीकरण करनेपर हीन हप अंकोंका प्रमाण बतलाते है-एक अधिक अधस्तन विरलन प्रमाण स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो ऊपरकी विरलन राशिमें कितने अंकोंकी
१ प्रतिषु ' लद्ध' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः 'समयाहियाहिंदो' इति पाठः । ३ अ-काप्रत्योः वड्डी'
इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२. ] dr महाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ १७१
लामो त्ति |२८|१|२१| पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणार सोहिदे पयदसंचयभागहारो होदि (७५) | एदेण समयपबद्धे भागे हिदे पयददव्वमागच्छदि | ३३६ | |
४
पुणो दुसया हिय दोगुणहाणीओ चडिय बद्धदव्वभागहारे आणिज्जमाणे ध्रुवरासिदुभागं विरलिय उवरिमविरलणे गरुवधरिदं समखंड करिय दिण्णे दो-दोचरिमणिसेया होणेगेरूवस्सुवरि पावेंति । एत्थेगचरिमणिसेगस्सुवरि एगविसेसमिच्छामो त्ति बिदियविरलणाए वाहियगुणहाणिं दुगुणं विरलेदूण एगरूवधरिदं समखंड करिय दिण्णे एगेगगो वुच्छविसेसो पावदि । एत्थ वि पुव्वं व समकरणे कीरमाणे जाणि निराधाररूवाणि तेसिमाणयणं वुच्चदे - रूवाहियगुणहाणिं दुगुण-रूवाहियं गंतून जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो मज्झिमविरलणार किं लभामो त्ति | १९ | १ | २५ पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिदे परिहाणिरूवाणि लब्भंति । पुणो तेसु मज्झिम- विरलणाए अवणिदेसु भागहारो होदि ७५ । पुणो रूवाहियमज्झिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवावणयणं लब्भदि
१९
हानि पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाण राशिका फलगुणित इच्छा राशिमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे ऊपर की विरलन राशिमेंसे कम कर देनेपर प्रकृत संचयका भागहार होता है - २१ × १ ÷ = २१ = मै; मैं = | इसका समयप्रबद्ध में भाग देने पर प्रकृत द्रव्य आता है— ६३०० ÷ ७५ = ३३६ ।
पुनः दो समय अधिक दो गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार निकालने में ध्रुव राशिके द्वितीय भागका विरलन करके उपरम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके ऊपर दो दो अन्तिम निषेक होकर प्राप्त होते हैं [ ३०० : ५ = ७२ = ३६ x २ ] । यहां चूंकि एक अन्तिम निषेकके ऊपर एक विशेषकी इच्छा है, अतः द्वितीय विरलन राशिके नीचे एक अधिक दूनी गुणद्दानिका { ( ८ + १ ) = ९ × २ = १८} विरलन करके एक अंक के प्रति प्राप्त प्रमाणको समखण्ड करके देने पर एक एक गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है [ ७२ ÷ १८ = ४ ] | यहांपर भी पहलेके ही समान समीकरण करनेपर जो निराधार अंक हैं उनके लाने की प्रक्रिया बतलाते हैं-- एक अधिक गुणहानिको दुगुणा करके उसमें एक अंक और मिलानेपर जो प्राप्त हो उतने [ ८ + १x२ + १ = १९] स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो मध्यम विरलन राशिमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे अपवर्तित करनेपर हानिप्राप्त अंक पाये जाते हैं । उनको मध्यम विरलन राशिमेंसे कम कर देनेपर भागहारका प्रमाण होता है - × १ ÷ १९ =
2238 = 241
फिर एक अधिक मध्यम विरलन राशि प्रमाण स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार फल राशिसे
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१७२) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. तो उवरिमविरलणाए किं लभामो ति | ९१ | १ | २१ पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणाए सोहिदे । १९ । पयददव्वभागहारो होदि । १५७५ ।। एदेण समयपबद्धे भागे हिदे इच्छिददव्वमागच्छदि | ३७६||
____पुणो तिसमयाहियदोगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदवभागहारो १०५ चदुसमयाहियदोगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्यभागहारो ५२५) पंचसमया- ७ हियदोगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्यभागहारो | ३१५ । ३९ छसमयाहियदोगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारो | ५२५ २६ ( सत्तसमयाहियदोगुणहाणीओ उवरि चडिदृण बद्धदव्वभागहारा ५२५ ।। ४८ | एवमट्ट-णव-दसादिसमयाहियदोगुणहाणीओ उरि चडिदूण बद्धदव्य-| ५३ भागहारो वत्तव्यो ।
तिण्णिगुणहाणीओ चडिदूण बद्धदव्यभागहारे भण्णमाणे ३ एदं रूवाहियमद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो रूवूणण्णोण्णब्भत्थ-४ | रासितिभागम्मि किं लभामो त्ति ७१ ।२१ पमाणेण फलगुणिदमिच्छामावट्टिय लद्धं उवरिमविरलणाए सोहिदे इच्छिददव्व-४| भागहारो होदि । अधवा, कम्मट्ठिदिआदिसमयप्पहुडि तिण्णिगुणहाणीओ चडिय बद्धदव्वभागहारामिच्छामो त्ति तिण्णिगुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोगुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे अपवर्तित करके लब्धको उपरिम विरलन राशिमेंसे कम कर देने पर प्रकृत द्रव्यका भागहार होता है - १५ + 1 = ; २१ x १ ४ = १, २१ = १३४४, १४ - ११ = १५४५ । इसका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर इच्छित द्रव्य आता है- ६३०० १५५५ = ३७६।।
पनः तीन समय अधिक दो गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ०५चार समय अधिक दो गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ५२१: पांच समय अधिक दो गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार २५; छह समय अधिक दो गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ५२५; और सात समय अधिक दो गुणहानियां आगे जाकर बांधे ग भागहार ५२५ है । इसी प्रकार आठ, नौ और दस आदि समयोंसे अधिक दो गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके भागहारकी प्ररूपणा करना चाहिये।।
तीन गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यके भागहारकी प्ररूपणामें एक अधिक तना (३) स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके तृतीय भागमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे अपवर्तित करके लब्धको उपरिम विरलन राशिमेंसे घटा देनेपर इच्छित द्रव्यका भागहार होता है-२१x१४ = १२, २१-१२ =९। अथवा, कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर तीन गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार चूंकि अभीष्ट है, अत एव तीन गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दुगुणा कर परस्पर
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रति । ५२५ | इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२.] वैयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[१७३ पणभत्थरासिणा रूवूणेण रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिम्हि ओवट्टिदे पयददव्वभागहारो होदि ।९।। एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे कम्मट्ठिदिपढमसमयप्पहुडि तिण्णिगुणहाणीओ चडिदण बद्धसमयपबद्धमुक्कट्टिय' धरिददव्वं होदि ७०० ।
संपधि समयाहियतिण्णिगुणहाणीओ चडिय बद्धदव्वसंचयभागहारो रूवणण्णोण्णभत्थरासीए सत्तमभागो किंचूणो । तं जहा-रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिसत्तमभागं विरलेदूण समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि तिण्णिगुणहाणिदव्वं पावेदि। पुणो एत्थ चदुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगेण सह आगमणमिच्छिय ७२ एदेण उवरिमएगरूवधरिदे ७०० भादे हिदे धुवरासी होदि । १ ।। एदं विलिय उवरिमविरलणेगरूवधरिदं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि | [चदु.] चरिमगुणहाणिचरिमणिसेगो पावेदि । पुणो तमुवरिमरूवधरिदेसु दादूण _समकरणे कीरमाणे जाणि परिहीणरूवाणि तेसिं पमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा- हेट्टिमविरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो रूवूणण्णोण्ण ब्भत्थरासिसत्तभागम्मि किं लभामो त्ति १९३ । १.९ पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणम्मि सोहिदे पयद- १८ । दवभागहारो गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसमें एक कम करके शेषका एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देने पर प्रकृत द्रव्यका भागहार होता है-xx 3 = ८; ८ - १ = ७, ६४ - १ - ६३, ६३ ७ = ९ । इसका समस्त द्रव्यमें भाग देनेपर कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर तीन गुणहानियां जाकर बांधे गये समयप्रबद्धका निर्जीर्ण होकर शेष रहा द्रव्य होता है- ६३००९ = ७०० ।
____ अब एक समय अधिक तीन गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचयका भागहार एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके सातवें भागसे कुछ कम होता है। वह इस प्रकारले- एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके सातवें भागका विरलन कर समयप्रबद्धको समखण्ड करके देने पर एक अंकके प्रति तीन गुणहानियोंका द्रव्य प्राप्त होता है । परन्तु चूंकि यहां चतुश्चरम गुणहानिके चरम निषेकके साथ लाना अभीष्ट है, अत एव इस (७२) का उवरिम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त राशिमें भाग देनेपर ध्रुवराशि होती है-७०० ७२ = 3। इसका विरलन करके उपरिम विरलनके एक अंब.के प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति [-चतुः] चरम गुणहानिका चरम निषेक प्राप्त होता है। उसे उपरिम अंकोंके प्रति प्राप्त राशियों में देकर समीकरण करनेपर जो हीन अंक हैं उनके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- एक अधिक अधस्तन विरलन जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके सातवें भागमें यह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे अपघर्तित करके लम्धको उपरिम विरलन राशिमेंसे कम कर देनेपर प्रकृत द्रव्य का भागहार होता है
अप्रतौ -मुक्कड्डिय ' इति पाठः ।
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१७१] छक्खंडागमे वेयणाखंड
४, २, ४, ३३. होदि | १५७५ । एदेण समयपबद्धे भागे हिदे अप्पिददव्वमागच्छदि | ७७२ । । १९३
पुणो दुसमयाहियतिण्णिगुणहाणीओ उवरि चढिय बद्धदव्वभागहारो उच्चदे । तं जहा-धुवरासिदुभागं विरलिय एगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दो-दोचरिमणिसेगा पावेति । पुणो एत्थ एगविसेसेण अहियमिच्छिय एदिस्से विरलणाए हेट्ठा रूवाहियगुणहाणिं दुगुणं विरलिय मज्झिमविरलणेगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे एगेगविसेसो पावेदि । तमुवरिमेगेगरूवधरिदेसु दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणयणविहाणं वुच्चदे। तं जहा- हेट्टिमविरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो मज्झिमविरलणम्मि किं लभामो त्ति १९ १ १७५ । पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय मज्झिमविरलणाए लद्धे अवणिदे एत्तिय होदि । ३६ ।। १७५ ।। पुणो एदं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो रूवूणणण्णोण्ण-_३८ । भत्थरासिसत्तमभागम्मि किं
६४-१ = ९, ९४१ 33; ९ = १,४३७, ३५१७ - 33 = १६७५ । इसका समयप्रबद्धमें भाग देने पर विवक्षित द्रव्य आता है- ६३०० १५५७५ = ७७२ ।
पुनः दो समय अधिक तीन गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-ध्रुवराशिके द्वितीय भागका विरलन करके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति दो दो अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं [७०० = १४४] । चूंकि यहां एक विशेषसे आधिककी इच्छा है, अतः इस विरलन राशिके नीचे एक अधिक गुणहानिके दूनेका विरलन करके मध्यम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर एक एक विशेष प्राप्त होता है [८+ १४ २ = १८; १४४ १८ = ८] । उसको उपरिम एक एक अंकके प्रति प्राप्त राशिमें देकर समीकरण करनेपर हीन अंकोंके लानेकी विधि बतलाते हैं। वह इस प्रकार है- एक अधिक अधस्तन विरलन जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो मध्यम विरलन राशिमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे अपवर्तित करके लब्धको मध्यम विरलन राशिमेसे घटा देनेपर इतना होता है- १७५ x १ २ १९ = १७५, १७५ - १७५ - ३१५० = १७५। पुनः इससे एक अधिक जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके सातवें भागमें वह कितनी
३६
, अ-कापत्योः (१५७५), तापतौ १५७५ इति पाठः ।
२ कापतौ १६९ इति पाठः ।
| १६२
१९२
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४ २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदम्वविहाणे सामित्तं
[१७५ लब्भदि त्ति २१३१९। पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणाए अवणिदे ३८ अप्पिदभागहारो होदि । १५७५ ।। एदेण समयपबद्धे भागे हिदे अप्पिददव्वमागच्छदि ८५२ ।
२१३ । धुवरासितिभाग चदुब्भागादि मज्झिमविरलणं च णादण उवरि सव्वत्थ वत्तव्वं । णवरि तिसमयाहियतिण्णिगुणहाणीओ उवरि चडिय बद्धदव्वभागहारसंदिट्ठी ३१५ । चदुसमयाहियतिण्णिगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारो १५७५। ४७ पंचसमयाहियतिण्णिगुणहाणीओ उवरि चडिदण बद्धदव्व- २५९ भागहारो [ ३१५ । छट्ठसमयाहियतिण्णिगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारो] १५७५ । सत्त- ५७| समयाहियतिण्णिगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्यभागहारो ३१३ | २२५ । एवमट्ट-णव-दससमयाहियाओ कमेण णेदव्वं जाव चउत्थगुणहाणि चडिदो ति । | ४९ तत्थ चरिमभागहारो उच्चदे । तं जहा- |७| एदं रूवाहियं गंतूण जदि रूवपरिहाणी लव्भदि तो रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिसत्तम- [८] भागम्मि किं लभामो त्ति
.......
पायी जावेगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे अपवर्तित करके लब्धको उपरिम विरलनमैसे घटा देनेपर विवक्षित भागहार होता है- ॐ + 3 = ९४१ = ३४३; ९ - ३४३ = १५७५। इसका समयप्रबद्धमें भाग देनेपर विवक्षित द्रव्य आता है- ६३०० : ३१ = ८५२।।
| ছড।
३१५
ध्रुवराशि के तृतीय भाग व चतुर्थ भाग आदि तथा मध्यम विरलन राशिको जानकर आगे सर्वत्र प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि तीन समय अधिक तीन गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके भागहारकी संदृष्टि है। चार समय अधिक तीन गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ३५, पांच समय अधिक तीन गणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहा छह समय अधिक तीन गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ] और सात समय अधिक तीन गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ११. है। इसी प्रकार आठ, नौ और दस समय आदिकी अधिकताके क्रमसे चतुर्थ गुणहानि प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। उनमें अन्तिम भागहार को कहते हैं। वह इस प्रकार है- एक अधिक इतना (३) जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो
कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके सातवें भागमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार
............
१ ताप्रतौ २१३ इत्येतस्स स्थाने ३१३ इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का ताप्रतिषु५५७५/ इति पाठः ।
२५८
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१७६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. | १५ | १ | ९ । पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिय लढे अवणिदे अप्पिददव्वभागहारो | ८ । होदि २१ । अधवा, चत्तारिगुणहाणीओ चडिदाओ त्ति चत्तारि रूवाणि विरलिय विगं करिय । ५ अण्णोण्णब्भत्थरसिणा रूवूणेण रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिमावट्टिदे भागहारो होदि २१ । एदेण समयपबद्धे भागे हिदे चत्तारिगुणहाणीओ चडिदूप बद्धदव्वसंचओ| ५ | होदि १५००। ।
पुणो समयाहियचत्तारिगुणहाणीयो चडिय बद्धसमयपबद्धभागहारो रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिस्स पण्णारसभागो किंचूणो होदि । तं जहा- पुत्रभागहारं विरलेदूग समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे रुवं पडि पुव्वं भणिददव्वं होदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदे १५०० | पंचचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगेण १४४ भागे हिदे लद्धं धुवरासी होदि । १२५ । एदेण समकरणे कीरमाणे णट्ठरूवपमाणं उच्चदे । तं जहा- रूवाहिय- १२ | धुवरासिमेतद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलण
फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे अपवर्तित करके लब्धको एक कम अन्योन्याभ्यस्त गशिके सप्तम भागमैसे घटा देनेपर विवक्षित द्रव्यका भागहार होता है- (६४ - १) *७ = ९, ९४ १ ५ = १६, ९ - १६ = २६ । अथवा, चार गुणहानियां आगे गये है, अतः चार अंकोंका विरलन करके दुगुणा करे । पश्चात् उन्हें परस्पर गुणित करनेसे प्राप्त हुई राशिमेंसे एक कम करके शेषका एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देनेपर उक्त भागहार होता है-- 3 x x x 3 = १६, १६ - १ = १५, ६४ - १ = ६३; ६३ : १५ = २५। इसका समय प्रबद्ध में भाग देनेपर चार गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका संचय होता है-६३०० : २६ = १५०० ।
पुनः एक समय अधिक चार गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये समयप्रबद्धका भागहार एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके पन्द्रहवें भागसे कुछ कम होता है। वह इस प्रकारसे - पूर्व भागहारका विरलन कर समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति पूर्वोक्त द्रव्य आता है। अब यहां एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यमें पंचचरम गुणहानिके चरम निषकका भाग देनेपर जो लब्ध हो वह ध्रुवगशि स्वरूप होता है- १५०० १४४ = २३ । इससे समीकरण करनेपर नष्ट अंकोंका प्रमाण कहते हैं। वह इस प्रकार है- एक आधिक ध्रुव राशि प्रमाण स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन प्रमाण स्थानोंमें वह कितनी पायी
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१ ताप्रतौ २५| 3 | ९ | इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[१७७ मेत्तद्वाणम्मि केत्तियाणि परिहाणिरूवाणि लभामो त्ति । १३७।१ २१ । पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलणम्मि सोहिदे १२ । । ५ भागहारो होदि । ५२५ ।।
- पुण। चत्तारिगुणहाणीयो दुसमयाहियाओ उवरि चडिदूण बद्धभागहारो उच्चदे । तं जहा- धुवरासिदुभागं विरलिय उवारमएगरूवधारदं समखंडं करिय दिण्णे एवं पडि दो-दोचरिमणिसेगा पावेति । पुणो एत्थ एगविसेसागमणमिच्छिय हेट्ठा दुगुणं रूवाहियगुणहाणि विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखंड करिय दादूण उवरिमविरलणएगरूवधरिदम्मि पक्खिविय समकरणे कदे जाणि परिहाणिरूवाणि तेसिमाणयण उच्चदे । तं जहाहेटिमविरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लब्भदि ति १९| १ | १२५ २ पमाणेण फलगुणिदीमच्छमावट्टिय मज्झिमविरलणाए अवणिदे इच्छिद- । २४ भागहारो होदि । ३७५ । एदेण उवरिमएगरूवधरिदे भागे हिदे जहासरूवेण दो णिसेया आगच्छंति ।। ७६ | पुणो एदे उवरिमएगेगजावेगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनमेंसे कम कर देने पर विवक्षित भागहार होता है-२६ ४१ १३० = ३५३;
पुनः दो समय अधिक चार गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये समयप्रबद्धका भागहार कहते हैं। वह इस प्रकार है- ध्रुवशिके द्वितीय भागका विरलन कर उपरिम विरलनके एक अंके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति दो दो चरम निषेक प्राप्त होते हैं [१५०० - १२.५ = २८८ ]। पुनः यहां चूंकि एक विशेषका लाना अभीष्ट है, अत एव नीचे एक अधिक गुणहानिके दूने का विरलन कर उपरिम विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देकर उपरिम विरलनके एक अंक के प्रति प्राप्त द्रव्यमें मिलाकर समीकरण करनेपर जो हीन अंक हैं उनके लानेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है- एक अधिक अधस्तन विरल न जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी. इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे अपवर्तित करके लब्धको मध्यम विरलन मैले घटा देनेपर इच्छित भागदार होता है-१२५४१ * १९ = १२५, १३२.५ - ४२५ = २.२५६ ] = ३७०५ । इसका उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त राशिमें भाग देने पर यथास्वरूपसे दो निषेक आते हैं [ ( १५०० ३७७५ ) = ( १५००.४७६)= ३०४ = (१४४+१६०)]। फिर इनको उपरिम एक
१ प्रतिपु ' . मुवर' इति पाठः । २ ताप्रतिपाठोध्यम् । अ-का प्रत्योः । १९ | १) १७५ इति पाठः। ३ का-ताप्रत्योः | ३७७ / इति पाठः।
| २४ छ.वे. २३.
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१७८]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, ३२. स्वधरिदेसु पविखविय समकरणं करिय परिहाणिरूवाणयणं वुच्चदे । तं जहा- रूवाहियमज्झिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति | ४५१ | १ |२१| पमाणेण फलगुणिदिच्छमावट्टिय लद्धे उवरिमविरलणाए अवणिदे ७६ | | ५ | इच्छिददव्वभागहारो होदि १५७५।
४५१ | तिसमयाहियचत्तारिगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारो | १०५ । चदुसमयाहियचत्तारिगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारो ५०५। ३३ पंचसमयाहियचत्तारिगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्व- १८१ भागहारो ३१५|| छसमयाहियचत्तारिगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारो। ५२५ । सत्त- ११९ समयाहियचत्तारिगुणहाणीओ उवरि चडिदृण बद्धदव्व- २१७ भागहारो ५२५/। एवं णेदव्वं जाव गुणहाणिअद्धाणं समत्तमिदि ।
पंचगुणहाणीओ चडिदूण बद्धदव्वभागहारो उच्चदे । तं जहा- १५ एदमद्धाणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए १६ किं लभामो
एक अंकके प्रति प्राप्त अंकोंमें मिलाकर समीकरण करके हीन अंकोंके लानेकी विधि बतलाते हैं । वह इस प्रकार है- एक अधिक मध्यम विरलन प्रमाण स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार फल गुणित इच्छाको प्रमाणसे अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनले घटा देनेपर इच्छित द्रव्यका भागहार होता है-२१ x १४५१
तीन समय अधिक चार गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्य का भागहार ४५ चार समय अधिक चार गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ४, पांच समय अधिक चार गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार १५; छह समय अधिक चार गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ३१७ व सात समय अधिक चार गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार ५२५ है । इस प्रकार गुणहानिअध्वानके समाप्त होने तक ले जाना चाहिये।
पांच गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक अधिक इतना अध्वान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्त
(१७९ त्ति ३१ । १ २१ पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणाए अवणिदे इच्छिद- १६५ दवभागहारो होदि ६३ । अधवा, पंचगुणहाणीओ चडिदो त्ति पंच रूवाणि विरलिय विगं करिय ३१ अण्णोण्णभत्थरासिणा रूवूणेण कम्महिदीए रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिम्हि भागे हिदे इच्छिदभागहारो होदि । एदेण समयपबद्ध भागे हिदे पंचगुणहाणीओ चडिदण बद्धदव्वं होदि । एवमणेण विहाणेण कम्मद्विदिदुचरिमगुणहाणि ति भागहारो परूवेदव्यो ।
संपधि दुचरिमगुणहाणिचरिमसमयम्मि बद्धदव्वभागहारो होदि २ । एदं विरलिय समयपबद्धं समखंड कादूण दिण्णे एवं पडि बिदियादि. ३१ गुणहाणिदव्वं पावदि । पुणो एगरूवासंखेज्जदिभागस्स चरिमगुणहाणिदव्वं पावदि । पुणो पढमगुणहाणिचरिमणिसेएण सह बिदियादिगुणहाणिदव्वागमणमिच्छिय चरिमणिसेगण बिदियादिगुणहाणिदव्वे भागे हिदे लद्धमेदं होदि ७७५ । एदं विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे चरिमणिसेगो ७२ आगच्छदि । पुणो इमं उवरिमविरलणरूवधरिदेसु पक्खिविय समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं उच्चदे । तं
इच्छाको अपवर्तित करके लब्धको उपरिम विरलनमेसे घटा देने पर इच्छित द्रव्यका भागहार होता है-६' x १ + ई = , २६ = ५। ५६ - १६ = १५ है।
च गुणहानियां आगे गया है, अतः पांच अंकोंका विरलन कर दुगुणा करके परस्पर गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसमें से एक कम करके शेषका कर्मः स्थितिकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देनेपर इच्छित द्रब्यका भागहार होता है-[२x२x२x२x२ = ३२, ३२ -१ = ३१, ६४-१ = ६३, ६३ : ३१ %D] । इसका समयप्रबद्धमें भाग देनेपर पांच गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यका प्रमाण होता है [६३०० = ३१००]। इस प्रकार इस विधानसे कर्मस्थितिकी द्विचरम गुणहानि तक भागहारकी प्ररूपणा करना चाहिये ।
अब द्विचरम गुणहानिके चरम समयमें बांधे गये द्रव्यका जो २ भागहार है, उसका विरलन कर समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति द्वितीयादिक गुणहानियोंका द्रव्य प्राप्त होता है [६३०० = ३१०० = (१६०० + ८००+४०० + २०० + १००)]। पुन: एक अंकके असंख्यातवें भागके प्रति अन्तिम गुणहानिका द्रव्य प्राप्त होता है । पुनः प्रथम गुण हानिके अन्तिम निषेकके साथ चूंकि द्वितीयादिक गुणहानियोंके द्रव्यका लाना अभीष्ट है, अतः अन्तिम निषेकका द्वितीयादिक गुणहानियोंके द्रव्यमें भाग देनेपर लब्ध यह होता है- ३१०० + २८८ = ५। इसका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर भन्तिम निषेक आता है [ ३१०० ४५ = २८८ ]। फिर इसको उपरिम विरलनके एक एक अंकके प्रति प्राप्त राशियों में मिलाकर समीकरण करनेपर हीन अंकोंका प्रमाण
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१८.1 छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २ ४, ३२. जहा- रूवाहियधुवरासिमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लढे उवरिमविरलणम्मि अवणिदे इच्छिदभागहारो होदि १५७५ । पुणो एदेण समयपबद्धे भागे हिदे पढमगुणहाणिचरिमणिसेगेण सह ८४७ विदियादिगुणहाणिदव्वमागच्छदि ३३८८ ।
पुणो कम्मद्विदिचरिमगुणहाणिबिदियसमयम्मि ठाइदण बद्धदव्यभागहारो उच्चदे। तं जहा- धुवरासिदुभागं विरलेदूण उवरिमेगरूपधरिदं समखंडं करिय दिण्णे एक्केक्कं पडि दो-दो णिसेया पावेंति । पुणो हेट्ठा दुगुणरूवाहियगुणहाणिं विरलिय मज्झिमविरलणेगरूवधरिदं समखंडं करिय दादूण समकरणे कीरमाणे परिहणिरूवाणं पमाणं वुच्चदे। तं जहा- रूवाहियतदियविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो धुवरासिदुभागम्मि किं लभामो त्ति १९ १७:५' पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धे [ उवरिमविरलणाए अवणिदे ] इच्छिद- १४४ भागहारो होदि ७७५ । तदो एवं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमवि- १५२ रलणम्मि किं लभामो त्ति कहते हैं। वह इस प्रकार है- एक अधिक ध्रुवराशि प्रमाण स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विश्लनसे घटा देनेपर इच्छित भागहार होता है-[७३ + १ = ॐ ॐ ४१४४४७ = ३४५६७ 1 - पंछ = १६६२७ = ] ५४७५ । पुनः इसका समयबद्ध में भाग देने पर प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेकके साथ द्वितीयादिक गणहानियोंका द्रव्य आता है-६३००+ १७५ - ३३८८ % (२८८+१६००+८००+४००+ २०० + १००)।
पुनः कर्मस्थितिकी अन्तिम गुणहानिके द्वितीय समयमें स्थित होकर बांधे गये द्रव्यका भागहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-ध्रुवराशिके द्वितीय भागका विरलन करके उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको सभखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति दो दो निषेक प्राप्त होते हैं। पुनः नीचे एक अधिक गुणहानिके दनेका विरलन कर मध्यम विरलनके एक एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देकर समीकरण करनेपर हीन अंकोंका प्रमाण बतलाते हैं। वह इस प्रकार है-- एक अधिक तृतीय विरलन राशिके बराबर स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो ध्रुवराशि के द्वितीय भागमै वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको [ मध्यम विरलनसे घटा देनेपर] इच्छित भागहार होता है - [८+ १४२ = १८ तृतीय विरलन राशि; १८+ १ = १९; ७७५ x = १४५ ध्रुवराशिका द्वितीय भाग; १४४१४ १९ = ७४४ -
ॐ = ] ७५५ । पश्चात् एक एक अधिक इतना जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे
१ प्रतिषु । १६ } १ | १७५ इति पाठः ।
१४४
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४, २, ४, ३२.] वैयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
( १८१ ९२७११६३. पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलगाए अवणिदे इच्छिद१५२ ३१ भागहारो होदि १५७५ । एदेण समयपबद्धे भागे हिदे चरिमदुचरिमणिसेगेहि सह बिदियादि- ९२७ । गुणहाणिदव्वमागच्छदि । एवं जाणिदण उवरि णेदव्वं । णवरि चरिमगुणहाणितदियसमयपबद्धदव्वभागहारो | ३१५ । चउत्थसमयपबद्धदव्यभागहारो | १५७५|| पंचमसमयपबद्धदव्वभागहारो ३ ५। २०३ चरिमगुणहाणिछट्ठसमयपबद्ध ११११ दवभागहारो १५७५ । २४३ सत्तमसमयपबद्धदव्वभागहारो १५७५ । कम्मविदिचरिमसमए बद्धदव्व- १३२७ भागहारो एगरूवं, तत्थ बद्धदव्वस्स एग-१४४७ परमाणुस्स वि खयाभावाद।। .
अधवा, भागहारपरूवणमेव वा वत्तव्वं तं जहा- करमद्विदिपढमगुणहाणिसंचयस्स भागहारपरूवणं पुव्वं व काऊण पुणो समयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारोवणरूवाणि दुरूवाहियदिवड्डगुणहाणीयो । तं जहा- चरिमगुणहाणिवे चरिम
फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनमेसे घटा देने पर इच्छित भागहार होता है- [१५५ + १ = १३५, ६३ x १४ २५७ = २४५७०५७, ६३ - रंट =] 'ए ' । इसका समयबद्धमें भाग देमपर चरम और द्विचरम निषेकोके साथ द्वितीयादिक गुणहानियोंका द्रव्य आता है - [६३०० : ५३७५ = ३७०८ = (३१०० + २८८ + ३२०)] ।
इसी प्रकार आगे भी जानकर ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि अन्तिम गुणहानिके तृतीय समयमें बांधे गये द्रव्यका भागहार ३३५, चतुर्थ समयमें बांधे गये द्रव्य का भागहार , पांचवे समय में बांधे गये द्रव्यका भागहार ३४७, अन्तिम गुणहानिके छठे समयमें बांधे गये द्रव्यका भागहार ५५५, और सातवें समयमें बांधे
। भागहार १४४७ है। कमेस्थितिक अन्तिम समयमें बांधे गये द्रव्यका भागहार एक अंक है, क्योंकि, उस समयमें बांधे गये द्रव्यमें एक परमाणुका भी क्षय नहीं हुआ है।
अथवा, भागहारकी प्ररूपणा इस प्रकारसे कहना चाहिये। यथा-कर्मस्थितिकी प्रथम गुणहानिके संचय सम्बन्धी भागहारकी प्ररूपणा पहिलेके ही समान करके पश्चात् एक समय अधिक गुणहानि प्रमाण आगे जाकर वांधे गये द्रव्य सम्बन्धी भागहारके अपवर्तन अंक दो अंकोंसे अधिक डेढ़ गुणहानि मात्र हैं। यथा- अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको अन्तिम निषेकके प्रमाणसे करनेपर डेढ़ गुणहानि प्रमाण अन्तिम
१ प्रतिषु (१५७५॥ इति पाठः । २ का-ताप्रयोः 'पंच' इति पाठः । ३ ताप्रती 'पुव्वं काऊण' इति पाठः ।
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१८) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ३२. णिसेगपमाणेण कीरमाणे दिवड्वगुणहाणिमेत्तचरिमणिसेगा होति । पुणो दुचरिमगुणहाणिचरिमजिसेगे वि तप्पमाणेण कीरमाणे दोचरिमणिसेयमेत्तो होदि । पुणो एदेसु दिवड्वगुणहाणिम्मि पक्खित्तेसु दुरूवाहियदिवड्डगुणहाणिमेत्ताणि भागहारोवट्टणरूवाणि लब्भंति । एदेहि अंगु. लस्स असंखेज्जदिभागे ओवट्टिदे इच्छिदव्वभागहारो होदि | ३१५०
संपधि दुसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारो होदि एसो ३१५० । एवं संकलणागारेण वड्डमाणगोवुच्छविसेसा केत्तियमद्धाणमुवरि चडिदे ६९ । चरिमणिसेयमेत्ता होंति त्ति उत्त गुणहाणिवम्गमूलं रूवाहियं गंतूग होति । एत्थ गुणहाणिपमाणमेदं । २५६ । एदस्स वग्गमूलं १६ । एदेण गुणहाणिम्हि भागे हिदे लद्धमेदं १६ । एत्तियमेत्तमद्धाणं रूवाहियमुवरि चडिदूण बद्धसमयपबद्धस्स भागहारोवणरूवाणि दुगुणिदचडिदद्धाणं रूवाहियं दिवड्डगुणहाणिम्हि पक्खित्तमेत्ताणि होति ।
निषेक होते हैं। पुनः द्विचरम गुणहानिके चरम निषेकको भी उसके प्रमाणसे करनेपर वह दो चरम निषेक प्रमाण होता है। फिर इनको डेढ़ गुणहानिमें मिला देनेपर दो अंक अधिक डेढ़ गुणहानि प्रमाण भागहारके अपवर्तन अंक पाये जाते हैं। इनके द्वारा अंगुलके असंख्यातवें भागको अपवर्तित करनेपर इच्छित द्रव्य (१०० +१८) का भागहार होता है - २५५° । [ अन्तिम गुणहानिका द्रव्य १००, अन्तिम निषेक ९, डेढ़ गुणहानि '९; द्विचरम गुणहानिका अन्तिम निषेक १८, १८ ९ = २; १०० + २ = ११८ दो अंक अधिक डेढ़ गुणहानि; अन्तिम गुणहानिके अंतिम निषेकका भागहार जो अंगुलका असंख्यातवां भाग है उसकी संदृष्टि ३.३० = ४०० को ११८ से अपवर्तित करनेपर १९४९ = ३६५० एक समय अधिक गुणहानिके द्रव्यका भागहार ।]
अब दो समय अधिक गुणहानि मात्र आगे जाकर वांधे गये द्रव्य (१०० + १८ +२०) का भागहार यह होता है- १५° । इस प्रकार संकलन स्वरूपसे बढ़नेवाले गोपुच्छविशेष कितना अध्वान आगे जानेपर अन्तिम निषेकके बराबर होते हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि वे एक अधिक गुणहानिके वर्गमूल प्रमाण जाकर अन्तिम निषेकके बराबर होते हैं। यहां गुणहानिका प्रमाण यह है- २५६। इसका घर्गमूल यह है-१६। इसका गुणहानिमें भाग देनेपर यह लब्ध होता है--१६ । एक अधिक इतना मात्र अध्वान आगे जाकर बांधे गये समयप्रबद्ध सम्बन्धी भागहारके
क जितने स्थान आगे गये हैं उनको दुगुणा कर एक अंक मिलानेपर जो प्राप्त हो उसको डेढ़ गुणहानिमें मिला देने पर प्राप्त राशि प्रमाण होते हैं। समीकरणका
प्रतिषु · भागहारोवट्टमाण ' इति पाठः। २ काप्रती |३१५० इति पाठः । ३ प्रतिषु 'पसा 'इति प्रतिषु ' वट्टमाण ' इति पाठः।
पाठ।
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१, २, ५, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्तं समकरणविहाणं जाणिय वत्तव्वं ।
संपहि बिदियरूवे उप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं | १२८|| गुणहाणिअद्धवग्गमूलं ८) । एदेण गुणहाणिम्हि भागे हिदे भागहारादो दुगुणमागच्छदि १६ । एदं रूवाहियमुवरि चडिदण बद्धदव्वस्स भ.गहारो दुगुणचडिदद्धाणं दुरूवाहियं दिवगुणहाणिम्हि पक्खिविय अंगुलस्स असंखेज्जदिभागे ओवट्टिदे होदि । तिसु रुवेसु उप्पाइज्जमाणेसु गुणहाणिपमाणं ४८) । गुणहाणितिभागवग्गमूलं । ४ । चत्तारिरूवाहियं इच्छिज्जमाणे गुणहाणिपमाणं ६४। गुणहाणिचदुभागवग्गमूलं ४] । पंचरूवाणि इच्छिज्जमाणे गुणहाणिपमाणं ८०' । पंचभागवग्गमूलं । ४ । छरूवाणि इच्छिज्जमाणे गुणहाणिपमाणं ९६ । छब्भागवग्गमूलं ४ । सत्तरूवाणि इच्छिज्जमाणे गुणहाणिपमाणं |११२।। सत्तमभागवग्गमूलं | ४|| अट्ठरूवाणि इच्छिज्जमाणे गुणहाणिपमाणं | १२८ । अट्ठमभागवग्गमूलं ४ । एवं कम्महिदिबिदियगुणहाणिं चढंतस्स पढमगुणहाणिम्मि जो विधी सो एत्थ वि कायव्यो। णवरि पढमगुणहाणिम्हि दुगुणिदपक्खेवरूवेहि वग्गरासिं गुणिय संदिट्ठीए गुणहाणिअद्धाणमुप्पाइदं । एत्थ पुण पक्खेवरूवेहि चेव वग्गरासिं गुणिय गुणहाणि
....................... विधान जानकर करना चाहिये।
अब द्वितीय अंकके उत्पन्न करानेमें गुणहानिका प्रमाण १२८ और गुणहानिके अर्ध भागके वर्गमूलका प्रमाण ८ है । इसका गुणहानिमें भाग देनेपर भागहारसे दूना लब्ध आता है - १६ । एक अधिक इतना आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार दो अंकोंसे अधिक आगे गये हुए अध्वानके दुनेको डेढ़ गुणहानिमें मिलाकर अंगुलके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित करने पर जो लब्ध हो उतना होता है। तीन अंकोंके उत्पन्न कराने में गुणहानिका प्रमाण ४८ और गुणहानिके तृतीय भागके वर्गमूलका प्रमाण ४ है। चार अंकोंकी इच्छा करनेपर गुणहानिका प्रमाण ६४ और गु चतुर्थ भागके वर्गमूलका प्रमाण ४ है। पांच अंकोंकी इच्छा करनेपर गुणहानिका प्रमाण ८० और गुणहानिके पांचवें भागके वर्गमूलका प्रमाण ४ है। छह अंकोंकी इच्छा करनेपर गुणहानिका प्रमाण ९६ और उसके छठे भागके वर्गमूलका प्रमाण ४ है । सात अंकोंकी इच्छा करनेपर गुणहानिका प्रमाण ११२ और उसके सातवें भागका वर्गमूल ४ है । आठ अंकोंकी इच्छा करनेपर गुणहानिका प्रमाण १२८ और उसके आठवे भागका वर्गमूल ४ है। इसी प्रकार कर्मस्थितिकी द्वितीय गुणहानि आगे जानेवाले के प्रथम गुणहानिमें जो विधि कही गई है उसीको यहां भी कहना चाहिये। विशेष इतना है कि प्रथम गुणहानिमें दूने प्रक्षेप अंकोंसे वर्गराशिको गुणित करके संदृष्टिमें गुणहानिअध्वानको उत्पन्न कराया गया है । परन्तु यहां प्रक्षेप अंकोंसे ही वर्गराशिको गुणित करके गुणहानिअध्वानको उत्पन्न कराना चाहिये ।
१ अ-काप्रत्योः ' गुणहाणि ', ताप्रतौ 'गुणहाणि (णिमि)' इति पाठः ।
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१८४ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
अद्धाणं उप्पादेदव्वं । तं कथं ? चरिमगुणहाणिगोवुच्छविसेसेहिंतो दुचरिमगुणहाणिगोवुच्छविसेसाणं दुगुणत्तुवलंभादो। अधवा, दुगुणिदपक्खेवरूवाणि एगगुणहाणि चडिदो त्ति एवं विरलिय विग करिय अण्णोष्ण भत्थरासिणा ओवट्टिय वग्गरासिम्मि गुणिदे गुणहाणिअद्धाणं उप्पदि । एवं गंतू कम्मट्ठिदिपढमसमयादो दोगुणहाणीयो चडिदूण बद्धदव्वं कम्मट्ठदिचरिमसमए चरिम- दुरिमगुणहाणिदव्वमेतं चिट्ठदि । तक्काले भागहारो वट्टिदरूवाणि तिणिदिवडगुणहाणिमेत्ताणि हवंति । तं जहा- दोगुणहाणीओ चडिदा त्ति दोरूवाणि विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं करिय रूवूणेण दिवड्ढगुणहाणिम्मि गुणिदाए तिणिदिवड गुणहाणीयो समुप्पज्जेति ति ६३०० | | एदेण समयपबद्धे भागे हिदे इच्छिददव्वमागच्छदि । पुणो समयाहियबेगुणहाणीओ उवरि चडिदूण बद्धसमयपबद्ध भागहारो चदुरूवाहियतीहि दिवड्डगुणहाणीहि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागे ओट्टिदे होदि | ६३००
३००
३३६
एवं भागहारे गच्छमाणे गोवच्छ विसेसेहिता रूप्पण्णुद्देसं भणिस्सामा । एत्थ ताव
उ उद्द
- उसका क्या कारण है ?
शंका समाधान - उसका कारण यह है कि अन्तिम गुणद्दानिके गोपुछविशेषोंकी अपेक्षा द्विचरम गुणहानिके गोपुच्छविशेष दुगुणे पाये जाते हैं ।
अथवा, चूंकि एक गुणहानि आगे गया है, अत एव एक अंकका विरलन कर दुगुणा करके परस्पर गुणित करनेसे जो प्राप्त हो उससे दुगुणे प्रक्षेप अंकों को अपवर्तित करके वर्गराशिको गुणित करनेपर गुणहानि अध्वान उत्पन्न होता है। इस प्रकार जाकर कर्मस्थितिके प्रथम समयसे दो गुणहानियां आगे जाकर बांधा गया द्रव्य कर्मस्थितिके अन्तिम समय में चरम और द्विचरम गुणहानियोंके द्रव्य के बराबर रहता है । उस समय में भागहारके अपवर्तित अंक तीन डेढ़ गुणहानि मात्र होते हैं । यथा— चूंकि दो गुणहानियां आगे गया है, अत एव दो अंकोंका विरलन कर दुगुणा करके परस्पर गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसमेंसे एक अंक कम करके शेषसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करनेपर तीन डेढ़ गुणहानियां उत्पन्न होती हैं। इसका समयबद्ध में भाग देनेपर इच्छित द्रव्य आता है [ डेढ़ गुणहानि १० ; ='५'५'८'; ६३०० = ० = ३०० ) । पुनः एक समय अधिक दो गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये समयप्रबद्ध का भांगहार चार अंकों से अधिक तीन डेढ गुणहानियों ०० + 8 = ३३६] के द्वारा अंगुलके असंख्यातवें भाग को अपवर्तित करनेपर होता
१९° × ( २ × २ - १ ) = ३००; ७०० :
६३००
३००
९
६३०० ३०६
१ प्रतिषु | ६३०० | इति पाठः । २ ताप्रती रूवणुप्पण्णुद्देस ' इति पाठः ।
[ ४, २, ४,
?
३२.
I
इस प्रकार भागहारके जानेपर गोपुच्छविशेषों में से रूपोत्पन्न उद्देशको कहते हैं ।
३००
ዳ
७००X९
३००
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४, २, ४, ३२. ]
यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ १८५
पढमादिगुणहाणीणं चडिदद्धाणुप्पायणविहाणं उच्चदे - दुगुणिदरूवेहि ओवट्टिदगुणहाणिमूलेण गुणहाणिम्हि भागे हिदाए लद्धं रूवाहियं चडिदद्धाणं होदि । चरिमगुणहाणिगोवुच्छविसेसेहिंतो समुष्पज्जमाणाणं रूवाणं [ दुगुणिदपक्खेवरूवेहिंतो गुणहाणिमावट्टिदे लद्धवग्गमूलं घेत्तूण गुणहाणिम्हि भागे हिदे लद्धं रूवाहियं चडिदद्वाणं होदि । ] दुचरिमगुणहाणिगोवुच्छविसेसेर्हितो समुप्पज्जमाणरूवाणं दुगुणिदपक्खेव रूवेहि गुणहाणिमावट्टिय लद्धं दुगुणिय वग्गमूलं घेत्तूण तेण गुणहाणिम्हि भागे हिदे लद्धं रूवाहियं चडिदद्धाणं होदि । तिचरिमगुणहाणिगोवुच्छविसेसेहिंतो समुप्पज्जमाणरूवाणं दुगुणिदपक्खेवरूवेद्दि गुणहाणिमोवट्टिय लद्धं चदुहि गुणिय वग्गमूलं घेत्तूण तेण पुणो गुणहाणिमोवट्टिय रूवे पक्खित्ते चडिदद्धाणं होदि । चदुचरिमगुणहाणिगोवुच्छविसेसेहिंतो समुप्पज्जमाणरूवाणं [दु-] गुणिक्खेवरूहि गुणहाणिमोवट्टिय लद्धमट्ठहि गुणिय वग्गमूलं घेत्तूण तेण गुणहाणि
यहां पहिले प्रथमादिक गुणहानियोंके गये हुए अध्वानके लानेकी विधि बतलाते हैं- दुगुणे अंकोंसे अपवर्तित गुणहानिके वर्गमूलका गुणहानिमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसमें एक अंकके मिलानेपर गया हुआ अध्वान होता है । चरम गुणहानि गोपुच्छविशेषों से उत्पन्न होनेवाले अंकोंके [ दुगुणे प्रक्षेप अंकोंसे गुणहानिको अपवर्तित करने पर जो लब्ध हो उसके वर्गमूलको ग्रहण करके उसका गुणहानिमें भाग देने पर जो प्राप्त हो उसमें एक अंकके मिलानेपर गया हुआ अध्वान होता है । चरम गुणहानिमें गोपुच्छविशेष १; इसका दुगुना १२ = २ गुणहानि ८ ८÷२ =४; ४४ = २; ८ ÷ २ = ४, ४ + १ = ५ अध्वान ] ।
द्विचरम गुणहानिके गोपुच्छविशेषोंसे उत्पन्न होनेवाले अंकोंके दुगुणे प्रक्षेप अंकों से गुणहानिको अपवर्तित कर लब्धको दुगुणा करके वर्गमूल ग्रहण कर उसका गुणहानि में भाग देने पर जो लब्ध हो उसमें एक अंकके मिलानेपर गया हुआ अध्वान होता है [ द्वि. च. गुणहानि गो. वि. २१ २x२ = ४, ८ ÷ ४ = २; २ × २ = ४, V४ = २; ८ : २ = ४; ४ + १ = ५ अध्वान ] |
त्रिचरण गुणहानिके गोपुच्छविशेषोंसे उत्पन्न होनेवाले अंकोंके दुगुणे प्रक्षेप अंकों से गुणहानिको अपवर्तित करके लब्धको चारसे गुणित कर वर्गमूल ग्रहण करके उससे पुनः गुणहानिको अपवर्तित कर लब्धमें एक अंकके मिलानेपर गया हुआ अध्वान होता है [ ४ x २ = ८; ८÷८ = १, १x४ = ४ ४ + १ = ५ अध्वान ] | चतुश्वरम गुणहानिके गोपुच्छविशेषों से दुगुणे प्रक्षेप अंकोंसे गुणहानिको अपवर्तित कर लब्धको वर्गमूलको ग्रहण कर उससे गुणहानिको अपवर्तित करके छ. वे. २४.
४ = २; ८ ÷ २ = ४, उत्पन्न होनेवाले अंकों के आठसे गुणित करके लब्धमें एक अंकके
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१८६ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[४ २, ४, ३२. मोवट्टिय लद्धं रूवाहियं कदे चडिदद्धाणं होदि । एवं गुणहाणि पडि दुगुणिदपक्खेवरूवो
वट्टिदगुणहाणीए गुणगारो दुगुण-दुगुणकमेण णेदव्वो। एदस्स वग्गमूलमणवट्ठिदभाग• हारो होदि त्ति घेत्तव्वो जाव कम्मट्ठिदिचरिमगुणहाणि त्ति ।
एत्थ तदियगुणहाणिम्हि एगरूवमुप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं |१२८ । दुगुणगुणहाणिवग्गमूलं [१६] । एदेण चडिदद्धाणं साधेदव्वं । दोरूवाणिमुप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं २५६)। एदिस्से वग्गमूलं |१६ । तिण्णिरूवाणिमुप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं ३८४ । एदिस्से बेतिभागवग्गमूलं १६ । चत्तारिख्वाणिमुप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं १२८)। गुणहाणिअद्धवग्गमूलं |८|| पंचरूवाणिमुप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं [६४०) । गुणहाणिवेपंचभागवग्गमूलं १६। छरूवाणिमुप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं ७६८ । गुणहाणितिभागवग्गमूलं [१६]। सत्तरूवाणिमुप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं ९६।। गुणहाणिबेसत्तभागवग्गमूलं १६ । अट्ठरूवाणिमुप्पाइज्जमाणे गुणहाणिपमाणं ६४। एदिस्से चदुब्भागवग्गमूलं ४।। एवं सेसरूवाणं पि जाणिदण अणवहिदभागहार उप्पाइय चडिदद्धाणं साहेदव्वं ।
मिलाने पर गया हुआ अध्वान होता है [८x२ = १६, ८ १६ = x ८ = ४, V४ = २,८२ = ४, ४ + १ = ५] । इस प्रकार प्रत्येक गुणहानिके प्रति दुगुणे प्रक्षेप अंकोंसे अपवर्तित गुणहानिके गुणकारको उत्तरोत्तर दुगुणे दुगुणे क्रमसे ले जाना चाहिये । इसका वर्गमूल अनवस्थित भागहार होता है, ऐसा कर्मस्थितिकी अन्तिम गुणहानि तक ग्रहण करना चाहिये ।
यहां तृतीय गुणहानिमें एक अंकके उत्पन्न करानेमें गुणहानिका प्रमाण १२८ और दुगुणी गूणहानिके वर्गमूलका प्रमाण १६ है। इससे गत अध्वानको सिद्ध करना चाहिये। दो अंकोको उत्पन्न करानेमें गुणहानिका प्रमाण २५६ और इसका वर्गमूल १६ है। तीन अंकोंको उत्पन्न करानेमें गुणहानिका प्रमाण ३८४ और इसके दो त्रिभागका वर्गमूल १६ है। चार अंकोंको उत्पन्न कराने में गुणहानिका प्रमाण १२८ और गुणहानिके अर्घ भागका वर्गमूल ८ है । पांच अंकोंको उत्पन्न कराने में गुणहानिका प्रमाण ६४० और गुणहानिके दो बटे पांचका वर्गमूल १६ है । छह अंकोंको उत्पन्न कराने में गुणहानिका प्रमाण ७६८ और गुणहानिके तृतीय भागका वर्गमूल १६ है । सात अंकोंको उत्पन्न कराने में गुणहानिका प्रमाण ८९६ और गुणहानिके दो बटे सातका वर्गमूल १६ है । आठ अंकोंको उत्पन्न कराने में गुणहानिका प्रमाण ६४ और इसके चतुर्थ भागका
है। इस प्रकार जानकर शेष अंकोंके भी अनवस्थित भागहारको उत्पन्न कराकर गत अध्वानको सिद्ध करना चाहिये। .
.........
१ प्रतिषु ' गुणहाणिलद्ध' इति पाठः
२ अप्रतौ [ ७९६ Jइति पाठः ।
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५, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[१८७ कम्मढिदिपढमसमयादो तिण्णिगुणहाणीओ चडिदूण बर्द्धदव्वस्स भागहारोवट्टणरूवपमाणं सत्तदिवड्डगुणहाणीओ ६३००|| समयाहियतिण्णिगुणहाणीओ चडिदूण बद्धदव्वभागहारो ६३००। एवमुवीर |७०० वि भागहारविधी जाणिण वत्तव्वा । कम्मट्टिदिपढमसम-७७२ यादो जहण्णपरित्तासंखेज्जछेदणएहि ऊणसव्वगुणहाणिसलागमेत्तगुणहाणीसु बद्धसमयपबद्धाण कम्मट्ठिदिचरिमसमए असंखेज्जदिमागो चेव अच्छदि। सेसअसंखेज्जा भागा णट्ठा । उवरिमाणं पुण संखेज्जदिभागो सेसो, संखेज्जा भागा णट्ठा । एत्य कारणं जाणिय वत्तव्वं । एवं गंतूण कम्मट्ठिदिचरिमगुणहाणिं मोत्तण सेससव्वगुणहाणीओ चडिदूण बद्धदव्वभागहारो दोरूवाणि एगरूवमण्णोण्णब्भत्थरासिअहेण रूवूणेण खंडिदएगखंडं च होदि | २ | । एदेण समयपबद्ध भागे हिदे बिदियादिसव्वगुणहाणीणं दव्वमागच्छदि ।
३१
संपधि समयाहियमुवरि चडिदूण बद्धदव्वभागहारो वुच्चदे। तं जहा- बिदियादिगुणहाणिदव्वभागहारं विरलिय समयपबद्धं समखंडं करिय दिणे स्वं पडि बिदियादि
....................
कर्मस्थितिके प्रथम समयसे तीन गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यके भागहारके अपवर्तन अंकोंका प्रमाण सात डेढ गणहानियां ७x. = १०,७०० ६. = है। एक समय अधिक तीन गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यके भ अपवर्तन अंकोंका प्रमाण है। इसी प्रकार आगे भी भागहारकी विधिको जानकर कहना चाहिये। कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छदोसे हीन समस्त गुणहानिशलाकाओके बराबर गुणहानियोंमें बांधे गये समयप्रबद्धोंका असंख्यातवां भाग ही कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें रहता है । शेष असंख्यात बहुभाग उनका नष्ट हो जाता है । इससे आगेकी गुणहानियोंमें बांधे गये समयप्रबद्धोंका संख्यातवां भाग ही रहता है, शेष संख्यात बहुभाग उनका नष्ट हो जाता है । यहां कारणकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये । इस प्रकार जाकर कर्मस्थितिकी अन्तिम गुणहानिको छोडकर शेष सब गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहा अंक और एक अंकको एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके अर्ध भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड अधिक होता है-२७। इसका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर द्वितीयादिक सब गुणहानियोंका द्रव्य आता है [ ६३०० = ३१००] ।
_अब एक समय अधिक आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-द्वितीयादिक गुणहानियों सम्बन्धी द्रव्यके भागहारका विरलन कर समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति द्वितीयादिक गुणहानियोंका
१ प्रतिधु 'बग्ग 'इति पाठः।
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१८८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
४, २.१.३२ गुणहाणिदव्वं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं पढमगुणहाणिचरिमणिसेगेणोवट्टिय लद्धं विरलेदूण उवरिमएगरूवधरिदं' समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि चरिमणिसेगो पावदि । तमुवरि दादूण समकरणं करिय परिहाणिरूवाणयणं वुच्चदे । तं जहा- हेट्टिमविरलणा किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्ता, पढमगुणहाणिचरिमणिसेगेण विदियादिगुणहाणिदव्वे भागे हिदे किंचूणदिवड्डगुणहाणिपमाणुवलंभादो । एदाए रूवाहियविरलणाए उवरिमविरलणम्मि भागे हिदे दिवड्वगुणहाणिअद्धेण किंचूणेण एगरूवं खंडिदेगखंडं लब्भदि । एदं मोहणीयं पडुच्च दोरूवहेट्ठिमअंसादो असंखेज्जगुणं, दिवड्डगुणहाणिअद्धादो अण्णोण्णभत्थरासिअद्धस्स असंखेज्जगुणत्तादो । सेसकम्मेसु णिरुद्धेसु एदम्हादो दोरूवाणं हेट्ठिमअंसो असंखेज्जगुणो, सेसकम्माणं अण्णोण्णब्भत्थरासिअद्धादो दिवड्डगुणहाणिअद्धस्स असंखेज्जगुणत्तादो । तेणेदम्हि सोहिदे मोहणीय- [स्स एगरूवस्स ] असंखेज्जदिभागूणदोरूवमेत्ता, सेसकम्माणमेगरूवस्स असंखेज्जदिभागाहियदोरूवमेत्ता विरलणरासी होदि । एवमेगरूवमेगरूवस्स असं
द्रव्य प्राप्त होता है । पुनः इसमें एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेकसे अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एक अंकके प्रति अन्तिम निषेक प्राप्त होता है। उसको ऊपर देकर समीकरण करके हीन अंकोंके लानेकी विधि कहते हैं । वह इस प्रकार है- अधस्तन विरलनका प्रमाण कुछ कम डेढ़ गुणहानि है, क्योंकि, प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेकका द्वितीयादिक गुणहानियोंके द्रव्यमें भाग देनेपर कुछ कम डेढ़ गुणहानिका प्रमाण [३२०० २८८ = २०३३४ ] पाया जाता है। एक अधिक इस विरलन राशिका उपरिम विरलन राशिमें भाग देनेपर कुछ कम डेढ़ गुणहानिके अर्ध भागसे एक अंकको खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड लब्ध होता है [ +१=३ ( ३४४ ) = ( x ) = = कुछ कम = (१ कुछ कम डेढ़ गुणहानि)]। यह मोहनीय कर्मकी अपेक्षा दो अंकोंके नीचेके अंशसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, डेढ़ गुणहानियोंके अर्ध भागसे उसकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका अर्ध भाग असंख्यातगुणा है। शेष कौकी विवक्षा करनेपर इसकी अपेक्षा दो अंकोंके नीचेका अंश असंख्यातगुणा है, क्योंकि, शेष कर्माकी अन्योन्याभ्यस्त राशिके अर्धे भागकी अपेक्षा डेढ़ गुणहानियोका अ असंख्यातगुणा है। उसमेंसे इसको कम करनेपर मोहनीयकी विरलन राशि [एक अंकके असंख्यातवें भागसे हीन दो अंक प्रमाण और शेष कौकी विरलन राशि एक अंकके असंख्यातवें भागसे अधिक दो अंक प्रमाण होती है।
शंका-इस प्रकार एक अंक और एक अंकका असंख्यात बहुभाग भागहार
१ प्रतिषु .एगरू' इति पाठः । २ अप्रतौ एवं' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'असंखेज्जगुणदिवट्ठ' हीत पाठः ।
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [१८९ खेज्जा भागा च भागहारो होदूण गच्छमाणो कम्हि पदेसे एगरूवमेगरूवस्स संखेज्जा भागा च भागहारो होदि त्ति उत्ते उच्चदे-चरिमगुणहाणिअद्धाणं दुगुणेणुक्कस्ससंखेज्जेण रूपूणेण खंडिय तत्थ किंचूणदिवड्डखंडाणि उवरि चडिदूण बद्धदव्वस्स एगरूवमेगरूवस्स संखेज्जा' भागा च भागहारो होदि । तं जहा- एगसमयपबद्धमस्सिदूण पढमगुणहाणिम्हि पदिददध्वस्स चरिमणिसेगे अवणिय मूलग्गसमासेण गोवुच्छविसेसाणं समकरणे कदे रूवूणगुणहाणिअद्धेण गुणिदगुणहाणिमेत्ता गोवुच्छविसेसा होति ३२/७८ । चरिमणिसेगा पुण गुणहाणिमत्ता J२८८J८ । एदाणि दो वि दव्वाणि २ दुगुणुक्कस्ससंखेज्जेण रूवूणेण खंडिदे एगखंडदव्वं होदि ३२/ ७/८/२८८।८।। दुगुणुक्कस्संखेज्जेण रूवूणेण गुणहाणिम्मि भागे हिदे । २ २९ तत्थ एगभाग रूवूर्ण गच्छे करिय गोवुच्छविसेसादिउत्तरसंकलणमाणिय पुव्वुत्तगोवुच्छविसेसेहिंतो एत्तियमेत्तगोवुच्छविसेसे घेत्तूण दुगुणुक्कस्ससंखेज्जेण रूवूणेण खंडिदगुणहाणिमेत्तचरिमणिसेगेसु पक्खित्तेसु एगखंडदव्वं जहासरूवं होदि । पुणो
होकर जाता हुआ किस प्रदेशमें एक अंक और एक अंकका संख्यात बहु भाग भागहार होता है ?
समाधान-उपर्युक्त शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि अन्तिम गुणहानिके अध्वानको एक कम दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उसमेंसे कुछ कम डेढ़ खण्ड आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार एक अंक और एक अंकका संख्यात बहुभाग होता है। वह इस प्रकारसे-एक समयप्रबद्ध का आश्रय करके प्रथम गुणहानिमें पड़े हुए द्रव्यके अन्तिम निषेकको कम कर मूलाग्रसमाससे (नीचेसे ऊपर तक जोड़ कर) गोपुच्छविशेषोंका समीकरण करनेपर एक कम गुणहानिके अर्ध भागसे गुणित गुणहानि प्रमाण गोपुच्छविशेष होते हैं- [ गोपुच्छविशेष ३२, गुणहानि ८, ] ३२ x ५४ ८ । परन्तु अन्तिम निषेक गुणहानिके बराबर, अर्थात् जितना गुणहानिका प्रमाण होता है, उतने होते हैं- अन्तिम निषेक २८८, गुणहान ८; २८८४८। इन दोनों ही द्रव्योंको एक कम दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर उनमें से एक खण्ड प्रमाण द्रव्य होता है-३२४५४८४३६ = ६३९६, २८८.४ ८ = २३०४। एक कम दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातका गुणहानिमें भाग देनेपर उसमेंसे एक कम एक भागको गच्छ करके गोपुच्छविशेषादि उत्तर संकलनको लाकर पूर्वोक्त गोपुच्छविशेषोंमेंसे इतने मात्र गोपुच्छविशेषोंको ग्रहण कर एक कम दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातसे स्खण्डित गुणहानि प्रमाण अन्तिम निषेकोंके मिलानेपर यथास्वरूपसे एक खण्ड द्रव्य होता है । फिर शेष
१ प्रतिषु ' असंखेग्जा' इति पाठः। २ अप्रतो ' एगरूवूणं भाग गच्छं' इति पाठः ।
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१९०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ३२. सेसगोवुच्छविससाओ संकलणसरूवेण हेट्ठा रइदण गच्छद्धाणं भणिस्सामो | ३२|८| एदे गोवुच्छविसेसा बिदियखंडम्मि आदी होति । एगेगो गोवुच्छविसेसो | उत्तरं । आदीदो अंतधणं दुगुणं रूवूणं |३२|८|२|| आदि-अंतधणाणि एक्कदो काऊण अद्धिय रूवाहियगुणहाणिमेत्त- | २९ गोवुच्छविसेसे पक्खित्ते बिदियखंडमज्झिमधणं होदि । एदेण उवहिदंगोवुच्छविसेसेसु ओवट्टिदे किंचूणेगखंडमेत्तद्धाण लब्भदि । एसा थूलद्धपरूवणा । सुहुमद्धाणं धणमठुत्तरगुणिदे' एदीए गाहाए आणेदव्वं ।
संपहि एदमद्धाणं पि सोहिय भागहारपसाहणं भणिस्सामो । तं जहा| ३२००/ एदेण उवरिमविरलणाए एगरूवधरिदबिदियादिगुणहाणिसव्वदव्वे भागे हिदे | २९ । रूवूणदुगुणुक्कस्ससंखेज्जमगरूवस्स असंखेज्जदिमागेण ऊणमागच्छदि |३१|२९| । एदं विरलिय एगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे इच्छिददव्वमागच्छदि । |३२| एदमुवरि पक्खिविय समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणमाणयणं वुच्चदे । तं जहा
२९
गोपुच्छविशेषोंको संकलन स्वरूपसे नीचे रचकर गच्छका अध्वान कहते हैं- [गो. वि. ३२४ गु. हा. ८ (उ. सं. १५४२ -१)] ये गोपुच्छविशेष द्वितीय खण्डमें आदि होते हैं। एक एक गोपुच्छविशेष उत्तर है। आदि धनसे अन्तधन एक कम दुगुणा है- आदि ३२४ ८, ३ २४८४ २ = अन्तधन। आदि और अन्त धनको इकट्ठा करके आधा कर एक अधिक गुणहाणि प्रमाण गोपुच्छविशेषको मिलानेपर द्वितीय खण्डका मध्यम धन होता है। इससे उपस्थित गोपुच्छविशेषोंको अपवर्तित करनेपर कुछ कम एक खण्ड प्रमाण अध्वान पाया जाता है। यह स्थूल अध्वानकी प्ररूपणा है। सूक्ष्म अध्धानको “धणमट्टत्तरगुणिदे-" इत्यादि गाथा (देखो पीछे पृ. १५० गा. १४) के द्वारा लाना चाहिये।
अब इस अध्वानको भी कम करके भागहारके प्रसाधनको कहते हैं । यथा३३९० इसका उपरिम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त द्वितीयादिक गुणहाणियोंके सब द्रव्यमें भाग देनेपर एक अंकके असंख्यातवें भागसे हीन एक कम दुगुणा उत्कृष्ट संख्यात आता है- ३१०० ३२९° = ३१४२९ = २८३३, ( एक कम दुगुणा उत्कृष्ट संख्यात १५४२- १ = २९; एक अंकका असंख्यातवां भाग ३३, २९ - ३३ = २८)। इसका विरलन कर एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर
य आता है। इसको ऊपर मिलाकर समीकरण करनेपर हीन अंकॉके लानेकी विधि बतलाते हैं। वह इस प्रकार है- एक अंकसे अधिक अधस्तन विर
१ ताप्रती · उव्वट्टिद' इति पाठः। २ अप्रतौ ‘घणद्धाणं घण धण'; काप्रतौ ' पद्दद्धाण घण धण'; ताप्रतौ 'पुधद (द्ध) द्धाणं धण धण' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२. वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त [१९१ हेट्टिमविरलणं रूवाहियं गंतूण ३१३०/१/ जदि एगरूवपरिहीणं लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लभामो ३२३१ त्ति |३१|३०|१|६३३ पमाणेण फलेगुणिदमिच्छामोवट्टिदे एगरूवस्स उक्कस्ससंखेज्जेण
खंडिदेगखंडमण्णेगरूवस्स असंखेज्जदिभागो च आगच्छदि । लद्धमुवरिमविरलणम्मि सोहिदे एगरूवमेगरूवस्स संखेज्जा भागा अण्णेगेरुवस्स असंखेज्जदिभागो च भागहारो होदि ।
पढमगुणहाणिदवेण बिदियादिगुणहाणिदव्वं सरिसमिदि कप्पिय उवरिमपरूवणं भणिस्सामो । तं जहा- दोरूवाणि विरलिय समयपबद्धं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि बिदियादिगुणहाणिदव्वं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिददव्वतिभागेण तम्हि चेव दवे भागे हिदे तिण्णि रूवाणि आगच्छंति । पुणो एदाणि विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं
लन जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित एक खण्ड और अन्य एक अंकका असंख्यातवा भाग आता है
[३१४२९ + १ = ९३२ यदि ९३१ पर १ अंककी हानि होती है तो ६३ पर कितने अंकोंकी हानि होगी, ३४३२ - २२६ - २६+ - २६१४] ।
लब्धको उपरिम विरलनमेंसे कम कर देनेपर एक अंक व एक अंकका संख्यात बहुभाग तथा अन्य एक अंकका असंख्यातवां भाग भागहार होता है [/- = 353 = १ 33 = १ + + = १ +3 + ] ।
प्रथम गुणहानिके द्रव्यसे द्वितीयादिक गुणहानियोंका द्रव्य सदृश है, ऐसी कल्पना करके आगेकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- दो अंकोंका विरलन कर समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति द्वितीयादिक गुणहानियोंका द्रव्य प्राप्त होता है। फिर यहां एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्य के तृतीय भागका उसी द्रव्यमें भाग देनेपर तीन अंक आते हैं। इनका विरलन कर उपरिम
१ ताप्रतौ ३१३० इति पाठः। २ प्रतिषु ' -परिहीणं ण लब्मदि' इति पाठः । ३ काप्रतौ ३१३०६३1३२ । १
ताप्रती | ३१/३० |६३ इति पाठः। ४ प्रतिषु 'पमाणफल' ३१३१। ३१
३१ ५ अ-काप्रयोः' अणेग' इति पाठः ।
| ३२ ३, ३१
इति पाठः ।
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१९२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३२. करिय दिण्णे एवं पडि तिभागपमाणं पावदि । तमुवरि दादूण समकरणं कायव्वं । रूवाहियतिणं रूवाणं जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो दोणं रूवाणं किं लभामो त्ति [४|१|२| पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिदे लद्धमद्धरूवं | १|| एदम्मि दोरूवेसु सोहिदे सुद्धसेसमेत्तियं होदि | १|| संपहि गुणहाणिअद्धं |२| विसेसाहियमुवरि चडिदूण बंधमाणस्स सति- [२] भागरूवं भागहारो होदि, रूवाहियदोस्वेहि दोरूवेसु ओवट्टिदेसु एगरूवबेतिभागस्स |२| दोसु रुवेसु परिहाणिदंसणादो |१|| पुणो गुणहाणितिण्णिचदुब्भागमुवरि , ३ | चडिदूण बंधमाणस्स एगरूवमेग- [३] स्वस्स सत्तमभागो च भागहारो होदि । तं जहा- सतिभागमेगरूवं विरलिय उवरि एगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे इच्छिददव्वं पावदि । एदं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो दोणं रूवाणं किं लभामो त्ति |७|१|२| लद्धं | ६ | । एदाम्म दोसु रूवेसु सोहिदे सुद्धसेसमेदं |१|| तस्स |३|_|_| समय-|| पबद्धस्स गुणिदकम्मंसिओ' णेरइयचरिम- [७] समए पढमगुणहाणिदव्वस्स तीहि चदुब्भागेहि
एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति तृतीय भागका प्रमाण प्राप्त होता है। उसको ऊपर देकर समीकरण करना चाहिये। एक अधिक तीन अंकोंके यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो दो अंकोंके प्रति वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर आधा अंक लब्ध होता है-२४ = ३। इसको दो अंकोंमेंसे कम करनेपर शेष इतना होता है-१३। अब गुणहानिके अर्ध भागसे विशेष अधिक आगे जाकर बांधे जानेवाले द्रव्यका भागहार तृतीय भाग सहित एक अंक होता है, क्योंकि, एक अधिक दो अंकोके द्वारा दो अंकोंको अपवर्तित करनेपर दो अंकॉम एक अंकके दो त्रिभाग(3) की हानि देखी जाती है- २-३ = १ । पुनः गुणहानिके तीन चतुर्थ भाग आगे जाकर बांधे जानेवाले द्रव्यका भागहार एक अंक और एक अंकका सातवां भाग होता है। वह इस प्रकारसे- तृतीय भाग सहित एक अंकका विरलन कर ऊपर एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर इच्छित द्रव्य प्राप्त होता है। एक अधिक इतना (3) जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो दो अंकोंके वह कितनी पायी जावेगी, [इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर ] लब्ध इतना होता है-x = । इसको दो अंकों से कम कर देनेपर शेष यह रहता है-२-5 = १७। उस समयप्रबद्धमेंसे गुणितकौशिक जीव नारक भवके अन्तिम समयमें प्रथम गुणहानि सम्बन्धी द्रव्यके तीन चतुर्थ भागोंके साथ
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.१ प्रतिषु — समयपबद्धस्स गुणहाणियुणिदकम्मंसिओ' इति पाठः ।
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१, २, १, ३२.] वैयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[१९६ सह विदियादिगुणहाणिदव्वं धरेदि, समयपबद्धमट्ठमभागोणं धरेदि ति उत्तं होदि । एवमेगरूवमेगरूवस्स संखेज्जदिभागो भागहारो गच्छमाणो केत्तियदव्वे वड्डिदे एगरूकमेगरुवस्स असंखेज्जदिभागो च भागहारो होदि त्ति उत्ते उच्चदे-गुणहाणि जहण्णपरित्तासंखज्जस्स अद्धण रूवाहिएण खंडिदूण तत्थ एगखंडं मोत्तूण बहुखंडाणि विसेसाहियाणि हेहदो उवरि चडिदूण बद्धदव्वस्स एगरूवमेगरूवं विसेसाहियजहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदेगखंडं च भागहारो होदि । तं जहा-|९| एदं विरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लन्भदि तो उवरिमविरलणम्मि| ८|कि लभामो ति |१७|१|२| पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमेत्तियं होदि | १६ || एदाम्म | ८ | ।। दोसु रुवेसु सोहिदे एगरूवं रूवाहियजहण्णपरित्तासंखे- १७ जेण खंडिदेगरूवं च भागहारो | १ | होदि । एदेण समयपबद्धे भागे हिदे दुरूवाहियजहण्णपरित्तासंखेज्जेण समयपबद्धं |७| खंडिदूण तत्थ एगखंडं मोत्तूण बहुखंडाणि आगच्छंति । एतो पहाड उवरि जे बद्धा समयपबद्धा तेसिमसंखेज्जदिभागो चेव गट्ठो, सेसअसंखेज्जा भागा ण
द्वितीयादिक गुणहानियोंके द्रव्यको धारण करता है। अभिप्राय यह कि वह आठवें भागसे हीन समयप्रबद्धको धारण करता है। [प्रथम गुणहानिका द्रव्य समयप्रषख, द्वितीयादिक गुणहानिका द्रव्य : समयप्रबद्ध, x + 1 =५।]
शंका-इस प्रकार एक अंक और एक अंकका संख्यातवां आग भागहार जाता हुआ कितने द्रव्यकी वृद्धि होनेपर एक अंक और एक अंकका असंख्यात भाग भागहार होता है ?
समाधान- ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि जघन्य परीतासंख्यातके अर्ध भागमें एक मिलानेगर जो प्राप्त हो उससे गुणहानिको खण्डित कर उसमेंसे एक खण्डको छोड़कर विशेषाधिक बहुभाग प्रमाण नीचेसे ऊपर जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार एक अंक और एक अंकको विशेषाधिक जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करने पर एक खण्ड भागहार होता है। वह इस प्रकारसे- एक अधिक इतना (2) विर. लन जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम चिरलनमें यह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर लन्ध इतना होता है-२४१ = 10। इसको दो अंकोंमेंसे कम कर देनेपर एक पूर्ण अंक और एक अधिक जघन्य परीतासंख्यातले खण्डित एक अंक भागहार होता है-२-१ = १ ।
इसका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर दो अधिक जघन्य परीतासंख्यातसे समयप्रबद्धको खण्डित कर उसमेंसे एक खण्डको छोड़कर बहुखण्ड आते हैं। यहांसे लेकर आगे जो समयप्रबद्ध बांधे गये हैं उनका असंख्यातवां भाग ही नष्ट हुमा छ,वे. २५.
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, १, ३२. णट्ठा । णवरि णारगचरिमसमयप्पहुडि हेट्ठा समयाहियआबाधामेत्तसमयपबद्धाणमक्को वि ण णटो परमाणू, अप्पहाणीकयओकड्डणदव्वत्तादो ।
- संपहि आबाहं पहाणं कादूण भण्णमाणे आबाधाअंतरे बद्धसमयपबद्धाणमोकड्ड. णादो चेव विणासो। एगाए वि गोवुच्छाए जो णिसेगसरूवेण गलणं णत्थि, णारगचरिमसमयप्पहुडि उवरि णिक्खित्तपढमादिगोउच्छत्तादो। संपहि आबाधाभंतरे बद्धसमयपषद्धाणमोकड्डणाए णट्ठदव्वपरिक्खा कीरदे । तं जहा- एत्थ ताव तं चउन्विहं एगसमयपबद्धस्स एगसमयओकड्डिदादो एगसमयगलिदं, एगसमयपबद्धस्स एगसमयओकड्डिदादो णाणासमयगलिदं, एगसमयपबद्धस्स णाणासमयओकड्डिदादो णाणासमयगलिदं, णाणासमयपबद्धाण णाणासमयओकड्डिदादो णाणासमयगलिदं चेदि । तिण्हं वाससहस्साणं समयपंति ठवेदण कमेण चदुण्णं णट्ठदव्वाणं परूवणे कीरमाणे णारगचरिमसमयं मोत्तूण तिण्णि वाससहस्साणि हेट्ठा ओसरिय जो बद्धो समयपबद्धो तस्स ताव उच्चदे - एगसमयपबद्धं ठविय तस्स हेट्ठा ओकड्डुक्कड्डणभागहारे ठविदे एगसमयओकड्डिददव्वं होदि । तं सव्वमुदयावलियबाहिरे गोवुच्छागारेण णिसिंचदि त्ति पढमणिसेयरमाणेण कदे दिवड्ढगुणहाणिहै, शेष असंख्यात बहुभाग नष्ट नहीं हुआ है। विशेष इतना है कि नारक भवके अन्तिम समयसे लेकर नीचे एक समय अधिक आबाधा प्रमाण समयप्रबद्धोंका एक भी परमाणु नष्ट नहीं हुआ है, क्योंकि, यहां अपकर्षण द्रव्यको अप्रधान किया गया है।
_____ अब आबाधाको प्रधान करके कथन करने पर आबाधाके भीतर बांधे गये समयप्रबद्धोंका अपकर्षण द्वारा ही विनाश होता है। कारण यह कि निषेक स्वरूपसे एक भी गोपुच्छका गलन नहीं है, क्योंकि, नारक भवके अन्तिम समयसे लेकर आगे प्रथमादिक गोपुच्छोंका निक्षेप किया गया है। अब आबाधाके भीतर बांधे गये समयप्रबद्धोंके अपकर्षण द्वारा नष्ट हुए द्रव्यकी परीक्षा करते हैं। वह इस प्रकार हैयहां उक्त द्रव्य एक समयप्रबद्धके एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे एक समयमें गलित हुआ, एक समयप्रबद्धके एक समय में अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नानासमयोंमें गलित हुआ, एक समयप्रबद्धके नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयों में गलित हुआ, तथा समयप्रबद्धोंके नाना समयोंमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयोंमें गलित हुआ, इस प्रकारसे चार प्रकारका है। तीन हजार वर्षोंकी समयपंक्तिको स्थापित करके क्रमले चारों मष्ट द्रव्योंकी प्ररूपणा करनेमें नारक भवके अन्तिम समयको छोढ़कर तीन हजार वर्ष नीचे उतर कर जो समयप्रबद्ध बांधा गया है उसके सम्बन्धमें प्ररुपणा करते हैं- एक समयप्रबद्धको स्थापित कर उसके नीचे अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारको स्थापित करनेपर एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यका प्रमाण होत सबको चूंकि उदयावलीके बाहिर गोपुच्छाकारसे देता है, अत एव प्रथम निषेक प्रमाणसे करनेपर डेढ़ गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेक होते हैं । इसीलिये डेढ़
१ अ-काप्रमोः 'लद्ध ' इति पाठः । २ काप्रतौ 'जथा ' इति पाठः ।
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१, २ ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[१९५ मेत्तपढमणिसेया होति । तेण दिवड्डगुणहाणिणा ओकड्डिददव्ये भागे हिदे एगसमयपबद्धएगसमयओकडिदस्स पढमसमयगीलदमागच्छदि । पुणो तस्सेव बिदियसमयगलिदे आणिज्जमाणे दिवड्डगुणहाणीओ विरलिय एगसमयपबद्धस्स एगसमयओकड्डिददव्वं समखंडं करिय दिण्णे पढमसमयगलिददव्वपमाणं पावदि ।
संपधि एदस्स हेट्ठा णिसगभागहारं विरलिय पढमसमयगलिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि गोवुच्छविसेसो पावदि । तं उवरिमविरलणसव्वरूवधरिदेसु अवणिय पयदगोवुच्छपमाणेण कीरमाणे समुप्पण्णसलागाणं पमाणमाणिज्जदे । तं जहा-रूवूणहेट्टिमविरलणमेत्तविसेसेसु जदि एगा सलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तविसेसेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिदे पक्खेवसलागाओ लब्भंति । ताओ उवरिमविरलणाए पक्खिविय एगसमयओकड्डिददव्वे भागे हिदे तत्तो बिदियसमयगलिददब्वमागच्छदि । पुणा णिसेयभागहारस्स अद्धण रूवूणेण दिवड्डगुणहाणीओ ओवट्टिय जं लवं
गुणहानिका अपकृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर एक समयप्रबद्धके एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे प्रथम समय में नष्ट हुआ द्रव्य आता है। फिर उक्त द्रव्यमसे ही द्वितीय समयमें नष्ट द्रव्यका प्रमाण लाने के लिये डेढ़ गुणहानियोंका विरलन कर एक समयप्रबद्धके एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रथम समयमें नष्ट द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है।
अब इसके नीचे निषेकभागहारका विरलन कर प्रथम समयमें नष्ट हुए द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है। उसको उपरिम विरलन राशिके सब अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यमेंसे कम करके प्रकृत गोपुच्छके प्रमाणसे करनेपर उत्पन्न हुई शलाकाओंका प्रमाण लाते हैं। वह इस प्रकार है- एक कम अघस्तन विरलन प्रमाण विशेषोंमें यदि एक शलाका पायी जाती है तो उपरिम विरलन प्रणाम विशेषों में कितनी शलाकायें पायी जावेगीं, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अरवर्तित करनेपर प्रक्षेपशलाकायें प्राप्त होती हैं। उनको उपरिम विरलनमें मिलाकर एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमें भाग देने पर उसमें से द्वितीय समयमें नष्ट हुआ द्रव्य आता है। [समयप्रबद्ध से अपकृष्ट द्रव्यका प्रमाण ६१४४, डेढ़ गुणहानि १२, निषेकभागहार १६, ६१४४४१ = ५१२ प्रथम निषेक ५१२ - १६ = ३२ चयका प्रमाण; एक कम . निषेकभागहार १५ पर यदि एककी हानि होती है तो १२ पर कितनेकी हानि रोगी-१२-६.१२ + ६ - ६६ द्वितीय निषेकका भागाहार; ६९४४.४५ - ४८०
६४ द्वितीय निषेक]। फिर एक कम निषेकभागहार के अर्ध भागसे डेढ़ गुणहानियों को
HAdsupausatar
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प्रतिषु ' लढेण ' इति पाठः ।
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१९६]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १, ११ तमुवरिमविरलणाए पक्खिविय तेणेगसमयओकड्डिददव्वे भागे हिदे तत्तो तदियसमए गलिददव्वं होदि । एवं णेदव्वं जाव णेरइयदुचरिमसमए ओकड्डणाए गलिददव्वं ति । एवं सव्वसमयपबद्धाणमेगसमओकड्डिदएगसमयगलिददन्वपरूवणा कायव्वा । णवरिणेरड्यदुचरिमसमयप्पहुडि हेट्ठिमदोसु आवलियासु बद्धदव्वाणमेसो विचारो णस्थि, चरिमावलियाए बोकडणाभावादो दुचरिमावलियाए ओकड्डिददव्वस्स असंखेज्जलोगपडिभागेण विणासुवलभादो । एवमेगसमयपबद्धएगसमयओकड्डिदएगसमयगलिदस्स परूवणा गदा।
संपधि एगसमयपबद्धएगसमयओकड्डिदणाणासमयगलिदं वत्तइस्सामो । तं जहाणेरइयचरिमसमयं मोत्तूण तिण्णिवाससहस्साणि हेट्ठा ओसरिय जो बद्धो समयपबद्धो तं बंधावलियादिक्कंतमोकड्डिय उदयावलियाए असंखेज्जलोगपडिभागिग दव्वं पक्खिविय पुणो उदयावलियबाहिरे सेसदव्वं गोवुच्छागारेण णिसिंचदि। तत्थ णेरइयदुचरिमसमयादो हेट्ठा णिक्खित्तदव्वं णट्ठमिदि तस्साणयणे भण्णमाणे एगसमयपबद्धस्स पढमसमयओकहिदअपवर्तित कर जो लब्ध हो उसको उपरिम विरलनमें मिलाकर उसका एक समय में भपकृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर उसमेंसे तृतीय समयमें नष्ट द्रव्य होता है [नि. भा. १६, डेढ़ गु. हा. ६३००, उपरिम विरलन ६३००, ६३०० : (१६-१)९००, ६३०० + ९९२ ६२९ । ६३०० - १२०० = ४४८ तृतीय समयमें नष्ट द्रव्य ] इस प्रकार नारक भवके द्विचरम समयमें अपकर्षण द्वारा नष्ट द्रव्य तक ले जाना चाहिये । इसी प्रकार सब समयप्रबद्धोंके एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे एक समयमें नष्ट हुए द्रव्यकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेषता इतनी है कि नारक भवके द्विचरम सम्यसे लेकर नीचेकी दो आवलियोंमें बांधे गये द्रव्योंके सम्बन्धमें यह विचार नहीं है, क्योंकि, चरम आवलीमें अपकर्णका अमाव है व विचरम भावली में अपकर्षण प्राप्त व्यका असंख्यात लोक प्रतिभागले विनाश पाया जाता है। इस प्रकार एक समयप्रबद्धके एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे एक समयमें नष्ट हुए द्रव्यकी प्ररूपणा समाप्त हुई।।
- अब एक समयप्रवद्धके एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयों में नष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- नारक भवके अन्तिम समयको छोड़कर तीन हजार वर्ष नीचे आकर जो समयप्रबद्ध बांधा गया है, बंधावलीसे रहिरा उसका अपकर्षण कर उदयावलीमें असंख्यात लोक प्रतिभागको प्राप्त द्रव्यमें मिलाकर फिर उदयावलीके बाहिर शेष द्रव्यको गोपुच्छके आकारसे देता है। उसमें नारक भवके द्विचरम समयसे नीचे निक्षिप्त द्रव्य चूंकि नष्ट हो चुका है भत एव उसके लानेकी प्ररूपणामें एक समयप्रबद्ध के प्रथम समयमें अपकृष्ट द्रव्यको स्थापित
१ तापतौ ‘विणाणु (सु) वलंभादो' इति पाठः । २ प्रतिषु ' बद्धो सो समयपक्यो' इति पाठः। । प्रतिषु ' मोवडिय' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२.1 षैयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्त दव्वं ठविय दिवड्डगुणहाणीए ओवट्टिदे पढमसमयगलिददव्वमागच्छदि । पुणो धावलियाहि वज्जिदतीहि वाससहस्सेहि दिवड्डगुणहाणीओ ओवट्टिय एगसमयपबद्धएगसमयओकड्डिददव्वे भागे हिदे दोआवलिऊणतिण्णिवाससहस्समेत्तपढमणिसेया आगच्छंति । समयाहियदोआवलियूणतिण्णिवाससहस्साणं संकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा अहिया जादा ति तेसिमवणयणविहाणं उच्चदे । तं जहा- दोआवलिऊणतीहि वाससहस्सेहि गुणिदणिसेगमागहारं विरलिय उवरिमएगरूवधरिदपमाणमणं समखंड करिय दिण्णे एगगोवुच्छविसेसो पावदि । पुणो रूवाहियदोआवलियूणतिणिवाससहस्साणं संकलणाए ओवट्टिय पुन्वदिणं दिण्णे संकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा विरलणरूवं पडि पावेति । ते घेत्तूण उवरिमविरलणसव्व. स्वधरिदेसु अवणिदेसु सेसमिच्छिददव्वं होदि ।
अवणिदगोवुच्छविसेसे पयददव्वपमाणेण कीरमाणे उप्पण्णपक्खेवरूवाणं पमाणं उच्चदे- रूवूर्णहटिमविरलणमेत्तपयदगोवुच्छविसेसेसु जदि एगा पक्खेवसलागा लन्मदि तो उवरिमविरलणमेत्तेसु किं लभामा त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमावट्टिय लद्धमुवरिमविरलणाए पक्विविय पढमसमयओकड्डिददव्वे भागे हिदे एगसमयपबद्धस्स पढमसमय
कर डेढ़ गुणहानि द्वारा अपवर्तित करने पर प्रथम समयमें नष्ट हुआ द्रव्य आता है। फिर बन्धावलियों रहित तीन हजार वर्षों से डेढ़ गुणहानियोंको अपवर्तित करके एक समयप्रबद्धके एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर दो आवलियोंसे रहित तीन हजार वर्ष प्रमाण प्रथम निषेक आते हैं। एक समय अधिक दो आवलियोसे रहित तीन हजार वर्षों के संकलन प्रमाण गोपुच्छविशेष चूंकि अधिक हैं, अत एवं उनके कम करनेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है- दो आवलियोंसे रहित रहित तीन हजार वर्षांसे गुणित निषेकभागहारका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यके बराबर अन्य द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है। फिर एक अधिक दो आवलियोंसे कम तीन हजार वर्षों की संकलनासे अपवर्तित कर पूर्व देय राशिको देनेपर विरलन अंकके प्रति संकलन प्रमाण गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। उनको ग्रहण कर उपरिम चिरलन राशिक सब अंकोके प्रति प्राप्त द्रव्योंमेंसे कम कर देनेपर शेष इच्छित द्रव्य होता है।
कम किये गये गोपुच्छविशेषों को प्रकृत द्रव्यके प्रमाणसे करनेपर उत्प हुए प्रक्षेप अंकोंका प्रमाण कहते हैं- एक कम अघस्तन विरलन प्रमाण प्रात गोपुच्छविशेषोंमें यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन प्रमाण उक्त गोपुच्छविशेषों में कितनी प्रक्षेपक्षलाकार्य प्राप्त होगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनमें मिलाकर प्रथम . समयमै अपार द्रव्यमें भाग देनेपर एक समयप्रबद्धके प्रथम समय में अपका
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१९८
छक्खंडागमे वैयणाख
[४, २, १, ३१. ओकड्डिदणाणासमयगलिददव्वमागच्छदि ।
. संपधि तस्सेव णिरुद्धसमयपबद्धस्स बिदियसमयओकड्डिदणाणासमयगलिदभागहारे मण्णमाणे पढमसमयगलिदभागहारं रूवाहियदोआवलियूणतीहि वाससहस्सेहि ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण बिदियसमयओकड्डिददव्वं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि ओवट्टणरूवमेत्तपढमणिसेगा पावेंति । पुणो हेट्ठा ओवट्टणरूवगुणिदणिसेगभागहारं रूवूणोवट्टणरूवसंकलणाए ओवट्टिदं विरलिय उवरिमएगरूवधरिदपमाणमण्णं समखंडं करिय दिण्ण रूवं पडि संकलणमेतगोवुच्छविसेसा पावेंति । पुणो एदेण पमाणेण उवरिमसव्वधरिदेसु अवणिदे इच्छिदपमाणं होदि । रूवूणहेट्टिमविरलणमेतगोवुच्छविसेसाणं जीद एगरूवपक्खेवो लब्भदि तो उवरिमविरलणतेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलणाए पक्खिविय बिदियसमयओकड्डिददव्वे भागे हिदे बिदियसमयमोकड्डिदणाणासमयगलिददव्वं होदि ।
एवं तदिय-चउत्थ-पंचमादिसमयओकड्डिदणाणासमयगलिदाणं परूवणा कायव्वा जाव णेरइयचरिमसमयादो हेट्ठा दुसमयाहियआवलियमेतमोदरिय हिदसमयम्हि ओकड्डिदूण
द्रव्यमेंसे नाना समयों में नष्ट हुआ द्रव्य आता है। अब उसी विवक्षित समयप्रबद्ध के द्वितीय समयमें अपकृष्ट नाना समयों में नष्ट हुए द्रव्यके : प्ररूपणामें प्रथम समयमें नष्ट द्रव्यके भागहारको एक अधिक दो आवलियोले कम तीन हजार वर्षों से अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके द्वितीय समयमें अपकृष्ट द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति अपवर्तन अंकोंके बराबर प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं। फिर नीचे अपवर्तन रूपोंमे गुणित निषेकभागहारको एक कम अपवर्तन रूपों के संकलनसे अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसका विरलन कर उपरिम रूपोंके प्रति प्राप्त द्रव्यके बराबर अन्य द्रव्यको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक अंकके प्रति संकलन प्रमाण विशेष प्राप्त होते हैं। फिर इस प्रमाणसे उपरिम सब अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्योंमेंसे कम करनेपर इच्छित प्रमाण होता है । एक कम अधस्तन विरलन प्रमाण गोपुच्छविशेषोंके यदि एक अंकका प्रक्षेप पाया जाता है तो उपारम विश्लन प्रमाण गोपुच्छविशेषों में कितने अंकों का प्रक्षेप पाया जावेगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम घिरनमें मिलाकर द्वितीय समय सम्बन्धी अपकृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर द्वितीय समयमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयोंमें नष्ट हुआ द्रव्य आता है।
इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थ और पंचम आदि समयों में अपकृष्ट द्रव्य से नाना समयों में नष्ट द्रव्योंकी प्ररूपणा करना चाहिये जब तक कि ना के भवके भन्तिम समयसे नीचे दो समय अधिक आवली प्रमाण उतर कर स्थित सययमें
aanua.....
अ-काप्रमोः 'समओओकडिद ' इति पाठः ।
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१, २, ४, १२) यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं विणासिददव्वे त्ति । एवं सरूवदोआवलियूणआवाधमेत्तसव्वसमयपबद्धाणं पुध पुध परूवणा कायव्वा । एवमेगसमयपबद्धएगसमयओकड्डिदणाणासमयगलिदस्स परूवणा कदा।
संपधि एगसमयपबद्धणाणासमयओकड्डिदणाणासमयगलिदस्स परूवणा कीरदे । तं जहा - एगममयपबद्धं ठविय ओकड्डुक्कड्डणभागहारगुणिददिवड्डगुणहाणीहि भागे हिदे एगसमयपबद्धएगसमयओकड्डिदपढमसमयगलिददव्वमागच्छदि । पुणो ओकड्डुक्कड्डणभागहारगुण दवड्ढगुणहाणीयो दोआवलियूणआबाधसंकलणाए ओवट्टिय लद्धं विरलदूण एसमयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे संकलणमेत्तपढमणिसेगा विरलणरूवं पडि पार्वति । पुणो एदेसिं जहासरूवेण आगमणमिच्छामो त्ति एदिस्से विरलणाए हेट्ठा पुग्विल्लसंकलणाए गुणिदाणगभागहारं विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगगोवुच्छविसेसो पावदि । पुणो गोवुच्छविसेसाणं जहासरूवेण आगमणमिच्छामो त्ति रूवूणगच्छसंकलणासंकलणाए इमं भागहारमोवट्टिय लद्धं विरलेदूण उवरिमएगरूवधरिदं समखडं कारय दिण्णे संकलणासंकलणमत्तगोवुच्छविसेसा पार्वति । पुणो तेण पमाणेण
अपकर्षण करके नष्ट कराया गया द्रव्य प्राप्त होता है। इस प्रकार एक अंक सहित दो आवलियोंसे हीन आवाधाके बराबर सव समयप्रबद्धों की पृथक् पृथक् प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार एक समयप्रबद्ध के एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयों में नष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा की गई है।
अब एक समयप्रबद्धके नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमसे नाना समयों में नष्ट हुए द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- एक समयप्रबद्धको स्थापित कर उसमें अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे गुणित डेढ़ गुणहानियोंका भाग देनेपर एक समयप्रबद्ध के एक समयमें अपकृष्ट द्रव्यमेंसे प्रथम समयमें नष्ट हुआ द्रव्य आता है। पुनः अपकर्षण-उत्पकर्षणभागहारसे गुणित डेढ़ गुणहानियोंको दो आवलियोंसे हीन आवाधाके संकलनसे अपवर्तित कर लब्धका विरलन कर एक समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर संकलनके बराबर प्रथम निषेक प्रत्येक विरलन अंकके प्रति प्राप्त होते हैं। फिर चंकि यथास्वरूपसे इनका लाना अमीष्ट है, अतएव इस विरलनके नीचे पूर्वोक्त संकलनसे गुणित निषेकभागहारका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलन अंकके प्रति एक एक गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है। फिर चूंकि गोपुच्छविशेषोंका यथास्वरूपसे लाना अमीष्ट है, अत एव एक कम गच्छके संकलनासंकलनसे इस भागहारको अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति संकलनासंकलन प्रमाण गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। पुनः इस प्रमाणसे उपरिम सब अंकोंके प्रति प्राप्त
१ अ-काप्रत्योः 'ओकड्डुक्कडणा-' इति पाठः । २ तापतौ ' गुणहाणिम्मि' इति पाठः।
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२०.
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ५, २२. उरिमसव्वस्वधरिदेसु [ अवणिदे ] अवणिदसेसमिच्छिदपमाणं होदि ।
संपहि अवणिदगोवुच्छाविसेसे पयददव्वपमाषण कीरमाणे उप्पण्णसलागाणमाणयणं उच्चदे । तं जहा- रूवूणहेटिमविरलणमेत्तगोवुच्छविसेसेसु जदि एगरूवपक्खेवो लन्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तगोवुच्छविससेमु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमवहरिय लद्धं उवरिमविरलणाए पक्खिबिय समयपषद्धे भागे हिदे एगसमयपबद्धणाणासमयओकड्डिदणाणासमयगलिददव्वमागच्छदि । णवरि पढमसमयओकड्डिददव्वादो बिदियादिसमएस भोकड्दिदव्वं विसेसहीणं हादि ति ण सव्वगोबुच्छाओ समाणाओ। तेणेसो विसेसो जाणेदव्यो। एवं सव्वसमयपषद्धवाणं पुध पुध णाणासमयओकड्डिदणाणासमयगलिदाणं मागहारो वत्तव्यो। णवरि अणंतरादीदसंकलण-संकलणाणं गच्छादो रूवूणो ति घेत्तव्वो । एवमेगसमयपबद्ध-[णाणासमयओकडिडद:] णाणासमयगलिदपमाणपरूवणा कदा ।
संपधि णाणासमयपबद्धणाणासमयओकड्डिदणाणासमयगलिददव्वस्स परूवणा कीरदे । तं जहा - ओकड्डुक्कड्डण भागहारगुणिददिवड्डगुणहाणीओ दोआवलिऊणआबाहासंकलणासंकलणाए ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण समयपबद्धं समखंड करिय दिण्णे एक्कक्कस्स रुवस्स
द्रव्योमसे कम करनेपर शेष रहा इच्छित द्रव्यका प्रमाण होता है।
__ अब कम किये गये गोपुच्छविशेषोंको प्रकृत द्रव्यके प्रमाणसे करने में उत्पन्न शलाकाओंके लानेकी विधि बतलाते हैं। वह इस प्रकार है- एक कम अघस्तन विरलन प्रमाण गोपुच्छावशेषों में यदि एक अंकका प्रक्षेप पाया जाता है तो उपरिम विरलन प्रमाण गोपुच्छविशेषों में कितने अंकोंका प्रक्षेप पाया जायगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनमें मिलाकर समयप्रबद्धमें भाग देनेपर एक समयप्रबद्धके नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमेसे नाना समयोमै नष्ट हुआ द्रव्य आता है । विशेष इतना है कि प्रथम समय में अपकृष्ट द्रव्यमेंसे द्वितीयादिक समयों में अपकृष्ट द्रव्य चूंकि विशेष हीन होता है, भत एव सष गोपुच्छ समान नहीं हैं। इसलिये यह विशेषता जानने योग्य है। इसी प्रकार सब समयप्रबोंके नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमसे नाना समयोंमें नष्ट द्रव्योंके भागहारकी पृथक् पृथक् प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि अनन्तर अतीत तीन वार संकलनके गच्छसे वह एक कम होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार एक समयप्रबद्ध के [ नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमेंसे] नाना समयोंमें नष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा की गई है।
___ अब नाना समयप्रबद्धोंके नाना समयोंमे अपकृष्ट द्रव्यमैसें नाना समयों में मष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे गणित डेढ़ गुणहानियोंको दो आवलियोंसे हीन आबाघाके संकलनासंकलनसे अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर एक
. प्रतिज्ञ ' उवरिमविरलणमेसपक्खेवेसु' इति पाः ।२ प्रतिषु ' संकलणासंकलणासंकलणाणं ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ २०१
संकलण संकलणमे तपढमणिसगा पावेंति । पुणो एदेसिं जहासरूवेण आगमणमिच्छामो ति संकलणासंकलणाए रूवूणगच्छुभवाए इमं भागहारं ओवट्टिय विरलेदूण उवरिमए गरू वधरिदं समखंड करिय दिण्णे संकलणा संकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा पावेंति । पुणो एदेण पमाणेण उवरिमसव्वरूवधरिदेसु अवणिदे इच्छिददव्वं होदि । पुणो अवणिददव्वे तप्पमाणेण कीरमाणे' उप्पण्णरूपमाणं वुच्चदे । तं जहा - रूवूर्णहट्ठिमविरलणमेत्तगोवच्छविसेसेसु जदि एगरूवपक्खेव लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तेसु किं लभामो' त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलणाए पक्खिविय समयपबद्धे भागे हिदे णाणासमयपबद्धणाणासमयओकड्डि दणाणासमयगलिददव्वमागच्छदि । एवं णाणासमयपबद्ध णाणासमयओकडिदणाणासमयगलिददव्वस्स परूवणा गदा । एवं भागहारपमाणाणुगमो समत्ता ।
--
संधि समयबद्धपमाणाणुगमो वुच्चदे । तं जहा- - रइय चरिमसमए उदयगदगो वुच्छा एगसमयपबद्धमेत्ता, तत्थ पढमणिसे गप्पहुडि जाव चरिमणिसेगो त्ति सव्वणिसेगाणमुवलंभादो । बिदियसमयगोवुच्छा किंचूणसमयपबद्धमेत्ता, तत्थ पढमणिसेगा
एक अंकके प्रति संकलनासंकलन प्रमाण प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं । फिर चूंकि इनका यथास्वरूपसे लाना अमीष्ट है, अत एव एक कम गच्छसे उत्पन्न संकलनासंकलन से इस भागाहारको अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके उपरिम एक अंक के प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर संकलनासंकलन प्रमाण गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। फिर इस प्रमाणसे उपरिम सव अंकों के प्रति प्राप्त द्रव्योंमेंसे कम करनेपर इच्छित द्रव्य होता है । पुनः कम किये गये द्रव्यको उसके प्रमाणसे करनेपर उत्पन्न अंकोंका प्रमाण कहते हैं । वह इस प्रकार हैएक कम अघस्तन विरलन प्रमाण गोपुच्छविशेषों में यदि एक अंकका प्रक्षेप पाया जाता है तो उपरिम विरलन प्रमाण गोपुच्छविशेषों में वह कितना पाया जावेगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनमें मिलाकर समयप्रबद्ध मैं भाग देनेपर नाना समयप्रबद्धों के नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयों में नष्ट हुआ द्रव्य आता है । इस प्रकार नाना समयप्रबद्धों के नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयों में नष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा समाप्त हुई । इस प्रकार भागहारप्रमाणानुगम समाप्त हुआ ।
--
अब समयप्रबद्धप्रमाणानुगमकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार सेचरमसमयवर्ती नारकीकी उदयगत गोपुच्छा एक समयप्रबद्ध प्रमाण है, क्योंकि, उसमें प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तक सब निषेक पाये जाते हैं । द्वितीय समय में स्थित संचय गोपुच्छा कुछ कम एक समयप्रबद्ध प्रमाण है, क्योंकि, उसमें
१ प्रतिषु कीरमाणेण ' इति पाठः ।
छ. वे. २६.
"
२ प्रतिषु - मेते संकलणं लभामो ' इति पाठः ।
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२०२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, ३२. भावादो । तदियसमयगोवुच्छी किंचूगसमयपबद्धमेत्ता, पढम-बिदियणिसगाभावादो । चउत्थसमयगोवुच्छा' वि किंचूणसमयपबद्धमत्ता, पढम-बिदिय-तदियणिसेगाभावादो। एवं णेदव्वं जाव गुणहाणिचरिमसमओ त्ति ।।
संपधि रूवाहियगुणहाणिमेत्तद्धाणं चडिदृण ट्ठिदसंचयगोवुच्छा चरिमगुणहाणिदव्वेणूणसमयपबद्धमत्ता । एत्तो उवरि एगादिएगुत्तरकमेण बिदियगुणहाणिगोवुच्छाओ अवणिय णेदव्वं जाव बिदियगुणहाणिचरिमसमओ त्ति । पुणो दोगुणहाणीओ समयाहियाओ चडिदण हिदसंचयगोवुच्छा चरिम-दुचरिमगुणहाणिदवणूणसमयपबद्धस्स चदुष्भागमेत्ता । उवरि एगादिएगुत्तरकमेण तदियगुणहाणिगोवुच्छाणमवणयणं कादूण णेदव्वं । एवं जाणिदूण वत्तव्वं जाव चरिमगुणहाणिचरिमसंचयगोवुच्छा त्ति । णवरि उवरि चडिदगुणहाणिसलागमेत्तचरिमादिगुणहाणिदव्वं समयपबद्धम्मि सोहिय गुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा समयपषद्धे भागे हिदे इच्छिदगुणहाणीए पढमसंचयगोवुच्छा आगच्छदि त्ति वत्तव्वं ।
प्रथम निषेकका अभाव है । तृतीय समयमें स्थित संचय गोपुच्छा कुछ कम समयप्रबद्ध प्रमाण है, क्योंकि, उसमें प्रथम और द्वितीय निषेकोंका अभाव है। चतुर्थ समयमें स्थित गोपुच्छा भी कुछ कम समयप्रबद्ध प्रमाण है, क्योंकि, उसमें प्रथम, द्वितीय और तृतीय निषेकोंका अभाव है। इस प्रकार गुणहानिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये ।
अब एक अधिक गुणहानि प्रमाण अध्वान जाकर स्थित संचय गोपुच्छा अन्तिम गुणहानिके द्रव्य से कम एक समयप्रबद्ध प्रमाण है। इससे आगे एकको आदि लेकर एक अधिक ऋमसे द्वितीय गुणहानिकी गोपुच्छाओंको कम करके द्वितीय गुणहानिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । पुनः एक समय से अधिक दो गुणहानियां जाकर स्थित संचय गोपुच्छा चरम और द्विचरम गुणहानिके द्रव्यसे हीन एक समयबद्धके चतुर्थ भाग प्रमाण है। इससे आगे एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे तृतीय गुणहानिकी गोपुच्छाओंको कम करके ले जाना चाहिये। इस प्रकार अन्तिम गुणहानिकी अन्तिम संचय गोपुच्छा तक जानकर कथन करना चाहिये। विशेष इतना है कि आगे गत गुणहानियोंकी शलाकाओंके बराबर चरम आदि गुणहानियों के द्रव्यको समरप्रबद्ध में से कम करके गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका समय प्रबद्ध में भाग देनेपर इच्छित गुणहानि की प्रथम संचय गोपुच्छा आती है, ऐसा कहना चाहिये।
___ उदाहरण-चरमसमयवर्ती नारकीके द्वारा चरम समयसे चार गुणहानि पहिले जो समयप्रबद्ध बांधा गया था उसकी चार गुणहानियां उदयमें आचुकी हैं, दो
ताप्रतिपाठोऽयम् । अप्रतो तदियम्मयसीचदगोवुच्छा', काप्रती 'तदियसमयसंचयगोवुच्छा' इति पाठः। २ प्रतो 'उत्थसमगोवुच्छा' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' • तदियगोवुच्छामावादो' इति पाठः ।
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं - [२०३
संपहि उदयगेवुच्छा समयपबद्धमत्तं ठविय | ६३०० गुणहाणीए गुणिदे गुणहाणिमेत्तसमयपबद्धमत्ता होति | ६३००८]। पुणो रूवूगगुणहाणीए संकलणाए पढमणिसेगे गुगिदे रूवूणगुणहाणिसंकलणमेत्तपढमणिसगा होति ५१२|७||। पुणो एदे दुरूवूणगुणहाणिसंकलणा-संकलणमेतगोवुच्छविसेसेहि ऊणा त्ति कटु गोवुच्छविसेसे
एकोत्तरपदवृद्धो रूपा जितश्च पदवृद्धः ।
गच्छस्संपातफलं समाहतं सन्निपातफलम् ॥ १५ ॥ एदीए अज्जाए आणिय पढमणिसेगपमाणेण कदे एत्तियं होदि | ५१२१६२। एवमेदाओ तिण्णि वि रासीओ पुधं ठवेदव्वाओ। सव्वगुणहाणिदव्वमप्पप्पणो पढमणिसेगपमाणेण कदे दुविहरिणेण सह एत्तिया चेव होति। णवरि गोवुच्छाओ गोउच्छ
गुणहानियोंका द्रव्य संचित है। चार गुणहानियाँका द्रव्य- ३२०० + १६०० + ८०० + ४०० = ६०००, ६४०० - ६००० = ४००; चार गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि २x२x२x२ = १६, ६४००१६ = ४०० ।
___अब उदयगोपुच्छाको समयबद्ध (६३००) प्रमाण स्थापित करके गुणहानिले गुणित करने पर वह गुणहानि मात्र समयप्रबद्धों के बराबर होती है ६३००४८। फिर एक कम गुणहानिके संकलनसे प्रथम निषेकको गुणित करने पर एक कम गुणहानिक संकलन प्रमाण प्रथम निषेक होते हैं- [प्रथम निषेक ५१२, एक कम गुणहानि ७ उसका संकलन ७४ = २८] ५१२४७४८ । पुनः ये उपर्युक्त निषेक दो अंकोंसे कम गुणहानिके दो चार संकलन प्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे हीन हैं, ऐसा करके गोपुच्छविशेषोंको
एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे पद प्रमाण वृद्धिको प्राप्त संख्यामें, अन्तमें स्थापित एकको आदि लेकर पद प्रमाण वृद्धिंगत संख्याका भाग देनेपर गच्छ के बराबर संपातफल अर्थात् प्रत्येक भंगका प्रमाण आता है। इसको आगे आगे स्थापित संख्याओंसे गुणित करनेपर सन्निपातफल अर्थात् द्विसंयोगी आदिक भंगोंका प्रमाण प्राप्त होता है ॥ १५ ॥
_इस आर्या ( गाथा ) के अनुसार लाकर [2 x = ५६, ३२ x ५६] प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर इतने होते हैं ५१२४.६४७। इस प्रकार इन तीनों ही राशियोको प्रथम स्थापित करना चाहिये । सब गुणहानियोंके द्रव्यको अपने अपने प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर दो प्रकारके ऋणके साथ इतने ही होते हैं।
........, अप्रतौ संकलणासंकलणासंकलण' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः ‘विससंहि', ताप्रती 'विसेसम्हि' इति पाठ ३ अ-काप्रत्यो। 'समाहित ' इति पाठः । ४ प. सं. पुस्तक ५ पू. १९३. क. पा. २, पृ.१...
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२०४ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३२.
16/
विसेसा च अद्भुद्वेण गच्छति | ६३०० |८|३१०० | ८ | १५०० | ८ | ७०० ५१२ | ७८ | २५६ | ७८ | १२८ | ७८ | ६४ | ७८ | ३२ । ७८ |
३००
२
२
२
•|-|
१००
१६ | ७८ | ५१२ | ६७ | २५६ ६७ १२८ ६७ | ६४ | ६७ | ३२ / ६७ | १३ | ६७ १२
२
१२
१२
१२
१२ १२ दाणि दो विरिणाणि घणते' ठविय एदेसिं संकलणं कस्सामा । तं जहा - रूवाहियणाणागुणहाणि सलागाओ विरलिय विंग करिय अण्णोष्णन्भत्थरासिणा दुरूवाहियणाणागुणहाणिसला गाहि ऊणेण णाणागुणहाणिसला गाओ विरलिय विंगं करिय अण्णोष्णन्भत्थरासिणा रूवूणेणोवट्टिदेण गुणहाणिमेतसमयपबद्धे गुणिदे सन्वदव्वमागच्छदि | ६३००१८-| | १२० | | पुणो णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णन्भत्थरासिणा ६३ | रूवूणेण अण्णोण्णब्भत्थरासिअ वट्टिदेण दो वि रिणरासीओ गुणिदे एत्तियं विशेषता इतनी है कि गोपुच्छ और गोपुच्छविशेष आधे ६३०० × ८, ३१०० × ८, १५०० × ८, ७००X८, ३०० × ८, १०० × ८ २५६ × ( १ × ई ), १२८ × (ई ), ६४ ( ), ३२ ( × ५१२ × ( ६१७ ), २५६ × ( १२८ x (
आधे स्वरूपसे जाते हैं
। ५१२ × (×ई ), ), १६ × (× ई)। ६४ x ( ६ × ७),
६ x ७
६४७
-),
સ્
१२
१२ ६४७
१२
६७ १२
), ३२ × (६२), १६ × ( )। इन दोनों ही ऋण राशियोंको धनके अन्तमें स्थापित करके इनका संकलन करते हैं । वह इस प्रकार है - एक अधिक नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर दुगुणा करके परस्पर गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसमें से दो अधिक नानागुणहानिशलाकाओंको कम करके शेषको, नानागुणहानिशलाकाओं का विरलन कर दुगुणा करके परस्पर गुणित करनेपर प्राप्त राशिमेंसे एक कम करके जो शेष रहे उससे अपवर्तित करना चाहिये । इस प्रकार जो लब्ध हो उससे गुणहानि प्रमाण समयप्रबद्धको गुणित करनेपर समस्त द्रव्य आता है - [ एक अधिक नानागुण हानिशलाकाएं ६ + १ २ २ २ इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि १२८, दो अधिक नानागुणहानिशलाका २ २ २ इनकी अन्योन्याभ्यस्त ६ + २ = ८; १२८ - ८ = १२०; ना. गु. शलाका दे राशि ६४; ६४ - १ = ६३ ] ६३०० × ८ × = ( ६३०० × ८ ) + ( ३२०० × ८ ) + ( १५०० × ८ ) + ( ७०० × ८ ) + ( ३०० × ८ ) + ( १०० × ८ ) = ९६००० | फिर नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर दुगुणा करके परस्पर गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसमेंसे एक कम करके शेषको अन्योन्याभ्यस्त राशिके अर्ध भागसे अपवर्तित करे | ऐसा करनेसे जो लब्ध हो उससे दोनों ही ऋण राशियोंको गुणित करनेपर इतना होता है - ५१२ × ( * ) x = ( ५१२×२८ ) + (२५६x२८ )
== ७;
२ २ · , · 9
. २
ง ,
१२.०
. ६३ ३२
२
= २८२२४ ।
+ ( १२८ × ६८ ) + (६४ × २८ ) + ( ३२× २८) + (१६×२८ ) ५१२ × (६२७)) ) + ( १२८ × ४२ ) + ( ६४ x
= X- ( ५१२ × १३ ) + ( २५६ ×
६३ ३२
४२ १२
१ ताप्रतौ ' धणं ते ' इति पाठः ।
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१, २, ५, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त . [२०५ होदि | ५१२/७८/६३ |५१२ | ६७।६३ | । पुणो हेट्ठिमरिणरासिमुवरिमरिणरासिम्हि सोहिय ।
|१२|३२| समयपबद्धपमाणेण कदे एगरूवस्स असंखेज्जदिमागेणूणअट्ठारह-दसभागेहि गुणहाणिगुणिदमेत्ता समयपयद्धा लभंति । तेसिं सदिट्ठी एसा |६३००/७४२/८|| एदेसु किंचूणदोगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धसु सोहिदेसु गुण- | १०० । । ६ । । हाणीए सादिरेयअट्ठारसमागणूणदिवड्डगुणहाणिमेत्ता समयपबद्धा आगच्छति । तेसिं संदिट्ठी एसा । ।
अधवा, चरिमसमयणेरइयस्स चरिमगुणहाणिदव्वम्मि रूवूणगुणहाणीए संकलणासंकलगमेत्तगोउच्छविसेसेसु अवणिदेसु | ७|८|९| अवसेसं गुणहाणिसंकलणमेत्तचरिमजिसेगा होति। तेसिं पमाणमेदं | ९/९/ ६पुविल्लरूवूणगुणहाणिसंकलणासंकलणमेत्तगोवुच्छविसेसेसु चरिमणिसेय-[२] पमाणेण कदेसु रूऊणगुणहाणिसंकलणाए
पाये जाते हैं। उनकी संहधि यह
१२
१२) + ( ३२ x १३) + (१६४ १३ ) = ३५२८ । फिर नीचेकी ऋण राशिको ऊपरकी ऋण राशिमेंसे घटाकर समयप्रशद्धके प्रमाणसे करनेपर एक अंकके असंख्यात भागसे कम अठारह बटे दस भागोंसे गुणहानिगुणित मात्र समयप्रबद्ध पाये जाते है। उनकी संदृष्टि यह है- [( ५१२ ४७४८४६३) - (५१२४६४७ ४ ई)30x (७४८४६३)-(८४७४ ६३) = ७४ (७४ ८४ ६३) = ३४७४८x * = * ४७ x x ८। इनको कुछ कम दो गुणहानि प्रमाण समयप्रबोमैसे घटानेपर गुणहानिके साधिक अठारहवें भागसे कम डेढ़ गुणहाणि प्रमाण समयप्रबद्ध भाते हैं। उनकी संदृष्टि यह है- ११६६६ ।
अथवा, चरम समयवर्ती नारकीकी अन्तिम गुणहानिके द्रव्यमेंसे एक कम गुणहानिक संकलनासंकलन प्रमाण xx = ८४ गोपुच्छविशेषों को कम करनेपर अवशेष गुणहानिके संकलन मात्र अन्तिम निषेक होते हैं। उनका प्रमाण यह हैअन्तिम निषेक ९; गुणहानिसंकलन ८४३, ९४ (४९)। पूर्वोक्त एक कम गुणहानिके संकलनसंकलन प्रमाण गोपुच्छविशेषोंको चरम निषेकके प्रमाणसे करनेपर एक कम गुणहानिक संकलनके तृतीय भाग प्रमाण चरम निषेक होते हैं
१ प्रतिषु | "
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छक्खंडागमे वैयणाखंड ( १, २, ४, ३२. तिमागमेत्तचरिमणिसेगा होति | ९|७|८|| पुणो दुचरिमगुणहागिट्ठिददवमेदम्हादो दुगुणं होम गुणहाणिमत्तचरिमगुणहाणि-|६| दव्वेण अधियं होदि । पुणो तिचरिमगुणहाणिबम्बमेदम्हादो चउग्गुणं होदूग गुणहाणिमेत्तचरिम दुचरिमगुणहाणिदव्वेण अहियं होदि । पुणो चदुचरिमगुणहाणिदव्यमेदम्हादो अट्टगुणं हादूण गुणहाणिमेत्तचरिम-दुचरिम [-तिचरिमगुणहाणि-] दव्वेण अहियं होदि । एवं णेदव्वं जाव चरिमसमयणरइयपढमगुणहाणि त्ति। संपति पदेसि संकलणे कीरमाणे चरिमगुणहाणिदव्वस्स मेलावणं कादव्यं । कदे गुणसापिसंकलमाए तिभागमसंखज्जदिमागूणच दुहि गुणिदमेता चरिमणिसेगा होति ८६.४ ।
वो अन्तिम निषेक ९; एक कम गुणहानिका संकलन X८ = २८ ; गायक-(९४)।।
- पुणहीका द्रव्य ९+१०+ ३०-४२+५५+६९ + ८४+१०० समें ऊपर कम करोये गये गोपुच्छविशेषों का प्रमाण इस प्रकार हैप्रथम निक
गो. विशेष
२
००' raM509 v xxxxxxxx
s
०. 50
१०० ४०८
३२४ फिर द्विचरम गुणहानिमें स्थित द्रव्य इससे दुगुणा होकर गुणहानि मात्र मन्तिम गुणहानिके द्रव्यसे अधिक होता है । विचरम गुणहानिका द्रव्य १८+१३८+ १६० + १८४+२१०+२३८+ २६८ + ३०० = १६१६, ४०८x२-८१६,
x१.०% ८००, ८१६ + ८०० = १६६६)। त्रिचरम गुणहानिका द्रव्य इससे चं होकर गुणहानि प्रमाण चरम और विचरम गुणहानियाके द्रव्यसे अधिक होता है पिचरमणहानिका द्रव्य ४०३२ % (४०८४४) + (८x१००)+ (८x२००) ] । पाबरम गुणहानिका द्रव्य इससे आठाणा होकर गुणहानि प्रमाण चरम, द्विचरम बौर भिधरम गुणहानियोंके द्रव्यसे अधिक होता है [चतुश्चम गुणहानिका सय ८०१४-(४०८४८)+(८४१००)+ (८४२००)+(८४४००)। इस प्रकार परम समवर्ती नारकीकी प्रथम गुणहानि तक ले जाना चाहिये । अब इनका संबकम करने में अन्तिम गुणहानिके द्रव्य (४०८) को मिलाना चाहिये। ऐसा करनेपर गुणहानिके संकलनके तृतीय भागको असंख्यातवें भाग (२ ) से हीन चार अंकोसे
गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतने मात्र अन्तिम निषेक होते हैं- अन्तिम निषेक ९, गुणानिसंकलबका तृतीय भाग ४९ = १२, ९ ४ (८४९x४)। फिर माना
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१, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्तं पुणो णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा सार एदं गुणिदे दुगुण-दुशुणकमेण गदसञ्चगुणहाणिगोवुच्छविसेससंचओ होदि । सो एदम्मि समयपबद्धपमाणेण कदे रूवाहियगुणहाणीए सादिरेयअट्ठारसभागमेत्तसमयपपर होति । पुणो एई पुध ठविय | ६३०० । ९/८ | णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विर्य करिय अण्णोण्णभत्थरःसिणा रूवाहिय-१८ णाणागुणहाणिसलागूणेण गुणहाणिमेत्तचरिषगुणहाणिदवे गुणिदे अवसेसगुणहाणीणमुबारदसव्वदव्वमागच्छदि | १००1८:५७ एन्धि समयपबद्धपमाणेण कदे असंखेज्जदिभागूणगुणहाणिमेससमयपरदा बामनियम दव्वम्हि पक्खित्ते गुणहाणीए सदिरेयअट्ठारसभागेणूणदिवड्डगुण हाणिमेत्तसमकाादा हो।
गुणहानिशलाकाओंको विरलित कर दुगुणा करके उनकी एक कम अन्योम्याम्पस राशिसे इसको गुणित करने पर दुगुणे दुपुणे क्रमसे गये हुए सब गाणहार्मोगविशेषोंका संचय होता है [अर्थात् ४०८ संख्या परम गुणदान पर बाद द्विचरममें दो बार, त्रिचरममें चार वार, चतुश्चरममें आठ वार, पंचमोबार
और प्रथम गुणहानिमें वह बत्तीस वार है। इस प्रकारसे छहों गुपियानसंख्या १ + २+४+ ८ + १६ + ३२ - ६३ वार सम्मिलित है। ] इसमाने प्रमाणसे करने पर एक अधिक गुणहानिसे साधिक अठारहवें भाग प्रमाण मयप्रबद्ध होते हैं- ६३०० ४९४ [४०८४ ६३ = ६३०० ४९४ ] इनजे पुण्य स्थापित करके नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर दुशुणा करके उनकी एक अधिक नानागुणहानिशलाकाओंसे हीन अन्योन्याभ्यस्त राशिसे गुणहानि प्रमाण अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको गुणित करने पर शेष गुणहानियोका अवशिए द्रण आता है- १००४ ८४ (६४ - ७)।
विशेषार्थ- चूंकि चरम गुणहानिका द्रव्य १०० x ८ द्विचरम गुणहानिमें एक वार, त्रिचरममें (१०० x ८) + (२००५८) इस प्रकार ३ वार, चतुश्चरममें (१००x.)+(२००४८)+(४०.४८) इस प्रकार ७ वार, पंचचरममें ।१००xe) + (२००४८)+ (४००४८)+ (८००४८) इस प्रकार १५वार, और प्रथम गुणहानिमें (१०.४८) + (२००४८) + (४००४८) + (८००४८) + (१६००४८) इस प्रकार ३१ चार सम्मिलित है। अत एव यहां इनके जोड़से (१+३ + ७ + १५ + ३१%) प्राप्त ५७ संख्यासे चरम गुणहानिके द्रव्यको गुणित (१००४ ८४ ५७ ) किया गया है।
इसको समयप्रबद्धके प्रमाणसे कग्नपर असंख्यात भाग हानिके बराबर समयप्रबद्ध आते हैं। इनको पूर्व इम्प सिखानेपर पारि साधिक अठारहवें भागसे हीन डेढ़ गुणहानि प्रमाण समयप्रारो [१२-२५६ = ११३५२१६४६३०० = ७१३०४.]।
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१ अ-काप्रत्योः '-मुवरिदसव्व', ताप्रतौ ' मुवरि सन्ध-' इति पाठः ।
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२०८ ]
अधवा, कम्मडिदिसव्वसमयपबद्धाणं संचियेभावेण भागहारपरूवणाए परुविद - उक्कस्ससंचओ अक्क्रमण ण लब्भदित्ति भणताणमाइरियाणमहिप्पाएण भण्णमाणे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता समयपबद्धा होंति, ण किंचूणदिवड्डमेत्ता; सव्वसमयपबद्धानमुक्कस्स संचयाणुवलंभादो । एवं समयपबद्धाणुगमो समत्ता ।
छक्खडागमे वेयणाखंड
[ 2,
गुणिदकम्मंसियस उवरिल्लीणं [ ठिदीणं ] णिसेयस्स उक्कस्सपदं हेट्ठिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं होदि त्ति कट्टु उवसंहारे भण्णमाणे कम्मट्ठिदिआदि समयपबद्धसंचयस्स भागहारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो होदि । होंतो वि दिवङगुणहाणिमत्तो, समयपबद्धं चरिमणिसेयपमाणेण कीरमाणे दिवड्ढगुणहाणिमत्तचरिमणिसगुवलं भादो । कम्मट्ठिदिआदिसमयपबद्धसंचओ चरिमणिसेयपमाणमत्तो होदि ति कधं णव्वदे ? सणपंचिंदियपज्जत्तएण उक्कस्सजोगेण उक्कस्ससंकिलिट्टेण उक्कस्सियं द्विदिं बंधमाणेण जेत्तिया परमाणू कम्मडिदिचरिमसमए णिसित्ता तेत्तियमेत्तमग्गट्ठिदिपत्तयं होदि त्ति कसा पाहुडे उवदितादा । पदेसविरइयअप्पाबहुएण कथं ण विरोधो ? [ण, ] गुणिद-घोलमाणादिपदेसरचणमस्सिदूण तपवुत्तदो ।
२, ४, ३२
अथवा, कर्मस्थितिके सव समयप्रबद्धों की संचित स्वरूपसे भागहारकी प्ररूपण में बतलाया गया उत्कृष्ट संचय युगपत् प्राप्त नहीं होता है, ऐसा कहनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे कथन करनेपर पल्योपमके असख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्ध होते हैं, न कि कुछ कम डेढ़ गुणहानि प्रमाणः क्योंकि, सब समयप्रबद्धों का उत्कृष्ट संचय पाया नहीं जाता। इस प्रकार समयप्रबद्धानुगम समाप्त हुआ ।
गुणितकर्माशिक जीवके उपरिम स्थितियों के निषेकका उत्कृष्ट पद और अधस्तन स्थितियों के निषेकका जघन्य पर होता है, ऐसा मानकर उपसंहारकी प्ररूपणा में कर्मस्थितिके आदिम समयप्रबद्ध के संचयका भागहार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । उतना होकर भी वह डेढ़ गुणहानि प्रमाण है, क्योंकि, समयप्रबद्धको अन्तिम निषेकके प्रमाणसे करनेपर डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेक पाये जाते हैं ।
शंका -- कर्मस्थितिके आदिम समयप्रबद्धका संचय अन्तिम निषेक प्रमाण होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - वह " जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव उत्कृष्ट योग से सहित है, उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त है, उत्कृष्ट स्थितिको बांध रहा है; उसके द्वारा जितने परमाणु कर्मस्थितिके अन्तिम समय में निषिक्त किये जाते हैं उतने मात्र अग्रस्थिति प्राप्त होते हैं इस कषायप्राभृतमें प्राप्त उपदेशसे जाना जाता है ।
""
शंका- ऐसा होने पर प्रदेशविरचित अल्पबहुत्व के साथ विरोध क्यों न होगा ? समाधान - नहीं, क्योंकि, उक्त अल्पबहुत्वकी प्रवृत्ति गुणित- घोलमानादि प्रदेशरचनाका आश्रय करके हुई है ।
१ तामतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः ' सेडिय', मप्रतौ ' सेविय' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३२ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ २०९ बिदियसमयसंचयस्स भागहारो दिवड्डगुणहाणीणमद्धं सदिरेयं । तं जहा- दिवङ्कगुणहाणीणमद्धं विरलिय समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्ण रूवं पडि दो चरिमणिसेगा पावेंति । पुणो हेट्ठा णिसेगभागहारं दुगुणं विरलिय एगरूवधरिदं समखंड करिय दिण्ण रूवं पडि गोवुच्छविसेसो पावदि । एदेण पमाणेण उवरिमसव्वरूवधरिदेसु अवणिदे चरिमदुचरिमणिसेयपमाणं होदि । अवणिदगोवुच्छविसेसे तप्पमाणेण कीरमाणे लद्धसलागपमाणाणयणं वुच्चदे- रूवूणहट्टिमविरलणमेत्तविसेसेसु जदि एगरूवपक्खवा लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धे दिवड्वगुणहाणिअद्धम्मि पक्खिविय समयपबद्धे भागे हिदे बिदियसमयसंचओ आगच्छदि । एवं भागहारपरूवणा जाणिय कायव्वा जाव णेरइयचरिमसमयसंचिददव्वे त्ति । णवरि एगगुणहाणि
द्वितीय समय सम्बधी संचयका भागहार साधिक डेढ़ गुणहानियोंका अर्थ भाग है। वह इस प्रकारसे - डेढ़ गुणहानियोंके अर्ध भागका विरलन कर समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति दो चरम निषेक प्राप्त होते हैं। पुनः नीचे दुगुणे निषेकभागहारका विरलन कर एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक अंकके प्रति गोपच्छविशेष प्राप्त होता है। इस प्रमाणसे ऊपरके सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशियों के कम करनेपर चरम और द्विचरम निषेकोंका प्रमाण होता है। कम किये गये गोपुच्छविशेषको उसके प्रमाणसे करनेपर प्राप्त शलाकाओंके प्रमाणके लानेकी विधि बतलाते हैं-- एक कम अधस्तन विरलन प्रमाण विशेषोंमें यदि एक अंकका प्रक्षेप पाया जाता है तो उपरिम विरलन प्रमाण विशेषों में कितने अंकोंका प्रक्षेप पाया जावेगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको डढ़ गणहानियोके अधे भागमें मिलाकर समयप्रवद्ध में भाग देनेपर द्वितीय समय सम्बन्धी संचय
उदाहरण- डेढ़ गुणहानि पै; इसका अर्ध भाग १४; ६३००३४ १०२४ = (५१२४२); दुगुणा निषेकभागहार १६४२ = ३२ (अधस्तन विरलन) १०२४ ३२ = ३२ गोपुच्छविशेष । एक कम अघस्तन विरलन (३२ -१ = ३१) प्रमाण विशेषोंमें यदि १ अंकका प्रक्षेप होता है तो उपरिम विरलन (३) प्रमाण विशेषोंमें कितने अंकोंका प्रक्षेप होगा-६३००- १ x १ = . ६३००
" १०२४१ ३१ १०२४ x ३१ ६३०० ६३००. ६३००३२x६३०० ३१७४४' १०२४ ' १०२४४३१ १०२४४३१' (५१२+४८०) द्वितीय समय सम्बन्धी संचय ।।
इस प्रकार भागहारकी प्ररूपणा नारकीके अन्तिम समय सम्बन्धी संचय तक जानकर करना चाहिये । विशेष इतना है कि एक गुणहानि प्रमाण स्थान
..
. ३२४६३०० - ९९२ :
१०२४ ४३१ ।
, प्रतिषु गुणहाणिलद्धम्मि' इति पाठः । छ,वे. १५.
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२१० ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २४, ३३.
मेत्तद्वाणं चडिदूण बद्धदव्वभागहारो किंचूणदोरूवाणि, सयलचरिमगुणहाणिदव्वधारणादो । दोगुणहाणीओ चडिदूर्ण बद्धदव्वभागहारो किंचूणेगरूवतिभाग सहिद एगरूवं, चरिम- दुचरिमगुणहाणिदव्वधारणादो । एवमुवरि सव्वत्थ सादिरेगमेगरूवभागहारो होदि । भागहारपरूवणा गदा ।
एदं सव्वं पिदव्वं घेत्तण समयपचद्धपमाणेण कदे कम्मट्ठिदीए असंखेज्जभागमेत्ता समयपत्रद्धा होंति, किंचूर्णादिवड्डरूवर्णणाणागुणहाणि सलागाहि गुणहाणिगुणिदमेत्तप्रमाणत्तादो । अथवा, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता, सव्वसमयपबद्धाणमुक्कस्ससंचयस्स एक्aम्हि काल असंभवादो' । एवमुत्रसंहारपरूवणा समत्ता ।
'तव्यदिरित्तमणुक्कस्सा ॥ ३३ ॥ )
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तदो उक्कसादो वदिरित्तं जं दव्वं तमणुक्कस्सवेयणा होदि । तं जहा - ओकड्डूणवसेण उक्कस्सदव्वे एगपरमाणुणा परिहीणे अणुक्कस्सुक्कस्सं होदि । एत्थ का परिहाणी ? अनंतभागपरिहाणी, उक्कस्सदव्वेण उक्कस्सदव्वे भागे हिदे एगरूवोवलंभादो । ओ कडवसेण दोपरमाणुपरिहीणे बिदियमणुक्कस्साणमुपज्जदि । एसा वि अणतभाग
3
जाकर बांधे गये द्रव्यका भागहार कुछ कम दो अंक है, क्योंकि, उसमें अन्तिम गुणहानिका समस्त द्रव्य निहित है । दो गुणहानियां जाकर बांधे गये द्रव्यका भागद्दार कुछ कम एक अंकके तृतीय भागसे सहित एक अंक है, क्योंकि, उसमें चरम और द्विचरम गुणहानियोंका द्रव्य निहित है । इसी प्रकारसे आगे सब जगह साधिक एक अंक भागहार होता है । भागद्दारकी प्ररूपणा समाप्त हुई ।
इस सब द्रव्यको ग्रहण कर समयप्रबद्ध के प्रमाणसे करने पर कर्मस्थिति के असंख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्ध होते हैं, क्योंकि, वे कुछ कम डेढ़ अंकों से हीन नानागुणहानिकी शलाकाओंसे गुणहानिको गुणित करनेपर [ ( ६- ३ ) ८ × ] जो प्राप्त हो उतने मात्र हैं । अथवा वे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं, क्योंकि, सब समयप्रवद्धों के उत्कृष्ट संचयकी एक कालमें सम्भावना नहीं है । इस प्रकार उपसंहारप्ररूपणा समाप्त हुई ।
ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न अनुत्कृष्ट द्रव्य वेदना है ॥ ३२ ॥
उससे अर्थात् उत्कृष्ट द्रव्यसे भिन्न जो द्रव्य है वह अनुत्कृष्ट द्रव्य वेदना है । यथा - अपकर्षण वश उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे एक परमाणुके हीन होनेपर अनुत्कृष्ट द्रव्यका उत्कृष्ट स्थान होता है ।
शंका- यहां कौनसी हानि होती है ?
समाधान- अनन्तभागहानि होती है, क्योंकि, उत्कृष्ट द्रव्यमें उत्कृष्ट द्रव्यका भाग देनेपर एक अंक प्राप्त होता है ।
अपकर्षण वश दो परमाणुओंकी हानि होनेपर द्वितीय अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होता है । यह भी अनन्तभागहानि है, क्योंकि, उत्कृष्ट द्रव्यके द्वितीय
१ प्रतिषु 'दिवङ्कुरूवूणेण ' इति पाठः । २ अप्रतौ 'संभवादो' इति पाठः । ३ अ-काप्रत्योः ‘परिहणिो' इति पाठः।
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४, २, ४, ३३.] वैयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त
[२११ परिहाणी । कुदो ? उक्कस्सदव्वदुभागेण उक्कस्सदव्वे भागे हिदे दोरूवावलंभादो । पुणो उक्कस्सदव्वादो ओकड्डणवसेण तिणं परमाणूणं वियोगे जादे अणंतभागपरिहाणी चेव, उक्कस्सदव्वतिभागेण उक्कस्सदव्वे भागे हिंदे तिण्णिरूवुवलंभादो । एवमणंतभागहाणी चेव होदूण गच्छदि जाव जहण्णपरित्ताणतेण उक्कस्सदव्वं खंडिय एगखंडे उक्कस्सदव्वादो परिहीणं ति । पुणो जहण्णपरित्ताणंतं विरलिय उक्कस्सदव्वं समखंड करिय दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स परिहीणदव्वपमाणं पावदि । पुणो हेट्ठिमट्ठाणमिच्छामो त्ति एगरूवधरिदपमाणं हेट्ठा विरलिय अण्णेगं तप्पमाणं दव्वं समखंड करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगपरमाणू पावदि । पुणो तं उवरिमरूवधरिदेसु समयाविरोहेण पक्खित्ते परिहीणदव्वं होदि एगरूवपरिहाणी च लन्भदि । हेट्टिमविरलणादो उवरिमविरलणा अणंतगुणहीण त्ति एत्थ एगरूवपरिहाणी ण लब्भदि । पुणो केत्तियं लब्भदि त्ति उत्ते उच्चदेहेट्टिमविरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं
भागका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर दो अंक प्राप्त होते हैं। पुनः उत्कृष्ट द्रव्य. मेंसे अपकर्षण वश तीन परमाणुओंका वियोग होनेपर अनन्तभागहानि ही होती है, क्योंकि. उत्कृष्ट द्रव्यके तृतीय भागका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देने पर तीन अंक प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जघन्य परीतानन्तसे उत्कृष्ट द्रव्यको भाजित कर जो एक भाग प्राप्त हो उतना उत्कृष्ट द्रव्यमसे हीन होने तक अनन्तभागहानि ही होकर जाती है। फिर जघन्य परीतानन्तका विरलन कर उत्कृष्ट द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति जितना द्रव्य हीन होता है उसका प्रमाण प्राप्त होता है। किन्तु यहां नीचेका स्थान लाना इष्ट है इसलिये पूर्वोक्त विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त प्रमाणको नीचे विरलित कर दूसरे एकके प्रति प्राप्त हुए तत्प्रमाण द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक अंकके प्रति एक एक परमाणु प्राप्त होता है। पुनः उसको यथाविधि उपरिम विरलनके प्रत्येक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यमै मिलानेपर परिहीन द्रव्य होता है और एक अंककी हानि भी प्राप्त होती है। किन्तु अधस्तन विरलनसे उपरिम विरलन चूंकि अनन्तगुणी हीन है, अतः यहां एक अंककी हानि नहीं पायी जाती।
शंका- तो फिर कितनी हानि पायी जाती है ?
समाधान- उत्तरमें कहते हैं कि एक अधिक अधस्तन विरलन प्रमाण स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम बिरलन में कितनी
१ प्रतिषु ' अणेगं ' इति पाठः ।
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२१२ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३३. लामो त्तिपमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स अनंतिमभागो आगच्छदि । पुणो एदं' जहण्णपरित्ताणंतम्मि सोहिय सुद्ध सेसेण उक्कस्सदव्वे भागे हिदे पुब्विल्ललादों परमाणुत्तरमागच्छदि । एदम्मि उक्कस्सदव्वादो सोहिदे अणंतरहेट्ठिमट्ठाणमुप्पज्जदि । असंखेज्जाणंताणं विच्चाले उप्पत्तीदो एसा अवत्तव्वपरिहाणी । अनंतभागहाणी वा, उक्कस्सअसंखेज्जादो उवरिमसंखाए वट्टमाणत्तादो । पुणो एगरूत्रधरिददुभागं विरलिय उवरिमेग - रूवधरिदं समखंड करिय दिण्णे दो-दो परमाणू पावेंति । ते उवरिमविरलणरुवधरिदेसु समयाविरोहेण दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं बुच्चदे । तं जहा रूवाहियहेट्टिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतॄण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धं उवरिमविरलणाए अवणिय उक्करसदवे भागे हिदे परिहाणिदव्वमागच्छदि । तम्मि उक्कस्सदव्वम्मि सोहिदे सुद्ध से सं अणंतरट्ठाणं होदि । एवं परमाणुत्तरादिकमेण णदव्वं जाव अनंतभागहाणीए चरिमवियप्पोति ।
हानि प्राप्त होगी, इस प्रकार फल राशिसे इच्छा राशिको गुणित कर उसमें प्रमाण राशिका भाग देने पर एक अंकका अनन्तवां भाग आता है ।
यह अवक्तव्य
पुनः इसको जघन्य परीतानन्तमेंसे कम करके जो शेष रहे उसका उत्कृष्ट द्रव्यमै माग देनेपर पूर्वोक्त लब्धसे एक परमाणु अधिक आता है । इसको उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे कम करनेपर अनन्तर अधस्तन स्थान उत्पन्न होता है । असंख्यातभागहानि और अनन्तभागहानिके बीच में उत्पन्न होनेके कारण हानि है । अथवा इसे अनन्तभागहानि भी कह सकते हैं, क्योंकि, वह उत्कृष्ट असंख्यातसे उपरिम संख्या में वर्तमान है । पुनः एक अंकके प्रति प्राप्त राशिके द्वितीय भागका विरलन कर उपरिम विरलन अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देने पर दो दो परमाणु प्राप्त होते हैं । उनको उपरिम विरलन के प्रति प्राप्त द्रव्यमें यथाविधि देकर समीकरण करनेपर जो हीन अंक आते हैं
-
T प्रमाण कहते हैं । यथा - एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन में कितनी हानि प्राप्त होगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर जो प्राप्त हो उसे उपरिम विरलनमें से घटाकर शेषका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर परिहीन द्रव्य भाता है । उसको उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे कम करनेपर जो शेष रहे वह अनन्तर स्थान होता है । इस प्रकार एक परमाणु अधिक आदिके क्रम से अनन्तभागहानिके अन्तिम विकल्प तक ले जाना चाहिये ।
१ ताप्रती ' एगं (दं)' इति पाठः । २ प्रतिषु ' पुव्विलद्धादो' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३३.1 चेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[ २१३ संपहि उक्कस्समसंखेज्जासंखेज्जं विरलेऊण एगरूवधारदं समखंडं करिय दादण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे। तं जहा- रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवं लब्भदि । तम्मि उवरिमविरलणार अवणिदे उक्करसमसंखेज्जासंखेज्ज होदि । तेणुक्कस्सदब्वे भागे हिंदे असंखेज्जभागहाणिदव्वमागच्छदि । तम्मि उक्कस्सदव्वादो सोहिदे असंखेज्जभागहाणिट्ठाणं होदि । संपहि एदमुक्कस्समसंखेज्जासंखेज विरलेदूण उक्कस्सदव्वं समखंडं करिय दिण्णे असंखेज्जभागहाणिदव्वं होदि । हेट्ठा एगरूवधरिदपमाणं विरलेदूण पढमरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एगेगपमाणू पावदि । तमुवरिमरूवधारदेसु समयाविरोहेण दादूण समकरणं कदे परिहीणरूवपमाणं वुच्चदे । तं जहा- रूवाहियहेट्टिमविरलणमेत्तमद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी' लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छ. मोवट्टिय उवरिमविरलणाए अवणिय लद्धेण उक्कस्सवे भागे हिदे असंखज्जभागहाणिदव्वं होदि । तम्मि उक्कस्सदव्वम्मि सोहिदे बिदियअसंखज्जभागहाणिट्ठाणं होदि । एवं
___ अब उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका विरलन कर एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देकर समीकरण करनेपर जो परिहीन अंक आते हैं उनका प्रमाण कहते हैं। यथा- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंक प्राप्त होता है। उसको उपरिम विरलनमेंसे कम करने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात
ता है। उसका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर असंख्यात भाग हीन द्रव्य आता है। उसको उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे कम करनेपर असंख्यातभागहानिका स्थान होता है।
अब इस उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका विरलन कर उत्कृष्ट द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर असंख्यात भाग हीन द्रव्य होता है। नीचे एक अंकके प्रति प्राप्त प्रमाणका विरलन कर प्रथम अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति एक एक परमाणु प्राप्त होता है। उसको उपरिम विरलनके द्रव्यमें यथाविधि देकर समीकरण करनेपर जो परिहीन अंक आते हैं उनका प्रमाण कहते हैं। यथा- एक अधिक अघस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर उपरिम विरलनमेंसे कम करके लब्धका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देने पर असंख्यात भाग हीन द्रव्य होता है। उसको उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे कम करनेपर असंख्यातभागहानिका द्वितीय स्थान होता है । इस
. १ प्रतिषु ' अवणिद-' इति पाठः। २ अ-कापत्योः -मुक्कस्ससंखेज्जासंखेज' इति पाठे। '३ प्रतिषु 'विरलिय-' इति पाठः । ४ तापतो .'परिहीणो (झणी)' इति पाठः।
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२१४
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, ३३. तदियादिअसंखेज्जभागहाणिट्ठाणेसु उप्पाइज्जमाणेसु छेदभागहारो चेव होदूण गच्छदि । संपधि य उवरिमविरलणाए रूवूणाए एगरूवधरिदं खंडिय तत्थेगखंडमेत्तवियप्पेसु गदेस समभागहारो होदि, रूवाहियटिमविरलणाए उवरिमविरलणाएं ओवट्टिदाए एगरूवोवलंभादो । एवं छेदभागहार-समभागहारेहि ताव णेदव्वं जाव उक्कस्सदव्वादो एगो गोवुच्छविसेसो परिहीणो त्ति ।
तत्थ को भागहारो होदि त्ति उत्ते उच्चदे- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिददिवड्डगुणहाणीयो रूवाहियगुणहाणीए पदुप्पण्णाओ। तं जहा -- उक्कस्सदव्वे दिवड्वगुणहाणिगुणिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे चरिमणिसेगो आगच्छदि । तम्मि रूवाहियगुणहाणिणा ओवट्टिदे एगो गोवुच्छविसेसो आगच्छदि त्ति । एवं परमाणुत्तरादिकमेण गंतूणुक्कस्सदव्वादो एगसमयपबद्ध परिहीणे का परिहाणी? असंखेज्जभागपरिहाणी; किंचूणदिवढगुणहाणीहि उक्कस्सदव्वे भागे हिदे एगसमयपबद्धृवलंभादो। एदेसिमणु
प्रकार तृतीय आदि असंख्यातभागहानिस्थानोंके उत्पन्न कराते समय छेदभागहार ही होकर जाता है। ___अब एक कम उपरिम विरलनसे एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त राशिको
कर उसमें एक खण्ड प्रमाण विकल्पोंके वीतनेपर समभागहार होता है, क्योंके, एक अधिक अघस्तन विरलनसे उपरिम विरलनको अपवर्तित करनेपर एक अंक पाया जाता है। इस प्रकार छेदभागहार और समभागहारसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे एक गोपुच्छविशेष हीन नहीं हो जाता।
शंका - वहां कौनसा भागहार होता है ?
समाधान- इसके उत्तरमें कहते हैं कि एक अधिक गुणहानिसे व अंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणित डेड गुणहानियां भागहार होती हैं । यथाउत्कृष्ट द्रव्यमें डेढ़ गुणहानिगुणित अंगुलके असंख्पातवें भागका भाग देनेपर अन्तिम निषेक आता है। उसको एक आधिक गुणहानिसे अपवर्तित करनेपर एक गोपुच्छविशेष आता है।
शंका- इस प्रकार एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे जाकर उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे एक समयप्रबद्धके हीन होनेपर कौनसी हानि होती है ?
समाधान- असंख्यातमागहानि होती है, क्योंकि, कुछ कम डेढ़ गुणहानिका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर एक समयप्रबद्ध पाया जाता है।
१ प्रतिषु 'विरलणा' इति पाठः। १ प्रतिषु ' गुणहाणीदव्वअंगुलस्स', मप्रती · गुणहागीदर्भगुलस' इति पास!
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४ २, ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[२१५ क्कस्सपदेसट्ठाणाणं गुणिदकम्मंसिओ सामी, अविणद्वगुणिदकिरियाए आगयाण पि ओकड्डुक्कड्डणवसेण एगसमयपबद्धमेत्तपरमाणूणं वड्डि-हाणिदसणादे।। गुणिदकम्मंसियम्मि एदेहितो अहियाणि हाणाणि किण्ण होति ? ण, गुणिदकम्मंसिए उक्कस्सेण एगो चेव समयपबद्धो वड्ढदि हायदि त्ति आइरियपरंपरागयउवएसादो। एदम्हादो गुणिदकम्मंसियअणुक्कस्सजहण्णपदेसट्ठाणादो गुणिद-घोलमाणउकिस्सपदेसाणं विसेसाहियं होदि । होतं पि असंखेज्जदिभागुत्तरं । एदं मोत्तूण गुणिदकम्मंसियजहण्णपदेसहाणपमाणं गुणिदघोलमाणअणुक्कस्सपदेसहाणं घेत्तूर्ण परमाणुहीण-दुपरमाणुहीणादिसरूवेण ऊणं करिय णेदव्वं जाव गुणिद-घोलमाणउक्कपदसट्ठाणादो असंखज्जगुणहीणं तस्सव जहण्णपदेसवाणं ति । एदेसिमप्पणो गुणिदकम्मंसियजहण्णपदेसट्ठाणसमाणगुणिद-घोलमाणपदेसट्ठाणादो अणंतभागहीणमसंखज्जभागहीण-संखेज्जभागहीण-संखेज्जगुणहीण - असंखज्जगुणहीणसरूवेण परिहीणढाणाणं गुणिदघोलमाणो सामी । कुदो ? गुणिद-घोलमाणट्ठाणाणं पंचवड्डि-पंचहाणीओ होति त्ति गुरूवएसादो । पुणो एदम्हादो गुणिद-घोलमाणजहण्ण-अणुक्कस्स
इन अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थानोंका गुणितकौशिक जीव स्वामी होता है, क्योंकि, विनाशको नहीं प्राप्त हुई गुणित क्रियासे जो कर्म आते हैं उनमें अपकर्षण
और उत्कर्षणके वश एक समयप्रबद्ध मात्र परमाणुओंकी वृद्धि व हानि देखी जाती है।
शंका- गुणितकौशिक जीवके इनसे अधिक स्थान क्यों नहीं होते ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, गुणितकौशिक अवस्थामें उत्कृष्ट रूपसे एक समयप्रबद्ध ही बढ़ता और घटता है, ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है।
गुणितकर्माशिकके इस अनुत्कृष्ट जघन्य प्रदेशस्थानसे गुणितघोलमानका उत्कृष्ट प्रदेशस्थान विशेष अधिक है। विशेष अधिक होकर भी असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। इसको छोड़कर और गुणितकर्माशिकके जघन्य प्रदेशस्थानके बराबर गुणितघोलमान अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थानको ग्रहण करके एक परमाणु हीन दो परमाणु हीन इत्यादि रूपसे कम करके जब तक गुणितघोलमानके उत्कृष्ट प्रदेशस्थानसे असंख्यातगुणा हीन उसका ही जघन्य प्रदेशस्थान नहीं प्राप्त होता तब तक ले जाना चाहिये ।
अपने इन गुणितकर्माशिक सम्बन्धी जघन्य प्रदेशस्थानके समान गुणितघोलमानके प्रदेशस्थानसे अनन्त भाग हीन, असंख्यात भाग हीन, संख्यात भाग हीन, संख्यातगुणे हीन व असंख्यातगुणे हीन स्वरूपसे परिहीन स्थानोंका गुणितघोल
न स्वामी है। क्योंकि, गुणितघोलमान सम्बन्धी स्थानों के पांच वृद्धियां व पांच हानियां होती हैं, ऐसा गुरुका उपदेश है। पुनः गुणितघोलमानके इस जघन्य
१ मप्रता ‘घेत्तूण च ' इति पाठः ।
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२१६] छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[४, २, ४, ३३. ट्ठाणादो खविद-घोलमाणउक्कस्सपदेसट्ठाणमसंखेज्जगुणं होदि । एदं मोत्तूण गुणिद-घोलमाणजहण्णट्ठाणसमाणं खविद-घोलमाणहाणं घेत्तूण एग-दोपरमाणुआदिकमेण ऊणं करिय अणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणीहि णेदव्वं जाव खविद-घोलमाणएइंदियजहण्णदव्वे त्ति । पुणो एदेण समाणं खीणकसायचरिमसमयदव्वं घेत्तूण अणंतभागहाणि-असंखेज्जभागहाणीहि ऊणं करिय णेदव्वं जाव खविद-घोलमाणओघजहण्णदव्वे त्ति । पुणो एदेण सरिसखविदकम्मंसियदव्वं घेत्तण दोहि परिहाणीहि णेदव्वं जाव खविदकम्मंसियओघजहण्णदव्वे त्ति । खविदकम्मंसिये किमढें दो चेव हाणीओ ? ण एस दोसो, खविदगुणिदकम्मंसिएसु एगसमयपबद्धपरमाणुमेत्ताणं चेव पदेसट्ठाणाणमुवलंभादो ।
एत्थ गुणिदकम्मंसिय-गुणिदघोलमाण-खविदघोलमाण-खविदकम्मंसिए' जीवे अस्सिदूण पुणरुत्तहाणपरूवणं कस्सामो- खीणकसायजहण्णदव्वस्सुवरि परमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरकमेण अणंतभागवड्डीए अणंताणि अपुणरुत्तट्ठाणाणि गंतूण असंखेज्जभागवड्डी पारभदि । पुणो परमाणुत्तरकमेण असंखज्जभागवड्डीए अणतेसु ठाणेसु णिरंतरं गदेसु खविद-घोलमाणजहण्णदव्वं खविदकम्मंसियअजहण्णदव्वसमाणं दिस्सदि । तं पुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो परमाणु
अनुत्कृष्ट स्थानसे क्षपितघोलमानका उत्कृष्ट प्रदेशस्थान असंख्यातगुणा है। इसे छोड़कर और गुणितघोलमानके जघन्य स्थानके सदृश क्षपितघोलमान के स्थानको ग्रहण कर एक दो परमाणु आदिके क्रमसे हीन करके अनन्तभागहानि और असंख्यात. भागहानिसे क्षपितघोलमान एकेन्द्रियके जघन्य द्रव्य तक ले जाना चाहिये।
पुनः इसके समान क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बन्धी द्रव्यको ग्रहण कर अनन्तभागहानि और असंख्यातभागहानिसे हीन करके क्षपितघोलमानके ओघ जघन्य द्रव्य तक ले जाना चाहिये। फिर इसके सदृश क्षपितकाशिकके जघन्य द्रव्यको ग्रहण कर दो हानियों द्वारा क्षपितकर्माशिकके ओघ जघन्य द्रव्य तक ले जाना चाहिये।
शंका-- क्षपितकर्माशिकके केवल दो ही हानियां क्यों होती हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, क्षपितकर्माशिक और गुणितकर्माशिक जीवमें एक समयप्रबद्धके परमाणुओंके बराबर ही प्रदेशस्थान पाये जाते हैं।
यहां गुणितकर्माशिक, गुणितघोलमान, क्षपितघोलमान और क्षपित कर्माशिक जीवोंका आश्रय करके पुनरुक्त स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं - क्षीणकषाय सम्बन्धी जघन्य द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक इत्यादि क्रमसे अनन्तभागवृद्धिके अनन्त अपुरुक्त स्थान जाकर असंख्यातभावृद्धिका प्रारम्भ होता है। पुनः परमाणु अधिक क्रमसे असंख्यातभागवृद्धिके अनन्त स्थानोंके निरन्तर वीतनेपर क्षपितघोलमानका जघन्य द्रव्य क्षपितकांशिकके अजघन्य द्रव्यके समान दिखता
. मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'गणिदकम्मंसियगणिदघोलमाणखविदगुणिदकम्मंसिए ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[२१७ त्तर वड्विदे खविद-घोलमाणस्स अणंतभागवड्डी होदि । तं पि हाणं पुणरुत्तमेव । एवं पुणरुत्तापुणरुतसरूवेण अणंत-असंखेज्जभागवड्डीसु गच्छमाणासु दूरं गंतूण खविदघोलमाण: अणंतभागवड्डी परिहायदि । से काले खविदघोलमाणो असंखज्जभागवति पारंभदि । तं पि पुणरुत्तट्ठाणमेव । एवं पुणरुत्तापुणरुत्तसरूवेण दोसु वि असंखज्जभागवड्ढासु गच्छमाणासु दूर गंतूण खविदकम्मंसियअसंखेज्जभागवड्डी परिहायदि । तम्हि चेवुद्देसे खविदकम्मंसियटाणाणि समप्पंति । एदेसु उत्तट्ठाणेसु खविदघोलमाणजहण्णपदेसट्ठाणादो हेट्ठिमाणमणुक्कस्सट्ठाणाणं खविदकम्मंसिओ चेव सामी। उवरिमाणं खविदकम्मंसिओ खविदघोलमाणो च सामिणो। पुणो खविदघोलमाणतदणंतरअसंखेज्जभागवडिठ्ठाणमपुणरुत्तं होदि । विदियं पि अपुणरुत्तं चेव । एदमपुणरुत्तसरूवेण दूरं गंतूण गुणिदघोलमाणजहण्णहाणेण सरिसं होदि । एदम्हादो हेहिमाणं खविदकम्मंसिय उक्कस्सादो उवरिमाणं पदेसहाणाणं खविदघोलमाणो चेव सामी। गुणिदघोलमाणजहण्णट्ठाणं पुणरुतं । पुणो परमाणुत्तरं वडिदे पुणरुत्तमणंतभागवड्डिट्ठाणं होदि । एवं पुणरुत्तापुणरुत्तसरूवेण अणंतभागवडि-असंखेज्जभागवड्डीसु गच्छमाणासु दूरं गंतूण अणंतभागवड्डी परिहायदि । से काले गुणिदघोलमाण
है । वह पुनरुक्त स्थान है । पुनः एक परमाणु अधिक क्रमसे वृद्धिके होनेपर क्षपितघोलमान जीवके अनन्तभागवृद्धि होती है। वह भी स्थान पुनरुक्त ही है। इस प्रकार पुनरुक्त-अपुनरुक्त स्वरूपसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिके चाल रहने. पर बहुत दूर जाकर क्षपितघोलमान जीवके अनन्तभागवृद्धिकी हानि होती है। अनन्तर समयमें क्षपितधोलमान जीव असंख्यातभागवृद्धिको प्रारम्भ करता है। यह भी पुनरुक्त स्थान ही है। इस प्रकार पुनरुक्त और अपुनरुक्त स्वरूपसे दोनों ही असंख्यातभागवृद्धियोंके चालू रहनेपर दूर जाकर क्षपितकर्माशिककी असंख्यातभागवृद्धि हीन हो जाती है और उसी स्थानमें क्षपितकर्माशिकके स्थान समाप्त हो जाते हैं। इन उपर्युक्त स्थानोंमें क्षपितघोलमानके जघन्य प्रदेशस्थानसे नीचेके अनुत्कृष्ट स्थानोका क्षपितकर्माशिक ही स्वामी है। उपरिम स्थानोंका क्षपितकर्मीशिक और क्षपितघोलमान दोनों स्वामी है।
पुनः क्षपितघोलमानका तदनन्तर असंख्यातभागवृद्धिका स्थान अपुनरुक होता है । दूसरा स्थान भी अपुनरुक्त ही होता है। इस प्रकार यह स्थान अपुनरुक्त स्वरूपसे दूर जाकर गुणितघोलमानके जघन्य स्थानके सदृश होता है। इससे भघस्तन और क्षपितकाशिकके उत्कृष्टसे उपरिम प्रदेशस्थानोंका क्षपितघोलमान ही स्वामी है। गुणितघोलमान का जघन्य स्थान पुनरुक्त है । पुनः एक आदि परमाणुकी वृद्धि होनेपर अनन्तभागवृद्धिका पुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार पुनरुक्त अपुनरुक्त स्वरूपसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि के चालू रहनेपर दूर जाकर [गुणितघोलमानकी] अनन्तभागवृद्धि हीन हो जाती है। अनन्तर समयमें गुणितघोलमानके असंख्यातभागवृद्धिछ. वे. २८.
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३३.
२१८ ] असंखेज्जभागवड्डी पारभदि । सा वि पुणरुत्ता चैव । पुणो दोसु वि असंखेज्जभागवड्डीसु गच्छमाणासु दूरं गंतूण खविदघोलमाणं असंखेज्जभागवड्डी परिहायदि । से काले संखेज्जेभागवड्डी पारमदि । एवं संखेज्जभागवड्डि-असंखेज्जभागवड्डीसु' गच्छमाणसु दूरं गंतूण गुणिदेघेालमाणअसंखेज्जभागवड्डी परिहायदि । से काले संखेज्जभागवड्डी पारभदि । एवं दोणं पि संखेज्जभागवड्डीणं गच्छमाणाणं खविदघोलमाणसंखेज्जभागवड्डी परिहायदि । से काले संखेज्जगुणवड्डी पारभदि । एवं संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं गच्छमाणाणं दूरं गंतूण गुणिदघोलमाणसंखेज्जभागवड्डी परिहायदि । संखेज्जगुणवड्डी पारभदि । एवं दोणं पि संखेज्जगुणवड्डीणं गच्छमाणाणं खविदघोलमाणसं खेज्जगुणवड्डी परिहायदि । असंखेज्जगुणवड्डी पारभदि । पुणो असंखेज्जगुणवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं गच्छमाणाणं दूरं गंतूण गुणिदघोलमाणसंखेज्जगुणवड्डी परिहायदि, असंखेज्जगुणवड्डी पारमदि । एवं पुणरुत्ता पुणरुत्तसरूवेण दोष्णं पि असंखेज्जगुणवड्डीणं गच्छमाणाणं दूरं गंतूण खविदघोलमाणअसंखेज्जगुणवड्डी परिहायदि । एत्तो हेडिमाणं गुणिदघोलमाणजहण्णादो उवरि
का प्रारम्भ होता है । वह भी पुनरुक्त ही है । पुनः दोनों ही असंख्यात भागवृद्धियोंके चालू रहनेपर दूर जाकर क्षपितघोलमान जीवके असंख्यात भागवृद्धिकी हानि हो जाती है । अनन्तर समयमें संख्यात भागवृद्धिका प्रारम्भ होता है। इस प्रकार संख्यात भागवृद्धि व असंख्यात भागवृद्धि के चालू रहनेपर दूर जाकर गुणितघोलमान के असंख्यात भाग वृद्धिकी हानि हो जाती है । अनन्तर समयमै संख्यात भागवृद्धिका प्रारम्भ हो जाता है । इस प्रकार दोनोंके ही संख्यात भागवृद्धियोंके चालू रहनेपर क्षपितघोलमान के संख्यातभागवृद्धिकी हानि हो जाती है । अनन्तर समय में संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ हो जाता है । इस प्रकार संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि के चालू रहनेपर दूर जाकर गुणित घोलमान के संख्यात भागवृद्धिकी हानि हो जाती है और संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ हो जाता है । इस प्रकार दोनों के ही संख्यातगुणवृद्धियोंके चालू रहने पर क्षपित घे।लमान के संख्यातगुणवृद्धि की हानि हो जाती है और असंख्यात गुणवृद्धिका प्रारम्भ हो जाता है । पुनः असंख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि चालू रहनेपर दूर जाकर गुणित घोलमान के संख्यातगुणवृद्धिकी हानि हो जाती है और असंख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रकार पुनरुक्त व अपुनरुक्त स्वरूपसे दोनोंके ही असंख्यातगुणवृद्धियों के चालू रहनेपर दूर जाकर क्षपितघोलमान के असंख्यात गुणवृद्धिकी हानि हो जाती है । इससे नीचे के और गुणितघोलमान के जघन्य स्थान से ऊपर के प्रदेशस्थानों के क्षतिघोलमान और
१ अ-काप्रत्योः ' खविदघोलमाणे ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' असंखेज्ज ' इति पाठः । ३ काप्रत परिहादि ' इति पाठः । ४ प्रतिषु ' असंखेज्जभागवड्ढी ' इति पाठः । ५ आप्रतौ ' दुराणिद ' इति पाठः ।
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१, २, ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ २१९ माणं पदेसट्ठाणाणं खविदगुणिदघोलमाणा सामिणो । तदो जं अणंतरमसंखेज्जगुणवड्डिहाणं तं गुणिदघोलमाणस्स अपुणरुतं भवदि । एवमपुणरुत्तसरूवेण गुणिदघोलमाणअसंखेज्जगुणवड्डिपदेसट्ठाणेसु गच्छमाणेसु दूरं गंतूग गुणिदकम्मंसियजहण्णपदेसट्ठाणं दिस्सदि । तं पुणरुतं होदि । पुणो परमाणुत्तरं वड्डिदे तस्स अणंतभागवड्डिपदेसट्ठाणं होदि । तं पि पुणरुत्तं होदि । एवं पुणरुत्तापुणरुत्तसरूवेण अणंतभागवड्ढि-असंखेज्जगुणवड्ढीणं गच्छमाणाणं दूरं गंतूण गुणिदकम्मंसियस्स अणंतभागवड्डी परिहायदि, असंखेज्जभागवड्डी पारभदि । तं पि पुणरुत्तपदेसट्टाणं होदि । एवं पुणरुत्तापुणरुत्तसरूवेण असंखेज्जभागवडिअसंखेज्जगुणवड्ढीणं गच्छमाणाणं अणंताणि हाणाणि गंतूण गुणिदघोलमाणअसंखेज्जगुणवड्ढीसमप्पदि । एत्तो प्पहुडि हेट्ठिमाणं गुणिदकम्मंसियजहण्णपदेसठ्ठाणपज्जवसाणाणं गुणिदधोलमाणो गुणिदकम्मंसियो च सामी । एत्तो अणंतरमुवरिमपदेसट्ठाणं गुणिदकम्मंसियस्स चेव होदि । तं च अपुणरुतं । एवं णेदव्वं जाव गुणिदकम्मंसियस्स उक्कस्सट्ठाणे त्ति । पुणो एत्थ उक्कस्तपदेसट्ठाणम्मि जहण्णपदेसट्टाणे सोहिदे जेत्तिया परमाणू अवसेसा तेत्तियमताणि णाणावरणस्स अणुक्कस्सपदेसट्ठाणाणि । उक्कस्सपदेससामियस्स लक्खणं पुव्वं परूविदं । जहण्णपदेससामियस्स लक्खणमुवरि भणिहिदि । अवसेसाणमणताणं ठाणाणं जे सामिणो जीवा तेसिं लक्खणं किण्ण परविदं ? ण एस दोसो, जहण्णुक्कस्सपदेसट्ठाणगुणितघोलमान जीव स्वामी हैं । उससे अनन्तर जो असंख्यातगुणवृद्धिका स्थान है वह गणितघोलमानके अपुनरुक्त होता है । इस प्रकार अपुनरुक्त स्वरूपसे गुणितघोलमानके असंख्यात गुणवृद्धिप्रदेशस्थानोंके चालू रहनेपर दूर जाकर गुणितकर्मीशिक.का जघन्य प्रदेशरथान दिखता है। वह पुनरुक्त है । फिर एक आदि परमाणुकी वृद्धि होने पर उसके अनन्तभागवृद्धिप्रदेशस्थान होता है । वह भी पुनरुक्त होता है। इस प्रकार पुनरुक्त और अपुनरुक्त स्वरूपसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धिके चालू रहनेपर दूर जाकर गुणितकर्माशिकके अनन्तभागवृद्धिकी हानि हो जाती है और असंख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है। वह भी पुनरुक्त प्रदेशस्थान है। इस
र पुनरुक्त-अपुनरुक्त स्वरूपसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि के चालू रहनेपर अनन्त स्थान जाकर गुणितघोलमानके असंख्यातगुणवृद्धि समाप्त हो जाती है। यहांसे लेकर नीचेके गुणितकर्माशिक सम्बन्धी जघन्य प्रदेशस्थान पर्यन्त स्थानोंका गुणितघोलमान और गुणितकौशिक जीव स्वामी हैं। इससे अनन्तरका उपरिम प्रदेशस्थान गुणितकांशिकके ही होता है। वह अपुनरुक्त है। इस प्रकार गुणितकौशिकके उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । पश्चात् यहां उत्कृष्ट प्रदेशस्थानमैसे जघन्य प्रदेशस्थानको कम करने पर जितने परमाणु शेष रहते हैं उतने मात्र ज्ञानावरणके अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थान हैं । उत्कृष्ट प्रदेशस्थानके स्वामीका लक्षण पूर्व में कहा जा चुका है। जघन्य प्रदेशस्थानके स्वामीका लक्षण आगे कहा जायगा ।
शंका-शेष अनन्त स्थानोंके जो जीव स्वामी हैं उनका लक्षण क्यों नहीं कहा? अ-काप्रमोः ' भणिदेहिओ', तापतो ' मणिहीओ', मप्रतौ ' भणिहिविगी' पति पाठ।।
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६३०
छक्खंडागमै वैयणाखंड (४, २, ४, ३३. सामियाणं लक्खणे परूविदे तेसिं दोणं पदेसट्ठाणाणं विच्चाले' वट्टमाणसेसट्ठाणसामियाणं पि लक्खणस्स तत्तो चेव सिद्धीदो । तं जहा- जहण्णहाणप्पहुडिएगसमयपबद्धमेत्तट्ठाणाणं जे सामिणा तेसिं जीवाणं खविदकम्मंसियलक्खणमेव लक्खणं होदि । समाणलक्खणाणं कधं दव्वभेदो ? ण, छावासएहि परिसुद्धाणं पि ओकड्डक्कड्डणवसेण पदेसट्ठाणभेदसंभवं पडि विरोहाभावादो । उक्कस्सट्ठाणादो वि हेट्ठिमाणं समयपबद्धमत्तट्ठाणाणं जे सामिणो तेसिं गुणिदकम्मंसियलक्खणमेव लक्खणं हेदि, छावासएहि भेदाभावादो । अवसेसाणं ट्ठाणागं जे सामिणो तेसिं जीवाणं लक्खणं खविद-गुणिदलक्खणसंजोगो । सो च एगादिसंजोगजणिदबासहिविहो । तदा खविद-गुणिदकम्मंसियलक्खणेहितो जच्चंतरीभूदमजहण्णमणुक्कस्सट्ठाणाहारजीवाणं ण लक्खणमत्थि त्ति । तेण तेसिं पुध ण लक्खणपरूवणा कीरदि त्ति सिद्धं ।
एत्थ तसजीवपाओग्गपदेसट्ठाणसुं जीवा पदरस्स असंखेज्जदिभागमेता । एइंदिय
.....................
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशस्थाने के स्वामियोंके लक्षणकी प्ररूपणा करने पर उन दो प्रदेशस्थानोंके अन्तरालमें रहने वाले शेष समस्त स्थानोंके स्वामियोंका भी लक्षण उसीसे ही सिद्ध है । यथा- जघन्य स्थानसे लेकर एक समयप्रबद्ध मात्र स्थानोंके जो स्वामी हैं उन जीवों का क्षपितकर्माशिक लक्षण ही लक्षण होता है।
शंका-समान लक्षणवालोंके द्रव्य का भेद कैसे सम्भव है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, छह आवासेसे परिशुद्ध जीवों के भी अपकर्षण और उत्कर्षणके वश प्रदेशस्थानोंके भेदोंकी सम्भावनामें कोई विरोध नहीं है।
उत्कृष्ट स्थानसे भी नीचके समयप्रबद्ध मात्र स्थानोंके जो स्वामी हैं उनका गुणितकौशिक लक्षण ही लक्षण होता है, क्योंकि, उनमें छह आवासों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है । शेष स्थानोंके जो जीव स्वामी हैं उन जीवोंका लक्षण क्षपित और गुणित लक्षणों का संयोग है। वह भी एक आदिके संयोगसे उत्पन्न होकर बासठ प्रकारका है । इस कारण अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानोंके आधारभूत जीवोंका क्षपितकौशिक और गुणितकर्माशिकके लक्षणोंसे भिन्न जातिका दूसरा कोई लक्षण नहीं है । इसलिये उनके लक्षणोंका पृथक् कथन नहीं करते है, यह सिद्ध होता है।
यहां प्रस जीवोंके योग्य प्रदेशस्थानोंमें जीव प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण
1 अप्रती 'पदेसहाणाणं जे सामिणो विच्चाले' इति पाठः । २ अ. कापसोः 'जरचंतरभूद. ' इति पाठः । ३ अप्रतो'.डाणहार ' इति पाठः । ४ ताप्रती नोपलभ्यते पदमिदम् । ५ ताप्रती -पाओगट्टाणे' इति पाठ ।
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४, २, ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [२२१ पाओग्गट्ठाणेसु अणता । एत्थ ताव तसजीवपाओग्गहाणाणं जीवसमुदाहारे भण्णमाणे छाणिओगद्दाराणि- परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागं अप्पाबहुगं चेदि । तत्थ परूवणाए अणुक्कस्सजहण्णट्ठाणे जीवा अस्थि । एवं णदव्वं जाव उक्कस्सट्ठाण त्ति । पमाणमुच्चदे । तं जहा- अणुक्कस्सजहण्णए ठाणे एक्को वा दो वा उक्कस्सेण चत्तरि जीवा, खविदकम्मंसियाणं एक्कम्मि काले समाणपरिमाणाणं चदुण्णं चेव उवलंभादो । एदम्हादो उरिमेसु खवगसेडिपाओग्गेसु अणंतेसु हाणेसु सव्वेसु वि वट्टमाणकाले संग्वज्जो चेव, असंखजाणं खवगजीवाणं अणंताणताणं वा वट्टमाणकाले अभावादो । सेसेसु अणुक्कस्सट्टाणेसु जीवा एक्को वा तिणि वा एवं जाव उक्कस्सेण. असंखेज्जा पदरस्स असंखज्जदिमागमेत्ता। उक्कस्सए द्वाणे जीवा एक्को वा दो वा तिण्णि वा एवं जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखज्जदिभागमेता । कुदो ? गुणिदकम्मसियाणं जीवाणं समाणपरिणामाणमक्कम्हि समए आवलियाए असंखज्जदिभागमेताण चेवोवलंभादो। पमाणवरूवणा गदा।
सेडिगरूवणा दुविहा- अगंतरोवणिधा -परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा ण सक्कदे णादूं, जहण्णट्ठाणजीवहितो बिदियट्ठाणजीवा किं विसेसहीणा किं विसेसाहिया किं संखेज्जगुणा त्ति उवदेसाभावादो । परंपरोवणिधा वि ण सक्कदे णादूं, अणवगयअणंहैं। एकेन्द्रिय जीवोंके योग्य स्थानों में अनन्त जीव हैं। यहां प्रल जीवोंके योग्य स्थानोंके जीवसमुदाहारकी प्ररूपणामें छह अनुयोगद्वार है-प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवद्दार, भागाभाग और अल्पबहत्व। उनमेंसे प्ररूपणाकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट जघन्य स्थानमें जीव हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थान तक ले जाना चाहिये । प्रमाणका कथन करते हैं। यथा- अनुत्कृष्ट जघन्य स्थानमें एक, दो अथवा उत्कृष्ट रूपसे चार जीव होते हैं, क्योंकि, समान परिणामवाले क्षपितकौशिक जीव एक समयमें चार ही पाये जाते हैं। इससे ऊपरके क्षपकणि योग्य अनन्त स्थानों में से सभीमें वर्तमान कालमें संख्यात जीव ही उपलब्ध होते हैं, क्योंकि, वर्तमान काल में असंख्यात अथवा अनन्तानन्त क्षपक जीवोंका अभाव है। शेष अनुत्कृष्ट स्थानों में एक [दो] अथवा तीन इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात जीव पाये जाते है। उत्कृष्ट स्थानमें एक, दो अथवा तीन आदि उत्कृष्ट रूपसे आवसीके असंख्यातवे भाग प्रमाण तक जीव पाये जाते हैं, क्योंकि, एक समयमें समान परिणामवाले गुणितकौशिक जीव आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र ही पाये जाते हैं । प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार की है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनमें अनन्तरोपनिधा जानने के लिये शक्य नहीं है, क्योंकि, जघन्य स्थानवाले जीवोंसे द्वितीय स्थानवाले जीव क्या विशेष हीन हैं, क्या विशेष अधिक हैं, या क्या संख्यातगुणे है। ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता । परम्परोपनिधा भी जानने के लिये
१ प्रतिषु ' वहमाणकाले सेविएण संखेज्जा इति पाठः।
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२२२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ३३. तरोवणिवत्तादो । सेडिपरूवणा गदा ।
अवहारो उच्चदे । तं जहा -- अणुक्कस्सजहण्णट्ठाणजीवपमाणेण सव्वजीवा केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति ? पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण, तसजीवाणं चदुब्भागेण अवहिरिजंति त्ति भागिदं होदि । एत्थ गहिदगहिदं कादूण भागहारो साहेयव्वो । एवं सव्वाणुक्कस्सपदेसट्ठाणाणं अवहारकालो तप्पाओग्गासंखज्जो होदि त्ति वत्तव्यो । उक्कस्सट्टाणजीवाणमवहारो पदरस्स असंखेज्जदिभागो, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि उक्कस्सट्ठाणजीवेहि सव्वतसजीवरासिम्हि भागे हिदे पदरस्स असंखेज्जदिमागुवलंभादो। एवमवहारकालपरूवणा गदा ।
भागाभागस्स अवहारभंगो। अप्पाबहुगं उच्चदे- सव्वत्थोवा अणुक्कस्सजहण्णद्वाणजीवा |४|| उक्कस्सट्ठाणजीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। अजहण्णअणुक्कस्सएसु ठाणेसु जीवा असंखज्जगुणा । गुणगारो पदरस्स असंखज्जदिभागो। अणुक्कस्सहाणजीवा विसेसाहिया अणुक्कस्सजण्णट्ठाणजीवमेत्तेण । अजहण्णएसु ठाणेसु जीवा विसेसाहिया जहण्णट्ठाणजीवणूणउक्कस्सट्ठाणजीवमेत्तेण। सव्वेसु
शक्य नहीं है, क्योंकि, अनन्तरोपनिधा अज्ञात है। श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई।
अवहारका कथन करते हैं। यथा-अनुत्कृष्ट जघन्य स्थानवाले जीवोंके प्रमाणसे सब जीव कितने कालमें अपहृत होते हैं ? वे प्रतरके असंख्यातवें भाग मात्र कालसे अपहृत होते हैं, अर्थात् त्रस जीवोंके चतुर्थ भागसे अपहृत होते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहां गृहीत-गृहीत विधिसे भागहार सिद्ध करना चाहिये । इसी प्रकार सब अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थानोंका अवहारकाल तत्प्रायोग्य असंख्यात प्रमाण है, ऐसा कहना चाहिये । उत्कृष्ट स्थानवाले जीवोंका अवहारकाल प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि, आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र उत्कृष्ट स्थानवाले जीवोंका सब प्रस जीवराशिमें भाग देने पर प्रतरका असंख्यातवां भाग पाया जाता है । इस प्रकार अवहारकालप्ररूपणा समाप्त हुई।
___ भागाभागकी प्ररूपणा अवहारकालके समान है । अल्पबहुत्वका कथन करते हैं- अनुत्कृष्ट जघन्य स्थानवाले जीव सबमें स्तोक हैं | ४]। उनसे उत्कृष्ट स्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। उनसे अजघन्यअनुत्कृष्ट स्थानोंमें रहनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार प्रतरका असंख्यातवां भाग है । उनले अनुत्कृष्ट स्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। कितने विशेष अधिक हैं ? अनुत्कृष्टजघन्य स्थानवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतने विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य स्थानोंमें स्थित जीव जघन्य स्थानवाले जीवोंसे रहित
१ तापतौ ' एन्थ । इत्येतत् पदं नास्ति ।
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यणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्तं
४, २, ४, ३३. ]
ट्ठाणे जीवा विसेसाहिया जहण्णट्ठाणजीवमेत्तेण ।
संपहि थावरपाओग्गट्ठाणाणं जीवसमुदाहोर भण्णमाणे परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागो अप्पाबहुगे त्ति छ अणियोगद्दाराणि । तत्थ परूवणा उच्चदे - अणुक्कस्सजहणट्ठाण पहुडि जाव उक्करसङ्काणे ति ताव अस्थि जीवा । परूवणा गदा ।
जहण हाणे जीवा एक्को वा दो वा एवं जाव उक्कस्सेण चत्तारि, खविदकम्मंसियाणं एक्कम्हि समए चदुं चेवेोवलंभादो | एवं खविदकम्मंसियपाओग्गपदेसहाणेसु संखेज्जा चेव । खविद - गुणिदघोलमाणपाओग्गपदेस ट्ठाणेसु अनंतजीवा । गुणिदकम्मंसियपाओग्गेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता । एवं पमाणपरूवणा गदा ।
सेडिपरूवणा दुविहा अनंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अनंतराव णिहा ण सक्कदे णेदुं, जहण्णट्ठाणजीवेहिंतो विसेसाहिया संखेज्जासंखेज्जाणंतगुणा वा बिदियादिट्ठाणजीवा होंति त्ति उवदेसाभावादो | परंपरावणिधा वि ण सक्कदे णेदुं', अणवगयअणंतरोवणिधत्तादो । सेडिपरूवणा गदा |
अवहारो - सव्वाणजीवा जणट्ठाणजीव पमाणेण अवहिरिज्जमाणे अणतेण कालेण
[ २२३
उत्कृष्ट स्थानवाले जीव के बराबर विशेषसे अधिक हैं। उनसे सब स्थानोंके जीव जघन्य स्थानवर्ती जीव मात्र विशेष से अधिक हैं ।
अब स्थावरों के योग्य स्थानोंके जीवसमुदाहारका कथन करने में प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, ये छह अनुयोगद्वार हैं । उनमें से पहले प्ररूपणाका कथन करते हैं - अनुत्कृष्ट जघन्य स्थान से लेकर उत्कृष्ट स्थान तक जीव हैं । प्ररूपणा समाप्त हुई ।
जघन्य स्थान में जीव एक, दो, इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे चार तक है, क्योंकि, एक समय में क्षपितकर्माशिक चार ही पाये जाते हैं । इस प्रकार क्षपितकर्माशिक के योग्य प्रदेशस्थानों में संख्यात ही जीव हैं । क्षपितघोलमान और गुणितघोलमान के योग्य प्रदेशस्थानों में अनन्त जीव हैं । गुणितकर्माशिक के योग्य प्रदेशस्थानोंमें आवली के असंख्यातवें भाग मात्र जीव हैं । इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई ।
श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । उनमें अनन्तरोपनिधाको ले जाना शक्य नहीं है, क्योंकि, द्वितीय आदि स्थानों में स्थित जीव जघन्य स्थानवर्ती जीवोंसे विशेष अधिक हैं या संख्यातगुणे हैं या असंख्यातगुणे हैं, अथवा अनन्तगुणे हैं; इस प्रकार के उपदेशका यहां अभाव है । परम्परोपनिधाको भी ले जाना शक्य नहीं है, क्योंकि, अनन्तरोपनिधा अज्ञात है | श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई ।
अवहार - सब स्थानवर्ती जीवोंको जघन्य स्थानवर्ती जीवोंके प्रमाणसे अपहृत करनेपर वे अनन्त कालसे अपहृत होते हैं, क्योंकि, जघन्य स्थानवर्ती जीवोंके प्रमाणसे
१ ताप्रतौ ' एवं ' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' णा' इति पाठः ।
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२२४ ) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३४ अवहिरिज्जंति, जहण्णट्ठाणजीवेहि सव्वट्ठाणजीवेमु भागे हिदेसु लद्धमि आणंतियदंसणादो। एवं सव्वट्ठाणजीवाणं पुध पुध अवहारो वत्तव्यो। अधवा जहण्णट्ठाणजीवा सब्वट्ठाणजीवाणमणंतिमभागो। उक्कस्सट्ठाणजीवा वि सम्वट्ठाणजीवाणमणंतिमभागो । अजहण्णअणुक्कस्सट्ठाणेसु जीवा सव्वजीवाणमंणता भागा । तेण जहण्णुक्कस्सट्ठाणाणमवहारो अणतो, अजहण्णअणुक्कस्सैट्ठाणाणमवहारो एगरूवमेगरूवस्साणंतिमभागो च भागहारों होदि । अवहारपरूवणा गदा।
भागाभागस्स अवहारभंगो । सव्वत्थोवा जहण्णए ठाणे जीवा । उक्कस्सए ठाणे जीवा असंखेज्जगुणा । अजहण्णअणुक्कस्सएसु हाणेसु जीवा अणंतगुणा । अणुक्कस्सएसु ट्ठाणेसु जीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णट्टाणजीवमेत्तेण । अजहण्णट्ठाणेसु जीवा जहण्णट्ठाणजीवेहि ऊणउक्कस्सट्ठाणजीवेहि विसेसाहिया । सव्वेसु डाणेसु जीवा जहण्णट्ठाण. जीवमेत्तेण विसेसाहिया ।
एवं छण्णं कम्माणमाउववज्जाणं ॥३४॥ जहा णाणावरणीयस्स उक्कस्साणुक्कस्सदव्वाणं परूवणा कदा तहा आउववज्जाणं
सब स्थानवर्ती जीवोंके प्रमाणमें भाग देनेपर लब्ध रूपसे अनन्तकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार सब स्थानों में स्थित जीवोंका पृथक् पृथक् अवहार कहना चाहिये । अथवा, जघन्य स्थानके जीव समस्त स्थानोंके जीवोंके अनन्तवें भाग हैं। उत्कृष्ट स्थानके जीव भी समस्त स्थानों सम्बन्धी जीवोंके अनन्तवें भाग हैं। अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानों में स्थित ज.व सब जीवोंके अनन्त बहुभाग हैं । इसलिये जघन्य और उत्कृष्ट स्थानोंका अवहार अनन्त है, तथा अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानोंका अवहार एक अंक और एकका अनन्तवां भाग है। अवहारप्ररूपणा समाप्त
भागाभागकी प्ररूपणा अवहारके समान है । जघन्य स्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे उत्कृष्ट स्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं । अजघन्य -अनुत्कृष्ट स्थानों में उनसे अनन्तगुणे जीव हैं । उनले अनुत्कृष्ट स्थानों में विशेष अधिक जीव हैं ।
शंका- कितने प्रमाणसे विशेष अधिक हैं ? समाधान- जघन्य स्थानमें जितने जीव हैं उतने मात्रसे विशेष अधिक हैं।
उनसे अजघन्य स्थानोंमें जघन्य स्थानके जीवोंसे हीन उत्कृष्ट स्थान सम्बन्धी जीवाँसे विशेष अधिक है । उनसे सब स्थानों में जीव जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे विशेष अधिक हैं।
इसी प्रकार आयु कर्मके सिवा शेष छह कर्मोंका कथन करना चाहिये ।' ३४॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा की गई है उसी
१ प्रतिषु 'अहम्मि' इति पाठः । २ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु · अजहणमशक्कास-' इति पाठः ।
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१, २, ४, ३६ } वेयणमहाहियारे वेयणदब्वविहाणे सामित्तं
[२२५ छण्णं कम्माणमुक्कस्साणुक्कस्सदव्वाणं परूवणा कायव्वा । णवरि मोहणीयस्स चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ णामागोदाणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तसहिदीए ऊणाओ बादरेइंदिएसु भमावेदव्यो' । गुणहाणिसलागाणं अण्णोण्णब्भत्थरासीणं च विसेसो जाणिदन्यो।
सामित्तेण उक्कस्सपदे आउववेदणा दबदो उक्कस्सिया कस्स? ॥३५॥
किं देवस्स किं णेरइयस्स किं मणुस्सस्स किं तिरिक्खस्सेत्ति दुसंजोगादिकमेण पण्णारस भंगा वत्तव्वा ।
जो जीवो पुवकोडाउओ परभवियं पुवकोडाउअं बंधदि जलचरेसु दीहाए आउवबंधगद्धाए तप्पाओग्गसंकिलेसेण उक्कस्सजोगे बंधदि ॥३६॥
जो उवरि भणिस्समाणलक्खणेहि सहिओ सो आउअउक्कस्सदव्वस्स सामी होदि ।
प्रकार आयुको छोड़कर शेष छह कर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा करना - चाहिये। विशेष इतना है कि मोहनीयकी त्रसस्थितिसे हीन चालीस कोड़ाकोहि सागरोपम और नाम व गोत्रकी उक्त स्थितिसे हीन बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम स्थिति प्रमाण बादर एकेन्द्रियों में घुमाना चाहिये। तथा गुणहानिशलाकाओं और अन्योन्याभ्यस्त राशियोंके विशेषको भी जानना चाहिये ।
स्वामित्वसे उत्कृष्ट पदमें आयु कर्मकी वेदना उत्कृष्ट किसके होता है ? ॥ ३५॥
उक्त वेदना क्या देवके होती है, क्या नारकीके होती है, क्या मनुष्यके होती है और क्या तिर्यचके होती है, इस प्रकार द्विसंयोग आदिके क्रमसे पन्द्रह भंगोंको कहना चाहिये।
जो जीव पूर्वकोटि प्रमाण आयुसे युक्त होकर जलचर जीवोंमें परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधता हुआ दीर्घ आयुबन्धककालमें तत्प्रायोग्य संक्लेशसे उत्कृष्ट योगमें बांधता है, उसके द्रव्यकी अपेक्षा आयु कर्मकी उत्कृष्ट वेदना होती है ।। ३६॥
जो जीव आगे कहे जानेवाले लक्षणोंसे सहित हो वह आयु कर्मके उत्कृष्ट
. अ-आ-काप्रतिषु 'भमादोदरो', तापतौ 'भमादेदवो' इति पाठः। २ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'उक्कस्सपदेस' इति पाठः । ३ कश्चिज्जीवः कर्मभूमिमनुष्यः भुज्यमानपूर्वकोटिवर्षायुष्कः परमसम्बन्धिपूर्वरिवर्षायुष्य जलचरेषु दीर्घायुबन्धाद्धया तत्प्रायोग्यसंक्लेशेन तत्प्रायोग्योकृष्टयोगेन च बध्नाति । गो.जी. (जी. प्र.) १५० छ.वे. २९.
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२२६) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ३६. काणि ताणि लक्खणाणि ? पुव्वकोडाउओ त्ति एगं लक्खणं । पुव्वकोडाउअं मोत्तूण अण्णो किण्ण घेप्पदे ? ण, पुवकोडितिभागमाबाई काऊण परभविआउअंबंधमाणाणं चेव उक्कस्सबंधगद्धाए संभवादो । पढमागरिसा सव्वत्थ सरिसा किण्ण होदि १ ण एस दोसो, साभावियादो। ण च सहावो परपज्जणिजोगारहो, विरोहादो । पुवकोडितिभागमाबाहं काऊण बद्धाउअस्स आबाहकालम्मि ओलंबणकरणेण थूलत्तमावण्णपढमादिगोउच्छस्स जलचरेसु उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि बहुदव्वणिज्जादंसणादो ण पुवकोडितिभागे आउवं बंधाविज्जदि, किंतु असंखेयद्धम्मि पढमागरिसाए आउवं बंधाविज्जदि त्ति ? ण, उवरिमपढमागरिसकालादो पुवकोडितिभागपढमागरिसकालस्स विसेसाहियत्तादो । कधमेदं णव्वदे ? सुत्तारंभण्णहाणुववत्तीदो । पुवकोडितिभागम्मि ओलंबणकरणेण विणासिज्जमाणदव्वं पुण एगपढमणिसेगस्स असंखज्जदिभागो। ण च एदस्स रक्खणढे असंखेयद्धम्मि आउअं
द्रव्यका स्वामी होता है। वे लक्षण कौनसे हैं ? पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला हो, यह एक लक्षण है।
शंका- पूर्वकोटि प्रमाण आयुवालेको छोड़कर अन्यका ग्रहण क्यों नहीं करते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, पूर्वकोटिके त्रिभागको आबाधा करके परभव सम्बन्धी आयुको बांधनेवाले जीवोंके ही उत्कृष्ट बन्धककाल सम्भव है।
शंका - प्रथम अपकर्ष सब जगह समान क्यों नहीं होता ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । और स्वभाव दूसरोंके प्रश्नके योग्य नहीं होता, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध आता है।
शंका-जिसने पूर्वकोटिके त्रिभाग प्रमाण आबाधा की है और जो आवाधाकालके भीतर प्रथमादि गोपुच्छेको स्थूल कर चुका है ऐसे बद्धायुष्क जीवके मरकर जलचरोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अवलम्बन करणके द्वारा बहुत द्रव्यकी निर्जरा देखी जाती है, इसलिये पूर्वकोटिके त्रिभागमें आयुका बंधाना ठीक नहीं है, किन्तु असंक्षेपाद्धाकाल के प्रथम अपकर्षमें आयुका बंधाया जाना ठीक है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उपरिम प्रथम अपकर्षकालसे पूर्वकोटित्रिभागका प्रथम अपकर्षकाल विशेष अधिक है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- इस सूत्रके रचनेकी अन्यथा आवश्यकता नहीं थी, इसीसे जाना जाता है।
पूर्वकोटित्रिभागमें अवलम्बन करणके द्वारा नष्ट किया जानेवाला द्रव्य एक प्रथम निषकके असंख्यातवें भाग है। याद कहा जाय कि इसके रक्षणके लिये असंक्षेपाखामें आयुको वंधाना योग्य ही है सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, पूर्वकोटिके
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४, २, ४, ३६.] वेपणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
। २२७ बंधावि, जुत्तं, पुवकोडितिभागम्मि संचिदआउवदव्वादो एत्थतणसंचयस्स संखज्जभागहीणत्तप्पसंगादो।
परभवियं पुव्वकोडाउअंबंधदि जलचरेसु त्ति बिदियं विसेसणं । जहा णाणावरणादीणं बंधभवे चेव बंधावलियादिक्ताणमुदओ होदि तहा आउअस्स तम्हि भवे बद्धस्स उदओ ण होदि, परभवे चेव होदि त्ति जाणावणट्ठमाउअस्स परभवियविसेसणं कयं । पुवकोर्डि मोत्तूण दीहमाउअं थोवीभूदपढमादिगोउच्छ तादो पत्तत्थोवणिज्जरं किण्ण बंधाविदो ? ण, समयाहियपुवकोडिआदि उपरिमआउअवियप्पाणं घादाभावेण परभविआउअबंधेण विणा छम्मासेहि ऊणभुज्जमाणा उअं सव्वं गालिय परभवियआउए बज्झमाणे आउवदव्वस्स बहुसंचयाभावादो । पुनकोडीदो हेट्ठिमआउट्ठिदिवियप्पे किण्ण बंधाविदो ? ण, थोवाउहिदीए थूलगोवुच्छासु अंतोमुहुत्तमेत्तकालं पिरंतरं घडियाजलधारं वै गलंतीसु
त्रिभागमें संचित आयुगव्यकी अपेक्षा यहां के संचयके संख्यातवे भागले हीन होनेका प्रसंग आता है।
'जलचरों में परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधता है' यह द्वितीय विशेषण है । जिस प्रकार ज्ञानावरणादिकोंका बांधनेके भवमें ही बन्धावलीको पिताकर उदय होता है उस प्रकार बांधे गये आयु कर्म का उसी भवमें उदय नहीं होता, किन्तु उसका परभवमें ही उदय होता है; इस बातका ज्ञान कराने के लिये आयुका 'परमविक' विशेषण दिया है।
शंका-यहां पूर्वकेटके सिवाय पेली दीर्घ आयुका बन्ध क्यों नहीं कराया जिससे उसके प्रथमादि गोपुच्छोंको प्राप्त होनेवाला द्रव्य स्तोक होने से उसकी निर्जरा भी कम होती?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि उपरिम आयु. विकल्पोंका घात नहीं होता । जो जीव ऐसी आयुका बन्ध करता है वह परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध किये पिना ही छह महीनाके सिवाय सब भुज्यमान आयुको गला देता है। इसके केवल भुज्यमान आयुमें छह महीना शेष रहनेपर ही परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध होता है, इसलिये इसके आयु द्रव्यका बहुत संचय नहीं होता।
शंका- यहां पूर्वकोटिसे नीचेकी मायुके स्थितिविकल्पोका बन्ध क्यों नहीं कराया?
समाधान-नहीं, क्योकि स्तोक आयुकी गोपुछाथै स्थूल होती है, इसलिये उनके अन्तर्मुहूर्त काल तक घटिकाजलकी धाराके समान निरन्तर गलते रहनेपर
मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रति बंधावलियादितताण-' इति पाठः। २ ताप्रति पाठोऽयम। अ-आ-काप्रतिषु 'मंजमाणाउ' इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु धारद्ध' इति पाठः ।
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१२८ ]
छागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३६.
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बहुवणिज्जरपसंगादो । जलचरेसु चेव किम बंधाविदो ? ण एस दोसो, जलचरेसु विवेगाभावादो संकिलेसवज्जिएस सादबहुलेसु ओलंत्रणाकरणेण विणासिज्ज्माणदव्वस्स बहुत्ताभावादो । समयाद्दियपुव्वको डिआदि उवरिमआउअवियप्पाणं कदलीघादो णत्थि, डिमाणं चैव अस्थि त्ति कथं गव्वदे ? समयाहियपुव्व कोडिआदि उवरि में आउआणि असंखेज्जवाणित्ति अतिदेसादो । ण च कारणेण विणा अतिदेसो कीरदे, अणवत्थापसंगादो । - दीहार आउवबंधगद्धाए त्ति तदियं विसेसणं । पुव्वकोडितिभागमा बाधं कादूण आउवं बंधमाणाणं बद्धमाणाऊ जहण्णा उक्कस्सा वि अस्थि । तत्थ जद्दण्णबंधगद्धाणिरा - करणट्ठमुक्कस्सियाए बंधगद्धाए त्ति भणिदं । उक्कस्सबंधगद्धा वि पढमागरिसाए चैत्र होदि, ण अण्णत्थ । कुद्दो एदं णव्वदे ? महाबंधसुता । तं जहा अहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स सव्वत्थोवा अट्ठमीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया | सा
बहुत द्रव्यकी निर्जरा प्राप्त होती है । यही कारण है कि यहां पूर्वकोटिसे नीचे की आयुके स्थितिविकल्पोंका बन्ध नहीं कराया ।
जलचरोंमें ही आयु किसलिये बंधाई ?
शंका
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जलचर जीव विवेकहीन होने से सक्लेश रहित और सातबहुल होते हैं । इसलिये उनके अवलम्बन करणके द्वारा नष्ट होनेवाला द्रव्य बहुत नहीं पाया जाता ।
शंका - एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि रूप आगे
आयुविकल्पोंका कदलीघात नहीं होता, किन्तु पूर्वकोटिसे नीचे के विकल्पोंका ही होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान - एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि रूप आगे की सब आयु असंख्यात वर्ष प्रमाण मानी जाती है, ऐसा अतिदेश है; इससे जाना जाता है । और कारणके विना भतिदेश किया नहीं जाता, क्योंकि, कारणके विना अतिदेश करनेपर अनवस्था दोष भाता है ।
"
'दीर्घ आयुबन्धककालमें ' यह तृतीय विशेषण है । पूर्वकोटिके तृतीय भागको आबाधा करके आयुको बांधनेवाले जीवोंकी बध्यमान आयु जघन्य भी होती है और उत्कृष्ट भी होती है । उसमें जघन्य बन्धककालका निराकरण करनेके लिये 'उत्कृष्ट बन्धककालमें ' यह कहा है । उत्कृष्ट बन्धककाल भी प्रथम अपकर्ष में ही होता है, अन्यत्र नहीं होता ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान – यह महाबन्धसूत्र से जाना जाता है । यथा - आठ अपकर्षो द्वारा भायुको बांधनेवाले जीवके आठवें अपकर्ष में जघन्य आयुबन्धककाल सबसे स्तोक है ।
१ अ-आ-काप्रतिषु · - करणं विणासिज्जमान, ताप्रतौ ' करणं, विणासिज्माण मप्रतौ ' करणं ण बिणासिज्जमाण' इति पाठः । २ प्रतिषु 'कोडिआउउवरिम' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु 'अतिदेसा' इति पाठ: ।
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४, २, ४, ३६. यणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्त चेव उक्कस्सियां विसेसादिया । अट्ठहि आगरिताहि आउअं बंधमाणस्स सत्तमीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । सत्तहि आगरिसाहि आउवं बंधमाणस्स सत्तमीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जष्णिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । अट्ठहि आगरिसाहि आउवं बंधमाणस्स छट्ठीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । सत्तहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्य छठ्ठीए आगरिसाए आउबंधगद्धा जण्णिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । छहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्त छट्ठीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । अहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स पंचमीए आगरिसाए आउधगद्वा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसे साहिया । सत्तहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्त पंचमीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । छहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स पंचमीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जह
वहीं उत्कृष्ट आयुबन्धककाल उससे विशेष अधिक है। आठ अपकर्षों द्वारा आयुको बांधनेवाले जीवके सातवें अपकर्ष में जघन्य आयुबन्धककाल आठवें अपकर्षकालसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट आयुबन्धककाल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। सात अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके सातवें अपकर्षमें जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । आठ अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके छठे अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। सात अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके छठे अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। छह अपकर्षों द्वारा आयुको बांधनेवालेके छठे अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल संख्यात गुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। आठ अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवाले के पांचवें अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धकाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यले विशेष अधिक है । सात अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवाले के पांचवें अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। छह अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके प्राप्त होनेवाला पांचवें अपकर्षमें जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक
वामती ' . बंधगद्धा । जहणिया सा चैव । उक्कस्सिया' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ४, ३६. णिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । पंचहि आगरिसाहि आउवं बंधमाणस्स पंचमीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया। अट्ठहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स चउत्थीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया। सत्तहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स चउत्थीए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । छहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स चउत्थीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा। सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । पंचहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स च उत्थीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । चउहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स च उत्थीए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । अट्ठहि आगरिसाहि आउभं बंधमाणस्स तदियाए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेनगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । सत्तहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स तदियाए आगरिसाए आउअधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । [छहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स तदियाए आगरिसाए
है। पांच अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके प्राप्त होनेवाला पांचवें अपकर्षमें जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्य से विशेष अधिक है। आठ अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवाले के प्राप्त होनेवाला चौथे अपकर्षमें जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । सात अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालके प्राप्त होनेवाला चौथे अपकर्षमें जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्त से संख्यात गुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । छह अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवाले के प्राप्त होनेवाला चौथे अपकर्ष में जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। पांच अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके चौथे अप. कर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तले संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । चार अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके चतुर्थ अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । आठ अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके तृतीय अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्त से संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । सात अपक्ष द्वारा आयु बांधनेवालेके तृतीय अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। यही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । [छह अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेबालेके तृतीय अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा
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१, २, ४, ३६.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
( २३१ आउअबंधगद्धा जहणिया संखेजगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया। ] पंचहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स तदियाए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहाण्णया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । चदुहि आगरिसाहि आउअं बंधमागस्स तदियाए आगरिसाए आउवबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । तिहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स तदियाए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया। अहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स बिदियाए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । सत्तहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स बिदियाए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । छहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स बिदियाए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया। पंचहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स बिदियाए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा। सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया। चदुहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स बिदियाए आगारसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । तिहि आगरिसाहि
है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है।] पांच अपकर्षों द्वारा आयुको बांधनेवालेके तृतीय अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। चार अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके तृतीय अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । तीन अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके तृतीय अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष आधिक है। आठ अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवाले के द्वितीय अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। सात अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवाले के द्वितीय अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। छह अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवाले के द्वितीय अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। पांच अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके द्वितीय अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। चार अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके द्वितीय अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है। वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। तीन अपकर्षों द्वारा आयु बांधनेवालेके
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२३२ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ३६.
आउअं बंधमाणस्स बिदियाए आगरिसाए आउअवधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । बीहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स बिदियाए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखज्जगुणा । सा चैव उक्कस्सिया विसेसाहिया । अहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स पढमीए आगरिसाए आउ अबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । सत्तहि आगरिसाहि आउवं बंधमाणस्स पढमीए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । छहि आगरिसाहि आउ धमाणस्स पढमी आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया | पंचहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स पढमीए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहण्णिया संखेज्जगुणा । सा चैव उक्कस्सिया विसेसाहिया । चदुहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स पढमीए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चैव उक्कस्सिया विसेसाहिया । तीहि आगरिसा हि आउअं बंधमाणस्स पढमीए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चैव उक्कस्सिया विसेसाहिया । बीहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणस्स पढमीए आगरिसाए आउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चैत्र
द्वितीय अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। दो अपकर्षो द्वारा आयु बांधतेवालके द्वितीय अपकर्षमं प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । आठ अपकर्षो द्वारा आयु बांधनेवाले के प्रथम अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है | वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । सात अपकर्षो द्वारा आयु बांधनेवाले के प्रथम अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्त से संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यले विशेष अधिक है। छह अपकर्षो द्वारा आयु बांधनेवाले के प्रथम अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्त से संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यले विशेष अधिक है । पांच अपकर्षो द्वारा आयुको बांधनेवाले प्राप्त होनेवाला प्रथम अपकर्ष में जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्त से संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है | चार अपकर्षो द्वारा आयु बांधनेवालेके प्राप्त होनेवाला प्रथम अपकर्षमें जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है। तीन अपक द्वारा आयु बांधनेवाले के प्रथम अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्त से संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्य से विशेष अधिक है । दो अपकर्षो द्वारा आयु बांधनेवाले के प्रथम अपकर्ष में प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धकाल पूर्वोक्त से संख्यातगुणा
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४, २, ४, ३६. ]
areमाहियारे बेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ २३१
उक्कस्सिया विसेसाहिया । पढमीए आगरिसाए आउअं बंधमाणस्स पढमीए आगरिसाए भाउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चैव उक्कस्सिया विसेसाहिया । तदो उक्कस्सिया बंधगद्धा पढमागरिसाए चेत्र होदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ संदिट्ठी'जे' सोवक्कम उभा
८८८ | ७७७ | ६६६ | ५५५ .८७७ ७६६ | ६५५ ५४४ ८६६७५५ ६४४ ५३३ ८५५ | ७४४ | ६३३ ५२२ ८४४ | ७३३ | ६२२
५११
६११
८३३ | ७२ - ८२२ | ७११
८११
४४४ ४३३ ४२२
४११
३३३ | २२२ |१११ ३२२ | २११
सर्ग- सगर्भुजमाणाट्ठिदीए ३११ बेतिभागे अदिक्कते परभवियाउथबंधपाओग्गा होंति जाव असंखेयद्धा त्ति । तत्थ आउ अबंधपाओग्गकालब्भंतरे आउ अबंधपाओग्ग परिणामेहि के वि जीवा अट्ठवारं के वि सत्तवारं के वि छव्वारं के वि पंचवार के विचत्तारिवारं के वि तिण्णिवारं के वि दोवारं के वि एक्कवारं परिणमंति कुदो ? साभावियादो । तत्थ तदियत्तिभागपढमसमए जेहि परभवियाउअबंधो पारद्धो ते अंतोमुहुत्तेण बंधं समाणिय पुणो सथलाउट्ठदीए णवमभागे सेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति । सयलाउडिदीए सत्तावीसभागावसेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति । एवं सेसतिभाग-तिभागावसेसे बंधपाओग्गा होंति त्ति दव्वं जाव अडमी आगरिसा त्ति ।ण च तिभागाव
है | वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । प्रथम अपकर्ष में आयु बांधनेवाले के प्रथम अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । इसलिये उत्कृष्ट आयुबन्धककाल प्रथम अपकर्ष में ही होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यहां संदृष्टि (मूल में देखिये ) ।
जो जीव सोपक्रमायुक्त हैं वे अपनी अपनी भुज्यमान आयुस्थिति के दो त्रिभाग बीत जानेपर वहांसे लेकर असंक्षेपाद्धा काल तक परभव सम्बन्धी आयुको बांधने के योग्य होते हैं । उनमें आनुबन्धके योग्य कालके भीतर कितने ही जीव आठ वार; कितने ही सात वार, कितने ही छह वार, कितने ही पांच वार, कितने ही चार वार, कितने ही तीन वार, कितने ही दो वार और कितने ही एक वार आयुबन्धके योग्य परिणामोंसे परिणत होते हैं; क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । उसमें जिन जीवोंने तृतीय त्रिभाग के प्रथम समयमें परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध प्रारम्भ किया है वे अन्तर्मुहूर्त में आयु कर्मके बन्धको समाप्त कर फिर समस्त आयुस्थितिके नौवें भाग के शेष रहनेपर फिरसे भी आयुबन्धके योग्य होते हैं । तथा समस्त आयुस्थितिका सत्ताईसवां भाग शेष रहनेपर पुनरपि बन्धके योग्य होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहनेपर यहां आठवें अपकर्षके प्राप्त
१ अ आ-काप्रतिषु 'जो', ताप्रतौ ' जो (जे)' इति पाठः । २ अ भा काप्रतिष्षु ' सोमक्कनाउन सग-', तौ सोववक्रमाउबा सग' इति पाठः । छ. वे. ३०.
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१९.1 छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ३, ३६. से भाउ णियमेण वझदि ति एयंतो। किंतु तस्थ आउअबंधपाओग्गा होति ति जावं होधि । णिस्वक्कमाउआ पुण छम्मासासेसे आउअबंधपाओग्गा होति । तत्य बि एवं चेक अट्टांगरिसाओ वत्तवाओ।) - एत्य जीवप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा - सव्वत्थोवा अट्ठहि आगरिसाहि आउअं कंषमाणया जीवा। सत्तहि आगस्सिाहि आउअं बंधमाणया जीवा संखेज्जगुणा । छहि मांगरिसाहि आउअं बंधमाणया जीवा संखेज्जगुणा । पंचहि आगरिसाहि आउभं बंधमाणया जीवा संखेज्जगुणाः। चदुहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणया जीवा संखेज्जगुणा । तीहि भागरिसाहि भाउअं बंधमाणया जीवा संखेज्जगुणा । दोहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणया जीवा संखेज्जगुणा । पढमीए आगरिसाए आउअं बंधमाणया जीवा संखेज्जगुणा । अहि आगरिसाहितो संचिददव्वं पेक्खिदूण पढमागरिमाए संचिददव्वं संखेजगुणमिदि पढमागरिसाए चेव बंधाविदं। जो दीहाए आउअबंधगद्धाए बंधदि सो उक्कस्सदव्यसामी होदि, अण्णो ण होदि त्ति वुत्तं ।
तप्पाओग्गसंकिलेसेणेत्ति चउत्थं विसेसणं किमढें कदं ? उक्कस्ससंकिलेसण
होने तक आयुबन्धक योग्य होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । परन्तु विभागके क्षेत्र रहनेपर आयु नियमसे बंधती है, ऐसा एकान्त नहीं है। किन्तु उस समय जीब आयुबन्धके योग्य होते हैं. यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और जो निरुपक्रमायुष्क जीव होते हैं वे अपनी भुज्यमान आयुमें छह माह शेष रहनेपर आयुबन्धके योग्य होते हैं। यहां भी इसी प्रकार आठ अपकर्षोंको कहना चाहिये।
यहां जीवोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं । यथा- आठ अपकर्षों द्वारा आयुको बांधनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। सात अपकर्षों द्वारा आयुको बांधनेवाले जीव उनसे संख्यातगुणे हैं। छह अपकर्षों द्वारा आयुको बांधनेवाले जीव उनसे संख्यातगुण हैं। पांच अपकों द्वारा भायुको बांधनेवाले जीव उनसे संख्यातगुणे हैं । चार अपकर्षों द्वारा भाबुको बांधनेवाले जीव उनसे संख्यातगुणे हैं। तीन अपकर्षों द्वारा आयुको बांधनेवाले जीव उनसे संख्यातगुणे हैं। दो अपकर्षों द्वारा आयुको बांधनेवाले जीव उमसे सच्यातगुणे हैं। प्रथम (एक) अपकर्ष द्वारा आयुको बांधनेवाले जीव उनसे संख्यातमुणे हैं। चूंकि आठ अपकर्षों द्वारा संचित द्रव्यकी अपेक्षा प्रथम अपकर्ष द्वारा संचित भाद्रव्य संख्यातगुणा है, अत एवं प्रथम अपकर्षमें ही आयुको बंधाया है। को दीर्घ आयुबन्धककालमें आयुको गांधता है वह उत्कृष्ठ द्रव्यका स्वामी होता है, बम्ब नहीं होता । इसीलिये यह तीसरा विशेषण कहा गया है।
शंका-'उसके योग्य सक्लेशसे' यह चतुर्थ विशेषण किसलिये किया है ?
१ प्रतिषु 'अक्षा-' इति पाः ।
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१, २, ४, ३७j
वेयणमहाहियारे धेयणदव्यविहाणे सामितं
(२२५
उक्कस्सविसोहीए च जहा सेसकम्माणि बझंति ण तहा आउअं बझदि, किंतु तपाओग्गेण मज्झिमसकिलेसेण बज्झदि ति जाणावणहं तप्पाओग्गसंकिलेसविसेसणं कदं ।
तप्पाओग्गउक्कस्सजोगेणेत्ति पंचमं विसेसणं किम8 कीरदे ? बहुदव्वगहणई। जदि एवं तो उक्कस्सजोगेणेत्ति किण्ण उच्चदे ? ण, दोसमए मोसूण उक्कस्साउअ. बंधगद्धामेत्तकालमुक्कस्सजोगेण परिणमणाभावादो । जाव सक्कदि ताव उक्कस्साणि चेष जोगट्टाणाणि परिणमिय जो बंधदि सो उक्कस्सदव्वसामी होदि त्ति उत्तं होदि।
एत्थ बंधदि ति पलमणिदेसो णिप्फलो, बंधदि ति बिदियणिद्देसत्थदौ तस्स पुषभूदत्थाणुवलंभादो त्ति ? ण, पढमस्स बंधमाणढे वट्टमाणस्स बंधदि ति एदस्सो पउत्तिविरोहादो। तप्पाओग्गउक्कस्सजोगविसयपदुप्पायणमुतरसुतं भणदि
जोगजवमज्झस्सुवरिमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो ॥ ३७॥
समाधान - जैसे उत्कृष्ट संक्लेश और उत्कृष्ट विशुद्धिसे शेष कर्म बंपते हैं वैसे आयु कर्म नहीं बंधता, किन्तु अपने योग्य मध्यम संक्लेशसे वह वैधता है। इसके शापनार्थ 'उसके योग्य संक्लेशसे' यह विशेषण किया है।
शंका- 'उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे' यह पांचवां विशेषण किसलिये किया है?
समाधान- बहुत द्रव्यका प्रहण करने के लिये उक्त विशेषण किया है। शंका- यदि ऐसा है तो फिर 'उत्कृष्ट योगसे' इतना ही क्यों नहीं कहा?
समाधान- नहीं, क्योंकि, दो समयोंको छोड़कर उत्कृष्ट भायुवन्धककाल प्रमाण समय तक जीवका उत्कृष्ट योग रूपसे परिणमन नहीं हो सकता। इसलिये जहां तक शक्य हो वहां तक उत्कृष्ट ही योगस्थानोंको प्राप्त हो कर जो जीष भायुकों बांधता है वह उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी होता है, यह कहा है।
शंका- यहां सूत्रमें ' बंधदि ' यह प्रथम निर्देश निरर्थक है, क्योंकि, 'बंधदि' इस द्वितीय निर्देशके अर्थसे उसका कोई भिन्न अर्थ नहीं पाया जाता ?
__ समाधान- नहीं, क्योंकि प्रथम पद 'बांधनेवाला' इस भर्थमे विद्यमान है इसलिये उसकी 'बांधता है' इस अर्थमें प्रवृत्ति मानने में विरोध पाता है।
अब उक्त मायुके योग्य उत्कृष्ट योग विषयक प्रकपणा करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा ॥ ३७॥
तापती विदियणि सत्यो ' इति पातः।। योगयवमन्यस्योपयन्सहल स्थितः । गो. नी. (बी.प्र.) १५०.
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२३६]
छक्खंडागमै वैयणाखंड { ४, २, ४, ३८. अट्ठसमयपाओग्गाणं सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजोगट्ठाणाणं जोगजवमज्झमिदि सण्णा, हिदीदो ठिदिमंताणं जोगाणं कधचि अभेदादो । जोगो चेव जवमझं जोगजनमज्झमिदि तेण कम्मधारयसमासो एत्थ जुज्जदे । अधवा जो जोगजवस्स मज्झं असमयकालो सो जोगजवमज्झं, तस्स उवीरं अंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो । कुदो ? तत्थतणजोगाणं हेटिमजोगेहिंतो असंखेज्जगुणत्तादो। अंतोमुहुत्तं मोत्तूण तत्थं बहुग कालं किण्ण अच्छदे ? ण, तत्थ अच्छणकालस्स वि अंतोमुहुत्तमेतत्तादो अंते।मुहुत्तादो अहियआउगबंधगद्धामावादो च । ण च जोगजवमज्झाद। उवरिमंतोमुहुत्तावहाणं ण संभवदि, असंखेज्जगुण वडिअद्धाणम्मि तदसंभवविरोहादों ।
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ ३८ ॥
आवलियाए असंखेज्जदिभागं मोतण बहुगं कालं किण्ण अच्छदि ? ण, तिण्णिवडि-तिण्णिहाणीसु उक्कस्सच्छणकालस्स वि आवलियाए असंखेज्जदिभागत्तं मोत्तूण
यहां योगयवमध्यके दो अर्थ लिये गये हैं। प्रथम तो आठ समयके योग्य जो श्रेणीके असंख्यात भाग मात्र योगस्थान होते हैं उनकी योगयवमध्य संशा है, क्योंकि, स्थितिसे उस स्थितिवाले योगोंका कथंचित् अभेद है। इसीलिये यहां ' योग ही यवमध्य योगयवमध्य' ऐसा कर्मधारयसमास करना युक्त है। दूसरे, जो योगयचका
आठ समय काल है वह योगयवमध्य कहलाता है। उसके ऊपर अन्तर्मर्स काल सक रहा, क्योंकि, यहांके योग अधस्तन योगोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे होते हैं।
शंका- अन्तर्मुहूर्तको छोड़कर वहां बहुत काल तक क्यों नहीं रहता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, एक तो वहां रहनेका काल ही अन्तर्मुहूर्त मात्र है, और दूसरे आयुबन्धककाल भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं पाया जाता।
यदि कहा जाय कि योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहना सम्भव महीं है सो भी बात नहीं है, क्योंकि, असंख्यातगुणवृद्धि रूप स्थानमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहनेको असम्भव मानने में विरोध आता है।
अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलोके असंख्यातवें भाग काल तक रहा ॥३८
शंका- आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालको छोड़ कर बहुत काल तक यहां क्यों नहीं रहता?
समाधान- नहीं, क्योंकि तीन वृद्धियों और तीन हानियों में उत्कृष्ट रूपसे भी रहनेका काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, इसको छोड़कर वहां उपरिम
, आप्रतौ ‘तदसंभवाविरोहादो' इति पाठः । २. चरमजीवगुण हानिस्थानान्तरे आवस्यसंख्यामाग. मानकालं स्थितः । गो. जी. (जी. प्र.) २५८,
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४, २, ४, ६९. वैयणमहाहियारे वैयणदबविहाणे सामित्त
।१३७ उवरिमसंखाणुवलंभादो । ण च चरिमे' जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे असंखेज्जदिभागवड्डि-हाणीओ मोत्तूण अण्णवडि-हाणीणं संभवो अस्थि, विरोहादो । सो च विरोहो पुध्वं परूविदो त्ति मेह उच्चदे पुणरुतभएण ।
कमेण कालगदसमाणो पुवकोडाउएसु जलचरेसु उववण्णो
परभविआउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउअस्स कदलीघादो गस्थि जहासरूवेण चेव वेदेदित्ति जाणावणटुं 'कमेण कालगदो' ति उत्तं । परमवियाउअंबंधिय भुंजमाणाउए घादिज्जमाणे को दोसो ति उत्ते ण, णिज्जिण्ण जमाणाउअस्स अपत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगइबाहिरस्स जीवस्स अभावप्पसंगादो।"जीवा णं भंते ! कदिभागावसेसियंसि याउगंसि परमवियं आउगं कम्मं णिबंधंता बंधति ? गोदम ! जीवा दुविहा पण्णता संखेज्जवस्साउआ चेव असंखेज्जवस्साउआ चेव । तत्थ जे ते असंखेज्जवस्साउआ ते छम्मासावसेसियंसि
संख्या नहीं पायी जाती। और अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्त में असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके सिवा अन्य वृद्धियां व अन्य हानियां नहीं पाई जाती, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। यह विरोध चूंकि पूर्व में कहा जा चुका है, अत एव पुनरुक्तिके भयसे उसे यहां नहीं कहते ।
क्रमसे कालको प्राप्त होकर पूर्वकोटि आयुवाले जलचरोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ३१ ॥
परभव सम्बन्धी आयुके बंधने के पश्चात् भुज्यमान आयुका कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी थी उतनीका ही वेदन करता है। इस बातका ज्ञान कराने के लिये 'क्रमसे कालको प्राप्त होकर ' यह कहा है।
शंका-परभधिक आयुको बांधकर भुज्यमान आयुका घात मानने में कौनसा दोष है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, जिसकी भुज्यमान आयुकी निर्जरा हो चुकी है, किन्तु अभी तक जिसके परमविक आयुका उदय नहीं प्राप्त हुभा है उस जीवका चतुर्गतिके बाह्य हो जानेसे अभाव प्राप्त होता है। - शंका- "हे भगवन् ! आयुमें कितने भाग शेष रहनेपर जीव परभविक आयु कर्मको बांधते हुए बांधते हैं ? हे गौतम ! जीव दो प्रकारके कहे गये हैं- संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्क। उनमें जो असंख्यातवर्षायुष्क हैं वे आयुके मंशोमें
1 अप्रतौ .. पुत्रलंभादो च ण चरिमे ' इति पाठः । २ अमेण कालं गमयित्ता पूर्वकोटवायुर्जकचरेषु उत्पनः । गो. जी. (जी. प्र.) २५८. ३ प्रतिष 'बंधे' इति पाठः। ४ अ-आ-काप्रतिष चिउगहबोरिस दीवस्स ' इति पाठः । ५ तातो ' भागावससियं सिपायुग सिया परमनियं' इति पाठः।
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१५८)
छक्खंडागमे वेयणाखंड पाउमंसि परभक्यि' आयुगं णिबंधता बंधति । तत्थ जे ते संखेज्जबासाउआ ते दुविहा पण्णता सोक्क्कमाउआ णिरुवक्कमाउआ चेव । तत्थ जे ते णिरुवक्कमाउआ ते तिमामाबसेसियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं कम्मं णिबंधता बंधति । तत्थ जे ते सोवक्कमाउआ ते सिया तिभागत्तिभागावसेसियंसि यायुगंसि परभवियं आउगं कम्मं निधता पंधति"। एदेण वियाहपण्णत्तिसुसेण सह कुछ ण विरोह। १ ण, एदम्हादो तस्स पुधभूदस्स . भाइरियभेएण भेदमावण्णस्स एयत्ताभावादो।)
बद्धपरभवियाउअस्स ओवट्टणाघामकादूण उप्पण्णमिदि जाणावणटुं पुव्वकोडाउछह मास शेष रहनेपर परमविक आयुको बांधते हुए बांधते हैं। और जो संख्यातवर्षापुरक जीव है वे दो प्रकारके कहे गये हैं- सोपक्रमायुष्क और निरूपक्रमायुष्क । उनमें जो निरूपक्रमायुष्क है वे आयुमें त्रिभाग शेष रहनेपर परभविक आयु कर्मको बांधते है। और जो सोपक्रमायुष्क जीव हैं वे कथंचित् त्रिभाग [कथंचित् त्रिभागका त्रिभाग और कथंचित् त्रिभाग-त्रिभागका त्रिभाग] शेष रहनेर परभव सम्बन्धी माथु कर्मको बांधते हैं"। इस व्याख्याशतिसूत्रके साथ कैसे विरोध न होगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, इस सूत्रसे उक्त सूत्र भिन्न आचार्य के द्वारा बनाया इमारोनेके कारण पृथक् है, अतः उससे इसका मिलान नहीं हो सकता।
___बांधी हुई परमविक आयुका अपवर्तनाघात न करके उत्पन्न हुआ, इस बातका बाम करानेके लिये 'पूर्वकोटि आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ' ऐसा कहा है। ................
१ भाप्रती ' - सियायुगंसियामवियं ', ताप्रती 'सियायुगं सिया परभवियं' इति पाठः | २ तातो -सिया. मग सिया परभवियं' इति पाठः । ३ प्रति 'तिमागत्तमागाव-' इति पाठः । ४ पुष्वकोरितिभागादो आवाधा आहिया किषण होदि ? उच्चदे - ण ताव देव-णेरइएस बहुसागरोवमाउद्विदिएम पुवकोनितिमागादो अधिया आवामा अस्थि, सिं छम्मासावसेसे भुजमाणाउए असंखेपद्धापजनसाणे संते परमवियमाउअं बंधमाणाणं तदसंभवा । गतिरिक्ख-मणुस्से विदो अहिया आवाधा अस्थि, तत्थ पुब्बकोहीदो अहियमवहिदीए अभावा । असंखेउजवसाऊ तिरिक्ख-मसा अस्थि तिचे ण, तेसिं देव-णेरझ्याणं व भुजमाणाठए छम्मासादो अहिए संते परमविआउअस्स बंधामावा । प.सं. पु. ६, पृ. ११९. तार्ह असंख्यातवर्षायुष्काणं त्रिभागे उत्कृष्टा कथं नोक्ता इति ? तन्न, देव. नाराणी स्वस्थिती षण्मासेसु मोगभूमिजानां नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुर्वन्धसम्भवात् । यमष्टापकर क्वचिनार्यबद्धं तदावस्यंसख्येयभागमात्राया समयोनमुहर्तमात्राया वा असंक्षेपाद्धायाः प्रागेवोत्तरभवायुस्न्तमुहते. माणसमयबद्वान् बच्चा निष्ठापयति । एतौ द्वावपि पक्षो प्रवायोपदेशत्वात् अंगीकृतौ। गो. क. (जी. प्र.) १५८.
नेरझ्या गंभंते ! कतिभागावसेसाउया परमवियाउयं पकरेंति ? गोयमा! नियमा सम्मासावसेसाउया परमवियाउछ । एवं असुरकुमारा वि, एवं जान थणिय कमारा । पुरविकाइया णं भंते ! xxx x | पंचिंदियतिरिक्वजोणिया नमंते ! कतिमागावसेसाउया परमवियाउयं पकरेंति ? गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुबिहा पनत्ता। तं महा-संवेज्जवासाउया य असंखेज्जवासाउया य । तत्यं णं जे ते असंखेज्जवासाउया ते नियमा सम्मासावसेसाव्या परमदियाउयं परेंति। तत्थ णं जेते संखिज्जवासाउया ते दुविहा पन्नता। तं जहा- सोवक्कमाउया य निरुवक्कमाउवा या सत्य णजे ते निरुवक्कमाउया ते नियमा तिभागावसे साउया परमनिया उयं पकरेंति । तत्थ जे जे ते सोबराममाश्या तेजसिय तिमागे परमनिया उयं पकरेंति, सिय तिमागतिमागे परमवियाउयं पकरति, सिय तिमाग-तिमागसिमागासेसाज्या परमपियाउ परेंति । एवं मसावि बागमतर-मोसिप-माणिया जहा मेरदया। प्रशापना .. ..... ११५-१७
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१, २, १, १०.1 यणमहाहियारे वेयणदविहाणे सामितं एसु उप्पाणमिदि उसं । ओवट्टणाघादे कदे को दोसो ति उत्ते- ण, घादेण बहररिदि पसाणं कम्मपदेसाणं बहुगाणं णिज्जरप्पसंगादो । जहा देवगइआदिकम्माणि पंधिदण पुणो तत्थ अणुप्पज्जिय अण्णत्थ वि उप्पज्जणं संभवदि तहा एत्थ णस्थि । जिस्से गईए आउअं बद्धं तत्थेव णिच्छएण उप्पजदि ति जाणावणडं थलचरादितिरिक्खपडिसेबर च 'जलचसुक्षणो' इदि उत्त।
अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सब्बाहि पज्जचीहि पज्जत्तयदों ॥४०॥
एग-दोसमएहि पज्जत्तीओं ण समाणेदि ति जाणावणटुं अंतोमुत्तमहणं करं। पज्जत्तिसमाणकालो जहण्णओ उक्कस्सओ वि अस्थि । तत्थ उक्कस्सकालपडिसेहई 'सब
शंका- अपवर्तनाघात करनेमें क्या दोष है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, घात करनेसे थोड़ी स्थितिको प्राप्त हुए बहुत कर्मप्रदेशोंकी निर्जराका प्रसंग आता है। इसलिये यहां अपवर्तनाघातका निषेध किया है।
जिस प्रकार देवगति आदि काँको बांधकर फिर वहां उत्पन्न न होकर अन्यत्र भी उत्पन्न होना सम्भव है इस प्रकार यहां नहीं है। किन्तु जिस गतिकी आयु बांधी गई है वहां ही निश्चयसे उत्पन्न होता है, ऐसा बतलानेके लिये, तथा थलचर भादि तिर्यचौका प्रतिषेध करने के लिये 'जलचरोंमें उत्पन्न हुमा' ऐसा कहा है।
विशेषार्थ- आयुबन्ध और गति यन्धमें यही अन्तर है कि आयुबन्धके पश्चात् वह जीव नियमसे उसी गतिमें जन्म लेता है जिस गतिकी आयुका वह बन्ध करता है। किन्तु गतिबन्धके सम्बन्धमें ऐसा कोई नियम नहीं है क्योंकि एक ही पर्याय में कालभेदसे परिणामोंके अनुसार चारों गति कर्म और उनसे सम्बद्ध अन्य कर्मोका बन्ध होता है। प्रकृतमें दो बातोंको ध्यानमें रखकर 'जलचरोंमें उत्पन्न हुआ' यह वचन कहा है। प्रथम तो इस जीवने तिर्यंचायुका बन्ध किया था, इसलिये आयुबन्धके अचुसार वह 'जलचरोंमें उत्पन्न हुमा' यह कहा गया है। दूसरे, तिर्यचोंके अनेक भेद हैं । उनमेंसे प्रकृतमें जलचर तिर्यंचों में उत्पन्न कराना ही इष्ट है, यह समझ कर अभ्य तिर्यंचों में नहीं उत्पन्न हुआ, किन्तु जलचर तिर्यचोंमें उत्पन्न हुआ; यह ज्ञापन करने के लिये 'जलचरोंमें उत्पन्न हुआ' यह वचन कहा है।
अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अति शीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्तक हुआ ॥ ४० ॥
एक-दो समयों द्वारा पर्याप्तियोंको पूर्ण नहीं करता है, यह बतलाने के लिये अन्तर्मुहर्सका प्रहण किया है। पर्याप्तियोंको पूर्ण करनेका काल जघन्य भी है और उत्कष्ट भी है। उसमें उत्कृष्ट कालका प्रतिषेध करनेके लिये 'सर्वलघु' पदका
.....................................
१ अन्त महत सर्वलघु सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तो जातः, अन्तर्महूर्तेन वियन्तः। मो. बी. (..)५८.
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२४० ]
छक्खडागमे वेयणाखंड
लहुँ' गहणं कदं । किमहं तस्स पडिसेहो कीरदे ? दीहकाले बहुआओ गोवुच्छाओ गलति त्ति बहुणिसेगणिज्जरपडिसेह तप्पडिसेहो कीरदे । एग दोपज्जत्तीसु समर्त्ति गदासु • पज्जता आउअबंधपाओग्गो ण होदि, किंतु सव्वाहि पत्तीहि पज्जत्तयदो चेत्र आउ अबंध- पाओग्गो होदि त्ति जाणावणङ्कं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो त्ति उत्तं ।
अंत| मुहुत्तेण पुणरवि परभवियं पुव्वकोडाउअं बंधदि जलचरेसु ॥ ४१ ॥
पज्जत्तिसमाणिदसमयप्प हुडि जाव अंतेोमुहुत्तं ण गदं ताव कदलीघादं ण करेदि त्ति जाणावणङ्कुमंतोमुहुत्तगिद्देयो क़दो । किम हेट्ठा भुंजमाणांउअस्स कदलीघादो ण कीरदे ण, साभावियादो | कदलीघादेण विणा अंत मुहुत्तकालेण परभवियमाउअं किण्ण झदे ? ण, जीविदूणागदस्स आउअस्स अद्धादो अहियआबाहाए परभवियाउअस्स बंधा
"
[
ग्रहण किया है । - उत्कृष्ट कालका प्रतिषेध किसलिये
-
शंका समाधान - चूंकि दीर्घ निषेकोंकी निर्जरा हो जाती है, कालका प्रतिषेध किया गया है ।
काल द्वारा बहुत अतः इस बातका
एक-दो पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेपर पर्याप्त हुआ जीव आयुबन्धके योग्य नहीं होता, किन्तु सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ही आयुबन्धके योग्य होता है; इस बातका ज्ञान करानेके लिये ' सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्तक हुआ ' ऐसा कहा है ।
अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा फिर भी जलचरों में परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधता है ॥ ४१ ॥
पर्याप्तियों को पूर्ण कर चुकने के समय से लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्त नहीं बीतता है तब तक कदलीघात नहीं करता, इस बातका ज्ञान कराने के लिये अन्तर्मुहूर्त ' पदका निर्देश किया है ।
शंका- इसके नीचे भुज्यमान आयुका कदलीघात क्यों नहीं करता ? समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
शंका -- कदलीघात के विना अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा परमचिक आयु क्यों नहीं बांधी जाती ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी माधसे अधिक आवाधाके रहते हुए परभविक आयुका बन्ध नहीं होता ।
" २, ४, ४१.
किया जाता है ?
गोकुच्छायें गल जानेसे बहुत प्रतिषेध करनेके लिये उत्कृष्ट
१ अ आ-काप्रतिषु ' पुषाहि ' इति पाठः । २ अन्तर्मुहूर्तेन पुनरपि परमत्रसम्बन्धि पूर्व कोटवायुष्यं जलचरेषु पति मो. नौ. ( जी. प्र. ) २५८. ३ अ आ-काप्रतिषु ' मंजमाणाउअस्स ' इति पाठः ..
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४, २, ४, ४१. 1
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ २४१
भावादो | जीविदूणागदआउगस्स अद्धमेत्ताए तत्तो ऊणाए वि आबाधाए आउअं बंदि अहियाए ण बंदि ति कधं णव्वदे ! पुव्वकोडितिभागमेत्ता चेव आउअस्स उक्कस्साबाहा होदिति कालविहाणसुत्तादो' । एत्थतणपढमागरिसकालादो पुव्वकोडितिभागमाबाईं काऊण आउअं बंधमाणस्स पढमागरिसकालो बहुमो ति तत्थ परभवियाउअबंधो किण्ण कीरदे ? ण, पढमागरिसकालादो पुव्वकोडितिभागपढमागरिसकालस्स संखेज्जदिभागाहियतादो | ण च संखेज्जदिभागलाई पडुच्च भुंजमाणाउअस्से बे-तिभागे गालिय तिभागावसेसे आउअबंधं काउं जुत्तं, फलाभावा दो । तदो एत्थेव बंधो कायव्वा । एत्थ जीविदूणागदअर्द्ध' मोचूण दिवस-वासादिआबाहं काऊण परभवियाउए बज्झमाणे पयडि - विगिदिगोवुच्छाओ सण्हा होतॄण गलति त्ति दीहाबाहाए लाहे * संते वि जीविदर्द्ध' चैव आबाहूं
शंका जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी आधी या इससे भी कम आबाधा के रहनेपर आयु बंधती है, अधिकमें नहीं बंधती; यह किल प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- 'पूर्वकोटिके तृतीय भाग मात्र ही आयुकी उत्कृष्ट भाषाधा होती है " इस कालविधानसूत्र से जाना जाता है ।
विशेषार्थ — आशय यह है कि एक पर्याय में जितनी आयु भोगी जाती है उसका त्रिभाग या इससे भी कम शेष रहनेपर आयु कर्मका बन्ध होता है, इसके पहले नहीं । यही कारण है कि प्रकृत में पहले कदलीघात कराया और पश्चात् आयु कर्मका बन्ध कराया ।
शंका- यहां के प्रथम अपकर्ष काल की अपेक्षा पूर्वकोटित्रिभागको आबाधा करके आयुको बांधनेवाले जीवके जो प्रथम अपकर्षकाल प्राप्त होता है वह बहुत है, अतः उसमें परभविक आयुका बन्ध क्यों नहीं कराया जाता ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, यहां के प्रथम अपकर्षकालसे पूर्वकोटित्रिभाग के समय प्राप्त हुआ प्रथम अपकर्षकाल संख्यातवें भाग अधिक है । परन्तु संख्यातवें भाग मात्र लाभको ध्यान में रखकर भुज्यमान आयुके दो त्रिभागोंको गलाकर एक त्रिभाग के अवशेष रहनेपर आयुका बन्ध कराना युक्त नहीं है, क्योंकि, उसका कोई फल नहीं है । इसलिये यहां ही बन्ध कराना चाहिये ।
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यहां जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उससे यहां आधी आबाधा है, इस बातको छोड़कर दिन व वर्ष आदिको आबाधा करके परभविक आयुको बांधनेपर प्रकृति व विकृति स्वरूप गोपुच्छाएं सूक्ष्म होकर गलती हैं । इस प्रकार दीर्घ आबाधाका लाभ
१ . नं. ( जीवट्ठाण - चूलिया ) ६ सूत्र २३, २७. २ अ-आपत्योः ' यंजमाणाउअस्स', काप्रतौ ' गुंजमाणा अस्स ' इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु ' अत्थं ' इति पाठः । ४ प्रतिषु ' आहे ' इति पाठः । ५ अ-आकाप्रति जीविदध्वं ', ताप्रतौ ' जीवदव्त्रं ' इति पाठः । छ. वे. ३१.
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२४२ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ४२.
काऊण आउअं बंधावेंतो भूदबलिआइरियो जाणावेदि जहा जीविदद्धादो अहिया आबादा णत्थि ति । अण्णाउअबंधगद्धार्द्दितो जलचराउअबंधगद्धा दीहा त्ति कट्टु पुणरवि जलचरेसु पुष्वकोडाउअं बंधाविदो । कधमेदं नव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो, अण्णा पुरवि जलचरेसु पुष्वकोडाउअबंधणियमे फलाभावाद । पुव्वकोडीदो थोवाउवजलचरेसु आउअं किण्ण बंधाविदो ? ण, जलचरपुव्वको डाउअबंधगद्धं मोसूण अण्णासिं तदद्धाणमेत्थ बहुत्ताभावादा |
दीहार आउ अबंधगद्धाए तप्पा ओग्गउक्कस्सजोगेण बंधदि
॥ ४२ ॥
सुगममेदं ।
जोगजवमज्झस्स उवरि अंतोमुहुत्तमच्छिदो ॥ ४३॥ एदं पि सुगमं ।
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ ४४ ॥
होनेपर भी जितना जीवित काल व्यतीत हुआ है उससे आधेको ही आबाघा करके आयुका बन्ध करानेवाले भूतबलि आचार्य ज्ञापन कराते हैं कि जितना जीवित काल गया है उससे आधे से अधिक आबाधा नहीं होती । अन्य आयुबन्धककालोंसे जलचरोंकी मायुका बन्धककाल दीर्घ है, ऐसा समझ कर फिर भी जलचरोंमें पूर्वकोटि प्रमाण आयुका बन्ध कराया है ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान --- इसी सूत्र से जाना जाता है, अन्यथा फिरसे जलचरों में पूर्वकोटि प्रमाण आयुबन्धके नियमका कोई प्रयोजन नहीं रहता ।
शंका- पूर्वकोटिसे स्तोक आयुवाले जलचरोंमें आयुको क्यों नहीं बंधाया ?
समाधान —— नहीं, क्योंकि, जलचरोंमें पूर्वकोटि प्रमाण आयुके बन्धक कालको छोड़कर अन्य बन्धककाल बड़े नहीं पाये जाते ।
दीर्घ आयुबन्धककालके भीतर उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे बांधता है ॥ ४२ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
योगयवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा ॥ ४३ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तर में आवली के असंख्यातवें भाग काल तक रहा ॥४४॥
१ तदा दीर्घायुर्बन्धाद्धया तत्प्रायोग्यसंक्लेशेन तत्प्रायोग्योत्कृष्टयोगेन च बध्नाति । गो. जी. ( जी. प्र. ) १५८.
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४, २, ४, ४६.1 वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त
सुगममेदं । बहुसो बहुसो सादद्धाए जुत्तों ॥४५॥
सादबंधणपाओग्गकालो सादद्धा णाम । असादबंधणपाओग्गसंकिलेसकालो असादद्धा णाम । तत्थ सादद्धाए बहुवार परिणामिदो ओलंघणाकरणेण गलमाणदव्वपडिसेहहूँ ।
से काले परभवियमाउअं पिल्लेविहिदि त्ति तस्स आउअवेयणा दव्वदो उक्कस्सा ॥४६॥
विगिदिसरूवेण गलमाणदव्वमेगसमयपबद्धादो बहुअं, तेण परभविआउअबंधे अपारद्धे चेव उक्कस्ससामित्तं दादव्वमिदि १ ण, विगिदिगोवुच्छादो समयं पडि दुक्कमाणसमयपबद्धस्स संखेज्जगुणतुवलंभादो । तं कधं णबदे १ सुत्तारंभण्णहाणुववत्तीदो पुरदो भण्णमाणजुत्तीदो च ।
यह सूत्र सुगम है। बहुत बहुत बार साताकालसे युक्त हुआ ॥ ४५ ॥
सातावेदनीयके बन्धके योग्य कालका नाम साताकाल है । असातावेदनीयके बन्धके योग्य संक्लेशकालका नाम असाताकाल है । उनमेसे अवलम्बन करण द्वारा गलनेवाले द्रव्यका प्रतिषेध करने के लिये साताकालके द्वारा बहुत बार परिणमाया ।
तदनन्तर समयमें परभव सम्बन्धी आयुकी बन्धव्युच्छित्ति करेगा, अतः उसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ ४६ ।।
__शंका - विकृति स्वरूपसे गलनेवाला द्रव्य एक समयप्रबद्धके द्रव्यसे बहुत होता है, अतः परभविक आयुबन्धके प्रारम्भ होनेके पहले ही उत्कृष्ट स्वामित्व देना चाहिये?
समाधान- नहीं, क्योंकि, विकृतिगोपुच्छसे प्रत्येक समय में प्राप्त हुआ समयप्रबद्धका द्रव्य संख्यातगुणा होता है। ' शंका -- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- क्योंकि ऐसा माने विना सूत्रका प्रारम्भ करना ही नहीं बनता, इससे तथा आगे कही जानेवाली युक्तिसे यह जाना जाता है कि विकृतिगोपुच्छासे प्रत्येक समयमें प्राप्त हुआ समयप्रबद्धका द्रव्य संख्यातगुणा है।
, योगश्वरमजीवो बहुशः साताद्धया सहितः । गो. जी. (जी. प्र.) २५८.
२ अनन्तरसमधे आयुर्वन्धं निलिम्पति इत्येवं तज्जीवानां आयुर्वेदनाद्रव्यं च उवासंचयं भवति । गो. जी. (जी. प्र.) २५८. १ अप्रतौ — बहुअंतरेण ' इति पाठः ।
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२४४ ]
Drastra daणाखंड
[ ४, २, ४, ४६.
संपधि एत्थ उवसंहारो उच्चदे । को उवसंहारो ? पुव्वकोडितिभागम्मि उक्कस्साउ अबंधगद्धाए तप्पा ओग्गउक्करसजोगेण परभवियाउअं बंधिय जलचरे सुप्पज्जिय छ - पज्जत्तीओ समाणिय अंत मुहुत्तं गंतूण पुणो जीविदूणागद अंतोमुहुत्तद्धपमाणेण उवरिममंतोमुहूतूण पुव्वको डाउअं सव्वमेगसमएण सरिसखंड कदलीघादेण घादिदूण घादिसमए चैव पुणो अण्णेगपरभवियपुव्वको डाउअस्स जलचर संबंधियस्स बंधमाढविये उक्कस्साउअबंधगद्धाए तप्पा ओग्गउक्कस्सजोगेण य बंधिय से काले बंधसमत्ती होइदि त्ति ठिदस्स आउअदव्वपमाणपरिक्खा उपसंहारो णाम । तं जहा - एगसमयपबद्धं उक्कस्सजोगागदं ठविय दुगुणिदमुक्कस्सबंधगद्धाए गुणिदे उक्कस्सदोबंधगद्धामेत्तसमयपबद्ध होंति । एदे पुध ठविय एत्थ पद - विगिदिसरूवेण गलिदभुंजमाणाउअणिसेगेसु अवणिदेसु अवणिदसेस माउअस्स उक्कस्सदव्वं होदि ।
अब यहां उपसंहार कहते है । शंका- उपसंहार किसे कहते हैं ?
समाधान - पूर्व कोटि के त्रिभागमें उत्कृष्ट आयुबन्धककालके भीतर उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे परभव सम्बन्धी आयुको बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न होकर छह पर्याप्तियोंको पूर्ण करके अन्तर्मुहूर्त बिताकर जीवित रहते हुए जो अन्तर्मुहूर्त काल गया है उससे अर्ध मात्र आगेका अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण उपरिम सब आयुको एक समयमे सदृश खण्डपूर्वक कदलीघातसे घातकर घात करने के समय में ही पुनः जलचर सम्बन्धी अन्य एक परभविक पूर्वकोटि प्रमाण आयुका बन्ध प्रारम्भ करके उत्कृष्ट आयुबन्धककाल में उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे बन्ध करके अनन्तर समयमें बन्धकी समाप्ति होगी. अतः स्थित हुए जीवके आयुद्रव्य के प्रमाणकी परीक्षाको उपसंहार कहते हैं ।
विशेषार्थ - आशय यह है कि जिसने उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त बाद पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट संचयवाली भुज्यमान आयुका जिस समय में कदलीघात किया उसी समय से लेकर वह पुनः एक पूर्वकोटि प्रमाण आयुका उत्कृष्ट बन्धककाल द्वारा उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करने लगा । उसके नवीन बन्धके अन्तिम समयमें आयु कर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय पाया तो अवश्य जाता है, पर वह कितना होता है, इस उपसंहार प्रकरण द्वारा इसी बातका विचार किया गया है ।
यथा - उत्कृष्ट योगसे आये हुए एक समयप्रबद्धको द्विगुणित रूपसे स्थापित कर उत्कृष्ट बन्धककालसे गुणित करनेपर उत्कृष्ट दो बंधककाल प्रमाण समयप्रबद्ध होते हैं | इनको पृथक् स्थापित कर इनमेंसे प्रकृति और विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण हुए भुज्यमान आयुके निषेकोको कम करनेपर कम करनेसे जो शेष रहता है वह आयुका उत्कृष्ट द्रव्य होता है ।
1
१ अ-आमत्योः ' बंधमाधविय ' इति पाठः ।
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१, २, ४, ४६ ] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्त
तत्थ ताव पयडिसरूवेण गलिददव्वपमाणं उच्चदे । तं जहा- एगसमयपषद्धं ठविय पुवकोडीए भागे हिदे मज्झिमणिसेगो आगच्छदि, पुवकोडिदीहत्तेण ठिदआउअणिसेगाणं मूलग्गसमासं काऊण अद्धिदे पुव्वकोडिमेत्तमज्झिमणिसेगाणमुप्पत्तीदो । कधमेत्थ मूलग्गसमासो कीरदे ? पुवकोडिपढमगोवुच्छ पेक्खिदूग चरिमगोउच्छा रूवूणपुरकोडिमेत्तगोवुच्छविसेसेहि ऊणा । तं पेक्खिदृण पढमगोवुच्छा वि तत्तियमेत्तगोवुच्छविसेसेहि अहिया, एत्थ एगगुणहाणिअद्धाणाभावादो। पुणो चरिमणिसेयादो अहियगोवुच्छविसेसे तच्छेदण पुध ठविदे पुवकोडिदीहमेत्ता चरिमणिसेया पार्वति । अवणिदविसेसा वि
विशेषार्थ- एक साथ आयु कर्मका उत्कृष्ट संचय कितना होता है, यह बात यहां दिखलाई गई है। युगपत् दो आयुओंका सत्त्व पाया जा सकता है एक भुज्यमान आयुका, और दूसरी बध्यमान आयुका । एक ऐसा जीव लो जिसने पूर्व भव में सबसे बड़े बन्धककाल द्वारा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगसे जलचरोंकी एक पूर्वकोटि प्रमाण आयुका बन्ध किया था। पुनः वह मर कर जलचर हुआ। फिर उसके अति स्वल्प काल द्वारा पर्याप्त होनेपर एक अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् वह जिस समयमें कदलीघातपूर्वक आयु की अपवर्तना करता है उसी समयमें आगामी आयुके बन्धका प्रारम्भ भी करता है। और इस प्रकार आयुबन्धके अन्तिम समय में उसके आयकर्मका उत्कृष्ट संचय देखा जाता है। यहां दो उत्कृष्ट बन्धक कालोंके भीतर जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योग द्वारा दो आयुकौका संचय हुआ है उसमेंसे केवल भुज्यमान आयुकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रकृति और विकृति स्वरूप गोपुच्छाओंका गलन होता है, शेष सब द्रव्य नवीन बन्धके अन्तिम समयमें सत्त्व रूपसे पाया जाता है । यही आयु कर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय है।
उसमें पहिले प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण हुर द्रव्यका प्रमाण कहते हैं । यथा-एक समयप्रबद्ध को स्थापित कर उसमें पूर्वकोटिका भाग देनेपर मध्यम निषेकका प्रमाण आता है, क्योंकि, पूर्वकोटिके समय प्रमाण जो आय कर्मके निषेक स्थित हैं उनमेंसे प्रथम और अन्तिम निषेकका योग कर आधा करने पर वे पूर्वकोटिके समय प्रमाण मध्यम निषेक रूपसे उत्पन्न होते हैं। _ शंका-- यहां मूल और अन निषेकका योग कैसे किया जाता है ?
समाधान- पूर्वकोटिकी प्रथम गोपुच्छाकी अपेक्षा अन्तिम गोपुच्छा एक कम पूर्वकोटि मात्र गोपुच्छविशेषोंसे न्यून है । और उस अन्तिम गोपुच्छाको देखते हुए प्रथम गोपुच्छा भी उतने ही गोपुच्छविशेषोंसे अधिक है, क्योंकि, यहां एक गुणहानि स्थान नहीं हैं। पुनः पूर्वकोटि प्रमाण सब निषेकासे आन्तिम निषेकसे अधिक जितने गोपुच्छाविशेष हों उन्हें छीलकर पृथक् स्थापित करनेपर पूर्वकोटिके समय प्रमाण अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं और अलग किये हुए
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२४६ छक्खंडागमे वेयणाखंड
।४, २, ४, ४६. एगादिएगुत्तरकमेण रूवूणपुव्वकोडिआयामेण चेटुंति ।
पुणो एदेसिं विसेसाणं समकरणं कस्सामा । तं जहा- बिदियणिसेयम्मि अवणिदविसेसेसु दुचरिमणिसेयम्मि अवणिदएगविसेसे पक्खित्ते रूबूणपुवकोडिमेत्ता विसेसा होति । तिचरिमंगोवुच्छादो अवणिददोगोवुच्छविसेसे तदियम्मि गोउच्छम्मि अवणिदविसेसेसु पक्खित्ते एदे वि तत्तिया चेव होति । एवं सव्वविसेसे घेत्तूण परिवाडीए पक्खित्ते रूऊणपुवकोडिमेत्तगोवुच्छविसेसविक्खंभं पुव्वकोडिअद्धायामखेत्तं होदूण चेट्ठदि । पुणो एदं मज्झम्मि पाडिय उवरि संधिदे मज्झिमगोवुच्छम्मि अवणिदगोउच्छविसेसविक्खंभ-पुरकोडिआयाम
खेत्तं होदि । एद' चरिमणिसेगविक्खंभ-पुव्वकोडिआयामखेत्तम्मि आयामेण संधिदे मज्झिमजिसेगविक्खंभं पुवकोडिआयामं खेत्तं होदि । एसो मूलग्गसमासत्थो। तेण कारणेण पुवकोडीए समयपबद्धे भागे हिंदे मज्झिमणिसेगो आगच्छदि ति उत्तं ।
गोपुच्छविशेष भी एक आदि एक अधिकके क्रमले एक कम पूर्वकोटिके समय प्रमाण प्राप्त होते हैं।
विशेषार्थ-कर्मभूमिज मनुष्य या तिर्यच आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटिसे अधिक नहीं होता। और एक गुणहानिका आयाम कमसे कम भी पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है । इसीसे यहां एक गुणहानिआयामका निषेध किया है।
___ अब इन गोपुच्छविशेषोंका समीकरण करते हैं । यथा - द्वितीय निषेकमें से निकाले हुए विशेषों में द्विचरम निषेकमैसे निकाले हुए एक विशेषको मिलानेपर एक कम पूर्वकोटिके समय प्रमाण विशेष होते हैं । त्रिचरम गोपुच्छामें से निकाले हुए दो गोपुच्छविशेषोंको तृतीय गोपुच्छमेंसे निकाले हुए विशेषों में मिलानेपर ये भी उतने (एक कम पूर्वकोटिके समय प्रमाण ) ही होते हैं। इस प्रकार सब विशेषों को ग्रहण कर परिपाटीसे रखने पर एक कम पूर्वकोटिके समय प्रमाण गोपुच्छविशेष विस्तारवाला और पूर्वकोटिके जितने समय हो उनके अर्ध भाग प्रमाण आयामवाला क्षेत्र होकर स्थित होता है। फिर इसे बीचमेंसे फाड़कर ऊपर मिला देनेपर मध्यम गोपुच्छ में से निकाले हुए जितने गोपुच्छविशेष हो उतने विस्तारवाला और पूर्वकोटि आयामवाला क्षेत्र होता है। फिर इसे अन्तिम निषेक प्रमाण विस्तारवाले और पूर्व कोटि प्रमाण आयामवाले क्षेत्रमें आयामकी ओरसे मिलानेपर मध्यम निषेक प्रमाण विस्तारवाला और पर्वकोटि आयामवाला क्षेत्र होता है। यह मूलाग्रसमासका अर्थ है। इस कारण पूर्वकोटिका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर मध्यम निषेक आता है, ऐसा कहा है।
विशेषार्थ- यहां एक पूर्वकोटिके कुल समयों में उत्तरोत्तर चय कम निषेक क्रमसे बटे हुए कुल द्रव्यको मध्यम निषेकके कमसे करके बतलाया गया है। उदाहरणार्थ एक पूर्वकोटिके कुल समय ८ कल्पित किये जाते हैं। मान लो इनमें
१ तापतौ 'होतिति । चरिम-' इति पाठः। २ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ४६.]
वेयणमहाहियारे वेयणदध्वविहाणे सामित्तं
[२४७
__संपहि पुत्वकोडिं विरलिय समयपबद्धं समखंडं करिय दिणे रूवं पडि मज्झिमणिसेगपमाणं पावदि । पुणो हेट्ठा मज्झिमगोवुच्छाए णिसगभागहार विरलेऊण मज्झिमगोवुच्छं समखंडं करिय दिण्णे एगेगविसेसो पावदि । पुणो मज्झिमगोवुच्छं पढमगोवुच्छाए सोहिदे सुद्धसेसमेत्तविसेसेहि णिसेगभागहारमवहरिय लद्धं विरलिय उवरिमविरलणाए पढमरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे ओवट्टणरूवमेत्तविसेसा पावेंति । पुणो एदेसु उवरिमरूवधरिदेसु समयाविरोहेण पक्खित्तेसु पढमणिसेयपमाणं होदि, भागहारम्मि एगरूवपरिहाणी च लब्भदि । एवं पुणो पुणो समकरणं कायव्वं जाव सव्वो समयपबद्धो पढमणिसेयपमाणेण कदो त्ति । रूवाहियदेट्टिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लव्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धमेगरूवस्स असंखेज्जदिभागं
कुल द्रव्य १८, २०, २२, २४, २६, २८, ३० और ३२ इस क्रमसे दिया गया है। इसलिये मध्यम धन १८ + ३२ = ५०, ५०२ = २५ आयगा, जो कुल द्रव्यकी अपेक्षा २५, २५, २५, २५, २५, २५, २५, २५ इस क्रमसे होगा । इसे लानेकी विधि ही यहां दिखलाई गई है। वह दिखलाते हुए पहले चय धनको अलग कर लिया गया है जिससे कुल धन इस रूपमें स्थापित होता है -
१८ फिर चयधनको समान रूपसे आठ स्थानों में जोड़ कर आठ स्थानों में २८ २ स्थित अन्तिम निषकोंमें मिला दिया गया है। मिलानेकी विधि मूलमें १८ २२ दिखलाई ही है। १८ २२२ अब पूर्वकोटिका विरलन कर एक समयप्रबद्धको समखण्ड करके १८ २२२२ देनेपर प्रत्येक एकके प्रति मध्यम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता १८ २ २ २२५ है । फिर उसके नीचे मध्यम गोपुच्छके निषेकभागहारका १८ २२२२२२ चिरलन कर मध्यम गोपुच्छको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक
१८ २२ २ २ २ २ २ एकके प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है । फिर मध्यम गोपुच्छको प्रथम गोपुच्छमेंसे कम करनेपर जो शेष रहे उतने मात्र विशेषोंसे मध्यम निषेकभागहारको भाजित कर जो प्राप्त हो उसका विरलन कर उपरिम विरलनके प्रथम अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर अपवर्तन रूप मात्र विशेष (मध्यम गोपुच्छ प्राप्त करने के लिये प्रथम गोपुच्छमेंसे जितनी संख्या कम की गई है उसका प्रमाण) प्राप्त होते हैं। पुनः इनका उपरिम विरलनके प्रत्येक एक प्रति प्राप्त राशिमें यथाविधि प्रक्षेप करनेपर प्रथम निषेकका प्रमाण होता है और भागहार में एक अंककी हानि पायी जाती है। इस प्रकार जब तक सब समयप्रबद्ध प्रथम निषेकके प्रमाणसे नहीं किया जाता तब तक समीकरण करना चाहिये। एक अधिक अधस्तन विरलन राशि मात्र स्थान जाकर यदि एक अंकी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन राशिमें क्या माप्त होगा, इस प्रकार फलगुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे भाजित करके एक
१ प्रतिषु ' अखं ' इति पाठः।
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२४८ ]
पुत्र कोडीए' अवणिदे पढमणिसे गभागहारो होदि ।
संपधि पढमसमय पहुडि जाव परभविआउअबंधपाओग्गपढमसमयो ति ताव एत्थ पगडिसरूवेण गलिददव्वमिच्छामो त्ति एदेण अद्धाणेण पढमणिसयभागद्दारमोवट्टिय लद्धं विरलेदूण समयपबद्धं समखंड करिये दिण्णे रूवं पडि चडिदद्धाणमेत्तपढमणिसेया पावेंति । पुणो चडिदद्भाणगुणिदणिसगभागहारं विरलेदूण उवरिमेगरूवधरिदं समखंड करिय दि एगेगविसेसो पावदि । संपधि रूवूणचडिदद्धाणं संकलणाएं ओवट्टिय विरलेदूण तं चैव समखंडं करिय दिण्णे अहियगोवुच्छविसेसा पावेंति । पुणो एदे उवरिमसव्वरूवधरिदेसु अवणेदव्वा । सेसमिच्छिददव्वं होदि । अवणिदविसेसेसु तप्पमाणेण कीरमाणेसु जेत्तिया सलगाओ होंति तासिं प्रमाणं उच्चदे । तं जहा- रूवूणहेट्ठिमविरलणमेत्तविसेसेसु जदि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छमोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलणाए पक्खिविय समयपषद्धे भागे हिदे एगसमयपबद्धस्स संखे
छक्खंडागमे वैयणाखंड
रूपके असंख्यातवें भाग प्रमाण लब्धको पूर्वकोटिमेंसे घटा देनेपर प्रथम निषेकका भागहार होता है ।
अब प्रथम समयसे लेकर परभव सम्बन्धी आयुको बांधने के योग्य प्रथम समय तक यहां प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यको लाना चाहते हैं, अतः इस कालके प्रमाणसे प्रथम निषेकके भागहारको अपवर्तित कर जो प्राप्त हो उसका विरलन कर समयप्रबद्ध मे समखण्ड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति प्रथम समयसे लेकर आयुबन्ध होनेके प्रथम समय तक जितना काल हो उतने प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं । पश्चात् प्रथम समयसे लेकर आयुबन्ध होनेके प्रथम समय तक जितना काल हो उससे गुणित निषेकभागहारका विरलन कर उपरिम विरलन के प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर एक एक विशेष प्राप्त होता है । अब एक कम चढ़ित अध्वानको संकलनासे अपवर्तित कर जो लब्ध हो उसका विरलन करके और उसको ही समखण्ड करके देनेपर अधिक गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं । पश्चात् इनको उपारम विरलन के सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशिमेंसे कम करना चाहिये । इस प्रकार जो शेष रहे वह इच्छित द्रव्य होता है । तथा अपनीत विशेषोंको उसीके प्रमाणसे करनेपर जितनी शलाकायें होती हैं उनका प्रमाण कहते हैं । यथा— एक कम अधस्तन विरलन मात्र विशेषों में यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन मात्र विशेषों में क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर जो लब्ध हो उसे उपरिम विरलन में जोड़कर समयप्रबद्ध में भाग देनेपर एक समय
१ प्रतिषु भागपुथ्वकोडीए' इति पाठः ।
[ ४, २, ४, ४६
f
२ प्रतिषु चढिदवाणसंकलणाए ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[२४९ ज्जदिभागो आगच्छदि । एसो एगसमयपबद्धादो पगडिसरूवेण गलिदो । एगसमयपबद्धस्स जदि एत्तियं पगडिसरूवेण गलिददव्वं लब्भदि तो उक्कस्सबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए आवलियाए संखेज्जदिभागमेत्ता पगडिसरूवेण गलिदसमयपबद्धा लभंति, उक्कस्सबंधगद्धाए आवलियसलागाहि गुणिदचडिदद्धाणावलियसलागाहिंतो पुव्वकोडीए आवलियसलागाणं संखेज्जगुणत्तादो ।
एदं पयडिसरूवेण गलिददव्वं पुध द्वविय पुणो विगिदिसरूवेण गलिददव्वपमाणपरिक्खा कीरदे । तं जहा- पढमणिसेयभागहारं विरलिय समयपबद्धं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि पढमणिसेयपमाणं पावदि । पुणो हेट्ठा णिसेयभागहारं कदलीघादपढमसमयादो हेट्ठिमअद्धाणेण ओवट्टि विरलिय पढमणिसेगं समखंडं करिय दिण्णे रूवूणचडिदद्धाणमेत्तगोवुच्छविसेसा पार्वति । पुणो एदेसु उरिमविरलणरूवधरिदेहितो अवणिदेसु इच्छिदणिसेगपमाणं होदि । पुणो अवणिदविसेसेसु वि तप्पमाणेण कीरमाणेसु लद्धसलागाण पमाणं वुच्चदे । तं जहा-- रूवूणहेट्ठिमविरलणमेत्तविसेसाणं जदि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि तो
प्रबद्ध का संख्यातवां भाग आता है। यह एक समयबद्ध मेंसे प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण हुआ द्रव्य है। एक समयबद्धका प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण हुआ द्रव्य यदि इतना प्राप्त होता है, तो उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छा राशिको अपवर्तित करनेपर आवलीके संख्यातवें भाग मात्र प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं, क्योंकि, उत्कृष्ट बन्धककालकी आवलीशलाकाओंसे गणित ऐसी चढ़ित अध्वानकी आवलीशलाकाओसे पर्वकोटिकी आवलीशलाकायें .संख्यातगुणी हैं।
इस प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यको पृथक् स्थापित कर पुनः विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यके प्रमाणकी परीक्षा की जाती है। यथा-प्रथम निषेकभागहारका विरलन कर समयप्रवद्धको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर उसके नीचे कदलीघातके प्रथम समयसे नीचे के कालके प्रमाणसे भाजित निषेकभागहारका विरलन कर प्रथम निषेकको समखण्ड करके देनेपर एक कम आगे गये स्थान मात्र गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। पश्चात् इनको उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिमेस घटा देने पर इच्छित निषेकका प्रमाण होता है । पश्चात् कम किये गये विशेषोंको भी उक्त प्रमाणसे करनेपर प्राप्त हुई शलाकाओंका प्रमाण कहते हैं। यथा- एक कम अधस्तन विरलन मात्र विशेषों की यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन मात्र विशे|का क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार
...........................
१ प्रतिषु 'अद्ध ' इति पाठः। छ.वे. ३२.
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[२५० छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ४६. उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणाए पक्खित्ते कदलीघादपढमसमयणिसंगभागहारो होदि ।
संपधि एगसमयपबद्धमस्सिदूण कदलीघादजणिदएगविगिदिगोवुच्छाए भागहारे भण्णमाणे · ताव कदलीघादक्कमो वुच्चदे- जीविदद्धमेत्तायामेण अवसेसआउहिदि आयामणे खंडिय तत्थ पढमखंडादो उवरिमबिदियखंड वियच्चासमकाऊण जहाठिदिसरूवेण पढमखंडपासे रचेदि । तदियादिखंडाणं पि रचणाविही एसो चेव । एवं कदे पढमखंडपढम. णिसेयादो बिदियखंडपढमणिसेगो जीविदद्धमेत्तगोउन्छविसेसेहि ऊो । तदियखंडपढमणिसेगो दुगुणिदजीविदद्धमेत्तगोवुच्छविसेसेंहि ऊणो । चउत्थखंडपढमणिसेगो तिगुणिदजीविदद्धमत्तगोवुच्छाविसेसेहि ऊणो । एवं णेदव्वं जाव चरिमखंडपढमणिसेगो त्ति । अप्पप्पणी पढमणिसेगादो बिदियादिणिसेगा गोवुच्छविसेसेणूणा । एदासिं समाणहिदिगोवुच्छाणं समूहा विगिदिगोवुच्छा णाम । संपहि जीविदर्तण अंतोमुहुत्तूणपुवकोडिअद्धाणे भागे हिदे खंडसलागाओ संखेज्जाओ आगच्छति । जेत्तियाओ खंडसलागाओ तेत्तियमेत्तगोवुच्छसमूहा
प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनमें मिला देनेपर कदलीघातके प्रथम समय सम्बन्धी निषेकका भागहार होता है।
अब एक समयप्रबद्धका आश्रय कर कदलीघातसे उत्पन्न हुई एक विकृतिगोपुच्छाके भागहारका कथन करनेएर पहिले कदलीघातका क्रम कहते हैं-उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर कदलीघातके समय तक जीवित रहनेका जो काल हैं उससे अर्ध मात्र आयामवाली शेष आयुस्थितिको आयामसे खण्डित कर उनमें से प्रथम खण्डसे उपरिम द्वितीय खण्डको उलटे बिना निषेकरचनाके अनुसार ही प्रथम खण्डके पास में स्थापित करता है । तृतीय आदि खण्डोंकी रचनाविधि भी यही है। इस प्रकार करनेपर प्रथम खण्डके प्रथम निषेकसे द्वितीय खण्डका प्रथम निषेक उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर कदलीघात होनेके समय तक जीवित रहनेका जो काल है उससे अर्ध मात्र गोपुच्छविशेषोंसे कम है। तृतीय खण्डका प्रथम निषेक दुगुने उक्त काल मात्र गोपुच्छविशेषोंसे कम है। चतुर्थ खण्डका प्रथम निषेक तिगुने उक्त काल मात्र गोपुच्छविशेषोसे कम है। इस प्रकार अन्तिम खण्डके प्रथम निषेक तक ले जाना चाहिये। तथा इन खण्डों में अपने अपने प्रथम निषेकसे द्वितीयादि निषेक एक एक गोपुच्छविशेष कम हैं। इस प्रकार इन समान स्थितिवाली गोपुच्छाओंके समूहोंका नाम विकृतिगोपुच्छा है। अब उक्त कालका अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण कालमें भाग देनेपर संख्यात शलाकायें आती हैं। इसलिये जितनी खण्डशलाकाये हों उतने मात्र
, अ-आप्रत्योः 'पटमणिसेय' इति पाठः । २ भ-आ-काप्रतिषु 'भवसेसा आउछिदि आयामेण', ताप्रती बसेसवाद्विदिआयामेण' इति पाठः । ३ताप्रती 'बियरचा समकाऊण' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'विसेसणा' इति पाठः।
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५, २, ४, ४६.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[२५१ विगिदिगोवुच्छा त्ति घेत्तव्वा । एदिस्से विगिदिगोवुच्छाए आणयणं वुच्चदे । तं जहापढमखंडपढमणिसेयस्स भागहारं खंडसलागाहि ओवट्टि विरलिय समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि कदलीघादखंडसलामामेत्तपढमणिसेगा समाणा होदूण पावेंति । पुणो जहासरूवेण आगमणमिच्छामो त्ति हेट्ठा पयदपढमगोवुच्छणिसेगभागहारं खंडसलागाहि गुणिदं विरलिय एगरूवधरिदपमाणमणं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एगेगविसेसो पावदि । एदं च णिच्छिज्जदिति अंतोमुहुत्तादिअंतोमुहुत्तुत्तरसंखेज्जगच्छसंकलणाए संखेज्जपुवकोडिमेत्ताए पुबिल्लभागहारमोवट्टिय विरलेद्ण उवरिमेगरूवधरिदपमाणमण्णं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि पुव्विल्लसंकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा पावेति । एदे उवरिमविरलणसव्वरूवारदेसु पुध पुध अवणदेव्वा । अवणिदसेसं विगिदिगोवुच्छा होदि । पुणो अव
गोपुच्छसमूहों का नाम विकृतिगोपुच्छा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
विशेषार्थ ~ आयुका उत्कृष्ट आवाधाकाल भुज्यमान आयुके तृतीय भाग प्रमाण होता है । प्रकृतमें कदलीघात और आयुबन्धका समय एक है, अर्थात् जिस समय कदलीघात होता है उसी समयसे आसुबन्धका प्रारम्भ होता है, अतः आयुबन्धके समयसे लेकर जो एक तृतीय भाग प्रमाण आयु शेष रही, उतने प्रमाणवाले अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि प्रमाण आयुस्थिति के खण्ड करना चाहिये। इस प्रकार जितने खण्ड हों उन्हें एकके सामने दूसरेको स्थापित करना चाहिये । ऐसा करनेसे जो गोपुच्छा बनेगी वह विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण होगा, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
अब इस विकृतिगोपुच्छ के लाने के विधानको कहते हैं । यथा-प्रथम खण्ड सम्बन्धी प्रथम निषेकके भागहारको खण्डशलाकाओंसे अपवर्तित करने पर जो प्राप्त हो उसका विरलन कर समयबद्धको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलन अंकके प्रति कदलीघातकी खण्डशलाका मात्र प्रथम निषक समान होकर प्राप्त होते हैं । फिर चूंकि यथास्वरूपसे लाने की इच्छा करते हैं अतः नीचे खण्डशलाकाओंसे गुणित ऐसे प्रकृत प्रथम गोपुच्छके निषेकभागहारका विरलन कर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त एक अन्य राशिको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है। यह चूंकि निःशेष क्षीण होता है अतः अन्तर्मुहूर्तसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिकके क्रमसे संख्यात गच्छसंकलनाले, जो कि संख्यात पूर्वकोटि मात्र है, पूर्वोक्त भागहारको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसका विरलन कर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त एक अन्य प्रमाणको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति पूर्वोक्त संकलन मात्र गोयुच्छविशेष प्राप्त होते हैं । इनको सव उपरिम विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिमेंसे अलग अलग घटाना चाहिये। ऐसा करने पर जो शेष रहे वह
, मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'विछाजवि' इति पाठः।
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१५२ ]
खंडागमे वैयणाखंड
[४, २, ४, ४६
णिदगावच्छविसेसेसु तप्पमाणेण कीरमाणेसु उप्पण्णसला गपमाणं उच्चदे - रूवूणहेट्ठिमविरलणमेत्तविसेसाणं जदि एगरूवपक्खेवो लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छमोवट्टिय लद्धं उवरिमविरलणाए सादिरेयजीविदद्धमेत्ताए पक्खिते एगसमयपबद्धस्स पढमविगिदिगोवुच्छभागहारो होदि । एदेण समयबद्धे भागे हिदे पढम - विगिदिगोकुच्छां आगच्छदि । सव्वविगिदिगो वुच्छाणमागमणमिच्छामो त्ति परभवियाउउक्कस्सबंध गए रूवूणाए पढमविगिदिगो वुच्छभा गहारमविट्टिय लद्धं विरलेऊण समयपबद्धं समखंड करिय दिणे रूवूणुक्कस्स बंधगद्धा मे तपढमविगिदिगोवुच्छाओ रूवं पडि पावेंति । एवमेदाओ सरिसा ण होंति, पढमविगिदिगो वुच्छादो बिदियाए संखज्जविसेसपरिहाणिदंसणादो, बिदियादो तदियाए वि खंड सलागमे त्तविसेस परिहाणिदंसणादो | एवं णेदव्वं जाव समऊणुक्कस्सबंधगद्धा त्ति संखेज्जविसेसादिसंखेज्जविसे सुत्तरअंतोमुहुत्तगच्छसंकलनमत्तगच्छविसेसा अहिया जादा ति । एदा सिमवणयणविहाणं बुच्चदे । तं जहा - पुव्वविरलगाए हेट्ठा पढमखंडपढमगो वुच्छणिसेगभागहारम्मि कदलीघादखंडस लागाहि गुणि
मात्र
विकृतिगोपुच्छ होता है । पुनः निकाले हुए गोपुच्छविशेषोंको उसके प्रमाणसे करनेपर उत्पन्न हुई शलाकाओं का प्रमाण कहते हैं - एक कम अधस्तन विरलन विशेषका यदि एक प्रक्षेप अंक प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्र विशेषका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धका साधिक जीवितार्ध मात्र उपरि विरलन में प्रक्षेप करनेपर एक समयबद्ध की प्रथम विकृतिगोपुच्छका भागहार होता है । इसका समयबद्ध में भाग देनेपर प्रथम विकृतिगोपुच्छा आती है । सब विकृतिगोपुच्छाओं के आगमन की इच्छासे एक कम परभविक आयुके उत्कृष्ट बन्धककाल से प्रथम विकृतिगोपुच्छ के भागहारको अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके समयबद्धको समखण्ड करके देनेपर एक कम उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र प्रथम विकृतिगोपुच्छायें विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त होती हैं । इस प्रकार ये विकृतिगोपुच्छायें सदृश नहीं होती हैं, क्योंकि, प्रथम विकृतिगोपुच्छासे द्वितीय में संख्यात विशेषोंकी हानि देखी जाती है, द्वितीयसे तृतीय में भी खण्डशलाका मात्र विशेषोंकी हानि देखी जाती है | इस प्रकार समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल तक संख्यात विशेषोंसे लेकर संख्यात विशेष अधिक के क्रमसे अन्तर्मुहूर्त गच्छोंके संकलन मात्र गोपुच्छविशेषोंके अधिक हो जाने तक ले जाना चाहिये । अब इनके अपनयन के विधानको कहते हैं । यथापूर्व विरलन के नीचे प्रथम खण्ड सम्बन्धी प्रथम गोपुच्छके निषेकभागहारको
• प्रतिषु ' बिदियगोच्छा' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु 'परमवियाउआ ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ४६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ २५३ दम्मि संखज्जपुवकोडीओ अवणिदे एगविगिदिगोवुच्छाए णिसेगभागहारो होदि । तं रूवूणबंधगद्धाए गुणिय विरलेदूण उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एगेगविसेसो पावदि । एदं च एत्थ णिच्छिज्जदि' त्ति पुविल्लसंकलणाए 'पदगतमवैक्या एदेण सुत्तेण आणिदाए णिसँग भागहारमोवट्टिय लद्धं विरलेदूण उवरिमरूवधरिदपमाण समखंडं करिय दिपणे संकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा पावेंति । एदे उवरिमविरलणरूवधरिदेसु अवणेदवा, अवणिदसेस सव्वविगिदिगोवुच्छाओ होति ।
पुणो अवणिदगोवुच्छविसेसेसु तप्पमाणेण कीरमाणेसु उप्पण्णसलागाणयणं उच्चदे । तं जहा - हेट्टिमविरलणरूवूणमेत्तविसेसाणं जदि एगा पक्खेवसलागा लन्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणसंखेज्जरूवेसु पक्खित्ते एगसमयपबद्धमस्सिदूण गट्ठविगिदिगोउच्छाणं भागहारो होदि । एदेण समयपबद्धे भागे हिंदे विगिदिसरूवेण णट्ठदव्वं होदि । एगसमयपबद्धम्मि जदि एगसमयपबद्धस्स संखेज्जदिमागमेत्तं विगिदिसरूवेण णद्व्वं लब्भदि तो उक्कस्सबंधगद्धा
कदलीघातकी खण्डशालाकाओंसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसमें से सख्यात पूर्वकोटियोंको घटानेपर एक विकृतिगोपच्छके निषेकका भागहार होता है। उसको एक कम बन्धकमालसे गुणा करके विरलित कर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एक के प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है । यह चूंकि यहां निःशेष क्षीण होता है, अतः 'पदगतमवैक्या-' इस सूत्रसे लायी हुई पूर्वोक्त संकलनासे निषेकभागहारको अपवर्तित कर जो प्राप्त हो उसका विरलन कर उपरिम विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर संकलन मात्र गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। इनको उपरिम विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिमें ले कम करना चाहिये। कम करनेसे जो शेष रहे उतनी सब विकृतिगोपुच्छायें होती हैं।
पुनः कम किये हुर गोपुच्छविशेषों को उनके प्रमाणले करनेपर उत्पन्न शलाकाओंके लाने को कहते हैं । यथा-रूप कम अधस्तन विरलन मात्र विशेषांक यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन मात्र विशेषों के क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनके संख्यात रूपों मिलानेपर एक समयप्रबद्धका आश्रय कर नष्ट विकृतिगोपुच्छाओंका भागहार होता है । इसका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर विकृति स्वरूपसे नष्ट द्रव्य होता है । एक समयप्रबद्ध में यदि एक समयप्रबद्धके संख्यातवें भाग मात्र विकृति स्वरूपसे नष्ट द्रब्य प्राप्त होता है तो उत्कृष्ट
१ मप्रतौ 'छिज्जदि ' इति पाठः । २ आप्रती 'पदगमवैक्या' इति पाठः । पदगतमवइकउत्तरसमाहद दलिद आदिणा सदिदं । गण्डगुणमुवचिदाणं गणिदसरीरं विणिदिलु ॥ जंबू.प. १२-२१.३ प्रतिषु'अ'इति पाठः।
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२५४)
छक्खंडागमै वैयणाखंड ४, २, ४, १६. मेत्तसमयपषद्धेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवहिदाए आवलियाए संखेज्जदिभागमेत्ता समयपबद्धा विगिदिसरूवेण णट्ठा गच्छंति । णवरि एदं दव्वं पगडिसरूवेण णदव्वादो संखेज्जगुणं, उक्कस्सबंधगद्धाए कदलीघादेण घादिदहेट्ठिमाणं गुणिय पुवकोडीए भागे हिदे जं भागलद्धं तत्तो कदलीघादेगखंडायामेण उक्कस्संबंधगद्धाबग्गे भागे हिंदे जं लद्धं तस्स संखेज्जगुणत्तुवलंभादो । एदाणि दो वि दव्वाणि एक्कदो कदे पगदि-विगिदिसरूवेण णट्ठसव्वदव्वमावलियाए संखेज्जदिभागमेत्ता समयपबद्धा होति । एदम्मि दोबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धेसु सोहिदेसु आउअस्स उक्कस्सदव्वं होदि ।
संपहि समयं पडि गलमाणविगिदिगोवुच्छादो समयं पडि दुक्कमाणसमयपबद्धो संखेज्जगुणो त्ति एदं परूवेमो । तं जहा- पढमफालिपढगगोवुच्छभागहारं किंचूणपुवकोडिं कदलीघादखंडसलागाहि ओवट्टिय रूवस्स असंखेज्जदिमागे पक्खित्ते एगसमयपबद्धस्स विगिदिगोउच्छभागहारो आगच्छदि । पुणो तं भागहारं उक्कस्सबंधगद्धाए ओवट्टिय लद्धेण समयपबद्धे भागे हिंदे समयबद्धस्स संखेज्जदिभागमेता विगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । समयपबद्धो पुण संपुण्णो । तेण णिज्जरादो आगच्छमाणदव्वं संखेज्जगुणमिदिआउअबंध.
बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर आवलीक संख्यातवें भाग मात्र समय प्रबद्ध विकृति स्वरूपसे नष्ट हुए आते हैं। विशेष इतना है कि यह द्रव्य प्रकृति स्वरूपसे नष्ट हुए द्रव्यकी अपेक्षा संख्यातगुणा है, क्योंकि, उत्कृष्ट बन्धककालसे कदलीघात द्वारा धातित अधस्तन अध्वानको गुणित कर पूर्वकोटिका भाग देनेपर जो भागलद्ध हो उससे, कदलीघात सम्बन्धी एक खण्डके आयामका उत्कृष्ट बन्धककालके वर्ग में भाग देनेपर जो लब्ध हो वह, संख्यातगुणा पाया जाता है। इन दोनों ही द्रव्योंको इकट्ठा करनेपर प्रकृति व विकृति स्वरूपसे नष्ट हुआ सब द्रव्य आवलीके संख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्ध प्रमाण होता है। इसे दो बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोंमेंसे कम करनेपर आयुका उत्कृष्ट द्रव्य होता है।
अब प्रति समय गलने वाली विकृतिगोपुच्छासे प्रति समय ढौकमान ( उपस्थित होनेवाला) समयप्रबद्ध संख्यातगुणा है। इसकी प्ररूपणा करते हैं। यथा-प्रथम फालि सम्बन्धी प्रथम गोपुच्छाके भागहार स्वरूप कुछ कम पूर्व कोटिको कदलीघातकी खण्डशलाकाओले अपवर्तित कर लब्धमें एक अंकके असंख्यातवें भागका प्रक्षेप करने पर एक समयप्रबद्धकी विकृतिगोपुच्छका भागहार आता है। पुनः उस भागहारको उत्कृष्ट बन्धककालसे अपवर्तित कर लब्धका समयप्रबद्धमें भाग देनेपर समयप्रबद्धके संख्यातवें भाग मात्र विकृतिगोपुच्छा आती है । पर समयप्रबद्ध सम्पूर्ण है। इसीलिये चूंकि निर्जराकी अपेक्षा आनेवाला द्रव्य संख्यातगुणा है, अतः आयुबन्धककालके अन्तिम
१ अ.भा काप्रतिषु ' . मेचो समयपबद्धा विद्विदि .' तापतौ ' - मेता समयपनद्धा वि हिदि.' इति पाठः ।
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१, २, ४, ४७.] बेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[२५५ गडाचरिमसमए उक्कस्ससामित्तं आवलियाए संखेज्जदिमागमेत्तसमयपबद्धेहि ऊणदुगुणुपकस्सबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धे घेत्तूण दिण्णं ।
तवदिरित्तमणुक्कस्सं ॥४७॥
तदो उक्कस्सादो वदिरित्तदव्यमणुक्कस्सवेयणा । एत्थ अणुक्कस्सदव्वाणं परूवणहमिमा ताव सगल-विगलपक्खेवाणं पमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा- सेडीए असंखेज्जदिभागमत्तउक्कस्सजोगपक्खेवभागहारं उक्कस्सबंधगद्धाए गुणिय विरलेदूण उक्करसबंधगद्वामेत्तसमयपत्रद्धेसु समखंडं कादश दिण्णेसु एककेक्कस्स रुवस्स सगलपक्खेवपमाणं पावदि । एदिस्से विरलणाए सगलपक्खेवभागहारो त्ति सण्णा । एत्थ उक्कस्सजोगेण परिणमणकालो उक्कस्सो' दुसमयमेत्तो चेव। तेग उक्करसजोगपक्खेवभागहारस्स उक्कस्सबंधगद्धा गुणगारो ण होदि ति उत्ते सच्चमेदं, किंतु सामण्णेण उत्तं । विसेसे पुण अवलंबिज्जमाणे जेसु जेसु जोगट्टाणेसु उक्कस्सबंधगद्धा पडिबद्धा तेसिं तेसिं जोगट्ठाणाणं पक्खेवभागहोरे मेलाविय विरलिदे सगलपक्खेवभागहारो होदि। अधवा, आउअउक्कस्सदव्वे
समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व, आवलीके संख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्धोंसे कम दुगुने उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र समयमबद्धोंको ग्रहण कर, दिया गया है।
उससे भिन्न द्रव्य आयुकी अनुत्कृष्ट वेदना है ॥४७॥
उससे अर्थात् उत्कृष्टसे भिन्न द्रव्य अनुत्कृष्ट वेदना है। यहां अनुत्कृष्ट द्रव्योंके प्ररूपणार्थ पहिले यह सकल और विकल प्रक्षेपोंकी प्रमाणप्ररूपणा की जाती है। यथा-श्रेणीके असंख्यातवें भाग मात्र उत्कृष्ट योग सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट बन्धककालसे गुणा करके विरलन कर उत्कृष्ट बन्धककाळ मात्र समयप्रबद्धाको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति सकल प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । इस विरलनकी 'सकल प्रक्षेपभागहार'ऐसी संज्ञा है।
शंका- यहां उत्कृष्ट योग रूपसे परिणमन करनेका उत्कृष्ट काल दो समय मात्र ही है । इसलिये उत्कृष्ट बन्धककाल उत्कृष्ट योग सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारका गुणकार नहीं हो सकता ? |
- समाधान- ऐसी आशंका होने पर उत्तर देते हैं कि यह सत्य है, परन्तु वह सामान्यसे कहा है। विशेषका अवलम्बन करनेपर जिन जिन योगस्थानोंके साथ उत्कृष्ट बन्धककाल प्रतिबद्ध है उन उन योगस्थानोंके प्रक्षेपभागहारोंको मिलाकर विरलन करनेपर सकलप्रक्षेपभागहार होता है । अथवा, आयुके उत्कृष्ट
भ-जा-काप्रति 'उक्कस्सा' इति पाठः। २ प्रतिषु अवलंबिजमाणेण' इति पाउ: ।
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२५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
। ४, २, १, ४७. उक्कस्सबंधगद्धाए ओवट्टिदे आदेसुक्कस्सजोगट्ठाणदव्वं होदि । तस्स पक्खेवभागहारे उक्कस्सबंधगद्धाए गुणिदे सगलपक्खेवभागहारो होदि । एत्थ एगरूवधरिदं सगलपक्खेतो णाम । एगसगलपक्खेवादो पगडि-विगिदिसरूवेण गलिददोदव्वागमणहेदुभूदसंखेज्जरूवे विरलिय सगलपक्खेवं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सयलपक्खेवादो पगडि विगिदिसरूवेण गलिददव्वमागच्छदि । एत्थ एगरूवधरिदं मोत्तूण बहुभागाणं विगलपक्खेव इदि सण्णा ।
पुणो सणिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगमादि कादूण जाव उक्कस्सजोगट्टाणेत्ति ताव एदेसिं जोगट्ठाणाणं पक्खेउत्तरकमेण णिरंतरं गदाणं रचणं कादण अणुक्कस्सदव्वपरूवणं कस्सामो । तं जहा - उक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगाए पुवकोडितिभागम्मि जलचरेसु पुव्वकोडाउअं बंधिदूण कमेण कालं करिय पुवकोडाउअजलचरेसुप्पज्जिय उप्पण्णपढमसमयादो अंतोमुहुत्तं गंतूण जीविदद्धपमाणेण देसूणपुवकोडिआयाममेगसमएण कदलीघादेण घादिय पुणरवि जलचरेसु तप्पाओग्गुक्कस्सजोगेण उकक्स्सबंधगद्धाए च पुव्वकोडाउअबंध पारंभिय बंधगद्धाचरिमसमए वट्टमाणस्स उक्कस्सिया आउवदव्ववेयणा। एत्थ ओलंबणाकरणेण एगपरमाणुम्हि परिहीणे अणुक्कस्सुक्कस्स
.............
द्रव्यको उत्कृष्ट बन्धककालसे अपवर्तित करनेपर आदेश उत्कृष्ट योग स्थानका द्रव्य होता है और उसके प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट बन्धककालसे गुणा करनेपर सकलप्रक्षेपभागहार होता है।
यहां विरलन राशिके एक अंकेके प्रति प्राप्त राशिका नाम सकलप्रक्षेप है । एक सकलप्रक्षेपसे प्रकृति व विकृति स्वरूपसे गले हुए दोनों द्रव्योंके लाने में कारणभूत संख्यात अंकोंका विरलन कर सकलप्रक्षेपको सपखण्ड करके देने पर प्रत्येक एकके प्रति सकलप्रक्षेपों ले प्रकृति व विकृति स्वरूपले गला हुआ द्रव्य, आता है। यहां विरलन राशिके एक अंक के प्रति प्राप्त द्रव्यको छोड़कर वहभागोंकी 'विकलप्रक्षेप' यह संज्ञा है।
पुनः संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य परिणाम योगसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक प्रक्षेप उत्तर क्रमसे निरन्तर गये हुए इन योगस्थानोंकी रचना करके अनुत्कृष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- जो जीव उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालके द्वारा पूर्वकोटिके त्रिभागमें जलचरोंमें पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधकर क्रमसे मरकर पूर्वकोटि आयु युक्त जलचरोंमें उत्पन्न होकर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्त जाकर कुछ कम पूर्वकोटि आयुस्थितिको एक समय कदलीघातसे घात कर और उसे उत्पन्न होने के प्रथम समयसे वहां तक जितना जीवन गया है उसके अर्ध प्रमाण करके फिर भी जलचरोंमें उनके योग्य उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालके द्वारा पूर्वकोटि प्रमाण आयुके बन्धका प्रारम्भ करके बन्धककालके अन्तिम समयमें वर्तमान है उसके आयुद्रव्यकी उत्कृष्ट वेदना होती है। इसमेंसे अवलम्बन करण द्वारा एक परमाणुके हनि होनेपर अनुत्कृष्ट आयुद्रव्यका उत्कृष्ट भेद होता है। उसी करणके
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४, २, ४, ४७. ]
यणमहाहियारे वैयणदष्वविद्दाणे सामित्तं
[ २५७
माउवदव्वं होदि । तेणेव करणेण एदम्हादो दोसु पदेसेसु परिहीणेसु बिदियमणुक्कस्सदव्वं होदि । तिसु परिहीणेसु तदियअणुक्कस्सपदेसट्ठाणं होदि । एवमेगेगुत्तरपदेस परिहाणिकमेण दव्वं जाव एगविगलपक्खेवमेत्तपदेसा परिहीणा त्ति । एवं हाइदूण' चट्ठिदेण' अण्णो जीवो समऊणुक्क सबंध गद्धामेत्तकालं पुव्विल्लणिरुद्धतप्पा ओग्गुक्कस्सजोगेहि बंधिय पुणे एगसमय पक्खेऊणजे गट्ठाणेण बंधिय जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघादं काढूण परभवियाउअं बंधिय उक्कस्सबंधगद्धाचरिमसमयट्ठिदजीवो सरिसो, दोसु वि एगविगलपक्खेवाभावादो । पुल्लिं मो इमं घेतून एग-दोपरमाणु आदिकमेण एगविगलपक्खेवमेत्तपरमाणुपदे साणं परिहाणीए कदाए तत्तियमेत्ताणि चैव अणुक्कस्साणाणि उप्पज्जेति । पुणो देण समऊणुक्कस्सबंधगद्धमित्तकालं तप्पा ओग्गुक्कस्सजोगट्ठाणेहि बंधिय एगसमयं दुपक्खे ऊर्णेजे। गट्ठाणेण बंधिय पयदट्ठाणे ठिदो सरिसो । पुव्विल्लं मात्तूण इमं तू एत्थ एद परमाणुआदिकमेण हीणं करिय दव्वं जाव एगविगलपक्खेवो परिहीणो
द्वारा इस उत्कृष्ट द्रव्यमें से दो प्रदेशोंके हीन होनेपर द्वितीय अनुत्कृष्ट द्रव्य होता है । तीन परमाणुओंके हीन होनेपर तृतीय अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशकी हानिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप मात्र प्रदेशों के हीन होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार हीन होकर स्थित हुर जीवके साथ एक दूसरा जीव, जो एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र कालके भीतर पूर्वोक्त विवक्षित उसके योग्य उत्कृष्ट योगों द्वारा बांधकर पुनः एक समय तक एक प्रक्षेप हीन योगस्थान द्वारा बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न होकर कदलीघात करके परभविक आयुको बांधकर उत्कृष्ट बन्धककालके अन्तिम समयमें स्थित है, सहरा है; क्योंकि, उक्त दोनों ही जीवोंमें एक विकल प्रक्षेपका अभाव है ।
पुनः पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इस दूसरे जीवको ग्रहण कर एक-दो परमाणु आदि के क्रमसे एक विकल प्रक्षेप मात्र परमाणुप्रदेशोंकी हानि करनेपर उतने मात्र ही अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होते हैं ।
पुनः इस जीवके साथ एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र काल तक उसके योग्य उत्कृष्ट योगस्थानों द्वारा बांधकर और एक समय तक दो प्रक्षेप कम योगस्थान द्वारा बांधकर प्रकृत स्थानमें स्थित जीव सदृश है । पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इसे ग्रहण कर यहां एक दो परमाणु आदिके क्रमसे हीन करके एक विकल प्रक्षेपके हीन होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार करनेपर विकल
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'घाइदूण' इति पाठः । २ प्रतिषु ' चेट्टिदेण' इति पाठः । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिष्वतोऽग्रे ' समऊलुक्कस्साङ्काणाणि उपज्जेति पुणो एदेण' इत्यधिकः पाठोऽस्ति | ४ ताप्रतौ ' एगसमयदुपकवूण ' इति पाठः ।
वे. ३३.
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२५८] छकावंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, ४७. त्ति । एवं कदे विगलपक्खेवमेत्ताणि चेव अणुक्कस्सट्ठाणाणि उप्पज्जति ।
जो समऊणुक्कस्सबंधगद्धामेत्तकालं तप्पाओग्गुक्कस्सजोगेण बंधिय पुणो अण्णेगसमए तिपक्खेऊणपुग्विलजोगेण बंधिय बंधगद्धाचरिमसमयहिदो सो एदेण सरिसो ।
' एवं पगदि-विगिदिसरूवेण गलिददव्यभागहारं विरलिये सयलपक्खेवं समखंडं करिय दादूण एदेण पमाणेण उवरिमविरलणसव्यरूवधारदेसु अवणिय तत्थ जत्तिया विगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता जाय परिहायति ताव णेदव्वं ।
___ एत्थ विगलपक्व पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा- हेट्टिमविरलणरूवूणमेत्ताणं पगदि-विगिदिसरूवेण गलिददव्वाणं नदि एगो विगलपक्खवो लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमत्ता विगलपक्खेवा होति । एत्तियमेत्ते विगलपक्खेवे समयाविरोहेण परिहाइदूण ठिदो च अण्णेगो तप्पा. ओग्गुक्कस्सजोगणुक्कस्सबंधगद्धाए जलचरेसु आउअं बंधिय तत्थुप्पज्जिय कदलीघादं काद्ण परभविआउअं बंधमाणो पुविल्लविगलपक्खेवेसु जेत्तिया सगलपक्खेया अस्थि
प्रक्षेप मात्र ही अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होते हैं।
जो जीव एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल तक उसके योग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा बांधकर पुनः दूसरे एक समय तीन प्रक्षेप कम पूर्वोक्त योग द्वारा बांधकर बन्धककाल के अन्तिम समयमें स्थित है वह इस पूर्वोक्त जीवके सदृश है।
इस प्रकार प्रकृति और विकृति स्वरूपसे गले हुए द्रव्यके भागहारका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर जो प्राप्त हो उस प्रमाणसे उपरिम विरलनके सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशिमेंसे घटाकर उसमें जितने विकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र प्रक्षेपोंकी हानि होने तक ले जाना चाहिये।
यहां विकल प्रक्षेपोका प्रमाणानुगम करते हैं । यथा- अधस्तन विरलन मात्र कम ऐसे प्रकृति-विकृति स्वरूपसे गले हुए द्रव्योंका यदि एक विकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्र अंकों में क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र विकल प्रक्षेप होते हैं। इस प्रकार इतने विकल प्रक्षेपोंकी यथाविधि हानि करके स्थित हुआ यह जीव, तथा एक दूसरा जीव जो उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे उत्कृष्ट बन्धककालमें जलचरोंमें आयुको बांधकर उनमें उत्पन्न होकर और कदलीघात करके परभविक आयुको बांध रहा है तथा जो पूर्वोक्त विकल प्रक्षेपोंमें जितने सफल प्रक्षेप हैं
. आप्रतौ — अणेगसमए तिपक्नेऊण', तापतौ ' अण्णेगसमयातपक्खेऊण ' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'विगदि ' इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु : विगलिय ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ४७.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त
[२५९ तेत्तियमेत्तजोगट्ठाणाणि समयाविरोहेण सव्वसमएसु ओहट्टिय ठिदो च दो वि सरिसा।
__संपधि एत्थ सगलपक्खेवबंधणविहाणं' उच्चदे । तं जहा— हेट्ठिमविरलणमेत्ताणं पगडि-विगिदिसरूवेण गलिददव्याणं जदि एगो सयलपक्खेवो लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमेत्ता सयलपक्खेवा होति । एत्तियमेत्तट्ठाणाणि उक्कस्सबंधगद्धाए समयाविरोहेण ओदिण्णाए पुव्विलेण सरिसं होदि त्ति वत्तव्यं । पुणो पुबिल्लं मोत्तूण इमं घेत्तूण एदस्स भुंजमाणाउअम्मि एग-दोपरमाणुआदिपरिहाणिकमेण एगविगलपक्खेवमेत्तअणुक्कस्सट्टाणाणि उप्पादेदव्वाणि ।
पुणो एदेण को सरिसो होदि ति उच्चदे -- समऊणुक्कस्सबंधगद्धाए तप्पाओग्गुक्कस्सजोगेण बंधिय एगसमयं पक्खेऊणजोगेण बंधिय जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघादं कादूण परभविआउअं पुव्वुद्दिट्ठजोगेण बंधिय जो बंधगद्धाचरिमे समए ठिदो सो सरिसो । एदेण कमेण विगलपक्खेवभागहारमेत्तविगलपक्खेवेसु परिहीणेसु रूवूणविगलपक्खेवभागहारमेत्ता
सब समयों में समयाविरोधसे उतने मात्र योगस्थानों को हटा कर स्थित है वह जीव, ये दोनों ही सदृश हैं।
___ अब यहां सकल प्रक्षेपोंके बन्धनकी विधि कहते हैं। यथा- अधस्तन विरलन मात्र प्रकृति व विकृति स्वरूपसे गलित द्रव्योंका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्र उक्त द्रव्योंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार, प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर जो प्राप्त हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं। उत्कृष्ट बन्धककालके भीतर समयाविरोधसे इतने मात्र स्थानों के उतरने पर यह स्थान पूर्वोक्त के सदृश होता है, ऐसा कहना चाहिये।
पुनः पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इसको ग्रहण करके इसकी भुज्यमान आयुमें एक-दो परमाणु आदिकी हानिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप प्रमाण अनुत्कृष्ट स्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये।
अब इसके सदृश कौन होता है, यह बतलाते हैं - एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककालके भीतर उसके याग्य उत्कृष्ट योगसे बांधकर और एक समय तक एक प्रक्षेप कम योग द्वारा बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न होकर व कदलीघात करके परभयिक आयुको पूर्वोद्दिष्ट योगसे बांधकर जो बन्धककालके अन्तिम समयमें स्थित है वह जीव इसके सदृश है।
इस क्रमसे विकल प्रक्षेपक भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंके हीन होने पर एक कम विकल प्रक्षेपक भागहार प्रमाण सकल प्रक्षेपोंकी हानि होती है।
१ प्रतिषु ' विरोधाणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' मेत्तपगडि-' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु 'विगदि इति पाठ
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२९० छक्खंडागमै वैषणाखंड
(१, २, ४, १७. सगलपक्खेवा परिहायति । एवं परिहाइदण ठिदो च, अण्णेगो तप्पाओग्गउक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए च आउअं बंधिय जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघादं कादूण रूवूणुक्कस्सबंधगद्धाए पुव्वणिरुद्धजोगेहि बंधिय एगसमयं पुव्वणिरुद्धजोगादो रूवूणविगलपक्खेवभागहारमेत्तजोगट्ठाणाणि ओसरिदण बंधिय ह्रिदो च सरिसो। एवमादारदव्वं जाव सो समओ तप्पाओग्गाणि असंखज्जाणि जोगट्ठाणाणि ओदिण्णो त्ति । पुणो एदेणेष कमेण विदियसमओ वि असंखेज्जाणि जोगट्ठाणाणि ओदारेदम्बो । एवमुक्कस्सबंधगद्धामेत्तसव्वसमया ओदारेदवा । एवमणेण विधाणेण ताव ओदारेदवो जाव उक्कस्सबंधगद्धामेत्तसव्वसमयाँ जहण्णजोगट्ठाण पत्ता त्ति । पुणो एवमोदरिदण हिदो च, अण्णेगो तप्पाओग्गुक्कस्सजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए आउअंबंधिय जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघादं काऊण परभवियाउअं जहण्णजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए च बंधिय बंधगद्धाचीरमसमयहिदो च, सरिसा । पुणो एदेण. परभवियउक्कस्साउअबंधगद्धागुणिदजहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारमेत्तसयलपक्खेवेहि ऊणनिमिदिगोवुच्छासु जत्तिया सयलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्तदव्वं पुथ्वकोडि
इस प्रकार हानि होकर स्थित हुआ जीव, तथा एक दूसरा उसके योग्य उत्कृष्ट योग व उत्कृष्ट बन्धककाल द्वारा आयुको बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न होकर कदलीघात करके एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल तक पूर्व निरुद्ध योगोंसे बांधकर घ एक समय तक पूर्व निरुद्ध योगसे एक कम विकल प्रक्षेपक भागहार प्रमाण योगस्थान उत्तर कर बांधकर स्थित हुआ जीव सदृश है । इस प्रकार तब तक उतारना चाहिये जब तक उसके योग्य असंख्यात योगस्थान उतरकर घह समय प्राप्त होता है । पुनः इसी क्रमसे द्वितीय समयको भी असंख्यात योगस्थान उतारना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र सब समयोंको उतारना चाहिये । इस प्रकार इस विधानले तब तक उतारना चाहिये जब तक उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र सब समय जघन्य योगस्थानको नहीं प्राप्त हो जाते । पूनः इस प्रकार उतरकर स्थित हुआ जीव, तथा उसके योग्य उत्कृष्ट योगले उत्कृष्ट बन्धककाल तक आयुको बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न होकर कदलीघात करके परभविक आयुको जधन्य योग और उत्कृष्ट बन्धककाल द्वारा बांधकर पन्धककालके अन्तिम समयमें स्थित हुआ अन्य एक जीव, ये दोनों सदृश हैं। पुनः इस जीवके द्रव्यके साथ जघन्य योगस्थान सम्बन्धी प्रक्षेपक भागहारको परभविक उत्कृष्ट आयुके बन्धककालसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उतने सकल प्रक्षेपोंसे रहित विकृति गोपुच्छाओंमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र द्रग्यको
प्रतिषु ' अण्णेण ' इति पाठ । २ अ-मा-काप्रतिषु — समय ', तापतौ ' समय (या)' इति पाठः ।
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४, २, ४, १७ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे समित्त
[२६१ तिभागम्मि जोगोलंषणाकरणवसेणूणं करिय जलचराउअं बंधाविय कमेण जलचरेसुप्पज्जिय पज्जत्तीओ समाणिय कदलीघादेण विणा कदलीघादपढमसमए ठिदस्स दव्वं सरिसं होदि । अधवा, परमवियाउअस्स उक्कस्सबंधगद्धामेत समया उक्कस्सजोगट्ठाणादो जाव जहण्णजोगट्ठाणं ति जहा उत्ता ठिदा तहा पुवकोडितिभागम्मि बंधे भुंजमाणाउपाडेबद्ध उक्कस्साउअधगद्धामेत्तसमया वि जोगोलंबणकरणे अस्सि दूण उक्कस्सजोगट्ठाणादो तप्पाओग्गअसंखेज्जगुणहीणजोगेत्ति ओदारेदध्वा । एवमोदारिय पुणो पच्छा एगविगिदिगोवुच्छाए ऊणेगसमयपद्धम्मि जत्तिया सयलपक्खेया अस्थि तत्तियमेतदव्वेण भुंजमाणाउअमूर्ण करिय ठिदो च अण्णेगो पुत्रकोडितिभागम्मि उक्कस्सबंधगद्धाए तपाओग्गजहण्णजोगेण य आउअं बंधिय जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघादं काऊण जहणजोगेण समऊणुक्कस्सबंधगद्धाए च परभविथमाउअंबंधिय ठिदो' च दो वि सरिसा । एवं जाणिदण परभवियाउअबंधगद्धं जहणं करिय ठिो च अण्णगो पगदिगोउच्छाहियदोहि वि दवेहि समाणं पुवकोडितिभागम्मि आउअं बंधिय जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघाद
पूर्वकोटिके त्रिभागमें योग और अघलम्बन करण द्वारा हान करके जलचरोंमें आयुको बंधाकर क्रमले जलचरोंमें उत्पन्न होकर पर्याप्तियोंको पूर्ण करके कदलीघाप्तके विना कदलीघातके प्रथम समयमें स्थित हुए जीवका द्रव्य, सदृश होता है । अथवा, परभविक आयुके उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र जो समय है वे उत्कृष्ट योगस्थानले लेकर जघन्य योगस्थान तक जैसे कहे गये स्थित हैं वैसे ही पूर्वकोटिके त्रिभागमें बन्धके समय भुजमान आयुके प्रतिबद्ध उत्कृष्ट आयुके बम्धककाल प्रमाण समयोंको भी योग और अवलम्बन करणका आश्रय कर उत्कृष्ट योगस्थानसे लेकर उसके योग्य असंख्यातगुणे हीम योग तक उतारना चाहिये । इस प्रकार उतार कर फिर पीछे एक विकात गोपुच्छसे हीन एक समयप्रबद्ध में जितने सकल प्रक्षेप है उत्तन मात्र द्रव्यसे भुज्यमान आयुको कम करके स्थित हुआ जीव, तथा पूर्वकोटिके त्रिभागमै उत्कृष्ट बन्धककाल द्वारा व उसके योग्य जघन्य योग द्वारा आयुको बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न होकर कदलीघात करके जघन्य योग व एक समय कम उत्कृष्ट गन्धककाल द्वारा परभविक आयुको बांधकर स्थित हुआ मन्य एक जीप, ये दोनों समान हैं । इस प्रकार जानकर परमविक आयुके बन्धक कालको जघन्य करके स्थित हुआ जीव, तथा प्रकृति गोपुच्छ अधिक दोनों ही द्रव्योंके समान पूर्वकोटिके त्रिभागमें आयुको बांधकर जलचरोमें उत्पन्न होकर
मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'बंधभुजमाणा उअ', तापतौ ' बदभुंजमाणाउअ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'मूल' इति पाठः।। मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'बंधगद्धार चरिमपरमविय 'इति पाठः। ४ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-तामतिषु विदो' पति पाः। ५ अ-आ-काप्रतिषु 'दोहि मि, मप्रती दोहिन्मि 'इति पाठः ।
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२६२ छक्खंडागमे धैयणाखंड
(१,२,४,४७. पढमसमए परभवियाउअपंधेण विणा ठिदो च सरिसा ।
एदमेत्थेव ठविय पुणो पगडिसरूवेण गलिददव्यभागहारं विरलिय सयलपक्खेवं समखंड करिय दादूण एत्थ एगरूवधरिदपमाणेणं उवरिमविरलणाए सव्वधरिदेसु अवणिय पुध ढविय तं सगलपक्खये कस्सामो। तं जहा - हेट्ठिमविालणमेत्ताणं जदि एगो सपलपक्खेवो लब्भदि तो उवरिमविरलण मेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण तप्पाओग्गबंधगद्धागुणिदजोगट्ठाणपक्खेवभागहारे भागे हिदे लद्धमेत्ता पगडिसरूवेण णवदध्वम्मि सगल. पक्खेवा होति । एदे पुध हविय पुणो दिवड्डगुणहाणि विरलिय सयलपक्खेवं समखंड करिय दादूण एत्थ एगरूवधरिदपमाणेण उवरिमविरल गसव्वरूवधीरदेसु अवणिय पुध ट्ठविय सगलपक्खेवे कस्सामो - हेट्ठिमविरल गमेत्ताणं जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण तप्पाओग्गबंधगद्धागुणिदजोगट्ठाणपक्खेवभागहारे ओवट्टिदे लद्धमत्ता णेरइयपढमगोवुच्छाए सगलपक्खेवा होति । पुणो एदेहि सगलपक्खेवेहि जोगोलंबर्णकरणवसेण ऊणं कदलीघौदहेट्टिमसमए द्विदतिरिक्खदव्वं एदेण
................
कदलीघातके प्रथम समय में परभविक आयुबन्यके विना स्थित हुआ अन्य एक जीव, ये दोनों समान हैं।
इसको यहां ही स्थापित कर फिर प्रकृति स्वरूपके गले हुए द्रव्यके भागहारका विरलन कर तथा सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देकर फिर इसमेंसे एक अंकके प्रति प्राप्त प्रमाण रूपले उपरिम विरलनके सब विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त राशिमेसे कम करके पृथक स्थापित कर उसके सकल प्रक्षेप करते हैं। यथा- अधस्तन विरलन माओंका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्रोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाण राशिका उसके योग्य बन्धककालसे गुणित योगस्थान सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारमें भाग देनेपर जो प्राप्त हो उतने प्रकृति रूपसे नष्ट हुए द्रव्यमें सकल प्रक्षेप होते हैं । इनको पृथक् स्थापित कर पश्चात् डेढ़ गुणहानिका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देकर इसमें एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त प्रमाण रूपसे उपरिम विरलनके सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशिसे कम कर पृथक् स्थापित कर उन्हें सफल प्रक्षेप रूपसे करते हैं- अधस्तन विरलन मात्रोंका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्रोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार तत्प्रायोग्य बन्धककालसे गुणित योगस्थान प्रक्षेपभागहारमें प्रमाण राशिका भाग देने पर जो लब्ध हो उतने मात्र नारक प्रथम गोपुच्छमें सकल प्रक्षेप होते हैं । पुनः योग और अवलम्बन करण के द्वारा इन सकल प्रक्षेसे हीन कदलीघातके अधस्तन समयमें स्थित तिर्यंच द्रव्य तथा इसके समान योग......................
मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु धरिदसमाणेण' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रति जोगोवलंबण' इति पाठः। ३ प्रतिपु ' ऊणकदली ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ४७.} वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
( २६३ समाणजोगबंधगद्धाहि णिरयाउअं पुब्विल्लपयडिपडिबद्धसयलपक्खेवहितो परिहीणं बंधिय णेरइएसुप्पज्जिय विदियसमयणेरइयदव्वं च सरिस होदि । पुणो इमं मोत्तूण बिदियसमयणेरइयं घेत्तूण एग-दोपरमाणुआदिकमेण परिहीणं कादण अणुक्कस्सट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव सगल-विगलपक्खेवो परिहीणो त्ति । दिवड्डगुणहाणि विरलेदूण सगलपक्खेवं समखंडं कादूण दिण्णे एत्थ एगरूवधरिदं मोत्तूण बहुभागो विगलपक्खेवो होदि। एरिसेसु दिवड्डगुणहाणिमेत्तविगलपक्खेवेसु परिहीणेसु रूवूणदिवड्डगुणहाणिमेत्तसगलपक्खेवा परिहायति । एदेसु सगलपक्खेवेसु जत्तिया विगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ताणि चेा जोगढाणाणि बंधगद्धाए एगो समओ हेट्ठा ओदारेदव्यो । एवं ताव परिहाणी कादव्वा जाव णेरइयबिदियगोवुच्छाए जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता परिहीणो त्ति । पुणो तत्थ सगलपक्खेवाणयणं उच्चदे। तं जहा- दिवड्डगुणहाणि विरलेऊण सयलपक्खेवं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि पढमणिसंगो पावदि । पुणो पढमणिसेगादो बिदियणिसेगो वि विसेसहीणो होदि त्ति एदं विरलणं विसेसाहियं विरलेऊण सयलपक्खेवं समखंडं करिय दिण्णे बिदियगोवुच्छा रूवं पडि पावदि । एदेण पमाणेण सव्वरूवधरिदेसु अवणिय
बन्धककालसे पूर्वोक्त प्रकृतिप्रतिवद्ध सफल प्रक्षेपोंसे हीन नारक आयुको बांधकर नारकियोंमें उत्पन्न होकर द्वितीय समयवर्ती नारकीका द्रव्य, ये दोनों समान हैं। पुनः इसको छोड़कर और द्वितीय समयवर्ती नारकीको ग्रहण करके एक दो परमाणु आदिके क्रमसे हीन करके सकल और विकल प्रक्षेपके हीन होने तक अनुत्कृष्ट स्थानोंको उत्पन्न करान। चाहिये । डेढ़ गुणहानिका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर यहां एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको छोड़कर बहुभाग विकलप्रक्षेप होता है। ऐसे डेढ़ गुण हानि प्रमाण विकल प्रक्षोके हीन होनेपर एक कम डेड गुणहानि मात्र सकल प्रक्षेप हीन होते हैं। इन सफल प्रक्षेपों में जितने विकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र ही योगस्थान तथा बन्धककालमें एक समय नीचे उतारना चाहिये। इस प्रकार नारक द्वितीय गोपुच्छामें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र हीन होने तक हानि करनी चाहिये ।
- अब वहांपर सकल प्रक्षेपोंके लाने की विधि कहते हैं। यथा-डेढ़ गुणहानिका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एकके प्रति प्रथम निषेक प्राप्त होता है। पुनः प्रथम निषेकसे चूंकि द्वितीय निषेक भी विशेष हीन है, अतः इस विरलनसे विशेष अधिकका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समस्खण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति द्वितीय गोपुच्छ प्राप्त होता है । इस प्रमाणसे सब विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त
१ तापतौ । एदेण समएण जोग-' इति पाठः। २ अ-मा-काप्रतिषु 'परिहाणो ' इति पाठः ।
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२६. छपखंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ५, ४७. सगलपक्खेवपमाणेण कस्सामा । तं जहा - हेटिमविरलणमेत्ताणं जींद एगो सयलपक्खेवो लन्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमेत्ता सयलपक्खेवा होति ।
— एत्तियाणं सयलपक्खेवाणं परिहाणिणिमित्तं जोगट्ठाणपरिहाणी केत्तिया होदि त्ति उत्ते उच्चदे- रूवूणदिवड्डगुणहाणिमत्तसयलपक्खेवाणं जदि दिवड्डगुणहाणिमेत्तजोगट्ठाणपरिहाणी लम्भदि तो बिदियगोवुच्छसयलपक्खेवाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणि. दिच्छाए ओवष्टिदाए लद्धमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि परिहायति । पुणो एत्तियजोगट्ठाणाणि पुव्विल्लजोगट्ठाणादो परिहाइदूण पंधिय गैरइयबिदियसमए ठिदो' च पुग्विल्लजोगट्ठाणबंधगद्धाहि णेरइयतदियसमए द्विदो च दो वि सरिसा ।
पुणो पुव्विल्लं मोत्तण इमं घेत्तूण एग-दोपरमाणुआदिकमेण ऊणं करिय अणुक्कस्सट्ठाणाणि एगविगलपक्खेवमेत्ताणि उप्पादेदव्वाणि । एत्थ विगलपक्खेवभागहारो दिवङ्क
द्रव्यमेंसे अपनयन कर उसे सकल प्रक्षेपके प्रमाणसे करते हैं। यथा- अधस्तन विरलन मात्रीका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्रोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाण राशिसे फलगुणित इच्छाका अपवर्तन करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं।
इतने मात्र सकल प्रक्षेपोंकी हानिके निमित्त योगस्थानपरिहानि कितनी होती है, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं- एक कम डेढ़ गुणहानि प्रमाण सकळ प्रक्षेपोंकी यदि डेढ़ गुणहानि मात्र योगस्थानपरिहानि प्राप्त होती है तो द्वितीय गोपुच्छ सम्बन्धी सकल प्रक्षेपोंके निमित्त कितनी हानि प्राप्त होगी, इस प्रकार प्रमाणले फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर जो प्राप्त हो उतने मात्र योग. स्थान हीन होते हैं । पुनः इतने योगस्थान पूर्वोक्त योगस्थानमैसे हीन होकर बांधकर नारक द्वितीय समयमें स्थित हुआ जीव तथा पूर्वोक्त योगस्थान बन्धककालके द्वारा नारक तृतीय समयमें स्थित हुआ जीव, ये दोनों ही सदृश हैं।
पुनः पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इसको ग्रहण कर एक-दो परमाणु आदिके क्रमसे हीन करके एक विकल प्रक्षेप प्रमाण अनुत्कृष्ट स्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये । यहां विकल प्रक्षेपका भागहार डेढ़ गुणहानिके अर्ध भागसे कुछ अधिक है। उसमें
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१ अप्रतौ ' -सयलपक्खेवाणं' इत्यतनपदपर्यन्तोऽयं पाठस्त्रुटितोऽस्ति । २ आप्रतावतोऽने 'परि. हाणिणिमित्तं जोगट्ठाणपरिहाणी केत्तिया होदि ति उत्ते उच्चदे- रूवूणदिवगुण हाणिमेत्तजोगहाणं लन्मदि ति । इत्यधिकः पाठः । ३ अ-आ-काप्रति 'विदो' इति पावः। ४ अ-आ-काप्रति 'सरिसो' इति पाठः ।
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१, २, १, १७. बेयणमहाहियोरे वेयणदवबिहाणे सामित्त गुणहाणीए अद्धं सादिरेयं होदि । तत्थ बहुमागा विगलपक्खेवो होदि'। भागहारमेत विगलपक्खेवेसु परिहीणेसु रूवूणभागहारमेत्ता सयलपखवा परिहायति । एवं ताव परिहाणी कादव्या जाव जत्तिया तदियगोवुच्छाए सयलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता परिहीणा' ति। एवं हाइदण तदियसमये विदो च परिहाणी विणा च उत्थसमए हिदणेरइओ च दो गि सरिसा । एत्थ सगलपक्खेवबंधणविहाणं जोगट्ठाणद्धाणाणयणविहाणं च जाणिदण वक्तव्यं । एवं णेदव्वं जाव दीवसिहापढमसमओ त्ति ।
संपहि एगसगलपक्खेवादो दीवसिहाए पदिददव्वाणयणं उच्चदे । तं जादिवढगुणहाणिगुणिदअण्णोण्णभत्थरासिं' विरलेऊण सयलपक्खेवं समखंडं करिय दिग्णे रूवं पडि चरिमणिसेगपमाणं पावदि । पुणो एवं भागहारं दीवसिहाए ओवट्टिय विरलेऊण सयलपक्खेवं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दीवसिहामेत्तचरिमणिसेगा पावेंति । पुणो देहा दीवसिहागुणिदरूवाहियगुणहाणि रूवूणदीवसिहासंकलणाए ओवट्टिय विरलेदण उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवूणदीवसिहासंकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा रूवं परि
बहुभाग विकल प्रक्षेप होता है। भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेोके हीन होनेपर एक कम भागहार मात्र सफल प्रक्षेप हीन होते हैं। इस प्रकार तब तक हानि करना चाहिये जब तक कि जितने मात्र तृतीय गोपुच्छमें सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र हीन नहीं हो जाते । इस प्रकार हीन होकर तृतीय समय में स्थित हुआ जीव तथा हानिके
नाचतुर्थ समयमें स्थित हुआ नारकी जीव य दोनों ही सदृश है। यहां सकल प्रक्षेपके बन्धनविधान तथा योगस्थानअध्वानके लानेके विधानको जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार दीपशिखाके प्रथम समय तक ले जाना चाहिये।
अब एक सफल प्रक्षेपसे दीपशिखामें पतित द्रव्यके लानेकी विधि कहते हैं। यथा-डेढ़ गुणहानिसे गुणित अन्योन्याभ्यस्त राशिका घिरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति चरम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है। पश्चात इस भागहारको दीपशिखासे अपवर्तित कर विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके इनपर एक अंकके प्रति दीपशिखा प्रमाण घरम निषेक प्राप्त होते है । पश्चात् नीचे दीपशिखासे गुणित एक अधिक गुणहानिको एक कम दीपशिखासंकलनासे अपवार्तत करके विरलित कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति एक कम दीपशिखासंकलना प्रमाण गोपच्छविशेष प्राप्त होते हैं। उनको उपरिम विरलन अकोंके प्रति प्राप्त राशि
१ नापतौ स्खलितोऽत्र पाठः, तापतौ तु 'पिगलपक्खेवा होदि ( होति )' रति पाठः । १ म-मा-का. प्रति 'परिहीणो' इति पाठः | ३ म-आ-काप्रतिषु 'राति ' इति पाठः । छ. वे. ३४.
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२६६]
छरखंडागमे वेयणाखंडं [१, २, ४, ५७. पाति । ते उवरिमविरलणरूवधारदेसु पक्खिविय समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणमाणयणं उच्चदे। तं जहा - रूवाहियदेटिमविरलगमतद्वाणं गंतूण जदि एगरूषपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धं उरिमविरलणाए अवणिदे एत्थतणविगलपक्खे भागहारो आगच्छदि। एदं विरले. दूण सगलपक्खेवं समखंडं कादण दिगो रूवं पडि विगलपक्खेवपमाणं होदि । एत्थ एग-दोपरमाणुआदिकमेण एगविगलपक्खेवमेत्तपदेसेसु परिहीणेसु तत्तियमेताणि व अणुक्करसट्ठागाणि उप्पज्जति । एवं परिहाइदूण विदो च अण्णगो रूवणुक्कस्सबंधगद्धाए पुवणिरुद्ध जोगेण बधिय पुणो एगसमयं पुष्वणिरुद्धजोगादो पक्खेऊणजोगहाणेण बंधिय णेरइएसुप्पन्जिय कमेण दीवसिहापढमसमर विदो च सरिसो। पुणो पुचिल्लं मोत्तूण इमं घेतूण एग दोपरमाणुआदिकमेण ऊणं करिय एगविगलपक्खेवमेत्तअणुक्कस्सहाणाणि उप्पादेदवाणि । एवमुप्पादिय हिदो च अण्णेगो सव्वसमएसु णिरुद्धजोगेहि बेव पंधिय एगसमयं दुपक्खेऊणमओगट्ठाणेण पंधिय णेरइएसुप्पज्जिय दीवसिहापढमसमए द्विदो च सरिसो। एवं परिहाणिं कादण णेदव्यं जाय एगसमएण परिणदजोगहाणपक्खेवभागहारम्मि जेत्तिया विगलपक्खेवा अत्थि तेत्तियमेत्ता परिहीणा ति । तेसिं च
मिलाकर समीकरण करनेपर हीन रूपोंक लाने की विधि कहते है । यथा- एक अधिक अधस्तन बिरलन राशि मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि प्राप्त होती है तो उरिम विरलनमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाण राशिसे फलगुणित इच्छा राशिको अपवर्तित करनेपर जो प्राप्त हो उसे उपरिम विरलनमें से कम करनेपर यहांक विकल प्रक्षेपका भागहार आता है। इसका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक थंकके प्रति विकल प्रक्षेपका प्रमाण होता है। यहां एक-दो परमाणु आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप में हीन होनेपर उतने मात्र ही अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार हानि करके स्थित हुआ तथा एक कम उत्कृष्ट वन्धककालमें पूर्व निरुद्ध योगसे आयु बांधकर पुनः एक समय में पूर्व निरुद्ध योगले प्रक्षेप कम योगस्थानसे आयु बांधकर नारकियों में उत्पन्न होकर क्रमसे दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित हुआ एक अन्य जीय, ये दोनों सहरा हैं। पश्चात् पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इसको ग्रहण कर एकदा परमाणु बादिके क्रमसे हीन करके एक विकल प्रक्षेप प्रमाण अनुत्कृष्ट स्थानों को उत्पन्न कराना चाहिये । इस प्रकार उत्पन्न कराकर स्थित हुआ जीव तथा सब समयोंमें नेरुद्ध योगोंसे ही आशु बांधकर एक समयमें दो प्रक्षेपोंसे हीन योगस्थानसे आयु बांधकर नारकियों में उत्पन्न होकर दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित हुआ एक अन्य जीव, ये दोनों सदृश हैं। इस प्रकार हानि करके एक समयले परिणत योगस्थान प्रक्षेपभागहारम जिसने विकल प्रक्षेप हैं उतने मात्रकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। उनकी
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४, २, ४, ४७.] बेथणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्त
[२६७ परिहाणी सव्वे समए अस्सिदूण कायव्वा, एगस्सेव तप्पाओग्गजोगहाणपक्खेवभागहारमेत्तोयरणे संभवाभावादो। एवं परिहाइदृण विदो च, अण्णेगो समऊणबंधगद्धार पुन्वणिरुद्धजोगेहि आउअंबंधिय णेरइएसु उपज्जिय दीवसिहापढमसमयहिदो च सरिसा । एवं कमेंण बंधगद्धासमयाणं परिहाणी कायया जाव जहण्णबंधगद्धा अवहिदा ति:
___ एत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा--- जहण्णबंधगद्धाए तपाओगर लोग च णिरयाउअंबंधिय गेरइएसु उप्पन्जिय दीवसिहापढमसमए ठिदो ति ओदारेदव्वं । एग-दोपरमाणुपरिहाणिआदिकमेण एगविगलपक्खेवमेत्तअणुक्कस्सहाणाणि उप्पादेदव्याहि । एवं परिहाइदण विदो च, अण्णेगो समऊणजहणबंधगद्धाए सपाओगजोगेण बंधिय पुणो एगसमयं पक्खेऊगणिरुद्धजोगेण बंधिय दीवमिहापढमसमए विदो च, सरिता । एवं एक्क-दो-तिण्णिजोगहाणाणि सो णिरुद्धसमए ओदारेदवो जाव असंखे.णि जोगट्ठाणण
ओदिण्णो त्ति । पुणो तं तत्थेव द्वविय एदेणेव कमेा बिदियसमओ असंखेजआणि जोगट्ठाणाणि ओदारदव्यो। एवमेदेण कमेण सव्वे समया तप्पाओग्गअसंखेज्जाणि [जोगट्ठाणाणि]
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हानि सब समयोंका आश्रय करके करना चाहिये, क्योफि.ए समयका ही आश्रय कर उसके योग्य योगस्थान प्रक्षेपभागहार प्रमाण उतरने की सम्भावना नहीं हैं : इस प्रकार हानि करके स्थित हुआ जीव तथा एक समय कम बम्धकालमें पूर्व निर द्ध योगोंसे आयुको बांधकर नारकियों में उत्पन्न होकर दीपशिखाक प्रथा समयमें स्थित हुआ एक अन्य जीव, ये दोनों सदृश हैं। इस प्रकार जघन्य बन्धककाल यस्थित होने तक क्रमसे बम्धककालके समयोंकी हानि करना चाहिये।
यक्षां सबसे अन्तिम विकल्प कहते हैं। यथा- जघर धन्धककाल और उसके योग्य योगसे नारफायुको बांधकर नारकियों में उत्पन्न हो दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित है, ऐसा लमहर कर उतारना चाहिये । पश्चात् ९ दो परमा पुओंकी हानि आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप प्रमाण अनुस्कृष्ट स्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये । इस प्रकार हानि करके स्थित हुआ जीव तथा एक समय कम जघन्य बन्धककालमें उसके योग्य योगले आयुको बांधकर पुनः एक समयमें प्रक्षेपम निरुद्ध योगसे आयुको बांधकर दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित हुआ एक अन्य सीव, ये दोनों समान हैं । इस प्रकार एक-दो तीन योगस्थान से लेकर निरुद्ध रूपयों से उतारना चाहिये जब तक कि असंख्यात योगस्थान न उतर जावे। पञ्चात् उसको वहां ही स्थापित कर इसी क्रमसे द्वितीय समयको असंख्यात योगस्थान होने तक उतारना चाहिये। इसी प्रकार इस क्रमले सम समयोंका उनके योग्य असंख्यात
१ प्रतिषु 'एगसमयपक्खेऊण-' इति पाठः । १ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रयोः 'ततेव, काप्रती 'बाप' इति पाठः।
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१६४]
खंडागमै वैयणाखंड [४, २, ५, ५८. पोदारदव्वा । एवमोदारिदे जहण्णजोगेण जहण्णबंधगद्धाए च णिरयाउअं पंधिय णेरइएसुप्पज्जिय दीवसिहापढमसमए हिदस्स अणुक्कस्सजहण्णपदेसट्टाणं होदि जावए हरं ताव मोदिण्णो' त्ति भणिदं होदि। एत्थ अणुक्कस्सजहण्णपदेसहाणं उक्कस्सपदेसट्ठाणम्मि सोहिदे सुझसेमम्मि जेत्तिया परमाणू अस्थि तेत्तियमेत्ताणि अणुक्कस्सपदेसट्ठाणाणि । ते च सव्ये एगं फदर्य, जिरंतरुप्पत्तीदो । एत्थ जीवसमुदाहारो गाणावरणस्सेव वत्तव्यो । एवमुक्कस्साणुक्कस्ससामित्तं सगंतोखित्तसंखाहाणजीवसमुदाहारं समत्तं ।।
सामिचेण जहण्णपदे णाणावरणीयवेयणा दबदो जहणिया कस्स ? ॥४८॥
एदमासंकासुत्त । एत्थ एगसंजोगादिकमेण पंपणारस आसंकियवियप्पा उप्पादेदवा। उक्कस्सपदपडिसेहह जहण्णपदग्गहणं । णाणावरणीयणिदेसो सेसकम्मपडिसेहफलो । दवमिसो खेत्तादिपडिसहफलो ।
जो जीवो सुहुमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्मढिदिमच्छिदो ॥४९॥ योगस्थान होने तक उतारना चाहिये । इस प्रकार उतारने पर जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे नारकायुको बांधकर नारकियों में उत्पन्न हो दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित जीवके अनुस्कृष्ट जघन्य प्रदेशस्थान होता है। यह स्थान जितने दूर जाकर प्राप्त होता है उतना उतरा, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहां उत्कृष्ट प्रदेशस्थानमैसे मनुत्कृष्ट जघन्य प्रदेशस्थानको घटानेपर जो शेष रहे उससे जितने परमाणु हैं उतने मात्र अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थान हैं। वे सब एक स्पर्द्धक हैं, क्योंकि वे निरन्तरक्रमसे उत्पन्न होते हैं। यहांपर जीवसमुदाहार ज्ञानावरणके समान कहना चाहिये। इस प्रकार अपने भीतर संख्यास्थान और जीवसमुदाहारको रखनेवाला उत्कृष्टानुत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ___स्वामित्वसे जघन्य पदमें द्रव्यकी अपेक्षा ज्ञानावरणकी जघन्य वेदना किसके
॥४८॥
यह भाशंकासूत्र है। यहां एक संयोग आदिके क्रमले पन्द्रह आशंकाधिकल्पोंको उत्पन कराना चाहिये। उत्कृष्ट पदका प्रतिषेध करने के लिये जघन्य पदका ग्रहण किया है। 'शानावरणीय' इस पदके निर्देशका फल शेष कर्मों का प्रतिषेध करना है। 'द्रव्य'इस पदके निर्देशका फल क्षेत्रादिका प्रतिषेध करना है।
जो जीव सूक्ष्म निगोदजीवोंमें पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहा है॥४९॥
१ अ-आ-काप्रति ' जावए र ताव पविण्णो', तापतौ 'जाव एतदर ताव ए (ओ) दिगो' इति पारः । २ अ-आप्रत्योः ‘सगंतोखेत्तसंखाहाण', तापतौ सगंतोक्खेत्तसंखाए हाण-' इति पाठः ।
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४, २, ४, १९.) यणमहाहिगारे यणन्धविहाणे सामित्त
[२६९ जो एवंलक्खणविसिट्ठो सो जहण्णदव्वसामी होदि । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्महिदि णिगोदजीवेसु अच्छिदो त्ति एदं तस्स एग विसेसणं । किमट्ठमेदं बिसेसणं कीरदे ? अण्णजीवहि परिणममाणजोगादो एदेसि जोगस्स असंखेज्जगुणहीणत्तादो। असंखेज्जगुणहीणजोगेण किमडे हिंडाविज्जदे ? संगहणटुं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण अणिया कम्महिदी किमई कदा ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालं एइंदिएसु संचिदकम्मपदेसाणं गुणसेडीए गालणटुं । जदि एवं तो सब्धिस्स कम्मद्विदीए कम्मपदेसाणं गुणसेडिणिज्जरा किण्ण कीरंदे ? ण, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसम्मत्तकंडएहि परिणदसवजीवस्स णियमेण णिव्वाणगमणमुक्लंगादो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसम्मत्त-संजमासंजमकंडएहि परिणदजीवो णियमेण णिव्वाणमुवणमदि त्ति कुदो णव्वदे ?
जो जीव इस प्रकारके ( उपर्युक्त सूत्र में कहे गये) लक्षणसे युक्त है यह जघन्य द्रव्यका स्वामी होता है। 'पल्यापमका असंख्यातवां भाग कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक निगोदजीवों में रहा' यह उसका एक विशेषण है।
शंका-यह विशेषण किसलिये किया जाता है ?
समाधान-चूंकि अन्य जीवों द्वारा परिणमन किये जानेवाले योगकी अपेक्षा इनका योग असंख्यातगुणा हीन है, अतः उक्त विशेषण किया है।
शंका--असंख्यातगुणे हीन योगके साथ किसलिये घुमाया जाता है ? समाधान - संग्रह करनेके लिये असंख्यातगुणे हीन योगके साथ घुमाया है। शंका-पल्यापमके असंख्यात भागसे हीन कर्मस्थिति किसलिये की गई है ?
समाधान-पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण काक तक एकेन्द्रियों में संचित हुए कर्मप्रदेशीको गुणश्रेणि रूपसे गलाने के लिये उक्त कर्मस्थिति की गई है।
शंका - यदि ऐसा है तो सब कर्मस्थितिके कर्मप्रदेशोंकी गुणश्रेणिनिर्जरा क्यों नहीं की जाती है?
समाधान- नहीं, क्योंकि, जो जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र सम्यक्त्वकाण्डकोसे परिणत होते हैं उन सबका नियमसे निर्वाण गमम पाया जाता है।
शंका-पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र सम्यक्त्वकाण्डक और संयमासंयमकाण्डकोंसे परिणत हुभा जीव नियमसे निर्वाणको प्राप्त होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
अ-आ-काप्रतिपु . मेत्तसमते कदे एहि ' इति पाठः ।
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२७०
छक्खडागमै वैयणाखंड [ ४, २, ४, ५०. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण अणियमिदि णिसण्णहाणुववत्तीदो। सुहमणिगोदेसु अच्छंतस्स आवासयपदुप्पायणटुं उत्तरसुत्ताणि भणदि
तत्थ य संसरमाणस्स बहवा अपज्जत्तभवा थोवा पज्जतभवा ॥५०॥
एसो खविदकम्मंसिओ अपज्जत्तएसु खविद-गुणिद घोलमाणेहिंतो बहुवारमुप्पज्जदि, पज्जत्तएसु थोक्वारमुप्पज्जदि । कुदो ? पज्जत्तजोगादो असंखज्जगुणहीणेण अपज्जतजोगेण थोवाणं कम्मपदेसाणं संचयदसणादो । खविदकम्मंसियपज्जत्तमवेहितो तस्सेव अपज्जत्तभवा बहुगा त्ति किण्ण उच्चदे ? ण, विगलिंदियपज्जत्तहिदीए संखज्जवाससहस्सतण्णहाणुववत्तीदो। तं जहा ---- बीइंदियअपज्जत्तएसु जदि जीवो णिरंतरं उप्पज्जदि तो उक्कस्सेण असीदिवारमुप्पज्जदि । तीइंदियअपज्जत्तएसु सहिवार, चदुरिंदियअपज्जत्तएसु चालीसवारं' पंचिदियअपज्जत्तएसु चउवीसवार उप्पज्जदि ! ८० ६०/४० । २४ ।।
समाधान-क्योंकि, इसके विना ‘पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन' यह निर्देश घटित नहीं होता । अत एव इसीसे वह जाना जाता है।
सूक्ष्म निगोदजीवों में रहनेवाले उक्त जीवके आवासों के प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्रों को कहते हैं
__ वहां सूक्ष्म निगोदजीवोंमें परिभ्रमण करनेवाले उस जीवके अपर्याप्त भव बहुत होते हैं और पर्याप्त भव थोड़े होते हैं ॥ ५० ॥
यह क्षपितकर्माशिक जीव अपर्याप्तकों में क्षपित गुणित घोलमान कौशिक जीवोंकी अपेक्षा बहुत वार उत्पन्न होता है, और पर्याप्तकोंमें थोड़े वार उत्पन्न होता है; क्योंकि, पर्याप्त योगकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हीन अपर्याप्त योग द्वारा स्तोक कर्मप्रदेशोंका संचय देखा जाता है।
__ शंका-क्षपितकोशिकके पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा उसीके अपर्याप्त भव बहुत हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
. समाधान- नहीं, क्योंकि विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी स्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकती, इसलिये क्षपितकौशिकके पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा उसीके अपर्याप्त भव बहुत हैं, ऐसा नहीं कहा। आगे इसी बात को स्पष्ट करके बतलाते हैं- यदि जीव द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकों में निरन्तर उत्पन्न होता है तो उत्कृष्ट रूपले अस्सी (८०) वार उत्पन्न होता है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकों में साठ (६०) वार, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें चालीस (४०) वार और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें चौबीस
११.सं. पु.४ पृ. ३९९. २ म. सं. पु. ४ पु. ४०१.
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५, २, ४, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणदम्वविहाणे सामित्तं
[२७१ पज्जत्ताणमाउअहिदी पुण जहाकमेण बारस वासाणि, एगूणवण्णरादिदियाणि, छम्मासा, तेत्तीससागरोवमाणि । तत्थ जदि बीइंदियपज्जत्ताणमसीदि उप्पज्जणवारा होति तो पीइदियभवहिदी दसगुणछण्णउदिवासमेत्ता चेन होदि । ९६० १, तीइंदियाणमट्ठाणउदिमासा ! २८ ।, चउरिंदियाणं वीसवासाणि |२०|| ण च पवं, संखेज्जाणि वाससहस्साणि त्ति कालाणिओगद्दारे एदेसिं भवट्टिदिपम णपरूवणादो। तदो णध्वदे जधा अपज्जत्तएसु उम्पज्जणवारेहितो विगलिंदियपज्जत्तएसु उप्पज्जणवारा बहुगा त्ति, अण्णहा संखज्जवाससहस्समेत्तभवहिदीए अणुप्पत्तीदो। जधा विगलिदिएसु उप्पज्जणवारा बहुवा तथा सुहुमेइंदियजीवेसु वि सगअपज्जत्तएसु उप्पज्जणवारेहिंतो पज्जत्तएसु उप्पज्जणवारा बहुवा चेव, जीवत्तं पडि विसेसाभावादो तिरिक्खत्तं पडि विसेसाभावादो वा । तम्हा सगपज्जत्तभवेहिंतो सगअपज्जत्तभवा बहुगा ति एमो अत्थो ण वत्तव्यो । एवं भवावासो सुहुमेइंदिरासु पलविदो।
(२४) वार उत्पन्न होता है । किन्तु उक्त पर्याप्तकोंकी आयुस्थिति यथाक्रमसे बारह वर्ष, उनचास रात्रिदिवस, छह मास और तेतीस सागरोपम प्रमाण है। उसमें यदि द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंके उत्पन्न होनेके वार अस्सी हो तो द्वीन्द्रियोंकी भवस्थिति दसगुणे च्यान अर्थात् नौ सौ साठ ( वर्ष १२४ ८० = ५६०) वर्ष प्रमाण ही होती है। त्रीन्द्रियोंकी भवस्थिति अट्टानबै (दिन ४९४ ६० = ९८) मास होती है और चतुरिन्द्रियोंकी वीस वर्ष (मास ६x४० = २० वर्ष) होती है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, कालानुयोगद्वार में उक्त जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण कही है। इससे जाना जाता है कि अपर्याप्तों में उत्पन्न होने की वारशलाकाओंसे विकलेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेकी वारशलाकायें बहुत हैं, अन्यथा उनकी संख्यात हजार वर्ष प्रमाण भवस्थिति नहीं बन सकती। और जिस प्रकार विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होने की वारशलाकायें बहुत है उसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें भी अपने अपर्याप्तकामें उत्पन्न होनेकी चारशलाकाओंसे पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेकी वारशलाकायें बहुत ही हैं, क्योंकि, विकलत्रयोंसे एकेन्द्रियों में जीवत्वकी अपेक्षा अथवा तिर्यक्त्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है; अर्थात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव जीवत्वकी अपेक्षा और तिर्यत्त्वकी अपेक्षा उक्त द्वन्द्रियादिकोंके समान हैं। इस कारण अपने पर्याप्त भोंसे अपने अपर्याप्त भव बहुत हैं, ऐसा भर्थ नहीं कहना चाहिये।
इस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें भवाबासकी प्ररूपणा की।
१ कालाणु. १३०.२ प्रतिषु 'उप्पज्जमाण' इति पाठः । ३ अ-काप्रमोः 'उपजमाण' इति पाहः।
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२७२)
छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, ४, ५१. दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ रहस्साओ पज्जत्तद्धाओ॥५१॥
खविद-गुणिद-घोलमाणअपज्जत्तद्धास्तिो खचिदकम्ममियअपज्जत्तद्धा दीहाओ, तेसिं पज्जतद्धाहिंतो एदस्स पज्जत्तद्धाओ रहस्साओ ति घेत्तव्वं । किमट्ठमपज्जत्तएसु दीहाउएसु चेव उप्पाइज्जदे ? पज्जत्तजोगादो असंखज्जगुणहीणेण अपज्जतजोगेण थोवकम्मपदेसग्गहणटुं । तत्थ वि एयंताणुवड्डिजोगकालो बहुगो, परिणामजोगादो एयंताणुवटिजोगस्स असंखज्जगुणहीणत्तादो । सुहुमेइंदियपज्जत्ताणमाउअहिदीदो तेसिं चेव अपज्जत्ताणमाउहिदी बहुगा त्ति किण्ण उच्चदे ? ण, अपज्जत्ताणं आउहिदीदो पज्जत्ताउअहिदी बहुगा त्ति कालविहाणे उवदिद्वत्तादो। एसो अद्धावासो परूविदो।
जदा जदा आउअंबंधदि तदा तदा तप्पाओग्गुक्कस्सजोगेण बंधदि ॥ ५२ ॥
किमट्ठमुक्कस्सजोगेण आउअं बज्झदे ? णाणावरणस्स आगच्छमाणसमयपषन्द्र
अपर्याप्तकाल बहुत और पर्याप्तकाल थोड़ा है ।। ५१ ॥
क्षपित-मुणित घोलमान अपर्याप्तके कालसे क्षपितकौशिक अपर्याप्तका काल दीर्घ है और उनके पर्याप्तकालसे इसका पर्याप्तकाल थोड़ा है; ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये।
शंका- दीर्घ आयुवाले अपर्याप्तकों में ही किसलिये उत्पन्न कराया जाता है ?
समाधान- पर्याप्त योगसे असंख्यातगुणे हीन अपर्याप्त योगके द्वारा स्तोक कर्मप्रदेशाका ग्रहण करानेके लिये दीर्घ आयुवाले अपर्याप्तकोंमें ही उत्पन्न कराया है ?
वहां भी एकान्तानुवृद्धि योगका काल बहुत है, क्योंकि, परिणाम योगसे एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा हीन है।
शंका --- सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी आयुस्थितिसे उम्हीके अपर्याप्तकोंकी भायुस्थिति बहुत है, ऐसा यहां क्यों नहीं कहते ?
समाधान नहीं, क्योंकि, कालानुयोगद्वारमें अपर्याप्तकोंकी आयुस्थितिसे पर्याप्तकोंकी आयुस्थिति बहुत है, ऐसा कहा है।
यह अद्धाचासकी प्ररूपणा की। जब जब आयुको बांधता है तब तब उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे बांधता है ॥५२॥ शंका-उत्कृष्ट योगसे आयुको किसलिये बांधता है ?
समाधान-शानावरणके आनेवाले समयमयद्ध सम्बन्धी परमाणुओंको स्तोक करनेके लिये आयु कर्मको उत्कृष्ट योगसे बांधता है।
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४, २, ४, ५३ ]
यणमहाडियार देयणदम्बविहाणे सामिल
[ २७३
परमाणूर्ण श्रीवत्तविहाणङ्कं । एत्य उक्करससामित्तम्मि उत्तङ्कं संभरिय थोक्त्तसाहं' कायव्यं । एवमाआवास विदो ।
उवरिल्लीणं ठिदीणं णिसेयरूस जहणपदे हेट्ठिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स उस्सपदे ॥ ५३ ॥
खवेिद-गुणिद-घोलमाणओकड्डगादो खविदकम्मंसियओकडणा बहुगा | तेर्सि देव उक्कड्डणादो एदस्स उक्कड्डणा थोवा । किमडुं बहुदव्वोकड्डणा कीरदे ? हेडिमगोच्छाभो धूलाओ काऊण बहुदव्वविणासणटुं । अथवा, एदस्स सुत्तस्स अण्णहा अत्थो उम्मदे | तं जहा बंधोकड़डणाहि हेडिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स उषकस्सपदं उवरिल्लीणं णिसेयस्स जहणपदं होदि तिघेत्तव्वं । भावत्था -- बंधोकडणाहि पदेसरचणं कुणमाणों सव्वजद्दण्णद्विदीए बहुअं देदि । तत्तो उवस्मिद्विदीए विसेसहीणं देदि । एवं दव्यं जाव चरिमट्ठिदिति । एसो एदस्स अत्थो । एदेण पिसेगावासो परुविदो ।
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यहां उत्कृष्ट स्वामित्व कहे हुए अर्था स्मरण कर स्तोकताको सिद्ध करना चाहिये । इस प्रकार आशुआवासकी प्ररूपणा की ।
उपरिम स्थितियोंके निषेकका जघन्य पद और अस्तन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद करता है ॥ ५३ ॥
पित-गुणित घोलमान के अपकर्षण से क्षपितकर्माशिषका अपकर्षण बहुत है, और उसीके उत्कर्षणसे इसका उत्कर्षणस्तोक है।
शंका-बहुत द्रव्यका अपकर्षण किसलिये करता है ?
समाधान-- अधस्तन गोपुच्छाओंको स्थूल करके बहुत द्रव्यका बिमादा करने के लिये बहुत द्रव्यका अपकर्षण करता है ।
अथवा, इस सूत्रका अन्य प्रकारसे अर्थ कहते हैं। यथा-- बन्ध और अपकर्षण के द्वारा अधस्तन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद और उपरिम स्थितियोंके निषेकका अन्य पद होता है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । भावार्थ यह है कि बम्ध और अपकर्षण द्वारा प्रदेशरचना को करता हुआ सर्वजघन्य स्थितिमें बहुत देता है। उससे परिम स्थिति में एक चय कम देता है । इस प्रकार चरम स्थितिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। यह इसका अर्थ है । इसके द्वारा निषेकावासकी प्ररूपणा की।
विशेषार्थ बतलाया गया है
यहां निषेकावासका निर्देश करनेवाले सूत्रका अर्थ दो प्रकारसे अर्थण और ध्यानमें लेकर किया गया है
१ प्रतिष्ठामिषु लीनं शिलेस' इति पा
मे. ३५.
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सखंडागमे येयणाखंड
बसो बहुसो जहण्णाणि जोगट्टाणाणि गच्छदि ॥ ५४ ॥
गोद देसु जहमालि उस्कस्साणि च जोगहाणाणि अस्थि । तरथ पाएण एमयाविरोईण जहण्णजोगमा पेय परिणमिव बादि । तेसिमसंभव सइ उक्कस्सजोगट्ठाणं पे गच्छदि । रु पच्चरे ? • महुसे, ' इदि णिवेनादो । किमढे जहण्णजोगण व
वारियो । थोककम्मपदेसाममणटुं । थोवनोगेण कम्मागमत्थोवत्तं कध णस्वदे ? दवपिहाणे जोगाणपरूवणण्णाहःशुवतीदो। चासंबद्धं भूदबलिभडारओ परुवेदि, महाकम्मपयडिपाहुड
और हमारा अर्थ निषेकरचनाकी मुख्यतासे । दोनोंका फलितार्थ एक ही है । प्रथम मर्थका भाष यह है कि सपित-गुणित-घोलमानके झानावरण कर्मका जितना अपकर्षण होता है उससे इस क्षपितकांशिकके होनवाला ज्ञानावरण कर्म का अपकर्षण बहुत होता है। यह दुई भपकर्वणी बात, किन्तु उत्कर्षण इससे विपरीत होता है। इससे इस भपित. कांशिक जीवके जमीनर्जरा अधिक होती जाती है और संचित द्रव्य उत्तरोत्तर कम रहता जाता है! भाग बन्ध और सपकर्षण के द्वारा जो निषेकरचनाका दूसरा प्रकार लिखा है उससे भी यही अर्थ फलित होता है। इसलिये इस कथन में मात्र विवक्षाभद है, भर्थभेद नही पेला यहां समझना चाहिये।
बहुत बहुत बार जघन्य योगस्थानोंको प्राप्त होता है ॥ ५४॥
सूक्ष्म निगोदजीबों में जघन्य भौर उस्का दोनों प्रकारके योगस्थान हैं। उनले प्रायः भागममें जो विधि बतलाई है उसके अनुसार जघन्य पोगस्थानों में ही रहकर शानावरण कर्म बांधता है । उनकी सम्भावना न होने पर एक बार उसका योगस्थानको भी प्राप्त होता है।
शंका- यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है? समाधान--सूत्रमें निर्दिछ 'बहुसो' पदसे जानी जाती है। शंका- जघन्य योगले ही शानावरण कर्मको किसलिये बंधाया गया है!
समाधान-- स्तोक कर्ष प्रदेशों के आनेके लिये जघन्य योगसे जानाधरण कर्मको बंधाया गया है।
शंका-- स्तोक योगसे थोड़े कर्म आते हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
समाधान-.- दाविधानमें योगस्थ नौकी प्ररूपणा अन्यथा बन नहीं एकता, दमले उना जाता कि स्तोक योगसे थोड़े कर्म आते हैं। यदि कहा आप कि भूतबलि सहारक भसम्बद्ध अर्थकी प्ररूपणा करते हैं, सो यह बात भी नही
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अवापत्योः परिणामिय'कारती पारिणामिय'ति पाठ।।
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., १, १, ५५. वेषणमहाहियारे वेषणदबबिहाणे सामिल भमियवाणेण ओसारिदासेसराग-दोस-मोहत्तादो । एवं जोगावासो सुहमणिगोदेसु परूविदो ।
बहुसो बहुसो मंदसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ ५५॥
जाब सक्कदि ताव मंदसंकिलेसो चेव होदि । मंदसंकिलेससंभाभाये उक्कस्ससंकिलेसं पि गच्छदि । कधभेदं णव्वदे ? ' बहुसो' णिद्देसण्णहाणुववत्तीदो । किमई बहुमो मंदसंकिलेसं णीदो ? रहस्सहिदिणिमितं । कसाओ द्विदिवंधस्स कारणमिदि कधं गम्वदे! कालविहाणे द्विदिबंधकारणकसाउदयवाणपरूवणादो। जहण्णाद्विदीए एत्य किं पोजणं १ ण, मोबहिदासु विदथूलगोबुच्छाहितो बहुपदेसणिज्जवलंभा।। अधबा, बहुवोकड्डणटुं'
है, क्योंकि, महाकर्मप्रकृतिप्राभृतरूपी भनृतके पान उनका मस्त राग, ३५ और मोर दूर हो गया है। इसलिये घे असम्बद्ध अर्थकी भरणा नहीं कर सातास प्रकार सूक्ष्म निगेदिजीवों में योगायासकी प्रपणा की।
बहुत बहुत बार मंद संक्लेश रूप परिणामोंसे युक्त होता है ॥ ५५ ॥
जब तक शाक्य हो तन तक मंद संपला रूप परिणामोसे ही रेता है। मंद संक्लेश रूप परिणामोंकी सम्भावना न होनेपर उत्कृष्ट संक्लेश को भी प्राप्त होता है।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है !
समाधान- भन्यथा सूत्रमें 'बहुसो' पदका निर्देश नहीं बन सकता है, मतः इसीसे जाना जाता है कि मंद संक्लेशके सम्भव न होजेपर जर र संक्लेशको भी प्राप्त हाता है।
शंका- यह जीव बहुत पार मंद संक्लेशको किसलिये प्राप्त कराया गया है ?
समाधान-शानावरण कर्मकी भल्प स्थिति प्राप्त करनेके लिये वहत पार मंद संक्लेशको प्राप्त कराया गया है।
शंका-कषाय स्थितिबन्धका कारण है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
समाधान- चूंकि कालविधान में स्थितिवन्धके कारणभूत कषायोद थानोंत्री प्ररूपणा की गई है, इससे जाना जाता है कि कषाय स्थितियन्धका कारण है।
शंका- जघन्य स्थितिज्ञा यहां क्या प्रयोजन है?
समाधान- नहीं, क्योंकि, स्थितियों स्तोक होनेपर पुछाएं स्थल पाई जाती है, जिससे बहुत प्रदेशौकी निर्जरा देखो जाती है। यही यहां अधए स्थिते कहने का प्रयोजन है।
१ अ.भा-काप्रति — दबोकरणई ', तापता दक्ष कर (क)
'इते पार !
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२०१० रबडागमे वेयणासं
[१, २, ४, ५५. मंदसंकिलेसं णीदो । एवं संकिलेसावासो परूविदो ।
एवं संसरिदूण बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥५६ ।।
एवं पुव्वुत्तछहि आवासएहिं सुहुमणिगोदेसु संसरिद्रण बादरपुढविजीवपज्जत्तरसुवः गणो । सुहमणिगोदेहितो णिग्गंतूण मणुस्सेसु चेव किण्ण उप्पण्णो ? ण, सहुमणिगोदेहितो भण्णस्थ अणुप्पज्जिय मणुस्सेसु उप्पण्णस्स संजमासंजम-सम्मत्ताणं' चेव गहणपाओग्गत्तुबलंभादो ! जदि एवं तो मग्मत्त-संजमा जमकंदयकरणणिमित्तं भगुस्सेसुप्पज्जमाणो पादरपुढविकाइएसु अणुप्पब्जिय मणुस्सेसु चेव किण्ण उप्पज्जंद ? ण, सुहुमणिगोदेहितो णिग्गयस्स सव्वलहुएण कालेग संजमासंजमरगहणाभावादो । बादरपुढविपज्जत्तएसु चेव किमहमुप्पाइदो १ ण, अपज्जत्तेईितो जिग्गयरस सुबलहुश्ण कालेग संजमासंजमगहणा.
भथवा, बहुत दृव्यका अपकर्पण कराने के लिये मंद संक्लेशको राया गया है । इस प्रकार संक्लेशाबासकी प्ररूपणा की।
विशेषार्थ-~~ संक्लेश परिणाम मन्द हातले मानावरण कर्मका स्थितिबम्म कम होता है और उपरितन स्थिति में स्थित नियकों का अपकर्षण भी होता है। यही कारण है कि प्रकृती मंद संश्लेशके कथक दा प्रयोजन बतलाय है।
इस प्रकार परिभ्रमण कर बादर पृथिवीकायिक पर्थ स जीवों में उत्पन्न हुआ।५६॥
इस प्रकार पूर्वोक्त छह भावासोके द्वारा सूक्ष्म निगादजीवोंमें परिभ्रमण कर बाहर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवाले उत्पन्न हुआ।
शंका-- सूक्ष्म निगोदजीवोमले निकल कर मनुष्यों में ही क्यों नहीं उत्पन्न हुभा?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, सूक्ष्म निगोद जीवें मसे अन्यत्र न उत्पन्न होकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवके संयमासंयम और सम्पायक ही प्रहणकी योग्यता पायी जाती है।
शंका--- यदि ऐसा है तो लभ्यस्त्वकाण्डक और संयमासंयमकाण्डकोको करनेके लिये मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाला जीव बादर पृथिवीकायिकों में उत्पन्न न होकर मनुयोंमें ही क्यों नहीं उत्पन्न होता?
समाधान --- नहीं, क्योंकि, सूक्ष्म निगोदोमेस निकले हुप जीयक सर्वलघु काल द्वारा संयमासंयमका ग्रहण नहीं पाया जाता।
शंका- पादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोम किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान .... नहीं, क्योंकि, अपर्याप्तकोसे निकले हुए जीवके सयेलधु काल द्वारा संयमासंयमके ग्रहणका अभाव है।
५ अ-आ-काप्रति 'समताणं' इति पाठः। १ अ-आ-काप्रति
समत- ' इति पाद:
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४, २, ४, ५८ } यणमहाहियारे वेपणदयविहाणे सामित भावाद।। बादरपुढविकाइएसु किमट्ठमुप्पाइदो ? ण', आउकाइयपज्जत्तेहितो मणुस्सेसुप्पण्णस्स सव्वलहुएण कालेण संजमादिगहणाभावादो ।
अंतोमुहुत्तेण सबलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥५७॥
पज्जतिसमाणकालो जइण्णआ वि एगसमयादिओ णत्थि, अंतोमुहुत्तमेत्तो चेवेत्ति जाणावणमतोमुहुत्तरगहणं । किम सव्वलहुं पज्जति णीदो ? सुहमणिगोदजोगादो असंखेन्जमुमेण बाहरपुद विकाइमा रज्जत्तजोगेण संचियम णवाडिसेहष्टुं । सव्वलक्षण कालेग जा पुण पज्जतीआ जसमाणादे तस्स एयंताणुवाड्विजोगकालो भहल्ला होदि । तेण तत्थ द्रव्यसंचओ वि बहुगो होदि । तप्पडिसेई सवलहुं पज्जति गाति उत्तं होदि ।
शंका - दादर पृथिवीकायिकांमें किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान --- नहीं, क्योंकि, अकायिक पर्याप्तोमे से मनुष्कीम उत्पन्न हुए जीवके पर्वलालक द्वारा संयमादिका ग्रहण सम्भव नहीं है।
विशेषार्थ - क्षपित कर्माशिक अवस्था निकट संसारके ही लम्भव है, यह तो स्पष्ट है। फिर भी वह जिस क्रमसे इस अवस्थाको प्राप्त होता है, उस क्रमका यहां निर्दश किया है। ले रह जीद पल्या असंख्यातवां भाग कम उत्कृष्ट कामस्थिति प्रमाण काल तक सूक्ष्म निमोद अवस्था में परिभ्रमण करता रहता है। फिर वहांसे निकल कर वह बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त होता है। यह सीधा मनुष्य क्यों नहीं होता, इसका निर्देश टीकामें किया हा है।
अन्तमुहूर्त काल द्वारा अति शीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ ५७ ॥
पर्थाधियों की पूर्णताका काल जघन्य भी एक साथ आदिक नहीं है, किन्तु अन्तर्मुर्त मात्र ही है। इस बात का ज्ञान करायेके लिये सूत्र में अन्तर्मुर्त पदका ग्रहण किया है।
शंका --- अति शीघ्र पतिको क्यों पूर्ण कराया है ?
समाधान --- सूक्ष्म निगोदजीवोंके योगसे असंख्यासगुणे बादर पृथिवीकायिक भपर्याप्त जीवोंके योग द्वारा संचित होनेवाले द्रव्यमा प्रतिषेध करने के लिये सर्वलघु कालमें पर्याप्तिको पूर्ण कराया है। जो सर्वलघु काल द्वारा पर्याप्तियोंका पूर्ण नहीं करता है उसका पानानुवृद्धियोगकाल महान् होता है और इसलिये यहां द्रव्यका संचय भी बहुत होता है । अतः इस बातका निषेध करनेके लिये सर्वलधु काल द्वारा पर्याप्तियोंको पूर्ण करता है, यह कहा है।
14.ा-काप्रतिषु ' पुवाहण' इति पा3: ! १ सातौ ' संजमगहणामावादो' इति पाठः ।
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२०८ इक्लंडाममै वैयणाख
[४, २, ७,५८. __अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो पुवकोडाउएसु मणुसेसुववण्णो ॥ ५८ ॥
पज्जत्तीयो समाणिय जाव अंते मुद्दत्तमेतकालो विस्समण परभवियाउभं बंधिय पुणो विस्समणोदिकिरियाहि जाव ण गो ताव कालं ण करेदि त्ति अंतोमुहुत्तेण कालगों ति मणिरं । बहुकालं संजमगुणसेडीए संचिदकम्मणिज्जरणटुं पुवकोडाउएसु मणुसेसुववण्णो ति मणिदं। (सब्बलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अवस्सीओ ॥५९॥
गन्मम्मि पदिदपढमसमयप्पहुडि के वि सत्तमासे गम्भे अच्छिण गम्भादो णिस्सरंति, के वि अट्टमासे, के वि णवमासे, के वि दसमासे अच्छिद्ण गन्भादो णिप्फिडंति । तत्थ सम्बलहुं गम्मणिक्खमणजम्मणवयणण्णहाणुववतीदो सतमासे गम्भे अच्छिदो त्ति घेत्तम्यं । (गम्भादो णिक्खमणं गम्भणिक्खमणं, गन्भणिक्खमणमेव जम्मणं गम्भणिक्खमणजम्मणं, तेण गम्भणिक्खमणजम्मणेण जादो अहवस्सीओ । गम्भादो णिपखंतपढमसमयप्पहुडि अहवस्सेसु
अन्तर्मुहूर्त कालमें मृत्युको प्राप्त होकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ ॥५८॥
पर्याप्तियोको पूर्ण कर अन्तर्मुहूर्त काल तक विश्राम करता है, तथा परभव सम्बन्धी मायुका बम्ध कर अब तक पुनः विश्राम आदि क्रियाको नहीं प्राप्त होता तर तक मरणको प्राप्त नहीं होता, इसीलिये ' अन्तर्मुहूर्तमें मृत्युको प्राप्त होकर' ऐसा कहा है। बहुत काल तक संयमगुणश्रेणिके द्वारा संचित कमौकी निर्जरा कराने के लिये 'पूर्वखोरि मायुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ' ऐसा कहा है।
___ सर्वलघु कालमें योनिसे निकलने रूप जन्मसे उत्पन्न हो कर भाठ वर्षका हुआ ॥५९॥
गर्भमें मानके प्रथम समयसे लेकर कोई सात मास गर्भमें रहकर उससे निकलते , कोई माठ मास, कोई नौ मास और कोई दस मास रहकर गर्भसे निकलते हैं। उसमें चूंकि सर्वलघु कालमें गर्भसे निकलने रूप जन्मका कथन अन्य प्रकारसे बन नहीं सकता, अत: 'सात माल गर्भमें रहा' ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।गर्भसे निष्क्रमण गर्भनिष्क्रमण, गर्भनिष्क्रमण रूप जन्म गर्भनिष्क्रमणजन्म सि प्रकार यहां तत्पुरुष और कर्मधारय समास है ], उस गर्भनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न होकर माठ घर्षका
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अ-मा-काप्रति परमवियाउ घेण प्रमो', तापतौ 'परमवियाउअक्षण पुणो' पति पाठः।
-अमबिबिस्सबागादि'इति पाठः। -आ-ताप्रतिषु 'जावणयगदोपति पाठः।
१
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१, ४, ६०. ]
वैयनमहाहियारे देयणदम्बविहाणे सामितं
[ २०५
गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि, हेट्ठा ण होदि त्ति एसो भावत्थो । गन्भाम्म पदिदपडमसमय पहुड अट्ठवस्से गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि त्ति के वि भणेति । तण्ण षडदे, जोणिणिक्खमण जम्मणेणेत्ति वयणण्णहाणुववसीदो । जदि गम्भम्मि पदिद पढमसमयादो अवस्साणि घेष्पति तो गन्भवदणजम्मणेण अट्टवस्सीओ जादो त्ति सुत्तकारो भणेज्ज । प च एवं तम्हा सत्तमा साहियअट्ठहि वासेहिं संजमं पडिवज्जदि त्ति एसो चेव अत्थो श्रेत्तम्वोः सब्वलहुणिद्देसण्णहाणुववत्तदो ।
संजमं पडिवण्णो ॥ ६० ॥
जं सुहुमणिगोदो पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागेण कालेज कम्मसंचयं करेदि तं बादर पुढविकाइयपज्जत्तो एगसमएण संचिणदि । जं बादरपुढविकाइयपज्जत्तो पलिदोवमस्स भसखज्जदिभागेण कालेन कम्मसंचयं करदि तं मणुसपज्जत्तो एगसमएण संचिणदि । तदो बादरपुढविकाइयपज्जत्तरसु' उप्पाइय कम्मसंचयं करिय पुणो मणुस्सेसु उप्पाइय अड्डवस्साथि सादिरेयाणि कम्मसंचयं करिय पुणो दसवासस हस्सियदेवेसु उप्पाइय कम्मसंचयं करिय
हुआ । गर्भ से निकलनेके प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जानेपर संयम ग्रहण के योग्य होता है, इसके पहिले संयम ग्रहण के योग्य नहीं होता, यह इसका भाषार्थ है । गर्भ में आनेके प्रथम समयसे लेकर आठ वर्षोंके वीतनेपर संयम ग्रहण के योग्य होता है. ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर योनिनिष्क्रमण का जन्मसे यह सूत्रवचन नहीं बन सकता। यदि गर्भ में आनेके प्रथम समयसे लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो 'गर्भपतन रूप जन्मले आठ वर्षका हुआ ' ऐसा सूत्रकार कहते । किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा है। इसलिये सात माल अधिक आठ वर्षका होनेपर संयमको प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, अन्यथा सूत्रमें ' सर्वलघु ' पदका निर्देश घटित नहीं होता ।
संयमको प्राप्त हुआ ॥ ६० ॥
शंका- सूक्ष्म निगोद जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा जितना कर्मका संचय करता है उसे बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव एक समय में संचित करता है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव पस्योपमके असंख्यातवें भाग काल द्वारा जितना कर्मसंचय करता है उसे मनुष्य पर्याप्त एक समय में संचित करता है । इसलिये बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराकर कर्मसंचय कराके पश्चात् मनुष्यों में उत्पन्न कराकर कुछ अधिक आठ वर्षोंमें कर्मसंचय कराक पश्चात् दस हजार वर्षकी भायुवाले देवोंमें उत्पन्न कराकर कर्मसंचय कराके सूक्ष्म निगोदजीवोंमें उत्पन्न करानेंमें कोई लाभ नहीं है ?
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१ वर्षातिषामेध्वम् । अन्ना का पापड
• रवि पाहा ।
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२८७ छक्खंडागमे वेषणाखंड
(४, २, ४, ६.. सुहुमणिगोदेसु उप्पाइदे ण कोच्छेि लाभो अस्थि त्ति भणिदे एत्थ परिहारो उच्चदे .. अस्थि लाभो, अण्णहा सुत्तस्स अणस्थयत्तप्पसंगादो । ण च सुत्तमणत्थयं होदि, वयणविसंवादकारणराग-दास-मोहम्मुक्कजिणवयणस्स अणत्थयत्तविरोहादो। कधमणत्ययं ण होदि ? उच्चदे--- पढमसम्मत्तं संजमं च अक्कमेण गेण्हमाणो मिच्छाइट्ठी अधापवत्तकरण-अपुत्र करण अणियट्टिकरणाणि कादूण चेव गेण्हदि । तत्थ अधापवत्तकरणे णस्थि गुणसडीए कम्मणिज्जरा गुणसंकमो च । किंतु अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो चेव गच्छदि । तेण तत्थ कम्मसंचओ चेव, ण णिज्जरा । पुणो अपुष्वकरणपढमसमए आउअवज्जाणं सव्वकम्माणं उदयावलियबाहिरे सव्वहिदीसु द्विदपदेसम्गमोकड्डुक्कड्डणभागहारेण जोगगुणगारादो असंखेज्जगुणहीणेण खंडिय तत्थ एगखंडं पुध दृविय पुणो तमसंखेज्जलोगेहि खांडेय तत्थ एगखंड घेतूण उदयावलियाए गोवुच्छागारेण संछुहिय पुणो सेसबहुभागेसु असंखज्जपंचिंदियसमयपबद्धे उदयावलियबाहिरहिदीए णिसिंचदि । पुणो तत्तो असंखेज्जगुणे समयपबद्धे घेत्तण तदुवरिमद्विदीए णिसिंचदि । पुणो तत्तो असंखेज्जगुणे समयपबद्धे तत्व
समाधान-ऐसी शंका करनेपर यहां उसका परिहार करते है कि उसमें लभ है, नहीं तो सूत्रके अनर्थक होने का प्रसंग आता है। और सूत्र अनर्थक होता नहीं है, क्योंकि, वचनविसंबाद के कारणभूत राग, द्वेष व मोहसे रहित जिन भगयान के वचन के अनर्थक होने का विरोध है।
शंका-- सूत्र कैसे अनर्थक नहीं होता है ?
समाधान-इसका उत्तर कहते हैं। प्रथम सम्यक्त्य और संयम को एक साथ ग्रहण करनेवाला मिथ्यादृष्टि अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिभरणको करके ही ग्रहण करता है। उनसे अधःप्रवृत्त करणमें गणश्रेणिकर्मनिजरा और गुणसंक्रमण नहीं है । किन्तु अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ ही जाता है। इस कारण अधःप्रवृत्तकरणमें कर्मसंचय ही है, निर्जरा नहीं है। पश्चात् अपूर्वकरणके प्रथम समय में आयुको छोड़कर सब कमाके उदयावलिबाह्य सब स्थितियों में स्थित प्रदेशाग्रको योगगुणकारसे असंख्यातगुणे हीन ऐस अपकर्षणउत्कर्षणभागहारसे भाजित कर उसमेंसे एक भागको पृथक् स्थापित कर पश्चात् उसे भसंख्यात लोकोंसे खण्डित कर उसमें एक भागको प्रहण कर उदयावलीमें गोपुच्छाकार अर्थात् चय हीन क्रमसे देकर पश्चात् शेष बहुभागोंमेले पंचेन्द्रिय सम्बन्धी असंख्यात समयप्रबद्धाको उदयावलीके बाहर प्रथम स्थिति देता है। तथा उनसे असंख्यातगुण समयप्रबद्धौंको ग्रहण कर उसले उपरिम स्थिति देता है। तथा उनसे असंख्यातगुणे समयप्रबद्धोंको व से ग्रहण कर उससे उमरिम स्थिति देता है ! इस
मप्रतिपाठोऽयम । अ-आ-का-ताप्रति 'कोलि ' इति पाठः । २ लाप्रती लामो अस्थिति पति पाठः। ३ प्रतिषु 'पटमसम्म सम्मतं संजम पति पाठः । ४ तापती 'अपुवकरण 'इत्येतत्पदं लोक्लम्यते । ५-अप्रत्योः 'बाहिर इति पाठः ।
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१, २, ४, ६०.] यणमहाहियारे वेपणदष्यविहाणे सामित्त घेतूण तदुवरिमाहिदीए णिसिंचदि । एवं ताव णिसिंचमाणो गच्छदि जाव अपुष्वकरणद्धादो [ अणियट्टिकरणद्धादो ] च विसेसाहिओ कालो गदो त्ति । तत्तो उपरिमाए हिदीए असंखेज्जगुणहीणपदेसे णिसिंचदि । तत्तो उपरि सव्वत्थ विसेसहीणं णिसिंचदि जाव अप्पप्पणो अइच्छावणावलियहेष्टिमसमओ त्ति । एवमेसा अपुव्वकरणस्स पढमसमए कदा गुणसेडी । बिदियसमए पुण पढमसमयओकीड्डददव्वादो असंखेज्जगुणं दव्वमोकडिदण उदयावलियबाहिरहिदीए दिस्समाणादो असंखेज्जगुणमेत्ते समयपषद्धे णिसिंचदि । तत्तो असंखेज्जगुणे समयपबद्धे तदुवरिमहिदीए णिसिंचदि । तत्तो जाव गलिदगुणसेडिसीसगं ति' । तत्तो उवरिमहिदीए असंखेज्जगुणहीणं णिसिंचदि । उवरि सम्वत्थ विसेसहीण जाव अप्पप्पणो अइच्छावणावलियहेट्ठिमसमओ ति । पुणो तदियसमए बिदियसमओकड्डिददव्यादो असंखेज्जगुणं दव्वमोकड्डिय पुव्वं व उदयावलियबाहिरहिदिमादि कादूण गलिदसेसं गुणसेडिं करेदि । एवं सव्वसमएसु असंखज्जगुणमसंखेज्जगुणं दव्वमोकड्डिदूण सब्धकम्माणं गलिदसेसं गुणसेडिं करेदि जाव अणियष्टिकरणद्वार
प्रकार निक्षेप करता हुआ अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे कुछ अधिक कालका जितमा प्रमाण हो उतने निषेक बीतने तक जाता है। उससे उपरिम स्थितिमें असंख्यातगुणे हीन प्रदेशोंका निक्षेप करता है । इससे ऊपर सर्वत्र अपनी अपनी पतिस्थापनापलीके अधस्तन समयके प्राप्त होने तक विशेष हीन विशेष हीन देता है । इस प्रकार यह अपूर्वकरणके प्रथम समयमें की गई गुणश्रेणि है। फिर द्वितीय समयमें प्रथम समयमें अपकृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण कर उदयाचलीके याहर प्रथम स्थितिमें दृश्यमान द्रव्यसे असंख्यातगुणे मात्र समयप्रबद्धोको देता है। उनसे असंख्यातगुणे समयप्रबद्धोंको उससे उपरिम स्थितिमें देता है। उससे आगे गलित गुणश्रेणिशर्षिके प्राप्त होने तक इसी क्रमसे देता है। फिर उससे उपरिम स्थितिमें मसंख्यातगुणे हीन समयप्रबद्धोंको देता है। फिर ऊपर सर्वत्र अपनी अपनी अतिस्थापनाघलीके अघस्तन समय तक विशेष हीन विशेष हीन देता है । पश्चात् तृतीय समयमें द्वितीय समयमें अपकृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण कर पहिलेके समान उझ्यावलोके बाहर प्रथम स्थितिसे लेकर गलितशेष गुणश्रेणि करता है। इस प्रकार अनिवृत्तिकरणकालके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक सब समयोंमें भसंख्यातगुणे भसंण्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण कर सब कौकी गलितशेष गुणश्रेणि करता है। इस
अ-आप्रयोः 'जाव गलिवगुणागसीसंगति', कतौ 'माय गुणसेगसीखयं गदेति' इति पाठ। २ अ-आ-काप्रति ' . वलियमेत्तवादिर ' इति पाठः । 8. वे. ३६. .
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२८२] छक्खंडागमे यणाखंड
[४, २, १, १०. चरिमसमओ ति । जेणेव सम्मत्त संजमाभिमुहभिच्छाइट्ठी असंखेज्जगुणाए सेडीए पादरेइंदिएसु पुवकोडाउअमणुसेसु दसवाससहस्सियदेवेसु च संचिददव्वादो असंखेज्जगुणं दव्वं णिज्जरई' तेण इमं लाहं दट्ठण संजमं पडिवज्जाविदो । एत्थ असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरा होदि त्ति कधं णव्वदे?
सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावय-रिदे अणंतकम्मले । दंसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसंते ॥ १६ ॥ खवर य खीणमोहे जिणे य णियमाँ भवे असंखेज्जा ।
तविबरीदो काले। संखज्जगुणाए सेडीएँ ॥ १७ ।। इदि गाहासुत्तादो णव्वदे। दोहि वि करणेहि णिज्जरिददव्वं बादरेइंदियादिसु संचिददव्यादो असखज्जगुणीमदि कधं णव्वदे ? संजमं पडिवज्जिय त्ति अणिदण
प्रकार चूंकि सम्यक्त्व और संयमके अभिमुख हुआ मिथ्यादृष्टि जीव बादर एकेन्द्रियों, पूर्वकोटि आयुवाले मनुप्यों और दस हजार वर्ष की आयुषाले देवोंमें संचित किये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यकी निर्जरा करता है । अत एव इस लाभको देख कर संयमको प्राप्त कराया है।
__ शंका-यहां असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे कर्मनिर्जरा होती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? .
समाधान- सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात् प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, श्रावक (देशविरत), विरत ( महाव्रती), अनन्तकोश अर्थात् अनन्तानुसन्धीका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, चारित्रमोहका उपशम करनेवाला, उपशान्तमोह, चारित्रमोहका क्षय करनेवाला, क्षीणमोह और जिन, इनके नियमसे उत्तरोत्तर भसंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे कर्मनिर्जरा होती है। किन्तु निर्जराका काल उसले
संख्यातगुणित श्रेणि रूपसे है, अर्थात् उक्त निर्जराकाल जितना जिन भगवानके है उससे संख्यातगुणा क्षीणमोहके है, उससे संख्यातगुणा चारित्रमोहलपकके है इत्यादि ॥ १६-१७ ॥ इन गाथासूत्रोले जाना जाता है कि यहां असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे कर्मनिर्जरा होती है।
शंका-दोनों (अपूर्व व अनिवृत्ति) ही करणों द्वारा मिर्जराको प्राप्त हुभा द्रव्य बादर एकेन्द्रियादिकोंमें संचित हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? -...........
अ-आ-काप्रतिषु 'णिज्मरे ' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'पडिवजारे वि' इति पारः । ३ अ आकाप्रतिषु 'णियमो' इति पाठः । ४ अपध. अ. प. ३९७. गो. जी. ६६-६७, सम्यग्दृष्टि-श्रावक विरतानन्तबियोजक-दर्शनमोरक्षषकोपशमकोपशान्त-मोहक्षपक क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः । त. सू. ९-४५. सम्मत्तप्पा-सावय-विरए संयोमणा विणासे य । दसणमोहक्खवगे कसाबबसामगुवसंते ॥ खबगेब खीणमोह जिणे य गि असंबगुणसेडी। उदओ तग्विवरीभो कालो संखेन्जगुणवेरी॥ काति,८.९,
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१, २, ४,६१.] धेयणमहाहियारे धेयणदध्वविहाणे सामित्तं
[ २८९ संजम' पडिवण्णो इदि वयणादो णव्यदे । ण च फलेण विणा किरियापरिसमति भणति आइरिया । तेण तस-थावरकाइएसु संचिददव्वादो असंखज्जगुणं दव्वं णिज्जरिय संजमं पडिवण्णो त्ति घेत्तव्वं । गुणसेडिजहण्णहिदीए पढमवारणिसित्तं दव्वमसंखज्जावलियपषद्धहि संजुत्तमिदि आइरियपरंपरागदुवेदसादो वा णव्वदे जहा संचयादा एत्थ णिज्जरिददव्वमसंखज्जगुणमिदि।
तत्थ य भवहिदि पुवकोडिं देसूणं संजममणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्यए त्ति मिच्छत्तं गदो ॥ ६१॥
___ तत्थ संजमगहिदपढमसमए चरिमसमयभिच्छाइट्ठिणा ओकड्डिददव्वादो असंखज्जगुणं दवमोकड्डिदूण गलिदसेसमुदयावलियबाहिरे पुविल्लगुणसेडिआयामादो संखेज्जगुणहीणं पदेसणिक्खेवेण असखेज्जगुणं गुणसेडिं करेदि । बिदियसमए वि एवं चेव करेदि । णवरि पढमसमयओकड्डिददव्वादो बिदियसमए असंखेज्जगुणं दवमोकड्डिय गुणसेडिं करेदि सि वत्तव्वं । एवं समए समए असंखेज्जगुणाए सेडीए दव्वमोकड्डिदूण गुणसेडिं
समाधान- वह 'संयमको प्राप्त होकर ' ऐसा न कहकर 'संयमको प्राप्त दुआ' ऐसे कहे गये सूत्रवचनसे जाना जाता है। कारण कि आचार्य प्रयोजनके विना क्रियाकी समाप्तिका निर्देश नहीं करते। इसलिये त्रस व स्थावर कायिकोंमें संचित हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यको निर्जीर्ण कर संयमको प्राप्त हुआ, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये। अथवा, गुणश्रेणिकी जघन्य स्थितिमें प्रथम वार दिया हुआ द्रव्य असंख्यात आवलियोंके जितने समय हो उतने समयप्रबद्ध प्रमाण है, इस प्रकार आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है कि संचयकी अपेक्षा यहां निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा है।
वहां कुछ कम पूर्वकोटि मात्र भवस्थिति काल तक संयमका पालन कर जीवितके थोड़ा शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ॥ ६१ ॥
पहां संयम ग्रहण करने के प्रथम समयमें चरमसमययी मिथ्यादृष्टि द्वारा अपकृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्य का अपकर्षण कर उदयावलीके बाहिर पूर्वोक्त गुणश्रेणिके आयामले संख्यातगुणे हीन आयामवाली व प्रदेशनिक्षेपकी अपेक्षा असंख्यात. गुणी गलितशेष गुणश्रेणि करता है । द्वितीय समयमें भी इसी प्रकार करता है। विशेष इतना है कि प्रथम समयमें अपकृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा द्वितीय समयमें असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणि करता है, ऐसा कहना चाहिये । इस प्रकार समय समयमें असंख्यातगुणित श्रेणि रूपले द्रव्यका अपकर्षण कर एकान्तवृद्धिके अन्तिम
तामती नोपलम्पो पदमिदम् ।
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२८.] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ६२. करेदि जाव एयंतवठ्ठीएं चरिमसमओ त्ति । तदो उवरि णियमेण हाणी होदि । ततो उवरि गुणसेढिदव्वं वदि हायदि अवठ्ठायदि वा, संजमपरिणामाणं वड्डि-हाणि अवट्ठाणणियमाभावादो । अणेण विहाणेण भवहिदि पुवकोडिं देसूर्ण संजममणुपालइत्ता अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छतं गदो । पुवकोडिचरिमसमओ त्ति गुणसेडिणिज्जरा किण्ण कदा १ ण, सम्मादिहिस्स भवणवासियवाण-तर-जोइसिएसु उप्पत्तीए अभावादो, दिवड्डपलिदोवमाउँद्विदिएसु सोहम्मदेवेसुप्पण्णस्स दिवड्डगुणहाणिमेत्तपचिदियसमयपबद्धाणं संचयप्पसंगादो ।
सव्वत्थोवाए मिच्छत्तस्स असंजमद्धाए अच्छिदो ॥६२॥
एत्थ अप्पाबहुअं- सव्वत्थोवो देवगदिपाओग्गमिच्छत्तकालो । मणुसगदिपाओग्गमिच्छत्तद्धा संखेज्जगुणा । सण्णितिरिक्खपाओग्गमिच्छत्तद्धा संखेज्जगुणा। असण्णिपाओग्गमिच्छत्तद्धा संखेज्जगुणा। चउरिदियउप्पत्तिपाओग्गमिच्छत्तद्धा संखेज्जगुणा। तेइंदियउप्पत्तिपाओग्गमिच्छत्तद्धा संखेज्जगुणा । बीइंदिय उप्पत्तिपाओग्गमिच्छत्तद्धा संखेज्जगुणा । बादरे
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समय तक गुणश्रेणि करता है। उसके आगे मियमसे हानि होती है । पश्चात् उसके मागे गुणश्रेणिद्रव्य बढ़ता है, घटता है, अथवा अवस्थित भी रहता है, क्योंकि, वहां संयम-परिणामोंकी वृद्धि, हानि अथवा अवस्थानका कोई नियम नहीं है। इस विधानसे कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण भवस्थिति काल तक संयमको पालकर अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ।
शंका- पूर्वकोटिके अन्तिम समय तक गुणश्रेणि निर्जरा क्यों नहीं की ?
समाधान- नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टिकी भवनवासी, घानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें उत्पत्ति सम्भव नहीं है । यदि डेढ़ पल्यकी स्थितिवाले सौधर्म व ईशान कल्पके देवों में उत्पन्न होता है तो उसके डेढ़ गुणहानि मात्र पंचेन्द्रिय सम्बन्धी समयबद्धोंके संचयका प्रसंग आता है।
मिथ्यात्व सम्बन्धी सबसे स्तोक असंयमकालमें रहा ॥ ६२ ॥
यहां अल्पबहुत्व- देवगतिमें उत्पत्तिके योग्य मिथ्यात्वकाल सबसे स्तोक है। उससे मनुष्यगतिमें उत्पत्तिके योग्य मिथ्यात्वकाल संख्यातगुणा है। उससे संशी तिर्यंचों में उत्पत्ति योग्य मिथ्यात्वकाल संख्यातगुणा है । उससे असंशियों में उत्पत्ति योग्य मिथ्यात्वकाल संख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रियों में उत्पत्ति योग्य मिथ्यात्वकाल संख्यातगुणा है। उससे श्रीन्द्रियों में उत्पत्ति योग्य मिथ्यात्वकाल संख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रियों में उत्पत्ति योग्य मिथ्यात्वकाल संख्यातगुणा है। उससे बावर एकेन्द्रियों में उत्पात योग्य मिथ्यात्वकाल संख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म
१ अ-आ-काप्रतिषु ' एयंतबड्ढावटीए', ताप्रती · एवंतवदा ( एयंताप) नदीए ' इति पाई। २ काप्रती · पिनटगुणसेडीपलिदोवमाउ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ६२ ] वेयणमहाहियारे वेयणदविहाणे सामित्त
२८५ इंदियउप्पत्तिपाओग्गमिच्छत्तद्धा संखेज्जगुणा । सुहमेइंदिय उप्पत्तिपाओग्गमिच्छत्तद्धा संखेज्जगुणा त्ति। एत्थ एदाओ सव्वद्धाओ परिहरिदूण देवगदिसमुप्पत्तिपाओग्गमिच्छत्तकाले सेसे मिच्छत्तं गदो त्ति जाणावणटुं सव्वत्थोवाए मिच्छत्तस्स असंजमद्धाएं अच्छिदो त्ति भणिदं होदि। संजदस्स मिच्छतं गंतूण देवगदीए उप्पज्जमाणस्स मिच्छत्तेण सह अच्छणकालो जहण्णओ वि उक्कस्सओ वि अस्थि । तत्थ जहण्णकालमच्छिदो त्ति उत्तं होदि। कधमेदं णव्वदे? एदम्हादो चव उभयत्थसूचयसुत्तादो । किमर्ट मिच्छत्तस्स थोवासंजमद्धाए सेसाए मिच्छत्तं णीदो ? बहुकालं संजमगुणसेडीए पदेसणिज्जरणटुं। ण च पुवमेव मिच्छत्तं गदस्स गुणसेडिणिज्जराकालो बहुगो लब्भदि, तस्स अंतोमुहुत्तेण ऊणतुवलंभादो। दसवाससहस्सेसु संचिददव्वादो अतोमुहुत्तकालं गुणसेडीए णिज्जरिददव्वं थोवं । तदो दसवाससहस्सियदेवेसु अणुप्पाइय पुव्वमेव मिच्छत्तं दूण बादरेइंदिएसु उप्पादेदव्यो त्ति भणिदे-ण, दसवाससहस्स
एकेन्द्रियों में उत्पत्ति योग्य मिथ्यात्वकाल संख्यातगुणा है। यहां इन सब कालाको छोड़कर देवगतिमै उत्पत्ति योग्य मिथ्यात्वकालके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, इस बातके ज्ञापनार्थ 'मिथ्यात्व सम्बन्धी सबसे स्तोक असंयमकालमें रहा' ऐसा कहा है । मिथ्यात्वको प्राप्त होकर देवगतिमें उत्पन्न होनेवाले संयतका मिथ्यात्वके साथ रहनेका काल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उसमें जघन्य काल तक रहा, यह अभिप्राय है। . शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- वह इसी उभय अर्थके सूचक सूत्रसे जाना जाता है।
शंका-मिथ्यात्व सम्बन्धी स्तोक असंयमकालके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको किसलिये प्राप्त कराया है ?
समाधान-संयम सम्बन्धी गुणधेणिके द्वारा बहुत काल तक कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा करानेके लिये मिथ्यात्व सम्बन्धी स्तोक असंयमकालके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त कराया है। यदि कोई इससे पहले मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाय सो उसके गुणश्रेणिनिर्जराका काल बहुत नहीं पाया जा सकता, क्योंकि, वह अन्तर्मुहूर्तसे कम हो जाता है।
शंका-चूंकि दस हजार वर्ष आयुवाले देवोंमें संचित द्रव्यकी अपेक्षा अन्तमुंहत कालमें गुणश्रेणि द्वारा निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य स्तोक है, अतः दस हजार घर्ष आयुवाले देवोम न उत्पन्न कराकर देवगतिमें उत्पत्तिके योग्य मिथ्यात्वकालसे पहले ही मिथ्यात्वको प्राप्त कराके बादर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराना चाहिये?
समाधान-नहीं, क्योंकि, दस हजार वर्षकी आयुघाले देवोंमें संचित हुए
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-भा-काप्रतिषु 'सम्वत्थाओ परिहाइदण', ताप्रती सम्बाओ परिहाइदण' इति पाठ। २भ-आ-काप्रतिषु ' असंखेग्जमाए' इति पाठः। ३ अ-आप्रलोः 'णिग्जरिदब्वं इति पाठ।
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२८६) छक्खडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ६३. संचयादो संजमगुणसेडीए एगसमयणिज्जरिददबस्स असंखेज्जगुणतुवलंभादो। तदो मिच्छत्तं गंतूण सव्वलहुं अंतोमुहुत्तमच्छिदो ति भणिदं होदि ।
मिच्छत्तेण कालगदसमाणो दसवाससहस्साउट्ठिदिएसु देवेसु उववण्णो ॥६३॥
ताधे पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागेणूणकम्महिदीए सुहमणिगोदसु संचिठ्वं भोकड्डुक्कडणभागहारादो असंखेज्जगुणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्व एगखंडेण ऊणं होदि, सम्मत्त-संजमगुणसेडीहि णवकबंधादो असंखेज्जगुणाहि णहदष्वसादो। बद्धदेवाउओ संजदो मिच्छतस्स णेदवो । अपद्धदेवाउसंजदो मिच्छतं किण्ण णीदो १ ण, मिच्छत्तं गंतुण आउए पज्झमाणे आउअबंधगद्धाविस्समणकालहि कीरमाणसंजदगुणसेडीए अभावप्पसंगादो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणकम्महिदीए विणा सुहुमणिगोदेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तअप्पदरकालं हिंडाविय मणुसेसु किण्ण
............
द्रव्यसे संयमगुणश्रेणि द्वारा एक समय में निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है । इसलिये मिथ्यात्मको प्राप्त होकर सबलघु अन्तर्मुहूर्त काल तक यहां रहा, ऐसा कहा है।
मिथ्यात्वके साथ मरणको प्राप्त होकर दस हजार वर्ष प्रमाण आयुस्थितिवाले देवोमें उत्पन्न हुआ ॥ ६३ ॥
उस समय पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम कर्मस्थिति प्रमाण कालके भीतर सूक्ष्म निगोदमें जितने द्रव्यका संचय हुआ था उससे, अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे भसंख्यातगुणे बड़े पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण भागहारका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे, उतना कम होता है, क्योंकि, नघकबन्धसे असंख्यातगुणी सम्यक्त्व व संयम सम्बन्धी गुणश्रेणियों द्वारा द्रव्य नष्ट हो चुका है। जिसने देवायुको बांध लिया है ऐसे संयतको ही मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये ।।
शंका-भबद्धदेवायुष्क संयतको मिथ्यात्वमें क्यों नहीं ले गये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, इस प्रकारले मिथ्यात्वको प्राप्त होकर आयुका बम्ध करमेपर आयुबम्धककाल और विश्रामकालके भीतर जो संयमगुणश्रेणि होती है उसके मभावका प्रसंग आता है, अतः बद्धदेवायुष्क संयतको ही मिथ्यात्वमें ले गये हैं।
शंका--इस जीवको सूक्ष्म निगोदमें जो पल्योपमका असंख्याता भाग कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक घुमाया है सो इतना न घुमा कर केवल पल्योपमके मसंण्यातवें भाग मात्र अल्पतर काल तक घुमा कर मनुप्या में क्यों नहीं उत्पन्न कराया ?
१ प्रतिषु ' एनसमयसंजमः' इति पाठः ।
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१, २, ४, ६५.] यणमहाहियारे वेयणदयविहाणे सामित्त [२८७ उप्पाइदो ? ण, खविदकम्मंसियभुजगारकालादो अप्पदरकालो बहुगो त्ति तत्थ तेत्तियमेत्तकालं हिंडंतस्स लाभदसणादो। दसवाससहस्सादो हेडिमआउएसु किण्ण उप्पाइदो ! ण, देवेसु तत्तो हेट्ठिमआउषियप्पाभावाद।।।
अंतोमुहुत्तेण सब्बलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो॥६४॥
देवेसु छपज्जत्तिसमाणकालो जहण्णओ वि अस्थि, उक्कस्सओ वि । तत्थ सम्वअहण्णण कालेण पज्जतिं गदो। अप्पज्जत्तजोगेण आगच्छमाणणवकबंधादो उदए गलमाणगोउच्छाओ बहुगाओ, परिणामजोगेण संचिदत्तादो। तो आयादो णिज्जरा बहुवा ति कटु सव्वलहं पज्जत्ती ण णिज्जदे ? ण, एइंदियपरिणामजोगादो असंखज्जगुणेण पंचिंदियएयंताणुवड्डिजोगेण आगच्छमाणदचस्स थोवत्तविरोहादो । तेण सव्वलहुं पज्जत्ति गदो; अण्णहा बहुसंचयप्पसंगादो । ___ अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो ॥ ६५ ॥
समाधान-नहीं, क्योंकि, क्षपितकर्माशिकके भुजाकारकालसे अल्पतरकाल बहुत है, अतः वहां उतने मात्र काल घूमनेवालेके लाभ देखा जाता है।
शंका - दस हजार वर्षसे कम आयुवालोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ?
समाधान--नहीं, क्योंकि, देवोंमें इससे नीचेके आयुविकल्प नहीं पाये जाते; अर्थात् उनमें दस हजार वर्षसे कम आयु सम्भव ही नहीं है।
सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ ६४ ॥
देवोंमें छह पर्याप्तियोंकी पूर्णताका काल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उनमें सर्वजघन्य कालसे पर्याप्तिको प्राप्त हुआ।
शंका-अपर्याप्त योगसे जो नवकबन्ध होता है उससे उदयको प्राप्त होकर निजीर्ण होनेवाली गोपुच्छायें बहुत हैं, क्योंकि, उनका संचय परिणाम योगसे हुआ है। इसलिये आयकी अपेक्षा निर्जरा बहुत होनेके कारण सर्वलघु कालमें पर्याप्तियोंको नहीं प्राप्त कराना चाहिये? . समाधान- नहीं, क्योंकि, पंचेन्द्रिय सम्बन्धी एकान्तानुवृद्धि योग एकेन्द्रियके परिणाम योगसे असंख्यातगुणा है, इसलिये उसके द्वारा आनेवाले द्रव्यको स्तोक मानने विरोध आता है । अत एव सर्वलघु कालमें पर्याप्तिको प्राप्त हुआ, अभ्यथा बहुत संचय होनेका प्रसंग आता है।
अन्तर्मुहुर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ॥ ६५ ॥
१ प्रतिषु 'पजत्तीए -' इति पाठः ।
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२८८ ) छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[ ४, २, ४, ६५ एस्थ वेदगसम्मत्तं चेव एसो पडिवज्जदि उवसमसम्मत्ततरकालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागस एत्थाणुवलभादो। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण अणताणुबंधीणं विसंजोजणमाढवेदि'। तत्थ अधापवत्त अपुव्व-अणियट्टिकरणाणि तिणि वि करेदि । एत्थ अधापवत्तकरणे णत्थि गुणसेडी। कुदो ? साभावियादो । अपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि पुवं व उदयावलियबाहिरे गलिदसेसमपुव्व-अणियट्टिकरणद्धादो विसे साहियमायामेण पदेसग्गेण संजदगुणसेडिपदेसग्गादों असंखेज्जगुणं तदायामाद। संखेज्जगुणहीणं गुणसेडिं करेदि । ठिदि-अणुभागखंडयघादे आउअवज्जाणं कम्माणं पुव्वं व करेदि । एवं दोहि वि करणेहि काऊण अणंताणुबंधिचउक्कविदीओ उदयावलियबाहिराओ सेसकसायसरूवेण संहदि । एसा अणताणुबंधिविसंजोजणकिरिया । जं संजदेण देसूणपुव्वकोडिसंजमगुणसेडीए कम्मणिज्जरं कदं तदो असंखेज्जगुणकम्ममेसो णिज्जरेदि । कथमेदं णव्वदे ? अणंतकम्मसे त्ति गाहासुत्सादो।
यहां यह वेदकसम्यक्त्वको ही प्राप्त करता है, क्योंकि, उपशमसम्यग्दर्शनका अन्तरकाल जो पल्यका असंख्यातवां भाग है वह यहां नहीं पाया जाता । पश्चात् अम्तमुहूर्त विताकर अनन्तानुपम्धियोंके विसंयोजनको प्रारम्भ करता है। वहां अधःप्रवृत्तकरण, अर्पूवकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों ही करणोंको करता है। यहां अधःप्रवृत्तकरणमें गुणश्रेणि नहीं है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर पहिलेके समान उदयावलीके बाहर आयामकी अपेक्षा अपूर्व व अनिवृत्ति करणके कालसे विशेष अधिक प्रदेशाग्रकी अपेक्षा संयतगुणश्रेणिके प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणी, किन्तु उसके आयामले संख्यातगुणी हीन ऐसी गलितशेष गुणश्रेणि करता है । आयुको छोड़कर शेष कर्मोका स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात पहिलेके ही समान करता है। इस प्रकार दोनों ही करणों द्वारा करके अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी उदयावलीके बाहरकी सब स्थितियोंको शेष कषायोंके रूपसे परिणमाता है। यह अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनकी क्रिया है। संयतने कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण संयमगुणश्रेणि द्वारा जो कर्मनिजरा की, उससे यह असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करता है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- 'अणंतकम्मंसे' अर्थात् अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवालेके संयतकी अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है, इस गाथासूत्रसे जाना जाता है ।
१ अ-आप्रत्योः 'मोददिति पाठः । १म-आ-का-ताप्रतिषु डिप्षसंगादो' इति पाः।
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४, २, ४, ६७.1 वेषणमहाहियारे वेयणदध्वविहाणे समित्तं
[२८९ तत्थ य भवहिदि दसवाससहस्साणि देसूणाणि सम्मत्तमणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्यए त्ति मिच्छत्तं गदो ॥६६॥
किमह सम्मतेण दसवाससहस्साणि हिंडाविदो ? ण, सम्माइट्ठिस्स सगहिदिसंतादो हेट्ठा बंधमाणस्स थोवहिदीसु हिदकम्मपदेसाणं बहुआणं णिज्जरुवलंभादो जिणपूजा-वंदणणमंसणेहि य बहुकम्मपदेसणिज्जवलंभादो च । संजदेसु संजदासंजदेसु वा अणंताणुपंधीओ किण्ण विसंजोजिदाओ ? तत्थ संजम संजमासंजमगुणसेडिणिज्जराणं परिहाणिप्पसंगादो । अवसाणे मिच्छत्तं किमिदि णीदो ? ण, अण्णहा एइंदिएसु उववादाभावादो ।
मिच्छत्तेण कालगदसमाणो बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥६७॥
देवेसु उप्पण्णस्स पढमसमयपदेससंतादो बादरपुढविपज्जत्तएमु उप्पण्णपढमसमय
वहां कुछ कम दस हजार वर्ष भवस्थिति तक सम्यक्त्वका पालन कर जीवितके थोड़ा शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ॥ ६६ ॥
शंका-सम्यक्त्वके साथ दस हजार वर्ष तक किसलिये धुमाया ?
समाधान--महीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टिके जितमा स्थितिसत्त्व होता है उससे स्थितिबन्ध कम होता है, अतः उसके स्तोक स्थितियों में स्थित बहुत कर्मप्रदेशाकी निर्जरा पाई जाती है तथा जिनपूजा, वन्दना और नमस्कारसे भी बहुत कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा पायी जाती है । इसलिये उसे दस हजार वर्ष तक सम्यक्त्वके साथ घुमाया है।
शंका-- इस जीवके पहले मनुष्य पर्यायमें संयत अबस्थाके रहते हुए या संयतासंयत अवस्थाको प्राप्त करा कर अनम्तानुबम्धिचतुष्ककी घिसंयोजना क्यों नहीं कराया?
समाधान- यहां संयम और संयमासंयम गुणश्रेणिनिर्जराकी हानिका प्रसंग आनेसे अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना नहीं करायी ।
शंका- अन्तमें मिथ्यात्वको क्यों प्राप्त कराया है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा किये बिना एकेन्द्रियों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है।
मिथ्यात्वके साथ मृत्युको प्राप्त होकर षादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ६७ ॥
देवोंमें उत्पन्न हुए उक्त जीवके प्रथम समय सम्बन्धी प्रदेशसत्त्वसे बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तों में उत्पन्न होने के प्रथम समयमें प्रदेशसत्त्व असंण्यातवां भाग कम
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२९०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, ६८. पदेससंतमसंखेज्जभागहीणं, सम्मत्ताणताणुबंधिविसंजोजणकिरियाहि विणासिदकम्मपदेसत्तादो। चादरपुढविपज्जत्ते मोत्तूण सुहमणिगोदेसु किण्ण उप्पाइदो ? ण, देवाणं तत्थाणतरमेव उवयादाभावादो । बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तएसु बादरआउप्पज्जत्तएसु वा किण्ण उप्पाइदो १ ण, तेसु उप्पाइज्जमाणस्स देवावसाणमिच्छत्तद्धाए बहुत्तेण विणा तस्थ उववादा. भावादो । कधमेदं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो, अण्णहा बादरपुढविपज्जत्तएसुप्पत्तिणियमाणुववत्तीदो।
अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सब्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥६॥
(बौदरपुढविकाइयपज्जत्तएंगताणुवड्ढिजोगेण आगच्छमाणपदेसादो सुहुमणिगोदपरिणामजोगेण संचिदगोउच्छा उदए गलमाणा संखेज्जगुणा, तदो संचयाभावादो।)
है, क्योंकि, पहले सम्यक्त्व व अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजन क्रिया द्वारा कर्मप्रदेशका विनाश किया जा चुका है।
__ शंका- बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंको छोड़कर सूक्ष्म निगोद जीवों में क्यों महीं उत्पन्न कराया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, देवों की उनमें देव पर्यायके अनन्तर ही उत्पत्ति सम्भव नहीं है।
__ शंका-बादर वनस्पसिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त अथवा बादर जल कायिक पर्याप्तकों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उनमें यह जीव तभी उत्पन्न कराया जा सकता है जब इसके देव पर्यायके अन्तमें मिथ्यात्वकाल बहुत पाया जाय । उसके विना इसका वहां उत्पाद सम्भव नहीं है।
शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- इसी सूत्रले जाना जाता है, अन्यथा बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पत्तिका नियम घटित नहीं होता है ।
सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ ६८॥
बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त सम्बन्धी एकान्तानुवृद्धियोगसे आनेवाले प्रदेशकी अपेक्षा सक्ष्म निगोद जीव सम्बन्धी परिणाम योगसे संचित गोपच्छा, जो कि उदयमें निर्जराको प्राप्त हो रही है, संख्यातगुणी है, क्योंकि, उससे संचय नहीं है (?)।
शंका- सर्वलधु कालमें पर्याप्तिको किसलिये प्राप्त कराया है ?
१ प्रतिषूपलम्यमानोऽयं कोष्ठकस्थः पाठोऽत्रासम्बद्धः प्रतिभाति ।
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४, २, ४, ६९. बेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त । २९१ किमढे सव्वलहुं पज्जत्तिं णीदो १ सव्वलहुएण कालेण सुहुमणिगोदेसु पवेसिय अप्पदरकालब्भंतरे चेव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तढिदिखंडयघादेहि अंतोकोडाकोडिट्ठिदिसंतकम्मं धादिय सुहुमणिगोदट्ठिदिसंतसमाणकरणटुं, बादरेइंदियजोगादो असंखेज्जगुणहीणेण सुहुमेइंदियजोगेण बंधाविय उदए बहुप्पदेसणिज्जरणटुं च सव्वलहुएण कालेण पज्जत्तिं णीदो।
अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो सुहुमणिगोदजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥ ६९॥
अपज्जत्ते मोत्तूण पज्जत्तएसु चेव किमट्टमुप्पाइदो ? ण, अपज्जत्तविसोहीदो अणंतगुणाए पज्जत्तविसोहीए दीहहिदिखंडयघादणहूँ तत्थुप्पत्तीदो । अपज्जत्तजोगादो असंखेज्जगुणेण पज्जत्तजोगेण कम्मग्गहणं कुणंतस्स खविदकम्मंसियत्तं किण्ण फिट्टदे ? ण, पलिदो. वमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तअप्पदरकाले ओसप्पिणिकालो व्व सहावदो चेव भुजगारकालेणं
समाधान- सर्व लघु काल द्वारा सूक्ष्म निगोद जीवोंकी अवस्थामें ले जाकर अल्पतरकाल के भीतर ही पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकाण्डकघातोंके द्वारा अन्तःकोटाकोटि प्रमाण स्थितिसत्त्वका घात करके उसे सूक्ष्म निगोद जीवोंके स्थितिसत्त्वके समान करनेके लिये तथा बादर एकेन्द्रियके योगसे असंख्यातगुणे हीन ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रियके योग द्वारा बन्ध कराकर उदयमें लाकर बहुत प्रदेशोंकी निर्जरा कराने के लिये भी सर्वलघु कालमें पर्याप्तिको प्राप्त कराया है।
___ अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर मरणको प्राप्त होकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुवा ॥ ६१॥
शंका- अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदियोंको छोड़कर पर्याप्त सूक्ष्म निगोदियों में ही किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, अपर्याप्तकोंकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी पर्याप्तविशद्धि द्वारा दीर्घ स्थितिकाण्डकों का घात कराने के लिये पर्याप्तकों में उत्पन्न कराया है।
शंका- अपयाप्त योगकी अपेक्षा असंख्यातगुणे पर्याप्तयोगके द्वारा कर्मको प्रहण करनेवाले जीवका क्षपितकोशिकत्व क्यों नहीं नष्ट होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इसके पल्योपमके असंख्यातवे भाग प्रमाण यह , अल्पतर काल अपसर्पिणी काल के समान भुजाकार काल द्वारा अन्तरित होकर
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२९१ छपखंडागमे वेयणाखंड
(१, २, ४, ७०. तरिय पयमाणे आगमादो णिज्जराए थोवत्ताभावादो । ठिदिखंडयं घादयमाणो जदि पहुसो पज्जत्तेसु चेव उप्पज्जदि तो 'बहुआ अपज्जत्तभवा, थोवा पज्जत्तभवा' इच्चेदेण सुत्तेण विरोहो किण्ण जायदे १ ण, तस्स सुत्तस्स भुजगारकालविसयत्तादो पलिदोवमस्स असंखेअदिभागेणूणकम्माडिदिविसयत्तादो वो । संजदचरो असंजदसम्माइट्ठी देवो सव्वलहुएण कालेण मुहुमेइंदिएसु उववज्जमाणो पज्जत्तएसु चेव उप्पज्जदि त्ति वा ण पुव्वुत्तदोससंभवो।
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ठिदिखंडयघादेहि पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागमेत्तेण कालेण कम्मं हदसमुप्पत्तियं कादूण पुणरवि बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥ ७॥
__ पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ठिदिखंडयसलागाओ होति त्ति कधं णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहा- अंतोमुहुत्तमेत्तुक्कीरणद्धाएं जदि एगा द्विदिखंडयसलागा लन्भदि तो
स्वभावसे ही प्रवर्तमान हुआ है, इसलिये इसमें आयकी अपेक्षा निर्जराका कम पाया जाना सम्भव नहीं है।
शंका- स्थितिकाण्डकका घातनेवाला यदि बहुत बार पर्याप्तकों में ही उत्पन्न होता है तो 'अपर्याप्त भव बहुत हैं और पर्याप्त भव स्तोक हैं' इस सूत्रसे विरोध क्यों न होगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, एक तो यह सूत्र भुजाकारकालको विषय करता है और दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थितिको विषय करता है, इसलिये पूर्वोक्त दोष नहीं आता । अथवा, जो पहले मनुष्य पर्याय में संयत रहा है ऐसा असंयतसम्यग्दृष्टि देव सर्वलघु काल द्वारा सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता हुआ पर्याप्तकों में ही उत्पन्न होता है । इसलिये भी पूर्वोक्त दोषकी सम्भावना नहीं है।
पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकाण्डकघातशलाकाओंके द्वारा तथा पल्यापमके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके द्वारा कर्मको ह्रस्व करके फिर भी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ७० ॥
शंका- स्थितिकाण्डकशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवे भाग प्रमाण होती हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- वह युक्तिसे जाना जाता है । यथा- याद अन्तर्मुहर्त मात्र उत्कीरणकालमें एक स्थितिकाण्डकशलाका प्राप्त होती है तो पल्योपमके भसंख्पातवें
१ *भा-काप्रतिषु 'मा' इतत्पदं नोपलभ्यते । २ अप्रतौ ' किंमहिद-', भाप्रती किम्महिंद', काप्रती “किम्मशिद-', मप्रतौ ' कम्बहर- ' इति पाठः। ३ अप्रतौ ' मेत्तुक्करणद्धाए', काप्रती 'मेसकरणदार', वाप्रती - मेषुवकर (क) णदाए' इति पाठः ।
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१, २, ४, ७०.] वैयणमहाहियारे वेयणदयविहाणे सामित्तं
[ २९३ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तअप्पदरकालभंतरे केत्तियाओ ठिदिखंडयसलागाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ठिदिखंडयसलागाओ लब्भंति । एत्थ चदुहि आवत्तेहि सिरसाणं पबोहो' उपादेदव्यो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदिखंडएहि अंतेोकोडाकोडिं घादिय सागरोवमतिण्णिसत्तभागमेत्तहिदिसंतकम्मे दृविदे को लाहो जादो त्ति पुच्छिदे उच्चदे-अंतोकोडाकोडिसागरोवमेसु समयाविरोहेण विहंजिदूण ठिदिकम्मपदेसेसु सागरावमतिण्णिसत्तभागम्मि ओवट्टिदूण पदिदेसु गोउच्छाओ थूला होदूण णिज्जरंति त्ति एसो लाहो । एवं कम्मं हदैसमुप्पत्तियं कादण पुणरवि बादरपुढविजीवपज्जत्तए सु किमट्टमुप्पाइदो ? पुणरवि संजमादिगुणसेडीहि कम्मणिज्जरणटुं । सुहुमणिगोदपज्जत्तएसु उप्पण्णपढमसमयपदेससंतादो पुणरवि बादरपुढविपज्जत्तएसु उप्पण्णपढमसमयसंतकम्मं संखेज्जभागहीणं, अप्पदरकालेण णिज्जिण्णासंखेज्जदिभागमेत्तदव्वादो।
भाग प्रमाण अल्पतरकाल के भीतर कितनी स्थितिकाण्डकशलाकायें प्राप्त होंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छा राशिको भाजित करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकाण्डकशलाकायें प्राप्त होती हैं।
यहां चार आवतों द्वारा शिष्योंको विशेष ज्ञान उत्पन्न कराना चाहिये ।
शंका-- पत्योपमके असंण्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकाण्डकों द्वारा अन्तःकोटाकोटि प्रमाण स्थितिको घात कर सागरोपमके सात भागोंमेंसे तीन भाग (3) प्रमाण स्थितिसत्व स्थापित करने में कौनसा लाभ है ?
समाधान--- अन्तःकोटाकोटि सागरोपमोमें समयाविरोधसे विभक्त कर स्थित कर्मप्रदेशोंके सागरोपमके सात भागोंमेंसे तीन भागोंमें अपकर्षित होकर पतित होनेपर गोपुच्छायें स्थूल होकर निर्जराको प्राप्त होने लगती है, यह लाभ है।
शंका- इस प्रकार कर्मकी ह्रस्वीकरण क्रिया करके फिरसे भी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें किसलिये उत्पन्न कराया ?
समाधान-फिर भी संयमादि गुणश्रेणियों द्वारा कर्मनिर्जरा करानेके लिये उनमें उत्पन्न कराया है।
सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें जितना प्रदेशसस्व था उसकी अपेक्षा फिरसे बादर पृयिवीकायिक पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें जो प्रदेशसव रहा है वह उससे संण्यातवें भागसे हीन है, क्योंकि, अल्पतरकालके भीतर बन्धकी अपेक्षा असंख्यातवें भाग मात्र अधिक द्रव्यकी ही निर्जरा हुई है।
। अ आ-काप्रतिषु पबोह' इति पाठः। २ मप्रती 'हरपति पाठः । ३ काप्रती 'गिग्निपण' इति पा।
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२५४ ]
छक्खडागमे यणाखंड
[ ४, २, ४, ७१.
एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ठ संजमकंडयाणि अणुपालइत्ता चदुक्खुत्तो कसा उवसामइत्ता' पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमा संजम कंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि च अणुपालइत्ता एवं संसरिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुव्वको डाउएस मणुसेसु उवण्णों ॥ ७१ ॥
एदेण सुत्ते संजम संजमा संजम सम्मत्तकंडयाणं कसाय उवसामणाए च संखा परूविज्जदे । तं जहा - चदुक्खुत्ते संजमे पडिवण्णे एगं संजमकंडयं होदि । परिसाणि अट्ठ चैव संजमकंडयाणि होंति, एत्तो उवरि संसाराभावादो । अट्ठसु संजम कंड सुच चत्तारि चैव कसायउवसामणवारा । एत्थ जं जीवट्ठाणचूलियाए चारित्तमोहणीयस्स उवसामणविहाणं दंसणमोहणीयस्स उवसामणविहाणं च परूविदं तं परूवेदव्वं । संजमासंजम - कंडयाणि पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागगेत्ताणि । संजमासंजमकंडएहिंतो सम्मत्तकंडयाणि विसेसाहियाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । कधमेदं णव्वदे ?
इस प्रकार नाना भवग्रहणोंके द्वारा आठ चार संयमकाण्डकों का पालन करके, चार वार कषायोंको उपशमा कर, पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयमकाण्डकों व सम्यक्त्त्वकाण्डकों का पालन कर इस प्रकार परिभ्रमण कर अन्तिम भवग्रहण में फिर भी पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ || ७१ ॥
इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्वके काण्डकोंकी तथा कषायोपशामनाकी संख्या कही गई है । यथा - चार बार संयमको प्राप्त करनेपर एक संयमकाण्डक होता है । ऐसे आठ ही संयमकाण्डक होते हैं, क्योंकि, इससे आगे संसार नहीं रहता । आठ संयमकाण्डकोंके भीतर कषायोपशामनाके वार चार ही होते हैं । जीवस्थान - चूलिकामें जो चारित्रमोहके उपशामनविधानकी और दर्शनमोहके उपशामनविधान की प्ररूपणा की गई है, उसकी यहां प्ररूपणा करना चाहिये । परन्तु संयमासंयमकाण्डक पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । संयमासंयमकाण्डकोसे सम्यक्त्वकाण्डक विशेष अधिक हैं जो पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
शंका
3
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● अप्रतौ ' उवसावतादो', आ-काप्रत्योः ' उवसामइत्तादो' इति पाठः । २ अप्रतौ ' पलिदो ० संखे ०', • पलिदोवमस्त संखेज्जदि ' इति पाठः । ३ अ आप्रत्योः ' अपच्छिम ' इति पाठः ।
कापतौ
४ पहा संखियभागोणकम्मठिहमकिओ निगोए । सुहमेस ( सु ) भवियजोग्गं जहन्नयं कट्टु निग्गम्म ॥ भोग्गेस (सु) संखवारे सम्मतं लमिय देसविरयं च । अट्ठवखुतो विरई संजोयणहा य तवारे || 'चउरुवसमित मोहं हुं खवेंतो भवे खवियकम्मो । पाएण तर्हि पगयं पटुच्च कार्ड ( ओ ) वि सविसेसं ॥ क. प्र. २, ९४-९६
ु
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४, २, ४, ७४ ] वेयणमहाहियारे वेयणदठवविहाणे सामित्त
[ २९५ गुरुवदसादो । अणेण विहाणेण कम्मणिज्जरं काऊण अपच्छिमे भवग्गहणे पुवकोडाउएसु मणुसेसु किमट्ठमुप्पाइदो ? खवगसेडिचडावणहूँ ।
सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अवस्स्सीओ ॥७२॥ सुगममेदं । संजमं पडिवण्णो ॥ ७३ ॥ सुगमं ।
तत्थ भवहिदि पुव्वकोडिं देसूणं संजममणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति यं खवणाए अब्भुट्टिदो ॥ ७४ ।।
एत्थ जहा चूलियाए च चारित्तमोहक्खवणविहाणं दसणमोहक्खवणविहाणं च परूविदं तहा परूवेदव्वं । णवरि सम्मत्तमुवसामगस्स गुणसेडीए पदेसणिज्जरादो संजदासंजदस्स गुणसेडीए पदेसणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो संजदस्स समयं पडि गुणसेडीए
समाधान- यह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है।
शंका- इस विधानसे कर्मनिर्जरा कराके अन्तिम भवग्रहणमें पूर्वकोटि आयु. वाले मनुष्योंमें किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान-क्षपकश्रेणि चढ़ाने के लिये उनमें उत्पन्न कराया है।
सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हो कर आठ वर्षका हुआ ॥ ७२ ॥
यह सूत्र सुगम है। पश्चात् संयमको प्राप्त हुआ ॥ ७३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
वहां कुछ कम पूर्वकोटि मात्र भवस्थिति तक संयमका पालन कर जीवितके स्तोक शेष रहनेपर क्षपणाके लिये उद्यत हुआ ।। ७४ ॥
जिस प्रकार चूलिकामें चारित्रमोहके क्षय करने की विधि और दर्शनमोहके क्षय करनेकी विधि कही गई है उसी प्रकार यहां भी उसे कहना चाहिये । विशेषता यह है कि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके जो गुणश्रेणि द्वारा प्रदेशनिर्जरा होती है उससे संयतासंयतके गुणश्रेणि द्वारा होनेवाली प्रदेशनिर्जरा असंख्यातमुणी है। उससे प्रतिसमय संयतके गुणश्रेणि द्वारा होनेवाली प्रदेशनिर्जरा
१ अ-आ-काप्रतिषु पुवकोडाउवएमु ' इति पाठः । २ अ-आप्रयोः 'दोबावसेसे जीविदग्वं एलिय' काप्रतौं 'द्रोवावसेसे जीविदव्वमे त्ति य' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रति किया चेव 'इति पाठः।
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२९६ } छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, १, ७५. पदेसणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो अणताणुबंधिं विसंजोजंतस्स समयं पडि गुणसेडीए पदेसणिज्जरा असंखेज्जगुणा । ततो दंसणमोहणीयं खतस्स पदेसणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो चारित्तोहणीयमुवसा तस्स अपुवकरणस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । अणियट्टिस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । सुहुमसांपराइयस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । उवसंतकसायस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो अपुव्वखवगस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । अणियट्टिखवगस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । सुहुमकसायखवगस्स गुणमेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । तत्तो खीणकसायस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । सत्थाणसजोगिकेवलिस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा । जोगणिरोहण वट्टमाणसजोगिकेवलिस्स गुणसेडिणिज्जरा असंखेज्जगुणा त्ति णिज्जराविसेसो जाणिदवो । तत्थ चारित्तमोहक्खवणविहाणं किमटुं ण लिहिज्जदे ? गंथबहुत्तभएण पुणरुत्तदोसभएण वा।
चरिमसमयछदुमत्थो जादो। तस्स चरिमसमयछदुमत्थस्स णाणावरणीयवेदणा दव्वदो जहण्णा ॥ ७५॥
चरिमसमयछदुमत्थो णाम खीणकसाओ, छदुमं णाम आवरणं, तम्हि चिट्ठदि
असंण्यातगुणी है । उससे अनन्तानुबम्धीका विसंयोजन करनेवालेके गुणश्रेणि द्वारा प्रतिसमय होनेवाली प्रदेशनिर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवालेकी प्रदेशनिर्जरा असंख्यातगुणी है । उससे चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवाले अपूर्वकरणवर्ती जीवकी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है । उससे अनिवृत्तिकरणवर्ती जीवकी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे सूक्ष्म साम्परायिककी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे उपशान्तकषायकी गुणश्रेणिनिर्जरा असं. ख्यातगुणी है । उससे अपूर्वकरण क्षपककी गुणणि निर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे अनिवृत्तिकरण क्षपककी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है । उससे सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपककी गुणधेणिमिर्जरा असंख्यातगुणी है। उससे क्षीणकषायकी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है । उससे स्वस्थान सयोगकेवलीकी गुणश्रेणिनिर्जरा मसं. ख्यातगुणी है । उससे योगनिरोध अवस्थाके साथ विद्यमान सयोगकेवलीकी गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है। इस प्रकार निर्जराकी विशेषता जानने योग्य है।
शंका--- यहां चारित्रमोहके क्षपणका विधान किसलिये नहीं लिखते ?
समाधान ग्रन्थकी अधिकताके भयसे अथवा पुनरुक्त दोषके भयसे उसे यहां नहीं लिखा है।
पश्चात् अन्तिमसमयवर्ती छद्मस्थ हुआ ! उस अन्तिमसमयवर्ती छद्मस्थके ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य है ॥ ७५ ।।।
चरमसमयवर्ती छद्मस्थका दूसरा नाम क्षीणकषाय है, क्योंकि, छद्म नाम भावरणका है, उसमें जो स्थित रहता है वह उमस्थ है, ऐसी इसकी व्युत्पत्ति है।
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१, २, ४, ७५.] यणमहाहियारे वैयणदश्वविहाणे सामित त्ति छदुमत्थो त्ति उप्पत्तीदो। एत्थ उपसंहारो उच्चदे- तस्स दुवे अणिओगहाराणि परूवणा पमाणमिदि । तत्थ ताव पवाइज्जतेण उवएसेण परूवणा उच्चदे । तं जहाणाणावरणीयस्स कम्मट्टिदिआदिसमए जं बद्धं कम्मं तस्स खीणकसायचरिमसमए एगो वि परमाणू णस्थि । कम्महिदिबिदियसमए जं बद्धं कम्मं तं पि णत्थि । एवं तदियचउत्थ पंचमादिसमएसु पबद्धं कम्मं खीणकसायचरिमसमए णस्थि तिणेदव्वं जाव पलि. दोवमस्स असंखेज्जदिमागमेतणिल्लेवणहाणाणं पढमवियप्पो ति। जिल्लेवणट्ठाणाणि पलिशेवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि चेव होति त्ति कथं णब्वदे ? कसायपाहुडचुण्णिसुत्तादो । तं जहा- कम्मट्ठिदिआदिसमए जं बद्धं कर्म तं कम्मढिदिचरिमसमए सुद्धं पिल्लेविजदि। तं चेष कम्मडिदिदुचरिमसमएँ वि सुद्धं पिल्लेविज्जदि । एवं तिचरिम-चदुचरिमादिसु वि सुखं णिल्लेविज्जदि त्ति भणिदण णेदव्वं जाव असंखेज्जाणि पलिदोवमपटमवग्गमूलाणि हेहदो ओसरिदण ट्ठिदसमओ ति। एवं सेससमयपषद्धाणं पि परवेदव्वमिदि । तदो
यहां उपसंहार कहा जाता है.---- उसके प्ररूपणा और प्रमाण ये दो अनुयोगद्वार है। उनमें पहिले प्रवाह रूपसे आये हुए उपदेशके अनुसार प्ररूपणा कही जाती है। यथा----शानावरणीयका कर्मस्थितिके प्रथम समय में जो कर्म बांधा गया है उसका क्षीणकषायके अन्तिम समयमें एक भी परमाणु नहीं है। कर्मस्थितिक द्वितीय समयमें जो कर्म बांधा गया है वह भी नहीं है। इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थ और पंचम भादि समयों में बांधा गया कर्म क्षीणकषायके अन्तिम समयमें नहीं है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण निर्लेपनस्थानोंके प्रथम विकल्पके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये।
शंका- निलेपनस्थान पल्यापम के असंख्यातचे भाग प्रमाण ही होते है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
समाधान--- यह कषायप्राभृतके चूर्णिसूत्रोंसे जाना जाता है। यथा-कर्मस्थितिके प्रथम समयमें जो कर्म बांधा गया है वह कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें न होनेके कारण निर्जराको नहीं प्राप्त होता। वहीं कर्मस्थितिके द्विचरम समय में भी न होने के कारण निर्जराको नहीं प्राप्त होता। इसी प्रकार त्रिचरम और चतुश्वरम मादि समयों में भी न होने के कारण निर्जराको नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार कहकर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल मांचे उतरकर स्थित समय तक के जामा चाहिये। इस प्रकार शेष समयप्रबद्धोंका भी कथन करना चाहिये । इसलिये
अप्रती ' संहाण', आ-कारखी ' सत्य अणिओग-', श्रापतौ त्रुरितोऽत्र पाठः। इति पाठ
... १८.
असंघाण' इति पाठः। १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रति अ-आ-काप्रति णिबिम्जदि' इति पाठः । ४ तापतौ चरिमर'
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२९८ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड ४, २, ४, ७५. कम्महिदिआदिसमयप्पहुडि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्ताणं समयपबद्धाणमेक्को वि परमाणू खीणकसायचरिमसमए णस्थि त्ति णव्वदे । सेससमयपबद्धाणमेक्क-दो-तिण्णिपरमाणू मादि कादण जाव उक्कस्सेण अणंता परमाणू अस्थि ।
____ अप्पवाइज्जतेण उवदेसेण पुण कम्मद्विदीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि कम्महिदिआदिसमयपबद्धस्स पिल्लेवणट्ठाणाणि होति। एवं सव्वसमयपबद्धाणं वत्तव्वं । सेसाणं पलिदोवमस्स भसंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणमेगपरमाणुमादि कादूण जाव उक्कस्सेण अणंता परमाणू भत्थि ।
पमाणं उच्चदे- सव्वदव्वे समकरणे कदे दिवड्ढगुणहाणिमेत्ता समयपबद्धा होति । पुणो एदेसिं दिवड्वगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणमसंखेज्जदिभागो चेव गट्ठो, सेसबहुभागा खीणकसायचरिमसमए अस्थि । कुदो १ खीणकसायचरिमगुणसेडिचरिमगोवुच्छादो दुचरिमादिगुणसेडिगोवुच्छाणं असंखेज्जदिभागत्तादो ( एसा पमाणपरूवणा पवाइज्जत अप्पवाइज्जतउवदेसाणं दोणं पि समाणा, अप्पवाइज्जंतउवदेसेण वि दिवड्गुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणमुवलंभादो। मोहणीयस्स कसायपाहुडे
..........................................
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इससे कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्धोंका एक भी परमाणु क्षीणकषायके अन्तिम समय में नहीं है, यह जाना जाता है।
शेष समयप्रबद्धोंके एक दो व तीन परमाणुओंसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे अनम्त परमाणु तक होते हैं।
प्रवाह रूपसे नहीं आये हुए उपदेशके अनुसार कर्मस्थितिके आदि समयप्रबद्धके निर्लेपनस्थान कर्मस्थितिके असंख्यातवे भाग मात्र होते हैं। इसी प्रकार सब समयप्रबोंका कथन करना चाहिये। शेष रहे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्धोंके एक परमाणुसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे अनन्त परमाणु तक शेष रहते हैं।
अब प्रमाणका कथन करते हैं- सब द्रव्यका समीकरण करनेपर डेढ़ गुणहानि मात्र समयप्रबद्ध होते हैं । इन डेढ़ गुणहानि मात्र समयप्रबद्धोंका असंख्यातवां भाग ही नष्ट हुआ है। शेष बहुभाग क्षीणकषायके अन्तिम समयमें है, क्योंकि, क्षीणकषायकी अन्तिम गुणश्रेणिकी अन्तिम गोपुच्छासे द्विचरम भादि गुणश्रेणिकी गोपुच्छायें असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं । यह प्रमाणप्ररूपणा प्रवाहसे आये हुए और प्रवाहसे न आये हुए दोनों ही उपदेशोंके अनुसार समान है, क्योंकि, प्रवाहसे न आये हुए उपदेशके अनुसार भी डेढ़ गुणहानि मात्र समयप्रबद्ध पाये जाते हैं।
शंका-कषायप्राभृतमें मोहनीयके कहे गये निर्लेपनस्थान शानावरणके कैसे कहे जा सकते हैं।
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१, २, ४, ७६.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त [२९९ उत्तणिल्लेवणहाणाणि णाणावरणस्स कधं वोत्तुं सक्किज्जते ? ण, विरोहाभावादो।)
तवदिरित्तमजहण्णा ॥ ७६ ॥
संपधि अजहण्णदव्वपरूवणे कीरमाणे चउव्विहा परूवणा होदि । तं जहाखविदकम्मंसियस्स कालपरिहाणीए एगा', गुणिदकम्मंसियस्स कालपरिहाणीए' बिदिया, खविदकम्मंसियस्स संतदो तदिया, गुणिदकम्मंसियस्स संतदो चउत्थो त्ति । तत्थ ताव पुवकोडिसमयाणं सेडिआगारेण रचणं कादण खविदकम्मसियस्स कालपरिहाणीए अजहण्णदवपमाणपरूवणं कस्सामा । तं जहा - पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्मविदि सुहुमणिगोदेसु खविदकम्मसियलक्खणेण अच्छिय तदो हिस्सरिदण तसकाइएस उप्पज्जिय पुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमासजमंकडयाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि सम्मत्तकंडयाणि पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि अणताणुबंधिविसंजोजणकंडयाणि च अट्ट संजमकंडयाणि चदुक्खुत्तो कसायउवसामणं च समयाविरोहेण कादूण बादरपुढविकाइयपज्जत्तएसु उववन्जिय मणुसेसु उववण्णो । तदो सत्तमासाहियअहि वासेहि तिण्णि वि करणाणि कादूण सम्मतं संजमं च जुगवं पडि
समाधान- महीं, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं है। द्रव्यकी अपेक्षा जघन्यसे भिन्न ज्ञानावरणकी वेदना अजघन्य है ॥ ७६ ॥
अच अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते समय चार प्रकारकी प्ररूपणा है। यथा-क्षपितकर्माशिकके कालपरिहानिकी अपेक्षा एक, गुणितकौशिकके कालपरिहानिकी अपेक्षा द्वितीय, क्षपितकर्माशिकके सत्त्वकी अपेक्षा तृतीय और गुणितकमाशिकके सत्यकी अपेक्षा चतुर्थ । उनमेंसे पहिले पूर्वकोटिके समयोंकी श्रेणि रूपसे रचना करके क्षपितकशिकके कालपरिहानिकी दृष्टि से अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं । यथा-पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोद जीवों में क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे रहकर फिर यहांले निकलकर प्रसकायिकों में उत्पन्न होकर पश्चात् पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयमकाण्डकोको, पल्यापमके असंख्यातवें भाग मात्र सम्यक्त्वकाण्डकोको, पल्योपम्के असंख्यातवें भाग मात्र अनन्तानुबन्धिविसंयोजनकाण्डकोको, आठ संयमकाण्डकोको तथा चार वार कषायोपशामनाको समयमें कही गई विधिक अनुसार करके बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो पुनः मनुष्यों में उत्पन्न हुभा । पश्चात् सात मास अधिक आठ वर्षों में तीनों ही करणे को करके उनके द्वारा सम्यक्त्व व संयमको एक साथ प्राप्त कर फिर कुछ कम पूर्वकोटि काल तक
, प्रतिषु 'कालपरिहाणी एगा' इति पाठ। २ आप्रतौ 'परिहाणीण', तापतौ 'परिहाणी' इति पाठः । ३ अ-आप्रत्योः संजोयण-' इति पाठः। ४ अ-आ-काप्रतिषु सम्मत्त संजम' इति पाठः।
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छक्खंडागमे यणाख
पब्जिय पुणो देसूणपुष्वकोडिं संजमगुणसेडाणिज्जरं कादण अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोजिय दसणमोहणीयं खविय अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए ति चारित्तमोहक्खवणाए अन्भु. हिय द्विदि-अणुभागखंडयसहस्सेहि गुणसेडिणिजराए च चारित्तमोहणीयं खविय खीणकसायचरिमसमए एगणिसेगहिदीए एगसमयकालाए चेट्टिदाए णाणावरणीयस्स जहण्णइन्वं होदि।
एदस्स जहण्णदब्वस्सुवरि ओकड्डुक्कडणमस्सिदूण परमाणुत्तरं वडिदे' जहण्णमजहण्णहाणं होदि । जहण्णहाणं पेक्खिदण एदमणंतमागाहियं होदि, जहण्णदब्वेण जहण्णदव्वे भागे हिदे एगपरमाणुवलंभादो। पुणो दोसु परमाणुसु वडिदेसु अणंतभागवड्डी चेव होदि, अणतेण जहण्णव्वदुभागेण जहण्णदब्वे भागे हिदे दोणं परमाणूणमुवलंभादो। पुणो तिसु पदेसेसु वड्विदेसु अणंतभागवड्डीए तदियमजहण्णहाणं' होदि, जहण्णतद्दव्यतिभागेण जहण्णदब्वे भागे हिदे तिष्णं परमाणूणमुवलंभादो। एवं उक्कस्ससंखेज्जमेतपदेसेसु वि वडिदेसु अणंतभागवड्डीए चेव उक्कस्ससंखेज्जमत्ताणि अजहण्णदव्वट्ठाणाणि उप्पज्जंति, जहण्णदव्वस्स उक्कस्ससंखेज्जमागेण अणतेण जपणदष्वे भागे हिंदे
संयमगुणश्रेणिनिर्जरा करके अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना करके दर्शन मोहनीयका क्षय करके जीवितके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर चारित्रमोहकी क्षपणामें रचत होकर हजारों स्थिति काण्डकघात, हजारों अनुभागकाण्डकघात और गुणथेणिनिर्बरा द्वारा चारित्रमोहनीयका क्षय करके सीणकपायके अन्तिम समयमें एक समय कालवाली एक निषेकस्थिति के स्थित होनेपर शानावरणीयका जघन्य द्रव्य होता है।
इस जघन्य द्रव्यके ऊपर भपकर्षण तथा उत्कर्षणका भाश्रय कर एक परमाणु अधिक आदि क्रमसे वृद्धि होनेपर जघन्य अजघन्य स्थान होता है। जघन्य स्थानकी अपेक्षा यह अनन्तवें भागसे अधिक है, क्योंकि, जघन्य द्रव्यका जघन्य द्रव्यमें माग देनेपर एक परमाणु ही लब्ध मिलता है। पुनः दो परमाणुओंकी वृद्धि होनेपर भनम्तमागवृद्धिही होती है, क्योंकि, जघन्य द्रव्यके द्वितीय भाग )रुप अनन्तका जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर दो परमाणु लब्ध आते हैं। पुनः तीन प्रदेशोंकी वृद्धि होनेपर मनम्तभागवृद्धिका तृतीय अजघन्य स्थान होता है, क्योंकि, जघन्य द्रव्यके तृतीय मागका जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर तीन परमाणु लब्ध आते हैं। इस प्रकार उत्कर संख्यात मात्र प्रदेशोंके भी बढ़नेपर अनन्तभागवृद्धिके ही उत्कृष्ट संख्यात मात्र भजघन्य इम्यस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, जघन्य द्रव्यके उत्कृष्ट संख्यातवें भाग रूप मनन्तका
. भाप्रतौ महीएदे' इति पाठः। २ भ-काप्रत्योः सीदयजग्णवाणं' पति पाठ
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४, २, ४, ७६.]
यणमहाहियारे बेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ३०१
उक्कस्स संखेज्जमेत्तरूवाणमुवलंभादो | एवं परमाणुत्तरकमेण वड्डावियं अजहण्णदव्ववियप्पा वक्तव्वा जाव जहण्णदव्वं जहण्णपरित्ताणंतेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्ता परमाणू वडिदा त्ति । तावे वि अणतभागवड्डी चैव, जहण्णपरित्ताणंतेण जहण्णदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तउडिदसणाद। । पुणो एदस्सुवरि एग दुपरमाणुम्मि' वडिदे अण्णो वि अजद्दण्णदब्ववियप्पो होदि । एसो वियप्पो अनंतभागवडीए चेव जाद। । कुदो ? उक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जादो उवरिमसंखाएँ अनंत संखंतब्भावादो' । एदस्स अजहण्णदव्वस्स भागद्दारपरूवणं कस्सामो तं जहा जहण्णपरित्ताणंत विरलिय जहण्णदव्वं समखंड काढूण दिण्णे रूवं पडि जहण्णपरित्ताणंतेण जहण्णदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडं पावदि । पुणो तत्थ एगरूवधरिदं वड्डिरूवोवट्टिदं हेट्ठा विरलेदूम उवरिमएगरूवधरिदं समखंड काढूण दिण्णे रूवं पडि एगेगपरमाणू पावदि । तं घेतूण उवरिमविरलणरूवधरिंदेसु समयाविरोहेण दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं प्रमाणं उच्चदे । तं जहा - रूवाहियदेट्टिमविरलणमेत्तद्वाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लग्भदि
जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर उत्कृष्ट संख्यात मात्र अंक लब्ध आते हैं । इस प्रकार एक एक परमाणु अधिकता के क्रमसे बढ़ाकर जघन्य द्रव्यको जघन्य परीतानन्तसे स्खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र परमाणुओंकी वृद्धि होने तक भजघन्य द्रव्यविकल्पों को कहना चाहिये। तब तक भी अनन्तभागवृद्धि ही है, क्योंकि, जघन्य परीतानन्त से जघन्य द्रव्यको खण्डित करनेपर उनमें से एक खण्ड मात्रकी वृद्धि देखी जाती है । पुनः इसके ऊपर एक दो परमाणुकी वृद्धि होनेपर अन्य भी अजघन्य द्रव्यका विकल्प होता है | यह विकल्प अनन्तभागवृद्धिका ही है, क्योंकि, उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातसे आगेकी संख्या अनन्त संख्या के अन्तर्गत है ।
अब इस अजघन्य द्रव्यके भागहारकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- जघन्य परीक्षानम्तका विरलन कर जघन्य द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति जघन्य परीतानन्तसे जघन्य द्रव्यको भाजित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड पाया जाता है । पश्चात् उनमें से एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको वृद्धि रूपोंसे अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसका नीचे विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देमेपर प्रत्येक एकके प्रति एक एक परमाणु प्राप्त होता है । उसको ग्रहण कर उपरिम विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्य में समयाविरोधसे देकर समीकरण करते समय परिहीन रूपका प्रमाण कहते हैं। यथा- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान आकर यदि एक
१ अ आ का प्रतिषु दव्वाविय' इति पाठः) २ अ-आप्रत्योः । परिमाणम्मि' इति पाठः । ६ प्रति 'करिमसंकोजाए' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिष्ठ 'सक्त भावावो', तामतौ ' संततमानादो' इति पाठः ।
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३०२) छक्खंडागमे यणाखंड
[१, २, ,.. तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स अणंतिमभागो लन्भदि । तम्मि जहण्णपरित्ताणतम्मि सोहिदे सुद्धसेसमुक्कस्सअसंखज्जासंखेज्जमेत्तरूवाणि एगरूवस्स अणंताभागा च भागहारो होदि । एदेण जहण्णदब्बे भागे हिदे इच्छिददव्वं होदि । एदस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण षड्विदअजहण्णदव्वाणमणंतभागवड्वाए छेदभागहारो होदि । पुणो हेट्ठा उक्कस्समसंखेज्जासंखेज्ज' विरलेदूण उवरिमएगरूवधारदं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि अणंतपरमाणओं पार्वेति । पुणो ते उपरिमरूवधरिदेसु दादण समकरणे कदे परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे । तं जहारूवाहियटिमविरलणमेत्तद्धाणे जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लभामा ति पमाणेण फलगुणिदइच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवमागच्छदि । तम्मि उवरिमविरलणाए सोहिदे सेसमुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्ज होदि । एदेण जहण्णदव्वे भागे हिदे भजहण्णहाणं होदि । एत्थेव असंखेज्जभागवड्डीए आदी जादा । संपधि एदस्सुवरि एगपरमाणुम्मि वडिदे तदणंतरउवरिमअजहण्णदव्वं होदि । एदस्स च्छेदभागहारो होदि ।
...........
अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलगुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे अपवर्तित करनेपर एक अंकका अनन्तवां भाग प्राप्त होता है । उसको जघन्य परीतानन्तमें से कम करने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात और एकका अनन्त बहुभाग शेष रहता है जो प्रकृतमें भागहार होता है । इसका जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर इच्छित द्रव्य होता है। इसके ऊपर एक एक परमाणु अधिक क्रमसे वृद्धिको प्राप्त अजघन्य द्रव्योंकी अनन्तभागवृद्धि का छेदभागहार होता है । पुनः नीचे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका विरलन कर उपरिम विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर घिरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति अनन्त परमाणु प्राप्त होते हैं। पश्चात् उन्हें उपरिम विरलन राशिके प्रति देकर समीकरण करने पर परिहीन रूपोका प्रमाण कहते हैं । यथा- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जानेपर यदि एक अंककी परिहानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलगुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे अपवर्तित करनेपर लब्ध पक अंक आता है। उसको उपरिम विरलनमेंसे कम करनेपर शेष उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है। इसका जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर अजघन्य स्थान होता है। यहां ही असंख्यातभागवृद्धिका मादि होता है। अब इसके ऊपर एक परमाणुकी वृद्धि होनेपर तदनन्तर उपरिम मजघन्य द्रव्य होता है । इसका छेदभागहार होता है । इस प्रकार तब तक छेदभागहार
। प्रतिषु 'अणंतापभागा' इति पारः। । अ-कापत्योः तातो 'परमाणूओ' इति पाठः ।
फस्ससंखेम्जासंखे' इति पास।
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१, २, ५, ७६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्त
[३०३ एवं छेदभागहारो चैव होदूण गच्छदि जाव उवरिमएगरूवधरिदं रूवूणुक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जेण खंडिदण तत्थ रूवूणमेगखंड वडिदेत्ति । पुणो संपुण्णे खंडे वडिदे समभागहारो होदि । एवं छेदभागहार-समभागहारसरूवेण ताव भागहारो गच्छदि जाव तप्पाबोग्गपलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागं पत्तो त्ति । पुणो एदेण जहण्णदव्वे भागे हिदे एगसमयमोकडिदूण खीणकसायचरिमसमयादो हेट्ठा पक्खिविय विणासिदव्यमागच्छदि । पुणो एवं वड्डिद्ण विदो च, अण्णेगो जीवो जद्दण्णसामितविधाणेणागंतूण समऊण. पुवकोडिं संजममणुपालिय खवणाए अब्भुट्ठिय तदो खीणकसायचरिमसमए एगणिसगमेगसमयकालं धरिदूण विदो च, सरिसा । पुणो पुविल्लखवगं मोत्तूण समऊणपुग्धकोडिसंजमखवगं घेतण परमाणुतर-दुपरमाणुत्तरकमेण अणतभागवड्डि-असंखेज्जमागवडीहि एगसमयमोकड्डिदण खीणकसायचरिमसमयादो हेवा पक्खिविय विणासिददव्वं वढावेदग्वं । एवं वडिदूण ठिदो च, तदो अण्णेगो खवगो दुसमऊणपुवकोर्डि संजममणुपालिय खीणकसायचरिमसमए ठिदो च, सरिसा । एवमेगेगसमयमोकड्डिदूण विणासिददव्वं वड्ढावेदूण पुवकोडिं तिसमऊण चदुसमऊणादिकमेण ऊणं संजदगुणसेडिं कराविय ओदारेदध्वं जाप
ही बना रहता है जब तक उपरिम एक विरलनके प्रति प्राप्त राशिको उत्कृष्ट असंख्याता. संख्यातसे खण्डित कर जो लब्ध आवे उनमेंसे एक कम एक खण्ड नहीं बढ़ जाता। पश्चात् सम्पूर्ण खण्डके बढ़नेपर समभागहार होता है। इस प्रकार छेदभागहार भोर समभागहार स्वरूपसे भागहार तब तक रहता है जब तक कि तत्प्रायोग्य पल्योपमका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। पश्चात् इसका जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर एक समय कम कर और क्षीणकषायके अन्तिम समयसे नीचे लाकर नाशको प्राप्त हुआ द्रव्य आता है। पुनः इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त होकर स्थित हुभा जीव, तथा अन्य एक जीव जो जघन्य स्वामित्वके विधानसे आकर एक समय कम पूर्वकोटि तक संयमका पालन कर क्षपणामें उद्यत होकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमै एक समय कालवाले एक निषेकको धरकर स्थित है, ये आपसमें समान हैं। पुनः पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर एक समय कम पूर्वकोटि तक संयमको पालनेवाले क्षपकको ग्रहण कर एक परमाणु अधिक दो परमाणु अधिकके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यात. भागवृद्धिके द्वारा एक समय कम कर क्षीणकषायके अन्तिम समयसे नीचे लाकर विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त होकर स्थित हुआ जीव, तथा अन्य एक क्षपक जो दो समय कम पूर्वकोटि तक संयमका पालनकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित है, आपसमें समान हैं। इस प्रकार एक एक समय कम करते हुए विनाशित द्रव्यको बढ़ाकर तनि समय कम व चार समय कम भादिके क्रमसे हीन पूर्षकोत तक संयमगुणश्रेणि कराकर उतारना चाहिये अब
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१०४ )
खंडागमे वैयणाखंड
[ ४, १, ४, ७६.
tood जीवो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसु उववज्जिय सत्तामासाहियअट्ठवासाणमुवरि सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजो जिय दंसणमोहणीयं स्वविय खीणकसाओ होदूण संखेज्जडिदिखंडय सहस्साणि घादेदूण पुणो सेसखीणकसायद्धं मोसूण चरिमट्ठिदिखंडयस्स चरिमफालिं घेत्तूण खीणकसायसेसद्धारा उदयादिगुणसे डिकमेण संतुहिय कमेण गुणसेडिं गालिय एगणिसेगमेगसमयकालं धरेद्गे द्विदो त्ति । एवं वडिदे पुणो एदस्स हेट्ठा ओदारेदुं ण सक्कदे, जहण्णत्तं पत्तसव्वद्धासु परिहाणीए करणोवायाभावादो । पुणो एत्थ परमाणुत्तर - दुपरमाणुत्तरकमेण निरंतर मेगो समयपबद्ध । वढावेदव्वो । कुदो ? खविदकम्मंसियम्मि उक्कस्सेण एगो चैव समयपबद्धो वढदि त्ति गुरूवएसादो ।
तदो अण्णा खविद घोलमाणलक्खणेण आगंतूण मणुस्से सुप्पज्जिय सत्तमा साहियअट्ठवासाणमुवरि सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तूण सव्वजहण्णेण कालेन संजमगुणसे काढूण खवणाए अब्भुडिय सव्वजद्दण्णखवणकालेण खीणकसाय चरिमसमयद्विदखविदघोलमाणो पुव्विल्लेण सरिसो वि अस्थि ऊणो' वि अस्थि । तत्थ सरिसं घेतूण परमाणुत्तर- दुपरमाणुत्तरादिकमेण अनंत भागवड्डि-असंखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुण
तक दूसरा एक जीव क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षोंके पश्चात् सम्यक्त्व व संयमको ग्रहणकर अनन्तानुबन्धिचतुष्कका विसंयोजन करके दर्शनमोहका क्षय कर क्षीणकषाय होकर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका घातकर पश्चात् शेष क्षीणकषायकालको छोड़कर अन्तिम स्थिति काण्डककी अन्तिम फालिको ग्रहणकर क्षीणकषायके शेष कालमें उदयादि गुणश्रेणिके क्रमसे निक्षेप कर क्रमसे गुणश्रेणिको गलाकर एक समय कालवाले एक निषेकको धरकर स्थित होता है। इस प्रकार वृद्धि होनेपर फिर इसके नीचे उतारमा शक्य नहीं है, क्योंकि, जघन्यताको प्राप्त सब कालों में परिहानि करनेका कोई अन्य उपाय नहीं पाया जाता । पश्चात् यहां एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक के क्रमसे निरन्तर एक समयप्रबद्ध बढ़ाना चाहिये, क्योंकि, क्षपितकर्माशिक जीवके उत्कृष्ट रूप से इस प्रकार एक ही समयप्रबद्ध बढ़ाया जा सकता है, ऐसा गुरुका उपदेश है ।
इससे भिन्न क्षपितघोलमान स्वरूपसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न हो सात मास अधिक आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व व संयमको एक साथ ग्रहण कर सर्वजघन्य कालसे संयमगुणश्रेणि करके क्षपणा में उद्यत होकर सर्वजघन्य क्षपणकालसे क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित क्षपितघोलमान जीव पूर्वोक्त जीवके सदृश भी है व हीन भी है। उनमें सशको ग्रहण कर जघन्यसे असंख्यातगुणा प्राप्त होने तक एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक इत्यादि क्रमले अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भाग
१ अ आ-काप्रतिषु कृणा' इति पाठ
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४, २, ४, ७६ }
यणमहाहियारे यणदव्वविहाणे सामित्स
[ ३०५
वड्डि- असंखेज्जगुणवड्ढि ति पंचहि वड्डीहि वढावेदव्वं जाव जहण्णादो उक्कस्समसंखेज्जगुणं पत्तमिदि । पुणो अण्णेगो गुणिद-घोलमाणो मणुस्सेसु उववज्जिय सत्तमासा - हियअ वासाणमुवरि सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण खवगसेडिमन्मुट्ठिय खीणकसायस्स चरिमसमए ट्ठिदो पुव्विल्लदव्वेण सरिसो वि ऊणा वि अस्थि । पुणो सरिसदव्वं घेतून परमाणुत्तरादिकमेण दोहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव उक्कस्सदव्वं जादं ति' । एवं वडिदे तदो अण्णो जीवो गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागतूण मणुस्से सुववज्जिय सत्तमासाद्दियअडवासाणमुवीर सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण खवणाए अम्भुट्ठिय खीणकसायचरिमसमए ठिदो, तस्स द गुणिद घोलमाणदव्वेण सरिसं पि अस्थि ऊणं पि अस्थि । तत्थ सरिसं घेतून परमाणुत्तरादिकमेण अणंतभागवड्डि-असंखेज्जभागवड्डीहि वढावेदव्वं जाव अप्पणी ओघुक्कस्सदव्वेत्ति ।
तत्थ ओघुक्कस्सदव्वस्स साभी उच्चदे । तं जहा गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमए उक्कस्सदव्वं काढूण तिरिक्खेसु उववज्जिय पुणो मणुस्सेसु उपज्जिय सत्तमा साहियअट्ठवासाणमुवरि सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण खीणकसाओ जादो,
वृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि, इन पांच वृद्धियों द्वारा बढ़ाना चाहिये । पश्चात् दूसरा एक गुणितघोलमान जीव मनुष्योंमें उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षो के ऊपर सम्यक्त्व व संयमको ग्रहण कर क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ होकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित हुआ पूर्वोक्त जीवके द्रव्यसे सदृश भी है और हीन भी है । पुनः सदृश द्रव्यवालेको ग्रहण कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे उत्कृष्ट द्रव्य होने तक दो वृद्धियोंसे बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त होनेपर उससे दूसरा जीव जो गुणितकर्माशिक स्वरूपसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न हो सात मास अकिक आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व व संयमको ग्रहण कर क्षपणामें उद्यत होकर क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित हुआ है, उसका द्रव्य गुणितघोलमान जीवके सदृश भी है और होन भी । उनमें सदृशको ग्रहण कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यात भागवृद्धिसे अपने ओघके उत्कृष्ट द्रव्य तक बढ़ाना चाहिये !
उनमें ओघ उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामीकी प्ररूपणा करते । यथा- गुणितकर्माशिक जीव सप्तम पृथिवीस्थ नारकीके अन्तिम समय में उत्कृष्ट द्रव्य करके तिर्यचों में उत्पन्न होनेके पश्चात् मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षों के ऊपर सम्यक्त्व और संयमको ग्रहण कर क्षीणकषाय हुआ । उस क्षीणकषायका अन्तिम
१ अ आ-वाप्रतिषु 'जादेति पाठः ।
छ. वे. ३९.
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२०११ छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ५, ७६. तस्स खीणकसायस्स चरिमसमयदव्वं ओघुक्कस्सभिदि भण्णदे । संपधि गुणिदकम्मसियजहण्णदयादो उक्कस्सदव्वं विसेसाहियं चेव जादं । तं केण कारणेण ? जहण्णदव्यस्सुवीर उक्कस्सेण एगो चेव समयपत्रद्धों' वढदि ति गुरूवंदसादो। संपधि मणुसदध्वस्सेव वड्ढी पत्थि त्ति । पुणो एदेण खीणकसायदव्वेण सह णारगचरिमसमयदव्वमहियं पि' अस्थि समं पि । तत्थ समं घेत्तूण परमाणुत्तररादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव गुणिदकम्मंसियओघुक्कस्सदव्येत्ति। संपधि जहण्णट्ठाणं उक्कस्सट्ठाणम्मि सोहिदे सुद्धसेसमेत्ताणि अजहणट्ठाणाणि पिरंतरगमणादो एग फद्दयं ।
संपधि गुणिदकम्मंसियस्स कालपरिहाणीए अजहण्णदवपमाणं वसइस्सामो । तं जहा- जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण खीणकसायचरिमसमयम्मि एगणिसेगमेगसमयकालं जहण्णदव्वं होदि । पुणो एदस्सुवीर परमाणुत्तरादिकमेण देोहि वड्डीहि खविदो', खविदघोलमाणो' पंचहि वड्डीहि, गुणिदघोलमाणो पंचहि वड्डीहि, गुणिदकम्मंसिओ
समय सम्बन्धी द्रव्य ओघ उत्कृष्ट द्रव्य कहा जाता है । अब गुणितकर्माशिकके जघन्य द्रव्यसे उत्कृष्ट द्रव्य विशेष अधिक ही हुआ।
शंका-गुणितकर्माशिक जघन्य द्रव्यसे जो उत्कृष्ट द्रव्य विशेष अधिक ही हुआ है, वह किस कारणसे ?
समाधान- कारण कि जघन्य द्रव्यके ऊपर उत्कृष्ट रूपसे द्रव्यका एक समयप्रबद्ध ही बढ़ता है, ऐसा गुरुका उपदेश है।
अब केवल मनुष्य के द्रव्य के ही वृद्धि नहीं है। किन्तु इस क्षीणकषायके द्रव्यके साथ नारकीका अन्तिम समय सम्बन्धी द्रव्य अधिक भी है और समान भी है । उनमें समानको ग्रहण कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे गुणितक्रर्माशिकके उत्कृष्ट द्रव्य तक बढ़ाना चाहिये । अब उत्कृष्ट स्थानमें से जघन्य स्थानको कम करनेपर जो शेष रहे उतमे अजघन्य स्थान हैं जो विना अन्तरके प्राप्त होनेसे एक स्पर्द्धक रूप हैं ।
. अम कालकी हानिका आश्रय कर गुणितकर्माशिकके अजघन्य द्रव्यका प्रमाण कहते हैं । यथा- जघन्य स्वामित्वके विधानसे आकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें एक समय स्थितिवाला एक निषक जघन्य द्रव्य होता है। पश्चात् इसके ऊपर एक परमाणु आधिक इत्यादि क्रमसे क्षपित [कर्माशिक] को दो वृद्धियोंसे, क्षपितघोलमानको पांच वृद्धियोंसे, गुणितघोलमानको पांच वृद्धियोसे और गुणितकर्माशिकको दो वृद्धियोसे
..................
१ अ-आ-काप्रति 'उक्कस्सेण दस्वस्स समयपुवो' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु 'वि' इति पाठः । भ-मा-काप्रतिषु 'सविदा' इति पाठः। ४ अ-आप्रत्योः 'घोलमाणे' पति पाठः ।
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५, २, ४, ७६.1 वेषणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्तं
[३०७ दोहि बड्डीहि षड्ढावेदव्यो जाव गरइयचरिमसमए उक्कस्सदव्य कादण दो-तिण्णि. भवग्गहणाणि तिरिक्खेसु उववज्जिय पुणो मणुस्सेसु उपज्जिय सत्तमासाहियअट्ठवासाणमुवीर सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण देसूणपुव्वकोडिं संजमगुणसेडिणिज्जर कादूण थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति खवगसेडिं चडिय खीणकसायचरिमसमर विददवेण सरिस आदेत्ति । संपहि एदस्स दव्वस्सुवीर एगो वि परमाणू ण षड्ढदि, पत्तुक्कस्सत्तादो।।
___ अण्णो जीवो गुणिदकम्मसिओ एगसमयमाकड्डिदूण विणासिज्जमाणदषेण ऊणमुक्कस्सदव्वं सत्तमपुढविणेरइय चरिमसमए कादण तिरिक्खेसुववज्जिय मणुस्सेसु उपवण्णो, पुणो समऊणपुव्यकोडिं संजममणुपालिय खीणकसाओ जादो । तस्स चरिमसमयदवं पुपदव्वेण सरिसं होदि । संपधि पुबिल्लखवगं मोत्तण समऊणपुवकोडिं हिंडिदखवगं घेत्तूण अप्पणो ऊणं कादूणागददव्वं परमाणुत्तरादिकमेण दोहि वड्डीहि वढावेदव्वं जाउक्कस्सदव्वं पत्तं ति ।
तदो अण्णो जीवो गुणिदकम्मंसिओ एगसमयमोकड्डिदूग विणासिज्जमाणदव्वेण
बढ़ाना चाहिये जब तक कि नारकके अन्तिम समयमै उस्कृष्ट द्रव्यको करके दो-तीन भवग्रहण तिर्यंचों में उत्पन्न होकर पश्चात् मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व व संयमको ग्रहण कर कुछ कम पूर्वकोटि तक संयमगुणश्रेणिनिर्जरा करके जीवितके स्तोक शेष रहनेपर क्षपक श्रेणि चढ़ कर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित जीवके द्रव्यके सदृश नहीं हो जाता। अब इस द्रव्य के ऊपर एक भी परमाणु नहीं बढ़ता, क्योंकि, वह उत्कृष्टपने को प्राप्त हो चुका है।
__ अब गुणित कर्माशिक दूसरा जीव है जो एक समय अपकर्षण कर विनाश किये जानेवाले द्रव्यसे हीन उस्कृष्ट द्रव्यको सप्तम पृथिवीस्थ नारकीके अन्तिम समय में करके तिर्यचों में उत्पन्न होकर फिर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। पश्चात् एक समय कम पूर्वकोटि तक संयमका पालन कर क्षीणकषाय हुआ। उसके अन्तिम समयका द्रव्य पूर्वके द्रव्यसे समान है । अब पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर एक समय कम पूर्वकोटि तक घमे हुए क्षपकको ग्रहण कर अपने हीन करके प्राप्त हुए द्रव्यको एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने तक दो वृद्धियोंसे बढ़ाना चाहिये।
उससे भिन्न दूसरा जीव गुणितक शिके एक समय अपकर्षण कर विनाश किये जानेघाले द्रव्यसे हीन उस्कृष्ट द्रव्यको सप्तम पृथिवीस्थ मारकके अन्तिम समयमें
। अ-आ-काप्रति बोरावसे सेण' इति पाठः।
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३०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, ७६. ऊणमुक्कस्सदव्वं सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमए कादण दुसमऊणपुवकोडिं संजमगुणसेडिणिज्जरं करिय चारित्तमोहणीयं खवेदूण खीणकसायचरिमसमए हिददव्वं पुव्वदव्वेण सरिसं होदि । पुणो तं मोत्तूण इमं घेतूण परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्यो जाउक्कस्स
वेत्ति । एवं वड्डिदूण दिदव्वेण अण्णेगो जीवो गुणिदकम्मंसिओ पुव्वविधाणेण एगसमएण ओकड्डिदूण विणासिज्जमाणदव्वेण ऊणमुक्कस्सदव्वं कादण तिसमऊणपुव्वकोडिं संजमगुणसेडिणिज्जर करिय खीणकसायचरिमसमए विदस्स दव्वं सरिसं होदि । एवं कमेण वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव सत्तमपुढविणेरइय चरिमसमए उक्कस्सदव्वं कादण तत्तो णिप्पिडिय मणुस्सेसुप्पज्जिय सत्तमासाहियअट्ठवासाणमुवीर सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण खवगसेडिमभुट्टिय खीणकसायचरिमसमए ट्ठिदस्स दव्वेण सरिसं जादेत्ति । एत्तो उरि मणुस्सेसु वड्डी णत्थि । संपहि एदेण सरिसं णेरड्यदव्वं घेत्तर्ण वड्ढाविदे अणंताणि द्वाणाणि एगफद्दएण उप्पण्णाणि ।।
संपहि खविदकम्मंसियस्स संतकम्ममस्सिदूण अजहण्णपदेसदब्ववियप्पपरूवणं कस्सामो । तं जहा- खविदकम्मंसियलक्खणेण सुहुमणिगोदेसु पलिदोवमस्स असंखेजदि
करके दो समय कम पूर्वकोटि तक संयमगुणश्रेणि द्वारा निर्जरा करके चरित्रमोहनीयका क्षय करके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित होता है । उसका द्रव्य पूर्वोक्त जीवके द्रव्यसे सहश है । पुनः उसको छोड़कर और इसे ग्रहण कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे उत्कृष्ट द्रव्य तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित द्रव्यके साथ दूसरे एक गुणितकर्माशिक जीवका द्रव्य सदृश होता है, जो पूर्व विधिसे एक समयसे अपर्षण कर विनाश किये जानेवाले द्रव्यसे हीन उत्कृष्ट द्रव्यको करके तीन समय कम पर्वकोटि तक संयमगुणश्रेणि द्वारा निर्जरा करके क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित होता है। इस प्रकार क्रमसे बढ़ाकर सप्तम पृथिवीस्थ नारकके अन्तिम समय में उत्कृष्ट द्रव्य करके वहांसे निकल कर मनुष्यों में उत्पन्न हो सात मास अधिक आठ वाँके ऊपर सम्यक्त्व व संयमको ग्रहण कर क्षपकश्रेणिपर आरूढ हो क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित जीवके द्रव्यके समान हो जाने तक उतारना चाहिये । इसके आगे मनुष्यों में वृद्धि महीं है। अब इसके सदृश नारकद्रव्यको ग्रहण कर बढ़ानेपर एक स्पर्द्धक रूपसे अनन्त स्थान उत्पन्न होते हैं।
अब क्षपितकर्माशिकके सत्वका आश्रय कर अजघन्य प्रदेशद्रव्यके विकल्पोंकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- क्षपितकौशिक स्वरूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोद जीवोंमें रहकर पश्चात् पल्योपमके
, मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु । दबखेतोण ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ७६.)
वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त
भागेण ऊणियं कम्मठ्ठिदिमच्छिय पुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जीदभागमेताणि संजमासंजमकंडयाणि, ततो विसेसाहियाणि सम्मतकंडयाणि अणंताणुबंधिविसंजोजणकंडयाणि चं, अट्ठ संजमकंडयाणि च, चदुक्खुतो कसायउवसामणं च कादूग मणुस्सैसुप्पज्जिय सत्तमासाहियअवस्साणमुवीर सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण अगंताणुबंधिचदुक्कं विसंजोजेदूण दंसणमोहणीयं खविय देसूणपुवकोडिं संजमगुणसेडिणिज्जर करिय खवगसेडिमारुहिय चरिमसमयखीणकसाओ जादो, तस्स जहणणदव्वं होदि । तत्थ एगो जहाणिसेगो, अण्णेगा खीणकमायगुणसेडिगोवुच्छा, अण्णगों सुहुमसांपराइयगुणसेडिगोउच्छा अणियट्टिगुणसेडिगोवुच्छा अपुवकरणगुणसेडिगोवुच्छा च अस्थि । संपहि पदस्सुवीर परमाणु त्तरादिकमेण अणंतमागवडि-असंखेज्जभागवड्वाहि दुचरिमगुणसेडिगोवुच्छमेतं वड्ढावेदव्यं । एवं वड्डिदृणाच्छिदे तदो अण्णो जीवो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण खीणकसायदुचरिमसमए द्विदो । एदस्स दबं पुव्विल्लदव्वेण सरिसं होदि । पुणो पुविल्लखवगं मोत्तूण संपधियखवगं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव तिचरिमगुणसेडिगोवुच्छपमाणं वड्डिदेत्ति । एवं वविदूणच्छिदे तदो अण्णो जीवो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण
असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयमकाण्डकोंको, उनसे विशेष अधिक सम्यक्त्वकाण्ड कोको व अनन्तानुबन्धिविसंयोजनकाण्डकोंको, आठ संयमकाण्डकोंको तथा चार बार कषायउपशामनाको करके मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षों के ऊपर सम्यक्त्व व संयमको ग्रहण कर अनन्तानुबम्धिचतुष्कका विसंयोजन कर दशेनमोहनीयका क्षय कर कुछ कम पूर्वकोटि तक संयमगुणश्रेणि रूप निर्जरा करके क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हो अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय हुआ है, उसके जघन्य द्रव्य होता है । वहां एक यथानिषेक, अन्य एक क्षीणकषाय गुणश्रेणिगोपुच्छा, अन्य एक सूक्ष्मसाम्परायिक गुणश्रेणिगोपुच्छा, अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणिगोपुन्छा और अपूर्वकरण गुणश्रेणिगोपुच्छा भी है। अब इसके ऊपर एक परमाणु अधिक आदि के क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि द्वारा द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छा मात्र बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त हो यह जीव स्थित है, और एक दूसरा जीव जघन्य स्वामित्वके विधानसे आकर क्षीणकषायके द्विचरम समयमें स्थित हुआ तो इसका द्रव्य पूर्व जीष के द्रव्यके सदृश होता है । पश्चात् पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर और साम्प्रतिक क्षपकको ग्रहण करके एक परमाणु आदिके क्रमसे त्रिचरम गुणश्रेणिगोपुच्छा मात्र वृद्धि होने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार वृद्धि करके यह जीव स्थित है, और एक इससे भिन्न दूसरा जीव जघन्य स्वामित्वके विधानसे आकर त्रिचरम समयवर्ती क्षीण कषाय हुआ तो
, अ-आ-काप्रतिषु 'च' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते । २ तापतो नोपलभ्यते पदमेतत् । ३ आप्रतौ बद्धिदूट्ठिदे अगो वि जीवो' ते पाठः ।
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११.]
छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, २, ४, ७६. तिचरिमसमयखीणकसाओ जादो । एदस्स दव्वं पुज्वदव्वेण सरिसं होदि । एवमेगेगगुणसेडिगोवुच्छं वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव खीणकसायद्धा सेसा जत्तिया अस्थि तत्तियमेत्तं मोत्तूण चरिमफालिं पादेदूण अच्छिदो ति। एवं वड्डिदणच्छिदे पुणो एदस्सुवरि परमागुत्तरादिकमेण तदणंतरहेट्ठिमगोवुच्छा वड्ढावेदव्वा । तदो एदेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण चरिमफालिं तिस्से उदयगदगुणसेडिगोउच्छं च धरेदूण ट्ठिदखीणकसायस्स दव्वं सरिसं होदि । तदो पुबिल्लखवगं मोत्तूण चरिमफालिखवगं' घेतूण वड्डावेदव्वं जाव दुचरिमफालीए हेट्ठिमउदयगदगुणसेडिगोउच्छमेत्तं वड्ढिदे ति । एदेण दव्वेण खविदकम्मसियलक्खणणागंतूण दुचरिमफालीए सह उदयगदगोउच्छं धरेदूण विददव्वं सरिसं होदि । एवमेगेगगुणसेडिगोवुच्छं वड्ढावदण ओदारेदव्वं जाव सुहुमसांपराइयखवगचरिमसमओ त्ति । संपधि एत्थ वड्ढाविज्जमाणे उवरिमसमयम्मि बद्धदव्वस्स हेट्ठिमसमयम्मि अभावादो णवकबंधेगूणसुहुमखवगदुचरिमगुणसेडिगोवुच्छमेतं वड्ढावेदव्वं । पुणो एदेण सुहुमखवगदुचरिमगुणसेडिगोउच्छं धरेदण दिदव्वं सरिसं होदि। एवं णवकपंधेणूणसुहुमगुणसेडिगोवुच्छा वड्ढाविय' ओदारेदव्वं जाव चरिमसमयअणियट्टि त्ति । पुणो णवकबंधेणूणअणियट्टिदुचरिम
इसका द्रव्य पहिले जीवके द्रव्यके सदृश होता है। इस प्रकार एक एक गुणश्रेणिगोपच्छा बढाकर जितना क्षीणकषायकाल शेष है उतने मात्रको छोड़कर अन्तिम फालिको नष्ट कर स्थित होने तक उतारना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित होनेपर फिर इसके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे उससे अव्यवहित अधस्तन गोपुष्छा बढ़ाना चाहिये । तत्पश्चात् इसके साथ जघन्य स्वामित्वके विधानसे आकर मन्तिम फालि और उसकी उदयप्राप्त गुणश्रेणिगोपुच्छाको लेकर स्थित हुए क्षीणकषायका द्रव्य सदृश होता है । पश्चात् पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर अन्तिम फालिवाले क्षपकको ग्रहण कर द्विचरम फालिकी अधस्तन उदयप्राप्त गुणश्रेणिगोपुच्छा मात्र वृद्धि होने तक बढ़ाना चाहिये। इस द्रव्यके साथ क्षपितकौशिक स्वरूपसे आकर विचरम फालिके साथ उदयप्राप्त गोपुच्छाको लेकर स्थित जीवका द्रव्य सदृश है। इस प्रकार एक एक गुणश्रेणिगोपुच्छाको बढ़ाकर सूक्ष्मसाम्प्रगयिक क्षपकके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये। अब यहां बढ़ाते समय उपरिम समय में बांधे हुए द्रव्यका अधस्तन समयमें अभाव होनेके कारण नवक बन्धले रहित सूक्ष्मसाम्परायिककी द्विचरम गुणश्रणिगोपुच्छा मात्र बढ़ाना चाहिये । पुनः इसके साथ सुक्ष्मसाम्परायिककी द्विचरम गोपुच्छाको लेकर स्थित हुए जीवका द्रव्य सदृश होता है। इस प्रकार नवक बन्धसे रहित सूक्ष्मसाम्परायिक गुणश्रेणिगोपुच्छा बढ़ाकर चरमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरण तक उतारना चाहिये । पश्चात् नवक बन्धसे
१ अ-आ-काप्रतिषु ' चरिमफालि खवगं' पति पाठः । २ तापतौ ' वददिति' इति पाठः । ३ ममतौ गोवानिय ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ७६.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्तं गुणसेडिगोवुच्छमेत्तं वड्ढावेदव्वं । पुणों एदेणाणियट्टिदुचरिमगुणसेडिगोवुच्छं धरेदण ठिददग्वं सरिसं होदि । एवं णवकबंधेणूणअणियट्टिगुणसेडिगोवुच्छं वड्ढाविय ओदारेदव्वं जाव समयाहियावलियअणियट्टि ति। संपहि एत्तो पहुडि णवकबंधेणूणमपुव्वगुणसेडि वढाविय ओदारेदव्वं अणियट्टिस्स उदयादिगुणसेडिणिक्खेवाभावादो जाव समयाहियावलियअपुवकरणेत्ति । पुणेो एत्तो प्पहुडि णवकबंधेणूणसजमगुणसेढिं वड्ढावेदण ओदारदव्वं जाव समयाहियावलियसंजदो त्ति । एत्तो हेट्ठा णवकबंधेणूणमिच्छाइटिगुणसेडिं वड्ढाविय ओदोरदव्वं जाव पढमसमयसंजदो त्ति । संपधि संजदपढमसमए ठवेदण चत्तारिपुरिसे अस्सिदण पंचहि वढ्डीहि वड्दावेदव्वं जाव सत्तमाए पुढवीए णारगचरिमसमए दव्वमुक्कस्सं कादण तत्तो णिप्पडियं तिरिक्खेसु उववज्जियं तत्थ दो-तिण्णिभवग्गहणाणि अंतोमुहृत्तकालाणि अच्छिय पुणो मणुस्सेसु उववज्जिय संजमं पडिवण्णो पढमसमयदव्वं पत्तेत्ति । पुणो एत्थ मणुस्ससु वड्ढी णत्थि ति पढमसमयसंजददव्वेण सरिसं णारगदव्वं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव णारगचरिमसमयउक्कस्सदव्वं पत्तेत्ति ।
रहित अनिवृत्तिकरणकी द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छा मात्र बढ़ाना चाहिये । पुनः इसके साथ अनिवृत्तिकरण की द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छाको लेकर स्थित जीवका द्रव्य सदृश होता है। इस प्रकार नवक बन्धसे रहित अनिवत्तिकरण गुणश्रेणिगोपच्छाको बढ़ाकर एक समय अधिक आवली प्रमाण अनिवृत्तिकरण तक उतारना चाहिये। अब यहांसे लेकर नवक बन्धसे रहित अपूर्वकरण गुणश्रेणिको बढ़ाकर अनिवृत्तिकरणके उदयादिगुणश्रेणिनिक्षेप न होनेसे एक समय अधिक आवली मात्र अपूर्वकरण तक उतारना चाहिये । पश्चात् यहांसे लेकर नवक वन्धसे . रहित संयमगुणश्रेणिको
: एक समय अधिक आवली प्रमाण संयत तक उतारना चाहिये। इससे नीचे नवक बन्धसे रहित मिथ्यादृष्टि गुणश्रेणि बढ़ाकर प्रथम समय संयत तक उतारना चाहिये। अब संयत प्रथम समयको स्थापित कर चार पुरुषोंका आश्रय कर
द्धियों द्वारा बढ़ाना चाहिये जब तक कि सप्तम पृथिवी सम्बन्धी नारकके अन्तिम समयमें द्रव्यको उत्कृष्ट करके नरकसे निकल तिर्यंचों में उत्पन्न हो वहां अन्तर्मुहूर्त स्थितिवाले दो तीन भवग्रहण रहकर फिर मनुष्योंमें उत्पन्न हो संयमको प्राप्त होता हुआ प्रथम समय सम्बन्धी द्रव्यको प्राप्त नहीं हो जाता । पश्चात् चूंकि यहां मनुष्यों में वृद्धि नहीं है, अतः प्रथम समयवर्ती संयतके द्रव्यके सदृश नारकद्रव्यको ग्रहण कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे नारकके अन्तिम समय सम्बन्धी उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये।
पांच
प्रतिषु । जिप्पडिय' इति पात: | २ अ-मा-कापतिषु ' उवमश्यि
इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, ७६. ___ संपधि गुणिदकम्मंसियस संतमस्सिदूण अजहण्णदव्वपरूवणं कस्सामो। तं जहा- खविदकम्मंसिलक्खणेणागंतूण देसूणपुवकोडिं णिज्जरं करिय खीणकसायचरिमसमए एगणिसेगं एगसमयकालं धरेदूण विदस्स जहण्णदव्वं होदि। पुणो एवं चत्तारिपुरिसे अस्तिण वड्ढावेदव्वं जाव गुणिदकम्मंसियलक्खणेण सत्तमाए पुढवीए उक्कस्सदव्वं कादूण दो-तिण्णिभवग्गहणेसु अंतोमुहुत्तं तिरिक्खेसु अच्छिय मणुस्सेसु उप्पज्जिय समयाविरोहेण संजमं घेत्तूण देसूणपुवकोडिं संजमगुणसेडिणिज्जरं कादूण खीणकसायचरिमसमए ट्ठिदस्स दव्वं पत्तेत्ति । पुणो एदेण सत्तमाए पुढवीए खीणकसायदुचरिमगुणसेडिगोउच्छाए ऊण उक्कस्सदव्यं करिय तत्तो खीणकसायदुचरिमसमए हिददचं सरिसं होदि । पुणो चरिमैसमयखीणकसायं मोत्तण दुचरिमसमयखीणकसायं घेत्तूण वड्डावेदव्वं जावप्पणो ऊणं कादूण गददव्वं वड्डिदे त्ति । एवमूणं कादूण ओदारेदव्वं जाव संजदपढमसमओ त्ति । पुणो संजदपढमसमयदव्वेण सरिसं णारगदव्यं घेत्तूण वडावेदव्यं जाव णारगचरिमसमयओघुक्कस्सदव्वेत्ति । एत्थ जहा अणुक्कस्सम्मि जीवसमुदाहारो परूविदो तहा एत्थ वि परूवेदव्यो।
अब गुणितकोशिके सत्त्वका आश्रय कर अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकर कुछ कम पूर्वकोटि तक निर्जरा करके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें एक समय स्थितिवाले एक निषेकको लेकर स्थित जीवक
दव्य होता है। इस चार पुरुषोंका आश्रय कर बढ़ाना चाहिये जब तक कि गुणितकर्माशिक स्वरूपले सप्तम पृथिवीमें उत्कृष्ट द्रव्य करके दो तीन भवग्रहों में अन्तर्मुहूर्त तक तिर्यों में रहकर मनुष्यों में उत्पन्न हो समयाविरोधसे संयमको ग्रहण कर कुछ कम पूर्वकोटि तक संयमगुणश्रेणिनिर्जरा : करके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित जीवका द्रव्य नहीं प्राप्त होता । पुनः इसके साथ सप्तम पृथिवीमें क्षीणकषाय सम्बन्धी द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छाले हीन उत्कृष्ट द्रव्य करके उससे क्षीणकषाय के विचरम समयमें स्थित जीवका द्रव्य सदृश होता है। पुनः चरमसमयवर्ती क्षीणकषायको छोड़कर और द्विचरम समयवती क्षीणकषायको ग्रहण कर बढ़ाना चाहिये जब तक अपना हीन करके प्राप्त हुआ द्रव्य बढ़ नहीं जाता। इस प्रकार हीन करके संयत प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पश्चात् संयतके प्रथम समय सम्वन्धी द्रव्यक सदृश नारकद्रव्यको ग्रहण कर नारकके अन्तिम समय सम्बन्धी ओघ उत्कृष्ट द्रव्य तक बढ़ाना चाहिये। यहां जैसे अनुत्कृष्ट द्रव्यमें जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा की है वैसे यहां भी करना चाहिये।
१ अ-आकाप्रतिषु 'पक्खेत्ति' इति पाठः । २ अ-आ-कापतिषु 'सचरिम', तातो 'च चरिम' इति पाठः । है अ-आ-कापतिषु 'संजमं', ताप्रतौ संजम' इति पाठः ।
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४, २, ४, ७७.} वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त [३११
एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं । णवीर विसेसो मोहणीयस्स खवणार अब्भुट्ठिदो चरिमसमयसकसाई' जादो । तस्स चरिमसमयसकसाइस्से मोहणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा ॥ ७७॥
जधा णाणावरणीयस्स उत्तं तहा मोहणीयस्स वि वत्तव्वं । णवरि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्मद्विदिं सुहुमणिगोदेसु अच्छिय मणुस्सेसु उप्पज्जिय पलिदोवमस्स असंखज्जदिमागमेत्तसम्मत्ताणताणुबंधिविसंजोयण-संजमासंजमकंडयाणि अट्ठ संजमकंडयाणि चदुक्खुत्तो कसायउवसामणं च बहुहि भवग्गहणेहि कादूण पुणो अवसाणे मणुस्सेसु उप्पज्जिय सत्तमासाहियअट्ठवासाणं उवरि सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण संजमगुणसेडिणिज्जरं करिय खवगसेडिमभुट्ठिय चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो । तस्स जहणिया मोहणीयदव्ववेयणा । दसणावरणीय-अंतराइयाणं पुण खीणकसायचरिमसमए जहण्णं जादमिदि णाणावरणभंगो चेव होदि ।
इसी प्रकार दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मकी जघन्य द्रव्यवेदना होती है । विशेष इतना है कि मोहनीयके क्षयमें उद्यत हुआ जीव सकषाय भावके अन्तिम समयको प्राप्त हुआ। उस अन्तिम समयवती सकषायीक द्रव्यकी अपेक्षा मोहनीयवेदना जघन्य होता है ।। ७७ ।।
जैसे ज्ञानावरणके विषयमै कथन किया है उसी प्रकार मोहनीयके विषयमें भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति तक सूक्ष्म निगोद जीवोंमें रहकर मनुष्यों में उत्पन्न हो पल्योपमके असंख्यातवे भाग मात्र सम्यक्त्व काण्डक, अनन्तानुबन्धिविसंयोजनकाण्डक व संयमासंयमकाण्डक, आठ संयमकाण्डक और चार वार कषायोपशामनाको बहुत भवग्रहणों द्वारा करके फिर अन्तमें मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व और संयमको ग्रहण कर संयमगुणश्रेणिनिर्जरा करके क्षपकश्रेणि. पर आरूढ़ हो अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हुआ। उसके मोहनीयद्रव्यवेदना जघन्य होती है !
परन्तु दर्शनावरण और अन्तरायका द्रव्य क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य होता है, अत एव इनकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके ही समान है।
२ आ-काप्रत्योः 'सकसायरस' इति पाठः।
१ प्रतिषु समयकसाई' इति पाठ.। ..वे. ४०.
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, ७८.
तवदिरित्तमजहण्णा ॥ ७८ ॥
जहण्णदव्वादो परमाणुत्तरादिदव्वमजहण्णा वेयणा । एत्थ खविद-गुणिदकम्म. सियाण कालपरिहाणीओ तेसिं संताणि च अस्सिदूर्ण अजहण्णपदेसपरूवणे कीरमाणे णाणावरणभंगो । णवरि मोहणीयस्स खवगचरिमसमयदव्वं घेत्तूण अजहण्णदव्वपरूवणा कायव्वा। णवरि संतादो अजहण्णदव्वपरूवणे कीरमाणे जहण्णदव्वस्सुवरि परमाणुतरादिकमेण दुचरिम गुणसेडिगोवुच्छा वड्ढावेदव्वा । पुणो एवं वढिदूण द्विदचरिमसमयसुहुमसांपराइयदव्वेण अण्णस्स जीवस्स खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सुहुमसांपराइयदुचरिमसमयट्ठिदस्स दव्वं सरिसं होदि । एवमेगेगगुणसेडिगोवुच्छं वड्डाविय ओदोरदवं जाव सुहुमसांपराइयद्धाए संखेज्जीदभागमोदिण्णो त्ति । पुणो एदस्सुवरि तदणंतरहेट्ठिमगुणसे डिगोवुच्छं वढिदूण ट्ठिदेण अण्णो जीवो तदणंतरहेट्ठिमगुणसेडिगोवुच्छचरिमकंडयचरिमफालिं च धरेदूग ट्ठिदो सरिसो होदि। एवमेगगगुणसेडिगोवुच्छं वड्डाविय ओदोरदव्वं जाव अणियट्टिचरिमसमओ ति । पुणो परमाणुत्तरादिकमेण णवकबंधेणूणदुचरिमगुणसेडिगोवुच्छमेत्तं चरिमसमयअणियट्टी वड्ढावेदव्यो।
उक्त तीनों कर्मोंकी इससे भिन्न अजघन्य द्रव्यवेदना है ।। ७८ ॥
जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा एक परमाणु आदिसे अधिक द्रव्य अजघन्य वेदना है। यहां क्षपितकौशिक और गुणितकर्माशिककी कालपरिहानियों और उनके सत्वका आश्रय
कर अजघन्य द्रव्यके प्रदेशोंकी प्ररूपणा करने पर वह सब कथन ज्ञानावरणके समान है । विशेष इतना है कि मोहनीयके अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा उसका क्षय करनेवालेके अन्तिम समय सम्बन्धी द्रव्यको ग्रहण कर करना चाहिये। विशेषता यह है कि सत्त्वकी अपेक्षा अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते समय जघन्य द्रव्यके ऊपर एक परमाणु आधिक आदिके क्रमसे द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छा बढ़ाना चाहिये । पश्चात् इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होकर स्थित अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्रव्य के साथ क्षपितकांशिक स्वरूपसे आकर सूक्ष्मसाम्परायके द्विचरम समयमें स्थित अन्य जीवका द्रव्य सदृश है। इस प्रकार एक एक गुणश्रेणिगोपच्छको बड़ाकर सूक्ष्म साम्परायिककालके संख्यातवें भाग मात्र अवतीर्ण होने उतारना चाहिये । पश्चात् इसके ऊपर तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छको बढ़ाकर स्थित जीवके साथ तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छके अन्तिम काण्डक सम्बन्धी अन्तिम फालिको लेकर स्थित हुआ दूसरा जीव सदृश है । इस प्रकार एक एक गुणश्रेणिगोपुच्छको बढ़ाकर अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये । पुनः एक परमाणु आधिक आदिके क्रमसे नवक बन्धके विना द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छ मात्र अन्तिम समयवर्ती अनिवृत्तिकरणको बड़ाना चाहिये । इस प्रकार बड़ाकर
१ प्रतिषु ' आश्छिदूण' इति पाठः ।
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४, २, ४, ७८. ]
dr महाहियारे वेयणदवविाणे सामित्तं
[ ३१५
एवं वड्डिदूण दिव्वेण अणियट्टिखवगदुचरिमगोवुच्छं धरेदूण दुचरिमसमए द्विदस्स दव्वं सरिसं होदि । एवं णवकबंधेणूण एगेगगुणसेडिगो वुच्छं वढाविण ओदारेदव्वं जाव खइयसम्माइट्ठिपढमसमओ त्ति । पुणो एत्थ वड्डाविज्जमाणे णवकबंवेणूणचारित्तमोहणीयतदणंतरहेमिगुणसे डिगोच्छा सम्मत्तचरिमगोबुच्छा च वढावेदव्त्रा । एवं वड्ढिददव्वेण अण्ण जीवस्से खविद कम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसुववज्जिय सत्तमा साहियअट्ठवासाणमुवरि सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण पुणो अणताणुबंधिचदुक्कं विसंजोइय दंसणमोहणीयं खविय कदकरणिज्जो होतॄण कदकरणिज्जचरिमसम वट्टमाणस्स दवं सरिसं होदि । एवं णवकबंवेणूणचारित्तमोहणीयगुणसेडिगावुच्छं सम्मत्तगुण से डिगोवुच्छं च वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव कदकरणिज्जपढमसमओ चि । पुणो एत्थ तदणंतरगुणसेडिगोवुच्छं वड्ढिदूण ङिददव्वेण तदणंतरगुणसे डिगो वुच्छ्रं सम्मत्तचरिमफालिं ओदरिदूण दिस्स दव्वं सरिसं होदि । एवं गुणसेडिगोवुच्छं वढावेदूण ओदारेदव्वं जाव संजदपढमसमओ त्ति । णवरि उवसमसम्मादिट्ठिम्मि सम्मत्तगोवुच्छा ण वढावेदव्वा, तिस्से तत्थ उदयाभावादो । संपधि संजद पढमसमए
स्थित हुए जीवके द्रव्यके साथ अनिवृत्तिकरण क्षपककी द्विचरम गोपुच्छाको लेकर द्विचरम समय में स्थित जीवका द्रव्य सदृश होता है । इस प्रकार नवक बन्ध से हीन एक एक गुणश्रेणिगोपुच्छाको बढ़ाकर क्षायिकसम्यग्दृष्टि के प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पुनः यहां बढ़ाते समय नवक बन्धसे रहित चारित्र मोहनीय की तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छा और सम्यक्त्वप्रकृतिकी अन्तिम गोपुच्छा बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार वृद्धिंगत द्रव्यके साथ क्षपित कर्माशिक स्वरूप से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व व संयमको ग्रहण कर पश्चात् अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना करके दर्शन मोहनीयका क्षय कर कृत करणीय होकर कृतकरणीय होने के अन्तिम समय में वर्तमान अन्य जीवका द्रव्य सद्दश है। इस प्रकार नवक बन्धसे रहित चारित्र मोहनीयके गुणश्रेणिगोपुच्छको और सम्यक्त्व प्रकृतिके गुणश्रेणिगोपुच्छको बढ़ाकर कृतकरणीयके प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पश्चात् यहां तद्नन्तर गुणश्रेणिगोपुच्छ बढ़ाकर स्थित द्रव्यके साथ तदनन्तर गुणश्रेणिगोपुच्छ युक्त सम्यक्त्व प्रकृतिकी अन्तिम फालि उतर कर स्थित जीवका द्रव्य सदृश है । इस प्रकार गुणश्रेणिगे। पुच्छको बढ़ाकर संयतके प्रथम समय तक उतारना चाहिये । विशेष इतना है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्व प्रकृति की गोपुच्छाको नहीं बढ़ाना चाहिये, क्योंकि, उसका वहां उदय नहीं है । अब संयत के प्रथम समय में ज्ञानावरण के विधान से
१ अ आ-काप्रतिषु दीवस्स ' इति पाठः ।
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११६] छक्खडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, ७९. णाणावरणविहाणेण वड्डाविय णेरइयदव्वेण सद्वियं' घेत्तव्यं । एत्थ जीवसमुदाहारे भण्णमाणे णाणावरणीयभंगो।
सामित्तेण जहण्णपदे वेदणीयवेयणा दव्वदो जहणिया कस्स ? ॥ ७९ ॥
सुगममेदं ।
जो जीवो सुहमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियकम्महिदिमच्छिदो ॥ ८० ॥
सुगमं ।
तत्थ य संसरमाणस्स बहुआ अपज्जत्तभवा, थोवा पज्जत्तभवा ॥८१॥ दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ, रहस्साओ पज्जत्तद्धाओं ॥२॥ जदा जदा आउअंबंधदि तदा तदा तप्पाओग्गउक्कस्सएण जोगेण बंधदि ॥८३॥ उवरिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदे हेट्ठिल्लीणं
बढ़ाकर नारक द्रव्यके सदृश ग्रहण करना चाहिये । यहां जीवसमुदाहारका कथन करते समय उसका कथन ज्ञानावरणीयके समान है।
___ स्वामित्वसे जघन्य पदमें वेदनीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है १ ॥७९॥
यह सूत्र सुगम है।
जो जीव सूक्ष्म निगोद जीवोंमें पल्यापमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति तक रहा है ॥ ८० ।।
यह सूत्र सुगम है।
उनमें परिभ्रमण करनेवाले उक्त जीवके अपर्याप्त भव बहुत और पर्याप्त भव स्तोक हैं ॥८१॥ अपर्याप्तकाल दीर्घ और पर्याप्तकाल थोड़ा है ॥ ८२ ॥ जब जब आयुको बांधता है तब तब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगसे बांधता है ॥८३॥ उपरिम स्थितियों के निषकका जघन्य पद और अधस्तन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट
१ अ-आ-काप्रतिषु 'सस्थिय,,ताप्रती 'संधिय' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु ' संसरिदणस्स पति पास। ३ अ-आ-काप्रतिषु 'पज्जतद्धा' इति पाठः। ४ अ-आ-काप्रतिषु 'द्विवणिं' इत्येतत्पदं नोपलम्भते ।
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४, २, ४, ९६.] वेयणमहाहिगारे वेयणदयविहाणे सामित्त [ ३१७ ट्ठिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे ॥८४ ॥ बहुसो बहुसो जहण्णाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ॥८५॥ बहुसो बहुसो मंदसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ ८६ ॥ एवं संसरिदूण बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥ ८७॥ अंतोमुहुत्तेण सबलहुँ सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥ ८८ ॥ अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो ॥ ८९ ॥ सबलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अट्ठवस्तीओ ॥९० ॥ संजमं पडिवण्णो ॥९१॥ तत्थ य भवट्टिदिं पुवकोडिं देसूणं संजममणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति मिच्छत्तं गदो ॥ ९२ ॥ सबथोवाए मिच्छत्तस्स असंजमद्धाए अच्छिदो ॥ ९३ ॥ मिच्छत्तेग कालगदैसमाणो दसवाससहस्ताउद्विदिएसु देवेसु उववण्णो ॥१४॥ अंतोमुहुत्तेण सबलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥ ९५॥ अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो ॥ ९६ ॥ तत्थ य
पद होता है ।। ८४ ॥ बहुत बहुत बार जघन्य योगस्थानोंको प्राप्त होता है ॥ ८५ ॥ बहुत बहुत बार मन्द संक्लेश परिणामोंसे संयुक्त होता है ॥ ८६ ॥ इस प्रकार संसरण करके बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ८७ ॥ अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सर्वलघु कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ ८८ ॥ अन्तर्मुहूर्तमें मृत्युको प्राप्त होकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ ॥ ८९ ॥ सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न होकर आठ वर्षका हुआ ॥ ९० ॥ संयमको प्राप्त हुआ ॥ ९१ ॥ वहां कुछ कम पूर्वकोटि मात्र भवस्थिति तक संयमका पालन कर जीवितके थोड़ा शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ॥ ९२ ॥ मिथ्यात्व सम्बन्धी सबसे थोड़े असंयमकालमें रहा ।। ९३ ॥ मिथ्यात्वके साथ मृत्युको प्राप्त होकर दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ९४ ।। अन्तर्मुहूर्त द्वारा सर्वलघु कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ।। ९५ ॥ अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ॥ ९६ ॥ वहां कुछ कम दस हजार वर्ष प्रमाण
१ अ-आ-काप्रतिषु — कालेण गदः' इति पाठः ।
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३१८]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, ९७. भवद्विदिं दसवाससहस्साणि देसूणाणि सम्मत्तमणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्वए ति मिच्छत्तं गदो ॥ ९७ ॥ मिच्छत्तेण' कालगदसमाणो बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥ ९८ ॥ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥ ९९ ॥ अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो सुहमणिगोदजीवपज्जत्तएसु उववणो ॥१००॥ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेहि द्विदिखंडयघादेहि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण कालेण कम्मं हदसमुप्पचियं कादूण पुणरवि बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु उववण्णो ॥१०१॥ एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ट संजमकंडयाणि अणुपालइत्ता चदुक्खुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजनासंजमकंडयाणि सम्मतकंडयाणि च अणुपालइत्ता, एवं संसरिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो ॥ १०२ ॥ सव्वलहुं
भवस्थिति तक सम्यक्त्वका पालन कर जीवितके थोड़ा शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ॥ ९७ ।। मिथ्यात्वके साथ कालको प्राप्त होकर बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हुआ ॥ ९८ ॥ अन्तर्मुहूर्त द्वारा सर्वलघु कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ ९९ ॥ अन्तर्मुहूर्तमें मृत्युको प्राप्त होकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ ॥१०॥ पल्यापमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थिंतिकाण्डकघातों द्वारा पल्यापमके असंख्यातवें भाग मात्र कालमें कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके फिर भी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ ॥१०१ ॥ इस प्रकार नाना भवग्रहणों द्वारा आठ संयमकाण्डकोंका पालन करके चार चार कषायोंको उपशमा कर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण संयमासंयमकाण्डकों व सम्यक्त्वकाण्डकोंका पालन करके, इस प्रकार परिभ्रमण करके मन्तिम भवग्रहणमें फिरसे भी पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ ॥ १.२ ॥ सर्वलघु
१ मप्रतिपाठोऽयम् | अ-आ-का-ताप्रतिषु 'मिच्छते' इति पाठः।
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१, २, ४, १०७ ] यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त [३१९ जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अवस्सीओ ॥ १०३॥ संजमं पडिवण्णो ॥ १०४॥ अंतोमुहत्तेण खवणाए अब्भुट्टिदो ॥१०५॥ अंतोमुहुत्तेण केवलणाणं केवलसणं च समुप्पादइत्ता केवली जादो ॥ १०६॥
कि केवलणाणं ? बज्झत्थअसेसत्यावगमो । किं केवलदसणं ? तिकालविसयअणंतपज्ज यसहिदसगरूवसंवेयणं । एदाणि दो वि समुप्पादइत्ता केवली जादो त्ति उत्तं होदि।
तत्थ य भवट्टिदिं पुव्वकोडिं देसूणं केवलिविहारेण विहरित्ता थोवावसेसे जीविदवए त्ति चरिमसमयभवसिद्धियो जादो ॥१०७॥
। केवलणाणुप्पण्णपढमसमए वेदणीयदव्वमोकड्डिदूण उदयादिगुणसेडिं करेदि । तं जहा- उदए थोवं देदि । से काले असंखेज्जगुणमेवमसंखेज्जगुणाए सेडीए देदि जाव
कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न होकर आठ वर्षका हुआ ॥ १८३॥ संयमको प्राप्त हुआ ॥ १०४ ॥ अन्तर्मुहूर्तमें क्षपणाके लिये उद्यत हुआ ॥ १०५ ॥ अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान और केवलदर्शनको उत्पन्न कर केवली हुआ ॥ १०६॥
शंका- केवलज्ञान किसे कहते हैं ? समाधान- बाह्यार्थ अशेष पदार्थोके परिज्ञानको केवल ज्ञान कहते हैं । शंका-केवलदर्शन किसे कहते हैं ? ।
समाधान- तीनों काल विषयक अनन्त पर्यायों सहित आत्मस्वरूपके संवेदनको केवल दर्शन कहते हैं।
इन दोनोंको उत्पन्न कर केवली हुआ, यह अभिप्राय है।
वहां कुछ कम पूर्वकोटि मात्र भवस्थिति प्रमाण काल तक केवलिविहारसे विहार करके जीवितके थोड़ा शेष रहनेपर अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक हुआ ॥ १०७॥
केवल ज्ञानके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें वेदनीय द्रव्यका अपकर्षण कर उदयादिगुणश्रेणि करता है। यथा- उदयमें स्तोक देता है । अनन्तर कालमें असं. ख्यातगुणे प्रदेशाग्रको देता है। इस प्रकार गुणश्रेणिशीर्ष तक असंख्यातगुणित श्रेणि
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१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु । बज्झद्ध' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' असंखेन्जमेव [ म ] संखेबजगणसेडीए' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १०७. गुणसेडिसीसओ त्ति । गुणसेडिसीसयादो तदणंतरविदीए असंखेज्जगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं जाव अप्पप्पणो अइच्छावणावलियाए हेट्ठिमसमओ त्ति । बिदियसमए तत्तियमेत चेव दवमोकड्डिदण उदयावलियादिअवविदगुणसेडिं करेदि । तं जहा - उदए थेविं देदि । बिदियाए हिदीए असंखेज्जगुणमेवमसंखेज्जगुणाए सेडीए ताव देदि जाव पढमसमए कदगुणसेडिसीसए त्ति । गुणसेडिसीसयादो तदणंतरउवरिमहिदीए असंखेज्जगुणं देदि । तदुवरिमहिदीए असंखेज्जगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं । एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए पदेसग्गं णिज्जरमाणो हिदि-अणुभागखंडयघादेहि विणा केवलिविहारेण विहरिय अंतोमुहुत्तावसेसे आउए दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि करेदि । तत्थ पढमसमए देसूणचोद्दसरजुआयामेण सगदेहविक्खंभादो तिगुणविक्खंभेण सगदेहविक्खंभेण वा विक्खंभतिगुणपरिरएण एगसमएण वेदणीयट्ठिदि खंडिद्ण विणासिदसंखेज्जाभागं अप्पसत्थाणं कम्माणं अणुभागस्स घादिदैअणंताभार्ग दंडं करेदि । तदो बिदियसमए दोहि वि पासेहि छुत्तवादवलयं देसूणचोद्दसरज्जु
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रूपसे प्रदेशाग्रको देता है। गुणश्रेणिशर्षिसे आगेको स्थितिमें असं ख्यातगुणे हीन प्रदेशाग्रको देता है । इससे आगे अपनी अपनी अतिस्थापनावलीके अधस्तन समय तक विशेष हीन विशेष हीन प्रदेशानको देता है।
द्वितीय समयमें उतने ही द्रव्यका अपकर्षण कर उदयाचलिसे लेकर अवस्थित गुणश्रेणि करता है। यथा- उदयमें स्तोक देशान देता है। द्वितीय स्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रको देता है । इस प्रकार प्रथम समय में किये गये गुणश्रेणिशीर्षक तक असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे देता है । गुणश्रेणिशीर्षसे आगे की उपरिम स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रको देता है । उससे उपरिम स्थितिमें असंख्यातगुणे हीन प्रदेशाग्रको देता है। उससे आगे विशेष हीन प्रदेशाग्र को देता है।
__इस प्रकार असंख्यात गुणित श्रेणि रूपसे प्रदेशाग्र की निर्जरा करता हुआ स्थितिकाण्डकघातों व अनुभागकाण्डकघातोंके विना केवलिविहारसे विहार करके आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर दण्ड, कपाट, प्रतर व लोकपूरण समधातको करता है। उसमें प्रथम समयमें कुछ कम चौदह राजु आयाम द्वारा, अपने देह के विस्तारकी अपेक्षा तिगुने विस्तार द्वारा, अथवा अपने देह प्रमाण विस्तार द्वारा, तथा विस्तारसे तिगुनी परिधि द्वारा एक समय में वेदनीय की स्थिति को खण्डित कर उसके संख्यात बहुभागके विनाश से संयुक्त एवं अप्रशस्त कौके अनुभागके अनन्त बहुभागके घातसे सहित दण्ड समुद्घातको करता है । पश्चात् द्वितीय समय में दोनों ही पार्श्व भागोसे
ताप्रतौ '-गुणमेव संखेन्ज' इति पाठः । २ एलस्पू भावस्थो- उप्पण्णकेवलणाण-दंसणेहि सम्बदबपज्जाए तिमालविसए जाणतो पस्संतो करणक्कमववहाणवज्जियअणंतावरियो असंखेज्जगुणाए सेडीए कामणिज्जरं कुणमाणो देसूणपुव्वकोडिं विहरिय सजोगिीजणो अंतोमुहुत्तावसंसे आउर दंड-कवाड-पदर लोगपूरणाणि करेदि । ध. अ. प, ११२५. ३ अ-आ-काप्रतिषु 'परिठएण', ताप्रती 'परिट्टएण' इति पाठः । ४ मत्रतो 'वेदणीयट्टिदीए इति पाठः । ५ तातोपादिद' इति पाठः ।
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.४, २, ४, १०७. ] वेयणमहाहियारे वेयणदज्यविहाणे सामित्तं
[ ३२१
आयदं सगविक्खंभबाहल्लं सेसट्ठिदीए घादिदअसंखेज्जाभागं घादिदसे साणुभागस्स घादिदाताभागं कवाडं' करेदि । तदा तदियसमए वादवलयवज्जिदासेस लोग क्खेतमा ऊरिय घादिदसेसदिए घादिदअसंखेज्जाभागं घादिद से साणुभागस्स घादिदाणंताभागं मंथे करेदि । तदो चउत्थसमए सव्वलेोगमावूरिय घादिदसेसडिदीए एगसमरण घादिदअसंखेज्जाभागं संघादिदसे साणुभागस्स घादिदअणंताभागं सव्वकम्माणं ठवितोमुहुत्तङ्किर्दि लोगवूर करेदि । तदो ओयरंतो आयुगादो संखेज्जगुणमवसेसट्ठिर्दि अंतो मुहुत्तेण सेसियाए ट्ठिदीए संखेज्जे भागे हणदि, सेसाणुभागस्स अणते भागे अंतोमुहुत्तेण घादेदि । एत्तो पाए डिदिखंडयस्स अणुभागखंडयस्स च अंतोमुहुत्तिया उक्कीरणद्धों । एत्तो अंतोमुहुसं
वातवलयको छूनेवाले, कुछ कम चौदह राजु आयामवाले, अपने विस्तार प्रमाण बाहल्य वाले शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागके घातसे सहित और घातने से शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहुभागको घातनेवाले ऐसे कपाट समुद्घातको करता है । पश्चात् तृतीय समय में वातवलयोंको छोड़कर समस्त लोक क्षेत्रको व्याप्त कर घात करने से शेष रही स्थिति के असंख्यात बहुभागका तथा घातनेसे शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहुभागका घात करनेवाले मंथ ( प्रतर ) समुद्घातको करता है । पश्चात् चतुर्थ समय में समस्त लोकको पूर्ण करके एक समय में घातनेसे शेष रही स्थिति के असंख्यात बहुभागको तथा घातनेसे शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहुभागको घातकर सब कर्मोंकी अन्तमुहूर्त स्थितिको स्थापित करनेवाले लोकपूरण समुद्घातको करता है । तत्पश्चात् वहांसे उतरता हुआ आयुकर्मले संख्यातगुणी जो शेष कर्मों की स्थिति है उसमें से अन्तर्मुहूर्त द्वारा शेष स्थितिके संख्यात बहुभागको घातता है और शेष अनुभाग के अनन्त बहुभागको अन्तर्मुहूर्त द्वारा घातता है । यहांसे लेकर स्थितिकाण्डक और अनुभाग काण्डकका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्त है । यहांसे अन्तर्मुहूर्त जाकर [ बादर
१ विदियसमए पुव्वावरेण वादवलयवज्जियल गागासं सव्वं पि सगदेहविक्खमेण वाबिय सेसठ्ठिदि-अनुभागाणं जहाकमेण असंखेज्ज - अनंते मागे घादिचूण जमवद्वाणं तं कवाडं णाम । ध. अ. प. ११३५.
२ अ आ-काप्रतिपु ' मत्थओ ', ताप्रतौ ' मच्छं' इति पाठः । तदियसमए वादवलयवन्जियं सम्यगागांस सगजीवपदसेहि त्रिसपितॄण सेस हिदि- अणुभागाणं कमेण असंखेज्जे भागे अणंते भागे च घादेदूण जमवद्वाणं तं परं नाम । ध. अ. प. ११२५ ३ चउत्थसमए सव्वलो गागासमावूरिय सेसठ्ठिद - अणुभागाणमसंखेज्जे मागे अनंते मागे व घादिय जमवठाणं तं लोगपूरणं णाम । ध. अ. प. ११२५. ४ संपहि एत्थ सेसट्ठिदिपमाणमंतो मुहुत्तो संखेजगुणमाउगादो | एतो पहुडि उवरि सय्यट्ठिदिखंडयाणि अणुभागखंडयाणि च अंतोमुहुतेण घादेदि । घ. अ.प. ११५५. ५ पत्तो पाए ट्ठिदिखंडयस्स अणुभागखंडयस्स च अंतोमुहुत्तिया उक्कीरणद्धा । लोग पूरणाणंतरसमय पहुडि समयं पडि हिदि- अणुभागघादो णत्थि, किंतु अंतोहुत्तियो वेव द्विदि- अणुभागखंडयकाको पयदिति एसो एत्थ मुत्तत्यसन्भात्रो । जयध. अ. प. १२४०.
. वे. ४१.
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३२२) छक्खंडागमे वेयणाखंड
(१, २, ५, १०७. गंतूण ['बादरकायजोगेण बादरमणजोगं णिरंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण ] बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरंभदि । तदो अंतोमुहुतेण बादरकायजोगेण बादरउस्सास-णिस्सासं णिरंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादरकायोग णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोग णिरंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायमोगेण सुहुमवचिजोगं णिरंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुम उस्सासं णिरंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायोगेण सुहुमकायजोगं णिरुंभमाणो इमाणि करणाणि करेदिपढमसमए जोगस्स अपुव्वफद्दयाणि करदि पुवफैयाणं हेहदों । आदिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डिय, जीवपदेसाणं पि असंखेज्जदिभागमोकड्डिदूण, अपुटवफद्दयाणमादिवग्गणाए जीवपदेसा बहुगा दिज्जति । बिदियवग्गणाए विसेसहीणा । एवं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव अपुवफद्दयाणं चरिमवग्गणेत्ति । तदो अपुव्वफद्दयाणमादि
काययोग द्वारा बादर मनयोगका निरोध करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ] बावर काययोग द्वारा बादर वचनयोगका निरोध करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में बावर काययोग द्वारा बादर उच्छ्वास-निच्छ्वासका निरोध करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें बावर काययोग द्वारा बादर काययोगका निरोध करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म काययोग द्वारा सूक्ष्म मनयोगका निरोध करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें सूक्ष्म काययोग द्वारा सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करता है। पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें सूक्ष्म काययोग द्वारा सूक्ष्म उच्छ्वासका निरोध करता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें सूक्ष्म काययोग द्वारा सूक्ष्म काययोगका निरोध करता हुआ इन करणोंको करता है- प्रथम समयमें योगके पूर्वस्पर्धकोंके नीचे अपूर्वस्पर्धकोंको करता है। पूर्वस्पर्धाको आदिम वर्ग. णाके अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके तथा जीवप्रदेशोंके भी असंख्यातवे भागका अपकर्षण करके अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिम वर्गणामें जीवप्रदेश बहुत दिये जाते हैं । द्वितीय वर्गणामें विशेष हीन दिये जाते हैं । इस प्रकार अपूर्वस्पर्धकोंकी मन्तिम वर्गणा तक विशेष हीन विशेष हीन दिये जाते हैं। पश्चात् अपूर्व स्पर्धकाझी
१ प्रतिषु त्रुटितोऽयं कोष्ठकस्थः पाठः। २ को जोगणिरोहो? जोगविणासो । तं जहा - एसोशंतोमुहत्तं गंतण पादरकायजोगेण बादरमणजोगं णिसंभदि।xxxxx ध. अ. प. ११२५.
३ जयध. (चू. सू.) अ. प. १२४०. ४ जयध. (पू. सं.) अ. प. १२४१. ५ताप्रतौ ' करेदि । पुथ्व.' इति पाठः।
६ पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफहयाणं हेट्टदो। एत्तो पुवावस्थाए महमकायपरिष्दसत्ती सुहमणिगोदजहणजोगादो असंखेज्जगुणहाणीए परिणमिय पुब्वयस्सरूवा चेव होण पयमाणा एहिं तो वि पट्ट ओवट्टेयूण अपुवफद्दयायारेण परिणामिन्जदि ति एविस्से किरियाए मपुत्वरकणसण्णा । अयम.भ.प.१२४१.७ अ-का-ताप्रतिषु 'मोकशिद' इति पाठः। ८ भ-आ-काप्रतिषु विशेषहीणाए'इति पार।
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१, २, ५, १०७.) वैयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त वग्गणाए जीवपदेसा असंखेज्जगुणहीणा' । तत्तो विसेसहीणा । एवमंतामुहुत्तमपुव्वफहयाणि केरेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए, जीवपदेसाणं पि असंखज्जगुणाए सेडीएँ । अपुष्वफद्दयाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । सेडिवग्गमूलस्स वि असंखज्जदिभागों, पुम्बफद्दयाणं पि असंखज्जदिभागो सव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि ।
अपुवफद्दयकरणे समत्ते तदो अंतोमुहुत्तकालं जोगकिट्टीयो करेदि । अपुग्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डिदण पढमकिट्टीए योवा अविभागपडिच्छेदा दिज्जति । बिदियाए किट्टीए असंखेज्जगुणाए, तदियाए किट्टीए असंखेज्जगुणाए, एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए दिज्जति जाव चरिमकिट्टि त्ति । तदो उपरिमअपुव्वफयाणमादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणा दिज्जति । तदुवरि सव्वत्थ विसेसहीणा ।
आदिम घर्गणा जीवप्रदेश असंख्यातगुणे हीन दिये जाते हैं । उससे आगे विशेष हीन दिये जाते हैं । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक असंख्यातगुणहीन श्रेणि रूपसे अपूर्वस्पर्धकोंको करता है। किन्तु जीवप्रदेशोंका अपकर्षण असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे करता है। अपूर्वस्पर्धक श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । सब अपूर्वस्पर्धक श्रेणिधर्गमूलके भी असंख्यातवें भाग और पूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं।
अपूर्वस्पर्धकक्रियाक समाप्त होनेपर पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक योगकरियों को करता है। अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणा जितने अविभागप्रतिच्छेद है उनके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके प्रथम कृष्टि में स्तोक अविभागप्रतिच्छद दिये आते हैं। द्वितीय कृष्टिमें असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे, तृतीय कृष्टिमें असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे, इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे अधिभागप्रतिच्छेद दिये जाते हैं। पश्चात् उपरिम अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणा असंख्यातगुणे हीन दिये जाते हैं। उसके आगे सर्वत्र विशेष हीन दिये जाते हैं। द्वितीय समयमें
१ अ-आ-काप्रतिषु '-गुणहीणाए ' इति पाठः।
२ आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेन्जदिमागमोकशुदि, जीवपदेसाणं च असंखेज्जदिमागमोकादि। पढमसमए जीवपदेसाणमसंखेज्जदिमागमोकहियूण अपुवफद्दयाणमादिवग्गणाए जीवपदेसबहुगे णिसिंचदि। विदियाए । वग्गणाए जीवपदेसे विसेसहीणे णिसिंचदि । जयध. (चू. सू.) अ. प. १२४१-४२.
- ३ जयध.(चू. सू.) अ. प. १२४२, तत्र 'पि' इत्येतस्य स्थाने 'च' इति पदमुपलभ्यते । जयध. (चू. सू.) अ. प. १२४२. ४ जयध. अ. प. १२४२.
५ एत्तो अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि । पूर्वापूर्वस्पर्द्ध कस्वरूपेणेष्टकापंक्तिसंस्थानसंस्थितं योगमपसंहत्य सूक्ष्म-सूक्ष्माणि खंडानि निवर्तयति, ताओ किट्टीओ णाम वुश्चति । जयध. अ. प. १२४३.
६ अपुव्वफयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छदाणमसंखेज्जदिमागमोकर
पुस्मुत्ताणमपुवकद्दयाणं जा आदिवग्गणा सव्वमंदसतिसमणिदा तिरसे असंखेजदिभापमोदि । तत्तो असंखेज्जगणहीणाविभागपडिरदसरूवेण जोगसत्तिमोवट्यूग तदसंखेज्जदिमागे ठवेदि तिवृत्त होइ । मयम. म. प. १२४३.
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१२४ ]
छडागमे वैयणाखंड
{ २, ४, १०७. विदियसमए ओकड्डिदूण पढमअपुव्वकिट्टीए अविभागपरिच्छेदा थोवा दिज्जंति । बिदियाए किट्टीए असंखज्जगुणा । तदियाए किट्टीए असंखेज्जगुणा । एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए उवरि विणदव्वं जाव पुव्विल्लसमयकदचरिमकिट्टि त्ति । एवं कादव्वं जाव किट्टिकरणद्धाचरिमसमओ ति । पढमसमए जीवपदसाणमसंखेज्जदि भागमाकड्डिदूण जहणकिट्टीए जीवपदसा बहवा दिज्जति । बिदियाए किट्टीए विसेसहीणा असंखेज्जदिभागेण । एवं ताव विसेसद्दीणा जाव चरिमकिट्टित्ति' । चरिमकिट्टीदो अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीना दिज्जंति । तत्तो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणी । एत्थ अंते मुहुत्तं किट्टीओ असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए करेदि । जीवपदेसे असंखेज्जगुणाए सेडीए ओकट्टदि । किट्टिगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों । किट्टीओ पुण सेडीए असं
अपकर्षण करके प्रथम अपूर्वकृष्टिमै अविभागप्रतिच्छेद स्तोक दिये जाते हैं । द्वितीय कृष्टिमै असंख्यातगुणे दिये जाते हैं । तृतीय कृष्टिमें असंख्यातगुणे दिये जाते हैं । इस प्रकार ऊपर भी पूर्व समय में की गई अन्तिम कृष्टि तक असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे ले जाना चाहिये । इस प्रकार कृष्टिकरणकालके अन्तिम समय तक करना चाहिये । प्रथम समय में जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण कर अधम्य कृष्टिमें जीवप्रदेश बहुत दिये जाते हैं । द्वितीय कृष्टिमें असंख्यातवें भाग रूप विशेषसे हीन दिये जाते हैं । इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक विशेष हीन दिये जाते हैं । अन्तिम कृष्टिसे अपूर्वस्पर्ध कौकी आदिम वर्गणा में असंख्यातगुणे हीन दिये जाते हैं । उसके ऊपर सर्वत्र विशेष हीन दिये जाते हैं। यहां अन्तर्मुहूर्त तक असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे कृष्टियोंको करता है । जीवप्रदेशका असंख्यातगुणित श्रेणि रूपले अपकर्षण करता है ।
कृष्टियोंका गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । परन्तु हृष्टियां श्रेणिके असंख्यातवें भाग और अपूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भाग है । कृष्टि
१ जीवपदे साणमसंखेज्जदिभाग मोकड्डदि । पुण्यापुण्यफदए समवट्ठिदाणं लोगमत्राजीवपदेसाणं असंखेज्जदिमागमेच जीवपदे से क्रिट्टिकरणमोकहृदित्ति वृत्तं होद । xxx पढमसमय किट्टिकारगो पुव्वफद - एहिंतो अपुत्रद्दर्हितो पलिदोत्रमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण जीववदेसे ओकड्डियूण पढमकिट्टीए बहुए जीवपदे से णिक्खिवदि । बिदियाए किडीए विसेसहीणे णिसिंचदि । को एत्थ पडिभागो ? सेडीए अखेज्जदिमागमेचो पिसेगभागहारो | एवं णिक्खियमाणो गच्छदि जाव चरिमकिट्टि ति । जयध. अ. प. १३४३.
२ पुणो चरिमकिट्टीदो अपुग्वद्दयादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणं णिसिंचिदूण तत्तो विसेसहाणीए णिसिंचदि दिव्थं । जयध. अ. प. १२४३. ३ ध. अ. प. ११२५. एत्थ अंतोमुहुत्तं करेदि किड्डीओ असंखेन्जगुणाए (चू. सू. ) अ. प. १२४४. ४ ध. अ. प. ११२५. जीवपदेसाणमसंचे जगुणाए ५ जयध. ( खू. सू.) अ. प. १२४४.
[ गुणहीणाए ] सेडीए । जयध. सेडीए । जयध. अ. १. १२४४.
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४, २, ४, १०७. ]
माहियारे वेणविहाणे सामित्त
[ ३३५
खेज्जदिभागो, अपुव्त्रफदयाणं पि असंखेज्जदिभागो' । किट्टिकरणे णिट्ठिदे से काले पुव्वफद्दयाणि च अपुव्वफद्दयाणि किट्टिसरूवेण परिणामेदि । ताधे किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदयदि । एवमं तो मुहुत्तकालं किट्टिगइ जोगा सुहुमकिरियमाडिवादिझाणं झायदि । किट्टि - वेदगचरिमसमए असंखेज्जाभागे णासेदिं । जोगम्हि णिरुद्धम्मि आउमाणि कम्माणि कीरंति । आवज्जिदकरणादो संखेज्जेसु ट्ठिदिखंडयस हस्सेसु गदेसु तदो अपच्छिमं द्विदिखंडयमागाएंतो अपच्छिमट्ठिदिदिखंडयस्स जेत्तिया उक्कीरणर्द्धा, अजोंगे अद्धा च 'जेत्तिया, एवडियाओं` ट्ठिदीओ मोत्तूण आगाएदि । तस्स ट्ठिदिखंडयस्स चरिमफालिं घेतूण वेदिज्जमाणिआगं पगदीणमुदर थोवं दिज्जदि । बिदियाए द्विदीए असंखेज्जगुणमेवमसंखेज्जगुणाए सेडीए विज्जदि जाव अजोगिचरिमसमओ ति । तदो अंते मुहुत्तं अजोगी
करणके समाप्त होनेपर अनन्तर कालमें पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकोंको कृष्टि स्वरूपसे परिणमाता है । उस समय कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका वेदन करता है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टिगतयोग होकर सूक्ष्मक्रिया- अप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यानको ध्याता है । कृष्टिवेदक के अन्तिम समय में असंख्यात बहुभागको नष्ट करता है । योगका निरोध हो जानेपर आयुके समान कर्म ( वेदनीय, नाम व गोत्र ) किये जाते हैं । आवर्जित करणसे संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके बीत जानेपर पश्चात् अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ अन्तिम स्थितिकाण्डकका जितना उत्कीरण काल और जितना अयोगिकाल है इतनी स्थितियोंको छोड़कर ग्रहण करता है । उस स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिको ग्रहण उदयमें आनेवाली प्रकृतियों के प्रदेशाग्रको उदय में स्तोक देता है । द्वितीय स्थितिमें असंख्यातगुणा देता है । इस प्रकार अयोगीके अन्तिम समय तक असंख्यात गुणित श्रेणि रूप से देता है । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में अयोगी होकर शैलेइय भावको प्राप्त होता है
कर
१ जयध. (चू. सू.) अ. प. १२४४. २ किट्टिकरणट्ठे [ द्धे ] गिट्टिदे से काले पुव्वकद्दयाणि अनुवफद्दयाणि चणादि । जयध. ( चू. सु. ) अ. प. १२४४. ३ अंतोमुहुत्तं किट्टिगदजोगो होदि । जयध. ( चू. सु. ) अ.प. १२४४. ४ सुहुमकिरियमपडिवादिझाणं झायदि । सूक्ष्म (सूक्ष्मा ) क्रिया योगो यस्मि स्तत्सूक्ष्मक्रियम्, न प्रतिपततीत्येवं शीलमप्रतिपातिः सूक्ष्मतरकाययोगावष्टम्भविजृंभितत्वात्सूक्ष्म क्रियमधः प्रतिपाताभावादप्रतिपाति तृतीयं शुवलयानं तदवस्थायां ध्यायतीत्युक्तं भवति । जयध. अ. प. १२४५.
५ अप्रतौ 'असंखेज्जदिभागे णासेडी', आप्रतौ ' असंखे० भागेणसेडी', काप्रती 'असंखेज्जदिभांगण सेडी', तातो' असंखे-भागे णासेडि ( दि ) ' इति पाठः । किङ्कणं चरिमसमये असंखेज्जामागे णासेदि । जयध. ( धू. सू. ) अ. प. १२४५.
६ जोगान्हि णिरुद्धहि आउ असमाणि कम्माणि होति । जयध. ( चू. सू. ) अ. प. १२४६.
७ किमावज्जिदकरणं णाम ? केवलिसमुग्धादस्स अहिमुहीभावो आवज्जिदकरणमिदि भण्णदे । जयध. अ. प. • अ आ-काप्रतिषु ' जेत्तिउक्कीरणद्धा' इति पाठः ।
९ अ-काप्रत्योः एवड्डियाओ', आमतौ ' एवविदाओ ' इति पाठः ।
१२३७.
"
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३३६ ]
[ ४, २, ४, १०८.
होण सेलेसि पडिवज्जदि । समुच्छिण्णकिरियमणियट्टिसुक्कज्झाणं झायदि' । तदो देवदिवेउब्विय-आहार-तेजा-कम्मइया सरीर-समच उरस संठाण-वेउव्विय-[आहार-] सरीरअंगोवंग-पंचवण्ण-पंचरस-पसत्थगंध-अट्ठफास- देवगइपाओग्गाणुपुव्वि - अगुरुअलहुअ - परघा दुस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुभासुभ-सुस्सर- अजसकिति णिमिणमिदि चालीसदेवगदिसहगदाओ, अण्णदरवेदणीय-ओरालियस रीर-पंच संठाण - ओरालिय सरीर अंगो वंग-छसंघडण - मणुस्सगइपाओगाणुपुव्वि-पंचवण्ण-पंचरस अप्पसत्यगंध - अप्पसत्यविहायगदि उवघाद - अपज्जत्तदुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदमिदि तेत्तीस पयडीओ मणुसगदिसहगदाओ एवमेदाओ तेइत्तरिपयडीओ अजोगिस्स दुर्घरिमसमए विणासिय अण्णदरवेदणीय- मणुस्सा उ-मणुस्सगदिपंचिंदियजादि-तप्त-बाद- पज्जत्त-सुभगादेज्ज - जसकित्ति-[ तित्थयर]- उच्चागोदेहि सह चरिमसमयभवसिद्धिओ जादो ।
तस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स वेदणीयवेदणा जहण्णा ॥ १०८ ॥
छक्खडागमे वैयणाखंड
और समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति शुक्ल ध्यानको ध्याता है । तत्पश्चात् देवगति, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक [ व आहारक ] शरीरांगोपांग, पांच वर्ण, पांच रस, प्रशस्त गन्ध, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, अयशकीर्ति और निर्माण, ये चालीस देवगतिके साथ रहनेवाली; तथा अन्यतर वेदनीय, औदारिकशरीर, पांच संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, पांच वर्ण, पांच रस, अप्रशस्त गन्ध, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, अपर्याप्त, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये तेतीस प्रकृतियां मनुष्यगतिके साथ रहनेवाली; इस प्रकार इन तिहत्तर प्रकृतियोंका अयोगीके द्विचरम समय में विनाश करके दोमे से एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, [तीर्थकर ] और उच्चगोत्र के साथ अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिक हुआ । उस अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिकके वेदनीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ १०८ ॥
२ प्रतिषु ' एदेसि' इति पाठः । तदो अंतोमुहुत्तं सेलेर्सि पडिवज्जाद । ततोऽन्तर्मुहूर्तमयोगिकेवली भूत्वा शैलेश्यमेष भगवानलेश्यभावेन प्रतिपद्यत इति सूत्रार्थः । किंपुनरिंदं शैलेश्यं नाम ? शीलानामीशः शैलेशः, तस्य भावः शैलेश्यं सकलगुण शीलानामैकाधिपत्य प्रतिलम्भनमित्यर्थः । जयध. अ. प. १२४६ ष. खं. पु. ६, पृ. ४१७. २ समुच्छिष्णकिरियामणियट्टिक्कज्झाणं झायदि । क्रियानामयोगः समुच्छिन्ना क्रिया यस्मिन् तत्समुच्छिन्नक्रियम्, न निवर्त्तत इत्येवं शीलमनिवर्ति, समुच्छिन्नक्रियं च तदनिवर्ति च समुच्छिक्रियनिवर्ति । समुच्छिन्नसर्ववाङ्मनस्काययोगव्यापारत्वादप्रतिपातित्वाच्च समुच्छिन्नक्रियस्यायमन्त्यं शुक्लध्यान मलेश्या चलाधानं कायत्रयबन्धनिर्मोचनै कफलमनुसंधाय स भगवान् ध्यायतीत्युक्तं भवति । जयध. भ. प. १२४६.
३ अत्रायोगिकेवली द्विचरमसमये अनुदयवेदनीयदेवगतिपुरस्सराः द्वासप्ततिः प्रकृतीः क्षपयति, चरमसमये सोवयवेदनीय मनुष्यायु-मनुष्यगतिप्रभृतिकास्त्रयोदशप्रकृतीः क्षपयतीति प्रतिपत्तव्यम् । जयभ. अ. प. १२४७.
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[ ३२०
५, २, १, १०९.] वेयणमहाहियारे वेयणदग्वविहाणे सामित्त
एत्थ पिल्लेवणाणाणं परूवणाए उवसंहारपरूवणाए च णाणावरणभंगो ।
तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ १०९॥ ___ एत्थ खविद-गुणिदकम्मंसियाणं कालपरिहाणीए अजहण्णपदेसपरूवणे कीरमाणे णाणावरणभंगो। णवरि खविदकम्मंसियलक्खणेण गुणिदकम्मंसियलक्खणेण वा आगंतूण सत्तमासहियअठ्ठवासाणमुवरि संजम घेत्तूण अंतोमुहुत्तेण चरिमसमयभवसिद्धिओ जादो त्ति ओदारदव्वं । पुणो एवमोदारिय चरिमसमयणेरइयदव्वेण संपधियउक्कस्सं कादूण घेतव्वं ।
___ संपहि खविदकम्मंसियस्स संतमस्सिद्ग अजहण्णदव्वपरूवणं भणिस्सामो। तं जहा - खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण भवसिद्धियचरिमसमए हिदजीवजहण्णदन्वस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण अणंतभागवड्ढि-असंखेज्जभागवड्ढाहि तदणंतरहेहिमगुणसेडिगोवुच्छमेत्तं वड्डिय विदो च, तद। अण्णो जीवो केवलिगुणसेडिणिज्जरं कादण भवसिद्धियदुचरिमसमयट्टिदो च, सरिसा । एवमोदारेदव्वं जाव अजोगिपढमसमओ त्ति । पुणो भजोगिपढमसमए तदणंतरहेटिमगुणसेडिगोवुच्छा वढावेदव्वा । एवं वविद्ण हिदो च,
यहां निर्लेपनस्थानोंकी प्ररूपणा तथा उपसंहारकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है।
इससे भिन्न उसकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा अजघन्य होती है ॥ १०९॥
यहां क्षपितकौशिक और गुणितकौशिकके कालपरिहानिकी अपेक्षा अजघन्य प्रदेशोंकी प्ररूपणा करते समय शानावरणके समान कथन है। विशेष इतना है कि क्षपितकांशिक रूपसे अथवा गुणितकौशिक रूपसे आकर सात मास अधिक आठ घर्षोंके ऊपर संयमको ग्रहण कर अन्तर्मुहूर्तमें अन्तिम समयवर्ती भवसिद्धिक हुआ कि उतारना चाहिये। पश्चात् इस प्रकार उतार कर अन्तिम समयवर्ती नारकके द्रव्यसे साम्प्रतिक द्रव्यको उत्कृष्ट करके ग्रहण करना चाहिये।
अब क्षापतकमांशिकके सत्त्वका आश्रय कर अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं। यथा-क्षपितकौशिक रूपसे आकर भवसिद्धिक होने के अन्तिम समयमें स्थित जीवके जघन्य द्रव्यके ऊपर उत्तरोत्तर एक परमाण अधिक आदिके क्रम अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि द्वारा तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छ मात्र बढ़ाकर स्थित हुआ जीच, तथा उससे भिन्न केवलिगुणश्रेणिनिर्जराको करके भवसिद्धिक होनेके द्विचरम समयमें स्थित हुआ एक दूसरा जीव, ये दोनों सदृश हैं। इस प्रकार अयोगी होनेके प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पुनः अयोगी होने के प्रथम समयमें तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छा बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' चरिम' इति पाठः ।
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३२८ ]
छखंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १०९.
अण्णेगो पुव्वविधाणेणागतूण तदणंतरगुणसेडिगोवुच्छं तिस्से चरिमफालिं' च धरेदूर्णं सजोगिचरिमसमयदिो च, सरिसा । एतो एगेगगुणसेडिगोवुच्छं वड्डाविय ओदारेदम्वं जाव अंत मुहुत्तेण सच्चं डिदिखंडयमुट्ठिदेत्ति । पुणो वि एवं चेव ओदारेदव्वं जाव लोगमावूरिय दिकेवलित्ति । पुणो एत्य परमाणुत्तरादिकमेण तदनंतर हेडिम गुणसेडिगोवुच्छमेत्तं वडिय दो च, अण्णेगो तदित्थट्ठिदिखंडएण हेट्ठिमगुणसेडिग वुच्छं धरेदूण मंथं काढूण ट्ठिदो च, सरिसा । पुगो पुव्वदव्वं मोत्तूण मंथगदजीवदव्वस्सुवरि तदणंतर
मगुणसेडिगोच्छं वड्डिय डिदो च, अण्णेगो तदित्थट्ठिदिखंडपण सह हेडिम उदयगदगुणसेडिगोच्छं धरिय कवाडगदजीवो च, सरिता । तदो पुव्विल्लं मोत्तूग इमं घेत्तून परमाणुत्तरादिकमेण एगहेट्टिमगुणसे डिगोवुच्छमेत्तं वढावेदव्वं । एवं वडिदूण द्विदो घ अण्णेगो जीवो तदित्थट्ठिदिखंडएण सह हेट्ठिमगुणसे ढिगोवुच्छं धरिय दंडे काढूण ट्ठिदो च, सरिसा । पुणो पुव्विल्लं मोत्तूण एदस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमे तदनंतरहेट्ठिमगुणसेडिग वुच्छमेतं वड्ढि ट्ठिदो च, आवज्जिदकरणचरिमसमयगुण से डिगोवुच्छं तदित्थडिदि
वृद्धिको प्राप्त होकर स्थित हुआ जीव, तथा पूर्वोक्त विधान से आकर तदनन्तर गुणश्रेणिगोपुच्छ और उसकी अन्तिम फालिको लेकर सयोगीके अन्तिम समयमें स्थित हुआ एक दूसरा जीव, ये दोनों सहरा हैं। यहांसे आगे एक एक गुणश्रेणिगोपुच्छको बढ़ाकर अन्तर्मुहूर्त द्वारा समस्त स्थितिकाण्ड के उत्थित होने तक उतारना चाहिये | फिर भी इसी प्रकार लोकको पूर्ण कर स्थित केवली तक उतारना चाहिये । पुनः यहां एक परमाणु अधिक आदि के क्रमसे तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छ मात्र बढ़ाकर स्थित हुआ जीव, तथा वहांके स्थितिकाण्डकके साथ अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छको लेकर मंथ समुद्घात करके स्थित हुआ दूसरा एक जीव, ये दोनों सदृश हैं। पुनः पूर्व द्रव्यको छोड़कर मंथसमुद्घातगत जीवके द्रव्यके ऊपर तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छ बढ़ाकर स्थित हुभा जीव, तथा वहांके स्थितिकाण्डकके साथ अधस्तन उदयगत गुणश्रेणिगोपुच्छको लेकर समुद्घातको प्राप्त हुआ दूसरा एक जीव, ये दोनों सदृश हैं। पुनः पूर्व जीवको छोड़कर और इसे ग्रहण कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमले एक अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छ मात्र बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुआ जीव, तथा वहांके स्थितिकाण्डकके साथ अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छको लेकर दण्डसमुद्घात करके स्थित हुआ दूसरा एक जीव, ये दोनों सदृश हैं। पुनः पूर्व जीव को छोड़कर इसके ऊपर परमाणु अधिक आदि क्रमसे तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणि गोपुच्छ मात्र बढ़ाकर स्थित हुआ जीव, तथा
कपाट
१ ताप्रतौ ' चरिमफालीए ' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' घेत्तून ' इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु ' गुणसेडिं गोपुच्छं ' इति पाठः । ४ ताप्रतौ ' पदस्सुवरि कमेण ' इति पाठः ।
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१,२,१, १०९
यणमहाहियारे वेयणदबविहाणे सामित्तं
खंडएण सह धरिय हितो च, सरिसा । एत्तो पहुडि हेडा जेण हिदिघादो णस्थि तेज एगेगगुणसेडिगोवुच्छं वड्डाविय पुवकोडिं सव्वमादारदव्वं जाव सजोगिपढमसमओ ति। पुणो तत्थ द्रुविय परमाणुत्तरादिकमेण एगगुणसेडिगोवुच्छा वड्ढावेदव्वा । एवं वहिदण ट्ठिदो च, चरिमसमयखीणकसाओ च, सरिसा । पुणो पुविल्लं मोत्तूण चरिमसमयखीणकसाओ परमाणुत्तरादिकमेण बड्ढावेदव्यो जाव तदणंतरहेहिमगुणसेडिगोउच्छा वडिदा ति । एवं वड्डिद्ण हिदो च, अण्णेगो तदित्यद्विदिखंडएण सह खीणकसायदुचरिमगुणसेडिगोवुन्छ धरेद्ण हिदो च, सरिसा । एवमोदारेदव्वं जाव सुहुमखवगचरिमसमओ ति । पुणो सुहुमखवगचरिमसमएण णवकबंधेणूणवेदणीयदुचरिमगुणसेडिगोउच्छा वड्ढावेदव्वा । एवं वडिदण विदो च, अण्णगो सुहुमदुचरिमसमए हिदो च, सरिसा । एवं जाणिदण भोदारेदव्वं जाव संजदपढमसमओ त्ति । पुगो एत्थ पुषविधाणेण णारगदवेण संघिय उक्कस्सं कादूण गेण्डिदव्वं ।
एवं गुणिदकम्मंसियसत्तं पि अस्सिद्ग अजद्दण्णदव्यसामित्तं वत्तव्वं । एत्य जीव
मार्जित करण के अन्तिम समय सम्बन्धी गुणश्रेणिगोपुच्छ को वहांके स्थितिकाण्डको साथ धरकर स्थित हुआ दूसरा एक जीव, ये दोनों सदृश है । यहांले लेकर नीचे चूंकि स्थितिघात नहीं है, अतः एक पक गुणश्रेणिगोपुच्छ बढ़ाकर सयोगी केवलोके प्रथम समयके प्राप्त होने तक पूर्वकोटि प्रमाण सब काल उतारना चाहिये । पुनः वहां स्थापित कर पक परमाणु अधिक आदिके करसे एक गुणश्रेणिगोपुच्छा बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुआ जीर, तथा अन्तिम समयवर्ती क्षीणकबाय जीव, ये दोनों सदृश है। पुनः पूर्वोक्त जीवको छोड़कर अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय जीवको एक परमाणु भधिक आदिके क्रमस तदनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिगोपुच्छाके बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुआ जीव, तथा वहांके स्थितिकाण्डकके साथ क्षीणकषायकी विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छ को धर कर स्थित हुआ दूसरा एक जीव, ये दोनों साश। इस प्रकार अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय क्षपक तक उतारना चाहिये। पुनः सूक्ष्म साम्परायिक झपकके अन्तिम समयमें नवक बन्धसे रहित वेदनीयकी विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छा बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुआ जीव, तथा सूक्ष्म साम्परायके द्विचरम समय में स्थित हुआ दूसरा एक जीव, ये दोनों सहश हैं। इस प्रकार जानकर प्रथम समयवर्ती संयत तक उतारना चाहिये । पुनः यहां पूर्वोक्त विधानसे नारक द्रव्य के साथ साम्प्रतिक द्रव्यको उत्कृष्ट करके ग्रहण करना चाहिये।
इसी प्रकार गुणितकर्माशिकके सत्त्वका भी आश्रय करके भजनम्य बन्यो
१ अ-आ काप्रतिषु 'पड्देि ति यति पाठः ।
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३३० ]
समुदाहारपरूवणाएं णाणावरणभंगो । एवं णामा-गोदाणं ॥ ११० ॥
जहा वेदणीयस्स जहण्णाजदण्णदव्वस्स परूवणा कदा तथा णामा-गोदाणं पि कादव्वं, विसेसाभावादा |
सामित्तेण जहण्णपदे आउगवेदणा दव्वदो जहणिया कस्स ? ॥ १११ ॥
छक्खंडागमे वेयणाखंड
( ४, २, ४, ११०.
सुगमं ।
जो जीवो पुव्वकोडाउओ अधो सत्तमाए पुढवीए रइएस आउअं बंधदि रहस्ताए आउअबंधगद्धाए ॥। ११२ ।।
पुव्वको डाउओ चैव किमहं णिरयाउअं बंधाविदो ? ओलंबणा करणेण बहुदव्वगालणङ्कं । किमवलंबणांकरणं णाम ? परभविआउअ उवरिमडिदिदेव्वस्स ओकड्डणाए हेट्ठा
स्वामित्वको कहना चाहिये। यहां जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । इसी प्रकार नाम व गोत्र कर्मके जघन्य एवं अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ ११० ॥
जिस प्रकार वेदनीय कर्मके जघन्य व अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार नाम और गोत्र कर्म की भी करना चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है ।
स्वामित्वकी अपेक्षा जघन्य पदमें आयु कर्मकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ १११ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
जो पूर्वकोटिकी आयुवाला जीव नीचे सप्तम पृथिवीके नारकियों में थोड़े आयुबन्धककाल द्वारा आयुको बांधता है ॥ ११२ ॥
शंका- पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले जीवको ही किसलिये नारकायुका बन्ध कराया ? समाधान - अवलम्बन करण द्वारा बहुत द्रव्यकी निर्जरा कराने के लिये पूर्वकोटि भयुवालेको नारकायुका बन्ध कराया है ।
शंका
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- अवलम्बना करण किसे कहते हैं ?
समाधान - परभव सम्बन्धी आयुकी उपरिम स्थिति में स्थित द्रव्यका अपकर्षण
१ अ आ-ताप्रतिषु 'किमुवलंबणा-' इति पाठः । २ काप्रतौ ' उपरिमाट्ठेद ' इति पाठः ।
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४, २, ४, ११४. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामिसं
[ ३३१
णिवदणमवलंबणोकरणं णाम । एदस्स ओकड्डणसण्णा किण्ण कदा ? ण, उदयाभावेण १ उदयाबलियबाहिरे अणिवदमाणस्स ओकड्डणाववएसविरोहादो । पुत्र कोडित्तिभागे पारद्धाउअबंधस्स अट्ठ वि अगरिसाओ कालेण जहण्णाओ होंति, ण अण्णस्सेत्ति जाणावण वा पुव्वकोडिगहणं कदं । दीवसिहादत्रस्त थोक्तमिच्छय अधो सत्तमाए पुढवीए रइएस तेत्तीससागरोवमाअं बंधाविदो । अट्ठहि आगरिसाहि बंधदि त्ति जागा व रहस्साए आउ अबंधगद्धाए त्ति उत्तं, अण्णत्थ आउअबंधगद्धाए जहण्णत्ताभावादो !
तप्पा ओग्गजहण्णएण जोगेण बंधदि ॥ ११३ ॥
किमहं जहणजे गणेव आउअं बंधाविदं ? थोवकम्मपदे सागमणङ्कं ।
जोगजवमज्झस्स दो अंतोमुहुत्तमच्छिदो ॥ ११४ ॥ जोगजवमज्झादो हेट्ठिमजोगा उवरिमजोगेहिंतो असंखेज्जगुणहीणा त्ति कट्टु जव
द्वारा नीचे पतन करना अवलम्बना करण कहा जाता है ।
शंका- इसकी अपकर्षण संज्ञा क्यों नहीं की ?
समाधान नहीं, क्योंकि, परभविक आयुका उदय नहीं होने से इसका उदया - बलिके बाहर पतन नहीं होता, इसलिये इसकी अपकर्षण संज्ञा करने का विरोध आता है। [ आशय यह है कि परभव सम्बन्धी आयुका अपकर्षण होनेपर भी उसका पतन आबाधाकाल के भीतर न होकर आबाधासे ऊपर स्थित स्थितिनिषेकोंमें ही होता है, इसी से इसे अपकर्षणसे जुदा बतलाया है । ]
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अथवा, पूर्वकोटिके त्रिभागमें प्रारम्भ किये गये आयुबन्धके आठों अपकर्ष कालको अपेक्षा जघन्य होते है, अन्यके नहीं; इस बात के ज्ञापनार्थ सूत्र में पूर्व कोटि पदका ग्रहण किया है । दीपशिखाद्रव्यके थोड़ेपनकी इच्छा कर नीचे सप्तम पृथिवीके नारकियों में तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको बंधाया है । आठ अपकर्षो द्वारा बांधता है, इसके ज्ञापनार्थ सूत्रमें 'थोड़े आयुबन्धककालसे ' यह कहा है, क्योंकि, अन्यत्र आयुबन्धककाल जघन्य नहीं है ।
तत्त्रायोग्य जघन्य योगसे बांधता है ॥ ११३ ॥
शंका
- जघन्य योगसे ही आयुको किसलिये बंधाया है ?
समाधान - थोड़ कर्मप्रदेशों के आस्रव के लिये जघन्य योगसे आयुको बंधाया है ? योगयवमध्यके नीचे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा ॥ ११४ ॥
चूंकि योगयवमध्य से नीचे के योग उपरिम योगों की अपेक्षा असंख्यातगुणे हीम
१ प्रतिषु 'मुषलंगणा ' इति पाठः ।
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१३१)
छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, १,११५. मज्झस्स हेहा अंतोमुहुत्तद्धमच्छाविदों'।
पढमें जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ ११५॥ ____ कुदो ? तत्थ असंखेज्जभागवढेि मोत्तूण अण्णवड्डीणमभावादो जहण्णजोगेण योवदव्यागमादो वा।
कमेण कालगदसमाणो अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववण्णो ॥ ११६॥
__ बद्धपरमवियाउओ भुंजमाणाउअस्स कदलीघादं ण करेदि त्ति कट्ठ अंतोमुहुचूणपुवकोडित्तिभागमवलंबणीकरणं कादूण ओवट्टणाघादेण परभविआउअमघादिय णेरइएसु उप्पण्णो त्ति जाणावणटुं कमेण कालगदादिवयणं भणिदं ।
तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण जहण्णजोगेण आहारिदो ॥ ११७॥
अण्णतरसमयपडिसेहढे तेणेवेत्ति मणिदं । पढमसमयाहारबिदिय-तदियसमय
है, अतः यवमध्यके नीचे अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहराया है।
प्रथम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक रहा ॥ ११५॥
क्योंकि, वहां असंख्यातभागवृद्धि को छोड़कर अन्य वृद्धियों का अभाव है, अथवा जघन्य योगले थोड़े द्रव्य का आगमन ह।
क्रमसे मृत्युको प्राप्त होकर नीचे सातवी पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न हुआ॥११६॥
जिसने परभविक आयुको बांध लिया है वह भुज्यमान आयुका कदलीघात नहीं करता है, ऐसा जान करके अन्तर्मुहू कम पूर्वकोटि के विभाग अवलम्बना करण करके अपवर्तनाघातसे परभव सम्बन्धी आयुका घात न करके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ, इस बातके शापनार्थ सूत्र में क्रमसे मृत्युको प्राप्त हुआ' इत्यादि वाक्य कहा है।
उस ही प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ जीवने जघन्य योग द्वारा आहार ग्रहण किया ॥ ११७ ॥ द्वितीयादि अन्य समयोंका प्रतिषेध करनेके लिये 'उस ही ने' ऐसा कहा है। प्रथम
१ अ-आ काप्रति मम्झाविदो' इति पाटः। २ अ आ काप्रजिषु' पढमो' इति पाठः। ३ अ-पारयोः 'असंखेजदिमाग' इति पाठः। ४ अ-आ-काप्रतिषु 'मंज.' इति पाठः। ५ प्रतिष -मुक्लंगणा-'इति पार। ६ प्रति 'सुखो अर्णतणय-' इति पाठः।
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१, २, ४, १२०. यणमहाहियारे वैयणदव्यविहाणे सामित समयतम्भवत्थस्स जहण्णुववादजोगो ण होदि त्ति जाणावणटुं पढमसमयआहारएण पढमसमयतम्भवत्येण आहारिदो पोग्गलपिंडो, थोवपदेसग्गहणटुं जहणेण उववादजोगेण आहारिदो त्ति भणिदं ।
जहणियाए वढीए वढिदो' ॥ ११८ ॥
एयंताणुवटिजोगाणं वड्डी जहण्णा वि अस्थि उक्कस्सा वि अस्थि । तत्थ जहण्णाए बड्डीए वड्डिद। त्ति जाणावणट्ठमेदं भणिदं ।
अंतोमुहुत्तेण सव्वचिरेण कालेण सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ॥ ११९ ॥
दीहाए अपज्जत्तद्धार जहण्णएगंताणुवड्डिजोगेण थोवपोग्गलगहणटुं सवचिरेण कालेगेत्ति वुत्तं । किमट्ठमपज्जत्तकालो वड्डाविदो ? पज्जत्तद्धाए आउअस्स ओकडणाकरणादो अपज्जत्तद्धाए ओकडणा जहणजागेग बहुआ होदि त्ति जाणावणहूँ ।।
तत्थ य भवहिदि तेत्तीसं सागरोवमाणि आउअमणुपालयतों बहुसो असादद्धाए वुत्तो ॥ १२० ॥ समयवर्ती आहारक होकर भी द्वितीय व तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ जीवके जघन्य उपपाद योग नहीं होता है, इस बातके शापनार्थ 'प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ जीवने पुद्गलपिंडको आहार रूपसे ग्रहण किया, अर्थात् स्तोक प्रदेशों को ग्रहण करने के लिये जघन्य उपपाद योगसे आहारको प्राप्त हुआ' ऐसा कहा है।
जघन्य वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ ॥ ११८ ॥
एकान्तानुवृद्धि योगोंकी वृद्धि जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उनमें जघन्य वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ, इस बातका परिक्षान कराने के लिये यह सूत्र कहा है।
अन्तर्मुहूर्तमें सर्वदीर्घ काल द्वारा सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ ॥ ११९॥
दीर्घ अपर्याप्तकाल के भीतर जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगसे स्तोक पुद्गलोंका प्रहण करने के लिये सर्वदीर्घ काल द्वारा ' ऐसा कहा है। __ शंका- अपर्याप्तकाल किसलिये बढ़ाया है ?
समाधान - पर्याप्तकालमें जो आयुका अपकर्षण किया जाता है उसकी अपेक्षा अपर्याप्तकालमें जघन्य योगसे किया गया अपकर्षण बहुत होता है, इसके शापनार्थ अपर्याप्तकालको बढ़ाया है।
वहां भवस्थिति तक तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुका पालन करता हुआ बहुत वार असाताकाल ( असातावेदनीयक बन्ध योग्य काल) से युक्त हुआ ॥ १२० ॥
१ अ-आ-काप्रतिषु 'जहणिपाए वढीदो' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'मणपालयंति पाठः । वाप्रती बहुसो महुसो' पति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु 'तो' इति पास।
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३३४]
छक्खंडागमे वैयणाखंड १, २, ४, १२१. किमट्ठमसादद्धाए बहुसो जोजिदो ? ओकड्डणाए बहुदव्वणिज्जरणटुं ।
थोवावसेसे जीविदव्वए ति से काले परभवियमाउअंबंधिहिदि त्ति तस्स आउववेदणा दव्वदो जहणगा ॥ १२१ ॥
किमट्ठमाउअबंधपढमसमए जहण्णसामित्तं ण दिज्जदे ? ण, उदएण गलमाणगोवुच्छादो टुक्कमाणसमयपबद्धस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । अजोगिचरिमसमए एक्किस्से द्विदीए ट्ठिददव्वं घेतण जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ जहण्णबंधगद्धोवहिदसादिरेयपुवकोडीए एगसमयपबद्धम्मि भागे हिदे एगभागमेत्तद वुवलंगादो, दीवसिहादव्यस्स पुण दीवसिहाजण्णाउबंधगद्धोवहिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेतभागहारुवलंभादो । एत्य उवसंहारो वुच्चदे। तं जहा- जहण्णबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धे तेत्तीसणाणागुणहाणिसलागण्णाणभत्थरासिणा ओवट्टिदे चरिमगुणहाणिदव्वं होदि । पुणो दिवड्डगुणहाणीए ओवट्टिदे चरिमणिसेगदव्वं होदि । पुणो एदं भागहार दीवसिहाए ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण
शंका- बहुत वार असाताकाल से युक्त किसलिये कराया है ?
समाधान- अपकर्षण द्वारा बहुत द्रव्यकी निर्जरा कराने के लिये बहुत बार असाताकाल से युक्त कराया है।
जीवितके स्तोक शेष रहनेपर जो अनन्तर कालमें परमविक आयुको बांवेगा, उसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ १२१ ।।
शंका- आयुबन्धके प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि उदयसे निर्जीर्ण होनेवाली गोषुच्छाकी अपेक्षा भानेवाला समयबद्ध असंख्यातगुणा पाया जाता है।
शंका- अयोगीके अन्तिम समयमें केवल एक स्थितिमें स्थित द्रव्यका प्रहण कर जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, यहां जघन्य बन्धककालका साधिक पूर्वकोटिमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसका एक समयप्रबद्ध में भाग देनेपर एक भाग मात्र द्रव्य पाया जाता है, परन्तु दीपशिखाद्रव्य का भागहार दीपशिखा सम्बन्धी जघन्य आयुबन्धक कालसे अपवर्तित अंगुलके असंख्यातर्फे भाग मात्र पाया जाता है।
___ यहां उपसंहार कहते हैं। यथा-जघन्य बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धको तेतीस नाना गुणहानिशलाओंकी अन्योन्यापस्त राशिले अपवर्तित करनेपर अन्तिम गुणहानिका द्रव्य होता है। पुनः डेढ़ गुणहानिसे भाजित करने पर आन्तिम निषेकका द्रव्य होता है। पुनः इस भागहारको दीपशिखाले अपवर्तित कर जो प्राप्त हो
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४, २, ४, १२१.] यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [३१५ पुष्वदव्वं समखंड कादण दिण्णे रूवं पडि दीवसिहामेत्तचरिमणिसेगा पावेंति । पुणो हेठा दीवसिहागुणिदरूवाहियगुणहाणिं रूवूणदीवसिहासंकलणाए ओवट्टिय विरलेदूण उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि इच्छिदविसेसा पाति । ते उवीर दादण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं उच्चदे। तं जहा-रूवाहियहेटिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामा त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलणाए अवणिद जहण्णदव्वभागहारो होदि । एदेण जहण्णबंधगद्धागुणिदसमयपबद्धे भागे हिदे एगसमयपबद्धस्स असंखेज्जदिभागो जहण्णदव्वं होदि। अधवा, एगसमयपबद्धस्स दीवसिहादव्वं पुव्यमेव अवणिय पच्छा तम्मि बंधगद्धाए गुणिदे दीवसिहादव्वमागच्छदि । तं जहा- णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरामिणा दिवड्वगुणहाणिपदुप्पण्णण एगसमयपद्धे भागे हिदे चरिमणिसेगो आगच्छदि । पुणो एवं चेव भागहारं दीवसिहाए ओवट्टिय विरलेदूण एगसमयपबद्धं समखंडं कादण दिपणे रूवं पडि दीवसिहमित्तचरिमणिसेगा पाति । पुणो हेढा रूवाहियगुणहाणिं दीवसिहागुणिदं विरले दूण उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं कादूण दिण्णे रूवं
उसका विरलन कर पूर्व द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति दीप. शिखा मात्र अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं। पश्चात् उसके नीचे दीपशिखासे गुणित एक अधिक गुणहानिमें एक कम दीपशिखासंकलनाका भाग देने पर जो प्राप्त हो उसका विरलन करके उपरिम विरलन के प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समान खण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति इच्छित विशेष प्राप्त होते हैं। उनको ऊपर देकर समीकरण करते समय परिहीन रूपोंका प्रमाण कहते है। यथा- एक आधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन में क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर जो प्राप्त हो उसे उपरिम विरलन मेंसे कम करने पर जघन्य द्रव्य का भागहार होता है। इसका जघन्य बन्धककालसे गुणित समयप्रबद्ध में भाग देनेपर एक समयप्रबद्धका असंख्यातवां भाग जघन्य द्रव्य होता है
__अथवा, एक समयप्रबद्ध के दीपशिखाद्रव्यको पहिले ही कम करके पश्चात् उसे बन्धककालसे गुणित करनेपर दीपशिखाव्य आता है। यथा- डेढ़ गुणहानिसमुत्पन्न नानागुण हानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका एक समयप्रबद्धमें भाग देनेपर अन्तिम निषेक आता है । पुनः इसी भागहारको दीपशिखासे अपघर्तित करनेपर जो प्राप्त हो उसका विरलन करके एक समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति दीपशिखा मात्र अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं। पुनः नीचे दीपशिखागुणित रूपाधिक गुणहानिका विरलन करके उपरिम विरलनक प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति एक एक
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१३६ ]
[ ४, २, १२२. पडि एगेगविसेसो पावदि । पुणो रूवूणदीवसिहासंकलणाए ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण उवरिमविरलगाए एगरूवरिदं समखंडं काढूण दिण्णे विरलणरूवं पडि रूवूण दीवसि हा संकलनमेत्तगे|वुच्छविसेसा पावेंति । दुगो एदे उवरिमविरलणरूवधरिदेसु समयाविरहिण पक्खिचिय समकरणे कदे परिहीणरूवाणं पमाणं उच्चदे । तं जहा -- रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धानं गंतून जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलगाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए परिहाणिरूपाणि लभंति । एदाणि उवरिमविरलणाए अवणिय सेसेण एगसमयावद्वे भागे हिदे एगसमयपबद्धदीवसिहाए पडिद होदि । पुणो एदं जद्दण्णबंधगद्धाए गुणिदे दीवसिहासव्वदव्वं आगच्छदि । एवमाउअस्स जद्दण्णसामित्तं समत्तं । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ १२२ ॥
छक्खंडागमे बेयणाखंड
तं सव्व
जगादो दीवसिहादव्वादो रूवाहियादिदव्वं तब्वदिरितं णाम । मजहणदव्ववेयणा | एदिस्से परूवण बंधगद्धामेत्तसमयबद्धाणं सव्त्रदव्यं सगलपक्खेवे कस्सामा । तं जहा तत्थ ताव एगसमयपबद्धस्स भणिस्सामो ति । सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स
विशेष प्राप्त होता है । पुनः एक कम दीपशिखा संकलनासे अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके उपग्मि विरलन के प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति एक कम दीपशिखा संकलना मात्र गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। फिर इनको उपरिम विरलन गशिके प्रत्येक अंकके प्रति प्राप्त राशि में समयाविरोध पूर्वक मिलाकर समीकरण करनेपर परिहीन रूपोंका प्रमाण कहते हैं । यथा - एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें कितने अंकों की हानेि प्राप्त होगी, इस प्रकार प्रमाण राशिसे फलगुणित इच्छा राशिको अपवर्तित करनेपर परिहीन रूप प्राप्त होते है । इनको उपरिम विरलनमेंसे कम करके शेषका एक समयप्रबद्ध में भाग देनेपर एक समयप्रबद्ध सम्बन्धी दीपशिखाका प्रतिद्रव्य होता है । फिर इसको जघन्य बन्धककालसे गुणित करनेपर दीपशिखाका सब द्रव्य आता है । इस प्रकार आयु कर्मका अघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ ।
जघन्य द्रव्यसे भिन्न अजघन्य द्रव्यवेदना है ॥ १२२ ॥
3
अघन्य दीपशिखाद्रव्य से एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक आदि द्रव्य तद्व्यतिरिक्त कहा जाता है । वह सब अजघन्य द्रव्यवेदना है । इस द्रव्यवेदनाके प्ररूपणार्थ बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोंके सब द्रव्यको सकल प्रक्षेपमें करते हैं । यथा - उनमें पहिले एक समयप्रबद्ध के द्रव्यको सकल प्रक्षेप रूपसे करके बतलाते हैं । सूक्ष्म मिगोद
१ अ-मा-काप्रतिषु 'सम्वजद्दष्ण इति पाठः ।
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४, २, ४, १२२ ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामिसं
[ ३३७
जहण्ण उववादजोगडाणादो सणिपंचिंदियपज्जत्तयस्स घोलमाणजद्दण्णजोगो असंखेज्जगुणो । एदेण जोगेण जं बर्द्ध कम्मं तं सगलपक्खेवकरणङ्कं' सेडीए असंखेज्जदिभागं तद्वाणपक्खेवभागहारं चिरलेदूण एगसमयपबद्धं समखंडं काढूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स सगलपक्खेबपाणं पात्रदि । कभ्रमेदस्स एगरूत्रधरिदकम्मपिंडस्स पक्खेवसण्णाँ ? जोगपक्खेवकारियत्तादो । पुणो एत्थ एमसगलाक्खेवं तेत्तीस सागरोवमेसु णिसिंचमाणेण जमंगुलस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदूण एगखंड णारगचरिमसमर णिसितं तस्स विगलपक्खेवो सि सण्णा | कुदो ? ऊणीभूद सगलपक्खेवत्तादो । पुणो एगसमयपबद्धं णिसिंचमाणेण दीव - सिहाचरिमसमए जं णिसित्तं तम्मि विगलपकखेवपमाणेण कीरमाणे केवडिया विगलपक्खेवा होंति त्ति भणिदे एगसमयबद्धस्स सगलपक्खेव भागहारमेत्ता होंति । पुणो एदे सगलपक्खेवे कस्साम । तं जहा- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवे घेत्तण जदि एगो सगलपक्खेवो लग्भदि तो सेठीए असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण
अपर्याप्त जघन्य उपपाद योगस्थान से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका घोलमान जघन्य योग असंख्यातगुणा है । इस योगसे जो कर्म बांधा है उसे सकल प्रक्षेप रूपसे करने के लिये श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण उस स्थान के प्रक्षेपभागहारका विरलन करके एफ समयबद्धको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति सकल प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है ।
शंका -एक अंक के प्रति प्राप्त इस कर्मपिण्डकी प्रक्षेष संज्ञा कैसे है ?
समाधान - चूंकि वह योगप्रक्षेपका कर्ता है, अतः उसकी प्रक्षेप संज्ञा उचित है ।
यहां एक सकल प्रक्षेपका तेतीस सागरोपमोंमें प्रक्षेपण करनेवाले जीवके द्वारा अंगुलके असंख्यातवें भागसे खण्डित करके जो एक खण्ड नारकके अन्तिम समयमें दिया गया है उसकी विकल प्रक्षेप संज्ञा है, क्योंकि, वह ऊनीभूत सकल प्रक्षेप है । पुनः एक समयप्रवद्धका प्रक्षेपण करनेवाले जीवने दीपशिखा के अन्तिम समय में जिसे दिया है उसे विकल प्रक्षेपके प्रमाणसे करनेमें कितने विकल प्रक्षेप होते हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि वे एक समयप्रबद्धके सकल-प्रक्षेप-भागहार प्रमाण होते हैं ।
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――――
अब इनको सकल प्रक्षेप रूपमें करते हैं । यथा - अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंको ग्रहण कर यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलगुणित
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१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिपु ' पक्खेत्रे करणटुं ' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आका-ताप्रतिषु तद्वाणं-' इति पाठ: । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' सण्णाओ' इति पाठः । छ. वे. ४३.
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३३८ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[ ४, २, ४, ११२.
फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता सयलपक्खेवा आगच्छंति । संपहि दीवसिहाविगलपक्खेवं भणिस्सामो । तं जहा- दीवसिह वट्टिदअंगुलस्सासंखेज्जदिभागं विरलेदूण सगलपक्खेवं समखंडे काढूण दिण्णे दीवसिहामेतचरिमणिसेगा रूवं पडि पावेंति । पुणो रूवूणदीवसिहोवट्टिददुरूवाहियणिसगभागहोरण किरियं काऊण लद्धरूवेसु उवरिमविरलणाए सोहिदे सुद्ध सेसं दीवसिद्दा विगलपक्खेव भागहारो होदि । पुणे एदेण विगलपक्खेवपमाणेण उवरिमविरलणरूवचरिदेसु सोहिदेसु सेडीए असंखेज्जदिभागमैत्ता विगलपक्खेवा लब्भंति । पुणो एदे सगलक्खेवे कस्साम । तं जहा अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवे रूवूणे' जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सेंडीए असंखेज्जदिभागउवरिमविरलणमेत्तविगलपक्खेवेसु केवडिए सगलपक्खेवे लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता सगलपक्खेवा लब्भंति ।
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संपहि दीवसिहाचरिमगोवुच्छाए एगगोवुच्छविसेसे वि सेडीए असंखेज्जदिभागत्ता सगलपक्खेवा होंति । तं जहा - रूवाहियगुणहाणीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं
इच्छा राशिको प्रमाणसे अपवर्तित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप आते हैं ।
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अब दीपशिखाके विकल प्रक्षेपको कहते हैं । यथा- दीपशिखा से अपवर्तित अंगुलके असंख्यातवें भागका विरलन करके सकलप्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एक अंकके प्रति दीपशिखा मात्र अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं । पुनः एक कम दीपशिखासे अपवर्तित ऐसे दो अधिक निषेकभागहारसे क्रिया करके जो अंक प्राप्त हों उनको उपरिम विरलन मेंसे कम करनेपर जो शेष रहे उतना दीपशिखाके विकल प्रक्षेपका भागहार होता है । पुनः इस विकल प्रक्षेपप्रमाणसे उपरम विरलन रूपधरितों में से कम करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं ।
अब इनके सकल प्रक्षेप करते हैं । यथा - एक कम अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सकल प्रक्षेष प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग उपरिम विरलन मात्र विकल प्रक्षेपोंमें कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेयर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं ।
अब दीपशिखाकी अन्तिम गोपुच्छाके एक गोपुच्छविशेष में भी श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं । यथा - एक अधिक गुणहानिसे अंगुल के
१ अप्रतौ ' निगलपक्खेत्रे सुत्तूण', आ-काप्रत्योः ' विगलपक्लेवे रूवून ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १२२.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ३३९ गुणिय विरलेदूण एगसगलपक्खेवं समखंड कादूण दिण्णे एक्केक्कस्स रुवस्स एगेगविसेसपमाणं पावदि । पुणो एदेण गोबुच्छविसेसपमाणेण उवरिमविरलणाए ओवहिदे सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता गोवुच्छविसेसा पाति । पुणो एदे सगलपक्खेवे कस्सामो। तं जहा- रूवाहियगुणहाणिगुणिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तविसेसे घेत्तूण जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तगोवुच्छविसेसेसु किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता सगलपक्खेवा लभंति ।
___ संपहि एगसमयपबद्धसगलपक्खेवभागहार सेडीए असंखेज्जदिभागं जहण्णबंधगद्धाए गुणिय विरलेदूण जपणबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धेसु समखंड कादण दिण्णेसु एक्केक्कस्स रूवस्स सगलपक्खेवपमाणं पावदि ।
संपहि बंधगद्धामेत्तसमयपबद्धाणं चरिमसमयणिसित्तदव्यं सगलपक्खेवे कस्सामो । तं जहा-~- अंगुलस्स असंखेज्जदिमागेण सगलपक्खेवे भागे हिंदे विगलपक्खेवो लब्भदि । एदेण पमाणेण उवरिमविरलणाए अवणिदे जहण्णबंधगद्धागुणिदघोलमाणजहण्णजोगट्ठाण
............................ असंख्यातवें भागको गुणित कर जो प्राप्त हो उसका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समस्खण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक विशेषका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इस गोपुच्छविशेषके प्रमाणसे उपरिम विरलनको अपवर्तित श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं।
पुनः इनके सकलप्रेक्षा करते हैं । यथा-एक अधिक गुणहानिसे गुणित अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विशेषों को ग्रहण कर यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र गोपुच्छविशेषोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करने पर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं।
अब एक समयबद्ध सम्बन्धी सकलप्रक्षेपके भागहारको, जो कि श्रेणिके असंख्यावें भाग है, जघन्य बन्धककालसे गुणित करने पर जो कुछ प्राप्त हो उसका विरलन करके जघन्य बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति सकल प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है।
___अब बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोंके अन्तिम समय में निक्षिप्त द्रव्यको सकल प्रक्षेप रूपसे करते हैं । यथा- अंगुलके असंख्यातवें भागका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर विकल प्रक्षेप प्राप्त होता है। इस प्रमाणसे उपरिम विरलनमें से कम करनेपर जघन्य बन्धककालसे गुणित घोलमानयोगस्थान सम्बन्धी प्रक्षेपभागहार मात्र विकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं।
१ अप्रतो उवरि विरलगाए अवणिदे', आ-काप्रत्योः 'उरि विरलणाए अहिदे ' इति पाठः ।
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३४.]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, १२२. पक्खेवभागहारमेतविगलपक्खेवा लभंति । पुणो एदे सगलपक्खेवे कस्सामो- अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेसेसु विगलपक्खेवेसु जदि एगो सगलपक्खेवो लम्भदि तो उपरिमविरलणमेत्तेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवडिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता सगलपक्खेवा लन्भंति ।
संपहि दीवसिहाविगलपक्खेवो वुन्चदे । तं जहा - दीवसिहाए ओवहिदअंगुलस्स भसंखेज्जदिमागं विश्लेदण सगलपक्खेवं समखंड कादूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स दीवसिहामेत्तसमाणगोवुच्छाओ पाति । पुणो हीणविसेसाणमागमण रूबूणदीवसिहोवट्टिददुरूवाहियणिसेगभागहारेण किरियं काऊण उरिमविरलणाए सोहिदे विगलपक्खेवभागहारो होदि । पुणो तेण सगलपक्खेने भागे हिंदे विगलपक्खेवो होदि। पुणो पदेण मागहारेण उवरिमविरलगाए ओवष्टिदाए लद्धमेत्ता सगलपक्खेवा आगच्छंति ।
___ एवं सगलविगलपश्खेवाणयगं परविय संपहि आउअस्ल अजहणणादवपरूवर्ण कस्सामो। तं जहा- सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णापरिणामजोगट्ठाणमादि कादृण जाव उक्कस्सजोगट्टाणे त्ति ताव एदेसिं जोगहाणाणं रयणा कायव्या। दीवसिहाजण्णदध्वस्सुवरि परमाणुत्तरं वहिद' सवजहण्णमजण्णदव्यं होदि । दुपरमाणुत्तरं वटि विदियगजहण्णदव्वं
पुनः इनको सफल प्रक्षय रुपले करते हैं -अंगुलके असंख्यातवें भाम मात्र विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सफल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्र विकल प्रक्षेपोंमें कितने प्राप्त होंगे, इस प्रकार माणसे फलगुणित इच्छाको अपर्तित करने पर श्रेणिके असंख्यातवे भाग मात्र सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं।
अब दीपशिखाका विकल प्रक्षेप कहा जाता है। यथा-- दीपशिखाले अरवर्तित अंगुलके असंख्यातर्ने भागका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समस्खा छ करके देनेपर एक एक अंकके प्रति दीपशिखा मात्र समान गोपुच्छायें प्राप्त होती हैं। पुनः हीन विशेषोंके लानेके लिये एक कम दीपशिखासे अपवर्तित दो अंक अधिक निषेकमागहारके द्वारा क्रिया करके उपरिम विरलनमें से कम करने पर विकल प्रक्षेपका भागहार होता है ।
ल प्रक्षेपमे भाग देने पर विकल प्रक्षप होता है। फिर इस भागहारका उपरिम विरलन में भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप आते हैं।
इस प्रकार सकल और विकल प्रक्षेपोंके लाने के विधानको कहकर अय आयु कर्मके अजघन्य द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है--संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य परिणामयोगस्थानको आदि करके उत्कृष्ट योगस्थान तक इन योगस्थानोंकी रचना करना चाहिये। दीपशिखाके जघन्य द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिक क्रमसे वृद्धिके होने पर सर्वजघन्य अजघन्य द्रव्य होता है । दो परमाणु अधिक क्रमसे वृद्धिके होनेपर
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४, २, ४, १२२.] यणमहाहियारे वेयणदत्र्यविहाणे सामित्त होदि । एवं दोहि वड्डीहि जहाणदव्वस्सुवरि एगो विगलपक्खेवो बड्ढावेदव्यो । एवं वविद्ण हिदो च, तदो अपगो जीतो समऊगबंधगद्धार जाणजोगेण बंधिय पुणो एगसमरण पक्खेवउत्तरजोगेण बंधिय आगंतृप दीवसिहार हिदो च, सरिमा । तं मोत्तूण इमं घेतूण परमाणुत्तरादिकमेण अजह्मणद्रवहाणाणि उपादेदव्याणि जाव एगो विगलपक्खेवो वविदो त्ति । एवं वडिदण हिदो च, अण्णगो समऊपबंधगद्धाए जहण्णजोगण बंधिय पुणो एगसमपण दुपक्खेवुत्तरजोगेण बंधिणागतूण दीवनिहाए विदो च, सरिसा । पुणो पुचिल्लं मोसूण इमं वेतृण परमाणुत्तरादिकोण एगविगलाक्वेयो बढावेदव्यो । एवं वशिद्ण हिदो च, अगणेगो समऊगधगद्वाए जहणजोगेण बंधिय पुगो एमसमरण तिपखवुत्तरजोगेण बंधिदूण दीवसिहागढमसमए विदो च, सरिसा । पुणो एदेण कमेण अंगुलस्सासंखज्जदिमागमता विगलाक्खेवा वड्ढावेदव्वा । ताधे एगो सगलपक्वेवो वडिदो होदि, अंगुलस्सा संखेज्जादिमागपत्तविगलपक्सेवेसु सगलपखेप्पत्तिदसणादो। एवं वढिदृण विदो च, पुणो अपणो समऊणजहष्णबंधगद्धाए जहाजोगेण बंधिय पुणो एगसमरण विमलखेवभागहारमत्तणं जोमट्ठाणाणं चरिम जोगहाणेण बंधियागंतूण दीवसिहापढम. अजवन्य व्यका छितीय विकल्प होता है । इस प्रकार दो वृद्धियों द्वारा जघन्य द्रव्यके ऊपर एक विकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित जीव, तथापक समय कम आधुबन्धककालमै जघन्य योगसे आयुको बांधकर पुनः एक समय में एक प्रक्षेप-अधिक योगसे आशुको बांधकर आकर के दीपशिखापर स्थित हुभा उससे भिन्न एक जीव, ये दोनों सहदा है । उसको छोड़कर और इस ग्रहण कर के एक परमाणु अधिक आदिके ऋमस पक विरल प्रक्षपकी वृद्धि हान तक अजघन्य द्रव्य स्थानोको उत्पन्न कराना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित जीव, तथा एक समय कम बन्धककाल में जघन्य योगसे बांधकर पुनः एक समय में दो प्रक्षेप अधिक योगसे आयुको बांध करके आकार दीपशिखापर स्थित हुआ अन्य पक जीव, ये दोनों सहरा है। पूर्व जीवको छोड़कर और इसे नहण कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमले एक विकल प्रक्षेप बहाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुआ जीव, तथा एक समय कम वन्धककालमें जघन्य योगले आयुको बांधकर पुनः एक समयमें तीन प्रक्षेप अधिक योगसे
र दीपशिखाके प्रथम समय में स्थित हुआ अन्य एक जीव, ये दोनों सदृश हैं। इस ब्रामसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपों को बढ़ाना चाहिये। तब एक सफल प्रक्षेप बढ़ता है, क्योंकि, अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोम एक सकल प्रक्षेपकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुआ जीय, तथा एक समय कम जघन्य बन्धककालमें जघन्य योगले आयु बांधकर पुनः एक समयमै विकल-प्रक्षेप-भागहार मात्र योगस्थानों के अन्तिम योगस्थानसे आयुको बांध करके आकर दीपशिखाके प्रथम समय में स्थित हुआ अन्य एक जीव,
. प्रतिषु ' पक्खेवे उत्तर ' इति पाठः ।
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३१२)
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, १२२. समए ट्ठिदो च, सरिसा । एत्थ विगलाक्खेवभागहारो सच्छे दो त्ति कटु संपुण्णजोगट्ठाणद्धाणं' च वड्डावदु ण सक्कदे । तेण विरलणमेत्तविगलपक्खेवेहितो अन्भहियवड्डी पुत्वं चेव कायव्वा । एवमणेण विहाणेण जोगट्ठाणाणि दव्वाणं सरिसकरणविहाणं च सोदाराणं जाणाविय वड्ढावेदव्यं जाव दीवसिहाहेट्ठिमगोवुच्छाए जेत्तिया सगलपक्खेवाअस्थि तेत्तियमेत्ता वड्डिदा त्ति ।
संपहि एदिस्से दीवसिहाहेहिमतदणंतरगोवुच्छाए सगलपक्खेवाणं पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा- अंगुलस्स असंखज्जदिभागं विरलेऊण सगलपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे चरिमणिसेगो पावदि। पुणो इमादो चरिमणिसेगादो पयडणिसेगों दीवसिहामेत्तगोवुच्छविसेसेहि अहिओ होदि त्ति । पुणो तेसिं पि आगमणे इच्छिज्जमाणे हेवा रूवाहियगुणहाणि विरलेदण चरिमगोवुच्छं समखंडं काऊण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स एगेगविसेसो पावदि । पुणो दीवसिहामेत्तगोवुच्छविसेसे इच्छामो त्ति दीवसिहाए रूवाहियगुणहाणिमोवट्टिय विरलेऊण उवरिमेगरूवधारदं दादूग समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे । तं जहा - रूवाहियटिमविरलगमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूव
ये दोनों सदृश हैं। यहां विकल प्रक्षेप-भागहार चूंकि सछेद है अतः सम्पूर्ण योगस्थानाध्यानको बढ़ाना शक्य नहीं है। इसलिये विरलनराशि मात्र विकल प्रक्षेपोंसे अधिक वृद्धि पहिले ही करना चाहिये। इस प्रकार इस विधानसे योगस्थानोंको और द्रव्योंके सदृश करनेके विधानको श्रोताओं के लिये जतलाकर दीपशिखाकी अधस्तन गोपुच्छामें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र वृद्धि को प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये ।
अब दीपशिखाकी अधस्तन इस तदनन्तर गोपुच्छाके सकल प्रक्षेपोका प्रमाणानुगम करते हैं । वह इस प्रकार है- अंगुलके असंख्यातवें भागका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देने पर अन्तिम निषेक प्राप्त होता है। पुनः इस अन्तिम निषेककी अपेक्षा प्रकृत निषेक दीपशिखा मात्र गोपुच्छविशेषोंसे अधिक है। पुनः उनके भी लानेकी इच्छा करनेपर नीचे एक अधिक गुणहानिका विरलन करके अन्तिम गोपुच्छको समखण्ड करके देनेपर एक पक रूपके प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है। फिर दीपशिखा मात्र गोपुच्छविशेषोंकी इच्छा कर दीपशिखासे एक अधिक गुणहानिको अपवर्तित कर जो प्राप्त हो उसका विरलन करके उपरिम एक रूपधरित राशिको देकर समीकरण करते समय परिहीन रूपोंका प्रमाण कहते हैं । वह इस प्रकार है-एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र अध्वान जाकर यदि एक रूपकी हानि
१ कापतौ 'संपुष्णदाणं ' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु पयडिणिखेगो' इति पाठः ।
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४, २, १. १२२. 1 वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामिपं [३४३ परिहाणी लब्भदि तो सयलम्मि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवहिदाए परिहाणिरूवाणि लभंति । एदाणि उवरिमविरलणाए सोहिय सेसेण सगलपक्खेवे भागे हिदे हेट्ठिमतदणंतरगोबुच्छा होदि । एसो एत्थ विगलपक्खेवो । एदेण पमाणेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवेहिंतो अवणिय पुध ठविदे उवरिमविरलणमेत्ता विगलपक्खेवा होति । पुणो ते सगलपखेरे कस्पामा । तं जहा - किंचूणअंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेतविगलपक्खेवाणं जाद एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो जहण्णाउअबंधगद्धाए गुणिदसेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तविंगलपक्खवेसु किं लामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता सगलपक्खेवा लभंति।
___ संपहि एदिस्से दीवसिहातदणंतरगोवुच्छाए जोगाणुपमं कस्सामो। तं जहा- एगसगलपक्खेवस्स दीवसिहादवागमणहे दुभूदअंगुलस्म असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि लभंति तो अप्पिदगोवुच्छाए सयलपक्खेवाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि लब्भंति । पुणो एत्तियाणं जोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण परिणमिय बंधिय दीवसिहाए पढमसमयट्टिददव्वं [धरेदण हिदो]
प्राप्त होती है तो सम्पूर्ण अंगुलके असंख्यातवें भागमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करनेपर परिहीन रूपोंका प्रमाण प्राप्त होता है । इनको उपरिम विरलनमेंसे कम करके शेषका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर अधस्तन तदनन्तर गोपुच्छा होती है। यह यहां विकल प्रक्षेप है। इस प्रमाणसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपों में से कम करके पृथक् स्थापित करनेपर उपरिम विरलन मात्र विकल प्रक्षेप होते हैं। उनके सकल प्रक्षेप करते हैं। वह इस प्रकारसेकुछ कम अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो जघन्य आयुबन्धककालसे गुणित श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं।
अब दीपशिखाकी तदनन्तर इस गोपुच्छाके योगस्थानोंका अनुगम करते हैं। वह इस प्रकार है-एक सकल प्रक्षेपकी दीपशिखाके द्रव्यके लाने कारणभूत अंगुलके असंख्यातें भाग मात्र योगस्थान यदि प्राप्त होते हैं तो विवक्षित गोपुच्छा सम्बन्धी सकल प्रक्षेपोंके कितने योगस्थान प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान प्राप्त होते हैं। , पुनः इतने योगस्थानोंके अन्तिम योगस्थानसे परिणत होकर आयुको बांधकर दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित द्रव्यको धरकर स्थित हुआ जीव, तथा जघन्य
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३४४ } छकाखंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १२२. च, जहण्णजोगेण जहण्णबंधगद्वाए च पंधिय आगंतूण दीवसिहागंतरहेट्ठिमगोवुच्छ धरेदूण हिदो च, सरिसा । संधि पुचिल्लं गोत्तूण इमं घेतू ग परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव तदणंतरहेट्ठिमगोवुच्छाए जतिया सगलाक्खया अस्थि तत्तियमत्ता विगलपक्खेवसरूवेण वड्डिदा त्ति ।
एत्थ ताव विमलपाखवायणं कस्सामो। तं जया ---. चरिमणिसेगभागहारमंगुलस्स असंखेज्जदिमागं रूवाहियदीवसिहाए खंडिदूणे गखंडं विरलेदून एगसगलपाखेवं समखंड कादूण दिपणे एक्वकस्स रूवाहियदीवसिहामेत्तसमाणगोवुच्छाओ पार्वति ।
संपहि गोवुच्छविसेसाणं पि आगमणटुं किरियं कस्सामो । तं जहा --- रूवाहियगुणहाणिं रूवाहियदीवसिहाए गुणिय पुणो दीवसिहाए संकलगाए खंडिय तत्थ एगखंडेण रूवाहिए। रूवाहियदीवसिहाए ओवहिदअंगुलस्स असं वेज्जदिमागे भागे हिदे भागलद्धे तम्मि चेव सोहिदे सुद्धसेसं विगलपक्खेवभागहारो होदि । पुणो एदं विरलेदूण सगलपक्खेवं समखंडं कादूग दिपणे एक्केक्कस्स स्वस्स विगलपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो एदेण पमाणेण एक्क-दो-तिषिण जाव पक्मेवभागहारमत्तविगलपवेवेसु यदेिसु एगो
योग से जघन्य बन्धककालमें आयुको बांध करके आकई दीपशिलाकी अनन्तर अधस्तन गोपुच्छाको धरकर स्थित हुआ जीव, ये दोनों सहश है । अब पूर्व जीवको छोष्टकर
और इसको ग्रहण कर के एक पाशु अधिक आदिके कमसे तदनन्तर अधस्तन गोपुच्छाम जितने सफल प्रक्षेप है उतने मात्र विकल प्रक्षेप स्वरूपसे बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये।
यहां पहिले विकल प्रक्षेपोंके लानकी किया करते हैं। वह इस प्रकार हैअंगुलके असंख्यात भाग स्वरूप अन्तिम निपकके भागहारो रुप अधिक दीपशिलासे खण्डित कर एक खण्डका विरलन कर एक सफल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक रूपके प्रति रूप अधिक दीपशिखा प्रमाण समाग मोनुच्छ प्राप्त होते है।
अब गोपुच्छविशेषों के भी लाने के लिये किया करते हैं। वह इस प्रकार हैरूप अधिक गुण हानिको रूप अधिक दीपशिखासे गुणित कर पुनः दीपशिखाकी संकलनाले खण्डित कर उनमें से रूप अधिक एक खण्डका रूप अधिक दीपशिखासे अपवर्तित अंगुलके असंख्यातवें भागमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसको उसी से कम करनेपर शेष रहा विकल प्रक्षेपका भागहार होता है। पुनः इसका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक रूपके प्रति विकल प्रक्षेपप्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इस प्रमाणसे एक दो तीन आदिके क्रमसे प्रक्षेपभागहार मात्र
१ अ-आ-काप्रतिषु ' वडिदेत्ति' इति पाठः ।
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१, २, ४, १२२. ] वेयणमहादियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्तं
[३४५ सगलपक्खेवो वविदो होदि । भागहारमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि चडिदो होदि । एदेण सरूवेण ताव वड्ढावेदव्वं जाव सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवा वड्विदा ति । ते च केवडिया इदि भणिदे तदणंतरहेछिमगोवुच्छाए जेत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तेत्तियमेत्ता। तेसिं सगलपक्खेवाणं गवेसणा कीरदे । तं जहा -- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं विरलेदण सगलपक्खवं समखंड कादण दिण्णे चरिमणिसेगो आगच्छदि । पुणो इमादो चरिमणिसेयादो पयदणिसेयो रूवाहियदीवसिहामेत्तगोवुच्छविसेसेहि अहिओ होदि त्ति । पुणो तेसिं पि आगमणे इच्छिज्जमाणे रूवाहियदीवसिहाओवट्टिदरूवाहियगुणहाणिं हेट्ठा विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि इच्छिदविसेसा पावेंति । पुणो ते उवरि दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणमागमणं वुच्चदे। तं जहा- रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तद्धाणम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहीणरूवाणि आगच्छति । ताणि उवरिमविरलणम्मि अवणिय तेण सगलपक्खेवे भागे हिदे पयदगोवुच्छाए विगलपक्खेवो आगच्छदि । पुणो एदेण पमाणेण सेडीए असंखेज्जदिमागमत्तउवरिमविरलणरूवधरिदसगल
निषेक आता है
विकल प्रक्षेपोंके बढ़ने पर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। भागहार मात्र योगस्थान ऊपर चढ़ता है। इस रीतिसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोंके बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये।
शंका-वे कितने हैं ?
समाधान- ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि वे उसके अनन्तर अधस्तन गोपुच्छमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र हैं।
उन सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा की जाती है । वह इस प्रकारले- अंगुलके असंख्यातवें भागका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर अन्तिम
आता है। पूनः इस अन्तिम निषेकसे प्रकृत निषेक एक अधिक दीपशिखा मात्र गोपुच्छविशेषोंसे अधिक होता है। पूनः उनके भी लाने की इच्छासे रूप अधिक दीपशिखास अपवर्तित रूपाधिक गुणहानिको नीचे विलित कर ऊपरकी एक रूपधरित राशिको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति इच्छित विशेष प्राप्त होते हैं । फिर उनको ऊपर देकर समीकरण करते हुए परिहीन रूपोंके लानेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है- रूप अधिक अधस्तन विरलन मात्र अध्यान जाकर यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन मात्र अध्वानमें कितनी हानि पायी जायगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर परिहीन रूप आते हैं। उनको उपरिम विरलनसे कम करके जो शेष रहे उसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर प्रकृत गोपुच्छका विकल प्रक्षेप आता है। फिर इस प्रमाणसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र छ. वे. ४४,
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१४६]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, १२२. पक्खेवेसु अवणिय पुध ढुवेदव्वं । पुणो एदे पुट्ठविदविगलपक्खेवे सगलपक्खेवपमाणेण कस्सामो। तं जहा- किंचूणअंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तविगलपक्खेवाणं जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सेडीए असंखे ज्जदिभागमेत्तविगलपक्खवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जदिभागमैत्ता सगलपक्खेवा पयदगोवुच्छाए लद्धा होति। एत्तियमेत्तसगलपक्खेवे वड्डिदे ण चडिदजोगट्ठाणं वुच्चदे । तं जहा- एगसगलपक्खेवस्स जदि रूवाहियदीवसिहाए ओवट्टिय किंचूणीकदअंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि लब्भंति तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेडीए असंखेज्जीदभागमेत्तसगलपक्खेवभागहारस्सं असं. खेज्जदिभागमेत्तं जोगट्ठाणद्धाणं लद्धं होदि। जत्थ जत्थ सगलपक्खेवभागहारो त्ति वुच्चदि तस्थ तत्थ जहण्णाउअबंधगद्धाए गुणिदघोलमाणजहण्णजोगपक्खेवभागहारो घेत्तव्यो । संपहि पुन्विल्लजोगट्ठाणद्धाणादो संपहियजोगट्ठाणद्धाणं किंचूणं होदि, पुश्विल्लविगलपक्खेवभागहारादो संपधियविगलपक्खेवभागहारस्स किंचूणचवलंभादो। पुणो एत्तियमेत्त
उपरिम विरलन रूपोंपर रखे हुए सकल प्रक्षेपोंमेंसे कम कर पृथक् स्थापित करना चाहिये । पुनः इन पृथक् स्थापित विकल प्रक्षेपोंको सकल प्रक्षेपोंके प्रमाणसे करते हैं। यथा- कुछ कम अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो जगश्रेणिके असंख्यातवे भाग मात्र विकल प्रक्षेपोमें । सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेप प्रकृत गोपुच्छमें प्राप्त होते हैं। इतने मात्र सकल प्रक्षेपोंके बढ़नेपर चढित योगस्थान नहीं कहा जाता है। वह इस प्रकारसेयदि एक सकल प्रक्षेपमें रूपाधिक दीपशिखासे अपवर्तित कर कुछ कम किये गये अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान प्राप्त होते हैं तो श्रेणि के असंख्यात भाग मात्र सकल प्रक्षेपोंमें कितने योगस्थान प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे पळगणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल-प्रक्षेपभागहारके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थानाध्वान प्राप्त होता है। जहां जहां 'सकल-प्रक्षेप-भागहार' ऐसा कहा जाये वहां वहां जघन्य आयुबन्धककालसे गुणित घोलमान जीवके जघन्य योग सम्बन्धी प्रक्षेप भागहारको ग्रहण करना चाहिये। अब पूर्वोक्त योगस्थानाध्वानसे इस समयका योगस्थानाध्वान कुछ कम होता है, क्योंकि, पूर्वोक्त विकल प्रक्षेपके भागहारसे इस समयका विकल-प्रक्षेप-भागहार कुछ कम पाया आता है। पुनः इतने मात्र योगस्थानों में अन्तिम योगस्थान स्वरूपसे एक समयमें
ताप्रतौ 'वडिदेण' इति पाठः । २ प्रतिषु 'भागमेत्ता सगलपक्खेवामागहारस्स' इति पाठः।
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१, २, ४, १२२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त
[११० जोगट्ठाणाणं' चरिमजोगट्ठाणेण एगसमएण परिणमिय बंधिदूण रूवाहियदीवसिहाए हिर दव्वेण जहण्णजोगेण जहण्णबंधगद्धाए च बंधिदण दुरूवाहियदीवसिहाए हिदद सरिसं होदि । एदेण कमेण हेट्ठिम हेडिमगोवुच्छाणं विगलपक्खेवबंधणविहाणं जोगट्ठाणद्धाणविहाणं च जाणिदूग ओदारेदव्वं जाव दुगुणदीवसिहामेत्तद्धाणमोदिण्णे त्ति । पुणो तत्थ ठाइदूर्णं परमाणुत्तरदिकमेण एगविगलपक्खेवो वडावेदव्वो।
___एत्थ विगलपक्खेवभागहारो वुच्चदे । तं जहा - चरिमणिसेगभागहारमंगुलस्स असंखेज्जदिभागं दुगुणदीवसिहाए ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण एगसगलपक्खेवं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि दुगुणदीवसिहामेत्तसमाणगोवुच्छाओ पार्वति । पुणो रूवूणोदिण्णद्धाणसंकलणमेत्तगोवुच्छविसेसाणमागमणमिच्छामो त्ति रूवाहियगुणहाणिं दुगुणदीवसिहाए गुणिय दुगुणरूवूणदीवसिहाए संकलगाए खंडेदूण तत्थ रूवाहियएगखंडेण दुगुणदीवसिहाए ओवट्टिदअंगुलस्स असंखेज्जदिमागेण भागे हिदे भागलद्धं तत्थेव सोहिदे विगलपक्खेवभागहारो होदि । एदेण सगलपक्खेवे भागे हिदे विगलपक्खेवो आगच्छदि ।
परिणमम कर आयुको बांध रूपाधिक दीपशिखामें स्थित द्रव्यसे, जघन्य योग व जघन्य बन्धककालसे आयुको बांधकर दो रूपोंसे अधिक दीपशिग्नामें स्थित द्रव्य, सदृश होता है। इस क्रमसे अधस्तन अधस्तन गोपुच्छोंके विकल प्रक्षेप सम्बन्धी बन्धनविधान और योगस्थानाध्वानविधानको जानकर दुगुणित दीपशिखा मात्र अध्वान उतरने तक उतारना चाहिये । फिर वहां ठहर कर एक परमाणु अधिक क्रमसे एक विकल प्रक्षेपको बढ़ाना चाहिये ।
यहां विकल प्रक्षेपका भागहार कहा जाता है। वह इस प्रकार है- अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अन्तिम निषेकके भागहारको द्विगुणित दीपशिखासे अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको लमखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति द्विगुणित दीपशिखा प्रमाण समान गोपुच्छ प्राप्त होते हैं। पुनः रूप कम अवतीर्ण अध्वानके संकलन मात्र गोपुच्छविशेषोंके लानेकी इच्छा कर रूपाधिक गुणहानिको द्विगुणित दीपशिखाले गुणित कर रूप कम द्विगुणित दीपशिखाके संकलनसे खण्डित कर उसमें रूपाधिक एक खण्डका द्विगुणित दीपशिखासे अपवर्तित अंगुलके असंख्यातवें भागमें भाग देने पर जो प्राप्त हो उसे उसी में से कम करनेपर विकल प्रक्षेपका भागहार होता है। इसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर विकल प्रक्षेप आता है । इतना मात्र बढ़कर स्थित हुआ जीव, तथा उत्तरोत्तर प्रक्षेप अधिक
. अ-काप्रत्योः 'जोगद्धाणाणं ' इति पातः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'दुरूवाहिय'इति पाठः। ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'हेहिमगोवुच्छागं' इति पाठः। ४ अप्रतौ 'हाइदण' इति पाठः ।
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३१८]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, १२२. एत्तियमेत्तं वड्डिदूण द्विदो च, पक्खेवुत्तरजोगेण एगसमयं बंधिदूण आगदो च, सरिसा । एवं विगलपक्खेवभागहारमत्तविगलपक्खेवेसु वडिदेसु पुणो एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि । भागहारमेत्तजोगट्ठाणाणि उवरि चडिदूण एगसमएण वंधिय अहियारहिदीए द्विददव्वं सरिसं होदि । एवं रूवाहियकमेण दुगुणदीवसिहाए हेट्ठिमगोवुच्छाए जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता सगलपक्खेवा वड्ढावेदव्या।। ___संपहि हेट्ठिमगोवुच्छाए संगलपक्खेवाणं गवसणा कीरदे । तं जहा -- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं विरलिय सगलपक्खेवं समखंडं कादृण दिण्णे रूवं पडि एगेगचरिमणिसेगो पावदि । पुणो एदम्हादो पयदगोवुच्छा दुगुणदीवसिहामेत्तगोवुच्छविससेहि अहिया होदि त्ति रूवाहियगुणहाणि दुगुणदीवसिहाए खंडिय तत्थ एगखंडेण रूवाहिरण उवरिमविरलगमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव सेोहिय सुद्धसेसेण सगलपक्खेवे भागे हिदे विगलपक्खेवो आगच्छदि । पुणो एदेण पमाणेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवहितो अवणिय विगलपक्खेवमागहारेण सगलपक्खेवभागहारे भागे हिदे लद्धमत्ता सगलपक्खेवा पयदगोवुच्छाए होति ।
एत्थ जोगट्ठाणद्धाणं पि जाणिदूण भाणिदव्वं । पुणो सेसअधिकारगोवुच्छाणं पि
..................................
योगसे एक समयमै आयुको बांधकर आया हुआ जीव, दोनों समान है। इस प्रकार विकल-प्रक्षेप-भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंके बढ़ने पर फिर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है । भागहार प्रमाण योगस्थान ऊपर चढ़कर एक समयमें आयुको बांध करके अधिकार स्थितिमें स्थित द्रव्य सदृश होता है। इस प्रकार रूप अधिक शमसे द्विगुणित दीपशिखाके अधस्तन गोपुच्छमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र सकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये।
अब अधस्तन गोपुच्छके सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा की जाती है। वह इस प्रकार है- अंगुलके असंख्यातवें भागका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति एक एक अन्तिम निषक प्राप्त होता है। इससे प्रकृत गोपुच्छ चूंकि द्विगुणित दीपशिखा मात्र गोपुच्छविशेषोंसे अधिक है, अतः रूप अधिक गुणहानिको द्विगुणित दीपशिखासे खण्डित कर उसमें रूपाधिक एक खण्डसे उपरिम विरलनको अपवर्तित कर जो लब्ध हो उसे उसीमेंसे कम करके शेषका प्रक्षेपमें भाग देनेपर विकल प्रक्षेप आता है। पुनः इस प्रमाणसे श्रोणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोमेंसे कम करके विकल प्रक्षेपके भागहारका सफल प्रक्षपके भागहारमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप प्रकृत गोपुच्छमें होते हैं ।
यहां योगस्थानाध्यानको भी जानकर कहना चाहिये। पुनः शेष अधिकार गोपुच्छों
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४, २, ४, १२२. ] यणमहाहियारे वैयणदव्यविहाणे सामित्तं
[ ३४९
सयले-वियलपक्खेवबंधणविहाणं जोगट्ठाण द्वाणपमाणं च जाणिदुग ओदोरदव्वं जाव अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तो विगलपक्खेबभागहारो हायमाणो पलिदोवमप्रमाणं पत्तो त्ति ।
संपहि केत्तियमद्भाणमोदिष्णे पलिदोषमं भागहारो होदि त्ति वुत्ते बुच्चदे | तं जहा - आउद्दिवडकम्मद्विदिपलिदो दमसलागाइ तेत्तीस सागरोवमाणं णाणागुणहाणिपलागाओ खंडिय तत्थेगखंडे तेतीस सागरोवमणाणागुणहाणि सलागाण मण्णोष्णन्भत्थरासिम्हि भागे हिदे लद्धं किंचूगमद्वाणं ओदरिय ह्रिदस्स तदित्यविषलपक्व भागद्दारो पलिदोवमं होदि । पुणो एत्तो ओदिण्णद्धाणादा दुगुणमोदिण्णे पलिडोवमस्स अर्द्ध भागहारो होदि, तिगुणमोदिण्णे तिभागो होदि । पद्रेण सरुवेण जहण्णपरित्तासं खेज्जगुणमत्तद्धाणे ओदिण्णे पलिदोवमं जहण्णपरित्तासंखेज्जेग खंडिदूग एगखंडं तदित्थभागहारो होंदि । एतो पहुड ट्ठा विगलपक्खेव भागहारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होदूण गच्छदि । एदेण रूवेण ओदारिज्जमाण केत्तियमद्धाणमोदिण्णस्स सव्वे गोवच्छविसेसा मिलिहूण एगचरिमगोवच्छपमाणं होंति त्ति भणिदे पलिदोवमद्धाणादो असंखेज्जगुणमोदिष्णे चरिमणिसेयपमाणं
सम्बन्धी सकल व विकल प्रक्षेपोंके बन्धनविधान तथा योगस्थानाध्वानके प्रमाणको भी जानकर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र विकल-प्रक्षेप-भागहारके हीन होते हुए पत्योपभप्रमाणको प्राप्त हो जाने तक उतारना चाहिये ।
अब कितना अध्वान उतरनेपर पत्योपम भागहार होता है, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं । वह इस प्रकार है- बाबु कर्म की स्थिति सम्बन्धी डेढ़ पल्योपमकी शलाकाओंसे तेतीस सागरोपमकी नानागुणहानिशलाकाओंको खण्डित कर उनमें से एक खण्डका तेतीस सागरोषयोंकी नानागुणहानि सम्बन्धी शलाकाओंकी अन्योन्यास्वस्त राशिमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उससे कुछ कम अध्वान उत्तर कर स्थित हुए जीवके यहांका विकल प्रक्षेपभागहार पल्योपम प्रमाण होता है । फिर इस अव तीर्ण अध्यान से दुगुणा अध्वान उतरनेपर पल्योपम के अर्ध भाग प्रमाण भागहार होता है । पूर्वोक्त अध्यान से तिगुणा उतरनेपर पल्योपम के तृतीय भाग प्रमाण भागद्दार होता है । इस स्वरूप ने जघन्य परीतासंख्यातगुणा मात्र अध्वान उतरनेपर पल्योपमको जघन्य परीता संख्यात से खण्डित करनेपर उसमें एक खण्ड प्रमाण वहां का भागहार होता है। यहां लेकर नीचे विकल-प्रक्षेप-भागहार पल्योपमका असंख्यातवां भाग होकर जाता है । इस रूपसे उतारते हुए कितना अध्यान उतरनेपर सब गोपुच्छविशेष मिलकर एक अन्तिम गोपुच्छ प्रताण होते हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि पल्योपम प्रमाण अध्यानसे असंख्यातगुणा उतरनेपर सब गोपुच्छविशेष अन्तिम निषेक
,
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'गोवुच्छाणं सगळ -' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' पलिदोवमस्स असं• अद्धं ' इति पाठः ।
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३५०
. छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४. १२३. होदि । तं जहा- गुणहाणिअद्धवग्गमूलेण गुणहाणिम्हि भागे हिदे भागलद्धं भागहारादो दुगुणं होदि । तं रूवाहियं हेट्ठा ओदिण्णद्धाणं होदि । एत्थतणसव्वगोवुच्छविसेसा मिलिदूग एगचरिमणिसेयपमाणं होति ।
एत्थ णाणावरणपढमरूवुप्पाइदविहाणं सव्वं चिंतिय क्त्तव्वं । चरिमणिसेयभागहारमंगुलस्स असंखेज्जदिमागं हेट्ठा ओदिण्णदाणेण रूवाहिएण खंडिदे तत्थेगखंडमेत्तो एत्थतणविगलपक्खेवभागहारो होदि । संपहि रूवूणोदिण्णद्धाणेणं सह तदणंतरहेट्ठिमगोवुच्छाए विगलपक्खेवभागहारे इच्छिज्जमाणे चरिमणिसेगमागहारं अंगुलल्स असंखेज्जदिभागमप्पणो
ओदिण्णद्धाणेण रूवाहिएण खंडिदे तत्थ एगखंड विरलिय सगलपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे रूवाहियओदिण्णद्धाणमेत चरिमगोवुच्छाओ रूवं पडि पावेंति । संपहि ओदिण्णद्धाणरूवूणमेत्तविससाणमागमणमिच्छिय रूवाहियगुण हाणिं रूवाहियदिण्णद्धाणेण गुणिय विरले. दूण एगरूवधारदं समखंडं करिय दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स एगेगविसेसपमाणं पावदि । संपहि रूवूणोदिण्णद्धाणमेत्ते गोवुच्छविसेसे इच्छामो त्ति रूवूणोदिण्णद्धाणेण पुव्वविरलण
प्रमाण होते हैं । यथा-गुणहानिके अर्ध भागके वर्गमूलका गुणहानिमें भाग देनेपर भागलब्ध भागहारसे दुगुणा होता है। वह एक अधिक होकर नीचे का अवतीर्ण अध्वान होता है। यहांके सब गोपुच्छविशेष मिलकर एक अन्तिम निषेक प्रमाण होते हैं।
यहां शानावरण सम्बन्धी प्रथम अंकसे उत्पादित सब विधानको विचार कर कहना चाहिये । अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तिम निषेकके भागहारको नीचेके अवतीर्ण रूपाधिक अध्वानसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्ड प्रमाण यहांका विकलप्रक्षेप-भागहार होता है। अब रूप का अवतीर्ण अध्यानके साथ तदनन्तर अघस्तन गोपच्छके विकल-प्रक्षेप-भागहारकी इच्छा करने पर अंगलके असंख्यातवें भाग मात्र अन्तिम निषेकभागहारको रूपाधिक अपने अवतीर्ण अध्यानसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्डका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देने पर रूपके प्रति रूपाधिक अवतीर्ण अध्यान मात्र अन्तिम गोपुच्छ पाये जाते हैं। अव अवतीर्ण अध्वानके एक अंकसे हीन मात्र विशेषोंके लाने की इच्छा कर रूपाधिक गुणहानिको रूपाधिक अवतीर्ण अध्वानसे गुणित कर विलित करके एक रूपधरितको समखण्ड करके देने पर एक एक रूपके प्रति एक एक विशेषका प्रमाण प्राप्त होता है। अब चंकि रूप कम अवतीर्ण अध्वान मात्र गोपुच्छविशेषोंका लाना इष्ट है अत एव रूप कम अवतीर्ण अध्वानसे पूर्व विरलन राशिको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसमें एक रूप
प्रतिषु 'रूवुप्पण्णद्धाणेण' इति पाठः । २ अप्रती -मेरो गोवुच्छविसेस.', आ-काप्रत्योः मतगोवुन्छविसेस-' ताप्रती 'मेत्तगोवुच्छविसेस'इति पाठः।
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४, २, ४, १२२.) वेषणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामि
[ ३५१ मोवट्टिय लद्धेण रूवाहिएण रूवाहियओदिण्णद्धाणावट्टिदअंगुलस्स असंखेन्जदिमागे भागे हिदे भागलद्धं तम्हि चेव सोहिदे सुद्धसेसो तदित्थविगलपक्खेवभागहारो होदि । एवं जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव चरिमगुणहाणिमेत्तमोदिण्णो त्ति । पुणो तत्थ तेत्तीससागरोवमणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोणब्भत्थरासी रूवूणो विगलपक्खेवभागहारो होदि । चरिमगुणहाणिदव्वे चरिमणिसेगपमाणेण कदे किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्तचरिमणिसेया होति । पुणो तेहि चरिमणिसेयभागहारे अंगुलस्स असंखेज्जदिभागे
ओवट्टिदे गुणगार-भागहार-दिवड्गुणहाणीओ समाओ त्ति अवणिदासु रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिस्सेव अबढाणादो। पुणो चरिमगुणहाणिपढमसमए ट्ठाइदूण परमाणुत्तरादिकमेण एगविगलपक्खेवं वड्डिदृण ट्ठिदो च, अण्णेगो पक्खेवुत्तरजोगेण बंधिदूणागदो च, सरिसा । एदेण कमेण खूणगोण्णभत्थरासिमेतविगलपक्खेवेसु पविढेसु एगो सगलपक्खेवो पविट्ठो होदि । विगलपक्खेवभागहारमेत्ताणि चेव जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदो होदि । एदेण कमेण ताव वड्ढावेदव्यं जाव दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगो वड्ढिदो त्ति ।
संपहि दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगसगलपक्खेवाणं गवसणा कीरदे । तं जहा -
मिलाकर रूपाधिक अवतीर्ण अध्धानसे अपवर्तित अंगुलके असंख्यातवे भागमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे उसीमेंसे कम करने पर शुद्धशेष वहांके विकल प्रक्षेपका भागहार होता है । इस प्रकार जान कर अन्तिम गुणहानि मात्र उतरने तक उतारना चाहिये । परन्तु वहां तेतील सागरोपमोंकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर दुगुणा करके परस्परमें गुणित करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसमेंसे एक कम करनेपर विकल-प्रक्षेप-भागहार होता है । अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको अन्तिम निषेकके प्रमाणसे करनेपर कुछ कम डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेक होते हैं। फिर उनसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अन्तिम निषेकके भागहारको अपवर्तित करनेपर गुणकार, भागहार व डेढ़ गुणहानियां समान होती हैं, क्योंकि, उनको कम करनेपर एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि ही अवस्थित रहती है । पुनः अन्तिम गुणहानिके प्रथम समयमें स्थित होकर एक परमाणु अधिक इत्यादि क्रमसे एक विकल प्रक्षेपको बढ़ाकर स्थित हुआ, तथा प्रक्षेप अधिक योगके क्रमसे बांधकर आया हुआ दूसरा एक जीव, ये दोनों जीव सदृश हैं । इस क्रमसे रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र विकल प्रक्षेपोंके प्रविष्ट हो जाने पर एक सकल प्रक्षेप प्रविष्ट होता है। विकल प्रक्षेपके भागहार प्रमाण ही योगस्थान ऊपर चढ़ता है । इस क्रमले द्विचरम गुणहानि सम्बन्धी अन्तिम निषेकके बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये।
__अब द्विचरम गुणहानिके अन्तिम निषेक सम्बन्धी सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा की जाती है। वह इस प्रकारसे-द्विचरम गुणहानिके चरम निषेकका भागहार
१ प्रतिषु 'भागेण ' इति पाठः ।
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३५२ } छक्खंडागमे वेयणावंडं
[४, २, ४, १२२ दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगभागहारो चरिमाणहाणिचरिमणिसेगस्स भागहारस्स अद्धं होदि, चरिमगुणहाणिचरिमणिसे गादो दुचरिमगुणहाणि चरिमणिसेगस्स दुगुणनुवलभादो । पुणो एदेण पमाणेण सगलपक्खेवेसु अवणिय सगलपक्खेवभागहारमेत्तविगलपक्खेवे कस्सामो । तं जहा - अंगुलस्स अखेजदिभागस्स दुभागमेत्तविगलपक्खेवे घेतण जदि एयो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सेडीए असंखेजदिमागमेतविगलपक्खेयेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए भागल द्धोत्ता सालपक्खेवा दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगे होति ।
____ संपधि तिस्से जोगट्ठाणद्धाण गवसणा कीरदे । तं जहा-- एगमगलपक्खेवस्स जदि रूवूणण्णोण्णभत्थररासिमताणि जोगट्ठाणाणि लभंति तो पुव्वभणिदमेत्तसगलपक्खवेसु केत्तियाणि जोगट्ठाणाणि लभामा ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लखें जोगट्ठाणद्वाणं होदि । जहण्णजोगट्टाणादो उवीर एत्तियमेत्ताणं जोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण एगसमयं बंधिदूण चरिमगुणहाणिपढमसमए डिदो च, पुणो जहण्णेण जोगेण जहण्णजोगद्वाए च बंधिदूण दुचरिंगगुणहाणिचरिमसमए हिदो च, सरिसा। पुणो पुविल्लं मोनूण इमं घेत्तूण एत्थ परमाणुत्तरादिकमण एगविगलपक्खेवो वड्ढावेदव्वो। एत्थ विगलपक्खेव
चरम गुणहानिके चरम निषेक सम्बन्धी भागहारले आधा होता है, क्योंकि, चरम गुणहानिके चरम निषेकसे द्विचरम गुणहानिका चरम निषेक दुगुणा पाया जाता है। पुनः इस प्रमाणसे सकल प्रक्षेपोमेंसे कम कर सकल प्रक्षपके भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेत्रों को करते हैं। यथा - अंगुलके असंख्यातवे भागके द्वितीय भाग मात्र विल प्रक्षेपोंको ग्रहण कर यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपों में कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप विचरम गुणहानिके चरम निषेकम होते हैं ।
अब उसके योगस्थानाध्वानकी गवेषणा करते हैं। वह इस प्रकार है- एक सकल प्रक्षेपके यदि रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र योगस्थान प्राप्त होते हैं तो पूर्वोक्त मात्र सकल प्रक्षेपोंमें कितने योगस्थान प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाके अपवर्तित करने पर जो लब्ध हो उतना योगस्थानाध्वान होता है । जघन्य योगस्थानसे आगे इतने मात्र योगस्थानों में अन्तिम योगस्थानसे एक समयमें आयुको बांधकर चरम गुणहानिके प्रथम समयमें स्थित हुआ, तथा जघन्य पाग और जघन्य योगकालसे आयुको बांधकर विचरम गुणहानिके चरम समयमें स्थित हुआ, ये दोनों जीव सदृश हैं । पुनः पूर्वको छोड़कर और इसको ग्रहण कर यहां एक परमाणु अधिक इत्यादि क्रमसे एक विकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये। यहां विकल
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१, २, ४, १२२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सात्ति
[ ३५३ भागहारो वुच्चदे। तं जहा - दुरूवाहियदिवड्डगुणहाणीए चरिमगुणहाणिचरिमणिसयभागहारे भागे हिदे विगलपक्खेवभागहारो होदि । दिवड्डगुणहाणीए किमटुं दोरूवपक्खेवो कदो ? चरिमगुणहाणिचरिमणिसेयादो दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेयस्स दुगुणत्तुवलंभादो। संपहि एसभागहारमेत्तविगलपक्खेवेसु वड्विदेसु एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि'। एदेण कमेण दुचरिमगुणहाणिदुचरिमगोबुच्छाए जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता वड्ढावेदव्वा।
संपहि एदिस्से गोपुच्छाए सगलपक्खेवगवेसणा कीरदे । तं जहा- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागस्सद्धं विरलेद्ण एगसगलपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगो पावदि । संपधि दोण्णिगोवुच्छविसेसे एत्थ अहिए इच्छामो त्ति दुरूवाहियगुणहाणिणा अंगुलस्स असंखेज्जदिभागदुभागमोवष्टिय लद्धे तम्हि चेव सोहिदे सुद्धसेसं विगलपक्खेवभागहारो होदि । एदेण सगलपक्खेवे भागे हिदे विगलपक्खेवो आगच्छदि । पुणो एदेण पमाणेण उवरिमविरलणाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवेसु अवणिय तइरासियं कादूण जोइदे सगलपक्खेवभागहारं विगल
प्रक्षेपका भागहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-दो रूपोसे अधिक डेढ़ गुणहानिका चरम गुणहानिके चरम निषक सम्बन्धी भागहारमें भाग देनेपर विकल प्रक्षेपका भागहार होता है।
शंका- डेढ़ गुणहानिमें किसलिये दो रूपोंका प्रक्षेप किया है ?
समाधान - चूंकि चरम गुणहानिके चरम निषकसे द्विचरम गुणहानिका चरम निषेक दुगुणा पाया जाता है, अतः उसमें दो रूपोंका प्रक्षेप किया गया है।
अब इस भागहार मात्र विकल प्रक्षेपोंके बढ़नेपर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। इस क्रमसे द्विचरम गुणहानिके द्विचरम गोपुच्छमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र बढ़ाना चाहिये।
___ अब इस गोपुच्छके सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा की जाती है। वह इस प्रकारसे- अंगुलके असंख्यातवें भागके अर्ध भागका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देने पर एक एक रूपके प्रति द्विचरम गुणहानिका चरम निषेक प्राप्त होता है। अब यहां दो अधिक गोपुच्छविशेषोंकी इच्छा
रूपोसे अधिक गुणहानिका अंगुलके असंख्यातवे भागके अर्ध भागम भाग देकर जो लब्ध हो उसे उसी से कम करनेपर शुद्धशेष विकल प्रक्षेपका भागहार होता है। इसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर विकल प्रक्षेप आता है। पुनः इस प्रमाणसे उपरिम विरलनके श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोंमें कम कर त्रैराशिक करके खोजनेपर सकल प्रक्षेपके भागहारको विकल प्रक्षेपके
. १ ताप्रतौ ' लम्भदि' इति पाठः । छ. वे. ४५.
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३५४
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, १, १२२. पक्खेवभागहारेण खंडिदेगखंडमेत्ता सगलपक्खेवा लम्भंति । एदेसु सगलपक्खेवेसु विगलपक्खेवभागहारेण गुणिदेसु जोगट्ठाणं होदि । पुणो जहण्णजोगट्ठाणादो एत्तियमद्धाणं चडिदण हिदजोगट्ठाणेण बंधिद्गागदो च, जहण्णजोगहाणेण जहण्णबंधगद्धाए च बंधिय तदणंतरहेहिमगोवुच्छं धरेदूण द्विदो च, सरिसा । पुणो एदस्सुवीर परमाणुत्तरादिकमेण- एगो विगलपक्खेयो वड्ढावेदव्यो।
एत्थ विगलपक्खेवपमाणं वुच्चदे । तं जहा- चदुरूवाहियदिवडगुणहाणीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमोवट्टिय विरलेदृण एगसगलपक्खेवं समखंड कादूण दिण्णे रूवं पडि चदुरूवाहियदिवड्डगुणहाणिमेत्तचरिमणिसेया पावेंति । पुणो एत्थ स्वाहियगुणहाणिं चदुरूवाहियदिवड्डगुणहाणिणा गुणिय दुचरिमगुणहाणिचरिमसमयादो ओदिण्णद्धाणस्स रूवूणस्स संकलणाए दुगुणिदाए ओवट्टिय रूवाहियं काऊण पुव्वविरलणम्मि भागे हिदे भागलद्धं तम्हि चेव सोहिय सेसण सगलपक्खेवे भागे हिदे विगलपक्खेवो आगच्छदि । पुणो एसविगलपक्खेवभागहारमेत्तविगलपक्खेवेसु वड्विदेसु एगो सगलपक्खेवो वढदि । एदेण कमेण तदणंतरहेछिमगोवुच्छाए जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता वड्ढावेदव्वा। - संपहि तिस्से तदणंतरहेछिमगोवुच्छाए सगलपक्खेवपमाणगवेसणा कीरदे। तं जहा
भागहारसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप पाये जाते हैं। इन सकल प्रक्षेपोंको विकल-प्रक्षेप-भागहारसे गुणित करनेपर योगस्थान होता है। पश्चात् जघन्य योगस्थानसे इतना अध्वान चढ़कर स्थित योगस्थानसे मायुको बांधकर आया हुआ, तथा जघन्य योगस्थान और जघन्य बन्धककालसे भायुको बांधकर सदनन्तर अधस्तन गोपुच्छको धरकर स्थित हुआ, ये दोनों जीव सदृश हैं । पुनः इसके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये।
यहां विकल प्रक्षेपका प्रमाण कहते हैं । वह इस प्रकार है-चार रूपोंसे अधिक डेढ़ गुणहानि द्वारा अंगुलके असंख्यातवें भागको अपवर्तित कर विरलित करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति चार रूपोंसे अधिक डेढ़ गुणहानि मात्र चरम निषेक प्राप्त होते हैं। फिर यहां रूपाधिक गुणहानिको चार रूपोंसे अधिक डेढ़ गुणहानि द्वारा गुणित कर उसे द्विचरम गुणहानिके चरम समयसे नीचे आये हुए रूप कम अध्यानके दुगुण संकलनसे अप्रवतित कर और एक रूप मिलाकर पूर्व विरलनमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे उसीमेंसे घटाकर शेषका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर विकल प्रक्षेप आता है । पुनः इस विकल-प्रक्षेप-भागहार मात्र विकल प्रक्षेपोंके बढ़नेपर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। इस क्रमसे तदनन्तर भधस्तन गोपुच्छ में जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र बढ़ाना चाहिये।
भव उस तदनन्तर मधस्तन गोपुच्छके सकल प्रक्षेपोंके प्रमाणको गषेषणा करते
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४, २, ४,
arrमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ३५५
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चरिमगुणहाणि चरिमणिसेगभागद्दारस्स अद्धं विरलिय सगलपक्खेवं समखंड काढूण दिण्णे एक्क्क्स्स वस्स दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसगो पावदि । संपहि पयदणिसेगो पदम्हादो चदुहि गोवच्छविसेसेहि अहियो त्ति कट्टु रूवाहियगुणहाणीए अद्वेण रूवाहिएण उपरिमविरलणमावट्टिय लद्धे तम्हि चेव सोहिदे सुद्ध सेसेो तदित्थविगलपक्खेव भागहारो होदि । पुणो एदे उवरिमविरलणरूवधरिदेसु अवणिय सगलपक्खेवे कस्सामा । तं जहा विगलपक्खेवभागद्दारमेत्तविगलपक्खेवाणं जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो समलपक्खेवभागद्दारमेत्तविगलपक्खेवाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओ वट्टिदाए लद्धमेत्तसयलपक्खेवा होंति । सयलपक्खेवसलागाओ विगलपक्खेवभागहारेण गुणिदाओ जोगट्ठाणद्धाणं होदि । एत्तियमद्धाणमुवरि चडिदूण एगसमयं बंधिदूणागदो च, जहण्णजोगेण जहण्णबंधगद्धाए च बंधिय तदनंतर हेट्ठिमसमए द्विदो च, सरिसा । एदेण कमेण दोगुणहाणीओ ओसरण दिस्स तदित्थविगलपक्खेवा वुच्चदे । तं जहा — दोगुणहाणीओ ओदिण्णो ति दुरूवाणमण्णोष्णन्भत्थरासिणा रूवूणेण दिवङ्कगुणहाणि गुणिय चरिमगुणहाणि - चरिमणिसेगभागद्दारे भागे हिदे गुणहाणिसलागाणं रूवौणण्णोण्णग्भत्थरा सिस्स तिभागो
१२२. }
हैं। वह इस प्रकार है- चरम गुणहानि सम्बन्धी चरम निषेकके भागहारके अर्ध भागका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक रूपके प्रति द्विचरम गुणहानिका चरम निषेक प्राप्त होता है । अत्र प्रकृत निषेक चूंकि इसकी अपेक्षा चार गोपुच्छविशेषसे अधिक है, अत एव एक अधिक गुणद्दानिके एक अधिक अर्ध भागका उपरिम विरलन में भाग देनेपर जो लब्ध हो उसको उसीमेंसे घटा देनेवर शुद्धशेष वहां के विकल प्रक्षेपका भागहार होता है। पुनः इनको उपरिम विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त राशियोमेंसे कम करके सकल प्रक्षेपोंको करते हैं। वह इस प्रकारसे - विकल-प्रक्षेप- भागद्दार मात्र विकल प्रक्षेपोंके यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो सकल-प्रक्षेप-भागहार मात्र विकल प्रक्षेपोंके कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप होते हैं । सकल-प्रक्षेपशलाकाओको विकल-प्रक्षेप-भागहारसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतना योगस्थानाध्वान होता है । इतना अध्वान ऊपर चढ़कर एक समयमें आयुको बांधकर आया हुआ, तथा जघन्य योगसे व जघन्य बन्धककालसे आयुको बांधकर तदनन्तर अधस्तन समय में स्थित हुआ, ये दोनों जीव सहश हैं । इस क्रमसे दो गुणहानियां पीछे हटकर स्थित हुए जीवके वहांका विकल प्रक्षेप कहा जाता है। वह इस प्रकार है- दो गुणहानियाँ चूंकि उतरा है अतः दो रूपों की रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे डेढ़ गुणहानिको गुणित कर चरम गुणहानि सम्बन्धी चरम निषेकके भागहार में भाग देनेपर गुणहानिशलाकाओं की एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके त्रिभाग प्रमाण विकल-प्रक्षेप
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छक्खंडागमे वेयणाखंड [१,२ ४, १२२. विगलपक्खेवभागहारो होदि । पुणो एत्थ परमाणुत्तरादिकमेण भागहारमेत्तेसु विगलपक्खेवेसु वड्डिदेसु एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि । एवं ताव वड्ढावेदवो जाव तिचरिमगुणहाणीए चरिमणिसेगम्मि जेत्तिया सयलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता वढिदा ति ।
पुणो तस्स सयलपक्खेवाणं गवसणा कीरदे । तं जहा - चरिमगुणहाणिचरिमजिसेगमागहारस्स चदुब्भागो एत्थ विगलपक्खेवभागहारो होदि । कुदो ? चरिमगुणहाणिचरिमणिसेगादो एदस्स णिसेगस्स चदुगुणत्तुवलंभादो । एदेण विहाणेण ओदारिज्जमाणे जिस्से जिस्से गुणहाणीए पढमसमए विगलपक्खेवो इच्छिज्जदि तिस्से तिस्से गुणहाणीए उपरिमगुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा रूवूणेण णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिम्हि रूवूणम्मि भागे हिदे लद्धं विगलपक्खेवभागहारो होदि । विगलपक्खेवभागहारमेत्तमुवरि चडिदण बंधमाणस्स एगसगलपक्खेवो पविसदि । इच्छिदणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विग करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा चरिमगुणहाणिचरिमणिसेगभागहारे भागे हिदे तदित्थअधिकारंगोवुच्छाए विगलपक्खेवभागहारो होदि।
भागहार होता है। पुनः इसमें एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंकी वृद्धि होनेपर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। इस प्रकार त्रिचरम गुणहानिके चरम निषेकमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र सकल प्रक्षेपोंके बढ़ जाने तक बढ़ाना चाहिये।
अब उसके सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा करते हैं। वह इस प्रकार है- चरम गुणहानिके चरम निषेक सम्बन्धी भागहारके चतुर्थ भाग प्रमाण यहां विकल प्रक्षेपका भागहार होता है, क्योंकि, चरम गुणहानिके चरम निषेकसे यह निषेक चौगुणा पाया जाता है । इस रीतिसे उतारते हुए जिस जिस गुणहानिके प्रथम समयमें विकल प्रक्षेपकी इच्छा हो उस उस गुणहानिकी उपरिम गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दुगुणा कर एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका नानागुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना विकल प्रक्षेपका भागहार होता है । विकल-प्रक्षेप-भागहार मात्र ऊपर चढ़कर आयुको बांधनेवालेके एक सकल प्रक्षेप प्रविष्ट होता है । इच्छित नानागुणहानिसलाकाओंका घिरलन कर दुगुणा करके अन्योन्याभ्यस्त राशिका चरम गुणहानिके चरम निषेक सम्बन्धी भागहारमें भाग देनेपर वहांकी अधिकार गोपुच्छाके विकल प्रक्षेपका भागहार होता
1 अ-भा-काप्रतिषु 'अनिकार' इति पाठः।
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४, २, ४, १२२.] वैयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अहियारंगोवुच्छाए भागहारो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागी होण हाणिसरूवेण गच्छमाणो पलिदोवमपमाणं पत्तो ति। संपहि केत्तियासु गुणहाणीसु ओदिण्णासु पलिदोवमं भागहारो होदि त्ति वुत्ते वुच्चदे– एगपलिदोवमन्मंतरणाणागुणहाणिसलागाणं बेत्तिभागद्धच्छेदणयमेत्तगुणहाणिसलागाओ मोत्तूण सेसगुणहाणीओ ओदिण्णस्स तदित्थअहियारगोवुच्छाए भागहार पलिदोवमं होदि । सगलतेत्तीस | ३३ । सागरम्भंतरणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिम्हि रूवूणम्मि पुवुत्तणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा भागे हिदे एगपलिदोवमन्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणं बेत्तिभागं लभंति, पुणो तेहि दिवड्ढगुणहाणीए गुणिदाए पलिदोवमुप्पत्तीदो । संपहि एत्थ सयलपक्खेवबंधणविहाणं जोगट्ठाणद्धाणं च जाणिदूण माणिदव्वं । एदेण कमेण ओदारेदव्वं जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धछेदणया रूवूणा जत्तिया अत्थि तत्तियमेत्ताओ गुणहाणीओ अवसेसाओ द्विदाओ त्ति। तदित्थविगलपक्खेवभागहारो धुच्चदे- रूवूणजहण्णपरित्तासंखेज्जछेदणयमेत्तगुणहाणिसलागाओ मोत्तूण उवरिमणाणा
है। इस प्रकार जानकर तब तक ले जाना चाहिये जब तक अधिकारगोपुच्छका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भाग होकर हानि स्वरूपसे जाता हुआ पल्योपमप्रमाणको प्राप्त होता है।
अब कितनी गुणहानियां उतरने पर उक्त भागहार पल्योपम प्रमाण होता है, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि एक पल्योपमके भीतर नानागुणहानिशलाकाओंके दो त्रिभाग अर्धच्छेद मात्र गुणहानिशलाकाओको छोड़कर शेष गुणहानियां उतरनेपर वहांकी अधिकारगोपुच्छाका भागहार पल्योपम होता है । सम्पूर्ण तेतीस सागरोपोंके भीतर नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर दुगुणा करके उनकी रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें पूर्वोक्त नानागुणहानिशलाकाओंको विरलित कर दुगुणा करके परस्पर गुणित करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसका भाग देनेपर एक पल्योपमके भीतर नानागुणहानिशलाकाओके दो त्रिभाग पाये जाते हैं, क्योंकि, फिर उनसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करने पर पल्योपम उत्पन्न होता है। अब यहां सकल प्रक्षेपके बन्धनविधान और योगस्थानाध्वानको जानकर कहना चाहिये। इस क्रमसे जघन्य परीतासंख्यातके रूप कम जितने अर्धच्छेद हैं उतनी मात्र गुणहानियां शेष रहने तक उतारना चाहिये।
वहांके विकल प्रक्षेपका भागहार कहते हैं- रूप कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर गुणहानिशलाकाओंको छोड़कर उपरिम नानागुणहानिशलाकाओंका
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१ आ-ताप्रत्याः 'अधिकार' इति पाठः। २ संख्येयं आ-का-ताप्रतिषु नोपलभ्यते ।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, ५, १२१. गुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णभत्थरासिणा रूवणेण दिवगुणहाणि गुणिय अंगुलस्स असंखेज्जदिमागेण भागे हिंदे जं लद्धं जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स सादिरेयमद्धं विगलपक्खेवभागहारो होदि। तक्काले संखेज्जाणि जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदण बंधमाणस्स एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि । तत्थ अहियारगोवुच्छाभागहारो जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धेण दिवगुणहाणि गुणिदे होदि । एत्थ सयलपक्खेवबंधणविहाणं जोगट्ठाणद्धाणं च जाणिदूण गहेदव्वं । एदेण कमेण एगगुणहाणिं मोत्तूण सेससव्वगुणहाणीओ ओदिण्णे तदित्थविगलपक्खेवभागहारो दोरूवाणि एगरूवस्स असंखेज्जदिमागो च भागहारो होदि । तक्काले तिणि जोगट्ठाणाणि वि उवरि चडिदण बंधमाणस्स एगसगलपक्खेवो पुणो असंखेज्जदिभागेणूणएगो विगलपक्खेवो च वड्ढदि । पुणो छेदभागहारो होदूण एवं गच्छमाणे कम्मि संपुण्णसगलपक्खेवा होति त्ति भणिदे वुच्चदे-रूवूणपणोण्णब्भत्थरासिमेत्तजोगट्ठाणाणि उवरि चडिदूण बंधमाणस्स दुरूवूणण्णाभत्थरासिस्सद्धमेत्ता सगलपक्खेवा वटुंति । तदित्थअहियारगोवुच्छभागहारो दुगुणिदैदिवगुणहाणिमेतो
विरलन कर द्विगुणित करके उनकी रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे डेढ़ गुणहानिको गुणित कर अंगुलके असंख्यातघे भागका भाग देनेपर जघन्य परीतासंख्यातका साधिक अर्ध भाग जो लब्ध होता है वह वहांके विकल प्रक्षेपका भागहार होता है । उस काल में संख्यात योगस्थान आगे जाकर आयुको बांधनेवालेके एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। वहां अधिकारगोपुच्छाका भागहार जघन्य परीतासंख्यातके अर्ध भागसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करनेपर होता है। यहां सकल प्रक्षेपके बन्धनविधान और योगस्थानाध्वानको जानकर ग्रहण करना चाहिये । इस क्रमसे एक गुणहानिको छोड़कर शेष सब गुणहानियां उतरनेपर वहांके विकल प्रक्षेपका भागहार दो अंक और एक अंकका भसंख्यातवां भाग भागहार होता है । उस कालमें तीन योगस्थान भी ऊपर चढ़कर भायको बांधनेवाले के एक सकल प्रक्षेप और असंख्यातवें भागसे हीन एक विकल प्रक्षेप बढ़ता है।
शंका-फिर छेदभागहार होकर इस प्रकार जानेपर सम्पूर्ण सकल प्रक्षेप कहांपर होते हैं?
समाधान-ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र योगस्थान ऊपर चढ़कर आयुको बांधनेवालेके दो रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके भर्ष भाग प्रमाण सकल प्रक्षेप बढ़ते हैं।
यहांकी अधिकार गोपुच्छका भागहार द्विगुणित डेढ़ गुणहानि मात्र होता है। भव
१ अ-आ-काप्रतिषु. 'मद्धंगल-', ताप्रती 'मद्धं गुण-' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः 'भागहारो गणिव' इति पाठः।
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१, २, १, १२२ ) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त होदि । संपहि एत्थ सयलपक्खेवबंधणविहाणं जोगट्ठाणद्धाणं च जाणिदूण वत्तव्यं ।
___ संपहि पढमगुणहाणि तिणिखंडाणि काऊण तत्थ हेडिमदोखंडाणि मोत्तूण गुणहाणितिभाग सेसंगुणहाणीओ च हेढदो ओसरिय बंधमाणस्स विगलपक्खेवभागहारो दिवटरूवमेत्तो होदि । एत्थ तिण्णि जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदूण बंधमाणस्स दोसगलपक्खेवा वहृति । एत्थ अहियारगोवुच्छभागहारो किंचूणतिण्णिगुणहाणिमेत्तो होदि । तं जहातिण्णिगुणहाणीओ विरलिय एगसगलपक्खेवं समखंड कादूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्त बिदियगुणहाणिपढमणिसेगो पावदि । पुणो इमं पेक्खिदूण पयदगोवुच्छा गुणहाणित्तिभागमत्तगोवुच्छविसेसेहि अहियो त्ति कटु तेसिमागमण8 किरिया कीरदे । तं जहा- एगगुणहाणिं विरलेऊण विदियगुण हाणिपढमणिसेयं समखंडं कादण दिण्णे रूवं पडि एगेगविसेसो पावदि । पुणो गुणहाणितिभागमेत्तविससे इच्छामो त्ति गुणहाणि गुणहाणितिभागेगोवष्टिय रूवाहियं कादूण पुणो तेण" उवरिमविरलणमोवट्टिय लद्धे तम्हि चेव सोहिदे सुद्धसेसो अहियारगोवुच्छाए भागहारो होदि । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव णारगतदिय
..........
यहां सकल प्रक्षेपके बन्धनविधान और योगस्थानाध्वानको जानकर कहना चाहिये।
अब प्रथम गुणहानिको तीन खण्डों में विभक्त कर उनमें अधस्तन दो खण्डको छोड़कर एक गुणहानिके त्रिभाग और शेष गुणहानियां नीचे उतर कर आयु बांधनेवाले जीवके विकल-प्रक्षेप-भागहार डेढ अंक प्रमाण होता है। यहां तीन योगस्था कर भायुको बांधनेवालेके दो सकल प्रक्षेप बढ़ते हैं। यहां अधिकारगोपुच्छाका भागहार कुछ कम तीन गुणहानि मात्र होता है। वह इस प्रकार है-तीन गुणहानियोंका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक रूपके प्रति द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक प्राप्त होता है । पुनः इसकी अपेक्षा प्रकृत गोपुच्छा चूंकि गुणहानिके त्रिभाग मात्र गोपुच्छविशेषोंसे अधिक है, अतः उनके लाने के लिये क्रिया की जाती है। वह इस प्रकार है-एक गुणहानिका विरलन करके द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेकको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है। पुनः गुणहानिके त्रिभाग मात्र विशेषोंकी चूंकि इच्छा है, अतः गुणहानिको गुणहानिक त्रिभागसे अपवर्तित कर एक अंकसे अधिक करके फिर उससे उपरिम विरलनको अपवर्तित कर जो लब्ध हो उसे उसी से घटा देनेपर शेष अधिकारगोपुच्छाका भागहार होता है । इस प्रकार जानकर नारक भवके तृतीय समय
१ अ-का-तापतिषु 'तिभागस्सेस', आप्रतो'तिभागसेस' इति पाठः। २ अ-का-ताप्रतिषु 'बडमाणस', आप्रतौ 'वट्टमाणस्स' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु • मेला' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'गोवुकगुण' इति पाठः। ५ अप्रतौ जहिया', काप्रती 'जत्तिया' इति पाठः। ६ ताप्रती 'गुणहाणि गुणहाणि-'इति पाठः।- मप्रता
'इति पाठः।
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३६० ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १२२.
समओ त्ति । पुणो णारगतदियसमए द्विदस्स विगलपकखेवभागहारं भणिस्सामा । तं जहा - दिवड गुणहाणीए अद्धं विरलेदूण एगसगलपक्खेवं समखंडं काढूण दिण्णे एक्केक्रस रूवस्स दो-दो पढमणिसेया पावेंति । एत्थ एगरूवधरिदं दुगुणणिसेय भागहारेण खंडेण तत्थे खंडपमाणे सव्वरूवधरिदेसु फेडिदे पढम - विदियणिसेयपमाणं होदि । पुणो फेडिददव्वं हाइदूर्ण जहा गच्छदि तहा वत्तइस्सामा । तं जहा- - दुगुणरूवूणणिसे गभागहारमेत्तगोवच्छविसेसाणं जदि पढम-बिदियणिसेयपमाणं लब्भदि तो दिवड गुणहाणिअद्धमेत्तगोवच्छविसेसेसु केत्तिए पढम-विदियणिसेगा लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिय लद्धं दिवड्डुगुणहाणिदुभागम्मि पक्खिते दिवङगुणहाणीए अद्धं सादिरेयं विगलपक्खेवभागहारो होदि । एसभागहारमेत्त जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदूण बंधमाणस्स रूवूणभागहारमेत्तसगलपक्खेवा वहू॑ति । एवं ताव वढावेदव्वं जाव णारगविदियणिसेयम्मि जत्तिया सयलपक्खेवा अत्थि तत्तियमेत्ता वड्ढिदा त्ति ।
संपहि णारगबिदियगोवुच्छाए किं पमाणमिदि बुत्ते सादिरेयदिव ड्डगुणहाणीए ए
तक ले जाना चाहिये । पुनः नारक भवके तृतीय समय में स्थित जीवके विकल प्रक्षेपके भागहारका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है
डेढ़ गुणहानि के अर्ध भागका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति दो दो प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं। यहां एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको दुगुणे निषेकभागहारसे खण्डित कर उसमें एक खण्डप्रमाणको सब अंकों के प्रति प्राप्त राशियोंमैसे कम करनेपर प्रथम व द्वितीय निषेकका प्रमाण होता है । फिर घटाया हुआ द्रव्य हीन होकर जैसे जाता है वैसा बतलाते हैं । वह इस प्रकार है - दुगुणे निषेकभागद्दारमें एक कम करनेपर जो शेष रहे उतने मात्र गोपुच्छविशेषों के यदि प्रथम व द्वितीय निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है तो डेढ़ गुणहानिके अर्ध भाग मात्र गोपुच्छविशेषों में कितने प्रथम व द्वितीय निषेक प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको डेढ़ गुणहानिके अर्ध भागमै मिलानेपर डेढ़ गुणहानिका साधिक अर्ध भाग विकल प्रक्षेपका भागहार होता है । इस भागहार प्रमाण योगस्थान ऊपर चढ़कर आयुको बांधनेवालेके एक रूप कम भागहार मात्र सकल प्रक्षेप वृद्धिको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार नारक के द्वितीय निषेकमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये ।
शंका नारकी की द्वितीय गोपुच्छाका क्या प्रमाण है ?
समाधान
-
- ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि वह साधिक डेढ़ गुणहानिसे एक
१ प्रतिषु ' सइदूण' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' गुणहाणिएग ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १२२ ]
यणमहाहियारे वेयगदम्वविहाणे सामित्तं
सगलपक्खेवे खंडिदे तत्थ एगखंडपमाणं होदि । पुणो एत्थ सयलपक्खेवबंधविहाणं जोगट्ठाणद्धाणं च जाणिदण भाणिदव्यं । एवं वड्दूिण ट्ठिदतदियसमयणेरइओ च, पुणो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि बंधिदूणागदबिदियसमयणेरइओ'च, सरिसा । संपहि पिदियसमयणारगदव्वम्मि परमाणुत्तरादिकमेण एगविगलपगखेवो वड्ढावेदव्वो। एत्थ विगलपक्खेवो एगसगलपक्खेवे दिवड्डगुणहाणीए खंडिदे तत्थ एगखंडेणूणसगलपक्खेवमेत्तो। पुणो एत्तियमेतं वड्डिदूण विदो च, अण्णेगो समऊण [जहण्ण] बंधगद्धाए जहण्णजोगेण बंधिय पुणो एगसमएण पक्खेवुत्तरजोगेण बंधिय णारगबिदियसमयहिदो च, सरिसा । एदेण कमेण दिवड्डगुणहाणिमेत्तविगलपक्खेवेसु वड्डिदेसु रूवूणदिवड्वगुणहाणिमेत्तसयलपक्खेवा बटुंति । एवं ताव वड्ढावेदव्वं जाव णारगपढममोवुच्छा वड्विदा त्ति ।
पुणो तिस्से सयलपक्खेवगवेसणा कीरदे । तं जहा --- एगसयलपक्खेवे दिवङ्कगुणहाणीए खंडिदे पढमणिसेओ आगच्छदि । एदेण पमाणेण सव्वसगलपक्खेवेसु अवणिय पुध छविय ते सगलपक्खेवे कस्सामो-दिवड्डगुणहाणिमेत्तविगलपक्खेवेसु जदि एगो सगल
सकल प्रक्षेपको खण्डित करने पर उसमें से एक खण्ड प्रमाण है।
__अब यहां सकल प्रक्षेपके बन्धनविधान और योगस्थानाध्वानको जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित तृतीय समयवर्ती नारकी, तथा जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे भायुको बांधकर आया हुआ द्वितीय समयवर्ती नारकी, दोनों सदृश हैं । अब द्वितीय समयवर्ती नारकीके द्रव्यमें एक परमाणु अधिक भादिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये । यहां विकल प्रक्षेप एक सकल प्रक्षेपको डेढ़ गुणहानिसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्डसे हीन सकल प्रक्षेप प्रमाण है। पुनः इतना मात्र बढ़कर स्थित, तथा दूसरा एक जीव समय कम जघन्य बन्धककाल और जघन्य योगसे बांधकर पुनः एक समयमें प्रक्षेप अधिक योगसे बांधकर नारक भवके द्वितीय समयमें स्थित, ये दोनों सदृश हैं । इस क्रमसे डेढ़ गुणहानि मात्र विकल प्रक्षेपोंके बढ़ जानेपर एक कम डेढ़ गुणहानि मात्र सकल प्रक्षेप बढ़ते हैं। इस प्रकार नारकीके प्रथम गोपुच्छके बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये।
____ अब उसके सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक सकल प्रक्षेपको डेढ़ गुणहानिसे खण्डित करनेपर प्रथम निषेक आता है । इस प्रमाणसे सब सकल प्रक्षेपोंमेंसे कम करके पृथक् स्थापित कर उनके सकल प्रक्षेप करते हैंडेढ़ गुणहानि मात्र विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सकल प्रक्षेप पाया जाता है तो
। अ-काप्रत्योः 'समए' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु भिदियणेरइओ', ताप्रतौ विदिय [ समय ] रईओ' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'पक्खेवदिवड' इति पाठः । छ.वे. ४६.
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३६२ ]
खंडागमे वैयणाखंड
[ ४, २, ४, १२२.
पक्खेवो लब्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फल गुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमेत्तसगलपक्खेवा पढमगोकुच्छाए [लब्भंति ] ।
संपहि जोगट्ठाणद्वाणं वुच्चदे । तं जहा रूवूणदिव ड्डगुणहाणिमेत्तसयल पक्खेवाणं जदि दिवड गुणहाणिमेतजोगड्डाणद्वाणं लब्भदि तो दिवड्डूगुणहाणीए सगलपक्खेवभागद्दारे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तेसु सगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदा लद्धं जो गट्टाणद्धाणं होदि । पुणो एत्तियमेत्तजेोगट्टाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण एगसमयं बंधिदूणागद विदिय समय णेरइओ, पुणो जहण्णजोग - जहण्णबंध गद्धाहि णिरयाउअं बंधितॄणागदपढमसमयरइओ च, सरिसा ।
संपणारगपढमसमए हाइदूण तिरिक्खचरिमगोवुच्छा पक्खेवुत्तरकमेण वडावेदव्वा । बिदियसमयणेरइयस्स पुणो परमाणुत्तरादिकमेण तिरिक्खचरिमगोवुच्छा वढ्ढाविज्जदि । तं जहा - पढमगोवुच्छं वड्ढिदूण द्विदणारगविदियसमयदव्वस्सुवरि परमात्तरादिकमेण एगविगलपक्खेवं वड्डिण ट्ठिदणेरइओ च, अण्णेगो पक्खेवुत्तरजोगेण बंधि -
श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें कितने सफल प्रक्षेप पाये जायेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप प्रथम गोपुच्छ में पाये जाते हैं ।
अब योगस्थानाध्वान कहा जाता है । वह इस प्रकार है- एक कम डेढ़ गुणहानि मात्र सकल प्रक्षेपोंका यदि डेढ़ गुणहानि मात्र योगस्थानाध्वान प्राप्त होता है तो डेढ़ गुणहानि द्वारा सकल प्रक्षेपके भागहारको खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड मात्र सकल प्रक्षेप में कितना योगस्थानाध्वान प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतना योगस्थानाध्वान होता है । पुनः इतने मात्र योगस्थानों में अन्तिम योगस्थान से एक समय में आयुको बांधकर माया हुआ द्वितीय समयवर्ती नारकी, तथा जघन्य योग और जघन्य बन्धककाल से मारक आयुको बांधकर आया हुआ प्रथम समयवर्ती नारकी, ये दोनों सदृश हैं ।
अब नारक भवके प्रथम समय में स्थित होकर तिर्यच सम्बन्धी अन्तिम गोपुच्छाको प्रक्षेप अधिक क्रमसे बढ़ाना चाहिये । परन्तु द्वितीय समयवर्ती नारकी की तिर्यच सम्बन्धी अन्तिम गोपुच्छा एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे बढ़ाई जाती है । वह इस प्रकारसे - प्रथम गोपुच्छ बढ़कर स्थित नारकीके द्वितीय समय सम्बन्धी द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप बढ़कर स्थित मारकी, तथा दूसरा एक प्रक्षेप अधिक योगसे आयुको बांधकर आया
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४, २, ४, १२२. ]
यणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्तं
[ ११३
दूणागदो च, सरिसा । एदेण कमेण दिवड्डुगुणहाणिमेत्तविगलप+खेवेसु वडिदेसु रूवूणदिवगुणहाणिमेत्ता सगलपक्खेवा पविसंति । एवं वड्डिण द्विदविदियसमयणेरइओ च अणेगो एगसमएण रूवूणदिवड्ढगुणहाणिमत्त जोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूणागदपढमसमयणेरइओ च, सरिसा । एवं बिदियसमयणेरइयस्स परमाणुत्तरादिकमेण निरंतर
णि हवंति । पढमसमयणेरइयस्स पुणो पक्खेवोत्तरकमेण सांतरद्वाणाणि हवंति । एदेण कमेण वढावेदव्वं जात्र तिरिक्खचरिमगोवुच्छपमाणं वडिदे ति । एवं वड्डिण ट्ठिदो च, अण्गो जीवो जहणजे ग-जहण्णबंध गद्धाहि णिरयाउअं बंधिय जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि बद्धेतिरिक्खचरिमसमयगोवुच्छं धरिय तिरिक्खचरिमसमए द्विदो च, सरिसा ।
संपहि तिरिक्खचरिमगोवुच्छाए सयलपक्खेवाणं जोगट्ठाणद्धाणस्स च गवसणा कीरदे - तत्थ ताव सयलपक्खेवाणुगमं कस्सामा । तं जहा - तप्पाओग्गघोलमाणजद्दण्गजोगपक्व भागद्दारं तिरिक्खाउअजण्णबंध गद्धाए गुणिदं विरलेदूग जहण्णचंचगद्धांमेत्तसमयपत्रद्धेसु समखंडं करिय दिण्णेसु एक्केक्कस्स रूवस्स एगेगो सयलपक्खेवा पावदि ।
हुआ नारकी, दोनों सदृश हैं। इस क्रमसे डेढ़ गुणहानि मात्र विकल प्रक्षेपों के बढ़ने पर एक अंक से कम डेढ़ गुणहानि मात्र सकल प्रक्षेप प्रविष्ट होते हैं । इस प्रकार बढ़कर स्थित द्वितीय समयवर्ती नारकी, तथा एक दूसरा एक सम्यमें रूप कम डेढ़ गुणहानि मात्र योगस्थानोंमें अन्तिम योगस्थान से आयुको बांधकर आया हुआ प्रथम समयवर्ती नारकी, दोनों सदृश हैं। इस प्रकार द्वितीय समयवर्ती मारकी एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे निरन्तर स्थान होते हैं । किन्तु प्रथम समयवर्ती नारकीके प्रक्षेप अधिक क्रमसे सान्तर स्थान होते हैं । इस क्रमसे तिर्यचकी अन्तिम गोपुच्छ प्रमाण वृद्धि हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे नारकायुको बांधकर जघन्य योग और जघन्य बन्धककाल से बांधी हुई तिर्यचकी अन्तिम समय सम्बन्धी गोपुच्छाको धारण कर तिर्यच भवके अन्तिम समय में स्थित हुआ, दोनों सहरा है ।
1
अब तिर्यचकी अन्तिम गोपुच्छा सम्बन्धी सकल प्रक्षेत्रों और योगस्थानाध्वानकी गवेषणा करते हैं— उसमें पहिले सक्कल प्रक्षेपानुगमको करते हैं। वह इस प्रकार हैतत्प्रायोग्य घोलमान जीवके जघन्य योग सम्बन्धी प्रक्षेपके भागहारको तिर्यच आयुके बन्धककाल से गुणित करके विरलित कर जघन्य बन्धककाळ प्रमाण समयप्रबचको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक सकल प्रक्षेप
जघन्य
१ अ आ-काप्रतिषु 'गंध' इति पाठः ।
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३६४ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
पुणो पुव्वकोर्डि विरलिय एगसगलपक्खेवं समखंडं काढूण दिण्णे एक्केक्कस्त रुवस्स मज्झिमगोवुच्छपमाणं पावदि । पुणो मज्झिमगोवुच्छं पेक्खिदूण तिरिक्खचरिमगोवुच्छा रूवूणपुच्वको डिअर्द्धमेत्तगोवुच्छविसेसेहि हीणा होदि । पुणो एत्तियमेत्तविसेसाणं हाणि - मिच्छिय रूवूणपुव्वकोडिअद्वेणूणणिसेय भागहारं विरलेऊण मज्झिमगोवच्छं समखंडं करिय दिणे एक्केक्स्स वस्स एगेगविसेसो पावदि । संपहि रुवूणपुव्वकोडिअद्धमेत्तगोवच्छविसेसे इच्छामो त्ति एत्तियमेत्तेहि चेव ओवट्टिय एसविरलणं रूवूणं काढूण जदि एत्तियमेत्सु एगरूवपक्खेवो लग्भदि तो पुव्वकोडिमत्तेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छा ओट्टिदाए लद्धमेगरूवस्स असंखेज्जदिभागो । पुणो एदं पुण्त्रकोडीए पक्खिविय विरलिय एगसगलपक्खेवं समखंडं काढूण दिण्गे रूवं पडि चरिमगोबुच्छपमाणं पावदि । एदमेत्थ विगलपक्खेवो होदि । एदेण विगलपक्खेवपमाणेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसयलपक्खेवेसु अवणेदूण पुध दुत्रिय पुणो ते सयलपक्खेवे कस्सामा । तं जहा - एसभागहारमेत्तविगलपक्खेवेसु जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सगलपक्खेव भागहारमेत्त
[ ४, २, 8,
१२२.
प्राप्त होता है । फिर पूर्वकोटिको विरलित कर एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति मध्यम गोपुच्छका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः मध्यम गोपुच्छकी अपेक्षा तिर्यचकी अन्तिम गोपुच्छा रूप कम पूर्वकोटि के अर्ध भाग प्रमाण गोपुच्छविशेषसे हीन है । फिर इतने मात्र विशेषोंकी हानिकी इच्छा कर एक अंक कम पूर्वकोटि के अर्ध भागले हीन निषेकभागहारका विरलन करके मध्यम गोपुच्छको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है । अब चूंकि एक कम पूर्वकोटि के अर्ध भाग मात्र गोपुच्छविशेष इच्छित है, अतः इतने मात्रसे ही अपवर्तित कर इस विरलनको एक अंकसे कम करके यदि इतने मात्र गोपुच्छविशेषोंमें एक अंकका प्रक्षेप पाया जाता है तो पूर्वकोटि मात्र उनमें कितने अंक प्रक्षेप पाये जायेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका असंख्यातवां भाग लब्ध होता है । फिर इसको पूर्वकोटि में मिलाकर विरलित करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति अन्तिम गोपुच्छका प्रमाण प्राप्त होता है । यह यहां विकल प्रक्षेप होता है। इस विकल प्रक्षेपके प्रमाणसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोंमें से कम करके पृथक् स्थापित कर फिर उनके सकल प्रक्षेप करते हैं । वह इस प्रकार से – इस भागहार मात्र विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो सकल प्रक्षेप-भागहार मात्र विकल प्रक्षेपोंमें कितने
● मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' लक्ष ' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु 'एस' इति पाठः ।
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४, २, ४, १२२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [३६५ विगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धगेत्ता सगल. पक्खेवा तिरिक्खचरिमगोवुच्छाए होति ।
___ संपहि जोगट्ठाणद्धाणगवेसणा कीरदे । तं जहा- रूवूणदिवड्वगुणहाणिमेत्तसयलपक्खेवाणं जदि दिवड्डगुणहाणिमेतजोगट्ठाणद्धाणं लब्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिमागगेत्तसयलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जोगट्ठाणद्धाणं लब्भदि । पुणो एत्तियोत्तजोगट्ठाण द्वाणस्स पुव्विल्लतप्पाओग्गजोगट्ठाणद्धाणादो असंखेज्जगुणस्म चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदृणागदविदियसमयणेरइओ च, पुणो तिरिक्खचरिमणिसेयम्मि जत्तिया सयलपक्खेवा अत्थि तत्तियमेतजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूणागदपढमसमयणेरइओ च, तिरिक्ख-णिरयाउअं च जहणजोग-जहण्णबंधगद्धाहि बंधिदूणागदचरिमसमयतिरिक्खो च, सरिसा । पुणो चरिमसमयतिरिक्खदव्वं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव एगविगलपक्खेवो वड्डिदो ति । एत्थ विगलपक्खवभागहारो सादिरेयपुवकोडि त्ति घेत्तव्यो । पुणो एत्तियं वड्विदूण द्विदो च, अण्णेगो पक्खेवुत्तरजोगेण तिरिक्खाउअमेगसमएण बंधिय तिरिक्खचरिमसमए हिदो च, सरिसा। एदेण कमेण सादिरेयपुव्वकोडि
सकल प्रक्षेप प्राप्त होगें, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप तिर्थच की अन्तिम गोपुच्छामें होते हैं।
अब योगस्थानाध्वानकी गवेषणा करते हैं। वह इस प्रकार है- एक कम डेढ़ गुणहानि मात्र सकल प्रक्षेपोंके यदि डेढ़ गुणहानि मात्र योगस्थानाध्यान प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवे भाग मात्र सकल प्रक्षेपों में कितना योगस्थानाध्वान प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर योगस्थानाध्वान प्राप्त होता है। फिर पूर्वोक्त तत्प्रायोग्य योगस्थानाध्वानसे असंख्यातगुणे इतने मात्र योगस्थानाध्यानक अन्तिम योगस्थानस आयुका बांधकर आया हुआ द्वितीय समयवर्ती नारकी, पुनः तिर्यंच के अन्तिम निषेकमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र योगस्थानों सम्बन्धी अन्तिम योगस्थानसे आयुको बांधकर आया हुआ प्रथम समयवर्ती नारकी, तथा तिर्यंच या नारक आयुको जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे बांधकर आया हुआ चरम समयवर्ती तिर्यंच, ये तीनों सदृश हैं। अब चरम समयवर्ती तिर्यचके द्रव्यको ग्रहण करके एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेपके बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये । यहां विकल प्रक्षेपका भागहार साधिक एक पूर्वकोटि ग्रहण करना चाहिये । अब इतना बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव प्रक्षेप अधिक योगसे तिर्यंच आयुको एक समयसे बांधकर तिर्यच भवके अन्तिम समयमें स्थित हुआ, दोनों सदृश हैं । इस क्रमसे साधिक पूर्वकोटि मात्र विकल प्रक्षेपोंके बढ़नेपर
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३६६)
छक्खंडागमे वेयणाखंड १, २, ४, १२२. मेत्तविगलपक्खेवेसु बड्डिदेसु एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि । पुणो एदेण सरूवेण वडावेदव्वं जाव पुव्वकोडिदुचरिमणिसेयम्मि जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता वड्डिदा त्ति ।
संपहि तिस्से दुचरिमंगोवुच्छाए सगलपक्खेवगवेसणा कीरदे- एत्थ अधियारगोवुच्छभागहारो सादिरेयपुव्वकोडिमेतो होदि । किंतु चरिमगोवुच्छभागहारादो किंचूणोन कुदो ? चरिमणिसेगादो दुचरिमणिसेगस्स एगविसेसमेत्तेण अहियत्तुवलंभादो । एदं विगलपक्खेवं सगलपक्खेवेसु सोहिय सगलपक्खेवे कस्सामो- सादिरेयपुवकोडिमेत्तविगलपक्खेवेसु जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्वमेत्ता सगलपक्खेवा दुचरिमणिसेयम्मि होति ।
एहि जोगट्ठाणद्धाण वुच्चदे । तं जहा- एगसगलपक्खेवस्स जदि सादिरेयपुव्वकोडिमेत्तजोगट्ठाणद्धाणं लन्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जोगट्ठाणद्धाणं होदि । होतं पि चरिमणिसेय.
एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। फिर इस क्रमसे पूर्वकोटिके द्विचरम निषेकमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये ।।
अब उस द्विचरम गोपुच्छके सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा करते हैं-यहां अधिकार गोपुच्छका भागहार साधिक पूर्वकोटि प्रमाण होता है। किन्तु वह अन्तिम गोपुच्छके भागहारसे कुछ कम है, क्योंकि, चरम निषेकसे द्विचरम निषेक एक विशेष मात्रसे अधिक पाया जाता है। इस विकल प्रक्षेपको सकल प्रक्षेपोंमेंसे कम कर उसके सकल प्रक्षेप करते हैं- साधिक पूर्वकोटि मात्र विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सकल प्रक्षेप पाया जाता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोंमें कितने सकल प्रक्षेप पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप द्विचरम निषेकमें होते हैं।
___ अब योगस्थानका कथन करते हैं । यथा- एक सकल प्रक्षेपका यदि साधिक पूर्वकोटि मात्र योगस्थानाध्यान प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोंमें कितना योगस्थानाध्वान प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर योगस्थानाध्वान होता है। इतना होकर भी वह चरम
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१ आप्रतौ ' चरिम' इति पाठः । २ प्रतिषु जोगहाणं ' इति पाठः ।
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१, २, १, १२२.)
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ३६७
जोगहाणदाणादो असंखेज्जगुणं होदि। कारणं चिंतिय वत्तव्वं । दुचरिमणिसेगजोगट्ठाणद्धाणादो तिचरिमणिसेगजोगट्ठाणद्धाणं विसेसहीणं होदि । पुणो एवं हेहिम-हेट्ठिमगोवुच्छाणं जोगट्ठाणद्धाणं विसेसहीणं चेव होदि । पुणो एत्तियमेत्तजोगट्ठाणेण बंधिदूणागद चरिमसमयतिरिक्खदच्वं च पुणो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्ख-णिरयाउअंबंधिदूणागददुचरिमसमयतिरिक्खदव्वेण सरिसं । पुणो एत्थ परमाणुत्तरादिकमेण एगविगलपक्खेवो वड्ढावेदव्यो । पुणो तस्स भागहारो चरिमगोवुच्छभागहारादो अद्धं किंचूणं होदि। पुणो तस्स भागहारमेत्तविगलपक्खेवेसु वडिदेसु एगो सगलपक्खेवो वड्वदि । जोगट्ठाणद्धाणं पि भागहारमेत्तं चेव होदि । एवं ताव वड्ढावेदव्वं जाव पुवकोडितिचरिमगोवुच्छाए जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता वड्डिदा त्ति ।
पुणो तिस्से चरिमगोवुच्छाए सगलपक्खेवाणं गवेसण कीरदे । तं जहा- चरिमगोवुच्छभागहारं सादिरेयपुव्वकोडिं विरलेदूण एगसगलपक्खेव समखंड कादण दिण्णे चरिमगोवुच्छपमाणं पावदि । पुणो रूवूणपुवकोडीए ऊर्णणिसेगमागहारस्स अद्धेण रूवाहियेण
निषेक सम्बन्धी योगस्थानाध्वानसे असंख्यातगुणा होता है। इसका कारण जानकर कहना चाहिये। द्विचरम निषेक सम्बन्धी योगस्थानाध्वानसे विचरम निषेक सम्बन्धी योगस्थानाध्वान विशेष हीन है। इस प्रकार नीचे नीचेकी गोपुच्छाओंका योगस्थाना. वान विशेष हीन ही होता है। अब इतने मात्र योगस्थानाध्वानसे आयुको बांधकर भाये हुए चरम समयवर्ती तिर्यचका द्रव्य, तथा जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे तिर्यच य नारक आयुको बांधकर आये हुए द्विचरम समय सम्बन्धी तिर्यचका द्रव्य, समान होता है। फिर यहां एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये। अब उसका भागहार चरम गोपुच्छके भागहारसे कुछ कम आधा होता है । पुनः उसके भागहार मात्र विकल प्रक्षेपोंकी वृद्धि हो जानेपर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। योगस्थानाध्वान भी भागहार प्रमाण ही होता है। इस प्रकार तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक कि पूर्वकोटिकी त्रिचरम गोपुच्छामें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र नहीं बढ़ जाते।
- अब उस चरम गोपुच्छ सम्बन्धी सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा करते हैं। वह इस प्रकार है-चरम गोपुच्छके भागहारभूत साधिक पूर्वकोटिका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर चरम गोपुच्छका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः एक कम पूर्वकोटिसे हीन निषेकभागहारके अर्ध भागमें एक अंक मिलानेपर जो प्राप्त हो उससे
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१ अ-आ-काप्रतिषु 'जोगट्ठाणाणं', तापतौ 'जोगट्ठा [णा] णं' इति पाठः। 'जणा' इति पाठः।
२ अ-आ-काप्रतिषु
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३६८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, १२२. सादिरेयपुव्वकोडीए ओवट्टिदाए लद्धं तम्हि चेव सोहिदे सुद्धसेसा तदित्थविगलपक्खेवभागहारो होदि । एदेण सगलपक्खेवं खंडेदूण तत्थ एगखंडं सगलपक्खेवभागहारमेत्तसगलपक्खेवेसु सोहिदूण पुध द्वविय पुणो एदे सगलपक्खेवे कस्सामो। तं जहाएसभागहारमेत्तविगलपक्खेवेसु जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तविगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पयदगोवुच्छाए सयलपक्खेवा होति ।
एहि जोगट्ठाणद्वाणं वुच्चदे । तं जहा- एगसकलपक्खवेसु जदि चरिमणिसेयभागहारस्स किंचूणद्धमत्तजोगट्ठाणद्धाणं लब्भदि तो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जोगट्ठाणद्धाणं होदि। एत्तियमेत्तजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूणागद दुचरिमसमयतिरिक्वदव्वं, पुणो जपणजोग-जहण्णबंधगद्धवाहि णिरय-तिरिक्खाउआणि बंधिणागदतिरिक्खतिचरिमसमयहिदतिरिक्खदव्वं च, सरिसाणि । एदेण कमेण विगलपक्खेवभागहारं अप्पिदगोवुच्छभागहारं जोगट्टाणद्धाणं च जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव अट्ठमीए आगरिसाए णिरयाउअं बंधिय तिस्से चरिमसमए वट्टमाणो त्ति।
साधिक पूर्वकोटिको अपवर्तित करनेपर लब्धको उसीमेंसे कम कर देना चाहिये । ऐसा करनेसे जो शेष रहे वह वहांके विकल प्रक्षेपका भागहार होता है। इससे सकल प्रक्षेपको खण्डित कर उनमें से एक खण्डको सकल प्रक्षेपके भागहार प्रमाण सकल प्रक्षेपोंमेंसे घटा करके पृथक स्थापित कर फिर इनके सकल प्रक्षेप करते हैं। यथा- इस भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंमें यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र विकल प्रक्षेपोमें कितने सकल प्रक्षेप प्रा प्रकार प्रमाणले फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर प्रकृत गोपुच्छर
पुच्छके सकल प्रक्षेप होते हैं।
अब योगस्थानाध्वानका कथन करते हैं। यथा- एक सकल प्रक्षेपोंमें यदि चरम-निषेक-भागहारके अर्ध भागसे कुछ कम योगस्थानाध्वान पाया जाता है तो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोंमें कितना योगस्थानाध्वान पाया जायगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर योगस्थानाध्वान प्राप्त होता है। इतने मात्र योगस्थानों सम्बन्धी चरम योगस्थानसे आयुको बांधकर आये हुए द्विचरम समयवर्ती तिर्यचका द्रव्य, तथा जघन्य योग और जघन्य आयुबन्धककालस नारक या तिथंच आयुको बांधकर आये हुए तिर्यच भवके त्रिचरम समयमें स्थित तिर्यचका द्रव्य, दोनों सदृश हैं। इस प्रकार विकल-प्रक्षेप-भागहार, विवक्षित गोपुच्छके भागहार और योगस्थानाध्वानको जानकर आठवें अपकर्षमें नारकायुको बांधकर उसके चरम समयमें वर्तमान होने तक उतारना चाहिये ।
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१, २, ४, १२२. ) वेयणमहाधियारे वेयणदश्वविहाणे सामित्तं
संपधि पत्तो हेट्ठा पुवविहाणेण ओदारिज्जमाणो गिरयाउअं हाइदण गच्छदि त्ति कट्टे पुणो एत्थेव इविदूण परमाणुतरादिकमेण एगविगलपक्खेवो वड्ढावेदव्यो । एत्थ विगलपक्खेवभागहारो संखेज्जरूवमेत्तो होदि । तं जहा - सादिरेयपुवकोडिं विरलेदण एगसगलपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे एगेगचरिमणिसेगो पावदि । पुणो ओदिण्णद्धाणमेत्तगोवुच्छाओ इच्छामो त्ति ओदिण्णद्धाणेणोवट्टिदे संखेज्जरूवाणि लब्भंति । पुणो एदाणि विरलेदूण एगसगलपक्खेवं समखंडं कादूण दिण्णे ओदिण्णद्धाणमेत्तचरिमगोवुच्छाओं रूवं पडि पावेंति। पुणो एत्थ ऊणगोवुच्छविसेसाणमागमणमिच्छामो त्ति रूवूणपुचकोडीए ऊणणिसेगभागहारमोदिण्णद्धाण गुणिय पुणो रूवूणोदिण्णद्धाणसंकलणाए ओवट्टिय रूवाहियं कादण तेण विरलिदसंखेज्जरूवेसु अवहिरिदेसु जं लद्धं तम्मि तत्थेव सोहिदे सुद्धसेसो विगलपक्खेवभागहारो होदि । एदेण सगलपक्खवे भागे हिंदे एगो विगलपक्खेवो आगच्छदि । पुणो एत्तियमत्तं परमाणुत्तररादिकमेण वड्विदूण विदो च, पक्खेवुत्तरजोगेण बंधिदणागददव्वं च, सरिसं होदि । पुणो एदेण कमेण एसभागहारमेत्तविगलपक्खेवेसु वड्देिसु एगो सयल
___ अब यहांसे नीचे पूर्वोक्त विधिसे उतारता हुआ चूंकि नारक आयुको न्यून करता जाता है, अत एव फिरसे यहां ही स्थापित कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये। यहां विकल प्रक्षेपका भागहार संख्यात अंक प्रमाण होता है। यथा-साधिक पूर्वकोटिका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक चरम निषेक प्राप्त होता है। अब चूंकि जितना अध्वान पछि गये हैं तत्प्रमाण गोपुच्छाएं अभीष्ट है, अतः जितना अध्वान पीछे गये हैं उससे अपवर्तित करनेपर संख्यात अंक प्राप्त होते हैं। फिर इनका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति जितना अध्वान पीछे गये हैं तत्प्रमाण चरम गोपुच्छ प्राप्त होते हैं। अब यहां चूंकि कम किये गये गोपुच्छविशेषोंका लाना अभीष्ट है, अतः एक कम पूर्वकोटिसे हीन निषेकभागहारको जितना अध्वान पीछे गये हैं उससे गुणित करे। फिर उसको एक कम जितना अध्वान पीछे गये हैं उसके संकलनसे अपवर्तित करके एक रूपसे अधिक कर उसका विरलित संख्यात रूपोंमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसको उसीमेंसे कम करनेपर शेष विकल-प्रक्षेप-भागहार होता है। इसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर एक विकल प्रक्षेप आता है। पुनः एक परमाणु अधिक आदि. के कमसे इतना मात्र बढ़कर स्थित हुआ द्रव्य, तथा प्रक्षेप अधिक योगसे भायुको बांधकर आये हुए जीवका द्रव्य, दोनों सहश हैं। फिर इस क्रमसे उक्त भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंकी वृद्धि होनेपर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है । इस प्रकार आठवें
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अ-आप्रत्योः 'ग?' इति पाठः ।
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३७० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १२२. पक्खेवो वऋदि । एवं वड्ढावेदव्वं जाव अट्ठागरिसाए दुचारमसमयप्पहडि सत्तागरिसाए चरिमसमओ त्ति एदासिं तिरिक्खगोबुच्छाणं जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता वड्डिदा त्ति। एवं वडिदण विदो च, अण्णगो जहण्णजो-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअंबंधिय पुणो अहहि आगरिसाहि णिरयाउअं बंधमाणो तत्थ छसु आगरिसासु जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि चेव बंधिय पुणो सत्तमीए आगरिसाए समऊणजहण्णबंधगद्धाए जहण्णजोगेण बंधिय पुणो एगसमएण अट्ठमागरिसजहण्णबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धाणं जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदूण बंधिय सत्तमाए आगरिसाए चरिमसमए ट्ठिदो च, सरिसा। अधवा अट्ठमागरिसदव्वमेवं वा वड्ढावेदव्वं- अट्ठमामरिसजहण्णगद्धाहियसत्तमागरिसजहण्णबंधगद्धाए जहण्णजोगेण च बंधाविय दोण्हं सरिसभावो वत्तव्यो। अट्ठमागरिसजहण्णबंधगद्धादो सत्तमागरिसाए जहण्णुक्कस्सबंधगद्धाणं विसेसो बहुओ त्ति कधं णव्वदे ? गुरूवदेसादो । पुणो तं मोतूण पुबविहाणेण वड्ढावेदव्वं सत्तमाए आगरिसाए दुचरिमगोवुच्छप्पहुडि जाव छट्ठागरिसाए चरिमसमयगोवुच्छा त्ति। एवं वड्डिदूण विदो च, अण्णेगो अट्ठहि आगरिसाहि आउअं बंधमाणो तत्थ पंचसु आगरिसासु जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि
अपकर्षके द्विचरम समयसे लेकर सातवें अपकर्षके चरम समय तक इन तिर्यंच गोपुच्छोंके जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र बढ़ जाने तक बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ; तथा दूसरा एक जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे तिर्येच आयुको बांधकर, फिर आठ अपकर्षों द्वारा नारक आयुको बांधता हुआ उनमेंसे छह अपकर्षो में जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे ही आयुको बांधकर, फिर सातवें अपकर्षमें एक समय कम जघन्य बन्धककाल और जघन्य योगसे बांधकर, फिर एक समय में आठवे अपकर्षके जघन्य बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोंके जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र योगस्थान ऊपर चढ़कर आयुको बांध सातवें अपकर्षके अन्तिम समयमें स्थित हुआ; ये दोनों सदृश है। अथवा, आठवे अपकर्षके द्रव्यको इस प्रकार बढ़ाना चाहिये-आठवें अपकर्षके जघन्य बन्धककालसे अधिक सातवें अपकर्षके जघन्य बन्धककालसे और जघन्य योगसे आयुको बंधाकर दोनोंके सादृश्यको कहना चाहिये ।
शंका-आठवें अपकर्षके जघन्य बन्धककालसे सातवे अपकर्षके जघन्य व उत्कृष्ट बन्धककालोका विशेष बहुत है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-यह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है।
फिर उसको छोड़कर पूर्वोक्त विधिसे सातवें अपकर्षके द्विचरम गोपुच्छसे लेकर छठे अपकर्षके अन्तिम गोपच्छतक बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित आ: तथा दूसरा एक जीव आठ अपकर्षों द्वारा आयुको बांधता हुआ उनमेंसे पांच अपकर्षों में जघन्य
१ ताप्रती 'ति । एदासि' इति पाठः। २ प्रतिषु 'बंधमाणे ' इति पाठः।
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४, २, ४, १२२.) वेयणमहाहियारे वेयणदश्वविहाणे सामित्त पंधिय पुणो छट्ठागरिसाए समऊणबंधगद्धाए जहण्णजोगेण बंधिय पुणो एगसमयं सत्तममागरिसजहण्णबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धाणं जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदण तत्थ चरिमजोगहाणेण बंधिदूणागदो च, सरिसा । एत्थ विगलपक्खेवभागहारो जाणिदण वत्तव्यो। एदमत्थपदमवहारिय ओदारेदवं जाव पढमागरिसाए चरिमसमओ त्ति । पुणो तत्थ वाइदूग परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव एगविगलपक्खेवो वड्दिो त्ति।
पुणो एत्थ विगलपक्खेवभागहारो कुच्चदे । तं जहा- सादिरेयपुरकोडीए सगलपक्खेवे भागे हिदे तिरिक्ख परिमगोवुच्छा लब्भदि । पुणो अंतोमुहुत्तूणपुवकोडितिभागेण चरिमगोवुच्छभागहारभूदेसादिरेयपुत्वकोडीए भागे हिदाए सादिरेयतिणिरूवाणि आगच्छति। ताणि विरलेदण सगलपक्खेवं समखंडं कादृण दिण्णे रूवं पडि समाणगोवुच्छाओ पावेंति । पुणो चरिमगोवुच्छाए णिसेगमागहारमोदिण्णद्धाणगुणिदं रूवूणोदिण्णद्धाणसंकलणाएं ओवट्टिदं रूवाहियं कादूण विरलिदतिण्णिरूवाणि खंडेदूण तत्थ एगखंडे सादिरेयतिसु रुवेसु
योग और जघन्य बन्धककालसे बांधकर, फिर छठे अपकर्षके एक समय कम बन्धककालमें जघन्य योगले बांधकर, फिर एक समयमें सातवें व आठवें अपकर्ष के जघन्य बन्धककाल मात्र समय प्रयद्धोंके जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र योगस्थान ऊपर चढ़कर उनमें अन्तिम योगस्थानसे आयुको बांधकर आया हुआ; ये दोनों सदृश हैं। यहां विकल प्रक्षेपके भागहारको जानकर कहना चाहिये । इस अर्थपदका निश्चय करके प्रथम अपकर्षके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये। फिर वहां स्थित होकर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमले एक विकल प्रक्षेपके बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये।
अब यहां विकल प्रक्षेपका भागहार कहते हैं। वह इस प्रकार है- साधिक पूर्वकोटिका सकल प्रक्षेपमें भाग देने पर तिर्यचकी चरम गोपुच्छा प्राप्त होती है। फिर अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिके त्रिभागका चरम गोपुच्छके भागहारभूत साधिक पूर्व कोटिमें भाग देनेपर साधिक तीन रूप आते हैं। उनका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति समान गोपुच्छ प्राप्त होते हैं। फिर जितना अध्वान पीछे गये हैं उससे गुणित और एक कम जितना अध्वान पीछे गये हैं उसकी संकलनासे अपवर्तित ऐसे चरम गोपुच्छा सम्बन्धी निषेकभागहारको एक रूपसे अधिक करके उससे विरलित तीन रूपोको खण्डित कर उनमें एक खण्डमेंसे साधिक तीन रूपोंको कम करनेपर फिर
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१ अ-आकाप्रतिषु 'भागहारोभूद', तापतौ ' भागहारो (भू) द' इति पाठः। १ तातो '-दाणं संकलणार' इति पाठः।
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३७२]
छक्खंडागमे वैयणाखंड { ४, २, ४, १२२. अवणिदेसु पुणो वि सादिरेयतिण्णिरूवाणि चेव उबरंति, पुविल्लअहियादो संपहियऊणीकदंसस्स असंखेज्जगुणहीणत्तुवलंभादो। एदेण विगलपक्खेवभागहारेण सगलपक्खेवे भागे हिदे एगविगलपक्खेवो आगच्छदि। एवं वड्डिदूण द्विदो च, पुणो अण्णगो पक्खेवुत्तरजोगेण बंधिदूणागदो च, सरिसा । एवं ताव वड्ढावेदव्वं जाव जहण्णजोग-जहण्गबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअंबंधिय जलचरेसुष्पन्जिय सव्वलहुँ सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो होदूण जीविदूणागदअंतोमुहुत्तद्धपमाणेण किंचूणपुरकोडिं सबमेगसमएण कदलीघादेण धादिदूण पुणो णिरयाउअं बंधमाण। जहण्णजोगेण अट्टणमागरिसाणं जहण्णबंधगद्धासंकलणमेत्ताए अट्ठागरिसाहि बंधमाणस्म पढमागरिसाएं बंधिय बंधगद्धाचरिमसमए वट्टमाणभुंजमाणाउअ. दवम्मि एदेणप्पिददेसूणपुरकोडितिभागदवेणूगम्मि जत्तिया सयलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता वड्डिदा ति । एवं वड्विदूण द्विदो च, अण्णेगो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरि - क्खाउअंबंधिय जलचरेसुप्पज्जिय सव्वलहुं सवाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो होदूण जीविदूणागदअंतोमुहुत्तद्धपमाणेण किंचूणपुरकोडिं सबमेगसमएण कदलीघादेण घादिदण जहण्णजोगेण समऊणजहण्णबंधगद्वाए णिरयाउअंबंधिय पुणो चरिमसमए तप्पाओग्गजोगेण
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भी साधिक तीन रूप ही शेष रहते हैं, क्योंकि, पूर्वोक्त अधिकसे साम्प्रतिक कम किया हुभा अंश असंख्यातगुणा हीन पाया जाता है। इस विकल-प्रक्षेप-भागहारका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर एक विकल प्रक्षेप आता है। इस प्रकार बढ़ कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव प्रक्षेप अधिक योगसे आयुको बांधकर आया हुआ, दोनों सदृश हैं । इस प्रकार तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक कि जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे तिर्यच आयको बांधकर जलचरोमें उत्पन्न हो सर्वलय काल में सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्तक हो, जीवित रहकर आये हुए अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाणसे कुछ कम सम्पूर्ण पूर्वकोटिको एक समय में कदलीघातसे घातकर फिर नारक आयुको बांधता हुआ जघन्य योगसे आठ अपकर्षोंके जघन्य बन्धककाल के संकलन मात्र, आठ अपकर्षों द्वारा बांधने वालेके प्रथम अपकर्षसे बांधकर बन्धककालके अन्तिम समयमें रहनेवाले इस विवक्षित कुछ कम पूर्वकोटिके त्रिभाग मात्र द्रव्यले हीन भुंजमान आयुके द्रव्यमें जितने सकल प्रक्षेप है उतने मात्र नहीं बढ़ जाते । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे तिर्यंच आयुको बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न हो सर्वलघु कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्तक होकर जीवित रहकर आये हुए अन्तर्मुहूर्त कालके प्रमाणसे कुछ कम समस्त पूर्वकोटिको एक समयमें कदली. घातसे घातकर जघन्य योग और एक समय कम जघन्य बन्धककालसे नारक आयुको मांधकर फिर अन्तिम समयमें तत्प्रायोग्य योगसे सात अपकर्षोंके द्रव्यको बांधकर
१ आमतौ । बंघियमाणो ' इति पाठः । २ आप्रतौ 'पदमगरिमाणं ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १२२.] यणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्त
[ ३७३ सत्तण्णमागरिसाणं दवं बंधिय विदो च, सरिसा । पुन्विल्लं मोत्तण एवं कदलीघाददच्वं घेत्तूण बंधगद्धाजोगं च अस्सिदूण वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डाविज्जमाणे दब्वस्स अणंतभागवड्डिअसंखेज्जभागवडि-संखेज्जभागवटि-संखेज्जगुणवडि-असंखेज्जगुणवटि त्ति पंचवड्डीओ होंति। जोगस्स पुण असंखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डि-असंखज्जगुणवटि ति चत्तारिवड्डीयो । बंधगद्धाए असंखेज्जभागवटि-संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवटि ति तिण्णिबड्डी।। तं कधं वड्डाविज्जदे ? वुच्चदे-- संपधि दव्वस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण एगो विगलपक्खेवो वड्ढावेदव्यो । यत्थ विगलपक्खेवभागहारो को होदि ? एगरूवमेगरूवस्स संखेजदिभागो च । तं जहा --- किंचूणपुवकोडिं विरलेदूण एगसगलपक्खेवं समखंडं कादण दिगणे पढमणिसेयपमाणं पावदि । पुणो कदलीघादहेट्ठिमसमयप्पहुडि पढमसमओ त्ति अंते।मुहुत्तण पुविल्लभागहारमोवट्टिय विरलेद्ग सगलपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे अंतोमुहुत्तमेत्ता पढमणिसेगा पावेति । पुणो हेट्ठा णिसंगभागहार पुविल्लंतोमुहुत्तगुणिदं रूवूर्णतो
स्थित हुआ, ये दोनों सदृश हैं। पूर्व द्रव्यको छोड़कर और इस कदलीघात द्रव्यको ग्रहण करके बन्धककाल व योगका आश्रय करके बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाते समय द्रव्य के अनन्तभागवृद्धि असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि, ये पांच वृद्धियां होती हैं । किन्तु योगके असंख्यात. भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि, ये चार ही वृद्धियां होती है। बन्धककालके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यात. गुणवृद्धि, ये तीन वृद्धियां होती हैं।
शंका -- वह कैसे बढ़ाया जाता है ?
समाधान --- इसका उत्तर कहते हैं--अब यहां द्रव्य के ऊपर एक परमाणु अधिक भादिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेस बढ़ाना चाहिये।
शंका- यहां विकल प्रक्षेपका भागहार क्या होता है ? - समाधान --- उसका भागहार एक रूप और एक रूपका संख्यातवां भाग होता है । यथा- कुछ कम पूर्वकोटिका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर कदलीघातके अधस्तन समयसे लेकर प्रथम समय तकके अन्तर्मुहूर्त कालसे पूर्वोक्त भागहारको अपवर्तित करके विरलित कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं। फिर नीचे निषेकभागहारको पूर्वोक्त अन्तर्मुर्तिसे गुणित कर फिर
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छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १२३. मुहुत्तसंकलणाए खंडिदं विरलिय उवरिमएगरूवधरिदपमाणं समखंडं करिय दादूण उवरिमरूवधीरदेसु सव्वत्थ अवणिदे पगदिसरूवेण गलिददव्वमवसिटुं होदि । पुणो अवणिददध्वं पि तप्पमाणेण कादूण भागहारो वड्ढावेदव्यो । तेसिं पक्खवरूवाणमाणयणं बुच्चदे । तं जहा- रूवूणहेट्टिमविरलणमेत्तेसु जदि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणसंखेज्जरूवेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमेगरूवस्स असंखेज्जदिभागो। तं उवरिमविरलणसंखेज्जरूवेसु पक्खिविय तेण सगलपक्खेवे भागे हिदे पगडिसरूवेण णट्ठद्व्वं होदि । एदं पुध हविय पुणो विगिदिसरूवेण गलिददव्वं भणिस्साम।। तं जहा- संखेज्जरूवेहि ओवट्टिदपुवकोडिम्हि अंतोमुहुत्तणणिसेगमागहारेण संखेज्जरूवगुणिदेण अंतोमुहुत्तादि उत्तरसंखेज्जरूवगच्छसंकलणोवट्टिदेण रूवूणेण संखेज्जरूवोवट्टिदपुरकोडिं खंडिय तत्थेगखंडे पक्खित्ते पढमविगिदिगोवुच्छभागहारो होदि । पुणो एदं रूवूणजहण्णाउअबंधगद्धाए ओवट्टिय विश्लेदूण एगसगलपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे उसे एक कम अन्तर्मुहूर्तकी संकलनासे खण्डित कर लब्धका विरलन करके उपरिम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देकर सर्वत्र उपरिम विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त राशियोमैसे कम करने पर शेष रहा प्रकृति स्वरूपसे निजीर्ण द्रव्य होता है। फिर घटाये गये द्रव्यको भी उसके प्रमाणसे करके भागहारको बढ़ाना चाहिये।
उन प्रक्षेप अंकों के लाने के विधानको कहते हैं । यथा - एक रूप कम अधस्तन चिरलन मात्र रूपोंमें यदि एक प्रक्षेपशलाका पायी जाती है तो उपरिम विरलनके संख्यात रूपोंमें कितनी प्रक्षेपशलाकायें प्राप्त होगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक रूपका असंख्यातवां भाग लब्ध होता है । उसको उपरिम चिरलनके संख्यात रूपोंमें मिलाकर उसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर लब्ध प्रकृति स्वरूपसे नष्ट द्रव्य होता है । इसको पृथक् स्थापित कर फिर विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है
संख्यात रूपोंसे अपवर्तित पूर्वकोटिमें, संख्यात रूपोसे गुणित व अन्तर्मुहूर्त आदि उत्तर संख्यात रूप गच्छसंकलनासे अपवर्तित ऐसे अन्तर्मुहूर्त कम निषेकभागहारमेंसे एक कम करने पर जो शेष रहे उसका संख्यात रूपोंसे अपवर्तित पूर्वकोटिमें भाग देकर जो एक भाग प्राप्त हो, उसको मिला देनेपर प्रथम विकृतिगोपुच्छका भागहार होता है । फिर इसको रूप कम जघन्य आयुके बन्धककालसे अपवर्तित करके विरलित कर एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देने पर विरलन अंकके प्रति एक रूप
प्रतिषु सरूवेणहदव्वं ' इति पाठः। २ नापतौ ' एवं ' इति पाठः । ३ ताप्रती · पुश्वकोगहि'
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४, २, ४, १२२. ]
deoमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामिसं
[ ३७५
विरलणरुवं पडि रूवूणबंधगद्धमत्ताओ पढमविगिदिगो वुच्छाओ पावेंति । पुणो अधिगविसेसा जहा णस्सिदूण आगच्छति तदा वत्तइस्सामा । तं जहा - अंतोमुहुत्तूणणिसेगभागहारं संखेज्जरुवगुणिदं पुणो अवणिदसंखेज्जपुत्र कोर्डि' रूवूणाउअबंधगद्धागुणिदं हेहा विरलेदूण उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं काढूण दिण्णे एगेगविसेसो पावदि । पुणो संखेज्जादि - संखेज्जुत्तरदुरूवूण।उअबंधगद्धासंकलगाए ओवट्टिय विरलेदूण उवरिमेगरूवधरिदं समखंड काढूण दिगे इच्छिदविसेसा पावेंति | पुणेो रूवूण हेडिमविरलणाए उवरिमविरलणसंखेज्जरुवाणि खंडिदूण लद्धं तत्थेव पक्खिविय तेहि एगसगलपक्खेवे भांगे हिदे विगिदिसरूवेण गलिददव्वमागच्छदि । पुणो पगदिसरूवेण गलिददव्वस्स विगिदिसरूपेण गलिददव्वेण सह आगमणमिच्छामो त्ति पगदिसरूवेण गलिददव्वेण विगिदिसरूवेण गलिददव्वम्मि भांगे हिदे संखेज्जरुवाणि लब्भंति । पुणो तेहि रुवाहिएहि विगिदिभागहारमोवट्टिय लद्धं तम्हि चैव वणिदे पगदि विगिदिसरूवेण गलिददन्वभागहारो होदि । पुणो द्रेण सगलपक्खेवे भागे हिंदे पगदि-विगिदिसरूवेण गलिददव्वं होदि । एदम्मि रूवूणभागहारेण गुणिदे विगल
कम बन्धककाल मात्र प्रथम विकृतिगोपुच्छायें प्राप्त होती हैं । अब अधिक विशेष जिस प्रकार नष्ट होकर आते हैं वैसा कथन करते हैं । यथा- - अन्तर्मुहूर्त कम निषेकभागहारको संख्यात रूपों से गुणित कर फिर संख्यात पूर्वकोटियोंका अपनयन करके शेषको एक कम आयुबन्धककाल से गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसका नीचे विरलन करके उपरिम एक रूपके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर एक एक विशेष प्राप्त होता है । फिर संख्यातको आदि लेकर संख्यात उत्तर दो रूपोंसे कम आयुबन्धककालकी संकलनासे अपवर्तित करके विरलित कर उपारम विरलन के एक अंक के प्राप्त राशिको समखण्ड करके देने पर इच्छित विशेष प्राप्त होते हैं । फिर रूप कम अधस्तन विरलन द्वारा उपरिम विरलन के संख्यात रूपोंको खण्डित कर लब्धको उसी में मिलाकर उनका एक सकल प्रक्षेपमें भाग देने पर विकृति स्वरूप से निर्जीर्ण हुआ द्रव्य आता है ।
अब चूंकि विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यके साथ प्रकृति स्वरूप से निर्जीर्ण द्रव्यका लाना अभीष्ट है. निर्जीर्ण द्रव्यका अतः प्रकृति स्वरूपसे विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यमें भाग देने पर संख्यात रूप प्राप्त होते हैं । फिर एक रूपसे अधिक उनके द्वारा विकृतिभागहारको अपवर्तित कर लब्धको उसीमेंसे कम करनेपर प्रकृति व विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यका भागहार होता है । फिर इसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर प्रकृति व विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्य होता है । इसको रूप कम भागहार से गुणित करनेपर विकल प्रक्षेप होता है । इसलिये विकल
१ प्रतिषु ' पुम्बकोडि- ' इति पाठः ।
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३७६ ) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, १२३. एक्खेवो हादि । तेण विगलपक्खेवभागहारो एगरूवमेगरूवस्स संखेज्जदिभागो च होदि त्ति भणिदं । एवंविहमेगविगलपक्खेवं दोहि बड्डीहि वद्भिदण विदो च, अण्णेगो तिरिक्खाउअंबंधमाणो समऊणबंधगद्धाए जहण्णजोगेण बंधिय पुणो एगसमयं पक्खेवुत्तरजोगेण बंधिदूणागदो च, सरिसा । पुणो पुश्विल्लं मोत्तण परमाणुत्तरादिकमेण दोहि वड्डीहि एगविगलपक्खेवो वड्ढावेदव्यो । एवं वड्डिद्ण हिदो च, अण्णगो समऊणजहण्णबंधगद्धाए जहण्णजोगेण बंधिय पुणो एगसमयं दुपक्खेवुत्तरजोगेण बंधिदृणागदो च, सरिसा । एदेण कमेण विगलपक्खेवभागहारमत्तविगलपक्खेवेसु वढ्दिसु रूवूणभागहारमेत्तसयलपक्खेवा ववृति । एवं वविदूण विदो च, अण्णेगो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं यंधिय पुणो कदलीघादं कादण समऊणजहण्णबंधगद्धाए णिरयाउअं जहण्णजोगेण बंधिय पुणो एगसमयं रूवूणभागहारमेत्तजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूण हिदो च, सरिसा । पुणो एदं घेत्तूण तिरिक्खाउअदव्वस्सुवरि भागहारमेती विगलपक्खेवा वड्ढावेदव्वा । एवं वडिदण द्विदो च, पुणो णिरयाउअं बंधमाणो पुचिल्लजोगस्सुवरि एगसमयं रूवूणभागहार
प्रक्षेपका भागहार एक रूप और एक रूपका संख्यातवां भाग होता है, ऐसा कहा गया है।
इस प्रकार के विकल प्रक्षेपको दो वृद्धियों द्वारा बढ़ाकर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव तिर्यंच आयुको बांधता हुआ एक समय कम बन्धककाल और जघन्य योगसे बांधकर पुनः एक समय में एक प्रक्षेप अधिक योगसे बांधकर आया हुआ, दोनों सदृश हैं।
अब पूर्वको छोड़कर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे दो वृद्धियों द्वारा एक विकल प्रक्षेपको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा पक जीव समय कम जघन्य बन्धककाल व जघन्य योगसे आयुको बांधकर फिर एक समयमें दो प्रक्षेसे अधिक योगसे बांधकर आया हुआ, ये दोनों सदृश है।
इस क्रमसे विकल-प्रक्षेप-भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंकी वृद्धि हो जाने पर रूर कम भागहार मात्र सकल प्रक्षेप बढ़ते हैं। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग व जघन्य बन्धककालसे तिथंच आयुको बांध कर फिर कदलीघात करके एक समय कम जघन्य बन्धक काल व जघन्य योगसे नारक
आयुको बांधकर फिर एक समयमें रूप कम भागहार मात्र योगस्थानों में अन्तिम योगस्थानसे आयुको बांधकर स्थित हुआ, ये दोनों सहश हैं।
___ अब इसको ग्रहण करके तिर्यच आयुके द्रव्यके ऊपर भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेगाको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा नारक आयुको
१ आकापत्योः मेवाणि ' इति पाठः ।
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१, २, ४, १२२. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ३७७ मेत्तजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूण हिदो च, सरिसा । पुणो एदेण कमेण तिरिक्खाउअदव्वस्सुवरि भागहारमेत्ता विगलपक्खेवा वड्डावेदव्वा । एवं वड्विदूण हिदो च, अण्णेगो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं बंधिय पुणो णिरयाउअं बंधमाणो एगसमयं पुव्विल्लजोगट्ठाणादो रूवूणभागहारमेत्तजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणेण बंधिदूण विदो च, सरिसा । एवं कमेण वड्ढावेदव्वं जाव जहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारम्मि जेत्तिया सगलपक्खेवा अत्थि तेत्तियमेत्ती वड्डिदा त्ति । एवं वड्विदूण विदो च. पुणो अण्णगो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं बंधिय पुणो जलचरेसुप्पज्जिय समऊणजहण्णबंधगद्धाए जहण्णजोगेण णिरयाउअं बंधिय पुणो दोसमयं जहण्णजोगेण चेव बंधिदण द्विदो च, सरिसा ।
संपहि इमं घेत्तण तिरिक्खाउअजहण्णदव्वस्सुवीर परमाणुत्तरादिकमेण भागहारमेत्तविगलपक्खेवा वड्ढावेदव्वा । एवं कदे रूवूणभागहारमेत्ता सगलपक्खेवा वडिदा होति । एवं वड्डिदृण हिदो च, अण्णेगो जहण्णजोग-जण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं बंधिय
बांधता हुआ पूर्व योगके ऊपर एक समयमें रूप कम भागहार मात्र योगस्थानों में अन्तिम योगस्थानसे बांधकर स्थित हुआ, दोनों सदृश हैं।
__ अब इस क्रमसे तिर्यच आयुके द्रव्य के ऊपर भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग और जघन्य अन्धककालसे तिर्यंच आयुको बांधकर फिर नारक आयुको बांधता हुआ एक समयमें पूर्व योगस्थानसे रूप कम भागहार मात्र योगस्थानोंमें अन्तिम योगस्थानसे बांधकर स्थित हुआ, ये दोनों सदृश हैं।
इस प्रकार क्रमसे जघन्य योगस्थानप्रक्षेपभागहारमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र बढ़ जाने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे तियेच आयुको बांधकर फिर जलचरोंमें उत्पन्न होकर एक समय कम जघन्य बन्धककालमें जघन्य योगसे नारक आयुको बांधकर फिर दो समयमें जघन्य योगसे ही बांधकर स्थित हुआ, ये दोनों सदृश हैं।
अब इसको ग्रहण कर तिर्यच आयुके जघन्य द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंको बढ़ाना चाहिये । ऐसा करनेपर रूप कम भागहार प्रमाण सकल प्रक्षेप बढ़ जाते हैं । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव जघन्य योग और जघन्य बन्धक कालसे तिर्यच आयुको बांधकर
अ-आ-काप्रतिषु तत्तियमेत' इति पाठः। २ प्रतिषु 'अण्णेगी जहण्णबंधगद्वाहि' इति पाठः।
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३७८ ]
छक्खडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १२२. जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघादं कादूण जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि णिरयाउअंबंधिय पुणो एगसमयं जहष्णजोगस्सुवरि रूवूणभागहारमेत्ताणं जोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्टाणेण बंधिदूण हिदो च, सरिसा । पुणो इमं घेतूण पुव्वविहाणेण वड्डाविय सरिसं करिय तत्थ पच्छिल्लजीवदव्वं घेत्तूण पुणो वि वड्ढावेदव्वं । एवं णेदव्वं जाव सो एगो समओ दुगुणजोग पत्तो ति। एवं वड्डिदूण ट्ठिदो च, अण्णेगो जहण्णजोग जहण्णबंधगद्धवाहि तिरिक्खाउअंबंधिय जलचरेसुपज्जिय जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि णिरयाउअं बंधिय पुणो एगसमयं दुगुणजोगेण बंधिय विदो च, अण्णगो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धवाहि तिरिक्खाउअं बंधिय जलचरेसु उप्पज्जिय पुणो दुसमयाहियजहण्णबंधगद्वाए जहण्णजोगेण च णिरयाउअं बंधिय विदो च, तिणि वि सरिसा ।।
पुणो पुव्वुत्तदोजीवे मोत्तूण इमं घेत्तूण जहण्णजोगं दुगुणजोगं च अस्सिदण गिरयाउअबंधगद्धा समउत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्या जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदेगखंड वड्डिदं ति । एवं वड्डिदूण ट्ठिदे णिरयाउअजहण्णबंधगद्धाए असंखेज्जभागवड्ड। चेव ।
जलचरों में उत्पन्न हो कदलीघात करके जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे नारक आयुको बांधकर फिर एक समयमें जघन्य योगके ऊपर रूप कम भागहार मात्र योगस्थानों में अन्तिम योगस्थानसे बांधकर स्थित हुआ, ये दोनों सदृश हैं ।
अब इसको ग्रहण करके पूर्व विधिसे बढ़ाकर सदृश करके उनमें पिछले जीवके द्रव्यको ग्रहण कर फिरसे भी बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार जब तक वह एक समय दुगुने योगको प्राप्त न हो जावे तब तक ले जाना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा, एक जीव जघन्य योग व जघन्य बन्धककालसे तिर्यच आयुको बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न हो जघन्य योग व जघन्य बन्धककालसे नारक आयुको बांधकर फिर एक समयमें दुगुने योगसे बांधकर स्थित हुआ, तथा अन्य एक जीव जघन्य योग व जघन्य बन्धककालसे तिर्यच आयुको बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न हो फिर दो समयोंसे अधिक जघन्य बन्धककाल व जा नारक आयुको बांधकर स्थित हुआ, ये तीनों ही जीव सदृश हैं।
अब पूर्वोक्त दो जीवोंको छोड़ कर और इसको ग्रहण कर जघन्य योग व दुगुणित योगका आश्रय कर नारक आयुके बन्धककालको एक समय अधिकताके क्रमसे जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण वृद्धि हो चुकने तक बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित होनेपर नारक आयुके जघन्य बन्धककालमें असंख्यातभागवृद्धि ही होती है । विशेष इतना है कि कदलीघात द्रव्य,
१ अ-आ-काप्रतिषु । करिय तत्थ पच्छिल्लजीवदव्वं घेत्तूण पुत्वविहाणेण वड्डाविय सरिसं करिय तत्थ पछिल्लं (मप्रतावतोऽप्रे 'जीवदव्वं घेत्तूण' इत्यधिकः पाठः) पुणो', ताप्रतौ ' करिय पुब्बिलजीवदव्वं घेत्तूण पुणो' इति पाठः।
२ अ-आ-काप्रतिषु 'असंखेज्जदिभागवड्डी', ताप्रती 'असंखे. भागवड्डी' इति पाठः।
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४, २, ४, १२२.] वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्तं णवीर कदलीघाददव्वं तब्बंधगद्धा दोण जोगे च जहण्णा चेव । पुणो णिरयाउअजहण्णबंधगद्धं उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदूण पुणो तत्थ एगखंडे जहण्णबंधगद्धाए वड्डिदे संखेज्जभागवड्डीए आदी असंखेज्जमागवड्डीए परिसमत्ती च जादा । एदेण कमेण बंधगद्धा वड्डावेदव्वा जाव जहण्णादो बंधगद्धादो उक्कस्सिया संखेज्जगुणा जादा त्ति ।
एत्थ चरिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा - जहणजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअंबंधिय जलचरेसुप्पज्जिय कदलीघादं काऊण जहण्णजोगेण दुसमऊणुक्कस्सबंधगद्धाए च णिरयाउअं बंधिय पुणो एगसमयं दुगुणजोगेण बंधिय द्विदो च, पुणो अण्णो जीवो जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि जलचरेसु आउअं बंधिय पुणो जहण्णजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए च णिरयाउअं पंधिय हिदो च, सरिसा । णवरि सम्वत्थ णिरयाउअबंधगद्धा समउत्तरा चेव होदण वड्डदि, अट्ठागरिसबंधगद्धादो सत्तागरिसबंधगद्धाए जहणियाए वि संखेज्जगुणत्तादो । संपधि जिरयाउअबंधगद्धा उक्कस्सा जादा। णवरि तज्जोगो जहणो चेव । इमं घेत्तूण पुव्वविहाणेण परमाणुत्तरादिकमेण दव्वं वड्डाविय जोगो वड्ढावेदव्वो जाव तप्पाओग्गमसंखेज्जगुणजोगं पत्तो ति ।
नारकायुका बन्धककाल और दोनोंके योग जघन्य ही हैं । फिर नारकायुके जघन्य बन्धककालको उत्कृष्ट संख्यातसे खाण्डत कर उसमें से एक खण्ड प्रमाण जघन्य बन्धककालमें वृद्धि हो चुकनेपर संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ और असंख्यातभागवृद्धि की समाप्ति होती है । इस क्रमसे उत्कृष्ट कालके जघन्य बन्धककालसे संख्यातगुणे हो जाने तक बन्धककालको बढ़ाना चाहिये ।
___ यहां अन्तिम विकल्पको कहते हैं। वह इस प्रकार है-जधन्य योग और जघन्य बन्धककालसे तिर्यच आयुको बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न हो कदलीघात करके जघन्य योग और दो समय कम उत्कृष्ट बन्धककालले नारकायुको बांधकर फिर एक समयमें दुगुणित योगसे बांधकर स्थित हुआ, तथा दूसरा जीव जघन्य योग व जघन्य बन्धककालसे जलचरोंमें आयुको बांधकर पुनः जघन्य योग और उत्कृष्ट बन्धककालसे नारकायुको बांधकर स्थित हुआ, ये दोनों सदृश हैं। विशेषता केवल इतनी है कि सब जगह नारकायुका बन्धककाल एक एक समय अधिक होकर ही बढ़ता है, क्योंकि, आठ अपकर्ष रूप बन्धककालसे सात अपकर्ष रूप बन्धककाल जघन्य भी संख्यातगुणा है। अब नारकायुका बन्धककाल उत्कृष्ट हो जाता है। विशेष इतना है कि उसका योग जघन्य ही है। इसको ग्रहण करके पूर्वोक्त विधिसे एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे द्रव्यको बढ़ाकर तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक योगको बढ़ाना चाहिये।
१ कापतौ 'तबंधगद्धामेसदोणं' इति पाठः । २ अ-आ-कापतिषु 'जादो' इति पाठः ।
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५८.]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, १, १२२. सो जोगो किंविधो' त्ति भणिदे एगो तिरिक्खाउअं जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि बंधिय कदलीघादं कादूण समऊणुक्कस्सबंधगद्धाए जहण्णजोगेण णिरयाउअं बंधिय पुणो एगसमयं जत्तियमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि चडि, सक्कदि तत्तियमेत्ताणं जोगट्ठाणाणं चरिमोगट्ठाणमत्तं गहिदं । एवं उक्कस्सबंधगद्धाए एगो समओ तप्पाओग्गमसंखेज्जगुणं जोगं पत्तो । जहा एसो एगसमओं तप्पाओग्गमसंखेज्जगुणं जोगं णीदो एवं सेसेगेगसमया वि तप्पाओग्गमसंखेज्जगुणजोगस्स णेदव्वा जावुक्कस्सणिरयाउअबंधगद्धाए सव्वे समया तप्पाओग्गमसंखेज्जगुणं जोगट्ठाणं पता त्ति। एवमणेण विहिणा संखेज्जवारमुक्कस्संबंधगद्धा उरि उवरि चढाविय णीदे उक्कस्सोगं पावदि ।
एवं णीदे एत्थ चरिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा-- जलचरेसु जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं बंधिय कदलीघादं कादण उक्कस्सजोग-उक्कस्सबंधगद्धाहि णिरयाउअं बंधाविदे चरिमवियप्पो होदि । एवं तिरिक्खजलचरआउअदव्यमस्सिदण गिर
शंका-वह योग किस प्रकारका है ?
समाधान- ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि एक जीव जघन्य योग और जघन्य बन्धककाल से तिर्यंच आयुको बांधकर कदलीघात करके एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककालमें जघन्य योगसे नारकायुको बांधकर फिर एक समयमें जितने मात्र योगस्थान चढ़ सकता है उतने मात्र योगस्थानों सम्बन्धी अन्तिम योगस्थान मात्र यहां ग्रहण किया गया है।
इस प्रकार उत्कृष्ट बन्धककालका एक समय तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार यह एक समय तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणित योगको प्राप्त कराया गया है इसी प्रकार शेष एक एक समयों को भी तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त कराना चाहिये जब तक कि उत्कृष्ट नारकाय सम्बन्धी बन्धककाल के सब समय तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगस्थानको प्राप्त नहीं हो जाते । इस प्रकार इस विधिसे संख्यात वार ऊपर ऊपर चढ़ाकर ले जानेपर उत्कृष्ट बन्धककाल उत्कृष्ट योगको प्राप्त होता है।
__इस प्रकार ले जानेपर यहां अन्तिम विकल्प कहा जाता है। वह इस प्रकार है- जलचरोंमें जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे तिर्य व आयुको मांधकर कदलीघात करके उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालसे नारकायुको बंधानेपर अन्तिम विकल्प होता है। इस प्रकार तिर्यच जलचरके आयु द्रव्यका आश्रय कर
१ प्रतिषु किंविद्धो ' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः एसो समओ', का-तापत्योः एसो ससमो' इति पाठः। ३ मप्रतिपाठोऽपम् | अपतौ ‘से पेगेर । ', आषतौ से से एग', कापतौ ' से सेएगेग', तापतौ · सेसेगे [ए] ग' इति पाठः। ४ अ-आप्रत्योः ‘वियपा' इति पाठः ।
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४, २, ४, १२२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त [ ३८१ याउअमप्पणो जहण्णदव्वप्पहुडि जावुक्कस्सदव्वेत्ति ताव परमाणुत्तरादिकमेण णिरंतर गंतूण उक्कस्सं जादं ।
___संपहि जोग-बंधगद्धादि' अस्सिदूण तिरिक्खाउअदव्वं उक्कस्स कीरदे । तं जहा -- जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि जलचरेसु पुवकोडाउअं बंधिय कदलीघाद कादण उक्कस्सजोगुक्कस्सबंधगद्धाहि णिरयाउअं बंधिय ट्ठिदस्स भुंजमाणाउअम्मि परमाणुत्तरादिकमेण एगो विगलपक्खेवो वड्ढावेदव्यो । एवं वड्डिदूण ट्ठिदो च, अण्णेगो पक्खेवुत्तरजोगेण बंधिदृणागदो च, सरिसा । एवं जाणिदूण वड्ढावेदव्वं जाव जोगो तिरिक्खा उअं बंधगद्धा च उक्कस्सत्तं पत्ताओ ति। एवं दो वि आउआणि उक्कस्साणि जादाणि । एवमणतेहि वियपेहि आउअस्स अजहण्णपदपरूवणं कदं ।
___ आउअस्स एवं वा अजहण्णपदपरूवणा कायव्वा। तं जहा- जाव णेरइयबिदियसमओ त्ति ताव पुव्वविधाणेण ओदारिय पुणो तम्हि चेव ठविय तीहि वड्डीहि बंधगद्धं वडाविय चदुहि वड्डीहि जोगं वड्डाविय णिरयाउअदव्वं पंचहि वड्डीहि उक्कस्सं कायव्वं । एवं वड्डिदूण द्विदबिदियसमयणेरइयो च, पढमणिसेगेणूण उक्कस्सदव्वं बंधिदागदपढम
नारकायु अपने जघन्य द्रव्यको लेकर उत्कृष्ट द्रव्य तक एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे निरन्तर जाकर उत्कृष्ट हो जाता है।
___ अब योग व बन्धककाल आदिका आश्रय कर तिर्यंच आयुके द्रव्यको उत्कृष्ट करते हैं । वह इस प्रकारसे-जघन्य योग व जघन्य बन्धककालसे जलचरोमें पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधकर कदलीघात करके उत्कृष्टं योग व उत्कृष्ट बन्धककालसे नारकायुको बांधकर स्थित जीवकी भुज्यमान आयुमें एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव प्रक्षेप अधिक योगसे आयुको बांधकर आया हुआ, दोनों सदृश हैं। इस प्रकार जानकर योग, तिर्यगायु व बन्धककालके उत्कृष्टताको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार दोनों ही आय उत्कृष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार अनन्त विकल्पों द्वारा कर्मके अजघन्य पदकी प्ररूपणा की गई है।
अथवा, आयु कर्मके अजघन्य पदकी प्ररूपणा इस प्रकार करना चाहिये । यथा-नारकके द्वितीय समय तक पूर्व विधानसे उतार कर और वहां ही स्थापित कर तीन वृद्धियोंसे बन्धककालको बढ़ाकर व चार वृद्धियोंसे योगको बढ़ाकर नारकायुके द्रव्यको पांच वृद्धियों द्वारा उत्कृष्ट करना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ द्वितीय समयवर्ती नारकी, तथा प्रथम निषेकसे हीन उत्कृष्ट द्रव्यको बांधकर आया हुआ प्रथम समयवर्ती नारकी, दोनों सदृश हैं।
अ-आ-काप्रति 'जोगं बंधगादि'इति पाठः।
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३८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
। ४, २, ४, १२२. समयणेरइयो च, सरिसा । संपहि पढमणिसेगपरिहाणिणिमित्तं केत्तियाणि जोगट्ठाणाणि ओदारिदो ? पढमणिसेगे जेत्तियां सयलपक्खेवा अस्थि तेत्तियमेत्ताणि ।
__णारगपढमगोवुच्छाए सयलपक्खेवपमाणं वुच्चदे । तं जहा - आउअबंधगद्धाए दिवड्डगुणहाणिमोवट्टिय पुणो तप्पाओग्गउक्कस्सजोगट्ठाणभागहारे भागे हिदे लद्धमेत्ता सगलपक्खेवा होति ।
संपहि चरिमसमयतिरिक्खद बिदियसमयणारगदव्वेण सरिसं कीरदे । तं जहाणेरइयपढमगोवुच्छाए तिरिक्खचरिमगोवुच्छाए च ऊणं णिरयाउअं बंधिदूण तिरिक्खचरिमसमए विदो च, गैरइयविदियसमए द्विदो च, पुचिल्लविहिणा णेरइयपढमसमयट्टिदो च, सरिसा । संपहि पढमसमयणेरइयदव्वस्सुवरि वड्ढाविज्जमाणे पक्खेवुत्तरकमेण सांतरट्ठाणाणि होति त्ति कटु पढमसमयणेरइयं मोत्तूण चरिमसमयतिरिक्खदव्वस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण पुवकोडिमेत्तविगलपक्खवेसु वढिदेसु एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि । आउअपंधगद्धाए ओवट्टिददिवढगुणहाणीए तप्पाओग्गजोगट्ठाणभागहारे भागे हिदे भागल द्वमेतेसु सयलपक्खेवेसु
शंका- प्रथम निषेककी हानि निमित्त कितने योगस्थान उतारा गया है ?
समाधान-प्रथम निषेकमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र योगस्थान उतारा गया है।
नारक सम्बन्धी प्रथम गोपुच्छमें सकल प्रक्षेपोंका प्रमाण कहा जाता है। वह इस प्रकार है- आयु बन्धककालले डेढ़ गुणहानिको अपवर्तित कर फिर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगस्थानके भागहारमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र उसमें सकल प्रक्षेप होते हैं।
अब अन्तिम समय सम्बन्धी तिर्यचके द्रव्यको द्वितीय समयवर्ती नारकीके दध्यके सहश करते हैं। वह इस प्रकारसे-नारकीकी प्रथम गोपुच्छासे और तिर्यचकी अन्तिम गोपुच्छासे हीन नारकायुको बांधकर तिर्यच भवके अन्तिम समयमें स्थित, नारक भवके द्वितीय समयमें स्थित, तथा पूर्वोक्त विधिसे नारक भव के प्रथम समयमें स्थित, ये तीनों सदृश हैं । अब चूंकि प्रथम समय सम्बन्धी नारक द्रव्यके ऊपर बढ़ानेपर प्रक्षेप अधिकताके क्रमसे सान्तर स्थान होते हैं, अत एव प्रथम समयवर्ती नारकीको छोड़कर अन्तिम समय सम्बन्धी तिर्यचके द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे पर्वकाटि प्रमाण विकल प्रक्षपाक बढ़नपर एक सकल प्रक्षप बढ़ता हैं। आयबन्धकका अपवर्तित डेड गुणहानिका तत्प्रायोग्य योगस्थानके भागहारमें भाग देने पर जो लब्ध हो
१ कापतो 'जत्तिया' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'तथियमेवाणि' इति पाठः।
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४, २, ४, १२२ ]
aणमाद्दियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ३८३
तिरिक्खचरिमसमए वड्डिदेसु णेरइयपढमगोवुच्छा वडिदा होदि । एवं वडिदूण ट्ठिदो च, अण्णेगो उक्करसजे गुक्कस्सबंधगद्धाहि णिरयाउअं बंधिय णेरइयपढमसमए द्विदो च सरिसा । संपहि तेसिं परभवियाउअं' सव्वं परमाणुत्तरादिकमेण णिरंतरं वड्डिय उक्करसं जादं । पुणो रइयउक्कस्सपढमगोवुच्छं वड्डिण द्विदचरिमसमयतिरिक्खदव्वस्सुवीर तिरिक्खचरिमजहण्णगोवुच्छमेत्तं वढावेदव्वं । एवं वढिदूण ट्ठिदचरिमसमयतिरिक्खो च, अण्णेगो जहण्णजोग - जहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउअं बंधिय तिरिक्खे सुप्पज्जिय उक्करसजोग-उक्कस्सबंधगद्धाहि णिरयाउअं बंधिय तिखिखचरिमसमयट्ठिदो च, सरिसा । पुणो पुव्विल्लं मोत्तूण इमं घेत्तूण तिरिक्खचरिमसमयजहण्णगोवुच्छा परमाणुत्तरादिकमेण वडावेदव्वा जाव चरिमसमयतिरिक्खस्स चरिमगोवुच्छा उक्कस्सा जादेत्ति । पुणो दुरिमगोवुच्छणिमित्तं सादिरेय दुभागं तिचरिमगोवुच्छणिमित्तं सादिरेयतिभागूणं कद उक्कस्सजोगण उक्करसंबंधगद्धाए च आणेदुण वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव पुव्वकोडितिभागबंधगद्धाचरिमसमओ त्ति । पुणो भुंजमाणाउअस्स वड्डी णत्थि, उक्कस्सजोगुक्कस्सबंधगद्धाहि भुंजमाण
२
उतने मात्र सकल प्रक्षोपों की तिर्यच के अन्तिम समय में वृद्धि हो चुकनेपर नारकी की प्रथम गोपुच्छा वृद्धिंगत होती है । इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालसे नारकायुको बांधकर नारक भषके प्रथम समय में स्थित हुआ, दोनों सदृश हैं । अब उनकी समस्त परभविक आयु एक परमाणु अधिक आदि के क्रमसे निरन्तर बढ़कर उत्कृष्ट हो जाती है । फिर नारकी की उत्कृष्ट प्रथम गोपुच्छा बढ़कर स्थित चरम समय सम्बन्धी तिर्यच द्रव्यके ऊपर तिर्यचकी अन्तिम जघन्य गोपुच्छा मात्र बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित चरम समयवर्ती तिर्यच, तथा दूसरा एक जघन्य योग व जघन्य बन्धककालसे तिर्येच आयुको बांधकर तिर्यों में उत्पन्न हो उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालले नारकायुको बांधकर तिर्यच भवके अन्तिम समय में स्थित हुआ, दोनों सदृश हैं । अब पूर्वोक्त जीवको छोड़ कर और इसको ग्रहण कर तिर्यचकी अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य गोपुच्छाको एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे चरम समयवर्ती तिर्यचकी अन्तिम गोपुच्छ के उत्कृष्ट होने तक बढ़ाना चाहिये । पुनः द्विचरम गोपुच्छा के निमित्त साधिक द्विभागको व त्रिचरम गोपुच्छाके निमित्त साधिक त्रिभागको न्यून करके उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट कालके द्वारा ला कर और बढ़ाकर पूर्वकोटिके त्रिभाग रूप बन्धककालके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये । पुनः भुज्यमान आयुके वृद्धि नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककाल
भुज्यमान
१ प्रतिषु ' तेतीस परभवियाउअं ' इति पाठः । २ अ आ-कापतिषु ' गोवुच्छाणिमित्तं ' इति पाठः ।
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३८४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, १२२. तिरिक्खदव्वस्स उक्कस्सत्तुवलंभादो । एवं वड्डिदण विदो च, अण्णगो पगदि-विगदिसरूवेण गलिदव्वेणब्भहियकिंचूणपुव्वकोडितिभागमेत्तदव्वं तप्पाओग्गजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए च तिरिक्खाउअंबंधिदण जलचरेसुप्पज्जिय अंतोमुहुत्ते गदे एगसमएण कदलीघादं कादण पुणो उक्कस्सजोगुक्कस्सबंधगद्धादि णिरयाउअं बंधिय विदो च, सरिसा । पुणो एवं जलचरदव्वं जोगोकड्डुक्कड्डणबंधगद्धाओ अस्सिदूण वड्ढावेदव्वं' जाव भुंजमाणाउअदव्वमुक्कस्सं पत्तं ति । अधवा, दीवसिहापढमसमए चेव ओक्कड्डुक्कड्डण-जोग. बंधगद्धाहि दव्यमुक्कस्सं काऊण पुणो गुणिदकम्मंसियणाणावरणीयविहाणेण ओदरेदव्वं जाव तिरिक्खजलचरउक्कस्सदव्वं पत्तं ति । एत्थ एदेसिं पदेसट्ठाणाणं जे सामिणो जीवा तेसिं परूवणा पमाणं अप्पाबहुगेत्ति तीहि अणिओगद्दारेहि पण्णवणा कायव्वा । सा च सुगमा, णाणावरणीयपरूवणाए समाण तादो । णवरि आउअस्स जहण्णए उक्कस्सए वि ट्ठाणे जीवा असंखेज्जा । एवमंतोकदसंखा-हाण-जीवसमुदाहारमजहण्णसामित्तं समत्तं ।
तिर्यंच द्रव्यके उत्कृष्टता पायी जाती है। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव प्रकृति व विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यसे अधिक कुछ कम पूर्वकोटिके तृतीय भाग प्रभाण द्रव्य युक्त तिर्यंच आयुको तत्प्रायोग्य योग व उत्कृष्ट बन्धककालसे बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न हो अन्तर्मुहूर्तके वीतनेपर एक समयमें कदलीघात करके फिर उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालसे नारकायुको बांधकर स्थित हुआ, दोनों सदृश हैं। फिर भुज्यमान आयु द्रव्यके उत्कृष्टताको प्राप्त होने तक इस जलचर द्रव्यको योग, अपकर्षण, उत्कर्षण व बन्धककालका आश्रय करके बढ़ाना चाहिये । अथवा, दीपशिखाके प्रथम समयमें ही अपकर्षण, उत्कर्षण, योग व बन्धककाल द्वारा द्रव्यको उत्कृष्ट करके फिर गुणितकांशिक सम्बन्धी ज्ञानावरणीयके विधानसे तिर्यंच जलचर जीवका उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने तक उतारना चाहिये।
यहां इन प्रदेशस्थानोंके जो जीव स्वामी हैं उनकी प्ररूपणा, प्रमाण ओर अल्पबहुत्व, इन तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा प्रज्ञापना करना चाहिये । वह सुगम है, क्योंकि, वह ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणाके समान है। विशेष केवल इतना है कि आयुके जघन्य व उत्कृष्ट स्थानमें भी जीव असंख्यात है। इस प्रकार संख्या स्थान, व जीवसमुदाहारागर्मित अजघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ।
, तापतौ 'बंधावेदव्वं ' इति पाठः ।
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४, २, ४,१२४.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे अप्पाबहुअं ३८५
(अप्पाबहुए ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणि जहण्णपदे उक्कस्सपदे जहण्णुक्कस्सपदे ॥ १२३ ॥
____ अप्पाबहुए त्ति एत्थं जो इदि-सहो [सो] अप्पाबहुअस्स सरूवपयत्यत्तजाणावणणिमित्तं पउत्तो, इदरेहि अणियोगदारोहितो ववच्छेदह्र वा । तत्थ तिण्णि अणियोगद्दाराणि जहण्ण-उक्कस्स-जहण्णुक्कस्सपदप्पाबहुगभेदेण । तत्थ अट्ठण्णं कम्माणं जहण्णदवविसयमप्पाबहुगं जह्मण [पद] प्पाबहुगं णाम । उक्कस्सदव्वविसयमुक्कस्सपदप्पाबहुगं णाम । तदुभयदव्वविसयं जहण्णुक्कस्सपदप्पाबहुगं णाम । ण च चउत्थमंगो अस्थि, अणुवलंभादो ।
जहण्णपदेण सव्वत्थोवा आयुगवेयणा दव्वदो जहणिया ॥ १२४ ॥
णाणावरणीयादिकम्मपडिसेहट्टो आउअणिदेसो । खेत्तादिपडिसेहफलो [दव्वणिदेसो ।
अल्पबहुत्वकी प्ररूपणामें जघन्य पद, उत्कृष्ट पद और जघन्योत्कृष्ट पद, इस प्रकार तीन अनुयोगद्वार हैं ॥ १२३ ॥
'अप्पाबहुए त्ति' यहां जो 'इति' शब्द है वह अल्पबहुत्व एक स्वतन्त्र अधिकार है, यह जतलाने के लिये अथवा दूसरे अनुयोगद्वारोंसे उसे अलग करने के लिये प्रयुक्त हुआ है । इसके जघन्य, उत्कृष्ट व जघन्योत्कृष्टके भेदसे तीन अनुयोगद्वार हैं। उनमें आठ कर्मोके जघन्य द्रव्य विषयक अल्पबहुत्वका नाम जघन्य-पद-अल्पबहुत्व है । उनके उत्कृष्ट द्रव्य विषयक अल्पबहुत्वको उत्कृष्ट-पद-अल्पबहुत्व कहते हैं। जघन्य व उत्कृष्ट द्रव्यको विषय करनेवाला अल्पबहुत्व जघन्योत्कृष्ट-पद-अल्पबहुत्व कहलाता है। इन तीनके अतिरिक्त और कोई चतुर्थ भंग नहीं है, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता।
जघन्य-पद-अल्पबहुत्वकी अपेक्षा द्रव्यसे जघन्य आयु कर्मकी वेदना सबसे स्तोक है ॥ १२४ ॥
झानावरणीय आदि अन्य कर्मों का प्रतिषेध करनेके लिये 'आयु ' पदका निर्देश किया है । क्षेत्रादिकका प्रतिषेध करने के लिये [द्रव्य पदका निर्देश किया है । उस्कृष्ट
१ आप्रती ' तत्य ' इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु ' स्त्रावो' इति पाठः।
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३८६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, १२५. उक्कस्सादिपडिसेहफलो ] जहण्णणिद्दसों । उवरि वुच्चमाणजहण्णदव्वेहिंतो एदमाउअदव्वं थोवमिदि जाणावणटुं सव्वत्थोवेत्ति वुत्तं । कधं सव्वत्थोवत्तं ? अंगुलस्स असंखेजदिभागेण दीवसिहाए ओवट्टिय' किंचूणीकदेण पुणो जहण्णाउअबंधगद्धाए ओवट्टिदेण एगसमयपबद्धे भागे हिदे तत्थ एगभागमेत्तत्तादो । ___णामा-गोदवेदणाओ दव्वदो जहणियाओ दो वि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ॥ १२५ ॥
को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेजाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ। कुदो १ पलिदोवमस्स असंखेन्जदिमागेण गुणिदअंगुलस्स असंखेजदिभागत्तादो। अजोगिचरिमसमए जहण्णदव्वम्मि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तसमयपबद्धा णामा-गोदाणमत्थि त्ति कधं णव्वदे ? खविदकम्मसियस्स दिवड्डगुणहाणिमेत्ता एइदियसमयपबद्धा अत्थि त्ति
भादिका प्रतिषेध करनेके लिये ] जघन्य पदका निर्देश किया है। आगे कहे जानेवाले काँके जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा यह आयु कर्मका द्रव्य स्तोक है, इसके शापनार्थ 'सबसे स्तोक है' ऐसा कहा है।
शंका-वह सबसे स्तोक कैसे है।
समाधान-कारण यह कि आयु कर्मका जघन्य द्रव्य, दीपशिखासे अपवर्तित कर कुछ कम करके फिर जघन्य आयुबन्धककालसे अपवर्तित किये गये ऐसे अंगुलके असंख्यातवें भागका एक समयप्रबद्ध में भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध होता है, इतना मात्र है।
द्रव्यसे जघन्य नाम व गोत्रकी वेदनायें दोनों ही आपसमें तुल्य होकर उससे असंख्यातगुणी हैं ॥ १२५ ।। .
गुणकार क्या है ? गुणकार अंगुलका असंख्यातवां भाग है जो असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंके समयों के बराबर हैं, क्योंकि, वह पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित अंगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण है।
शंका- अयोगीके अन्तिम समयमें जो जघन्य द्रव्य होता है उसमें नाम व गोत्रके समयप्रबद्ध पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-क्षपितकर्माशिकके डेढ़ गुणहानि मात्र एकेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्ध हैं, इस प्रकारके गुरुके उपदेशसे वह जाना जाता है।
१ तापतौ ' खेताविपडिसेहफलो जहण्ण ( बब्व ) णिदेसो' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु · ओवडिया' पति पाठक
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१, २, ४, १२६.] वेयणमहाहियारे धेयणदव्वविहाणे अप्पावहुई [१८७ गुरूवदेसादो । संजमादिगुणसेडीहि तण्णट्ठमिदि वोत्तुं ण सक्किजदे, तदसंखेजदिभागस्सेव णहत्तादो । किमर्से णामा-गोदाणं तुल्लतं ?
आउवभागो थोवो णामा-गोदे समो तद। अहिओ। आवरणमंतराए भागो मोहे वि अहिओ दु ॥ १८ ॥ सव्वुवरि वेयणीए भागो अहिओ दु कारणं किंतु ।
सुहु-दुक्खकारणत्ता द्विदिविसेसेण सेसाणं ॥ १९ ॥ इच्चेदेण णाएण तुल्लायव्वयत्तादो ।
णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयवेयणाओ दव्वदो जहणियाओ तिणि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥ १२६ ॥
एत्थ विसेसाहियपमाणं णामा-गोददव्वमावलियाए असंखेजदिमागेण खोडदेग
शंका-संयमादि गुणश्रेणियों द्वारा उक्त द्रव्य चूंकि नष्ट हो चुका है अत एव उसकी वहां सभावना नहीं है ?
समाधान-ऐसा कहना शक्य नहीं है, क्योंकि, संयमादि गुणश्रेणियों द्वारा उसका असंख्यातवां भाग ही नष्ट हुआ है।
शंका-नाम व गोत्रके द्रव्यकी समानता किसलिये है ?
समाधान-" आयुका भाग सबसे स्तोक है, नाम व गोत्रमें समान होकर वह आयुकी अपेक्षा अधिक है, उससे अधिक भाग आवरण अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायका है, इससे अधिक भाग मोहनीयमें है । सबसे अधिक भाग वेदनीयमें है, इसका कारण उसका सुख-दुखमें निमित्त होना है। शेष कौके भागकी अधिकता उनकी अधिक स्थिति होनेके कारण है ॥ १८-१९ ।। इस न्यायसे नाम व गोत्रका द्रव्य तुल्य आय-व्ययके कारण समान है।
द्रव्यसे जघन्य ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तरायकी वेदनायें तीनों ही आपसमें तुल्य होकर नाम व गात्रकी वेदनासे विशेष अधिक हैं । १२६ ॥
- यहां विशेष अधिकताका प्रमाण नाम-गोत्रके द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्ड प्रमाण है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। एक
१ अ-आ-काप्रतिषु · सम्मवरि वेयणीए', ताप्रती ' सम्म (ब्बु) वरि वेयणीए ' इति पाठः । २ आउगभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहियो। घादितिये वि य ततो मोहे तत्तो तदो तदिये । मह-दुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जरगो चि वेयणीयस्स । सम्वेहिंतो बहुगं दव्वं होदि चि णिदिदं ॥ गो. क. १९२-१९३. ३ अ-आ-काप्रतिषु 'तुल्लावयत्तादो' इति पाठः।
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३८८]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १२७ खंडपमाणं होदि । कुदो ? साभावियादो। एगसमयपबद्धादो आउअसरूवेण थोवदव्वं परिणमदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थेगखंडेण अहियं होदूण णामागोदसरूवेण परिणमदि । णामदव्वमावलियाए असंखेज्जदिमागेण खंडिदे तत्थेगखंडेण [अहियं होदूण णाणावरण-दंसणावरण-अंतराइयाणं सरूवेण परिणमदि । णाणावरणभागमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खडिदे तत्थेगखंडेण ] तत्तो अहियं होदूण मोहणीयसरूवेण परिणमदि । मोहभागमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थेगखंडेण तत्तो अहियं होदण वेयणीयसरूवेण परिणमदि त्ति एस सहाओ। तदो आवलियाए असंखेज्जदिभागेण णामदव्वसंचए खंडिदे तत्थेगखंडेण तत्तो अहियं तिण्हं घादिकम्माणं जहण्णदव्वं होदि । सजोगिगुणभेडीए णामा-गोददव्वाण' जा णिज्जरा देसूणपुवकोडिं जादा सा अप्पहाणा, णामा-गोददव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडस्सेव गुणसेडिणिज्जराए णत्तादो।
मोहणीयवेयणा दव्वदो जहणिया विसेसाहिया ॥ १२७॥
समयप्रबद्धसे आयु स्वरूपले स्तोक द्रव्य परिणमता है। उसको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डसे अधिक होकर वह नाम-गोत्र स्वरूपसे परिणमता है। नामकर्म के द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डसे [ अधिक होकर वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय स्वरूपसे परिणमता है। ज्ञानावरणके भागको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्डसे ] अधिक होकर मोहनीय स्वरूपले परिणमता है । मोहनीयके भागको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्डसे आधिक होकर वेदनीय स्वरूपसे परिणप्रता है। यह इस प्रकारका स्वभाव है। इसलिये नामकर्म सम्बन्धी द्रव्यके संचयको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्डसे अधिक उक्त द्रव्य तीन घातिया कर्मोका जघन्य द्रव्य होता है । सयोगी जिनके गुणश्रेणि द्वारा जो नाम गोत्र सम्बन्धी द्रव्यकी कुछ कम पूर्वकोटि तक निर्जरा हुई है वह गौण हैं, क्योंकि, नाम व गोत्र कर्मके द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातव" भगासे खण्डित करनेपर उसमें से एक खण्ड ही गुणश्रेणि द्वारा नष्ट हुआ है।
द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य मोहनीयकी वेदना उक्त तीन धातिया कर्मोकी वेदनासे विशेष अधिक है ॥ १२७ ॥
१ कोष्ठकस्थोऽयं पाठो नोपलभ्यते तापतौ। २ ताप्रती । णामागोदाणं दव्वाणं ' इलि पाठः । १ ताप्रतौ ' पुवकोडी ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १२८.
वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविद्दाणे अप्पाबहुअं
{ ३८९
एत्थ विसेसपमाणं णाणावरणदव्यमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं । कुदो ? साभावियादो | हेट्ठिमगुणसेडीहिंतो असंखेज्जगुणाएं खीणकसायगुणसेडीए तिष्णं घादिकम्माणं जादणिज्जरा अप्पहाणा, सग-सगदव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडस्सेव पत्तादो ।
वेणीवेयणा दव्वदो जहण्णिया विसेसाहिया ॥ १२८ ॥
केत्तियमेत्तो विसेसेो ? मोहद्रव्यमावलियाए असंखेज्जदिमागेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तो | कुदो ? सामावियादो । कसाय - णोकसायदव्वं सव्वं पडिच्छिय दिलोभसंजणदव्वं सुहुमसांपराइयचरिमसमय जेण मोहणीयस्स जहणं जाएं, वेदणीयस्स पुणों अजोगिस्स दुचरिमसमए वोछिण्ण असादावेदणीयसंतस्स चरिगसमए सादावेदणीयदव्वमेक्कं चेव घेत्तृण जहणं जादं, तेण वेयणीयजहण्णदव्वादो मोहणीयजहण्णदव्वेण संखेज्जगुणेण होदव्वमिदि ? ण, असादावेदणीयस्स गुणसेडिचरिमगोवुच्छाए उदयाभावेण थिबुक्कसंकमण
यहां विशेषका प्रमाण ज्ञानावरणके द्रव्यको आवलीके असंख्यात भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे वह एक खण्ड मात्र है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । अधस्तन गुणश्रेणियोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणी ऐसी क्षीणकषाय गुणश्रेणिके द्वारा हुई तीन घातिया कर्मोकी निर्जरा गौण है, क्योंकि, अपने अपने द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड ही उसके द्वारा नष्ट हुआ है । द्रव्यसे जघन्य वेदनीयकी वेदना विशेष अधिक है ॥ १२८ ॥
विशेषका प्रमाण कितना है ? मोहनीयके द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे वह एक खण्ड मात्र है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । शंका- कषाय और नोकषाय रूप सव द्रव्यको ग्रहण कर स्थित संज्वलनलोभका द्रव्य चूंकि सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय में मोहनीयका जघन्य द्रव्य हुआ है, किन्तु वेदनीय कर्मका द्रव्य अयोगीके द्विचरम समय में असातावेदनीयके सत्त्वकी व्युच्छित्ति हो जानेपर उसके चरम समय में केवल एक सातावेदनीयके ही द्रव्यको ग्रहण कर जघन्य हुआ है; इसीलिये वेदनीयके जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा मोहनीयका - जघन्य द्रव्य संख्यातगुणा होना चाहिये ?
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समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, उदयका अभाव होनेसे स्तिक संक्रमणके द्वारा सातावेदनीय स्वरूपले परिणत हुई असातावेदनीयकी गुणश्रेणि रूप अन्तिम गोपुच्छा के
१ अ आ-काप्रतिषु ' विसेसपमाणणाणावरण ' इति पाठः । २ अ आप्रत्याः ' मोहणीयस्स जहणं जाएं वेदणी पुणो', काप्रतौ 'मोहणीयस्स जादं वेदणीयं जद्दण्णं पुणो' इति पाठः । ३ अ-काप्रत्योः ' विउक्करस कमेण', आप्रतौ ' विदुक्कस्सकमेण ताप्रतौ, वि उक्कस्सं ( स्सस्रं ) कमेण ' इति पाठः ।
2
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३९.]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, १, १२९.
सादावेदणीयसरूवेण परिणदाए सह सादावेदणीयचरिमगोवुच्छाए जह्मणत्तब्भुवगमादो । ण च सादावेदणीयचरिमगोवुच्छाए चेव वेदणीयजहण्णसामित्तं होदि त्ति णियमो, असादावेदणीयचरिमगोवुच्छाए वि जहण्णसामित्ते संते विरोहाभावादो। सजोगिगुणसेडिणिज्जराए गलिददव्वमप्पहाणं, अजोगिचरिमसमयगुणसेडिगोवुच्छदब्वे असंखज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलेहि खंडिदे तत्थ एगखंडपमाणत्तादो।
उक्कस्सपदेण सव्वत्थोवा आउववेयणा दव्वदो उक्कस्सिया • ॥ १२९॥
कुदो ? उक्कस्साउअंबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धपमाणत्तादो । पगदि-विगदिसरूवेण णट्ठदव्वमप्पहाणं, आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तसमयपबद्धपमाणत्तादो ।
___णामा-गोदवेदणाओ दव्वदो उक्कस्सियाओ [दो वि तुल्लाओ] असंखेज्जगुणाओ॥ १३० ॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो ? संखेज्जावलियमेत्त
साथ सातावेदनीयकी चरम गोपुच्छाके द्रव्य को जघन्य स्वीकार किया गया है। दूसरे, सातावेदनीयकी चरम गोपुच्छाके ही वेदनीयका जघन्य स्वामित्व होता है, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, असातावेदनीयकी चरम गोपुच्छामें भी जघन्य स्वामित्वके होनेमें कोई विरोध नहीं है।
सयोग केवली सम्बन्धी गुणश्रेणिनिर्जरा द्वारा नष्ट हुआ द्रव्य यहां गौण है, क्योंकि, अयोग केवलीके चरम समय सम्बन्धी गुणश्रेणिगोपुच्छाके द्रव्यको पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलों द्वारा खण्डित करनेपर उसमेंसे वह एक खण्ड प्रमाण है।
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा द्रव्यसे उत्कृष्ट आयुकी वेदना सबसे स्तोक है ॥ १२९ ॥
इसका कारण यह है कि वह उत्कृष्ट आयुबन्धककालके जितने समय हैं उसने मात्र समयप्रबद्ध प्रमाण है। प्रकृति व विक्रति स्वरूपसे निर्णि अप्रधान है, क्योंकि, वह आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्धौके बराबर है।
द्रव्यसे उत्कृष्ट नाम व गोत्रकी वेदनायें दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणी हैं ॥ १३०॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, संख्यात आवलियोंके बराबर आयु सम्बन्धी समयप्रबद्धोंसे नाम व गोत्रके डेढ़
१ अ-आप्रत्योः दवादो' इति पाठः । २ का-ताप्रयोः कुदो दोउकस्साउअ' इति पाठः।
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[ ३९१
मोटा
१, २, ४, १३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे अप्पाबहुअं [ समयपबद्धेहि आउअसंबंधएहि णामस्स गोदस्स वा दिवड्डगुणहाणिमेत्त ] समयपबद्धेसु ओवट्टिदेसु पलिदोवमस्स असंखेजदिमागुवलंभादो ।
णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयवेयणाओ दबदो उक्कस्सियाओ तिणि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥ १३१ ॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेट्ठिमदव्वे आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तो । कुदो ? साभावियादो । तिण्णं घादिकम्माणं पदेसस्स किमढे तुल्लदा ? ण, तुल्लायव्वयत्तादो । तं पि कुदो ? साभावियादो।।
मोहणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सिया विसेसाहिया ॥ १३२ ॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेट्ठिमदव्वे आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तो । कुदो ? साभावियादो । तीससागरोवमकोडाकोडीसु हिदीसु ट्ठिदपदेसपिंडादो उरिमदससागरोवमकोडाकोडीसु हिदपदेसपिंडो अप्पहाणो, तीसकोडाकोडीसु सागरोवमेसु गुणहानि मात्र समयप्रबद्धोंको अपवर्तित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग पाया जाता है।
द्रव्यसे उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तराय कौकी वेदनायें तीनों ही आपसमें तुल्य होकर उनसे विशेष अधिक हैं ॥ १३१ ॥
विशेष कितना है ? अधस्तन द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे वह एक खण्ड मात्र है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है।
शंका- तीन घातियां कौके प्रदेशकी तुल्यता किसलिये है ? । समाधान- नहीं, क्योंकि, इन तीनोंके प्रदेशोंका आय व व्यय समान है। शंका- वह भी क्यों है? समाधान- क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट मोहनीयकी वेदना उनसे विशेष अधिक है ॥ १३२ ॥
विशेषका प्रमाण कितना है ? विशेषका प्रमाण अधस्तन द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड मात्र , क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम स्थितियों में स्थित प्रदेशपिण्डसे ऊपर दस कोडाकोड़ि सागरोपमों में स्थित प्रदेशपिण्ड अपंधान है, क्योंकि, तीस
१ कोष्ठकस्थोऽयं पाठ: सर्वास्वेव प्रतिषु द्विारमुपलभ्यते । २ अ-आ.काप्रतिषु 'तुल्लादो' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु — कोडाकोडीस द्विदपवेसपिंडो सागरोवमेस', ताप्रती · कोडाकोडीसु [ द्विदपदेसपिंडो (!)] सागरोवमेन ' इति पाठः ।
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३९२]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १३३.
पदिददवं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण खंडिदे तत्थ एगखंडपमाणत्तादो ।
वेदणीयवेयणा दव्वदो उक्कसिया विसेसाहिया ॥ १३३ ।।
केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेटिमदव्वमावलियाए असंखज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तो । कुदो ? साभावियादो ।
जहण्णुक्कस्सपदेण सव्वत्थोवा आउदधेयणा दव्वदो जहणिया ॥ १३४ ॥
कुदो ? अंगुलस्स असंखेज्जीदमागेण दीवसिहाए ओवट्टिय किंचूणं करिय जहण्णाउअबंधगद्वाए ओवट्टिदेण एगसमयपबद्धे भागे हिदे तत्थ एगभागत्तादो।
सा चेव उक्कसिया असंखेज्जगुणा ॥ १३५॥
को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेजदिभागो। कुदो ? दीवसिहासरूवेण हिदजहण्णदवेण एगसमयपबद्धमंगुलस्स असंखेजदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तेण संखेज्जावलियगुणिदसमयपबद्धमेत्तुक्कस्सदव्वे भागे हिदे अंगुलस्त असंखेज्जदिभागुवलंभादो ।
कोड़ाकोड़ि सागरोधमोंमें पतित द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उससे वह एक खण्डके बराबर है ।
द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदनीयकी वेदना उससे विशेष अधिक है ॥ १३३॥
विशेषका प्रमाण कितना है ? अधस्तन द्रव्यको आवलीक असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उससे वह एक खण्ड प्रमाण है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
___ जघन्योत्कृष्ट पदसे द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य आयु कर्मकी वेदना सबसे स्तोक है ॥ १३४॥
कारण यह कि वह दीपशिखासे अपवर्तित करके कुछ कम कर फिर जघन्य आयुबन्धककाल से अपवर्तित किये गये ऐसे अंगुलके असंख्यातवे भागका एक समयप्रबद्ध में भाग देनेपर उसमें से एक भाग प्रमाण है।
उसकी ही उत्कृष्ट वेदना उससे असंख्यातगुणी है ॥ १३५ ॥
गुणकार क्या है ? गुण कार अंगुलका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, एक समयप्रबद्धको अंगुलके असंख्यातवें भागसे खाण्डत करनेपर उसमें एक खण्ड मात्र जो दीपशिखा स्वरूपसे स्थित जघन्य द्रव्य है उसका संख्यात आवलियोंसे गुणित समयप्रबद्ध मात्र उसके ही उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर अंगुल का असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है।
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१, २, ४, १३९ ] वेयणमहाहियारे वेयणदश्वविहाणे अप्पाबहुअं
___णामा-गोदवेदणाओ दबदो जहणियाओ [ दो वि तुल्लाओ] असंखेज्जगुणाओ ॥ १३६ ॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो ? आउअस्स उक्कस्सदव्वेण किंचूणदुगुणुक्कस्संबंधगद्धाए जोगगुणगारेण च गुणिदेगसमयपबद्धमत्तेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्धमेत्तणामा-गोदजहण्णदव्वे भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागुवलंभादो ।
णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयवेदणाओ दव्वदो जहणियाओ तिणि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥ १३७ ॥
कारणं सुगमं । मोहणीयवेयणा दव्वदो जहाणिया विसेसाहिया ॥ १३८ ॥ सुगममेदं । वेदणीयवेयणा दव्वदो. जहणिया विसेसाहिया ॥ १३९ ॥ एदं पि सुगम ।
द्रव्यसे जघन्य नाम व गोत्र कर्मकी वेदनायें दोनों ही तुल्य होकर उससे असंख्यातगुणी हैं ॥१३६ ॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, कुछ कम दुगुने उत्कृष्ट बन्धककाल और योगगुणकारले गुणित एक समयप्रबद्ध मात्र आयु कर्मके उत्कृष्ट द्रव्यका डेढ़ गुणहानिगुणित एक समयप्रबद्ध मात्र नाम व गोत्र कर्मके जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग पाया जाता है।
द्रव्यसे जघन्य ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकी वेदनायें तीनों ही तुल्य व उनसे विशेष आधिक हैं ॥ १३७ ॥
इसका कारण सुगम है । द्रव्यसे जघन्य मोहनीयकी वेदना उनसे विशेष आधिक है ॥ १३८॥ यह सूत्र सुगम है । द्रव्यसे जघन्य वेदनीयकी वेदना उससे विशेष अधिक है ॥ १३९ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
, ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु — कारण सुगमं वेदणीयवेयणा दव्वदो जहणियां बिसे- - साहिया सुगममेदं मोहणीयवेयणा दव्वदो जहणिया विसेसाहिया एवं पि सुगम इति पाठः। ७.वे. ५..
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१९१]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, १५.. णामा-गोदवेंदणाओ दव्वदो उक्कस्सियाओ दो वि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ ॥ १४०॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो । कुदो १ वेदणीयदव्वेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धमत्तेण जोगगुणगारगुणिददिवड्ढगुणहाणीए गुणिदेगेइंदियसमयपबद्धमत्ते' गामा-गोदुक्कस्सदव्वे भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागुवलंभादो ।
णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराइयवेयणाओ दव्वदो उक्कस्सियाओ तिण्णि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥ १४१ ॥
सुगममेदं । मोहणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सिया विसेसाहिया ॥ १४२ ॥ एदं पि सुगमं । वेयणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सिया विसेसाहिया ॥ १४३ ॥ [एदं पि सुगमं ।] एवमप्पाबहुअं सगंतोखित्तगुणगाराणियोगद्दारं समत्तं ।
द्रव्यसे उत्कृष्ट नाम व गोत्रकी वेदनायें दोनों ही तुल्य होकर उससे असंख्यातगुणी हैं ॥ १४०॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि डेढ़ गुणहानिगुणित एकेन्द्रियके समयप्रबद्ध मात्र वेदनीयके द्रव्यका योगगुणकारसे गुणित डेढ़ गुणहानि द्वारा एकेन्द्रियके समयप्रबद्धको गुणित करनेपर जो
। उतने मात्र नाम व गोत्रके उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग पाया जाता है।
द्रव्यसे उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकी वेदनायें तीनों ही तुल्य व उनसे विशेष अधिक हैं ॥ १४१ ॥
यह सूत्र सुगम है। द्रव्यसे उत्कृष्ट मोहनीयकी वेदना उनसे विशेष अधिक है ॥ १४२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । द्रव्यसे उत्कृष्ट वेदनीयकी वेदन! उससे विशेष अधिक है ॥ १४३॥ [यह सूत्र भी सुगम है।] इस प्रकार गुणकारानुयोगद्वारगर्भित अल्पबहुत्व समाप्त हुभा।
स-आ-कामति 'मेरोण' इति पारः ।
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चूलिया
40*एचो जं भणिदं 'बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्टाणाणि गच्छदि जहण्णाणि च' एत्थ अप्पाबहुगं दुविहं जोगप्पाबहुगं पदेसअप्पाबहुगं चेव ॥ १४४॥
तीहि अणियोगद्दारहि वेयणादव्वविहाणे वित्थोरेण परूविय समत्ते संते किमट्ठमुवरिमो गयो' वुच्चदे ? ण, उक्कस्ससामित्तं भण्णमाणे 'बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्टाणाणि गच्छदि' त्ति भणिदं; जहण्णसामित्ते वि भण्णमाणे 'बहुसो बहुसो जहण्णाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ' त्ति भणिदं । एदेसिं दोण्हं पि सुत्ताणमत्थो ण सम्ममवगदी । तदो दोसु वि सुत्तेसु सिस्साणं णिच्छयजणणमिमा अप्पाबहुगादिपरूवणा जोगविसया कीरदे । वेयणादव्वविहाणस्स चूलियापरूवण8 उवरिमो गंधो आगदो त्ति वुत्तं होदि । का चूलिया ? सुत्तसूइदत्थपयासणं चूलिया णाम | एत्थ जोगस्स थोव-बहुत्ते
इससे पूर्वमें जो यह कहा गया है कि " बहुत बहुत वार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है और बहुत बहुत वार जघन्य योगस्थानोंको भी प्राप्त होता है" यहां अल्पबहुत्व दो प्रकार है- योगअल्पबहुत्व और प्रदेशअल्पबहुत्व ॥ १४४॥
शंका- तीन अनुयोगद्वारोंसे वेदनाद्रव्यविधानकी विस्तारसे प्ररूपणा करके उसके समाप्त हो जानेपर फिर आगेका ग्रन्थ किसलिये कहा जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते समय 'बहुत बहुत वार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है। ऐसा कहा है; जघन्य स्वामित्वका भी कथन करते हुए 'बहुत बहुत वार जघन्य योगस्थानोंको प्राप्त होता है ' ऐसा कहा गया है। इन दोनों ही सूत्रोंका अर्थ भली भांति नहीं जाना गया है, इसलिये दोनों ही सूत्रोंके विषयमें शिष्योंको निश्चय कराने के लिये यह योगविषयक अल्पबहुत्व आदिकी प्ररूपणा की जाती है। अभिप्राय यह कि वेदनाद्रव्यविधानकी चूलिकाके प्ररूपणार्थ आगेके प्रन्थका अवतार हुआ है।
शंक- चूलिका किसे कहते हैं ? समाधान-सूत्रसूचित अर्थके प्रकाशित करनेका नाम चूलिका है। यहां योगविषयक अल्पबहुत्वके ज्ञात हो जानेपर क्षपितकौशिक और गुणित
१ अ-आ-काप्रतिधु ' उवरियो ' इति पाठः।
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३९६] .
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, १४५. अवगदे खविद-गुणिदकम्मंसियाणं जोगधारासंचारो णादुं सक्किज्जदि त्ति जीवसमासाओ अस्सिदण जोगप्पाबहुगं वुच्चदे । कारणप्पाबहुगाणुसारी चेव कारियअप्पाबहुगमिदि जाणावणहूँ पदेसप्पाबहुगं वुच्चदे । कारणपुव्वं कज्जमिदि णायादो ताव कारणप्पाबहुगं भणिस्सामो
सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो॥
एवं उत्ते सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णओ उववादजोगो घेत्तव्यो। पढमसमयआहारय पढमसमयतब्भवत्थस्स सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो किण्ण गहिदो ? ण, णोकम्मसहकारि. कारणबलेण जोगे उड्डिमागदे तत्थ जोगस्स जहण्णत्तंसंभवाभावादो।
बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥१४६॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? बादरेइंदियलद्धिअपज्जसयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णउववादजोगादो हेट्टिमसुहु
काशिककी योगधाराके संचारको जानना शक्य हो जाता है, अतः जीवसमासोंका भाश्रय कर योगअल्पहुत्वका कथन करते हैं । कारणअल्पबहुत्वके अनुसार ही कार्यअल्पबहुत्व होता है, इस बातको जतलानेके लिये प्रदेशअल्पबहुत्वका कथन करते हैं। कारणपूर्वक कार्य होता है, इस न्यायसे पहिले कारण अल्पबहुत्वको कहते हैं
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग सबसे स्तोक है ॥ १४५॥
ऐसा कहनेपर उस भवके प्रथम समयमें स्थित हुआ व विग्रहगतिमें वर्तमान ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य उपपादयोगको ग्रहण करना चाहिये।
शंका- आहारक होनेके प्रथम समयमें रहनेवाले व उस भवके प्रथम समयमें स्थित हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य उपपादयोगको क्यों नहीं ग्रहण करते?
समाधान-नहीं, क्योंकि, नोकर्म सहकारी कारणके बलसे योगके वृद्धिको प्राप्त होनेपर वहां योगकी जघन्यता सम्भव नहीं है।
बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है ॥ १४६॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, उस भवके प्रथम समयमें स्थित व विग्रहगतिमें वर्तमान ऐसे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्य.
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१ आ-काप्रत्योः ‘णादुः' इति पाठः। २ तापतौ ' तत्थ जहणत्त-' इति पाठः।
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४, २, ४, १४९. ] dr महाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ३९७
मेइंदियलद्धिअपज्जत्तउववादजोगट्ठाणेसु असंखेज्जजोगगुणहाणीणं संभवादो । तत्थतणणाणागुणहाणिस लागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोष्णन्मत्थे कदे गुणगाररासी होदिति वृत्तं होदि ।
बीइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं पुत्रं व परूवेदव्वं । सव्वत्थ लद्धिअपज्जत्तयस्स पढमसमयं तन्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णओ उववाद जोगो घेत्तव्वो ।
रासी ।
तीइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥
को गुणमारो ? हेट्ठिमणाणागुणहाणि सलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णब्भत्थचउरिंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥१४९ को गुणगारो ? जोगगुणगारो ।
पर्याप्तकके जघन्य उपपादयोग से अधस्तन सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के उपपादयोगस्थानों में असंख्यात योगगुणहानियोंकी सम्भावना है। वहांकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दुगुणा कर परस्पर गुणा करनेपर गुणकार राशि होती है, यह अभिप्राय है ।
उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ।। १४७ ॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इसके कारणकी प्ररूपणा पहिलेके ही समान करना चाहिये । सब जगह उस भवमें स्थित होनेके प्रथम समय में रहनेवाले व विग्रहगतिमें वर्तमान ऐसे लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य उपापादयोगको ग्रहण करना चाहिये ।
उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥ १४८ ॥
गुणकार क्या है ? अधस्तन नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन करके द्विगुणित कर परस्पर गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो वह यहां गुणकार है ।
उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा हैं ॥ १४९ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार यहां योगगुणकार अर्थात् पल्योपमका असंख्यातवां
भाग है ।
१ अ आ-काप्रतिषु ' पदम समयस्स
' इति पाठः ।
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३९८ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १५०. असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥ १५०॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागो । सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एत्थ सुहुमेइंदियअपज्जत्ता दुविहा लद्धिअपज्जत्त-णिव्वत्तिअपज्जत्तभेएण । तत्थ केसिमपज्जत्ताणमुक्कस्सजोगो घेप्पदे ? सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्ताणमुक्करसपरिणामजोगो घेत्तव्यो। कुदो ? णिव्वत्तिअपज्जत्ताणमुक्कस्सजोगो णाम उक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगो, तत्तो एदस्स उक्कस्सपरिणामजोगस्स असंखेज्जगुणत्तदसणादो । कुदो णव्वदे ? जहण्णुक्कस्सवीणादो।
बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥ १५३॥
उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥ १५ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥ ११ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे सूक्ष्म एकेद्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १५२ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है।
शंका- यहां लब्ध्यपर्याप्तक और निर्वृत्त्यपर्याप्तकके भेदसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक दो प्रकार हैं। उनमें कौनसे अपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट योग यहां ग्रहण किया जाता है ?
समाधान- सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट परिणाम योगको यहां ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट योग जो उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग है उससे इसका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा देखा जाता है।
शंका- यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-यह जघन्योकृष्ट वीणासे जाना जाता है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ।।१५३॥ , ताप्रतौ ' दुविहा । लद्धि- ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १५७.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
___ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ वि लद्धिअपज्जत्तयस्स बादरेइंदियउक्कस्सपरिणामजोगो घेत्तव्यो, जहण्णुक्कस्सवीणादो बादरेइंदियउक्कस्सपरिणामजोगो णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्सं उक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगं पेक्खिदूण एदस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो।
सुहमेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ सुहुमेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगो घेत्तव्यो ।
बादरेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ बादरेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगो घेत्तव्यो ।
सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो।। को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।
बादरेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥ १५७ ॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। यहां भी लब्ध्यपर्याप्तक बादर एकेन्द्रियके उत्कृष्ट परिणामयोगको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, जघन्य व उत्कृष्ट वीणाके अनुसार बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगको देखते हुये बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तका यह उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा पाया जाता है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है ।। १५४ ॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। यहां सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकके जघन्य परिणामयोगको ग्रहण करना चाहिये।
बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है ॥ १५५॥
गुणकार क्या है । गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। यहां बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकके जघन्य परिणामयोगको ग्रहण करना चाहिये।
उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १५६ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १५७ ।।
१ भ-आ-काप्रतिषु णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स' इति पाठः। १ प्रतिषु ' उक्कस्सजोगो ' इति पाठः।
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४०० ]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बीइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो' असंखेज्जगुणो ॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ बीइंदियअपज्जत्ता लद्धि - णिव्वत्तिअपज्जत्तएण दुविहाँ । तत्थ कस्स उक्कस्सजोगो घेपदे ? णिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवड्ढिजोगो घेत्तव्वो । कुदो ? बीइंदियलद्धि अपज्जतउक्कस्सपरिणामजोगादो वि बीइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएगताणुवढिजोगस्स जहण्णुक्कसवीणाबलेर्णं असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । उवरिमेसु विणिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवडजोगो चैव घेत्तव्वो ।
[ ४, २, ४, १५८.
तीइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सजोगो असंखेज्जगुणो ॥ १५९ ॥ गुणगारो पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो ।
चदुरिदियअपज्जत्तयस्स उक्करसजोगो असंखेज्जगुणो ॥ १६० ॥ गुणगारो पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो । कारणं सुगमं ।
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग 1 उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १५८ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ।
शंका- यहां द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक लब्ध्यपर्याप्तक और निरृत्यपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार हैं । उनमें से किसके उत्कृष्ट योगको ग्रहण किया जाता है ?
समाधान - निर्वृत्त्यपर्याप्त कके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट परिणाम योग से भी द्वीन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तका उत्कृष्ट ए कान्तानुवृद्धि योग जघन्योत्कृष्ट वीणा के बलसे असंख्यातगुणा पाया जाता है ।
आगे सूत्रोंमें भी जहां अपर्याप्त पद आया है वहां निर्वृत्यपर्याप्त कके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगको ही ग्रहण करना चाहिये ।
उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १५९ ॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ।
उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है || १६० ॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इसका करण सुगम है ।
१ ताप्रतौ ' उक्कं सजोगो ' इति पाठः । २ अ-आपत्योः ' -अपज्जत्तयस्सओ लद्धि - ' का - ताप्रत्योः ' -अपज्जत्तयस्स उक्कत्सओ लद्धि-' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' दुविहो ' इति पाठः । ४ काप्रतौ ' घेतो' इति पाठः । ५ अ आ-काप्रतिषु ' उक्कस्स अणताणुवा-' इति पाठः । ६ अ-आ-काप्रति विद्याबलेण ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १६६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४०१
असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सजोगो असंखेज्जगुणो॥ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं सुगमं ।
सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥ १६२॥
गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥१६३॥
गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ णिवत्तिपज्जत्तजहण्णपरिणामजोगो घेत्तव्यो।
तीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥१६४॥
गुणगा। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। उवरि सव्वत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो चेव होदि त्ति घेत्तव्वं ।
चउरिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥१६५॥ सुगम ।
असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥१६६॥
उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १६१।। गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इसका कारण सुगम है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ।। १६२॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥ १६३ ॥
गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। यहां निवृत्तिपर्याप्तके जघन्य परिणामयोगको ग्रहण करना चाहिये।
उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥ १६४॥
गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। आगे सब जगह गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग ही होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥ १६५ ॥ यह सूत्र सुगम है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥ १६६ ॥ क. वे. ५१.
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४०२ ]
सुगमं ।
छक्खंडागमे वेयणाखंड
सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥
सुगमं ।
बीइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥ सुगमं ।
तीइंदियपज्जत्तयस्त उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥ सुगमं ।
चउरिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥
सुमं ।
[ ४, २, ४, १६७.
असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्ज - गुणो ॥ १७१ ॥ सुमं ।
सष्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो
॥ १७२ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥ १६७ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १६८ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ।। १६९ ।। यह सूत्र सुगम है ।
उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक्का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १७० ॥ यह सूत्र सुगम है ।
उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १७१ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १७२ ॥
· आप्रतौ ' संखेज्जगुणो, ताप्रतौ ' [ अ ] संखेज्जगुणो ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलियां [१०३
सुगमं ।
एवमेक्के कस्स जोगगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥१७३॥
पुव्वुत्तासेसजोगट्ठाणाणं गुणगारस्स पमाणमेदेण सुत्तेण परूविदं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो होदि त्ति कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणतरमवक्खदे, अणवत्थापसंगादो । एसो मूलवीणाए अप्पाबहुगालावो देसामासिओ', सूचिदपरूवणादिअणिओगद्दारत्तादों । तेण एत्थ परूवणा पमाणमप्पाबहुगमिदि तिष्णि अणिओगद्दाराणि परवेदव्वाणि । तत्थ परूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सत्तण्णं लद्धिअपज्जतजीवसमाणमत्थि उववादजोगट्ठाणाणि एयंताणुवड्डिजोगट्टाणाणि परिणामजोगट्ठाणाणि च । सत्तण्णं णिव्वत्तिअपज्जत्तजीवसमासाणमत्थि उववादजोगट्ठाणाणि एयंताणुवड्डिजोग. हाणाणि चे । सत्तष्णं णिव्वत्तिपज्जत्तयाणमत्थि परिणामजोगट्ठाणाणि पेव । परूवणा समत्ता।
यह सूत्र सुगम है।
इस प्रकार प्रत्येक जीवके योगका गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ॥ १७३॥
इस सूत्र द्वारा पूर्वोक्त समस्त योगस्थानोंके गुणकारका प्रमाण कहा गया है।
शंका - पल्योपमका असंख्यातयां भाग गुणकार होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - वह इसी सूत्रसे जाना जाता है । यह सूत्र स्वयं प्रमाणभूत होनेसे किसी अन्य प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अनवस्था दोषका प्रसंग आता है।
यह मूल वीणाका अल्पबहुत्व-आलाप देशामर्शक है, क्योंकि, वह प्ररूषणा आदि अनुयोगद्वारोंका सूचक है । इसलिये यहां प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व, इन तीन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। उनमें प्ररूपणाको कहते हैं । वह इस प्रकार है- सात लब्ध्यपर्याप्त जीवसमालोके उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धियोगस्थान और परिणामयोगस्थान होते हैं। सात निवृत्त्य पर्याप्त जीवसमासोंके उपपादयोगस्थान व एकान्तानुवृद्धियोगस्थान होते हैं। सात निसिपर्याप्तकोंके परिणामयोगस्थान ही होते हैं। प्ररूपणा समाप्त हुई।
प्रतीच[माणे ] माणतर-पति पाठः। १ अ-कापत्योः 'देसामासओ'इति पाठ
। आप्रतौ ' आणओगबाराको ' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु ' सत्तणं अस्थिअपम्जत', तातो लक्षणे अपरमत्त.' इति पाठ।। ५ अ-आकाप्रतिषु चि'इत्येतत्पदं नोपलभ्यते ।
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१०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, १७३. ___ संपहि पमाणं वुच्चदे । तं जहा- एदेसि वुत्तसव्वजीवसमासाणं उववादजोगट्ठाणाणं एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणं परिणामजोगट्ठाणाणं च पमाणं सेडीए असंखेज्जदिभागो । पमाणपरूवणा गदा ।
___अप्पाबहुगं [दुविहं] जोगट्ठाणप्पाबहुगं जोगाविभागपडिच्छेदप्पाबहुगं चेदि । तत्थ जोगट्टाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो । तं जहा- सव्वत्थोवाणि सत्तण्णं लद्धिअपज्जत्ताणमुववादजोगट्ठाणाणि । तेसिमेगंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । परिणामजोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । सत्तणं णिव्वत्तिअपज्जत्तजीवसमासाणं सव्वत्थोवाणि उववादजोगट्ठाणाणि । एगंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । सत्तणं णिव्वत्तिपज्जत्ताणं णस्थि अप्पाबहुगं, परिणामजोगट्ठाणाणि मोत्तूण तत्थ अण्णेसिं जोगट्ठाणाणमभावादो । सव्वत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एवं जोगहाणप्पाबहुगं समत्तं ।
चौदसजीवसमासाणं जोगाविभागपडिच्छेदप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणं परत्थाणं सव्व. परत्थाणमिदि । तत्थ ताव सत्थाणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वत्थोवा सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा । तस्सेव उक्कस्सुववादजोगट्ठाणस्स
अब प्रमाणकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है--इन उक्त सब जीवसमासोंके उपपादयोगस्थानों, एकान्तानुवृद्धियोगस्थानों और परिणामयोगस्थानोंका प्रमाण जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र है । प्रमाणकी प्ररूपणा समाप्त हुई।
अल्पबहुत्व दो प्रकार है- योगस्थानअल्पबहुत्व और योगाविभागप्रतिच्छेदअल्पबहुत्व । उनमें योगस्थानअल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है लब्ध्यपर्याप्तकोंके उपपादयोगस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे उनके एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे परिणामयोगस्थान असंख्यातगुणे हैं। सात निर्वृत्तिअपर्याप्त जीवसमासोंके उपपादयोगस्थान सबसे स्तोक हैं । उनसे एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणे हैं । सात निर्वृत्तिपर्याप्तकोंके अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, परिणामयोगस्थानोंको छोड़कर उनमें अन्य योगस्थानोंका अभाव है। गुणकार सब जगह पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इस प्रकार योगस्थानअल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
चौदह जीवसमासोंका योगाविभागप्रतिच्छेदअल्पबहुत्व तीन प्रकार हैस्वस्थान, परस्थान और सर्वपरस्थान । उनमें पहिले स्वस्थान अल्पबहुत्वको कहते हैं । वह इस प्रकार है- सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं । उनसे उसीके उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान
......................
१ अ-आ-काप्रतिषु ' अस्थि ', ताप्रतौ ' अ (ण) थि' इति पाठः ।
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४, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४०५
अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तदो तस्सेव जहण्णएगंताणुवड्ढिजोगस्से अविभागपरिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवीर तस्सेव उक्कस्सएगंताणुवड्ढिजोगस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव जहण्णपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा | तस्सुवरि तस्सेव उक्कस्स परिणाम जोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । एवं सेसाणं पि लद्धिअपज्जत्तजीवसमासाणं सत्थाणप्पाबहुगं भाणिदव्वं ।
सव्वत्थोवा सुहुमेईदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्ण उववाद जोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा । तस्सेव उक्कस्स उववाद जोगट्ठा णस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तदो तस्सेव जहण्णएगंताणुवड्ढिजेोगस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तदो' तस्सेव उक्कस एयंताणुव डिजोगस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । एवं सेसाणं छण्णं णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं सत्थाणप्पाबहुगं भाणिदव्वं !
सव्वत्थोवा हुमेईदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगडाणस्स अविभागपडिच्छेदा । तस्सेव उक्कस्तपरिणाम जोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । एवं सेसाणं पिछण्णं णिव्वत्तिपज्जत्ताणं सत्याणपा बहुगं वत्तव्वं ।
सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसीके जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । उसके आगे उसके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसके ही जघन्य परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । उसके आगे उसके ही उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार शेष लब्ध्यपर्याप्त जीवसमासों के भी स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन कराना चाहिये ।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकके जघन्य उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। उनसे उसके उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसके ही जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसके ही उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार शेष छह निर्वृत्त्यपर्याप्तोंके स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन कराना चाहिये ।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककै जघन्य परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। उनसे उसके ही उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार शेष छह निर्वृत्तिपर्याप्त कोंके भी स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये ।
१ अ आ-काप्रतिषु ' एगंताणुत्र डीओजोगस्स ' इति पाठः ।
२ तातो 'तो' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते ।
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४०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १७३. - एत्तो परत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो-किं परत्थाणं ? बादर-सुहुम-बि-ति-चउरिदिय-असण्णि-सण्णिपंचिंदियाणं मज्झे एक्केक्कस्स लद्धिअपज्जत्त-णिव्वत्तिअपज्जत्तणिब्वत्तिपज्जत्तभेदभिण्णस्स उववाद-एयंताणुवड्डि-परिणामजोगट्ठाणाणं जहण्णुक्कस्सभेदभिण्णाणं जमप्पाबहुगं ते परत्थाणं णाम । सव्वत्थोवा सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्त-- यस्स जहण्णउववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णउववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तस्सुवरि तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सउववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवीर तस्सव णिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सउववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तरसुवरि तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णएगंतागुवड्डिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगणा। तस्सुवरि तस्सेव णिवत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णएगंताणुवड्डिजोगट्ठाणसं अविभागपडिच्छेदा असंखज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवडिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तस्सुवीर तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स
............................ अब यहांसे आगे परस्थान अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हैंशंका- परस्थान किसे कहते हैं ? ।
समाधान- बादर, सूक्ष्म, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंशी व सनी पंचेन्द्रिय जीवोंके मध्यमें लब्ध्वपर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व निवृत्तिपर्याप्तके भेदसे भेदको प्राप्त हुए प्रत्येक जीवके जघन्य व उत्कृष्ट भेदसे भिन्न उपपाद, एकान्तानुवृद्धि एवं परिणाम योगस्थानोंका जो अल्पबहुत्व है वह परस्थान अल्पबहुत्व कहलाता है।
सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं । उनसे उसके ही निवृत्त्यपर्याप्तके जघन्य उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । उसके आगे उसके ही लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसके ही निवृत्त्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगणे हैं। इसके आगे उसी लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसी निवृत्त्यपर्याप्तकके जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसी लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। इसके आगे उसी निवृत्त्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट
, अ-आ-काप्रतिषु 'वेयताशुवटि ' इति पाठः। २ अ-ताश्त्योः 'जनस्स' इति पाठः। ३ अप्रती 'ओगस्स' इति पाठः।
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४, २, ४, १७३ ]
वैयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४०७
उक्रस एयंताणु डिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स जहृण्णपरिणामजोगट्टाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव उक्कस्स परिणाम जोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगडाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्स परिणाम जोगट्ठा णस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । एवं चैव बाद इंदियस विपरत्थाणप्पा बहुगं वत्तव्वं ।
सव्वत्थोवा बीइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववाद जोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा । [ तस्सेव लद्धिअज्जत्तयस्स उक्कस्सुववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा ।] तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववाद जोगद्वाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । [ तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सुववाद जोगट्ठाणस्स अविभागपरिच्छेदा असंखेज्जगुणा । ] तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णएयंताणुवड्डि जोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवड्ढिजोगडास अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्स
एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। इसके आगे उसी लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। इसके आगे उसीके उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे निरृत्तिपर्याप्तक के जघन्य परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे निर्वृत्तिपर्याप्तक के उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार ही बादर एकेन्द्रिय जीवके भी परस्थान अल्पबहुत्वको कहना चाहिये ।
द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं । [ उनसे उसी लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । ] उनसे उसी निर्वृत्यपर्याप्तक के जघन्य उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । [ उनसे उसी निर्वृत्त्य पर्याप्तक के उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । ] उनसे उसी लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अधिभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । उनसे उसी लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसी लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसी लब्ध्यपर्याप्त के उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यात
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४०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १७३. परिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेवं णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णएयंताणुवड्डिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेजगुणा । एवं चेव तीइंदियादीणं पि परत्थाणअप्पबहुगं जाणिदूण भाणिदव्वं ।
एत्तो सव्वपरत्थाणप्पाबहुगं तिविहं- जहण्णयमुक्कस्सयं जहण्णुक्कस्सयं चेदि । तत्थ जहण्णप्पाबहुगं भणिस्सामो। तं जहा- सव्वत्थोवं सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणं । सुहुमेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्ज. गुणं । बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । बादरेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणं असंखेज्जगुणं । बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्त
गुणे हैं। उनसे उसी निर्वृत्त्यपर्याप्तकके जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसी निर्वृत्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसी निर्वृत्तिपर्याप्तकके जघन्य परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसी निवृत्तिपर्याप्तकके उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार ही त्रीन्द्रिय आदि जीवोंके भी परस्थान अल्पबहुत्वको जानकर कहना चाहिये ।।
यहां सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व तीन प्रकार है- जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट । उनमें जघन्य अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान सबसे स्तोक है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय
, आमतौ ' तस्सेव लद्धिअपज्जः उक्क० एवं तस्सेव' इति पाठः। २ अ आ-काप्रतिषु ' तीदियाणं ' इति:पाठः।
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१, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४०९ यस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं। चउरिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । असण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । असणिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं। सण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेजगुणं । सुहुभेइंदियलद्धिअपजत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवड्डिजोगट्टाणमसंखेजगुणं । सुहुमेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवड्डिजोगट्ठाणमसंखेजगुणं । बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगताणुवड्डिजोगट्ठाणं असंखेज्जगुणं । बादरेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगताणुवड्डिजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्टाणमसंखेज्जगुणं । बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । सुहुमेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । बादरेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जदण्णमेगताणु
निवृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे असंही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे असंही पंचेन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे संज्ञी पंचेद्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे संज्ञी पंचेद्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय नित्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एका
१ अ-आ-काप्रतिष्त्रनुपलभ्यमानं वाक्यमिदं मप्रतितोऽत्र योजितम् , ताप्रतौ कोष्ठकान्तर्गतमस्ति तत् ।
२ तापतौ 'जहण्णमुवाद-' इति पाठः। छ.वे. ५२.
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११०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १७३ वड्डिजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवड्डिजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । चउरिदियलद्विअपज्जतयस्स जहण्णमेगताणुवड्डिजोगट्ठाणमसंखज्जगुगं । असणिणपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवड्डिजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । सगिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगताणुवड्डिजोगवाणमसंखेज्जगुणं । बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तीइंदियलद्धिअपज्जतयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजागो असंखेज्जगुणो । असणिणपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सणिपंचिं. दियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहणाओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एगताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । तीइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एगंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। चउरिदियणिवत्तिअपज्ज तयस्स जहण्णओ एगताणुवहिजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एगताणुवड्डि. जोगो असंखेज्जगुणो । [ सणिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एगंताणुवड्विजोगो असंखज्जगुणो । ] बेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। चउरिदियणिवत्ति
न्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे असंही पंचेन्द्रिय लब्ध्य. पर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे असंही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है।[उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है।] उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणाम
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४, २, ४, १७३. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
पज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियणिव्वत्चिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सणिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जणओ परिणाम जोगो असंखेज्जगुणो । एवं जहण्णवीणालावो समत्तो ।
एतो उक्कसवीणालावं वत्तइस्साम । तं जहा सव्वथोत्रों' सुहुमेईदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो | सुहुमेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइंदियल द्विअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादज गो असंखेज्जगुणो । बादरेइंदियणिव्वत्ति अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्ज - गुणो । बेइंदियलद्धिअपज्जतयस्स उक्कस्सओ उववाद जोगो असंखेज्जगुणो । बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो | तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववाद जोगो असंखेज्जगुणो । तेईदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो | चउरिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजेोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्मओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । असण
[ ४११
योग असंख्यातगुणा है । उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उसले संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । इस प्रकार जघन्य वीणालाप समाप्त हुआ ।
अब यहांसे आगे उत्कृष्ट वीणालापकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग सबसे स्तोक है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे असंक्षी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंज्ञी
१ प्रतिषु सव्वत्थोवा ' इति पाठः । २ वाक्यमिदं नोपलभ्यत अ-आ-काप्रतिषु, मप्रतौ तूपलभ्यते तत् साप्रती कोष्ठकान्तर्गतमस्ति ।
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११२]
छक्खंडागमे वेयणाखंड १, २, ४, १७३. पंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइंदियलद्विअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एगताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । सुहुमेइंदियणिव्वत्तिअपज्जतयस्स उक्कस्सओ एगताणुवड्डिजोगो असंखेजगुणो । बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइंदियणिवत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। तीइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। असणिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असं
पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे संक्षी पंचेन्द्रिय निर्वत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है ! उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे असंही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उस्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे संक्षी पंचेन्द्रिय
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। ताप्रतौ णिव्वति [अ] पम्ज.' इति पाठः।
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४, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४१३ खेज्जगुणो । सणिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। चरिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सषिणपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बेइंदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। तेइंदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। चउरिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्विजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्तै उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बीइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तीइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो ।
लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगणा है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानु. वृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे असंक्षी पंचेन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे संक्षी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे असंशी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग
अ-आ-काप्रतिषु 'णिव्यतिपज्ज.' इति पाठः।
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४१४
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १७३. सणिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । एवमुक्कस्सवीणालावो समत्तो।
__संपहि जहण्णुक्कस्सप्पाबहुगं वत्तइस्सामो । तं जहा-सव्वत्थोवो सुहमेइंदियलद्विअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो। सुहुमेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । सहमेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ
असंख्यातगुणा है। उससे संशी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है । इस प्रकार उत्कृष्ट वीणालाप समाप्त हुआ।
अब जघन्योत्कृष्ट अल्पबहुत्वको कहते हैं । वह इस प्रकार है- सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग सबसे स्तोक है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यात गुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय
ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका . जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगणा है। उससे त्रीन्द्रिय लमध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यात
१ सुहमगलद्धिजहण्णं तणिवत्तीजहण्णयं तत्तो। लद्धिअपुण्णुक्कस्सं बादरलद्धिस्स अवरमदो॥ गो. क.२३३. रणिम्वत्तिमुहमजेटुंबादरणिव्वत्ति यस्स अवरं तु । बादरलद्धिस्स वरं बीइंदियलद्धिगजहणं ॥ गो. क. २३४.
३ बादरणिव्वत्तिवरं णिव्वत्तिविइंदियस्स अवरमदो। एवं बि-ति-बि-ति-ति-च-ति-च-चउ-विमणो होदि चउचिमणो ॥ गो. क. २३५, ४ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु तेइंविय', ताप्रतौ ' ते [वे ] इंदिय ' इति पाठः।
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४, २, ४, १७३. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया। (११५ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बेइंदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियणिव्वत्तिबज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियलद्विअपज्जत्तयस्स उकिस्सओ उववादोगो असंखेजगुणो । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुगो । चउरिंदियाणवत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । चाउरिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्त उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। चउरिंदिय. णिव्वत्तिअपज्जतयस्स उकस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगणो । असण्णिपंचिंदियणिवत्ति'अपज्जतयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेनगुणो । असण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जतयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्त जहण्णओ उववादोगो असंखेज्जगुणो । सण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो ।
गुणा है। उससे द्वीन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्पातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंही पंचेन्द्रिय निर्वत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे संशी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंही पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे संक्षी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपाद
१ ताप्रतौ ' चउरिदिय (असण्णिपंचिंदिय) णिव्वत्ति' इति पाठः। २ तह य असण्णी सण्णी असण्णि. साणिस्स सण्णिउववादं । सुहुमेइंदियलद्धिगअवरं एयंतवहिस्स ॥ गो. क. २३६,
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४१६ छक्खंडागमे वेयणाखंड
(४, २, ४, १७३. सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिंदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइंदियणिवत्ति
अज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्त जहण्णाओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। सुहमेइंदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। तदो सेडीए असंखेन्जदिभागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि अंतरिदूण सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेजगुणो । बादरेइंदियलद्धिअपज्ज तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तदो
योग असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे संशी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातशुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे आगे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थानोंका अन्तर करके सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणाम. योग असंख्यातगुणा है । उससे बाद एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असं. ख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यात.
१ सणि स्सुत्रवादवरं णिवत्तिगदस्स मुहुमजीवस्त । एयंतवड्डि अवरं लद्धिदरे थूल-थूले य ॥ गो. क. २३७. २ तह मुहुम-सुहमजेटुं तो बादर-बादरे वरं होदि। अंतरमवरं लद्धिगमहमिदर-वरं पिपरिणामे ॥ गो. क.२३८.
३ अंतरमुवरी वि पुणो तप्पुण्णाणं च उवरि अंतरियं । एयंतवढिठाणा तसपणलद्धिस्स अबर-बरा ॥ गो. क. २३९.
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४, २, ४, १७३ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविद्दाणे चूलिया
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सेडीए असंखेज्जदिभागर्मतरं होणं सुहुमेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्से जहण्णओ परिणामैजोगो असंखेज्जगुणो । बादरे इंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सुहुमेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । तदो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तं अंतरं होण बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णएयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंतार्णैवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंर्चिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जण्णओ एयंताणुवड्ढिजोगो असंखेज्जगुणो । सष्णिपंचिंदियलद्धि अपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्ढिजे!गो असंखेज्जगुणो । बेइंदियलद्धि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियलद्धि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । असणिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्ढिजोगो असंखेज्जगुणो । सणिपंचिदियलद्धि
गुणा है। उससे आगे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अन्तर होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। इसके आगे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अन्तर होकर द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यात - गुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे असंशी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे संशी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट पकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे असंशी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे
१ अ-आ-काप्रतिषु ' होदूण ' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । २ ताप्रतौ ' णिव्यत्तिअपज्जतयस्स ' इति पाठः । ३ का-ताप्रत्योः ' नहण्णपरिणाम ' इति पाठः । ४ ताप्रतौ ' जहण्णÇयंताणु ' इति पाठः ।
. वे. ५१.
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2201
छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, १७३. बसयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवडिजोगो असंखेज्जगुणो। तदो सेडीए असंखेज्जीदभागमेतकोमामाणि अंतरिदण बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयसमा जहण्णओ परिणामजोगों असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। इंदियलद्धिअपज्जतयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदिसलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उनकस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । तदो सेडीए असंखेज्जदिभागमेतजोगट्टाणाणि अंतरिदण घेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियणिवत्तिअपजत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णो एयताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स
संझी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे आगेश्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थानोंका अन्तर करके द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे असंही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग मसंख्यातगुणा है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे संक्षी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे आगे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थानोंका अन्तर करके द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे असंझी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य
लद्धी-णिवत्तीण परिणामवंतवदिगणाओ। परिणामडाणाओ अंतर-अंतरिय उवस्वरि ॥ गो.क.१४०.
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१, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया जहण्णओ एयंताणुवब्लिजोगो असंखेज्जगुणो । सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जतयस्स जाणको एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सो एयंताणुवतिजोगो असंखेज्जगुणो । तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो अर्सखेज्जगुणो । चरिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। तदो सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तजोगट्ठाणाणि अंतरं होदूण बेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णभो परिणामजोयो असंखेज्जगुणो। तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स - जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियणिव्णत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओं परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चरिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असं
एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे संझी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानवादियोगअसंख्यातगुणा है । उससे असंही पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है । उससे संक्षी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणा है। उससे आगे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थानोंका अन्तर होकर द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यात. गुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंक्षी पंचेन्द्रिय निर्वत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे संशी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे श्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उस्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उससे असंही पंचेन्द्रिय
ताप्रतीद्धिअपन' इति पाठ। २ अ-का-तापतिषु जोगदाणे' इति पाठा.
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४२.]
छक्खंडागमे वेयणाखंड । ४,२, ४, १७३. खेज्जगुणो। असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। गुणगारो सव्वत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होतो वि अप्पणो इच्छिदजोगादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ विरलेदण विगं करिय अण्णोण्णभत्थरासिमेत्तो होदि । एसो गुणगारो चदुण्णं पि वीणापदाणं वत्तव्यो । एवं जहण्णुक्कस्सा वीणा समत्ता।
उववादजोगो णाम कत्थ होदि ? उप्पण्णपढमसमए चर्व । केवडिओ तस्स कालो? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओं । उप्पण्णबिदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगताणुवड्डिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउअबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिमागे परिणामजोगो होदि । हेट्ठा एगताणुवड्डिजोगो चेव । लद्धिअपज्जत्ताणमाउअबंधकाले चेव परिणामजोगो होदि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, परिणामजोगे
निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे संशी पंचेन्द्रिय निर्वत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। गुणकार सब जगह पल्योपमका मसंख्यातवां भाग होकर भी वह अपने इच्छित योगसे नीचेकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर दुगुणा करके उनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि प्रमाण होता है । यह गुणकार चारों ही वीणापदोंके कहना चाहिये। इस प्रकार जघन्योत्कृष्ट वीणा समाप्त हुई ।
शंका-उपपादयोग कहांपर होता है ? समाधान- वह उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही होता है । शंका- उसका काल कितना है ? समाधान-उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है।
उत्पन्न होनेके द्वितीय समयसे . लेकर शरीरपर्याप्तिसे अपर्याप्त रहने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवद्धियोग होता है। विशेष इतना है कि लब्ध्यपर्याप्तकोंके आयुषन्धके योग्य कालमें अपने जीवितके त्रिभागमें परिणामयोग होता है। उससे नीचे एकान्तानुवृद्धियोग ही होता है।
लब्ध्यपर्याप्तकोंके आयुबंन्धकालमें ही परिणामयोग होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, इस प्रकारसे जो जीव परिणामयोगमें स्थित है व उपपादयोगको नहीं प्राप्त हुआ है उसके एकान्तानुवृद्धियोगके साथ
एदेसिं ठाणाओ पल्लासंखेज्जभागगुणिदकमा । हेछिमगुण हाणिसला अण्णोण्णभत्थमेतं तु । गो. क. २४१.
२ प्रतिषु 'पधाणं' इति पाठः। ३ आप्रतौ 'वीणालावा' इति पाठः। ४ उववादजोगठाणा भवादिसमयष्ट्रियस्स अवर-वरा । विग्गह-इजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयव्वा ॥ गो. क.२१९.
५ अवरुक्कस्सेण हवे उववादेयतवड्डिठाणाणं । एक्कसमयं हो पुण इदरेसिं जाव अट्ठो ति ॥ गो. क.२४२. ६ एयंतवढिठाणा उभयहाणाणमंतरे होति । अवर-वरद्वाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ॥ गो. क. २२२,
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४, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणव्वविहाणे चूलिया [ १२१ विदस्स अपत्तुववादजोगस्स एयंताणुवड्डिजोगेण परिणामविरोहादो। एयंताणुवाविजोगकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सम्वत्थ परिणामजोगो चेत्र । णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं णत्थि परिणामजोगो । एवं जोगअप्पाबहुगं समत्तं । संपहि चउण्णमप्पाबहुगाणमेदाओ संदिट्ठीओ
०००००
एदेसु सुहमणिगोदादिसण्णिपंचिंदिया तिं लद्धिअपज्जत्ताणं जहण्णउववादजोगा। सो जहण्णउववादजोगों कस्स होदि ? पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्गेण उक्कस्सेण य एगसमइओ । बिदियादिसु समएसु एगंताणुवडिजोगपउत्तीदो। सरीरगहिदे जोगो वड्ढदि ति विग्गहगदीए सामित्तं दिण्णं जहण्णयं ।
परिणामके होने में विरोध आता है। एकान्तानुवृद्धियोगका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है। पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आगे सब जगह परिणामयोग ही होता है । निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके परिणामयोग नहीं होता। इस प्रकार योगअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। अब चार अल्पबहुत्वोंकी ये संदृष्टियां हैं- (मूलमें देखिये)।
इनमें सूक्ष्म निगोदको आदि लेकर संशी पंचेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तकोंके जघन्य उपपादयोग होते हैं।
शंका- वह जघन्य उपपादयोग किसके होता है ?
समाधान-विग्रहगतिमें वर्तमान जीवके तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें जघन्य उपपादयोग होता है।
शंका- वह कितने काल होता है ? .
समाधान- वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय रहता है, क्योंकि, द्वितीयादि समयोंमें एकान्तानुवृद्धियोग प्रवृत्त होता है।
शरीर ग्रहण कर लेने पर चूंकि योग वृद्धिको प्राप्त होता है, अत एव विग्रह
परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरिमो त्ति । लद्धिअपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोद्धव्वा ॥ गो. क.१२..
प्रतिष पंचिंदियादि' इति पाठः। ३ अ-आ-काप्रतिषु '-उववादजोगो अजहण्णउववादोगो 'ति पाठः। ४ तापतौ ' उक्कस्सेण एगसमइओ' इति पाठः। ५ प्रतिषु 'गहिदो' इति पाठः।
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १७१.
सुहुम- बादराणं णिव्वत्तिपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया परिणामजोगी । सो जहणपरिनामजोगो तेर्सि कत्थ होदि ? सरीरपज्जतीए पज्जत्तयदस्स पढमसमए चेव होदि । केवचिरं कालादो १ जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि समया । तस्सुवरि तेर्सि चैव उक्कस्सिया परिणामजोगा । सो कस्स होदि । परंपरपज्जत्तीए पजत्तयदस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण वे समया । तदुवरि सुहुमबादराणं लद्धिअपज्जत्तयाणमुक्कस्सया परिणामजोगा । ते कत्थ होंति ? आउअबंधपाओग्गपढमसमयादो जाव भवद्विदीए चरिमसमओ ति एत्थुसे होंति । आउअबंधपाओग्गकालो' केत्तिओ ? सगजीविदतिभागस्स पढमसमय पहुडि जाव विस्समणकाल अनंतर
४२२ १
गति में जघन्य स्वामित्व दिया गया है। सूक्ष्म व बादर निर्वृत्तिपर्याप्तकों के ये जघन्य परिणामयोग हैं |
शंका- वह जघन्य परिणामयोग उनके कहांपर होता है ?
समाधान वह शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथम समय में ही होता है ।
शंका- वह कितने काल रहता है ?
समाधान — वह जघन्य से एक समय और उत्कर्षसे चार समय रहता है । उससे आगे उनके ही उत्कृष्ट परिणामयोग होते हैं ।
शंका
वह किसके होता है ?
समाधान - वह परम्परापर्याप्तिले पर्याप्त हुए जीवके होता है । शंका- वह कितने काल होता है ।
--
समाधान - वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से दो समय होता है । उसके आगे सूक्ष्म व बादर लब्ध्यपर्याप्तकों के उत्कृष्ट परिणामयोग होते हैं ।
शंका- वे कहां होते हैं ।
समाधान — वे आयुबन्धके योग्य प्रथम समयसे लेकर भवस्थितिके अन्तिम समय तक इस उद्देशमें होते हैं।
शंका- आयुबन्धके योग्य काल कितना है ?
समाधान- अपने जीवितके तृतीय भागके प्रथम समय से लेकर विश्रमणकालके अनन्तर अधस्तन समय तक आयुबन्धके योग्य काल माना गया है।
१ सामतौ ' परिणामजोगा "
...... ।' इति पाठः । अ-आ-काप्रतिषु काले' इति पाठः ।
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१, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४२३ हेट्ठिमसमओ त्ति । सो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया । बेइंदियादि जाव सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तओ त्ति एदेसि जहण्णपरिणामजोगाएद-::::: । सो कत्थ होदि ? पढमसमयपज्जत्तयदम्मि। सो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण: एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमओ होदि ।
बीइंदियादि जाव सण्णिपंचिंदियो त्ति एदेसिं णिव्वत्तिअपज्जत्तयाणमेदे उक्कस्सया एगंताणुवड्डिजोगा। सो एयंताणुवड्डिजोगो उक्कस्सओ कत्थ घेपदि ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो होहदि त्ति हिदम्मि घेप्पइ । केवचिरं कालादो एयंताणुवड्डिजोगो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगो समओ । बेइंदियादि जाव सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जओ त्ति एदेसि
शंका-उक्त योग कितने काल होता है ? समाधान- वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होता है ।
द्वीन्द्रियको आदि लेकर संशी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तक तक इनके ये जघन्य परिणामयोग होते हैं ( संदृष्टि मूलमें देखिये)।
शंका- वह कहांपर होता है ? समाधान- वह पर्याप्त होने के प्रथम समयमें होता है। शंका-वह कितने काल होता है ? समाधान -वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय होता है।
द्वीन्द्रियको आदि लेकर संशी पंचेन्द्रिय तक इन निवृत्त्यपर्याप्तकोंके ये उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग होते हैं ।
शंका- वह उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग कहांपर ग्रहण किया जाता है ?
समाधान- वह शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होगा, इस प्रकार स्थित जीवमें ग्रहण किया जाता है।
शंका-एकान्तानुवृद्धियोग कितने काल होता है ? समाधान- वह जघन्य व उकर्षसे एक समय होता है। द्वीन्द्रियको आदि लेकर संक्षी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तक तक इनके ये उत्कृष्ट
काप्रतौ ' एदेसि णिव्यत्तिअपज्जत्तयाणमेदे उक्कस्म-जहण्णपरिणामनोगा। सो' इति पाठः। अतः प्राक् अ-मा-काप्रतिषु । नमो वीतरागाय शान्तये' इत्येतद् वाक्यमुपलभ्यते । ३ -आ-काप्रतिषु 'धेप्पदि काले सरीर, ताप्रती 'प्पदि [ कालो ] सरीर-' इति पाठः ।
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१२४
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १७३.
मेदे उक्कस्सपरिणामजोगा-- -----
> । सो कस्स
००००
०००
० ०
० ०
होदि ? परंपरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्से । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समयाँ । एसा मूलवीणा णाम।
___ सुहुमादिसण्णिपंचिदिओ ति लद्धिअपज्जत्ताणं जहण्णया उववादजोगा एदे::::: । सो कस्स होदि ? पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगस्स । केवचिरं कालादो
: होदि ? जहण्णेण उक्कस्सेण य एगसमओ । सुहुमादिसण्णिपंचिंदियणिव्वत्ति
०००००
०००००
-
--
-
परिणामयोग होते हैं । ( संदृष्टि मूलमें देखिये )।
शंका- वह किसके होता है ? समाधान- वह परम्परापर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके होता है। शंका- वह कितने काल होता है ? समाधान- वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होता है। यह मूलवीणा कहलाती है।
सूक्ष्मसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक लब्ध्यपर्याप्तकोंके ये जघन्य उपपादयोग होते हैं (संदृष्टि मूलमें देखिये)।
शंका-- वह किसके होता है ? समाधान-वह तद्भवस्थ हुए जघन्य योगवाले जीवके प्रथम समयमें होता है। शंका- वह कितने काल होता है ? समाधान- वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है । सूक्ष्मको आदि लेकर संशी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिअंपर्याप्तकों के ये जघन्य उपपाद
. अ-आ-काप्रतिषु जोगो' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'परंपरपज्जसयदस्स' इति पाठः। ३ अ-काप्रत्योः 'वेसमओ' इति पाठः।४ताप्रती 'जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ'इति पाठः।
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४, २, ४, १७३. ] वेयणमहाहियारे वयणदव्वविहाणे चूलिया अपज्जत्ताणं एदे जहण्णया उववादजोगा
(२५
0A
०००० ००००००
००००००००
००००००००००
००००००००००
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v
.
एदे कस्स होति ? पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगईए वट्टमाणस्स । केवचिरं कालादो होति ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ।
सुहुम-बादराणं लद्धिअपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया एयंताणुवटिजोगा •v A* । सो कस्स होदि ? बिदियसमयतब्भवस्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण उक्कस्सेण य एगसमओ भवदि।
सुहुम-बादराणं णिव्वत्तिअपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया एयंताणुवड्विजोगा •v A। सो कस्स होदि ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णुकस्सेण एगसमओ।
aan...---
योग हैं (संदृष्टि मूलमें देखिये )।
शंका- ये किसके होते हैं ?
समाधान-ये विग्रहगतिमें वर्तमान जीवके तद्भवस्थ होने के प्रथम समयमें होते हैं।
शंका---- ये कितने काल होते हैं ? समाधान-ये जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होते हैं। सूक्ष्म व बादर लब्ध्यपर्याप्तकोंके ये जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग हैं ( मूलमें )। शंका-वह किसके होता है? समाधान- वह तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें जघन्य योगवालके होता है। शंका- वह कितने काल होता है ? समाधान- जघन्य व उत्कर्षसे वह एक समय होता है।
सुक्ष्म व बादर निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके ये जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग हैं ( मूलमें)। वह किसके होता है? वह तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें वर्तमान जघन्य योगवालेके होता है। वह कितने काल होता है? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है।
१-आ-का-ताप्रतिष्वनुपलभ्यमानमेतत् पदं मप्रतितोत्र योजितम् ।
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५२६]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १७३. सुहुम-बादराणं लद्धिअपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया परिणामजोगा •v A* । ते कस्स होति ? परभवियाउअबंधपाओग्गपढमसमयप्पहुडि उवरिमभवहिदीए वट्टमाणस्स । ते केवचिरं कालादो होति १ जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमया हवंति ।
सुहुम-बादराणं णिव्वत्तिअपज्जत्तयाणमेदे जहण्णपरिणामजोगा •V A* । ते कस्स होंति ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पढमसमए वट्टमाणस्स। ते केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमया ।
__बीइंदियादि जाव सणिपंचिंदिओ ति एदेसिं लद्धिअपज्जत्तयाणं जहण्णएगंताणुबड्डिजोगा एदे । सो कस्स ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्त । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ .::।।
०००
बीइंदियादि जाव सण्णिपंचिंदिओ त्ति एदेसिं णिव्वत्तिअपज्जत्तयाणं जहण्णया एयंताणुवड्डिजोगा । सो कस्स ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरं
सूक्ष्म व बाद लब्ध्यपर्याप्तकोंके ये जघन्य परिणामयोग हैं (मूलमें)। वे किसके होते हैं ? वे परभविक आयुके बन्ध योग्य प्रथम समयसे लेकर उपरिम भवस्थितिमें वर्तमान जीवके होते हैं । वे कितने काल होते हैं। वे जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय होते हैं।
___ सूक्ष्म व बादर निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके ये जघन्य परिणामयोग हैं (मूलमें)। वे किसके होते हैं ? वे शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके प्रथम समयमें रहनेवालेके होते हैं । वे कितने काल होते हैं ? वे जघन्यसे एक समय वे उत्कर्षसे चार समय होते हैं ।
द्वीन्द्रियको आदि लेकर संशी पंचेन्द्रिय तक इन लब्ध्यपर्याप्तकोंके ये जघन्य पकान्तानवद्धियोग हैं। वह किसके होता है? वह तदभवस्थ होनेके द्वितीय समय में वर्तमान जघन्य योगवालेके होता है । वह कितने काल होता है। वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है (संदृष्टि मूलमें देखिये)।
द्वीन्द्रियको आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक इन निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके ये जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग हैं। वह किसके होता है? वह तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें वर्त
......................
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' परिणामजोगा कस्स' इति पाठः। २ ताप्रती 'सो' इति पाठः । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु' होदि' इति पाठः। ४ ताप्रती 'जहणिया एगंताशुवढिजोगा सो' इति पाठः। ५ आ-का-ताप्रतिषु 'सो' इत्येतत् पदं नोपलम्यते ।
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[४२७
१,२, ४,१७३. J वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया कालादो होदि १ जहण्णुक्कस्सेणेगसमओ :०००।।
. ००००
. ००००० ०००००
. बीइंदियादि जाव सण्णिपंचिंदिया त्ति एदेसिं लद्धिअपज्जत्ताणमेदे जहण्णपरिणामजोगा
०००० ०००००० ०००००००० ०००००००००० ००००००००००
सो कस्स ? आउगबंधपाओग्गपढमसमयप्पहुडि तदियभागे वट्टमाणस्स । सो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण चत्तारिसमया ।
बेइंदियादिसणिपंचिंदिया त्ति एदेसि णिवत्तिपज्जत्तयाणं एदे जहण्णया परिणामजोगा। सो कस्स ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पढमसमए वट्टमाणस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमया। एसा जहण्णवीणा परूविदा। उक्कस्सवीणा वि एवं' चेव परूवेदव्वा । णवरि जम्हि उक्कस्सेण चत्तारिसमया तम्हि बेसमया वत्तव्वा ।
...............
मान जघन्य योगवालेके होता है । वह कितने काल होता है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है (संदृष्टि मूलमें देखिये)।
द्वीन्द्रियको आदि लेकर संशी पंचेन्द्रिय तक इन लब्ध्यपर्याप्तकोंके ये जघन्य परिणामयोग हैं (संदृष्टि मूल में देखिये)। वह किसके होता है ? वह आयुबन्धके योग्य प्रथम समयसे लेकर तृतीय भागमें वर्तमान जीवके होता है । वह कितने काल होता है। वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय होता है।
द्वीन्द्रियको आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक इन निर्वृत्तिपर्याप्तकोंके ये जघन्य परिणामयोग होते हैं। वह किसके होता है ? वह शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके प्रथम समयमें रहनेवालके होता है। वह कितने काल होता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय होता है। यह जघन्य वीणाकी प्ररूपणा की गई है। उत्कृष्ट वीणाकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार ही करना चाहिये। विशेषता केवल इतनी है कि वहां पर जहां उत्कर्षसे चार समय कहे गये हैं वहां यहांपर दो समय कहना चाहिये ।
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अप्रती ' उक्कस्सेण वीणा एवं ', आ-काप्रत्यौ: । उक्कस्सबीणा एवं', तापतौ उक्करसवीणाए एवं ' इति पाठः।
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१२८
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, १७३.
सुहुमादिसण्णि त्ति लद्धिअपज्जत्ताणं जहाकमेण जहण्णुक्कस्सउववादजोगा
००००००० V००००० ०० ०० 7 ०००००
०० ००
००००००००
सो कस्स ? पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स उक्कस्सउववादजोगिस्स । केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ ।
__सुहुमादिसण्णि त्ति णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं' जहाकमेण जहण्णुक्कस्सउववादजोगासो कस्स ? पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णुक्कस्सउववादजोगे वट्टमाणस्स । सो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ •v •v ।।
- सुहुम-बादराणं लद्धिअपज्जत्ताणं जहाकमेण एदे जहण्णुक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगासो कस्स ? बिदियसमयतम्भवत्थस्स एयंताणुवडिकालचरिमसमए वट्टमाणस्स । सो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । सुहुम-बादराणं णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं जहाकमेण
सूक्ष्मको आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक लब्ध्यपर्याप्तकोंके यथाक्रमसे जघन्य व उत्कृष्ट उपपादयोग ये हैं (संदृष्टि मूलमें देखिये)। वह किसके होता है ? वह तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें वर्तमान जघन्य व उत्कृष्ट योगवालेके होता है । वह कितने काल होता है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है।
सूक्ष्मको आदि लेकर संज्ञी तक निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके यथाक्रमसे जघन्य व उत्कृष्ट उपपादयोग ये हैं। वह किससे होता है ? वह तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें वर्तमान जघन्य व उत्कृष्ट योगमें रहनेवाले जीवके होता है। वह कितने काल होता है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है।
__ सूक्ष्म व बादर लब्ध्यपर्याप्तकोंके यथाक्रमसे ये जघन्य व उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग हैं। वह किसके होता है? वह एकान्तानुवृद्धियोगकालके अन्तिम समयमें वर्तमान जीवके तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें होता है। वह कितने काल होता है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है।
सूक्ष्म व बादर निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके यथाक्रमसे जघन्य व उत्कृष्ट एकान्तानु
. मप्रतिपागेऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु ' -सणिति अपज्जत्ताणं', ताप्रतौ ' सण्णिात्ति णि लद्धिअपज्जताणं' इति पाठः।
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४, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४२९ जहण्णुक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगा एदे •v •v । सो कस्स ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स चरिमसमयअपज्जत्तस्स । सो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । तदुवरि सुहुम-बादरलद्धिअपज्जत्ताणं जहाकमेण एदे जहण्णुक्कस्सपरिणामजोगा। सो कस्स ? आउअबंधपाओग्गकाले जहण्णुक्कस्सेण परिणामजोगेसु वट्टमाणस्स । केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण जहाकमेण चत्तारिसमया बेसमया। तदुवरि सुहुम-बादरणिव्वत्तिअपज्जत्ताणं जहाकमेण जहण्णुक्कस्सपरिणामजोगा • v v | तत्थ जहण्णपरिणामजोगो सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पढमसमए होदि । ण च एसो णियमो, उवरि वि जहण्णपरिणामजोगसंभवादो। उक्कस्सपरिणामजोगो परंपरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स होदि। जहण्णपरिणामजोगो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमइओ। उक्कस्सजोगो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बेसमया ।
बेइंदियादिसण्णिलद्धिअपज्जत्ताणं जहाकमेण एदे जपणएयंताणुवाड्डिजोगा •v •v १६६९ । सो कस्स ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णएगताणुषड्डिजोगे वट्टमाणस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । तदुवरि तेसिं चेव जहाकमेण
वृद्धियोग ये हैं (मूलमें देखिये)। वह किसके होता है ? वह तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें वर्तमान चरमसमयवर्ती अपर्याप्तके होता है। वह कितने काल होता है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है।
इसके आगे सूक्ष्म व बादर · लब्ध्यपर्याप्तोंके यथाक्रमसे ये जघन्य व उत्कृष्ट परिणामयोग हैं। वह किसके होता है ? वह आयुबन्धकके योग्य कालमें जघन्य व उत्कर्षसे परिणामयोगोंमें रहनेवाले जीवके होता है । वह कितने काल होता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे क्रमशः चार व दो समय होता है ।
इसके आगे सूक्ष्म व बादर नित्यपर्याप्तोंके यथाक्रमसे जघन्य व उत्कृष्ट परिणामयोग ये हैं। उनमें जघन्य परिणामयोग शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेके प्रथम समयमें होता है। परन्तु यह नियम नहीं है, क्योंकि, आगे भी जघन्य परिणामयोग सम्भव है। उत्कृष्ट परिणामयोग परम्परापर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके होता है। जघन्यं परिणामयोग जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय होता है । उत्कृष्ट परिणामयोग जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होता है।
द्वीन्द्रियको आदि लेकर संशी लब्ध्यपर्याप्तकोंके यथाक्रमसे ये जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग होते हैं (मूलमें देखिये )। वह किसके होता है ? वह जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगमें वर्तमान जीवके तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें होता है। वह कितने काल होता है ? वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है।
__उसके आगे उक्त जीवोंके ही यथाक्रमसे उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग ये हैं।
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४३.]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १७३. उक्कस्सएगताणुवड्डिजोगा। सो कस्स ? अंतोमुहुत्तुववण्णस्स से काले आउअं बंधिहिदि त्ति ट्टिदस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ ।
०००००००० ००००० ००००० ००००००००००
००००००
०० ०००० ०००००००००० ००००००००००
अंतरं
००० ०००००००० ०००००००००० ०००००००००
००००० ००००० ०००००००००० ०००००००० ००० ००० ००००
अतर
एदेसिं छण्णं पि अंतराणं पमाणं सेडीए असंखेज्जविभागो। कुदो ? एगवारण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत जोगपक्खेवप्पवेसादो । तं पि कुदो णव्वदे ? हेट्ठिगजोगट्ठाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदे उवरिमजोगट्ठाणुप्पत्तीदो।
बेइंदियादिसण्णि त्ति लद्धिअपज्जत्ताणं जहाकमेण एदे जहण्णपरिणामजोगा । सो कस्स १ सगभवहिदीए तदियतिभागे वट्टमाणस्स । तदुवरि तेसिं चेव उक्कस्सपरिणामजोगा ।
वह किसके होता है ? वह उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् अनन्तर समयमें आयुको बांधनेके अभिमुख हुए जीवके होता है। वह कितने काल होता है। वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय होता है।
इन छहों अन्तरालोंका (संदृष्टि मूल में देखिये) प्रमाण श्रेणिका असंख्थातवां भाग है, क्योंकि, एक चारमें श्रोणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगप्रक्षेपोंका प्रवेश है।
शंका- वह भी कहांसे जाना जाता है ?
समाधान-चूंकि अधस्तन योगस्थानको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर उपरिम योगस्थान उत्पन्न होता है, अतः इसी हेतुसे वह जाना जाता है।
द्वीन्द्रियको आदि लेकर संशी तक लब्ध्यपर्याप्तकोंके यथाक्रमसे ये जघन्य परिणामयोग हैं । वह किसके होता है ? वह अपनी भवस्थिति के तृतीय भागमें वर्तमान जीवके होता है । उसके आगे उन्हींके उत्कृष्ट परिणामयोग हैं । वे किसके होते हैं वे
1 अप्रतौ 'जोगहाशववचीको ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १७४.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया ते कस्स ? सगजीविदतिभागे वट्टमाणस्स । ते दो वि केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि-बेसमया। तदुवीर बीइंदियादिसणिण त्ति णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं जहण्णुक्कस्सएगंताणुवाड्डिजोगा- जहण्णओ बिदियसमयतब्भवत्थस्स, उक्कस्सओ चरिमसमयअपज्जत्तयस्स । जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । तदुवरि तेसिं चेव णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं जहण्णपरिणामजोगा। सो कस्स ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमयप्पहुडि उवरि वट्टमाणस्स होदि । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमया । तदुवरि तेसिं चेव जहाकमेण उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणाणि । सो कस्स १ परंपरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्य । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बेसमया । एवं जहण्णुक्कस्सवोणाए सव्यपरत्थाणप्पाबहुगं समत्तं ।
पदेसअप्पाबहुए त्ति जहा जोगअप्पाबहुगं णीदं तधा णेदव्यं । णवरि पदेसा अप्पाए त्ति भाणिदव्वं ॥ १७४ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे-- जहा जोगस्स सत्थाण-परत्थाण-सव्वपरत्थाणभेदेण जहण्णु
अपने जीवितके तृतीय भागमें वर्तमान जीवके होते हैं । वे दोनों ही कितने काल होते हैं ? वे जघन्यसे एक समय और उत्कर्षले क्रमशः चार व दो समय होते हैं।
उसके आगे द्वीन्द्रियको आदि लेकर संज्ञी तक निर्वृत्त्यपर्याप्तोंके जघन्य व उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग होते हैं। इनमें जघन्य तो द्वितीय समय तद्भवस्थके और उत्कृष्ट चरमसमयवर्ती अपर्याप्तके होता है । इनका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय है।
__ इसके आगे उन्हीं नित्यपर्याप्तोंके जघन्य परिणामयोग होते हैं। वह किसके होता है ? वह शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होने के प्रथम समयसे लेकर आगेके कालमें रहनेवाले जीवके होता है। वह कितने काल होता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय होता है।
___ इसके आगे उन्हीं के यथाक्रमसे उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान होते हैं । वह किसके होता है ? वह परम्परापर्याप्तिले पर्याप्त हुए जीवके होता है। वह कितने काल होता है । वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होता है । इस प्रकार जघन्योत्कृष्ट वीणा सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
. जिस प्रकार योगअल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार प्रदेशअल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि योगके स्थानमें यहां 'प्रदेश' ऐसा कहना चाहिये ॥ १७४॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- जिस प्रकार योग अर्थात् स्वस्थान, परस्थान और
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१३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १७५. क्कस्सजोगाणमप्पाबहुगं परूविदं तहा जोगकारणेण जीवस्स दुक्कमाणकम्मपदेसाणं पि अप्पाबहुगं परूविदव्वं, सव्वत्थ कारणाणुसारिकज्जुवलंभादो। जदि कारणाणुसारी चेव कज्ज होदि तो समयं पडि जोगवसेण ढुक्कमाणकम्मपदेसेहि असंखेज्जेहि होदव्वं, जोगम्मि असंखेज्जाणं अविभागपडिच्छेदाणमुवलंभादो त्ति वुत्ते - ण, एगजोगाविभागपडिच्छेदें वि अणतकम्मपदेसायड्वर्णसत्तिदसणादो। जोगादो कम्मपदेसाणमागमो होदि ति कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव पदेसअप्पाबहुगसुत्तादो णव्वदे। ण च पमाणंतरमवेक्खदे, अणवत्थापसंगादो। तेण गुणिदकम्मंसिओ तप्पाओग्गउक्कस्सजोगेहि चेव हिंडावेदव्वो, अण्णहा बहुपदेससंचयाणुववत्तीदो । खविदकम्मंसिओ वि तप्पाओग्गजहण्णजोगपंतीए खग्गधारसरिसीए पयट्टावेदव्यो, अण्णहा कम्म-णोकम्मपदेसाणं थोवत्ताणुववत्तीदो ।
जोगट्टाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि दस अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति ॥ १७५०
(एत्थ जोगो चउव्विहो- णामजोगो ठवणजोगो दव्वजोगो भावजोगो चेदि ) णाम
सर्वपरस्थानके भेदसे जघन्य व उत्कृष्ट योगोंके अल्पबहुत्यकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार योगके निमित्तसे जीवके आनेवाले कर्मप्रदेशोंके भी अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, सब जगह कारण के अनुसार ही कार्य पाया जाता है ।
शंका-यदि कार्य कारणका अनुसरण करनेवाला ही होता है तो प्रतिसमय योगके वशसे आनेवाले कर्मप्रदेश असंख्यात होने चाहिये, क्योंकि, योगमें असंख्यात अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं ? ।
समाधान- नहीं, क्योंकि, योगके एक अविभागप्रतिच्छेदमें भी अनन्त कर्मप्रदेशोंके आकर्षणकी शक्ति देखी जाती है ।
शंका - योगसे कर्मप्रदेशोंका आगमन होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- वह इसी प्रदेशाल्पबहुत्वसूत्रसे जाना जाता है, किसी अन्य प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, वैसा होनेपर अनवस्था दोषका प्रसंग आता है।
इसी कारण गुणितकर्माशिकको तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगोंसे ही घुमाना चाहिये, क्योंकि, इसके विना उसके बहुत प्रदेशोंका संचय घटित नहीं होता। क्षपितकर्मोशिकको भी खड्गधारा सदृश तत्प्रायोग्य जघन्य योगोंकी पंक्तिसे प्रवर्ताना चाहिये, क्योंकि, अन्य प्रकारसे कर्म और नोकर्मके प्रदेशोंकी अल्पता नहीं बनती।।
योगस्थानों की प्ररूपणामें ये दस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं ॥ १७५ ॥ यहां योग चार प्रकार है-नामयोग, स्थापनायोग, द्रब्ययोग और भावयोग ।
२ अ-आ-काप्रतिषु 'पदेसायदण', ताप्रतौ'पदेसायदण
१ अ-आ-काप्रतिषु 'परिच्छेदो' इति पाठः। इति पाठः।
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४, २, ४, १७५. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४३३
वणजोगा सुगमा त्तिण तेसिंमत्थो वुच्चदे । दव्वजोगो दुविहो आगमदव्वजोगो गोआगमदव्वजोगो चेदि । तत्थ आगमदव्वजोगो णाम जोगपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो । गोआगमदव्वजोगो तिविहो जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तदव्वजोगो चेदि । जाणुगसरीर-भवियदव्वजोगा सुगमा | तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो । तं जहा - सूर-णक्खत्तजोगो चंद णक्खत्तजोगो गह-णक्खत्तजोगो कोणंगारजोगो चुण्णजोगो मंतजोगो इच्चेवमादओ । तत्थ भावजोगो दुविहो आगमभावजोगो णोआगमभाव जोगो चेदि । तत्थ आगमभावजोगो जोगपाहुडजाणओ उवजुत्तो | णोआगमभावजोगो तिविहो गुणजोगो संभवजोगो जुंजणजागो चेदि । तत्थ गुणगो दुवि सच्चित्तगुणजोगो अच्चित्तगुणजोगों चेदि । तत्थ अच्चित्तगुणजोगो जहा रूव-रस-गंध-फासादीहि पोग्गलदव्वजोगो, आगासादीणमप्पप्पणो गुणेहि सह जोगो वा । तत्थ सच्चित्तगुणजोगो पंचविहो - ओदइओ ओवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि । तत्थ गदि-लिंग-कसायादीहि जीवस्स जोगो ओदइयगुणजोगो । ओवसमियसम्मत्तसंजमेहि जीवस्स जोगो ओवसमियगुणजोगो । केवलणाण-दंसण - जहाक्खाद संजमादीहि जीवस्स जोगो खइयगुणजोगो णाम । ओहि-मणपज्जवादीहि जीवस्स जोगो खओवसमिय
W
नाम और स्थापना योग चूंकि सुगम हैं, अतः उनका अर्थ नहीं कहते हैं । द्रव्ययोग दो प्रकार हैआगमद्रव्ययोग और नोआगमद्रव्ययोग | उनमें योगप्राभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमद्रव्ययोग कहलाता है । नोआगमद्रव्ययोग तीन प्रकार है— ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्ययोग । ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्ययेोग सुगम हैं । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्ययोग अनेक प्रकार है । यथा- • सूर्य-नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, ग्रह-नक्षत्रयोग, कोण - अंगारयोग, चूर्णयोग व मन्त्रयोग इत्यादि । भावयोग दो प्रकारका है- आगमभावयोग और नोआगमभावयोग | उनमें से योगप्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावयोग कहा जाता है । नोआगमभावयोग तीन प्रकार है- गुणयोग, सम्भवयोग और योजनाये।ग | उनमें से गुणयोग दो प्रकारका है - सचित्तगुणयोग और अचित्तगुणयोग | उनमें से अचित्तगुणयोग - जैसे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुणोंसे पुद्गलद्रव्यका योग; अथवा आकाश आदि द्रव्योंका अपने अपने गुणोंके साथ योग। उनमेंसे सचित्तगुणयोग पांच प्रकारका है- औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारि णामिक। उनमें से गति, लिंग और कषाय आदिकोंसे जो जीवका योग होता है वह औदयिक सचित्तगुणयोग है । औपशमिक सम्यक्त्व और संयमसे जो जीवका योग होता है वह औपशमिक सचित्तगुणयोग कहा जाता है । केवलज्ञान, केवलदर्शन एवं यथाख्यातेसंयम आदिकोंसे होनेवाला जीवका योग क्षायिक सचित्तगुणयोग कहा जाता है । अवधि व मनःपर्यय आदिकों के साथ होनेवाले जीवके योगको क्षायोपशमिक सचित्तगुणयोग कहते हैं । ७. वे. ५५.
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३४ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १७५.
गुणजोगो णाम । जीव-भवियत्तादीहि जोगो पारिणामियगुणजोगो णाम । इंदो मेरुं चालइदु समत्यो त्ति एसो संभवजोगो णाम । जो सो जुंजणजोगो सो तिविदो- ववादोगो एतावविजोगो परिणामजोगो चेदि । एदेसु जोगेसु जुंजणजोगेण अहियारो, सेसजोगेर्हितो कम्मपदेसाणमागमणाभावादो ।
णाम- ट्ठवण- दव्व-भावभेदेण ट्ठाणं चदुव्विहं । णाम- ट्ठवणट्ठाणाणि सुगमाणित तेंसिमत्थों ण वुच्चदें । दव्वद्वाणं दुविहं आगम-णोआगमदव्वद्वाणभेदेणं । तत्थ आगमदो दव्वाणं द्वाणपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो' | णोआगमदव्वद्वाणं तिविहं जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्तट्ठाणभेण । तत्थ जाणुगसरीर भवियट्ठाणाणि सुगमाणि । तव्वदिरित्तदव्वद्वाणं तिविहूं' – सच्चित्त-अच्चित्त-मिस्सणोआगमदव्वद्वाणं चेदि । जं तं सच्चित्तणोआगमदष्वद्वाणं तं दुविहं बाहिरमब्भंतरं चेदि । जं तं बाहिरं तं दुविहं धुवमद्ध्रुवं चेदि । जं तं धुवं तं सिद्धाणमगाहट्ठाणं । कुदो ? तेसिमोगाहणाए वड्डि-हाणीणमभावेण थिरसरूवेण अवट्ठाणादो । जं तमद्ध्रुवं सच्चित्तट्ठाणं तं संसारत्थाण जीवाणमोगाहणा । कुदो ? तत्थ वड्डिहाणीमुवलंभादो । जं तमन्तरं सच्चित्तद्वाणं तं दुविहं संकोच विकचिणप्पयं तव्विहीणं चेदि ।
जीवत्व व भव्यत्व आदिके साथ होनेवाला योग पारिणामिक सचित्तगुणयोग कहलाता है । इन्द्र मेरु पर्वतको चलाने के लिये समर्थ है, इस प्रकारका जो शक्तिका योग है वह सम्भवयोग कहा जाता है। जो योजना- (मन, वचन व कायका व्यापार ) योग है वह तीन प्रकारका है— उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग । इन योगों में यहां योजनायोगका अधिकार है, क्योंकि, शेष योगों से कर्मप्रदेशोंका आगमन सम्भव नहीं है । नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे स्थान चार प्रकार है । इनमें नाम व स्थापना स्थान सुगम हैं, अत एव उनका अर्थ नहीं कहते । द्रव्य स्थान दो प्रकार है - आगमद्रव्यस्थान और नोआगमद्रव्यस्थान । उनमें स्थानप्राभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यस्थान कहा जाता है । नोआगमद्रव्यस्थान ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त स्थान के भेद से तीन प्रकार है । उनमें ज्ञायकशरीर और भावी स्थान सुगम हैं । तद्व्यतिरिक्त द्रव्यस्थान तीन प्रकार है- सचित्त, अचित्त और मिश्र नोआगमद्रव्यस्थान । जो सचित्त नोआगमद्रव्यस्थान है वह दो प्रकार है- बाह्य और अभ्यन्तर । इनमें जो बाह्य है वह दो प्रकार है -- ध्रुव और अध्रुव । जो ध्रुव है वह सिद्धौका अवगाहनास्थान है, क्योंकि, वृद्धि और हानिका अभाव होनेसे उनकी अवगाहना स्थिर स्वरूपसे अवस्थित है । जो अध्रुव सचित्तस्थान है वह संसारी जीवोंकी अवगाहना है, क्योंकि, उसमें वृद्धि और हानि पायी जाती है । जो अभ्यन्तर सचित्तस्थान है वह दो प्रकार है- संकोच विकोचात्मक और तद्विहीन | इनमें जो
१ अ-आमत्यीः ' ट्ठवणभेदेण ' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु ' णुवजुत्ता' इति पाठः । ३ आप्रता ' दव्वद्वाणं तव्वदिरितं तिविहं ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १७५ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४३५
जं तं संकोच - विकोचणप्पयमब्भंतर सच्चित्तद्वाणं तं सव्वेसिं सजोगंजीवाणं जीवदव्वं । जं तं तविहीणमन्तरं सच्चित्तद्वाणं तं केवलणाण- दंसणहराणं अमेक्खट्ठिदिबंध परिणयाणं सिद्धाणं अजोगिकेवलीणं वा जीवदव्वं । कथं जीवदव्वस्स जीवदन्वमभिण्णद्वाणं होदि १ ण, सदों वदिरित्तदव्वाणमण्णदव्वट्ठाण हे दुत्ताभावादो' सगतिको डिपरिणामभेदणाभेदत्तणेण सव्वदव्वाणमवट्ठाणुवलंभादो । जं तमचित्तदव्वद्वाणं तं दुविहं रूवि-यचित्तदव्वट्ठाणमरूवि-यचित्तदव्वद्वाणं चेदि । जं तं रूविअचित्तदन्वद्वाणं तं दुविहं अनंतर बाहिरं चेदि । जं तमब्भंतरं [तं] दुविहं जहवुत्ति- अजहबुत्तियं वेदि । जं तं जहवुत्तिअ मंतरद्वाणं तं किण्ह-णील रुहिर-हालिद्द-सुक्किल-सुरहि-दुरद्दिगंध-तित्त- कडुअ- कसायंबिल -महुर- ण्ड्द्धि-ल्हुक्खसीदुसुणादिभेदेणं अणेयविहं । जं तमजहवुत्तिरूविअचित्तट्ठाणं तं पोग्गलमुति-वण्ण-गंध-रसफास - अणुवजोगत्तादिभेदेण अणेयविहं । जं तं बाहिररूविअचित्तदव्वद्वाणं तमेगामासपदेसादिभेदेण असंखेज्जवियप्पं ।
संकोच - विकोचात्मक अभ्यन्तर सचित्तस्थान है वह योग युक्त सब जीवोंका जीवद्रव्य है । जो तविहीन अभ्यन्तर सचित्तस्थान है वह केवलज्ञान व केवलदर्शनको धारण करनेवाले एवं मोक्ष व स्थितिबन्ध से अपरिणत ऐसे सिद्धौका अथवा अयोग केवलियोंका जीवद्रव्य है ।
शंका - जीवद्रव्यका जीवद्रव्य अभिन्न स्थान कैसे हो सकता है ?
समाधान
नहीं, क्योंकि, अपने से भिन्न द्रव्योंके अन्य द्रव्यस्थानका हेतुश्व न होने से अपने त्रिकोटि ( उत्पाद, व्यय व धन्य ) स्वरूप परिणाम के कथंचित् भेदाभेद रूप से सब द्रव्योंका अवस्थान पाया जाता है ।
जो अचित्त द्रव्यस्थान है वह दो प्रकार है- रूपी अचितव्यस्थान और अरूपी अचित्तद्रव्यस्थान । इनमें जो रूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह दो प्रकार हैअभ्यन्तर और बाह्य । जो अभ्यन्तर रूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह दो प्रकार हैजहद्वृत्ति और अजहद्वृत्तिक । जो जहदूद्वृत्तिक अभ्यन्तर रूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह कृष्ण, नील, रुधिर, हारिद्र, 'शुक्ल, सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध, तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल, मधुर, स्निग्ध, रुक्ष, शीत व उष्ण आदिके भेदसे अनेक प्रकार है । जो अजहद्वृत्तिक अभ्यन्तर रूपी अचित्त द्रव्यस्थान है वह पुद्गल का मूर्त्तित्व, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श व उपयोगहीनता आदि के भेदले अनेक प्रकार है । जो बाह्य रूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह एक आकाशप्रदेश आदि के भेदले असंख्यात भेद रूप है ।
१ अ-आ-काप्रतिषु 'संजोग' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु 'परिणमार्ग', ताम्रता 'परिणामाण' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु ' जीववध्वं वध्वं कथं ', तामतौ ' जीवदव्वं [ दव्वं ] | कवं (र्ध ) ' इति पाठः । ४ आ. काप्रायोः 'साहो' इति पाठः । ५ ताप्रसौ ' मण्णादुत्ताभाषादो' इति पाठः । ६ अ आ-काप्रति 'सीधुणादिभेदेण' इति पाठः ।
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१३६]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ४, १७५. जं तमरूवि-यचित्तदव्वट्ठाणं तं दुविहं अब्भंतरं बाहिरं चेदि । जं तमभंतरमरूविअचित्तदव्वट्ठाणं तं धम्मत्थिय-अधम्मत्थिय-आगासत्थिय-कालदव्वाणमप्पणो सरूवावट्ठाणहेदुपरिणामा । जं तं बाहिरमरूविअचित्तदव्वट्ठाणं तं धम्मत्थिय-अधम्मत्थिय-कालदव्वेहि ओट्ठद्धागासपदेसा । आगासत्थियस्स णत्थि बाहिरट्ठाण, आगासावगाहिणो' अण्णस्स दव्वस्स अमावादो । जं तं मिस्सदव्वट्ठाणं तं लोगागासो ।
‘भावहाणं दुविहं आगम णोआगमभावट्ठाणभेदेण । तत्थ आगमभावट्ठाणं णाम ट्ठाणपाहुडजाणओ उवजुत्तो । णोआगमभावट्ठाणमोदइयादिभेदेण पंचविहं । एत्थ ओदइयभावट्ठाणेण अहियारो, अघादिकम्माणमुदएण तप्पाओग्गेण जोगुप्पत्तीदो । जोगो खओवसमिओ ति के वि भणंति । तं कधं घडदे ? वीरियंतराइयक्खओवसमेण कत्थ वि जोगस्स वनिमुवलक्खिय खओवसमियत्तपदुप्पायणादो घडदे। .
जोगस्स ट्ठाण जोगट्ठाणं, जोगट्ठाणस्स परूवणदा जोगट्ठाणपरूवणदा, तीए
जो अरूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह दो प्रकार है- अभ्यन्तर अरूपी अचित्तद्रव्यस्थान और बाह्य अरूपी अचित्तद्रव्यस्थान। जो अभ्यन्तर अरूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल द्रव्योंके अपने स्वरूपमें अवस्थानके हेतुभूत परिणामों स्वरूप है। जो बाह्य अरूपी अचित्त द्रव्यस्थान है वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय व काल द्रव्यसे अवष्टब्ध आकाशप्रदेशों स्वरूप है। आकाशास्तिकायका बाह्य स्थान नहीं है, क्योंकि, आकाशको स्थान देनेवाले दूसरे द्रव्यका अभाव है । जो मिश्रद्रव्यस्थान है वह लोकाकाश है।
भावस्थान आगम और नोआगम भावस्थानके भेदसे दो प्रकार है । उनमें स्थानप्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावस्थान है। नोआगमभावस्थान औदयिक आदिके भेदसे पांच प्रकार है । यहां औदयिक भावस्थानका अधिकार है, क्योंकि, योगकी उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघातिया कर्मों के उदयसे है।
शंका- योग क्षायोपशामिक है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । वह कैसे घटित होता है ?
समाधान-कहींपर वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे योग की वृद्धिको पाकर चूंकि उसे क्षायोपशमिक प्रतिपादन किया गया है, अतएव वह भी घटित होता है। । योगका स्थान योगस्थान, योगस्थानकी प्ररूपणता योगस्थनप्ररूपणता, उस
, मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'ओढद्धागासपदेसा आगासावगाहिणो', ताप्रतौ ' ओट्ठद्धागासपदेसत्थियस्व णत्थि बाहिरहाणं, आगासावगाहिणो' इति पाठः। २ मप्रतौ ‘वडिमुवलंबिय ' इति पाठः। ३ अ-आकाप्रतिष्ठ 'जोगट्टाणदा' इति पाठः।
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१, २, ४, १७५.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[४३७ जोगट्ठाणपरूवणदाए दस अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । किमत्थमेत्थ जोगट्ठाणपरूवणा कीरदे ? पुग्विल्लम्मि अप्पाबहुगम्मि सव्वजीवसमासाणं जहण्णुक्कस्सजोगट्ठाणाणं थोवबहुत्तं चेव जाणाविदं । केत्तिएहि अविभागपडिच्छेदेहि फदएहि वगग्गणाहि वा जहण्णुक्कस्सजोगट्ठाणाणि होति त्ति ण वुत्तं । जोगट्ठाणाणं छच्चेव अंतराणि अप्पाबहुगम्मिपरूविदाणि । तदो तेसिमण्णत्थ णिरंतरं वड्डी होदि ति णव्वदे । सा च वड्डी सव्वत्थ किमवट्टिदा किमणवहिदा' किं वा वड्डीए पमाणमिदि एदं पि तत्थ ण परूविदं । तदो एदेसिं अपरूविदअत्थाणं परूवणहूँ जोगट्ठायपरूवणा कीरदे । किं जोगो णाम ? जीवपदेसाणं परिप्फंदो संकोच-विकोचभमणसरूवओ। " जीवगमणं जोगो, अजोगिस्म अघादिकम्मक्खएण वुटुं गच्छंतस्स वि सजोगत्तप्पसंगादो । सो च जोगो मण-बचि-कायजोगभेदेण तिविहो । तत्थ बज्झत्थचिंतावावदमणादो समुप्पण्णजीवपदेसपरिप्फंदो मणजोगो णाम । भासावग्गणक्खंधे भासारूवेण परिणामेंतस्स जीवपदेसाणं परिप्पंदो वचिजोगो णाम । वात-पित्त
योगस्थानप्ररूपणतामें दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । . शंका- यहां योगप्ररूपणा किसलिये की जाती है ?
समाधान-पूर्वोक्त अल्पबहुत्वमें सब जीवसमासोंके जघन्य व उत्कृष्ट योगस्थानोंका अल्पबहुत्व ही बतलाया गया है। किन्तु कितने अविभागप्रतिच्छेदों, स्पर्द्धको अथवा वर्गणाओंसे जघन्य व उत्कृष्ट योगस्थान होते हैं, यह वहां नहीं कहा गया है। योगस्थानोंके छह ही अन्तर अल्पब हुत्वमें कहे गये हैं। इससे दूसरी जगह उनके निरन्तर वृद्धि होती है, ऐसा जाना जाता है। परन्तु वह वृद्धि सब जगह क्या अवस्थित होती है या अनवस्थित, तथा वृद्धिका प्रमाण क्या है। यह भी वहां नहीं कहा गया है । इसलिये इन अप्ररूपित अर्थोके प्ररूपणार्थ योगस्थानप्ररूपणा की जाती है।
शंका- योग किसे कहते हैं ?
समाधान-जीवप्रदेशोंका जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिष्पन्दन होता है वह योग कहलाता है । जीवके गमनको योग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अघातिया कौके क्षयसे ऊर्ध्व गमन करनेवाले अयोगकेवलीके सयोगत्वका प्रसंग आवेगा।
वह योग मन, वचन व कायके भेदसे तीन प्रकार है। उनमें बाह्य पदार्थके चिन्तनमें प्रवृत्त हुए मनसे उत्पन्न जीवप्रदेशोंके परिष्यन्दको मनयोग कहते हैं । भाषावर्गणाके स्कन्धोंको भाषा खरूपसे परिणमानेवाले व्यक्ति के जो जीवप्रदेशका परिष्पन्द
, अ-आकाप्रतिषु ' किमवहिदा किं वहिदा', ताप्रती किमवडिदा, किं वहिदा' इति पाठः।
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४३८
छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ४, १७६. सेंभादीहि जणिदपरिस्समेण जादजीवपरिप्फंदो कायजोगो णाम । जदि एवं तो तिण्णं पि जोगाणमक्कमेण वृत्ती पावदि त्ति भणिदे- ण एस दोसो, जदहें जीवपदेसाणं पढमं परिप्फंदो जादो अण्णम्मि जीवपदेसपरिप्फंदसहकारिकारणे जादे वि तस्सेव पहाणत्तदंसणेण तस्स तव्ववएसविरोहाभावादो । तम्हा जोगट्ठाणपरूवणा संबद्धा चेव, णासंबद्धा त्ति सिद्ध । दसण्हमणिओगद्दाराणं णामणिद्देसट्टमुवरिमं सुत्तमा गदं -
__ अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणारे फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठाणपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा समयपरूवणा वढिपरूवणा अप्पाबहुए ति ॥ १७६ ॥
एत्थ दससु अणिओगद्दारेसु अविभागपडिच्छेदपरूवणा चेव किमट्ठ पुव्वं परूविदा ? ण, अणवगएसु अविभागपडिच्छेदेसु उवरिमअधियाराणं परूवणोवायाभावादो। तदणंतरं
होता है वह वचनयोग कहलाता है। वात, पित्त व कफ आदिके द्वारा उत्पन्न परिश्रमसे जो जीवप्रदेशोंका परिष्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है।
शंका- यदि ऐसा है तो तीनों ही योगोंका एक साथ अस्तित्व प्राप्त होता है ?
समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवप्रदेशपरिष्पन्दके अन्य सहकारी कारणके होते हुए भी जिसके लिये जीवप्रदेशोंका प्रथम परिष्पन्द हुआ है उसकी ही प्रधानता देखी जानेसे उसकी उक्त संशा होने में कोई विरोध नहीं है।
इस कारण योगस्थानप्ररूपणा सम्बद्ध ही है, असम्बद्ध नहीं है, यह सिद्ध है। उन दस अनुयोगद्वारोके नामनिर्देशके लिये आगेका सूत्र प्राप्त होता है
__ अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूप गा और अल्पबहुत्व, ये उक्त दस अनुयोगद्वार हैं ॥ १७६ ॥
शंका-- यहां दस अनुयोगद्वारोंमें पहिले अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाका ही निर्देश किसलिये किया गया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, अविभागप्रतिच्छेदोंके अशात होनेपर आगेके अधिकारोंकी प्ररूपणाका कोई अन्य उपाय सम्भव नहीं है।
मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु तस्सव तब्बवएस', ताप्रती तस्सेव तव्ववएस' इति पाठः। १ म-आ-काप्रतिषु ' तं जहा जोग', तापतौ त जहाजोग-' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु ' वग्गपरूपणा ' इति पाठः। ४ अविभाग-बग-फग-अंतर-ठाणं अणंतरोवणिहा । जोगे परंपरा-बुढि-समय-जीवप्पबहुगं च ॥ क.प्र.१,५..
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४, २, ४, १७७.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[४३९ वग्गणपरूवणा किमटुं परूविदा ? ण एस दोसो, अणवगयासु वग्गणासु फद्दयपरूवणाणुववत्तीदो । फद्दएसु अणवगएसु अंतरपरूवणादीणमुवायाभावादो सेसाणियोगद्दारेसु फद्दयपरूवणा पुव्वं चेव कदा । फद्दयबहुत्तणिबंधणअंतरे अणवार बहुफद्दयाहिविदट्ठाणादीणं परूवणोवायाभावादो सेसाणिओगद्दारेहितो पुवमेव अंतरपरूवणा कदा । ठाणेसु अणवगएसु अणंतरोवाणधादीणमवगमोवायाभावादो पुवं ढाणपरूवणा कदा । अणंतरोवणिधाए अणव. गराए परंपरोवणिधावगंतु ण सक्किज्जदि त्ति पुवमणंतरोवणिधा परूविदा । परंपरोवणिधाए अणवगदाए समय-वड्डि-अप्पाबहुगाणमवगमोवायाभावादो परंपरोवणिधा परूविदा । समएम अणवगएसु उवरिमअहियाराणमुत्थाणाभावादो समयपरूवणा पुव्वं परूविदा । वड्डिपरूवणाए अणवगयाए तत्थावट्ठाणकालावगमोवायाभावादो अप्पाबहुवादो पुव्वं वड्डिपरूवणा कदा। एवं परूविदाणं सव्वेसिं थोवबहुत्तजाणावणहमपाबहुगपरूवणा कदा।
अविभागपडिच्छेदपरूवणाए एक्क म्हि जीवपदेसे केवडिया जोगाविभागपडिच्छेदा ? ॥ १७७ ॥
शंका- उसके पश्चात् वर्गणाप्ररूपणाकी प्ररूपणा किसलिये की गई है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वर्गणाओंके अज्ञात होनेपर स्पर्द्धकों. की प्ररूपणा नहीं बन सकती।
___ स्पर्द्धकोंके अज्ञात होनेपर अन्तरप्ररूपणा आदिकोंके जाननेका कोई उपाय न होनेसे शेष अनुयोगद्वारोंमें स्पर्द्धकप्ररूपणा पहिले ही को गई है। स्पर्द्धकबहुत्वके कारणभूत अन्तरके अज्ञात होनेपर बहुत स्पर्द्ध कोंसे अधिष्ठित स्थान आदि अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणाका कोई उपाय न होनेसे शेष अनुयोगद्वारोंसे पहिले ही अन्तरप्ररूपणा की गई है। स्थानोंके अज्ञात होनेपर अनन्तरोपनिधा आदिकोंके जाननेका कोई उपाय न होनेसे पहिले स्थानप्ररूपणा की गई है। अनन्तरोपनिधाके अज्ञात होनेपर परम्परोपनिधाका जानना शक्य नहीं है, अतः उससे पहिले अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा की गई है। परम्परोपनिधाके अज्ञात होनेपर समय, वृद्धि और अल्पबहुत्वके जाननेका कोई उपाय न होनेसे परम्परोपनिधाकी प्ररूपणा की गई है। समयोंके अज्ञात होनेपर आगेके अधिकारोंका उत्थान नहीं बनता, अतएव पहिले समयप्ररूपणा कही गई है। वृद्धिप्ररूपणाके अज्ञात होनेपर वहां अवस्थानकालके जाननेका कोई उपाय नहीं है, अतः अल्पवहुत्वसे पहिले वृद्धिप्ररूपणा की गई है। इस क्रमसे प्ररूपित सब अधिकारोंके अल्पबहुत्वको जतलाने के लिये अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गई है।
अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाके अनुसार एक एक जीवप्रदेशमें कितने योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं १॥१७७॥
प्रतिषु · अंतरोवणिधादीण-' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु 'पदेस' इति पाठः।
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४४० ]
"छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १७८.
एदमासंकासुतं जोगाविभागपडिच्छेद संखाविसयं । एक्केक्कम्हि जीवपदे से जोगाविभागपडिच्छेदा किं संखेज्जा किमसंखेज्जा किमणंता होंति त्ति एत्थ तिविहा आसंका होदि । एदस्स णिण्णयत्थमुत्तरसुत्तमागदं -
असंखेज्जा लोगा जोगाविभागपडिच्छेदा' ॥ १७८ ॥
जोगाविभागपडिच्छेदो णाम किं ? एक्कम्हि जीवपदेसे जोगस्स जा जहणिया वड्डी सो जोगाविभागपडिच्छेदो' । तेण पमाणेण एगजीवपदेसहिदजहण्णजोगे पण्णाए छिज्जमाणे असंखेज्जलागमेत्ता जोगाविभागपडिच्छेदा होंति । ऐगजीवपदेसट्ठिद उक्क सजोगे वि देण पमाणेण छिज्जमाणे असॅखेज्जलेोगमेत्ता चेव अविभागपडिच्छेदा होंति, एगजीवपदसहिदजहण्णजोगादो एगजीवपदे सहिद उक्कस्सजोगस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । एगजीवपदे सहिदजहणजेोगे असंखेज्जलोगेहि खंडिदे तत्थ एगखण्डमविभागपडिच्छेदो णाम ।
यह योगात्रिभागप्रतिच्छेदविषयक आशंकासूत्र है । एक एक जीवप्रदेश में योगाविभागप्रतिच्छेद क्या संख्यात हैं, क्या असंख्यात हैं और क्या अनन्त हैं; इस प्रकार यहां तीन प्रकारकी आशंका होती है । इसके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र प्राप्त हुआ है
एक एक जीवप्रदेशमें असंख्यात लोक प्रमाण योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं ॥। १७८ ॥ शंका- योगाविभागप्रतिच्छेद किसे कहते हैं ?
समाधान
एक जीवप्रदेश में योगकी जो जघन्य वृद्धि है उसे योगाविभागप्रतिच्छेद कहते हैं ।
उस प्रमाणसे एक जीवप्रदेशमें स्थित जघन्य योगको बुद्धिसे छेदनेपर अलंख्यात लोक प्रमाण योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं। एक जीवप्रदेश में स्थित उत्कृष्ट योग को भी इसी प्रमाणसे छेदनेपर असंख्यात लोक प्रमाण ही अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, क्योंकि, एक जीवप्रदेश में स्थित जघन्य योगकी अपेक्षा एक जीवप्रदेश में स्थित उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा पाया जाता है। एक जीवप्रदेश में स्थित जघन्य योगको असंख्यात लोकोंसे खण्डित करनेपर उनमें से एक खण्ड अविभागप्रतिच्छेद कहलाता
-
१ पण्णाडेय छिन्ना लोगासंखेज्जगप्पएससमा । अविभागा एक्के के होंति पएसे जहन्नेणं ॥ क प्र. १, ६. २ कोऽविभागप्रतिच्छेदः ? जीवप्रदेशस्य कर्मादानशक्तौ जघन्यवृद्धिः, योगस्याधिकृतत्त्रात् । गो . क. जी. प्र. २२८. तत्र यस्यांशस्य प्रज्ञाच्छेदनकेन विभागः कर्तुं न शक्यते सोऽशोऽविभाग उच्यते । किमुक्तं भवति ? इह जीवस्य वीर्य केवलिप्रज्ञाच्छेदन केन विद्यमानं विद्यमानं यदा विभागं न प्रयच्छति तदा सोऽन्तिमोऽशोऽविभाग इति । क. प्र. ( मलय. ) ४, ५.
३ तात्रतौ ' होंति । एगजीवपदेसट्ठिदजहण्णजोगो परिणामए पण्णाए ) छिज्जमाणे असंखेज्जलोगमेता जोगाविभागपरिच्छेदा होंति । एग-' इति पाठः ।
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१, २, ४, १७९.} वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[१११ तेण पमाणेण एक्केक्कम्हि जीवपदेसे असंखेज्जलोगमेत्ता जोगाविभागपडिच्छेदा होति ति वुत्तं होदि । जहा कम्मपदेसेसु सगजहण्णगुणस्स अणंतिमभागो अविभागपडिच्छेदसण्णिदो जादो तहा एत्थ वि एगजीवपदेसजहण्णजोगस्स अणंतिमभागो अविभागपडिच्छेदो किण्ण जायदे १ ण एस दोसो, कम्मगुणस्सेव जोगस्स अणंतिमभागवड्डीए अभावादो। जोगे पण्णाए छिज्जमाणे जो असो विभागं ण गच्छदि सो अविभागपडिच्छेदो त्ति के वि भणति । तण्ण घडदे, पुव्वमविभागपडिच्छेदे अणवगए पण्णच्छेदाणुववत्तीदो । उववत्तीए वा कम्मा. विभागपडिच्छेदा इव अणंता जोगाविभागपडिच्छेदा होज्ज । ण च एवं, असंखेज्जा लोगा जोगाविभागपडिच्छेदा इदि सुत्तेण सह विरोहादो। एदेण सुत्तेण वग्गपरूवणा कदा, एगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदाणं वग्गववएसादो ।
एवदिया जोगाविभागपडिच्छेदा ॥ १७९ ॥
एक्केक्कहि जीवपदेसे जोगाविभागपडिच्छेदा असंखेज्जलोगमेत्ता होति त्ति कटु लोगमेत्ते जीवपदेसे ठवेदूण तप्पाओग्गअसंखेज्जलोगेहि गहिदकरणुप्पाइदेहि गुणिदे एवदिया
है। उस प्रमाणले एक एक जीवप्रदेशमें असंख्यात लोक प्रमाण योगाविभागप्रतिच्छन्द होते हैं, यह अभिप्राय है।
__ शंका- जिस प्रकार कर्मप्रदेशोंमें अपने जघन्य गुणके अनन्तवें भागकी अघि भागप्रतिच्छेद संज्ञा होती है उसी प्रकार यहां भी एक जीवप्रदेश सम्बन्धी जघन्य योगके अनन्तवें भागकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा क्यों नहीं होती?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार कर्मगुणके अनन्तभागवृद्धि पायी जाती है वैसे वह यहां सम्भव नहीं है।
- योगको बुद्धिसे छेदनेपर जो अंश विभागको नहीं प्राप्त होता है वह अविभागप्रतिच्छेद है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। वह घटित नहीं होता, क्योंकि, पहिले अविभागप्रतिच्छेदके अज्ञात होनेपर बुद्धिसे छेद करना घटित नहीं होता। अथवा यदि वह घटित होता है, ऐसा स्वीकार किया जाय तो जैसे कर्मके अविभागप्रतिच्छेद अनन्त होते हैं वैसे ही योगके अविभागप्रतिच्छेद भी अनन्त होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर असंख्यात लोक प्रमाण योगके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इस सूत्रसे विरोध होगा। इस सूत्र द्वारा वर्गौकी प्ररूपणा की गई है, क्योंकि, एक जीवप्रदेशके अविभागप्रतिच्छेदोंकी वर्ग यह संज्ञा है। .
एक योगस्थानमें इतने मात्र योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं ॥ १७९॥
एक एक जीवप्रदेशमें योगाविभागप्रतिच्छेद असंख्यात लोक मात्र होते हैं, ऐसा करके लोक मात्र जीवप्रदेशोंको स्थापित कर गृहीत करणके द्वारा उत्पादित तत्प्रायोग्य
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११२]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १८०.. जोगाविभागपडिच्छेदा एक्केक्कम्हि जोगट्ठाणे हवंति । अणुभागट्ठाणं व अणतेहि अविभागपडिच्छेदेहि जोगट्ठाणं ण होदि, किंतु असंखेज्जेहि जोगाविभागपडिच्छेदेहि होति त्ति जाणावियं' । समत्ता अविभागपडिच्छेदपरूवणा ।
वग्गणपरूवणदाए असंखेज्जलोगजोगाविभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा भवदि ॥ १८० ॥)
किमट्ठमेसा वग्गणपरूवणा आगदा ? किं सव्वे जीवपदेसा जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिसा आहों विसरिसा त्ति पुच्छिदे सरिसा अस्थि विसरिसा वि अस्थि त्ति जाणावणटुं वग्गणपरूवणा आगदा । असंखेज्जलोगमेत्तजोगाविभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि त्ति भणिदे जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिसधणियसव्वजीवपदेसाणं जोगाविभागपडिच्छेदासंभवादो असंखेज्जलोगमेत्ताविभागपडिच्छेदपमाणों एया वग्गणा होदि त्ति घेतव्वं । एवं सव्ववग्गणाणं
असंख्यात लोकोंसे गुणित करनेपर इतने मात्र योगाविभागप्रतिच्छेद एक एक योगस्थानमें होते हैं । अनुभागस्थानके समान योगस्थान अनन्त अविभागप्रतिच्छे दोंसे नहीं होता, किन्तु वह असंख्यात योगाविभागप्रतिच्छे दोंसे होता है। यह जतलाया गया है। अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा समाप्त हुई है।
वर्गणाप्ररूपणाके अनुसार असंख्यात लोक मात्र योगाविभागप्रतिच्छेदोंकी एक वर्गणा होती है ॥ १८० ॥
शंका - वर्गणाप्ररूपणाका अवतार किसलिये हुआ है ?
समाधान- क्या सब जीवप्रदेश योगाविभागप्रतिच्छदोंकी अपेक्षा सदृश हैं या विसदृश हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तरमं वे सदृश भी हैं और विसदृश भी हैं ' इस बातके झापनार्थ वर्गणाप्ररूपणाका अवतार हुआ है।
असंख्यात लोक मात्र योगाविभागप्रतिच्छेदोंकी एक वर्गणा होती है, ऐसा कहनेपर योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान धनवाले सब जीवप्रदेशोंके योगाविभागप्रतिच्छेद असम्भव होनेसे असंख्यात लोक मात्र अविभागप्रतिच्छेदोके बराबर एक वर्गणा होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार सब वर्गणाओंमें प्रत्येक
...
१ अ-आ-काप्रतिषु · जाणाविय ' इति पाठः । २ जेसिं पएसाण समा अविभागा सव्वतो य थोवतमा । ते वग्गणा जहन्ना अविभागहिया परंपरओ॥ क. प्र. १, ७. ३ अ-आ काप्रतिषु 'पडि छेदापमाणो' इति पाठः । ...येषां जीवप्रदेशाना समास्तुल्यसंख्या वीर्याविभागा भवन्ति, सर्वतश्च सर्वेभ्योऽपि चान्येभ्योऽपि जीवप्रदेशगतवीर्याविभागेभ्यः स्तोकतमाः, ते जीवप्रदेशा घनीकृतलोकासंख्येयभागवयंसंखेयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रमाणाः समुदिता एका वर्गणा । क. प्र. (मलय.)1. ७.
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४, २, ४, १८१.] वेयंणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे चूलिया [४४३ पत्तेयं पमाणपरूवणं कायव्वं, विसेसाभावादो ।
एवमसंखेज्जाओ वग्गणाओ सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ॥
जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिससव्वजीवपदेसे सव्वे घेत्तूण एगा वग्गणा होदि । पुण्णो अण्णे वि जीवपदेसे जोगाविभागपडिच्छेदेहि अण्णोणं समाणे पुविल्लवग्गणजीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदेहितो अहिए उवरि वुच्चमाणवग्गणाणमेगजीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदेहितो ऊणे घेतूण विदिया वग्गणा होदि । एवमणेण विहाणेण गहिदसम्ववग्गणाओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ । कधमेदं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणं पमाणंतरेण साहिज्जदि, अणवत्थापसंगादो । असंखेज्जपदरमेत्तजीवपदेसेहिमेगा जोगवग्गणा होदि त्ति कधमेदं णव्वदे १ .सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ एगजोगट्ठाणसव्ववग्गणाओ होति त्ति सुत्तादो णव्वदे । तं जहा- सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणसलागासु जदि लोगमेत्तजीवपदेसा लब्भंति तो एगवग्गणाए [केत्तिए ] जीवपदेसे लभामो ति पमाणेण फलगुणिदइच्छाए ओवट्टिदाए असंखेज्जपदरमेत्ता जीवपदेसा एक्केक्किस्से वग्गणाए होति ।
धर्मणाके प्रमाणकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है।
इस प्रकार श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात वर्गणायें होती हैं ॥१८१॥
योगाविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा समान सब जीवप्रदेशोंको ग्रहण कर एक वर्गणा होती है। पनः योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा परस्पर समा
व वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशों के योगाविभागप्रतिच्छदोंसे अधिक, परन्तु आगे कही जानेवाली वर्गणाओंके एक जीवप्रदेश सम्बन्धी योगाविभागप्रतिच्छेदोंसे हीन, ऐसे दूसरे भी जीवप्रदेशको ग्रहण करके दूसरी वर्गणा होती है। इस प्रकार इस विधानले ग्रहण की गई सब वर्गणायें श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - वह इसी सूत्रसे जाना जाता है। किसी एक प्रमाण को दूसरे प्रमाणसे सिद्ध नहीं किया जाता, क्योंकि, इस प्रकारसे अनवस्थाका प्रसंग आता है।
- शंका- असंख्यात प्रतर मात्र जीवप्रदेशोंकी एक योगवर्गणा होती है, यह कैसे जाना जाता है?
समाधान- वह 'एक योगस्थानकी सब वर्गणायें श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं। इस सूत्रसे जाना जाता है । वह इस प्रकारसे-श्रेणिके असंख्यातवे भाग मात्र वर्गणाशलाकाओं में यदि लोक प्रमाण जीवप्रदेश पाये जाते हैं तो एक वर्गणामें कितने जीवप्रदेश पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर भसंण्यात प्रतर प्रमाण जीवप्रदेश एक एक वर्गणामें होते हैं। सब वर्गणा भोकी दीर्घता
20.
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१४४ छक्खंडागमे वैयणाखंडं
४, २, ४, १८१. ण च सव्ववग्गणाणं दीहत्तं समाणं, आदिवग्गणप्पहुडि विसेसहीणसरूवेण अवठ्ठाणादो । कधमेदं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो। एत्थ गुरूवदेसबलेण छहि अणियोगद्दारेहि वग्गणजीवपदेसाणं परूवणा कीरदे । तं जहा- परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागो अप्पाबहुगं चेदि छअणिओगद्दाराणि । तत्थ परूवणा - पढमाए वग्गणाए अस्थि जीवपदेसा । विदियाए वग्गणाए अस्थि जीवपदेसा। एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । परूवणा गदा ।
पमाणं वुच्चदे- पढमाए वग्गणाए जीवपदेसा असंखेज्जपदरमेत्ता । बिदियाए वग्गणाए जीवपदेसा असंखेज्जपदरमेत्ता । एवं णेयव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । पमाण
परूवणा गदा ।
सेडिपरूवणा दुविहा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा उच्चदे । तं जहा-पढमाए वग्गणाए जीवपदेसा बहुवा । बिदियाए वग्गणाए जीवपदेसा विसेसहीणा । को विसेसो ? दोगुणहाणीहि सेडीहि असंखेज्जदिभागमेत्ताहि पढमवग्गणाजीवपदेसेसु खंडिदेसु तत्थ एगखंडमेतो। एवं विसेसहीणा होदूण सव्ववग्गणजीवपदेसा
समान नहीं है, क्योंकि, प्रथम वर्गणाको आदि लेकर आगेकी वर्गणायें विशेष हीन स्वरूपसे अवस्थित हैं।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- वह आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है।
यहां गुरुके उपदेशके बलसे छह अनुयोगद्वारोंसे वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-- प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, ये छह अनुयोगद्वार हैं। उनमें प्ररूपणा- प्रथम वर्गणामें जीवप्रदेश हैं, द्वितीय वर्गणामें जीवप्रदेश हैं, इस प्रकार अन्तिम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई।
प्रमाणका कथन करते हैं-प्रथम वर्गणामें जीवप्रदेश असंख्यात प्रतर मात्र हैं। नितीय वर्गणामें जीवप्रदेश असंख्यात प्रतर मात्र हैं। इस प्रकार अन्तिम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनमें अनन्तरोपनिधाका कथन करते हैं-प्रथम वर्गणामें जीवप्रदेश बहत है। उससे द्वितीय वर्गणामें जीवप्रदेश विशेष हीन हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र दो गुणहानियों द्वारा प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशीको खण्डित करनेपर उनमेंसे वह एक खण्ड प्रमाण है। इस प्रकार अन्तिम वर्गणा तक सब वर्गणाभोंके जीवप्रदेश विशेष हीन होकर जाते हैं। विशेषता इतनी है कि एक एक
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१, २, ४, १८१.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४१५ गच्छंति जाव चरिमवग्गणेत्ति । णवरि गुणहाणिं पडि विसेसो दुगुणहीणो होदूण गच्छदि त्ति घेत्तव्वं, गुणहाणिअद्धाणस्स अवट्टिदत्तादो। - परंपरोवणिधा उच्चदे । तं जहा- पढमवग्गणाए जीवपदेसेहितो तदो सेडीए असंखेज्जदिभाग गंतूण ट्ठिदवग्गणाए जीवपदेसा दुगणहीणा । एवमवट्ठिदमद्धाणं गंतूण अणंतराणंतरं दुगुणहीणा होदण गच्छंति जाव चरिमवग्गणेत्ति । एत्थ तिणि अणियोगदाराणि परूवणा पमाणमप्पाबहुगं चेदि । तत्थ परूवणं वुच्चदे । तं जहा - अत्थि एगजीवपदेसगुणहाणिहाणंतरं गाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि च । परूवणा गदा ।
___एगजीवपदेसगुणहाणिहाणतरं सेडीए असंखेज्जदिभाग।। णाणाजीवपदेसगुणहाणिद्वाणंतरसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । पमाणं गदं ।
___ सव्वत्थोवाओ णाणाजीवपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरसलागाओ। एगजीवपदेसगुहाणिदीहत्तमसंखेज्जगुणं । सेडिपरूवणा गदा ।
__ अवहारो वुच्चदे- पढमाए वग्गणाए जीवपदेसपमाणेण सव्वजीवपदेसा केवचिरेण
गुणहानि के प्रति विशेष दुगुणा हीन होकर जाता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि, गुणहानिअध्वान अवस्थित है।
परम्परोपनिधाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है - प्रथम वर्गणाके जीव. प्रदेशोंकी अपेक्षा उससे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र आगे जाकर स्थित वर्गणामें जीवप्रदेश दुगुणे हीन हैं। इस प्रकार अवस्थित (श्रेणिका असंख्यातवां भाग) अध्वान जाकर अनन्तर अनन्तर वे दुगुणे हीन होकर अन्तिम वर्गणा तक जाते हैं । यहां तीन अनुयोगद्वार हैं -प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । उनमें प्ररूपणा कही जाती है। वह इस प्रकार है- एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर और नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर हैं। प्ररूपणा समाप्त हुई।
एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर श्रेणिके असंख्यातवें भाग है। नानाजीवप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरशलाकायें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
नानाजीवप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरशलाकायें सबसे स्तोक हैं । उनसे एकप्रदेशगुणहानिदीर्घता असंख्यातगुणी है । श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई।
अवहारका कथन करते हैं-प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशोंके प्रमाणसे
........................................"
मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-तातिषु ' असंखेज्जदिमागे' इति पाठः। २ सेटिअसंखियमागं गंतु गंतुं हवंति दुराणाई । पल्लासंखियभागो गाणायणहाणिगणाणि ॥ क. प्र. १, १..
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४४६)
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, १८१. कालेण अवहिरिजंति ? दिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजंति सेडीए संखेज्जदिभागमेत्तकालेण वा । एत्थ दिवड्ढबंधणविहाणं जाणिदूण वत्तव्वं । बिदियाए वग्गणाए जीवपदेसपमाणेण केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जति ? सादिरेयदिवड्वगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जंति । एवं गंतूण बिदियगुणहाणिपढमवग्गणाए जीवपदेसपमाणेण केवचिरेण कालेण अवहिरिजजंति ? तिणिगुणहाणिहाणंतरपमाणेण अवहिरिज्जंति, एगगुणहाणि चडिदो त्ति एगरूवं विरलिय दुगुणिय दिवड्वगुणहाणीओ गुणिदे तिण्णिगुणहाणिसमुपत्तीदो । एदस्सुवरि सादिरेयतिण्णिगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जंति । एवं णेयव्वं जाव बिदियगुणहाणिं चडिदो त्ति । तदो तदियगुणहाणिपढमवग्गणजीवपदेसेहि सव्वपदेसा केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जति ? छग्गुणहाणिकालेण, दोगुणहाणीयो चडिदो ति दोरूवाणि विरलेदूण विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवड्ढगुण हाणीए गुणिदाए छगुणहाणिसमुप्पत्तीदो । पुणो एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एत्थ वग्गण जीवादेसाणं संदिट्ठी एसा ठवेदव्वा। २५६ | २४० | २२४ | २०८ | १९२ | १७६ | १६ | १४४ ।। एवं उवरिमगुण
............
....
सब जीवप्रदेश कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे डेढ़गुणहानिस्थानान्तरकालसे अथवा श्रेणिके संख्यातवें भाग मात्र काल से अपहृत होते हैं। यहां द्वयर्थबन्धनविधानको जानकर कहना चाहिये। द्वितीय वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदशोके प्रमाणसे सब जीवप्रदेश कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे साधिक डेढ़गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होते हैं। इस प्रकार जाकर द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेशोंके प्रमाणसे वे कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणले वे तीन गुणहानिस्थानान्तर प्रमाण कालसे अपहृत होते हैं, क्योंकि, एक गुणहानि गया है, अतः एक रूपका विरलन करके दुगुणा कर उससे डेढ़ गुणहानियोको गणित करनेपर तीन गुणहानियोकी उत्पत्ति है। इसके आगे वे साधिक तीन गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होते है। इस प्रकार द्वितीय गुणहानि जाने तक ले जाना चाहिये। तत्पश्चात् तृतीय गुणहानिकी प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशोंसे सब प्रदेशं कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे छह गुणहानिकालसे अपहृत होते हैं, क्योंकि, दो गुणहानियां गया है अतः दो रूपोंका विरलन करके दुगुणा करके उनकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे डेढ़गुणहानियोको गुणित करनेपर छह गुणहानियां उत्पन्न होती हैं। आगे अन्तिम वर्गणा तक इसी प्रकारसे ले जाना चाहिये। यहां वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेशोंकी संदृष्टि इस प्रकार स्थापित करना चाहिये-प्र. व.२५६, दि.व. २४०, तृ. व. २२४, च. व. २०८, पं. व. १९२, ष. व. १७६, स. व. १६०, अ.व. १४४।
.ताप्रती 'त्य (0) गुणहाणि ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १८१. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४४७
हाणीओ विट्ठवियं गेदिव्वा । एदेसु सव्वजीवपदेसेसु पढमवग्गणजीवपदेसपमाणेण कदेसु दिवडुगुणहाणिमेत्ता होंति । तेसिं पमाणमेदं | ३६६ | | पुणे सव्वदव्वपमाणमेदं ३१०० | | सेसस्स उवसंहारभंगो | अधवा पढमवग्गणजीव पदे सपमाणेण सव्ववग्गणजीव पदेसा केवचिरेण काले अवहिरिज्जति ? दिवढगुणहाणिट्ठाणंतरेण । बिंदियाएं वग्गणाए जीवपदेसप्रमाणेण सव्वजीवपदेसा केवचिरेण कालेन अवद्दिरिज्जंति ? सादिरेयदिवड्ढगुणहाणिट्ठाणंतरेण अवहिरिज्जति । तं जहा दिवड गुणहाणिं विरलिय सव्वदव्वं समखंडं काढूण दिण्णे रूवं पडि पढमणिसेयमाणं पावदि । पुणो एदस्स हेट्ठा णिसेगभागहारं विरलिय पढमणिसेगप्रमाणं समखंडं काढूण दिण्गे एक्केक्कस्स रूवस्स एगेगविसेसपमाणं पावदि । एदमुवरिमपढमणिसेगविक्खंभ-दिवड्डुगुणहाणिआयदखेत्तं अवणिय पुध वेदव्वं
| एसा अव
णिदफाली गोवुच्छविसेसविक्खंभा णिसेय भागहारस्स तिण्णि-चदुभागायदा बिदियणिसेयपमाणेण कीरमाणा एगबिंदियणिसेयपमाणं होदि, गुणहाणिअद्धरूवूणमेत्तगोवुच्छविसेसाणमभावादो । तेत्तिसुं संतेसु भागहारम्मि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि । णं च
इस प्रकार उपरिम गुणहानियों को भी स्थापित करके ग्रहण करना चाहिये । इन सब जीवप्रदेशको प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशों के प्रमाणसे करनेपर वे डेढ़ गुणहानि प्रमाण होते हैं । उनका प्रमाण यह है - ३१०० ÷ २५६ = १२४ | सर्व द्रव्यका प्रमाण यह है -- ३१०० । शेषका उपसंहारभंग है ।
अथवा, प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशों के प्रमाणसे सब वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेश कितने का उसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाण से वे द्वद्यर्धगुणहानिस्थानान्तर कालसे अपहृत होते हैं । द्वितीय वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशों के प्रमाणसे सब जीवप्रदेश कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणले वे साधिक द्रयर्धगुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होते हैं । यथा- डेढ़ गुणहानिका विरलन करके सर्व द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इसके नीचे निषेकभागहार का विरलन करके प्रथम निषेकके प्रमाणको समखण्ड करके देनेपर एक एक रूपके प्रति एक एक विशेषका प्रमाण प्राप्त होता है । उपरिम प्रथम निषेक प्रमाण विस्तृत और डेढ़ गुणहानि आयत इस क्षेत्रको अलग करके पृथक् स्थापित करना चाहिये । गोपुच्छविशेष प्रमाण विस्तृत और निषेक भागहारके तीन चतुर्थ भाग मात्र आयत इस अपनीत फालिको द्वितीय निषेकके प्रमाणसे करनेपर वह एक द्वितीय निषेक प्रमाण होती है, क्योंकि, उसमें गुणहानिके अर्ध भागमेंसे एक कम करनेपर जो लब्ध हो उतने गोपुच्छविशेषोंका अभाव है। उतने मात्र होनेपर भागद्वार में एक प्रक्षेप
१ आ-ताप्रध्योः ' गुणहाणीओ ठविय', मप्रतौ ' गुणहाणीओ विरलिय ' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु 'जेत्तिएस ' इति पाठः ।
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४४८ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १८१.
एत्तियमत्थि । तेण किंचूणच दुब्भागेणूणएगरूवे दिवङगुणहाणीए पक्खित्ते बिदियणिसेगभागहारो होदि । तदियवग्गणपमाणेण सव्ववग्गणजीवपदेसा केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जंति ? सादिरेयदिव डुगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जति । तं जहा -- पुव्विल्लखेत्तम्हि णिसेयविसेसविक्खंभ-दिवड्ढ गुणहाणिआयद दो फालीसु अवणिदासु अवणिदसेसं तदियणिसेगविक्खंभ-दिवड्डगुणहाणिआयदं होदूण चेट्ठदि । पुणो अवणिददोफालीसु तप्पमाणेण कदासुं सादिरेय एगरूवं पक्खेवो होदि । एवं जाणिय वत्तव्वं । एवं यव्वं जाव चरिमगुणहाणिचरिमवगणेत्ति । एवं भागहारपरूवणा समत्ता ।
भागाभागो वुच्चदे – पढमाए वग्गणाए जीवपदेसा सव्ववग्गणजीवपदे साणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । बिदियाए वग्गणाए जीवपदेसा सव्ववग्गणजीवपदेसाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । एवं दव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एवं भागाभागपरूवणा समत्ता ।
अप्पाबहुगं उच्चदे - सव्वत्थोवा चरिमाए वग्गणाए जीवपदेसा । पढमाए वग्ग
शलाका पायी जाती है । परन्तु इतना है नहीं, इसलिये कुछ कम चतुर्थ भागसे हीन एक अंकको डेढ़ गुणहानिमें मिलानेपर द्वितीय निषेकका भागहार होता है ।
तृतीय वर्गणाके प्रमाणसे सब वर्गणाओं के जीवप्रदेश कितने कालसे अपहृत होते हैं । उक्त प्रमाणसे वे साधिक द्वयर्धगुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होते हैं । यथा- पूर्व क्षेत्रमेंसे निषेकविशेष प्रमाण वितृत और डेढ़ गुणहानि आयत दो फालियोंको अलग कर देने पर शेष क्षेत्र तृतीय निषेक प्रमाण विस्तृत और डेढ़ गुणहानि आयत होकर स्थित रहता है । फिर घटाई हुई दो फालियोंको उसके प्रमाणसे करनेपर साधिक एक रूप प्रक्षेप होता है। इस प्रकार जान करके कहना चाहिये। इस प्रकार चरम गुणहानिकी चरम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार भागद्दारप्ररूपणा समाप्त हुई ।
भागाभाग कहा जाता है :- प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेश सब वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेशोंके कितनेवें भाग प्रमाण हैं ? वे सब वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागमात्र हैं । द्वितीय वर्गणा के जीवप्रदेश सब वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेशों के कितने भाग प्रमाण हैं ? उक्त प्रदेश उनके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। इस प्रकार चरम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार भागाभागप्ररूपणा समाप्त हुई ।
अल्पबहुत्व कहा जाता है- चरम वर्गणा के जीवप्रदेश सबसे स्तोक हैं। उनसे
१ अ आ-काप्रतिषु ' कलासु इति पाठः ।
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४, २, ४, १८१.]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४४९
fe जीवपदेसा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? णाणागुणहाणि सलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णन्भत्थरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो [वा ] गुणगारो । अपढम - अचरिमासु वग्गणासु जीवपदेसा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? किंचूणदिवड्ढगुणहाणीओ गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो वा । अपढमासु वग्गणासु जीवपदेसा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तण ? चरिमवग्गणाए ऊणपढमवग्गणमेत्तेण । सव्वासु वग्गणासु जीवपदेसा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? चरिमवग्गणमेत्तेण । अप्पा बहुगपरूवणा गदा ।
एवमसंखेज्जपदरमेत्तजीवपदेसे घेत्तूण एगा जोगवग्गणा होदि त्ति सिद्धं । एवं साधिदएगेगवग्गणाजीवपदेसेसु असंखेज्जलो गमेत्तेहि अप्पप्पणो जोगाविभागपडिच्छेदे हि गुणिदेसु एगेगवग्गणजोगाविभागपडिच्छेदा होंति । पढमवग्गणाए अविभागपडि च्छेदेहिंतो बिदियवग्गणअविभागपडिच्छेदा विसेसहीणा । केत्तियमेत्तेण ? पढमवग्गणाएगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदे णिसेगविसेसेण गुणिय पुणो तत्थ विदियगोवुच्छाए अवणिदाए जं सेसं तेत्तियमेत्तेण । बिदियवग्गणाविभागपडिच्छेहिंतो तदियवग्गणअविभागपाडच्छेदा विसेसहीणा ।
प्रथम वर्गणा के जीवप्रदेश असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर द्विगुणा करके परस्पर गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उतना गुणकार है, अथवा पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उनसे अप्रथम व अचरम वर्गणाओं में जीवप्रदेश असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार कुछ कम डेढ़ गुणहानियां अथवा श्रेणिका असंख्यातवां भाग है । उनसे अप्रथम वर्गणाओं में जीवप्रदेश विशेष अधिक हैं । कितने मात्र विशेषसे वे अधिक हैं ? चरम वर्गणासे हीन प्रथम वर्गणा मात्र से वे अधिक हैं। उनसे सब वर्गणाओं में जीवप्रदेश विशेष अधिक हैं। कितने मात्र विशेषसे वे अधिक हैं ? चरम वर्गणा मात्र से वे अधिक हैं अल्पबहुत्वप्ररूपणा समाप्त हुई ।
इस प्रकार असंख्यात प्रतर मात्र जीवप्रदेशोंको ग्रहण कर एक योगवर्गणा होती है, यह सिद्ध हो गया । इस प्रकार सिद्ध किये गये एक एक वर्गणाके जीवप्रदेशोंको असंख्यात लोक प्रमाण अपने योगाविभागप्रतिच्छेदोंसे गुणित करनेपर एक एक वर्गणाके योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं ।
प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे द्वितीय वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद विशेष हीन हैं । कितने मात्र विशेषसे वे हीन हैं ? प्रथम वर्गणा सम्बन्धी एक जीवप्रदेशके अविभागप्रतिच्छेदोंको निषेकविशेषसे गुणित कर फिर उसमेंसे द्वितीय गोपुच्छको कम करनेपर जो शेष रहे उतने मात्र से वे विशेष अधिक हैं । द्वितीय वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे तृतीय वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद ७. वे. ५७.
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१५०]
छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, २, ४, १८१. केत्तियमेत्तेण १ पिदियवग्गणएगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदे एगगोवुच्छविसेसेण गुणिय पुणो. तत्थ तदियगोवुच्छमवणिदे संते जं सेसं तत्तियमेत्तेण । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव पढमफहयचरिमवग्गणेत्ति । पुणो पढमफद्दयचरिमवग्गणाविभागपडिच्छेदेहितो बिदियफद्दयआदिवग्गणाए: जोगाविभागपडिच्छेदा किंचूणदुगुणमेत्ता । एत्थ कारणं चिंतिय वत्तव्यं । विदियफद्दयाम्म हेट्ठिमणतरादीदजोगपडिच्छेदेहितो उवरिमणंतरवग्गणाए जोगाविभागपडिच्छेदा विसेसहीणा । एवं गंतूण विदियफद्दयचरिमवग्गणाविभागपडिच्छेदेहितो तदियफहयपढमवग्गणाए अविभागपडिच्छेदा किंचूणदुभागब्भहिया । एवं उरि पि जाणिदण णेदव्वं। णवरि फद्दयाणमादिवग्गणाविभागपडिच्छेदा अणतरहेट्ठिमवग्गणाविभागपडिच्छेदेहितो तिभागभहिय-पंचभागब्भहियसरूवेण गच्छंति त्ति घेत्तव्वं ।।
संपहि एत्थ एगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदाणं वग्गो त्ति सण्णा, समाणजोगसव्वजीवपदेसाविभागपडिच्छेदाणं च वग्गणो त्ति सण्णा सिद्धा। ण च एत्थ सरिसधणियसव्वजीवपदेससमूहो चेव वग्गणा होदि त्ति एयंतो। किंतु दवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे एगो वि
तुता
विशेष हीन हैं । कितने मात्र विशेषसे वे हीन हैं ? द्वितीय वर्गणा सम्बन्धी एक जीवप्रदेशके अविभागप्रतिच्छेदोंको एक गोपुच्छविशेषसे गुणित कर फिर उनमैसे
। गोपुच्छको कम करनेपर जो शेष रहे उतने मात्रसे वे विशेष हीन है। इस प्रकार जानकर प्रथम स्पर्धककी चरम वर्गणा तक ले जाना चाहिये। पुनः प्रथम स्पर्धककी चरम वर्गणा सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंसे द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके योगाविभागप्रतिच्छेद कुछ कम दुगुणे मात्र हैं। यहां कारण विचार कर कहना चाहिये । द्वितीय स्पर्धकमें नीचेकी अव्यवहित अतीत वर्गणाके योगाविभागप्रतिच्छेदोंसे उपरिम अव्यवहित वर्गणाके योगाविभागप्रतिच्छेद विशेष हीन हैं । इस प्रकार जाकर द्वितीय स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंसे तृतीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद कुछ कम द्वितीय भागसे अधिक हैं । इस प्रकार ऊपर भी. जानकर ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि स्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद उससे अव्यवहित अधस्तन वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे तृतीय भाग अधिक व पंचम भाग अधिक स्वरूपसे जाते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
अब यहां एक जीवप्रदेशके अविभागप्रतिच्छेदोंकी वर्ग यह संज्ञा, तथा समान योगवाले सब जीवप्रदेशोंके योगाविभागप्रतिच्छेदोंकी वर्गणा यह संज्ञा सिद्ध है । समान पनघाले सब. जीवप्रदेशोंका समूह ही वर्गणा हो, ऐसा यहां एकान्त नहीं है। किन्तु द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर एक भी जीवप्रदेश वर्गणा होता है,
अ-काप्रत्योः 'तिमागबंधिय' इति पाठः। २ अ-का-ताप्रतिषु पडिल्छेदाणं वग्गणा' इति पादः।
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४, २, ४, १८१.]
बेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४५१
जीवपदेसो वग्गणा होदि, जोगाविभागपडिच्छेदेद्दि समाणासेसजीवपदेसाणमेत्थेव अंतभावादो । किंतु सुत्ते एवं ण वुत्तं । पज्जवट्टियणयमवलंबिय सुत्ते किमहं देखणा कदा ? ओकड्डुक्कड्डणाहि हाणि वडीओ जोगस्स होंति त्ति जाणावण कदा | असंखेज्जलोगाविभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि त्ति सुत्ते परूविदं सामण्णेण । तेण एदम्हादो सरिसधणियणाणाजीवपदेसे घेत्तूण एगा वग्गणा होदि त्ति ण णव्वदि' त्ति वृत्ते बुच्चदे - एदेण सुतेण एगोलीए सरिसधणाए चेव वग्गणा त्ति परुविदं, अण्णहा अविभागपडिच्छेदपरूवण-वग्गणपरूवणाणं विसेसाभावप्पसंगादो वग्गणाणमसंखेज्जपदरमे तं परूवणत्तप्पसंगादो च । किं च कसायपाहुडपच्छिमक्खंधसुत्तादो च णव्वदे जहा सरिसघणिय सव्वजीव देसा वग्गणा होदिति । किं तं सुत्तं ? चउत्थसमएँ लोगं पूरेदि । लोगे पुण्णे एगा वग्गणा जोगस्सेर्त्ति । लोगमेत्तजीवपदेसाणं लोगे पुण्णे समजोगो होदित्ति वृत्तं होदि । एवं वग्गणपरूवणा समत्ता ।
सब जीवप्रदेशका इसमें ही
क्योंकि, योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान अन्तर्भाव हो जाता है । किन्तु सूत्रमें इस प्रकार कहा नहीं है । शंका - पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करके सूत्र में किसलिये देशना की गई है ? समाधान - अपकर्षण- उत्कर्षण द्वारा योग के हानि और वृद्धि होती है, इस बातको जतलाने के लिये सूत्र में पर्यायार्थिकनयका आलम्बन करके उक्त देशना की गई है । शंका --- असंख्यात लोक प्रमाण अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है, ऐसा सूत्रमै सामान्यसे प्ररूपणा की गई है । इसलिये इससे समान धनवाले नाना जीवप्रदेशों को ग्रहण कर एक वर्गणा होती है, ऐसा नहीं जाना जाता है ? समाधान ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि इस सूत्र द्वारा समान धनवाली एक पंक्तिको ही वर्गणा ऐसा कहा गया है, क्योंकि, इसके विना अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा और वर्गणाप्ररूपणामें कोई विशेषता न रहनेका प्रसंग तथा वर्गणाओंके असंख्यात प्रतर मात्र प्ररूपणाका भी प्रसंग आता है। दूसरे, कषायप्राभृतके पश्चिमस्कन्ध अधिकारके सूत्र से भी जाना जाता है कि समान धनवाले सब जीवप्रदेश वर्गणा होते हैं ।
शंका- वह सूत्र कौनसा है ?
-
समाधान - ' चतुर्थ समय में लोकको पूर्ण करता है । लोकके पूर्ण होनेपर योगकी एक वर्गणा रहती है ' । लोक मात्र जीवप्रदेशोंके लोकपूरणसमुद्घात होनेपर समयोग होता है, यह अभिप्राय है ।
इस प्रकार वर्गणाप्ररूपणा समाप्त हुई ।
१ अ-आ-काप्रतिषु 'सि णव्वदि ' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' - पदमत्त ' इति पाठः । ३ साप्रतौ ' 'चउत्थं समए' इति पाठः । ४ तदो उत्समए लोगं पूरेदि । लोगे पुण्णे एक्का नग्गणा जोगस्सेचि समजोगो हि गायत्रो । जयध. ( पू. सु. ) अ. प. ११३९.
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४५२]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १८२. (फद्दयपरूवणाए असंखेज्जाओ वग्गणाओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेचीयो तमेगं फद्दयं होदि ॥ १८२ ॥
संखेज्जवग्गणाहि एगं फद्दयं ण होदि त्ति जाणावणट्ठमसंखेज्जाओ वग्गणाओ त्ति णिद्दिटुं। पलिदोवम-सागरोवमादिपमाणवग्गणाहि एगं फद्दयं ण होदि त्ति जाणावणटुं सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि त्ति भाणदं । (फद्दयमिदि किं वुत्तं होदि ? क्रमवृद्धिः क्रमहानिश्च यत्र विद्यते तत्स्पर्द्धकम् । को एत्थ कमो णाम ? सग-सगजहण्णवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगेगाविभागपडिच्छेदवुड्डी, वुक्कस्सवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगेगाविभागपडिच्छेदहाणी च कमो णाम । दुप्पहुडीणं वड्डी हाणी च अक्कमो ।) पढमफद्दयपढमवग्गणाए एगवग्गअविभागपडिच्छेदेहितो बिदियवग्गणाए एग
स्पर्धकारूपणाके अनुसार श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात वर्गणायें हैं उनका एक स्पर्धक होता है ॥ १८२ ॥
संख्यात वर्गणाओंसे एक स्पर्धक नहीं होता है, इस बातको जतलाने के लिये सूत्र में 'असंख्यात वर्गणायें' ऐसा निर्देश किया है। पल्योपम व सागरोपम आदिके बराबर वर्गणाओंसे एक स्पर्धक नहीं होता, इस बात के ज्ञापनार्थ 'श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र वर्गणाओंसे एक स्पर्धक होता है, ऐसा कहा है।
शंका- स्पर्धकसे क्या अभिप्राय है ? समाधान- जिसमें क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है वह स्पर्धक कहलाता है। शंका- यहां 'क्रम' का अर्थ क्या है ?
समाधान- अपने अपने जघन्य वर्गके अविभागप्रतिच्छेदोंसे एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि और उत्कृष्ट वर्गके अविभागप्रतिच्छेदोंसे एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी जो हानि होती है उसे क्रम कहते हैं । दो व तीन आदि अविभागप्रतिच्छेदोंकी हानि व वृद्धिका नाम 3
प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंसे द्वितीय वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद एक अविभागप्रतिच्छेदसे आधिक
१ ताप्रतौ ' क्रमवृद्धि निश्च ' इति पाठः । २ स्पर्धन्त इवोत्तरोत्तरवृद्धथा वर्गणा अत्रेति स्पर्धकम् । क. प्र. (मलय.) 1,6. ३मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'सग-सगजहण्णवग्गाविभागपडिग्छेदवुड्डी वुक्कस्सबग्गाविभागपडिच्छेदहाणी च कमो णाम' इति पाठः।
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१, २, ४, १८२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया (४५३ वग्गाविभागपडिच्छेदा रूवुत्तरा । विदियादो तदियवग्गो अविभागपडिच्छेदुत्तरो। तदियादो चउत्थो वि अविभागपडिच्छेदुत्तरो। एवं णेयव्वं जाव चरिमवग्गणाएगवग्गअविभागपडिच्छेदो त्ति । तदो उवीर णियमा कमवडिवोच्छेदो । एवं सव्वफद्दयाणं परूवेदव्यो । जदि एवं घेप्पदि तो एगवग्गोलीए चेव फद्दयत्तं पसज्जदे, तत्थेव कमवड्डि-कमहाणीणं दंसणादो। ण च एवं, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि फद्दयाणि अहोदूर्ण असंखेज्जपदरमेत्तफद्दयप्पसंगादो, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणाहि एगं फद्दयं होदि ति सुत्तेण सह विरोहप्पसंगादो चै । तम्हा णेदं घडदि त्ति वुत्ते वुच्चदे - एगवग्गोलिं घेत्तूण ण एगं फद्दयं होदि । किंतु सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ वग्गणाओ घेत्तूण एग फद्दयं होदि, असंखेज्जाहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि त्ति सुत्ते उवदित्तादो। एवं घेप्पमाणे कमवड्डि-कमहाणीओ फिट्टति त्ति णासंकणिज्ज, एगवग्गोलीए दव्वट्ठियणयावलंबणेण सगंतोखित्तासेसवग्गाए कमवडि.
हैं । द्वितीय वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रातच्छेदोंसे तृतीय वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद एक अविभागप्रतिच्छेदसे अधिक हैं। तृतीय वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंसे चतुर्थ वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद एक अविभागप्रतिच्छेदसे अधिक है। इस प्रकार अन्तिम वर्गणाके एक वर्ग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों तक ले जाना चाहिये । इसके आगे नियमसे क्रमवृद्धिका व्युच्छेद हो जाता है । इसी प्रकार सब स्पर्धकोंके कहना चाहिये।।
शंका- यदि इस प्रकार ग्रहण करते हैं तो एक वर्गपंक्तिके ही स्पर्धक होनेका प्रसंग आवेगा, क्योंकि, उसमें ही क्रमवृद्धि और क्रमहानि देखी जाती है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र स्पर्धक न होकर असंख्यात जगप्रतर प्रमाण स्पर्धोंके होने का प्रसंग आवेगा, तथा 'थेणिके असंख्यातवें भाग मात्र वर्गणाओंसे एक स्पर्धक होता है' इस सूत्रके साथ विरोध होनेका भी प्रसंग आवेगा। इस कारण यह घटित नहीं होता?
समाधान- इस शंकाका उत्तर देते हैं कि एक वर्गपंक्तिको ग्रहण कर एक स्पर्धक नहीं होता है, किन्तु श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र वर्गणाओंको ग्रहण कर एक स्पर्धक होता है; क्योंकि, असंख्यात वर्गणाओंसे एक स्पर्धक होता है, ऐसा सूत्रमें उपदेश किया गया है। इस प्रकार ग्रहण करनेपर क्रमवृद्धि और महानि नष्ट होती है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे अपने भीतर समस्त वर्गणाओंको रखनेवाली एक वर्गपंक्ति सम्बन्धी क्रमवृद्धि व क्रम
१ आप्रतौ ' चरिमवग्गणाए एग-' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'आहोदूण', ताप्रती 'आ (अ) होदूण', मप्रतौ ' आहेदूण ' इति पाठः। ३ अ-आ-का-ताप्रतिषु 'च' इत्येतत्पदं नास्ति, मप्रतौ त्वस्ति तत् । ४ अ-आ-काप्रतिषु । फद्दया' इति पाठः।
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७५४ १
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १८३. कमहाणीहि दिसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणाहि एग फद्दयं होदि त्ति वक्खाणादो । अहवा ' अवयवेषु प्रवृत्ताः शब्दाः समुदायेष्वपि वर्त्तन्ते ' इति न्यायात् स्पर्द्धकलक्षणोपलक्षितत्वात्प्राप्तस्पर्द्धकव्यपदेशवर्ग पंक्तितोऽभेदात्समुदायस्यापि स्पर्द्धकत्वं न विघटते । अहवा पंचवण्णसमणियस्स कागस्स जहा कसणं गुणं पडुच्च कसणो कागो त्ति वुच्चदे तहा फद्दयं वग्गणाविभागपडिच्छेदे पडुच्च कमवड्डिविरद्दिदं पि वग्गाविभागपडिच्छेदे अस्सिदूण कमवड्डिसमणिमिदि वुच्चदे |
एवमसंखेज्जाणि फहयाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ संखेज्जेहि फद्दएहि जोगट्ठाणं ण होदि, असंखेज्जेहि चेव फदएहि होदित्ति जाणावण असंखेज्जणिद्देसो कद| | सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि त्ति वयणेण पलिदोवमसागरोवमादीनं पडिसेहो कदो | सव्वेसिं फहयाणं वग्गणाओ सरिसाओ, अण्णहा फद्दयंतराणं सरिसत्ताणुववत्तदो । एवं फद्दयपरूवणा समत्ता ।
हानि स्वरूपसे स्थित श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र वर्गणाओंके द्वारा एक स्पर्धक होता है, ऐसा व्याख्यान है । अथवा, अवयवों में प्रवृत्त हुए शब्द समुदायों में भी प्रवृत्त होते हैं, इस न्याय से स्पर्धकलक्षणसे उपलक्षित होने के करण स्पर्धक संज्ञाको प्राप्त हुई वर्गपंक्तिले अभिन्न होनेके कारण समुदायके भी स्पर्धकपना नष्ट नहीं होता । अथवा, जिस प्रकार पांच वर्ण युक्त काकको कृष्ण गुणकी अपेक्षा करके 'कृष्ण काक ' ऐसा कहा जाता है, उसी प्रकार वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा क्रमवृद्धि से रहित भी स्पर्धक वर्गके अविभागप्रतिच्छेदों का आश्रय करके क्रमवृद्धि युक्त है, अतः उसे स्पर्धक कहा जाता है |
इस प्रकार एक योगस्थानमें श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात स्पर्धक होते हैं ॥ १८३ ॥
संख्यात स्पर्धकोंसे योगस्थान नहीं होता है, किन्तु असंख्यात स्पर्धकोंसे ही होता है; इस बातके ज्ञापनार्थ असंख्यात पदका निर्देश किया है । ' श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र ' इस वचनसे पल्योपम व सागरोपम आदिकों का निषेध किया गया है । सब स्पर्धकोंकी वर्गणायें सदृश होती हैं, क्योंकि, इसके विना स्पर्धक के अन्तरोंकी समानता घटित नहीं होती। इस प्रकार स्पर्धकप्ररूपणा समाप्त हुई ।
·
१ अ-का-ताप्रतिषु' - लक्षितत्वतस्प्राप्त', आप्रतौ ' लक्षितत्वात्तत्प्राप्त- ' इति पाठः २ प्रतिषु पंक्तितो मेदात् ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'सणिदमिदि ' पाठः । ४ अ आ-काप्रतिषु ' संखेब्जाहि ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १८४.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४५५
अंतरपरूवणदाए एक्केक्कस्स फद्दयस्स केवडियमंतरं ? असंखेज्जा लोगा अंतरं' ॥ १८४ ॥
किमट्ठमंतरपरूवणा कीरदे ? पढमफदयस्सुवरि पढमफदए चेव वड्डिदे बिदियफयं होदि त्ति जाणावणहूँ । पढमफद्दओ चेव वड्ढदि त्ति कधं णव्वदे ? पढमफद्दयपढमवग्गणाए एगवग्गादो बिदियफद्दयपढमवग्गणाए एगवग्गो दुगुणो चेव होदि त्ति गुरूवएसादो । पढम-बिदियफयाणं विक्खंभा सरिसा । बिदियफद्दयआयामादो पुण पढमफद्दयआयामो विसेसाहिओ। तम्हा पढमफद्दयस्सुवरि पढमफद्दए चेव वड्डिदे बिदियफद्दयं होदि त्ति ण घडदे । सरिसधणियं मोत्तूण जदि वि एगोली चव फयमिदि घेप्पदि तो वि पढमफद्दयस्सुवरि पढमफदए चेव वड्डिदे बिदियफद्दयं ण उप्पज्जदि, कमवड्डीए अभावण फद्दयाभावप्पसंगादो त्ति ? ण एस दोसो, बिदियफयाम्म जेत्तिया वग्गा
अन्तरप्ररूपणाके अनुसार एक एक स्पर्धकका कितना अन्तर होता है ? असंख्यात लोक प्रमाण अन्तर होता है ॥ १८४ ॥
शंका- अन्तरप्ररूपणा किसलिये की जाती है ?
समाधान-प्रथम स्पर्धकके ऊपर प्रथम स्पर्धकके ही बढ़ जानेपर द्वितीय स्पर्धक होता है, इस बात के ज्ञापनार्थ अन्तरप्ररूपणा की जाती है।
शंका-प्रथम स्पर्धकके ऊपर प्रथम स्पर्धक ही बढ़ता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सम्बन्धी एक वर्गसे द्वितीय स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गणाका एक वर्ग दुगुणा ही होता है, इस प्रकारके गुरुके उपदेशसे वहा जाना जाता है।
शंका-प्रथम और द्वितीय स्पर्धकका विष्कम्भ सदृश है। परन्तु द्वितीय स्पर्धकके आयामसे प्रथम स्पर्धकका आयाम विशेष अधिक है । इसीलिये प्रथम स्पर्धकके ऊपर प्रथम स्पर्धकके ही बढ़ जानेपर द्वितीय स्पर्धक होता है, यह घटित नहीं होता । समान धनवालेको छोड़कर यद्यपि एक वर्गपंक्ति ही स्पर्धक है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो भी प्रथम स्पर्धकके ऊपर प्रथम स्पर्धकके ही बढ़नेपर द्वितीय स्पर्धक नहीं उत्पन्न होता; क्योंकि, वैसा होनेपर क्रमवृद्धिका अभाव होनेसे स्पर्धकके अभावका प्रसंग आता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्वितीय स्पर्धककी सब वर्गणाओं.
१ सेटिअसंखियमिचा फडगमेत्तो अणंतरा नस्थि । जाव असंखा लोगा तो बीयाई य पुव्वसमा ॥ क. प्र.१,५. ..-आ-काप्रतिषु वडीए', तापतौ ' वदिए ' इति पाठः।
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४५६ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १८५. सव्वासु वग्गणासु अत्थि तेत्तियमेत्तवग्गेसु पढमफद्दयवग्गपमाणेसु ' एकदेशविकृतावनन्यवत्' इति' न्यायात् दव्वट्ठियणएण वा पढमफद्दयसणिदेसु एत्तियमेतेसु चेव पढमफद्दय आदिवग्गे पुव्विल्लणारण लद्धपढमफद्दयववएसेसु पक्खित्तेसु चिदियफद्दयसमुप्पत्तीदो । असंखेज्जा लोगा फद्दयंतरमिदि वुत्तं, तत्थ जदि पढमफद्दय चरिमवगणाए बिदियफद्दयआदिवग्गणाए च अंतरं फदयंतरमिदि घेप्पदि तो पढमफद्दय आदिवग्गणाए एगत्रग्गाविभागपडिच्छेदा फद्दयवग्गणसलागूणा अंतरं होदि । अह पढमफद्दयचरिमवग्गस्स बिदियफद्दय चरिमवग्गस्स च अंतरं जदि फद्दयंतरमिदि घेप्पदि तो पढमफद्दय आदिवग्गाविभागपडिच्छेदा रूवूणा फद्दयंतरं होदि । एवमसंखेज्जा लोगांतरपमाणं ।
एवदियमंतरं ॥ १८५ ॥
एत्थ चैव सद्दो अज्झाहारयव्वो, एवदियं चेव अंतरं होदि ति । तेण सिद्धं सव्वफद्दयंतराणं सरिसत्तं । एत्थ दव्वट्ठियणयावलंबणाए एगवग्गस्स सरिसत्तणेण सगंतो -
में जितने वर्ग हैं प्रथम स्पर्धकके
वर्गों के
60
बराबर उतने मात्र वर्गों की एक देश विकृति होनेपर भी वह अनन्य ( अभिन्न ) के समान ही रहता है " इस न्याय से अथवा द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा ' प्रथम स्पर्धक संज्ञा है, उनमें पूर्वोक्त न्याय से, C प्रथम स्पर्धक संज्ञाको प्राप्त हुए इतने मात्र ही प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी आदि वर्गों के मिलाने पर द्वितीय स्पर्धक उत्पन्न होता है ।
स्पर्धकोंका अन्तर असंख्यात लोक मात्र है, ऐसा सूत्र में कहा गया है । वहां यदि प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा और द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा अन्तरको स्पर्धकों का अन्तर ग्रहण करते हैं तो स्पर्धककी जितनी वर्गणाशालाकायें हैं उतने से कम प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके एक वर्ग सम्धन्धी अविभागप्रतिच्छेद प्रमाण अन्तर होता है । अथवा, प्रथम स्पर्धक के अन्तिम वर्ग और द्वितीय स्पर्धक के अन्तिम वर्ग के अन्तरको यदि स्पर्धकोंका अन्तर ग्रहण किया जाता है तो एक कम प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गके अविभागप्रतिच्छेद मात्र स्पर्धकोंका अन्तर होता है । इस प्रकार अन्तरका प्रमाण असंख्यात लोक है ।
स्पर्धकोंके बीच इतना अन्तर होता है ।। १८५ ॥
यहां 'चेव ' शब्दका अध्याहार करना चाहिये, इसलिये ' इतना ही अन्तर होता है ' ऐसा सूत्रका अर्थ हो जाता है । इसीलिये समस्त स्पर्धकोंके अन्तरोंके समानता सिद्ध होती है । यहां द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बन से समानता होनेके कारण सदृश
' आमतौ ' विकृर्तवनन्यमिति', ताप्रतौ ' विकृतमनन्यवदिति ' इति पाठः ।
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४, २, ४, १८५ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[१५७ क्खित्तसरिसधणियस्स वग्गणसण्णं काऊण एगोलीए फद्दयसण्णं काऊण णिक्खेवाइरियपरूविदगाहाणमत्थं भणिस्सामो । तं जहा-एत्थ ताव एसा संदिट्ठी ठवेदव्वा
१
।
| १९ ।२७।०३५ ० १८० | २६ | ०३४।०
४२।०५० ४१.४९
| ०४८।०
५
.
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४
.
८८८८०
पढमिच्छसलागगुणा तत्थादीवग्गणा चरिमसुद्धा ।
सेसेण चरिमहीणा सेसेगूणं तमागासं ॥ २० ॥ सव्वफद्दयाणमादिवग्गणाओ फद्दयंतराणि च जाणावणट्ठमेसा गाहा परूविदा । संपहि एदिस्से गाहाए अत्थो बुच्चदे। तं जहा-- 'पढमिच्छेसलागगुणा तत्थादी वग्गणा' पढमा आदिवग्गणेत्ति वुत्तं होदि । इच्छसलागाओ णाम इच्छिदफद्दयसंखा, तीए आदिवग्गणं गुणिदे तत्थ आदिवग्गणा होदि । पढमफद्दयस्स आदिवग्गणा
धनवालोंको अपने भीतर रखनेवाले एक वर्गकी वर्गणा संक्षा व एक वर्गपंक्तिकी स्पर्धक संज्ञा करके निक्षेपाचार्य द्वारा कही गई गाथाओंका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- पहिले यहां इस संदृष्टिको स्थापित करना चाहिये ( मूलमें देखिये)।
प्रथम स्पर्धककी आदिम वर्गणाको अभीष्ट स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर वहांकी आदिम वर्गणाका प्रमाण होता है । इसमेंसे पिछले स्पर्धककी चरम वर्गणाको कम करनेपर जो शेष रहे उतनी चूंकि अगले स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे पिछले
धेककी अन्तिम वगेणा हीन है, अतः उस शेष मेसे एक कम करनेपर अवशेष आकाश अर्थात् स्पर्धकोंके अन्तरका प्रमाण होता है ॥२०॥
सब स्पर्धकोंकी आदिम वर्गणाओंको और स्पर्धकोंके अन्तरोंको बतलानेके लिये इस गाथाकी प्ररूपणा की गई है। अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- यहां 'पढम' से अभिप्राय प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे है । इच्छित शलाकाओंसे अभिप्राय अभीष्ट स्पर्धकसंख्यासे है। उस संख्यासे आदिम वर्गणाको गुणित करनेपर वहांकी आदिम वर्गणाका प्रमाण होता है । उदाहरणार्थ-प्रथम
। अ-आ-काप्रतिषु 'पदमिछ.', ताप्रती 'पद (द) मिच्छ-' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'पदमिछ-', ताप्रती 'पद (ट) मिच्छ-' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'तीदाए'इति पाठः।
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४५८]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं [१, २, ४, १८५. अट्ठ, तं दोहि रूवेहि गुणिदे बिदियफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि |१६|| 'चरिमसुद्धा' पढमफद्दयस्स चरिमवग्गणं | ११ | एत्थ सोहिदे जं सेसं तेण सेसेण 'चरिमहीणा' चरिमवग्गणा बिदियफद्दयस्स पढमवग्गणादो हीणा होदि । एवं होदि त्ति कटु एदम्हि सेसे एगणे कदे तमागासं होदि, तस्स फद्दयस्स आगासमंतरं तमागासं, फद्दयंतरं होदि ति वुत्तं होदि | ४ ।। संपहि पढमफद्दयआदिवग्गणाए इच्छसलागाहि तीहि गुणिदाए तदियफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि | २४ । पुणो एत्थ चरिमसुद्धा त्ति वुत्ते बिदियफद्दयस्स चरिमवग्गणा | १९ | सोहेयव्वा । सुद्धसेसं ! ५ । एदेण सेसेण चरिमवग्गणा हीणा कटु तत्थ एगूणे कदे तमागासं तं फद्दयंतरं होदि | ४) । एवमुवीरं पि जाणिदूण वत्तव्वं ।
(जत्थिच्छसि सेसाणं आदीदो आदिवग्गणं णादु ।
जत्तो तत्थ सहेढें पढमादि अणंतरं जाणे ॥ २१ ॥) अणंतरहेट्ठिमफद्दयआदिवग्गणादो अणंतरं उवरिमफद्दयस्स आदिवग्गणपरूवणट्ठमिमा
स्पर्धककी आदिम वर्गणाका प्रमाण आठ है, उसको अभीष्ट स्पर्धककी संख्या रूप दो (२) अंकोंसे गुणित करनेपर द्वितीय स्पर्धककी आदिम वर्गणा (१६) होती है। 'चरिमसुद्धा' अर्थात् इसमेंसे प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा (११) को कम करने पर जो (१६-११= ५) शेष रहे उतनी प्रथम स्पर्धककी चरम वर्गणा द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे हीन होती है। इस प्रकार है, ऐसा समझकर इस शेषमेंसे एक कम करनेपर वह आकाश होता है। 'तस्स आगासं तमागासं' इस विग्रहके अनुसार तस्स अर्थात् विवक्षित स्पर्धकका आकाश अर्थात् अन्तर (४) होता है, यह उसका अभिप्राय है।
अब प्रथम स्पर्धककी आदिम वर्गणाको इच्छित तृतीय स्पर्धककी तीन शलाकाओंसे गुणा करनेपर तृतीय स्पर्धककी आदिम वर्गणा (२४) होती है। फिर इसमेंसे 'चरिमसुद्धा' पदके अनुसार द्वितीय स्पर्धककी चरम वर्गणा (१९) को कम करना चाहिये। इस प्रकार घटानेसे जो शेष (५) रहता है उतनी इस शेषसे चंकि चरम वगेणा हीन है, अतः उसमसे एक कम करने पर वह आकाश अर्थात स्पर्धकका अन्तर (४) होता है। इस प्रकार आगे भी जानकर कहना चाहिये।
जहां जहां जिस स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे शेष स्पर्धकोंकी आदि वर्गणा जानना अभीष्ट हो वहां वहां पिछले स्पर्धककी वर्गणाको प्रथम वर्गणा सहित करनेपर अनन्तर स्पधेककी प्रथम वगेणा होती है॥ २१॥
अनन्तर पूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाले अनन्तर उपरिम स्पर्धककी प्रथम
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, प्रतिषु ' साहेयव्वा' इति पाठः। २ प्रतिषु 'सहेतुं' इति पाठः ।
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४, २, ४, १८५] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे चूलिया [४५९ गाहा आगदा । जत्थिच्छसि' त्ति वुत्ते जत्थ जत्थ इच्छसि त्ति वुत्तं होदि । जत्तो आदिफद्दयादिवग्गणादो सेसाणं फद्दयाणमादिवग्गणं णादुं तत्थ 'सहे' सहिदो कायव्वा पढमादिफद्दयस्स आदिवग्गणा । एवं कदे अणंतरमुवरिमं जं फद्दयं तस्स आदिवग्गणा होदि । एदस्स उदाहरणं- बिदियफद्दयस्स आदिवग्गणाए पढमफद्दयस्स आदिवग्गणाए पक्खित्ताए तदियफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि |२४|| तत्थ पुणो वि पढमफद्दयआदिवग्गणाए पक्खित्ताए चउत्थफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । एवं णेयव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति ।
बिदियादिवग्गणा पुण जावदिरूवेहि होदि संगुणिदा।
तावदिमफद्दयस्स दु जुम्मस्स स वग्गणा होदि ॥ २२ ॥ बिदियफद्दयस्स आदिवग्गणादो सेससव्वजुम्मफद्दयाणमादिवग्गणाओ जाणावणहेदुमेसा गाहा आगदा । 'बिदियादिवग्गणा' बिदियफद्दयस्स आदिवग्गणा त्ति वुत्तं होदि । 'जावदिरूवेहि होदि संगुणिदा' जेत्तिएहि रूवेहि गुणिदा होदि, तावदिमजुम्मफद्दयस्स
वर्गणाके प्ररूपणार्थ यह गाथा आई है। 'जत्थिच्छसि ' ऐसा कहनेपर 'जहां जहां अभीष्ट हो' यह अर्थ होता है । — जत्तो' अर्थात् जिस किसी भी स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे शेष स्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणाको जाननेके लिये अपनेसे नीचे के स्पर्धककी प्रथम वर्गणाको प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे सहित करना चाहिये [ अभिप्राय यह है कि विवक्षित स्पर्धकसे पूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणामें प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाको मिलाने पर आगेके स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका प्रमाण होता है ]। इसका उदाहरण-द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गगामें प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाको मिलानेपर तृतीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है (१६ + ८ = २४ ) । उसमें फिरसे भी प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके मिलानेपर चतुर्थ स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है। इस प्रकार अन्तिम वर्गणा तक ले जाना चाहिये ।
द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाको जितने अंकोसे गुणित किया जाता है उतने युग्म स्पर्धककी वह प्रथम वर्गणा होती है ॥ २२ ॥ __. द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे शेष सब युग्म स्पर्धककी आदिम वर्गणाओंके ज्ञापनार्थ यह गाथा आई है। 'बिदियादिवग्गणा' का अर्थ द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणा है। 'जावदिरूवेहि होदि संगुणिदा' अर्थात् जितने अंकोंसे वह गुणित की जाती है, तावदिमजुम्मफद्दयस्स' अर्थात् उतनेवे युग्म स्पर्धककी प्रथम वर्गणा
१ अ-आ-काप्रतिषु 'अस्थिच्छसि ' इति पाठः। २ प्रतिषु ' सहे, सहिदा' इति पाठः। ३ तातो 'एदस्स उदाहरणं ...... तदियफदयस्स आदिवग्गणा होदि'इस्येतावानयं पाठस्त्रुटितो जातः।
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१६.]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं . [४, २, ४, १८५. आदिवग्गणा जायदे । तं जहा- बिदियफद्दयस्स आदिवग्गणा | १६ | दोहि गुणिदा | ३२ | ब्रिदियजुम्मफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । सा चेव तीहि गुणिदा | ४८ | तदियजुम्मफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । एवं जाणिदूण पदव्वं जाव चरिमजुम्मफयो त्ति ।
दो-दोरूवक्खेवं धुवरूवे' कार्दुमादिमं गुणिदं ।
पक्खेबसलागसमाणे ओजे आदि धुवं मोत्तुं ॥ २३ ॥ आदिफद्दयस्स आदिवग्गणादो सेसओजफद्दयाणमादिवग्गणाओ जाणावणहमेसा गाहा आगदा । धुवरूवमेगं, तत्थ धुवरूवे दो-दोरूवपक्खेवं काहूँ किच्चा आदिवग्गणाए पढमफद्दयस्स आदिवग्गणं पदुप्पादए इदि वुत्तं होदि । एवं गुणिदे ओजफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । सा वुप्पण्णओजफद्दयस्स आदिवग्गणा कइत्थस्स ओजफद्दयस्सेत्ति वुत्ते युच्चदे- 'पक्खेवसलागसमाणे' पक्खेवसलागसहिदे धुवरूवे आदि हेट्ठिमओजफद्दयपमाणं
होती है। यथा- द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणा (१६) को दोसे गुणित करनेपर द्वितीय युग्म स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है (१६ x २ = ३२)। उसीको तीनसे गुणित करनेपर तृतीय युग्म स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है (१६४ ३ = ४८)। इस प्रकार जानकर चरम युग्म स्पर्धक तक ले जाना चाहिये।
ध्रुव रूपमें दो दो अंकोंका प्रक्षेप करके उससे प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतना प्रक्षेपशलाकाओंसे युक्त ध्रुव रूप में से पिछले ओज स्पर्धकोंके प्रमाणको नियमसे घटानेपर जो शेष रहे उतनेवें ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका प्रमाण होता है ॥ २३ ॥
प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे शेष ओज स्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणाओंके ज्ञापनार्थ यह गाथा आई है। ध्रुव रूपसे अभिप्राय एक अंकका है, उस एक अंकमें दो-दो अंको का प्रक्षेप करके उससे आदि वगेणा अथात् प्रथम स्वघेककी प्रथम वर्गणाको गुणित करे । इस प्रकार गुणा करनेपर ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है।
शंका- वह उत्पन्न हुई ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणा कितनेवे ओज स्पर्धककी होती है ?
समाधान-ऐसी शंका करनेपर उत्तर देते हैं कि 'प्रक्षेपशलाका समान अर्थात् प्रक्षेपशलाकाओंसे युक्त ध्रुव अंकमें आदि अर्थात् पिछले ओज स्पर्धकके
१ प्रतिषु 'रूवं ' इति पाठः। २ का-तापत्योः 'कादि' इति पाठः। ३ आ-कापत्योः 'गुण', मातोगुणए' इति पाठः। ४ ताप्रती खेव' इति पाठः। ५ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'आदिवग्गणात फायफदयस्स', काप्रतौ ' आदिवग्गणाए फहयं फहयस्स', ताप्रतौ 'आदिवग्गणाए फद्दयस्स' इति पाः।
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१, २, ४, १८५.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४६१ 'धुवं मोत्तुं' णिच्छएण मुच्चा सोहिए त्ति जं वुत्तं होदि । सुद्धसेसमेत्ते 'ओजे' ओजफदए आदिवग्गणा होदि । भावत्थो- एक्कम्हि दोरूवे पक्खिविय पढमफद्दयादिवग्गणाए गुणिदाए बिदियओजफद्दयआदिवग्गणा होदि | २४ । कइत्यमेदं फद्दयमिदि वुत्ते पक्खेवसलागसहिदे धुवरूवे । ३ | आदि | १ | एदं 'मोत्तुं' णिच्छएण अवणिदे सेसं दोण्णि होंति | २|| बिदियस्स ओजफद्दयस्स आदिवग्गणा जादा त्ति सिद्धं । पुणो पुविल्लतिण्णं रूवाणमुवरि दोरूवेसु पक्खित्तेसु पंच होति |५|एदेहि आदिवग्गणं गुणिदे पंचमफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । ओजफद्दएसु कइत्थमेदमोजफद्दयमिदि वुत्ते वुच्चदे- एत्थ हेट्ठिमपुवमाणिय दृविददोओजफद्दयसलागाओ ति आदी होदि । एदासु पंचसु अवणिदासु सेसं तिण्णि होति, तदियस्स ओजफद्दयस्स आदिवग्गणा एसा त्ति तेण सिद्धं । पुणो पंचसु रुवेसु दोरूवपक्खेवे कदे सत्तै होति । एदेहि पढमफद्दयआदिवग्गणाए गुणिदाए सत्तमफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । तत्थ तिण्णिआदिमवणिदे सेसं चत्तारि होति, तदित्थओजफद्दयस्स
प्रमाणको 'धुवं मोत्तुं' अर्थात् निश्चयसे घटा देनेपर जो शेष रहे उतने मात्र ओज स्पर्धककी वह आदि वर्गणा होती है। भावार्थ- एकमें दो अंकोंको मिलाकर उससे प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाको गुणित करनेपर द्वितीय ओज स्पर्घककी प्रथम वर्गणा होती है [८४(२+१)=२४] ।
शंका- यह कितनेवां ओज स्पर्धक है ?
समाधान - ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि प्रक्षेपशलाका सहित ध्रुव अंक (२+ १ = ३) मेंसे आदिका प्रमाण जो एक (१) है इसको निश्चयसे घटा देनेपर शेष दो (२) रहते हैं, अतः वह द्वितीय ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है, यह सिद्ध है।
फिर पूर्वोक्त तीन अंकोंके ऊपर दो अंकोंके मिलानेपर पांच (५) होते हैं। इनसे प्रथम वर्गणाको गुणित करनेपर पांचवें स्पर्धककी आदि वर्गणा होती है। ओज स्पर्धकोंमें यह कौनसा ओज स्पर्धक है, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि यहां अधस्तन पूर्वके ओज स्पर्धकोंको लाकर स्थापित दो ओजस्पर्धकशलाकायें 'आदि' होती हैं। इनको पांचमेंसे घटा देनेपर शेष तीन रहते हैं, अतः वह तृतीय ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणा है, यह सिद्ध है।
फिर पांच अंकोंमें दो अंकोंका प्रक्षेप करनेपर सात होते हैं । इनसे प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाको गुणित करनेपर सातवें स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है। उसमें से 'आदि' स्वरूप तीनको घटानेपर शेष चार रहते हैं, अत एव वह चतुर्थ
, आप्रतौ ' कहत्तमेदं ' इति पाठः। २ प्रतिषु 'ओजफद्दयआदिवग्गणा' इति पाठः। ३ अप्रतौ कदे मंते सह' इति पाठः। ४ ताप्रती सत्तफहयस्स' इति पाठः।
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४६२]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, १८५. आदिवग्गणा सा होदि । एवं जाणिदण परूवणा कायन्ना जाव सिस्सो णिरोरेगो जादो ति।
विसमगुणादेगूणं दलिदे जुम्मम्मि तत्थ फद्दयाणि'।
ते चैव रूवसहिदा ओजे उभओ वि सव्वाणि ॥ २४ ॥ णिरुद्धओजफद्दयादो हेहिमओज-जुम्मफद्दयाणं पमाणपरूवणहमेसा गाहा आगदा। तं जहा-विसमगुणादो ओजफद्दयगुणगारादो त्ति वुत्तं होदि । 'एगणं' एगं अवणिय दलिदे हेट्ठिमजुम्मफद्दयाणि होति । तत्थ रूवे पक्खित्ते ओजफद्दयाणि । दोसु वि मेलाविदेसु सव्वफद्दयपमाणं होदि । एत्थ उदाहरणं-तिणि ठविय | ३ | एगूणं करिय दलिदे जुम्मफद्दयं होदि | १ || पुणो एत्थ रूवे पक्खित्ते ओजफद्दयाणि होति | २ || पुणो दोसु वि एक्कदो कदेसु सव्वफद्दयाणि होति | ३|| पुणो पंच द्रुविय |५| एगूणं करिय दलिदे जुम्मफद्दयाणि होति |२|| पुणो एत्थ एगरूवं पक्खित्ते ओजफद्दयाणि होति |३|| दोसु वि एक्कदो कदेसु सव्वफद्दयाणि होति | ५|। एवमुवरि जाणिदूण णेदव्वं जाव चरिमओजफद्दएत्ति । एवं फद्दयंतरपरूवणा समत्ता ।
ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है। इस प्रकार जानकर शिष्यके शंका रहित होने तक प्ररूपणा करना चाहिये।
विषमगुण अर्थात् ओज स्पर्धकके गुणकारमेंसे एक कम करके आधा करनेपर वहां युग्म स्पर्धकोंका प्रमाण आता है। उनमें ही एक अंकके मिला देनेपर ओज स्पर्धकोंका प्रमाण हो जाता है। उक्त दोनों स्पर्धकोंके प्रमाणको जोड़नेसे समस्त स्पर्धकोंकी संख्या प्राप्त होती है ॥ २४ ॥
विवक्षित ओज स्पर्धकसे पिछले ओज और युग्म स्पर्धकोंके प्रमाणको बतलाने के लिये यह गाथा आई है। यथा- विषमगुणसे अर्थात् ओज स्पर्धकगुणकारमेंसे एकोन अर्थात् एक कम करके आधा करनेपर अधस्तन युग्म स्पर्धकका प्रमाण होता है। उसमें एक अंकके मिलानेपर ओज स्पर्धकोंका प्रमाण होता है। उन दोनों को मिला देनेपर समस्त स्पर्धकोंका प्रमाण होता है । यहां उदाहरण- विवक्षित द्वितीय ओज स्पर्धकके गुणकार रूप तीन (३) संख्याको स्थापित कर उसमेंसे एक कम करके आधा करनेपर युग्म स्पर्धक होता है (३:- १)। फिर इसमें एक अंकको मिलानेपर ओज स्पर्धकोंका प्रमाण होता है (१+१=२)। इन दोनोंको इकट्ठा कर देने पर समस्त स्पर्धकोंका प्रमाण हो जाता है (१+२% ३)।
फिर पांच (५) को स्थापित कर उसमेंसे एक कम करके आधा करनेपर युग्म स्पर्धक होते हैं (५.१ = २)। इनमें एक अंकके मिला देनेसे ओज स्पर्धकोंका प्रमाण हो जाता है (२+१=३)। दोनोंको इकट्ठा कर देनेपर समस्त स्पर्धकोंका प्रमाण हो जाता है (२+३=५)। इस प्रकार आगे भी जानकर अन्तिम ओज स्पर्धक तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार स्पर्धकोंकी अन्तरप्ररूपणा समाप्त हुई।
१ ताप्रती 'महाणि' इति पाठः । २ अप्रतौ — ओजे चओ', आ-का-ताप्रतिषु ' उचओ' इति पाठः।
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१, २, ४, १८६. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४६३
ठाणपरूवणदाए असंखज्जाणि फद्दयाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि, तमेगं जहण्णयं जोगट्ठाणं भवदि' ॥ १८६ ॥
1
सव्वेसिं जीवाणं जोगो किमेयवियप्पो चेव आहो अणेयवियप्पो त्ति पुच्छिदे एयवियोण होदि, अणेयवियप्पो त्ति जाणावणङ्कं ठाणपरूवणा आगदा । तत्थ' असं - खेज्जाणि फद्दयाणि घेत्तूण जहण्णजोगट्ठाणं होदित्ति वयणेण संखेज्जाणंत फद्दयाणं डिसेहो को । सेडीए असंखेज्जदिभागवयणेण पलिदोवम- सागरोवमादिफद्दयाणं पडिसेहो कदो | संपहि जहण्णद्वाणस्स वग्गणाणमविभागपडिच्छेद परूवणाए परूवणा पमाणमप्पाबहुगमिदि तिण्णि अणियोगद्दाराणि भवंति । तं जहा - पढमाए वग्गणाए अस्थि अविभागपडिच्छेदा । बिदियाए वग्गणाए अस्थि अविभागपडिच्छेद । । एवं यव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । परूवणा गदा ।
पढमाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा केत्तिया ? असंखेज्जलोगमेत्ता । बिदियवग्गणाए वि असंखेज्जलेोगमेत्ता । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । संपहि एत्थ पढम
स्थानप्ररूपणा के अनुसार श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात स्पर्धक हैं उनका एक जघन्य योगस्थान होता है ॥ १८६॥
सब जीवोंका योग क्या एक भेद रूप ही है या अनेक भेदरूप है, ऐसा पूछने पर उत्तर में कहते हैं कि वह एक भेद रूप नहीं है, किन्तु अनेक भेद रूप है; इस बात के ज्ञापनार्थ स्थानप्ररूपणा का अवतार हुआ है । वहां असंख्यात स्पर्धकोंको ग्रहण करके एक जघन्य योगस्थान होता है, इस कथन से संख्यात व अनन्त स्पर्ध कोका प्रतिषेध किया गया है । 'श्रेणिके असंख्यातवें भाग' इस वचनसे पल्योपम व सागरोपम आदि प्रमाण स्पर्धकों का प्रतिषेध किया गया है ।
अब जघन्य स्थान सम्बन्धी वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेदों की प्ररूपणा में प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार हैं । वे इस प्रकार हैं- प्रथम वर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद हैं । द्वितीय वर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद हैं । इस प्रकार अन्तिम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई ।
प्रथम वर्गणा में कितने अविभागप्रतिच्छेद हैं ? असंख्यात लोक मात्र हैं । द्वितीय वर्गणा में भी वे असंख्यात लोक मात्र हैं । इस प्रकार अन्तिम वर्षणा तक ले जाना चाहिये। अब यहां प्रथम स्पर्धकके प्रमाणानुगम को करेंगे । वह इस प्रकार
१ पलासं खेज्जदिमा गुणहाणिसला हवंति इगिठाणे । गुणहाणिफयाओ असंखभागं तु सेढीये ॥ गो. क. २२४. सेटिअसंखि अमेत्तारं फड्डगाई जहन्नयं द्वाणं | फड्डगपरिवुड्ढअओ अंगुलभागो असंखतमो ॥ क. प्र. १, ९. २ अप्रतौ ' तत्थ ' इत्येतत्पदं 'फद्दयाणि ' इत्यतः पश्चादुपलभ्यते । ३ ताप्रती ' बिदियाए वग्गणाए अस्थि अविभागपडि छेदा ' इत्येतद् वाक्यं स्खलितं जातम् ।
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४६४ ]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, १८६. फद्दयपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा- जहण्णफद्दयस्स आदिवग्गणायाममादिवग्गणवग्गेण गुणिय पुणो एगफद्दयवग्गणसलागाहिं चदुगुणेगगुणहाणिफद्दयसलागभागहीणाहि गुणिदे आदिफद्दयमागच्छदि । तं जहा- पढमफद्दयस्स आदिवग्गणायामे आदिवग्गेण गुणिदे पढमफद्दयआदिवग्गणा होदि । पुणो पढमवग्गणादो बिदियादिवग्गणाओ विसेसहीणाओ । केत्तियमेत्तेण १ सग-सगहेट्ठिमवग्गणायामेणूणगोवुच्छविसेसगुणिदसर्ग-सगवग्गमेत्तेण । [तेण] कारणेण पुव्वमाणिदपढमवग्गणाए एगफद्दयवग्गणसलागाहि गुणिदाए सादिरेयफद्दयमागच्छदि । केत्तियमेत्तेण सादिरेगं ? जहण्णवग्गगुणिदवग्गणविसेसादिउत्तररूवूणवग्गणसलागगच्छसंकलणाए। एदमवणिय पुणो एत्थ बिदियणिसेगादि उत्तररूवूणवग्गणसलागसंकलणाए गोवुच्छविसेससादिउत्तरदुरूवूणवग्गणसलागगच्छदुगुणसंकलणासंकलणूणियाए पक्खित्ताए जहण्णफद्दयमागच्छदि । एवं सव्वफद्दयाणं पमाणमाणेयव्वं जाव चरिमगुणहाणिचरिमफद्दएत्ति । एत्थ ताव पढमगुणहाणिफयाणं जोगाविभागपडिच्छेदमेलावणविहाणं वत्तइस्सामो । तं जहा- जहण्णफद्दयादिउत्तरगुणहाणिफद्दयसलागाणं
है- जघन्य स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके आयामको प्रथम वर्गणाके वर्गले गुणित कर फिर उसे एक स्पर्धककी जितनी वर्गणाशलाकायें हैं उनमेंसे एक गुणहानिकी चौगुणी स्पर्धकशलाकाओंको कम कर देनेपर जितनी शेष रहे उनसे गुणित करने पर प्रथम स्पर्धकका प्रमाण आता है। वह इस प्रकारसे-प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके आयामको प्रथम वर्गसे गुणित करनेपर प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है। आगे प्रथम वर्गणासे द्वितीयादिक वर्गणायें विशेष हीन हैं। कितने मात्रसे अपनी अपनी अधस्तन वर्गणाके आयामसे रहित गोपुच्छविशेषसे गुणित अपने अपने वौका जितना प्रमाण हो उतने मात्रसे वे हीन हैं । इस कारण पूर्वमें लायी हुई प्रथम वर्गणाको एक स्पर्धककी वर्गणाशलाकाओंसे गुणित करनेपर साधिक स्पर्धकका प्रमाण आता है। कितने मात्रसे साधिक? जघन्य वर्गसे गुणित वर्गणाविशेषादि उत्तर एक कम वर्गणाशलाकाओंकी गच्छसंकलनासे वह साधिक है। इसको कम करके फिर इसमें गोपुच्छविशेषादि उत्तर दो रूपोंसे कम वर्गणाशलाकाओंके गच्छकी दुगुणी संकलना. संकलनासे हीन ऐसी द्वितीय निषेकादि उत्तर एक कम वर्गणाशलाकाओंकी संकलनाको मिला देनेपर जघन्य स्पर्धकका प्रमाण आता है। इस प्रकार अन्तिम गुणहानिके अन्तिम स्पर्धक तक सब स्पर्धकोंके प्रमाणको ले आना चाहिये।
___ यहां पहले प्रथम गुणहानिके स्पर्धकोंके योगाविभागप्रतिच्छेदोंके मिलानेके विधानको कहते हैं। वह इस प्रकार है- जघन्य स्पर्धकसे लेकर आगेकी गुणहानि
.......................
१ प्रतिषु 'गुणिदे दवय ' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' गोवुच्छाणिदविसेससग-' इति पाठः ।
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४, २, ४, १८६ ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४६५
गच्छसंकलणार आणिदाए एत्तियं होदि ० १६ ८ ४ | ९९|| पुणो एत्थ अहियाविभागपडिच्छेदाणमवणणं' वुच्चदे | १६ २ तं जहा - जहण्णवग्गगुणएगवग्गणविसेसादि उत्तररूवूर्ण फेद्दद्यवग्गणसला गगच्छसंकलणाँ पढमफद्दयम्मि अवणिज्जमाणजोगाविभागपडिच्छेदा होंति । तेसिं पमाणमेदं | ८ | १६ | ३ | ४ बिदियफद्दयम्मि ऊणपमाणाणयणं वुच्चदे । तं जहा एगफद्दयवग्गणवग्गमेत्तवग्गणैविसेसेहि दोजहण्णवग्गे गुणिय पुध द्वविदे एत्तियं होदि
'। पुणो
२
सलाग
पुणो एगवग्गणविसेसादिउत्तररूवूणफद्दयवग्गण सलागगच्छसंकलणमेत्त- ८/२/१६/४४ ||
विसेसेहि दोजहण्णवग्गे गुणिय पुध वेदव्वं । तस्स पमाणमेदं पुव्विल्लरासिस्स पस्से एदं पि वेदव्वं । बियिफद्दयमि अवणिज्जमाणअविभागपडिच्छेदा होंति ।
सम्बन्धी स्पर्धकशलाकाओंकी गच्छसंकलनाके लानेपर वह इतनी होती है ( मूलमें देखिये ) । अब यहां अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंके अपनयनका विधान कहा जाता है । वह इस प्रकार है - जघन्य वर्गसे गुणित एक वर्गणाविशेषादि-उत्तर रूप कम स्पर्धक वर्गणाशलाका स्वरूप गच्छके संकलन प्रमाण प्रथम स्पर्धकमें कम किये जानेवाले योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं । उनका प्रमाण यह है ( मूल में देखिये) ।
अब द्वितीय स्पर्धक में कम किये जानेवाले योगाविभागप्रतिच्छेदों के प्रमाणके लाने का विधान कहा जाता है । यथा - एक स्पर्धककी वर्गणाशलाकाओंके वर्ग मात्र वर्गणाविशेषोंसे दो जघन्य वर्गीको गुणित करके पृथक् स्थापित करनेपर इतना होता है ( मूलमें देखिये ) । अब एक वर्गणाविशेषादि उत्तर एक कम स्पर्धककी वर्गणाशलाका रूप गच्छ की संकलनाका जितना प्रमाण हो उतने मात्र विशेषोंसे दो जघन्य वर्गीको गुणित करके पृथकू स्थापित करना चाहिये । उसका प्रमाण यह है ( मूल में देखिये ) । पूर्व राशिके पास में इसको भी स्थापित करना चाहिये । द्वितीय स्पर्धकमें कम किये जानेवाले अविभांगप्रतिच्छेद होते हैं ।
||२||२||
3
,
१६
३
४ ताप्रतौ
||||||
३ ४
१ प्रतिषु ' माणयणं ' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु ' उत्तरूवूण' इति पाठः । ३ ताप्रतौ ' संकलण ' इति पाठः। ४ जघन्यवर्गगुणैक विशेषाद्युत्तररूपो ने कस्पर्धक वर्गणाशला कगच्छ संकलनं प्रथम स्पर्धकऋणं भवति । गो. क. ( जी. प्र. ) २२९. ५ अप्रतौ | ८ | १६ आ-काप्रत्योः | १६ | ३ | ४४ | एवंविधात्र संदृष्टिरस्ति । ६ अप्रतौ ' सलागमेत्तवग्गण ' इति पाठः । ७ ताप्रती | ८ |२ २ | विधात्र संदृष्टिः । एवं - ८ इदानीं द्वितीय स्पर्धकऋणमानीयते - जघन्यवर्गगुणितविशेषा- | १६ ३४ द्युत्तररूपोन स्पर्धक वर्गणाशला का गच्छसंकलनं······आनीय द्विगुणितं व त्रि ३ । ३ । २ पुनः जघन्यवर्ग- मात्रविशेषः एक स्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण रूपोनस्पर्धकसंख्या ३ गच्छसंकलनेन ३ । १ द्विगुणेन च १२ गुणितः व वि ४ । ४ । १ । २ एतत्राशिवयं द्वितीय स्पर्धकऋणम् । गो. क. (जी. प्र.) २२९.
०
o
२
छ. वे. ५९.
1
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१६६]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं [१, २, ४, १८६ संपहि तदियफद्दयम्मि अवणिज्जमाणअविभागपडिच्छेद भणिस्सामो । तं जहाफद्दयवग्गणसलागवग्गमेत्तदोवग्गणविसेसेहि तिण्णिजहण्णवग्गे गुणिय पुध ठवेदव्वं |३) ० |४४२|| पुणो रूवूणफद्दयवग्गणसलागसंकलणमेत्तवग्गणविसेसेहि
| | | तिण्णिजहण्णवग्गे गुणिय पुव्विल्लरासिस्स पस्से ठवेदव्वं |३|४ । एदासिं दोण्हं रासीणं समूहो तदियफद्दयम्मि अवणिज्जमाण
२ | अविभागपडिच्छेदाणं पमाणं होदि'। एवं पढमगुणहाणीए फद्दयं पडि इच्छिदफद्दयादो हेट्ठिमफद्दयसलागाहि फद्दयवग्गणवग्गगुणिदमेत्तवग्गणविसेसेहि य फद्दयसलागमेत्तजहण्णवग्गा गुणिदो, पुणो अण्णे वि रूवूणवग्गणसलागसंकलणमेत्तवग्गणविसेसेहि गुणिदफद्दयसलागमेत्तजहण्णवग्गा च, एदाहि दोहि रासीहि ऊणा सव्वफद्दयाणमविभागपडिच्छेदा होति । पुणो एदाओ दो वि पंतीओ पुध पुध मेलाविदे पढमगुणहाणि. पढमपंतीए ऊणअवसेसाविभागपडिच्छेदाणं समासो एत्तिओ होदि |८||४४/९/९/९/। कुदो ? गुणहाणिफद्दयसलागाणं रूवूणाणं दुगुणसंकलणासंकलण-||
अब तृतीय स्पर्धकमें कम किये जानेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंको कहते हैं। यथा- स्पर्धककी वर्गणाशलाकाओंके वर्ग मात्र दो वर्गणाधिशेषोंसे तीन जघन्य वर्गीको गुणित कर पृथक् स्थापित करना चाहिये ( मूलमें देखिये )। फिर एक कम स्पर्धक-वर्गणाशलाकासंकलनका जितना प्रमाण हो उतने मात्र वर्गणा. विशेषोंसे तीन जघन्य वर्गोंको गुणित कर पूर्व राशिके पासमें स्थापित करना
चाहिये (मूलमें देखिये) । इन दोनों राशियोंका समूह तृतीय स्पर्धकमें कम किये जानेवाले योगाविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार प्रथम गुणहानिके प्रत्येक स्पर्धकमें, विवक्षित स्पर्धकके नीचे की स्पर्धकशलाकाओं के द्वारा तथा स्पर्धक सम्बन्धी वर्गणाओंके वर्गके द्वारा गुणित वर्गणाविशेषोंका जितना प्रमाण हो उतने वर्गणाविशेषोंसे स्पर्धकशालाका मात्र जघन्य वर्गीको गुणित करे, फिर एक कम वर्गणाशलाकासंकलनाका जितना प्रमाण हो उतने वर्गणाविशेषोंसे स्पर्धकशलाका मात्र अन्य भी जघन्य वर्गीको गुणित करे, इन दोनों राशियोंसे रहित समस्त स्पर्धकोंके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। फिर इन दोनों ही पंक्तियोंको पृथक् पृथक् मिलानेपर प्रथम गुणहानिकी प्रथम पंक्तिसे हीन शेष अविभागप्रतिच्छेदोंका जोड़ इतना होता है (मूलमें देखिये )। कारण कि वे एक कम गुणहानिस्पर्धकशलाकाओंकी दूनी संकलनालंकलनासे गुणित स्पर्धकवर्गणाशलाकाओंके ..........................
पुनः जघन्यवर्गमात्रविशेषाणां ... .... रूपनि कस्पर्धकवर्गणाशलाकागाछसंकलनं त्रिगणित व वि ।।३ पुनर्जघन्यवर्गमात्रविशेष:-एकस्पर्धकवर्गणाशलाकावर्गेण रूपनगच्छसंकलनेन। द्विगुणेन च।।२ गणितः व वि४ । ४ । ३ । २ एतौ द्वौ राशी तृतीयस्पर्धकऋणम् । गो. क. (जी.प्र.) २२९.
२ मप्रतिपाठोऽयम् । अप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः, आ-काप्रत्याः । -सलागमेतं जहण्णवग्गं गुणिदा', ताप्रती 'सलागमेतं जहण्णवगं गुणिदं' इति पाठः।
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Hum
| ८ | १६ | ३११।९।६ | दो १ फद्दयसलागसंकलणाए रूवूण
१, २, ४, १८६. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४६७ गुणिदफद्दयवग्गणसलागवग्गगुणवग्गणविसेसमेत्तजण्णवग्गपमाणत्तादो । पुणों' अवरो वि एत्तिओ होदि |८|.
। |२| संकलणगुणिदवग्गणविसेसमेत्तजहण्णवग्गपमाणत्तादो । एदस्स अणंतरमणिदरासिस्स मेलावणटुं पुबिल्लरासिअंतिमगुणगारम्मि एगरूवस्स संखेज्जदिभागो पक्खिविदव्यो। एगेगुत्तरकमेण विदअविभागपडिच्छेदा वि एगजहण्णवग्गस्स असंखेज्जदिभागमेता। ते वि जाणिदूगाणिय अभावदव्वम्मि अवणिय पुणो तं अभावदव्वं एदम्मि पढमगुणहाणिवम्मि |८| |१६|४|९|९| सोहिज्जमाणे वग्गणविसेसस्स गुणगारसरूवेण द्विददोगुण- |
२ हाणीयो विसिलेसिय तत्थतणदोरूवाणि अंते- ठवेदव्वाणि |८| 0 |2|४/९/९।९।२।। पुणो
एदम्मि सरिसच्छेदं कादूग अवणिदे अवसस | | १६ | |||| दि २१६/912/९/९/२/४ || एदं ताव पुत्र हुवेदव्यं ।
संपहि बिदियगुणहाणिफड़याणमाणयणक्कमो वुच्चदे। तं जहा-- पढमगुणहाणिपढमफद्दयद्धं ठविय बिदियगुणहाणिपढमादिफद्दयाणमुप्पायणटुं रूवाहिय-दुरूवाहियादीहि
वर्गसे वर्गणाविशेषको गुणित करनेपर जो राशि प्राप्त हो उतने मात्र जधन्य वौँके बराबर हैं । दूसरा भी इतना है ( मूल में देखिये)। कारण कि स्पर्धकशलाकसंकलना रूप कम वर्गणाशलाकासंकलनासे गुणित वर्गणाविशेषका जितना प्रमाण हो उतने मात्र जघन्य वर्गोंके बराबर है । अनन्तर कही गई इस राशि के मिलानेके लिये पूर्व राशिके अन्तिम गुणकारमें एक रूपके संख्यातवें भागको मिलाना चाहिये । एक एक अधिक क्रमसे स्थित अविभागप्रतिच्छेद भी एक जघन्य वर्गके असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं । उनको भी जान करके लाकर अभावद्रव्यमें से कम करके फिर उक्त अभावद्रव्यको इस प्रथम गुण हानिके द्रव्यमैसे (मूलमें देखिये ) कम करते समय वर्गणाधिशेषके गुणकार स्परूपसे स्थित दो गुणहानियोंको विश्लेषित करके वहांके दो रूपोंको अन्तमें स्थापित करना चाहिये (मूलमें देखिये )। फिर इसको समान खण्ड करके घटा देनेपर शेष इतना रहता है (मूलमें देखिये)। इसको पृथव करना चाहिये।
अब द्वितीय गुणहानिके स्पर्धकोंके लाने का क्रम कहा जाता है। वह इस प्रकार है- प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रथम स्पर्धकके अर्ध भागको स्थापित करके द्वितीय गुणहानिके प्रथम द्वितीयादि स्पर्धकोको उत्पन्न करानेके लिये एक रूप अधिक,
, ताप्रती · कुछो' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-तापतिषु | 6 | इति पाठः ।
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४६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १८६. . गुणहाणिफद्दयसलागाहि गुणिदे थोरुच्चएण बिदियगुणहाणिदव्वं होदि । पुणो एदासिं फद्दयाणं मेलावणविहाणं कस्सामो । तं जहा- फद्दयसलागासु अहियरूवे अवणिय पुध विदे एगादिएगुत्तरकमेण जहण्णफद्दयद्धस्स गुणगारों होदूण चेहँति । अवसेस पि गुणहाणिफद्दयसलागाहि गुणिदमेतं होदूण चेट्टदि । पुणो फद्दयसलागगुणिदजहण्णफद्दयद्धं चिदियगुणहाणिसव्वफद्दयसलागाहि गुणिदे आदिमपंतिदव्वं होदि। पुणो फद्दयसलागसंकलणगुणिदजहण्णफद्दयद्धे ठविदे बिदियपंती मिलिदूणागच्छदि । तेसिं दोण्णं पि दवाणं संदिट्ठीए अंकट्ठवणा एसा |८| 0 |२|१६/४/९/९/८० | २ |१६|४९) ९ ।। एत्थतणरूवाहियत्त-। २ मप्पहाणं कादण दो वि दव्वाणि सरिसच्छेदं कादूग मेलाविदे थोरुच्चएण बिदियगुणहाणिदव्वं मिलिदं होदि । तं च एवं | ८ | 0 | ६ ४ /९/९|३|
एत्थ अहियाविभागपडिच्छेदाणमाणयणकमो बुच्चदे । तं जहा-पढमगुणहाणिवग्गणविसेसद्धं चदुसु हाणेसु चत्तारिपंतीओ पढम-बिदियाओ रूवूणेगगुणहाणिफद्दय
दो रूप अधिक इत्यादि गुणहानिस्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करने पर संक्षेपसे द्वितीय गुणहानिका द्रव्य होता है । अब इन स्पर्धकोंके मिलानेके विधानको कहते हैं । वह इस प्रकार है- स्पर्घकशलाकाओ से अधिक रूपोंको कम करके पृथक् स्थापित करनेपर एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे जघन्य स्पर्धकके अर्ध भागके गुणकार होकर स्थित होते हैं । शेष भी गुणहानिकी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर जितना प्रमाण प्राप्त हो उतना मात्र होकर स्थित होता है । फिर स्पर्धशलाकाओंसे गुणित जघन्य स्पर्धकके अर्ध भागको द्वितीय गुणहानिकी समस्त स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर प्रथम पंक्तिका द्रव्य होता है । पुनः स्पर्धकशलाकाओंकी संकलनासे जघन्य स्पर्धकके अर्ध भागको स्थापित करनेपर द्वितीय पंक्तिका द्रव्य मिल कर आता है। उन दोनों ही द्रव्योंकी अंकस्थापना संहाष्टमें यह है (मूलमें देखिये)। यहांकी रूपाधिकताको गौण करके दोनों ही द्रव्योंको समान खण्ड करके मिलानेपर संक्षेपसे द्वितीय गुणहानिका सम्मिलित द्रव्य होता है । वह यह है (मूलमें देखिये)।
यहां अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंके लानेका क्रम कहते हैं । वह इस प्रकार हैप्रथम गुणहानि सम्बन्धी वर्गणाविशेषके अर्ध भागकी चार स्थानों में चार रचित पंक्तियों से प्रथम व द्वितीय पंक्ति एक कम एक गुणहानिकी स्पर्धकशलाओंके बराबर आयत
१ प्रतिषु 'गुणगारो' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' मिलिदूण गच्छदि ' इति पाठः । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अप्रतो . १६/४९९३, आ-का-ताप्रतिषु . ४९९/इति पाठः।
१६
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४, २, ४, १८६.] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे चूलिया (४६९ सलागायामाओ तदियच उत्थाओ संपुण्णायामाओ उड्डायारेण ठविय तत्थ पढमपंती एगादिएगुत्तरएगफद्दयवग्गणसलागवग्गगुणहाणिफद्दयसलागाहि गुणेयवा । विदियांती एगादिएगुत्तरदुगुणसंकलणागुणिदएगफद्दयवग्गणवग्गेण गुणेदव्वा । तदियपंती वि फद्दयसलागगुणरूवूणवग्गणसलागसंकलगाए गुणेयवा । चउत्थपंती वि एगादिएगुत्तररूवेहि गुणरूवूणवग्गणसलागसंकलणाए गुणेयव्वा । अंतिमदोपंतीसु पढमट्ठाणहिददव्वं विदियगुणहाणिपढमफद्दयम्मि अहियं होदि । चदुसु वि पंतीसु बिदियादिठाणट्ठिददव्वं बिदियादिफद्दएसु अहियं होदि। पुणो एदासिं चदुण्णं पंतीणं मेलावणविहाणं कस्सामो। तं जहा-रूवूणफद्दयसलागसंकलणाए पढमपंतिपढमट्ठाणदिददव्वे गुणिदे पढमपंतिदव्वमागच्छदि । तस्स पमाणमेदं |८| ० २ ४ [४ |
९/९ | ९ || पुणो रूवूणफद्दयसलागसंकलणासंकलणाए
२ | दुगुणाए बिदियपंतिपढमट्ठाणट्ठिददव्वे गुणिदे बिदियपंतीए सव्वदव्वं पिडिणागच्छदि । तं च एदं | ८| ० २ |४|४|
२।। पुणो तदियपंतीए पढमदव्वे | |
फद्दयसलागाहि गुणिदे तदियपंतिदव्वं सव्वमागच्छदि । तस्स
तथा तृतीय व चतुर्थ पंक्ति सम्पूर्ण आयत, इस प्रकार चार पंक्तियों को ऊर्धाकारसे स्थापित कर उनसे प्रथम पंक्तिको एकको आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक एक स्पर्धककी वर्गणाशलाकाओं, वर्गों व गुणहानिकी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करना चाहिये । द्वितीय पंक्तिको एकको आदि लेकर एक अधिक दुगुणी संकलनासे गुणित एक स्पर्धककी वर्गणाके वर्गसे गुणित करना चाहिये । तृतीय पंक्तिको भी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित एक कम वर्गणाशलाकासंकलनासे गुणा करना चाहिये । चतुर्थ पंक्तिको भी एकको आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक आधिक रूपोंसे गुणित एक कम वर्गणाशलाकासंकलनासे गुणित करना चाहिये। अन्तिम दो पंक्तियों में प्रथम स्थानमें स्थित द्रव्य द्वितीय गुणहानिके प्रथम स्पर्धकमें अधिक होता है। चारों ही पंक्तियों में द्वितीयादि स्थानोंमें स्थित द्रव्य प्रथम गुणहानिके द्वितीयादि स्पर्धकॉमें अधिक होता है। - अब इन चार पंक्तियोंके मिलाने के विधानको कहते हैं । वह इस प्रकार है-एक कम स्पर्धकशलाकासंकलनासे प्रथम पंक्तिके प्रथम स्थानमें स्थित द्रव्यको गुणित करनेपर प्रथम पंक्तिका द्रव्य आता है। उसका प्रमाण यह है (मूलमें देखिये। फिर एक कम स्पर्धकशलाकासंकलना-संकलनाको दूना करके उससे द्वितीय पंक्तिके प्रथम स्थानमें स्थित द्रव्यको गुणित करनेपर द्वितीय पंक्तिका सब द्रव्य एकत्रित होकर आता है। वह यह है (मूलमें दोखिये)। फिर तृतीय पंक्तिके प्रथम स्थानमें स्थित द्रव्यको स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर तृतीय पंक्तिका सब द्रव्य आता
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४७०)
छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, १८६ संदिट्ठी एसा | ८| 0 |२|३|४।९।९। फद्दयसलागसंकलणाए चउत्थपंतिपढमदव्वे गुणिदे |१६
। २ । ।_ तप्पंतीए सव्वदव्वमागच्छदि । तस्स ठवणा|८|. |२
९|९|| पुणो एदेसु पढम-विदियपंतीणं दव्वाणि पहा-1 |१६ |२|२|णाणि, इदरदोपंतीणं दव्वाणि अप्पहाणाणि । तदो आदिमदोपंतीणं दव्वाणि मेलाविय एगरूवासंखेज्जभागं पक्खिविय फद्दयविसेसस्स हेट्ठिमदोरूवेहि अंतिमच्छेदं गुणिय हुवेदव्वं । तं च एदं|८| 0 |४|४,९/९| ९ |५|| पुणो पुग्विल्लबिदियगुणहाणिदव्वम्मि गुणगारं होण | १६ ट्ठिददोगुणहाणीयो पुव्वं व विसिलेसं कादूग दोरूवेहि' अंतिमअंसं गुणिय सरिसच्छेद कादण पुव्विल्लअहियदव्वं अवणिय पढमगुणहाणिदबस्स पस्से ठवेदध्वं । तं च एवं |८| |४|४|९/९/९/१३ || पुणो तदियगुणहाणिदव्वे अणिज्जमाणे पढम
|१२ गुणहाणीए आदिफद्दयचदुब्भागं दुप्पडिरासिं कादूण तत्थेगरासिं गुणहाणिफद्दयसलागवग्गदुगुणेण गुणिय अवरं पि तस्स चेव संकलणाए गुणिय
है। उसकी संरष्टि यह है (मूलमें देखिये )। स्पर्धकशलाकासंकलनासे चतुर्थ पंक्तिके प्रथम द्रव्यको गुणित करनेपर उस पंक्तिका सब द्रव्य आता है। उसकी स्थापना (मूलमें देखिये)। अब इनमें प्रथम व द्वितीय पंक्तिके द्रव्य प्रधान हैं, अन्य दो पंक्तियों के द्रव्य अप्रधान हैं । इसलिये प्रथम दो पक्तियोंके द्रव्यों को मिलाकर एक रूपके असंख्यातवें भागको मिलाकर स्पर्धकविशेषके अधस्तन दो रूपों द्वारा अन्तिम खण्डको गुणित कर स्थापित करना चाहिये। वह यह है (मूलमें दखिये)। पुनः पूर्वोक्त द्वितीय गुणहानिके द्रव्यमें गुणकार होकर स्थित दो गुणहानियोंको पूर्वके समान विश्लेषित करके दो रूपोंके द्वारा अन्तिम भागको गुणित कर व समानखण्ड करके उसमें से पूर्वके अधिक द्रव्यको घटाकर प्रथम गुणहानि सम्बन्धी द्रव्यके पासमें स्थापित करना चाहिये । वह यह है (मूलमें देखिये )। फिर तृतीय गुणहानिके द्रव्यको लाते समय प्रथम गुणहानिके प्रथम स्पर्धकके चतुर्थ भागकी दो प्रतिराशियां करके उनमें एक राशिको दुने गुणहानिस्पर्धकशलाकावर्गसे गुणित करके तथा दूसरी राशिको भी उसीका संकलनासे गुणित करके स्थापित करने पर संक्षेपसे तृतीय गुणहानिका द्रव्य होता
1 अप्रतौ ' दोहि रूवेहि ' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽपम् । अ-आ-काप्रतिषु · अंतिमसंगुणिय', तापतौ अंतिम संगणिय' इति पाठः।
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४, २, ४, १८६.]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
ठविदे' थेोरुच्चएण तदियगुणहाणिदव्वं होदि । तं च एदं । || १६ | १६ |४| ९|९| * || १६ | १६ | ४ ||३|| सर्व होरि | ८ |
। दाद
एत्तियं
o
१६
१६ १४ ५ । पुणो एत्थ अहिया विभागपडिछेदाणयणं कस्सामा । तं जहा४ २ | आदिगुणहाणिवग्गणविसेसच उब्भागस्स चत्तारिपंतीय पुण्वं व ठवेण तत्थ पढमती दुगुणफद्दयसलागगुणएगा दिए गुत्तरवग्गणवग्गेण गुणेदव्या । विदियती वि एगादिएगुत्तरद्गुणसंकलणागुणवग्गणावग्गेण गुणेयव्वा । तदियपती वि दुगुणफद्दय सलागगुणरूवूणवग्गणसंकलणाए गुणेयव्वा । चउत्थपंती एगादिएगुत्तररूवगुणरूवूणवग्गणसला ग संकलणगुणिदमेत्ता । एदासिं चदुष्णं पंतीणं आदिदव्वाणि जहाकमेण रूवूणफद्दयसलागसंकलणाए च तस्सेवं दुगुणसंकलणासंकलणाए गुणहाणिफद्दयस लागाहि य तेर्सि चैव संकलणाए गुणेदव्वाणि । पुणो वग्गणविसेसस्स हेडिमभागहारचदुहि रूवेहि अंतिमच्छेदं गुणिय ठवेदव्वा । ते च एदे
-
है । वह यह है ( मूलमें देखिये ) । इन दोनोंको मिलानेपर इतना होता है ( मूल में देखिये ) । अब यहां अधिक अविभागप्रतिच्छेदों के लाने का विधान कहते हैं । वह इस प्रकार है - प्रथम गुणहानि सम्बन्धी वर्गणाविशेषके चतुर्थ भागकी पहिलेके ही समान चार पंक्तियोंको स्थापित करके उनमें से प्रथम पंक्तिको दूनी स्पर्धकशलाका ओंसे गुणित एकको आदि लेकर एक-एक अधिक वर्गणावर्गले गुणित करना चाहिये । द्वितीय पंक्ति को भी एकको आदि लेकर एक-एक अधिक दूनी संकलनासे गुणित वर्गणावर्ग से गुणित करना चाहिये । तृतीय पंक्तिको भी दूनी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित एक कम वर्गणा संकलनासे गुणित करना चाहिये । चतुर्थ पंक्ति एकको आदि लेकर एक-एक अधिक रूपोंसे गुणित एक कम वर्गणाशलाकसंकलनासे गुणित करनेपर जो राशि प्राप्त हो उतनी मात्र है । इन चारों पंक्तियोंके प्रथम द्रव्योंको यथाक्रम से एक कम स्पर्धकशलाक संकलनासे, उसकी ही दुगुणित संकलनासंकलनासे, गुणहानिकी स्पर्धकशलाकाओंसे, तथा उनकी ही संकलनासे गुणित करना चाहिये। फिर वर्गणाविशेषके अधस्तन भागहारभूत चार रूपसे अंतिम भागको गुणित करके स्थापित करना चाहिये । वे ये हैं (मूल में देखिये ) । फिर आदिके दो द्रव्योंको समान खण्ड करके
[ ४७१
१ ताप्रतौ ' पि चैव तस्स संकलणाए गुणिय वङ्काविदे ' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु ' तस्स चैव इति पाठः । ३ ताप्रतौ ' तस्येव दुगुणसंकलणा संकलणाए च गुणहाणिफड्डयसलागाहिय-तेर्सि चेव संकलणाए च गुणदव्वाणि ' इति पाठः ।
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४७२
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १८६.
पुग्वं व अवणिय १६/५/४/२/९/९/|| पुणो एदं पुचिल्लयाम्म
११|| पुणो आदिल्लदोदव्वाणि सरिसच्छेदाणि || || |१६| |२|८ कादूण मेलाविय एगरूवासंखेज्जदिभागं पक्खिविय ठवेदव्वं | ८०
| २४ | दोगुणहाणिदव्याणं पस्से ठवेदव्वं |८| • ४ |९|२२|| पुणो चउत्थगुणहाणिव्वे आणिज्जमाणे पढम- १६ ।। ।। २४ फदयस्स अट्ठमभागं दोसु हाणेसु ठविय तत्थेगं फद्दयसलागतिगुणवग्गेण गुणिय अवरं पि तेसिं चेव संकलणाए गुणिय ठवेदव्वं' | ८| १६ | ४ ९९ | ३ ।। अवरं पि एदं ! ८ | १६ . ४ १९/९।।
१६८ | | एदाणि दो वि।।१६। ८ । ।२। मेलाविदे थूलत्येण चउत्थगुणहाणिदव्वं होदि । तं च एदं |८|१६|४|९|९||
पुणो एत्थ अहियदव्वाणयणं वुच्चदे । तं जहा- पढमगुणहाणिवग्गणविसेसअट्ठमभागं चउसै ठाणेसु चदुपतिआयारेण रचे दूण तत्थादिमपंती आदिप्पहुडि तिगुणफद्दयसलागाहि गुणएगादिएँगुत्तरवग्गणवग्गेण गुणेयव्वा । बिदिया वि एगादिरूवाणं दुगुण
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मिलाकर उसमें एक रूपके असंख्यातवें भागका प्रक्षेप कर स्थापित करना चाहिये ( मूलमें दखिये )। फिर इसको पूर्वके द्रव्यमेंसे पहिल के ही समान कम करके दो गुणहानियों के द्रव्योंके पासमें स्थापित करना चाहिये (मूलमें देखिये)। फिर चतुर्थ गुणहानिके द्रव्यको लाते समय प्रथम स्पर्धकके आठवें भागको दो स्थानोंमें स्थापित कर उनमेंसे एकको स्पर्धकशलाकाओंके तिगुणे वर्गसे गुणित कर तथा दूसरेको भी उनकी ही संकलनासे गुणित कर स्थापित करना चाहिये । इन दोनोंको मिलानेपर स्थूल रूपसे चतुर्थ गुणहानिका द्रव्य होता है। वह यह है (मूलमें देखिये)।
अब यहां अधिक द्रव्यके लाने का विधान कहते हैं । वह इस प्रकार है-प्रथम गुणहानिके वर्गणाविशेषके आठवें भागको चार स्थानों में चार पंक्तियोंके आकारसे रचकर उनमेंसे प्रथम पंक्तिको आदिसे लेकर तिगुणी स्पर्घकशलाकाओंसे गुणित एकको आदि लेकर एक-एक अधिक वर्गणावर्गसे गुणित करना चाहिये । दूसरी
ताप्रतावतोऽग्रे ' तं च एवं ' इत्यधिकः पाठोऽस्ति । २ मप्रतिपाठोऽ यम् । प्रतिषु | १ | इति पाठः। ३ ताप्रतौ ' अट्ठमभागच उसु ' इति पाठः । ४ आ-ताप्रत्योः ' गुणे एगादि ' इति पाठः।
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[ ४७३ .
१, २, ४, १८६.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया संकलणागुणवग्गणवग्गेण गुणेयव्वा । तदिया वि तिगुणफद्दयसलागगुणरूवूणवग्गणसंकलणाए गुणेयव्वा । चउत्था वि ताए चेव संकलणाए एगादिएगुत्तररूवगुणिदाए गुणेयव्वा । पुणो एदेसिं पंतिआयारेण द्विददव्वाणं मेलावणे कीरमाणे पंतीणं आदिदव्वाणि जहाकमेण रूवूणफद्दयसलागसंकलणाए च तस्स दुगुणसंकलणासंकलणाए च फद्दयसलागाहि च तासिं संकलणाए च गुणेयवाणि । वग्गणविसेसस्स हेट्ठिमअट्ठरूवेहि अंतिमच्छेदं गुणिय मेलाविदे सव्वपिंडमेदं |८|| ४ | ४ | ९ | ९/९ | ११ || पुचिल्लव्वा कादण पुव- १६ । । || १८ | विहाणेणवणिः सेसमेत्तिय होदि |८० ४ ४ | ९|९|३१ | । संपहि उवरिमगुणहाणीण दव्वे उप्पाइज्जमाणे
| ४८ | तासिं तासिं हेट्ठिमगुणहाणिसलागअण्णोण्णभत्थरासिणा पढमगुणहाणिआदिफद्दयं खंडिय तत्थ एगखंडं गुणहाणिफद्दयसलागवग्गेण गुणिय पुणो तप्पहुडिहेहिमगुणहाणिसलागदुगुणरूवूणद्वेण च गुणिय पुध द्वविय पुणो अहियदबे आणिज्जमाणे आदिगुणहाणिवग्गणविसेसं इच्छिदगुणहाणिहेट्ठिमअण्णोण्णभत्थरासिणा खंडिय पुणो तप्पहुडिहेट्टिमगुणहाणिसलागतिगुणरूवूणछन्भागगुणहाणिफद्दयसलाग
.पंक्तिको भी एक आदिक रूपोंकी दुगुणी संकलनासे गुणित वर्गणाके वर्गसे गुणित करना चाहिये। तृतीय पंक्तिको भी तिगुणी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित एक कम वर्गणाके संकलनसे गुणित करना चाहिये । चतुर्थ पंक्तिको भी एकको आदि लेकर एक-एक अधिक रूपोंसे गुणित उक्त संकलनासे ही गुणित करना चाहिये । फिर पंक्तिके आकारसे स्थित इन द्रव्योंको मिलाते समय पंक्तियोंके प्रथम द्रव्योंको क्रमशः एक कम स्पर्धकशलाकाओंकी संकलना, उसकी दूनी संकलनसंकलना, स्पर्धकशलाकाओं तथा उनकी संकलनासे गुणित करना चाहिये । वर्गणाविशेषके अधस्तन आठ रूपोंसे अन्तिम अंशको गुणित करके मिलानेपर समस्त पिण्डप्रमाण यह होता है (मूलमें देखिये)। इसे पहिलेके द्रव्यमेंसे समान खण्ड करके पूर्व रीतिसे कम करनेपर शेष इतना रहता है ( मूलमें देखिये)।
___ अब उपरिम गुणहानियों के द्रव्यको उत्पन्न कराते समय उन उनकी अधस्तन गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रथम गुणहानिके प्रथम स्पर्धकमें भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध हो उसको गुणहानिस्पर्धकशलाकाओंके वर्गसे गुणित करके फिरसे उसको आदि लेकर अधस्तन गुणहानिशलाकाओंके दने रूपोंसे हीन अर्ध भागसे गुणित करके पृथक् स्थापित करना चाहिये । फिर अधिक द्रव्यको लाते समय प्रथम गुणहानिके वर्गणाविशेषको विवक्षित गुणहानिसे अधस्तन गुणहानिकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे खण्डित कर फिर उसको आदि लेकर अधस्तन गुणहानिशलाकाओंके तिगुने रूपोंसे कम छठे भाग मात्र गुणहानिस्पर्धशलाकाओंके घनसे गुणित वर्गणाके वर्गसे
ताप्रतौ दुगुणिय' इति पाठः। २ प्रतिषु 'विहाण्णवण्णिद' इति पाठः । छ,वे. १०.
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४७४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[४, २, ४, १८६. घणगुणिदवग्गणवग्गेण गुणिदे तम्मि तम्मि गुणहाणिम्मि अहियदव्वपमाणं होदि । पुणो एदं अहियदव्वं पुन्विल्लथूलत्तणाणिदसव्वगुणहाणिदब्वेसु अवणिज्जमाणे गुणगारं होदूण द्विददोगुणहाणीयो विसिलेसिय तत्थतणदोरूवेहि अंतिमअंसं गुणिय सरिसच्छेदं कादूणवणिय हेट्ठिमगुणण्णोणब्भत्थरासिणा अंतिमच्छेदे गुणिदे पढमादि जाव चरिमगुणहाणि त्ति ताव दव्वपमाणाणि होति । ताणि सव्वगुणहाणीसु गुणहाणिफदयसलागर्चेणगुणवग्गणवग्गेण गुणिदवग्गणविसेसमेत्ताणि सव्वत्थ सरिसाणि होति । पुणो एदेसिं गुणगाररूवाणि पढमगुणहाणिप्पहुडि जाव चरिमगुणहाणि त्ति ताव चत्तारिरूवादिणवोत्तरकमगदंसाणि छरूवादिदुगणं-दुगुणकमगदच्छेदाणि भवंति | ८| 0 |४|४|९|९|। एदं पढमगुणहाणिप्पहुडि जाव चरिमगुणहाणि त्ति ताव । ।१६
| गुणिज्जमाणं (पुणो एदस्स गुणगाररूवाणि एदाणि |४|१३|२२|३१|४|४९ | ५८ / ६८] ७६ । ८५ । ९४ । १०३ ।।
४४८/९६ १९२/३८४/७६८/१५३६.३०७२ ६१४४/१२२८८ | पुणो एदेसि मेलावणहूँ दोसुत्तगाहा । तं जहा -
गुणित करनेपर उस उस गुणहानिमें अधिक द्रव्यका प्रमाण होता है। फिर इस अधिक द्रव्यको पहिले स्थूल रूपसे निकाले हुए सब गुणहानियोंके द्रव्योंमेंसे कम करते समय गुणकार होकर स्थित दो गुणहानियों को विश्लेषित कर वहांके दो रूपोंसे अन्तिम अंशको गुणित करके व समान खण्ड करके उसे कम कर अधस्तन गुणकारकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे अन्तिम अंशको गुणित करनेपर प्रथम गुणहानिसे लेकर अन्तिम गुणहानि पर्यन्त द्रव्यांक प्रमाण प्राप्त होते हैं। वे सब द्रव्यप्रमाण समस्त गुणहानियोमे गुणहानिस्पर्धकशलाकाओके घनसे गुणित वर्गणाके वर्गसे वर्गणाविशेषको गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतने मात्र होकर सर्वत्र समान होते हैं।
पुनः इनके गुणकारभूत अंक प्रथम गुणहानिसे लेकर अन्तिम गुणहानि तक चार रूपोंको आदि लेकर नौ-नौ अधिक क्रमले जाते हुए अंश तथा छहको आदि लेकर दूने दूने क्रमसे जाते हुए हार स्वरूप होते हैं। प्रथम गुणहानिको लेकर अन्तिम गुणहानि तक यह (मूलमें देखिये) गुणिज्य
मान राशि है। इसके गुणकार अंक ये हैं-१, १३, २३, ३१, ४०, ४९,
५८ ५८, १८,
६७ ७६ . ८५. ९४ . १०३ । इनको मिलाने के लिये ये दो सूत्र 322७EZ4 3010 २०७२' ६१४४' १२२८८
। २नका मिलान लिय य दा सूत्र गाथायें इस प्रकार हैं
, तापतौ 'तम्मि तम्मि २ गुण-' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु 'ट्ठिदथेविगुणहाणीयो ' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु 'गुणोण्ण-' इति पाठः। ४ तापतौ 'सलागपु (घ) ण' इति पाठः। ५ प्रतिषु 'छरूवाणि दुगुण' इति पाठः। ६ ताप्रतौ २२] इति पाठः।
४४
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१, २, ४, १८६.] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे चूलिया
[१७५ विरलिदइच्छं विगुणिय अण्णोण्णगुणं पुणो दुपडिरासि । कादूण एक्कासिं उत्तरजुदआदिणा गुणिय ॥ २५ ॥ उत्तरगुणिदं इच्छं उत्तर-आदीय संजुदं' अवणे ।।
सेसं हरेज्ज पदिणों आदिगछेदद्धगुणिदेण ॥ २६ ॥) इच्छिदादि उत्तरंसइच्छिदादिदुगुण-दुगुणछेदसरूवेण गदरासीण आणयणे पडिबद्धाओ एदाओ दोसुत्तगाहाओ । ताव एत्थतणसच्छेदरूवाणमाणयणे कीरमाणे ताव गाहाणमत्थो वुच्चदे । तं जहा- 'विरलिदइच्छं विगुणिय अण्णोण्णगुणं' ति वुत्ते सव्वाओ गुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं कादणुप्पण्णरासिं ' पुणो दुप्पडिरासिं कादणे' त्ति वुत्ते दोसु ढाणेसु ठविय 'एक्करासिं उत्तरजुदआदिणा गुणिदे' त्ति वुत्ते तत्थ एक्करासिं उत्तरं णव, आदी चत्तारि रूवाणि, ताणि मेलाविय गुणिय 'उत्तरगुणिदं इच्छं' णवहि गुणहाणिसलागाओ गुणिय पुणो तम्मि 'उत्तर-आदीय संजुदं' त्ति वुत्ते उत्तरं आदि च मेलाविय 'अवणे' त्ति वुत्ते पुचिल्लरासिम्हि अवणिय 'सेसं हरेज्जे' ति वुत्ते अवणिदसेसं
विरलित इच्छा राशिको दूना करके परस्पर गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसकी दो प्रतिराशियां करके उनमें से एक राशिको चय युक्त आदिसे गणित करके उसमेंसे चयगुणित इच्छाको चय युक्त आदिसे संयुक्त करके घटा देना चाहिये। ऐसा करनेपर जो शेष रहे उसमें प्रथम हारके अर्ध भागले गुणित प्रतिराशिका भाग देना चाहिये ॥ २५-२६॥
ये दो सूत्रगाथायें इच्छित आदि उत्तर अंश व इच्छित आदि दूने दूने हार स्वरूपले जाती हुई राशियोको लानेसे सम्बन्ध रखती हैं। अब पहिले यहाके सछेद रूपोंको लाने की क्रिया करते हुए उन गाथाओं का अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- 'विरलिदइच्छं विगुणिय अण्णोपणगुणं' ऐसा कहनेपर इच्छा रूप सब गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दूना कर परस्पर गुणा करने पर उत्पन्न हुई राशिको 'पुणो दुप्पडिरासिं कादूण' ऐसा कहने पर दो स्थानों में स्थापित करके 'एक्रासिं उत्तरजुदआदिणा गुणिदे' ऐसा कहनेपर उनमें से एक राशिको उत्तर नौ और आदि चार अंक इनको मिलाकर उससे गुणित करके 'उत्तरगुणिदं इच्छं' अर्थात् नौसे गुणहानिशलाकाओंको गुणित कर फिर उसमें 'उत्तरआदीय संजुदं' अर्थात् उत्तर और आदिको मिलाकर 'अवणे' अर्थात् पूर्वकी राशिमेंसे कम करके 'सेसं हरेज्ज' अर्थात् घटानेसे शेष रही राशिको भाजित करे। 'केण' अर्थात् किससे भाजित
१ ताप्रतौ 'संजुदे' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु पदिणे', ताप्रतौ 'पडिणे' पति पाठः। ३ प्रतिषु 'रासि-' इति पाठः ।
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४७६]
छक्खंडागमे वेयणाखंड । ४, २, ४, १८६० भाग हरेज्ज। केण ? पडिणा- पुव्विल्लपडिरासिठविदरासिणा। किविसिडेण ? आदिमच्छेदद्धगुणिदेणेत्ति वुत्ते आदिमच्छेदं छरूवाणि, तस्सद्धं तिण्णि, तेहि गुणिय भागे गहिदे सरिसमवणिय लद्धं किंचूणसत्तिभागचत्तारिरूवाणि ताणि पुचिल्लदव्वस्स गुणगारं ठविदे सव्वगुणहाणीणं दव्वं मिलिणागच्छदि । पुणो एदं तेरासियकमेण जहण्णफद्दयपमाणेण कदे किंचूणछन्भागन्भहियफद्दयसलागदोवग्गमेतं होदि । तं च एदं |९|९|१३||
अहवा अणेण लहुकरणविहाणेण जहासरूवमाणिज्जदे । तं | ६ | जहापढमगुणहाणिदव्वं पुव्वुत्तविहिणा जहासरूवेणाणिदे एत्तियं होदि |८०1४|४/९/९/९/२|| पुणो एत्थतणदोरूवाणि एगगुणहाणि फद्दयसलागाओ एगफद्दय- ||१६ । वग्गणसलागाओ च अण्णोणं गुणिदे दोगुणहाणीयो होति । ताओ वग्गणविसेसस्स गुणगारं ठविदे एत्तियं होदि ८| 0 |१६|४|९|९|| पुणो बिदियगुणहाणिपढमादिफद्दयाणमुप्पायणटुं पढमगुण-| |१६
| ३ | हाणिपढमफद्दयद्धस्स ठविदगुण गाररूवाहियादिफद्दयसलागासु एगादिएगुत्तररूवाणि अवणिय गुणहाणिसलागगच्छसंकलण
|३
करे ? 'पडिणा' अर्थात् पूर्वकी प्रतिराशि रूपसे स्थापित राशिसे । कैसी प्रतिराशिसे ? 'आदिमछेदद्धगुणिदेण' अर्थात् आदिम छेद छह अंक, उसके आधे तीन, उनसे गुणित करके भाग देनेपर समान राशिको कम करके कुछ कम तृतीय भाग सहित जो चार रूप प्राप्त होते हैं उनको पूर्व द्रव्यका गुणकार स्थापित करनेपर समस्त गुणहानियोंका द्रव्य मिलकर आता है । अब इसको त्रैराशिक क्रमसे जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे करनेपर वह कुछ कम छठे भागसे अधिक स्पर्धकशलाकाके दो वर्ग प्रमाण होता है । वह यह है (मूलमें देखिये )।
अथवा, इस लघुकरणविधानसे स्वरूपानुसार गुण हानिद्रव्यको निकालते हैं। वह इस प्रकार है-पूर्वोक्त विधिसे प्रथम गुणहानिक द्रव्यको स्वरूपानुसार निकालनेपर वह इतना होता है (मूलमें देखिये)। फिर यहांके दो रूपों, एक गुण हानिकी स्पर्धकशलाकाओं, तथा एक स्पर्धककी वर्गणाशलाकाओंको परस्पर गुणित करनेपर दो गुणहानियां होती हैं। उनको वगंणाविशेषका गुणकार स्थापित करनेपर इतना होता है (मूल में देखिये)। पुनः द्वितीय गुणहानिके प्रथमादिक स्पर्धकोंको उत्पन्न करानेके लिये प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रथम स्पर्धकके अर्ध भागके स्थापित गुणकार स्वरूप एक रूप अधिक दो रूप अधिक इत्यादि क्रमसे जानेवाली स्पर्धकशलाकाओं में से एकको आदि लेकर उत्तरोत्तर एक एक अधिक रूपोको घटा करके और गुणहानिशलाकाओंकी गच्छसंकलनाको
मप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'हारेज ' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'वुत्तं' इति पाठः। ३ तापतौ • 'जहण्णत्तफड्डय ' इति पाठः। ४ अ-ताप्रत्योः 'अण्णेण ' इति पाठः। ५ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु
९।२। इति पाठः। ६ ताप्रती 'गुणहाणिं' इति पाठः ।
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वग्गण- |१६
४, २, ४, १८६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[४७७ माणिय पुणो एदम्मि पढमगुणहाणिअभावदव्वस्सद्धमवणिदे पढमगुणहाणिदव्वस्सद्ध होदि । तं च एटं।८।० |१६|४|९|९|| पुणो अवसेसं पि आणिज्जमाणे तग्गुणहाणिपढम
| |६|जीवपदेसपमाणेण कदे सादिरेगगुणहाणितिण्णिचदुब्भागपमाणं होदि । पुणो गुणहाणिफयसलागाहि गुणिदे एत्तियं होदि |८|0|१६|२५|९|| पुणो पणुवीसरूवेसु एगरूवमवणिय पुध ताव ठवेदव्वं । पुणो विसिलेस । ६/२ करिय पुविल्लदब्वेण सह सरिसच्छेदं कादूण मेलाविदे बिदियगुणहाणिसव्वदव्यमेत्तियं होदि
|||६||
पुणो तदियगुणहाणिदव्वे आणिज्जमाणे तदियगुणहाणिपढमादिफद्दयाणमुप्पायणटुं पढमगुणहाणिपढमफद्दय च उभागस्स टुविदगुणगारगुणहाणिफद्दयसलागदुगुणरूवाहियादिसु एगादिएगुत्तररूवाणि अवणिय पुणो एदासिं गुणहाणिफद्दयसलागगच्छसंकलणमाणिय पढमगुणहाणिअभावदव्वस्स चउभागमवणिदे अवसेस पढमगुणहाणिदव्वस्स चउब्भागो होदि । तं च एदं | ८| 0 | १६ | ४ |९/९ ।। अवसेसदव्वं पि आणिज्जमाणे तग्गुणहाणिपढम. वग्गण
| १२| जीवपदेसपमाणेण उवरिमजीवपदेसेसु कदेसु गुणहाणितिष्णिचदुब्भागसादिरेयपमाणं होदि। पुणो दुगुणफद्दयसलागाहि गुणिदे एत्तिय
लाकर फिर इसमें से प्रथम गुणहानि सम्बन्धी अभावद्रव्यके अर्ध भागको घटा देनेपर प्रथम गुणहानिके द्रव्यका अर्ध भाग होता है। वह यह है- (मूलमें देखिये)। फिर शेषको भी निकालते समय उस गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेशों के
माणसे करनेपर वह साधिक एक गुणहानिके तीन चतुर्थ भाग (1) प्रमाण होता है । फिर उसे गुणहानिकी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर इतना होता है ( मूलमें देखिये )। पुनः पच्चीस रूपों में से एक रूपको कम करके पृथक् स्थापित करना चाहिये। फिर उसको विश्लेषित करके पहिलेके द्रव्य के साथ समानखण्ड करके मिलानेपर द्वितीय गुणहानिका सब द्रव्य इतना होता है ( मूल में देखिये )।
अब तृतीय गुणहानिके द्रव्यको लाते समय तृतीय गुणहानिके प्रथमादिक स्पर्धकोको उत्पन्न करानेके लिये प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रथम स्पर्धकके चतुर्थ भागके स्थापित गुणकार स्वरूप दूने दूने रूपोंसे अधिक आदि क्रमसे जानेवाली गुणहानिस्पर्घकशलाकाओंमेंसे एकको आदि लेकर एक एक अधिक रूपोंको कम करके फिर इनकी गुणहानिस्पर्धकशलाकाओं सम्बन्धी गच्छसंकलनाको लाकर प्रथम . गुणहानि सम्बन्धी अभावद्रव्यके चतुर्थ भागको कम करनेपर शेष रहा प्रथम गुणहानिके द्रव्यका चतुर्थ भाग होता है । वह यह है (मूलमें देखिये)। शेष द्रव्यको भी निकालते
समय उस गुणहानि सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेशोंके प्रमाणसे उपरिम जीव. प्रदेशोंके करनेपर गुणहानिके तीन चतुर्थ भागसे कुछ अधिक होता है। फिर उसको
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४७८]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १८६. होदि |८| ०१६२५/९/२|पुणो एत्थ पणुवीसरूवे रूवमवणिय पुध द्वविय पणो । |१६|४|४|| अबसेसं विसिलेसं करिय तीहि रूवेहि अंतिमदोरूवाणि गुणिय पुव्विल्लदव्वेण सरिसछेदं कादूण मेलाविदे तदियगुणहाणिसव्वदव्वपमाणं
हादि । तं च एवं | ८ | १६ | १६ ||९|||
पुणो एदेण बीजपदेण जाव चरिमगुणहाणि त्ति ताव सव्वगुणहाणीणं दवपमाणं पुध पुध आणिज्जमाणे सव्वगुणहाणीणं गुणिज्जमाण गुणहाणिफद्दयसलागवग्गगुणिदपढमगुणहाणिजहण्णफद्दयपमाणं । एदस्स गुणगाररूवाणि गवोत्तरंसाणि दुगुणछेदाणि होदण गच्छंति । पुणो सव्वगुणहाणिगुणगारे मेलाविज्जमाणे पढमगुणहाणिगुणगारतिभागरूवं हेटवरि चदुहि गुणिय तप्पहुडिसव्वगुणगारा ठवेदव्या । ते च एदे | ४ | १३ | २२ | ३१ । ४० । ४९ । ५८ | ६७ ।। पुणो एदे गुणगारे |१२|२४|४८ ९६ १९२ | ३८४ | ७६८ | १५३६ | पुव्विल्लदोसुत्तगाहाहि मेलाविदे किंचूणछन्भागब्भहियदोरूवाणि आगच्छति । पुणो फद्दयसलागवग्गगुणिदजहण्णफद्दयस्स गुणगारं ठविय पुव्व
दुगुणी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर इतना होता है (मूलमें देखिये )। पुनः यहां पच्चीस रूपों में से एक रूपको कम करके पृथक् स्थापित कर और शेषको विश्लेषित करके तीन रूपोंसे अन्तिम दो रूपोंको गुणित कर पहिलेके द्रव्यके समान खण्ड करके मिलानेपर तृतीय गुणहनिके सब द्रव्यका प्रमाण होता है। वह यह है (मूलमें दखिये)।
अब इस बीज पदसे अन्तिम गुणहानि पर्यन्त सब गुणहानियों के द्रव्यप्रमाणको पृथक् पृथक् निकालते समय सब गुणहानियोंकी गुणिज्यमान राशि गुणहानिकी स्पर्धकशलाकाओके वर्गसे गुणित प्रथम गुणहानिके जघन्य स्पर्धक प्रमाण है। इसके गुणकार रूप उत्तरोत्तर नौ नौ अधिक अंश व दुगुणे हार होकर जाते हैं। फिर सब गुणहानियोंके गुणकारको मिलाते समय प्रथम गुणहानि सम्बन्धी गुणकारभूत विभाग रूपको नीचे ऊपर चारसे गुणित कर उसको आदि लेकर सब गुणकारीको स्थापित करना चाहिये । वे ये हैं-१.३३, २३.३६, ३४३. ५९ १६१६६। अब इन गुणकारोंको पूर्वोक्त दो मूल गाथाओं द्वारा मिलाने पर कुछ कम छठे भागसे अधिक दो रूप आते हैं । पश्चात् स्पर्धकशलाकाओंके वर्गसे गुणित जघन्य स्पर्धकके गुणकारको
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१ अ-आ-काप्रतिषु ' गुणिज्जमाणं गुणहाणि' इति पाठः । २ तापतौ । ६७ । ३ तापतौ ‘एदेण' इति पाठः।
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४, २, ४, १८६.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४७९ अवणिददव्वाणि मेलाविय पक्खित्ते वि किंचूणछब्भागब्भहियाणि चेव दोरूवाणि गुणगारं होति । एवं पमाणपरूवणा समत्ता ।
संपहि अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो- सव्वत्थोवा पढमाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा । चरिमाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो । अधवा फद्दयसलागाणमसंखेज्जदिभागो । तं जहा- पढमवग्गणायाम ठविय एगवग्गेण गुणिदे पढमवग्गणा होदि । पुणो पढमवग्गणायाम किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासिणा खंडिदे तत्थेगखंडं चरिमवग्गणायाम होदि । तम्मि फद्दयसलागगुणिदजहण्णवग्गेण गुणिदे चरिमवग्गणा होदि। ताए पढमवग्गणाए भागे हिदाए किंचूणण्णाणभत्थरासिणा ओवट्टिदफद्दयसलागाओ आगच्छति । अपढम-अचरिमासु वग्गणासु अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? पढमगुणहाणिफद्दयाणमविभागपडिच्छेदेहिंतो चउत्थादिगुणहाणिफद्दयाविभागपडिच्छेदाणं संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणिसरूवेण अवठ्ठाणाणुवलंभादो। अचरिमासु वग्गणासु अविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? पढमवग्गणमेत्तेण । अपढमासु वग्गणासु अविभाग
स्थापित कर उसमें पहिलेके घटाये हुए द्रव्योंको मिलाकर प्रक्षिप्त करनेपर भी कुछ कम छठे भागसे अधिक दो रूप ही गुणकार होते हैं । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई।
___अब अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हैं-प्रथम वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। अन्तिम वर्गणामें उनसे असंख्यातगुणे अविभागप्रतिच्छेद हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार जगणिका असंख्यातवां भाग है । अथवा, वह स्पर्धकशलाकाओंके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । यथा--प्रथम वर्गणाके आयामको स्थापित कर उसे एक वर्गसे गुणित करनेपर प्रथम वर्गणा होती है । फिर प्रथम वर्गणाके आयामको कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशिले खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण अन्तिम वर्गणाका आयाम होता है। उसे स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित जघन्य वर्गसे गुणा करनेपर अन्तिम वर्गणा होती है। उसमें प्रथम वर्गणाका भाग देनेपर कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे अपवर्तित स्पर्धकशलाकायें आती हैं । अप्रथम-अचरम वर्गणाओंमें चरम वर्गणाके अवि. भागप्रतिच्छेदोंसे असंख्यातगुणे अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, प्रथम गुणहानि सम्बन्धी स्पर्धकोंके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा चतुर्थादि गुणहानियों सम्बन्धी स्पर्धकोंके अविभागप्रतिच्छेदोंका संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि रूपसे अवस्थान पाया जाता है। उनसे अचरम वर्गणाओंमें अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे वे आधिक हैं। प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे वे अधिक हैं । अप्रथम वर्गणामों में
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४८०). छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, १८८. पडिच्छेदा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तण ? पढमवग्गणाए ऊणचरिमवग्गणमेत्तेण । सव्वासु वग्गणासु अविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? पढमवग्गणमेत्तेण ।
___ सव्वत्थोवा पढमफद्दयस्स जोगाविभागपडिच्छेदा । चरिमफयजोगाविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। अपढम-अचरिमफद्दयाणं जोगाविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । अचरिमफद्दएसु जोगाविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया। अपढमफयाणं जोगाविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया । सव्वफद्दयाणं जोगाविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया। एवं सुहुमणिगोदस्स जहण्णमुववादट्ठाणं' परूविदं ।
एवमसंखेज्जाणि जोगडाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ १८७॥
उववादजोगट्ठाणाणि चोद्दसणं जीवसमासाणं पुध पुध सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । तेसिं चेव एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि च सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । परिणामजोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि त्ति परूविदं होदि । एवं ठाणसंखापरूवणा समत्ता ।
अणंतरोवणिधाए जहण्णए जोगट्ठाणे फद्दयाणि थोवाणि ॥
अविभागप्रतिच्छेद उनसे विशेष अधिक हैं। कितने प्रमाणसे अधिक हैं ? चरम वर्गणामेंसे प्रथम वर्गणाको कम करनेपर जो शेष रहे उतने मात्रसे वे अधिक हैं। उनसे सब वर्गणाओंमें अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे वे अधिक हैं।
प्रथम स्पर्धकके योगविभागप्रतिच्छेद सबमें स्तोक हैं। उनसे चरम स्पर्धकके योगाविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे अप्रथम-अचरम स्पर्धकोंके योगाविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे अचरम स्पर्धकोंमें योगाविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रथम स्पर्धकोंके योगाविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । उनसे सब स्पर्धकोके योगाविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । इस प्रकार सूक्ष्म निगोद जीवके जघन्य उपपादस्थानकी प्ररूपणा की है।
इस प्रकार वे योगस्थान असंख्यात हैं जो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं ॥१८७॥
चौदह जीवसमासोंके उपपादयोगस्थान पृथक् पृथक् श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं, उनके ही एकान्तानुवृद्धियोगस्थान भी श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं, परिणामयोगस्थान भी श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं; यह भी इसीसे प्ररूपित होता है । इस प्रकार स्थानसंख्याप्ररूपणा समाप्त हुई।
अनन्तरोपनिधाके अनुसार जघन्य योगस्थानमें स्पर्धक स्तोक हैं ॥ १८८ ॥
१ का-ताप्रल्योः ' मुववादं ठाणं ' इति पाठः।
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१, २, ४, १८८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [ ४८१
एसा अणंतरोवणिधा किमट्ठमागदा ? एदाणि सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तजोगट्ठाणाणि किं विसेसाहियकमेण द्विदाणि किं संखेज्जगुणकमेण किमसंखेज्जगुणकमेण किमणंतगुणकमेण द्विदाणि त्ति पुच्छिदे एदेण कमेण ट्ठिदाणि त्ति जाणावणढे अणंतरोवणिधा आगदा। जहण्णए जोगट्ठाणे फद्दयाणि थोवाणि त्ति भणिदे एत्थ फद्दयसंखा किं चरिमफद्दयपमाणेणे किं ठाणस्स दुचरिमफद्दयपमाणेण एवं गंतूण किं ठाणस्स जहण्णफद्दयपमाणेण किं जहासरूवेण हिदफद्दयपमाणेण घेप्पदि त्ति ? ण ताव चरिमफद्दयपमाणेण दुचरिमादिफद्दयपमाणेण च जहासरूवेण विदफद्दयपमाणेण च फद्दयसंखा घेप्पदे, किंतु जहण्णजोगट्ठाणजहण्णफद्दयपमाणेण फद्दयसंखा घेत्तव्वा । कधमेदं णव्वदे ? जहण्णट्ठाणफद्दएहितो बिदियजोगट्ठाणफद्दयाणमण्णहा विसेसाहियत्ताणुववत्तीदो । जहण्णट्ठाणचरिमफद्दयपमाणेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु फद्दएसु जहण्णट्ठाणम्मि वड्डिदेसु बिदियजोगट्ठाणं उप्पज्जदि त्ति किण्ण
शंका- यह अनन्तरोपनिधा किसलिये प्राप्त हुई है ?
समाधान-श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र ये योगस्थान क्या विशेषाधिक क्रमसे स्थित हैं, क्या संख्यातगुणे क्रमसे स्थित हैं, क्या असंख्यातगुणे क्रमसे और क्या अनन्तगुणे क्रमसे स्थित हैं; ऐसा पूछनेपर- वे इस क्रमसे स्थित हैं, इसके ज्ञापनार्थ अनन्तरोपनिधा प्राप्त हुई है।
शंका- जघन्य योगस्थानमें स्पर्धक स्तोक है, ऐसा कहनेपर यहां स्पर्धकसंख्या क्या स्थान सम्बन्धी चरम स्पर्धकके प्रमाणसे, क्या द्विचरम स्पर्धकके प्रमाणसे, इस प्रकार जाकर क्या स्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे और क्या यथास्वरूपसे स्थित स्पर्धकके प्रमाणसे ग्रहण की जाती है ?
__ समाधान- उक्त स्पर्धकसंख्या न चरम स्पर्धकके प्रमाणसे, न द्विचरम स्पर्धकके प्रमाणसे और न यथास्वरूपसे स्थित स्पर्धकके प्रमाणसे ही ग्रहण की जाती है, किन्त वह जघन्य योगस्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे ग्रहण की जाती है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है?
समाधान- चूंकि, जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंकी अपेक्षा द्वितीय योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंके विशेषाधिकपना अन्यथा बन नहीं सकता, अतः इसीसे जाना जाता है कि उक्त स्पर्धकसंख्या जघन्य योगस्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे ग्रहण की गई है।
शंका-जघन्य स्थान सम्बन्धी चरम स्पर्धकके प्रमाणसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र स्पर्धकोंके जघन्य स्थानमें बढ़ जानेपर द्वितीय योगस्थान उत्पन्न होता है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ?
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' -फद्दयपरूवगेण ' इति पाठः । छ. के. ६१.
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१८२]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४,१८८.
घेप्पदे ?ण, जोगद्वाणम्मि जहण्णेण उक्कड्डिज्जमाणे चरिमफहयादो असंखेज्जदिभागमेत्ताणि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजहण्णजोगट्ठाणजहण्णफयाणि होति त्ति गुरूवएसादो णबदे'। बिदियजोगट्ठाणम्मि फद्दयविण्णासवड्डी णत्थि दोसु वि द्वाणेसु फद्दयाणि सरिसाणि त्ति । तदो जहण्णजोगट्ठाणफद्दयाणि थोवाणि त्ति भणिदे जहण्णजोगट्ठाणं जहण्णफद्दयमाणेण कदे उवरिमजोगट्ठाणजहण्णफद्दएहिंतो थोवाणि फद्दयांणि होति त्ति भणिदं होदि । जहण्णफद्दयाविभागपडिच्छेदेहि जहण्णजोगट्ठाणअविभागपडिच्छेदेसु भागे हिदेसु णिरग्गं होदूण सिज्झदि त्ति कधं णव्वदे ? जहण्णफद्दय-जहण्णजोगट्ठाणाविभागपडिच्छेदाणं कदजुम्मत्तदसणादो। क, तेसिं कदजुम्मत्तं णव्वदे ? अप्पाबहुगदंडयादो । तं जहा- सव्वत्थोवा तेउकाइयाणमण्णोण्णगुणगारसलागाओ । तेउकाइयवग्गसलागाओ असंखेज्जगुणाओ। तेसिमद्धछेदणयसलागाओ संखेज्जगुणाओ। तेउकाइएसु जहण्णेण पवेसया जहण्णण तत्तो णिग्गच्छमाणा च जीवा दो वि तुल्ला असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया पवेसणा उक्कस्सिया
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समाधान-नहीं, क्योंकि, योगस्थानमें जघन्यसे उत्कर्षण होनेपर चरम स्पर्धककी अपेक्षा असंख्यातवें भाग मात्र होकर भी अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य योगस्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धक होते हैं, इस प्रकार गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि द्वितीय योगस्थानमें स्पर्धकविन्यासकी वृद्धि नहीं है, किन्तु दोनों ही स्थानोंमें स्पर्धक समान हैं। इसीलिये जघन्य योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धक स्तोक हैं, ऐसा कहनेपर जघन्य योगस्थानको जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे करनेपर उपरिम योगस्थानों के जघन्य स्पर्धकोंकी अपेक्षा वे स्तोक हैं, यह अभिप्राय है।
शंका-जघन्य स्पर्धक सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छे होंका जघन्य योगस्थानके अविभागप्रतिच्छेदों में भाग देनेपर निरग्र होकर सिद्ध होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- क्योंकि, जघन्य स्पर्धक और जघन्य योगस्थान सम्बन्धी अवि. भागप्रतिच्छेदोंके कृतयुग्मपना देखा जाता है । अतः इसीसे वह जाना जाता है।
शंका- उनका कृतयुग्मपना कैसे जाना जाता है ?
समाधान-वह अल्पबहुत्वदण्डकसे जाना जाता है । यथा-तेजकायिक जीवोंकी अन्योन्यगुणकारशलाकायें सबमें स्तोक हैं । उनसे तेजकायिक जीवोंकी वर्गशलाकायें असंख्यातगुणी हैं। उनसे उनकी अर्धच्छेदशलाकायें संख्यातगुणी हैं। तेजकायिक जीवों में जघन्यसे प्रविष्ट होनेवाले व उनमेंसे निकलनेवाले जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले व उत्कर्षसे निकलनेवाले दोनों ही तुल्य होकर उनसे
१ अ-आप्रत्योः 'णव्वदे', का-मप्रत्योः ‘णन्जदे', तापतौ ‘णव्व (घेप्प) दे' इति पाठः २ अ-आकाप्रतिषु 'जोगट्ठाणाणिविभाग इति पाठः।
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१, २, ४, १८८.) वेयणमहाहिवारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया णिग्गमा दो वि तुल्ला संखेज्जगुणा। जहणिया तेउक्काइयरासी असंखेज्जगुणा । सा चेव उक्कसिया विसेसाहिया । तेउक्काइयाणं कायट्ठिदी असंखेज्जगुणा । ओहिणिबद्धक्खेत्तस्स अण्णोण्णगुणगारसलागाओ असंखेज्जगुणाओ। तस्सेव वग्गसलागा असंखेज्जगुणा । तस्सेव अद्धछेदणया असंखेज्जगुणा । ओहिणाणस्स भेदा असंखेज्जगुणा । अनावसाणाणं गुणगारसलागाओ असंखेज्जगुणाओ। तेसिं चेव वग्गसलागा असंखेज्जगुणा । तेसिं चेव छेदणा असंखेज्जगुणा । अज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । णिगोदसरीराणमण्णोण्णगुणगारसलागाओ असंखेज्जगुणाओ। तेसिं वग्गसलामाओ असंखेज्जगुणाओ । तेसिं छेदणा असंखेज्जगुणा । तदो णिगोदसरीराणि असंखेज्जगुणाणि । णिगोदकायहिदी असंखेज्जगुणा । अणुभागबंधज्झवसायट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । जोगाविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । एदे जोगाविभागपडिच्छेदा च परियम्मे वग्गसमुट्टिदा ति परूविदा, एदेसु जोगाविभागपडिच्छेदेसु जोगगुणगारेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणोवट्टिदेसु जहण्णजोगट्ठाणाविभागपडिच्छेदा होति । ते वि कदजुम्मा । कुदो ? जोगगुणगारस्स कदजुम्मत्तादो। जोगहाणफद्दयसलागाओ वि कदजुम्माओ, अण्णहा जोगट्ठाणफद्दयाविभागपडिच्छेदाणं वग्ग
संख्यातगुणे हैं। उनसे जघन्य तेजकायिकराशि असंख्यातगुणी है। उससे वही उत्कृष्ट विशेष अधिक है । उससे तेजकायिकोंकी कायस्थिति असंख्यातगुणी है । उससे अवधिशानके विषयभूत क्षेत्रकी अन्योन्यगुणकारशलाकायें असंख्यातगुणी हैं। उनसे उसकी ही वर्गशलाकायें असंख्यातगुणी हैं । उनसे उसके ही अर्धच्छेद असंख्यातगुणे हैं । उनसे अवधिज्ञानके भेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे अध्यवसानों की गुणकारशलाकायें असंख्यातगुणी हैं । उनसे उनकी ही वर्गशलाकायें असंख्यातगुणी है । उनसे उनके ही अर्धच्छेद असंख्यातगुणे हैं । उनसे अध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे निगोदशरीरोंकी अन्योन्यगुणकारशलाकायें असंख्यातगुणी हैं । उनसे उनकी वर्गशलाकायें असंख्यातगुणी हैं। उनसे उनके अर्धच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे निगोदशरीर असंख्यातगुणे हैं। उनसे निगोदोंकी कायस्थिति असंख्यातगुणी है । उससे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यातगुणे हैं । उनसे योगाविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। ये योगाविभागप्रतिच्छेद परिकर्ममें वर्गसमुत्थित बतलाये गये हैं । इन योगाविभागप्रतिच्छेदोंको पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र योगगुणकारसे अपवर्तित करनेपर जघन्य योगस्थानके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। वे भी कृतयुग्म हैं, क्योंकि, योगगुणकार कृतयुग्म है। योगस्थानकी स्पर्धक शलाकायें भी कृतयुग्म हैं, क्योंकि, इसके विना योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंके अविभागप्रतिच्छेद वर्गसमुत्थित नहीं बन सकते।
बग्गपसंगा'
१ अ-आ-काप्रतिषु 'बग्गपसंगा',ताप्रती 'वगप्पसंगा' इति पाठः।.अ.आप्रत्यो का-ताप्रत्योः 'वग्गप्पसंगा' इति पाठः।
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१८४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, १८९ समुहिदत्ताणुववत्तीदो त्ति । एत्थ किं जोगट्ठाणाणि बहुवाणि आहो एगफद्दयवग्गणाओ त्ति पुच्छिदे जोगहाणाणि थोवाणि । एयफद्दयवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। कधमेदं णव्वदे ? अप्पाबहुगवयणादो । तं जहा- सव्वत्थोवाणि जोगट्ठाणाणि । एयफद्दयवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। अंतर-णिरंतरद्धाणं' असंखेज्जगुणं । फद्दयाणि विसेसाहियाणि एगरूवेण । णाणाफद्दयवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ । जीवपदेसा असंखेज्जगुणा । अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा त्ति।
बिदिए जोगट्टाणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि ।। १८९ ॥
जहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेण कदजुम्मेण जहण्णजोगट्ठाणजहण्णफद्दएसु ओवट्टिदेसु एगो जोगपक्खेवो अंगुलस्स' असंखेज्जदिभागमेत्तजहण्णफद्दयपमाणो वड्डिहाणीणमभावेण अवट्टिदो आगच्छदि । एदम्हि पक्खेवे जहण्णट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते बिदियजोगट्ठाणं होदि । तेण पढमजोगट्ठाणफद्दएहिंतो बिदियजोगट्ठाणफद्दयाणि विसेसाहियाणि त्ति वुत्तं । एदेहि अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेतजहण्णफद्दएहि चरिमफद्दयादो उवरि अण्णमपुव्वं फद्दयं ण उप्पज्जदि, चरिमफद्दयाविभागपडिच्छेदेहितो
यहां क्या योगस्थान बहुत हैं या एक स्पर्धककी वर्गणायें बहुत हैं, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि योगस्थान स्तोक हैं। उनसे एक स्पर्धककी वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- वह अल्पबहुत्वके कथनसे जाना जाता है । यथा-- योगस्थान सबसे स्तोक हैं । उनसे एक स्पर्धककी वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। उनसे अन्तरनिरन्तरध्वान असंख्यातगुणा है। उनसे स्पर्धक एक संख्यासे विशेष अधिक हैं। उनसे नाना-स्पर्धकवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। उनसे जीवप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनसे अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं।
दूसरे योगस्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक हैं ॥ १८९ ॥
जघन्य योगस्थान सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारका जो कि श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण व कृतयुग्म है, जघन्य स्पर्धकों में भाग देनेपर अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य स्पर्धक प्रमाण एक योगप्रक्षेप आता है । यह योगप्रक्षेप वृद्धि व हानिका अभाव होनेसे अवस्थित है। इस प्रक्षेपमें जघन्य स्थानको प्रतिराशि करके मिलानेपर द्वि स्थान होता है। इसीलिये प्रथम योगस्थानके स्पर्धकों से द्वितीय योगस्थानके स्पर्धक विशेष अधिक है, ऐसा कहा गया है। इन अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य स्पर्धकोसे चरम स्पर्धकसे आगे अपूर्व स्पर्धक नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि, चरम स्पर्धकके अविभाप्रगतिच्छेदोंसे प्रक्षेपके अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हीन पाये जाते हैं।
१ प्रतिषु 'अंतरणिरंतरकाए' इति पाठः । २ ताप्रती · अण्णमपुवफडयं ' इति पाठः।
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४, २, ४, १८९. ) . वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे चूलिया [४८५ पक्खेवाविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जगुणहीणत्तुवलंभादो। तेणेदे पक्खेवाविभागपडिच्छेदाओ लोगमेत्तजीवपदेसेसु जहासरूवेण विहंजिदूण' पदंति त्ति घेत्तव्वं । एत्थ पक्खेवविहंजणं वुच्चदे
प्रक्षेपकसंक्षेपेण विभक्ते यद्धनं समुपलब्धं ।
प्रक्षेपास्तेन गुणाः प्रक्षेपसमानि खण्डानि ॥ २५ ॥ एदेण सुत्तेण पक्खेवविभागे आणिज्जमाणे एत्थ पढमफद्दयसव्ववग्गणजीवपदेसेसु पुध पुध एक्केण गुणिय, पुणो बिदियफद्दयवग्गणजीवपदेसु पुध पुध दोहि गुणिय, तदियफद्दयवग्गणजीवपदेसेसु पुध पुध तीहि गुणिय, एवमेगुत्तरादिकमेण गुणेदव्वं जाव चरिमफद्दयवग्गणीवपदेसा ति । ते सव्वे जीवपदेसे मेलाविय पुणो तेहि एगपक्खेवाविभागपडिच्छेदेसु ओट्टिदेसु जहण्णजोगट्ठाणजहण्णफद्दयाविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमेत्ता असंखेज्जलोगाविभागपडिच्छेदा लभंति । एदं लद्धं जहण्णजोगट्टाणवग्गणमेत्तमुवरुवरि पडिरासिय तत्थ पढमरासिं जहण्णफद्दयजहण्णवग्गणजीवपदेसेहि गुणिदं पडिरासिदजहण्णट्ठाणस्स
इसलिये ये प्रक्षेपअविभागप्रतिच्छेद यथास्वरूपसे लोक मात्र जीवप्रदेशों में विभक्त होकर गिरते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यहां प्रक्षेपविभाजनका कथन करते हैं
किसी एक राशिके विवक्षित राशि प्रमाण खण्ड करनेके लिये प्रक्षेपोंको जोड़ा कर उसका उक्त राशिमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उससे प्रक्षेपोंको गुणित करनेपर प्रक्षेपोंके समान खण्ड होते हैं ॥ २५ ॥
इस सूत्रसे प्रक्षेपविभागके लाते समय यहां प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी सब वर्गणाओंके जीवप्रदेशको प्रथक प्रथक एकसे गुणित कर, फिर द्वितीय स्पा वर्गणाओंके जीवप्रदेशोंको पृथक् पृथक् दोसे गुणित करके, तृतीय स्पर्धक सम्बन्धी वर्गणाओंके जीवप्रदेशोंको पृथक् पृथक् तीनसे गुणित करके, इस प्रकार उत्तरोत्तर एक अधिक क्रमसे अन्तिम स्पर्धक सम्बन्धी वर्गणाओंके जीवप्रदेशों तक गुणित करना चाहिये । उन सब जीवप्रदेशोंको मिलाकर फिर उनके द्वारा एक प्रक्षेप सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंको अपवर्तित करनेपर जघन्य योगस्थान सम्बन्धी जघन्य स्पको अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं। जघन्य योगस्थानकी वर्गणा मात्र इस लब्धको आगे आगे प्रतिराशि करके उनमें प्रथम राशिको जघन्य स्पर्धक सम्बन्धी जघन्य वर्गणाके जीवप्रदेशोसे गुणित कर प्रतिराशिभूत जघन्य स्थानके जघन्य स्पर्धक सम्बन्धी जघन्य वर्गणाके
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... अ-आप्रत्योः । विहंजीविदूण' इति पाठः। २ ताप्रती 'पट्टति (वति ) ति' इति पाठः । ३ प.. पु. ६, पृ. १५८. ४ अप्रतौ 'चरिमवगणजीव' इति पाठः। ५ का-ताप्रत्योः 'सव्वजीवपदेसे' इति पाठः। ६ अप्रतौ 'मेसमुवरि पडिरासिय ' इति पाठः। ७ अ-आ-काप्रतिषु ' गुणिदपडिरासिद ' इति पास।
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५८६)
छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, २, १, १९०. जहण्णफद्दयजहण्णवग्गणाए वग्गेसु समखंडं कादूण दिण्णे बिदियट्ठाणपढमफद्दयस्स जहण्णवग्गणा होदि । बिदियरासिं बिदियवग्गणजीवपदेसेहि गुणिय पडिरासिदजहण्णट्ठाणस्स विदियवग्गणवग्गाणं समखंडं कादण दिण्णे बिदियठाणस्स बिदियवग्गणमुप्पज्जदि । एदेण विहाणेण विदियट्ठाणसव्ववग्गणाओ उप्पाएदवाओ। णवरि बिदियफद्दयहिदपडिरासीओ दुगुणिय गुणेदवाओ। एवमुवरि फद्दयं पडि रूवुत्तरकमेण गुणणकिरिया कायव्वा । एवं कदे बिदियजोगट्ठाणमुप्पण्णं होदि । एत्तियाणं जोगाविभागपडिच्छेदाणं कुदो वड्डी ? अण्णेसिं जीवाणं समयं पडि ढुक्कमाणणोकम्मादो वीरियंतरायक्खओवसमादो च ।
तदिए जोगट्टाणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि ॥ १९ ॥
एत्थ विसेसो पुन्विल्लपक्खेवो चेव । एदम्हि पक्खेवे बिदियजोगट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते तदियजोगट्ठाणं होदि । एत्थ वि पक्खेवो पुत्वं व विरलेदूण विहंजिय सव्ववग्गणाणं दादयो ।
एवं विसेसाहियाणि विसेसाहियाणि जाव उक्कस्सहाणेत्ति ॥
एवमुप्पण्णुप्पण्णजोगट्ठाणं पडिरासिय अवहिदपक्खेवं पक्खिविय सेडीए असंखेज्जदिवर्गोंको समखण्ड करके देनेपर द्वितीय स्थान सम्बन्धी प्रथम स्पर्धककी जधन्य वर्गणा होती है। द्वितीय राशिको द्वितीय वर्गणाके जीवप्रदेशोंसे गुणित कर प्रतिराशिभूत जघन्य स्थान सम्बन्धी द्वितीय वर्गणाके वाको समखण्ड करके देनेपर द्वितीय स्थानकी द्वितीय वर्गणा उत्पन्न होती है। इस विधानसे द्वितीय स्थानकी सब वर्गणाओंको उत्पन्न कराना चाहिये । विशेष इतना है कि द्वितीय स्पर्धक सम्बन्धी प्रतिराशियोको दुगुणित कर गुणित करना चाहिये। इसी प्रकार आगे प्रत्येक स्पर्धकके एक-एक अधिकताके क्रमसे गुणन क्रिया करना चाहिये । इस प्रकार करनेपर द्वितीय योगस्थान उत्पन्न होता है।
शंका-इतने मात्र योगाविभागप्रतिच्छेदोंकी वृद्धि किस कारणसे होती है ?
समाधान- अन्य जीवोंके प्रतिसमय आनेवाले नोकर्म और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उक्त वृद्धि होती है।।
तृतीय स्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक होते हैं ॥ १९० ॥
यहां विशेष पूर्वोक्त प्रक्षेप ही है। इस प्रक्षेपको द्वितीय योगस्थानको प्रति. राधिकरके उसमें मिलानेपर तृतीय योगस्थान होता है । यहां भी प्रक्षेपको पहिलेके ही समान विरलित करके विभाजित कर सब वर्गणाओंको देना चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्थान तक वे उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक होते
इस प्रकार उत्तरोत्तर उत्पन्न हुए योगस्थानको प्रतिराशि करके उसमें अवस्थित प्रक्षेपको मिलाकर उत्तष्ट योगस्थानके उत्पन्न होने तक श्रेणिके असंख्यातवें
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१, २, ४, १९१.]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[४८७
भागमेत्तजोगट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव उक्कस्सजोगट्ठाणमुप्पण्णेत्ति । एवं पक्खेवेसु अवहिदकमेण वड्डमाणेसु केत्तियाणि जोगट्ठाणाणि गंतूण एगमपुव्वफद्दयं होदि त्ति पुच्छिदे सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि गंतूणुप्पज्जदि, सादिरेयचरिमजोगफद्दयमेत्तवड्डीए विणा अपुव्वफद्दयाणुप्पत्तीदो । चरिमफदए च जोगपक्खेवा सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता अस्थि, एगजोगपक्खेवेण चरिमफद्दए भागे हिदे सेडीए असंखेज्जदिभागुवलंभादो । तेण तप्पाओग्गसेडीए असंखेज्जदिभागमेतपक्खेवेसु वड्ढिदेसु तत्थ पुव्विल्लफद्दएहितो रूवाहियफद्दयाणं चरिमफद्दयम्मि जत्तिया जीवपदेसा अत्थि तत्तियमेत्तअणंतरहेट्ठिमफद्दयवग्गे वड्विदपक्खेवेहितो घेत्तूण उवरि जहाकमेण ठविय पुणो चरिमफद्दयजीवपदेसमेत्ते चेव जहण्णट्ठाणजहण्णवग्गे तत्तो घेतूण तत्थेव जहाकमेण पक्खिविय सेसं पुत्वं व असंखेज्जलोगेण खंडिय लद्धमप्पिदट्ठाणफद्दयवग्गणजीवपदेसेहि पुध पुध गुणिय इच्छिदवग्गणजीवपदेसाणं समखंडं कादण दिण्णे अप्पिदट्ठाणमुप्पज्जदि त्ति घेतव्वं । एत्तो पहुडि उवरि एगेगपक्खेवेसु वड्डमाणेसु फद्दयाणि अवडिदाणि चेव होदूण सेडीए असंखेज्जदिभाममेत्त
भाग मात्र योगस्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये।
शंका-इस प्रकार अवस्थितक्रमसे प्रक्षेपोंकी वृद्धि होनेपर कितने योगस्थान जाकर एक अपूर्व स्पर्धक होता है ?
समाधान-ऐसी शंका होनेपर उत्तर देते हैं कि वह श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान जाकर उत्पन्न होता है, क्योंकि, साधिक चरम योगस्पर्धक मात्र वृद्धिके विना अपूर्व स्पर्धक उत्पन्न नहीं होता। चरम स्पर्धकमें योगप्रक्षेप श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं, क्योंकि, एक योगप्रक्षेपका चरम स्पर्धकमें भाग देनेपर श्रेणिका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। इस कारण तत्प्रायोग्य श्रेणिके असंख्यातवे भाग प्रमाण प्रक्षेपोंकी वृद्धि हो जानेपर वहां पूर्वके स्पर्धकोंकी अपेक्षा एक अधिक स्पधेकोंके अन्तिम स्पर्धकमें जितने जीवप्रदेश है उतने मात्र अनम्तर अधस्तन स्पर्धकके वौको वृद्धिप्राप्त प्रक्षेपोंमेंसे ग्रहण करके ऊपर यथाक्रमसे स्थापित कर फिर उनमेंसे चरम स्पर्धकके जीवप्रदेशोंके बराबर ही जघन्य स्थान सम्बन्धी जघन्य वौको ग्रहण करके उनमें ही यथाक्रमसे मिलाकर शेषको पहिलेके समान ही असंख्यात लोकसे खण्डित करनेपर जो लब्ध हो उसको विवक्षित स्थान सम्बन्धी स्पर्धककी वर्गणाओंके जीवप्रदेशोंसे पृथक् पृथक् गुणित करके इच्छित वर्गणा. के जीवप्रदेशको समखण्ड करके देनेपर विवक्षित स्थान उत्पन्न होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यहांसे आगे एक एक प्रक्षेपके बढ़ने पर स्पर्धक अवस्थित ही होकर ओणिके असंख्यातवें भाग मात्र स्थान उत्पन्न होते हैं। फिर इस प्रकार अपूर्व
१ अ-आ-कामतिषु वहिद' इति पाठः।
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४८८)
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १९३ ट्ठाणाणि समुप्पति । पुणो एवमपुव्वफद्दयमुप्पज्जदि । एव णेयव्वं जाव चरिमजोगट्ठाणेत्ति। |१|२|३J४/५/६/७८/९/१०/११ | १२ | १३ | १४|१५||
संपहि एवमेगादिएगुत्तरकमेण जहण्णफद्दयसलागाओ ठविय संकलणसुत्तकमेण मेलाविय | १२०। जहण्णट्ठाणजहण्णफद्दयसलागाणं पमाणं किण्ण परूविदं ? ण एस दोसो, एदासिं फद्दयसलागाणमसंखेज्जदिभागमेत्ताणं चेव जहण्णट्ठाणम्मि जहण्णफद्दयसलागाणमुवलंभादो। तं कधं णव्वदे ? पढमगुणहाणिअविभागपडिच्छेदेहिंतो चउत्थादिगुणहाणिअविभागपडिच्छेदाणं संखेज्जभागहीणादिकमेण गमणदंसणादो। तम्हा जहण्णट्ठाणम्मि तप्पाओग्गसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजहण्णफद्दयाणि अस्थि त्ति घेत्तव्वं ।
विसेसो पुण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि फद्दयाणि ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, पुव्वं परविदत्तादो । एवमणंतरोवणिधा समत्ता ।
परंपरोवणिधाए जहण्णजोगट्ठाणफद्दएहितो तदो सेडीए असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवढिदा ॥ १९३ ॥ स्पर्धक उत्पन्न होता है । इस प्रकार आन्तिम योगस्थान तक ले जाना चाहिये ।
शंका- अब १+२+३+४+५+६+७+ ८+९+ १० ११ + १२+१३+१४ + १५ इस प्रकार एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे जघन्य स्पर्धकशलाकाओंको स्थापित कर संकलनसूत्रके अनुसार मिलाकर ( १५+१६४ १५ = १२०) जघन्य स्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धककी शलाकाओंका प्रमाण क्यों नहीं बतलाया ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इन स्पर्धकशलाकाओंके असंख्यात भाग मात्र ही जघन्य स्पर्धकशलाकायें जघन्य स्थानमें पायी जाती हैं ।
शंका-- वह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- चूंकि प्रथम गुणहानिके अविभागप्रतिच्छेदोंसे चतुर्थ आदि गुणहानियोंके अविभागप्रतिच्छेदोंका संख्यातभाग हीन आदिके क्रमसे गमन देखा जाता है, अत एव इसीसे उसका परिज्ञान हो जाता है।
इसीलिये जघन्य स्थानमें तत्प्रायोग्य श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य स्पर्धक हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
विशेषका प्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र स्पर्धक हैं ॥ १९२ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि, पहिले उसकी प्ररूपणा की जा चुकी है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई।
परम्परोपनिधाके अनुसार जघन्य योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंकी अपेक्षा उससे श्रेणिके असंख्यातवें भाग स्थान जाकर वे दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं ॥१९३॥
१ सेढिअसंखियभागं गंतुं गतुं हवंति दुगुणाई। पल्लासंखियभागो गाणागुणहाणिठाणाणि ॥ क.प्र. १,१०.
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२, ४, १९४. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविद्दाणे चूलिया
[ ४८९
एसा परंपरोवणिधा किमट्ठमागदा ? एवं पक्खेवुत्तरकमेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेसु जोगट्ठाणेसु समुप्पण्णेसु किं जहण्णजोगट्ठाणादो उक्कस्सजोगट्ठाणं विसेसाहियं संखेज्जगुणं असंखेज्जगुणं वेत्ति पुच्छिदे असंखेज्जगुणमिदि जाणावणट्ठमागदा । तं जहाजहण्णजोगट्ठाण पक्खेवभागहारं सेडीए असंखेज्जदिभागं विरलेदूण जहण्णजोगट्ठाणं समखंड कादिणे विरलरूवं पडि एगजोगपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो तत्थ एगपक्खेवं तूण जाणं पडिसिय पक्खित्ते' बिदियट्ठाणं होदि । बिदियपक्खेवं घेत्तूण विदियद्वाणं पडिरासिय पक्खित्ते तदियजोगट्ठाणं होदि । पुणो तदियपक्खेवं घेत्तूण तदियजोगट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते चउत्थजोगट्ठाणं होदि । एवं दव्वं जाव विरलणमेत्तपक्खेवा सव्वे विट्ठति । ता दुगुणवड्डिट्ठाणमुपज्जदि ।
* एवं दुगुणवढिदा दुगुणवढिदा जाव उक्कस्सजोगट्टाणेत्ति ॥ पुणो पुव्विल्लद्गुणवड्डिजोगट्ठाणपक्खेव भागहारं जहण्णजोगट्ठाणपक्खेव भागहारादो
शंका- यह परम्परोपनिधा किसलिये प्राप्त हुई है ?
समाधान - उक्त विधिले प्रक्षेप अधिक क्रमसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थानों के उत्पन्न होनेपर 'उत्कृष्ट योगस्थान क्या जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा विशेष अधिक है, संख्यातगुणा है, अथवा असंख्यातगुणा है' ऐसा पूछनेपर वह 'असंख्यातगुणा है ' इस बातके ज्ञापनार्थ परम्परोपविधा प्राप्त हुई है । वह इस प्रकार से -
श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारका विरलन कर जघन्य योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनरूपके प्रति एक योगप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । अब उनमेंसे एक प्रक्षेपको ग्रहण कर जघन्य योगस्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिला देनेपर द्वितीय स्थान होता है । द्वितीय प्रक्षेपको ग्रहण कर द्वितीय स्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिला देनेपर तृतीय योगस्थान होता है । पश्चात् तृतीय प्रक्षेपको ग्रहण कर तृतीय योगस्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिला देने पर चतुर्थ योगस्थान होता है । इस प्रकार विरलन मात्र सब प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिये । तब दुगुणी वृद्धिका स्थान उत्पन्न होता है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक वे दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते चले जाते हैं ॥ १९४ ॥
अब जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारसे दुगुणे पूर्वोक्त दुगुणवृद्धि युक्त
१ अ-आ-काप्रतिषु — पडिरासिपक्खिते ' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु नास्य सूत्रत्वसूचकं किमपि चिह्न -
मुपलभ्यते । छ. वे. ६२.
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१९.]
____ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, १९५. दुगुणं विरलिय दुगुणवड्डिजोगट्ठाणं समखंडं करिय दिपणे स्वं पडि एगेगपक्खेवो पावदि । ते घेत्तूण उप्पण्णुप्पण्णजोगट्ठाणं पडिरासिय कमेण पक्खित्ते पुविल्लट्ठाणादो दुगुणमद्धाणं गंतूण चदुग्गुणवड्डी उप्पज्जदि । पुणो जहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारं चदुगुणं विरलिय चदुमुणजोगट्ठाणं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एगेमपक्खेवो पावदि । पुणो एदे घेत्तूण पुव्वं व पक्खित्ते चदुग्गुणमद्धाणं गंतूण अद्वगुणवड्डिजोगट्ठाणमुप्पज्जदि । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणेति । गुणहाणिअद्धाणपमाणजाणावणहूँ णाणागुणहाणिसलागाणं पमाणफ्रूवणटुं च उत्तरसुत्तं भणदि
___ एगजोगदुगुणवड्ढि-हाणिट्टाणंतरं सेडीए असंखेज्जदिभागो, णाणाजोगदुगुणवइढि-हाणिहाणंतराणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भागो । १९५॥
एत्थ ताव गुणहाणिअद्धाणपमाणाणयणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- एगादिदुगुणदुगुणकमेण णाणागुणहाणिसलागमेत्तायामेण विदरूवाणं | १ | २ | ४ | ८ | १६ । ३२ /६४ | १२८ | २५६ | ५१२ | १०२४ | २०४८ । ४०९६ ) सव्वसमासो एत्तियो होदि 1 ८१९१ | । एदेण जोगट्ठाणद्धाणे | ६५५२८ | भागे हिदे पढमगुणहाणिअद्धाणं सेडीए
योगस्थानके प्रक्षेपभागहारका विरलन करके दुगुणी वृद्धि युक्त योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति एक एक प्रक्षेप प्राप्त होता है । उनको ग्रहण कर उत्तरोत्तर उत्पन्न हुए योगस्थानको प्रतिराशि करके क्रमसे उसमें मिलानेपर पूर्व स्थानसे दुगुणा अध्वान जाकर चतुर्गुणी वृद्धि उत्पन्न होती है। पश्चात् चतुर्गुणित जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारका विरलन करके चतुर्गुणित योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति एक एक प्रक्षेप प्राप्त होता है । पश्चात् इनको ग्रहण कर पूर्वके ही समान मिलानेपर चौगुणा अध्वान जाकर अठगुणी वृद्धि युक्त योगस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक ले जाना चाहिये । गुणहानिअध्वानप्रमाणके शापनार्थ और नानागुणहानिशलाकाओंके प्रमाणके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
एक-योग-दुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण और नानायोग-दुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥१९५॥
'यहां पहले गुणहानिअध्यान के प्रमाणके लाने का विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है- एकको आदि लेकर दुगुणे दुगुणे क्रमसे नानागुणहानिशलाका मात्र आयामसे स्थित १+२+४+८+१६ + ३२+ ६४ + १२८+२५६+५१२+१०२४+२०४८+४०९६ रूपोंका सर्वयोग ८१९१ इतना होता है। इसका योगस्थानाध्वानमें भाग देने पर (६५५२८८१९१%3D८) प्रथम गुणहानिका अध्वान श्रेणिके असंख्यातवें भाग आता है।
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४, २, ४, १९६. ]
वैयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४९१
असंखेज्जदिभागो आगच्छदि । एदं' ठविय पुव्विल्लद्गुण- दुगुणगदरूवेहि गुणिदे तदित्थगुणहाणिट्ठाणंतरमागच्छदि । संपहि गुणहाणि सलागासु आणिज्जमाणासु पढमगुणहाणिणा | ८ | जोगट्ठाणद्धाणं खंडिय लद्धं रूवाहियं काऊण अद्धछेदणए कदे जत्तियाओ' अद्धछेदणयसलागाओ तत्तियमेत्ताणि णाणागुणहाणिट्ठाणंतराणि एत्थ अप्पाबहुगपरूवणट्ठमुत्तरयुक्तं भणदि
गाणा जोगदु गुणवढि - हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । एगजोगदुगुणवढि हाणिट्टानंतरमसंखेज्जगुणं ॥ १९६ ॥
एत्थ गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो । एवमेदे पुत्रं परुविदसव्वाहियारा सव्वजीवसमासाणमुववादजोगट्ठाणाणं एगंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणं परिणामजोगट्ठाणाणं च पुध पुध परूवेदव्वा । सुहुमणिगोद जहण्णजो गट्ठाण पहुडि जाव सण्णिपंचिंदियपज्जत्त उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणेत्ति एदेसिं सव्वजीवसमासाणमुववाद जोगडाणाणि एगंताणुवड्डिजोगा परिणामजोगट्ठाणाणि च एगसेडिआगारेण छहि अंतरेहि सहिदाणि रचेण एदेसिं द्वाणाणमुवरि अंतरोवणिधादिअणिओगद्दाराणि पुव्वं व परूवेदव्वाणि । णवरि अंतरोवणिधे भण्णमाणे
इसको स्थापित कर पूर्वोक्त दुगुणे दुगुणे गये हुए रूपोंसे गुणित करनेपर वहांका गुणहानिस्थानान्तर आता है। अब गुणहानिशलाकाओं को लाते समय प्रथम गुणहानि ( ८ ) द्वारा योगस्थानाध्वानको खण्डित करनेपर जो लब्ध हो उसे एक रूपसे अधिक करके अर्धच्छेद करने पर जितनी अर्धच्छेद शलाकायें हों उतने मात्र नाना गुणहानिस्थानान्तर होते हैं। यहां अल्पबहुत्व के प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
नानायोगदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर स्तेक हैं | उनसे एकयोगदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ १९६ ॥
यहां गुणकार श्रेणिका असंख्यातवां भाग है । इस प्रकार पूर्वप्ररूपित इन सब अधिकारोंकी प्ररूपणा सब जीवसमासों सम्बन्धी उपपादयोगस्थानों, एकान्तानुवृद्धियोगस्थानों और परिणामयोगस्थानोंके विषय में पृथक् पृथक् करना चाहिये । सूक्ष्म निगोदके जघन्य योगस्थान से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान तक इन सब जीवसमासोंके उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धियोगस्थान और परिणामयोग स्थानों की एक श्रेणिके आकार से छह अन्तरोंसे सहित रचना करके इन स्थानोंके ऊपर अनन्तरोपनिधा आदि अनुयोगद्वारोंकी पहिलेके ही समान प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा करते समय छह अन्तरोंका उल्लंघन करके
१ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठ: । २ प्रतिषु ' के त्तियाओ' इति पाठः ।
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१९२)
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १९६. छअंतराणि उल्लंघिय वत्तव्वं, तत्थ हेडिमजोगट्ठाणे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण गुणिदे उवरिमजोगट्ठाणुप्पत्तीदो।
___संपहि देसामासियभावेण एदेहि अणियोगद्दारेहि सूचिदअवहारकालादिपरूवणमेत्थ कस्सामो। तं जहा- जहण्णजोगट्ठाणपमाणेण सव्वजोगट्ठाणाणि केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति १ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेण । तं जहा- जहण्णजोगट्ठाणादो पक्खेवुत्तरकमेण गदसव्वजोगट्ठाणाणि छण्णमंतराणमभावेण पुन्विल्लदीहत्तादो सादिरेयदीहभावाणि द्वविय मूलग्गसमासं कादूण अद्धिय ढविदे पुव्विल्लायाममेत उक्कस्सजोगट्ठाणद्धाणि जहण्णजोगट्ठाणद्धाणि च लभंति । पुणो अद्धियएगखंडस्सुवरि बिदियखंडे ठविदे पुचिल्लायामद्धमत्ताणि जहण्णजोगट्ठाणाणि उक्कस्सजोगट्ठाणाणि च होति । एवं होति त्ति कादूण रचिदजोगट्ठाणद्धाणद्धण रूवाहियजोगगुणगारगुणिदेण जहण्णजोगट्ठाणे गुणिदे जहण्णजोगट्ठाणपमाणेण सव्वजोगट्ठाणाणि आगच्छंति । पुणो रूवाहियजोगगुणगारगुणिदजोगट्टाणद्धाणद्धेण पुन्विल्लरासिम्हि भागे हिदे जहण्णजोगट्ठाणमागच्छदि । तेण जहण्णजोगट्ठाणस्स सेडीए असंखेज्जदिभागो भागहारा होदि ति वुत्तं ।
कथन करना चाहिये, क्योंकि, वहां अधस्तन योगस्थानको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर उपरिम योगस्थान की उत्पत्ति है।
अब देशामर्शक स्वरूपसे इन अनुयोगद्वारोंके द्वारा सूचित अवहारकाल आदिकी प्ररूपणा यहां करते हैं। वह इस प्रकार है- जघन्य योगस्थानके प्रमाणसे सब योगस्थान कितने कालसे अपहृत होते हैं ? वे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र कालसे अपहृत होते हैं । यथा- जघन्य योगस्थानसे आगे प्रक्षेप अधिक क्रमसे गये हुए सब योगस्थानोंको छह अन्तरोंका अभाव होनेसे पूर्वकी दीर्घतासे साधिक दीर्घता युक्त स्थापित कर मूलाग्रसमास करके आधा कर स्थापित करनेपर वे पूर्वके आयाम प्रमाण उत्कृष्ट योगस्थानोंके आधे और जघन्य योगस्थानोंके आधे प्राप्त होते हैं। पुनः अर्धित एक खण्डके ऊपर द्वितीय खण्डको स्थापित करनेपर चूंकि पूर्वोक्त आयामसे अर्ध आयाम प्रमाण जघन्य योगस्थान और उत्कृष्ट योगस्थान होते हैं, अत एव रूप अधिक योगगुणकारसे गुणित ऐसे रचित योगस्थानाध्वानके अर्ध भागसे जघन्य योगस्थानको गुणित करनेपर जघन्य योगस्थानके प्रमाणसे सब योगस्थान आते हैं। पुनः एक अधिक योगगुणकारसे गुणित योगस्थानाध्वानके अर्ध भागका पूर्वोक्त राशिमें भाग देनेपर जघन्य योगस्थान आता है। इसी कारण जघन्य योगस्थानका भागहार श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है, ऐसा कहा गया है।
१ प्रतिषु · लद्धिय' इति पाठः। २ आप्रतो. ' उक्कस्सजोगहाणवाणि उक्कस्सजोगजहणजोगदाणद्वाणाणि' इति पाठः। ३ ताप्रतौ 'जोगदाणद्धाणेण' इति पाठः ।
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१, २, ४, १९६.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[४९३ बिदियजोगहाणपमाणेण अवहिरिज्जमाणे विसेसहीणेण कालेण अवहिरिजंति । एवं णेदव्वं जाव पढमदुगुणवड्डि त्ति । पुणो तेण पमाणेण अवहिरिज्जमाणे पुविल्लभागहारादो अद्धमेत्तेण कालेण अवहिरिज्जति । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणेत्ति । पुणो' • उक्कस्सजोगट्ठाणपमाणेण सबजोगट्ठाणाणि केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति १ रचिदजोगट्ठाणद्धाणद्धं जोगगुणगारेण खंडिय तत्थ एगखंडे रूवाहियजोगगुणगारेण गुणिदे जं लद्धं तत्तियमेत्तेण कालेण अवहिरिजंति । एत्थ कारणं जाणिय वत्तव्वं । जहण्णजोगट्ठाणप्पहुडि उवरि सव्वत्थ अवहारकाले आणिज्जमाणे भागहारपरिहाणी जाणिदूण कायव्वा । एवं भागहारपरूवणा गदा ।
पढमजोगट्ठाणफद्दयाणि सव्वजोगट्ठाणफद्दयाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणेत्ति, असंखेज्जदिमागत्तणेण विसेसाभावादो । भागाभाग परूवणा गदा ।
सव्वत्थावाणि जहण्णजोगट्टाणफद्दयाणि । उक्कस्सजोगट्ठाणफद्दयाणि असंखेज्जगुणाणि । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो, जोगगुणगारो त्ति वुत्तं होदि ।
द्वितीय योगस्थानके प्रमाणसे अपहृत करने पर सब योगस्थान विशेष हीन कालसे अपहृत होते हैं । इस प्रकार प्रथम दुगुणवृद्धि तक ले जाना चाहिये । पश्चात् उक्त प्रमाणसे अपहृत करनेपर वे पूर्व भागहारकी अपेक्षा अर्ध भाग प्रमाण कालसे अपहृत होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक ले जाना चाहिये । अब उत्कृष्ट योगस्थानके प्रमाणसे सब योगस्थान कितने कालसे अपहृत होते हैं ? रचित योगस्थानके अर्ध भागको योगगुणकारसे खण्डित कर उसमें एक खण्डको रूपाधिक योगगुणकारसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतने मात्र कालसे वे अपहृत होते हैं। यहां कारणका कथन जानकर करना चाहिये । जघन्य योगस्थानको आदि लेकर आगे सब जगह अवहारकालको लाते समय भागहारकी हानि जानकर करना चाहिये। इस प्रकार मागहारकी प्ररूपणा समाप्त हुई।
प्रथम योगस्थानके स्पर्धक सब योगस्थानोंके स्पर्धकोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? वे सब योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक ले जाना चाहिये, क्योंकि, असंख्यातवें भागको अपेक्षा वहां और कोई विशेषता नहीं है। भागाभागप्ररूपणा समाप्त हुई।
जघन्य योगस्थानके स्पर्धक सबमें स्तोक हैं । उनसे उत्कृष्ट योगस्थानके स्पर्धक असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है।
, ताप्रती 'पुणो' इत्येतत्पदं नास्ति ।
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४९४) छक्खडागमे वेयणाखंड
।१, २, ५, १९७. अजहण्ण-अणुक्कस्सजोगट्ठाणफद्दयाणि असंखेज्जगुणाणि । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो । अणुक्कस्सजोगट्ठाणफद्दयाणि विसेसाहियाणि जहण्णजोगट्ठाणफदएहि ऊणउक्कस्सजोगहाणफद्दयमेत्तेण । सव्वजोगट्ठाणफद्दयाणि विसेसाहियाणि जहण्णजोगट्ठाणफद्दयमेत्तेण । एवं परंपरोवणिधा समत्ता ।
समयपरूवणदाए चदुसमइयाणि जोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ १९७ ॥
एत्थ समयपरूवणदाए त्ति किमदं कुच्चदे ? पुवुद्दिट्ठअहियारसंभालणटुं । समयपरूवणा किमट्ठमागदा ? समएहि विसेसिदजोगट्ठाणाणं पमाणपरूवणहूं; समएहि परूवणदा समयपरूवणदा, तीए 'समयपरूवणदाए' ति सद्दवुप्पत्तीदो । जेसु जोगट्ठाणेसु जीवा चत्तारिसमयमुक्कस्सेण परिणमंति ताणि जोगट्ठाणाणि चदुसमइयाणि त्ति भणंति । तेसिं पमाणं सेडीए असंखेज्जदिभागो, एवं वुत्ते सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तप्पहुडि जाव पंचिंदियलद्धिअपज्जत्तओ त्ति एदेसिं परिणामजोगट्टाणाणं एइंदियादि जाव सण्णिपंचिंदियणिव्वात्तपज्जत्तजहण्णपरिणामजोगहाणप्पहुडि उवरि तप्पाओग्गसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणं णिरंतरं इस गुणकारसे अभिप्राय योगगुणकारका है । उत्कृष्ट योगस्थानके स्पर्धकोले अजघन्य. अनुत्कृष्ट योगस्थानोंके स्पर्धक असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार श्रेणिका असंख्यातवां भाग है। उनसे अनुत्कृष्ट योगस्थानोंके स्पर्धक जघन्य योगस्थानके स्पर्धकोसे हीन उत्कृष्ट योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धको मात्र विशेषसे अधिक हैं। उनसे सब योगस्थानोंके स्पर्धक जघन्य योगस्थानके स्पर्धको मात्र विशेषसे अधिक हैं। इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई।
समयप्ररूपणताके अनुसार चार समय रहनेवाले योगस्थान श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है॥ १९७॥
शंका-सूत्रमें 'समयपरूवणदाए' यह पद किसलिये कहा गया है ? समाधान- उक्त पद पूर्वोद्दिष्ट अधिकारका स्मरण करानेके लिये कहा गया है। शंका- समयप्ररूपणा किसलिये प्राप्त हुई है ?
समाधान-समोसे विशेषताको प्राप्त हुए योगस्थानों के प्रमाणको बतलानेके लिये समयप्ररूपणाका अवतार हुआ है, क्योकि, समोसे प्ररूपणता समयप्ररूपणता, उस समयप्ररूपणतासे; ऐसी यहां शब्दकी व्युत्पत्ति है।
जिन योगस्थानों में जीव उत्कर्षसे चार समय परिणमते हैं वे चतुःसामायिक अर्थात चार समय रहनेवाले योगस्थान कहे जाते हैं। उनका प्रमाण श्रेणिके असंख्यातवे भाग मात्र है, ऐसा कहनेपर सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकको आदि लेकर पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तक इनके परिणामयोगस्थानोंका तथा एकेन्द्रियको आदि लेकर संशी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकके जघन्य परिणामयोगस्थानसे लेकर आगे तत्मायोग्य श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र निरन्तर गये हुए परिणामयोग
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४, २, ४, २०० ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४९५
णोववाद जो गट्ठाणाणमेगंताणुवड्ढिजोगडाणाणं च
गदाणं परिणामजोगट्ठाणाणं च गहणं, गहणं; तेसिमेगसमयं मोत्तूण उवरि अवट्ठाणाभावादो । पंचसमइयाणि जोगट्टाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥
जाणि जोगट्ठाणाणि एग समयमादि काढूण जाव उक्कस्सेण पंचसमओ त्ति जीवा परिणमंति ताणि पंचसमइयाणि णाम । तेसिं पि पमाणं सेडीए असंखेज्जदिभागो । एदाणि जोगट्ठाणाणि उवरि भण्णमाणछसमइयादिजोगट्ठाणाणि च एइंदियादि पंचिंदियावसाणाण परिणामजोगेसु जोजेदव्वाणि, ण सेसेसु ।
एवं छसमइयाणि सत्तसमइयाणि अट्ठसमइयाणि जोगट्टाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ १९९ ॥
पंचसमइयजोगट्टाणेहिंतो उवरिमाणि छ- सत्त- अट्ठसमयाणं पाओग्गाणि जाणि जोगद्वाणाणि तेसि पमाणं पुध पुध सेडीए असंखेज्जदिभागो !
पुणरवि सत्तसमइयाणि समइयाणि पंचसमइयाणि चदुसमइयाणि उवरि तिसमइयाणि बिसमइयाणि जोगट्टाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ २०० ॥
स्थानों का भी ग्रहण करना चाहिये, उपपादयोगस्थानों और एकान्तानुवृद्धियोगस्थानोंका ग्रहण नहीं करना चाहिये; क्योंकि, उनका एक समयको छोड़कर आगे अवस्थान सम्भव नहीं है।
पंचसामयिक योगस्थान श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं ।। १९८ ॥
जिन योगस्थानों में जीव एक समयको आदि लेकर उत्कर्ष से पांच समय तक परिणमते हैं वे पंचसामयिक कहलाते हैं । उनका भी प्रमाण श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र है । इन योगस्थानोंको तथा आगे कहे जानेवाले षट्सामयिक आदि योगस्थानोंको एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके परिणामयोगों में जोड़ना चाहिये, शेषों में नहीं ।
इसी प्रकार षट्सामयिक, सप्तसामयिक व अष्टसामयिक योगस्थान श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं ॥ १९९ ॥
पंचसामयिक योगस्थानोंसे आगेके छह, सात व आठ समयोंके योग्य जो योगस्थान हैं उनका प्रमाण पृथक् पृथक् श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र है ।
फिर भी सप्तसामयिक, षट्सामयिक, पंचसामयिक, चतुःसामयिक तथा उपरिम त्रिसामयिक व द्विसामयिक योगस्थान श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं ॥ २०० ॥
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१९६1
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, २००. - जवमज्झादो हेट्ठिमाणं सत्तसमइयादिजोगट्टाणाणं पुव्वं पमाणं परूविदं' । पुणो जवमज्झादो उवरिमाणं सत्त-छ-पंच-चदुसमइयंजोगट्ठाणाणं तेसिं चेव पमाणं परूवेमि त्ति जाणावण8 'पुणरवि' गहणं कदं । एदेहि पुव्वं परूविदजोगट्ठाणेहिंतो तिसमइय-बिसमइय जोगट्ठाणाणि उवरि होति त्ति जाणावणटुं उवरिसद्दणिद्देसों कदो । अधवा एसो उवरिसहो मज्झदीवओ। तेण सव्वत्थ सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तहेट्ठिमचदुसमइयजोगट्ठाणाणं उवरि पंचसमइयजोगट्ठाणाणि होति । तेसिं सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणमुवरि छसमइयाणि होति । तेसि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणमुवरि सत्तसमइयाणि । तेसिं सेडीए असंखेज्जदि. भागमेत्ताणमुवरि अट्ठसमइयाणि । तेसिं सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्ताणमुवरि पुणरवि सत्तसमइयाणि । तेर्सि सेडीए असंखेज्जदिभागमेताणमुवरि छसमइयाणि । तेसिं सेडीए असंखेज्जदिभागमे ताणमुवरि पंचसमइयाणि । तेसिं सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणमुवरि चदुसमइयाणि । तेसिं सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्ताणमुवरि तिसमइयाणि । तेसिं सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणमुवरि बिसमझ्याणि जोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि त्ति
__ यवमध्यसे नीचेके सप्तसामयिक आदि योगस्थानोंका प्रमाण पूर्वमें कहा जा चुका है। अब यवमध्यसे ऊपरके जो सात, छह, पांच और चार समय निरन्तर प्रवर्तनेवाले योगस्थान हैं उनके ही प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं, इस बातके शापनार्थ सूत्रमें 'पुणरवि' पदका ग्रहण किया गया है। इन पूर्वप्ररूपित योगस्थानोंमेंसे तीन समय व दो समय निरन्तर प्रवर्तनेवाले योगस्थान ऊपर होते हैं, इस बातके शापनार्थ 'उवरि' शब्दका निर्देश किया है। अथवा, यह उवरि' शब्द मध्यदीपक है। इस कारण सर्वत्र श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र नीचे के चार समयवाले योगस्थानोंके ऊपर पांच समयवाले योगस्थान होते हैं। श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उन योगस्थानोंके ऊपर छह समय रहनेवाले योगस्थान होते हैं। श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उनके ऊपर सात समय रहनेवाले योगस्थान होते हैं। श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उनके ऊपर आठ समय रहनेवाले योगस्थान होते हैं । श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उक्त योगस्थानोंके ऊपर फिरसे भी सात समय रहनेवाले योगस्थान होते हैं । श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उनके ऊपर छह समय रहनेवाले योगस्थान होते हैं। श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उनके ऊपर पांच समय रहनेवाले योगस्थान होते हैं। श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उनके ऊपर चार समय रहनेवाले योगस्थान होते हैं । श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उनके ऊपर तीन समय रहनेवाले योगस्थान होते हैं । श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र उनके ऊपर दो समय रहनेवाले योगस्थान
आप्रतौ पुवं परूविदं पमाणं' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'पंच-दुसमइय-' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'पमाणाणं' इति पाठः। ४ अ-आ-काप्रतिषु ' उवरि सत्तणिद्देसो',ताप्रतौ 'उवरि' [सत] ति णिदेसो' इति पाठः।
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१, २, ४, २०१] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया . [१९७ जोजेदव्वाणि । एवं समयपरूवणा समत्ता ।
(वढिपरूवणदाए अत्थि असंखेज्जभागवड्ढ-हाणी संखेज्जभागवड्ढ-हाणी' संखेज्जगुणवढि-हाणी असंखेज्जगुणवढि-हाणी ॥
वड्डिपरूवणा किमट्ठमागदा ? जोगट्ठाणेसु एत्तियाओ वड्डि-हाणीओ अत्थि एत्तियाओं पत्थि त्ति जाणावणट्ठमागदा । णेदं पओजणं, परंपरोवणिधादो चेव तदवगमादो ? ण, दुगुण-दुगुणजोगट्ठाणपदुप्पायणे तिस्से वावारादो। जोगट्ठाणवड्डि-हाणीणं पमाणपरूवणटुं तासिं कालपरूवणटुं च वडिपरूवणा आगदा त्ति सिद्धं ।।
(संपहि एत्थ वड्डिपरूवणं कस्सामो । तं जहा- जहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहार विरलेदण जहण्णजोगट्ठाणं समखंडं कादर्ण दिण्णे स्वं पडि एगेगजोगपक्खेवो पावदि । पुणो तत्थ एगपक्खेवं घेतूण जहण्णजोगहाणं पडिरासिय पक्खित्ते असंखेज्जभागवड्डी होदि।
श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं , यह जोड़ना चाहिये । इस प्रकार समयप्ररूपणा समाप्त हुई।
वृद्धिप्ररूपणाके अनुसार योगस्थानोंमें असंख्यातभागवृद्धि-हानि, संख्यातभागवृद्धिहानि, संख्यातगुणवृद्धि-हानि और असंख्यातगुणवृद्धि-हानि; ये वृद्धियां व हानियां होती हैं । २०१॥
शंका- वृद्धिप्ररूपणा किसलिये प्राप्त हुई है ? .
समाधान- योगस्थानों में इतनी वृद्धि-हानियां हैं और इतनी नहीं हैं, इस बातके शापनार्थ यह वृद्धिप्ररूपणा प्राप्त हुई है।
__ शंका- यह कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि, परम्परोपनिधासे ही उनका ज्ञान हो जाता है ?
___ समाधान- नहीं, क्योंकि, परम्परोपनिधाका व्यापार दुगुणे दुगुणे योगस्थानोंका परिक्षान कराने में है। योगस्थानोंकी वृद्धि व हानिका प्रमाण बतलानेके लिये तथा उनके कालकी भी प्ररूपणा करने के लिये वृद्धिप्ररूपणा प्राप्त हुई है, यह सिद्ध है।
- अब यहां वृद्धिकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारको विरलित कर जघन्य योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति एक एक योगप्रक्षेप प्राप्त होता है । अब उनमेंसे एक योगप्रक्षेपको ग्रहण करके जघन्य योगस्थानको प्रतिराशि कर उसमें मिला देनेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। द्वितीय
'संखेज्जभागवादि-हाणी' इत्येतावानयं पाठः प्रतिष्वनुपलभ्यमानो मप्रतितोऽत्र योजितः। छ. के. ६३.
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४९८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, २०१. विदियपक्खेवं बिदियजोगट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि । एवं पक्खेवभागहारमुक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ एगखंडम्मि जत्तिया पक्खेवा अस्थि ते रूवूणा जाव पविसति ताव असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि । एत्थ जहण्णजोगट्ठाणं पेक्खिदूण असंखेज्जभागवड्डी समत्ता ।
- पुणो संपुण्णेगखंडमेत्तपक्खेवेसु पविढेसु जहण्णजोगट्ठाणं पेक्खिदूण संखेज्जभागवड्डीए आदी जादा । पुणो बिदियखंडमेत्तपक्खेवेसु पविढेसु संखेज्जभागवड्डी चेव । एवं ताव संखेज्जभागवड्डी चेव गच्छदि जाव रूवूणविरलणमेत्तपक्खेवा पविट्ठा त्ति । एत्थ संखेज्जभागवड्डीए समत्ती जादा ।
तदो अण्णेगे' पक्खेवे पविढे जहण्णजोगट्ठाणं पेक्खिदूण संखेज्जगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो प्पहुडि उवरि संखेज्जगुणवड्डी ताव गच्छदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जच्छेदणयमेत्तगुणहाणीणं चरिमजोगट्टाणेति । तत्तो अणंतरउवरिमजोगट्ठाणं जहण्णजोगहाणं पेक्खिदूण जहण्णपरित्तासंखेज्जगुणं होदि । एत्थ असंखेज्जगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो प्पहुडि उवरिमसव्वजोगट्ठाणाणि जहण्णजोगट्ठाणं पेक्खिदूण असंखेज्जगुणाणि चेव,
योगस्थानको प्रतिराशि करके उसमें द्वितीय प्रक्षेपको मिला देनेपर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है । इस प्रकार प्रक्षेपभागहारके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण खण्ड करके उनसे एक खण्डमें जितने प्रक्षेप हैं वे एक रूपसे हीन होकर जब तक प्रविष्ट होते हैं तब तक असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। यहां जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके असंख्यातभागवृद्धि समाप्त हो जाती है।
पुनः सम्पूर्ण एक खण्ड प्रमाण प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होनेपर जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके संख्यातभागवृद्धिका आदि स्थान होता है । पश्चात् द्वितीय खण्ड मात्र प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होनेपर संख्यातभागवृद्धि ही रहती है। इस प्रकार रूप कम विरलन राशिके बराबर प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक संख्यातभागवृद्धि ही चली जाती है। यहां संख्यातभागवृद्धिकी समाप्ति हो जाती है।
तत्पश्चात् एक अन्य प्रक्षेपके प्रविष्ट होने पर जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके संख्यातगुणवृद्धिका आदि स्थान होता है। यहांसे लेकर आगे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर गुणहानियोंके अन्तिम योगस्थान तक संख्यात. गुणवृद्धि ही चली जाती है । उससे आगेका अनन्तर योगस्थान जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके जघन्य परीतासंख्यातसे गुणित होता है। यहां असंख्यातगुणवृद्धिका आदे स्थान होता है। यहांसे लेकर आगे सब योगस्थान जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा करके असंख्यातगुणित ही हैं, क्योंकि, वहां दूसरी वृद्धियोंका अभाव है। इस
ताप्रतौ ' अणेगे' इति पाठः। २ प्रतिषु 'जहण्णजोगट्ठाणाणं ' इति पाठः ।
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१, २, ४, २०३ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[४९९ तत्थण्णवड्ढीणमभावादो। एवं जहण्णजोगट्ठाणमस्सिदूण जहा चत्तारिवड्डीओ परूविदाओ तहाँ सबजोगट्ठाणाणि पुध पुध अस्सिदूण समयाविरोहेणे चत्तारिवड्ढिपरूवणा कायव्वा ।
तिण्णिवढि-तिण्णिहाणीओ केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण एगसमयं ॥२०२॥
तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणीओ त्ति वुत्ते आदिमाणं तिण्हं गहणं कायव्वं, असंखेज्जगुणवड्डि-हाणीणमुवरि पुध परूवणदंसणादो। असंखेज्जभागवड्डीए जहण्णेण एगसमयमच्छिदूर्ण बिदियसमए सेसतिणं वड्ढीणमेगवड्डिं चदुण्णं हाणीणमेगतमहाणिं वा गदस्स असंखेज्जभागवड्डिकालो जहण्णेण एगसमओ होदि । एवं सेसदोवड्डीणं तिण्णिहाणीणं च एगसमयपरूवणा कायव्वा।
उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो ॥२०३ ।।
एदस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा - एगजीवो जम्हि कम्हि वि जोगट्ठाणे विदो असंखेज्जभागवड्डिजोगं गदो । तत्थ एगसमयमच्छिदूण बिदियसमए तत्तो असंखेज्जदि
प्रकार जघन्य योगस्थानका आथय करके जैसे चार वृद्धियोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही पृथक् पृथक् सब योगस्थानोंका आश्रय करके समयाविरोधपूर्वक चार वृद्धियोंकी प्ररूपणा करना चाहिये।।
तीन वृद्धियां और तीन हानियां कितने काल होती हैं ? जघन्यसे वे एक समय होती हैं । २०२॥
- 'तीन वृद्धियां और तीन हानियां' ऐसा कहनेपर आदिकी तीन वृद्धि हानियोंको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, असंख्यातगुणवृद्धि और हानिकी पृथक् प्ररूपणा देखी जाती है। असंख्यातभागवृद्धिगर जघन्यसे एक समय रहकर द्वितीय समयमें शेष तीन वृद्धियोंमें किसी एक वृद्धि अथवा चार हानियाम किसी एक हानिको प्राप्त होनेपर असंख्यातभागवृद्धिका काल जघन्यसे एक समय होता है। इसी प्रकार शेख .दो वृद्धियों और तीन हानियों के एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिये ।
उत्कर्षसे उक्त हानि-वृद्धियोंका काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ॥२०३॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- एक जीव जिस किसी भी योगस्थानमें स्थित होकर असंख्यातभागवृद्धियोगको प्राप्त हुआ। वहां एक समय रहकर दूसरे समयमै उससे असंख्यातवें भागसे अधिक योगको प्राप्त हुआ। इस प्रकार
ताप्रती 'चत्तारिवड्डीओ सहा' इति पाठः। २ अ आ-काप्रतिषु 'समयाविरोहोण' इति पाठः।३ प्रतिष लिविणवडटि-तिपिणहाणी' इति पाठः। ४ अप्रतौ -मस्सिदूण' इति पाठः। ५ अ-आ-काप्रति 'दोवदितिष्णिहाणीण' । इति पाठः। ६ वुड्डीहाणिचउक्कं तम्हा कालोत्थ अंतिमल्लीणं। अंतोमुत्तमावलिअसंखभागो ये सेसाणं ॥क.प्र.., ११.
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५०..]
छखंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, २०४. मागुत्तरजोगं गदो। एवं दोपणमसंखेज्जभागवड्डिसमयाणमुवलद्धी जादा । तदो तदियसमए तत्तो असंखेज्जदिभागुत्तरमण्णजोगं गदो। तत्थ तिपिणमसंखेज्जभागवड्डिसमयाणमुवलट्टी जादा । एवं णिरंतरमसंखेज्जभागवहिं ताव कुणदि जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो ति। तदो उवरिमसमए णिच्छएण अण्णवड्डीणमण्णहाणीणं वा गच्छदि ति । एवं सेसवडि-हाणीणं पि सगणामणिद्देसं काऊण उक्कस्सकालपरूवणा कायव्वा ।
असंखेज्जगुणवढि-हाणी केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण एगसमओ ॥ २०४॥
___ असंखेज्जगुणवड्डिमसंखेज्जगुणहाणिं वा एगसमयं काऊण अणप्पिदवड्डि-हाणीणं गदस्स एगसमओ होदि ।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २०५॥
असंखेज्जगुणवड्डीए असंखेज्जगुणहाणीए वा सुट्ठ जदि बहुअं कालमच्छदि तो अंतोमुहुत्तं चेव । पुणो उवरिमसमए णिच्छएण अण्णवडि-हाणीओ गच्छदि त्ति जवमज्झादो हेहिमचदुसमइय-उवरिमतिसमइय-विसमइयजोगट्ठाणेसु चत्तारिवड्डि-हाणीयो अस्थि त्ति । तत्थच्छणकालो जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सेसजोगट्ठाणेसु परियट्टणकालो
असंख्यातभागवृद्धिके दो समयोंकी उपलब्धि हुई । पश्चात् तृतीय समयमें उसकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक दूसरे योगको प्राप्त हुआ। वहां असंख्यातभागवृद्धिके तीन समय उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक निरन्तर असंख्यातभागवृद्धिको करता है । तत्पश्चात् आगेके समयमें निश्चयसे दूसरी वृद्धियों या हानियों को प्राप्त होता है । इसी प्रकार शेष वृद्धि हानियोंके भी अपने नामका निर्देश कर उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा करना चाहिये ।
असंख्यातगुणवृद्धि और हानि कितने काल होती हैं ? जघन्यसे वे एक समय होती हैं॥२०४॥
असंख्यातगुणवृद्धि अथवा असंख्यातगुणहानिको एक समय करके अविवक्षित वृद्धि या हानिको प्राप्त होनेपर एक समय होता है।
उक्त वृद्धि व हानि उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है ॥ २०५॥
असंख्यातगुणवृद्धि अथवा हानिपर यदि बहुत अधिक काल रहे तो वह अन्तमुहूर्त तक ही रहता है । इसके पश्चात् आगेके समयमें निश्चयसे दूसरी वृद्धि या हानिको प्राप्त होता है। इसी कारण यवमध्यसे नीचे के चार समय रहनेवाले और ऊपरके तीन समय व दो समय रहनेवाले योगस्थानोंमें चार वृद्धियां और हानियां होती हैं। वहां रहनेका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त है। शेष योगस्थानों में
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४, २, ४, २०५ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ५०१
जद्दण्णेण एगसमयमुक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो, तत्थ असंखेज्जभागवडि मोत्तूर्ण अण्णवड्डीणमभावादो ।
संपहि जवमज्झादो उवरिमच दुसमयपाओग्गजोगट्ठाणेसु परिणममाणस्स असंखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवडीओ चेव होंति । कधमेदं णव्वदे ? सव्वजीवसमासाणं जहण्णपरिणाम जोगट्ठाण पहुडि जाव अप्पप्पणो उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणेत्ति एदाणि जोगट्ठाणाणि अस्सिदूण उवरि भण्णमाणअप्पा बहुग सुत्तम्मि जवमज्झादो हेडिम उवरिमच दुसमइयजोगट्ठाणाणि सरिसाणित्ति निद्दित्तादो | जोगट्ठाणे च हेट्ठिमसव्वाणादो सादिरेयमद्धाणं गंतूण उवरिमदुगुणवड्ढी उप्पज्जदि । एवं सदि हे वरिमपंचसमय दिजोगंट्ठाणाणि पढमगुणहाणि - मेत्ताणि जदि होंति तो उवरिमचदुसमइयाणं चरिमसमए दुगुणवड्ढी समुप्पज्जेज्ज' । ण च एवं, तहाविहोवदेसाभावादो । पुणो के रिसो उवदेसो त्ति पुच्छिदे उच्चदे - उवरिमचदुसमइयजोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणादो हेट्ठा असंखेज्जदिभागमेत्तमोसरिय दुगुणबड्डी होदि ति उवरिमचदुसमयपाओग्गेसु दो चेव वड्डीओ होंति त्ति एसो पवाइज्जतउवएसो । पवाइज्जत
परिवर्तनका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि, वहां असंख्यात भागवृद्धिको छोड़कर दूसरी वृद्धियोंका अभाव है । अब यवमध्यसे ऊपर के चार समय योग्य योगस्थानोंमें परिणमन करनेवाले के असंख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि ही होती है ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान सब जीवसमासों के जघन्य परिणामयोगको आदि लेकर अपने अपने उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान तक इन योगस्थानोंका आश्रय करके आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वसूत्रमें ' यवमध्यसे नीचे के और ऊपर के चार समय योग्य योगस्थान सदृश हैं' ऐसा निर्देश किया गया है । और योगस्थानमें अधस्तन समस्त अध्वान से सांधिक अध्वान जाकर उपरिम दुगुणवृद्धि उत्पन्न होती है । ऐसा होनेपर अधस्तन व उपरिम पंचसामयिक आदि योगस्थान यदि प्रथम गुणहानेि मात्र होते हैं तो ऊपर के चतुःसामयिक योगस्थानों के अन्तिम समय में दुगुणवृद्धि उत्पन्न हो सकती है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा उपदेश नहीं है । तो फिर कैसा उपदेश है, ऐसा पूछने पर कहते हैं कि ऊपरके चार समय योग्य योगस्थानोंमें अन्तिम योगस्थानसे नीचे असंख्यातवें भाग मात्र उतर कर दुगुणवृद्धि होती है । अत एव ऊपरके चार समय योग्य योगस्थानों में दो ही वृद्धियां होती हैं, ऐसा परम्पराप्राप्त उपदेश है ।
•
१ मप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'पंचसमया ओजोग' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु समप्पेज्ज' मप्रतौ
समुप्पेज इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु ' पवाइज्जति ' इति पाठः ।
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५०२) छक्खडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, २०५. उवएसो त्ति कुदो णव्वदे ? पवाइज्जंतउवएसेण जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एक्कारस समया । अण्णदरेण उवएसेण जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण पण्णारस समया त्ति पदेसबंधसुत्तादो त्ति । तेण णव्वदि' जहा उवरिमचदुसमइयजोगहाणेसु दो चेव वड्डीओ, संखेज्जगुणवड्डी णस्थि त्ति।
संपहि एदेणेव सुत्तेण सूचिदवड्ढिकालाणमप्पाबहुगं वुच्चदे । तं जहा- सव्वत्थोवो असंखेज्जभागवड्डि-हाणिकालो । संखेज्जभागवड्डि-हाणिकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? असंखेज्जभागवड्डि [-हाणि] विसयादो संखेज्जभागवड्डि-हाणिविसयस्स संखेज्जगुणत्तुवलंभादो त्ति । विसयगुणगाराणुसारी कालगुणगारो किण्ण वुत्तो ? ण, परियदृणभेदेण कालस्स असंखेज्जगुणत्तं पडि विरोहाभावादो । खेज्जगुणवड्डि. संखेज्जगुणहाणीण' कालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? संखेज्जभागवाड्ढ-हाणिविसयादो संखेज्जगुणवड्डि-हाणीणं विसयस्स संखेज्जगुणतुवलंभादो । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणिकालो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? आवलियाए
शंका- यह परम्पराप्राप्त उपदेश है, यह कहांसे जाना जाता है ?
समाधान- परम्पराप्राप्त उपदेशके अनुसार जधन्यसे एक समय और उत्कर्षसे ग्यारह समय हैं। अन्यतर उपदेशके अनुसार जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पन्द्रह समय हैं, इस प्रदेशबन्धसूत्रसे वह जाना जाता है।
इसीसे जाना जाता है कि ऊपरके चार समय योग्य योगस्थानों में दो ही वृद्धियां होती हैं, संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती। - अब इसी सूत्रसे सूचित वृद्धिकालोंके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है- असंख्यातभागवृद्धि और हानिका काल सबमें स्तोक है। उससे संख्यातभागवृद्धि और हानिका काल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असं. ख्यातवां भाग है, क्योंकि, असंख्यातभागवृद्धि व हानिके विषयसे संख्यातभागवृद्धि और हानिका विषय संख्यातगुणा पाया जाता है।
शंका-विषयगुणकारके समान कालके गुणकारको क्यों नहीं कहा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, परिवर्तनके भेदसे कालके असंख्यातगुणे होने कोई विरोध नहीं है।
उससे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका काल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, संख्यातभागवृद्धि और हानिके विषयसे संख्यातगुणवृद्धि और हानिका विषय संख्यातगुणा पाया जाता है। उससे असंख्यातगुणवृद्धि और हानिका काल असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुण
१ अप्रतौ ' णव्वदे ' इति पाठः। २ तापतौ 'विरोहाभावादो । संखेज्जगुणहाणीणं ' इति पाठः।
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१, २, ४, २०७. ]
वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
असंखेज्जदिभागो | कुदो ? संखेज्जगुणवड्डि हाणिविसयादो असंखेज्जगुणवड्डि-हाणिविसयस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । वड्ढि - हाणिकालो विसेसाहियो । केत्तियमेत्तेण ? सेसवड्ढा - हाणि - कालमेत्तेण । एवं वड्ढिपरूवणा समत्ता ।
अप्पा बहुपत्ति सव्वत्थोवाणि अट्ठसमइयाणि जोगट्टाणाणि ||
अप्पा बहुगपरूवणा किम मागदा ! अट्ठसमइयादिजोगट्ठाणाणं सेडीए असंखेज्जदिभागण अवगदपमाणाणं थोवबहुत्तपरूवणङ्कं । सव्वत्थोवाणि' त्ति भणिदे उवरि भण्णमाणजोगेट्ठाणेहिंतो थोवाणि त्ति भणिदं होदि ।
[ ५०३
दोसु वि पासेसु सत्तसमइयाणि जोगट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ २०७ ॥
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । उवरि बुच्चमाणअ पाबहुगपदेसेसु सव्वत्थ एसो चेव गुणगारो वत्तव्वो ।
कार आवलीका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, संख्यातगुणवृद्धि और हानिके विषय से असंख्यात गुणवृद्धि और हानिका विषय असंख्यातगुणा पाया जाता है । वृद्धि और हानिका काल उससे विशेष अधिक है । कितने मात्र विशेष से वह अधिक है ? वह शेष वृद्धियों और हानियोंके काल मात्र विशेषसे अधिक है । इस प्रकार वृद्धिप्ररूपणा समाप्त हुई ।
अल्पबहुत्व के अनुसार आठ समय योग्य योगस्थान सबमें स्तोक हैं ॥ २०६॥ शंका - अल्पबहुत्वप्ररूपणा किसलिये प्राप्त हुई है ?
समाधान - श्रेणिके असंख्यातवें भाग स्वरूपसे जिनका प्रमाण ज्ञात हो चुका है उन अष्टसामयिक आदि योगस्थानोंका अल्पबहुत्व बतलाने के लिये अल्पबहुत्वप्ररूपणा प्राप्त हुई है ।
'
सबमें स्तोक हैं ' ऐसा कहनेपर आगे कहे जानेवाले योगस्थानोंसे स्तोक हैं, यह अभिप्राय ग्रहण किया गया है ।
दोनों ही पार्श्वभागों में सात समय योग्य योगस्थान दोनों ही तुल्य व उनसे असंख्यातगुणे हैं ॥ २०७॥
गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । आगे क जानेवाले अल्पबहुत्वप्रदेशों में सर्वत्र यही गुणकार कहना चाहिये ।
१ काप्रतौ ' सव्वत्थोवा' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु भण्णमाणओजोग', ताप्रतौ ' मण्णमाण [ओ ] जोग' इति पाठः ।
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५०४]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, २०८. दोसु वि पासेसु छसमइयाणि जोगट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि ॥२०८ ॥
दोसु वि पासेसु पंचसमइयाणि जोगट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ २०९॥
एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
दोसु वि पासेसु चदुसमइयाणि जोगट्ठाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि ॥२१०।।
उवरि तिसमइयाणि जोगट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि'॥२११॥
एत्थ उवरि ति णिद्देसो किमटुं कदो ? उवरि भण्णमाणतिसमइय-बिसमइयजोगट्ठाणाणि' जवमज्झादो उवरि चेव होंति, हेट्ठा ण होति त्ति जाणावणहूँ ।
बिसमइयाणि जोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥२१२॥
दोनों ही पार्श्वभागोंमें छह समय योग्य योगस्थान दोनों ही तुल्य व उनसे असंख्यातगुणे हैं ॥ २०८॥
दोनों ही पार्श्वभागोंमें पांच समय योग्य योगस्थान दोनों ही तुल्य व उनसे असंख्यातगुणे हैं ॥ २०९॥
ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं ।
दोनों ही पार्श्वभागोमें चार समय योग्य योगस्थान दोनों ही तुल्य व उनसे असंख्यातगुणे हैं ॥ २१० ॥
उनसे तीन समय योग्य उपरिम योगस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २११ ॥ शंका- यहां उपरि' शब्दका निर्देश किसलिये किया है ?
समाधान- आगे कहे जानेवाले तीन समय और दो समय योग्य योगस्थान यवमध्यसे ऊपर ही होते हैं, नीचे नहीं होते; इस बातके शापनार्थ सूत्र में उवरि' शब्दका निर्देश किया है।
उनसे दो समय योग्य योगस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २.१२ ॥
१ अ-आ-काप्रतिषु 'असंखेज्जगुणाणि ' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अप्रतौ तिसमयनोगहाणा', आ-ताप्रत्योः 'तिसमझ्यजोगट्ठाणाणि', काप्रतौ 'तिसमश्याणि जोगट्ठाणाणि ' इति पाठः।
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'४, २, ४, २१३. ] वेयणमद्दाहियारे वेयणदव्वविद्दाणे चूलिया
सुगमं । एवमप्पा बहुगपरूवणा समत्ता ।
जाणि चैव जोगट्टाणाणि ताणि चेव पदेसंबंधट्टाणाणि । णवरि पदेसबंधट्टाणाणि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि ॥ २१३ ॥
दसहि अणियोगद्दारेहि' जोगट्ठाणपरूवणाए परुविदाए किमट्ठमिदं सुत्तमागदं ? बुच्चदे - एदाणि सवित्थरेण परूविदजोगट्ठाणाणि चेव पदेसबंधकारणाणि, ण अण्णाणि त्ति जाणाविय गुणिदकम्मंसिओ उक्कस्सजोगेसु चेव, खविदकम्मंसिओ जहण्णजोगेसु चेव हिंडाविदो | तस्स सफलत्तपरूवणदुवारेण बंधमस्सिदूण अजहण्ण- अणुक्कस्सदव्वाणं द्वाणपरूवणमागदा । एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे ताव जोगट्ठाणाणं सव्वेसि पि रचणा कायव्वा । एवं काढूण एदस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा1 जाणि चेव जोगट्ठाणाणि त्ति भणिदे जत्तियाणि जोगट्ठाणाणि त्ति वृत्तं होदि । ताणि चेव पदेसंबंधट्ठाणाणि त्ति भणिदे तत्तियाणि चेव पदे सबंध द्वाणाणि त्ति घेत्तव्वं । तं जहा- जहण्णजोगेण अट्ठ बंधंतस्स तमेगं णाणा
यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार अल्पबहुत्वप्ररूपणा समाप्त हुई ।
जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबन्धस्थान हैं । विशेष इतना है कि प्रदेशबन्धस्थान प्रकृतिविशेषसे विशेष अधिक हैं ॥ २१३ ॥
-
शंकादस अनुयोगद्वारोंसे योगस्थानप्ररूपणा के कर चुकनेपर फिर यह सूत्र किसलिये आया है ?
-
समाधान- इस शंकाका उत्तर कहते हैं । विस्तारसे कहे गये ये योगस्थान ही प्रदेशबन्ध के कारण हैं, अन्य नहीं हैं, ऐसा जतला कर गुणितकर्माशिकको उत्कृष्ट योगों में ही और क्षपितकर्माशिकको जघन्य योगों में ही जो घुमाया है उसकी सफलताकी प्ररूपणा द्वारा बन्धका आश्रय करके अजघन्य - अनुत्कृष्ट द्रव्योंके स्थानोंकी प्ररूपणा के लिये उक्त सूत्र प्राप्त हुआ है ।
७. वे. ६४,
[ ५०५
इस सूत्र का अर्थ कहते समय प्रथमतः सभी योगस्थानोंकी रचना करना चाहिये। ऐसा करके इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- ' जाणि चेव जोगट्टाणाणि ' ऐसा कहनेपर 'जितने योगस्थान हैं ' ऐसा उसका अर्थ होता है । 'ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि ' ऐसा कहनेपर ' उतने ही प्रदेशबन्धस्थान हैं' यह अर्थ ग्रहण करना चाहिये । यथा - जघन्य योगसे आठ कर्मोंको बांधनेवालेके वह
१ अ आ-काप्रतिषु ' अणियोगद्दाराहि ' इति पाठः ।
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५०६]
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, २१३. वरणीयस्स पदेसवंधट्ठाणं होदि । पुणो पक्खेवुत्तरजोगट्ठाणेण बिदिएण बंधमाणस्स बिदियं पदेसबंधट्ठाणं होदि । एदेण कमेण णेयव्वं जाव उक्कस्सजेोगट्ठाणेत्ति । एवं णीदे जोगट्ठाण मेत्ताणि चेव णाणावरणीयस्स पदेसबंधट्ठाणाणि लद्धाणि हवंति । तदो जाणि चेव जोगट्ठाणाणि ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि त्ति सिद्धं । एवमाउअवज्जाणं सव्वकम्माणं वत्तव्वं । णवरि आउअस्स उववाद-एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि मोत्तूण सेसपरिणामजोगट्टाणमेत्ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि वत्तव्वाणि ।
'णवीर पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि ' त्ति एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहाएत्थ ताव संदिट्ठीए जहण्णजोगदव्वमट्ठसहि सदमेतं होदि ११६८ । सव्वजोगट्ठाणाणं पमाणं संदिट्ठीए छत्तीसुत्तरतिसदमेतं होदि |३३६ । पुव्वमेत्तियमेत्ताणि पदेसबंधट्ठाणाणि णाणावरणीएण लद्धाणि ।
संपहि जहा एदेहिंतो विससाहियाणि णाणावरणीयपदेसबंधट्टाणाणि होति तहा परूवेमो-जहण्णजोगेण अट्ठ पयडीओ बंधमाणस्स णाणावरणभंगो । संदिट्ठीए एक्कवीस |२१ । । सत्तं बंधमाणस्स णाणावरणभंगो । चउवीस | २४ । संपहि एत्थ दोण्हं दव्वाण सरिसत्तं णत्थि । पुणो कधं होदि त्ति भणिदे जहण्णजोगट्ठाणादो सत्तभागब्भहियजोगट्ठाणेण
शानावरणीयका एक प्रदेशबन्धस्थान होता है । पश्चात् प्रक्षेप अधिक द्वितीय योगस्थानसे बांधनेवालेके द्वितीय प्रदेशबन्धस्थान होता है। इस क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थान तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार ले जानेपर योगस्थानों के बराबर ही ज्ञानावरणीयके प्रदेशबन्धस्थान प्राप्त होते हैं । अत एव जितने ही योगस्थान हैं उतने ही प्रदेशबन्धस्थान हैं, यह सिद्ध है। इसी प्रकार आयुको छोड़कर सब कर्मोके कहना चाहिये। विशेषता यह है कि आयु कर्मके उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानोंको छोड़कर शेष परिणामयोगस्थानोंके बराबर ही प्रदेशबन्धस्थानोंको कहना चाहिये।
‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि ' इस सूत्रांशका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- यहां संदृष्टि में जघन्य योगके द्रव्यका प्रमाण एक सौ अड़सठ है (१६८)। सब योगस्थानोंका प्रमाण संदृष्टि में तीन सौ छत्तीस (३३६ ) है । पहिले ज्ञानावरणीयके द्वारा इतने मात्र प्रदेशन्धस्थान प्राप्त किये गये हैं।
अब जिस प्रकार इनसे विशेष अधिक ज्ञानावरणीयके प्रदेशबन्धस्थान होते हैं उसे बतलाते हैं- जघन्य योगसे आठ प्रकृतियोंको बांधनेवालेकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । संदृष्टिमें इनके लिये इक्कीस (२१) अंक हैं। सात प्रकृतियोंको बांधनेवालेकी प्ररूपणा शानावरणके समान है। इसके लिये संदृष्टि में चौबीस (२४) अंक हैं । अब यहां दोनों द्रव्योंके सदृशता नहीं है । फिर कैसे सदृशता होती है, ऐसा पउनेपर कहते हैं कि जघन्य योगस्थानसे सातवें भाग अधिक योगस्थानके
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४, २, ४, २१३.] वेयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे चूलिया [५०७ अटुं बंधमाणस्स णाणावरणदव्वं जहण्णजोगट्ठाणेण सत्तं बंधमाणस्स णाणावरणदव्वं च सरिसं होदि । एवं सरिसं कादूण अडविहबंधगो अट्ठपक्खेवाहियजोगट्ठाणेण सत्तविहबंधगो जहण्णजोगट्ठाणादो सत्तपक्खेवाहियजोगट्ठाणेण पुणो बंधावेदव्यो । एवं बंधे दोणं णणावरणदव्वं सरिसं होदि । एत्थ सत्तसु जोगट्ठाणेसु छज्जोगट्ठाणाणि अपुणरुत्ताणि लद्धाणि । सत्तमजोगट्ठाणं पुणरुतं, अवविहबंधगदव्वेण समाणत्तादो । तेण तमवणेदव्वं । पुणो वि अट्ठविहबंधगो अट्ठपक्खेवाहियोगट्ठाणेण बंधमाणो, सत्तपक्खेवाहियजोगट्ठाणेण बंधमाणों सत्तविहबंधगो च, सरिसा । एत्थ वि छ-अपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणाणि लभंति । सत्तमं पुणरुतं होदि । एवं णेदव्वं जाव वुक्कस्सजोगट्ठाणेण बंधमाणअट्ठविहबंधगणाणावरणदव्वेण तत्तो अट्ठमभागहीणजोगहाणेण बंधमाणसत्तविहबंधगणाणावरण दव्यं सरिसं जादेति । एत्थ अपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणेसु आणिज्जमाणेसु अट्ठमभागहीणसव्वजोगट्ठाणद्धाणमिच्छा कायव्वा । किमट्ठ माण कीरदे ? एत्तियमेत्तजोगट्ठाणेहि सत्तविहबंधगो उक्कस्सजोगट्ठाणं ण पत्तो त्ति ।
आठको बांधनेवालेका ज्ञानावरणद्रव्य और जघन्य योगस्थानसे सात प्रकृतियोंको बांधनेवाले का ज्ञानावरणद्रव्य सदृश होता है। इस प्रकार सहश करके आठ प्रक्षेप अधिक योगस्थानसे अधविध बन्धकको तथा जघन्य योगस्थानकी अपेक्षा सात प्रक्षेप अधिक योगस्थानसे सप्तविध बन्धकको फिरसे बंधाना चाहिये । इस प्रकार बन्ध होनेपर दोनोंका ज्ञानावरणद्रव्य सदृश होता है । यहां सात योगस्थानों में छह योगस्थान अपुनरुक्त पाये जाते हैं । सातवां योगस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि वह अष्टविध बन्धकके द्रव्यसे समान है । अत एव उसको कम करना चाहिये । फिरसे भी आठ प्रक्षेप अधिक योगस्थानसे बांधनेवाला अष्टविध बन्धक, और सात प्रक्षेप अधिक योगस्थान से बांधनेवाला सप्तविध बन्धक, ये दोनों सदृश है । यहां भी छह अपुनरुक्त प्रदेशबन्ध. स्थान पाये जाते है । सातवां स्थान पुनरुक्त है। इस प्रकार तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि उत्कृष्ट योगस्थानसे बांधनेवाले अविध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यले उसकी अपेक्षा आठवें भागसे हीन योगस्थान द्वारा बांधनेवाले सप्तविध बन्धकका ज्ञानावरणद्रव्य समान न हो जावे। यहां अपुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थानीको लाते समय आठवें भागसे रहित समस्त योगस्थानाध्वानको इच्छा राशि करना चाहिये।
शंका- आठवें भागसे हीन किसलिये किया जाता है ?
समाधान- चूंकि इतने मात्र योगस्थानोंसे सप्तविध बाधक उत्कृष्ट योगस्थानको नहीं प्राप्त हुआ है, अत एव उतना हीन किया गया है।
आप्रती बंधमाणियस ' इति पाठः। अ-आ-काप्रतिषु सतबंधमाणणाणा-' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु · बंधमाणस्स', साप्रती · बंधमाणस्स (बंधमाणो)' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु 'किमहमाण' इति पाठः । ४ अप्रतौ 'एत्तियमेतहि जोगहाणेहि', आप्रतौ 'एलियमेत्तं जोगहाणेहि ' इति पाठः।
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५०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, २१३. संपहि सत्तसु जोगहाणेसु जदि छ-अपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणाणि लब्भंति तो अट्ठमभागहीणसव्वजोगट्ठाणाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सव्वजोगट्ठाणाणं छ-अट्ठभागा लभंति | ६ || पुणो सत्तविहबंधगे पक्खेवुत्तरकमेण उवरिमजोगट्ठाणेहि बंधाविदे सव्वजोगट्ठा- |८|णाणमट्ठमभागमेत्तपदेसबंधगट्ठाणाणि णाणावरणीयस्स लब्भंति | १.।। पुणो एदं पुन्विल्लट्ठाणेसु पक्खित्ते सत्त-अट्ठभागा होति |७|| संपहि एत्थ | ८| एत्तियाणि चेव णाणावरणपदेसबंधट्ठाणाणि लद्धाणि । ८
संपहि सत्त-छविहबंधगे अस्सिदूण लब्भमाणहाणाणं परूवणं कस्सामो । तं जहाजहण्णजोगट्ठाणेण बंधमाणछविहबंधगणाणावरणीयदवेण तत्तो छब्भागुत्तरजोगट्ठाणेण बंधमाणसत्तविहबंधगणाणावरणदव्वं सरिसं होदि। पुणो सत्तपक्खेवाहियजोगट्ठाणेण बंधमाणसत्तविहबंधगस्स णाणावरणीयदव्वेण छविहबंधगस्स छजोगट्ठाणाणि चडिदूण बंधमाणस्स णाणावरणदव्वं सरिसं होदि। एत्थ पंचपदे संबंधट्ठाणाणि अपुणरुत्ताणि लभंति । छटुं पुणरुतं, तेण तमवणेदव्वं । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्ठाणेण सत्तबंधमाणणाणावरणीयदव्वेण उक्कस्सट्ठाणादो सत्तमभागहीणजोगहाणेण बंधमाणछविहबंधगस्स णाणा
अब सात योगस्थानों में यदि छह अपुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थान पाये जाते हैं तो आठवें भागसे रहित सब योगस्थानों में कितने अपुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थान पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर सब योगस्थानोंके आठ भागों मेंसे छह भाग (है) प्राप्त होते हैं । पुनः सप्तविध बन्धकको प्रक्षेप अधिक क्रमसे उपरिम योगस्थानों के द्वारा बंधानेपर सब योगस्थानोंके आठवें भाग मात्र (1) ज्ञानावरणीयके प्रदेशबन्धस्थान पाये जाते हैं । फिर इसको पूर्वोक्त स्थानों में मिलानेपर सात बटे आठ भाग (४) होते हैं । अब यहां इतने ही ज्ञानावरणके प्रदेशबन्धस्थान पाये जाते हैं।
अब सप्तविध और षड्विध बन्धकोंका आश्रय करके पाये जानेवाले स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- जघन्य योगस्थानसे बांधनेवाले षड्विध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यसे उसकी अपेक्षा छठे भागसे अधिक योगस्थान द्वारा बांधनेवाले सप्तविध बन्धकका ज्ञानावरणद्रव्य समान होता है । पुनः सात प्रक्षेपोंसे अधिक योगस्थान द्वारा बांधनेवाले सप्तविध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यसे षड्विध बन्धकके छह योगस्थान चढ़कर बांधनेवालेका ज्ञानावरणद्रव्य समान होता है। यहां पांच प्रदेशबन्धस्थान अपुनरुक्त पाये जाते हैं । छठा स्थान पुनरुक्त होता है, अतः उसको कम करना चाहिये । इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानसे बांधनेवाले सप्तविध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यसे उत्कृष्ट स्थानकी अपेक्षा सातवें भागसे हीन योगस्थान द्वारा बांधनेवाले षविध बन्धकके ज्ञानावरणद्रव्यके समान हो जाने तक ले जाना चाहिये ।
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४, २, ४, २१३.] वैयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया ५०९ वरणदव्वं सरिसं जाद' ति । पुणो छव्विहबंधगहिदजोगट्ठाणादो हेट्ठिमट्ठाणेसु उप्पण्णअपुणरुत्तट्ठाणाणि भणिस्सामो । तं जहा- छसु जोगट्ठाणेसु जदि पंचअपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणाणि लब्भंति तो सत्तभागहीणजोगट्ठाणेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सव्वजोगट्ठाणाणं पंच-सत्तभागा लभंति | ५ । पुणो छविहबंधगे पक्खेवुत्तरकमेण उवरिमजोगट्ठाणे बंधाविदे सत्तभागमेत्तपदेसबंध- हाणाणि लब्भंति । पुणो एदाणि पुग्विल्लट्ठाणेसु [ पक्खित्ते ] छ-सत्तभागमेतपदेसबंधट्ठाणाणि लभंति | ६ || अट्ठविह-छविहबंधगाणं सण्णिकासो णत्थि, पुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणुप्पतीदो । एत्थ | 9 पुणरुत्तकारणं जाणिदूण वत्तव्वं । |१|७|६ | एदेसिं सरिसच्छेदं कादण मेलाविदे एत्तिय होदि | २ ।। पुणो एदेसिम-||८|७] संखेज्जदिभागमेत्ताणि आउअबंधस्स चउविहः | ४१ बंधस्स च अप्पाओग्गाणि उववाद एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि एत्थ पक्खिविदव्वाणि । १५ एवं पक्खित्ते जोगट्ठाणेहितो णाणावरणीयस्स पदेसबंधट्ठाणाणि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि त्ति
अब पविध बन्धकमें स्थित योगस्थानसे नीचेक स्थानों में उत्पन्न अपुनरुक्त स्थानोंको कहते हैं। यथा- छह योगस्थानों में यदि पांच अपुनरुक्त प्रदेशबन्ध. स्थान पाये जाते हैं तो सातवें भागसे हीन योगस्थानोंमें वे कितने पाये जायेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर सब योगस्थानोंके सात भागोंमेसे पांच भाग प्राप्त होते हैं-७ । पश्चात् षड्विध बन्धकको प्रक्षेप अधिक क्रमसे उपरिम योगस्थानके बंधानेपर सातवें भाग मात्र प्रदेशबन्धनस्थान पाये जाते हैं । अब इनको पूर्वके स्थानों में मिलानेपर सात भागों से छह भाग प्रमाण प्रदेशबन्धस्थान प्राप्त होते हैं ५ + 1 = । अविध और षड्विध बन्धकोंमें समानता नहीं है, क्योंकि, वहां पुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थानोंकी उत्पत्ति है। यहां पुनरुक्त होनेके कारणको जानकर कहना चाहिये । १ + + १ इनके समान छेद करके मिलानेपर इतना होता है ५६+६+६८ ५३ = २६६ । अब इसमें इनके असंख्यातवें भाग मात्र आयुबन्ध
और चतुर्विध बन्धके अयोग्य उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानों को मिलाना चाहिये। इस प्रकार मिलानेपर योगस्थानोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयके प्रदेशबन्धस्थान प्रकृतिविशेषसे विशेष अधिक है, यह सिद्ध होता है। इसी प्रकार शेष कौके भी सम्बन्ध में
मा-मामति 'मायो 'इति पाठा।
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५१.)
छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, २१३. . सिद्धं । एवं सेसकम्माणं पि वत्तव्वं । णवरि आउअस्स पयडिविसेसेण विसेसाहियत्तं पत्थि, अट्ठविहबंधगं मोतूण अण्णत्थ तस्स बंधाभावादो । . मोहणीयस्स पुण छविहबंधगेण सण्णिकासो णत्थि त्ति सत्तट्ठविहबंधगाणं सण्णिकासे कीरमाणे अपुणरुत्तपदेसबंधट्ठाणाणि जोगट्ठाणेहिंतो विसेसाहियाणि |१|| सुत्ते पुण. एसो विसेसो ण परूविदो । सव्वकम्माणं पि पयडिविसेसेण पदेसबंध- ट्ठाणाणि विसेसाहियाणि त्ति वुत्तं कधं घडदे ? ण, संखज्जगुणे वि विसेसाहियतं पडि विरोहाभावादो। ण आउएण विअहिचारो, पाधण्णफलावलंबणादो । अधवा एसत्यो ण एदस्स सुत्तस्स होदि, सबाहत्तादो । कधं सबाहत्तं ? पयडिविसेसो णाम पयडिसहाओ | ण तस्स पयडिसण्णिकासववएसो अस्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो । पयडिसण्णिकासे कीरमाणे वि जोगट्ठाणेहिंतो ण सव्वकम्मपदेसबंधहागाणं सादिरेयत्तमत्थि, मोहणीयं मोतूण अण्णत्थ तदणुवलंभादो। तदो एवमेदस्स अत्थो घेत्तयो- तम्हा जाणि चेव जोगहाणाणि ताणि चेव
कहना चाहिये। विशेष इतना है कि प्रकृतिविशेषसे आयुके विशेष अधिकता नहीं है, क्योंकि, अष्टविध बन्धकको छोड़कर अन्यत्र उसके बन्धका अभाव है।
परन्तु मोहनीय कर्मके पविध बन्धकके साथ चूंकि समानता नहीं है, अतः सप्तविध और अष्टविध बन्धकोंकी समानता करते समय अपुनरुक्त प्रदेशबन्धस्थान योगस्थानोंसे विशेष (१४ ) अधिक है । परन्तु सूत्र में यह विशेषता नहीं बतलाई गई है।
शंका-सब कर्मों के भी प्रदेशबन्धनस्थान प्रकृतिविशेषले विशेष अधिक हैं, यह कथन कैसे घटित होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, संख्यातगुणितमें भी विशेष अधिकताके प्रति कोई विरोध नहीं है । आयु कर्मसे व्यभिचार आता हो, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, यहां प्रधान रूपसे फलका अवलम्बन किया है। अथवा यह अर्थ इस सूत्रका नहीं है, क्योंकि, वह बाधायुक्त है।
शंका- वह बाधित कैसे है ?
समाधान- प्रकृतिविशेषका अर्थ प्रकृतिस्वभाव है। उसकी प्रकृतिसन्निकर्ष संज्ञा नहीं है, क्योंकि, दूसरी जगह वैसा पाया नहीं जाता । प्रकृतिसन्निकर्ष करने पर भी योगस्थानोंकी अपेक्षा सब कर्मप्रदेशबन्धस्थानोंके साधिकता नहीं बनती, क्योंकि, मोहनीयको छोड़कर अन्य कर्मों में वह पायी नहीं जाती।
___इस कारण इस सूत्रका अर्थ इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये- अत एव 'जाणि चेव जोगट्टाणाणि ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि' ऐसा कहनेपर योगस्थानोले
....................
, अ-आ-काप्रतिषु ' पावण्ण ' इति पाठः २ मप्रतिपाठोऽयम् , प्रतिषु ' एदस्पत्यो इति पाठः ।
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१, २, ४, २१३.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया . [५११ पदेसबंधट्ठाणाणि त्ति वुत्ते जोगट्ठाणेहिंतो सबकम्मपदेसबंधट्ठाणाणमेगत्तं परविदं, पदेसा बझंति एदेणेत्ति जोगट्ठाणस्सेव पदेसबंधवाणववएसादो । बंधणं बंध। त्ति किण्ण घेप्पदे ? ण, पदेसबंधट्ठाणाणमाणंतियत्तप्पसंगादो । जदि जोगादो पदेसबंधो होदि तो सव्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणत्तं पावदि, एगकारणत्तादो । ण च एवं, पुव्विल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति । एवं पच्चवहिदसिस्सत्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि' त्ति। पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसबंधट्ठाणाणि समाणकारणत्ते वि पदेसहि विसेसाहियाणि । तं जहा- एगजोगेणागदएगसमयपवद्धम्मि सव्वत्थोवो आउवभागो.। णामा-गोदभागो तुल्लो विसेसाहिओ। णाणावरणीयदंसणावरणीय-अंतराइयाणं भागो तुल्लो विसेसाहियो । मोहणीयभागो विसेसाहिओ। वेयणीयभागो विसेसाहिओ । सव्वत्थ विसेसपमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण हेट्ठिम-हेट्ठिमभागे खंडिदे तत्थ एगखंडमेतं होदि । वुतं च
सब कर्मप्रदेशबन्धस्थानोंकी एकता बतलाई गई है, क्योंकि, प्रदेश जिसके द्वारा बंधते हैं वह प्रदेशबन्ध है, इस निरुक्तिके अनुसार योगस्थानकी ही प्रदेशबन्धस्थान संज्ञा प्राप्त है।
शंका- 'बन्धणं बंधो' ऐसा भावसाधन रूप अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इस प्रकारसे प्रदेशबन्धस्थानोंके अनन्त होनेका प्रसंग आता है।
यदि योगसे प्रदेशबन्ध होता है तो सब कर्मोके प्रदेशसमूहके समानता प्राप्त होती है, क्योंकि उन सबके प्रदेशबन्धका एक ही कारण है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर पूर्वोक्त अल्पबहुत्वके साथ विरोध आता है। इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्यके लिये उक्त सूत्रके 'णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि' इस उत्तर अवयवका अवतार हुआ है। प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है, उसके विशेषसे अभिप्राय भेदका है। उस प्रकृतिविशेष. से कर्मों के प्रदेशबन्धस्थान एक कारणके होनेपर भी प्रदेशोंसे विशेष अधिक हैं। यथाएक योगसे आये हुए एक समयमबद्धमें सबसे स्तोक भाग आयु कर्मका है। नाम व गोत्रका भाग तुल्य व आयुके भागसे विशेष अधिक है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तरायका भाग तुल्य होकर उससे विशेष अधिक है। उससे मोहनीयका भाग विशेष अधिक है। उससे वेदनीयका भाग विशेष अधिक है । सब जगह विशेषका प्रमाण आवलीके असंख्यातवें भागसे नीचे नीचे के भागको खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड मात्र होता है । कहा भी है
१ का-ताप्रयोः 'आणतियप्पसंगादो' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'पदेसे वि विसेसाहियाणि', काप्रतौ । 'पदेसे विसेसाहियाणि ', ताप्रतौ 'पदेसेवि (हि)', मप्रतौ ' पदेसेहि वि विसे साहियाणि ' इति पाठः ।
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५१२]
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ४, २१३. आउअभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहियो । आवरणमंतराए भागो अहिओ दु मोहे वि ॥ २८ ॥ सम्वुवरि वेयणीए' भागो अहिओ दु कारणं किंतु । पयडिविसेसो कारण णो अण्णं तदणुवलंभादो ॥ २९ ॥)
एवं वेयणदव्वविहाणेत्ति समत्तमणिओगद्दारं ।।
आयुका भाग स्तोक है। उससे नाम और गोत्रका भाग विशेष अधिक होता हुआ परस्पर समान है । उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका भाग अधिक है। उससे अधिक भाग मोहनीयका है। वेदनीयका भाग सबसे आधिक है। किन्तु इसका कारण प्रकृतिविशेष है, अन्य नहीं है; क्योंकि, वह पाया नहीं जाता ॥२८-२९ ॥
इस प्रकार वेदनाद्रव्यविधान नामक यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
१ अ-आ-काप्रतिषु — मोहणी ए , तापतौ ' मोहणीए (वेयणीए)' इति पाठः । २ आउगभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहियो । घादितिये वि य ततो मोहे ततो तदो तदिये ॥ सुह-दुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जरगो तिवेयणीयस्स । सव्वेहितो बहुगं दव्वं होदि ति णिहिटुं॥ गो. क १९२.१९३ कमसो वुढठिईणं भागो दलियस्स होई सविसेसो । तइयस्स सबजेठो तस्स फुडत्तं जओ णप्पे ।। पं. सं. १, ५७८.
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परिशिष्ट
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वेयणणिक्खेवाणियोगदारसुत्ताणि
सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ १वेदणा त्ति । तत्थ इमाणि वेयणाए
दंसणावरणीयवेयणा माहणीय. सोलस अणियोगहाराणि णाद. घयणा आउववेयणा णामवेयणा. व्वाणि भवंति- वेदणाणक्खेवे
गोदवेयणा अंतराइयवेयणा । वेदण-णयविभासणदार वेदण- | २ संगहस्स अट्रपणं पि कम्माणं णामविहाणे वेदण-दव्वविहाणे
वेयणा । वेदणखत्तविहाणे वेदणकालविहाणे ३ उजुसुदस्स [ णो णाणावरणीयवेदणभावविहाणे वेदणपश्चयविहाणे वेयणा णोदसणावरणीयवेयणा वेदणसामित्तविहाणे वेदण-वेदण- णोमोहणीयवेयणा णोआउअवेयणा विहाणे घेदणगाविहाणे वेदण
णोणामवेयणा गोगोदवेयणा णो. अंतरविहाणे वेदणसण्णियास
अंतराइयवेयणा, वेयणीयं चेव विहाणे घेयणपरिमाणविहाणे वेदण
यणा । भागाभागविहाणे वेदणअप्पा
४ सहणयस्स वेयणा चेव वेयणा । १ . त्ति ।
वेयण-दव्वविहाणसुत्ताणि २ वेयणणिक्खेवे ति । चउठिबहे
.... १ घेयणादब्वविहाणे,त्ति। तत्थ माणि वेदणणिक्खेव ।
तिषिण अणियोगहाराणि णादब्याणि ३ णामवेयणा टुवणवेयणा दव्यवेयणा |
भवंति-पदमीमांसा सामित्तमप्पाभाववेयणा चेदि।
बहुए त्ति। वेयण-णयविभासणदासुत्ताणि | २ पदमीमांसाए णाणावरणीयवेदणा १ घेयण-णयविभासणवार को गओ दब्बदो किमुकस्सा किमणुक्कस्सा __काओ घेयणाभो इच्छदि ? ९ किं जहण्णा किमजहण्णा? २ णेगम-ववहार-संगहा सवाओ। १०
३ उपकस्सा वा अणुक्कस्सा था ३ उजुसुदो वर्ण णेच्छदि। ११
जहण्णा वा अजहण्णा था। ११ ४ सपणो णामवेयणं भाववेयर्ण च ४ एवं सत्तण्णं कमाण। इच्छदि।
५ सामित्तं दुविहं जहण्णपवे उस
पदे। वेयण-णामविहाणसुत्ताणि
६ सामित्तण उक्करसपदे णाणा१. घेयणाणामविहाणे ति । णेगम
वरणीयबेयणा ववदो उक्कस्सिया. यवहाराणं णाणावरणीयवेयणा । कस्स ?
३१
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परिशिष्
(२) सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या
पृष्ठ ७ जो जीवो बादरपुडवीजीयेसु बे- २१ एवं संसरिदृण अपछिमे भवगा. सागरोवमसहस्सहि सादिरेगेहि हणे सत्तमार पुढवीए णेहपसु । ऊणियं कम्मटिदिमन्दिो । ३२
उववणो। ८ तत्थ य संसरमाणस्ल बहवा २२ तेणेव पढमसमयभाहारपण पदमपज्जत्तभवा थोवा अपजस्तभवा
समयतम्भवत्येण उकसेण जोगेण भवंति।
आहारिदो।
५. ९ दी। पज्जत्सद्धाो रहस्साओ २३ उक्कस्सियार वढीप वढिदो। ,, अपज्जन्तद्धाओ।
२४ अंतोमुहुत्तेण सव्वलटुं सव्वाहि १० जदा जदा आउअंबंधदि तदा तदा
पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो। ७५ सप्पाओग्गेण जहाणपण जोगण
२५ तस्थ भवट्टिदी तेत्तीससागरोवमाणि। ,, २६ आउअमणुपाले तो बहुसो बासो
उक्कस्साणि जोगट्टाणाणि गच्छदि । ५६ ११ उधरिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स उपकस्सपरे हेटिल्लीणं हिदीणं
२७ बहुसो बहुलो बहुसंकिलेसपरिजिसेयस्स जहण्णपदे। ४०
णामो भवदि। १२ बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्टा
| २८ एवं संसरिदूण त्योवावसेसे जीवि
दवए त्ति जोगजवमज्झस्सुवरि. ___णाणि गच्छादि।
मंतोमुटुत्तद्धमच्छिदो। ५७ १३ बहसो बहुसो बहुसंकिलेसपरि- २९ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आव___णामो भवदि।
लियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो । ९८ १४ एवं संसरिदूणं बादरतसपज्जप्त
३० दुचरिम-तिचरिमसमए उकस्सपसुववण्णो।
संकिलेसं गदो। १५ तत्थ य संसरमाणस्स बहुआ | ३१ चरिम-दुचरिमसमर उक्स्स जोगं __ पजत्तभवा, थोवा अपजत्तभवा। ५० गदो। १६ दीहाओ पजत्तद्धाओ रहस्साओ ३२ चरिमसमयतब्भवत्थो जादो। तस्स ___ अपज्जत्तद्धाओ।
चरिमसमयतम्भवत्थस्स णाणा१७ जदा जदा आउगं बन्धदि तदा । वरणीयवेयणा दव्वदो उकस्सा । १.९
तदा तप्पामोग्गजहण्णएण जोगेण ३३ तब्बदिरित्तमणुक्कस्सा । २१० अंधदि।
३४ एवं छण्णं कम्माणमाउववज्जाणं । २२४ १८ उवरिल्लीण विदीणं जिसेयस्स ३५ सामित्तण उस्लपटे आउव
उपकस्लपदे हेटिल्लीणं छिदीणं वेवणा दव्यदो उक्कस्सिया कस्स ? २२५ जिसेयस्स जहण्णपदे।
३६ जो जीवो पुधकोडाउओ परभवियं १९बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्ठा पुवकोडाउअं बंधदि जलचरेसु गाणि गच्छदि ।
दीहार आउथबंधगद्धाप तप्पा२० बहुलो बहुसो बहुसंकिलेसपरि
ओग्गसंकिलेसेण उक्कस्सजोगे णामो भवदि।
बंधदि।
२२५
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वेयणदम्वविधाणमुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या . सूत्र
पृष्ठ ३७ जोगजवमझस्सुपरिमंतोमुत्तद्ध- ५४ बहुसो बहुसो जहण्णाणि जोगटा. मछिछदो।
२३५ णाणि गच्छदि । ३८ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणतरे आव- ५५ बहुसो बहुसो मंदसंकिलेसपरि
लियार असंखेज्जदिभागमच्छिदो। २३६ णामो भवदि। ३९ कमेण कालगदसमाणो पुचकोडाउ- | ५६ एवं संसरिदूण बादरपुढविजीव
पसु जलचरेसु उववण्णो। २३७ पज्जत्तएसु उववण्णो । २७६ ४० अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सवाहि ५७ अंतोमुहुत्तेण सच नहुँ सब्बाहि . पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो।
पज्जतीहि पज्जत्तयदो। २७७ ४१ अंतोमुहुत्तेण पुणरवि परभवियं
! ५८ अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो पुष्यकोडाउअंबंधदि जलचरेसु। २४० । पुधकोडाउए सु मणुसेसुववण्णो । २:८ ४२ दीहार आउअबंधगद्धार तप्पा- ५९ सबलहुँ जोणिणिकाखमणजम्मण
ओग्गउश्करसोगेण बंधदि । २४२ जादो अट्टवस्सीओ। ४३ जोगजवमन्सस्स उपरि अंतोमहत्तद्धः । ६० संजमं पडिवण्णो।
२७१ मच्छिदो।
६१ तत्थ य भवहिदि देसूर्ण संजम ४. चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आव.
मणुपालइत्ता थोवावसेसे जीवि. लियाए असंखज्जदिभागमचि छदो। , दए त्ति मिच्छत्तं गदो। २८३ ४५ बहुसो बहुसो सादद्धार जुत्तो। २४३ ६२ सम्वत्थोवाए मिच्छत्तस्स असंजम४६ से काल परभवियमाउअं णिल्ले
द्धार अच्छिदो। विहिदि त्ति तस्स आउअवेयणा ६३ मिच्छत्तेण कालगदसमाणो दसदव्वदो उक्कस्सा।
वाससहस्साउटिदिपसु देवेसु उव. ४७ तव्यतिरित्तमणुक्कस्सं। २५५ वष्णो । ४८ सामित्तण जहण्णपदे णाणावरणीय ६५ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुँ सचाहि ।
येयणा दव्वदो जहणिया कस्स? २६८ पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो। २८७ ४२ जो जीवो सुहमाणिगोदजीवेसु ६२ अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो। ,,
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ६६ तत्थ य भवटिहिं दसवाससह. ऊणिय कम्मट्टिदिमच्छिदो
__ साणि देसूणाणि सम्मत्तमणु. ५० तत्थ य संसरमाणस्स बहवा
पालहत्ता थोवावसेसे जीविदवए । अपज्जत्तभवा थोवा पज्जत्तभवा । २७० त्ति मिच्छत्तं गदो।
२८९ ५१ बीहाओ अपज्जत्तद्धा रहस्साओ ६७ मिच्छतेण कालगदसमाणो बादरपज्जत्तद्धाओ।
२७२ पुढविजीवपज्जत्तपसु उववष्णो। , ५२ जदा अदा आउअंबंधदि तदा तदा ६८ अंतोमहत्तेण सव्वल सहसा
सप्पाओग्गुक्करसजोगेण बंधदि। , पज्जत्तीहि पज्जत्तरदो। २९० ५३ उवरिल्लीणं ठिदीणं णिसेयरस | ६९ अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो - जहष्णपये देटिभलीणं डिदीणं णिसे
सुहमणिगोदजीवपज्जत्तएमु उव. पस्स उस्फरसपदे।
बषणो।
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पृष्ठ
(४)
परिशिष्ट .. सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ७. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभाग- ८० जो जीवो सुहमणिगोदजीवेसु . मेत्तेहि ठिदिखंडयघादेहि पलि
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण दोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण | ऊणियकम्मटिदिमच्छिदो। ३१६ कालेण कम्मं हदसमुप्पत्तियं कादूण ८१ तत्थ य संसरमाणस्स वहुआ पुणरवि बादरपुढविजीवपज्जत्तएसु
अप्पजत्तभवा, थोवा पज्जत्तभवा । ,, उववण्णो
२९२ ८२ दीहाओ अपजत्तद्धाओ, रहस्साओ ७१ एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ठ संजम- । पज्जत्तद्धाओ।
कंडयाणि अणुपालइत्ता चदुक्खुत्तो ८३ जदा जदा आउअंबंधदि तदा तदा कसाए अवसामइत्ता पलिदोवमस्स
तप्पाओग्गउकस्सएण जोगेण असंखज्जदिमागमेत्ताणि संजमा
बंधदि । संजमकंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि । ८४ उवरिल्लीणं ठिदीणं णिसे यस्स च अणुपाल इत्ता एवं संसरिदूण जहण्णपदे हेटिल्लीणं ठिदीणं णिसेअपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुव्व- ___ यस्स उक्कस्सपदे।
कोडाउएसु मुणुसेसु उववणो। २९४ | ८५ बहुलो बहुसो जहण्णाणि जोग७२ सव्वल हुँ जोणिणिक्खमणजम्मणेण ट्ठाणाणि गच्छदि।
३१७ जादो अवस्सीओ।
२९५ | ८६ बहुसो बहुसो मंदसंकिलेसपरि७३ संजमं पडियण्णो।
णामो भवदि। ७४ तत्थ भवटिदिं पुयकोडिं देसूणं
| ८७ एवं संसरिद्ण बादरपुढविजीव
पज्जत्तपसु उबवण्णो । संजममणुपालहत्ता थोवावसेसे जीविदव्वर त्ति य खवणाए अब्भु
८८ अंतोमुहुत्तेण सबलहुं समाहि ट्टिदो।
पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो। ७. चरिमसमयछ दुमत्थो जादो। तस्त
| ८९ अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो पुत्रचरिमसमयछदुमत्थस्स णाणावर. ___कोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो ।
णीयवेदणा दव्वदो जहण्णा। २९६ / ९० सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण ७६ तब्बदिरित्तमजहण्णा।
२९९ । जादो अवस्सीओ। ७७ एवं दसणावरणीय-मोहणीय-अंत- | ९१ संजमं पडिवण्णो।
राइयाणं । णवरि विसेसो मोहणी- ९६ तत्थ य भवहिदि पुघकोडिं देसूर्ण यस्ल खवणाए अम्भुट्टिदो चरिम
संजममणुपालहत्ता थोवावसेसे समयसकसाईजादो। तस्ल चरिम. जीविदव्वए त्ति मिच्छत्तं गदो।। समयसकसाइस्स मोहणीयवेयणा |९३ सम्बत्थोवार मिच्छत्तस्स असंजमदव्यदो जहण्णा।
धाए अच्छिदो। ७८ तम्वदिरित्तमजहण्णा। ३१४ | ९४ मिच्छत्तेण कालगदसमाणो दस७९ सामित्तेण जहण्णपदे वेदणीय- वाससहस्साउट्टिदिएसु देवसु उव.
वेयणा व्यदो जहणिया कस्स? ३१६ । । घण्णो ।
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पृष्ठ
वेयणदव्वविहाणमुत्ताणि
(५) सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ०५ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि । १०८ तस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स
पज्जतीहि पज्जत्तयदो। ३१७ वेदणीयवेदणा जहण्णा । ३२६ ९६ अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो। ,, १०९ तव्वदिरित्तमजहण्णा । ३२७ ९७ तत्थ य भवटिदिं दसवास सह- २१० एवं णामा-गोदाणं । .
स्साणि देसूणाणि सम्मत्तमणुपाल- १११ सामित्तेण जहण्णपदे आउगवेदणा इत्ता थोवावलेसे जीविदव्वए त्ति
दव्यदो जहणिया कस्स? , मिच्छत्तं गदो।
,, ११२ जो जीवो पुवकोडाउओ अघो। ०८ मिच्छत्तेण कालगदसमाणो बादर
सत्तमाए पुढवीए रइएसु आउअं पुढविजीरपज्जत्तएसु उववण्णो । ३८ बंधदि रहस्साए आउअबंधगद्धार। , ९९ अंतोमुहुत्तेण सबलहुं सव्वाहि१३ तप्पाओग्गजहण्णएण जोगेण पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो।
बंधदि। १०० अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो सुहु ११४ जोगजवमज्झस्स हेतृदो अंतोमुहु
मणिगोदजीवपज्जत्तरसु उववण्णो । , त्तद्धमच्छिदो । १०१ पलिदोवमस्स असंखेजदिभाग- ११५ पढमे जीवगुणहाणिट्टाणंतरे आव
मेत्तेण कालेण कम्मं हदसमुप्पत्तियं | लियार असंखेज्जदिभागमच्छिदो । ३३२ कादूण पुणरवि बादरपुढविजीव- । १६६ कमेण कालगदसमाणो अधो सत्तपज्जत्तएसु उववण्णो।
माए पुढवीए रइएसु उववण्णो । ,, १०२ एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ठ संजम- १९७ तेणेव पढमसमयआहारएण पढमकंडयाणि अणुपाल इत्ता चदुक्खुत्तो
समयतब्भवत्थेण जहणजोगण कसाप उवसामइत्ता पलिदोवमस्स
आहारिदो। असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमा- | ११८ जहणियाए वड्ढीए वड्ढिदो। ३३३ संजमकंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि च ११९ अंतोमुहुत्तेण सव्वचिरेण कालेण अणुपालहत्ता, एवं संसरिदण अप
सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो। , च्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुब्ब- १२० तत्थ य भवहिदि तेतीसं सागरोवकोडाउपसु मणुस्सेसु उववण्णो। ,
माणि आउअमणुपालयंतो बहुसो १०३ सव्वलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मणेण
असादद्धाए जुत्तो। जादो अटुवस्सीओ।
| १२१ थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति से काले १०४ संजमं पडिवण्णो।।
परभवियमाउअंबंधिहिदि त्ति तस्स १०५ अंतोमुहुत्तेण खवणार अब्भुट्टिदो। ,
आउववेदणा दव्वदो जहण्णा। ३३४ १०६ अंतोमुहुत्तेण केवलणाणं केवलदंसणं
१२२ तत्वदिरितमजहण्णा ।
३३६ च समुप्पादहत्ता केवली जादो। , १२३ अप्पाबहुए त्ति तत्थ इमाणि १०७ तत्थ य भवटिदिं पुवकोडिं देसूर्ण
तिण्ण अणियोगद्दाराणि जहण्णपदे केवलिविहारेण विहरित्ता थोवाच
उक्कस्सपदे जहण्णुक्कस्सपदे । ३८५ सेसे जीविदव्वर त्ति चरिमसमय- १२४ जहण्णपदेण सव्वत्थोवा आयुग- - भवसिद्धियो जादो।
वेयणा व्वदो जहणिया।
.
"
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( ६ )
सूत्र संख्या
१२९ णामा- गोववेदणाओं दब्यो जह जियाओ दो चि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ ।
सूत्र
१२६ णाणावरणीय दंसणावरणीय अंतराइयवेयणाओ दग्यदो जहणियाओ तिणि वि तुरुलाओ विसेसाहियाओ ।
१२७ मोहणीयवेयणा दव्वदो जहष्णिया विसेसाहिया ।
१२८ वेयणीयवेयणा दव्वदो जहष्णिया विसेसाहिया ।
१२९ उक्कस्सपदेण सव्वत्थोवा आउववेणा दव्वदो उक्कस्सिया । १३० णामा- गोदवेदणाओ दव्वदो उक्कस्सियाओ [ दो बितुल्लाओ ] असंखेज्जगुणाओ ।
३८६
१३४ जहण्णुक्कस्लपदेण
पृष्ठ
३८७
१३१ णाणावरणीय दंसणावरणीय-अंतराइयवेयणाओ दव्वदो उक्कास्सयाओ तिणि वितुल्लाओ विसेसाहियाओ ।
परिशिष्ट
३८८
३८९.
१३२ मोहणीयवेयणा दव्त्रदो उक्कस्सिया विसेसरहिया ।
१३३ वेदणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सिया विसेसाहिया |
३९०
१७ णाणावरणीय दंसणावरणीय अंतराहयवेदणाओ दव्यदो जहण्णियामो तिणित्रि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ।
३९१
सम्वत्थोवा
आउववेयणा दव्यदो जहण्णिया ।
१३५ सा चेव उक्कस्सिया असंखेज्जगुणा ।
१३६ णामा-गोद वेदणाओ दव्वदो जह ण्णियाओ [ दो वि तुल्लाओ ] असंखेज्जगुणाओ ।
33
३९२
"
39
३९३
39
सूत्र संख्या
सूत्र
१३८ मोहणीययणां दन्यदो जहणिया विसेसाहिया |
१३९ वेदणीयवेयणा दध्यदो जहजिया विसेसाहिया |
पृष्ठ
६९३
१४० णामा गोदवेदणाओ दब्यदो उपकस्सियाओ दो वि तुल्लाओ भसंखेज्जगुणाओ ।
१४९ णाणावरणीय दंसणावरणीय-अंतरायवेयणाओ दो उक्कस्सि याम तिणि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ।
१४२ मोहणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सि या विसेलाहिया ।
१४३ वेयणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सिया विसेसाहिया |
चूलियासुत्ताणि
१४४ पत्तो जं भणिदं 'बहुसो बहुसो उक्कस्साणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि जहण्णाणि च एत्थ अप्पाबद्दुर्ग दुविहं जोगपायहुगं पदेसअप्पाबहुगं चेव ।
१४५ सव्वत्थोवो सुहुमे इंदिय अपज्जयस्स जहण्णओ जोगो । १४६ बादरे इंदियअपज्जत्तयस्त जण्ण ओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
३९४
३९५
33
35
""
३९६
"
१४७ बीइंदियअपज्जन्त्तयस्स जहणओ जोगो असंखेज्जगुणो । १४८ तीइंदिय अपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
१४९ चउरिदिय अपज्जसयस्स जहणओ जोगो असंखेज्जगुणो । १५० असणिपंचिदिय अपज्जत्तयस्स जद्दण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो । ३९८ १५१ सष्णिपंचिदियभपज्जत्तयस्त जहरणभो जोगो असंखेज्जगुणो ।
33
३९७
33
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सूत्र संख्या
१५२ सुमेइंदियअपज्जत्तयस्स जद्दण्णओ जोगो असंखेज्जगुणा । १५३ बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखे ज्जगुणो । १५४ सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स जदण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
वेयणदव्वविद्याणसुत्ताि
सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ
३९८
१५५ बादरे इंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
३९९
१५६ सुहुमेइं दियपज्जत्तयस्स उक्कस्लओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
१५७ बाद इंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
१५८ बीइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो । १५९ तीइंदिय अपजत्तयस्स उक्कस्सजोगो असंखेज्जगुणो ।
39
१६० चदुरिदिय अपज्जत्तयस्स उक्कस्सजोगो असंखेज्जगुणो ।
१६१ असणिपंचिदियअयज्जत्तयस्स उक्कस्सजोगो असंखेज्जगुणो ।
१६२ सष्णिपंचिदिय अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
१६३ बीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
१६४ तीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखे जगुणो ।
१६५ चउरिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
१६६ असणिपंचिदियपज्जत्तयस्ल जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो । १६७ सणिपंचिंदियपज्जत्तयस्स ण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो । १६८ बीइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ
जह
"
35
४००
و
33
95
४०१
95
39
59
,,
४०२
सूत्र
( ७ )
पृष्ठ
जोगो असंखेजगुणो ।
१६९ तीइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
१७० चउरिदियपजत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो
१७१ असणिपंचिदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेजगुणो ।
१७२ सष्णिपंचिदियपजत्तयस्ल उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ।
१७३ एवमेक्केक्कस्ल जोगगुणगारो पलिदोवमस्ल असंखेज्जदिभागो । ४०३ १७४ पदेसअप्पा बहुए ति जहा जोगअप्पा बहुगं णीदं तथा दव्वं । वरि पदेसा अप्पायत्ति भाणिदभ्वं ।
१७५ जोगट्ठाण रूचणदाए तत्थ इमाणि दस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति !
""
33
""
39
35
४३१
४३२
१७६ अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठाणपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा समयपरूवणा वढि - परूवणा अप्पा हुए त्ति । १७७ अविभागपडिच्छेद परूवणाए एक्केकहि जीवपदे से केवडिया जोगाविभागपडिच्छेदा १
४३८
४३९
१७८ असंखेज्जा लोगा जोगाविभागपडिच्छेदा ।
४४०
१७९ एवदिया जोगाविभागपडिच्छेदा । ४४१ १८० वग्गणपरूवणदार असंखेज्जलोगजोगाविभाग पडिच्छेदाणमेया वग्गणा भवदि । १८१ एवमसंखेज्जाओ वग्गणाओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ।
૪૪૨
કાર્
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________________
पृष्ठ
(८)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र १८२ फद्दयपरूवणार असंखेजाओ वग्ग
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। ४९० णाओ सेडीए असंखेजदिभागमेतीयो १९६ णाणाजोगदुगुणवड्ढि-हाणिटाणंतमेगं फद्दयं होदि।
४५२ तराणि थोवाणि । एगजोगदुगुण१८३ एवमसंखेज्जाणि फद्दयाणि सेडीए । वड्डि-हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । ४९१
असंखेजदिभागमेत्ताणि । ४५४ १९७ समयपरूवणदार चदुसमइयाण १८४ अंतरपरूवणदाए एक्केकस्स
जोगट्टाणाणि सेडीए असंखेज्जदिफदयस्स केवडियमंतरं? असंखेजा
भागमेत्ताणि ।
४९४ लोगा अंतरं।
४५५ | १९८ पंचसमइयाणि जोगट्टाणाणि सेडीए ९८५ एवदियमंतरं।
असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । ४९५ १८६ ठाणपरूवणदाए असंखेज्जाणि फद्द- १९९ एवं छसमइयाणि सशसमइयाणि याणि सेडीए असंखेजदिभाग
अट्टसमइयाणि जोगट्टाणाणि सेडीए मेत्ताणि, तमेगं जहण्णयं
असंखेज्जदिभागमेशाणि । भवदि।
२०० पुणरवि सत्तसमहयाणि छसमह. १८७ एवमसंखेजाणि जोगट्ठाणाणि सेडीए
याणि पंचसमइयाणि चदुसमाअसंखेजदिभागमेत्ताणि । ४८० याणि उवरि तिसमइयाणि बिसमइ१८८ अणंतरोवणिधाए जहण्णए जोग
याणि जोगटाणाणि सेडीए असंट्राणे फद्दयाणि थोवाणि ।
, खेज्जदिभागमत्ताणि।
" १८९ बिदिए जोगट्ठाणे फद्दयाणि विसे- २०१ वढिपरूवणदाए अस्थि असंसाहियाणि ।
४८४
खेज्जभागवड्ढहाणी संखज्जभाग१९० तदिए जोगट्ठाणे फद्दयाणि विसे
वड्ढि-हाणी संखेज्जगुणवड्ढसादियाणि ।
हाणी असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी। ४९७ १९१ एवं विससाहियाणि विसेसाहि- २०२ तिण्णिधढि-तिषिणहाणीओ केव
__ याणि जाव उक्कस्सट्टाणेति। , चिरं कालादो होति? जहण्णण १९२ विसेसो पुण अंगुलस्स असंखेजदि.
एगसमयं । भागमेत्ताणि फद्दयाणि । ४८८ २०३ उक्करलेण आवलियाए असं१९३ परंपरोवणिधाए जहण्णजोगट्टाण
खेज्जदिभागो। फहएहितो तदो सेडीए असंखेज्जदि. २०४ असंखेजगुणवड्ढ-हाणी केवचिरं । भागं गंतूण दुगुणवढिदा। ,
कालादो होति? जहण्णेण एग.
समओ। १९४ एवं दुगुणवड्ढिदा दुगुणवड्ढिदा ।
५०० उक्कस्सजोटाणेत्ति। १८९ | २०५ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । १९५ एगजेोगदुगुणवड्ढि-हाणिट्ठाणंतरं २०६ अप्पाबहुएत्ति सव्वत्थोवाणि अट्ठः सेडीए असंखेज्जदिभागो, णाणा
समइयाणि जोगट्ठाणाणि | ५०३ जोगदुगुणवड्ढि हाणिट्ठाणंतराणि । २०७ दोसु वि पासेसु सत्तसमइयाणि
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अवतरण गाथा-सूची
सूत्र
पृष्ठ
सूत्र संख्या
जोगट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि ।
२०८ दोसु वि पासेसु छसमइयाणि जोगट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि ।
२०९ दोसु वि पासेसु पंचसमइयाणि जोगट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेज गुणाणि ।
२१० दोसु वि पासेसु चदुसमइयाणि जोगट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि
सूत्र संख्या
गाथा
"
५०३
क्रम संख्या
१३ अडदाल सीदि बारस १३२
१८
१ अत्थो पदेण गम्मइ ५ अवहारेणोदि
८४
३८७
१८ आउवभागो थोवो २८
५१२
९२
११ इच्छदिदायामेण य २६ उत्तरगुणिदं इच्छं ४७५
१५ एकोत्तरपदवृद्धो २०३ ष. खं. पु. ५,
पृ. १९३. क. पा. २, पृ. ३००. ७ ओजम्मि फालिसंखे ९०
५०४
पृष्ठ
35
२ अवतरण - गाथा - सूची
अन्यत्र कहां
१७ खवर य खीणमोहे २८२ जयध. अ.
प. ३९७. गो. जी. ६७.
२३ ४५८
३ चोइस बादर जुम्मं २१ जत्थिच्छसि सेसाणं ८ तिष्णं दलेण गुणिदा ४ तेरस पण णव पण णव २९
९१
असंखेज गुणाणि ।
२११ उवरि तिसमइयाणि जोगडाणाणि असंखेज गुणाणि ।
सूत्र
२१२ बिसमइयाणि जोगडाणाणि असंखेजगुणाणि ।
२१३ जाणि चेव जोगद्वाणाणि ताणि चेव पदे सबंधट्टणाणि । णवरि पदे सबंधट्टणाणि पयडिविलेलेण विसेसाहियाणि ।
क्रम संख्या
२३ दो दोरुवक्खेवं १४ घणमत्तरगुणिंदे २० पदमिच्छलांगगुणा २ पदमीमांसा संखा -२७ प्रक्षेपकसंक्षेपेण
गाथा
पृष्ठ
१६ सम्मत्तप्पत्ती विय
१९ सव्वरि वेयणीप २९ सब्बुवरि
25
१२ सोलसयं छपण्णं
४६०
१५०
( ९ )
ge
४५७
१९
६० ९१
६ फालिसला गव्भहिया९ फालीसंखं विगुणिय २२ बिदियादिवग्गणा पुण ४५९ १० रूणिच्छा गुणिदं २१ २५ विरलिदइच्छं विगुणिय ४७५ २४ विसमगुणादेगूणं
४६२
अन्यत्र कहां
२८२
३८७
39
५०५
४८५ प. खं. पु. ६, पृ. २५८
५१२ १३२
५०५
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________________
३ न्यायोक्तियां
क्रम संख्या
न्याय
पृष्ठ
१ अवयवेषु प्रवृत्ताः शब्दाः समुदायेष्वपि वर्तन्ते इति न्यायात् । २ एकदेशविकृतावनन्यवत् इति न्यायात् ।। ३ करणीए करणी चेव, रूवगयस्स रूवगयं चेव भागहारो होदि त्ति णायादो ४ कारणपुव्वं कज्जमिदि णायादो ...। ५ सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद् भवति । ६ सामण्णं विसेसाविणाभावि त्ति...।
१५१
३९६
४ ग्रन्थोल्लेख
१ उच्चारणा १ एसो उच्चारणाइरियअहिप्पाओ परूविदो । २ उच्चारणाए च भुजगारकालभंतरे चेव गुणिदत्तं किं ण उच्चदे ?
२ कसायपाहुड १ "" पाहुडसुत्तम्मि परूविदत्तादो। तं जहा- कसायपाहुडे द्विदिअंतियो णाम अत्थाहियारो। तस्स तिण्णि अणियोगहाराणि ।
११३ २ ..." इदि कसायपाहुडे वुत्तं। ३ पाहुडे अग्गट्रिदिपत्तगम्मि भण्णमाणे ... ।
१४२ ""तेत्तियमेत्तमग्गट्ठिदिपत्तयं होदि त्ति कसायपाहुडे उवदिट्टत्तादो ।
२०८ ५ "" कधं णव्वदे ? कसायपाहुडचुण्णिसुत्तादो ।
२९७ ६ मोहणीयस्स कसायपाहुडे उत्तपिल्लेवणट्ठाणाणि णाणावरणस्स कधं वोत्तुं सक्किज्जंते?
२९८ ७ किं च कसायपाहुडपच्छिमक्खंधसुत्तादो च णव्वदे जहा।
३ कालविहाण १ एदेण कालविहाणसुत्तद्दिट्टपदेसविण्णासेण कधमेदं वक्खाणं ण बाहिज्जदे ? ४५ २ पुव्वकोडितिभागमेत्ता चेव आउअस्स उक्कस्साबाहा होदि ति कालविहाणसुत्तादो।
२४१
४५१
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________________
ग्रन्थोल्लेख
१५७
४८३
३ ण, अपज्जत्ताणं आउट्टिदीदो पज्जत्ताउट्टिदी बहुगा ति कालविहाणे उवदिट्टत्तादो। २७२ ४ कसाओ द्विदिबंधस्स कारणमिदि कधं णव्वदे ? कालविहाणे टिदिबंधकारणकसाउदयट्ठाणपरूवणादो।
२७५ ४ कालाणिओगद्दार १ कुदो बहुत्तं णव्वदे ? ""कालाणिओगद्दारसुत्तादो। २ ण च एवं, संखेज्जाणि वाससहस्साणि त्ति कालाणिभोगहारे पदेसि भवहिदि. पमाणपरूवणादो।
२७१ ५ जीवट्ठाणचूलिया १ पत्थ जं जीवट्ठाणचूलियाए चारित्तमोहणीयस्स उवसामणविहाणं ... २९४
६ निक्षेपाचार्यप्ररूपितगाथा १ .... णिक्खेवाइरियपरूविदगाहाणमत्थं भणिस्सामो।
७ परिकर्म १ पदे जोगाविभागपडिच्छेदा च परियम्मे वग्गसमुट्टिदा त्ति परूविदा,
८ प्रदेशबन्धसूत्र १ अण्णदरेण उवएसेण जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्लेण पण्णारस समया त्ति पदेशबंधसुत्तादो त्ति ।।
५०२ ९ प्रदेशविरचित अर्थाधिकार १ एदं पि कुदो णव्वदे ? बाहिरवग्गणाए पदेसविरइयसुत्तादो।
११६ २ पदं पदेसविरइयअप्पाबहुगं ।।
१२० ३ कुदो [णव्वदे] ? पदेसविरइयअप्पाबहुगादो ।
१३६ पदेसविरइयअप्पाबहुपण कधं ण विरोधो?
२०८ १० बन्धसूत्र १ असंखेज्जगुणवड्ढि-हाणिकालो अंतोमुहुत्तं, सेसवाद-हाणीणं कालो श्रावलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति बंधसुत्तादो।।
११ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत १ ण चासंबद्धं भूदबलिभडारओ परूवेदि, महाकम्मपयडिपाहुड-अमियवाणेण ओसारिदासेसराग-दोस मोहत्तादो।
२७४ १२ महाबंध १ कुदो पदं णव्वदे ? महाबंधसुत्तादो।
२२८ १३ व्याख्याप्रज्ञप्ति १ एदेण वियाहपण्णत्तिसुत्तेण सह कधं ण विरोहो ?
१३४
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परिशिष्ट
१४ अनिर्दिष्टनाम
. पप छच्च समाणा' इच्चेपण कयपकारत्तादो ।
6
२ तं पि कुदो ? ' जोगा पयडि-पदेला ' वि सुतादो ।
( १२ )
३. वत्तिकम्मट्ठिदि अणुसारिणी सत्तिकम्मट्ठिदित्ति वयणादो ।
४ ण, वृत्तिट्ठिदिअणुसारिसत्तिद्विदीप, अधियार अभावादो """'
५ पदम्हादो अविरुद्धाइरियवयणादो णव्वदे जहा [ जीव ] जवमज्झट्ठिम अद्भाणा से
उवरि श्रद्धाणं विसे साहियमिदि ।
६ ण च पदाहि वढि हाणीहि विणा अंतोमुहुत्तद्धमच्छदि,
ति वयणादो ।
७ णाणागुणहाणिसलागाओ ति कधं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । ८ ' पदगतमवैक्या' पदेण सुत्तेण आणिदाए
... I
१५ आचार्य परम्परागत उपदेश
१ ण, गुणिदकम्मंसिए उक्कस्सेण एगो चेव समयपबद्धो वड्ढदि हायदि त्ति आइस्थिपरंपरागयउवएसादो ।
२१५
२ '''' आइरियपरंपराग दुपदे सादो वा णव्वदे जहा संचयादो एत्थ णिज्जरिददव्व मसंखेज्जगुणमिदि ।
३ कधमेदं णव्वदे ? आइरियपरम्परागदुवदेसादो ।
****
१६ गुरुपदेश
१ तं पि कुदो णव्वदे ?
२ कुदो णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो ।
३ण च एवं, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तीओ जीवगुणहाणीओ होंति ति परमगुरूवदेसादो ।
१०६
४ खविदकम्मंसियम्मि उक्कस्सेण एगो चेव समयपबद्धो वड्ढदि त्ति गुरूवरसादो । ३०४ ५ जण्णदव्वस्सुवरि उक्करुलेण एगो चेव समयपबद्धो वड्ढदि ति गुरुवदेसादो । ३०६ ६ खविदकम्मंसियस्स दिवड्ढगुणहाणिमेत्ता एइंदियसमयपबद्धा अस्थि ति
गुरुवदेसादो |
७ पदमफ़द्दभ चेव वढावे त्ति कथं नव्वदे ? ८. ति गुरुवपसादो णव्वदे |
ति गुरुवदेसादो |
१७
१ तत्थ अनंतरावणिधा ण सक्कदे णादु,
ढुं
२
""
----
त्ति गुरूवसादो ।
उपदेशाभाव
त्ति उवदेसाभावादो ।
ર
३७
४२
१०९
""
७५
९९
११८
२५३
२८३
મ
६४
७४
३८६
४५५
४८२
२२१
२२३
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५ पारिभाषिक शब्द-सूची
शब्द
शब्द
पृष्ठ
शब्द
पृष्ठ
५२
३१
४४
| अप्पवाइज्जत उपदेश २९८ आयुबन्धप्रायोग्यकाल ५२२
अभव्य अनस्थिति
२२ आवर्जितकरण ३२५, ३२८ अभव्यसमान भव्य
आशंकासूत्रअग्रस्थितिप्राप्त ११३, १४२
३२ अयोगी अचित्तगुणयोगः
३२५ आसादना अर्थपद १८, ३७१
उ अचित्तद्रव्यवेदना
अर्धच्छेद अतिस्थापना ५३ ११०
उत्कर्षण अतिस्थापनावली २८१, ३२० अल्पतरकाल २९१, २९३
उत्कीरणकाल
३२१ अल्पबहुत्व अत्यासना
१९ उत्कीरणाद्धा ४२
२९२ अवक्तव्य परिहानि अद्धानिषेकस्थितिप्राप्त ११३
२१२
उत्कृष्टपदअल्पबहुत्व ३८५ अवलम्बनाकरण ३३०, २२६ अद्धावास ५०, ५५
उत्कृष्टपदस्वामित्व
२२८,२५ अधर्मास्तिद्रव्य ४३६
उच्चारणा
४५ अवस्थितभागहार अधःप्रवृत्तकरण २८०, २८८
उच्चारणाचार्य अवहरणीय अधिकारगोपुच्छा
उत्तर ३४८,
१५०,१९०,४७५ अवहार ३५७, ३६६
उत्सर्गसूत्र
४० अवहारकाल अधिकारस्थिति
उदयस्थितिप्राप्त ११४ ३४८ अनन्तरोपनिधा अवहारशलाका
उदयादिगुणश्रेणि ११५
अविभागप्रतिच्छेद अनन्तानुबन्धिविसंयोजन
४४१ उदयावली
२८० अवेदककाल २८८
उपपादयोग
४२० अनवस्था ६,४३,२२८,४०३ असावस्थाप असावस्थापनावे
७. उपशमसम्यग्दृष्टि ३१५ अनवस्थितभागहार १४८ असद्भूतप्ररूपणा १३१ उपशामनवार अनिवृत्तिकरण २८०,२८८ असंख्यातवर्षायुष्क २३७ उपशामना अनुलोमप्रदेशविन्यास ४ असंख्ययाद्धा (असंक्षेपाद्धा) उपशामनाकरण १४४ अन्तधन १९०
२२६, २३३ उपसंहार १११ ,२४४, ३१० अन्योन्याभ्यस्तराशि ७९,१२१
असाताद्धा
२४३ उपादानकारण अन्वय
आ अपकर्षण ३३०, ५३ आकाशास्तिद्रव्य
४३६ ऋण
१५२. अपनयन
७८ आगमद्रव्यवेदना अपवर्तनाघात ३३२, २३८ आदि १५०, १९०, ४७५ एकान्तानुवृद्धियोग ५४,४२० अपवादसूत्र ४० आदिधन
. ओ. अपूर्वकरण २८०, २८८ आबाधा
१९४ ओज अपूर्वस्पर्धक ३२२,३२५ आयुआवास
५१ ओम
" ३१९
१०
१२
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परिशिष्ट
१०९
ज
२२
शब्द पृष्ठ शब्द
पृष्ठ शब्द | गृहीतकरण
४४१/दर्शनमोहनीय २९४ कदलीघात २२८, २३७, २४० गृहीतगृहीत
२२२ दीपशिखा
२६५ कदलीघातक्रम २५० गोतम
द्रव्य वेदना कपाट
३२१ गोपुच्छविशेष १२२ द्रव्यार्थिकनय २२, ४५० करणिगच्छ
१५५ गोपुच्छा करणिगत १५२
धन करणिगतराशि १५१
चतुःसामयिक योगस्थान ४९४ धर्मास्तिद्रव्य करणिशुद्ध वर्गमूल चालनासूत्र
ध्रुवराशि २३६ कर्मधारय
१६८, ९७०, १७३ चूलिका कर्मवेदना कलिओज कषायोपशामना
नानाप्रदेशगुणहानि
२९६ छद्मस्थ २९४
स्थानान्तरशलाका ११६ काययोग
छेदभागहार ६६, ७२, २१४
४३८ कालद्रव्य
नामवेदना छेदराशि
निकाचना कालयवमध्य
नित्यनिगोद
२४ कृतकरणीय
३२५ जघन्यपदअल्पबहुत्व ३८५ निरन्तरवेदककाल १४२, १४३ कृतयुग्म जघन्यपदस्वामित्व
| निराधार रूप
१७१ ३२४,३२५ जघन्यपरीतासंख्य
निरुपक्रमायुष्क २३४, २३८ केवलज्ञान
३१९
जघन्य योगस्थान ४६३ निर्लेपनस्थान २९७, २९८, केवलदर्शन जिन पूजा . १८९
निर्वाण केवली
जीवगुणहानि
१०६ निषेकरचना क्रमवृद्धि
४५२ जीवगुणहानिस्थानान्तर ९८
निषेकस्थितिप्राप्त ११३ क्रमहानि
जीवयवमध्य क्षपक श्रेणि
२९५ जीवसमुदाहार २२१, २२३
नोआगमद्रव्यवेदना क्षपितकर्माशिक २२, २१६ ज्ञानावरणीयवेदना
नोकर्मवेदना क्षपितघोलमान ३५, २१६
नोम-नोविशिष्ट क्षायिकसम्यग्दृष्टि
तत्पुरुषसमास गच्छ
तद्भवसामान्य गलितशेष गुणश्रेणि २८१ तीर्थकर
पदमीमांसा गुणयोग तीव्रकषाय
परम्परापर्याप्ति ४२९ गुणश्रेणिनिर्जरा तीसिय
परम्परोपनिधा २२५ गुणश्रेणिशीर्षक २८१, ३२० तेजोज
परस्थान अल्पबहुत्व गुणसंक्रम
त्रिकोटिपरिणाम ४३५ परिणामयोग ५५, ४२० गुणहानिअध्वान ७६ त्रैराशिक ६३, १२० पर्याप्त
२४० गुणितकर्माशिक २१, २१५
पर्याप्ताद्धा गुणितघोलमान ३५, २१५/ दण्ड
३२० पर्याप्ति
कृष्टि
४३
नैगम
or
१५०
१०, ११ पद
Vd
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पारिभाषिक शब्द-सूची
' (१५)
शब्द
पृष्ठ
शब्द
पृष्ठ
शब्द
पृष्ठ
२
य
३२०
वेदना
२३६
पर्यायार्थिकनय ४५१ भेदपद पवाइजंत उपदेश २९७, ५०१
वचनयोग पंचसामयिक योगस्थान मध्यदीपक ४८, ४९६ वन्दना
૨૮૨ पुनरुक्त दोष
२९६ मध्यमधन
१९० वर्ग १०३, १५०, ४५० पुरिमूल
२५० मनोयोग
४३७ वर्गणा ४४२, ४५०, ४५७ पूर्वस्पर्धक ३२२, ३२५ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत २० वर्गमूल
१३१ पृच्छासूत्र
मंथ
३२१, ३२८ विकलप्रक्षेप २३७,२४३,२५६ प्रकृतिगोपुच्छा २४१
मिथ्यात्व
४३ | विकृतिगोपुच्छा २४१, २५० प्रकृतिविशेष ५१०,५ मिश्रवेदना
विकृतिस्वरूपगलित २४९ प्रकृतिस्वरूपगलित मुक्तजीवसमवेत
विरलन प्रक्षेप
१५० विलोमप्रदेशविन्यास ४४ प्रक्षेपप्रमाण
मूलाग्रसमास १२३,१३४,२४६ विशिष्ट प्रक्षेपभागहार ७६,१०१
विष्कम्भसूची
६४ प्रतर यथास्वरूप
विनसोपचय
४८
१७७ प्रतिराशि ६७
वेदकसम्यक्त्व ૨૮૮
२३७,४७६ प्रथम सम्यक्त्व
२८५
यवमध्य प्रदेशबन्धस्थान ५०५, ५११ यवमध्यजीव
व्यञ्जनपर्याय -११, १५ प्रदेशविन्यासावास ।
व्यभिचार प्रदेशविरचित अल्पबहुत्व यवमध्यप्रमाण
व्यवस्थापद युग्म
१९, २२ १२०, १३६ योग ४३६,४३७
श योगकृष्टि
३२३ शक्तिस्थिति फालि
योगयवमध्य ५७, ५९, २४२ शैलेश्य
योगवर्गणा ४४३, ४४९ श्रेणिभागहार । बन्धावली
१९७ योगस्थान ७६, ४३६, ४४२ बादरयुग्म
२३ योगावलम्बनाकरण २६२ योगावास
सकल प्रक्षेप योगाविभागप्रतिच्छेद ४४० सकलप्रक्षेपभागहार २५५ भवावास
योजनायोग
४३३, ४३४ सचित्तगुणयोग ४३३ भंग २२५
सचित्तद्रव्यवेदना भागहारप्रमाणानुगम ११३
सद्भावस्थापनावेदना ,, भाववेदना रूपगत राशि
समकरण
७७,१३५ भाषगाथा १४३ रूपाधिकभागहार ६६, ७०
समभागहार भुजाकार (भूयस्कार) २९१ रूपानभागहार ६६, ७१
समयप्रबद्ध भुज्यमानायु २३७, २४०
समयोग
४५१ तबली २०,४४, २४२ २७४ | लोकपूरण
१ समीकरण
८८
स
भव
५० योजन
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________________
परिशिष्ट
पृष्ठ
शब्द
पृष्ठ शब्द
पृष्ठ शब्द समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति संयमगुणश्रेणि २७८ सोपक्रमायुष्क २३३, २३८ ध्यान
___ ३२६ संयमासंयमकाण्डक २९४ स्तिवुकसंक्रमण ३८९ सम्भवयोग ४३३, ४३४ संवर्ग
१५३, १५५ स्थान सम्यक्त्वकाण्डक २६९, २९४ साताद्धा
२४३ स्थापनावेदना संकलन
१२३ सादृश्यसामान्य १०, ११ स्थितिकाण्डकघात २९२, ३९८ संकलनसंकलना २०० सान्तरवेदककाल १४२, १४४ स्पर्धक
४५९ संक्लेशावास __५१ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान स्वामित्व संख्यातवर्षायुष्क
३२५ संचयानुगम १११ सूक्ष्मत्व
हतसमुत्पत्तिक २९२, ३१८ संयमकाण्डक
२९४
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________________ जैन साहित्य उद्धारक फंड तथा कारंजा जैन ग्रंथमालाओंमें डॉ. हीरालाल जैन द्वारा आधुनिक ढंगसे सुसम्पादित होकर प्रकाशित जैन साहित्यके अनुपम ग्रंथ प्रत्येक ग्रंथ सुविस्तृत भूमिका, पाठभेद, टिप्पण व अनुक्रमणिकाओं आदिसे खूब सुगम और उपयोगी बनाया गया है। १पखंडागम-[धवलसिद्धान्त ] हिन्दी अनुवाद सहित पुस्तक 1, जीवस्थान-सत्प्ररूपणा पुस्तकाकार व शास्त्राकार (अप्राप्य ) पुस्तक 2, "-पुस्तकाकार 10) पुस्तक 3, जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम , 10) , पुस्तक 4, क्षेत्र-स्पर्शन-कालानुगम पुस्तकाकार व शास्त्राकार पुस्तक 5-9 (प्रत्येक भाग) , 10) , 12), पुस्तक 10, नयनिक्षेप-नयविभाषणता-नाम-द्रव्यविधान पु. 12) शास्त्राकार 14) यह भगवान् महावीर स्वामीकी द्वादशांग वाणीसे सीधा संबन्ध रखनेवाला, अत्यन्त प्राचीन, जैन सिद्धान्तका खूब गहन और विस्तृत विवेचन करनेवाला सर्वोपरि प्रमाण ग्रंथ है। श्रुतपंचमीकी पूजा इसी ग्रंथकी रचनाके उपलक्ष्यमें प्रचलित हुई। यशोधरचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... इसमें यशोधर महाराजका अत्यंत रोचक वर्णन सुन्दर काव्यके रूपमें किया गया है / इसका सम्पादन डा. पी. एल. वैद्य द्वारा हुआ है। ३नागकुमारचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... .6) इसमें नागकुमारके सुन्दर और शिक्षापूर्ण जीवनचरित्र द्वारा श्रुतपंचमी विधानकी महिमा बतलाई गई है। यह काव्य अत्यन्त उत्कृष्ट और रोचक है। 4 करकंडुचरित-मुनि कनकामरकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... 6) इसमें करकंडु महाराजका चरित्र वर्णन किया गया है, जिससे जिनपूजाका माहात्म्य प्रगट होता है। इससे धाराशिवकी जैन गुफाओं तथा दक्षिणके शिलाहार राज वंशके इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। 5 श्रावकधर्मदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... .... 2 // ) इसमें श्रावकोंके व्रतों व शीलोंका बड़ा ही सुन्दर उपदेश पाया जाता है। इसकी रचना दोहा छंदमें हुई है। प्रत्येक दोहा काव्यकलापूर्ण और मनन करने योग्य है। 6 पाहुडदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... ... ... 2 // ) इसमें दोहा छंदोद्वारा अध्यात्मरसको अनुपम गंगा बहाई गई है जो अवगाहन करने योग्य है। ... ... 6) DEducatign internationali wwwlinelibrary