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________________ १४४] छक्खंडागमे बेयणाखंड [१, २, ४, ३२. परूवणा कीरदि । ण च एत्थ ठिदिणियमो अस्थि । तेण णिरंतरभागहारपरूवणा ण सांतरणिरंतरवेदगकालेण सह विरुज्झदे । उक्कड्डणाए उवरिमविदीओ पत्ताणं एगसमयपबद्ध. पदेसाणं कधं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालमोक्कड्डणुदयाभावो जुज्जदे ? ण, उवसामणादिकरणवसेण तेसिं तदविरोहादो। ओकड्डणाए णट्ठदवं सुट्ट स्थावं त्ति तमप्पहाणं करिय एत्थ ताव भागहारो उच्चदे- कम्मद्विदिआदिसमयपबद्धसंचयस्स भागहारो परूविदो । एहि कम्मट्ठिदिबिदियसमयसंचयस्स भागहारो उच्चदे । तं जहा- कम्मट्ठिदिपढमसमयसंचिददवभागहारं विरलिय सबदव्वं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि चरिमणिसेगपमाणं पावदि । पुणो एदस्स भागहारस्स अद्धं विरलिय सव्वदव्वं समखंड करिय दिण्णे दो दो चरिमणिसमा रूवं पडि पावेंति । ण च दोहि चरिमणिसेगेहि चेव कम्मढिदिबिदियसमयसंचओ होदि, तस्म चरिम-दुचरिमणिसंगपमाणत्तादो। तम्हा दोणं चरिमणिसेगाणमुवरि जहा एगो गोवुच्छविसेसो अहियो होदि तहा अवहारकालस्स स्थितिका नियम नहीं है। इस कारण निरन्तर भागहारकी प्ररूपणा सान्तर व निरन्तर पेदककालके साथ विरोधको नहीं प्राप्त होती। शंका-उत्कर्षणा द्वारा उपरिम स्थितियोंको प्राप्त हुए एक समयबद्धके प्रदेशोंका पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल तक अपकर्षण और उदयका अभाव कैसे बन सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपशामना आदि करणोंके द्वारा उनका उतने काल तक अपकर्षणका अभाव और उदयाभाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। अपकर्षणा द्वारा नष्ट हुवा द्रव्य बहुत स्तोक है; इस कारण उसे गौण करके यहां सर्वप्रथम भागहारका कथन करते हैं - कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बन्धको प्राप्त हुए संचयके भागहारकी प्ररूपणा की जा चुकी है। यहां कर्मस्थितिके द्वितीय समयमें हुये संचयका भागहार कहते हैं । यथा- कर्मस्थितिके प्रथम समयमें संचित द्रव्यके भागहारका विरलन करके सब द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति अन्तिम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इस भागहारके अर्थ भागका विरलन करके सब द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति दो दो अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं। किन्तु मात्र दो अन्तिम निषेकोंके द्वारा कर्मस्थितिके द्वितीय समयका संचय नहीं होता, क्योंकि, वह चरम और द्विवरम निषेक प्रमाण है। इस कारण दोनों अन्तिम निषेकोंके ऊपर जिस प्रकार एक गोपुच्छविशेष अधिक होवे उस प्रकार अवहारकालकी परिहानि की जाती है। यथा - नीचे एक अधिक गगहानिको जितने स्थान आगेक विवक्षित हों उनसे गुणत करके जो लब्ध आव उसे जितने स्थान १ अ-आप्रत्योः चिरिमाणसेगो' इति पाठः ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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