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________________ १, २, १, ३२.1 वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त [१०५ परिहाणी कीरदे । तं जहा - हेट्ठा रूवाहियगुणहाणि चडिदद्धाणगुणं रूवूणाडिदाणसंकलणाए ओकड्डिय विरलिय एगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे एवं पडि एरोगगोवुच्छविसेसो पावदि । एत्थ एगविससं घेत्तूण उवरिमविरलणाए बिदियरूवधरिदम्मि दिण्णे चरिमदुचरिमणिसेयपमाणं कम्मट्टिदिबिदियसमयसंचयतुल्लं होदि । एवं सेसविसेसे वि उवरिमरूवधरिदेसु दादूण समकरणं करिय परिहाणिरूवाणि उप्पाएदव्वाणि । तं जहा- स्वाहियगुणहाणिणा दुगुणेण रूवूणगुणगारसंकलणाए ओवट्टिय कर्यरूवाहिएण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहाणिरूवाणि लभंति । पुणो तेसु तत्तो सोहिदेसु भागहारो होदि । एदेण समयपबद्धे भागे' हिंदे चरिम-दुचरिमणिसेगपमाणं होदि । का भागहार लाना है, एक कम उनके संकलनका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसका विरलन करके एक अंकेके ऊपर रखी हुई राशिको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति एक एक गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है। यहां एक विशेषको ग्रहण कर उपरिम विरलनके द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त राशिके ऊपर देनेपर चरम और द्विचरम निषेकोंका प्रमाण कर्मस्थितिके द्वितीय समय सम्बन्धी संचयके तुल्य होता है। इसी प्रकार शेष विशेषोंको भी उपरिम विरलन अंकोंके ऊपर देकर समीकरण करके हीन अंकोंको उत्पन्न कराना चाहिये। यथाएक अधिक गुणहानिको दूना कर उससे एक कम गुणकारके संकलनको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे एक अधिक करनेसे यदि एक अंककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे अपवर्तित करनेपर परिहीन अंक प्राप्त होते हैं । पुनः उनको उक्त राशिमेंसे घटानेपर भागहार प्राप्त होता है। इसका समयप्रबद्धमें भाग देनेपर चरम और द्विचरम निषेकोंका प्रमाण होता है। उदाहरण- पूर्व भागहारका अर्ध भाग ३५०; गुणहानि ८, चडित अध्वान २, एक कम चडित अध्वान संकलन १। ६३०० ३५० = १८ दो अन्तिम निषेक। ८ + १ = ९, ९४२ = १८, १८ : १ = १८ विरलन राशि ३५०’ १९ = ३५०, ३५० - ३५० = ३३१ ११ चरम द्विचरम निषेक प्राप्त कर नेका भागहार। ६३०० ’ ६३०० = १९ चरम-द्विचरम निषेक । १९ २९ १९ १ अप्रतौ 'विरलणाए' इति पाठः। २ अप्रतौ · सुकलणाए ओवदि कय-' इति पाठ । ३ प्रतिषु 'समयपबद्रेण भागे' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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