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________________ १४६] छक्खंडागमे बेयणाखंड ४, २, ४ ३२. ... एवं रूवाहियगुणहाणि चडिदद्धाणण गुणिय चडिदद्धाणरूवूणसंकलणाए ओवट्टिय रूवाहियं करिय एदेण फलगुणिदिच्छामोवट्टिय परिहाणिरूवाणमुप्पत्ती सव्वत्थ वत्तव्वा । अधवा दुरूवाहियणिसेगभागहारं रूवूणचडिदद्धागेण ओवट्टिय रूवाहियं करिय फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहाणिरूवाणि लभंति । अथवा रूवूणचडिदद्धाणद्धेण रूवाहियगुणहाणिमावीट्टय स्वाहियं काऊण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहाणिरूवाणि लब्भंति । अधवा रूवाहियगुणहाणिणा चरिमणिसेयभागहारं गुणिय विरलिय समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगगोवुच्छविसेसो पावदि त्ति कादूण चडिदद्धाणेण रूवाहियगुणहाणिं गुणिय चडिदद्धाणरूवूणसंकलणं तत्थेव पक्खिविय पुव्वविरलणाए ओवट्टिदाए इच्छिदसमयपबद्धसंचयस्स भागहारो होदि । एवं चदुहि पयारेहि एगसमयपबद्धसंचयस्स भागहारो ........... इस प्रकार एक अधिक गुणहानिको आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनसे गुणित कर आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनकी एक कम संकलनासे अपवर्तित करके जो प्राप्त हो उसमें एक मिलाकर इससे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर परिहीन रूपोंकी उत्पत्ति सर्वत्र कहना चाहिये। __अथवा, दो अधिक निषेकभागहारको एक कम आगेके जितने स्थान विवक्षित हो उनसे अपवर्तित कर जो प्राप्त हो उसमें एक मिलाकर उससे फलगुणित इच्छाके भाजित करनेपर परिहीन अंक प्राप्त होते हैं। उदाहरण-निषेकभागहार १६, चडित अध्वान २; १६ + २ = १८, १८ : १ = १८; १८ + १ = १९, ३५० : १९ = ३५०, ३५० - १५० = ३३१११. अथवा एक कम आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनके अर्ध भागसे एक आधिक गुणहानिको भाजित कर जो प्राप्त हो उसमें एक मिलाकर उससे फलगुणित इच्छाको भाजित करने पर परिहीन रूप प्राप्त होते हैं । उदाहरण- चडित अध्वान २; गुणहानि ८; २-१=१,१४ १ - १ ; ८+ १ = ९ १ १८, १८+ १ = १९ ३५०- १९ = ३२९ ३५० - ३५० = ३३१ ११ । अथवा, एक अधिक गुणहानिसे अन्तिम निषेकके भागहारको गुणित करके विरलित कर समयप्रबद्धको समणण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति एक एक गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है, ऐसा समझकर आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनसे एक अधिक गुणहानिको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसमें ही आगेके जितने स्थान विवक्षित हों उनके एक कम संकलनको मिलाकर पूर्व विरलनके अपवर्तित करनेपर इच्छित समयप्रबद्धके संचयका भागहार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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