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________________ ४, २, ४, ३२] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [१४३ एसो णिरंतरो वेदगकालो णाम । तदो उवरिमसमए णियमा अवेदगकालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो' । तदो णियमा एगसमयमादि कादूण जावुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागो त्ति णिरंतरवेदगकालो होदि । एवं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमतवेदगकालेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत अवेदगकालेग च समयपबद्धो गच्छदि जाव कम्मट्टिदिचरिमसमयं पत्तो त्ति । चारित्तमोहणीयक्खवणाय अहमी जा मूलगाथा तिस्से चत्तारि भासगाहाओ। तत्थ तदियभासगाहाए वि एसो चेव अत्थो परविदो । तं जहा- असामण्णाओ द्विदीओ एक्का वा दो वा तिणि वा, एवं णिरंतरमुक्कस्सेण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ति गच्छंति त्ति । च उत्थगाहाए वि खवगस्स सामण्णहिदीणमंतरमुक्कस्सेण आवलियाए असंखे. ज्जदिभागो त्ति परविदं । तेण कम्महिदिअभंतरे बद्धसमयपबद्धाणं णिरंतरमवट्ठाणाभावादो भागहारपरूवणा ण घडदि त्ति ? ण एस दोसो, उक्कड्डणाए संचिददबस्स गुणिदकम्म. सियचरिमसमए भागहारपरूवणादो। होदि एस दोसो जदि ठिदिपडिबद्धपदेसाणं भागहार ............. है। इसको निरन्तरवेदककाल कहते हैं। इससे आगेके समयमें अवेदककाल आता है जो जघन्यसे एक समय और उत्कृष्ट रूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है। तत्पश्चात् एक रूपयसे लेकर उकृष्ट रूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक नियमसे निरन्तरवेदककाल होता है । इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र वेदककाल और पल्योरमके असंख्यातवें भाग मात्र अवेदककालले कर्मस्थितिका अन्तिम समय प्राप्त होने तक समयबद्ध जाता है । चारित्रमोहनीयकी क्षपणामें जो मूल गाथा आयी है उसकी चार भाष्यगाथायें हैं। उनमें तीसरी भाष्यगाथामें भी इसी अथकी प्ररूपणा की गई है। यथा- असामान्य स्थितियां एक हैं, दो हैं अथवा तीन हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे पलपोपमके असंख्यातवें भाग तक निरन्तर जाती हैं। शंका - चतुर्थ गाथामें भी क्षपककी सामान्य स्थितियों का अन्तर उत्कृष्ट रूपसे आवलीका असंख्यातवां भाग कहा गया है। इसलिये कर्मस्थितिके भीतर बांधे गये समयप्रबद्धोंका निरन्तर अवस्थान न होनेसे भागहारकी प्ररूपणा घटित नहीं होती है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कर्षणा द्वारा संचित हुए व्यका गुणितकौशिकके अन्तिम समयमें भागहार कहा गया है । याद यहां स्थितिके सम्बन्धसे प्रदेशोंकी भागहारप्ररूपणा की जाती तो यह दोष हो सकता था । किन्तु यहां १ प्रतिषु · संखेजदिभागो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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