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________________ ४, २, ४, ३६.] वेपणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त । २२७ बंधावि, जुत्तं, पुवकोडितिभागम्मि संचिदआउवदव्वादो एत्थतणसंचयस्स संखज्जभागहीणत्तप्पसंगादो। परभवियं पुव्वकोडाउअंबंधदि जलचरेसु त्ति बिदियं विसेसणं । जहा णाणावरणादीणं बंधभवे चेव बंधावलियादिक्ताणमुदओ होदि तहा आउअस्स तम्हि भवे बद्धस्स उदओ ण होदि, परभवे चेव होदि त्ति जाणावणट्ठमाउअस्स परभवियविसेसणं कयं । पुवकोर्डि मोत्तूण दीहमाउअं थोवीभूदपढमादिगोउच्छ तादो पत्तत्थोवणिज्जरं किण्ण बंधाविदो ? ण, समयाहियपुवकोडिआदि उपरिमआउअवियप्पाणं घादाभावेण परभविआउअबंधेण विणा छम्मासेहि ऊणभुज्जमाणा उअं सव्वं गालिय परभवियआउए बज्झमाणे आउवदव्वस्स बहुसंचयाभावादो । पुनकोडीदो हेट्ठिमआउट्ठिदिवियप्पे किण्ण बंधाविदो ? ण, थोवाउहिदीए थूलगोवुच्छासु अंतोमुहुत्तमेत्तकालं पिरंतरं घडियाजलधारं वै गलंतीसु त्रिभागमें संचित आयुगव्यकी अपेक्षा यहां के संचयके संख्यातवे भागले हीन होनेका प्रसंग आता है। 'जलचरों में परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधता है' यह द्वितीय विशेषण है । जिस प्रकार ज्ञानावरणादिकोंका बांधनेके भवमें ही बन्धावलीको पिताकर उदय होता है उस प्रकार बांधे गये आयु कर्म का उसी भवमें उदय नहीं होता, किन्तु उसका परभवमें ही उदय होता है; इस बातका ज्ञान कराने के लिये आयुका 'परमविक' विशेषण दिया है। शंका-यहां पूर्वकेटके सिवाय पेली दीर्घ आयुका बन्ध क्यों नहीं कराया जिससे उसके प्रथमादि गोपुच्छोंको प्राप्त होनेवाला द्रव्य स्तोक होने से उसकी निर्जरा भी कम होती? समाधान- नहीं, क्योंकि एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि उपरिम आयु. विकल्पोंका घात नहीं होता । जो जीव ऐसी आयुका बन्ध करता है वह परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध किये पिना ही छह महीनाके सिवाय सब भुज्यमान आयुको गला देता है। इसके केवल भुज्यमान आयुमें छह महीना शेष रहनेपर ही परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध होता है, इसलिये इसके आयु द्रव्यका बहुत संचय नहीं होता। शंका- यहां पूर्वकोटिसे नीचेकी मायुके स्थितिविकल्पोका बन्ध क्यों नहीं कराया? समाधान-नहीं, क्योकि स्तोक आयुकी गोपुछाथै स्थूल होती है, इसलिये उनके अन्तर्मुहूर्त काल तक घटिकाजलकी धाराके समान निरन्तर गलते रहनेपर मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रति बंधावलियादितताण-' इति पाठः। २ ताप्रति पाठोऽयम। अ-आ-काप्रतिषु 'मंजमाणाउ' इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु धारद्ध' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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