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१, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[५. त्ति णव्वदे। तम्हा आउवावासो जोगावासे पविट्ठो ति पुध ण परूविदो । ण मोक्कड्डुक्कड्डणावासो वि परूविज्जदि, तस्स संकिलेसावासे अंतब्भावादो । एसा संगहणयविसया आवासयपरूवणा परूविदा एगभवविसया ।
एवं संसरिदूण त्थोवावसेसे जीविदव्वए ति जोगजवमझस्सुवरिमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदों ॥ २८ ॥
एत्थ जोगस्स. बीइंदियपज्जत्तसव्वजहण्णजोगट्ठाणपहुडि अवविदपक्खेउत्तरकमेण उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणे ति गदस्स पढमदुगुणवाड्डअद्धाणादो दुगुण-चदुगुणादिकमेण गदगुणवड्डिअद्धाणस्स करिकराकारस्स कथं जवभावो । जवाभावे ण तस्स मझं पि, असंते मज्झत्तविरोहादो त्ति? एत्थ उत्तरं वुच्चदे । तं जहा-बीइंदियपज्जत्तसव्वजहण्णपरिणामजोगट्ठाणमादि कादूण जाव सण्णिपंचिंदियपज्जत्तउक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणे त्ति घेत्तूण पंत्तिया
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है, यह जाना जाता है। अत एव आयुरावास योगावासमें अन्तर्भूत है, अतः उसकी पृथक् प्ररूपणा नहीं की है। तथा यहां अपकर्षण-उत्कर्षण-आवासकी भी प्ररूपणा नहीं की जाती है, क्योंकि, उसका संक्लेशावासमें अन्तर्भाव हो जाता है । यह संग्रहनयकी विषयभूत एक भवविषयक आवासकी प्ररूपणा कही है।
इस प्रकार परिभ्रमण करके जीवनके थोड़ा शेष रहनेपर योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहा ॥ २८॥
शंका-यहां द्वीन्द्रिय पर्याप्तके सबसे जघन्य योगस्थानसे लेकर अवस्थित प्रक्षेप उत्तर क्रमसे उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान तक प्राप्त हुआ जितना भी योग है, जो कि पहले दुगुणवृद्धि-स्थानले दुगुण-चतुर्गुण आदिके क्रमसे उत्तरोत्तर गुणवृद्धि रूप स्थानोको प्राप्त है और जो हाथीके शुण्डादण्डके आकारका है, वह योग यवाकार कैसे हो सकता है । जब वह यवाकार नहीं है तब उसका मध्य भी सम्भव नहीं है, क्योंकि,. जो वस्तु असत् है उसका मध्य मानने में विरोध आता है ?
- समाधान-यहां उक्त शंकाका उत्तर कहते हैं । वह इस प्रकार है-द्वीन्द्रिय पर्याप्तके सबसे जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान तकके सब योगोंको ग्रहण करके एक पंक्तिमें स्थापित करनेपर उन
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१ प्रतिषु · मुहुपत्थमच्छिदो' इति पाठः । जोगजवमज्झस्सुवीरं मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे । तिचरिमदुचरिमसमए पूरित्त कसायठक्कस्सं ॥ क. प्र. २-७७.
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