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________________ ४, २, ४, ४६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [ २५३ दम्मि संखज्जपुवकोडीओ अवणिदे एगविगिदिगोवुच्छाए णिसेगभागहारो होदि । तं रूवूणबंधगद्धाए गुणिय विरलेदूण उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एगेगविसेसो पावदि । एदं च एत्थ णिच्छिज्जदि' त्ति पुविल्लसंकलणाए 'पदगतमवैक्या एदेण सुत्तेण आणिदाए णिसँग भागहारमोवट्टिय लद्धं विरलेदूण उवरिमरूवधरिदपमाण समखंडं करिय दिपणे संकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा पावेंति । एदे उवरिमविरलणरूवधरिदेसु अवणेदवा, अवणिदसेस सव्वविगिदिगोवुच्छाओ होति । पुणो अवणिदगोवुच्छविसेसेसु तप्पमाणेण कीरमाणेसु उप्पण्णसलागाणयणं उच्चदे । तं जहा - हेट्टिमविरलणरूवूणमेत्तविसेसाणं जदि एगा पक्खेवसलागा लन्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणसंखेज्जरूवेसु पक्खित्ते एगसमयपबद्धमस्सिदूण गट्ठविगिदिगोउच्छाणं भागहारो होदि । एदेण समयपबद्धे भागे हिंदे विगिदिसरूवेण णट्ठदव्वं होदि । एगसमयपबद्धम्मि जदि एगसमयपबद्धस्स संखेज्जदिमागमेत्तं विगिदिसरूवेण णद्व्वं लब्भदि तो उक्कस्सबंधगद्धा कदलीघातकी खण्डशालाकाओंसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसमें से सख्यात पूर्वकोटियोंको घटानेपर एक विकृतिगोपच्छके निषेकका भागहार होता है। उसको एक कम बन्धकमालसे गुणा करके विरलित कर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एक के प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है । यह चूंकि यहां निःशेष क्षीण होता है, अतः 'पदगतमवैक्या-' इस सूत्रसे लायी हुई पूर्वोक्त संकलनासे निषेकभागहारको अपवर्तित कर जो प्राप्त हो उसका विरलन कर उपरिम विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर संकलन मात्र गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। इनको उपरिम विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिमें ले कम करना चाहिये। कम करनेसे जो शेष रहे उतनी सब विकृतिगोपुच्छायें होती हैं। पुनः कम किये हुर गोपुच्छविशेषों को उनके प्रमाणले करनेपर उत्पन्न शलाकाओंके लाने को कहते हैं । यथा-रूप कम अधस्तन विरलन मात्र विशेषांक यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन मात्र विशेषों के क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनके संख्यात रूपों मिलानेपर एक समयप्रबद्धका आश्रय कर नष्ट विकृतिगोपुच्छाओंका भागहार होता है । इसका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर विकृति स्वरूपसे नष्ट द्रव्य होता है । एक समयप्रबद्ध में यदि एक समयप्रबद्धके संख्यातवें भाग मात्र विकृति स्वरूपसे नष्ट द्रब्य प्राप्त होता है तो उत्कृष्ट १ मप्रतौ 'छिज्जदि ' इति पाठः । २ आप्रती 'पदगमवैक्या' इति पाठः । पदगतमवइकउत्तरसमाहद दलिद आदिणा सदिदं । गण्डगुणमुवचिदाणं गणिदसरीरं विणिदिलु ॥ जंबू.प. १२-२१.३ प्रतिषु'अ'इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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