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________________ २६२ छक्खंडागमे धैयणाखंड (१,२,४,४७. पढमसमए परभवियाउअपंधेण विणा ठिदो च सरिसा । एदमेत्थेव ठविय पुणो पगडिसरूवेण गलिददव्यभागहारं विरलिय सयलपक्खेवं समखंड करिय दादूण एत्थ एगरूवधरिदपमाणेणं उवरिमविरलणाए सव्वधरिदेसु अवणिय पुध ढविय तं सगलपक्खये कस्सामो। तं जहा - हेट्ठिमविालणमेत्ताणं जदि एगो सपलपक्खेवो लब्भदि तो उवरिमविरलण मेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण तप्पाओग्गबंधगद्धागुणिदजोगट्ठाणपक्खेवभागहारे भागे हिदे लद्धमेत्ता पगडिसरूवेण णवदध्वम्मि सगल. पक्खेवा होति । एदे पुध हविय पुणो दिवड्डगुणहाणि विरलिय सयलपक्खेवं समखंड करिय दादूण एत्थ एगरूवधरिदपमाणेण उवरिमविरल गसव्वरूवधीरदेसु अवणिय पुध ट्ठविय सगलपक्खेवे कस्सामो - हेट्ठिमविरल गमेत्ताणं जदि एगो सगलपक्खेवो लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण तप्पाओग्गबंधगद्धागुणिदजोगट्ठाणपक्खेवभागहारे ओवट्टिदे लद्धमत्ता णेरइयपढमगोवुच्छाए सगलपक्खेवा होति । पुणो एदेहि सगलपक्खेवेहि जोगोलंबर्णकरणवसेण ऊणं कदलीघौदहेट्टिमसमए द्विदतिरिक्खदव्वं एदेण ................ कदलीघातके प्रथम समय में परभविक आयुबन्यके विना स्थित हुआ अन्य एक जीव, ये दोनों समान हैं। इसको यहां ही स्थापित कर फिर प्रकृति स्वरूपके गले हुए द्रव्यके भागहारका विरलन कर तथा सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देकर फिर इसमेंसे एक अंकके प्रति प्राप्त प्रमाण रूपले उपरिम विरलनके सब विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त राशिमेसे कम करके पृथक स्थापित कर उसके सकल प्रक्षेप करते हैं। यथा- अधस्तन विरलन माओंका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्रोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाण राशिका उसके योग्य बन्धककालसे गुणित योगस्थान सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारमें भाग देनेपर जो प्राप्त हो उतने प्रकृति रूपसे नष्ट हुए द्रव्यमें सकल प्रक्षेप होते हैं । इनको पृथक् स्थापित कर पश्चात् डेढ़ गुणहानिका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देकर इसमें एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त प्रमाण रूपसे उपरिम विरलनके सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशिसे कम कर पृथक् स्थापित कर उन्हें सफल प्रक्षेप रूपसे करते हैं- अधस्तन विरलन मात्रोंका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन मात्रोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार तत्प्रायोग्य बन्धककालसे गुणित योगस्थान प्रक्षेपभागहारमें प्रमाण राशिका भाग देने पर जो लब्ध हो उतने मात्र नारक प्रथम गोपुच्छमें सकल प्रक्षेप होते हैं । पुनः योग और अवलम्बन करण के द्वारा इन सकल प्रक्षेसे हीन कदलीघातके अधस्तन समयमें स्थित तिर्यंच द्रव्य तथा इसके समान योग...................... मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु धरिदसमाणेण' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रति जोगोवलंबण' इति पाठः। ३ प्रतिपु ' ऊणकदली ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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