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________________ [५ ४, २, १, २.] वेयणमहाहियारे वेयणणिक्खेवो एत्थ सोलस अणियोगद्दाराणि त्ति एदं देसामासियवयणं, अण्णेसि पि अणियोगद्दाराणं मुत्तजीवसमवेदादीणमुवलंभादो । एदेसु अणियोगद्दारेसु पढमाणियोगद्दारपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि वेयणणिक्खेवे त्ति । चउविहे वेयणणिक्खेवे ॥२॥ वेयणणिक्खेवे त्ति पुवुद्दिद्वत्थाहियारसंभालणटुं भणिदमण्णहा सुहेण अवगमाभावादो। एत्थ वि पुव्वं व ओआरस्स एआरादेसो दट्ठन्यो । वेयणणिक्खेवो चउविहो त्ति एवं पि देसामासियवयण, पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे खत्तकालादिवेयणाणं च दंसणादो । णामवेयणा ट्ठवणवेयणा दव्ववेयणा भाववेयणा चेदि ॥ ३॥ तत्थ अट्टविहबज्झत्थाणालंबणो' वेयणासदों णामवेयणा । कधमप्पणो अप्पाणम्हि यहां 'सोलह अनुयोगद्वार ' यह देशामर्शक वचन है, क्योंकि, मुक्त-जीव-समवेत आदि अन्य अनुयोगद्वार भी पाये जाते हैं । अब इन अनुयोगद्वारों से प्रथम अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं अब वेदनानिक्षपका प्रकरण है । वेदनाका निक्षेप चार प्रकारका है ॥ २ ॥ यहां 'वेदनानिक्षेप' यह पद पूर्वोद्दिष्ट अर्थाधिकारका स्मरण करानेके लिये कहा है, अन्यथा इसका सुखपूर्वक ज्ञान नहीं हो सकता है। यहां भी पूर्वके समान 'एए छच्च समाणा' इस सूत्रसे ओकारके स्थानमें एकारादेश समझना चाहिये। 'वेदनानिक्षेप चार प्रकारका है' यह भी देशामर्शक वचन है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर क्षेत्रवेदना व कालवेदना आदि भी देखी जाती हैं। नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना ॥३॥ उनमेंसे एक जीव, अनेक जीव आदि आठ प्रकारके बाह्य अर्थका अवलम्बन न करनेवाला 'वेदना' शब्द नामवेदना है । शंका-अपनी अपने आपमें प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? १ प्रतिषु · वेयणासद्दा' इति पाठः । १ संतपरूवणा भा. १, पृ. १९. ३ प्रतिषु । कथमुप्पण्णो'इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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