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________________ छक्खंडागमे बेयणाखंड [१, २,१ मिण्णवेयणा किं हिदा किमहिदा किं ट्ठिदाहिदा त्ति णयमासेज्ज पण्णवणटुं वेयणगइविहाणमागयं । अणतरबंधा' णाम एगेगसमयपबद्धा, णाणासमयपबद्धा परंपरबंधा' णाम, ते दो वि तदुभयबंधा; एदेसिं तिण्हं पि णयसमूहमस्सिदूण पण्णवणटुं वेयणअणंतरविहाणमागयं । दव्व-खत्त-काल-भावाणमुक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णेसु एक्कं णिरुद्धं काऊण सेसपदपण्णवणहूँ वेयणसण्णियासविहाणमागयं । पैयडिकाल-खत्ताणं भेएण मूलुत्तरपयडीणं पमाणपरूवणटुं वेयणपरिमाणविहाणमागयं । पगडि अट्ठदा-ट्ठिदिअट्ठदा-क्खेत्तपच्चासेसु उप्पण्णपयडीओ सव्वपयडीणं केवडिओ भागो त्ति जाणावणटुं वेयणभागाभागविहाणमागयं । एदासिं चेव तिविहाणं पयडीणमण्णोण्णं पेक्खिऊण थोव-बहुत्तपदुप्पायणटुं वेयणअप्पाबहुगविहाणमागयं । एवं सोलसण्हमणिओगद्दाराण पिंडत्थपरूवणा कया । हुई वेदना क्या स्थित है, क्या अस्थित है, या क्या स्थित अस्थित है। इस प्रकार नयके आश्रयसे परिक्षान कराने के लिये वेदनगतिविधान अधिकार आया है। एक एक समयप्रबद्धोंका नाम अनन्तरंबन्ध है, नाना समयप्रबद्धोंका नाम परम्परबन्ध है, और उन दोनों ही का नाम तदुभयवन्ध है । इन तीनोंका नयसमूहके आश्रयसे ज्ञान करानेके लिये घेदनअनन्तरविधान अधिकार आया है । द्रव्यवेदना, क्षेत्रवेदना, कालवेदना और भाववेदना इनके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदोंमें से एकको विवक्षित करके शेष पदोंका ज्ञान करानेके लिये वेदनसन्निकर्षविधान अधिकार आया है । प्रकृतियों के काल और क्षेत्रके भेदसे मूल और उत्तर प्रकृतियोंके प्रमाणका प्ररूपण करनेके लिये वेदनपरिमाणविधान अधिकार आया है। प्रकृत्यर्थता, स्थित्यर्थता (समयप्रवद्धार्थता) और क्षेत्रप्रत्याश्रयमें उत्पन्न हुई प्रकृतियां सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं, यह जतलानेके लिये वेदनमागाभागविधान अधिकार आया है । और इन्हीं तीन प्रकारकी प्रकृतियोंका एक-दूसरेकी अपेक्षा अल्प-बहुत्व बतलानेके लिये वेदन अल्पबहुत्वविधान आधिकार भाया है। इस प्रकार इन सोलह अनुयोगद्वासेकी समुदयार्थ प्ररूपणा की गई है। १ अणंतरबंधो णाम कम्मइयवग्गणाए हिदपोग्गलक्खंवा मिच्छत्तादिकम्मभावेण परिणदपटमसमए अनंतरवंधो । अ. पत्र १०७३. को परंपरबंधो णाम ? बंधबिदियसमयप्पहुडि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम | अ. पत्र १.७२. ३ सणियासो णाम किं १ दव-खेत-काल-भावेसु जहण्णुक्कस्सभेदभिण्णेसु एक्कम्मि विरुद्ध[णिरद्धे] सेसाणि किमुक्कस्साणि किमणुक्कस्साणि किं जहण्णाणि किमजहण्णाणि वा पदाणि होति ति जा परिक्सा सो सग्नियासो णाम | अ. पत्र १०७४. ५ आप्रतौ 'पहुडि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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