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________________ १, २, ४, २८. वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं भागमेत्ताहि तम्हि गुणिदे सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव वग्गणाओ हॉत्ति ति गुरूवदेसादो। एत्थ सव्वजोगट्ठाणवग्गणाणयणविहाणं उच्चदे । तं जहा-रूवूणजोगट्ठाणद्धार्ण सयलजोगट्ठाणद्धाणेण गुणिय अद्धिय' पुणो पक्खेवफद्दयसलागाहि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताहि गुणिय जहण्णजोगट्ठाणजहण्णफद्दयसलागाओ जोगट्ठाणद्धाणगुणिदाओ पक्खित्ते सव्वजोगट्टाणाणं जहण्णफद्दयसलागाओ होति । पुणो ताओ सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तएगफद्दयवग्गणसलागाहि गुणिदे सव्ववग्गणाओ आगच्छंति । एसा रासी सव्वो वि सेडीए असंखेज्जदिभागो। एत्थ जइ जोगट्ठाणद्धाणागमणढं सेडीए ठविदभागहारो सेढिपढमवम्गमूलमेत्तो होज्ज तो जोगट्ठाणद्धाणं वग्गिदे जगसेडी उप्पज्जेज्ज । अह जइ दुगुणो तो जोगट्ठाणद्धाणं वग्गिय चदुगुणिदे जगसेडी होज्ज । अह चउगुणो, वग्गिय सोलसेहि गुणिदे सेडी होज्ज । एवं संखेज्जासंखेज्जेसु णेदव्वं जाव संदेहविच्छेदो त्ति । णवरि एत्थ जोगट्ठाणद्धाणं वग्गिय सेडीए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे वि जगसेडी ण उप्पण्णा, तिस्से असंखेशलाकाओंसे सब योगस्थानोंको गुणित करनेपर श्रेणिके असंख्यातवे भाग मात्र ही वर्गणायें प्राप्त होती हैं, इस गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि योगस्थानोंका काल लाने के लिये जगश्रेणिका भागहार जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। यहां सब योगस्थानोंकी वर्गणाओंके लानेका विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक कम योगस्थानके कालको समस्त योगस्थानके कालसे गुणित करके आधा कर फिर अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र प्रक्षेप-स्पर्धक शलाकाओंसे गुणित करके जो लन्ध आवे उसमें योगस्थानके कालसे गुणित जघन्य योगस्थानकी जघन्य स्पर्धकशलाकाओंका प्रक्षेप करनेपर समस्त योगस्थानोंकी जघन्य स्पर्धकशलाकायें होती हैं । पुनः उनको श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र एक स्पर्धककी वर्गणाशलाऔसे गुणित करनेपर समस्त वर्गणायें आती हैं। यह सभी राशि श्रेणिके असंख्यातवे भाग प्रमाण है। यहां योगस्थानका नके लिये श्रेणिका जो भागहार स्थापित किया जाय वह यदि जगश्रेणिके प्रथम वर्गमूल प्रमाण होवे तो योगस्थानोंके कालको वर्गित करनेपर जगश्रेणि उत्पन्न होगी। अथवा, यदि वह भागहार श्रेणिके प्रथम वर्ग मूलसे दुगुणा होवे तो योगस्थानके कालको वर्गित कर चारसे गुणा करनेपर जगश्रेणि उत्पन्न होगी। अथवा, यदि श्रेणिके प्रथम वर्गमूलसे चौगुणा होवे तो योगस्थानोंके कालको वर्गित करके सोलहसे गुणित करनेपर जगश्रेणि उत्पन्न होगी। इस प्रकार संशयके दूर होने तक संख्यातगुणे व असंख्यातगुणे तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां योगस्थानोंके कालको वर्गित कर श्रेणिके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर भी जगश्रेणि उत्पन्न नहीं हुई, उसका असंख्यातवां भाग ही उत्पन्न हुआ। इससे जाना जाता है कि जगश्रेणिका १ प्रतिषु 'लद्धिय ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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