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________________ ३५० . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४. १२३. होदि । तं जहा- गुणहाणिअद्धवग्गमूलेण गुणहाणिम्हि भागे हिदे भागलद्धं भागहारादो दुगुणं होदि । तं रूवाहियं हेट्ठा ओदिण्णद्धाणं होदि । एत्थतणसव्वगोवुच्छविसेसा मिलिदूग एगचरिमणिसेयपमाणं होति । एत्थ णाणावरणपढमरूवुप्पाइदविहाणं सव्वं चिंतिय क्त्तव्वं । चरिमणिसेयभागहारमंगुलस्स असंखेज्जदिमागं हेट्ठा ओदिण्णदाणेण रूवाहिएण खंडिदे तत्थेगखंडमेत्तो एत्थतणविगलपक्खेवभागहारो होदि । संपहि रूवूणोदिण्णद्धाणेणं सह तदणंतरहेट्ठिमगोवुच्छाए विगलपक्खेवभागहारे इच्छिज्जमाणे चरिमणिसेगमागहारं अंगुलल्स असंखेज्जदिभागमप्पणो ओदिण्णद्धाणेण रूवाहिएण खंडिदे तत्थ एगखंड विरलिय सगलपक्खेवं समखंडं कादण दिण्णे रूवाहियओदिण्णद्धाणमेत चरिमगोवुच्छाओ रूवं पडि पावेंति । संपहि ओदिण्णद्धाणरूवूणमेत्तविससाणमागमणमिच्छिय रूवाहियगुण हाणिं रूवाहियदिण्णद्धाणेण गुणिय विरले. दूण एगरूवधारदं समखंडं करिय दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स एगेगविसेसपमाणं पावदि । संपहि रूवूणोदिण्णद्धाणमेत्ते गोवुच्छविसेसे इच्छामो त्ति रूवूणोदिण्णद्धाणेण पुव्वविरलण प्रमाण होते हैं । यथा-गुणहानिके अर्ध भागके वर्गमूलका गुणहानिमें भाग देनेपर भागलब्ध भागहारसे दुगुणा होता है। वह एक अधिक होकर नीचे का अवतीर्ण अध्वान होता है। यहांके सब गोपुच्छविशेष मिलकर एक अन्तिम निषेक प्रमाण होते हैं। यहां शानावरण सम्बन्धी प्रथम अंकसे उत्पादित सब विधानको विचार कर कहना चाहिये । अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तिम निषेकके भागहारको नीचेके अवतीर्ण रूपाधिक अध्वानसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्ड प्रमाण यहांका विकलप्रक्षेप-भागहार होता है। अब रूप का अवतीर्ण अध्यानके साथ तदनन्तर अघस्तन गोपच्छके विकल-प्रक्षेप-भागहारकी इच्छा करने पर अंगलके असंख्यातवें भाग मात्र अन्तिम निषेकभागहारको रूपाधिक अपने अवतीर्ण अध्यानसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्डका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देने पर रूपके प्रति रूपाधिक अवतीर्ण अध्यान मात्र अन्तिम गोपुच्छ पाये जाते हैं। अव अवतीर्ण अध्वानके एक अंकसे हीन मात्र विशेषोंके लाने की इच्छा कर रूपाधिक गुणहानिको रूपाधिक अवतीर्ण अध्वानसे गुणित कर विलित करके एक रूपधरितको समखण्ड करके देने पर एक एक रूपके प्रति एक एक विशेषका प्रमाण प्राप्त होता है। अब चंकि रूप कम अवतीर्ण अध्वान मात्र गोपुच्छविशेषोंका लाना इष्ट है अत एव रूप कम अवतीर्ण अध्वानसे पूर्व विरलन राशिको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसमें एक रूप प्रतिषु 'रूवुप्पण्णद्धाणेण' इति पाठः । २ अप्रती -मेरो गोवुच्छविसेस.', आ-काप्रत्योः मतगोवुन्छविसेस-' ताप्रती 'मेत्तगोवुच्छविसेस'इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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