SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [२१७ त्तर वड्विदे खविद-घोलमाणस्स अणंतभागवड्डी होदि । तं पि हाणं पुणरुत्तमेव । एवं पुणरुत्तापुणरुतसरूवेण अणंत-असंखेज्जभागवड्डीसु गच्छमाणासु दूरं गंतूण खविदघोलमाण: अणंतभागवड्डी परिहायदि । से काले खविदघोलमाणो असंखज्जभागवति पारंभदि । तं पि पुणरुत्तट्ठाणमेव । एवं पुणरुत्तापुणरुत्तसरूवेण दोसु वि असंखज्जभागवड्ढासु गच्छमाणासु दूर गंतूण खविदकम्मंसियअसंखेज्जभागवड्डी परिहायदि । तम्हि चेवुद्देसे खविदकम्मंसियटाणाणि समप्पंति । एदेसु उत्तट्ठाणेसु खविदघोलमाणजहण्णपदेसट्ठाणादो हेट्ठिमाणमणुक्कस्सट्ठाणाणं खविदकम्मंसिओ चेव सामी। उवरिमाणं खविदकम्मंसिओ खविदघोलमाणो च सामिणो। पुणो खविदघोलमाणतदणंतरअसंखेज्जभागवडिठ्ठाणमपुणरुत्तं होदि । विदियं पि अपुणरुत्तं चेव । एदमपुणरुत्तसरूवेण दूरं गंतूण गुणिदघोलमाणजहण्णहाणेण सरिसं होदि । एदम्हादो हेहिमाणं खविदकम्मंसिय उक्कस्सादो उवरिमाणं पदेसहाणाणं खविदघोलमाणो चेव सामी। गुणिदघोलमाणजहण्णट्ठाणं पुणरुतं । पुणो परमाणुत्तरं वडिदे पुणरुत्तमणंतभागवड्डिट्ठाणं होदि । एवं पुणरुत्तापुणरुत्तसरूवेण अणंतभागवडि-असंखेज्जभागवड्डीसु गच्छमाणासु दूरं गंतूण अणंतभागवड्डी परिहायदि । से काले गुणिदघोलमाण है । वह पुनरुक्त स्थान है । पुनः एक परमाणु अधिक क्रमसे वृद्धिके होनेपर क्षपितघोलमान जीवके अनन्तभागवृद्धि होती है। वह भी स्थान पुनरुक्त ही है। इस प्रकार पुनरुक्त-अपुनरुक्त स्वरूपसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिके चाल रहने. पर बहुत दूर जाकर क्षपितघोलमान जीवके अनन्तभागवृद्धिकी हानि होती है। अनन्तर समयमें क्षपितधोलमान जीव असंख्यातभागवृद्धिको प्रारम्भ करता है। यह भी पुनरुक्त स्थान ही है। इस प्रकार पुनरुक्त और अपुनरुक्त स्वरूपसे दोनों ही असंख्यातभागवृद्धियोंके चालू रहनेपर दूर जाकर क्षपितकर्माशिककी असंख्यातभागवृद्धि हीन हो जाती है और उसी स्थानमें क्षपितकर्माशिकके स्थान समाप्त हो जाते हैं। इन उपर्युक्त स्थानोंमें क्षपितघोलमानके जघन्य प्रदेशस्थानसे नीचेके अनुत्कृष्ट स्थानोका क्षपितकर्माशिक ही स्वामी है। उपरिम स्थानोंका क्षपितकर्मीशिक और क्षपितघोलमान दोनों स्वामी है। पुनः क्षपितघोलमानका तदनन्तर असंख्यातभागवृद्धिका स्थान अपुनरुक होता है । दूसरा स्थान भी अपुनरुक्त ही होता है। इस प्रकार यह स्थान अपुनरुक्त स्वरूपसे दूर जाकर गुणितघोलमानके जघन्य स्थानके सदृश होता है। इससे भघस्तन और क्षपितकाशिकके उत्कृष्टसे उपरिम प्रदेशस्थानोंका क्षपितघोलमान ही स्वामी है। गुणितघोलमान का जघन्य स्थान पुनरुक्त है । पुनः एक आदि परमाणुकी वृद्धि होनेपर अनन्तभागवृद्धिका पुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार पुनरुक्त अपुनरुक्त स्वरूपसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि के चालू रहनेपर दूर जाकर [गुणितघोलमानकी] अनन्तभागवृद्धि हीन हो जाती है। अनन्तर समयमें गुणितघोलमानके असंख्यातभागवृद्धिछ. वे. २८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy