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________________ १, २, ४,६१.] धेयणमहाहियारे धेयणदध्वविहाणे सामित्तं [ २८९ संजम' पडिवण्णो इदि वयणादो णव्यदे । ण च फलेण विणा किरियापरिसमति भणति आइरिया । तेण तस-थावरकाइएसु संचिददव्वादो असंखज्जगुणं दव्वं णिज्जरिय संजमं पडिवण्णो त्ति घेत्तव्वं । गुणसेडिजहण्णहिदीए पढमवारणिसित्तं दव्वमसंखज्जावलियपषद्धहि संजुत्तमिदि आइरियपरंपरागदुवेदसादो वा णव्वदे जहा संचयादा एत्थ णिज्जरिददव्वमसंखज्जगुणमिदि। तत्थ य भवहिदि पुवकोडिं देसूणं संजममणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्यए त्ति मिच्छत्तं गदो ॥ ६१॥ ___ तत्थ संजमगहिदपढमसमए चरिमसमयभिच्छाइट्ठिणा ओकड्डिददव्वादो असंखज्जगुणं दवमोकड्डिदूण गलिदसेसमुदयावलियबाहिरे पुविल्लगुणसेडिआयामादो संखेज्जगुणहीणं पदेसणिक्खेवेण असखेज्जगुणं गुणसेडिं करेदि । बिदियसमए वि एवं चेव करेदि । णवरि पढमसमयओकड्डिददव्वादो बिदियसमए असंखेज्जगुणं दवमोकड्डिय गुणसेडिं करेदि सि वत्तव्वं । एवं समए समए असंखेज्जगुणाए सेडीए दव्वमोकड्डिदूण गुणसेडिं समाधान- वह 'संयमको प्राप्त होकर ' ऐसा न कहकर 'संयमको प्राप्त दुआ' ऐसे कहे गये सूत्रवचनसे जाना जाता है। कारण कि आचार्य प्रयोजनके विना क्रियाकी समाप्तिका निर्देश नहीं करते। इसलिये त्रस व स्थावर कायिकोंमें संचित हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यको निर्जीर्ण कर संयमको प्राप्त हुआ, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये। अथवा, गुणश्रेणिकी जघन्य स्थितिमें प्रथम वार दिया हुआ द्रव्य असंख्यात आवलियोंके जितने समय हो उतने समयप्रबद्ध प्रमाण है, इस प्रकार आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है कि संचयकी अपेक्षा यहां निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा है। वहां कुछ कम पूर्वकोटि मात्र भवस्थिति काल तक संयमका पालन कर जीवितके थोड़ा शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ ॥ ६१ ॥ पहां संयम ग्रहण करने के प्रथम समयमें चरमसमययी मिथ्यादृष्टि द्वारा अपकृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्य का अपकर्षण कर उदयावलीके बाहिर पूर्वोक्त गुणश्रेणिके आयामले संख्यातगुणे हीन आयामवाली व प्रदेशनिक्षेपकी अपेक्षा असंख्यात. गुणी गलितशेष गुणश्रेणि करता है । द्वितीय समयमें भी इसी प्रकार करता है। विशेष इतना है कि प्रथम समयमें अपकृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा द्वितीय समयमें असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणि करता है, ऐसा कहना चाहिये । इस प्रकार समय समयमें असंख्यातगुणित श्रेणि रूपले द्रव्यका अपकर्षण कर एकान्तवृद्धिके अन्तिम तामती नोपलम्पो पदमिदम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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