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________________ [२५० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, ४६. उवरिमविरलणमेत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणाए पक्खित्ते कदलीघादपढमसमयणिसंगभागहारो होदि । संपधि एगसमयपबद्धमस्सिदूण कदलीघादजणिदएगविगिदिगोवुच्छाए भागहारे भण्णमाणे · ताव कदलीघादक्कमो वुच्चदे- जीविदद्धमेत्तायामेण अवसेसआउहिदि आयामणे खंडिय तत्थ पढमखंडादो उवरिमबिदियखंड वियच्चासमकाऊण जहाठिदिसरूवेण पढमखंडपासे रचेदि । तदियादिखंडाणं पि रचणाविही एसो चेव । एवं कदे पढमखंडपढम. णिसेयादो बिदियखंडपढमणिसेगो जीविदद्धमेत्तगोउन्छविसेसेहि ऊो । तदियखंडपढमणिसेगो दुगुणिदजीविदद्धमेत्तगोवुच्छविसेसेंहि ऊणो । चउत्थखंडपढमणिसेगो तिगुणिदजीविदद्धमत्तगोवुच्छाविसेसेहि ऊणो । एवं णेदव्वं जाव चरिमखंडपढमणिसेगो त्ति । अप्पप्पणी पढमणिसेगादो बिदियादिणिसेगा गोवुच्छविसेसेणूणा । एदासिं समाणहिदिगोवुच्छाणं समूहा विगिदिगोवुच्छा णाम । संपहि जीविदर्तण अंतोमुहुत्तूणपुवकोडिअद्धाणे भागे हिदे खंडसलागाओ संखेज्जाओ आगच्छति । जेत्तियाओ खंडसलागाओ तेत्तियमेत्तगोवुच्छसमूहा प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनमें मिला देनेपर कदलीघातके प्रथम समय सम्बन्धी निषेकका भागहार होता है। अब एक समयप्रबद्धका आश्रय कर कदलीघातसे उत्पन्न हुई एक विकृतिगोपुच्छाके भागहारका कथन करनेएर पहिले कदलीघातका क्रम कहते हैं-उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर कदलीघातके समय तक जीवित रहनेका जो काल हैं उससे अर्ध मात्र आयामवाली शेष आयुस्थितिको आयामसे खण्डित कर उनमें से प्रथम खण्डसे उपरिम द्वितीय खण्डको उलटे बिना निषेकरचनाके अनुसार ही प्रथम खण्डके पास में स्थापित करता है । तृतीय आदि खण्डोंकी रचनाविधि भी यही है। इस प्रकार करनेपर प्रथम खण्डके प्रथम निषेकसे द्वितीय खण्डका प्रथम निषेक उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर कदलीघात होनेके समय तक जीवित रहनेका जो काल है उससे अर्ध मात्र गोपुच्छविशेषोंसे कम है। तृतीय खण्डका प्रथम निषेक दुगुने उक्त काल मात्र गोपुच्छविशेषोंसे कम है। चतुर्थ खण्डका प्रथम निषेक तिगुने उक्त काल मात्र गोपुच्छविशेषोसे कम है। इस प्रकार अन्तिम खण्डके प्रथम निषेक तक ले जाना चाहिये। तथा इन खण्डों में अपने अपने प्रथम निषेकसे द्वितीयादि निषेक एक एक गोपुच्छविशेष कम हैं। इस प्रकार इन समान स्थितिवाली गोपुच्छाओंके समूहोंका नाम विकृतिगोपुच्छा है। अब उक्त कालका अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण कालमें भाग देनेपर संख्यात शलाकायें आती हैं। इसलिये जितनी खण्डशलाकाये हों उतने मात्र , अ-आप्रत्योः 'पटमणिसेय' इति पाठः । २ भ-आ-काप्रतिषु 'भवसेसा आउछिदि आयामेण', ताप्रती बसेसवाद्विदिआयामेण' इति पाठः । ३ताप्रती 'बियरचा समकाऊण' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'विसेसणा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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