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________________ ५, २, ४, ४६.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त [२५१ विगिदिगोवुच्छा त्ति घेत्तव्वा । एदिस्से विगिदिगोवुच्छाए आणयणं वुच्चदे । तं जहापढमखंडपढमणिसेयस्स भागहारं खंडसलागाहि ओवट्टि विरलिय समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि कदलीघादखंडसलामामेत्तपढमणिसेगा समाणा होदूण पावेंति । पुणो जहासरूवेण आगमणमिच्छामो त्ति हेट्ठा पयदपढमगोवुच्छणिसेगभागहारं खंडसलागाहि गुणिदं विरलिय एगरूवधरिदपमाणमणं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि एगेगविसेसो पावदि । एदं च णिच्छिज्जदिति अंतोमुहुत्तादिअंतोमुहुत्तुत्तरसंखेज्जगच्छसंकलणाए संखेज्जपुवकोडिमेत्ताए पुबिल्लभागहारमोवट्टिय विरलेद्ण उवरिमेगरूवधरिदपमाणमण्णं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि पुव्विल्लसंकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा पावेति । एदे उवरिमविरलणसव्वरूवारदेसु पुध पुध अवणदेव्वा । अवणिदसेसं विगिदिगोवुच्छा होदि । पुणो अव गोपुच्छसमूहों का नाम विकृतिगोपुच्छा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। विशेषार्थ ~ आयुका उत्कृष्ट आवाधाकाल भुज्यमान आयुके तृतीय भाग प्रमाण होता है । प्रकृतमें कदलीघात और आयुबन्धका समय एक है, अर्थात् जिस समय कदलीघात होता है उसी समयसे आसुबन्धका प्रारम्भ होता है, अतः आयुबन्धके समयसे लेकर जो एक तृतीय भाग प्रमाण आयु शेष रही, उतने प्रमाणवाले अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि प्रमाण आयुस्थिति के खण्ड करना चाहिये। इस प्रकार जितने खण्ड हों उन्हें एकके सामने दूसरेको स्थापित करना चाहिये । ऐसा करनेसे जो गोपुच्छा बनेगी वह विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण होगा, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस विकृतिगोपुच्छ के लाने के विधानको कहते हैं । यथा-प्रथम खण्ड सम्बन्धी प्रथम निषेकके भागहारको खण्डशलाकाओंसे अपवर्तित करने पर जो प्राप्त हो उसका विरलन कर समयबद्धको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलन अंकके प्रति कदलीघातकी खण्डशलाका मात्र प्रथम निषक समान होकर प्राप्त होते हैं । फिर चूंकि यथास्वरूपसे लाने की इच्छा करते हैं अतः नीचे खण्डशलाकाओंसे गुणित ऐसे प्रकृत प्रथम गोपुच्छके निषेकभागहारका विरलन कर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त एक अन्य राशिको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है। यह चूंकि निःशेष क्षीण होता है अतः अन्तर्मुहूर्तसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिकके क्रमसे संख्यात गच्छसंकलनाले, जो कि संख्यात पूर्वकोटि मात्र है, पूर्वोक्त भागहारको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसका विरलन कर उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त एक अन्य प्रमाणको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति पूर्वोक्त संकलन मात्र गोयुच्छविशेष प्राप्त होते हैं । इनको सव उपरिम विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिमेंसे अलग अलग घटाना चाहिये। ऐसा करने पर जो शेष रहे वह , मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'विछाजवि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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