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________________ ४, २, ४, १६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [२४९ ज्जदिभागो आगच्छदि । एसो एगसमयपबद्धादो पगडिसरूवेण गलिदो । एगसमयपबद्धस्स जदि एत्तियं पगडिसरूवेण गलिददव्वं लब्भदि तो उक्कस्सबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए आवलियाए संखेज्जदिभागमेत्ता पगडिसरूवेण गलिदसमयपबद्धा लभंति, उक्कस्सबंधगद्धाए आवलियसलागाहि गुणिदचडिदद्धाणावलियसलागाहिंतो पुव्वकोडीए आवलियसलागाणं संखेज्जगुणत्तादो । एदं पयडिसरूवेण गलिददव्वं पुध द्वविय पुणो विगिदिसरूवेण गलिददव्वपमाणपरिक्खा कीरदे । तं जहा- पढमणिसेयभागहारं विरलिय समयपबद्धं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि पढमणिसेयपमाणं पावदि । पुणो हेट्ठा णिसेयभागहारं कदलीघादपढमसमयादो हेट्ठिमअद्धाणेण ओवट्टि विरलिय पढमणिसेगं समखंडं करिय दिण्णे रूवूणचडिदद्धाणमेत्तगोवुच्छविसेसा पार्वति । पुणो एदेसु उरिमविरलणरूवधरिदेहितो अवणिदेसु इच्छिदणिसेगपमाणं होदि । पुणो अवणिदविसेसेसु वि तप्पमाणेण कीरमाणेसु लद्धसलागाण पमाणं वुच्चदे । तं जहा-- रूवूणहेट्ठिमविरलणमेत्तविसेसाणं जदि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि तो प्रबद्ध का संख्यातवां भाग आता है। यह एक समयबद्ध मेंसे प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण हुआ द्रव्य है। एक समयबद्धका प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण हुआ द्रव्य यदि इतना प्राप्त होता है, तो उत्कृष्ट बन्धककाल मात्र समयप्रबद्धोका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छा राशिको अपवर्तित करनेपर आवलीके संख्यातवें भाग मात्र प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं, क्योंकि, उत्कृष्ट बन्धककालकी आवलीशलाकाओंसे गणित ऐसी चढ़ित अध्वानकी आवलीशलाकाओसे पर्वकोटिकी आवलीशलाकायें .संख्यातगुणी हैं। इस प्रकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यको पृथक् स्थापित कर पुनः विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यके प्रमाणकी परीक्षा की जाती है। यथा-प्रथम निषेकभागहारका विरलन कर समयप्रवद्धको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर उसके नीचे कदलीघातके प्रथम समयसे नीचे के कालके प्रमाणसे भाजित निषेकभागहारका विरलन कर प्रथम निषेकको समखण्ड करके देनेपर एक कम आगे गये स्थान मात्र गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। पश्चात् इनको उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिमेस घटा देने पर इच्छित निषेकका प्रमाण होता है । पश्चात् कम किये गये विशेषोंको भी उक्त प्रमाणसे करनेपर प्राप्त हुई शलाकाओंका प्रमाण कहते हैं। यथा- एक कम अधस्तन विरलन मात्र विशेषों की यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलन मात्र विशे|का क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार ........................... १ प्रतिषु 'अद्ध ' इति पाठः। छ.वे. ३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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