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१, २, ४, १८८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [ ४८१
एसा अणंतरोवणिधा किमट्ठमागदा ? एदाणि सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तजोगट्ठाणाणि किं विसेसाहियकमेण द्विदाणि किं संखेज्जगुणकमेण किमसंखेज्जगुणकमेण किमणंतगुणकमेण द्विदाणि त्ति पुच्छिदे एदेण कमेण ट्ठिदाणि त्ति जाणावणढे अणंतरोवणिधा आगदा। जहण्णए जोगट्ठाणे फद्दयाणि थोवाणि त्ति भणिदे एत्थ फद्दयसंखा किं चरिमफद्दयपमाणेणे किं ठाणस्स दुचरिमफद्दयपमाणेण एवं गंतूण किं ठाणस्स जहण्णफद्दयपमाणेण किं जहासरूवेण हिदफद्दयपमाणेण घेप्पदि त्ति ? ण ताव चरिमफद्दयपमाणेण दुचरिमादिफद्दयपमाणेण च जहासरूवेण विदफद्दयपमाणेण च फद्दयसंखा घेप्पदे, किंतु जहण्णजोगट्ठाणजहण्णफद्दयपमाणेण फद्दयसंखा घेत्तव्वा । कधमेदं णव्वदे ? जहण्णट्ठाणफद्दएहितो बिदियजोगट्ठाणफद्दयाणमण्णहा विसेसाहियत्ताणुववत्तीदो । जहण्णट्ठाणचरिमफद्दयपमाणेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु फद्दएसु जहण्णट्ठाणम्मि वड्डिदेसु बिदियजोगट्ठाणं उप्पज्जदि त्ति किण्ण
शंका- यह अनन्तरोपनिधा किसलिये प्राप्त हुई है ?
समाधान-श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र ये योगस्थान क्या विशेषाधिक क्रमसे स्थित हैं, क्या संख्यातगुणे क्रमसे स्थित हैं, क्या असंख्यातगुणे क्रमसे और क्या अनन्तगुणे क्रमसे स्थित हैं; ऐसा पूछनेपर- वे इस क्रमसे स्थित हैं, इसके ज्ञापनार्थ अनन्तरोपनिधा प्राप्त हुई है।
शंका- जघन्य योगस्थानमें स्पर्धक स्तोक है, ऐसा कहनेपर यहां स्पर्धकसंख्या क्या स्थान सम्बन्धी चरम स्पर्धकके प्रमाणसे, क्या द्विचरम स्पर्धकके प्रमाणसे, इस प्रकार जाकर क्या स्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे और क्या यथास्वरूपसे स्थित स्पर्धकके प्रमाणसे ग्रहण की जाती है ?
__ समाधान- उक्त स्पर्धकसंख्या न चरम स्पर्धकके प्रमाणसे, न द्विचरम स्पर्धकके प्रमाणसे और न यथास्वरूपसे स्थित स्पर्धकके प्रमाणसे ही ग्रहण की जाती है, किन्त वह जघन्य योगस्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे ग्रहण की जाती है।
शंका-यह कैसे जाना जाता है?
समाधान- चूंकि, जघन्य स्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंकी अपेक्षा द्वितीय योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंके विशेषाधिकपना अन्यथा बन नहीं सकता, अतः इसीसे जाना जाता है कि उक्त स्पर्धकसंख्या जघन्य योगस्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे ग्रहण की गई है।
शंका-जघन्य स्थान सम्बन्धी चरम स्पर्धकके प्रमाणसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र स्पर्धकोंके जघन्य स्थानमें बढ़ जानेपर द्वितीय योगस्थान उत्पन्न होता है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ?
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' -फद्दयपरूवगेण ' इति पाठः । छ. के. ६१.
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