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________________ १८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४,१८८. घेप्पदे ?ण, जोगद्वाणम्मि जहण्णेण उक्कड्डिज्जमाणे चरिमफहयादो असंखेज्जदिभागमेत्ताणि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजहण्णजोगट्ठाणजहण्णफयाणि होति त्ति गुरूवएसादो णबदे'। बिदियजोगट्ठाणम्मि फद्दयविण्णासवड्डी णत्थि दोसु वि द्वाणेसु फद्दयाणि सरिसाणि त्ति । तदो जहण्णजोगट्ठाणफद्दयाणि थोवाणि त्ति भणिदे जहण्णजोगट्ठाणं जहण्णफद्दयमाणेण कदे उवरिमजोगट्ठाणजहण्णफद्दएहिंतो थोवाणि फद्दयांणि होति त्ति भणिदं होदि । जहण्णफद्दयाविभागपडिच्छेदेहि जहण्णजोगट्ठाणअविभागपडिच्छेदेसु भागे हिदेसु णिरग्गं होदूण सिज्झदि त्ति कधं णव्वदे ? जहण्णफद्दय-जहण्णजोगट्ठाणाविभागपडिच्छेदाणं कदजुम्मत्तदसणादो। क, तेसिं कदजुम्मत्तं णव्वदे ? अप्पाबहुगदंडयादो । तं जहा- सव्वत्थोवा तेउकाइयाणमण्णोण्णगुणगारसलागाओ । तेउकाइयवग्गसलागाओ असंखेज्जगुणाओ। तेसिमद्धछेदणयसलागाओ संखेज्जगुणाओ। तेउकाइएसु जहण्णेण पवेसया जहण्णण तत्तो णिग्गच्छमाणा च जीवा दो वि तुल्ला असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया पवेसणा उक्कस्सिया ...................... .............. समाधान-नहीं, क्योंकि, योगस्थानमें जघन्यसे उत्कर्षण होनेपर चरम स्पर्धककी अपेक्षा असंख्यातवें भाग मात्र होकर भी अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य योगस्थान सम्बन्धी जघन्य स्पर्धक होते हैं, इस प्रकार गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि द्वितीय योगस्थानमें स्पर्धकविन्यासकी वृद्धि नहीं है, किन्तु दोनों ही स्थानोंमें स्पर्धक समान हैं। इसीलिये जघन्य योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धक स्तोक हैं, ऐसा कहनेपर जघन्य योगस्थानको जघन्य स्पर्धकके प्रमाणसे करनेपर उपरिम योगस्थानों के जघन्य स्पर्धकोंकी अपेक्षा वे स्तोक हैं, यह अभिप्राय है। शंका-जघन्य स्पर्धक सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छे होंका जघन्य योगस्थानके अविभागप्रतिच्छेदों में भाग देनेपर निरग्र होकर सिद्ध होता है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- क्योंकि, जघन्य स्पर्धक और जघन्य योगस्थान सम्बन्धी अवि. भागप्रतिच्छेदोंके कृतयुग्मपना देखा जाता है । अतः इसीसे वह जाना जाता है। शंका- उनका कृतयुग्मपना कैसे जाना जाता है ? समाधान-वह अल्पबहुत्वदण्डकसे जाना जाता है । यथा-तेजकायिक जीवोंकी अन्योन्यगुणकारशलाकायें सबमें स्तोक हैं । उनसे तेजकायिक जीवोंकी वर्गशलाकायें असंख्यातगुणी हैं। उनसे उनकी अर्धच्छेदशलाकायें संख्यातगुणी हैं। तेजकायिक जीवों में जघन्यसे प्रविष्ट होनेवाले व उनमेंसे निकलनेवाले जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले व उत्कर्षसे निकलनेवाले दोनों ही तुल्य होकर उनसे १ अ-आप्रत्योः 'णव्वदे', का-मप्रत्योः ‘णन्जदे', तापतौ ‘णव्व (घेप्प) दे' इति पाठः २ अ-आकाप्रतिषु 'जोगट्ठाणाणिविभाग इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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